आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2
प्रवचन-इक्कीसवां- सजगता के दीप
चैतन्य के सूर्य में स्थित होना ही एक मात्र दीपक हैएक दिन एक स्त्री मुल्ला नसरुद्दीन की पाठशाला में आई। उसके साथ उसका एक छोटा बच्चा भी था। उस स्त्री ने मुल्ला को उस लड़केको डराने के लिए कहा। वह लड़काबिगड़गया था और किसी की नहीं सुनता था। उसे किसी बड़ेअधिकारी के द्वारा डराने की जरूरत थी। मुल्ला वाकई अपने गाँव में एक बडा अघिकारी था। उसने एक बडी भयावह भाव-भंगिमा बनाई। उसकी आँखें बाहर निकल आईं और-उनसे आग निकलने लगी और वह स्वयं भी कूदने लगा, उस स्त्री ने देखा कि अब मुल्ला को रोकना असंभव है। वह तो बच्चे की जान ही लेने लगा वह स्त्री तो बेहोश हो गई, लड़काअपनी जान बचाकर भागा, और मुल्ला खुद इतना डर गया कि वह भी स्कूल से बाहर भाग गया। वह बाहर ठहरा रहा और वह स्त्री वापस होश में आई। तब मुल्ला धीरे से, चुपचाप गंभीर होकर भीतर दाखिल हुआ। उस स्त्री से कहा, ‘‘मुल्ला गजब कर दिया! मैंने तुम्हें मुझे डराने केलिए तो नहींकहा था।
‘‘मुल्ला वे जवाब दिया-‘‘तुम्हें असली बात का पता नहीं। केवल तुम्हीं नहींडर गई बल्कि मैं भी अपने-आपसे डर गया। जब भय पकड़लेता है तो वह सब कुछ नष्ट कर देता है। उसे प्रारंभ करना सरल है, किन्तु उसे नियंत्रित करना कठिन है। जब मैंने उसे प्रारंभ किया तो मैं उसका मालिक था, लेकिल शीघ्र ही भय मुझ पर सवार हो गया, और वह मालिक हो गया और मैं उसका गुलाम, तब मैं कुछ नहीं कर सकता था। और, भय के कोई अपने नहीं होते। जब वह पोट पहुँचाता है, तो सबको ही पहुँचाता है।।’’
यह एक बडी सुन्दर कहानी है जो कि मनुष्य के मन के बारे में एक बडी गहरी अंतर्दृष्टि बतलाती है। तुम हर चीज़के बारे में केवल प्रारंभ में सजग होते हो, और फिर बाद में अचेतन कब्जा ले लेता है। अचेतन अधिकार जमा लेता है और अचेतन ही फिर मालिक हो जाता है। तुम क्रोध शुरू कर सकते हो, परन्तु तुम उसे कभी खतम नहीं कर सकते। बल्कि क्रोध ही तुम्हें रामाप्त कर देत्ता है। तुम किसी भी बात को प्रारंभ कर सकते ही, लेकिन जल्दी या बाद में अचेतनअपना अधिकार कर लेता है और तुम्हारी छुटूटी हो जाती है। इसलिए केवल प्रारंभतुम्हारे हाथ में है, अन्त कभी भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। और जो भी परिणामउससे होंगे, उसके तुम मालिक नहीं हो।
यह स्वाभाविक है, क्योंकि तुम्हारे मन का केवल एक बहुत छोटा-सा हिस्साही जागा हुआ है। वह मोटरकार में सिर्फ एक स्टार्टर की भाँति है। वह केवलस्टार्ट करता है, और उसके बाद वह किसी भी काम का नहीं है। उसके बादमोटर कब्जा। ले लेती हैं। उसकी जरूरत केवल चालू करने के लिए है। उसकेबिना चालू करना कठिन-है। लेकिन यह मत सोचो की चूँकि तुम किसी चीजको चालू करत्ते हो, तो तुम उसके मालिक हो। यही इस कहानी का रहस्य हैचूँकि तुमने चालूकर दिया, तुम सोचने लगते होकि तुम उसे बन्द भी कर सकते हो।
ऐसा हो सकता था कि तुम प्रारंभ ही न करते, वह दूसरी बात है। लेकिनएक बार प्रारंभ करने के बाद ऐच्छिक-अनैच्छिक ही जाता है और चेतन अचेतनही जाता है, क्योंकि चेतन केवल ऊपरी पर्त है-मन की ऊपरी सतह और करीब-करीब सारा मन ही अचेतन है। तुम शुरू करो और अचेतन गति करने लगताहै और काम करने लगता है।
इसलिए मुल्ला ने कहा, ‘‘मैं बिल्कुल जिम्मेवार नहींहूँ। जो कुछ भी हुआ, उसके लिए मैं जिम्मेवार नहीं हूँ। मैं केवल प्रारंभ करने के लिए जिम्मेवार हूँऔर तुमने ही मुझे प्रारंभ करने के लिए कहा था। मैंने बच्चे को डराना प्रारंभकर दिया, और तब बच्चा डर गया और तुम मूच्छित हो गई, और तब मैं भीडर गया, और उसके बाद सब गड़बड हो गयी।
हमारे जीवन में भी सभी कुछ गड़बड़ है-इस चेतन मन के, प्रारंभ करनेके कारण और फिर अचेतन मन के उस पर अधिकार करने के कारण। यदि तुमइसे अनुभव नहीं कर सकते और यदि तुम इसे नहीं जान सकते-इस यांत्रिकताको, तो फिर तुम सदा के लिए गुलाम रहोगे। और यह गुलामी आसान हो जातीहै, यदि तुम सोचते रहो कि तुम मालिक हो। जानते हुए गुलाम होना कठिनहै। गुलाम होना सरल है, यदि तुम अपने को धोखा देते चले जाओ कि तुम मालिकहो, अपने प्रेम के, अपने क्रोध के, अपने लोभ के, अपनी ईर्ष्या के, अपनी हिंसाके, अपनी निर्दयत्ता के, यहाँ तक कि अपनी सहानुभूति व अपनी करुणा के।
मैं कहता हूँ-तुम्हारे, किन्तु यह ‘तुम्हारे’ केवल प्रारंभ में ही है। सिर्फ क्षणभर के लिए, केवल एक चिनगारी ही तुम्हारी है। और तब तुम्हारी यांत्रिकता शुरूहो जाती है और तुम्हारी सारी यांत्रिकता मूच्छित है। ऐसा क्यों? यह चेतनऔर अचेतन में द्वन्द्व क्यों है? और द्वन्द्व है। तुम अपने बारे में पहले से कुछनहीं कह सकते। यहाँ तक कि तुम, तुम्हारे कृत्य भी तुम्हें पहले से पता नहींहै क्योंकि तुम नहीं. जानते कि क्या होने वाला है। तुम्हें पता ही नहीं कि तुमक्या करने वाले हो। तुम्हें यह भी मालूम नहीं कि दूसरे क्षण तुम क्या करने वालेहो क्योंकि करने वाला तो भीतर बहुत गहरे अचेतन में छिपा है। तुम कर्ता नहींहो। तुम केवल प्रारंभ करने वाले एक बिन्दु हो। जब तक कि तुम्हारा सारा अचेतनही चेतन न हो जाये तुम स्वयं अपने लिए भी एक समस्या ही रहोगे और एकनर्क बनोगे। सिवाय दुःख के और कुछ भी वहाँ न होगा।
जैसा कि मैं हमेशा जोर देता हूँ कि कोई दो ही तरीकों से समग्र हो सकताहे। पहला कि तुम अपनी आंशिक चेतना को भी खो दो, इस छोटे से चेतन केटुकडे को भी अचेतन में फेंक दो, उसमें मिला दो, और तब तुम समग्र हो जातेहो। लेकिन तब तुम एक पशु की तरह समग्र हो जाते हो, और वह असंभव हैतुम कुछ भी करो, वह संभव नहीं है। यह सोचा जा सकता है, किन्तु संभवनहीं है तुम बार-बार आगे की ओर फेंक दिये जाओगे।
वह छोटा-सा हिस्सा जो कि चेतन हो गया है, पुनः अचेतन नहीं हो सकतायह एक अण्डे को भाँति है जो कि मुर्गी हो गया है। अब मुर्गी वापस लौटकरअण्डा नहीं हो सकती। एक बीज जो कि अंकुरित हो चुका वह वृक्ष होने कीयात्रा में निकल गया। अब वह वापस नहीं लौट सकता। वह फिर लौटकर एकबीज नहीं बन सकता। एक बच्चा जो कि माँ के गर्भ से बाहर आ गया, अबबापस लौट कर नहीं जा सकता, चाहे गर्भ कितना ही आनन्दपूर्ण रहा हो।
पीछे लौटना कभी नहीं होता जीवन सदैव भविष्य में गति करता है, अतीतमें कभी भी नहीं। केवल आदमी अतीत की बात सोच सकता है। इसलिए मैंक्या हूँ कि यह सोचा जा सकता है, किन्तु इसे वास्तविक रूप नहीं दिया सकतातुम कल्पना कर सकते हो, तुम सोच सकते होतुम उसमें विश्वास कर सकतेतो, तुम उसमें लौटने का प्रयत्न भी कर सकते हो, किन्तु तुम लौट नहीं सकते वहबिल्कुल असंभव है। व्यक्ति को आगे ही बढ़ना पड़ता है। यह दूसरा मार्गहै समग्र होने का।
जाने या अनजाने, हर क्षण कोई आगे ही बढ़ रहा है। यदि तुम जानते हुएआगे बढ़ते हो, तो तुम्हारी गति बंढ़ जाती है। यदि तुम जानते हुए बढ़ रहे हो, तो फिर तुम समय और शक्ति नष्ट नहीं करते। तब वह बात एक जीवन में ही पूरी हो सकती है, जो कि लाखों जीवनों में भी पूरी नहीं होगी, यदि तुम बिना जाने बढ रहे हो। क्योंकि यदि तुम चिना जाने ही बढ रहे हो तो-तुम एक वर्तुल में ही बढ़ोगे। हर दिन तुम वही पुनरुवत करते हो, प्रत्येक जीवन में तुम वही-का-वही दोहराते हो। और जीवन मात्र एक आदत बन जाती है-एक यांत्रिकआदत, एक पुनरुक्ति।
यदि तुम जानते हुए, होशपूर्वक आगे बढ़ो तो तुम इस पुनरुक्ति की आदतको तोड़ सकते हो। इसलिए पहली बात तो यह ध्यान में लेने जैसी है कि तुम्हारीसजगता इतनी छोटी-सी है कि वह केवल प्रारंभ करने के लिए है। जब तककि तुम्हारे पास असजगता कम और सजगता ज्यादा न हो, अचेतना कम और चेतना ज्यादा न हो, सन्तुलन नहीं बदलेगा। उसमें क्या-क्या बाधाएँ हैं? ऐसी स्थिति क्यों है? यह तथ्य आखिर क्यों है? यह चेतन और अचेतन में द्वन्द्व क्यों है? इसे जानना पड़ेगा।
यह स्वाभाविक है। जो कुछ भी है वह स्वाभाविक है। मनुष्य लाखों वषों में विकसित हुआ है। इस विकास ने ही तुम्हें निर्मित किया है, तुम्हारे शरीर कोतुम्हारी संरचना को। यह विकास एक लम्बा संघर्ष रहा है। हजारों-लाखों सालोंकी विफलताओं, सफलताओं के अनुभव का। तुम्हारे शरीर ने बहुत कुछ सीखाहै। तुम्हारा शरीर लगातार बहुत कुछ सीखता जा रहा है। तुम्हारे शरीर का अथाहज्ञान उसकी कोषिकाओं में स्थित है, तुम्हारे मन में नहीं। वह अपने ही हिसाबसे अपना व्यवहार पुनरुक्त करता चला जाता है। यदि स्थिति भी बदल जाये तोभी शरीर वही रहता है। उदाहरण के लिए, जब तुम क्रोधित होते हो, तो तुमउसी भाँति अनुभव करते हो जैसे कि कोई भी आदम पुरुष। तुम उस वैसे हीमहसूस करते हो, जैसे कि कोई भी पशु। तुम उसे वैसे ही अनुभव करते हो जैसे कि कोई भी बच्चा। और यही यांत्रिकता है। जब तुम क्रोधित होते हो तब तुम्हारेशरीर का एक निश्चित ढंग है एक निश्चित क्रियाकाण्ड है।
जिस क्षण भी तुम्हारा मन कहता है ‘क्रोध’-उसी वक्त तुम्हारे शरीर में जो ग्रंथियां हैं, वे रक्त्त में रासायनिक द्रव्य छोड़देती हैं। एड्रीनल तुम्हारे रक्तमें छूट जाता है। इसकी जरूरत है क्योंकि क्रोध में तुम्हें या तो चोट करनी पडेगी, या विरोधी द्वारा तुम पर चोट पडेगी। तुम्हें अधिक रक्त-के दौरे की आवश्यकताहै और यह रासायनिक द्रव्य खून के दौरे कोतेज़करने में मदद करेगा। या तोतुम्हें लड़ने की जरूरत पडेगी, या तुम्हें मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना पड़ेगादोनों ही स्थितियों में यह रसायन मदद करेगा। इसलिए जब भी कोई पशु क्रोधमें होता है, तो शरीर या तोलड़नेके लिए तैयार हो जाता है या फिर भागनेके लिए। और ये ही दो विकल्प हैं-यदि पशु सोचता है कि वह विरोधी सेज्यादा ताकतवर है, तो वह लडेगा, और यदि वह सोचता है कि वह कमजोरहै, तो वह भाग जायेगा। और यह यांत्रिकता बडी सरलता से चलती है।
परन्तु मनुष्य के लिए यह स्थिति बिल्कुलभिन्न हो गई है। जब तुम्हें क्रोधआ रहा है, तुम उसे चाहो तो व्यवत्त नहीं भी करो। पशु के लिए ऐसा करनाअसंभव है। यह स्थिति पर निर्भर है। यदि-वह तुम्हारे नौकरों के प्रति है, तोतुम उसे व्यक्त कर सकते हो लेकिन, यदि वह तुम्हारे मालिक के खिलाफ है, तो तुम उसे व्यक्त भी नहीं कर सकते। इतना ही नहीं बल्कि तुम हँस भी सकतेहो; मुस्करा सकते हो। तुम अपने मालिक कोफुसला सकते हो कि तुम क्रोधिततो हो ही नहीं, बल्कि तुम तो प्रसन्न हो। अब तुम शरीर की सारी यांत्रिकता को गड़बड़ किये दे रहे हो। शरीर तोलड़नेके लिए तैयार है, और तुम मुस्करा रहेहो। तुम सारे शरीर में एक भारी गडबडी उत्पन्न कर रहे हो। शरीर नहीं समझसकत्ता कि तुम क्या कर रहे हो। क्या तुम पागल हो? वह दो में से एकबात करने के लिए तत्पर है जो कि स्वाभाविक है-लड़ना या भागना।
यह मुस्कराना एक नई बात है। यह प्रवंचना कुछ नई घटना है, शरीर केपास इसके लिए कोई मैकेनिज्म, कोई संयंत्र नहीं है। शरीर में तो प्रसन्नत्ता केकोई रसायन नहीं छूट रहे हैं, लेकिन फिर भी तुम ऊपर से मुस्कुराते हो। हँसनेके लिए अभी वहां कोई स्सायन नहीं है। तुम्हें जबरदस्ती मुस्कुराहट लानी पड़तीहैं-एक झूठी मुस्कुराहट, और शरीर ने लड़ने के लिए रक्त में स्सायन छोड़ दियाहैं। अब रक्त क्या करेगा? शरीर की अपनी ही भाषा है, जिसे वह भलीभाँतिसमझता है किन्तु तुम बड़े ही पागलपन का, विक्षिप्तता का व्यवहार कर रहे हो। अब तुममें और तुम्हारे शरीर में एक गैप, एक अन्तराल पैदा हो जाता है। शरीरकी यह यांत्रिकता अचेतन है, यह यांत्रिकता अनैच्छिक है। तुम्हारी इच्छा, तुम्हारीमर्जी की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हारी मर्जी, तुम्हारे संकल्प को समयकी आवश्यकता पडे़गी और ऐसी स्थितियाँ होती हैं जिनमें कि समय ज़राभीनहीं खोया जा सकता।
एक चीते ने तुम पर हमला कर दिया है, अब सोचने के लिए तुम्हारे पाँच समय नहीं है। तुम विचार नहीं कर सकते कि तुम्हें क्या करना है। तुम्हें बिनामन से सलाह किये ही कुछ करना पड़ेगा। यदि बीच में मन आ जाये, तो तुमगये। तुम विचार नहीं कर सकते, तुम चीते से नहीं कह सकते कि ‘‘ठहरो, जरा मुझे सोच लेने दो कि मुझे वया करना चाहिए।’’ तुम्हें तुरन्त कुछ करना पड़ेगाबिना किसी सजगता के।
शरीर की अपनी एक यांत्रिकता है। चीता मौजूद है और मन जान रहा हैकि वह वहाँ है। शरीर की यांत्रिकता अपना कार्य करना शुरू कर देती है। वहकार्य करना मन पर-निर्भर नहीं है क्योंकि मन बहुत धीरे काम करने वाला है-बहुत ही अकुशल है संकटकालीन अवस्था में उस पर भरोसा नहीं किया जा सकत्ता, इसलिए शरीर अपना कार्य करने लगता है। तुम भयभीत होगये हो, तो तुम भाग जाओगे, तुम बच निकलोगे।
लेकिन वही बात तब भी होती है जबकि तुम मंच पर एक भारी भीड़को भाषण देने के लिए खड़े होते हो। वहाँ कोई भी चीता नहीं है, परन्तु तुम भारी भीड़ को देखकर डर गये हो। भय रूप लेने लगता है. शरीर को खबर पहुँच गई है। यह खबर कि तुम डर गये हो, यह स्वचालित है। शरीर रसायन छोड़नाशुरू कर देता हे-वे ही रसायन जो चीता आप पर हमला करने वाला हो तब छूटते हैं। वहाँ पर कोई शेर-चीत्ता नहींहै। वहाँ सचमुच कोई भी नहीं है जो कि आप पर आक्रमण कर रहा हो। परन्तु ऐसा लगता है जैसे कि श्रोत्ताओं की भीड़-तुम पर हमला कर रही है। वहाँ जो भी मौजूद है वे सब आक्रामक हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए तुम भयभीत ही गये हो।
अब शरीर तैयार है, लड़ने के लिए अथवा भाग खड़े होने के लिए, परन्तुदोनों ही रास्ते बन्द हैं। तुम्हें वहाँ खड़ा होना है और बोलना है। अब तुम्हारे शरीर को पसीना छूटने लगता है, सर्द रात में भी। क्यों? तैयार है, लड़ने के लिए अथवाभागने के लिए। रवत तेजी से दौरा कर रहा है, गर्मी उत्पन्न हो गई है, और तुम वहाँखड़े हो। इसलिए तुम पसीने-पसीने होने लगते हो, और तब एक सूक्ष्म कंपकपीदौड़ने लगती है। तुम्हारा सारा शरीर कांपने लगता है।
यह ऐसे ही होता है जैसे कि तुम कार को चालू करो और एक्सीलेटर भीदबाओ और साथ ही ब्रेक भी लगाओ। इंजन गर्म हो गया है, गति कर रहा हैऔर तुम ब्रेक भी लगा रहे हो। कार को सारी बॉडी कांपने लगेगी। वही बाततब भी होती है जबकि तुम मंच पर खड़े होते हो। तुम्हें भय लगत्ता है, औरशरीर भागने के लिए तैयार है। एक्सीलेटर दबा दिया गया है, परन्तु तुम भागनहीं सकते। तुम्हें एकत्रित लोगों को भाषण देना ही होगा। तुम नेता हो या कुछहो, तुम भाग नहीं सकते। तुम्हें सामना करना ही पडे़गा और तुम्हें वहाँ मंच पर खड़ा होना ही पड़ेगा। तुम बच नहीं सकते।
अब तुम दोनों बातें एक साथ कर रहे हो जो कि बड़ी विपरीत हैं। तुमएक्सीलेटर पर भी पाँव रखे हो और ब्रेक भी दबा रहे हो। तुम भागते नहीं होऔर तुम्हारा शरीर भगाने के लिए तैयार है। तुम कांपने लगते हो और गर्मी पैदाहो जाती है। अब तुम्हारा शरीर बडी हैरानी में पड़ा है कि तुम यह कैसा व्यवहारकर रहे हो। शरीर को तुम्हारी बात समझ में नहीं आती, एक अन्तराल पैदा होगया। अचेतन एक काम कर रहा है, और चेतन कुछ और करता चला जाता है तुम बंट गये। इस अन्तराल को, इस गैप कोठीक से समझ लेना चाहिए।
प्रत्येक कृत्य मेंयह गैप पैदा हो जाता है। तुम एक फिल्म देख रहे हो, एक कामोत्तेजित करनेवाली फिल्म, तुम्हारा काम जाग गया है। . तुम्हारा शरीर यौन-अनुभव में उतरकर फूटने कौ तैयार है, परन्तु तुम केवल फिल्म देख रहे हो तुम एक कुर्सी पर बैठे हो, और तुम्हारा शरीर काम-कृत्य में उतरने को तैयारहै। फिल्म उसे और अधिक उत्तेजित करने में सहायक होगी, वह तुम्हें और धक्केदेगी। तुम उत्तेजना से भर गये हो, किन्तु तुम कुछ कर नहीं सकते। शरीर कुछकरने के लिए तैयार है, परन्तु स्थिति अनुकूल नहीं है, इसलिए एक गैप निर्मितहो जाता है। तुम अपने को भिन्न ही समझने लगते ही और तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच एक बाधा खडी हो जाती है। इस बाधा के कारण त्तथा इस बार-बार की उत्तेजना व साथ ही दमन के कारण, इस गति देने व रोकने के कारण, यह सतत विरोध ही तुम्हारा अस्तित्व हो गया है, और तुम रुग्ण होगये हो।
यदि तुम पीछे गिर सको और पशु हो सको, जो किं कभी भी नहीं होसकता, जो कि असंभव है, तब तुम समग्र और स्वस्थ हो जाओगे। यह एक बड़ा ही विचित्र तथ्य है कि पशु अपनी स्वाभाविक स्थिति में रुग्ण नहीं परन्तु उन्हेंप्राणी-संग्रहालय में रख दो और वे मनुष्यों की बीमारियाँलेने लगते हैं। कोई भीपशु अपने प्राकृतिक वातावरण में अपनी नैसर्गिक अवस्था में होमो सेवसुअल(समलिंगी) नहीं होता, लेकिन उन्हें अजायब घर में रख दो और वे अजीब-अजीब मूर्खतापूर्ण कृत्य करने लगते हैं। वे समलिंगी संभोग करने लगते हैं। कोईभी पशु स्वाभाविक स्थिति में पागल नहीं होता, परन्तु अजायब घर में वे पागलहो जाते हैं। मनुष्य जाति के सारे इतिहास में ऐसा कभी उल्लेख नहीं किया गयाकि कभी किसी पशु ने आत्महत्या की हो लेकिन अजायब घर में पशु आत्म-हत्या करते हैं। यह बडी विचित्र बात है, परन्तु फिर भी वस्तुत्तः विचित्र नहींहैं, क्योंकि जैसे ही मनुष्य पशुओं को ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर करताहै, जो कि उनके लिए स्वाभाविक नहीं है, वे भीतर विभाजित हो जाते हैं। एकविभाजन निर्मित हो जाता है, एक गैप (अन्तराल) पैदा हो जाता है, और अखंडत्ताखो ही जाती है।
आदमी विभाजित है। आदमी विभाजित ही पैदा होता है। इसलिए फिर क्याकरें? कैसे इस अन्तराल को नहीं होने दें और कैसे शरीर के प्रत्येक कोष कोसजग करें? केसे शरीर के हर कोने को जगायें? कैसे जागरूकतालाये-यहीसारे धर्मों के लिए सारी समस्या है, सारे योग के लिए और सारी जागरण कीपद्धतियों के लिए कि कैसे इस सजगता-जागरूकता को तुम्हारे समग्र अस्तित्व तक ले जायें कि कुछ भी अचेतन न रह जाये।
बहुत-सी विधियों से प्रयत्न किया गया है, बहुत सी विधियाँ संभव है। अतः मैं कुछ विधियों पर बात करूँगा कि कैसे शरीर का प्रत्येक कोष सजग हो जाये। और जब तक कि तुम तुम्हारे समग्र रूप में जागरूक नहीं हो जाते, तुम आनन्दमैं नहीं हो सकते, तुम शान्ति में स्थापित नहीं हो सकते। तब तक तुम पागलखाना बने ही रहोगे।
तुम्हारे शरीर का प्रत्येक कोष तुम्हें प्रभावित कटता है। उसका अपना एककार्य है, उसका अपना एक प्रशिक्षण-अपना संस्कार है। जैसे ही तुम प्रारंभ करते हो, कोषअधिकार ले लेता हैऔर अपने ही तरीके से कार्य करने लगता है। तब तुम अशान्त हो जाते हो। तुम सोचते हो कि यह क्या हो रहा है? तुम्हें आश्चर्यहोता हैं कि ऐसा तो मेरा मतलब बिल्कुल नहीं था, ऐसा मैँने कतई नहीं सोचा था। और तुम सही हो तुम्हारी मर्जीबिल्कुल भिन्न रही हो सकती है। परन्तु एक बार तुम अपने शरीर को, उसके कोषों को कुछ करने के लिए दे देते हो तोअपनी ही तरह से उसे करते हैं-जैसी भी उनकी अपनी सिखावन है। इसीकारण से वैज्ञानिक-विशेषज्ञः रूसी वैज्ञानिक सोचते हैं कि हम आदमी को नहींबदल सकते जब तक कि हम उसके कोषों को नहीं बदल देते।
एक स्कूल है-बिहैवियरिस्टिक स्कूल-मनोवैज्ञानिकों का जो कि सोचताहै कि बुद्ध असफल हो गये, जीसस असफल होगये। वे असफल होंगे ही। उसमेंकुछ भी हैरानी की बात नहीं है क्योंकि बिना शरीर की संरचना को बदले, रासायनिकसंरचना को बदले, कुछ भी नहीं बदला जा सकता है कि बुद्ध असफल हो गये, जीसस असफल हो गये। वे असफल होंगे ही। उसमें कुछ भी हैरानी की बात नहीं है क्योंकि बिना शरीर की संरचना को बदले, रासयनिक संरचना को बदले, कुछ भी नहीं बदला जा सकता।
ये बिहैबियरिस्टिक-वाट्सन, पावलव, स्कोनर-कहते हैं कि यदि बुद्ध शांत हैं तो इसका मतलब यह है कि उनकी रासायनिक संरचना भिन्न है, और तो कोईबात हो नहीं सकती। यदि वे मौन हैं, यदि उनके चारों और शान्ति व्याप्त है, यदि वे कभी भी अशान्त नहीं होते, कभी क्रोधित नहीं होते तो इसका इतना हीमतलब है कि किसी भी तरह उनमें उन रसायनों का अभाव है जिनके कारणकि सारा उत्पात्त होता है, कि जो क्रोध को पैदा करते है। इसलिए स्कोनर कहताहै, आज नहीं कल हम रासायनिक तत्वों से बुद्ध को निर्माण कर लेंगे। किसीध्यान की कोई जरूरत नहीं है। किसी प्रकार की सजगता बढाने को कोई आवश्यकतानहीं है। केवल रसायनों को परिवर्तित करने की जरूरत है।
एक तरह से वह से सही हैं, किन्तु बहुत ही खतरनाक तरह से सहीहैं, क्योंकियदि तुम्हारे शरीर में से किन्हीं रसायनों को निकाल दिया जाये तो तुम्हारा व्यवहारबदल जायेगा। यदि किन्हीं विशेष हारमोन्स कोतुम्हारे शरीर में डाल दिया जाए, तो तुम्हारा व्यवहार बदल जाएगा। तुम पुरुष हो और तुम पुरुष की भाँति व्यवहारकरते हो। परन्तु यह तुम नहीं हो जो कि पुरुष की भाँति व्यवहार कर रहा हैयदि उन हारमोन्स को निकाल दिया जाये और दूसरे हारमोन्स जो कि स्त्री जाति के होते है, उन्हें डाल दिया जाये तो तुमस्त्री की तरह व्यवहार करने लगोगेइसलिए वस्तुतः यह तुम्हारा व्यवहार नहीं है, यह हारमोन्स के कारण है। ये तुमनहीं हो जो कि क्रोध करते हो, बल्कि एक विशेष हारमोन है तुम्हारे शरीर मेंऐसा नहीं है कि तुम शान्त हो और ध्यानी हो, बल्कि ये कुछ तुम्हारे भीतर हारमोन्स हैं।
स्कोनर कहता है-इसीलिए बुद्ध असफल हैं, क्योंकि वे उन बातों को कहतेचले जाते है, जो कि असंबद्ध हैं। तुम एक आदमी से कहते हो-क्रोध न करो, किन्तु वह ऐसे रासायनिक त्तत्वों से भरा है, हारमोन्स से, जो कि क्रोध पैदा करतेहैं। इसलिए एक बिहैबियरिस्ट के लिए यह ऐसा ही है-जैसे कि कोई आदमी तेज़बुखार में हो-एक सौ छह डिग्री बुखार-और आप उससे सुन्दर-सुन्दर बातेंकरते चले जाओ और कहो कि शान्त ही जाओ. ध्यान करो, बुखार को छोडो। यह बहुत अर्थहीन मालूम पड़ता है। वह आदमी क्या कर सकता है। जब तककि तुम उसके शरीर में कुछ परिवर्तन नहीं करते, बुखार रहेगा। ज्वर किसी वायरस के कारण है, किन्हीं रासायनिक तत्वों के कारण है। जब तक वह नहीं बदलजाता, जब तक कि उसको अनुपात में बदलाहट नहीं आती, वह ज्वर से पीडितरहेगा। और बात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यह बिल्कुल ही अर्थहीन है।
वही बात क्रोध के साथ है स्कोनर के लिए पावलव के लिए, वही बात सेक्स के साथ है। तुम ब्रह्मचर्य के बारे में बात करते चले जाते हो, और शरीरसेक्स की ऊर्जा से भरा है-सेक्स के कोषों से। वह सेक्स की ऊर्जा तुम परनिर्भर नहीं हैं, बल्कि तुम ही उस पर निर्भर हो। अतः तुम ब्रह्मचर्यं की बातें करते जाओ, लेकिन तुम्हारी इन बातों से कुछ भी न होगा। और वे लोग सहीहैं एक तहह से। लेकिन सिर्फ एक तरह से वे सहीं हैं, कि यदि रसायनों को बदल दिया जाये, यदि तुम्हारे शरीर से सारे सेक्स हारमोन्स को बाहर फेंक दिया जाये, तो तुम कामुक नहीं हो सकोगे। परन्तु तुम उससे बुद्ध नहीं हो जाओगेतुम केवल नपुंसक हो जाओगे, अयोग्य। तुममें कुछ कमी हो जायेगी।
बुद्ध में कुछ कमी नहीं हो गई है। बल्कि, इसके विपरीत, कुछ क्या और भी नवीन उनके जीवन में आ गया है। ऐसा नहीं है कि उनके सेक्स हारमोन्स नहीं हो गये हैं। वे उन में हैं। फिर क्या हो गया है उन्हें? उनकी चेतना गहरी होगयी है, और उनकी चेतना उनके सेक्स के कोषों में भी प्रवेश कर गई है। अब कामकोष तो हैं, किन्तु वे मनमानी नहीं कर सकते। जब तक केन्द्र उन्हें काम करने के लिए नहीं कहे, वे कुछ नहीं कर सकते, वे निष्क्रिय ही रहेंगे।
एक नपुसंक आदमी में काम-कोष नहीं होते। एक बुद्ध में वे मौजूद हैं औरक्या सामान्य आदमी से ज्यादा शक्तिशालीहैं-अधिक बलवान, क्योंकि वे कभी काम में नहीं लाये गये, बिना उपयोग किये पड़े हैं। उनमें ऊर्जा भरी है। उनमें ऊर्जा एकत्रित हो गईं है। परन्तु अब उनमें चेतना प्रवेश कर गई है। अब चेतनाआयल चालू करने वाला बिन्दु ही नहीं है बल्कि अब वह मालिक हो गई है।
आनेवाले समय में स्कोनर का प्रभाव हो सकता है। वेह एक बड़ी शक्ति बन सकता है। जैसे कि समाज की बाहरी अर्थ-व्यवस्था के लिए अचानक मार्क्स प्रभावशाली हो गया, उसी तरह किसी दिन भी पावलव-व स्कोनर भी आदमी के मन की भीतरी व्यवस्था के लिए शक्ति के केन्द्र हो सकते हैं। और वे जोभी कहते हैंउसे साबित कर सकते हैं। वे उसे सिद्ध कर सकते हैं। परन्तु इस घटना के दो पहलू हैं।
तुम एक बिजली का बल्ब देखते ही। यदि तुम बल्ब को तोड़ दो, तो प्रकाश विलीन हो जाएगा, न कि विद्युत चली जाएगी। वही बात तब भी होती है, जबकिगुण विद्युत के प्रवाह को काट देते हो-बल्ब तो साबुत होता है, किन्तु प्रकाश विलीन हो जाता है। अतः प्रकाश दो प्रकार से विलीन ही सकता है। यदि तुमबल्ब को तोड़ दो, विद्युत होगी. परन्तु तब कोई माध्यम के न होने के कारणजिसके द्वारा कि वह प्रकट होती है, वह प्रकाश नहीं बन पायेगी। यदि तुम्हारेकाम-कोषों को नष्ट कर दिया जाये, तब कामुकत्ता तो होगी, परन्तु कोई माध्यमनहीं होगा उसे प्रकट करने के लिए। यह एक पहलू है।
स्कीनर ने बहुत से पशुओं पर प्रयोग किये। किसी विशेष ग्रन्थि का आँपरेशनकरने से एक बहुत ही खूंखार कुत्ता बुद्ध की तरह शांत हो सकता है। वह चुपचापबैठ सकता है, जैसे कि ध्यानस्थ हो। तुम उसे फिर से खूंखार होने के लिए नहींउकसा सकते। तुम चाहे कुछ भी करो, किन्तु वह तुम्हारी ओर बिना किसी क्रोधके भाव के देखता रहेगा। ऐसा नहीं है कि कुता बुद्ध हो गया है, और न हीऐसी बात है कि उसका अन्तर्मन विलीन हो गया है। वह वैसा ही क्रोधी है, किन्तुअब माध्यम नहीं है जिसके द्वारा कि क्रोध व्यक्त हो सके। यह नपुसंकता है। माध्यम खो गया न कि वासना। यदि माध्यम को नष्ट कर दिया जाये, जैसे किबल्ब को तोड़ दिया जाये तो तुम कह सकते हो कि प्रकाश कहॉ है, और तुम्हारीविद्युत कहाँ है? वह विद्युत मौजूद है, परन्तु वह छिपी हुई है।
धर्म दूसरे ही मार्ग से काम करता रहा है। बल्ब को नष्ट करने की कोशिशनहीं करता है। वह मूर्खता की बात है, क्योंकि यदि तुम बल्ब को नष्ट कर दोगेतो तुम्हें उसके पीछे जो बिजली की घारा बह रही है उसका पता नहीं चलेगाधारा को ही बदल दो, उसका रूपान्तरण कर दो, घारा को एक नये ही आयाममें गति करने दो। और तब बल्ब भी वहाँजैसे-का्र-तैसा मौजूद रहेगा, परन्तु उसमेंकोई प्रकाश नहीं होगा।
मैँने कहा कि स्कोनर प्रभावशाली हो सकता है क्योंकि वह एक बहुत सरल मार्ग बतलाता है। तुम क्रोधी हो, तुम्हारा आँपरेशन किया जा सकता है, तुम कामुकहो, और तुम्हारा आँपरेशन किया जा सकता है। तुम्हारी समस्या का समाधान तुम्हारेद्वारा न होगा बल्कि एक सर्जन के द्वारा किया जाएगा-किसी और के द्वारा। औरजब कभी भी कोई और तुम्हारी समस्या का समाधान करता है तो तुमने एक अवसरखो दिया, क्योंकि जब तुम स्वयं उसका समाघान करते हो, तो तुम विकसित होतेहो। जब कोई और उसका समाघान करता है तो तुम तो वही-के-वही रहते होसमस्या शरीर के द्वारा कर दी जायेगी और फिर कोई समस्या नहीं होगी। परन्तु तब तुम मनुष्य न रह जाओगे।
घर्म का सारा जोर चेतना को रूपान्तरित करने पर है। और पहली बात भीतर
चेतना को एक बडी शक्ति पैदा कर लेनी है ताकि उससे सजगता और अधिक
बढ़सके। यह सूत्र बडा ही अनूठा है। यह कहता है कि...
‘‘चैतन्य के सूर्य में स्थित होना ही एक मात्र दीपक है।’’
सूर्य हमेशा बहुत दूर है। प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में दस मिनट लगतेहै, और प्रकाश बहुत तेज़गति से चलता है-1, 86, 000 मील प्रति सेकंड की गति से। सूर्य को पृथ्वी तक पहुँचने में दस मिनट लगते है, वह बहुत दूर है। परन्तु सुबह सूर्य उगता है और वह तुम्हारे बाग में खिले फूल तक भी पहुँच जाता है।
पहुँचने का यहाँ भिन्न ही अर्थ है। केवल किरणें पहुँचती हैं, न कि सूर्य। इसलिए यदि तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारे भीतर गहरे में केन्द्र पर सूर्य ही जाये-यदितुम्हारा केन्द्र सूर्य हो जाये, यदि तुम चैतन्य हो जाओ, केन्द्र पर सजग हो जाओ, यदि तुम्हारी जागरूकता बढ़ जाये, तो तुम्हारी चेतना की किरणें तुम्हारे शरीर केप्रत्येक अंग तक, प्रत्येक कोष तक पहुँच जाती हैं। त्तब तुम्हारी सजगता शरीरके हर एक कोष में प्रवेश कर जाती है।
यह ऐसा ही है जैसे कि सुबह सुरज उगता है और पृथ्वी पर सब चीजोंमें जीवन दौड़ पड़ता है। अचानक प्रकाश फैल जाता है, और नींद उड़ जातीहै, रात्रि का भारीपन खो जाता है। अचानक ऐसा लगता है कि जैसै हर चीज़ पुनर्जीवित हो गई। चिडियाँ गीत गाने लगती है और अपने परों को फैला आकाश में उड़ने लगती हैं, फूल खिल उठते हैं, और प्रत्येक चीज़फिर से जिन्दा होजाती है, सूर्य की गर्मी से, उसके स्पर्श मात्र से ही। इसलिए यदि जब तुम्हारेपास केन्दित चेतना होती है, तुम्हारे भीतर सजगता होती है, तो वह हर छिद्र मेंपहुँचने लगती है, शरीर के प्रत्येक रोयें-रोयें में, हर कोष में वह प्रवेश कर जातीहै। और तुम्हारे पास बहुत सारे कोष हैं-सात करोड़ कोष है तुम्हारे शरीर मेंतुम एक बहुत बड़ा शहर हो, सात करोड़ कोष और वे सारे मूच्छित हैं। तुम्हारीचेतना उन तक कभी भी नहीं पहुँची।
चेतना को बढाओ, और तब उसका हरएक कोष में प्रवेश हो जाता है। और जैसे ही चेतना कोष को स्पर्श करती है, वह भिन्न हो जाता है। उसका गुण ही बदल जाता है। एक आदमी सो रहा है, सुरज उगता है और वह आदमी जागजाता हैं। वया वह वही आदमी है जो कि सोते समय था? क्या उसका सोना और जागना एक ही है? एक कली बन्द है और मुझाई हुईं है, और फिर सूरजउग जाता है और कली खिल जाती है और फूल बन जाती है। क्या यह फूल वही है? कुछ नया उसमें प्रवेश कर गया है। एक जीवन्तता, एक बढ़ने व खिलनेकी क्षमता प्रकट हुई है। एक चिडियाँ सो रही थी, जैसै कि मृत हो, मृत पदार्थहो। परन्तु सुरज निकल आया है और चिडियों अपने परों पर उड़ निकली हैं। क्या वह वही चिडियाँ हैं? यह अब एक नई ही घटना है। कुछ छू गया है, और चिडिया जीवित हो गई है। हर चीज़चुप थी और अब हर चीज़गीत गारही है। सुबह स्वयं एक गीत है।
वही घटना एक बुद्ध के शरीर के कोषों में घटित होती है। उसे हम ‘‘बुद्ध-काया’’ के नाम से जानते हैं-एक जागृत आदमी का शरीर। एक बुद्ध का शरीर। वह वही शरीर नहीं है, जैसा कि तुम्हारा है। न ही वह शरीर है जो कि बुद्धहोने के पहले गौतम काथा।
बुद्ध मरने के करीब हैं, तब कोई उनसे पूछता है-‘‘वया आप मर रहे हैं मरने के बाद आप कहाँ होंगे?’’ बुद्ध ने कहा-जोशरीर पैदा हुआ था वह तो मरेगा। परन्तु एक और भी शरीर है-बुद्ध-कायर, बुद्ध का शरीर जो कि नतो कभी जन्मा था और न कभी मर सकता है। परन्तु मैंने वह शरीर छोड़ दिया है जो कि मुझें मिला था, जो कि मेरे माता-पित्ता ने मुझे दिया था। जैसे कि हरवर्ष सांप अपनी पुरानी केंचुली छोड़ देता है, मैंने भी उसे छोड़ दिया है। अबबुद्ध-कायाहै बुद्ध का शरीर है।
इसका वया अर्थ होता है? तुम्हारा शरीर भी बुद्ध का शरीर हो सकता हैजब तुम्हारी चेतना हर कोष तक पहुँचती है, तो तुम्हारे अस्तित्व का गुणघर्म-हीबदल जाता है, रूपान्तरित हो जाता है क्योंकि तब प्रत्येक कोष जीवन्त हो गया, जाग गया, बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, पराधीनता समाप्त हुईं। तुम अपने मालिकहुए। मात्र केन्द्र के चैतन्य होने से तुम अपने मालिक हो जाते हो।
यह सूत्र कहता है-चैतन्य के सूर्य में स्थिर होना ही एकमात्र दीपक हैइसलिए तुम मन्दिर में मिट्टी का दीपक लेकर क्यों जा रहे हो? अंतर का दीपकलेकर जाओ। तुम वेदी पर मोमबत्तियाँ क्यों जला रहे हो? उनसे कुछ भी न होगाअन्तर की ज्योति जला लो। बुद्ध-काया को प्राप्त कर लो! अपनेशरीर के हरकोष को जागने दो, अपने शरीर के एक भी कोष को मूच्छित न रहने दो।
बौद्धों ने बुद्ध को कुछ अस्थियाँ बचा कर रखी हैं। लोग सोचते हैं कि यह अन्ध-विश्वास है। यह अन्ध-विश्वास नहीं है, क्योंकि वे अस्थियाँसाधारण हडि्ंडयाँनहीं हैं। ये साघारण नहीं हैं। इन कोषों ने, इन टुकडों ने अस्थियों के इन-इलेक्ट्रॉन्सने कुछ ऐसा जाना है जो कि कभी-कभी ही होता है। कश्मीर में मुहम्मद काएक बाल संभाल कर रखा गया है। वह कोई साधारण बाल नहीं है। वह कोईअन्ध-विश्वास की बात नहीं है। उस बाल ने भी कुछ जाना है।
इसे इस भाँति समझने की कोशिश करें, एक फूल जिसने कि कभी सुरजका उगना नहीं जाना, और एक वह फूल जिसने जाना है, सूर्यं कासाक्षात्कारकिया है, वे दोनों एक नहीं हो सकते। दोनों एक नहीं है। एक फूल जिसने किकमी सूर्य का उगना न जाना होउसने अपने भीतर कभी प्रकाश को बढ़ते नहींजाना, क्योंकि वह तभी बढ़ता है, जबकि सुरज उगता है। वह फूल मरा हुआहै। उसने अपनी आत्मा कभी नहीं जानी। एक फूल जिसने सुरज के उगने केसाथ ही, अपने भीतर भी कुछ बढ़ते हुए अनुभव किया। उसने अपनी आत्मा कोजाना। अब फूल मात्र एक फूल नहीं है। उसने अपने भीतर एक गहरी क्रांतिको जाना है। भीतर कुछ सुगबुगाया है, कुछ उसके भीतर-जीवन्त हुआ है।
इसलिए मुहम्मद का बाल एक दूसरी ही बात है, उसका गुण-धर्म ही अलगहै। उसने एक आदमी को जाना। वह एक ऐसे आदमी के साथ रहा है जो किआंतरिक सूर्य ही हो गया, एक अंतर्प्रकाश ही बन गया। उस जाल ने एक गहरीडुबकी लगाई है किसी गहरे रहस्य में जो कि बडी मुश्किल से कभी घटता है। इस अन्तर्ज्योति में स्थापित होना ही एकमात्र दीया है जो कि परमात्मा की वेदीपर ले जाने योग्य है। उसके अलावा किसी और चीज़से कुछ भी न होगा।
इस चैतन्य के केन्द्र को कैसे निर्मित किया जाये? मैं बहुत-सी विधियों कीबात करूँगा, किन्तु चूंकि मैं बुद्ध कीतथा बुद्ध-काया की बात कर रहा था, अच्छाहोगा कि बुद्ध से ही प्रारंभ करूँ। बुद्ध ने एक विधि खोजी, एक बहुत ही आश्चर्यजनकविधि-एक बहुत ही शक्तिशाली पद्धति आँतरिक अग्नि क्रो जलाने के लिए चैतन्यके सूर्य का निर्मित करने के लिए। और न केवल उसे निर्मित करने के लिए बल्कि साथ-ही-साथ वह अन्तर्ज्योति शरीर के प्रत्येक कोष में भी प्रवेश करने लगतीहै। तुम्हारे सारे अस्तित्व में भी दौड़ने लगती है।
बुद्ध ने श्वास का विधि की तरह उपयोग किया-होशपूर्वक श्वास लेना। इस विधि को‘‘अनापान-सतीयोग’’ के नाम से आता जाता है-भीतर आती वबाहर जाती श्वास के प्रति सजगता। तुम श्वास लेते हो परन्तु यह अचेतन बातहै। और श्वास ही प्राण है, श्वास ही ‘एलीन-वाइडल’ है, मुख्य शक्ति है, प्राणऊर्जा है, आलोक है-और वही अचेतन है। तुम्हें उसका कोई भी होश नहींयदि तुम्हें श्वास लेना पड़े तो तुम किसी भी क्षण मर जाओगे क्योंकि तब बडामुश्किल होगीश्वास लेना।
मैंने कुछ मछलियों के बारे में सुना है जो कि छः मिनट से ज्यादा नहींसोती क्योंकि यदि वे इससे ज्यादा सोयें तो मर जायेंगी, क्योंकि वे नींद में श्वासलेना भूल जाती हैं। यदि उनको नींद गहरी हो जाये तो वे ‘श्वास लेना भूल जातीहैं, इसलिए वे मर जाती हैं। ये विशेष मछलियाँ छः मिनट से ज्यादा नहीं सोसकतीं। उन्हें समूह में रहना पड़ता है-सदैव समूह में। कुछ मछलियाँ सो रहीहैं, दूसरी मछलियों को ध्यान रखना पड़ता है कि वे ज्यादा देर तक न सोती रहेंजब उनका समय हो जाता है, वे उनकी नींद को तोड़ देती है, वरना सोती हुईमछलियाँ मर जायेंगी। वे फिर से नहीं जागेंगी।
यह वैज्ञानिक निरीक्षण है। यह तुम्हारे लिए भी एक समस्या हो जाये यदितुम्हें याद रखना पड़े कि तुम्हें श्वास लेना है। तुम्हें सतत याद रखना पडे़ कितुम्हें सॉस लेना है, और तुम एक क्षण के लिए भी कुछ याद नहीं रख सकतेयदि एक क्षण भी भूल हो जाये तो तुम गये। इसलिए साँस अचैच्छिक क्रियाहै, वह तुम पर निर्भर नहीं है। यहॉ तक कि यदि तुम महीनों तक बेहोशी कीहालत में पड़े रहो, तो भी तुम श्वास लेते रहोगे।
मैं कहता हूँ कि सचमुच ये मछलियों बहुत दुर्लभ है। और किसी दिन होसकता है कि आदमी को पता चले कि उनमें एक गहरी सजगता है जो कि आदमीके पास भी नहीं है क्योंकि सतत होशपूर्वक श्वास लेना एक बहुत ही कठिनबात है। हो सकता है उन मछलियों ने कोई विशेष सजगता उपलब्ध कर ली हो, जो कि हमारे पास नहीं है।
बुद्ध ने श्वास को दो कार्य एक साथ करने के लिए वाहन की भाँति काममें लिया-एक : चेतना पैंदा करने के लिए, और दूसरा : उस चेतना कोशरीरके हर एक कोष में प्रवेश करा देने के लिए। उन्होंने कहा-होशपूर्वक श्वासलो। यह कोई प्राणायाम नहीं है। यह सिर्फ श्वास को बिना बदले सजगता काविषय बनाने का प्रयास है। तुम्हें अपनी श्वास कीगति में कोई परिवर्तन नहींकरना है। उसे वैसा ही रहने देना-नैसर्गिक जैसी वह है-वैसी ही रहने देनाहैं। उसे परिवर्तित न करें। कुछ और करें। जब तुम श्वासको भीतर ले जाओंतो होशपूर्वक लेजाओ। भीतर जातीश्वास के साथ तुम्हारी चेतना भी भीतर चलीजाए। जब श्वास बाहर आती हो तो तुम भी उसके साथ बाहर चले जाओ। भीतर जाओ, बाहर आओ। श्वास के साथ होशपूर्वक चलो। तुम्हारा ध्यान श्वास पर होउसके साथ वही, एक श्वास भी विस्मृत न हो जाये।
बुद्ध ने कहा-बताते हैं कि यदि तुम एक घंटे भी श्वास के प्रति सजगरह सको तो तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये समझो। लेकिन एक श्वास भी नहींचूकनी चाहिए। एक घंटा काफी है। यह बहुत छोटा मालूम पड़ता हैं-केवल समय का एकटुकड़ा, किन्तु वह है नहीं। जब तुम प्रयास करोगे तो सजगता का एक घंटा लाखों साल जैसा प्रतीत होगा क्योंकि साधारणतः तुम पाँच-छः सेकंड से ज्यादा सजग नहीं रह सकते, और वह भी जबकि कोई बहुत अधिक सावधान हो। अन्यथा तुम हर सेकंड पर चूक जाओगे। तुम शुरू करोगे कि श्वास भीतर जा रही हैं। श्वास भीतर चली गई है, और तुम कहीं और चले गये। अचानकतुम्हें याद आयेगा कि श्वास बाहर जा रही है। श्वास बाहर चली गई और तुम कहीं और जा चुके।
श्वास के साथ चलने का अर्थ होता है कि एक भी विचार को न चलनेदिया जाये क्योंकि विचार तुम्हारा ध्यान खींच लेगा, विचार तुम्हारे ध्यान को कहींऔर ले जाएगा। इसलिए बुद्ध कभी नहीं कहते कि बिचारों को रोको परन्तु वे कहते है-‘‘हौशपूर्वक श्वास लो’’ विचार स्वतः ही रुक जायेंगे। तुम दोनों कामएक साथ नहीं कर सकते कि विचार भी करो और श्वास पर भी ध्यान रख सको।
एक विचार तुम्हारे मस्तिष्क में आता है और तुम्हारा ध्यान कहीं और चलाजाता है। एक अकेला विचार, और तुम अपनी श्वास की प्रक्रिया के प्रति मूच्छित हो जाते हो। इसलिए बुद्ध ने बहुत ही सरल विधि का प्रयोग किया पर एक बहुतही जीवन्त प्रक्रिया का। उन्होंने अपने भिक्षुओ से कहा कि तुम चाहे जो भी करो, किन्तु अपनी भीतर आती और बाहर जाती श्वास के प्रति होश बना रहे। उसकेसाथ ही गति करो, उसके साथ ही बहो। जितना आवक तुम प्रयत्न करोगे, जितनाज्यादा प्रयास करोगे उतना ही तुम उसके प्रति जाग सकोगे। सजगता एक-एकसेकंड करके बढेगी। यह बहुत कठिन है। बहुत मुश्किल बात है। लेकिन एकबार भी तुम उसे अनुभव कर लो तो तुम दूसरे ही आदमी ही जाओगे-एक भिन्नही व्यक्ति, एक भिन्न ही जगत के।
यह दो त्तरह से काम करती है : जब तुम होशपूर्वक भीतर श्वास लेते होओरबाहर छोड़ते हो, तो धीरे-धीरे तुम अपने केन्द्र पर आ जाते हो, क्योंकि तुम्हारीश्वास तुम्हारे होने के केन्द्र को स्पर्श करती है। हर बार जब श्वास भीतर जातीहै, तो वह तुम्हारे अस्तित्व के, बीइंग के केन्द्र को छूती है। शारीरिक-रूप सेतुम सोचते हो कि श्वास का काम तुम्हारे रक्त को साफ करने के लिए है, कि यह हृदय का एक कार्य है कि श्वास ले, कि वह शरीर की बात है। तुम सोचते हो कि श्वास लेना फेफडों का कार्य है, जो कि रक्त्त की सफाई के लिए एक पमि्ंपग स्टेशन है, जो कि रवत को, आँक्सीजन पहुँचाता है और कारबन-डाईं-ऑक्साइडबाहर फेंकता है, जो कि बेकार हो चुकी और उसकी जगह त्ताजा आक्सीज़न भरता हैं।
परन्तु यह केवल शारीरिक बात है। यदि तुम अपनी श्वास के प्रति सजगक्या। शूरू करो, तो धीरे-धीरे तुम गहरे चले जाओगे-तुम्हारे हदय से भी गहरे, और एक दिन तुम्हें अपने केन्द्र की प्रतीति होगी तुम्हारी नाभि के पास। यह केन्द्रकी प्रतीति तभी होगी जबकि तुम लगातार अपने श्वास के साथ चलते जाओ-क्योंकिफिराने निकट तुम अपने केन्द्र के पहुँचते हो, उतनी ही तुम्हारी चेतना खोने की पाठशाला है। तुम शुरू कर सकते हो भीतर श्वास लेने से, जबकि वह तुम्हारी नाक को स्पर्श करे, वही से तुम सावधान हो जाओ। जितनी अधिक भीतर जाये, उतनी ही चेतना कठिन हो जायेगी और एक विचार भी आ गया, या कोईआवाज़ अथवा कुछ भी हो गया और तुम वापस आ जाओगे।
यदि तुम अपने केन्द्र तक जा सको जहाँ कि एक क्षण के लिए श्वास रुक जाती है और एक अन्तराल आ जाता है तो छलांग लग सकती है। श्वास भीतर जाती है, श्वास बाहर आती है, इन दो के बीच में भी एक बहुत सूक्ष्म गैप है वह गैप ही तुम्हारा केन्द्र है। जब तुम श्वास के साथ चलते हो, तब कहीं बहुतश्रम के बाद तुम्हें उस गैप का पता चलता है-जबकि श्वास की कोई गति नहीं होती, जबकि श्वास न तो आ रही होती है और न ही जा रही होती है। दो श्वासोंके बीच एक बहुत ही बारीक-सा अन्तराल हैं-एक गैप है। उस अन्तराल मेंतुम अपनेंकेन्द्र पर होते हो।
इसलिए बुद्ध वे श्वास का प्रयोग किया केन्द्र के निकट, और अधिक निकटआने के लिए। जब तुम बाहर जाओश्वास के साथ, श्वास के प्रति सजग रहोफिर एक गैप है। सब मिलाकर दो गैप हैं-एक गैप भीतर और एक गैप बाहरश्वास भीतर जाती है, और श्वास बाहर जाती है, दोनों के बीच एक गैप है। श्वासबाहर जाती है, और श्वास भीतर जाती है : फिर एक गैप है। दूसरे गैप के प्रति सजग होना और भी ज्यादा कठिन है।
इस प्रक्रिया को देखो। तुम्हाराकेन्द्र भीतर आती श्वास और बाहरजातीश्वास के बीच में है। एक दूसरा भी केन्द्र है-काँस्मिक सेंटर-ब्रह्म-केन्द्र। तुमउसे परमात्मा कह सकते हो। जबकि श्वास बाहर जाती है और भीतर आती है, तब भी एक गैप है। उस गैप में ब्रह्य-केन्द्र है। ये दोनों केन्द्र दो भिन्न बातें नहीं हैं। परन्तु पहले तुम अपने आंतरिक केन्द्र के प्रति ही जागोगे और तब तुम अपने बाहर के केन्द्र के प्रति सजग हो जाओगे। और अन्ततः तुम जानोगे कि ये दोनोंकेन्द्र एक ही हैं। तब ‘भीतर’ और ‘बाहर’ का कोई अर्थ नहीं बचता।
बुद्ध कहते हैं कि सजगतापूर्वक श्वास लो और तब तुम चैतन्य का एककेन्द्र निर्मित कर सकोगे। और एक बार यह केन्द्र निर्मित हो जाये तो चेतना तुम्हारेश्वास के साथ तुम्हारेरक्त में, कार्यों में प्रवाहित होने लगेगी, क्योंकि प्रत्येक कोष को हवा की, ऑक्सीजन की आवश्यकता है, और प्रत्येक कोष श्वास लेता है-हरकोष। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि लगता है कि यह पृथ्वी भी श्वासलेती है। और आइंस्टीन की संसार के फैलने की धारणा के अनुसार सैद्धान्तिकवैज्ञानिक ऐसा कहते है कि सारा जगत ही श्वास ले रहा है।
जब तुम श्वास भीतर लेते हो तो तुम्हारी छाती फैल जाती है। जब तुम श्वासबाहर निकालते हो तब तुम्हारी छाती सिकुड़ जाती है अब सैद्धान्तिक वैज्ञानिककहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि सारा विश्व ही श्वास ले रहा है। जब जगत भीतर श्वास भीतर लेता है तो वह फैल जाता है। जब वह श्वास बाहर निकालता हैतो सिकुड़ जाता है।
पुराने हिन्दू शारत्रों में ऐसा कहा गया है कि सृष्टि ब्रह्मा की भीतर आतीएक श्वास है-ओर प्रलय-बाहर जाती एक श्वास है।
बहुत ही सूक्ष्म ढंग से, बहुत ही आणविक तरीके से, वही तुम्हारे भीतरहो रहा है। जब तुम्हारी सजगता तुम्हारे श्वास के साथ बिल्कुल एक हो जातीहै, तब तुम्हारी श्वास तुम्हारी चेतना को हर कोष तक ले जाती है। अब किरणें प्रवेश कर जाती है और सारा शरीर बुद्ध-काया हो जाता है। वस्तुतः तब तुम्हारेपास कोई पदार्थगत्त शरीर नहीं होता। तुम्हारे चैतन्य का शरीर होता है। यही इससूत्र का अर्थ है-चैतन्य के सूर्य में स्थापित हो जाना-यही दीपक है।
जिस तरह हमने बुद्ध की विधि समझो, अच्छा होगा कि हम एक दूसरीभी विधि समझ लें-एक और विधि। तन्त्र ने यौन का उपयोग किया। वह भीबडी ही जीवन्त शक्ति है। यदि तुम्हारे भीतर तुम्हें गहरे जाता हो, तो तुम्हें बहुतजीवन्त शक्ति का उपयोग करना पडेगा-सर्वाधिक गहरी शक्ति का। तन्त्र यौनका उपयोग करता है। जब तुम यौन-कृत्य में लगे हो तब तुम सृजन के केन्द्र के बहुत ही निकट हो-जीवन के स्रोत के करीब। यदि तुम यौन-कृत्य में होशपूर्वकजा सको तो वह ध्यान हो जाता है।
यह बहुत ही कठिन है-श्वास से भी अधिक कठिन। तुम थोडी मात्रा मेंहीशपूर्वक श्वास ले सकते हो। वह तुम कर सकते हो। परन्तु सेक्स की घटनाही ऐसी है कि उसे तुम्हारी मूर्च्छा की आवश्यकता है। यदि तुम होश में हो जाओ तो तुम्हारी काम वासना खो जायेगी। यदि तुम जाग जाओं तो भीतर कोई काम-वासना नहीं बचेगी। इसलिए तन्त्र ने सर्वाधिक कठिन बात जगत में की। चेतना को जगाने के प्रयोगों के इतिहास में तन्त्र सर्वाधिक गहरा गया।
परन्तु सचमुच इसमें कोई अपने को धोखा भी दे सकता है, और तन्त्र केसाथ प्रवंचना बहुत सुगम है क्योंकि तुम्हारे अलावा कोई दूसरा नहीं जान सकताकि वास्तविकता क्या है। कोई भी नहीं जान सकता। किन्तु सौ में से एक व्यक्तितन्त्र को विधि में सफल हो सकता है क्योंकि सेक्स को मूर्च्छा की आवश्यकताहै। अतः एक तान्त्रिकको, तन्त्र के साधक को सेक्स पर काम करना पड़ता है, काम वासना के प्रति होश रखना पड़ता है जैसे कि श्वास पर रखते हैं। उसे उसकेप्रति सजग रहना पड़ता है। जब वस्तुतः ही वह यौन-कृत्य में जाये तो उसे होशको संभाले रखना पड़ता है।
तुम्हारा शरीर, तुम्हारी काम-ऊर्जा अपने शिखर पर आ गई है और विस्फोटित होने को है। तन्त्र का साधक होशपूर्वक शिखर पर पहुँचता है, और उसकी एकविधि है जानने की। यदि काम-ऊर्जा का स्खलन अपने-आप हो जाये और तुमउसके मालिक न रह पाओ तो फिर तुम उसके प्रति सजग नहीं थे। तब अचेतनने अधिकार ले लिया। यौन अपने शिखर पर हो, और तुम कुछ भी न कर सकोसिवाय स्खलित होने के, तब वह स्खलन तुम्हारे द्वारा न हुआ। तुम काम कीप्रक्रिया शुरू कर सकते हो, तुम उसे समाप्त नहीं कर सकते। अंत सदैव अचेतनके अधिकार में रहता है।
यदि तुम शिखर पर रुके रहो और वह तुम्हारा सचेतन कृत्य हो जाये कितुम चाहो तोस्खलन हो और तुम चाहो तो न हो, यदि तुम शिखर से वापसलौट सको बिना स्खलन के अथवायदि तुम शिखर पर घंटों ही रुक सको, यदिवह तुम्हारा जागृत कृत्य हो, त्तब ही तुम मालिक हो। और यदि कोई काम केशिखर पर पहुँच जाये-वीर्य-स्खलन के बिल्कुल किनारे ही-और उसे रोके रहसके और उसके प्रति जागरूक रह सके, तब अचानक वह अपने गहनतम केन्द्र के प्रति जागता हैं-अचानक। और ऐसा नहीं है कि वह अपने ही गहनतम केन्द्रको जान पाता है, बल्कि वह अपने साथी के भी गहरे से गहरे केन्द्र को अनुभवकर पाता है।
इसीलिए यदि कोई तन्त्र का साधक है और यदि वह पुरुष है तो वह सदैवअपने साथी की पूजा करेगा। उसका साथी मात्र यौन संबंध का विषय नहीं हैवह दिव्य है। वह एक देवी है। और वह कृत्य शारीरिक कतई नहीं है। यदितुम उसमें होशपूर्वक जा सको, तो वह गहरे से गहरा आध्यात्मिक कृत्य है। परन्तुहर गहनतम बात सदा ही असंभव जैसी होती है। इसलिए या तोश्वास का यासेक्स का उपयोग करो।
महावीर ने भूख का उपयोग किया। वह भी एक गहरी बात है। भूख भीतुम्हारे स्वाद की भूख नहीं है अथवा किसी और चीज़के लिए नहीं है। वहतुम्हारे जीवन के लिएज़रूरी है। महावीर ने भूख का-उपवास का-उपयोग किया जागरण के लिए। यह कोई तप नहीं है। महावीर कोई तपस्वी नहीं हैं। लोगोंने उन्हें बिल्कुल गलत समझा। वे कोई तपस्वी नहीं थे। कोई समझदार आदमीकभी तपस्वी नहीं होता। परन्तु वे भूख को, उपवास को जागरण के लिए एक वाहन की तरह उपयोग कर रहे थे।
शायद तुमने इस तथ्य पर कभी ध्यान दिया हो कि जब तुम्हारा पेट पूरा भरा हो तो तुम्हें नींद आने लगती है, तुम बेहोश होने लगते हो। तुम सोना चाहतेहो। परन्तु जब तुम भूखे हो, उपवास कर रहे ही तो तुम सो नहीं सकते। रात्रिमें भी तुम इघर-से-उघर करवटे लेते रहोगे। तुम उपवास में सो नहीं सकते। क्योंनहीं सो सकते। क्योंकि यह सोना तब जीवन के लिए खतरनाक है। अब नींदद्वितीय आवश्यकता है। पहली जरूरत भोजन की हैं-भोजन प्राप्त करने की। वहप्रथम आवश्यकता है। नींद अब कोई समस्या नहीं है।
परन्तु महावीर ने उसका बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया। क्योंकिजब तुम उपवास कर रहे हो तो सो नहीं सकते। तुम चीजों को ज्यादा आसानीसे स्मस्या रख सकते ही। सजगता भी सरलता से आती. है। और महावीर ने उपवासका उपयोग चेतना के जागरण के विषय की भाँति किया। वे लगातार खडे़ रहते।
तुमने बुद्ध की मूर्ति बैठी हुईं देखी होगी किन्तु महावीर की ज्यादातर मूर्तियाँखड़ी अवस्था में हैं। वे सदैव खडे़ ही रहे थे। तुम्हें अपनी भूख का और भी अघिक अनुभव होगा यदि तुम खडे़ हुए हो। यदि तुम बैठे हो तो तुम्हें वह कम मालूमहोगी और यदि तुम लेटे हुए हो तो वह और भी कम महसूस होगी। जब तुम खड़े हो तो सारा शरीर भूख महसूस करने लगता है। तुम्हें सारे शरीर में भूखको प्रतीति होगी। सारा शरीर बहने लगता है, वह भूख की एक सरिता हो जाताहै। पैर से सिर तक तुम भूखे हो जाते हो। केवल पेट ही नहीं बल्कि पाँव भी, यहाँ तक सारा शरीर भूख को अनुभव करने लगता है। और महावीर चुपचाप निरीक्षणकरते हुए खडे़ रहेंगे, भूख के समय-साथ बहते हुए-जैसे कि कोईश्वास केसाथ करता है। ऐसा कहा जाता है कि उनके मौन के बारह साल के अर्से मेंउन्होंने करीब ग्यारह वर्षों तक उपवास किया। केवल तीन सौ साठ दिन ही उन्होंनेभोजन लिया। उपवास एक विधि था उनके लिए।
श्वास की तरह ही भोजन और यौन, ये भी सबसे अधिक गहरी चीजें है। जब तुम अपनी भूख के प्रति सजग होते चले जाते हो, केवल सजग होते जातेहो और कुछ नहीं करते हो, तो अचानक तुम केन्द्र पर फेंक दिये जाते हो, तुम्हारे ‘होने’ तुम्हारे बीइंग पर सबसे पहले भूख ऊपरी परिधि पर होती है, यदि तुमपरिधि घर उसे न भरो, तो उससे गहरी पर्तें भूखी हो जाती हैं। और इस तरहचलता चला जाता है, और अन्ततः तुम्हारा सारा शरीर भूखा हो जाता है। जब सारा शरीर हो भूखा हो जाता है तुम केन्द्र पर फेंक दिये जाते हो।
जब तुम्हें भूख की प्रतीति होती है, तो वहं झूठी होती है। वास्तव में, वहमात्र एक आदत होती है, न कि भूख। यदि तुम दिन के एक खास वक्त परभोजन करते हो, मान लो कि एक बजे, तोठीक एक बजे तुम्हें भूख की प्रतीतिहोती है। यह भूख झूठी है जिसका कि शरीर से कोई संबंध नहीं है। यदि तुमएक बजे भोजन न करो, तो दो बजे तुम्हें लगेगा कि भूख चली गई। यदि वहप्राकृतिक थी तो दो बजे उसे बढ़ जाना चाहिए था। वह चली क्यों गई? यदि वहवास्तविक थी तो दो बजे वह और भी अधिक गुनगनी चाहिए और तीन बजे उससेभी ज्यादा, और चार बजे उससे भी ज्यादा। परन्तु वह खो गई। वो एक आदतथी-एक बहुत ही ऊपरी आदत।
यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति तीन सप्ताह तक उपवास करे, तभी केवल वहवास्तविक भूख तक आ सकता है। त्तब पहली बार वह जान सकेगा कि वास्तव में भूख वया होती है। अभी तुम यह कदापि नहीं जान सकते कि भूख भी इतनीशक्तिशाली जात है जितना कि यौन-परन्तु मैं वास्तविक भूख के लिए कह रहाहूँ। इसलिए ऐसा होता है कि जब तुम उपवास पर होते हो तो तुम्हारी काम-वासना मर जाती है, क्योंकि अब और भी अधिक आधारभूत। चीज़ दाँव पर है।
भोजन तुम्हारे जीवित रहने के लिए है, यौन मनुष्य जाति के जीने के लिएहै। यह एक दूर की घटना है जो कि तुम्हारे से संबंधित नहीं है। यौन जातिके लिए भोजन है, न कि तुम्हारे लिए। यौन के द्वारा मनुष्यता जी सकती हैइसलिए वह कोई तुम्हारी समस्या नहीं है। वह मानव जाति की समस्या है। तुमउसे छोड़ भी सकते हो, परन्तु तुम भोजन नहीं छोड़ सकते क्योंकि वह तुम्हारीअपनी समस्या है। वह तुमसे संबंधित है। यदि तुम उपवास करते चले जाओ तोशनैः-शनैः यौन खोजायेगा, और वह अधिकाधिक दूर चला जायेगा
इस कारण से बहुत से लोग अपने को ही धोखा दिये चले जाते हैं। वेसोचते हैं कि यदि वे कम भोजन करते हैं तो वे ब्रह्मचारी हो गये हैं। वे ब्रह्मचारीनहीं ही गये हैं। केवल समस्या कोज़रा आगे सरका दिया गया है। उन्हें ठीक-ठाक भोजन दो काम-वासना लौट आएगी-पहले से भी अधिक शक्ति से, ज्यादाताजा व युवा होकर।
यदि तुम तीन सप्ताह से भी ज्यादा समय तक उपवास करो, तो तुम्हारा साराशरीर भूखा हो जाता है। शरीर का रोयां-रोयां भूख महसूस करने लगता है। तबपहली बार तुम सही अर्थों में भूखे हुए हो, तुम्हारा पेट भूखा है, तुम्हारा साराशरीर ही भूखा हैं। तुम चारों ओर से एक गहरी भूख की अग्नि से धिरे हो महावीर ने इसका जागरण के लिए उपयोग किया, अतः वे भूखे रहते। उपवासकरते और सजग रहते।
एक स्वस्थ आदमी तीन महीनों तक बिना भोजन के रह सकता है। एकसाधारणतः स्वस्थ आदमी तीन माह तक बिना भोजन किये रह सकता है। यदितुम-तीन माह तक उपवास करो तो अचानक एक दिन तुम मृत्यु के किनारे हीखड़े होगे। यह जानते हुए मृत्यु का साक्षात्कार करना हैं, और यह साक्षात्कारतब होता है जबकि तुम अपने शरीर को छोड़ रहे होते हो और अपने केन्द्र परभीतर छलांग लगा रहे होते हो। अब पूरा शरीर कोथक गया है। अब वह नहीं चलसकता। तुम अपने मूल उद्गम पर फेंके जा रहे हो और तुम अब शरीर में नहींरह सकते। धीरे-धीरे तुम शरीर में भीतर, और भीतर और भीतर फेंक दिये जाते हो।
भोजन तुम्हें बाहर ले जाता है, उपवास तुम्हें भीतर ले जाता है। एक क्षणऐसा आता है जबकि शरीर तुम्हें और आगे नहीं ले जा सकत्ता। तब तुम अपनेकेन्द्र पर फेंक दिये जाते हो। उस क्षण में, तुम्हारा अंतर सूर्य, युक्त होता है।
इसलिए महावीर तीन माह तक उपवास करेंगे-चार माह उपवास पर रहेंगे। वे असाघारणरूप से स्वस्थ थे। और तब अचानक वे गाँव में भोजन मांगने जाते। यह भी एक रहस्य है कि क्यों वे अचानक तीन-चार माह बादगाँव में भोजनमांगने जाते थे। वास्तव में, जब भी वे बिल्कुल किनारे ही होते और ऐसी घडीआ जाती कि एक क्षण भी घातक सिद्ध हो सकता था, तभी वे भोजन मांगने चले जाते। वे पुनः शरीर में प्रवेश कर जाते और फिर उपवास पर चले जाते, और तब फिर केन्द्र पर पहुँच जाते, फिर शरीर में प्रवेश करते और फिर केन्द्रपर चले जाते।
तब वे उस मार्ग को महसूस करते : भीतर आती श्वास, बाहर जाती श्वास,-जीवन को शरीर में आते, जीवन कोशरीर से जातें। और तब वे इस प्रक्रिया केप्रति- सजग रहते। वे भोजन करते और वे इस प्रक्रिया के प्रति जागे हुए रहतेवे भोजन करते और वे फिर से शरीर में लौट आते, और फिर से उपवास परउतर जाते। ये वे लगातार करते रहे बारह वर्षों तक। यह एक आंतरिक प्रक्रिया थी।
तो मैंने तीन बातों पर चर्चा कोःश्वास, यौन व भूख-बहुत ही बुनियादीव आघाभूत बातें। किसी केप्रति भी सजग हो जाओ। श्वास सबसे अधिक सरलहै। तन्त्र की विधि का उपयोग करना कठिन है। मन इसका उपयोग करना चाहेगापरन्तु वह बहुत कठिन होगा। उपवास की विधि भी कठिन है। मन उसे पसन्दनहींकरेगा। ये दोनों बहुत कठिन है। केवल श्वास की प्रक्रिया सबसे ज्यादा सरलहै। आने वाले युग में मुझें लगता है, कि बुद्ध की विधि बड़ी सहायक होगीयह मध्यम, सरल और बहुत खतरनाक भी नहीं है।
इसलिए बुद्ध को मध्य-मार्ग का सूत्र खोजने वाला कहते हैं-‘‘मज्झिम-निकाय’’-‘स्वर्ण मार्ग।’ यौन व भोजन, इन दोनों के यह मध्य में है। श्वास स्वर्णमार्ग है-बिल्कुल बीच में।
और दूसरी भी वहुत-सी विधियाँ है। तुम किसी भी विधि से अन्तर्प्रकाशको उपलब्ध हो सकते हो। और एक बार भी तुम उसमें स्थिति हो जाओ तो तुम्हाराअन्तर्प्रकाश तुम्हारे शरीर के कोषों में प्रविष्ट होने लगता है। तब तुम्हारी सारीशारीरिक यांत्रिकता ताजा हो जाती है और तुम बुद्ध-काया को उपलब्ध कर सकतेहो-एक जागे हुए मनुष्य के शरीर को पा सकते हो।
आज इतना ही 1
thank you guruji
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