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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-22)

आत्म-पूज़ा उपनिषद-भाग-2

चौथा- प्रवचन

मनुष्य-चेतना के विकास में बुद्ध का योगदान

भगवन! मनुष्य की आंशिक चेतन ज़ीवन के पूर्ण विकास में एक तत्त्व है। उसकी चेतना को बढाने के लिए उसके ऐच्छिक प्रयासों का क्या महत्त्व हो सकता है?
कृपया यह भी समझायें कि मानव चेतना की वृद्धि के लिए बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्तियों का वया योगदान होता हैं?
विकास मूर्च्छा का हिस्सा है, वह अचेतन है। किसी इच्छा की आवश्यकतानहीं है, किसी सचेतन प्रयास की ज़रूरत नहीं है। वह बिल्कुल प्राकृतिक है। लेकिन, ज़ब एक बार चेतना विकसित ही ज़ाती है, तब दूसरी ही बात होज़ातीहैं। एक बार चेतना का प्रादुर्भाव हुआ कि विकास रुक ज़ाता है। विकास चेतनाके प्रादुर्भाव तक ही होता है, विकास का काम ही इतना है कि वह चेतना कोज़न्म दे दे। एक बार चेतना आ गई, कि विकास ठहर ज़ाता है। तब सारी ज़िम्मेवारीचेतना की होज़ाती है। इसलिए इसे कईं तरह से समझना पड़ेगा।

मनुष्य अब विकसित नहींहो रहा है। बहुत काल से आदमी विकसित नहींहो रहा है। ज़हाँ तक आदमी का सवाल है, विकास बन्द हो गया है। शरीर अपनेआखिरी शिखर पर पहुँच गया है। मानव शरीर बहुत समय से विकसित नहीं होरहा है। बहुत पुरानी हड्डियाँ व बहुत-बहुत पुराने मनुष्य के ज़ोशरीर मिले हैं, वे बुनियादी रूप से हमारे शरीरों से भिन्न नहीं है।। उनमें बुनियादी कोई फर्क नहींहै। यदि एक लाख साल पुराने किसी शरीर को पुनर्ज़ीवित किया ज़ा सके औरउसे प्रशिक्षित करें, तो वह तुम्हारे ही ज़ैसा होगा। उसमें कोई भी फर्क न होगा।
मनुष्य के शरीर ने विकसित होना बन्द कर दिया है। कब किया बंद उसने? ज़ब चेतना भीतर आ गई तो विकास का काम पूरा हुआ। अब ये तुम्हारे हाथमें है, तुम और आगें विकसित होओ। इसलिए आदमी ठहरा हुआ है-विकसितनहीं हो रहा है-जब तक कि वह स्वयं ही प्रयत्न न करें। अब मनुष्य के आगे, सब कुछ सचेतन होगा। आदमी के नीचे, सब कुछ अचेतन है। आदमी के साथही एक नया तत्त्व प्रवेश कर गया-सज़गता का तत्त्व, चेतना का तत्त्व। इस त्तत्त्वके साथ ही विकास का काम पूरा हुआ। विकास को एक ऐसी स्थिति पैदा करनीपड़ती है ज़िसमें कि चेतना का प्रादुर्भाव हो सके। एक बार चेतना का प्रवेश हुआ, तब सारा दायित्व चेतना पर पड़ज़ाता है। इसलिए अब आदमी प्राकृतिक ढंगसे विकसित नहीं होगा। आगे उसका कोई विकास नहीं होगा।
चेतना विकास का शिखर है-आखिरी चरण। किन्तु यह ज़ीवन का अन्तिमचरण नहीं है। समस्त पशु-ज़गत के विकास की अंतिम सीढी है चेतना। यह आखिरीचरण है। अन्तिम ऊँचाई। शिखर परन्तु इसके आगे बढ़नेके लिए यह पहलाकदम है। और ज़ब मैं कहता हूँ कि विकास रुक गया है, तो मेरा मतलब हैकि अब आंतरिक प्रयत्न की ज़रूरत है। अब, ज़ब तक कि तुम खुद कुछ-न-करो, तुम विकसित न हो सकोगे। प्रकृति तुम्हें उस बिन्दु तक ले आई है, ज़ोकि अचेतन विकास का आखिरी पड़ाव है। अब तुम सज़ग हो, अब तुम्हें पताहै। और ज़ब तुम्हें पता है, तो ज़िम्मेवारी तुम्हारी हैएक बच्चा अपने कृत्यों के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, लेकिन एक-प्रौढ़ हैएक पागल अपने कार्यों के लिए ज़िम्मेवार नहीं है, परन्तु एक ज़ो कि पागल नहीं, वह है। यदि तुम शराब के नशे में हो और तुम होरापूर्वक व्यवहार नहीं क्रंर रहेहो, तो तुम ज़िम्मेवार नहीं हो। चेतना के साथ ही, ज़ानने की क्षमता के साथहीय तुम ही तुम्हारे लिए ज़िम्मेवार होज़ाते हो
सार्त्र ने कहीं पर कहा है कि दायित्व ही एक मात्र मनुष्य का बोझ हैकोईं-भी पशु ज़िम्मेवार नहीं है। ज़ो कुछ भी पशु है, उसके लिए विकास हीज़िम्मेवार है। पशु पर किसी भी बात के लिए कोई दायित्व नहीं हैं। इसलिए अबज़ो भी तुम करोगे वह तुम्हारा ही दायित्व होगा। यदि तुम नर्क निर्मित कर लोऔर नीचे उतर ज़ाओ तो यह तुम पर है। यदि तुम विकसित होओ, बढ़ो औरएक आनन्दपूर्ण स्थिति का निर्माण कर लो, तो यह भी तुम पर है।
अस्तित्ववादियों ने एक बहुत ही बढिया भेद कियाहै, ज़ो कि बहुत हीसुन्दर व अर्थपूर्ण है। वे कहते हैं कि पशुओं के लिए एसेन्स (सार) पहले हैऔर अस्तित्व बाद में विकसित होता है। यह ज़रा कठिन है समझना किन्तु कोशिशकरें। वे कहते हैं कि पशुओं के लिए वृक्षों के लिए सार पहले है, और बादमें अस्तित्व आता हैं। एक बीज़ है, वह सार में एक वृक्ष है। सार वहाँ मौज़ूदहै, और फिर बाद में अस्तित्त्व आयेगा। वह ज़ोअनिवार्य तत्त्व है, वह मौज़ूदहै, और अब उसे केवल प्रकट होना है, व्यक्त होना है। वृक्ष पीछे निकल आएगा।
वृक्ष कोई नई बात नहीं है। एक तरह से वह पहले ही मौज़ूद था। इसलिएवस्तुतः बीज़ की कोई स्वतन्त्रता नहीं है, वृक्ष उसमें मौज़ूद होता है। और वृक्षकी भी अपनी स्वतन्त्रता नहीं है। उसका भाग्य बीज़ में लिखा है। सार-एसेन्सपहले है-यही मतलब है इस बात का। मनुष्य के नीचे सार पहले है, ओर तब अस्तित्व पीछे-पीछे आता है
मनुष्य के साथ बात बिल्कुल उलटी है : अस्तित्व पहले आता है और पीछेआता है एसेन्स (सार)। तुम किसी निश्चित भविष्य के साथ पैदा नहीं होतेः तुम्हेंउसे निर्मित करना पड़ेगा। तुम पैदा तो हो गये, इसलिए तुम्हारा अस्तित्त्व है। यहएक सामान्य अस्तित्त्व है बिना किसी सार के। अब तुम सार निर्मित करोगे। अतः मनुष्य स्वयं को निर्मित करता है। एक वृक्ष प्रकृति के द्वारा निर्मित किया ज़ाताहै, परन्तु मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माण कस्ता है।
मनुष्य सिर्फ पैदा होता है अस्तित्व के साथ, बिना किसी सार-निचोड़ के। फिर तुम ज़ो भी करोगे, वही तुम्हारा सार बन ज़ाएगा। तुम्हारे कर्म तुम्हें निर्मितकरेंगे, और एक बहु-आयामी स्वतन्त्रता तुम्हारे सामने होगी। एक आदमी कुछभी बन सकता है, और वह चाहे तो कुछ भी न बने। वह बिना किसी सार केखाली एक अस्तित्व भी रह सकता है। वह मात्र शरीर ही रह सकता है बिनाकिसी आत्मा के। एक तरह से, आत्मा निर्मित करनी होती है।
गुरज़िएफ कहा करता था कि तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं है। तुम बिनाआत्मा के हो। ज़ब तक तुम उसे निर्मित न करो, वह कैसे ही सकती है? यहबात धर्म की सारी शिक्षाओं के विरुद्ध प्रतीत होती है, परन्तु है नहीं। ज़ब धर्मकहता है कि प्रत्येक आदमी के पास आत्मा है, इसका मतलब है कि प्रत्येकव्यक्ति के पास आत्मा हो सकती है। वह एक संभावना है। तुम आत्मा होने तकविकसित होसकते हो। यदि तुम्हारे पास आत्मा पहले से ही हो, तो तुम में औरएक बीज़ में कोई अन्तर नहीं है। यदि तुम भी एक बीज़ की भाँति वृक्ष में विकसितहो रहे हो, यदि तुम भी एक बीज़ के द्वारा मनुष्य हो रहे हो, तो आदमी में औरज़ो कुछ भी आदमी से नीचे अस्तित्व में है, उसमें कुछ भी अन्तर नहीं है।
मनुष्य एक स्वतन्त्रता है-होने की स्वतन्त्रता वह बहुत-सी चीज़ें हो सकताहै, वह कुछ भी हो सकत्ता है। परन्तु ऐसा भी हो सकता है कि वह एक संभावनाही बना रहे बिना कुछ थी हुए। इस बात से कंपन और भय लगता है।
किर्कगार्ड ने ‘भय’ की धारण प्रकट की हैं। वह कहता है कि मनुष्य एक भय में ज़ीता है। यह डर, यह भय क्या है? भय यही है कि तुम एक संभावनाहो और कुछ भी नहीं। तुम सिर्फ एक अस्तित्व हो, कोई सार नहीं हो। तुम सारनिर्मित कर सकते हो, परन्तु तुम उसे चूक भी सकते हो, इसका दायित्व तुम्हाराहै। यह एक बडी भयानक स्थिति है। कुछ भी निश्चित नहीं है, आदमी असुरक्षितहै। हर क्षण बहुत-सी दिशाएं खुलती हैं, और तुम्हें किसी-न-किसी ओर ज़ाना पड़ता है बिना यह ज़ाने कि तुम कहाँ ज़ा रहे हो, बिना यह ज़ाने कि परिणामक्या होगा, बिना यह ज़ाने कि कल क्या होगा।
तुम्हारा कल-अपने से, तुम्हारे आज़ से-नहीं निकलेगा, परन्तु एक बीज़का कल ज़रूर बीज़ के आज़ से प्रस्फुटित होगा। एक पशु की मृत्यु उसके अपनेज़ीवन के परिणाम स्वरूप यंत्रवत होगी, परन्तु तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है। यहीअन्तर है। तुम्हारी मृत्यु तुम्हारी उपलन्धि होगी। तुम्हीं उसके लिए ज़िम्मेवार होगे। और इसीलिए प्रत्येक आदमी विशिष्ट प्रकार से मरता है। किसी भी आदमी कीमृत्यु दूसरे की ज़ैसी नहीं होती। वह हो नहीं सकती।
एक अ कुत्ता, ब कुत्ता, स कुत्ता-सभी एक ही तरह से मरते हैं। उनकोयह मृत्यु उनके ज़ीवन का एक हिस्सा है। वे अपने ज़ीवन के लिए भी ज़िम्मेवारनहीं है, वे अपनी मृत्यु के लिए भी ज़िम्मेवार नहीं है। ज़ब कोई कहता है किफलां कुत्ते की मौत मरेगा, तो उसका मतलब है कि वह बिना विकसित हुए, बिनाकुछ भी सार के मरेगा। वह सिर्फ एक संभावना ही रहेगा। दो कुत्ते एक ज़ैसे ही मरते हैं, दो आदमी कभी भी नहीं। वे एक ज़ैसे कभी नहीं मर सकते। औरयदि वे एक ज़ैसे ही मरे, तो उसका मतलब होगा कि वे विकसित होने के अवसरसे चूक गये।’
चेतना के प्रवेश के साथ ही हर बात के लिए तुम उत्तरदायी होज़ाते हो, कोई भी बात हो। यह एक बहुत बड़ाबोझ है और एक गहरा संताप। यही भयपैदा करता है। तुम खड्ड के ऊपर ही खड़े हो। यही मेरा मतलब है ज़बकिमैं यह कहता हूँ कि मनुष्य को सचेतन प्रयास की ज़रूरत है। आदमी होने काअर्थ है कि सचेतन विकास की भूमि में प्रवेश करना। लाखों-करोडों वर्षों ने तुम्हेंबनाया है, परन्तु अब प्रकृति मदद नहीं करेगी। यह प्राकृतिक विकास के लिएअंतिम शिखर है। अब प्रकृति तुम्हारे लिए कुछ भी न करेगी। उसने ज़ो भी उसेकरना था, कर दिया।
इसके कारण ही, भीतर एक गहरा तनाव हर क्षण रहेगा। आदमी एक तनावमें है। यह प्राकृतिक है और यह अच्छा है। इसे भूलने का प्रयास न करो। इसकाउपयोग करो। तुम उसे भूलने का प्रयास भी कर सकते हो। तब तुम अकसर चूकज़ाते हो। इसलिए तुम्हारे मन की किसी तनावपूर्ण अवस्था को भूलने का प्रयत्नकरना बड़ी गलत बात है, और खतरनाक भी। तुम पीछे गिर रहे हो। इस भीतरीतनाव को ऊपर उठने के लिए उपयोग करो, आगे बढ़नेके लिए। अब शरीर मेंतुम और आगे नहीं बढ़ सकते। शरीर अपने विकास के आखिरी सिरे तक आगया-उसके आगे कोई गति नहीं हैशरीर समतल ढंग से गति करता है। यह ऐसा ही है ज़ैसे कि एक हवाईज़हाज़ज़मीन पर दौड़ रहा है, ज़मीन की पटूटी पर, ताकि ऊपर उड़सके। एकक्षण आता है ज़बकि समतल दौड़ना बन्द करना पड़ता है। उसे एक मील या दो मील या तीन मील दौड़ना पड़ता है ताकि वह एक गति इकट्टी कर सके। तब एक ऐसा क्षण आता है ज़ब कि समतल दौड़ना-किसी कामका नहींहोता। औरयदि एक हवाईज़हज़़ ज़मीन पर ही दौड़ता रहे तो, फिर वह हवाईज़हाज़़ नहींहै। वह फिर कार की तरह व्यवहार कर रहा है। ज़ब पर्याप्त वेग इकट्ठा होज़ाता है तो हवाईज़हाज़़ ज़मीन छोड़ देता है और तब ऊपर ऊर्ध्व गति प्रारंभहोज़ाती है।
यही आदमी के साथ हुआ है। आदमी होने तक विकास ज़मीन पर गतिकरता रहा। अब मनुष्य एक मोमन्ट्म है। अब मनुष्य के साथ ऊपर की और गतिही एक मात्र गति है। यदि तुम इस बात कोइस तरह देखो कि हमें ज़मीन परदौड़ते चले ज़ाना चाहिएक्योंकि यह हम लाखों-करोडों वर्षों से ऐसा करते रहेहैं, तोफिर तुम चूक ही ज़ाते हो-क्योंकि यह सारी दौड़ ही एक बात के लिएथी कि एक घडी ऐसी आ ज़ाये कि तुम ऊपर उडान भरसको।
पशु आदमी होने की ओर दौड़ रहे हैं, वृक्ष पशु होने की और दौड़ रहेहैं, पदार्थ वृक्ष होने की ओर दौड़ रहा है। प्रत्येक चीज़़ इस पृथ्वी पर मनुष्य होनेकी तरफ दौड़ रही है। अतः आदमी किस बात के लिए दौडे़? आदमी होना लक्ष्य-बिन्दु है। प्रत्येक वस्तु आदमी होने को और विकसित हो रही है। अब आदमीके लिए समतल दिशा में कोई गति नहीं है। और यदि तुम समतल ही दौड़तेरहो, तब तुम्हारा वस्तुतः मानव होना नहीं होगा। तुम्हारा ज़ीवन बहुत-सी पतोंका होगा ज़ो कि मानव का न होगा।
कभी-कभी तुम पशु की भाँति बर्ताब करोगे। यदि तुम समतल भूमि परही चलते रही तो कभी तुम वनस्पति-ज़गत की तरह, कभी-कभी तुम बिल्कुलमृत पदार्थ की भाँति होओगे। परन्तु आदमी नहीं होओगे। इसलिए अपने ज़ीवनमें भीतर गहरे देखो। उसने ऊर्ध्वगमन का मोड़ नहीं लिया है। तब तुम वया कर रहे हो? यदि तुम अपने प्रत्येक कृत्य को देखो, तो तुम देखोगे कि एक कृत्यपशु ज़गत का है, एक वनस्पति जगत का है, आदि। तुम अपने ज़ीवन को, उसके कृत्यों को देखो, और तब तुम ज़ानोगे कि कुछ बिल्कुल मृत पदार्थ की तरहसे हो, कि कुछ ज़ैसे सब्ज़ी उग रही हो, और कुछ पशु की भाँति हो। आदमीकहाँ हो।
ऊपर उठने के साथ ही आदमी अस्तित्व में आता है-और वह तुम्हारे अपनेहाथ में है। सचेतन विकास ही एकमात्र विकास होने वाला है। इसलिए रोज़-रोज़ धर्म अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होता चला ज़ायेगा, क्योंकि अब वैज्ञानिक सोचतेहैं, आगे कोई गति नहीं है। सचमुच अब समतल कोई. गति नहीं है। तुम औरआगे प्रगति नहीं कर सकते सब कुछ रुक गया है। इसलिए विज्ञान तुम्हारी ज्ञानेन्द्रियोंके लिए कुछ-न-कुछ ज़ोड़े चला ज़ाता है।
तुम्हारी आँखें भी ठहर गई हैं, इसलिए अब तुम यन्त्रों का उपयोग कर सकतेही देखने के लिए। तुम्हारा दिमाग रुक गया है, इसलिए अब तुम कंप्यूटर काउपयोग कर सकते हो। तुम्हारे पैर ठहर गये हैं, इसलिए अब तुम कार का इस्तेमालकर सकते हो। ज़ो कुछ भी विज्ञान दे रहा है वह केवल यंत्रों का ज़ोड़ है उससारे विकास का-जो कि रुक गया है।
मनुष्य विकसित नहीं हो रहा है, केवल यन्त्र विकसित हो रहे हैं। और सचमुचप्रत्येक यन्त्र तुम्हारी शक्ति को बढाता है, किन्तु तुम स्वयं उससे नहींबढ़ते। बल्कि, मामला उलटा ही गया है। कारों ने गति में बहुत वृद्धि कर ली हैं, परन्तु उन्होंनेतुम्हारे पैरों को नष्ट कर दिया है। यह बडा दुर्भाग्यपूर्ण है, परन्तु यह होगा हीयदि कम्प्यूटर आदमी के मस्तिष्क की ज़गह ले लें, और वे लेंगे क्योकि आदमीका दिमाग इतना कुशल नहीं हें ज़ितना कि एक कंप्यूटर। वे बहुत कुछ करेंगे, परन्तु अन्ततः वे मनुष्य के मस्तिष्क को नष्ट कर देंगे, क्योंकि ज़िस किसी चीज़़्ा का प्रयोग नहीं होता वह बेकार होज़ाती है।
इसलिए आज़ विज्ञान अनुभव करता है कि ज़ो कुछ भी किया ज़ा रहा है, वह विकास का एक झूठा ख्याल देता है। यदि हम अतीत में ज़ायें, तोज़्यादा-से-ज़्यादा गति घोडे को थी-पच्चीस मील प्रति घंटा। अब हम पच्चीस मील पच्चीस हज़ार मील प्रति घंटा की स्पीड पर पहुँच गये है। आदमी नहीं पहुँचा, गति का विकास हुआ है न कि आदमी का! आदमी पीछे गिरा है क्योंकि जोआदमी घोड़े पर चढ़ता था उससे एक हवाईज़हाज़़ चलानेवाला आदमी अधिकशक्तिशाली नहीं है। गंति में वृद्धि हुई, विकास हुआ, परन्तु आदमी पिछड़ गया।
वैज्ञानिकों का एक समूहसोचता है कि आदमी पीछे गिरने को ही है, नकि विकसित होने को। ऐसा हो सकता है, क्योंकि ज़ीवन में तुम कभी भी स्थिरनहीं रह सकते। यदि तुम आगे नहींज़ा रहे हो, तो तुम पीछे गिर रहे हो। ज़ीवन में कोई भी स्थिर क्षण नहीं है। तुम एक ही बिन्दु पर रुके हुए नहीं रह सकतेतुम नहीं कह सकते कि मैं आगे नहींबढ़रहा हूँ इसलिए मैं ज़हाँ हूँ वहीं रहूँगा। मैं रुस्टेटस-को’ बनाये रखूँगा। तुम उसे नहीं बनाये रख सकते। या तो तुम आगेज़ाओ, अथवा तुम पीछे गिरोगे। वैज्ञानिकों का एक संमूह सोचता हैँ कि आदमी
रोज़-रोज़ पीछे की ओर ज़ा रहा है-रिग्रेस कर रहा है-कि एक तरह से ‘‘इनफैन्टेलाइज़ेशन’’-बचपन की तरफ लौटना हो रहा है। आदमी सारी पृथ्वीपर बच्चे की तरह व्यवहार कर रहा है-बज़ाय एक प्रौढ़ व्यक्ति के।
यदि हम गौर से देखें तो बहुत-सी बातें साफ हो सकती हैं। एक बात अतीतमें पक्की थी कि एक बृद्ध पुरुष, एक प्रौढ़ व विकसित आदमी समाज में अधिकप्रभावशाली था। लेकिन हमारा समाज़ सारे विश्व के इतिहास में ऐसा समाज़ है, जहाँ कि बच्चे अधिक आधिपत्य ज़माये हैं। वे हर बात पर अधिकार ज़माए हैं-प्रत्येकधारा को, हर फैशन को, हर चीज़़को वे ही आदर्श हैं। जो कुछ भी वे करतेहैं, घर्म होजाता है। जो कुछ भी वे करते हैं, राज़नीति होज़ाती है। जो कुछभी वे करते हैं, वही सारे संसार में प्रचलित होजाता है।
यदि हम पीछे लौटें, तो तीस साल का एक आदमी अधिक प्रौढ़ की भाँतिव्यवहार कर रहा था। अब, ऐसी बात नहीं है। अब एक तीस साल का आदमीभी बच्चों की तरह व्यवहार कर रहा है, बचकानी हरकतें कर रहा है-वही बच्चोंकी भक्ति उछल-कूद कर रहा है, वही बच्चों का रूप अपनाये है। यह बच्चों का रुख क्या है? एक बच्चा सोचता है कि वह इस सारे ज़गत का केन्द्र है, औरउसकी हर एक इच्छा तुरन्त पूरी होनी चाहिए। जब वह भूखा है, तो दूध दियाज़ाता है, जब वह रोता है, तो सब लोग उसकी और ध्यान देते है। सारा परिवारउसके चारों ओर केन्दित है।
बच्चे डिक्टेटर होज़ाते हैं। वे ज़ानते हैं कि कैसे सारे परिवार पर शासनकिया जाता है। एक छोटा-सा बच्चा भी सारे परिवार पर निरंकुश शासन चलाना जानता है। पिता उसको फुसलाता है, माँ उसे रिश्वत देती है। यहाँ तक कि जबघर में मेहमान आते हैं तो वही सब जगह एकाधिकार जमाये रहता है। एक बच्चासोचता है कि वह इस सारे विश्व का केन्द्र है। उसकी परवरिश करना, प्रत्येकको उसकी मददकरनी चाहिए, बिना किसी कीमत के। उसे प्रेम भी नहीं देनापड़ता, वल्कि प्रेम भी उसकी माँग हैं। वह हर चीज़़ मांगता चला जाता है, औरयदि उसकी मांग पूरी नहीं होती तो वह हिंसक होजाता है, क्रोधित होजाताहेरे। तब वह सरि ज़गत केखिलाफ होजाता है। वह चीज़ें तोड़ने लगता है।
अब ऐसा प्रत्येक के साथ हो रहा है। ऐसा बच्चों के साथ सदा से होताहैं, लेकिन अब यह हर एक के साथ हो रहा है। हमारी क्रान्तियाँ कुछ और नहींसिवाय इस प्रकार की बचकानी हरकतों के। हमारे तथाकथित विद्रोही कुछ और नहीं है, सिवाय इसके कि प्रत्येक अपने को इस ज़गत का केन्द्र माने हुएउसकी हर इच्छा को तुरन्त पूरी कर देना चाहिए। और यदि वह पूरी न हुईं, तो वह सारे संसार को नष्ट कर देगा।
सारी दुनिया में विद्यार्थी विश्वविद्यालयों में विद्रोह कर रहे हैं। वे सिर्फ अप्रौढ़, बचकाने मस्तिष्क की बातें कर रहे हैं। इसका वया अर्थ होता है कि विद्यार्थीविश्वविद्यालयों की खिड़कियों पर पत्थर मार रहे हैं, भवन को आग लगा रहे हैं, सब कुछ नष्ट कर रहे हैं। इसका क्या अर्थ होता है? उनमें मैचोरिटी (प्रौढ़ता)की कोई समझ नहीं है। और यदि तुम इस बात पर सोचो तो केवल विद्यार्थी व बच्चे, लड़के व लड़कियाँ ऐसा कर रहे हैं, इतना ही नहीं है बल्कि यदि आधुनिकआदमी को देखो-यहॉ तक कि आज़ के पिता की तरफ या माँ की त्तरफ देखो, तो तुम पाओगे कि वे भी- बहुत बचपना कर रहे हैं। यदि तुम हमारे राज़नीतिज्ञोंको देखो, तो वे भी बच्चों की-सी हरकतें कर रहे हैं ज़िसमें कि कोई प्रौढ़ता नहीं है।
क्या हो गया है? वास्तव में, आदमी का विकास रुक गया है, विकास मेंवृद्धि ठहर गई है। और हमारे पास अब उसके स्थान पर-उस विकास के स्थानपर वैज्ञानिक संग्रह है। मनुष्य ठहर गया है, वस्तुएँ बढ़रही हैं। तुम्हारा घर, बड़ा-और बड़ा हो रहा है, और तुम वही-के-वही रहत्ते हो। तुम्हारा धन बढ़ रहा है, और उसकी बृद्धि के साथ तुम सोचते ही कि तुम बढ़ रहे ही। तुम्हारा ज्ञान बढ़ता है, तुम्हारी सूचनाएँ बढ़ती हैं, और उसके कारण तुम सोचते हो कि तुम बढ़ रहे हो।
सचमुच एक बुद्ध तुमसे बहुत कम ज़ानते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि तुम अधिक प्रौढ़ हो। एक ज़ीसस तुमसे बहुत कम ज़ानते हैं। वे किसीभी कैथोलिक पादरी से कम ज़ानते हैं, क्योंकि उनकी कोई शिक्षा, कोई प्रशिक्षण नहींहुआ। वे एक मामूली बढ़ई के लड़के थे-अशिक्षित, बिना संसार के किसीभी ज्ञान के। लेकिन, फिर भी तुम उनसे अधिक विकसित नहीं हो। एक मुहम्मद बे-पढे लिखे हैं, एक कबीर कुछ भी नहीं है। लेकिन, वे अधिक विकसित हैं। परन्तु वह विकास दूसरी ही-प्रकार का है-वह है चेतना का विकास न कि सिर्फवस्तुओं का।
तुम वैभव के स्थान पर होने को रख सकते हो। ‘होना’ विकास का दूसराही आयाम है-लम्ब की तरह ऊपर की ओर। पाना समतल है। चीज़ें होती ज़ाती हैं और तुम्हारे पास चीज़ों का ढेर लग ज़ाता है, बहुत-सी सूचनायें इकटूठी होज़ाती हैं। इतना ज्ञान होजाता है, इतना धन, इतनी डिग्रियाँ, इतने सम्मान होजातेहैं। परन्तु यह सब केवल संग्रह है, यह समतल है। कोई ऊपरी उडान नहीं हैतुम वही रहते३ही। और तुम वही नहीं रह सकते क्योंकि यदि तुम ऊपर नहीं जा रहे हो, तो तुम नीचे ज़ाओगे। तुम बच्चों की तरह व्यवहार करोगे। तुम पीछेगिरोगे। यह एक सबसे बड़ी समस्या आज मनुष्य ज़ाति के सामने है।
विज्ञान सिर्फ तुम्हें चीज़ें दे सकता है। वह तुम्हें चन्द्रमा क्या दूसरे ग्रहों परपहुँचा सकता है, और सारा ज़गत दे सकता है। घर्म तुम्हें सिर्फ एक चीज़ प्रदानकर सकता है, ऊपर की ओर गति-ऊर्ध्व विकास-एक सचेतन विधि ज़िससे कि अपने अस्तित्व में विकसित हुआ जा सके। इसका कोई महत्त्व नहीं है कि तुम्हारेपास क्या है। यह तुम्हारे विकास के लिए बिल्कुल असंगत है। केवल एक ही महत्त्वपूर्ण बात है कि तुम क्या हो। और यह ‘होने’ के प्रति विकास, यही ज़िम्मेवारी है, क्योंकि यही स्वतन्त्रता है। विकासमान शक्तियाँ और आगे बढ़ने के लिए संचालित नहीं करती, तुम स्वतन्त्र हो चुनाव के लिये।
विकास तुम्हें नहींबढ़रहा है। वह पशुओं को आगे बढा रहा है, वह पेडों को बढ़ा रहा है, वह हर चीज़़ को आगे की ओर ले ज़ा रहा है सिवाय मनुष्यके। विकास हर चीज़़को आगे की और धकेल रहा है ताकि वह बढ़सकेपरन्तु आदमी होने के साथ वह बात खत्म हो गई। अब तुम सचेतन हो गये, इसलिएअब तुम जो चाहो कर सकते हो।
सार्त्र कहता है कि आदमी स्वतन्त्र होने के लिए मज़बूर है-कन्डेम्न्ड टु बीफ्री। सारी प्रकृति बड़े आराम से है क्योंकि स्वतन्त्रता एक बडी ज़िम्मेवारी है, बोझ है, इसलिए हम स्वतन्त्रता पसंद नहीं करते। हम चाहे उसकी कितनी भीबात करें, कोई भी स्वतन्त्रता पसन्द नहीं करता। प्रत्येक स्वतन्त्र होने से डरताहै। स्वतन्त्रता बडी खतरनाक बात है। प्रकृति में कोई आज़ादी नहीं है, इसलिएवहाँ इतनी शान्ति है। तुम कभी एक कुत्ते से नहीं कह सकते कि तुम कुछ कम कुत्ते हो! हर कुता पूरा कुत्ता है। तुम आदमी से कह सकते हो कि तुम पूरे आदमीनहीं हो, यह अर्थपूर्ण है। परन्तु एक कुत्ते से यह कहना कि तुम पूरे कुत्तेनहींहो-बेमानी है। हर एक कुत्ता पूरा कुता है क्योंकि एक कुता स्वतन्त्र नहीं है-होनेमें। वह विकास के द्वारा आगे धकेला ज़ाता है। वह बनायाजाता है, वह स्वयं-निर्मित नहीं है।
एक गुलाब का फूल-गुलाब का फूल है। वह चाहे कितना भी सुन्दर हो, वह मुक्त नहीं है, वह मात्र दास है। एक गुलाब के फूल को देखोः वह सुन्दरहै, किन्तु दास है, विवश है। कोई स्वतन्त्रता नहीं है कि खिले कि न खिले। कोई समस्या भी नहीं है, कोई चुनाव नहीं है : एक फूल को खिलना ही होगाफूल नहीं कह सकता-‘मैं खिलना पसन्द नहीं करता’ अथवा कि ‘मैं मनाकरता हूँ।’ उसकी अपनी कोई मरजी नहीं है, कोईंस्वतन्त्रता नहीं है। इसीलिएप्रकृति इतनी मौन है-विवश है। वंह गलती नहीं कर सकती, वहाँ गलती नहींहोती। और यदि तुम गलती नहीं कर सकते, यदि तुम हमेशा सही ही होने कोहो और वह सही होना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है, तो फिर तुम बाहरी शक्तियोंके द्वारा संचालित हो।
प्रकृति एक गहरी दासता है। आदमी के साथ पहली बार स्वतन्त्रता का प्रवेश होता है। आदमी स्वतन्त्र है-होने अथवा न होने के लिए। तब सन्ताप पैदा होताहै, भय लगता है कि वह समर्थ भी हो पायेगा? ज़ो कुछ हो रहा है, उसमें वहसमर्थ भी हो पायेगा या नहीं हो पायेगा? एक गहरी कंपकपी होती रहती है प्रत्येक क्षण एक कंपता हुआ क्षण है। कुछ भी तय नहीं है, पक्का नहीं है। आदमीके लिए पूर्वकथन नहीं किया ज़ा सकता। हर बात अनिश्चित है।
हम स्वतन्त्रता की बातें करते हैं, परन्तु कोईभी स्वतन्त्रता चाहता नहीं। इसलिए हम स्वतन्त्रता की बातें करते रह सकते हैं, परन्तु दासता निर्मित करतेरहते हैं। हम स्वतन्त्र होने को बात करते है और फिर नईदासत्ता निर्मित करलेते हैं। हमारी हर नई स्वतन्त्रता नई दासताओं के लिए बदलाहट है। हम एकदासता को दूसरी दासता से बदलते रहते हैं, एक बन्धन को दूसरे बन्धन से। कोईभी स्वतन्त्र होना नहीं चाहता क्योंकि स्वतन्त्रता बड़ा भय पैदा करती है। तब तुम्हेंनिश्चय करना पड़ता है और चुनाव करना पड़ता है। हम चाहते हैं कि कोई और हमें बता दे कि हमें क्या करना है-समाज़, गुरु, धर्मग्रन्थ, परम्परा, माता-पिताकोई और हमें बताये कि हमें वया करना है। कोई और हमें मार्ग दर्शन दे ताकिहम उस पर चल सकें। लेकिन हम अपने आप नहीं चल सकते। स्वतन्त्रता है, और- डर है।
इसीलिए इतने सारे धर्म हैं-वे कोईज़ीससया ब़ुद्ध या कृष्ण के कारणनहीं हैं। वे गहरे ज़डों में बैठे भय के कारण हैं। तुम खालिस आदमी नहीं होसकते। तुम्हें ईसाई, अथवा मुसलमान, अथवा हिन्दूहोना पड़ेगा। केवल ईसाई होने से तुम्हारी स्वतन्त्रता खोजाती है। हिन्दू होने के साथ ही तुम आदमी नहीं रहज़ाते। क्योंकि तब तुम कहते ही कि अब मैं एक परम्परा को‘मनूँगा। अब मैं असीम में, अज्ञात में यात्रा नहीं करूँगा। अब में धिसे-पिटे मार्ग पर चलूँगा। मैं किसी और के पीछे चलूँगा, मैं अकेला नहीं चलूँगा। मैं हिन्दूहूँ इसलिए मैं भीड़मैं चलूँगा। मैं एक स्वतन्त्र व्यक्ति की तरह नहीं चलूँगा यदि मैं एक अकेलेव्यक्ति कौ भाँति चलूं तो स्वतन्त्रता है। तब हर क्षण मुझे तय करना पड़ता है, हर क्षण मुझें अपने कोज़न्म देना पड़ता है, हर क्षण मैं अपनी आत्मा निर्मितका रहा हूँ। और इसके लिए कोई भी दूसरा ज़िम्मेवार नहीं है, केवल मैं हीअन्ततः ज़िम्मेवार हूँ।
नीत्शे ने कहा है कि ‘‘परमात्मा मर गया है और अब आदमी पूर्णतया स्वतन्त्रहै।’’ यदि सच ही परमात्मा मर गया है, तो आदमी पूरी तरह स्वतन्त्र है। औरआदमी परमात्मा के मरने से इतना भयभीत नहीं है, वह अपनी स्वतन्त्रत्ता से ज़्यादाडरा हुआ है। यदि परमात्मा है तो फिर तुम्हारे साथ सब कुछ ठीक है। यदि कोईपरमात्मा नहीं है, तो फिर तुम पूरी तरह आज़ाद हो-स्वतन्त्र होने को मज़बूर हो अब ज़ो तुम्हारी मरजी हो करो, और परिणाम भोगो, और उसके लिए कोई भीज़िम्मेवार नहीं होगा।
इरिक फ्रामने एक किताब लिखी है-‘‘दि फियर आँफ फ्रीडम’’ स्वतन्त्रताका भय। तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, और तुम विवाह की सोचने लगते होप्रेम स्वतन्त्रता है, विवाह दासता है। लेकिन ऐसा आदमी खोज़ना मुश्किल है जोकि प्रेम में पड़ता हो और जो तुरन्त विवाह की न सोचता हो। क्योंकि प्रेम मुक्तहै, वहाँ डर है। विवाह बुक स्थिर चीज़़ है, वहाँ कोई डर नहीँ है। विवाह एकसंस्था है-मृत्त्य प्रेम एक घटना है-ज़ीवन्त। वह गतिमान है वह बदल सकताहै। विवाह कोई‘गति नहीं करता, वह कभी नहीं बदलता। इसी कारण विवाहमें एक निशि्र्चतता है, एक सुरक्षा है।
प्रेम में कोई निशि्र्चतता नहीँ है, कोई सुरक्षा नहीं है। प्रेम बहुत असुरक्षितबात है। किसी भी क्या वह आकाश। में विलीन हो सकता है, उसी तरह जिसत्तरह कि वह आकाश। से प्रकट हुआ। किसी भी क्षणवह खो सकता है। वहबहुत अपार्थिव है। उसकी जड़े ज़मीन में नहीं हैं। वह पूर्वकथनीय नहीं है। इसलिएअच्छा है कि विवाह में प्रवेश कर जाओ। तब वहाँ ज़ड़े मौज़ूद हैं। अब यहविवाह आकाश में विलीन नहीं हो सकता। यह एक संस्था है। ज़ैसे प्रेम में वैसे ही हर ज़गह ज़हाँ भी स्वतन्त्रत्ता होती है, हम उसे दासता में बदल कर देते हैं। जितनी ज़ल्दी हो, उतना अच्छा। तब हम आराम से हो सकते हैं। इसलिए हरप्रेम को कहानी विवाह पर समाप्त होज़ाती है, ‘‘फिर उनकी शादी हो गई, औरउसके बाद वे आनन्द से रहने लगे।’’
कोई मी प्रसन्न नहीं है, लेकिन अच्छा है कि कहानी को वहाँ समाप्त कर दिया जाये क्योंकि उसके बाद सारा तर्क शुरू होता है। इसलिए सारी कहानियाँ बहुत ही सुन्दर क्षण पर खतम होती हैं। और वह क्षणा कौंन-सा है? स्वतन्त्रत्ता जब दासता में परिणत होती है। और वह केवल प्रेम के साथ ही नहीं है, ऐसा हर-बात के साथ है। इसलिए विवाह एक कुरूप चीज़़ है, और वह होगी ही। हर संस्था कुरूप होती है क्योंकि वह एक ज़ीवन्त चीज़़ की मृत लाश है। परन्तु यदि कुछ भी जीवन्त हो, तो उसमें अनिश्चितता तो होगी ही।
‘जीवन्त’ का मतलब है कि वह गतिमान है, वह बदल सकता है, वह भिन्नहो सकता है। मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ और दूसरे क्षण में नहींभी कर सकता। किन्तु यदि में तुम्हारा पति हूँ या तुम्हारी पली हूँ तब फिर तुम निश्चिन्त होसकतेहो कि दूसरे क्षण भी मैं तुम्हारा पति या पली ही रहूँगा। यह एक संस्था है। मृत चीज़े स्थायी होती हैं, ज़ीवित चीज़ें क्षणिक होती हैं, बहाव में बदलती हुईं। आदमी स्वतन्त्रता से डरता है। और स्वतन्त्रता ही एक ऐसी चीज़़ है ज़ोकि तुम्हें आदमी बनाती है। इसलिए हम आत्मघाती हैं-अपनी स्वतन्त्रता को नष्टकर रहे हैं। और उसे नष्ट करने के साथ ही हम अपने ‘होने’ की सारी संभावनाको ही समाप्त कर रंहे हैं। तब ‘पाना’ अच्छा है क्योंकि ‘पाने’ का अर्थ होताहै चीज़ों को संगृहीत करना। तुम संग्रह करते चले जाते हो, उसका कमी अन्तनहीं आता। और जितना तुम संग्रह करते जाते हो, उतना ही तुम सुरक्षित अनुभवकरते हो। और जब मैं कहता हूँ कि ‘‘अब आदमी सचेतन गति करता है’’ तोमेरा यही मतलब है कि तुम्हें अपनी स्वतन्त्रता का भी पता हो और तुम अपनीस्वतन्त्रता के भय के प्रति भी होश रखो।
इस स्वतन्त्रता का कैसे उपयोग कों?
धर्मं कुछ और नहीं बल्कि एक प्रयास है, इस सचेतन विकास की ओरएक प्रयत्न है कि किस भाँति इस स्वतन्त्रता का उपयोग करें। तुम्हारे स्वैच्छिकप्रयास अब महत्त्वपूर्ण हैं। जो कुछ भी तुम अवैच्छिक रूप से करते ही, वह तुम्हारे अतीत का हिस्सा है। तुम्हारा भविष्य तुम्हारे सचेतन प्रयासों पर निर्भर करता है। एक साधारण-सा कर्म भी जोकि सजगता से किया गया हो, जो कि स्वेच्छासे किया गया हो, तुम्हें एक विकास प्रदान करता है। एक मामूली-सा कृत्य भी।
तुम उपवास करते हो, परन्तु इसलिए नहीं कि तुम्हारे पास भोजन नहीं हैतुम्हारेपास भोजन है, तुम उसे खा सकते हो। तुम्हें भूख लगी है और तुम खासकते हो। तुम उपवास करते हो, यह स्वेच्छा से किया गया कर्म है एक सचेतनकृकृत्य। कोई पशु ऐसा नहीं कर सकता। एक पशु उपवास करेगा, यदि उसे भूखनहीं है। एक पशु को उपवास कस्ना ही पडेगा यदि उसके पास भोज़न नहीं हैलेकिन आदमी ही उपवास कर सकता है जब कि उसे भूख भी है और भोजनभी है। यह स्वेच्छा से किया गया कृत्य है। तुम अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग कररहे हो। भूख तुम्हें धकेल नहीं सकती। भूख तुम्हें धक्के नहीं मार सकती औरभोजन तुम्हें खीच नहीं सकता।
यदि भोजन नहीं है, तो वह उपवास नहीं है। यदि भूख नहीं है, तो वहप्राकृतिक बीमारी है। वह फिर उपवास नहीं है। भूख भी है, भोजन भी है औरफिर भी तुम उपवास किये हो। ऐसा उपवास एक वोलीशनल ऐक्ट है, एक स्वेच्छागतकर्म है-एक सचेतन कृत्य है। इससे तुम्हारी सजगता बढेगी। तुम्हें एक सूक्ष्मस्वतन्त्रता का अनुभव होगा-भोजन से मुक्ति भूख से मुक्ति। वास्तव में, बहुतगहरे में-शरीर से मुक्ति। और उससे भी नीचे, गहरे में प्रकृति से मुक्ति। औरतुम्हारी स्वतन्त्रता बढ़ती है, और तुम्हारी सजगता विकसित होती है। जैसे-जैसेतुम्हारी सजगता बढ़ती है, वैसे-वैसे तुम्हारी स्वतन्त्रता बढ़ती है। वे दोनों एक-दूसरों से ज़ुड़े है। और अधिक मुक्त होजाओ और तुम अधिक सज़ग होओगे, अधिक सज़ग होज़ाओ और तुदृनृ अधिक मुक्त होज़ाओगे 1 ये दोनों एक दूसरेपर निर्भर है।
परन्तु हम अपने को धोखा दे सकते हैं 1 एक बेटा, एक बेटी, कह सकतीहै-‘‘मैं अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करूँगी, ताकि मैं और अधिक स्वतन्त्र होसकूँ।’’ हिप्पी वही कर रहे हैं, किन्तु विद्रोह करना-मुक्त होना नहीं है क्योंकिवह प्राकृतिक है। एक उम्र पर माता-पिता के खिलाफ विद्रोह करना स्वतन्त्रतानहीं है। वह मात्र प्राकृतिक हैं। एक बच्चा ज़ो कि गर्भ से निकलकर आ रहाहै, नहीं कह सकता कि मैं गर्भ को छोड़ रहा हूँ। वह केवल एक प्राकृतिक बात हैज़ब कोई काम के लिए परिपक्व होता है, तो वह उसका दूसरा ज़न्म हैअब उसे अपने माता-पिता से लड़ना चाहिए क्योंकि ज़ब वह उनसे लडेगा तबही वह उनसे दूरजा सकेगा। और जब तक वह उनसे दूर नहीं चला ज़ाता, तब तक वह एक नये परिवार काकेन्द्र निर्मित नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्येक बच्चा अपने माता-पिता के खिलाफ जाएगा, यह प्राकृतिक है। और यदि एक बच्चा विरुद्धनहींजा रहा है, तो वह विकास है क्योंकि तब वह प्रकृति से लड़ रहा है।
उदाहरण के लिए तुम्हारा विवाह होता है। तुम्हारी माँ और तुम्हारी पत्नीमें अब संघर्ष पैदा होगा ज़ो कि प्राकृतिक है। प्राकृतिक मैं कहता हूँ इसलिएक्योंकि माँ के लिए यह एक बहुत बड़ा धक्काहै। तुम एक दूसरी स्त्री के पासचले गये। अब तक तुम पूरी तरह माँ के ही थे। और इससे कोई भेद नहीं पड़ताकि वह तुम्हारी मॉ है क्योंकि भीतर गहरे में तो न कोई माँ है और न कोई पत्नीहै। भीतर गहरे में हर माँ एक स्त्री है। अचानक तुम दूसरी स्त्री के तरफ मुड़गये और तुम्हारी माँ के भीतर जोस्त्री है, वह दुखी होगी, ईर्ष्या से भरेगी। लडाईऔर संघर्ष स्वाभाविक है। परन्तु यदि तुम्हारी माँ अब भी तुम्हें प्रेम कर सके, तो फिर वह विकास है। यदि तुम्हारी माँ तुम्हें इतना प्रेम कर सके ज़ितना कि उसने पहले कभी नहीं किया जबकि तुम एक दूसरी स्त्री के पास चले गये तोफिर यह विकास है-एक सचेतन विकास है। वह प्राकृतिक वृतियों से ऊपर उठरही है।
जब तुम बच्चे होते हो तो तुम अपने माता-पिता को प्रेम करते हो। वहस्वाभाविक है, केवल एक सौदा है। तुम असहाय हो और वे लोग तुम्हारे लिएसब कुछ कर रहे हैं। तुम उन्हें- प्रेम करते हो और तुम उन्हें आदर देते हो। जबतुम्हारे माता-पिता बूढे हो गये हों और तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सकते होंतब भी यदि तुम उन्हें प्रेम करो और-आदर दो तो फिर यह विकास है। जबभी प्राकृतिक वृत्ति का अतिक्रमण होता है, तो तुम विकसित होते हो। तुमने अपनीस्वेच्छा से एक निर्णय लिया, इसलिए तुम्हारा अस्तित्व बढ़ेगा और तुम एक नया तत्व उपलब्ध करोगे।
पुरानी भारतीय संस्कृति ने हर प्रकार से यह कोशिश की है कि जीवन में जो भी हो इससे विकास हो। एक बच्चे के लिए यह बिल्कुल स्वाभाविक है किवह अपने पिता का आदर करे, परन्तु यह अस्वाभाविक है कि जब पिता बूढाहो गया हो, मरने के करीब है, कुछ भी करने में असमर्थ हो और खाली उसपर एक बोझ हो, तब यह अप्राकृतिक है। कोई पशु ऐसा नहीं कर सकता, प्राकृतिकबन्धन टूट गया। केवल आदमी ही यह कर सकता है, और यदि यह किया ज़ातातो तुम विकसित होते हो। यह स्वेच्छागत है। तुम किसी भी स्वेच्छागत कृत्य से-चाहे साधारण हो, चाहेजटिल-बढ़ते हो।
मैं तुम्हें कहानी कहता हूँ। ‘महाभारत’ में भीष्म के पिता एक लड़की केप्रेम में पड़ गये। वे बहुत वृद्ध थे। लेकिन यदि तुम बूढे भी हो गये हो, तो भीप्रेम में गिर जाना स्वाभाविक बात है। मृत्यु-शय्या पर भी तुम प्रेम में पड़ सकते हो। लड़की राज़ी हो गई, किन्तु लड़की के पिता ने एक शर्त रखी। उसने कहाकि तुम्हारे एक बेटा है भीष्म। भीष्म युवा थे, विवाह होने को था। लड़की केपिता ने कहां भीष्म तुम्हारे राज्य का उतराधिकारी होगा, इसलिए मेरी यह शर्तमंज़ूर होनी चाहिए कि यदि मेरी लड़की से कोई सन्तान पैदा होती है तो वही राज्य की उतराधिकारी होगी, न कि भीष्म’’
पिता के लिए यह बात बड़ी अस्वाभाविक थी कि भीष्म से कहें। वह बूढाथा और किसी भी दिन मर सकता था। लेकिन वह बहुत चिन्तित और उदास हो गया। इसलिए भीष्म ने उससे पूछा, ‘क्या ब़ात है? क्या तुम्हारे मस्तिष्क मेंकोई उलझन है? मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ मुझे बतायें।’’ अतः उसनेएक कहानी बनाई। बूढे आदमी इसमें बड़े होशियार होते हैं। उसने कहा-‘‘चूँकि तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो, और चूँकि प्रकृति का कोई भरोसा नहीं, यदि तुम मर जाओ या तुम्हें कुछ होजाये तो फिर मेरे राज्य का कौन मालिक होगा? इसलिएमैंने विद्वानों से राय ली और उनका कहना है कि मैं एक विवाह और कर लूँ ताकि मेरे एक पुत्र और पैदा हो सके।’’
अतः भीष्म ने कहा, इसमें क्या अड़चन है? आप विवाह कर लें। तब पिताने कहा, ‘उसमें एक कठिनाई है। मैं इस लड़की से विवाह करना चाहता हूँ। लेकिन उसके पिता की यह शर्त है कि तुम्हारा पुत्र भीष्म राज्य का हकदार नहीं होगा। केवल मेरी लड़की का पुत्र ही राज्य का मालिक हो।’ अतः भीष्म नेकहा, ‘मेरे लिए ठीक है, मैं आपको वादा करता हूँ।’ भीष्म उस आदमी केपास गया जिसकी लड़की का उसके पिता से विवाह होनेवाला था। उसने कहा, मैं तुमसे वादा करता हूँ कि मैं साम्राज्य का उत्तराधिकारी नहीं बनूँगा।’’ परन्तुवह आदमी एक ममूलीमछली पकड़ने वाला था, बहुत साघारण आदमी थाउसने कहा, ‘मैं जानता हूँ। परन्तु आप केसे वादा कर सकते हैं? आपके लड़केउलझन खडी कर सकते हैं। हम तो मामूली मछुए हैं, बहुत साधारण लोग हैं। यदि तुम्हारे पुत्र कोई भी परेशानी खड़ी करें तो हम तो कुछ भी न कर सकेंगे।’’ अतः भीष्म ने कहा, ‘‘मैं वादा करता हूँकि मैं कभी विवाह नहीं करूँगा। तब तो ठीक है न?’’ तब कहींजाकर सारी बात समाप्त हुई।
यह एक बड़ी अप्राकृतिक बात थी। वे युवा थे, और उन्होंने कभी शादीनहीं की। किसी स्त्री की तरफ कामवासना से नहीं देखा। यह विकास हुआ। इस बात ने एक सूक्ष्म अस्तित्व को निर्मित किया, एक केंन्द्र पैदा किया। तब उसकेबाद किसी और साधना की कोई आवश्यकता नहीं थी। केवल यह तथ्य काफीथा। उनके भीतर केंद्रीकरण हो गया। यह वादा पर्याप्त। वे दूसरा ही आदमीहो गये। उनका ऊर्ध्व विकास शुरू हो गया। प्राकृतिक समतल रेखा ठहर गई। इस वायदे के साथ ही सब कुछ ठहर गया। अब कोईजैविक संभावना नहीं थी। हर प्राकृतिक बात बेमानी हो गई।
किन्तु भीष्म ज़ैसे लोग दुर्लभ हैं। बिना किसी आध्यात्मिक साधना के, बिना किसी आध्यात्मिक प्रयास के उन्होंने ऊँचे-से-ऊँचा शिखर पा लिया। इसलिए किसी भी कृत्य में-साधारण हो-चाहे जटिल, जो कि एक सचेतन निर्णय से आता है, बिना किसी शिक्षा से उत्प्रेरित हुए, बिना किसी प्राकृतिक शक्ति के धक्के के-यदिवह तुम्हारा निर्णय है, तो उस निर्णय से तुम निर्मित होते हो। तुम्हारा हर निर्णयतुम्हारे जन्म के लिए निर्णायक होता है। तुम एक भिन्न ही आयाम में विकसित होते हो। इसलिए किसी भी कर्म का उपयोग करें-साधारण-से-साधारण कृत्य
का भी।
तुम बैठे होः निर्णय करो किमैं अपने शरीर को दस मिनट तकनहीं हिलाऊँगातुम्हें बड़ा आश्चर्य होगा कि यद्यपि शरीर पहले कतई नहीं हिल-डुल रहा था, लेकिनअब शरीर मजबूर कर रहा है, हिलने-डुलने के लिए। तुम्हें शरीर में होने वाली बहुत-सी सूक्ष्म गतियों का पता चलेगा जो कि पहले बिल्कुल तुम्हारे ध्यान में नहीं थी। अब शरीर विद्रोह कोमा। सारा अतीत उसके पीछे खड़ा है ओर शरीर सेकहेगा, मैं गति करूँगा। शरीर कंपने लगेगा, सूक्ष्म गतियाँ शुरू होजायेंगी और तुम्हें बहुत-से आकर्षण खींचेंगे हिलने-डुलने के लिए तुम्हारे पाँव सुन्न होजायेंगे। वे मृत होज़ायेंगे और तुम कहीं खुजलाना चाहोगे। बहुत बातें होंगी। तुम पहलेबिना हिले-डुले बैठे थे, लेकिन अब तुम नहीं बैठ सकते। लेकिन यदि तुम दस मिनट भी बिना हिले डुले बैठ सको, तो तुम्हें किसी ध्यान की आवश्यकता नहीं है।
जापान में-वे ‘‘खाली बैठने’’ को ध्यान कहते हैं। उसके लिए उसका शब्दहै-‘ज़ा-ज़ेन’ज़ा-ज़ेन का अर्थ होता है सिर्फ बैठना। तब सिर्फ बैठो और कुछ भी न करो। जब कोई साधक गुरु के पास आता तो वह उससे कहता-‘‘किबस खाली बैठो, घंटों तक खाली बैठे रहो।’’ज़ेन आश्रम में तुम्हें बहुत-से साधकघंटों तक सिर्फ बैठे हुए मिलेंगे। कोई ध्यान की प्रक्रिया नहीं दी गई, कोई मनननहीं, कोई प्रार्थना नहीं। केवल बैठना ही ध्यान है।
एक साधक बिना हिले-डुले छः घंटे तक बैठेगा, और जब सारा हलन-चलन समाप्त होजाये, चला जाये, जबकि कोई गति ही न हो, और खाली गतिही न हो, इतना ही नहीं बल्कि भीतर मन में भी हिलने-डुलने की इच्छा शेषन हो, तब तुम केन्द्र पर होते हो, तब तुम संगठित हुए। तुमने एक साधारण सेबैठने के कृत्य को तुम्हारी स्वेच्छा के लिए तुम्हारे संकल्प के लिए, तुम्हारी-सज़गता के लिए उपयोग किया।
यह बहुत-कठिन है। यदि मैं तुमसे कहूँ कि अपनी आँखें बन्द कर लें औरउन्हें खोलें नहीं, तो बहुत से प्रलोभन आ जायेंगे। और तब तुम्हें बड़ी बेचैनीअनुभव होगी, उन्हें बन्द रखने में, और तुम उन्हें खोल दोगे। और तुम अपने कोभी धोखा दोगे कि मैंने थोड़े ही खोली, अचानक वे अपने आप रवुल गई। आँखें अपने आप खुल गई। मुझे पता ही नहीं चला। अथवा तुम दूसरी तरह से धोखादोगे-तुम छोटी-सी झलक ले लोगे, एक मात्र और फिर बन्द कर लोगे।
यदि अपनी स्वेच्छा से अपनी आँखें बन्द रखो, तो वह सहायक होगा। कुछभी विकसित होने के लिए माध्यम हो सकता है। अतः अपनी आदत का ख्यालकरो। और जो भी तुम करो, स्वेच्छा से करो। कुछ भ-कोई भी आदत का उपयोगकिया ज़ा सकता है। किसी भी यांत्रिक कृत्य का इस्तेमाल किया जा सकता हैउसके विपरीत करना शुरू करो। और जब तुम एक बार निर्णय कर लो, तो फिरवैसा करो, अन्यथा वह बड़ा आत्मघाती सिद्ध होगा।
वह आत्मघाती सिद्ध होगा। यदि तुम कुछ निर्णय करते हो और उसे पूरानहीं करते तो अच्छा है क्योंकि निर्णय ही न करो, क्योंकि उससे तुम्हारे संकल्प को बड़ा भारी धक्का लगता है। और हम वैसा कर रहे है। हम तय करते चले जातेहैं और नहीं करते हैं। और आखिर में हम संकल्प की सारी संभावना ही नष्टकर देते हैं और फिर हम अपंने भीतर एक गहरी संकल्पहीनता, गहरी नपुंसकता, एक गहरी शिथिलता का अनुभव करते हैं। ओर तुम बहुत मामूली बातों का निर्णयभी पूरा नहीं कर सकते। कोई तय करता है कि मैं अब सिगरेट नहीं पीऊँगा, और दूसरे ही दिन वह सिगरेट पीता दिखलाई पड़ता है। तुम सोचोगे कि उसमें क्या गलती है? वह मेरा ही निर्णय था और मैं अपने निर्णय का मालिक हूँ औरमैंने वह बदल दिया है।
तुम मालिक नहीं हो। तुमने निर्णय बदल दिया क्योंकि तुम मालिक नहीं हो। सिगरेट मालिक सिद्ध हुई, तुम नहीं। सिगरेट पीना तुमसे ज्यादा शवितशालीसाबित हुआ। तब अच्छा है कि निर्णय ही मत करो-सिगरेट पीते रही। किन्तुअगर तुम निर्णय करते हो तो फिर इस निर्णय पर डटे रहो। तब उससे हटो मतवह तुम्हें विकसित कर देगा।
सचमुच हर आदत तुमसे संघर्ष करेगी और तुम्हारा मन कहेगा कि क्या कररहे हो। इसमें क्या बुरा है। तुम्हारा मन कई तरह से तर्क करेगा। मैं नहीं कहताकि सिगरेट पीना गलत है। मैं यह कहता हूँ कि पहले निर्णय करना कि सिगरेटनहीं पीऊँगा और फिर पीना गलत है। इसके विपरीत भी कर सकते हो : यदितुम निर्णय करते हो कि सिगरेट पीऊँगा तो फिर पीओ। फिर रुको मत। फिरचाहे कुछ भी होता हो-कैंसर हो या फिर कुछ भी हो, उसे होने दो। यदि साराजगत भी उसके खिलाफ जाता हो, तोजाये। यदि तुमने सिगरेट पीने का निर्णयकिया है, तो पीओ। जीवन की कीमत पर भी पीओ। वह भी तुम्हें विकसित करेगा।
अतः सवाल सिगरेट पीने या न पीने का नहीं है। भीतर गहरे में सवाल संकल्प को, स्वेच्छागत कृत्य को पूरा। करने का है। चाहे कोई भी विषय हो, इससे कोई मतलब नहीं है। लेकिन निर्णय करो और छोटे-छोटे से निर्णयों से तुम एकबहुत बड़ा संकल्प निर्मित कर सकते हो-बहुत छोटे-छोटे निर्णयों से।
जैसे कि कहो-कि मैं एक घंटे तक खिड़की से बाहर नहीं देखूँगा। यह एक बहुत ही छोटा-सा निर्णय है, जिसका कोई अर्थ भी नहीं है। कौन परवाहकरेगा कि आप खिड़की से बाहर देखते हैं या नहीं। और खिड़की के बाहर कुछ हो भी नहीं रहा है। लेकिन जिस क्षण तुम यह निर्णय करते हो कि मैं खिड़कीसे बाहर नहीं देखूँगा, तुम्हारा सारा अस्तित्व विद्रोह करेगा और देखना चाहेगा और खिड़की ही सारे जगत का केन्द्र होजायेगी। ऐसा लगेगा कि ज़ैसे तुम सब कुछ खोरहेहोवहाँकुछहोरहा है।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन ने तय किया कि आज मै बाज़ार नहींजाऊँगा। उस समय सवेरे के पाँच बजे थे। बाजार जाने का कोई सवाल भी नहीं था। उसने सिर्फ निश्चय किया था कि वह नहींजाएगा। तब वह बाजार के बारे में सोचने लगा। और उसने ऐसा इसलिए निश्चय किया था क्योंकि सप्ताह में एक दिन ही गाँव में बाजार लगता था। उसने सोचा-हर सप्ताह मैं बेकार ही बाजार जाता हूँनतोकुछवेचने कोहोताहैओरनखरीदने को।
वह एक गरीब आदमी था-न कुछ बेचने को था और न ही खरीदने कोउसने सोचा कि फिर मैं बिना मतलब ही बाजार क्यों जाता हूँ। क्योंकि हर एक जाता है औरयह बाजार का दिन है-गाँव में उत्सव का दिन होता है। मैं क्यों जाऊँ? आज मैं नहीं जाऊँगा, यद्यपि आज हाट का दिन है।
उसने यह निर्णय सवेरे पॉच बजे ही कर लिया। और तब वह सोचनेलगा-‘‘कहीं ऐसा नहीं हो कि वहाँ कोई खास बात होजाए। मुझे जाना चाहिए, न मालूम क्या बात हो।’’ अतः वह उस पर गौर करने लगा, और भीतर-ही-भीतर परेशान होने लगा। और तब करीब छः बजे वह बाज़ार में पहुँच गया। अभीचार-पाँच घंटे बाकी थे बाज़ार के लगने में, लोगों को इकट्ठे होने में। लेकिनवो बाजार में एक पेड़ के नीचे बैठा था, ठीक बाज़ार के बीच में।
किसी ने मुल्ला से पूछा-‘‘मुल्ला, तुम इतनी जल्दी ही बाज़ार मेँ क्यों बैठे हो? नसरुद्दीन ने कहा-आज बाज़ार का दिन है और मैं ने सोचा कि कोई ऐसीघटना होजाये और बहुत भीड़ इकट्ठी होगी और कहीं ठीक-स्थान पर नहीं पहुँच पाऊँ? इसलिए मैं पहले से ही मध्य में बैठ गया हूँ। अगर कुछ भी होताहै तो मैं पहला आदमी होऊँगा। और कौन ज़ाने। इस जगत में सभी कुछ संभव है।’’
बाज़ार बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया, सारेजगत का केन्द्र हो गया। और वहइतना आकर्षक हो गया मात्र एक निर्णय लेने से कि मैं आज बाजार नहींजाऊँगा, क्योंकि हर सप्ताह मैं बेकार ही जाता हूँ न तो कुछ खरीदने को होता है, औरन बेचने को।
जिस क्षण भी तुम निर्णय करते हो, तो आकर्षित होते हो। और इस आकर्षणसे ऊपर उठना ही विकास है, ग्रोथ है। स्मरण रहे कि यह दमन नहीं है। यह दमन नहीं अतिक्रमण है। प्रलोभन वहाँ है, तुम उससे लड़ते भी नहीं हो, तुम उसे स्वीकार करते हो। तुम कहते हो, ठीक है, प्रलोभन हो रहा है, लेकिन मैंने निर्णय कर लिया है। इसे ध्यान के लिए उपयोग करें।
तुम बैठे हो। और जब तुम ध्यान के लिए बैठे हो तो बहुत से विचार बिना बुलाये मेहमानों की तरह आयेंगे। वे साधारणतः कभी नहीं आते। जब तुम ध्यानकरते हो, तभी केवल वे भी आते है, वे आयेंगे, वे भीड़ लगायेंगे, वे तुम्हें घेर लेंगे। उनसे लड़ो नहीं। केवल इतना ही कहो-‘‘मैंने निर्णय कर लिया है किमैं तुम्हारे कारण परेशान न होऊँगा, और स्थिर बैठे रहो। एक विचार तुम्हारे पासआता है, उससे केवल इतना ही कहो-‘‘चले जाओ’’। उससे लड़ो मत। लड़कर तुम परिचय बना लेते हो, लड़कर तुम स्वीकार कर लेते ही, लड़कर तुम उससेकमज़ोर साबित होजाओगे। केवल कहो कि ‘‘चले ज़ाओ’’ और स्थिर बैठे रहो। तुम चकित होजाओगे, सिर्फ इतना कहने से ही कि चले जाओ, वह चला जाता है।
लेकिन पूरे संकल्प के साथ कहो। तुम्हारा मन बँटा हुआ नहीं हो। वह कहींस्त्रियों जैसी ‘ना’ नहीं हो। वह वैसा न हो, क्योंकि स्त्रियाँ जितने ज़ोर से ‘ना’ कहती हैं, उतना ही उसका मतलब ‘हॉ’ होता है। वह स्त्रियों वाला ‘ना’ नहीं हो। यदि तुम कहते कि ‘‘चले ज़ाओ’’। तो भीतर इसका मतलब यह नहीं होकि ‘‘और नज़दीक चले जाओ’’। और तब पूरे संकल्प से कहो कि-जाओयही मतलब भी हो तुम्हारा और विचार चला जाएगा। यदि तुम क्रोध में हो, औरतुमने निर्णय कर लिया है कि मैं क्रोधित नहीं होऊँगा, तो उसे दबाओ नहीं। सिर्फक्रोध से इतना ही कहो-‘‘मैं क्रोधित होने वाला नहीं हूँ’’ ओर क्रोध चला जाएगा।
यह एक यांत्रिकता है। तुम्हारे संकल्प की आवश्यकता है क्योंकि क्रोध कोऊर्जा चाहिए। यदि तुम पूरी शक्ति से ‘ना’ कह दो, तो क्रोध के लिए कोई ऊर्जानहीं बचती। एक विचार चलता है क्योंकि भीतर बहुत गहरे में ‘हाँ’ छिपा है। यदि तुम ‘ना’ कह देते हो तो वह ‘हाँ’जड़ से कट जाता है। विचार की जड़ेउखड़जाती हैं। वह तुम्हारे भीतर-नहीं रह सकता। परन्तु तब ‘हाँ’ अथवा ‘ना’ का मतलब भी वही होना चाहिए। तब ‘हॉ’ ही हो। परन्तु यदि हम ‘हाँ’ कहतेचले जाए और मतलब ‘ना’ हो, अथवा ‘ना’ कहैं और मतलब ‘हाँ’ हो, तब फिरसारा जीवन उलझन से भर जाता है। और तुम्हारा मन, तुम्हारा शरीर समझ हीनहीं पाते कि तुम्हारा मतलब क्या है, और तुमक्या कह रहे हो
यह सचेतन प्रयास निर्णय लेने का, कृत्य करने का व होने का-यही मनुष्यके लिए विकास होगा। एक बुद्ध तुमसे भिन्न है इस प्रयास के कारण ही, औरकुछ बात नहीं। बीज रूप में कोई भेद नहीं है, केवल यह सचेतन प्रयास ही साराभेद निर्मित करता है
आदमी और आदमी में केवल यह सचेतन प्रयास ही एकमात्र वास्तविक भेद हैं। बाकी सब बहुत ऊपरी बात है। केवल तुम्हारे कपड़े ही भिन्न हैं। किन्तु जबतुम्हारे भीतर कुछ सचेतन जैसा है, एक प्रौढ़ता है, एक भीतरी प्रौढ़ता है जो किप्राकृतिक नहीं है, जो कि पार चली जाती है, तभी तुम्हारे पास एक विशिष्टव्यक्तित्व है।
बुद्ध एक गॉव में से गुज़र रहे हैंजहाँ कि बहुत से आदमी उनका अपमान करने इकट्ठे हो गये हैं। वे कहते हैं, तुम लोग देर से आये, तुम्हें दस सालपहले आना चाहिए था, क्योंकि अब मैं जाग गया हूँ। अब मैं प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। यदि तुम मेरा अपमान करते हो, मुझे गाली देते ही, तो मेरेलिए वह ठीक है। मैं जवाब देनेवाला नहीं, तुम मुझे बदलेमें गाली देने को मजबूर नहींकर सकते।
जब कोई तुम्हें गाली देता है, तो वह तुम्हें क्रोध करने के लिए मजबूर कर रहा है। और जब तुम क्रोधित होते हो, तो तुम क्रोध के हाथों में गुलाम हो गये उसने तुम्हें क्रोध दिला दिया। और हम बिना सोचे-समझे कहे चले जाते है कि हम क्या कह रहे हैं कि ‘उसने मुझे क्रोध दिला दिया।’ तुम्हारा क्या मतलबहै। उसने तुम्हें कुछ कहा और उसने तुम्हें क्रोधित कर दिया, अतः वह तुम्हारा मालिक हो गया। वह कुछ भी कह सकता है, वह बात को बना-बिगाड़ सकताहै, वह बटन दबा सकता है, और तुम क्रोध में आते हो। तुम पागल होजाते हो। तुम्हारा बटन किसी के द्वारा भी दबाया जा सकता है, और तुम्हें पागल कियाज़ा सकता है।
बुद्ध कहते हैं-तुम देर से आये, मित्र। अब मैं स्वयं अपना मालिक होगया हूँ। अब तुम मुझे कुछ भी करने को मज़बूर नहीं कर सकते। यदि मैं चाहूँतो मैं करूँ, और यदि मैं नहीं चाहूँ तो मैं नहीं करता। तुम्हें वापस जाना पडे़गा। मैं तुम्हें जवाब देनेवाला नहीं हूँ। वे लोग परेशानी में पड़ गये, क्योंकि यह अग्दमीबहुत ही बेबूझढंग से बर्ताव कर रहा है। जब तुम किसी को गाली देते हो, तो वह अपमानित महसूस करता है, वह क्रोधित होता है, उसे किसी-न-किसी भाँति प्रतिक्रिया करनी ही चाहिए। परन्तु इस आदमी ने प्रतिक्रिया करने से इनकार कर दिया। और बुद्ध उन लोगों से कहते हैँ, ‘‘मैं जरा जल्दी मैं है, दूसरे गाँवपहुँचने की। यदि तुम्हारी बात पूरी हो गई हो, तो मुझे जाने दो। यदि तुम्हें कुछ और भी कहना हो, तोजब मैं लौटकर आऊँ, तो तुम तैयार रहना और कह देना।’’
यही अतिक्रमण है। कुछ जो स्वाभाविक था, उसका अतिक्रमण हो गयाप्रतिक्रिया स्वाभाविक है, क्रिया विकास है। हम सब प्रतिक्रिया करते हैं। हमारेपास कोई क्रिया नहीं है-केवल प्रतिक्रियाएं हैं। कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम्हें अच्छा लगता है, और कोई तुम्हें गाली देता है और तुम्हें बुरा लगता है, और कोई एक किस्म का व्यवहार करता है और उससे उस किस्म की प्रतिक्रिया होती है। तुम्हारे बारे में पूवं-निश्चित हुआ जा सकता है।
एक पति घर लौटता हुआ जानता है कि उसकी पली क्या पूछनेवाली हैं। वह उत्तर तैयार कर लेता है। हॉलाकि अभी वह घर नहीं पहुँचा है, उसने उत्तर तैयार कर लिया है। वह यह भी जानता है कि उसकी पली उसके उत्तर का विश्वास करनेवाली नहीं है। और पत्नी भी जानती है कि वह क्या पूछनेवाली है और पतिक्या जवाब देगा। हर चीज़़ पूर्व निश्चित है और वही रोज-रोज हो रहा है। और यही सारे जीवन चलेगा। वही सवाल वही जवाब, वही सन्देह, वही शंका, वही चालाकियाँ, वही-के-वही खेल, और लोग उन्हें खेले चले ज़ाते हैं। ये सब प्रतिक्रियाएं हैं।
किसी वे मुल्ला नसरुद्दीन से कुछ रुपया मांगा। मुल्ला ने कहा, ‘‘यह पहली दफा तुमने मांगा है, इसलिए मैं दिये देता हूँ।’’ उसने रुपया दे दिया। वह एक एक छोटी-सी रकम थी। तब मुल्ला ने सोचा, इतनी छोटी-सी रकम वापस लौटने वाली नहीं है। परन्तु उस आदमी ने वे रुपये लौटा दिये। सात दिन बाद उसने न रुपये वापस कर दिये। मुल्ला को बडा ताज्जुब हुआ। एक सप्ताह बाद वह आदमी फिर रुपये मांगने आया। मुल्ला ने कहा, ‘‘अब इस ज़ार तुम मुझे धोखादे सकते। तुमने पिछली दफा धोखा दिया।’’
उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘क्या कहते हो। मैंने तुम्हारा रुपया लौटा दिया।’’ किन्तु मुल्लाने कहा, ‘‘परन्तु तुमने मुझे धोखा दिया, वयोंकि मुझे पक्का यकीन था कितुम रुपया नहीं लौटाओगे। यह बात निश्चित थी। परन्तु तुमने लौटाकर मुझे धोखा दिया। अब तुम दोबारा धोखा नहीं दे सकते। मैं तुम्हें रुपया देने वाला नहीं हूँ।’’
यदि कोई हमारी पूर्वधारणा। के इधर-उधर व्यवहार करे तो हमें आश्चर्य होता है। हम इतने पूर्वनिर्धारित हैं कि प्रत्येक जानता है कि कोई वया करनेवाला है। तुम ऐसा ऐसा करो और ऐसा ऐसा होगा। यह एक यांत्रिक प्रतिक्रिया है। इनयांत्रिक प्रतिक्रियाओं के पार चले जाओ, प्राकृतिक शाक्तियों का अतिक्रमण कर जाओ, संकल्प निर्मित करो। वही मार्ग है, आदमी के विकास के आगे आदमी से नीचे, प्राकृतिक विकास है, किन्तु वह आदमी के लिए नहीं है।
औरप्रश्न कादूसरा हिस्सा है-कृपया बतायें कि चेतना के विकास में बुद्ध-पुरुषों का क्या योगदान होता है?
बुद्ध-पुरुषों का योगदान होता है क्योंकि मनुष्य की चेतना अकेली नहीं हैं, व्यक्तिगत नहीं है। वह भी सामूहिक है। वह तुम्हारे भीतर है और वह तुम्हारे बाहर भी हैं। एक तरह से चेतना तुम्हारे भीतर भी है और तुम बड़ी भारी चेतना के भीतर भी हो-जैसे कि सागर में मछली। मछली सागर में है ओर सागर मछलीमें है।
हम चेतना के महान सागर में जीते हैं। और जब कभी भी एक बुद्ध का जन्म होता है, जब कभी भी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, अपने प्रयासोंसे जागता है, अपने सचेतन विकास के द्वारा ऊपर उठता है, तो सागर में एक लहर उठती है। उस लहर के साथ ही सागर में हर चीज प्रभावित होती है। ऐसाहोगा ही क्योंकि सागर में एक लहर एक बहुत बडे़ढाँचे का हिस्सा है।
जब बुद्ध अपने शिखर पर उठते हैं, तो सारा सागर हज़ार-हज़ार लहरों में हूँप्रभावित होता है। अब ये ऊँचाई सब जगह प्रतिध्वनित होगी। तुम एक झील मेंएक पत्थर फेंकते होः एक छोटा वर्तुल उससे निर्मित होता है। और तब वहफैलता चला जाता है, और आखिर में सारी झील ही उससे प्रभावित होती है। एक बुद्ध भी एक झोल में गिरे एक पत्यर की भाँति है। अब मनुष्यता वैसी हीनहीं होगी, जैसी कि बुद्ध के पहले थी।
ईसाईयों ने इसे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात बनाई। वे इतिहास को दो हिस्सोंमें बांटते है, एक ईसा से पूर्व और दूसरा ईसा के बाद। सचमुच यह बहुत महत्त्वपूर्णबात है। वस्तुतः इतिहास भिन्न है और बँटा हुआ नहीं है, परन्तु विभाजन कियागया है, क्योंकि जीसस क्राइस्ट के बाद एक परिवर्तन है। चूँकि क्राइस्ट का जन्महुआ है, औरअब मनुष्यता वापस लौटकर मन की उस अप्रौढ़ स्थिति को नहींजा सकती। हर चीज़़्ा प्रभावित होती है। हम बुद्धों के साथ उठते हैं, हम हिटलरोंके साथ गिरते है, परन्तु यह उठना और गिरना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है। एकबुद्ध पैदा होते हैं, तो उनके साथ हर एक ऊपर उठता है। परन्तु यह तुम्हारी तरफसे सचेतन प्रयास नहीं हुआ।
तुम इस अवसर का उपयोग कर सकते हो। एक बुद्ध मौज़ूद हैं, एक प्रसुप्तसंभावना अपने अन्तिम तत्त्व में खिल गई। एक चेतना शिखर हो गई। अब यहतुम्हारे लिए बहुत अच्छा क्षण है, सचेतन प्रयास करने के लिए। अब तुम्हें कमसमय लगेगा, तुम्हें कम प्रयास करना पडे़गा। यह ऐसा ही है जैसे कि सारा इतिहासअपने शिखर कौ ओर बढ़ रहा हो। अब तुम आसानी से तैर सकते हो। परन्तुयदि तुम इस अवसर का लाभ नहीं लेते, तो तुम ऊँचाई तक जाओगे और तुमवापस लौट जाओगे। एक बुद्ध के साथ तुम ऊँचे उठोगे, एक हिटलर के साथ तुम नीचे गिरोगे। तुम ऊपर-नीचे उठते-गिरते रहोगे। ये ऊपर-नीचे गति तुम्हारे लिए प्राकृतिक शक्ति से होगा। एक बुद्ध के लिए यह एक सचेतन प्रयास है, तुम्हारे लिए वह सिर्फ एक प्राकृतिक शक्तिहोगी।
तुम उसका उपयोग कर सकते हो। आदमी उसका दो तरह से उपयोग करराकता है। जब एक ब़ुद्ध मौज़ूद है, तो उठना सरल है। सारी चेतना ही शिखरकी और खुली है। शिखर वहॉ मौज़ूद है। तुम्हारे भीतर बहुत गहरे में उसकी प्रतिध्वनि होती है। बहुत गहरे में संगीत सुनाईं पड़ता है, तुम उसका अनुसरण कर सकते हो। यदि तुम जरा-सा भी प्रयत्न करो तो तुम बहुत जल्दी ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकतेहो।
एक बहुत ही अर्थपूर्ण कहानी है-बुद्ध ने, जो अन्तिम पाना था-पा लिया, तब वे सात दिन तक बिल्कुल मौन हो गये। उनके पास यह भी न बचा किकहें कि उन्होंने क्या पा लिया। मौन समग्र था और टूटनेवाला भी नहीं था। ब्रह्माको बड़ा डर लगा कि वे यदि नहीं बोले... और ऐसा कभी-कभी ही घटित होताहैं कि कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। अतः कहानी कहती है कि ब्रहा। बुद्धके पास आये, उनके चरणों में झुके और बोले, ‘‘तुम बोलो। चुप न होजाओतुम्हें बोलना ही पडे़गा’’
बुद्ध वे कहा कि ‘‘यह बिल्कुल व्यर्थ लगता है क्योंकि जो मुझे सुन सकते है और समझ सकते हैं, वे मेरे बिना बोले भी समझजायेंगे। और जोमुझे नहीं सुनना चाहते, यदि मुझे सुन भी लें, तो भी न समझेंगे। अतरू कोई आवश्यकता नहींप्रतीत होती है।’’ ब्रह्मा ने कहा, ‘‘कुछ और भी लोग हैं जो कि बच रहते हैं। कुछ थोडे से लोग ऐसे भी हैं जो कि किनारे ही खड़े हैं। यदि आप बोले तो वे सुन लेंगे। और छलाँग लगा जायेंगे। यदि आप नहीं बोले, तो वे वापस भी गिर सकते हैं। वे बिल्कुल किनारे पर ही खड़े हैं। वे आपकी सुनेंगे और छलांग लगा जायेंगे।’’
एक बुद्ध उपस्थित हैं। छलाँग लगाने की एक संभावना बनती है। लेकिनतुम छलाँग लगाओ या नहीं परन्तु तुम प्रभावित होते हो। तुम पर असर होता हैपरन्तु यह प्रभाव बिना तुम्हारे सचेतन संकल्प के एक प्राकृतिक धक्का ही होगाऔर जब एक हिटलर आता है तो तुम उसके साथ नोचे आ जाते हो। जिस तरहकि एक बुद्ध के साथ तुम ऊपर उठते ही, तुम किसी के साथ भी नीचे गिर सकतेहो, क्योंकि ये ऊपर उठना तुम्हारी उपलब्धि नहीं है।
एक ऊपर उठती हुई लहर के साथ तुम ऊपर जाते हो, और एक नोचे गिरती लहर के साथ तुम नीचे गिरते हो। परन्तु तुम अवसर का उपयोग कर सकते हो। जब ऊपर उठ रहे हो, तब थोड़े से प्रयत्न से ही, तुम्हारे थोड़े से संकल्प से ही तुम अधिक उपलब्ध कर सकते हो। इसलिए एक बुद्ध के साथ, हज़ारों बुद्धत्वको उपलब्ध हो सकते हैं।
में नहींजानता कि तुम्हें इस बात का पता है या नहीं कि बुद्ध के समयपाँच सौ वर्षों के भीतर जो कुछ भी घर्म के संबंध में हो सकता था, हुआ। केवलपाँच सौ वर्षों में। बुद्ध-गौतम बुद्ध, महाबीर, सुकरात, प्लेटो, अरस्तू कनफ्यूसियस, लाओत्से, जरथुष्ट्र, जीसस क्राइस्ट-वे सब-के-सब पाँच सौ वर्षों में हुए-एक खास समय में, जबकि हर चीज़ ऊपर कौ ओर उठ रही थी। सारे बड़े-बड़े धर्म उनपाँच सौ सालों में पैदा हुए।
कुछ रहस्यपूर्ण जड़ में छिपा था-कुछ जो कि बहुत ही रहस्यपूर्ण था। केवलबिहार में, एक छोटी-सी जगह में, एक छोटे से प्रान्त में जबकि बुद्ध उपस्थित वे, उस समय बुद्ध की ऊंचाई के आठ लोग थे। केवल बिहार के छोटे से क्षेत्र में आठ आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध थे। महावीर वहाँ ही थे, बुद्ध थे, अजीत केशकम्बल थे, बिलथीपुट्टथे-आठ ऐसे लोग थे। और ये तो ज्ञात लोग थे।
किसी ने बुद्ध से पूछा, ‘‘तुम्हारे पास दस हजार विक्षु हैं, उनमें से कितनोंको बुद्धत्व उपलब्ध हो गया?’’ बुद्ध ने कहा, ‘‘कितनों को ही, मैं गिनती नहींकर सकता।’’ प्रश्नकर्ता ने पूछा, ‘‘तो वे चुप क्यों हैं? हमें उनकी प्रतीति क्योंनहीं होती? वे प्रसिद्ध क्यों नहीं होते? वे प्रसिद्ध क्यों नहीं हैं?’’ बुद्ध ने कहा‘‘जब मैं बोल रहा हूँ तो उन्हें बोलने को आवश्यकता नहीं है। और फिर मुझेही जब ज्ञान हुआ तो मैंने सब भाँति प्रयत्न किया कि चुप रहूँ। वे तो ब्रह्मा थेजिन्होंने कि मुझे बोलने को कहा और उसके लिए राजी कर लिया। इसलिए वेमौन हो गये हैं उनके बारे में कोई भी नहींजानेगा। उनके नाम भी नहींजाने जायेंगे।’’
एक दिन बुद्ध हाथ में एक फूल लिए भिक्षुओं के बीच आकर बैठ गयेउन्हें बोलना था, लेकिन वे कुछ भी न बोले। वे चुपचाप बैठे रहे, और ऐसा बहुतदेर तक चलता रहा। हर एक आदमी घबड़ा गया और उनके कुछ समझ में नआया। उन्होंने एक दूसरे से कान में फुसफुसा के कहना शुरू कर दिया, ‘‘क्या मामला है। आज बुद्ध बोल क्यों नहीं रहे हैं।’’ बुद्ध चुपचाप बैठे थे, हाथ मेंसिर्फ एक फूल को लिए-एक कमल का फूल, उसकी और चुपचाप देखते हुए, पूरी तरह उसमें डूबे हुए। तब किसी ने पूछा, ‘‘वीसा आप आज कुछ नहीं बोलनेवालेहैं?’’ बुद्ध ने कहा-‘‘में बोल रहा हूँ। सुनो।’’ और वे फिर चुप हो गये।
तब किसी और ने पूछा-‘‘हम कुछ नहीं समझ पाते कि आप क्या कहरहे हैं? आप सिर्फ फूल की और देख रहे हैं और हम यहॉ आप से कुछ सुननेके लिए आये हैं।’’ बुद्ध ने कहा, ‘‘मैंने, जो कुछ भी कहा जा सकता था, वहसब कह दिया है। अब मैं वह कह रहा हूँ जो कि कहा नहींजा सकतायदि कोई समझ पाता हो, तो हँसे।’’ अतः केवल एक आदमी खिलखिलाकर हँस पड़ा-महाकाश्यप। उसे पहले कोई भी नहींजानता था, उसका किसी कोभी नहीं था। यही केवल एक घटना थी, ज़िससे पता लगा कि महाकाश्यप उसव्यक्ति का नाम था।
आनन्द बुद्ध का बहुत प्रसिद्ध शिष्य था, सारीपुत्र भी बहुत जाना माना शिष्यथा, गोदगालायन भी परिचित शिष्यों में से था। परन्तु महाकाश्यप बिल्कुल हीअनजाना शिष्य था। न तो सारीपुत्र, न आनन्द, और न ही गोदगालायम हँस सके। केवल एक बहुत ही अनजान व्यक्ति, जिसका किसी को भी पता नहीं था, हँसा। बुद्ध ने उसे अपने पास बुलाया, ‘‘महाकाश्यप यहाँ मेरे पास आओ। ‘‘और बुद्धने वह फूल महाकाश्यप को दे दिया और कहा, ‘‘जो कुछ भी मैं कह सकताथा। वह मैंने बोलकर दूसरों को दे दिया। और जो कुछ भी मैं बोलका नहीं कहसकता था, वह मैं तुम्हें देता हूँ। इस फूल को लो। यही एक मात्र घटना महाकाश्यप के बारे मेंपताहेउसकेनामकेबारे में।
परन्तु जब बोधिधर्म चीन पहुँचा, बुद्ध के सात सौ वर्षों बाद तो उसने कहा, मैं महाकाश्यप का शिष्य हूँ। बुद्ध पहले गुरु थे, महाकाश्यप दूसरा था और उसी पंक्ति में मैं अट्ठाइसवाँ हूँ।’’ इसलिए जापान में जेन परम्परा कहती है कि महाकाश्यप ही उनका जन्मदाता है-वह आदमी जो कि हँसा था और जिसे बुद्ध ने फूल प्रदानकिया था।
रात्रि में जब सब चले गये और कोई भी न बचा तो आनन्द ने पूछा, ‘‘यहमहाकाश्यप कौन है? हमें इसका कोई भी पता नहीं। यह बड़ा ही अज्ञात व विचित्रआदमी है।’’ बुद्ध ने कहा, ‘‘तुम उसके बारे में जान भी कैसे सकते हो। वहवर्षों मौन रहा है। और वह हँस सका क्योंकि वह इतना मौन था। केवल वहीसमझ सका। यह बिना शब्द के सन्देश था। केवल वही एक मात्र समर्थ था।
जब एक बुद्ध मौज़ूद होते हैं, तो तुम्हारे संकल्प के थोड़े ही प्रयत्न से, तुमबहुत अधिक उपलब्धकर सकते हो। जब एक बुद्ध नहींहोते तो तुम धारा केविपरीत लड़ रहे हो। जब एक हिटलर या चंगेज़खान होता है तो बहुत प्रयासकी जरूरत होती है। तब भी सफलत्ता बहुत कठिन होती है।
कहते हैं, बुद्ध ने कहा था, ‘‘ज़न्म लेने के लिए सही क्षण को चुनो। वहीक्षण चुनोजबकि एक बुद्ध उपस्थित हों’’
आज़ इतना ही

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