आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2
चौदहवां प्रवचन
सोलहवाँ सूत्रसर्व सन्तोषोविर्सनमिति स एवं वेद।
पूर्ण सन्तोष विसर्जन है, अर्थात पूजा की क्रिया की समाप्ति है। जो ऐसा जानता है वही ज्ञान को उपलब्ध है।
पूर्ण संतोष ही ज्ञान है।
तीन बातें समझ लेनी हैं। पहली बात, पूर्ण संतोष? दूसरी प्रज्ञा, ज्ञान क्या है? ज्ञानी हो जाना, ज्ञान को उपलब्ध हो जाने का क्या अर्थ है? और तीसरी बात, कि संतोष ज्ञान क्यों है? जो कुछ भी हम संतोष के बारे में जानते हैं वह सब नकारात्मक बात है। जीवन दुःख है, भारी दुःख है, और हमें अपने को सांत्वना देनी पड़ती है। ऐसे क्षण होते हैं कि आदमी कुछ भी नहीं कर सकता, इसलिए उसे संतोष की कोई धारणा पैदा करनी पड़ती है, अन्यथा जीना कठिन हो जायेगा।
अतः संतोष हमारे लिए सिर्फ जीने का एक साधन है-जीवित रहने का साधन। जीवन इतने दुःख से भरा है कि यह रुख निर्मित करना पड़ता है। यह रुख तुम्हारी उस सबसे रक्षा करता है जिसे कि वैसे सहन करना असंभव हो जाए। यदि यह संतोष का रुख नहीं हो, तो वह सब असहनीय हो जाए। लेकिन यह संतोष ऋषि का संतोष नहीं है। हमारे सबके लिए संतोष कोई ज्ञान नहीं है, वरन संतोष अज्ञान का हिस्सा है। जब तुम कुछ भी नहीं कर सकते तो स्थिति असहनीय हो जायेगी, आत्मघातक हो जायेगी।
इसलिए तुम सारी बात बदल देते हो। तुम इस व्याख्या करते हो, वस्तुतः तुम कुछ इस तरह कहना शुरू कर देते हो कि तुम चाहो तो बहुत कुछ कर सकते हो लेकिन तुम चाहते ही नहीं कि इतना-इतना संभव है, कि बात भिन्न हो सकती है, किनतु इसमें तुम्हारा कुछ रस नहीं है। यह जो बात के जोर को बदलता है यह प्रवंचना है। परंतु जीवन बहुत-सी भ्रांतियों के बीच जीता है। वे सहायक हैं।
नीत्शे ने कहा है कि बिना झूठ के जीना मुश्किल है। यदि कोई सत्य पर ही जीना चाहे तो वह नहीं जी सकता। इसलिए हम बहुत से असत्यों पर विश्वास करते चले जाते हैं। वे एक तरह से हमारे आधार हैं, वे हमारी इस पृथ्वी पर रहने के लिए मदद करते हैं। और बहुत से तथाकथित सत्य वस्तुतः सत्य नहीं हैं, तुम्हारे लिए। वे सिर्फ असत्य हैं। उदाहरण के लिए, तुम नहीं जानते कि आत्मा अमर है, लेकिन तुम इसमें विश्वास करते चले जाते हो। इससे मदद मिलती है। वह तुम्हारे लिए असत्य है, यह तुम्हारा अनुभव नहीं है किन्तु मृत्यु के साथ जीना असंभव हो जायेगा, इसलिए यह असत्य भी सहायक है। तब तुम मृत्यु को भूल सकते हो। तुम समझते हो कि जीवन चलता रहेगा। केवल शरीर मरने वाला है। तुम मरनेवाले नहीं हो, तुम तो रहोगे।
यह तुम्हारे लिए असत्य है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है क्योंकि तुम शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं जानते। तुम सिर्फ तुम्हारे शरीर से परिचित हो और वह भी उसकी पूरी समग्रता में नहीं। तुम ऐसा कुछ भी नहीं जानते जो कि अमर है। यदि तुम अपने भीतर किसी भी अमरत्व को जानते हो, तो फिर तुम्हारे लिए यह असत्य नहीं है। किन्तु उस अमरत्व को जानने के लिए तो किसी को जागे हुए मृत्यु से गुजरना पड़ेगा।
सब ध्यान सिर्फ सजगता से मरने का प्रयास है। यदि तुम होशपूर्वक मर सको, केवल तभी तुम उस अरमत्व को जान पाते हो जो कि कभी नहीं मरता। किन्तु हम आत्मा की अमरता में विश्वास करते हैं सिर्फ अपने को धोखा देने के लिए। इस विश्वास से जीवन सरल हो जाता है। तुमने समस्या का समाधान कर लिया बिना उसका हल किये। अब तुम्हारे लिए मृत्यु नीं है, और तुम इस तरह रह सकते हो जैसे कि तुम हमेशा ही जीवित रहनेवाले हो। केवल वे ही नहीं जो कि आस्तिक हैं, किन्तु े भी जो कि नास्तिक हैं जो कि आत्मा आदि में जरा भी विश्वास नहीं करते, और इसलिए उनके लिए आत्मा की अमरता में, विश्वास करने का सवाल नहीं है, वे भी इस तरह रहते हैं जैसे ि कवे सदा-सदा रहनेवाले हैं। उन्हें भी स्वयं को धोखा देना होता है कि मृत्यु नहीं है और भी कितने ही जीवन हैं।
काण्ट का कहना है कि यदि कोई परमात्मा नहीं है तो भी हमें उसका आविष्कार करना पड़ेगा, क्योंकि बिना परमात्मा के जीना कठिन है। क्यों? क्योंकि बिना परमात्मा के नैतिकता संभव नहीं है। बिना परमात्मा के नैतिकता का सारा स्तम्भ ही गिर जाता है। इसलिए काण्ट कहता है कि यदि परमात्मा नहीं भी है, तो भी उसकी आवश्यकता है। उसकी जरूरत है क्योंकि बिना उसके नैतिकता असंभव हो जाती है, और बिना नैतिकता के जीना बड़ा कठिन हो जायेगा।
हम अनैतिक व्यक्तियों की भाँति जी सकते हैं। हम ऐसे जी ही रहे हैं। हम अनैतिकता में जीने के लिए भी हमें नैतिकता की धारणाएँ चाहिए। इसलिए एक अनैतिक आदमी विश्वास करता चला जाता है। वह चाहे आज अच्छा न हो लेकिन कल वह अच्छा हो जानेवाला है। वह इस जीवन में अच्छा आदमी हो जानेवाला नहीं है। वह अगले जीवन में अच्छा आदमी ही जायेगा।
अतः पापी भी विश्वास करता चला जाता है कि वस्तुतः वह भी पापी नहीं है। किसी दिन भी वह संत हो जायेगा। वह सींावना मदद करती है। तब वह आशा कर सकता है कि संभावना है और वह जो भी है वैसा वह रहता चला जाता है। इसलिए जो भी वह है, वह सिर्फ एक छाया है। उसका पापी होना सिर्फ बदलती हुई बात है। वह कोई स्थायी चीज नहीं है। वह जल्दी ही संत होनेवाला है। वह संत होने की आशा कर सकता है और वह पापी बना रहता है। यदि तुम पापी होना चाहते हो तो तुम्हें तुम्हारे पापी होने के खिलाफ कोई आशा चाहिए। यदि तुम्हें कोई आशा नहीं हो, तो उसे चलाये रखना कठिन है। इसलिए वे लोग जो कि अनैतिक हैं उन्हें भी नैतिकता की जरूरत है। और परमात्मा की आवश्यकता है एक केंद्रीय सत्ता की तरह, एक शासकीय शक्ति की तरह, अन्यथा सब कुछ गड़बड़ हो जायेगा, अराजकता फैल जायेगी।
काण्ट तब कहता है कि ईश्वर को मना मत करो। काण्ट ने दो पुस्तकें लिखी हैं, बहुत ही कीमती पुस्तकें। पहले उसने पिछले दो-तीन सौ वर्षों में सर्वाधिक कीमती पुस्तकों में से एक कीमती पुस्तक लिखी। उस पुस्तक का नाम है-‘द क्रिटिक ऑफ प्योर रीजन’ जिसमें वह कहता है कि परमात्मा नहीं है क्योंकि तर्क उसे सिद्ध नहीं कर सकता। और वह किताब शुद्ध तर्क पर आधारित है। अतः वह उस पर सोचता चला जाता है, विचार करता चला जाता है और अंततः वह यह कहने लगता है कि कोई परमात्मा नहीं है, क्योंकि तर्क के लिए परमात्मा का विचार करना भी असींव है, क्योंकि इस हाईपोथेसिस को, इस मान्यता को सिद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है। वह एक ईमानदार आदमी की तरह तर्क करता है और पाता है कि परमात्मा को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
अतः चूँकि यह हाईपोथेसिस, यह परमात्मा होने की मान्यता तर्कपूर्ण नीं है, इसलिए वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि परमात्मा नहीं है। लेकिन तब उसको बेचैनी का अनुभव होता है, क्योंकि वह एक बड़ा नैतिक, बड़ा धार्मिक व्यक्ति था। वह एक बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि का आदमी था, किन्तु नैतिक था, इसलिए वह लगातार बीस साल तक बेचैनी का अनुभव करता रहा।
फिर उसने दूसरी पुस्तक लिखी-‘क्रिटिक ऑफ प्रेक्टिकल रीजन’। पहली पुस्तक थी-‘क्रिटिक ऑफ प्योर रीजन’। उसने ‘प्योर रीजन’ का शुद्ध तर्क का अनुसरण किया, जहाँ भी वह ले गया, किंतु वह परमात्मा तक नहीं जाता था। बीस वर्ष तक, इस निष्पत्ति के साथ कि परमात्मा नहीं है, उसे बड़ी बेचैनी का अनुभव हुआ, उसे लगा कि जैसे उसने कोई बड़ी गलत बात की है। और गलत बात यह नहीं थी कि परमात्मा के बिना काण्ट को कोई तकलीफ थी, किन्तु उसने देखा कि यदि परमात्मा नहीं है, तो फिर सारी दुनिया से नैतिकता उठ जाती है, वाष्पीभूत हो जाती है।
तब उसने दूसरी किताब में लिखा कि शुद्ध तर्क से, प्योर रीजन से परमात्मा को सिद्ध करना संभव नहीं है, किंतु प्रेक्टिकल रीजन के लिए, दुनियादारी के लिए परमात्मा की जरूरत है। इसलिए परमात्मा कोई तार्किक हाईपोथेसिस नहीं है, किंतु एक वास्तविक तर्कयुक्त हाईपोथेसिस जरूर है-इसलिए वह कहता है, परमात्मा है। इसलिए नहीं कि परमात्मा है बल्कि इसलिए कि परमात्मा की आवश्यकता है। बिना परमात्मा के मनुष्य संभव नहीं हो सकता। अतः यदि वह नहीं है तो उसका आविष्कार करना पड़ेगा, केवल तभी नैतिकता संभव हो सकती है।
हमारे लिए ऐसी कितनी ही मान्यताएँ हैं। हम उनमें विश्वास करते रहते हैं, इसलिए नहीं कि हम जानते हैं बल्कि इसलिए कि यदि हम उनमें विश्वास नहीं करें, तो हमें अपने अज्ञान की प्रतीति होती है, हमारे गहरे अज्ञान की। हम उसे हटाना चाहते हैं, हम उससे बचना चाहते हैं।
संतोष वस्तुतः हमारे लिए एक गहरा बचने का उपाय है। हम जीवन से सघर्ष नहीं कर सकते। हम कोशिश तो करते हैं, लेकिन हम उसमें सफल नहीं हो सकते। कोई भी कभी सफल नहीं होता। प्रत्येक के लिए बाधाएँ आ जाती हैं। सीमाए हैं। और ऐसा नहीं है कि कमजोरों के लिए ही बाधाएँ हैं, जो बलशाली हैं, जो दूसरों से अधिक बलशाली हैं और जो आगे बढ़ जाते हैं, उनके लिए भी बाधाएँ हैं। और उन बाधाओं से नहीं बचा जा सकता।
नेपोलियन को भी मरना पड़ता है, सिकन्दर के सामने भी वे चीजें आ जाती हैं जिन पर वह विजय नहीं पा सकता। तो फिर हम करें क्या? एक बात तो यह कि सदा असंतोष में रहें। वह तो कैंसर हो जायेगा। उसके साथ तो तुम सो नहीं सकते, उसे तो तुम किसी भी क्षण भूल नहीं सकते। वह तो एक सतत संताप हो जायेगा, एक आंतरिक कैंसर हो जायेगा-मन के भीतर। इसलिए संतोष का मुखौटा ओढ़ लो कि मैं एक संतुष्ट आदमी हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं इन बाधाओं को नहीं जीत सकता, किनतु मैं इनको जीतना ही नहीं चाहता। यह रेशनलाइजेशन है, यह तर्क बिठाना कि मेरा जीतने में कोई रस ही नहीं है। तुम पीछे सरक जाते हो और तुम उसे एक तार्किक रंग दे देते हो। यह संतोष एक तर्कयुक्ति है-एक चालाक तर्क की युक्ति। यह तुम्हें एक प्रकार की आशा बंधा देती है कि अगर तुम चाहो तो यह कर सकते हो।
इसे इस भाँति देखो, मैंने बहुत से लोगों को देखा है। एक आदमी को मैं जानता हूँ, वह शराब का आदी है। तीस साल से वह शराब छोड़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वह नहीं छोड़ पाता। यह उसके लिए असंभव हो गया है। लेकिन फिर भी वह कहता रहेगा, वह मेरे पास आयेगा और कहेगा कि जिस दिन मैं चाहूँ, छोड़ सकता हूँ। और उसने लगातार तीस साल तक कोशिश करके देख लिया। उसने कितनी ही बार संकल्प भी किया और वह हार गया और फिर गिर गया, लेकिन फिर भी वह कहता है कि यदि मैं चाहूँ तो मैं इस आदत को एक क्षण में छोड़ सकता हूँ।
इस आशा के कारण कि ‘यदि मैं चाहूँ’ वह अभी भी यह सोचता है कि वह हारा हुआ आदमी नहीं है। वह कब का ही हार चुका है लेकिन यह उम्मीद उसको चलाये जाती है। वह सोचता रहता है कि वह किसी भी क्षण उसे छोड़ सकता है। वह उसका गुलाम नहीं है। वह उसे छोड़ सकता है। वह उसे नहीं छोड़ रहा है क्योंकि वह छोड़ना ही नहीं चाहता। अतः एक दिन मैंने उससे पूछा कि तुम कहते रहते हो कि यदि मैं चाहूँ---- लेकिन क्या तुमने कभी कोशिश नहीं की? क्या तुमने कितनी ही बार नहीं चाहा कि इसको छोड़ दें? तब उसने कहा कि हां, मैंने कितनी बार कोशिश की, किन्तु मेरी कोशिश पूरे हृदय से नहीं की गई थी। अतः मैंने उससे पूछा कि क्या तुमने कभी कोशिश की जबकि तुम्हारी कोशिश सारे मन से थी। उसने कहा कि यदि मैं पूरे मन से चाहूँ, तो मैं इसी क्षण छोड़ सकता हूँ। मैंने उससे पूछा कि क्या तुम्हारे लिए पूरे मन से संकल्प करना संभव है? क्या यह तुम्हारी सामर्थ्य में है कि तुम पूरे मन से संकल्प कर सको? क्या तुम्हारा संकल्प तुम्हारा है?
तोवह घबरा गया क्योंकि जब तुम्हें लगे कि तुम्हारा संकल्प भी तुम्हारा नहीं है, तो तुम्हें अपनी दासता, अपने कारागृह का सामना करना पड़ेगा। इसलिए वह एक कारागृह में है, लेकिन वह यह विश्वास करता चला जाता है कि वह स्वतंत्र है। इससे तुम्हें कारागृह में रहने में मदद मिलती है कि जैसे तुम अपने घर में ही हो।
इस तरह हम तर्क बिठाते रहते हैं और यह आदमी शराब नहीं छोड़ सकता, जब तक कि वह इस तर्क जाल को नहीं छोड़ देता। यदि उसे ऐसा प्रतीत होने लगे कि यदि मैं चाहूँ, तो भी मैं इसे नहीं छोड़ सकता, तभी वह वास्तविक होगा। तब वह जमीन पर आ जायेगा। और यदि उसे ऐसा लगे कि यदि मैं चाहूँ तो भी मैं कुछ भी नहीं कर सकता, तभी वह कुछ कर सकता है क्योंकि तब वह भ्रांति में नहीं होगा, उसने वास्तविकता का सामना कर लिया होगा। और तुम वास्तविकता के साथ कुछ कर सकते हो, तुम भ्रांतियों के साथ कुछ भी नहीं कर सकते।
वास्तविकता से बचने के लिए, हम बहुत-सी मानसिक धारणायें बना लेते हैं। मैंने सुना है-फ्रायड ने कहा था कि धर्म आदमी पर सत्ता जमाये रखेगा, इसलिए नहीं कि धर्म सत्य है, बल्कि इसलिए कि मनुष्य को बहुत-सी भ्रांतियाँ चाहिए। और आदमी अभी भी प्रौढ़ नहीं हुआ, परिपक्व नहीं हुआ कि वह बिना धर्म के जी सके। एक तरह से वह सही है क्योंकि जहाँ तक ज्यादातर लोगों का संबंध है, धर्म एक तर्कपूर्ण भ्रांति है। केवल कभी-कभी ही-किसी बुद्ध के साथ, किसी पतंजलि के साथ, अथवा किसी कपिल के साथ ऐसा होता है कि धर्म एक भ्रांति नहीं रहता बल्कि एक आत्यंतिक सत्य हो जाता है। लेकिन दूसरों के लिए धर्म एक भ्रांति ही है। वह तुम्हारे जीवन के लिए परिपूरक है। तुम्हारा सत्य इतना भयानक है, इतना भयभीत करनेवाला है कि उसे पूरा करने के लिए तुम्हें कुछ भ्रांतियों की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए यदि कोई देश गरीब है तो वह इस जीवन के बाद स्वर्ग में विश्वास करेगा। यहाँ की कमी पूरी करेगा। वास्तविकता इतनी भयानक है इतनी कुरूप है और चारों ओर इतनी पीड़ा है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता। लेकिन तुम एक काम कर सकते हो : तुम स्वर्ग में विश्वास कर सकते हो, इस जीवन के बाद, और यह बात तुम्हारी मदद करेगी-इस कुरूप गरीबी में जीने के लिए। तब तुम आसानी से जी सकते हो क्योंकि तब थोड़ो सालों की तो बात है या कुछ ही जीवनों का तो सवाल है। उसके बाद तो तुम स्वर्ग में होओगे। अतः यह गरीबी कोई स्थायी घटना नहीं जिसके लिए तुमको चिन्ता करने की जरूरत है। यह तो एक क्षणिक घटना है। जैसे कि तुम रेलवे स्टेशन के बेटिंग रूम में ठहरे हो। रहने दो उसको कुरूप, रहने दो उसे जैसा वह है क्योंकि तुम्हें वहाँ तो रहना नहीं है, वह तुम्हारा कोई घर तो है नहीं। एक मित्र आयेगा और तुम वेटिंग रूम को छोड़कर उसके साथ चले जाओगे।
यदि इस जीवन के बाद कोई स्वर्ग है तब यह जीवन सिर्फ एक वेटिंग रूम, एक विश्रामगृह से ज्यादा नहीं। हर आदमी अपनी गाड़ी के लिए ठहरा है। जब गाड़ी आ जायेगी, तो वह चला जायेगा। तुम्हें चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। तुम मजे से अपनी आँखें बंद कर सकते हो और गायत्री का जाप कर सकते हो, तुम अपनी आँखें बंद कर सकते हो कोई मन्त्र का जाप कर सकते हो। यह तो सिर्फ विश्रामगृह है। धार्मिक आदमियों ने सतत इस संसार की तुलना एक विश्रामगृह है। धार्मिक आदमियों ने सतत इस संसार की तुलना एक विश्रामगृह से की है। तुम यहाँ सदा तो रहनेवाले नहीं हो, अतः चिंता करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन विश्रामगृह ही तुम्हारा घर होनेवाला हो, यदि वह वेटिंग रूम नहीं हो किन्तु संपूर्ण वास्तविकता हो, तो फिर वहाँ रहना असंभव हो जायेगा। तब वहाँ एक घंटा भी रहना असंभव हो जायेगा। लेकिन यदि वह विश्रामगृह हो, तो तुम वहाँ कई जिंदगियाँ बिता सकते हो क्योंकि तुम्हारी आशा कहीं और है। वस्तुतः तुम वहाँ नहीं हो। तुमने मानसिक रूप से अपने को कहं और के लिए रूपान्तरित कर लिया। यह तरकीब है। मन कहीं और के लिए रहने चला गया है। केवल शरीर ही यहाँ है, अतः तुम रह सकते हो।
धर्म का बहुत कुछ तथाकथित धर्म की एक परिपूरकता है, सांत्वना है। जो कुछ भी तुम जीवन में पाते हो कि नहीं है, उसी की कमी को तुम स्वप्न में पूरा कर लेते हो। जिस चीज़ की भी तुम्हारे पास कमी होती है, उसे ही तुम स्वप्न में पूरी कर लेते हो। इसी कारण तो हर देश, हर धर्म, हर जाति एक अलग ही प्रकार के स्वर्ग और नर्क में विश्वास करते हैं। तुम एक प्रकार के स्वर्ग में विश्वास करते हो। दूसरे देश में स्वर्ग की अलग ही धारणा होगी, क्योंकि तुम्हारी समस्याएँ अलग हैं और उनकी समस्याएँ अलग हैं। इसलिए तुम एक ही प्रकार के स्वर्ग से कमी पूरी नहीं कर सकते।
उदाहरण के लिए, तिब्बत के लोग विश्वास करते हैं कि उनका स्वर्ग थोड़ा गर्म होगा। भारतीय विश्वास करते हैं कि स्वर्ग में ठंडक होगी। भारतीयों का विश्वास है कि नर्क आग से जल रहा होगा। तिब्बती लोगों का ख्याल है नर्क बर्फ की तरह ठंडा होगा। यह इतना भेद क्यों है? यह भेद कमी को पूरा करने के लिए है।
वे पहले से ही भारत के स्वर्ग में रह रहे हैं, और भारत पहले से ही उनके नर्क में है। भारत कभी स्वर्ग में विश्वास ही नहीं कर सकता यदि वह वातानुकूलित नहीं हो। वह भी कोई स्वर्ग होगा जो कि वातानुकूलित नहीं हो? वह वातानुकूलित तो होना ही चाहिए। यह पूर्ति करना है। तुम्हारा संतोष एक क्षतिपूर्ति है। यह मन की एक चालाक तरकीब है।
इसलिए ऐसा मत सोचना कि जो हमारे में संतुष्ट दिखाई पड़ते हैं, वे सरल लोग हैं। वे बड़े जटिल तथा चालाक लोग हैं। जब कभी आदमी कहता है कि मैं अपनी गरीबी से संतुष्ट हूँ, तो ऐसा मत सोचें कि वह सीधा-सादा आदमी है। उसने एक बहुत ही चालाकी का रुख अपनाया है।
एक बार मैं एक जैन साधु से मिला। वे एक बड़े नेता हैं, उनके बहुत से अनुयायी हैं। सैकड़ों जैन साधु उनको अपना गुरु मानते हैं। अतः जब मैं उनसे मिला, तो उन्होंने एक कविता मुझे सुनाई। वह कविता उन्होंने ही लिखी थी। वे एक वृद्ध पुरुष हैं, बहुत वृद्ध। वे नग्न रहते हैं।
उन्होंने मुझे अपनी वह कविता सुनाई। उस कविता का एक ही मुख्य भाव था जो कि बारबार दोहराया गया था, और वह भाव यह था कि तुम चाहे सम्राट होओ, तुम चाहे अपने स्वर्ण सिंहासन पर आरूढ़ होओ, किन्तु मैं अपनी धूल में आनंदित हूँ। मुझे तुम्हारे सिंहासनों की परवाह नहीं। मैं अपनी झोंपड़ी में प्रसन्न हूँ। तुम चाहे महल में रहो, मैं अपनी झोंपड़ी में आनंदित हूँ। तुम्हारे पास चाहे कुछ भी हो वह मेरे लिये कुछ भी नहीं है, क्योंकि मृत्यु तुमसे सभी कुछ छीन लेने वाली है।
इस तरह वह सारी कविता चलती है। यह जो मन है, बड़ा चालाक है। वे क्या कह रहे हैं? यदि उनका सम्राट होने में कोई भी रस नहीं है तो इस तुलना की क्या जरूरत है? सदि सच में ही तुम अपनी धूल में राजी हो, तो स्वर्ण के सिंहासनों का ख्याल भी क्यों करना? मैंने आज तक एक भी कविता नहीं सुनी जिसमें कि किसी सम्राट ने कहा हो कि तुम अपनी धूल में चाहे आनंदित होओ, लेकिन मैं अपने स्वर्ण-सिंहासन पर ही संतुष्ट हूँ। क्यों किसी भी सम्राट ने ऐसा नहीं लिखा? उसका जरूर कुछ कारण होना चाहिए।
और फिर यह व्यक्ति क्यों कह रहा है कि जो भी तुम्हारे पास है, मृत्यु उसे छीन लेने वला है? उसे इस बात में सुख मिल रहा है कि ‘अच्छा, रहो अपने स्वर्ण सिंहासन पर। जल्द ही मैं देखूँगा कि मृत्यु सब कुछ छीन लेती है और तब तुम्हें पता चलेगा कि कौन सुखी था। मैं सुखी हूँ क्योंकि मृत्यु मुझसे कुछ भी नहीं छीन सकती।’ यह जो रुख है एक बड़ा ही चालाकी का रुख है, यह कोई संतोष नहीं है। लेकिन वे सज्जन संतोष पर लिख रहे थे। उनकी कविता का शीर्षक था-संतोष।
क्या यह संतोष है? यदि यही संतोष है तो यह सूत्र इससे संबंधित नहीं। इस सूत्र का भिन्न ही अर्थ है-संतोष का दूसरा ही आयाम। वह क्या है? जहाँ तक तुम्हारा संबंध है तुम किसी चीज़ की कामना करते हो, लेकिन तुम्हें वह मिलती नहीं। अथवा यदि मिल भी जाती है, तो भी कामना अतृप्त ही रहती है। तब तुम तर्क बिठाते हो। तब तुम कहते हो-मुझे संतोष में जीना चाहिए क्योंकि इच्छा दुःख देती है, पीड़ा पहुँचती है, क्योंकि इच्छा के कारण चिंता पैदा होती है, और आकांक्षा से अकारण ही संताप उठाना पड़ता है। अतः मैं छोड़ता हूं, अब मैं इच्छा ही नहीं करता क्योंकि मैं दुःख पाना नहीं चाहता।
यह इस सूत्र का संतोष नहीं है। यह सूत्र बहुत-सी बातें बतलाता है, अतः अच्छा होता कि हम इस सूत्र में कई द्वारों से प्रवेश करें। हमारा संतोष आता है- इच्छा की विफलता के बाद यह संतोष आता है- इच्छा की शून्यता से। ऐसा नहीं है कि इच्छा संताप है, बल्कि यह है कि इच्छा करना ही बेकार है, कामना अर्थहीन है, मूर्खता है। इस बात को जानकर, इसका बोध होने पर, इसको अनुभव करने के बाद ही कोई अच्छा-शून्य होता है। तब कोई यह नहीं कहेगा कि मैं तुम्हारे महल की परवाह नहीं करता, मैं तुम्हारे सिंहासन की फिक्र नहीं करता। तब कोई तुलना नहीं करता और यह नहीं कहता कि मुझे अपनी झोपड़ी ही पसंद है।
बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया है। जिस रात उन्होंने महल छोड़ा, केवल उनका सारथी साथ आया है, उन्हें राज्य की सीमा पर छोड़ने के लिए। सारथी रो रहा है। वह उन्हें प्रेम करता है और उनसे उसका लगाव है। वह सोचता है कि यह बड़ी मूर्खता है। क्या हो गया है राजकुमार सिद्धार्थ को? वे यह क्या कर रहे हैं? महल छोड़कर जा रहे हैं? राज्य छोड़ रहे हैं? अपनी सुंदर पत्नी को छोड़ रहे हैं, सब छोड़ रहे हैं जो कि प्रत्येक पाना चाहता है? जरूर ये पागल हो गये हैं? अतः वह रोता जा रहा है। वह कुछ बोल भी नहीं सकता। वह बुद्ध के रथ का केवल सारथी है। लेकिन वह उन्हें प्रेम करता है, उसका उनसे लगाव है, और उसे लगता है कि राजकुमार सिद्धार्थ कोई बड़ी बेवकूफी का काम कर रहे हैं।
यह बात एक गरीब आदमी की कल्पना के बाहर है। उसकी प्रतिक्रिया प्राकृतिक है। वह सोचता है कि यह तो साफ विक्षिप्तता है। सिद्धार्थ क्या कर रहे हैं? फिर जब वे छोड़कर जाने लगते हैं, तो वे सिर्फ एक ही बात कहता है। वह कहता है-‘‘मैं आपको कुछ भी कहनेवाला कौन होता हूँ? मैं सिर्फ एक सारथी हूँ। और फिर मेरा यह काम भी नहीं कि आपके काम में दखल दूं। आपकी आज्ञा मेरे लिए सब कुछ है, इसलिए मैं आपको राज्य की सीमा पर ले आया हूँ। लेकिन यदि आप बुरा न मानें, तो मुझे कुछ कहने दें। आप यह क्या कर रहे हैं? यह तो पागलपन मालूम होता है। इसी को पाने के लिए तो आदमी जीता है। इसी सबकी तो आदमी कामना करता है। आप इसमें पैदा हुए। आप बहुत सौभाग्यशाली हैं। आप इसे को छोड़कर क्यों जा रहे हैं? स्मरण करें, राज्य का स्मरण करें और उन सुखों का, जो कि उससे मिलते हैं।’’
बुद्ध कहते हैं, ‘‘मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि तुम क्या बात कर रहे हो। मैंने पीछे कोई महल नहीं छोड़ा है। मैंने कोई साम्राज्य भी नहीं छोड़ा है। मैंने केवल एक दुःख-स्वप्न ही छोड़ा है। सभी कुछ अग्नि में जला जा रहा था। मैं तो सिर्फ उससे भाग रहा हूँ। मैंने उसे त्यागा नहीं है-क्योंकि त्यागने का अर्थ ही यह होता है कि जैसे तुम बहुत कीमती कोई चीज़ पीछे छोड़ रहे हो। मै। ने पीछे कुछ त्याग नहीं किया है। कुछ त्यागने जैसा था भी नहीं। सभी कुछ अग्नि में जल रहा है। वह एक दुःख स्वप्न था। अतः मैं उससे बचकर जा रहा हूँ। और तुम्हारा बहुत धन्यवाद कि तुमने मेरी उसमें से निकलने में मदद की।’’
उसके बाद बुद्ध ने कभी अपने महल की बात नहीं की, कभी अपने साम्राज्य की, अपनी सुंदर पत्नी की चर्चा नहीं की-कभी भी नहीं। यदि यह छोड़ना एक सौदा हो, यदि यह त्याग कुछ और चीज पाने के लिए हो-भविष्य में, यदि यह त्याग स्वर्ग, अथवा मोक्ष आदि पाने के लिए एक इनवेस्टमेंट हो, तो फिर तुम इसे आसानी से नहीं भूल सकते। वे उसे बिल्कुल ही भूल गये। क्यों? क्योंकि वे कुछ और पाने के लिए उस सबको नहीं छोड़ रहे थे।
यदि तुम कुछ पाने के लिये कुछ छोड़ते हो, तो वह इच्छा है। यदि तुम सिर्फ उसे छोड़ देते हो, तो वह इच्छा का शून्य हो जाना है। यदि तुम उसे किसी और चीज के लिए छोड़ते हो, तो वह अभी भी इच्छा ही है। यदि तुम सिर्फ उसे छोड़ देते हो, उसकी व्यर्थता जानकर उसकी मूर्खता को समझकर तो फिर इच्छा-शून्यता है। और जब मनुष्य इच्छाशून्य हो जाता है, तो वह संतुष्ट हो जाता है। यह पहला द्वार है। जब कोई आदमी निर्वासन को उपलब्ध हो जाता है, तब ही वह तृप्त होता है क्योंकि अब तुम उसे अतृप्त, असंतुष्ट कैसे करोगे? वह अब संतोष में ठहर गया है क्योंकि अब असंतोष संभव ही नहीं है।
च्वांगत्सु की पत्नी मर गई थी। सम्राट भी अपनी सद्भावना प्रकट करने आया था। च्वांगत्सु एक बहुत ‘बड़ा ज्ञानी था, इसलिए सम्राट भी आया था। वह उसका मित्र भी था। सम्राट च्वांगत्सु का मित्र था। और कभी वह च्वांगत्सु को अपने महल में बुलाता था, उससे ज्ञान प्राप्त करने के लिए। च्वांगत्सु तो भिखारी था, किन्तु ज्ञानी था। अतः सम्राट आया। उसने अपने मन में सब तैयारी कर रखी थी कि उसको क्या-क्या कहना है क्योंकि च्वांगत्सु की पत्नी की मृत्यु हो गई थी। उसने सारी अच्छी बातें याद कर रखी थीं-उसको सांत्वना देने के लिए। लेकिन जैसे ही उसने च्वांगत्सु को देखा, तो वह बहुत हैरान हुआ। च्वांगत्सु तो गीत गा रहा था। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था और अपनी खंजड़ी बजा रहा था तथा जोरों से गा रहा था। वह बड़ा आनंदित दिखलाई पड़ रहा था और सबेरे ही उसकी पत्नी मरी थी।
च्वांगत्सु ने कहा, सचमुच, मेरी पत्नी मर गई है। लेकिन मैं क्यों रोऊं? यदि वह मर गई है, तो मर ही गई है। और मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी कि वह सदा जीवित रहेगी। तुम रोते हो क्योंकि तुम अपेक्षा करते जीने की हो। मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी कि जीवित रहने वाली है। मैं सदा जानता था कि वह एक दिन मर जाने वाली है, और आज वैसा हो गया है। यह किसी दिन तो होने ही वाला था। और सब दिन ऐसे ही है मृत्यु के लिए जैसा कि आज का दिन है, इसलिए मैं क्यों नहीं गाऊं? यदि मैं तब नहीं गा सकता जबकि मृत्यु हो, तो फिर मैं जीवन में कभी भी नहीं गा सकता क्योंकि जीवन भी सतत मृत्यु है। हर क्षण मृत्यु घटित हो रही है- किसी-न-किसी की- कहीं-न-कहीं। जीवन एक सतत मृत्यु ही हैं यदि मैं मृत्यु के क्षण में नहीं गा सकता, तो फिर मैं कभी भी नहीं गा सकता।
जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। वे एक ही हैं। जिस क्षण कोई पैदा होता है, मृत्यु का भी उसके साथ ही जन्म हो जाता है। जब तुम जीवन में बढ़ रहे होते हो, तब तुम मृत्यु में भी बढ़ रहे होते हो। और जो भी मृत्यु में जाना जाता है, वह कुछ और नहीं है बल्कि वह तुम्हारे तथाकथित जीवन का शिखर है। इसलिए मैं क्यों नहीं गाऊँ? और फिर वह स्त्री मेरे साथ इतने वर्ष रही, तो फिर तुम मुझे उसके प्रति कृतज्ञता में गाने भी नहीं दोगे? जब उसने यह संसार छोड़ दिया है तो उसे बड़ी शांति से बड़े सुसंवाद में, बड़े संगीत और प्रेम से प्रस्थान करना चाहिए। फिर मैं क्यों रोऊँ?
इस अंतर को देखो। हम इच्दा करते चले जाते हैं और तब विफलताएं आती हैं। तब हम संतोष धारण करने की कोशिश करते हैं। इस सूत्र को अर्थ है कि तुम इच्छा ही नहीं करते और इच्छा करने की सारी व्यर्थता को देख लेते हो। इसलिए दूसरा फर्कः हम संतोष को पैदा करते है, जब हम विफल होते हैं। जब तुम सफल होते होते हो तुम बहुत प्रसन्न होते हो। उससे पता चलता है कि तुम्हारा संतोष झूठा था। जब मैं विफल होता हूं तो मैं कहता हूं कि मैं संतुष्ट हूं। जब सफल होता हूं तो मैं आनंद से भर जाता हूं। यह असंभव है। तुम्हारे संतोष के पीछे, जरूर कुछ उदासी होनी चाहिए। अन्यथा तुम्हारी सफलता में ऐसा आनंद संभव नहीं है। यदि सफलता में तुम आनंदित होते हो, तो यह असंभव है कि जब तुम विफल होओ, तब तुम दुःखी ने होओ।
च्वांगत्सु जैसे लोगों के लिए, बुद्ध जैसे पुरुषों के लिए-चाहे वे जीवन में सफल हों अथवा विफल हों-कुछ अर्थ नहीं रखता। यह बात ही असंगत है। वे संतुष्ट ही रहते हैं। तुम्हारा झूठा संतोष तुम्हारी सफलता से टूट जायेगा। जब तुम विफल हो जाते हो, जब तुम दुःख में होते हो, तब तुम उसका केंद्र की भांति उपयोग करते हो। जब तुम सफल होते हो, तो तुम केंद्र से बाहर खुले आकाश में आ जाते हो, नाचते, कूदते हुए, खुशी मनाते हुए।
यह असंभव है। इससे यह मालूम पड़ता है कि तुम्हारा केंद्र झूठा था। वह सिर्फ आपात्कालीन व्यवस्था थी। वह तुम्हारा कोई स्वभाव नहीं है। एक व्यक्ति जो कि संतुष्ट है वह सफलता अथवा विफलता में कुछ भी भेद का अनुभव नहीं करेगा। वह कर ही नहीं सकता। अब उसके लिए कोई भेद नहीं है। जो भी हो, अब वह संतुष्ट है। चाहे वह सफल हो, चाहे विफल हो, अब यह उसकी चिंता नहीं है क्योंकि अब उसकी कोई मरजी नहीं है कि यह परिणाम आये या वह परिणाम आये : कि ऐसा हो भविष्य। चाहे जो भी हो, उसका भविष्य तरल है। वह उसे अपनाने को तैयार है- वह चाहे कैसा भी हो।
मन अधैर्यवान है, लेकिन जीवन नहीं है। मन अधीर है, परमात्मा अधीर नहीं है। मन क्षणभंगुर है; जीवन शाश्वत है। मन की एक सीमा है कि कहां तक वह प्रतीक्षा कर सकता है, कि कहां तक वह इच्छा कर सकता है, कि कहां त कवह अनुभव कर सकता है, कि कहां तक वह इंतजार कर सकता है पाने के लिए। जीवन की तो कोई सीमा नहीं है। वह तो चलता जाता है, चलता जाता है। उसकी प्रक्रिया अनंत है। यूंकि हम आशा करते हैं कि किसी इच्छा को भविष्य में पूरी करना है, मन सदा असंतोष में रहता है। जीवन की असीमता को देखते ही जीवन की अनंत प्रक्रिया को देखते हुए यदि कोई संतुष्ट हो जाता है। यदि यह संन्तोष कोई आत्मरक्षा का उपाय नहीं है, तो यह प्रज्ञा
तीसरे : हम इसे एक और द्वार से देखें। संतोष का अर्थ होता है चेतना अभी और यहां; असंतोष का अर्थ होता है चेतना कहीं और-भविष्य में। असंतोष का संबंध है या तो अतीत से या भविष्य से। संतोष अभी और यहां है, वर्तमान में हैं एक आदमी जो कि क्षण-क्षण जीता है, वह संतुष्ट होगा। लेकिन हम कभी भी क्षण-क्षण नहीं जीते। वस्तुतः हम कभी क्षण में नहीं जीते। हम सदा उसके पार जीते हैं- कहीं दूर भविष्य में। हम छाया का तरह चलते हैं और हम भविष्य में चलते चले जाते हैं। और जितने अधिक तुम भविष्य में जीते हो, उतने ही अधिक तुम असंतोष में जीते हो क्योंकि भविष्य कभी भी नहीं आता।
अस्तित्व में भविष्य नहीं होता। अस्तित्व में भविष्य जैसा कुछ भी नहीं होता। अस्तित्व वर्तमान में एक सातत्य है। अस्तित्व अभी और यहीं है। आशा कहीं औश्र है, और वे कभी मिलत नहीं। उनका न-मिलना ही असंतोष है। तु आशा करते हो, और उसका कोई मिलना नहीं होता। तुम सपना देखते हो, ओर वह कभी पूरा नहीं होता। और एक अंतराल होता है-हमेशा एक अनंत अंतराल-तुमने और तुम्हारी आशाओं में, इसलिए तुम असंतोष में जीत हो। असंतोष का मतलब है एक गति, जो कि सदा भविष्य में है और कभी भी वर्तमान में नहीं है।
बुद्ध कहते हैं कि केवल यह क्षण ही सत्य है। वास्तविक है। इसलिए उनके दर्शन को क्षणिकवाद करते हैं। इस क्षणिकवाद का अर्थ है कि केवल यह क्षण ही वास्तविक क्षण है। इसके आगे मत जाओ। अभी और यहीं रहो। इस पर ध्यान दो। इस पर सोचो। यदि इस क्षण के लिए तुम अभी और यहीं हो, तो तुम असंतुष्ट कैसे होओगे।
भारत कहता है कि कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी स्थायी रूप् से नहीं हो सकता-परमात्मा की मूर्ति भी नहीं। क्योंकि तुमने ही उसे बनाया है, वह स्थायी नहीं हो सकती। अपने-आपको धोखा मत दो। जब समय पूरा हो जाता है, जाओ और उसे वापस फेंक दो। तुम्हारा परमात्मा भी स्थायी नहीं हो सकता। अपने परमात्माओं को भी फेंक दो-उन्हें बनाओ भी और विसर्जित भी कर दो। उनका उपयोग करो और उन्हें फेंक भी दो। केवल तभी तुम उस परमात्मा का प्राप्त हो सकोगे जो कि तुम्हारे द्वारा नहीं बनाया गया है। मूर्तियां तो तुम्हारे द्वारा निर्मित हैं, अतः उनकी साधन के रूप में उपयोगिता है। वे उपाय हैं। उनकी जरूरत है क्योंकि तुम अभी सत्य से, वास्तविकता से दूर हो और अभी तुम्हारे लिए अमूर्त परमात्मा को समझना कठिन है।
एक मूर्ति को निर्माण करो, लेकिन उस पर ही मत ठहरो। उससे चिपकना ठीक नहीं है। जब पूजा पूरी हो जाये, उसे फेंक दो। उसे फिर से कीचड़ में डाल दो। वह फिर कीचड़ हो जायेगी। अब उसे संभाल कर मत रखो। यह एक गड़ी मनोवैज्ञानिकक प्रक्रिया है क्योंकि परमात्मा को फेंकना बड़े साहस की बात है, परमात्मा को फेंकने के लिए बड़ी अनासक्ति की जरूरत है।
तुम तो पूजा करते थे, परमात्मा के चरणों पर पड़कर रोकर, चिल्लाकर, गाकर, नाचकर और अब तुम्हीं जाते हो और उसे समुद्र में फेंक देते हो। अतः यह एक उपाय था-उसमें कुछ भी स्थायी नहीं था। तुमने उसका साधना की तरह उपयोग किया। अब पूजा पूरी हो गई, इसलिए इसे फेंक दो और इसका फिर से निर्माण्ध कर लेना जब इसकी जरूरत हो। यह लगातार निर्मित करना और विसर्जित करना तुम्हें सदैव स्मरण दिलाता रहेगा कि तुम्हारे द्वारा बनाया गया परमात्मा असली परमात्मा नहीं है। वह सिर्फ प्रतीक है।
अतः झूठ चेहरे झूठी आकृतियां मत बनाओ। इससे ही विसर्जन कहते हैं। यह शब्द सुन्दर है। पहले आकृति का सर्जन करो, फिर उसका विसर्जन करो। वह नष्ट नहीं की जाती। विसर्जन का अर्थ होता है-सर्जन का नहीं कर दो। पहले सर्जन करो, फिर उसका विसर्जन करो, फिर सब तत्त्वों को अपने मूल तत्त्व में चले जाने दो।
हिन्दू कहते हैं कि मृत्यु विसर्जन है उसका, जो कि तुमने अपने जन्म में सर्जित किया था। तुम एक मिट्टी की मूरत हो। फिर मृत्यु में सारे तत्त्व अपने मूल-स्रोत को पहुँच जाते हैं। तुम विसर्जित हुए और वह जो कि तुम्हारे जन्म में पैदा नहीं हुआ था, जो कि तुम्हारे जन्म के पहले भी था, वह तुम्हारी मृत्यु के बाद भी बचेगा। लेकिन तुम्हारी आकृति तो विसर्जित होगी। यही मानव कोईश्वर के साथ भी करना चाहिए-मानव-निर्मित ईश्वर। उन्हें निर्मित करो और फिर विसर्जित करो।
यह सूत्र कहता है कि संतोष ही विसर्जन हैं जब तुम पूरी तरह संतुष्ट हो, तो तुम जन्म के चक्कर से बाहर हो जाते हो। अब तुम पुनः जन्म नहीं लोगे क्योंकि इच्छा ही जन्म लेती है। न कि तुम, और इच्छा, वासना के कारण ही तुम उनको अनुकरण करते हो। तुम अपनी वासना की छाया हो जाते हो। वासनाएं आगे बढ़ती हैं और तुम पीछे-पीछे जाते हो।
सृजन का अर्थ होता है इच्छा। तुम बिना इच्छा के सृजन नहीं कर सकते। इच्छा से तुममें गति पैदा होती है, तुमसे प्रयत्न होता है और तब तुम सृजन करते हो। तब उसे विसर्जित कैसे करें? यदि इच्छा शेष हो, तो तुम विसर्जित नहीं करते हो। तब उसे विसर्जित कैसे करें? यदि इच्छा शेष हो, तो तुम विसर्जित नहीं कर सकते। विसर्जन का अर्थ हुआ कि अब कोई कामना नहीं है, इच्छा-शून्यता, संतोष, तृप्ति। इसीलिए यह सूत्र विसर्जन से संतोष को जोड़ता है। यदि मनुष्य पूरी तरह तृप्त है, तब सभी कुछ विसर्जित हो जायेगा।
इसी को बौद्ध निर्वाण कहते हैं। इच्छा का न हो जाना। बुद्ध कहते हैं कि जब कोई इच्छा, वासना नहीं रह जायेगी तो तुम मिट जाओगे, तुम ब्रह्मांड में लीन हो जाओगे। फिर भी हमारा वासना से भरा मन पूछता है लेकिन मैं तो कहीं रहूँगा। क्या मैं कहीं भी नहीं रहूँगा? तो फिर मैं कहाँ होऊँगा? बुद्ध कहते हैं कि दीये की लौ को बुझ जाना होगा।
क्या तुम पता लगा सकते हो कि वह कहाँ है? कि वह कहाँ गई? तुम एक दीये को बुझा देते हो-लौ खो जाती है। कहाँ है वह? इसलिए बुद्ध कहते हैं कि वह सिर्फ विसर्जित हो गई। वह वापस अपने तत्व को, अपने स्रोत को पहुँच गई।
वह सब कहीं है और कहीं भी नहीं। और ये दोनों ही बातें अर्थपूर्ण हैं। यदि तुम कहते हो कि वह सब कहीं है, तो इसका भी अर्थ यही होता है कि अब वह कहीं भी नहीं है। तुम उसे कहीं भी नहीं खोज सकते। अथवा तुम कह सकते हो कि वह कहीं भी नहीं है, क्योंकि उसे खोज पाना असंभव है।
हसन, एक सूफी फकीर अपने जीवन में कहता है कि मैं एक बार किसी गाँव से गुजर रहा था, और मैं इतना ज्ञान से भरा था कि मैं किसी को भी सिखाना चाहता था-किसी को भी जो भी मिल जाए। उसी को ज्ञान-देना चाहता था, किन्तु सारा दिन बिना सिखाये बीत गया।
यह एक गुरु की खुजली है, यह एक बीमारी है। सारा दिन बीत गया और हसन ने किसी को भी ज्ञान नहीं दिया। अतः उसने एक बच्चे को ही पकड़ा। बच्चा हाथ में एक दिया लेकर जा रहा था, जलता हुआ दिया लेकर मंदिर जा रहा था। शाम ढल रही थी, और बच्चा मंदिर में दिया रखने जा रहा था।
हसन ने उसे रोका और कहा, ‘‘क्या बेटा, क्या तुम मुझे एक प्रश्न का उत्तर दोगे? कि इस दिये में यह लौ कहाँ से आई?’’ वह एक बड़ा रहस्यवादी प्रश्न पूछ रहा था और उसे पक्का विश्वास था कि बच्चा उसके जाल में फंस जायेगा। लेकिन उस बच्चे ने कुछ और ही किया, और हसन उस घटना को अपने जीवन भर कभी भी नहीं भूल सका। लड़का हँसा और उसने उस दिये को बुझा दिया। और उसने कहा कि, ‘‘अब यह तुम्हारे सामने ही गायब हो गई है। मुझे बताओ कि वह कहाँ गई? यदि तुम मुझे यह बता सको कि वह कहाँ चली गई तो मैं तुम्हें बता दूँगा कि वह कहाँ से आई। और यह तो तुम्हारे सामने ही गई है।’’
हसन तो उस लड़के के पाँवों पर गिर गया और बोला, मुझे क्षमा करो मुझे कुछ भी पता नहीं। मैं सिर्फ ज्ञान से भरा हुआ हूँ। मुझे यह भी पता नहीं कि वह लौ कहाँ चली गई है, अतः मुझे और क्या पता होगा? तुम मेरे गुरु हुए, तुमने मुझे बहुत कुछ सिखाया। तुमने मुझे मेरे अज्ञान को बता दिया।
जब हसन को ज्ञान उपलब्ध हुआ, तो सबसे पहले उसने इस लड़के को धन्यवाद दिया, इस अज्ञात लड़के के प्रति अनुग्रह का भाव व्यक्त किया। अतः उसके शिष्यों ने पूछा, ‘‘आप किसे धन्यवाद दे रहे हैं?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘एक लड़का था-एक गाँव में जिसने कि मेरे अज्ञान को मेरे सामने उघाड़कर रख दिया। उसने जलते हुए दिये की लौ बुझा दी और पूछा कि बताओ वह कहाँ गई। वह पहला सच्चा गुरु था क्योंकि बाकी सब गुरुओं ने तो मुझे और-और ज्ञान दिया, लेकिन वह पहला और अकेला था जिसने कि मुझे मेरा अज्ञान बताया। और केवल उसी के कारण मुझे पता चला कि मेरा ज्ञान झूठा है। और जब तुम्हारा ज्ञान झूठा हो जाए और तुम्हें उसका पता चल जायें, केवल तभी तुम, सच्चे और प्रमाणिक ज्ञान की ओर अग्रसर हो सकते हो, जानने की ओर बढ़ सकते हो।’’
यह सूत्र कहता है कि संतोष ही विसर्जन है। जब तुम पूरी तरह संतुष्ट हो, तो तुम जन्म के चक्कर से बाहर हो जाते हो। अब तुम पुनः जन्म नहीं लोगे क्योंकि इच्छा ही जन्म लेती है, न कि तुम, और इच्छा, वासना के कारण ही तुम उसका अनुकरण करते हो। तुम अपनी वासना की छाया हो जाते हो। वासनाएँ आगे बढ़ती हैं और तुम पीछे-पीछे जाते हो।
अब कोई वासना नहीं है और अब किसी गति की आवश्यकता नहीं हैं व्यक्ति जन्म के चक्र से मुक्त हुआ, संसार से छूटा। यही मोक्ष है, मुक्ति है।
स्वयं को विसर्जित करो। इस विसर्जन से तुम अपनी वासनाओं को विसर्जित करते हो। अपने स्वरूप के केंद्र कोप्राप्त करो संतोष से। संतोष ही स्वयं में केंद्रित होता है, और कोई उससे ही अडिग, निश्चल तथा शांत हो सकता है।
thank you guruji
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