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शनिवार, 22 अगस्त 2015

साधना--पथ--(प्रवचन--14)

साधना और संकल्‍प—(प्रवचन—चौदहसवां)

8 जून, 1964; सुबह
मुछाला महावीर, राणकपुर।

मैं आज क्या कहूं?
संध्या हम विदा होंगे और उस घड़ी के आगमन के विचार से ही आपके हृदय भारी हैं। इस निर्जन में अभी पांच दिवस पूर्व ही हमारा आना हुआ था और तब जाने की बात किसने सोची थी?
पर स्मरण रहे कि आने में जाना अनिवार्यरूपेण उपस्थित ही रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे साथ ही साथ हैं, यद्यपि दिखाई अलग—अलग देते हैं। उनके अलग—अलग समयों में दिखाई पड़ने से हम भ्रम में पड़ जाते हैं, पर जो थोड़ा गहरा देखेगा, वह पाएगा कि मिलन ही विदा है और सुख ही दुख है और जन्म ही मृत्यु है।
सच ही, आने और जाने में कितना कम फासला है, या कि फासला है ही नहीं!
जीवन में भी ऐसा ही है। आ भी नहीं पाते हैं कि जाना प्रारंभ हो जाता है और जिसे हम रहना कहते हैं, क्या वह जाने की तैयारी मात्र ही नहीं है?
जन्म और मृत्यु में दूरी ही कितनी है?
पर वह दूरी बहुत भी, अनंत भी हो सकती है। जीवन साधना बने तो वह दूरी अनंत हो सकती है।
जीवन साधना बने, तो मृत्यु मोक्ष बन जाती है। और जन्म और मृत्यु में तो बहुत दूरी नहीं है, पर जन्म और मोक्ष में तो अनंत दूरी है।
वह दूरी उतनी ही है, जितनी कि शरीर और आत्मा में है, जितनी कि स्वप्न और सत्य में है। और वह दूरी सर्वाधिक है। उससे अधिक दूरी पर और कोई दो बिंदु नहीं हैं।
मैं शरीर हूं—यह भ्रम, इलूजन मृत्यु है, आत्मा हूं यह साक्षात, रियलाइजेशन मोक्ष है।
जीवन इस सत्य—साक्षात के लिए अवसर है। इस अवसर का उपयोग हो—यह अवसर व्यर्थ न खोया जाए तो जन्म और मृत्यु में अनंत फासला हो जाता है।
और इन बीते थोड़े से दिनों में, हमारे यहां आने और जाने में भी बहुत फासला हो सकता है। क्या यह नहीं हो सकता है कि हम जो आए हों, वही वापस न लौटें? क्या आप एक बिलकुल नये व्यक्ति होकर वापस नहीं लौट सकते हैं?
वह क्रांति आप चाहें तो एक क्षण में भी हो सकती है; पांच दिन तो बहुत ज्यादा हैं, और अन्यथा पांच जन्म भी थोड़े हैं, दिनों की तो विसात ही क्या?
संकल्प का, पूर्ण संकल्प का एक क्षण भी बहुत है। संकल्पहीन पूरा जीवन भी कुछ नहीं है।
स्मरण रहे कि समय, टाइम नहीं, संकल्प, विल महत्वपूर्ण है। संसार की उपलब्धियां समय में और सत्य की उपलब्धियां संकल्प में होती हैं।
संकल्प की प्रगाढ़ता, एक क्षण को ही अनंत विस्तार और गहराई दे देती है। वस्तुत: संकल्प की प्रगाढ़ता में समय, टाइम मिट ही जाता है, और केवल शाश्वतता, इंटरनिटी ही शेष रह जाती है।
संकल्प द्वार है जो समय से मुक्त करता और शाश्वतता से जोड़ता है।
अपने संकल्प को घना और प्रगाढ़ होने दें। वह श्वास—श्वास में परिव्याप्त हो जाए। वह सोते—जागते स्मृति में हो। उसी से नया जन्म होता है—वह जन्म होता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। वही वास्तविक जन्म है। एक जन्म शरीर का है। पर उसकी परिणति मृत्यु है— अनिवार्य मृत्यु है। इसलिए मैं उसे वास्तविक जन्म नहीं कहता हूं। जो मृत्यु में समाप्त हो, वह जीवन का प्रारंभ कैसे हो सकता है? पर एक जन्म और भी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में नहीं होती है। वही वास्तविक है, क्योंकि उसकी परिपूर्णता अमृत में है।
उस जन्म के लिए ही इन दिनों मैंने आपको आमंत्रित किया और पुकारा है। उसके लिए ही हम यहां इकट्ठे हुए थे।
पर हमारे इकट्ठे होने का मूल्य नहीं है। आप अपने भीतर—प्रत्येक अपने भीतर इकट्ठा, एक होकर पुकारे और प्यासा हो तो वही समग्र चित्त का संकल्प सत्य की निकटता में परिणत हो जाता है। सत्य तो निकट है, पर हममें उसके निकट होने का संकल्प चाहिए।
सत्य के लिए प्यास आप में है, पर संकल्प भी चाहिए। संकल्प से संयुक्त होकर ही प्यास साधना बनती है।
संकल्प का क्या अर्थ है?
एक व्यक्ति ने किसी फकीर से पूछा कि प्रभु को पाने का मार्ग क्या है? उस फकीर ने उसकी आंखों में झांका। वहां प्यास थी। वह फकीर नदी जाता था। उसने उस व्यक्ति को भी कहा’ मेरे पीछे आओ। हम स्नान कर लें, फिर बताऊंगा।वे स्नान करने नदी में उतरे।
वह व्यक्ति जैसे ही पानी में डूबा, फकीर ने उसके सिर को जोर से पानी में ही दबा कर पकड़ लिया। वह व्यक्ति छटपटाने लगा। वह अपने को फकीर की दबोच से मुक्त करने में लग गया। उसके प्राण संकट में थे। वह फकीर से बहुत कमजोर था, पर क्रमश: उसकी प्रसुप्त शक्ति जागने लगी।
फकीर को उसे दबाए रखना असंभव हो गया। वह पूरी शक्ति से बाहर आने में लगा था और अंततः वह पानी के बाहर आ गया। वह हैरान था! फकीर के इस व्यवहार को समझ पाना उसे संभव नहीं हो रहा था। क्या फकीर पागल था? और फकीर जोर से हंस भी रहा था।
उस व्यक्ति के स्वस्थ होते ही फकीर ने पूछा :’ मित्र, जब तुम पानी के भीतर थे, तो कितनी आकांक्षाएं थीं? वह बोला’ आकांक्षाएं? आकांक्षाएं नहीं, बस एक ही आकांक्षा थी कि एक श्वास, हवा कैसे मिल जाए?' वह फकीर बोला.’ प्रभु को पाने का रहस्य—सूत्र, सीक्रेट यही है। यही संकल्प है। संकल्प ने तुम्हारी सब सोई शक्तियां जगा दीं। संकल्प के उस क्षण में ही शक्ति पैदा होती है और व्यक्ति संसार से सत्य में संक्रमण करता है।
संकल्प से ही संसार से सत्य में संक्रमण होता और संकल्प से ही स्वप्न से सत्य में जागरण होता है। विदा के इन क्षणों में मैं यह स्मरण दिलाना चाहता हूं।
संकल्प चाहिए। और क्या चाहिए? और चाहिए साधना—सातत्य। साधना सतत होनी चाहिए। पहाड़ों से जल को गिरते देखा है? सतत गिरते हुए जल के झरने चट्टानों को तोड़ देते हैं।
व्यक्ति यदि अज्ञान की चट्टानों को तोड्ने में लगा ही रहे तो जो चट्टानें प्रारंभ में बिलकुल राह देती नहीं मालूम होती हैं, वे ही एक दिन रेत हो जाती हैं, और राह मिल जाती है।
राह मिलती तो निश्चित है, पर वह बनी—बनाई नहीं मिलती है। उसे स्वयं ही, अपने ही श्रम से बनाना होता है। और यह मनुष्य का कितना सम्मान है! यह कितना महिमापूर्ण है कि सत्य को हम स्वयं अपने ही श्रम से पाते हैं!
' श्रमण' शब्द से महावीर ने यही कहना चाहा है। सत्य श्रम से मिलता है। वह भिक्षा नहीं है, सिद्धि है। संकल्प और सतत श्रम और अनंत प्रतीक्षा।
सत्य अनंत है और इसलिए उसके लिए अनंत प्रतीक्षा और धैर्य आवश्यक है। अनंत प्रतीक्षा में ही वह विराट अवतरित होता है। जो धैर्यवान नहीं हैं, वे उसे नहीं पा सकते हैं।
विदा के इन क्षणों में यह भी स्मरण दिलाना चाहता हूं।
अंत में एक कथा मुझे स्मरण आती है। बिलकुल काल्पनिक कथा है। पर बहुत सत्य भी है। एक वृद्ध साधु के पास से कोई देवता निकलता था। उस साधु ने कहा’ प्रभु से पूछना कि मेरी मुक्ति में कितनी देर और है?' उस वृद्ध साधु के पास ही एक बरगद के दरख्त के नीचे एक बिलकुल नव—दीक्षित युवा संन्यासी का आवास भी था।
उस देवता ने उस युवा संन्यासी से भी पूछा कि क्या आपको भी प्रभु से अपनी मुक्ति के संबंध में पूछना है? पर वह संन्यासी कुछ बोला नहीं, वह जैसे एकदम शांत और शून्य था।
फिर कुछ समय बाद वह देवता लौटा। उसने वृद्ध तपस्वी से कहा.’ मैंने प्रभु को पूछा था। वे बोले. अभी तीन जन्म और लग जाएंगे!'
वृद्ध तपस्वी ने माला क्रोध में नीचे पटक दी। उसकी आंखें लाल हो गईं। उसने कहा’ तीन जन्म और? कैसा अन्याय है?'
वह देवता बरगद वाले युवा संन्यासी के पास गया। उससे उसने कहा’ मैंने प्रभु से पूछा था। वे बोले वह नव—दीक्षित साधु जिस वृक्ष के नीचे आवास करता है, उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे और साधना करनी है।
युवा साधु की आंखें आनंद से भर गईं और वह उठ कर नाचने लगा और उसने कहा :’ तब तो पा ही लिया। जमीन पर कितने वृक्ष हैं और उन वृक्षों में कितने पत्ते हैं! यदि इस छोटे से बरगद के दरख्त के पत्तों के बराबर जन्मों में ही वह मिल जाएगा तो मैंने उसे अभी ही पा लिया है!'
यह भूमिका है जिसमें सत्य की फसल काटी जाती है।
और कथा का अंत जानते हैं क्या हुआ?
वह साधु नाचता रहा, नाचता रहा और उस नृत्य में ही उसी क्षण वह मुक्त हो गया और प्रभु को उपलब्ध हो गया। शांत और अनंत प्रेम—प्रतीक्षा का वह क्षण ही सब—कुछ था। वह क्षण ही मुक्ति है।
इसे मैं अनंत प्रतीक्षा कहता हूं। और जिसकी प्रतीक्षा अनंत है, उसे सब—कुछ अभी और यहीं उपलब्ध हो जाता है। वह भाव— भूमि ही उपलब्धि है।
क्या आप इतनी प्रतीक्षा करने को तैयार हैं?
मैं इस प्रश्न के साथ ही आपको विदा दे रहा हूं।
प्रभु सामर्थ्य दे कि आपकी जीवन—सरिता सत्य के सागर तक पहुंच सके।
यही मेरी कामना और प्रार्थना है।
आज इतना ही
(साधना पथ समाप्‍त)

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