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सोमवार, 10 अगस्त 2015

साधना--पथ--(प्रवचन--05)

नीति नहीं, धर्म—साधना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 3 जून, 1964; सध्‍या
मुछाला महावीर, राणकपुर

चिदात्मन्!
मैं आपकी जिज्ञासा और उत्सुकता को समझ रहा हूं। आप सत्य को जानने और समझने को उत्सुक हैं। जीवन के रहस्य को आप खोलना चाहते हैं, ताकि जीवन उपलब्ध हो सके। अभी तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह कोई जीवन नहीं है। वह तो मृत्यु की एक लंबी क्रिया ही कही जा सकती है।
यह ठीक है कि जीवन को जाने बिना जीवन प्राप्त नहीं होता है। जन्म एक बात है, जीवन बिलकुल दूसरी बात है। जन्म लेना और जीवन—उपलब्धि में बहुत भेद है। वह भेद उतना ही है, जितना कि मृत्यु और अमृत में है। जी लेने की परिसमाप्ति मृत्यु में है। जीवन की पूर्णता और पूर्ण जीवन—ब्रह्म जीवन, दिव्य जीवन में है।

दिव्य जीवन में जो उत्सुक होते हैं और जो सत्य और ईश्वर को जानना चाहते हैं, उनके लिए मेरी दृष्टि में साधना की दो दिशाएं प्रतीत होती हैं; दो मार्ग प्रतीत होते हैं। एक दिशा नीति की है, दूसरी दिशा धर्म की है। साधारणत: नीति और धर्म को दो मार्ग नहीं माना जाता है। वे एक ही मार्ग की दो सीढ़ियां समझी जाती हैं। नैतिक होकर ही व्यक्ति धार्मिक हो पाता है, ऐसा विश्वास है। पर मेरा ऐसा देखना नहीं है। जो मैंने जाना है, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं।
मैं ऐसा तो नहीं देख पाता हूं कि नैतिक व्यक्ति धार्मिक होता है, यद्यपि यह जरूर सच है कि धार्मिक व्यक्ति अनिवार्यत: सहज ही नैतिक अवश्य होता है। नैतिक होने से ही कोई धार्मिक नहीं हो जाता है। और न ही नीति धार्मिक होने का प्रारंभ या भूमिका है। विपरीत वह तो धार्मिक होने का परिणाम, कासिक्येंस है। धार्मिक जीवन में नीति के फूल लगते हैं, वे धर्म—जीवन की अभिव्यक्तियां हैं।
मैं नीति और धर्म की दिशाओं को भिन्न मानता हूं; भिन्न ही नहीं, विपरीत मानता हूं— क्यों मानता हूं उसे समझाना चाहता हूं। नीति—साधना का अर्थ है आचरण—शुद्धि, व्यवहार—शुद्धि। वह व्यक्तित्व की परिधि—को बदलने का प्रयास है। व्यक्तित्व की परिधि मेरा दूसरों से जो संबंध है, उससे निर्मित होती है। वह दूसरों से मेरा व्यवहार है। मैं दूसरों के साथ कैसा हूं वही मेरा आचरण है। आचरण यानी संबंध, रिलेशन
मैं अकेला नहीं हूं। मैं अपने चारों ओर अन्य लोगों से घिरा हूं। मैं समाज में हूं और इसलिए प्रतिक्षण किसी न किसी से संबंधित हूं। यह अतर्संबंध ही जीवन मालूम होता है। मेरे संबंध शुभ हैं तो मेरा आचरण सद है, और मेरे संबंध अशुभ हैं तो मेरा आचरण असद है। सदाचरण की हमें शिक्षा दी जाती है। वह समाज के लिए आवश्यक है। वह एक सामाजिक आवश्यकता है।
समाज को आपसे, आपकी निपट निजता में कोई प्रयोजन नहीं है। उस दृष्टि से आप न भी हों तो भी समाज को कोई अर्थ नहीं है। समाज के लिए आप उसी क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप किसी से संबंधित होते हैं। समाज को आप नहीं, आपका व्यवहार ही मूल्यवान है। आप नहीं, आपका आचरण ही अर्थपूर्ण है। इसलिए समाज की शिक्षा सदाचरण की है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्य उसके लिए आचरण से ज्यादा नहीं है।
पर, समाज की सदाचरण की यह शिक्षा, नैतिक होने का आदेश, एक भ्रांति पैदा करता है। एक बहुत आधारभूत भांति का इससे जन्म हुआ है। स्वाभाविक ही जो प्रभु में और धर्म में उत्सुक होते हैं, वे सोचते हैं कि सत्य को पाने को सद होना आवश्यक है। सदाचरण की भूमिका में ही प्रभु—अनुभूति संभव होगी। सत्य के आगमन के पूर्व शुभ होना होगा। धर्मानुभूति नैतिक जीवन से ही निकलेगी और विकसित होगी। नीति आधार है, धर्म शिखर होगा। नीति बीज है, धर्म फल होगा। नीति कारण, कॉज़ है, धर्म कार्य, इफेक्ट होगा। यह विचार— सरणी कैसी स्पष्ट और सम्यक प्रतीत होती है? पर मैं कहना चाहता हूं कि यह सरल और सुस्पष्ट दिखने वाली विचार—सरणी बिलकुल ही भ्रांत है। यह वस्तुस्थिति को बिलकुल उलटा करके देखना है। सत्य कुछ और ही है।
नीति की दिशा किसी व्यक्ति को वस्तुत: तो नैतिक भी नहीं बना पाती है, धार्मिक बनाने का तो प्रश्न ही नहीं है। व्यक्ति उससे केवल सामाजिक बन सकता है। और सामाजिक को नैतिक समझ लिया जाता है। आचरण मात्र ठीक होने से कोई वस्तुत: नैतिक नहीं होता है। उस क्रांति के लिए अंतस का परिशुद्ध होना आवश्यक है। अंतस को बदले बिना आचरण नहीं बदल सकता है।
केंद्र को, मूल को बदले बिना परिधि को बदलने का प्रयास केवल एक निरर्थक स्वप्न है। वह प्रयास मात्र व्यर्थ ही नहीं, घातक भी है। वह आत्म—हिंसा है। ऐसी चेष्टा अपने ऊपर जबरदस्ती आरोपण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस दमन में समाज की उपयोगिता तो सध जाती है, पर व्यक्ति टूट जाता और खंडित हो जाता है। उसके भीतर द्वैत पैदा हो जाता है। उसका व्यक्तित्व सहजता और सरलता खोकर एक अंतर्द्वंद्व, कांफ्लिक्ट बन जाता है—एक सतत संघर्ष, एक अंतहीन अंतर्युद्ध—जिसके अंत में विजय कभी नहीं आती है। यह व्यक्ति के मूल्य पर सामाजिक उपयोगिता को पूरा कर लेना है। इसे मैं सामाजिक हिंसा कहता हूं।
मनुष्य के आचरण में जो कुछ प्रकट होता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण अंतस के वे कारण हैं, जिनकी वजह से वह प्रकट होता है। आचरण अंतस की सूचना है, मूल वह नहीं है। आचरण अंतस का बाह्य प्रकाशन है। और वे लोग नासमझ हैं, जो प्रकाशक को बदले बिना प्रकाशन को बदलने की आकांक्षा करते हैं। उस तरह की साधना व्यर्थ है। वह कभी फलवती नहीं होगी। वह ऐसे ही है जैसे कोई किसी वृक्ष की शाखाओं को छांट कर उसे नष्ट करना चाहता हो। उससे वृक्ष नष्ट तो नहीं और सघन अवश्य हो सकता है। वृक्ष के प्राण शाखाओं में नही हैं, वे तो जड़ों में हैं, उन जड़ों में जो कि भूमि के अंतर्गत हैं और दिखाई नहीं पड़ती हैं। उस जड़ों की प्रसुप्त आकांक्षाएं ही वृक्ष के रूप में प्रकट हुई हैं। उन जड़ों की आकांक्षाओं और वासनाओं ने ही शाखाओं का रूप लिया है। शाखाओं के छांटने से क्या होगा?.......वस्तुत: ही यदि जीवन क्रांति चाहते हैं, तो जड़ों तक चलना जरूरी है।
मनुष्य के आचरण की जड़ें, रूट्स अंतस में हैं। आचरण अंतस का अनुगामी है, उसका अग्रगामी नहीं। इसलिए आचरण को बदलने का प्रयत्न दमन, सप्रेशन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? और दमन क्या कोई परिवर्तन ला सकता है? दमन का क्या अर्थ है? दमन का अर्थ है, जो हमारे अंतस से सहज उठता है उसे उठने न दें, और जो नहीं उठता है उसे बलपूर्वक उठाएं और प्रकट करें।
जो हम दबा देंगे वह कहां जाएगा? क्या हम उससे मुक्त हो जाएंगे? दमन से मुक्ति कैसे आएगी? वह तो हमारे भीतर ही बना रहेगा! यद्यपि अब उसे अपने जीवन के लिए और गहरे अंधेरे और अचेतन, अनकांशस तल खोजने पड़ेंगे। वह और गहरी गहराइयों में प्रविष्ट हो जाएगा। वह वहां छिपा रहेगा जहां हमारी दमन की चेतन आंखें उसे खोज न पाएं। पर गहरी बैठ गई इन जड़ों के अंकुर तो फूटते ही रहेंगे, शाखाएं तो पल्लवित होती ही रहेंगी, और तब हमारे चेतन, कांशस और अचेतन, अनकांशस के मध्य एक ऐसे संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी, जिसकी परिसमाप्ति केवल विक्षिप्तता में ही हो सकती है।
विक्षिप्तता, हमारी तथाकथित और थोथी नैतिकता पर खड़ी सभ्यता का परिणाम है। इसलिए जितनी सभ्यता, सिविलाइजेशन बढ़ती है, उतनी ही विक्षिप्तता बढ़ती है। और यह हो सकता है कि एक दिन हमारी पूरी सभ्यता विक्षिप्तता में परिणत हो जाए। विगत दो महायुद्ध इसी तरह की विक्षिप्तताएं, मैडनेस थे, और अब तीसरे और अंतिम की तैयारी चल रही है।
मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में जो विस्फोट होते हैं वे— और सामूहिक जीवन में भी हिंसा, बलात्कार, अनैतिकता और पाश्विकता के जो विस्फोट होते हैं वे—सभी दमन के परिणाम हैं। दमन के कारण मनुष्य सहज और सरल नहीं हो पाता है। फिर दमन का तनाव एक दिन उसे तोड़ ही देता है।
हां, वे जरूर इस अंतर्द्वंद्व से बच जाते हैं, जो पाखंड, हिपोक्रेसी को अंगीकार कर लेते हैं। जो होते कुछ हैं और दिखाते कुछ हैं। और जो अपने भीतर किसी संघर्ष में नहीं, केवल बाहर अभिनय में होते हैं। पाखंड का जन्म भी, दमन आधारित नैतिकता से होता है। वह भी तथाकथित नीति का ही पुत्र है। वह अंतर्द्वंद्व से बचने का उपाय है।
मैंने कहा कि इस तथाकथित नैतिक जीवन में जो अंतस से सहज उठता है उसे हम उठने नहीं देते हैं और जो नहीं उठता उसे प्रकट करते हैं। इसमें पहली प्रक्रिया से दमन आता है और दूसरी प्रक्रिया से पाखंड आता है। पहली प्रक्रिया का अंतिम परिणाम पागल है और दूसरी प्रक्रिया का अंतिम परिणाम पाखंडी है। ये दोनों ही परिणाम अच्छे नहीं हैं और दोनों में से कोई भी चुनने जैसा नहीं है। पर हमारी सभ्यता ये दो ही विकल्प उपस्थित करती है।
ही, एक तीसरा विकल्प भी है। वह है पशु जैसे होने का। अपराधी का जन्म उस विकल्प से होता है। उससे हम बचना चाहते हैं। पशु होने से हम बचना चाहते हैं तो हमारी सभ्यता उपरोक्त दो विकल्प देती है।
पशु होने का अर्थ है अपने को अचेतन प्रवृत्तियों, इंर्स्टिक्ट्स के हाथ में पूर्णतया सौंप देना। यह भी असंभव है, क्योंकि जो अंश मनुष्य में चेतन हो गया है, वह अचेतन नहीं हो सकता है।
नशे में हम उसी अचेतना को खोजते हैं। नशे की तलाश पशु होने की आकांक्षा का प्रतीक है। पूर्ण बेहोशी में ही मनुष्य प्रकृति के, पशु के बिलकुल अनुकूल हो सकता है। पर वह तो मृत्यु के ही तुल्य है। यह सत्य विचारणीय हैं—बहुत विचारणीय है, मनुष्य बेहोशी में पशु कैसे हो जाता है? और उसे पशु होना हो तो बेहोशी की खोज क्यों करता है?
यह सत्य इस बात की सूचना है कि मनुष्य में जो चेतना है, वह पशु—जगत का अंश नहीं है, वह प्रकृति का अंश नही है। चेतना प्रभु का अंश है। वह आत्मा की भावी संभावना है। वह बीज है जिसे मिटाना नहीं, बढ़ाना है। उसकी पूर्णता पर ही पूर्ण स्वतंत्रता, मुक्ति और आनंद संभव है!
फिर हम क्या करें? हमारी सभ्यता तीन विकल्प देती है पशु का विकल्प, पागल का विकल्प, पाखंड का विकल्प। क्या कोई चौथा विकल्प भी है?
मैं उस चौथे विकल्प को ही धर्म कहता हूं। वह पशु का, पागल का, पाखंड का नहीं, प्रज्ञा का मार्ग है। वह भोग का, दमन का, मिथ्याभिनय का नहीं, वास्तविक जीवन और ज्ञान का मार्ग है। उसके परिणाम में सदाचरण के फूल लगते हैं। उसके परिणाम में व्यक्ति का पशु विसर्जित होता है। अचेतन वासनाओं का दमन नहीं, उनसे मुक्ति होती है। और सदाचरण का अभिनय नहीं, वास्तविक जीवन पैदा होता है। वह किसी आवरण को, आचरण को ओढ़ना नहीं है—वह अंतस की क्रांति है। वह समाज का नहीं, स्वयं का समाधान है। वह हमारे संबंधों को नहीं, स्वयं हमें बदल देता है। और तब संबंध तो अपने आप बदल जाते हैं। वह हमारी निपट निजता में—वह जो मैं अपने आप में हूं—वहां क्रांति ला देता है। और तब शेष सब अपने आप परिवर्तित हो जाता है। नीति सामाजिक है; धर्म नितांत वैयक्तिक है।
नीति आचरण है, धर्म अंतस है।
नीति परिधि है; धर्म केंद्र है।
नीति व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी है, धर्म आत्मा है।
नीति के आने से तो धर्म नहीं आता है, पर धर्म के आने से नीति अवश्य आ जाती है। नीति के आने से नीति ही नहीं आती है, तो धर्म कैसे आ सकता है?
नीति दमन से, आरोपण से प्रारंभ होती है। धर्म ज्ञान से प्रारंभ होता है।
जीवन में अशुभता है, अशुद्धि है, असद है—इस स्थिति की मूल जड़ों को जानना होता है। यह अशुभ कहां और कैसे जन्म पाता है? मेरे भीतर कौन—सा केंद्र है जहां से विष उठते हैं और मेरे आचरण को विषाक्त कर देते हैं? मैं शुभ का विचार करता हूं पर मेरे सारे विचारों को हटा कर अशुभ मुझे, मेरे व्यवहार और जीवन को क्यों घेर लेता है? वह वासना—शक्ति मेरे विचारों को निरंतर क्यों पराजित कर देती है?
यह स्वयं ही निरीक्षण करना होता है। दूसरों के उधार निष्कर्ष किसी काम नहीं आते हैं क्योंकि निरीक्षण में ही—स्वयं के निरीक्षण में ही—उस शक्ति और ऊर्जा का जन्म होता है जो उस केंद्र को विघटित कर देती है, जहां से अशुभ जन्म और पोषण पाता है। यह सतत निरीक्षण स्वयं ही साधना होता है, क्योंकि यह अशुभ को जानने की विधि मात्र ही नहीं है, वह निराकरण भी है।
मैं जो भीतर हूं—जो मेरा अचेतन अंतस है, उसके निरीक्षण से, उसके प्रति सजग और जागरूक होने से मेरे अंधेरे तलों में प्रकाश पहुंचता है। और वह प्रकाश मेरे आचरण के मूल केंद्रों और जड़ों को ही—मुझे नहीं दिखाता है—वह उन्हें परिवर्तित करने लगता है।
यह बहुत ध्यान देने का सूत्र है। निरीक्षण से ज्ञान ही नहीं होता है, परिवर्तन भी होता है। असल में निरीक्षण ज्ञान लाता है और जान से परिवर्तन आता है। ज्ञान की क्रांति— जीवन क्रांति है।
यह ऐसे ही है जैसे मैं किसी वृक्ष की जड़ों को जानने के लिए भूमि को खोदूं और सारी जड़ों को प्रकाश में ले जाऊं। इससे मैं जड़ों से तो परिचित हो ही जाऊंगा, लेकिन साथ ही भूमि के अंधेरे को छोड़ने और भूमि से पृथक होने के कारण वे जड़ें मर भी जाएंगी। यहां मैं उनका निरीक्षण करूंगा और वहां उनकी शाखाएं कुम्हला जाएंगी।
निरीक्षण वासना की जड़ों की मृत्यु बन सकता है। प्रकाश को वे नहीं सह पाती हैं। अशुभ ज्ञान को नहीं सह पाती हैं। शायद, सुकरात ने जो कहा है कि ज्ञान ही शुभ है, नॉलेज इज वर्व्यू — उसका कोई और अर्थ नहीं है।
मैं भी यही कहता हूं ज्ञान शुभ है, अज्ञान अशुभ है। प्रकाश नीति है, अंधकार अनीति है। निरीक्षण— सतत निरीक्षण—स्वयं का, स्वयं की अचेतन वृत्तियों का, चैतन्य को जगाता है और चेतना को अचेतन मन में प्रवेश मिलता है। अचेतन, मूर्च्छा, बेहोशी, नशा, प्रमत्तता इनसे चेतन में प्रवेश और चेतन पर अधिकार करता है।
यह हमने देखा कि पशु—प्रवृत्तियां, एनीमल इंस्टिक्ट्स मूर्च्छा में ही संभव होती हैं। क्रोध या काम मूर्च्छा में ही हमें पकड़ते हैं, और इसीलिए पशु जैसी वृत्तियों की तृप्ति के लिए मादक द्रव्य सहयोगी हो जाते हैं।
चेतना अमूर्च्छा से, अप्रमत्तता से, सजगता और जागरूकता से अचेतन मन में प्रवेश और अधिकार करती है। जितनी जागरूकता आती है, होश आता है— अपनी वृत्तियों और क्रियाओं, वासनाओं और विकारों का निरीक्षण और सम्यक स्मरण आता हैं—उतने ही हम चैतन्य से भरते जाते हैं। और वे वेग, वे प्रभाव, वे अंधे— अचेतन धक्के हममें अपने आप कम होते जाते हैं जिनके जीवन और अस्तित्व के लिए मूर्च्छा, निद्रा और बेहोशी आवश्यक है— जो कि बेहोशी के अभाव में हो ही नहीं सकते हैं।
यह स्मरण रहे कि आज तक किसी मनुष्य ने होश में कुछ भी बुरा नहीं किया है। सब पाप मूर्च्छा है और मूर्च्छा में हैं। मेरी दृष्टि में तो केवल मूर्च्छा ही पाप है। निरीक्षण मूर्च्छा को तोड़ता है। और इसलिए हम समझें कि निरीक्षण क्या है और कैसे संभव है?
स्व—निरीक्षण, सेल्फ—ऑब्जर्वेशन क्या है?
मैं शांत बैठ जाऊं— जैसा मैंने सम्यक स्मृति के लिए कल ही समझाया है— और अपने भीतर जो भी होता है, उसे देखूं। वासनाओं, विचारों का एक जगत भीतर है। मैं उसका निरीक्षण करूं। मैं उसे ऐसे ही देखूं जैसे कोई सागर तट पर खड़ा हो, सागर की लहरों को देखता है। कृष्णमूर्ति ने इसे निर्विकल्प सजगता, च्वाइसलेस अवेयरनेस कहा है। यह बिलकुल तटस्थ निरीक्षण है। तटस्थ होना बहुत जरूरी है। तटस्थ का अर्थ है कि मैं कोई चुनाव न करूं, न कोई निर्णय करूं। न किसी वासना को बुरा कहूं न भला कहूं।
शुभ—अशुभ का निर्णय न करूं। बस देखूं। जो है, उसका मात्र साक्षी बनूं—जैसे मैं दूर खड़ा हूं पृथक हूं और जानने—देखने के अतिरिक्त मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे ही प्रयोजन आता है, चुनाव आता है, निर्णय आता है, वैसे ही निरीक्षण बंद हो जाता है। मैं फिर निरीक्षण नहीं, विचार करता हूं।
विचार और निरीक्षण का यह भेद समझ लें।
विचार नहीं करना है। विचार चेतन की, चेतन के भीतर ही क्रिया है। निरीक्षण चेतन के द्वारा अचेतन में प्रवेश है। और जैसे ही विचार आया, शुभ—अशुभ का भेद आया, सूक्ष्म दमन प्रारंभ हो जाता है। अचेतन तब अपने द्वार बंद कर लेता है और हम उसके रहस्यों से परिचित होने से वंचित हो जाते हैं।
अचेतन अपने रहस्य विचार को नहीं, निरीक्षण को खोलता है, क्योंकि दमन के अभाव में उसके वेग और वृत्तियां सहजता से ऊपर आ जाते हैं, अपनी पूरी नग्नता में और अपनी पूरी सचाई में। और उन वेगों और वृत्तियों और वासनाओं को वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं रहती है। अचेतन, नग्न और निर्वस्त्र सामने आ जाता है। और तब कैसी घबड़ाहट होती है? अपने ही भीतर के इस रूप को देख कर कैसा डर लगता है? आंखें बंद कर लेने का मन होता है और गहराई के इस निरीक्षण को छोड़ फिर वापस सतह पर लौट जाने की आकांक्षा आती है।
इस समय धैर्य और शांति की परीक्षा होती है। मैं इस क्षण को ही तप का क्षण कहता हूं। जो इस क्षण को साहस और शांति से पार कर लेते हैं, वे एक अदभुत रहस्य के और ज्ञान के धनी हो जाते हैं। वे वासनाओं की जड़ों को देख लेते हैं, वे अचेतन केंद्र— भूमि में प्रविष्ट हो जाते हैं। और यह प्रवेश अपने साथ एक अलौकिक मुक्ति लाता है।
सम्यक ध्यान से— निरीक्षण, निरीक्षण से—ज्ञान, ज्ञान से—मुक्ति, यह मार्ग है। यह धर्म का मार्ग है। यह योग है। मैं चाहता हूं कि आप इसे समझें और इस मार्ग पर चलें। फिर आप अंतस—क्रांति से आचरण परिवर्तन की कीमिया को समझेंगे। तब आपको दिखेगा कि नीति प्रथम नहीं है। प्रथम धर्म और नीति उसका परिणाम है। नीति नहीं, धर्म साधना है। नीति धर्म के पीछे वैसे ही चली आती है, जैसे बैलगाड़ी के पीछे उसके चाको के निशान बनते चले आते हैं।
यह दिख जाए तो एक बहुत बड़ा सत्य दिख जाता है और एक बहुत बड़ा भ्रम भंग हो जाता है। मैं मनुष्य के जीवन—परिवर्तन को इस आंतरिक क्रांति— अचेतन में चैतन्य के प्रवेश से देखता हूं। इस वितान पर एक नये मनुष्य को जन्म दिया जा सकता है और एक नई मनुष्यता और संस्कृति के आधार रखे जा सकते हैं।
ऐसा मनुष्य—इस आत्म—बोध से जागा हुआ मनुष्य सहज ही नैतिक होता है। नैतिकता उसे साधनी नहीं पड़ती है। वह उसकी चेष्टा और प्रयास नहीं होती है। वह उससे वैसे ही विकीर्ण होती है जैसे दीये से प्रकाश होता है। उसका सदाचरण उसके अचेतन के विरोध पर खड़ा नहीं होता। उनका आचरण उसके अंतस की समग्रता से आता है। वह अपने प्रत्येक कार्य में पूरा उपस्थित होता है।
उसमें अनेकता नहीं, एकता, यूनिटी होती है। ऐसा व्यक्ति अखंड, इंटीग्रेटेड होता है। ऐसा व्यक्ति द्वंद्वमुक्त होता है। और आंतरिक द्वंद्वमुक्ति से जो संगीत सुना जाता है, वह इस लोक का नहीं है, वह इस काल का नहीं है। एक कालातीत अमृत संगीत उस शांति में, उस निर्द्वंद्वता में, उस निर्दोषता, इनोसेंस में, हममें प्रवेश करता है और हम उसके साथ एक हो जाते हैं।
मैं इस अनुभूति को ही ईश्वर कहता हूं।

आज इतना ही।


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