प्रश्न
सार:
1—देखने
की विधियां
तीसरी आँख को
कैसे
प्रभावित
करती है?
2—सम्मोहन
विद्याओं में
लगे लोगों की
आंखें
डरावनी
क्यों होती
है?
3—आंखों
की गति रोकने
से मानसिक
तनाव क्यों
होता
है?
पहला
प्रश्न :
कृपया
तीसरी आंख के
साथ दो
सामान्य आंखों
के संबंध को
समझाएं।
देखने की
विधियां किस
भांति तीसरी
आँख को
प्रभावित
करती हैं।
पहले
तो दो बातें
समझ लेने की
हैं। एक, तीसरी
आंख की ऊर्जा
वही है जो
ऊर्जा दो
सामान्य आंखों
को चलाती है।
ऊर्जा वही है,
सिर्फ वह नई
दिशा में नए
केंद्र की ओर
गति करने लगती
है। तीसरी आंख
है; लेकिन निष्क्रिय
है। और जब तक
सामान्य आंखें
देखना बंद
नहीं करतीं, तीसरी आंख
सक्रिय नहीं
हो सकती, देख
नहीं सकती।
उसी
ऊर्जा को यहां
भी बहना है।
जब ऊर्जा
सामान्य आंखों
में बहना बंद
कर देती है तो
वह तीसरी आंख
में बहने लगती
है। और जब
ऊर्जा तीसरी आंख
में बहती है
तो सामान्य आंखें
देखना बंद कर
देती हैं। तब
उनके रहते हुए
भी तुम उनके
द्वारा कुछ
नहीं देखते हो।
जो ऊर्जा
उनमें बहती थी
वह वहां से
हटकर एक नए केंद्र
पर गतिमान हो
जाती है। यह
केंद्र दो आंखों
के बीच में
स्थित है। तीसरी
आंख बिलकुल
तैयार है; वह
किसी भी क्षण
सक्रिय हो
सकती है।
लेकिन इसे
सक्रिय होने
के लिए ऊर्जा
चाहिए। और
सामान्य आंखों
की ऊर्जा को
यहां लाना
होगा।
दूसरी
बात,
जब तुम
सामान्य आंखों
से देखते हो
तब तुम सचमुच
स्थूल शरीर से
देखते हो।
तीसरी आंख
स्थूल शरीर का
हिस्सा नहीं
है; यह
दूसरे शरीर का
हिस्सा है, जिसे
सूक्ष्म शरीर
कहते हैं।
स्थूल शरीर के
भीतर उसके
जैसा ही
सूक्ष्म शरीर
भी है; लेकिन
यह स्थूल शरीर
का हिस्सा
नहीं है। यही
वजह है कि
शरीर—शास्त्र
यह मानने को
राजी नहीं है
कि तीसरी आंख
या उसकी जैसी
कोई चीज है।
तुम्हारी
खोपड़ी की खोज—बीन
की जा सकती है,
एक्सरे के
द्वारा उसे
देखा—परखा जा
सकता है।
लेकिन उसमें
कहीं भी वह
चीज नहीं
मिलेगी जिसे
तीसरी आंख कहा
जा सके। तीसरी
आंख सूक्ष्म
शरीर का
हिस्सा है।
जब
तुम मरते हो
तो तुम्हारा
स्थूल शरीर ही
मरता है; तुम्हारा
सूक्ष्म शरीर
तुम्हारे साथ
जाता है और वह
दूसरा जन्म
लेता है। जब
तक सूक्ष्म
शरीर नहीं
मरेगा तुम
जन्म—मरण के, आवागमन के
चक्कर से
मुक्त नहीं हो
सकते; तब
तक संसार चलता
रहेगा।’'
तीसरी
आंख सूक्ष्म
शरीर का अंग
है। जब ऊर्जा
स्थूल शरीर
में गतिमान
रहती है तो तुम
अपनी स्थूल आंखों
से देख पाते
हो। यही कारण
है कि स्थूल आंखों
से तुम स्थूल
को ही देख सकते
हो, पदार्थ को
ही देख सकते हो; अन्य किसी चीज
को नहीं देख सकते।
सामान्य आंखें
भौतिक हैं। इन
आंखों से तुम
उसे नहीं देख
सकते जो
अशरीरी है।
तीसरी आंख के
सक्रिय होते
ही तुम एक नए
आयाम में
प्रवेश करते
हो। अब तुम वे
चीजें देख
सकते हो जो
स्थूल आंखों
के लिए दृश्य
नहीं हैं।
लेकिन वे
सूक्ष्म आंखों
के लिए दृश्य
हो जाती हैं।
तीसरी
आंख के सक्रिय
होने पर अगर
तुम किसी आदमी
पर निगाह
डालोगे तो तुम
उसकी आत्मा
में झांक लोगे।
यह वैसे ही है
जैसे स्थूल आंखों
से स्थूल शरीर
तो दिखाई देगा, लेकिन
आत्मा दिखाई
नहीं देगी।
तीसरी आंख से
देखने पर
तुम्हें जो
दिखाई देगा वह
शरीर नहीं
होगा; वह वह होगा जो
शरीर के भीतर
रहता है।
इन
दो बातों को
स्मरण रखो।
पहली, एक ही
ऊर्जा दोनों
जगह गति करती
है, उसे
सामान्य
स्थूल आंखों
से हटाकर ही
तीसरी आंख में
गतिमान किया
जा सकता है।
दूसरी बात कि
तीसरी आंख
स्थूल शरीर का
हिस्सा नहीं
है। वह
सूक्ष्म शरीर
का हिस्सा है,
जिसे हम
दूसरा शरीर भी
कहते हैं।
क्योंकि
तीसरी आंख
सूक्ष्म शरीर
का हिस्सा है,
इसलिए जिस
क्षण तुम इसके
द्वारा देखते
हो तुम्हें
सूक्ष्म जगत
दिखाई पड़ने
लगता है।
तुम
यहां बैठे हो।
अगर एक प्रेत
भी यहां बैठा
हो तो वह
तुम्हें नहीं
दिखाई देगा।
लेकिन अगर
तुम्हारी
तीसरी आंख काम
करने लगे तो
तुम प्रेत को
देख लोगे।
क्योंकि
सूक्ष्म
अस्तित्व
सूक्ष्म आंखों
से ही देखा जा
सकता है।
तीसरी
आंख देखने की
इस विधि से
कैसे संबंधित
है?
गहन
रूप से
संबंधित है।
सच तो यह है कि
यह विधि तीसरी
आंख को खोलने
की विधि है।
अगर तुम्हारी
दो आंखें
बिलकुल ठहर
जाएं, वे
स्थिर हो जाएं,
पत्थर की
तरह स्थिर हो
जाएं, तो
उनके भीतर
ऊर्जा का
प्रवाह भी ठहर
जाता है। अगर आंखों
को ठहरा दो तो
उनके भीतर
ऊर्जा का
प्रवाह ठहर जाता
है।
ऊर्जा
प्रवाहित है, इससे
ही आंखों में
गति है। कंपन
या गति ऊर्जा
के कारण है।
अगर ऊर्जा गति
न करे तो
तुम्हारी आंखें
मुर्दों की आंखों
जैसी हो
जाएंगी—पथराई
और मृत। किसी
स्थान पर
दृष्टि स्थिर
करने से, इधर—उधर
देखे बिना उस
पर टकटकी
बांधने से एक
गतिहीनता
पैदा होती है।
जो ऊर्जा
दोनों आंखों
में गतिमान थी
वह अचानक गति
बंद कर देगी।
लेकिन
गति करना
ऊर्जा का स्वभाव
है;
ऊर्जा
गतिहीन नहीं
हो सकती। आंखें
गतिहीन हो
सकती हैं, लेकिन
ऊर्जा नहीं।
इसलिए जब
ऊर्जा इन दो आंखों
से वंचित कर
दी जाती है, जब उसके लिए आंखों
के द्वार
अचानक बंद कर
दिए जाते हैं,
जब उनके
द्वारा ऊर्जा
की गति असंभव
हो जाती है, तो वह ऊर्जा
अपने स्वभाव के
अनुसार नए
मार्ग ढूंढने
में लग जाती
है। और तीसरा
नेत्र निकट ही
है, दो
भृकुटियों के
बीच, आधा
इंच अंदर है।
उस ऊर्जा के
लिए वह निकटतम
बिंदु है।
इसलिए
जब ऊर्जा
दोनों आंखों
से मुक्त हो
जाती है तो
पहली बात यह
होती है कि वह
तीसरी आंख से
बहने लगती है।
यह ऐसा ही है
जैसे कि पानी
बहता हो और
तुम उसके एक छेद
को बंद कर दो, वह
तुरंत निकटतम
दूसरे छेद को
ढूंढ लेगा। जो
निकटतम छेद
होगा और म् जो
न्यूनतम
प्रतिरोध
पैदा करेगा, उसे पानी
ढूंढ लेगा। वह
छेद अपने आप
ही मिल जाता
है,
उसके
लिए कुछ करना
नहीं पड़ता है।
ज्यों ही इन
दो आंखों से
ऊर्जा का बहना
बंद करोगे, त्यों
ही ऊर्जा अपना
मार्ग ढूंढ
लेगी और वह
तीसरी आंख से
बहने लगेगी।
तब
तुम ऐसी चीजें
देखने लगते हो
जिन्हें कभी न
देखा था; ऐसी
चीजें महसूस
करने लगते हो
जिन्हें कभी
नहीं महसूस
किया था। और
तब तुम्हें ऐसी
सुगंधों का
अनुभव होगा
जिन्हें जीवन
में कभी नहीं
जाना था। तब
एक नया लोक, एक सूक्ष्म
लोक सक्रिय हो
जाता है। यह
नया लोक अभी
भी है। तीसरी आंख
भी है, सूक्ष्म
लोक भी है, दोनों
हैं; लेकिन
अप्रकट हैं।
एक बार तुम उस
आयाम में
सक्रिय होते
हो तो तुम्हें
बहुत सी चीजें
दिखाई देने
लगेंगी।
उदाहरण
के लिए, अगर
कोई आदमी
मरणासन्न है
और तुम्हारी
तीसरी आंख
सक्रिय है तो
तुम तुरंत जान
लोगे कि यह
आदमी अब जाने
वाला है। कोई
भी शारीरिक
विश्लेषण, कोई
भी चिकित्सा—निदान
निश्चयपूर्वक
नहीं बता सकता
है कि यह आदमी
मरेगा। वे
ज्यादा से
ज्यादा
संभावना की
बात कह सकते
हैं; कह
सकते हैं कि
शायद यह आदमी
मरेगा। यह
वक्तव्य भी
सशर्त होगा कि
यदि ऐसी—ऐसी
हालतें रहीं
तो यह आदमी
मरेगा, या
यदि कुछ किया
जाए तो यह
नहीं मरेगा।
चिकित्सा—विज्ञान
अभी भी मृत्यु
के संबंध में
अनिश्चित है।
क्यों? इतने
विकास के
बावजूद यह
मृत्यु के
संबंध में
इतना
अनिश्चित
क्यों है? असल
में चिकित्सा—विज्ञान
शारीरिक
लक्षणों के
द्वारा
मृत्यु के
संबंध में
अपनी
निष्पत्ति
निकालता है।
लेकिन मृत्यु
शारीरिक नहीं,
सूक्ष्म
घटना है। यह
किसी भिन्न
आयाम की एक
अदृश्य घटना
है।
लेकिन
यदि तीसरी आंख
सक्रिय हो जाए
और कोई आदमी
मरने वाला हो
तो तुम यह जान
लोगे। यह कैसे
जाना जाता है?
मृत्यु
का अपना
प्रभाव होता
है। अगर कोई
मरने वाला
होता है तो
समझो कि
मृत्यु ने
पहले ही उस पर
अपनी छाया डाल
दी होती है।
और तीसरी आंख
से इस छाया को
महसूस किया जा
सकता है, देखा
जा सकता है।
जब
एक बच्चा जन्म
लेता है तो
जिन्हें
तीसरी आंख के
प्रयोग का
गहरा अभ्यास
है वे उसी
क्षण उसकी
मृत्यु का समय
भी जान ले
सकते हैं।
लेकिन उस समय
मृत्यु की
छाया अत्यंत
सूक्ष्म होती
है। लेकिन
.किसी की
मृत्यु के छह
महीने पहले वह
व्यक्ति भी कह
सकता है कि यह
आदमी मरने
वाला है जिसकी
तीसरी आंख
थोड़ी भी
सक्रिय हो गई
है। असल में
उस समय
तुम्हारे
चारों तरफ एक
काली छाया सघन
हो जाती है और
उसे देखा जा
सकता है।
लेकिन
सामान्य आंखों
से उसे नहीं
देखा जा सकता
है।
तीसरी
आंख के खुलते
ही तुम्हें
लोगों का
प्रभामंडल
दिखाई देने
लगता है। अब
कोई आदमी आकर
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता
है;
क्योंकि
अगर उसकी कथनी
उसके
प्रभामंडल से
मेल नहीं खाती
है तो वह कथनी
दो कौड़ी
की है। वह कह
सकता है कि
मुझे कभी
क्रोध नहीं
आता है, लेकिन
उसका लाल
प्रभामंडल
बता देगा कि
वह क्रोध से
भरा है। वह
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता
है। जहां तक
उसके
प्रभामंडल का
सवाल है, उसे
इसका कुछ पता
नहीं है। लेकिन
तुम उसका
प्रभामंडल
देखकर कह सकते
हो कि उसका
वक्तव्य सही
है या गलत।
तीसरी आंख के
खुलते ही
सूक्ष्म
प्रभामंडल
दिखाई देने लगते
हैं।
पुराने
जमाने में
शिष्य की दीक्षा
में
प्रभामंडल का
उपयोग किया
जाता था। जब
तक तुम्हारा प्रभामंड़ल
सम्यक न तब तक
गुरु प्रतीक्षा
करेगा। यह तुम्हारे
चाहने की बात।
तुम कह सकते
हो कि मैं
दीक्षा लेना
चाहता हूं लेकिन
उतना काफी
नहीं है।
तुम्हारा
प्रभामंडल
देखकर जाना जा
सकता है कि
तुम तैयार हो
या नहीं।
इसलिए शिष्य
को वर्षों
इंतजार करना
पड़ता था।
शिष्यत्व
तुम्हारे
चाहने पर नहीं
तुम्हारे प्रभामंडल
पर निर्भर है।
चाह यहां
व्यर्थ है।
कभी—कभी तो
शिष्य को कई
जन्मों तक
प्रतीक्षा
करनी पड़ती थी।
उदाहरण
के लिए, बुद्ध
ने वर्षों तक
स्त्रियों को
दीक्षित करने
से अपने को
रोके रखा। यद्यपि
उन पर बहुत
दबाव डाला गया;
लेकिन वे
राजी नहीं हुए।
और अंत में जब
वे राजी भी
हुए तो
उन्होंने कहा कि
अब मेरा धर्म
पांच सौ
वर्षों के बाद
जीवंत नहीं
रहेगा; क्योंकि
मैंने समझौता
किया है।
बुद्ध ने अपने
शिष्यों से
कहा कि मैं
तुम्हारे
आग्रह के दबाव
के कारण स्त्रियों
को दीक्षित
करूंगा।
क्या
कारण था कि
बुद्ध
स्त्रियों को
दीक्षित नहीं
करना चाहते थे?
एक
बुनियादी
कारण था जिसका
संबंध
प्रभामंडल से
है। पुरुष की
काम—ऊर्जा को
बहुत आसानी से
संयमित किया
जा सकता है; पुरुष
सरलता से
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकता है।
लेकिन यह बात
स्त्री के लिए
कठिन है।
स्त्री का
मासिक— धर्म
नियमित घटता
है—अचेतन, अनियंत्रित
और अनैच्छिक।
वीर्यपात को
तो नियंत्रित
किया जा सकता
है; लेकिन
मासिक—स्राव
को नियंत्रित
नहीं किया जा
सकता। और यदि
उसे
नियंत्रित
करने की कोशिश
की जाए तो
शरीर पर उसके
बहुत बुरे असर
होंगे।
और
स्त्री जब
अपने मासिक
काल में होती
है,
उसका
प्रभामंडल
बिलकुल बदल
जाता है। वह
कामुक, आक्रमक
और उदास हो
जाती है। जो
भी नकारात्मक
भाव हैं वे हर
महीने स्त्री को
एक बार घेरते
हैं। इसी कारण
बुद्ध
स्त्रियों को
दीक्षा देने
के पक्ष में
नहीं थे।
बुद्ध ने कहा
कि स्त्री की
दीक्षा कठिन
है; क्योंकि
हर महीने
मासिक—धर्म
वर्तुल में
आता रहता है
और उसके साथ
ऐच्छिक रूप से
कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
अब कुछ किया
जा सकता है; लेकिन वह
बुद्ध के समय
में कठिन था।
अब वह किया जा
सकता है।
महावीर
ने तो स्त्री—पर्याय
के लिए मोक्ष
की संभावना को
बिलकुल ही
अस्वीकार कर
दिया।
उन्होंने कहा
कि स्त्री को
पहले पुरुष—पर्याय
में जन्म लेना
होगा और तब
उसे मोक्ष मिल
सकता है।
इसलिए पहले तो
पूरी चेष्टा
यह होनी चाहिए
कि वह पुरुष—पर्याय
में नया जन्म
ले।
क्यों? यह
भी प्रभामंडल
की समस्या थी।
अगर तुम किसी
स्त्री को
दीक्षित करते
हो तो हर महीने
वह गिरेगी और
सारा प्रयत्न
व्यर्थ चला
जाएगा। इसमें
कोई भेदभाव का
प्रश्न नहीं
था; कोई
समानता का
सवाल नहीं था
कि स्त्री और
पुरुष समान
हैं या नहीं; यह समता का
प्रश्न नहीं
था। महावीर के
लिए प्रश्न यह
था कि स्त्री
की सहायता
कैसे की जाए।
तो उन्होंने
एक सरल रास्ता
निकाला कि
स्त्री पुरुष
के पर्याय में
जन्म ले, इसमें
उसे सहयोग
दिया जाए। यह
ज्यादा सरल
लगा। इसका
मतलब था कि
स्त्री को
दूसरे जीवन के
लिए ठहरना
पड़ेगा और इस
बीच उसे पुरुष—पर्याय
में नया जन्म
दिलाने के सभी
प्रयत्न किए
जाएं। महावीर
को यह बात सरल
मालूम हुई।
स्त्रियों को
दीक्षित करना
कठिन था; क्योंकि
वे हर महीने लुढ़ककर अपनी
बुनियादी
स्थिति में
लौट जाती हैं
और उन पर किया
गया सब श्रम
व्यर्थ चला
जाता है।
लेकिन
पिछले दो हजार
वर्षों में इस
दिशा में बहुत
काम हुए हैं; विशेषकर
तंत्र ने बहुत
काम किया है।
तंत्र ने
भिन्न—भिन्न
द्वार खोज
निकाले हैं।
और तंत्र
संसार में
अकेली
व्यवस्था है जो
पुरूष और स्त्री
में भेद नहीं करती।
बल्कि इसके विपरीत
तंत्र का मानना
हे कि स्त्री
अधिक आसानी से
मुक्त हो सकती
है। और कारण
वही है; सिर्फ
भिन्न
दृष्टिकोण से
देखा गया है।
तंत्र
कहता है कि
क्योंकि
स्त्री का
शरीर समय—समय
पर संयमित
होता रहता है, इसलिए
पुरुष की
अपेक्षा
स्त्री अपने
को शरीर से
ज्यादा सरलता
से अलग कर
सकती है।
क्योंकि
मनुष्य का
चित्त शरीर
में ज्यादा आसक्त
है, इसलिए
वह शरीर को
संयमित कर
सकता है और
इसीलिए वह
अपनी
कामवासना को
भी संयमित कर सकता
है। लेकिन
स्त्री अपने
शरीर से उतनी
नहीं बंधी है।
उसका शरीर
स्वचालित
यंत्र की तरह
चलता है—एक
अगल तल पर, और
स्त्री इस
दिशा में कुछ
नहीं कर सकती।
स्त्री का
शरीर
स्वचालित
यंत्र की तरह
काम करता है।
तंत्र कहता है
कि इसीलिए
स्त्री अपने
को अपने शरीर
से अधिक आसानी
से पृथक कर
सकती है। और
अगर यह संभव
हो—यह
अनासक्ति, यह
अंतराल—तों
कोई समस्या
नहीं रह जाती
है, कोई भी
समस्या नहीं
रह जाती है।
तो
यह बहुत
विरोधाभासी
है;
लेकिन ऐसा
है। यदि कोई
स्त्री
ब्रह्मचर्य
धारण करना
चाहे और अपने
शरीर से पृथक
रहना चाहे तो
वह यह पुरुष की
अपेक्षा अधिक
आसानी से कर
सकती है। वह
अपनी
पवित्रता
अधिक आसानी से
साध सकती है।
एक बार शरीर
से अनासक्ति
सध जाए तो वह
अपने शरीर को
पूरी तरह भूल
सकती है।
पुरुष
बहुत सरलता से
नियंत्रण कर
सकता है; लेकिन
उसका चित्त
उसके शरीर से
ज्यादा बंधा हुआ
है। इसी कारण
से नियंत्रण
उसके लिए संभव
है, लेकिन
यह नियंत्रण
उसे रोज—रोज
करना होगा, सतत करना
होगा। और चूंकि
स्त्री की
कामवासना अनाक्रमक
है, इसलिए
वह इस दिशा
में अधिक
विश्रामपूर्ण
हो सकती है, अधिक
अनासक्त हो
सकती है।
पुरुष की
कामवासना
सक्रिय है।
उसके लिए
नियंत्रण तो
आसान है; लेकिन
अनासक्ति
कठिन है।
तो
तंत्र ने अनेक—अनेक
उपाय खोजे
हैं। और तंत्र
अकेली
व्यवस्था है
जो स्त्री—पुरुष
में भेद नहीं
करता और कहता
है कि स्त्री
पर्याय का
उपयोग भी किया
जा सकता है।
तंत्र अकेला
मार्ग है जो
स्त्री को
समान हैसियत
प्रदान करता
है।
शेष
सभी धर्म, कहते
कुछ भी हों, अपने अंतस
में यही समझते
हैं कि स्त्री
हीन पर्याय है।
चाहे ईसाइयत
हो, इस्लाम
हो, जैन हो
या बौद्ध हो, सब गहरे में
यही मानते हैं
कि स्त्री हीन
पर्याय है। और
इस मान्यता का
कारण वही है—तीसरी
आंख द्वारा
किया गया
निदान। हर
महीने मासिक—
धर्म के समय
स्त्रियों का
प्रभामंडल
बदल जाता है।
तीसरी
आंख के जरिए
तुम उन चीजों
को देखने में
समर्थ हो जाते
हो जो हैं, लेकिन
जिन्हें
सामान्य आंखों
से नहीं देखा
जा सकता।
देखने की
जितनी
विधियां हैं
वे सभी तीसरी आंख
को प्रभावित
करती हैं।
कारण यह है कि
देखने में जो
ऊर्जा बाहर की
ओर, संसार
की ओर
प्रवाहित
होती है, वह
अचानक रोक दिए
जाने के कारण
बहने के नए
मार्ग ढूंढती
है और निकट
पड़ने के कारण
तीसरी आंख पर
पहुंच जाती है।
तिब्बत
में तो तीसरी आंख
के लिए शल्य—चिकित्सा
तक का उपाय
किया गया था।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि हजारों
वर्षों से निष्क्रिय
पड़े रहने के
कारण तीसरी आंख
बिलकुल बंद हो
जाती है, मुंद जाती है। इस
हालत में अगर
तुम सामान्य आंखों
की गति को रोक दो
तो तुम बेचैनी
अनुभव करने
लगोगे। कारण
यह है कि आंख
की ऊर्जा को
गति करने का
मार्ग नहीं
मिलेगा। इस
ऊर्जा को
मार्ग देने के
लिए तिब्बत
में तीसरी आंख
का आपरेशन
किया जाने लगा।
यह संभव है।
और अगर यह
आपरेशन न किया
जाए तो कई अड़चनें
आ सकती हैं।
अभी
दो या तीन दिन
पहले एक
संन्यासिनी
मेरे पास आई
थी—वह अभी यहां
मौजूद है।
उसने मुझसे
कहा कि उसकी
तीसरी आंख पर
बहुत जलन
महसूस हो रही
है। इतना ही
नहीं कि वह
जलन महसूस करती
थी,
उस जगह की
चमड़ी सच में
जल गई थी। ऐसा
लगता था कि
किसी ने बाहर
से उसकी चमड़ी
जला दी हो।
जलन तो भीतरी
थी, लेकिन
उससे ऊपर की
चमड़ी तक
प्रभावित हो
गई थी, वह
बिलकुल जल गई
थी। वह
संन्यासिनी
भयभीत थी कि
पता नहीं क्या
हो रहा है।
साथ ही उसे वह
जलन प्रीतिकर
भी लगती थी—मानो
कोई चीज गल
रही हो। कुछ
घटित हो रहा
था और उससे
स्थूल शरीर भी
प्रभावित था—मानो
असली आग ने
उसे छू दिया
हो। कारण क्या
था?
कारण
यह था कि
तीसरी आंख
सक्रिय हो गई
थी;
उसकी ओर
ऊर्जा
प्रवाहित
होने लगी थी।
जन्मों—जन्मों
से यह आंख
ठंडी पड़ी थी, कभी उससे
ऊर्जा
प्रवाहित
नहीं हुई थी।
इसलिए जब पहली
बार ऊर्जा का
प्रवाह आया तो
वह गर्म हो
उठी, जलन
होने लगी। और
क्योंकि
मार्ग
अवरुद्ध था, इसलिए ऊर्जा
आग जैसी
उत्तप्त हो गई।
इस तरह वह
तीसरी आंख पर
इकट्ठी ऊर्जा
चोट करने लगी
थी।
भारत
में हम इसके
लिए चंदन, घी
तथा अन्य चीजों
का उपयोग करते
हैं, उन्हें
तीसरी आंख पर
लगाते हैं और
उसे तिलक कहते
हैं। उसे
तीसरी आंख की
जगह पर लगाकर
बाहर से थोड़ी
ठंडक दी जाती
है, ताकि
भीतर की गर्मी
से, जलन से
बाहर की चमड़ी
न जले। इस आग
से चमड़ी ही
नहीं जलती है,
कभी—कभी सिर
की हड्डी में
छेद तक हो
जाते हैं।
मैं
एक किताब पढ़
रहा था, जिसमें
पृथ्वी पर
मानवीय
अस्तित्व की
गहन रहस्यमयता
के संबंध में
बड़ी गहरी
खोजें हैं।
सदा ही यह
प्रस्तावना
की गई है कि
मनुष्य यहां
किसी दूसरे
ग्रह से आया
है। इस बात की
कोई संभावना
नहीं है कि
मनुष्य पृथ्वी
पर एकाएक
विकास को
उपलब्ध हो गया
हो। इस बात की
भी संभावना
नहीं है कि
मनुष्य बैबून
या वनमानुष से
विकसित हुआ हो।
क्योंकि अगर
मनुष्य
वनमानुष से
आता तो उसके और
वनमानुष के
बीच कोई कडी
होनी चाहिए थी।
सारी खोजों और
आंकड़ों
के बावजूद अब
तक कोई एक भी
शव, कपाल
या कोई ऐसी
चीज नहीं मिली
है जिसके सहारे
यह कहा जा सके
कि वनमानुष और
मनुष्य के बीच
की कड़ी उपलब्ध
है।
विकास
का अर्थ है
कदम दर कदम
वृद्धि। कोई
वनमानुष
एकाएक मनुष्य
नहीं बन जा
सकता; सीढ़ी दर
सीढ़ी चढ़ना
होता है। पर
इसका कोई सबूत
नहीं है कि
वनमानुष
क्रमश: कैसे
इस विकास को
उपलब्ध हुआ।
डार्विन का
सिद्धात
परिकल्पना भर
है, क्योंकि
बीच की कडियां
नहीं मिलती
हैं।
यही
कारण है कि
ऐसे सुझाव दिए
गए हैं कि
आदमी अचानक
पृथ्वी पर उतर
आया म् होगा।
एक मनुष्य की
बहुत पुरानी
खोपड़ी, कोई
लाख साल
पुरानी खोपड़ी
मिली है। यह खोपड़ी
दूसरी खोपड़ियों
से जरा भी
भिन्न नहीं है;
उसमें कोई
कमी नहीं है।
उसके भीतर का ढांचा
और संरचना
सबकी सब वही
है। जहां तक
मस्तिष्क की
संरचना का
संबंध है, मनुष्य
विकास करके नहीं
आया मालूम पड़ता
है। मालूम यही
पड़ता है कि यह
अचानक कहीं से
पृथ्वी पर आ
धमका।
निस्संदेह
मनुष्य किसी
दूसरे ग्रह से
आया होगा। अभी
हम अंतरिक्ष
की यात्राएं
कर रहे हैं।
यदि इस यात्रा
में कोई ऐसा
ग्रह हमें मिल
जाए जो बसने
लायक हो तो हम
वहां पर बस
जाएंगे। और तब
उस ग्रह पर
आदमी एकाएक
प्रकट हो
जाएगा।
तो
मैं एक पुस्तक
पढ़ रहा था
जिसमें ऐसा
प्रस्ताव
किया गया है।
लेखक ने उसमें
अपनी
परिकल्पना को
मजबूत बनाने
के लिए बहुत
से तर्क खोजे
हैं। उनमें से
एक बात है
जिसका संबंध
इस देखने की विधि
से है और वह
मैं तुम्हें
बताना चाहता
हूं। उसे दो खोपडिया
मिली हैं—एक
मैक्सिको में, दूसरी
तिब्बत में।
दोनों खोपड़ियों
में तीसरी आंख
के स्थान पर
छेद हैं। और
छेद ऐसे हैं
जैसे कि बंदूक
की गोली से
हुए हों। ये खोपडिया
कम से कम पांच
से दस लाख
वर्ष पुरानी
हैं। अगर वे
छेद तीर से
किए गए होते
तो वे इतने
गोल नहीं होते,
वे इतने गोल
हैं कि तीर के
हो नहीं सकते।
तो इस आधार पर
कि वे छेद
बंदूक की गोली
से बने हैं
लेखक ने यह
साबित करने की
चेष्टा की है
कि दस लाख
वर्ष पहले
बंदूकें थीं;
अन्यथा ये
दो व्यक्ति
मारे कैसे
जाते!
सच्चाई
यह है कि इस
बात का बंदूक
या गोली से कुछ
लेना—देना
नहीं है। जब
भी तीसरी आंख
के पूरी तरह
अवरुद्ध होने
पर आंखों की
ऊर्जा अचानक
गति करती है
तो वह ऐसा छेद
बना देती है।
ऊर्जा भीतर से
गोली की तरह
आती है—बिलकुल
गोली की तरह।
वह संचित आग
है,
वह छेद
बनाएगी ही।
छेद वाली वे
दो खोपडिया
यह नहीं बताती
हैं कि वे दो
मनुष्य गोली
से मारे गए।
वे सिर्फ यह
बताती हैं कि
यह तीसरी आंख
की घटना है।
तीसरी आंख
बिलकुल
अवरुद्ध हो गई
होगी, ऊर्जा
इकट्ठी हो गई
होगी; और
गति के लिए
जगह न पाकर वह
आग बन गई होगी।
उससे ही यह
विस्फोट हुआ
होगा। अन्यथा
ऐसी घटना नहीं
घट सकती थी।
यही
कारण है कि
तिब्बत में
उन्होंने
तीसरी आंख में
छेद करने के
उपाय निकाले, ताकि
ऊर्जा आसानी
से गति कर सके
और इस तरह के एविसडेंट
न हों।
तो
जब तुम देखने
की विधि का
प्रयोग करो तो
इस बात का सदा
ध्यान रखना।
जब भी जलन
महसूस हो, डरना
मत। लेकिन जब
तुम्हें ऐसा
लगे कि ऊर्जा
बड़ी आग जैसी
हो गई है, जब
लगे कि बंदूक
की गर्म गोली
जैसी कोई चीज
खोपड़ी को
भेदने के लिए
तत्पर है, तो
विधि का
प्रयोग बंद कर
दो और तुरंत
मेरे पास चले
आओ। तब प्रयोग
को आगे मत
जारी रखो।
ज्यों ही लगे
कि गोली जैसी
कोई चीज मेरे
माथे को छेदकर
निकलना चाहती
है तो प्रयोग
बंद कर दो और आंखें
खोल लो। और
उन्हें उतनी
गति दो जितनी
दे सको। आंखों
के हिलने से
ही जलन तुरंत
कम हो जाएगी; ऊर्जा दो आंखों
से फिर गति
करने लगेगी।
और जब तक मैं न
कहूं र प्रयोग
को फिर शुरू न
करना; क्योंकि
कई बार ऐसा
हुआ है कि इस
ऊर्जा से खोपड़ी
फट गई।
वैसे
तो यदि ऐसा हो
भी जाए तो कुछ
बुरा नहीं है।
इसमें मर जाना
भी अच्छा है; क्योंकि
वह स्वयं एक
ऐसी उपलब्धि
है जो मृत्यु
के पार जाती
है। लेकिन
बचाव के लिए अच्छा
है कि जब लगे कि
कुछ गड़बड़ होने
वाली है — चाहे इस
विधि से या
किसी भी विधि
से—तो विधि का
प्रयोग बंद कर
दो। किसी भी
विधि से कुछ
गलत की
संभावना
मालूम हो तो
प्रयोग बंद कर
देना उचित है।
भारत
में अभी ऐसी
बहुत सी
विधियां
सिखाई जा रही
हैं और अनेक
साधक नाहक
कष्ट में पड़ते
हैं,
क्योंकि
सिखाने वालों
को खतरे का
पता ही नहीं है।
और सीखने वाले
महज अंधी गली
में भटकते हैं;
उन्हें पता
नहीं है कि वे
कहा जा रहे
हैं और क्या
कर रहे हैं।
मैं
इन एक सौ बारह
विधियों पर
विशेषकर इसी
कारण से बोल
रहा हूं। मैं
चाहता हूं कि
तुम्हें इन
सारी विधियों
की,
उनकी
संभावनाओं की,
उनके खतरों
की जानकारी हो
जाए। और तब
तुम अपने लिए
वह विधि चुन
सकते हो जो
तुम्हारे लिए
सर्वाधिक
अनुकूल हो। और
तब अगर तुम
किसी विधि का
प्रयोग करोगे
तो तुम्हें
भलीभांति पता
होगा कि वह
क्या है, कि
क्या हो सकता
है और कुछ
होने पर उससे
निबटने के लिए
क्या करना
चाहिए।
दूसरा
प्रश्न:
मनस—
विद्याओं के
प्रयोग में
लगे लोगों की आंखें
तनावग्रस्त
और डरावनी क्यों
होती हैं? कृपया
समझाएं कि इसका
मतलब क्या है
और इससे
छुटकारा कैसे पाया
जाए।
जो लोग
सम्मोहन—विद्या
जैसी चीजों का
प्रयोग करते
हैं उनकी आंखें
तनावग्रस्त
होंगी, यह
साफ ही है।
कारण यह है कि
वे बलपूर्वक
अपनी ऊर्जा को
आंख के माध्यम
से प्रवाहित
करने की कोशिश
करते हैं। वे
किसी को
प्रभावित
करने के या
किसी पर अधिकार
जमाने के
इरादे से अपनी
समस्त ऊर्जा
को आंख के पास
इकट्ठा कर
लेते हैं।
उनकी आंखें
तनाव से भर
जाएंगी; क्योंकि
वे आंखों में
उतनी ऊर्जा भर
देते हैं
जितनी ऊर्जा
वे झेल नहीं
सकतीं। उनकी आंखें
लाल हो जाती
हैं और तन
जाती हैं और
उन्हें देखकर
ही तुम सहसा
कांपने लग
सकते हो। बात
यह है कि वे
अपनी आंखों का
राजनीतिक ढंग
से उपयोग कर
रहे हैं। अगर
वे तुम्हारी
तरफ देखते हैं
तो वे आंखों
द्वारा अपनी
ऊर्जा भेजकर
तुम पर
मालकियत करना
चाहते हैं। और
आंख के द्वारा
किसी पर
मालकियत करना
आसान है।
रासपुटिन के
साथ यही बात
थी। इस आदमी
ने आंख के
द्वारा ही
लेनिन के पहले
के रूस पर बड़ी
मालकियत की।
वह एक मामूली
किसान था—अशिक्षित, अनपढ़,
लेकिन उसके
पास चुंबकीय आंखें
थीं। वह उनका
इस्तेमाल
करना भी जानता
था। जिस क्षण
तुम उसकी आंखों
में झांकते,
तुम अपने को
भूल जाते और
उस बेहोशी में
वह मन ही मन जो
सुझाव देता
तुम्हें उनका
पालन करना पड़ता।
इसी ढंग से
उसने जार और जारीना पर,
राज—परिवार
पर और उनके
जरिए पूरे रूस
पर कब्जा कर
लिया। उसकी
मर्जी के बिना
वहां कुछ भी
नहीं होता था।
तुम्हें
भी वे आंखें
मिल सकती हैं; यह
कठिन नहीं है।
तुम्हें
सिर्फ यह
सीखना है कि
सारी ऊर्जा को
आंख के पास
कैसे ले आएं।
ऐसा करने से आंखें
ऊर्जा से
आपूरित हो
जाती हैं। और
इस दशा में जब
तुम किसी को देखोगे तो
तुम्हारी
ऊर्जा उसकी
तरफ बहने
लगेगी, उस पर
छा जाएगी, उसके
मन में प्रवेश
कर जाएगी। और
उसके धक्के से
उसका सोच—विचार
बंद हो जाएगा।
यह आदमियों
पर ही घटने वाली
दुलर्भ चीज
नहीं है; पशु जगत
में भी यह घटित
होता है। अनेक
पशु हैं जो
अपने शिकार की
आंखों में
घूरते हैं। और
यदि शिकार ने
भी उनकी आंखों
से आंखें मिला
लीं तो वह गया।
तब शिकार की आंखें
बंध जाती हैं;
तब वह वहां
से हिल नहीं
सकता।
शिकारी
इस बात को
बखूबी जानते
हैं।
शिकारियों की आंखें
बहुत ही
शक्तिशाली हो
जाती हैं; क्योंकि
रात के अंधेरे
में वे
जानवरों की
टोह लेते रहते
हैं। स्वभावत:
उनकी आंखें
शक्तिशाली
होंगी ही।
उनके धंधों के
कारण ही चोर
और शिकारी की आंखों
में अपने ही
आप बहुत शक्ति
इकट्ठी हो
जाती है। किसी
शिकारी के
सामने अचानक
एक सिंह प्रकट
हो जाए और
शिकारी
निहत्था हो तो
वह क्या करे? ऐसी हालत
में कुशल
शिकारी सदा एक
काम करते हैं।
शिकारी सिंह
की आंखों में आंख
डालकर घूरेगा।
अब
बात इस पर
निर्भर है कि
शिकारी की आंखें
ज्यादा
चुंबकीय हैं
या सिंह की।
अगर सिंह कम
चुंबकीय है और
अगर शिकारी
अपनी समग्र
ऊर्जा आंखों
में इकट्ठी कर
सकता है—और यह
संभव है, मृत्यु
को सामने
देखकर आदमी
कुछ भी कर
सकता है, शिकारी
अपनी समग्र
शक्ति को दाव
पर लगा सकता है—अगर
शिकारी सब कुछ
भूलकर सिंह की
आंखों में
सीधा घूर सके,
टकटकी बांध
सके, तो
उसकी समस्त
ऊर्जा सिंह को
अभिभूत कर
देगी, सिंह
भय से कांपने
लगेगा और
अंततः भाग
जाएगा।
आंख
के जरिए तुम
अपनी समस्त
ऊर्जा को
प्रवाहमान कर
सकते हो; लेकिन
जब ऐसा करोगे
तो तुम्हारी आंखें
तनाव से भर
जाएंगी, तुम्हारी
नींद खो जाएगी,
तुम आराम
में न रह
सकोगे। जो लोग
भी दूसरों पर
मालकियत करने
में लगे हैं
वे चैन से
नहीं रह सकते।
तुम उन्हें देखोगे तो
उनकी आंखें तो
बहुत जीवित
मालूम होंगी,
लेकिन
चेहरे मरे—मराए
होंगे। किसी
सम्मोहनविद
को देखो; उसकी
आंखें तो बहुत
जीवित होंगी,
लेकिन उसका
चेहरा मुर्दा—मुर्दा
होगा। कारण यह
है कि उसकी आंखें
उसकी सब ऊर्जा
पी जाती हैं; और जगहों के
लिए ऊर्जा
बचती ही नहीं।
ऐसा
मत करो; क्योंकि
दूसरे पर
मालकियत करना
व्यर्थ है।
अपना मालिक
होना ही
सार्थक है।
दूसरे पर
प्रभुत्व
करना अपनी
शक्ति का
अपव्यय है; उससे सिर्फ
अहंकार की
तृप्ति होती
है, और कुछ
भी नहीं। यह
एक दुष्ट कला
है, काली
साधना है।
काली साधना का,
जादू—टोने
का अर्थ है कि
तुम दूसरे पर
प्रभुत्व जमाने
के लिए अपनी
ऊर्जा का
अपव्यय कर रहे
हो। और शुभ
साधना उसे
कहते हैं
जिसमें
उन्हीं उपायों
का इस्तेमाल
तुम अपने पर
प्रभुत्व के
लिए, अपना
स्वामी आप
बनने के लिए
करते हो।
और
स्मरण रहे, कभी—कभी
समान घटनाएं
घटती हैं। अगर
कोई बुद्ध
तुम्हारे बीच घूमें तो
तुम पर उनका
प्रभाव हो
जाएगा।
हालांकि वे प्रभुत्व
करने की कोशिश
नहीं करते हैं।
वे तुम पर
प्रभुत्व
करने की कोशिश
नहीं करते हैं;
लेकिन तुम
प्रभाव में आ
जाओगे।
क्योंकि बुद्ध
अपने मालिक आप
हैं; और वे
ऐसे मालिक हैं
कि उनके इर्द—गिर्द
जो भी आएगा, वह उनका दास
हो जाएगा।
लेकिन बुद्ध
की ओर से ऐसा
कोई सचेतन
प्रयत्न नहीं
होता है। वरन इसके
विपरीत वे
निरंतर कहते
हैं कि अपने
स्वामी आप बनी।
और
याद की बुद्ध इसीलिए
कहते है क्योंकि
इसका पता है।
बुद्ध जानते
हैं कि जो भी
उनके आस—पास
होगा वह उनका
गुलाम हो
जाएगा। वे कुछ
करते नहीं हैं, प्रभुत्व
जमाने की कोई
चेष्टा नहीं
करते हैं।
लेकिन वे
जानते हैं कि
इसके बावजूद
ऐसा होगा।
बुद्ध
के अंतिम वचन
थे : 'अप्प दीपो भव।’
वे मृत्यु—शय्या
पर थे। मरने
के एक दिन
पहले आनंद ने
उनसे पूछा कि
जब आप नहीं
होंगे तो हम
क्या करेंगे!
बुद्ध ने कहा. 'अच्छा ही
होगा कि अब
मैं नहीं
रहूंगा। तब
तुम अपने
स्वामी हो
जाओगे। मुझे
भूल जाओ और
अपना दीया आप
बनो। यह अच्छा
होगा; क्योंकि
जब मैं नहीं
रहूंगा तो तुम
मेरे प्रभुत्व
से मुक्त हो
जाओगे।’
तो
जो दूसरों पर
प्रभुत्व
करने की
चेष्टा करते
हैं वे सब तरह
से तुम्हें
अपना गुलाम
बनाने की
कोशिश करेंगे।
यह दुष्टता है, यह
शैतानी है। और
जो अपने
स्वामी आप
होते हैं वे
तुम्हें भी स्वामी
बनाने की
चेष्टा
करेंगे, वे
हर तरह से
अपने प्रभाव
को कम करेंगे।
और यह कई
ढंगों से किया
जा सकता है।
उदाहरण
के लिए मैं एक
हाल की घटना
बताता हूं।
गुरजिएफ का
प्रधान शिष्य ऑसपेंस्की
गुरजिएफ के मातहत
दस वर्षों से
काम कर रहा था।
गुरजिएफ के
मातहत काम
करना बहुत
कठिन था। उसकी
चुंबकीय
शक्ति अतिशय
थी,
असीम थी, जो भी उसके
पास आता था
उसके वश में
हो जाता था।
ऐसे
लोगों के
प्रति तटस्थ
नहीं रहा जा
सकता, या तो
तुम उनके वश
में रहोगे और
या उनसे भयभीत
होकर उनके विरोध
में खड़े हो
जाओगे। पक्ष
या विपक्ष में
खड़ा होना
अनिवार्य है;
ऐसे लोगों
के प्रति
उदासीन नहीं
रहा जा सकता।
और विरोध में
जाना बचाव का
उपाय है।
चुंबकीय
शक्ति वाले
लोगों के पास
जाने पर तुम्हें
उनका गुलाम
बनना पड़ेगा।
और यदि तुम
उनसे बचना
चाहोगे तो
तुम्हें उनका
दुश्मन बनना
पड़ेगा। यह
सिर्फ
सुरक्षा है।
तो
ऑसपेंस्की
गुरजिएफ के
पास आया और
उसके साथ रहकर
उसने काम किया।
और वहा कोई सेद्धातिक
शिक्षा नहीं
दी जाती थी।
गुरजिएफ
कर्मशील आदमी
था। वह
विधियां
बताता था और
लोग उन्हें
साधते थे। ऑसपेंस्की
में एक
क्रिस्टलाइजेशन, एक
अखंडता पैदा
हुई; वह
रूपांतरित
हुआ। वह पूरी
तरह बुद्ध तो
नहीं हुआ था; लेकिन वह
हमारी तरह
गहरी नींद में
भी न .था। वह
दोनों के बीच
में था—बुद्धत्व
के कगार पर।
कभी—कभी
ऐसा होता है
तुम्हें थोड़ी
भनक मालूम
पड़ती है कि
सुबह करीब है, सुबह
की खबर देने
वाला कलरव
सुनाई देने
लगता है, तब
तुम सोए भी
रहो तो पूरे
सोए नहीं हो
सकते। तब नींद
जाने—जाने को
होती है।
लेकिन तुम अभी
जागे नहीं हो
और खतरा है कि
तुम फिर से सो
सकते हो। तुम
अभी जागरण के
निकट भर हो।
ऐसे
ही जब ऑसपेंस्की
जागरण के निकट
पहुंच गया था
तो उसने सोचा
कि अब गुरजिएफ
मेरी अधिक
सहायता
करेंगे; क्योंकि
सहायता का
क्षण आ गया है।
लेकिन अचानक
गुरजिएफ ने ऑसपेंस्की
के साथ
अजीबोगरीब
व्यवहार करना
शुरू कर दिया और
नतीजा हुआ कि ऑसपेंस्की
को उससे विदा
ले लेनी पड़ी।
गुरजिएफ उसके
साथ ऐसे पेश
आया, उसने ऐसी—ऐसी
यह बेतुकी और बेहूंदी हरकतें
कीं—वे सतह पर
ऐसी लगती थीं—कि
ऑसपेंस्की
खुद ही छोड़कर
चला गया।
गुरजिएफ ने
उसको जाने को
कभी नहीं कहा।
इतना
ही नहीं कि ऑसपेंस्की
गुरजिएफु
से अलग हो गया, बल्कि
वह उसका विरीध
भी करने लगा। उसने
कहा कि गुरूजिएफ
पागल हो गया है।
ऑसपेंसकी
खुद लोगों को
सिखाने लगा; लेकिन उसने
सदा ही कहा कि
मैं गुरजिएफ
की शिक्षा के
अनुसार
सिखाता हूं।
वह यह भी कहता
था कि अब
गुरजिएफ पागल
हो गया है, इसलिए
मैं पहले के
गुरजिएफ का
अनुगमन करता
हूं। वह बाद
के गुरजिएफ की
बात ही नहीं
करता था।
लेकिन
गुरजिएफ के इस
व्यवहार की
बुनियाद में उसकी
गहरी करुणा थी।
वह क्षण आ गया
था जब ऑसपेंस्की
को अकेला छोड़
देना जरूरी था, अन्यथा
वह सदा के लिए
गुरजिएफ पर
निर्भर रह जाता।
यह अवसर था कि
उसे अलग करना
जरूरी था और
वह भी इस ढंग
से कि उसे पता
न चले कि मैं
निकाला गया
हूं।
बुद्ध
या गुरजिएफ
जैसे लोग
सचेतन चेष्टा
के बिना ही
तुम्हें
प्रभावित
करते हैं और
तुम उनके पास खिंचे चले
आते हो। लेकिन
वे लोग हर तरह
से कोशिश
करेंगे कि तुम
ऐसे न खिंचे
चले आओ, कि
तुम उनके
सम्मोहन में न
पड़ो, कि
तुम उनके
गुलाम न बन
जाओ। बल्कि
उलटे वे
तुम्हें
तुम्हारा
स्वामी बनने
में सहयोग
देंगे।
जो
दूसरों पर
मालकियत करने
की चेष्टा में
लगे हैं, उनकी आंखें
तनी होंगी, अशुभ होंगी।
उनकी आंखों
में तुम्हें
किसी
निर्दोषता की,
पवित्रता
की खबर नहीं
मिलेगी।
तुम्हें
उनमें आकर्षण
जरूर मिलेगा;
लेकिन वह
आकर्षण शराब
जैसा होगा।
तुम्हें उनकी
तरफ एक
चुंबकीय
खिंचाव अनुभव
होगा; लेकिन
वह खिंचाव
तुम्हें गुलाम
बनाने वाला
होगा, मुक्त
करने वाला
नहीं।
स्मरण
रहे,
किसी पर
प्रभुत्व
करने के लिए
ऊर्जा का
उपयोग मत करो।
यही कारण है
कि बुद्ध, महावीर,
जीसस
निरंतर कहते
रहे, जोर
देकर कहते रहे
कि जिस क्षण
तुम
आध्यात्मिक
खोज पर निकलो,
सबके लिए—शत्रुओं
के लिए भी—प्रेम
से भरकर निकलो।
अगर तुम प्रेम
से भरे रहोगे
तो तुम उस आंतरिक
हिंसा के
खिंचाव से बच
जाओगे जो
मालकियत करना
चाहता है। उस आंतरिक
हिंसा का एंटीडोट
सिर्फ प्रेम
है। अन्यथा जब
तुम्हें
ऊर्जा
प्राप्त होगी,
जब तुम
ऊर्जा से भर
जाओगे, तो
तुम दूसरों पर
मालकियत करने
लगोगे।
ऐसा
रोज होता है; ऐसे
अनेक लोग मेरे
संपर्क में आए
हैं। उन्हें
मैं मदद देता
हूं वे थोड़ी
प्रगति करते
हैं। और ज्यों
ही उन्हें
लगता है कि
उन्हें ऊर्जा मिली,
वे झट
दूसरों पर
प्रभुत्व
जमाने लगते
हैं। वे अब इस
ऊर्जा का
उपयोग करने
लगते हैं।
ध्यान
रहे,
दूसरों पर
प्रभुत्व
करने के लिए
आध्यात्मिक
ऊर्जा का
उपयोग मत करो।
तुम नाहक अपनी
शक्ति नष्ट
करोगे। देर—अबेर
तुम फिर चुक
जाओगे, रिक्त
हो जाओगे। और
सहसा फिर
तुम्हारा पतन
हो जाएगा। और
यह शुद्ध
अपव्यय है।
लेकिन
जब तुम्हें
लगता है कि अब
मैं कुछ कर सकता
हूं तो अपने
पर अंकुश रखना
कठिन होता है।
अगर तुम किसी
बीमार को छूते
हो और वह
तुम्हारे
छूते ही
स्वस्थ हो
जाता है तो अब
तुम दूसरों को
छूने से अपने
को कैसे रोकोगे? अब
तुम अपने को
बस में न रख सकोगे।
और बस में न रख
सकोगे तो तुम
ऊर्जा का
अपव्यय करोगे।
तुम्हें कुछ
घटित हुआ है; लेकिन तुम
जल्दी ही उसे
गंवा दोगे और
नाहक गंवा
दोगे।
और
मनुष्य का मन
इतना चालाक है
कि तुम सोच
सकते हो कि
मैं दूसरों का
उपचार कर रहा हूं, दूसरों
की मदद कर रहा हूं।
वह मन की महज चालाकी
हो सकती है।
अगर तुम्हारे
दिल में प्रेम
नहीं है तो
तुम दूसरों की
बीमारी, दूसरों
के स्वास्थ्य
की फिक्र नहीं
कर सकते।
तुम्हें इससे
कुछ मतलब नहीं
है। सच तो यह
है कि तुम्हें
शक्ति मिल गई
है और उपचार
के जरिए तुम
दूसरों पर
प्रभुत्व
पैदा करना चाहते
हो। तुम भले
कहते होओ कि
मैं उनकी मदद
कर रहा हूं; लेकिन तुम
मदद के नाम पर
दूसरों पर
आधिपत्य जमा
रहे हो। और
उससे
तुम्हारा
अहंकार तृप्त
होगा; वह
तुम्हारे
अहंकार के लिए
भोजन बन जाएगा।
इसलिए
सभी पुराने
धर्मग्रंथ
सावधान करते
हैं। वे कहते
हैं कि सावधान
रहो;
क्योंकि जब
शक्ति आती है
तो तुम एक
खतरनाक जगह पर
पहुंच जाते हो।
तुम उसे फेंक
दे सकते हो, गंवा दे
सकते हो।
इसलिए जब शक्ति
प्राप्त हो तो
उसे गुप्त ही
रखो, उसके
बारे में किसी
को कुछ मत
जानने दो।
जीसस
ने कहा है कि
अगर तुम्हारा
दाहिना हाथ कुछ
करे तो उसे
बाएं हाथ को
भी मत जानने
दो। सूफी संत
परंपरा में वे
कहते हैं कि
जब शक्ति आने
लगे तो दूसरों
के सामने
प्रार्थना भी
मत करो, दूसरों
के सामने
मस्जिद भी मत
जाओ। क्यों? क्योंकि जब
शक्ति के आने
पर कोई
प्रार्थना करता
है और बहुत
लोगों की
मौजूदगी में
करता है तो
दूसरों को
तुरंत पता
चलने लगता है
कि कुछ हो रहा
है। तो सूफी
कहते हैं कि
तब तुम्हें
रात के अंधेरे
में, आधी
रात में अपनी
नमाज कहनी चाहिए
जब सब सोए हों
और किसी को
पता न चले कि
तुम्हें कुछ
हो रहा है।
किसी को बताओ
भी मत कि
तुम्हें क्या
हो रहा है।
लेकिन
मन बहुत
बकवादी है।
अगर तुम्हें
कुछ घटित होगा
तो तुम तुरंत
दूसरों को
इसका शुभ
समाचार देने
निकल पड़ोगे।
लेकिन तभी चूक
हो जाएगी। यह
शक्ति का अपव्यय
होगा। और अगर
लोग तुमसे
प्रभावित भी
होंगे तो
तुम्हें उसकी
वाहवाही
मिलेगी, और
कुछ भी नहीं।
वह कोई बढ़िया
सौदा नहीं है।
अभी
रुको। एक क्षण
आएगा जब
तुम्हारी
ऊर्जा
संगृहीत हो जाएगी, जब
वह अखंड हो
जाएगी, रूपांतरित
हो जाएगी, तब
तुम्हारे आस—पास
तुम्हारे कुछ
किए बिना ही
बहुत कुछ घटित
होगा। जब तुम
अपने मालिक हो
जाओगे तभी तुम
दूसरों को
अपना मालिक
बनने में
सहयोग दे
सकोगे।
मुझे
सूफी संत
जुन्नैद का
स्मरण आता है।
एक दिन एक
आदमी उसके पास
आया और उसने
कहा. 'गुरुवर,
मैं आपसे
आपका गुप्त
रहस्य जानने
आया हूं। लोग
कहते हैं कि आपके
पास कोई
स्वर्ण—रहस्य
है और अब तक
आपने उसे किसी
को भी नहीं बताया
है। आप मुझे
वह बता दें; मैं उसके
बदले में कुछ
भी करने को
राजी हूं।’
जुन्नैद
ने कहा. 'मैं
इस रहस्य को
तीस वर्षों से
छिपाए हूं; तुम उसके
लिए कितने समय
तक इंतजार
करने को तैयार
हो? तुम्हें
उसके लिए
तैयारी करनी
होगी। मैंने
इस रहस्य को
तीस वर्षों से
छिपाए रखा है;
लेकिन
तुम्हें मैं
बता दूंगा।
लेकिन कितने
समय तक तुम
इसके लिए
प्रतीक्षा कर
सकते हो?'
वह
आदमी डर गया, घबरा
गया। उसने
जुन्नैद से
कहा कि आप ही
बताएं कि मुझे
कितने समय तक
प्रतीक्षा
करनी चाहिए।
जुन्नैद ने
कहा कि कम से
कम तीस वर्ष
धीरज रखना होगा;
ज्यादा समय
नहीं कहता हूं।
मैं बहुत की
मांग नहीं कर
रहा हूं।
उस
आदमी ने कहा : 'तीस
वर्ष? मैं
विचार करूंगा।’
जुन्नैद ने
कहा कि तब तीस
वर्षों के बाद
भी मैं तुम्हें
नहीं दूंगा। याद
रहे, अभी तय
करो तो ठीक, अन्यथा मुझे
भी विचार करना
पड़ेगा। और वह
आदमी राजी हो
गया।
कहते
हैं कि वह
आदमी कोई तीस
वर्षों तक
जुन्नैद के
साथ रहा। तब
अंतिम दिन आया
और वह जुन्नैद
के पास जाकर बोला
कि अब अपना
रहस्य मुझे
बता दें।
जुन्नैद ने
कहा कि वह मैं
तुम्हें इसी
शर्त पर दे
सकता हूं कि
तुम उसे गुप्त
रखो;
किसी को
बताओ नहीं।
रहस्य को अपने
साथ लिए मर
जाना।
उस
आदमी ने कहा. 'तो
आपने मेरी
जिंदगी क्यों
बर्बाद की? तीस साल
मैंने इसीलिए
तो इंतजार
किया कि रहस्य
मिलेगा तो उसे
दूसरों को
बताऊंगा, और
अब आप यह शर्त
लगाते हैं! तब
जानने का क्या
फायदा जब मैं
उसे किसी को
बता ही नहीं
सकता? अगर
यह शर्त है तो
मुझे बताएं ही
मत। यह तो तब
मेरी समस्या
बन जाएगी जो
मेरा पीछा करेगी;
कोई चीज
जानते हुए भी
मैं किसी को
बता नहीं सकूंगा।
उससे तो अच्छा
है कि कहें ही
मत। आपने मेरी
जिंदगी
बर्बाद कर दी।
अब तो थोड़े
दिन बचे हैं, शांति से
जीने दें।
किसी चीज को
जानते हुए
औरों को न
बताना मेरे
लिए बड़ा कठिन
होगा।’
इसलिए
जब किसी
आध्यात्मिक
साधना से कुछ
उपलब्ध हो तो
उसे छिपाए
रखना। उसका
प्रचार मत करो; उसका
उपयोग मत करो।
उसे अछूता, शुद्ध रहने
दो। तभी वह आंतरिक
रूपांतरण के
काम आएगा। अगर
उसका बाहरी
उपयोग करोगे
तो वह व्यर्थ
चला जाएगा।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
बताया कि आंखों
की गति मानसिक
सोच—विचार की
सूचक है और आंखों
की गति रोक
देने से मन की
गीत भी बंद हो
जाती है। लेकिन
यह मानिसक प्रक्रियाओं
का शारीरिक नियंत्रण, यह आंखों
की गीत को रोका
जाना मानसिक
तनाव पैदा
करता है— वैसा
ही तनाव जैसा
देर तक पट्टी
लगाकर आंख बंद
रखने से होता
है।
पहली
बात तो यह है
कि जहां तक
तंत्र का
संबंध है, तुम्हारा
मन और
तुम्हारा
शरीर दो चीजें
नहीं हैं। इस
बात को सदा
स्मरण रखो।
ऐसा मत कहो कि
यह शारीरिक
प्रक्रिया है
और यह मानसिक
प्रक्रिया है।
वे दो नहीं
हैं। वे एक
इकाई के दो
हिस्से हैं।
शरीर के तल पर
तुम जो भी
करते हो वह मन
को प्रभावित
करता है और मन
के तल पर जो भी
करते हो वह
शरीर को
प्रभावित
करता है। वे
दो नहीं हैं, एक ही हैं।
तुम
ऐसा कह सकते
हो कि शरीर
उसी ऊर्जा की
ठोस अवस्था है
और मन उसी
ऊर्जा की तरल
अवस्था। ऊर्जा
एक ही है।
इसलिए तुम अगर
शरीर के तल पर
कुछ कर रहे हो
तो ऐसा मत
समझो कि यह
महज शारीरिक
है;
इसकी फिक्र
मत लो कि यह मन
के रूपांतरण
में सहयोगी
कैसे होगा।
जब तुम
शराब पीते हो
तो तुम्हारे
मन को क्या
होता है? शराब
तो शरीर में
जाती है, लेकिन
मन प्रभावित
होता है। जब
तुम एल—एस डी
लेते हो तो वह
शरीर में जाती
है, मन में नहीं;
लेकिन मन
प्रभावित
होता है। या
अगर तुम उपवास
करो तो यह
उपवास शरीर के
तल पर होगा; लेकिन मन
प्रभावित होगा।
इसी
चीज को दूसरे
छोर से देखो।
जब कामुक
विचार उठते
हैं तो वे
उठते मन के तल
पर हैं, लेकिन
शरीर तुरंत
उनसे
प्रभावित
होता है। मन
में काम—विषय
की चितना शुरू
होती है; और
शरीर तैयार
होने लगता है।
विलियम
जेम्स का एक
सिद्धात है।
इस सदी के
पूर्वार्द्ध
में यह
सिद्धात
बेतुका मालूम
पड़ता था, लेकिन
एक अर्थ में
यह सही है।
विलियम जेम्स
और दूसरे विज्ञानविद
लैंग ने मिलकर
इस सिद्धात को
प्रस्तावित
किया था और
इसीलिए उसे
जेम्स—लैंग
सिद्धात कहते
हैं।
आमतौर
से हम कहते
हैं कि जब तुम
भयभीत होते हो
तो तुम
सुरक्षा के
लिए भागते हो, या
जब तुम क्रोध
करते हो तो
तुम्हारी आंखें
लाल हो जाती
हैं और तुम
अपने दुश्मन
पर चोट करने
लगते हो।
लेकिन जेम्स
और लैग ने जो
बात कही वह
ठीक इसके विपरीत
है। उन्होंने
कहा कि चूंकि
तुम भागते हो
इसलिए तुम
भयभीत होते हो
और चूंकि
तुम्हारी आंखें
लाल हो जाती
हैं और तुम
शत्रु पर चोट
करने लगते हो
इसलिए
तुम्हें
क्रोध होता है।
कितनी
विरोधी बातें
हैं! जेम्स और
लैंग ने कहा
कि यदि ऐसा
नहीं है तो हम क्रोध
की एक ऐसी
मिसाल देखना
चाहेंगे
जिसमें आंखें
लाल न हों, शरीर
प्रभावित न हो
और शुद्ध
क्रोध हो।
अपने शरीर को
प्रभावित मत
होने दो और
क्रोध करने की
चेष्टा करो, तब तुम्हें
पता चलेगा कि
तुम क्रोध
नहीं कर सकते।
जापान
में वे अपने
बच्चों को
क्रोध पर काबू
पाने का एक
सरल उपाय
सिखाते हैं।
वे कहते हैं
कि जब भी
तुम्हें
क्रोध हो, क्रोध
के साथ सीधे
कुछ मत करो; बस गहरी
श्वास लेना
शुरू करो।
इसका प्रयोग
करो और तुम
क्रोध नहीं कर
सकोगे। क्यों?
क्यों
सिर्फ गहरी
श्वास लेने से
क्रोध नहीं कर
सकते? क्यों
क्रोध करना
असंभव हो जाता
है?
इसके
दो कारण हैं।
तुम गहरी
श्वास लेने
लगते हो; लेकिन
क्रोध के लिए
श्वास की एक
खास लय, उसका
एक विशेष ढंग
आवश्यक है। उस
ढंग के बिना
क्रोध संभव
नहीं है।
क्रोध करने के
लिए जरूरी है
कि श्वास एक
विशेष लय में
चले। असल में
क्रोध के लिए
श्वास का
अराजक होना जरूरी
है। इसलिए जब
तुम गहरी
श्वास लेते हो
तो क्रोध का उभरना
असंभव हो जाता
है। अगर तुम
सचेतन रूप से
गहरी श्वास
लेते हो तो क्रोध
प्रकट नहीं हो
सकता। क्रोध
के लिए एक
भिन्न ढंग की
श्वास की गति
जरूरी है। वह
गति तुम्हें
लानी नहीं
पड़ती है, क्रोध
ही उसे ले आता
है। गहरी
श्वास के साथ
तुम क्रोध
नहीं कर सकते।
और
दूसरा कारण है
कि मन बंट
जाता है। जब
तुम क्रोध
करते हो और
साथ ही गहरी
श्वास लेने
लगते हो तो
तुम्हारा मन
श्वास पर चला
जाता है। अब
शरीर क्रोध
करने की
अवस्था में
नहीं रहा, क्योंकि
मन की
एकाग्रता
किसी और चीज
पर चली गई।
ऐसी हालत में
क्रोध करना
कठिन है।
यही
कारण है कि
जापानी
पृथ्वी पर
सबसे संयमित लोग
हैं—सर्वाधिक
संयमित। बचपन
से ही उन्हें
इसके लिए
प्रशिक्षित
किया जाता है।
दुनिया में
अन्यत्र ऐसी
घटना देखने को
नहीं मिलती है; लेकिन
जापान में यह
आम बात है। अब
तो जापान में
भी वह कम हो
रहा है; क्योंकि
जापान कम
जापान होता जा
रहा है। यह
देश अधिकाधिक
पाश्चात्य
बनता जा रहा
है और उसके
पारंपरिक ढंग—ढांचे
खोते जा रहे
हैं। लेकिन
ऐसी बात होती
थी और आज भी हो रही
है।
मेरे
एक मित्र क्योटो
में रहते थे। मुझे
उनका एक पत्र मिला
जिसमें उन्होंने
कहा कि आज
मुझे एक ऐसी
सुंदर घटना
देखने को मिली
कि उससे मैं
आपको अवगत
कराना चाहता
हूं। और जब
मैं भारत वापस
आऊंगा तो
मैं आपसे
समझना
चाहूंगा कि
ऐसी बात कैसे
घटित होती है।
एक आदमी को
कार से धक्का
लगा और वह
जमीन पर गिर पड़ा; लेकिन
जब वह उठा तो
उसने ड्राइवर
को धन्यवाद
दिया और तब
अपनी राह ली।
उसने ड्राइवर
को धन्यवाद
दिया! जापान
में यह कठिन
नहीं है। उसने
कुछ गहरी
श्वासें ली
होंगी; तभी
यह संभव है।
तब तुम्हारा
दृष्टिकोण
पूरी तरह बदल
जाता है। और
तब तुम उस
आदमी को भी
धन्यवाद दे
सकते हो जो तुम्हारी
हत्या करने जा
रहा हो, या
जिसने
तुम्हारी
हत्या का
प्रयास किया
हो।
तो
शारीरिक और
मानसिक
प्रक्रियाएं
दो चीजें नहीं
हैं,
वे एक हैं।
और तुम किसी
भी छोर से
दूसरे को
बदलने की शुरुआत
कर सकते हो।
और कोई भी
वैज्ञानिक
विधि उपयोग
में आ सकती है।
उदाहरण के लिए
तंत्र यह कर
सकता है, क्योंकि
तंत्र को शरीर
पर गहरा भरोसा
है। सिर्फ
दर्शनशास्त्र
धुंधला—
धुंधला, हवाई
और बातूनी है;
वह और कहीं
से भी शुरू कर
सकता है।
लेकिन कोई भी
वैज्ञानिक
पद्धति शरीर
से ही शुरू कर
सकती है, क्योंकि
शरीर
तुम्हारी
पहुंच के भीतर
है। अगर मैं
तुमसे कुछ
कहूं जो तुम्हारी
पकड़ के बाहर
हो तो तुम उसे
सुन लोगे, उसे
स्मृति में
इकट्ठा कर
लोगे; तुम
उसकी चर्चा भी
करोगे; लेकिन
उससे कुछ भी
नहीं होगा।
तुम वही के
वही होगे, तुम्हारी
जानकारी बढ़
जाएगी, लेकिन
तुम नहीं बढ़ोगे।
तुम्हारा
ज्ञान तो बढ़ता
चला जाएगा; लेकिन
तुम्हारे
प्राण गरीब के
गरीब रह
जाएंगे, जहां
के तहां पड़े
रहेंगे।
तुम्हें उससे
कुछ भी नहीं
होगा।
स्मरण
रहे,
शरीर
तुम्हारे हाथ
में है, तुम्हारी
पहुंच के भीतर
है। तुम उसके
साथ अभी कुछ
कर सकते हो और
शरीर के जरिए
मन को बदल
सकते हो। और
धीरे— धीरे
तुम अपने शरीर
के मालिक हो
जाओगे। और तब
तुम मन के भी
मालिक हो
जाओगे। और जब
तुम मन के
मालिक हो जाते
हो तो धीरे—धीरे
उसे
रूपांतरित कर
मन के भी पार
जा सकते हो।
जब शरीर बदलता
है तो तुम
शरीर के पार
जाते हो, और
जब मन बदलता
है तो तुम मन
के पार जाते
हो।
और
सदा वह करो जो
तुम कर सकते
हो। उदाहरण के
लिए,
तुम अभी
तुरंत बुद्ध
की तरह अपने
क्रोध के मालिक
नहीं हो सकते
हो। कैसे हो
सकते हो? लेकिन
अगर तुम श्वास
की प्रक्रिया
को बदल दो तो
तुम उसके
सूक्ष्म
प्रभाव को, परिवर्तन को
अनुभव कर लोगे।
इसे करके देखो।
अगर तुम
कामवासना से
भरे हो तो
थोड़ी सी गहरी
श्वासें लो और
उनके प्रभाव
को देखो; कामवासना
तितर—बितर हो
जाएगी।
अल्डुअस
हक्सले की
पत्नी लारा
हक्सले ने एक
सुंदर किताब
लिखी है; उसमें
उसने कुछ करने
के सरल उपाय
बताए हैं।
लारा हक्सले
कहती है कि
अगर तुम्हें
क्रोध आए तो
तुम अपने
चेहरे की मांस—पेशियों
को खींचो, सख्त
बनाओ। तुम यह
काम अपने
स्नानगृह में
जाकर कर सकते
हो, या महज मेज
के नीचे झुककर
कर सकते हो; ताकि
तुम्हें कोई
देख न सके। समझो
कि कोई
तुम्हारे
सामने ही बैठा
है और तुम्हें
क्रोध आ गया
है। तो
स्नानघर में
जाकर या
मेज
के नीचे सिर
करके अपने
चेहरे को कसो
और कसते ही
जाओ। जब कसावट
हद पर पहुच
जाए अचानक ढील
दे दो, और तब तुम्हें
फर्क का अनुभव
होगा; क्रोध
जा चूकेगा।
या यदि इतने
पर भी न जाए तो
इस प्रयोग को दुहराओ—दो
बार करो, तीन
बार करो।
इससे
क्या होता है? अगर
तुम चेहरे की
मांस—पेशियों
को कसते जाओ, और कसते ही
चले जाओ, और
उसे तनाव से
भर दो, तो
जो ऊर्जा
क्रोध में लगी
थी वही चेहरे
में गति करने
लगेगी। और
चेहरे में गति
करना बहुत
आसान है। जब
तुम क्रोध
करते हो तो
क्या होता है?
तुम्हारा
जी करता है कि
किसी को
मुक्के मारो,
क्योंकि इस
ऊर्जा का
उपयोग करना है।
और उपयोग कर
सको तो ऊर्जा
बिखर जाएगी और
तुम्हारा
चेहरा शिथिल
और शांत हो
जाएगा। और जो
आदमी
तुम्हारे
सामने बैठा था
उसे पता भी
नहीं चलेगा कि
तुम क्रोध में
थे। ऐसा लगेगा
कि तुम्हें
कुछ भी नहीं
हुआ है।
और
एक बार तुम इन
चीजों को जान
लो तो तुम्हें
अधिकाधिक बोध
होगा कि ऊर्जा
रूपांतरित की
जा सकती है, उसकी
दिशा बदली जा
सकती है, उसे
नियंत्रित
किया जा सकता
है, उसे
राह दी जा
सकती है और
उसकी राह रोकी
भी जा सकती है।
तुम्हें यह
बोध होगा कि
ऊर्जा का
उपयोग भिन्न—भिन्न
ढंगों से किया
जा सकता है।
और जब तुम
ऊर्जा का
उपयोग सीख
लोगे तो तुम
उसके मालिक हो
जाओगे। और तब
किसी दिन यह
तुम्हारे हाथ
में होगा कि
ऊर्जा का
उपयोग न करके
उसका संरक्षण
करो।
यह
प्रयोग, घूंसा
तानने का
प्रयोग, बुद्ध
के काम का
नहीं है।
बुद्ध के काम
का इसलिए नहीं
है क्योंकि यह
ऊर्जा का
अपव्यय है।
लेकिन यह
तुम्हारे
बहुत काम का
है। कम से कम
दूसरा
तुम्हारे
क्रोध का शिकार
होने से बच
जाता है, और
इस तरह पैदा
होने वाले एक दुश्चक्र
का अंत हो
जाता है। जब
तुम किसी पर
क्रोध करते हो
तो दूसरा भी
क्रोध करता है,
और इसका
कहीं अंत नहीं
है। इससे
तुम्हारी
पूरी रात खराब
हो जाती है; इस उपद्रव
का असर सप्ताह
भर रह सकता है।
और तब इसके
प्रभाव में
तुम कई ऐसी
चीजें कर गुजरोगे
जिन्हें तुम
कभी नहीं करना
चाहते थे।
तो
यह मत कहो कि
यह महज
शारीरिक
प्रक्रिया है।
तुम शारीरिक
हो;
इसके बारे
में कुछ नहीं
किया जा सकता।
तुम शरीर ही
हो, इस
तथ्य को इनकारा
नहीं जा सकता।
अपनी ऊर्जा का
उपयोग करो, उसे इनकार
करने की जरूरत
नहीं है।
अगर
तुम अपनी आंखें
बंद करो तो
कभी—कभी
तुम्हें वहां
थोड़ा तनाव, थोड़ी
बेचैनी अनुभव
हो सकती है।
इस संबंध में
कुछ बातें
उपयोगी हो
सकती हैं। एक
तो यह कि जब आंखें
बंद करो तो
उसके संबंध
में तनाव न लो;
उन्हें
शिथिल रहने दो।
तुम आंखों को
जबरदस्ती भी
बंद कर सकते
हो, तब
तनाव पैदा
होगा, तब
तुम्हारी आंखें
थक जाएंगी और
तुम्हें भीतर
बेचैनी महसूस
होगी। पहले
चेहरे को
शिथिल होने दो,
फिर आंखों
को शिथिल होने
दो और तब
उन्हें बंद
होने दो। मैं
कहता हूं कि आंखों
को बंद होने
दो। मैं यह
नहीं कहता कि
उन्हें बंद
करो। विश्राम
में रहो।
पलकों को
गिरने दो और आंखों
को बंद होने
दो। उनके साथ
जबरदस्ती मत
करो।
जबरदस्ती
करना अच्छा
नहीं है।
और
अगर तुम्हें
फर्क पता न
चले तो ऐसा
करो कि पहले आंखों
को जबरदस्ती
बंद म् करो।
पहले पूरे
चेहरे को तनाव
से भर दो और तब आंखों
को जबरदस्ती
बंद करो। और
फिर दूसरी बार
उन्हें विश्रामपूर्वक
बंद करो। तब
तुम्हें फर्क
पता चलेगा। तो
कुछ भी करने
में जबरदस्ती
मत करो; वह
तुम्हें थका
डालेगी।
और
दूसरी बात कि जब
आंखें बंद हो जाएं
और चेहरा शिथिल
हो जाए, तो ऐसे
देखो जैसे कि
सब अंधकारमय
है, तुम्हारे
चारों ओर गहरा
अंधकार है।
भाव करो कि
गहरी अंधेरी
रात में तुम
अंधकार ही
अंधकार से, मखमली
अंधकार से
घिरे हो। इस
अंधकार को
महसूस करो।
उससे
तुम्हारी आंखों
की गति बंद हो
जाएगी; जब
कुछ भी देखने
को नहीं रहेगा
तो आंखें ठहर
जाएंगी।
इसलिए अंधकार
में होना
उपयोगी है। यह
काम तुम
अंधेरे कमरे
में कर सकते
हो। आंखें खोलो
और अंधकार को
देखो, और
फिर उन्हें
बंद करके
अंधकार को
अनुभव करो।
फिर आंखें
खोलकर अंधकार
को देखों;
और फिर आंखें
बंद कर अंधकार
को भीतर महसूस
करो।
अंधकार
गहन रूप से
आरामदायक है।
अंधकार
तुम्हारे
बाहर है और
अंधकार
तुम्हारे
भीतर है। और
इसमें सब कुछ
मृत मालूम
देता है—मृत
और अंधेरा।
अंधकार और
मृत्यु एक—दूसरे
से परस्पर
जुड़े हैं। यही
कारण है कि हम
मृत्यु को
काले रंग से
चित्रित करते
हैं।
दुनियाभर में
लोग मृत्यु को
काले रँग
में चित्रित
करते हैं।
इस
विधि का
प्रयोग करते
हुए अंधेरे को
महसूस करो, उसे
प्रेम करो और
अपने भीतर भाव
करो कि मेरी
मृत्यु होने
वाली है। भाव
करो कि चारों
तरफ अंधेरा है
और मैं मर रहा हूं।
तब आंखें ठहर
जाएंगी। तुम देखोगे कि
वे सचमुच ठहर
गई हैं। तब
तुम्हारी
ऊर्जा
ऊर्ध्वगामी
होकर तीसरी आंख
पर चोट करने
लगेगी।
इस
चोट को तुम सुनोगे, अनुभव
करोगे।
तुम्हें एक
उष्णता का
अनुभव होगा और
ऐसा लगेगा कि
कोई तरल आग
प्रवाहित हो
रही है और नए
मार्ग खोज रही
है। इससे डरना
मत, इसके
साथ सहयोग
करना। इस आग
को गति करने
देना। तुम यह
आग ही हो जाना।
और जब यह
तीसरी आंख
पहली बार
खुलेगी तो
अंधेरा
समाप्त हो
जाएगा और
प्रकाश ही
प्रकाश होगा।
इस प्रकाश का
कोई स्रोत
नहीं है, उदगम
नहीं है।
तुमने प्रकाश
देखा होगा
जिसका स्रोत
होता है—चाहे
वह सूर्य से
आए, चांद—तारों
से आए और चाहे
दीए से आए।
उसका कोई न
कोई स्रोत
होता है।
लेकिन जब
ऊर्जा तीसरी आंख
से होकर बहती
है तब एक स्रोतहीन
प्रकाश का उदय
होता है। यह कहीं
से आता नहीं
है; यह बस
है।
यही
कारण है कि
उपनिषद कहते
हैं कि
परमात्मा स्रोतहीन
प्रकाश है। वह
सूरज या ज्योतिशिखा
की भाति नहीं
है;
उसका कहीं
भी कोई स्रोत
नहीं है, केवल
प्रकाश है, रोशनी है—मानो
वह ऊषाकाल
है जब कि रात
तो चली गई और
सूर्य उदित
नहीं हुआ है।
दोनों के बीच
जो ऊषाकाल
है, यह वह
है। या यह
संध्या की
गोधूलि है, जब सूर्य
डूब गया है और रात
अभी आई नहीं
है। इसलिए उसे
संध्या भी
कहते हैं—दिन
और रात की
संधि—वेला।
और
यही कारण है
कि हिंदुओं ने
ध्यान के लिए
संध्या को
उचित समय माना
है। वे ध्यान
को संध्या ही
कहने लगे फिर।
वह ठीक मध्य—वेला
है;
जब दिन जा
चुका है और
रात आने को
होती है।
क्यों? यह
महज प्रतीक है।
प्रकाश तो है,
लेकिन स्रोतहीन।
वही बात अंतस
से घटित होगी—स्रोतहीन
प्रकाश घटित
होगा। उसकी
कल्पना मत करो,
उसकी प्रतीक्षा
करो।
और
आखिरी बात याद
रखने की यही
है उसकी
कल्पना मत करो।
तुम कुछ भी कल्पना
कर सकते हो। इस
लिए तुम्हें
बहुत सी बातें
बताना खतरनाक है, तुम
उनकी कल्पना
करने लगोगे।
तुम आंखें बंद
कर लोगे और
कल्पना में
देख लोगे कि
तीसरी आंख खुल
रही है।
कल्पना से तुम
प्रकाश भी देख
लोगे। लेकिन
यह कल्पना मत
करो। कल्पना
से बचो। आंखें
बंद करो और
प्रतीक्षा
करो। जो भी आए,
उसे अनुभव
करो, उसके
साथ सहयोग करो।
लेकिन
प्रतीक्षा
करो। आगे की
छलांग मत लो; अन्यथा कुछ
भी नहीं होगा।
तुम्हारे हाथ
एक सपना आ
सकता है—सुंदर
आध्यात्मिक
सपना—और कुछ
नहीं।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं कि हमने
यह देखा और
हमने वह देखा।
लेकिन यह सब
उनकी कल्पना
है। यदि यह
देखना सच होता
तो वे
रूपांतरित हो
गए होते। मगर
वे रूपांतरित
नहीं हुए हैं।
वे वही के वही
लोग हैं; लेकिन
एक नया
आध्यात्मिक
दंभ उनसे जुड़
गया है।
उन्होंने कुछ
सपने देख लिए
हैं—सुंदर
आध्यात्मिक
सपने। किसी ने
बांसुरी
बजाते कृष्ण
को देखा है; कोई प्रकाश
देख रहा है; किसी की
कुंडलिनी जाग
रही है। ये
चीजें वे
देखते रहते
हैं और वही के
वही बने रहते
हैं—मंदमति और
मूढ़। कुछ
भी उन्हें
नहीं हुआ है।
और वे वही के
वही बने रहते
हैं—क्रोधी, दुखी, बचकाने और मूढ़।
कुछ भी उनका
नहीं बदला है।
अगर
सचमुच
तुम्हें वह
प्रकाश दिखाई
पड़े जो तीसरी आंख
से आता है तो
तुम दूसरे ही
व्यक्ति हो
जाओगे। और तब
तुम्हें किसी
को भी बताने
की जरूरत नहीं
होगी। लोग जान
लेंगे कि तुम
दूसरे
व्यक्ति हो गए
हो। तुम इसे
छिपा भी नहीं
सकते; यह बात
लोगों के
अनुभव में आ
जाती है। तुम जहां
भी जाओगे वहा
लोग महसूस
करेंगे कि इस
आदमी को कुछ
हुआ है।
इसलिए
कल्पना मत करो।
प्रतीक्षा
करो और चीजों
को अपने आप ही
घटित होने दो।
तुम तो विधि
का प्रयोग करो
और प्रतीक्षा
करो। आगे की
छलांग मत लो।
आज
इतना ही।
बहुत ही गूढ़ रहस्य का उदभेदन। ओशो नमन
जवाब देंहटाएं