प्रश्नसार:
1—क्या मिश्रित
ढंग के व्यक्ति
को दो भिन्न—भिन्न
विधि करनी
चाहिए?
2—जीवन—स्वीकारकी
दृष्टि रखने
वाले तंत्र
में मृत्यु—दर्शन
का कैसे उपयोग
हो सकता है?
3—शरीर के
मृतवत होने से
मन का
रूपांतरण
कैसे संभव है?
पहला
प्रश्न :
मैं
समझता हूं कि
मैं पूरे
अर्थों में न
भावुक ढंग का
आदमी हूं,
और न बौद्धिक
ढंग का;
मैं मिश्रित
ढंग का हूं।
तो क्या मुझे
बारी—बारी से
दो भिन्न ढंग
की विधियों का
प्रयोग करना
चाहिए?
कृपया
मार्ग दर्शन
दें?
यह प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। बहुत सी
बातें समझने
जैसी हैं।
एक, जब
भी तुम्हें
महसूस हो कि
तुम न बौद्धिक
ढंग के आदमी
हो न भावुक
ढंग के तो भलीभांति
समझ लो कि तुम
बौद्धिक ढंग
के आदमी हो।
कारण कि
विभ्रम, मन
की उलझन
बौद्धिक
चित्त का
लक्षण है।
भावुक चित्त
कभी विभ्रम
में नहीं पड़ता
है; इस ढंग
का व्यक्ति
कभी ऐसी उलझन
नहीं महसूस करता
है। भाव सदा
समग्र और पूर्ण
होता है।
बुद्धि सदा
विभाजित, खंडित
और अमित होती
है। बुद्धि का
वही स्वभाव है।
क्यों?
क्योंकि
बुद्धि संदेह
पर निर्भर है
और भाव श्रद्धा
पर। जहां भी
संदेह है वहां
विभाजन होगा; संदेह
कभी समग्र
नहीं हो सकता
है। कैसे हो
सकता है? संदेह
का स्वभाव ही
संदेह करना है।
वह कभी समग्र
नहीं हो सकता।
तुम किसी चीज
पर समग्रता से
संदेह नहीं कर
सकते। और यदि
समग्रता से
संदेह किया जा
सके तो संदेह
श्रद्धा बन
जाएगा।
संदेह
सदा विभ्रम है, उलझाव
है। और जब तुम
संदेह करते हो
तो असल में
तुम्हें अपने
संदेह पर भी
संदेह होता है।
तुम अपने संदेह
के बारे में
निश्चित नहीं
हो सकते; संदेहशील
मन अपने संदेह
के संबंध में
भी निश्चित
नहीं होता है।
तो वहां भ्रम
की पर्त पर
पर्त होगी और
हर संदेह किसी
संदेह पर खड़ा
होगा।
बौद्धिक
ढंग का
व्यक्ति सदा
इसी ढंग से
सोचता है। उसे
सदा ऐसा लगता
है कि मैं
कहीं नहीं हूं
मैं कहीं का
नहीं हूं। या
वह कभी यहां
होगा और कभी
वहां होगा। वह
कभी यह होगा
और कभी वह
होगा। लेकिन
भावुक ढंग का
व्यक्ति इस
द्वंद्व का शिकार
नहीं होता है; वह
अपनी स्थिति
जानता है।
क्योंकि उसका
आधार श्रद्धा
है, इसलिए
भाव खंडित
नहीं होता है।
भाव सदा पूर्ण
होता है, अखंड
होता है।
अगर
तुम्हें
संदेह है, अगर
तुम निश्चित
नहीं हो कि
तुम किस ढंग
के व्यक्ति हो,
तो भलीभांति
जान लो कि तुम
बौद्धिक हो।
तब तुम्हें उन
विधियों का
प्रयोग करना
चाहिए जो
बौद्धिक ढंग
के लोगों के
लिए बनी हैं।
और यदि
तुम्हें कोई
भ्रांति नहीं
है, कोई
उलझन नहीं है, तो तुम
निश्चित ही
भावुक किस्म
के आदमी हो।
उदाहरण
व, रामकृष्ण
भावुक व्यक्ति
हैं। तुम
उनमें संदेह
नहीं पैदा कर
सकते; वह
असंभव है।
संदेह वहीं
पैदा किया जा
सकता है जहां
बुनियाद में
ही संदेह हो।
अगर तुम्हारे
भीतर संदेह ने
पहले ही छिपकर
घर नहीं किया
हुआ है तो कोई
भी तुममें
संदेह नहीं
पैदा कर सकता।
दूसरे संदेह
पैदा नहीं कर
सकते, वे
केवल उसे
उभारने में
सहयोगी होते
हैं। वैसे ही
श्रद्धा भी
पैदा नहीं की
जा सकती; उसे
भी दूसरे
उभारने में
सहयोगी होते
हैं।
तुम्हारे
बुनियादी ढंग
को नहीं बदला
जा सकता है।
इसलिए यह
जानना बहुत
जरूरी है कि
तुम बुनियादी
तौर से किस
ढंग के आदमी
हो। यदि तुम
कोई ऐसी साधना
करते हो जो
तुम्हारी प्रकृति
से मेल नहीं
खाती है, जो
तुम्हें रास
नहीं आती है, तो तुम नाहक
अपना समय और
ऊर्जा नष्ट कर
रहे हो। और
गलत
प्रयत्नों के
कारण
तुम्हारी
उलझनें भी
बढ़ती चली
जाएंगी।
न
संदेह पैदा
किया जा सकता
है और न
श्रद्धा; उनमें
से किसी न
किसी का बीज
तुम्हारे
भीतर मौजूद है।
अगर तुम्हें
संदेह है तो
बेहतर है कि
श्रद्धा की
सोचो ही मत।
क्योंकि वह
धोखा होगा, पाखंड होगा।
और संदेह है
तो उससे डरने
की जरूरत नहीं
है। संदेह भी
परमात्मा तक
ले जा सकता है,
तुम संदेह
का भी उपयोग
कर सकते हो।
मुझे
इस बात को
दोहराने दो कि
संदेह भी
परमात्मा तक
पहुंचा सकता
है। क्योंकि
अगर तुम्हारा
संदेह
परमात्मा को
नष्ट कर सकता
है तो उसका
अर्थ हुआ कि
संदेह परमात्मा
से भी बलवान
है। संदेह का
भी उपयोग किया
जा सकता है।
संदेह को भी
विधि बनाया जा
सकता है।
लेकिन अपने को
धोखा मत दो।
लोग हैं जो
सिखाते हैं कि
संदेह से
परमात्मा तक
कभी नहीं
पहुंचा जा
सकता। तब क्या
करना है? तब
तुम अपने
संदेह को
दबाओगे, उसे
छिपाओगे और
उसकी जगह एक
झूठा विश्वास
निर्मित
करोगे। लेकिन यह
विश्वास सतही
होगा; वह
तुम्हारे
प्राणों को
स्पंदित नहीं
करेगा। गहरे
में तुम्हारा
संदेह जीवित
रहेगा और ऊपर से
तुम विश्वास
का नकाब लगा
लोगे।
श्रद्धा
और विश्वास
में यही फर्क
है। विश्वास
सदा झूठा होता
है। श्रद्धा
एक गुणवत्ता
है। विश्वास
केवल धारणा है।
श्रद्धा
चित्त की
गुणवत्ता है।
विश्वास महज
उधार है।
इसलिए जो
संदेहशील लोग
हैं और अपने
संदेह से भी
डरते हैं वे
विश्वास को
पकड़ लेते हैं।
वे कहते हैं
कि हमें
विश्वास है।
लेकिन उन्हें
श्रद्धा नहीं
है;
गहरे में
उन्हें अपने
संदेह का पता
है। और वे
अपने इस संदेह
से सदा भयभीत
रहते हैं। अगर
तुम उनके
विश्वास को
जरा छू दो, जरा
उनकी आलोचना
कर दो, तो
वे तुरंत
क्रोधित हो
जाएंगे।
क्यों? यह
क्रोध क्यों?
यह गुस्सा
क्यों? उनका
गुस्सा दरअसल
तुम पर नहीं
है, वे
अपने संदेह से
परेशान हैं और
तुमने उस संदेह
को उभार दिया
है। अगर तुम
श्रद्धा वाले
व्यक्ति की
आलोचना करोगे
तो उसे क्रोध
नहीं होगा।
तुम श्रद्धा
को नष्ट नहीं
कर सकते हो।
रामकृष्ण, चैतन्य
या मीरा भाव
वाले लोग हैं।
बंगाल के एक
अपूर्व मनीषी
केशवचंद्र
रामकृष्ण से
मिलने गए। वे
मिलने के लिए
नहीं, बल्कि
उन्हें हराने
के लिए गए थे।
और रामकृष्ण
तो अनपढ़
ग्रामीण थे; पंडित
बिलकुल नहीं
थे। और
केशवचंद्र
भारत की
सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं
में गिने जाते
हैं। उनकी
बुद्धि
कुशाग्र और
तर्कशील थी।
निश्चित था कि
रामकृष्ण
हारते।
जब
केशवचंद्र आए
तो कलकत्ता के
सभी बुद्धिवादी
लोग
दक्षिणेश्वर
में इकट्ठे हो
गए—सिर्फ रामकृष्ण
की हार देखने
के लिए। केश्वचंद्र
ने जब बहस
शुरू की तो वे
खुद यह देखकर
चकित हुए कि
रामकृष्ण
उनके तर्कों
में बहुत आनंद
ले रहे थे।
केशवचंद्र जब
ईश्वर के खिलाफ
कोई दलील देते
तो रामकृष्ण
उठकर झूमने लगते, उठकर
नाचने लगते।
केशवचंद्र
जीवन बेचैन
होने लगे और
उन्होंने
रामकृष्ण से
कहा कि आप यह
क्या करते
हैं! आपको
मेरे तर्कों
का जवाब देना
है।
रामकृष्ण
ने कहा. तुमको
देखकर मेरी
श्रद्धा बहुत
मजबूत हुई है।
ईश्वर के बिना
ऐसी प्रतिभा
असंभव है। और
मैं
भविष्यवाणी
करता हूं कि
देर—अबेर तुम
मुझसे भी बड़े
भक्त होने
वाले हो; क्योंकि
तुम्हारी
प्रतिभा बड़ी
है। ऐसी
प्रतिभा पाकर
तुम परमात्मा
से लडाई कैसे करोगे?
ऐसी सुतीशा
प्रतिभा कब तक
दूर रहेगी? जब मेरे
जैसा मूढ़ भी
पहुंच सकता है
तो तुम पीछे
कैसे रहोगे?
रामकृष्ण
ने न क्रोध
किया और न बहस
की,
लेकिन
उन्होंने
केशवचंद्र को
पराजित कर दिया।
केशवचंद्र ने
उनके पैर छुए
और कहा. आप
मुझे पहले
आस्तिक मिले
हैं जिनके साथ
सब बहस व्यर्थ
है। आपकी आंखों
को देखकर, आपको
देखकर, अपने
साथ आपके व्यवहांर
को देखकर मुझे
परमात्मा की
पहली झलक मिली
है; परमात्मा
संभव है। बिना
प्रमाण दिए आप
उसके प्रमाण
हैं।
रामकृष्ण
प्रमाण बन गए।
बौद्धिक
किस्म के
लोगों को
संदेह से
गुजरकर यात्रा
करनी होगी। तो
अपने ऊपर कोई
विश्वास मत
लादो; वह अपने
को धोखा देना
होगा। और तुम
दूसरों को
नहीं, अपने
को ही धोखा दे
सकते हो।
इसलिए
जबरदस्ती मत
करो; प्रामाणिक
बनो। अगर
संदेह
तुम्हारा
स्वभाव है, तो संदेह से
चलो; जितना
हो सके संदेह
करो। और अपने
लिए कोई
श्रद्धा पर
आधारित विधि
मत चुनो। वह
तुम्हारे लिए
नहीं है। कोई
ऐसी विधि चुनो
जो विज्ञान—सम्मत
हो, प्रायोगिक
हो। विश्वास
करने की
बिलकुल जरूरत
नहीं है।
दो
तरह की
विधियां हैं।
एक तो
प्रायोगिक
विधियां हैं।
वे तुम्हें यह
नहीं कहतीं कि
विश्वास करो, वे
सिर्फ प्रयोग
करने को कहती
हैं। उस
प्रयोग के
परिणाम में
विश्वास या
श्रद्धा सहज
आती है।
वैज्ञानिक
विश्वास नहीं
कर सकता है; वह कोई
परिकल्पना
लेकर सीधे उस
पर काम शुरू
कर देता है, प्रयोग करता
है। और अगर
प्रयोग ठीक
आता है, अगर
प्रयोग बताता
है कि
परिकल्पना
सही थी, तब
वह निष्पत्ति
लेता है।
श्रद्धा
प्रयोग से आती
है।
और
इन एक सौ बारह
विधियों में
ऐसी भी
विधियां हैं
जो तुमसे
श्रद्धा की
मांग नहीं
करतीं। जैसे
रामकृष्ण और
चैतन्य भाव—प्रधान
लोग हैं वैसे
ही महावीर और
बुद्ध बुद्धि—प्रधान
हैं। यही कारण
है कि बुद्ध
कहते हैं कि
ईश्वर में विश्वास
की जरूरत नहीं
है;
ईश्वर नहीं
है। वे कहते
हैं कि मुझमें
भी विश्वास मत
करो; सिर्फ
जो मैं कहता
हूं उस पर
प्रयोग करो।
और अगर प्रयोग
सही निकले तो
तुम उसमें
विश्वास कर
सकते हो।
बुद्ध
तो यहां तक
कहते हैं कि
मुझमें भी
विश्वास मत
करो;
किसी चीज को
सिर्फ इसलिए
मत मान लो
क्योंकि मैं
कहता हूं।
सिर्फ उस पर
प्रयोग करो, जो मैं कहता
हूं। और जब तक
तुम्हें
तुम्हारी
निष्पत्ति न
हाथ लगे, संदेह
करते रहो।
तुम्हारा अनुभव
ही तुम्हारी
श्रद्धा बनेगा।
और महावीर
कहते हैं कि किसी
में भी
विश्वास करने
की जरूरत नहीं
है—गुरु में
भी नहीं।
सिर्फ विधि को
प्रयोग में लाना
है।
विज्ञान
कभी विश्वास
करने को नहीं
कहता है। वह
कहता है कि
प्रयोगशाला
में जाओ, प्रयोग
करो। यह
बौद्धिक
लोगों के लिए
है। प्रयोग के
पहले श्रद्धा
में मत उतरो।
उसके पहले श्रद्धा
करना
तुम्हारे बस
में नहीं है।
तुम सबको
झुठला दोगे।
अपने साथ
ईमानदारी
बरतो। यथार्थ
और प्रामाणिक
रहो।
कभी—कभी
ऐसा हुआ है कि
नास्तिक भी
अपने प्रति
सच्चे होने के
कारण पहुंच गए
हैं। महावीर
नास्तिक हैं; वे
किसी ईश्वर
में विश्वास
नहीं करते।
बुद्ध भी
नास्तिक हैं;
वे किसी
परमात्मा को
नहीं मानते।
बुद्ध के साथ
चमत्कार घटित
हुआ। उनके
संबंध में कहा
जाता है कि वे
सबसे ज्यादा
ईश्वर—विहीन
व्यक्ति थे और
साथ ही साथ
सबसे ज्यादा ईश्वर—तुल्य।
वे बिलकुल
बौद्धिक थे; लेकिन वे
पहुंच गए।
क्योंकि
उन्होंने कभी
अपने को धोखा
नहीं दिया। वे
बस प्रयोग
करते गए।
बुद्ध
निरंतर छह
वर्षों तक
प्रयोग पर
प्रयोग करते
रहे,
लेकिन
उन्होंने
विश्वास नहीं
किया। जब तक
कोई बात अनुभव
से प्रमाणित न
हो जाए, बुद्ध
उसे नहीं
मानते थे।
इसलिए वे
प्रयोग करते
थे और अगर
उनसे कुछ होता
नहीं नजर आता
तो वे उसे छोड
देते थे। और
एक दिन वे
पहुंच गए।
संदेह पर
संदेह करते और
प्रयोग करते
हुए एक ऐसा
बिंदु आया जहां
कुछ भी संदेह
करने को न बचा।
विषय के अभाव
में संदेह गिर
गया; अब
संदेह करने के
लिए कुछ भी न
बचा।
उन्होंने
प्रत्येक चीज
पर संदेह किया
था और अब
संदेह भी
व्यर्थ हो गया
था। संदेह गिर
गया और उसके
गिरते ही वे
उपलब्ध हो गए।
और
तब बुद्ध को
बोध हुआ कि
संदेह
महत्वपूर्ण नहीं
है,
संदेह करने
वाला
महत्वपूर्ण
है, और
संदेह करने
वाले पर संदेह
नहीं किया जा
सकता। संदेह
करने वाला
कहता है कि
नहीं, यह
बात सही नहीं
है। यह बात
सही हो न हो, लेकिन वह
कौन है जो
कहता है कि यह
सही है और यह
सही नहीं है? इस कथन का जो
स्रोत है वह
सही है, वह
वास्तविक है।
तुम
यह कह सकते हो
कि ईश्वर नहीं
है;
लेकिन तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं
नहीं हूं। जिस
क्षण तुम कहते
हो कि मैं
नहीं हूं उसी
क्षण तुम अपने
होने को
स्वीकार कर
लेते हो।
अन्यथा यह
वक्तव्य कौन
दे रहा है? अपने
को स्वीकारे
बिना तुम अपने
को इनकार नहीं
कर सकते, वह
असंभव है।
अपने को इनकार
करने के लिए
भी तुम्हें
होना पड़ेगा।
तुम किसी को, अपने द्वार
पर दस्तक देने
वाले किसी
मेहमान को यह
तो नहीं कह
सकते कि मैं
घर में नहीं
हूं। कैसे कह
सकते हो? यह
असंगत होगा।
तुम्हारा यह
कहना कि मैं
घर में नहीं
हूं सिद्ध
करता है कि
तुम हो।
बुद्ध
ने प्रत्येक
चीज पर संदेह
किया, लेकिन
वे अपने पर
संदेह न कर
सके। जब सब
कुछ संदिग्ध
हो गया, व्यर्थ
हो गया, तो
वे अपने आप पर
फेंक दिए गए।
और वहां संदेह
करना असंभव था;
इसलिए
संदेह गिर गया।
और वे अचानक
अपने सत्य के
प्रति, अपने
चेतना—स्रोत
के प्रति, चेतना
की आधारभूमि
के प्रति बोध
से भर गए।
ईश्वर—विहीन
बुद्ध ईश्वरवत
हो गए। सच तो
यह है कि इस
धरती पर उन
जैसा ईश्वर—तुल्य
व्यक्ति कभी
नहीं चला।
लेकिन उनकी
वृत्ति
बौद्धिक थी, रुझान उनका
बौद्धिक था।
तो
दोनों ढंग की
विधियां
मौजूद हैं।
अगर तुम समझते
हो कि मैं
बुद्धिजीवी
हूं भ्रांत
हूं
संदेहग्रस्त
हूं तो
श्रद्धा वाली
विधियों को मत
प्रयोग करो।
वे तुम्हारे
लिए नहीं हैं।
सब विधियां हर
एक के लिए
नहीं हैं। अगर
तुम
श्रद्धावान
हो तो तुम्हें
किसी भी दूसरे
उपाय की जरूरत
नहीं है; तब
तुम उन्हीं
विधियों को
काम में लाओ
जिनके लिए
श्रद्धा
आवश्यक है।
लेकिन
प्रामाणिक
होना
बुनियादी बात
है। इस सारभूत
बात को सतत
स्मरण रखना
जरूरी है।
धोखा देना
आसान है; धोखा
देना अत्यंत
आसान है।
क्योंकि हम अनुकरण
करते हैं। तुम
रामकृष्ण का
अनुकरण कर
सकते हो—यह
जाने बिना कि
उनका ढंग
तुम्हारा ढंग
नहीं है। अगर
तुम नकल करते
हो तो तुम
नकली हो जाओगे।
तुम बुद्ध की
नकल कर सकते
हो।
यह
रोज ही होता
है;
क्योंकि
धर्म जन्म से
निश्चित होता
है। उसके कारण
बहुत मूढ़ता
चलती है। धर्म
जन्म से नहीं
तय होना चाहिए;
धर्म का
चुनाव किया
जाना चाहिए।
धर्म का मांस—मज्जा
और जन्म से
कुछ भी लेना—देना
नहीं है। कोई
जन्म से बौद्ध
है; लेकिन
वह भाव का
व्यक्ति हो
सकता है। मगर
उसे बुद्ध का
अनुगमन करना
होगा। और तब
उसका सारा
जीवन व्यर्थ
चला जाएगा। हो
सकता है कि
कोई व्यक्ति
बौद्धिक हो; लेकिन
मुसलमान या
किसी भक्ति—संप्रदाय
में जन्म होने
के कारण उसका
जीवन भी व्यर्थ
हो जाएगा, वह
झूठ हो जाएगा।
सारा
संसार
अधार्मिक है; क्योंकि
धर्म मूढ़तावश
जन्म से जुडा
है। दोनों में
कोई संबंध
नहीं है।
तुम्हें धर्म
का सचेतन चुनाव
करना होगा।
पहले तुम्हें
अपने ढंग—ढांचे
को समझना
पड़ेगा और तब
चुनाव करना
होगा। उस दिन
संसार अधिक
धार्मिक होगा
जिस दिन प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना धर्म, अपनी साधना,
अपना मार्ग
चुनने की
स्वतंत्रता
होगी।
लेकिन
धर्म
संगठनात्मक
बन गया है।
धर्म
राजनीतिक रूप
से संगठनात्मक
हो गया है।
यही कारण है
कि ज्यों ही
बच्चा जन्म
लेता है, हम उस
पर धर्म लाद
देते हैं। हम
उसे किसी न
किसी धर्म में
संस्कारित
करते हैं। मां—बाप
डरते हैं कि
कहीं उनका
बच्चा किसी
दूसरे संगठन
में न चला जाए,
इसलिए होश
आने के पहले
ही उस पर धर्म
लादकर उसे पंगु
बना देना, उसे
मिटा देना
जरूरी है।
इसके पहले कि
उसे बोध हो, वह चीजों के
बारे में सोचे—विचारे,
उसके चित्त
को संस्कारित
कर देना जरूरी
है। तब वह
स्वतंत्र
चिंतन नहीं कर
पाएगा। अगर
तुम्हें
संस्कारित कर
दिया जाए तो
तुम स्वतंत्र
रूप से सोच—विचार
नहीं कर सकते।
मैं
बर्ट्रेंड
रसेल को पढ़
रहा था।
उन्होंने एक
जगह कहा है कि
मैं बुद्धि के
तल पर मानता
हूं कि बुद्ध
जीसस से बड़े
थे;
लेकिन भीतर
हृदय में यह
स्वीकारना
असंभव लगता है।
वहां तो यही
लगता है कि
जीसस बुद्ध से
बड़े हैं। और
अगर मैं अपने
ऊपर दबाव
डालूं तो अधिक
से अधिक यही
मान सकता हूं
कि दोनों समान
थे। समझ के तल
पर मुझे महसूस
होता है कि
बुद्ध विराट
हैं और जीसस
उनके सामने
कुछ नहीं हैं।
ऐसा
क्यों लगता है? क्योंकि
बर्ट्रेंड
रसेल खुद
बुद्धवादी
हैं और इसलिए
बुद्ध उन्हें
प्रभावित
करते हैं, जीसस
नहीं। लेकिन
उनका मन
ईसाइयत में संस्कारित
हुआ है। यह
तुलना ठीक
नहीं है; क्योंकि
यह तुलना
अर्थहीन है।
यह सिर्फ
बर्ट्रेंड
रसेल के बाबत
खबर देती है, बुद्ध और
जीसस के बाबत
नहीं।
क्योंकि
तुलना संभव ही
नहीं है।
जो
व्यक्ति
भावुक है उसे
जीसस बुद्ध से
महान मालूम
पड़ेंगे।
लेकिन अगर वह
बौद्ध है, जन्मजात
बौद्ध है, तो
उसे अड़चन होगी।
अगर वह किसी
को भी बुद्ध
से बड़ा मानेगा
तो उसके मन को
बेचैनी होगी।
यह कठिन होगा,
करीब—करीब
असंभव होगा।
क्योंकि
तुम्हारे मन में
जो भी डाल
दिया जाता वह वहां
घर कर।
तुम्हारा
मन कंप्यूटर
जैसा है।
उसमें
सूचनाएं भर दी
गई हैं, मूल्यांकन
भर दिए गए हैं।
तुम कुछ मूढ़
धारणाओं से, परंपराओं से
बंधे हो; तुम
उन्हें आसानी
से नहीं हटा
सकते। यही
कारण है कि
धर्म महज शब्द
रह गया है।
बहुत थोड़े से
लोग धार्मिक
हो सकते हैं; क्योंकि
बहुत थोड़े से
लोग अपने
संस्कारों से बगावत
कर सकते हैं।
सिर्फ क्रांतिकारी
चित्त ही
धार्मिक हो
सकता है—ऐसा
चित्त जो किसी
चीज को सीधे
देख सके, उसकी
तथ्यता को देख
सके और तब
निर्णय करे।
लेकिन
अपने ढंग—ढांचे
को महसूस करो, उसे
समझो। यह कठिन
नहीं है। पहली
बात कि अगर
तुम आत अनुभव
करते हो तो
तुम बौद्धिक
ढंग के
व्यक्ति हो।
और अगर तुम
निश्चित
अनुभव करते हो,
श्रद्धावान
हो, तो
दूसरी
विधियों का
प्रयोग करो, जो बुनियाद
में श्रद्धा
की मांग करती
हो। और याद
रहे, कभी
भी दोनों तरह
की विधियों का
प्रयोग मत करो।
उससे तुम और
भी भ्रांत हो
जाओगे। कुछ भी
गलत नहीं है; दोनों तरह
की विधियां
सही हैं।
रामकृष्ण भी
सही हैं; बुद्ध
भी सही हैं।
स्मरण
रहे,
इस संसार
में अनेक
रास्ते सत्य
तक जाते हैं।
किसी एक मार्ग
को एकाधिकार
नहीं है। यहां
तक कि परस्पर
विरोधी मार्ग,
सर्वथा
विरोधी मार्ग
भी एक ही
मंजिल पर
पहुंचते हैं।
कोई एक मार्ग
नहीं है। अगर
तुम गहरे
जाओगे और
ज्ञान को उपलब्ध
करोगे तो
तुम्हें पता
चलेगा कि उतने
ही मार्ग हैं
जितने यात्री
हैं। क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति को उस
बिंदु से यात्रा
शुरू करनी है जहां
वह खड़ा है।
कहीं कोई बना—बनाया
मार्ग नहीं है।
असल में तुम
स्वयं चलकर
अपना मार्ग
निर्मित करते
हो। कहीं कोई
बना—बनाया
मार्ग नहीं है;
कहीं कोई
राजपथ नहीं है।
लेकिन
प्रत्येक
धर्म लोगों पर
इस धारणा को
लादने की
चेष्टा करता
है कि रास्ता
तैयार है; तुम्हें
सिर्फ चलने की
जरूरत है। यह
गलत बात है। आंतरिक
यात्रा जमीन
पर चलने की
बजाय आकाश में
उड़ने जैसी
ज्यादा है।
पक्षी उड़ता है;
आकाश में कहीं
पदचिह्न नहीं
छूटते। आकाश
शून्य का
शून्य बना
रहता है।
पक्षी उड़ता है;
लेकिन कोई
पदचिह्न नहीं
छूटते, जिनका
अनुसरण दूसरे
पक्षी कर सकें।
आकाश सदा
रिक्त है, खाली
है। दूसरे
पक्षी को अपना
मार्ग आप
बनाना होगा।
चेतना
आकाश की भांति
है,
जमीन की
भांति नहीं।
उस पर बुद्ध
यात्रा करते
हैं, महावीर,
मीरा और
मोहम्मद
यात्रा करते
हैं; तुम
उनकी
उपलब्धियां
देख सकते हो।
लेकिन उनकी
यात्रा का पथ
नहीं दिखाई
पड़ता है, उनके
चलने के साथ
ही पथ विलीन
हो जाता है।
तुम उनका
अनुगमन नहीं
कर सकते, तुम
उनका अनुकरण
नहीं कर सकते।
तुम्हें अपना
मार्ग आप
खोजना होगा।
तो
पहले अपने ढंग—ढांचे
पर विचार करो
और तब अपनी
साधना का
चुनाव करो। इन
एक सौ बारह
विधियों में
अनेक विधियां
बुद्धि—प्रधान
लोगों के लिए
हैं और अनेक
भाव—प्रधान
लोगों के लिए।
लेकिन यह मत
सोचो कि
क्योंकि मैं
मिश्रित ढंग
का व्यक्ति
हूं, इसलिए मुझे
दोनों तरह की
विधियों का
प्रयोग करना
है। उससे उलझन
बढ़ेगी और तुम खंड—खंड
हो जाओगे। तुम
विक्षिप्त हो
सकते हो, स्कीजोफ्रेनिया
के शिकार हो
सकते हो; टूट
जा सकते हो।
वैसा मत करो।
दूसरा
प्रश्न:
कल
आपने कहा कि मृत्यु
निश्चित है,
यह जानना है।
लेकिन यह तो
बुद्ध का
मार्ग मालूम
होता है। क्योंकि
बुद्ध जीवन—विरोधी
थे। लेकिन
तंत्र तो जीवन
को स्वीकार
करता है;
वह जीवन का
निषेध नहीं
करता। तो इस
मृत्यु—
दर्शन का उपयोग
तंत्र में
कैसे हो सकता
है?
बुद्ध
सच में जीवन—विरोधी
नहीं हैं; वे
ऐसे मालूम भर
पड़ते हैं। वे
जीवन—विरोधी
मालूम पड़ते
हैं; क्योंकि
वे मृत्यु पर
बहुत अधिक
ध्यान देते हैं।
हमें लगता है
कि बुद्ध
मृत्यु को
प्रेम करते हैं;
लेकिन ऐसी
बात नहीं है।
बल्कि इसके
विपरीत वे
जीवन को, शाश्वत
जीवन को प्रेम
करते हैं।
अमृत जीवन को
पाने के लिए
वे मृत्यु को
साधन बनाते
हैं। मृत्यु
से उन्हें
प्रेम नहीं है;
लेकिन
मृत्यु के
अतीत जो है
उसे पाने के
लिए वे मृत्यु
को माध्यम
बनाते हैं।
बुद्ध
कहते हैं कि
अगर मृत्यु के
पार कुछ नहीं
है तो जीवन
व्यर्थ है; लेकिन
तो ही व्यर्थ
है। वे यह कभी
नहीं कहते कि
जीवन व्यर्थ
है, वे यही
कहते हैं कि
अगर मृत्यु के
पार कुछ नहीं
है तो जीवन
व्यर्थ है। और
वे कहते हैं
कि तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
है, क्योंकि
तुम्हारा
जीवन मृत्यु
के पार नहीं जाता
है। तुम जिसे
जीवन समझते हो
वह मृत्यु का
हिस्सा भर है।
तुम उससे धोखे
में पड़ जाते
हो। तुम उसे
जीवन समझते हो
और वह मृत्यु
की ओर एक कदम
के सिवाय कुछ
नहीं है।
एक
बच्चा जन्म
लेता है; वह
मृत्यु की राह
का राही है।
वह जो भी हो
जाए, वह जो
भी प्राप्त कर
ले, लेकिन
कुछ भी उसे
मृत्यु के
मुंह में जाने
से नहीं बचा
सकेगा। यह
तथाकथित जीवन
मृत्यु की ओर
यात्रा है। इस
जीवन को जीवन
कैसे कहा जाए,
यह बुद्ध का
प्रश्न है। जो
जीवन मृत्यु
की ओर ले जाए, उसे हम जीवन
कैसे कह सकते
हैं?
जो
जीवन
अनिवार्यत:
मृत्यु में
समाप्त हो उसे
छिपी हुई
मृत्यु ही कहा
जा सकता है, जीवन
नहीं। वह
क्रमिक
मृत्यु है; धीरे— धीरे
तुम मर रहे हो।
लेकिन तुम
सोचते हो कि
मैं जी रहा
हूं। ठीक इसी
क्षण तुम
सोचते हो कि
मैं जी रहा
हूं लेकिन
यथार्थत: तुम
मर रहे हो।
प्रत्येक
क्षण तुम जीवन
गंवा रहे हो
और मृत्यु कमा
रहे हो। वृक्ष
को उसके फल से
पहचाना जाता
है। तो बुद्ध
कहते हैं कि
तुम्हारे
जीवन के वृक्ष
को जीवन कैसे
कहा जाए जब कि
मृत्यु उसका
फल है! वृक्ष
यदि फल से
जाना जाता है
और अगर तुम्हारे
जीवन—वृक्ष पर
सिर्फ मृत्यु
के फल लगते
हैं, तो
जाहिर है कि
वृक्ष ने
तुम्हें धोखा
दिया।
और
दूसरी बात कि
अगर कोई वृक्ष
एक विशेष फल
देता है तो
उससे जाहिर है
कि वह फल उस
वृक्ष का बीज
रहा होगा।
अन्यथा उस
वृक्ष से वह
फल कैसे पैदा
होता? तो अगर
जीवन से
मृत्यु का फल
पैदा होता हो
तो मानना होगा
कि मृत्यु बीज
में थी।
इसे
ऐसा समझो।
तुम्हारा
जन्म हुआ, और
तुम समझते हो
कि यह आरंभ है।
यह आरंभ नहीं
है। इस जन्म
के पूर्व तुम
पिछले जीवन
में मृत्यु को
प्राप्त हुए
थे। वह मृत्यु
इस जन्म का
बीज थी, और
फिर मृत्यु फल
बन जाएगी। और
फिर वह फल
दूसरे जन्म के
लिए बीज बनेगा।
जन्म मृत्यु
ले जाता है; और जन्म पहले
मृत्यु होती
है। तो अगर
तुम जीवन को
वैसा ही देखना
चाहते हो जैसा
वह है तो तुम पाओगे
कि उसके दोनों
छोरों पर
मृत्यु खड़ी है।
मृत्यु आरंभ
है और फिर
मृत्यु ही अंत
भी है, और
उनके बीच में
जीवन भ्रम भर
है। तुम दो
मृत्युओं के
बीच जीवित
अनुभव करते हो।
दो मृत्युओं
को जोड्ने
वाले रास्ते
को तुम जीवन
कहते हो।
बुद्ध
कहते हैं कि
यह जीवन जीवन
नहीं है, यह
जीवन दुख है, यह जीवन
मृत्यु है।
यही कारण है
कि बुद्ध हमें
जीवन—विरोधी
मालूम पड़ते
हैं। हम जीवन
से इतने सघन
रूप से
सम्मोहित हैं,
हम जीने के
लिए इतने आतुर
हैं कि बुद्ध
हमें जीवन—विरोधी
मालूम पड़ते
हैं। हम जिंदा
रहने को ही सब
कुछ मानते हैं।
हम मृत्यु से
इतने भयभीत
हैं कि बुद्ध
हमें मृत्यु
के प्रेम में
मालूम पड़ते हैं।
यह बात हमें
कुछ अजीब सी
लगती है।
बुद्ध
आत्मघाती
प्रतीत होते
हैं। और इसके
लिए अनेक
लोगों ने
बुद्ध की
आलोचना की है।
अल्वर्ट
श्वीत्जर ने
बुद्ध की
आलोचना की है,
क्योंकि वह
समझता है कि
बुद्ध मृत्यु
के प्रति
आग्रह से भरे
थे।
बुद्ध
मृत्यु के
प्रति आग्रह
से नहीं भरे
हैं;
हम जीवन के
प्रति बहुत
आग्रह से भरे
हैं। बुद्ध तो
सिर्फ चीजों
का विश्लेषण
करते हैं, तथ्य
का पता लगाते
हैं। और यदि
तुम भी गहरे
उतरोगे तो
पाओगे कि
बुद्ध सही हैं।
तुम्हारा
जीवन ढोंग है,
झूठ है, नकली
है। दिखावटी
है; भीतर
उसके मृत्यु
छिपी है।
बुद्ध का जोर
मृत्यु पर
इसलिए है कि
वे कहते हैं
कि अगर मैं
जान लूं कि
मृत्यु क्या
है तो मैं
जीवन को भी
जान लूंगा। और
अगर मैं जीवन
और मृत्यु
दोनों को जान
सकूं तो
संभावना है कि
मैं दोनों का
अतिक्रमण
करके उसे जान
लूं जो दोनों
के पार है, जीवन
और मृत्यु के
पार है। वे जीवन—विरोधी
नहीं हैं; लेकिन
ऐसे मालूम
पड़ते हैं।
तंत्र
जीवन—स्वीकार
का मार्ग
प्रतीत होता
है,
लेकिन वह भी
हमारी
व्याख्या है।
न बुद्ध जीवन—विरोधी
हैं, न
तंत्र जीवन—स्वीकार
पर खड़ा है।
दोनों का
स्रोत एक है।
बुद्ध मृत्यु
पर जोर देते
हैं, तंत्र
जीवन पर जोर
देता है। और
दोनों एक हैं।
तुम जहां से
चलना चाहो
वहां से चल
सकते हो।
लेकिन उसमें
इतने गहरे जाओ
कि दूसरे को
भी जान सको।
बुद्ध
अंत को देखते
हैं,
मृत्यु को;
तंत्र
प्रारंभ को
देखता है, जीवन
को। यही कारण
है कि बुद्ध
मृत्यु को
बहुत प्रेम करते
मालूम होते
हैं और तंत्र
सेक्स, प्रेम,
शरीर, जीवन
को प्रेम करता
मालूम पड़ता है।
अंत में
मृत्यु है और
आरंभ में
सेक्स है, काम
है। क्योंकि
तंत्र आरंभ पर
ध्यान देता है,
इसलिए काम
या सेक्स बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
तंत्र कहता है
कि सेक्स की
गहराई में
उतरो, प्रेम
के रहस्य को
जानो, आरंभ
में, बीज
में प्रवेश
करो, और
तुम उसका
अतिक्रमण कर
जाओगे, उसके
पार चले जाओगे।
बुद्ध मृत्यु
पर बल देते
हैं। वे कहते
हैं, मृत्यु
पर ध्यान करो,
उसमें गहरे
जाओ और उसके
सत्य को जान
लो।
काम
और मृत्यु एक
ही चीज के दो
छोर हैं। काम
मृत्यु है और
मृत्यु बहुत
कामुक है। यह
समझना कठिन
होगा। अनेक
कीड़े हैं जो
प्रथम संभोग
में ही मर
जाते हैं; पहले
संभोग में ही
उनकी मृत्यु
घट जाती है।
अफ्रीका में
मकोड़े की एक
जाति है
जिसमें नर संभोग
में ही समाप्त
हो जाता है; वह संभोग से
जीवित नहीं
लौटता। मादा
पर चढ़े—चढ़े ही
उसकी मृत्यु
हो जाती है।
पहला संभोग ही
मृत्यु बन
जाता है। और
यह बहुत भयानक
मृत्यु है, ठीक
वीर्यपात करते
हुए वह मरता
है। और जब वह
ठीक से मरा भी
नहीं है, मृत्यु—पीड़ा
से ही गुजर
रहा है, तभी
मादा उसे खाने
लगती है। और
जब संभोग पूरा
होता है, मादा
उसे आधा खा
चुकती है।
काम
और मृत्यु दोनों
परस्पर जुड़े
हैं। इसी कारण
मनुष्य काम से
इतना भयभीत है।
जो लोग ज्यादा
जीना चाहते
हैं,
जो लंबी
उम्र से मोहित
होते हैं, वे
सदा काम से
भयभीत रहेंगे,
जीवन काम से
बचेंगे। और जो
लोग अमर होना
चाहते हैं, ब्रह्मचर्य
उनका व्रत
होगा।
लेकिन
अब तक न कोई
अमर हुआ है और
न हो सकता है।
कारण यह है कि
तुम्हारा
जन्म ही
कामवासना से है।
अगर तुम्हारा
जन्म
ब्रह्मचर्य
से होता तो बात
दूसरी थी; तब
अमर होना संभव
होता। अगर
तुम्हारे मां—बाप
ब्रह्मचारी
होते तो ही
तुम अमर हो
सकते थे।
तुम्हारे
जन्म के साथ
ही काम प्रवेश
कर जाता है।
तुम काम में
उतरी या नहीं,
इससे फर्क
नहीं पड़ता है;
तुम मृत्यु
से नहीं बच
सकते।
तुम्हारा
होना ही, अस्तित्व
ही काम से
शुरू होता है;
और काम
मृत्यु का
आरंभ है।
इसी
वजह से ईसाई
कहते हैं कि
जीसस का जन्म
कुंवारी मां
से हुआ। केवल
यह बताने के
लिए कि जीसस
कोई मामूली
मनुष्य नहीं
थे,
मृण्मय
मनुष्य नहीं
थे, वे
कहते हैं कि
जीसस का जन्म
कुंवारी मां
से हुआ। यह
बताने के लिए
कि उन पर
मृत्यु का बस
नहीं है, यह
मिथक गढ़ा गया।
यह
एक बड़े मिथक
का हिस्सा है।
अगर जीसस का
जन्म काम से
हुआ होता तो
उन पर मृत्यु
का बल बना
रहता। तब वे
मृत्यु से नहीं
बच पाते; क्योंकि
काम के साथ ही
मृत्यु चली
आती है। इसलिए
ईसाई कहते हैं
कि वे काम—कृत्य
से नहीं पैदा
हुए वे काम की
उत्पत्ति ही
नहीं हैं। और चूंकि
वे कुंवारी
मां से पैदा
हुए थे, इसलिए
वे सूली के
बाद भी
पुनजावित हो
उठे।
उन्होंने
उन्हें सूली
तो दी, पर
वे उन्हें मार
नहीं सके। वे
जीवित रहे; क्योंकि वे
काम से पैदा
नहीं थे। वे
उन्हें नहीं
मार सके; कुंवारी
मां से पैदा
हुए जीसस का
मारना असंभव था।
मृत्यु ही
असंभव है। जब
आरंभ ही नहीं
है तो अंत
कैसे हो सकता
है? यदि वे
कुंवारी मां
से नहीं पैदा
हुए होते तो मृत्यु
निश्चित होती,
अनिवार्य
होती।
इसलिए
पूरा मिथक गढ़ना
पड़ता है। अगर
तुम कहते हो
कि जीसस
कुंवारी मां
से नहीं जन्मे
तो मिथक का
दूसरा हिस्सा—पुनर्जीवन—गलत
हो जाता है।
अगर तुम कहते
हो कि वे
पुर्नजीवत हो
गए,
कि
उन्होंने
मृत्यु को
झुठला दिया, व्यर्थ कर
दिया, कि
मृत्यु उन्हें
मार नहीं सकी,
कि वे
उन्हें सूली
नहीं दे सके, कि उन्हें
सूली देने
वाले धोखा खा
गए कि वे जीवित
रहे, तब
तुम्हें मिथक
के पहले भाग
को कायम रखना
होगा।
मैं
मिथक के पक्ष
या विपक्ष में
कुछ नहीं कह रहा
हूं;
मैं सिर्फ
यह कह रहा हूं
कि पूरे मिथक
को कायम रखना
है। कोई एक
हिस्सा अकेला
नहीं रह सकता।
अगर जन्म के
पहले काम है
तो मृत्यु भी वहां
होगी।
काम
और मृत्यु के
बीच इस गहरे
संबंध के कारण
अनेक बार अनेक
समाज काम से
भयभीत रहे हैं।
वह भय मृत्यु
का भय है। अगर
काम को तुम
स्वीकार भी कर
लो तो भी कुछ
भय बना रहता
है। काम—कृत्य
में उतरने में
भी यही भय है।
कोई भी अपने
को उसमें पूरी
तरह नहीं छू।
भय;
तुम पहरे पर
होते हो। तुम
संभोग में
समग्रता से
नहीं उतरते, तुम उसमें
अपने को पूरी
छूट नहीं देते;
क्योंकि
वैसा करना मृत्यु
जैसा है।
न
तंत्र
तुम्हारी
धारणा के जीवन
के पक्ष में है
और न बुद्ध
सच्चे जीवन के
विरोध में है।
तंत्र आरंभ से
आरंभ करता है; बुद्ध
अंत से आरंभ
करते है। और तंत्र
बुद्ध से ज्यादा
विज्ञान—सम्मत
है; क्योंकि
आरंभ से आरंभ
करना सदा शुभ
है। तुम जन्म
ले चुके हो और
मृत्यु अभी
बहुत दूर है।
जन्म घटित हो
चुका है; तुम
उस पर ज्यादा
गहराई से काम
कर सकते हो।
मृत्यु के आने
में देरी है; वह अभी
तुम्हारी
कल्पना में है,
यथार्थ
नहीं बनी है।
जब
तुम किसी को
मरते देखते हो
तो तुम मृत्यु
को नहीं देखते।
तुम इतना ही
देखते हो कि
कोई मर रहा है, लेकिन
मरने वाले के
भीतर मृत्यु
की जो असली प्रक्रिया
घटित हो रही
है उसे तुम
कभी नहीं
देखते। उसे
तुम देख भी
नहीं सकते; वह
प्रक्रिया
वैयक्तिक है,
अदृश्य है।
और मरने वाला
व्यक्ति भी
उसे नहीं देख
सकता है, क्योंकि
ज्यों ही वह
उस प्रक्रिया
में प्रवेश
करता है, वह
समाप्त हो
जाता है। वह
वहां से वापस
नहीं आ सकता—यह
बताने के लिए
कि क्या हुआ।
तो
मृत्यु के
बारे में जो
जानकारी है, वह
अनुमान भर है।
मृत्यु के
बारे में कोई
भी यथार्थत:
नहीं जानता है।
जब तक तुम
अपने पूर्व—जन्मों
को न जान लो, न याद कर लो, तब तक तुम
मृत्यु के
संबंध में कुछ
भी नहीं जान
सकते। तुम
अनेक बार मर
चुके हो। यही
कारण है कि
बुद्ध को जाति—स्मरण
के, पूर्व—जन्मों
की स्मृति को
जगाने के अनेक
उपाय खोजने
पड़े।
इस
जन्म में
तुम्हारी
मृत्यु अभी
बहुत दूर है, तुम
उस पर अपने को
एकाग्र कैसे
करोगे? तुम
आने वाली
मृत्यु का
ध्यान कैसे
करोगे? वह
अभी नहीं आयी
है, वह
अज्ञात है, अस्पष्ट है,
शामिल है।
तो तुम क्या
कर सकते हो? तुम उसके
बारे में सोच—विचार
कर सकते हो।
लेकिन वह उधार
होगा; तुम
दूसरे के
विचार
दोहराओगे।
किसी ने
मृत्यु के
संबंध में कुछ
कहा है, तुम
उसे दोहरा
दोगे। तुम
मृत्यु पर
ध्यान कैसे कर
सकते हो?
तुम
दूसरों को
मरते देख सकते
हो,
लेकिन वह
मृत्यु में
प्रवेश नहीं
हो सकता। तुम
तो बाहर ही रह
जाते हो। यह
ऐसा ही है
जैसे कोई
मिठाई खा रहा
है और तुम देखते
हो। लेकिन तुम
यह कैसे महसूस
करोगे कि उसे
क्या अनुभव हो
रहा है, क्या
स्वाद, क्या
मिठास, क्या
सुगंध मिल रही
है। उसके भीतर
क्या घटित हो
रहा है, यह
तुम नहीं जान
सकते। तुम
उसका मुंह देख
सकते हो, उसका
क्रिया—कलाप
देख सकते हो।
तुम उसके
चेहरे की
अभिव्यक्ति
देख सकते हो।
लेकिन वह सब
अनुमान होगा,
अनुभव नहीं।
जब तक वह कुछ
कहे नहीं तुम
नहीं जान सकते
कि उसे क्या
हो रहा है। और
अगर वह कुछ
कहेगा भी तो
वह बात ही
होगी, अनुभव
नहीं।
बुद्ध
ने अपनी पिछली
मृत्युओं की
बात कही; लेकिन
किसी ने
विश्वास नहीं
किया। मैं भी
अगर अपनी
पिछली
मृत्युओं की
बात बताऊं तो
गहरे में
तुम्हें उस पर
भरोसा नहीं
आएगा। कैसे
भरोसा आएगा? उसके यथार्थ
तक तुम्हारी
पहुंच नहीं है।
जन्म के पहले
की तुम्हें
स्मृति नहीं
है और इस जीवन
की मृत्यु अभी
आयी नहीं है।
यह सदा दूसरों
को घटती है; तुम्हारी तो
अभी तक हुई
नहीं है।
मृत्यु
पर ध्यान करना
कठिन है।
इसलिए उसकी
भूमिका बनाने
के लिए
तुम्हें अपने पूर्व—जन्मों
में प्रवेश
करना होगा, पुरानी
स्मृतियों को
जगाना होगा।
बुद्ध और
महावीर, दोनों
ने। जाति—स्मरण
की विधि का
प्रयोग किया
था। तभी तुम
मृत्यु पर
ध्यान कर सकते
हो।
तंत्र
अधिक विज्ञान—सम्मत
है। वह जीवन
से शुरू करता
है,
जन्म और काम
से शुरू करता
है। जन्म और
काम तुम्हारे
तथ्य हैं।
मृत्यु अभी
कल्पना है।
लेकिन स्मरण
रहे, दोनों
का अंत एक ही
है। दोनों
शाश्वत जीवन
की खोज करते
हैं—अमृत जीवन
की खोज। चाहे
आरंभ से
अतिक्रमण करो
या अंत से, चाहे
एक ध्रुव से
चलो या दूसरे
से, लेकिन
स्मरण रहे, किसी ध्रुव
से ही तुम
छलांग लगा
सकते हो। बीच
से छलांग संभव
नहीं है। अगर
मैं इस कमरे
से बाहर छलांग
लगाना चाहूं तो
मुझे इसके एक
न एक छोर पर
सरक जाना होगा।
मैं कमरे के
बीच से छलांग
नहीं लगा सकता;
छलांग
लगाने के लिए
छोर अनिवार्य
है।
और
जीवन में दो
छोर हैं, दो
ध्रुव हैं—जन्म
और मृत्यु।
तंत्र जन्म से
शुरू करता है।
यह ज्यादा
वैज्ञानिक है,
ज्यादा
यथार्थ है।
तुम उसके साथ
हो; उस पर
ध्यान करना
आसान होगा।
काम भी तथ्य
है, उस पर
भी ध्यान कर
सकते हो; उसमें
गहरे उतर सकते
हो। मृत्यु
तथ्य नहीं है।
मृत्यु की
धारणा बनाने
के लिए बहुत
प्रगाढ़ मेधा
की जरूरत है; भविष्य में
प्रवेश करने
के लिए बहुत
तीव्र
प्रतिभा चाहिए।
कभी—कभार कोई
बुद्ध मृत्यु
की ऐसी गहरी
धारणा कर सकता
है कि उसके
लिए भविष्य
वर्तमान हो
जाए। लेकिन
ऐसे लोग
दुर्लभ हैं।
तंत्र का
उपयोग कोई भी
व्यक्ति कर
सकता है जो सच्चे
जीवन को जानने
के लिए खोज
में उतरने को उत्सुक
हो।
तंत्र
भी मृत्यु का
उपयोग करता है।
वह
अंतर्यात्रा
में जाने के
लिए मृत्यु का
उपयोग करता है।
तंत्र मृत्यु
का उपयोग उस
पर ध्यान करने
के लिए नहीं, उससे
छलांग लगाने
के लिए नहीं, बल्कि
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर उतारने
के लिए करता
है। और बुद्ध
ने भी जन्म की
बात की; लेकिन
वे जन्म को
मृत्यु के
ध्यान का
हिस्सा बनाना
चाहते थे।
दूसरा
हिस्सा सदा
सहायक के रूप
में उपयोग में
लाया जा सकता
है,
लेकिन वह
केंद्रीय
नहीं हो सकता
है। तंत्र
कहता है कि
तुम अगर
मृत्यु की सोच
सको तो
तुम्हारे
जीवन का और ही
रूप होगा, उसमें
और ही अर्थवत्ता
होगी।
तुम्हारा मन
नए आयामों में
सोचना शुरू
करेगा।
मृत्यु की
धारणा के बिना
यह कठिन होगा,
असंभव होगा।
जब तुम समझने
लगोगे कि इस
जीवन का अंत
मृत्यु में
होना है, मृत्यु
निश्चित है, जीवन का मोह
व्यर्थ है, तब मन अपने
आप ही मृत्यु
के पार गति
करने लगता है।
कल
मैं यही कह
रहा था। अगर
तुम इस जीवन
की ही सोचते
रहे तो
तुम्हारा मन
बाहर ही बाहर
यात्रा करेगा, तब
वह विषयों के
लिए बाहर ही
बाहर गति करता
रहेगा। और अगर
तुम यह भी
देखने लगे कि
मृत्यु सब के
भीतर छिपी है
तो तुम विषयों
से नहीं लगे
रह सकते। तब
तुम्हारा मन
भीतर की यात्रा
पर निकल आएगा।
अभी
उस दिन एक
युवती मेरे
पास आई। वह
भारतीय है और
एक अमेरिकी
लड़के के प्रेम
में पड़ गई है।
प्रेम होने के
बाद दोनों
विवाह करने की
सोचने लगे।
तभी लड़का
बीमार पड़ा और
पता चला कि
उसे ऐसा कैंसर
है जिसका कोई
इलाज नहीं है।
मृत्यु
निश्चित थी।
वह ज्यादा से
ज्यादा दो—चार
साल का मेहमान
था। तो लड़के
ने लड़की को
बहुत समझाया
कि जब मृत्यु निश्चित
है तो वह अपना
जीवन नष्ट न
करे,
विवाह का
विचार छोड़ दे।
लेकिन लड़के ने
मनाने की
जितनी कोशिश
की—यह है मन का
ढंग—उतनी ही
लड़की विवाह
करने पर तुल
गई।
ऐसे
मन विरोधों
में काम करता
है। अगर उस
लड़के की जगह
मैं होता तो
मैं विवाह करने
की जिद करता।
तब वह लड़की विवाह
से भागती; तब
वह विवाह असंभव
था। तब वह
लड़की मुझे
कहीं नहीं
दिखाई देती।
लेकिन प्रेम
के कारण, और
साथ ही मन की
चालों को न
समझने की
मूर्खता के
कारण, लड़के
ने लड़की को
विवाह के
विरुद्ध बहुत
समझाया। कोई
भी व्यक्ति
उसकी जगह होता
तो वही करता।
और क्योंकि
उसने जिद की
तो लड़की ने
इसको अंतःकरण
की बात मान ली;
उसने विवाह
करने की जिद
ठानी।
आखिरकार
उनका विवाह हो
गया। अब विवाह
के बाद वह
लड़की सतत
मृत्यु से
घिरी रहती है।
वह दुखी है, वह
उस लड़के को
प्रेम नहीं कर
सकती। किसी के
लिए मरना आसान
है; किसी
के लिए जीना
बहुत कठिन है।
मरना बहुत
आसान है। शहीद
होना बड़ी सरल
बात है; क्योंकि
यह क्षणभर की
बात है, इसलिए
शहीद होना
बहुत सरल है।
एक क्षण में
तुम शहीद हो
जा सकते हो।
अगर तुम मुझे
प्रेम करते हो
और मैं तुमसे
कहूं कि इस
मकान से कूद
जाओ तो तुम
कूद जा सकते
हो, क्योंकि
तुम मुझे
प्रेम करते हो।
लेकिन अगर मैं
कहूं कि ठीक
है, अब तीस
वर्षों तक ' मेरे साथ
रहो तो वह
बहुत कठिन
होगा। बहुत
कठिन।
एक
क्षण में शहीद
हुआ जा सकता
है। किसी
व्यक्ति या
चीज के लिए मर
जाना संसार
में सबसे सरल
काम है; लेकिन
किसी के लिए
जीना
सर्वाधिक
कठिन है। वह
शहीद बन गई; लेकिन अब
उसे मृत्यु के
साथ रहना है।
वह प्रेम भी
नहीं कर सकती,
वह अपने पति
का मुंह भी
नहीं देख सकती,
क्योंकि
देखते ही उसे
लगता है कि
कहीं बगल में
मृत्यु खड़ी है।
किसी भी क्षण
मृत्यु घट
सकती है। तो
वह लड़की सतत
संताप में है।
हुआ
क्या? मृत्यु
निश्चित है, अब उसके लिए
जीवन में कोई
रस न रहा। सब
कुछ खत्म हो
गया; सब
कुछ मर गया।
अमेरिका से
चलकर वह लड़की
मुझे मिलने
आयी। वह ध्यान
करना चाहती है;
क्योंकि
जीवन व्यर्थ
हो गया। उसके
लिए जीवन
कैंसर का
पर्याय बन गया
है। वह मुझसे
कहने लगी कि
मुझे ध्यान
सिखाएं कि मैं
जीवन के पार
जा सकूं। जब
तक जीवन
व्यर्थ नहीं
होता तब तक
तुम उसके पार
जाने की नहीं
सोचते।
मैंने
उस लड़की से
कहा कि ऊपर से
देखने पर तो
तुम्हारा विवाह
दुर्भाग्यपूर्ण
मालूम देता है, लेकिन
वह सौभाग्यपूर्ण
भी बन सकता है।
हर किसी का
पति मरने वाला
है, लेकिन
वह निश्चित
नहीं है।
मृत्यु तो
निश्चित है, लेकिन तारीख
निश्चित नहीं
है। और कौन
जानता है, तारीख
भी निश्चित
हो! तुम्हें
पता भर नहीं
है।
यही
कारण है कि
अज्ञान बड़ा
वरदान है। यदि
वे अभी अज्ञान
में होते तो
संभव है कि
लड़की लड़के को
प्रेम करती
रहती। देखने
पर कुछ भी गलत
नहीं मालूम
पड़ता है।
लेकिन अब
प्रेम असंभव
हो गया है।
जीवन ही असंभव
हो गया है, मृत्यु
खड़ी है; दोनों
के बीच निरंतर
मृत्यु खड़ी है।
मैंने
उस लड़की से
कहा कि अब तो
तुम्हें उस
लड़के को और
अधिक प्रेम
करना चाहिए; क्योंकि
वह मरने जा
रहा है। उसे
अधिक प्रेम
करो।
लड़की
ने कहा कि यह
नहीं हो सकता; क्योंकि
अब स्यात खो
गया। अब हम
तीन हैं; मैं
हूं मेरा पति
है और हम
दोनों के बीच
मृत्यु खड़ी है।
एकांत नहीं
बचा। मृत्यु
बहुत ज्यादा
उपस्थित है, उसके साथ
जीना असंभव है।
लेकिन
मृत्यु मोड़ बन
सकती है।
तंत्र कहता है
कि अगर तुम
मृत्यु के
प्रति सजग हो सको
तो उसे
अंतर्यात्रा
के लिए उपयोग
में लाया जा
सकता है।
मृत्यु के
विस्तार में
नहीं जाना है; मृत्यु
का चिंतन—मनन
नहीं करना है।
मृत्यु को
ग्रस्तता मत
बनाओ। महज यह
बोध कि मृत्यु
है, तुम्हें
भीतर ले जाने
में, ध्यानपूर्ण
बनाने में
सहयोगी होगा।
तीसरा
प्रश्न :
सिर्फ
शरीर को मृतवत
अवस्था में ले
जाने से मन का
अतिक्रमण और
रूपांतरण
कैसे संभव है ?
मन सदा
सक्रिय है।
लेकिन सक्रिय
रहते हुए
ध्यान असंभव
है। ध्यान का
अर्थ है, गहन निष्क्रियता।
तुम अपने को
तभी जान सकते
हो जब सब कुछ
अचल, शांत
और मौन हो
जाता है। उस
मौन में ही
तुम अपना
साक्षात्कार
कर सकते हो।
सक्रियता
में,
जब तुम किसी
न किसी चीज
में व्यस्त हो,
तुम्हें
अपनी
उपस्थिति का
एहसास नहीं हो
सकता; तुम
अपना विस्मरण
किए रहते हो।
तुम सतत किसी
न किसी बात
में उलझे रहकर
अपने को भूले
रहते हो।
सक्रियता का
अर्थ है, अपने
से बाहर किसी
चीज से
संबंधित होना।
तुम जब सक्रिय
होते हो तो
तुम अपने से
बाहर किसी चीज
से संबंधित
होते हो। कर्म
बाहर होता है।
निष्क्रियता
का अर्थ है कि
तुम घर लौट आए;
अब तुम कुछ
कर नहीं रहे।
यूनानी
भाषा में लेजर
को,
फुरसत के
समय को 'स्कोल'
कहते हैं; अंगरेजी का
स्कूल शब्द भी
इसी स्कोल
शब्द से बना
है। स्कूल
यानी पाठशाला
का अर्थ लेजर
होता है। तुम
तभी कुछ सीख
सकते हो जब
तुम लेजर में
होते हो, फुरसत
में होते हो।
अगर तुम
व्यस्त हो, यह—वह कर रहे
हो, तो
सीखना नहीं हो
सकता है।
इसलिए
विद्यालय
सुविधा—संपन्न
वर्ग के लिए
था। जिन्हें
सुविधा थी
उनके बच्चे ही
स्कूल जाते थे,
विद्यालय
जाते थे।
उन्हें सीखने
के अतिरिक्त
कुछ नहीं करना
है। जहां तक
संसार का
संबंध था, उन्हें
पूरी छुट्टी
मिली थी, सांसारिक
झंझटों से वे
मुक्त थे। तभी
वे कुछ सीख
सकते थे।
वही
बात अपने
संबंध में
सीखने के लिए
लागू होती है।
तुम्हें पूरी
तरह निष्क्रिय, सभी
तरह निष्क्रिय
होना पड़ेगा।
तुम्हें
सिर्फ होना है;
कुछ करना
नहीं है। सभी
लहरें शांत हो
जानी चाहिए
सभी काम—काज
विदा हो जाने
चाहिए। तुम हो,
सिर्फ तुम
हो। उस क्षण
में ही तुम
पहली बार अपनी
प्रेजेंस के
प्रति, अपने
होने के प्रति
बोध से भरते
हो। क्यों?
क्योंकि
यह उपस्थिति
ही इतनी
सूक्ष्म है।
ऐसी सूक्ष्म
उपस्थिति के
प्रति स्थूल
विषयों से
घिरे रहकर, स्थूल
काम—काज में
व्यस्त रहकर
तुम बोधपूर्ण
नहीं हो सकते।
तुम्हारी
उपस्थिति
बहुत ही मौन
संगीत है; और
तुम इतने
शोरगुल से भरे
हो, हर तरह
के शोरगुल से
भरे हो, कि
तुम अंतस की
इस मौन, सूक्ष्म
ध्वनि को नहीं
सुन सकते।
तो
बाहर के
शोरगुल और
सक्रियता से
मुक्त होओ।
तभी तुम पहली
बार उस मौन, शांत
नाद को सुन
सकोगे; तभी
तुम उस अनाहत
नाद को, उस
निशब्द संगीत
को महसूस कर सकोगे।
तब तुम स्थूल
को छोड़कर
सूक्ष्म में
प्रवेश करते
हो। सक्रियता
स्थूल है; निष्क्रियता
सूक्ष्म है।
और तुम्हारी
उपस्थिति, तुम्हारा
होना जगत में
सूक्ष्मतम
चीज है। उसकी
प्रतीति के लिए
तुम्हें नहीं
हो जाना होगा,
तुम्हें सब
जगह से
अनुपस्थित हो
जाना होगा।
तभी तुम्हारी समग्र
उपस्थिति घटित
होगी और तुम
अपना
साक्षात्कार
कर सकोगे।
यही
कारण है कि
अनेक विधियों
में शरीर को
मृतवत करने के
लिए कहा गया
है। इसका इतना
ही अर्थ है कि
मृत व्यक्ति
की तरह निष्क्रिय
हो जाओ। ध्यान
करते समय शरीर
को मृत्यु में
प्रवेश करने
दो। यह कल्पना
ही होगी; लेकिन
कल्पना भी
सहयोगी होगी।
यह मत पूछो कि
कल्पना कैसे
सहयोगी हो
सकती है।
कल्पना का
अपना ही काम
करने का ढंग
है।
अब
तो वैज्ञानिक
प्रयोग
उपलब्ध हैं।
उदाहरण के लिए, तुम
बैठे हो और एक
डाक्टर
तुम्हारी
नाड़ी देख रहा
है। तुम अपने
भीतर क्रोध
पैदा करो।
सिर्फ कल्पना
करो कि तुम
क्रोध में हो,
लड़ रहे हो।
और तुम्हारी
नाड़ी की गति
तुरंत बढ़
जाएगी। फिर
दूसरा प्रयोग
करो। भीतर
कल्पना करो कि
तुम मर रहे हो,
तुम अभी मरने
जा रहे हो। शांत
हो जाओ और भाव
करो कि तुम पर
मृत्यु उतर
रही है। और
तुम्हारी
नाड़ी की गति
कम हो जाएगी।
नाडी की गति
सर्वथा
शारीरिक बात
है और तुम महज
कल्पना कर रहे
थे। लेकिन
कल्पना
बिलकुल झूठ ही
नहीं है, उसकी
अपनी सच्चाई
है। अगर तुम
सच में कल्पना
कर सको, भाव
कर सको, तो
सच्ची मृत्यु
भी घटित हो
सकती है। भाव
से भौतिक
चीजें भी
प्रभावित की
जा सकती हैं।
तुमने
सम्मोहन के
खेल देखे
होंगे। अगर
तुमने नहीं
देखे हैं तो
तुम खुद अपने
घर में ही
उसका प्रयोग
कर सकते हो।
वह कठिन नहीं
है,
आसान है।
अपने बच्चे को
माध्यम बनाओ।
लड़की हो तो और
अच्छा। लड़की
लड़के से बेहतर
माध्यम होती
है। लड़का अधिक
संदेहशील
होता है और वह
सहयोग देने की
बजाय संघर्ष
में ज्यादा
उत्सुक रहता
है। लड़के का
अर्थ ही है
संघर्ष की
वृत्ति।
सहयोग जरूरी
है।
बच्चे
को पहले शिथिल
होने को कहो
और तब उसे यह सुझाव
बार—बार दो. 'तुम
गहरी निद्रा
में उतर रहे
हो; तुम
गहरी निद्रा
में उतर रहे
हो; और
तुम्हारी
पलकें भारी से
भारी हो रही
हैं..।’ और
ध्यान रहे कि
सुझाव थोड़ा
मोनोटोनस हो,
थोड़ी
विरसता हो। जब
कहो कि 'पलकें
भारी से भारी
हो रही हैं' तो ऐसे कहो
जैसे कि
तुम्हें भी
नींद आ रही है।
पांच मिनट के
अंदर बच्चा
गहरी नींद में
चला जाएगा।
यह
सामान्य नींद
नहीं है, यह
सम्मोहनजनित
नींद है, बेहोशी
है। यह
सामान्य नींद
से बुनियादी
रूप से, गुणात्मक
रूप से भिन्न
है। क्योंकि
अब बच्चा
सिर्फ
तुम्हारी
आवाज सुनेगा
और किसी की
आवाज उसे नहीं
सुनाई पड़ेगी।
वह औरों की
बातचीत के
प्रति बिलकुल
बहरा हो जाएगा;
लेकिन वह
तुम्हारी बात,
सम्मोहन
करने वाले की
बात बखूबी
सुनेगा। और वह
तुम्हारी बात
पर चलेगा भी।
अब
कुछ प्रयोग
करो। बच्चे को
कहो. 'यह जलता
अंगारा
तुम्हारी
हथेली पर रख
रहा हूं; इससे
तुम्हारा हाथ
जल जाएगा।’ और तब बच्चे के
हाथ पर कोई भी
चीज रख दो, एक
ठंडा कंकड़ ही
उठाकर रख दो।
लड़का तुरंत
कंकड को फेंक
देगा; क्योंकि
उसके मन को यह
सुझाव मिल गया
है कि अंगारा
उसके हाथ पर
है और इससे
उसका हाथ जलने
वाला है। वह
कंकड़ को फेंक
देगा और ऐसे
चीखेगा मानो
वह किसी जलती
चीज से छू गया
हो।
लेकिन
उससे भी बड़ा
चमत्कार तो यह
होगा कि तुम देखोगे
कि उसका हाथ
सचमुच जल गया
है,
कि उसकी
हथेली पर
फफोले उग आए
हैं। क्या हुआ?
ठंडे कंकड़
से जलने की कोई
संभावना नहीं
थी; लेकिन
बच्चे की
हथेली ठीक उसी
तरह जल गई है
जिस तरह वह अंगारे
से जलती।
यह
कल्पना की
करामात है।
जिन्होंने
मनुष्य के मन
को गहराई में
देखा है वे
कहते हैं कि
कल्पना वैसी
ही सच है जैसी
कोई भी चीज।
कल्पना महज
कल्पना नहीं
है;
क्योंकि वह
यथार्थ बन
जाती है।
तो
यह प्रयोग करो।
जमीन पर लेट
जाओ और भाव
करो कि मैं मर
रहा हूं मेरा
शरीर मृतवत हो
रहा है। धीरे—
धीरे तुम्हें
शरीर में एक
भारीपन महसूस
होगा; सारा
शरीर बोझिल हो
जाएगा। तब
अपने को यह
सुझाव दो कि
अगर मैं अपना
हाथ उठाना
चाहूं तो वह
उठने वाला
नहीं है। और
तब तुम कोशिश
करके भी अपने
हाथ को उसकी
जगह से नहीं
हटा पाओगे। अब
भाव काम करने
लगा है।
इस
स्थिति में, जब
तुम्हारा
शरीर मृतवत हो
जाए, तुम
अपने को कर्म
के जगत से
आसानी से अलग
कर सकते हो।
यही कारण है
कि मृतवत होने
को कहा जाता
है। तुम अब निष्क्रिय
हो सकते हो; क्योंकि तुम
मर गए हो। अब
तुम समझते हो
कि सब कुछ मर
गया है और तुम्हारे
और संसार के
बीच का सेतु
टूट गया है।
शरीर वह सेतु
है। जब शरीर
ही मर गया तो
तुम कुछ नहीं
कर सकते। क्या
तुम शरीर के
बिना कुछ कर
सकते हो? कुछ
नहीं कर सकते।
सब कर्म शरीर
से ही होता है।
मन सोच—विचार
कर सकता है और
कुछ नहीं कर
सकता। शरीर के
मृतवत होते ही
तुम निर्बल हो
गए; अब तुम
कुछ भी नहीं
कर सकते। तुम
भीतर चले गए; संसार बाहर
पड़ा रह गया, वाहन ही न
रहा, सेतु
टूट गया।
इस
हालत में
तुम्हारी
ऊर्जा भीतर की
ओर बहने लगेगी, क्योंकि
उसके बाहर
जाने का उपाय
न रहा। बाहर
का मार्ग
अवरुद्ध हो
गया, बंद
हो गया। इसलिए
अब भीतर सरक
जाओ। भीतर
जाकर तुम अपने
को हृदय—केंद्र
पर खड़ा पाओगे।
अब तुम भीतर
से अपने पूरे
शरीर को
विस्तार से देखो।
और जब तुम
पहली बार अपने
ही शरीर को
भीतर से देखोगे
तो तुम्हें
अजीब—अजीब
अनुभव होंगे।
तंत्र, योग,
आयुर्वेद, जो भी
प्राचीन शरीर—विज्ञान
हैं, उनके
बड़े से बड़े
सिद्धात ऐसी
ही आंतरिक
ध्यान—विधियों
के जरिए
उपलब्ध हुए थे।
आधुनिक शरीर—विज्ञान
चीर—फाड़ के
जरिए जाना गया
है; लेकिन
प्राचीन शरीर—विज्ञान
ध्यान के जरिए
जाना गया था।
अब तो
चिकित्सा—जगत
में ऐसे
विचारकों का
समूह आगे आ
रहा है जो कहता
है कि जब तुम
किसी शरीर को
चीर—फाड़कर कुछ
जानते हो तो
वह जानना मृत
शरीर के बाबत
खबर देता है।
और जो भी मृत
शरीर से जाना
जाता है वह
जीवित शरीर के
लिए
प्रासंगिक
नहीं हो सकता।
और
ये विचारक सही
हो सकते हैं।
अगर तुम मेरा
खून निकाल लो
और उसकी जांच
करो तो तुम
मरे हुए खून
की जांच करोगे।
यह वही खून
नहीं रहा जो
मेरे भीतर
प्रवाहित था।
ऊपरी तौर से
तो यह वही है; लेकिन
यह यथार्थत:
वही नहीं है।
मेरे भीतर वह
जीवंत प्रवाह
था, वह
जीवित था, जैविक
इकाई का अंग
था; बाहर
आते ही वह मृत
हो गया।
यह
ऐसा ही है कि
तुम पहले मेरी
आंखें निकाल
लो और तब उनकी
जांच करो। जब वे
आंखें मेरे
साथ थीं, तब
मैं उनके पीछे
था, मैं
उनमें था; अब
वे मृत पत्थर
हैं। और तुम उनके
संबंध में जो
भी जानोगे
मेरी आंखों की
बाबत नहीं
जानोगे।
क्योंकि उनका
बुनियादी अंश,
सारभूत अंश
उनमें नहीं
रहा—मैं उनमें
नहीं रहा। वे आंखें
एक बड़े पूर्ण
का अंग भर थीं।
उनकी गुणवत्ता
ही बड़े पूर्ण
का अंग होने में
थी। अब वे अलग है, किसी का अंग नहीं
हैं। संबंध
टूट गया है; जीवंत
संपर्क टूट
गया है।
योग
और तंत्र की
सब परंपराएं
कहती हैं कि
जब तक तुम
जीवित शरीर को
नहीं जानते तब
तक तुम्हारा
ज्ञान झूठा है।
लेकिन जीवित
शरीर को कैसे
जाना जाए? उसका
एक ही उपाय है
कि तुम अपने
भीतर प्रवेश करो
और वहां से
शरीर को
विस्तार से
देखो। इन
विधियों के
जरिए एक भिन्न
जगत का, एक
जीवंत जगत का
उदघाटन हुआ है।
तो
पहली बात है
कि अपने हृदय
में स्थित होओ, वहां
से अपने शरीर
को सब तरफ से
देखो। इससे दो
चीजें घटित
होंगी। एक, अब तुम्हें
यह नहीं लगेगा
कि मैं शरीर
हूं। अब
तुम्हें
अनुभव होगा कि
मैं द्रष्टा
हूं सजग हूं
देखने वाला
हूं। अब तुम
दृश्य न रहे।
पहली बार
तुम्हारा
शरीर आवरण बन
जाएगा और तुम
उससे पृथक हो
जाओगे। और
दूसरी चीज यह
होगी कि तुम
तुरंत जानोगे
कि मैं मर
नहीं सकता।
यह
अजीब लगेगा कि
एक काल्पनिक
विधि के
प्रयोग से, मृत्यु
की कल्पना की
विधि के
प्रयोग से, कोई अमृत
बिंदु को
पहुंच जाए, कोई अचानक
यह जान जाए कि
मैं नहीं मर
सकता।
तुमने
औरों को मरते
देखा है।
उन्हें क्या
हुआ?
उनके शरीर
मृत हो गए और
उससे ही तुमने
अनुमान लगाया
कि वे मर गए।
लेकिन अब तुम
देख सकते हो
कि पूरा शरीर
मृत पड़ा है और
तुम जीवित हो।
शरीर की
मृत्यु
तुम्हारी
मृत्यु नहीं
है। शरीर मर
जाता है और
तुम आगे बढ़
जाते हो। और
अगर तुम इस
विधि का सतत
प्रयोग करते
रहे तो वह समय
दूर नहीं है
जब तुम अपने
शरीर से बाहर
आकर और बाहर
खड़े रहकर देख
सकते हो कि
तुम्हारा
शरीर
तुम्हारे
सामने मृत पड़ा
है। यह बहुत
कठिन नहीं है।
और
एक बार
तुम्हें इसका
अनुभव हो जाए
तो तुम फिर
वही आदमी नहीं
रहोगे।
तुम्हारा
दोबारा जन्म
हो जाएगा, तुम
द्विज हो
जाओगे। अब एक
नया जीवन शुरू
होता है।
कल
मैं तुम्हें
बता रहा था कि
एक ज्योतिषी
ने मेरी जन्मकुंडली
तैयार करने का
वादा किया था।
कुंडली तैयार
करने के पूर्व
ही वे चल बसे
और उनके बेटे
को यह काम
पूरा करना पड़ा।
वह भी भारी
अचंभे में पड
गया। उसने कहा
कि यह करीब—करीब
निश्चित है कि
यह लड़का
इक्कीस वर्ष
की उम्र में
मर जाएगा। हर
सातवें वर्ष
पर उसे मृत्यु—योग
है।
.
इससे मेरे
मां—बाप, मेरे
परिवार के लोग
बहुत चिंतित
हो उठे। जब भी
सातवां वर्ष
आता, वे
घबराने लगते।
और ज्योतिषी
सही था। सात
वर्ष की उम्र
का होकर मैं
मरा तो नहीं; लेकिन मुझे
मृत्यु का
गहरा अनुभव
हुआ। यह अपनी
मृत्यु का
नहीं, अपने
नाना की
मृत्यु का
अनुभव था। और
मेरा उनसे
इतना लगाव था
कि मुझे उनकी
मृत्यु अपनी
मृत्यु मालूम
पड़ी। मैंने
अपने छुटपन के
ढंग से उनकी
मृत्यु का अनुकरण
करना चाहा।
लगातार तीन
दिनों तक
मैंने न भोजन
लिया और न पानी,
क्योंकि
मुझे लगा कि
मैं उन्हें
इतना प्रेम
करता था कि
अगर ऐसा नहीं
किया तो वह
उनके प्रति
विश्वासघात
होगा।
मैं
उन्हें इतना
प्रेम करता था, वे
मुझे इतना
प्रेम करते थे
कि मुझे कभी
अपने माता—पिता
के पास नहीं
जाने दिया गया;
मैं नाना के
घर ही रहता था।
उन्होंने कहा
था कि जब मैं
मर जाऊं तभी
तुम जा सकते
हो। उनका गांव
बहुत छोटा था,
इसलिए मुझे
स्कूल जाने का
मौका भी नहीं मिला।
वहां स्कूल ही
नहीं था। वे
मुझे छोड़ते ही
नहीं थे।
लेकिन समय आया
और वे चल बसे।
वे मेरे जीवन
के अंग हो गए
थे; मैं
उनके प्यार के
साए में बड़ा
हुआ था।
तो
जब उनकी मृत्यु
हुई तो मुझे लगा
कि भोजन लेना उनके
प्रति विश्वासघात
होगा। अब मैं
जीना ही नहीं
चाहता था। यह
लड़कपन था।
लेकिन इसके
जरिए एक गहरी
चीज घटित हुई।
तीन दिन तक
मैं पड़ा रहा, बिस्तर
से बाहर ही
नहीं आया।
मैंने कहा कि
जब नाना नहीं
रहे तो मैं भी
जीवित रहना
नहीं चाहता
हूं। मैं बच
गया, लेकिन
वे तीन दिन
मृत्यु के
अनुभव के दिन
बन गए। एक तरह
से मैं मर गया।
और मुझे बोध
हुआ—अब मैं
उसे बता सकता
हूं; उस समय
तो वह एक
धुंधला सा
अनुभव था—कि मृत्यु
असंभव है। ऐसा
भाव हुआ।
फिर
जब मैं चौदह
वर्ष का हुआ
तो फिर मेरे
परिवार को
चिंता हुई कि
कहीं मैं मर न
जाऊं। मैं फिर
बच गया, लेकिन
इस बार मैंने
सचेतन प्रयोग
किया। मैंने
उनसे कहा: 'अगर
ज्योतिषी के
कहने के
मुताबिक
मृत्यु होने
वाली है तो
अच्छा है कि
उसके लिए तैयार
रहा जाए। और
मृत्यु को
मौका क्यों
दिया जाए? क्यों
नहीं मैं खुद
चलकर आधी राह
में मृत्यु को
मिलूं? जब
मुझे मरना ही
है तो अच्छा है
कि सावचेत
होकर मरूं।'
मैंने
अपने स्कूल से
सात दिन की
छुट्टी ले ली।
मैं
प्राचार्य के
पास गया और
उनसे कहा कि
मैं मरने जा
रहा हूं।
उन्होंने कहा
कि क्या मूढ़ता
की बातें करते
हो! क्या तुम
आत्महत्या
करने जा रहे
हो?
यह क्या कह
रहे हो कि मैं
मरने जा रहा
हूं? मैंने
उन्हें
ज्योतिषी की
भविष्यवाणी
बताई कि हर
सातवें वर्ष
पर मुझे मृत्यु—योग
है। और मैंने
उनसे कहा कि
मैं मृत्यु की
प्रतीक्षा
करने के इरादे
से सात दिन के
लिए विश्राम
में जा रहा
हूं। अगर
मृत्यु आएगी
तो अच्छा है
कि उससे सचेतन
मिलूं ताकि वह
अनुभव बन जाए।
मैं
अपने गांव के
बाहर एक मंदिर
में चला गया।
मैंने मंदिर
के पुजारी के
साथ तय कर
लिया कि वह
मुझे बाधा न
दे। वह एक
बहुत एकाकी, बहुत
पुराना, टूटा—फूटा
मंदिर था, जहां
कोई नहीं जाता
था। मैंने
पुजारी से कहा
कि मैं मंदिर
में रहूंगा, तुम मुझे
दिन में बस एक
बार कुछ खाने—पीने
को दे दिया
करो। और मैं यहां
पूरे दिन पडा—पड़ा
मृत्यु की
प्रतीक्षा
करूंगा। सात
दिन तक मैं
मृत्यु की
प्रतीक्षा
करता रहा। वे
सात दिन
अपूर्व अनुभव
के दिन बन गए।
मृत्यु नहीं
आई; लेकिन
अपनी ओर से
मैंने मृतवत
हो जाने की सब
कोशिश की।
अजीबोगरीब और
आश्चर्यजनक
बातें हुईं।
बहुत बातें
घटित हुईं; लेकिन
बुनियादी
स्वर यह था कि
जब तुम भाव
करते हो कि
मैं मरने जा
रहा हूं तो
तुम शांत और
मौन हो जाते
हो। तब फिर
कोई चिंता
नहीं रह जाती
है। क्योंकि
सब चिंताएं
जीवन के लिए
हैं। जीवन से
सब चिंताओं का
संबंध है।
जीवन सब
चिंताओं का
आधार है। जब
तुम किसी दिन
मरने के लिए
राजी हो जाते
हो तो चिंता
क्यों?
मैं
मंदिर में पड़ा
था। तीसरे या
चौथे दिन एक सांप
उस मंदिर के
अंदर दाखिल
हुआ। वह मेरी
निगाह में था; मैं
उस सांप को
देख रहा था।
लेकिन जरा भी
भय नहीं था।
अचानक मुझे
बहुत अनूठा
अनुभव हुआ।
ज्यों—ज्यों
सांप निकट से
निकटतर आया, मुझे बहुत
अनूठा अनुभव
हुआ। कोई भय
नहीं था।
मैंने सोचा कि
जब मृत्यु आ
रही है तो इस सांप
के जरिए आ
सकती है, फिर
डरना क्या? प्रतीक्षा
करो। और सांप
मेरे शरीर के
ऊपर से रेंगता
हुआ निकल
गया।
भय भी निकल
गया। यदि तुम
मृत्यु को
स्वीकार करते
हो तो कोई भय
नहीं है। और अगर
जीवन से चिपकते
हो तो भय ही भय है।
कई
बार मक्खियां
मेरे इर्द—गिर्द
चक्कर लगाती
थीं। वे मेरे
आस—पास उड़ती, मेरे
शरीर और मुंह
पर रेंगती थीं।
कभी—कभी मुझे
चिढ़ होती थी
और मैं उन्हें
भगाना चाहता
था। लेकिन
मैंने सोचा कि
उन्हें भगाने
का क्या प्रयोजन
है जब मैं देर—अबेर
मरने वाला
हूं! मरने के
बाद तो कोई भी
इस शरीर की
हिफाजत करने
को यहां नहीं
होगा। तो इन
मक्खियों को
भी उनकी मौज
पर छोड़ दो।
और
जिस क्षण
मैंने उन्हें
उनकी मौज पर
छोड़ने का
निर्णय लिया
उसी क्षण मेरी
सब चिढ़ विलीन
हो गई।
मक्खियां अब
भी मेरे शरीर
पर थीं, लेकिन
मैं उनके
प्रति
बेफिक्र हो
गया—मानो वे
किसी और के
शरीर पर रेंग
रही हों।
तुरंत एक दूरी
निर्मित हो गई।
अगर तुम
मृत्यु को
स्वीकार करते
हो तो एक दूरी
निर्मित हो
जाती है। जीवन
अपनी सब
चिंताओं और
संतापों के
साथ बहुत दूर
सरक जाता है।
एक
भांति मैं मर
गया;
लेकिन
मैंने जाना कि
अमृत भी है।
जब एक बार तुम
समग्रता से
मृत्यु को
स्वीकारते हो
तो तुम्हें
अमृत का बोध
हो जाता है।
जब
मैं इक्कीस
वर्ष का हुआ
तो मेरे
परिवार को फिर
मेरी मृत्यु
की प्रतीक्षा
होने लगी।
मैंने परिवार
से कहा कि
क्यों
प्रतीक्षा
करते हो? प्रतीक्षा
छोडो। मैं
मरने वाला
नहीं हूं। यह
ठीक है कि
किसी दिन यह
शरीर नहीं
रहेगा।
जो
भी हो, ज्योतिषी
की
भविष्यवाणी
ने मेरी बडी
मदद की, क्योंकि
उसने बहुत
पहले मुझे
मृत्यु से
परिचित करा
दिया। निरंतर
मैंने मृत्यु
का ध्यान किया
और स्वीकारा
कि वह आने
वाली है।
मृत्यु
को सघन ध्यान
के लिए उपयोग
में लाया जा सकता
है,
क्योंकि
उससे तुम निष्क्रिय
हो जाते हो।
तब ऊर्जा
संसार से
मुक्त हो जाती
है और वह अंतर्यात्रा
पर निकल सकती
है। यही कारण
है कि शवासन
का सुझाव दिया
जाता है।
जीवन
और मृत्यु
दोनों का
उपयोग उसे
खोजने के लिए
करो जो दोनों
के पार है।
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