सूत्र:
37—हे देवी,
बोध के मधु—भरे
दृष्टिपथ
में संस्कृत
वर्णमाला
के अक्षरों की
कल्पना करो—पहले
अक्षरों की
भांति,
फिर
सूक्ष्मतर
ध्वनि की
भांति और फिर
सूक्ष्म भाव
की भांति।
और
तब, उन्हें
अलग छोडकर
मुक्त हो
जाओ।
38—ध्वनि के
केंद्र में स्नान
करो,
मानों
जलप्रपात की
अखंड
ध्वनि में स्नान
कर रहे हो। या
कानों में
अंगुलि
डालकर
नादों के नाद,
अनाहत को
सुनो।
ज्यांपाल
सार्त्र ने
आत्मकथा लिखी
है;
उसने उसे
नाम दिया है :’वर्ड्स'—शब्द। यह
नाम बहुत
अर्थपूर्ण है।
यही प्रत्येक
मनुष्य की
आत्मकथा है—शब्द
और शब्द और
शब्द। तुम
शब्दों से भरे
हो। यह शब्दों
की प्रक्रिया
दिनभर
तुम्हारे मन में
चलती रहती है;
और रात में
भी जब तुम सोए
हो, तुम
शब्दों से, विचारों से
भरे रहते हो।
मन
शब्दों का
संग्रह मात्र
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति शब्दों
से ग्रस्त है, शब्दों
से दबा है।
यही कारण है
कि आत्म—ज्ञान
ज्यादा से
ज्यादा असंभव
हो रहा है।
आत्मा तो
शब्दों के पार
है, या
शब्दों के
पीछे है, या
उनके नीचे या
ऊपर है। लेकिन
वह शब्दों में
कभी नहीं है।
तुम्हारा
होना मन में
नहीं है, वरन
मन के ठीक
पीछे या ऊपर
है—मन में कभी
नहीं। तुम मन
से बंधे जरूर
हो; लेकिन
वहा हो नहीं।
बाहर रहकर तुम
मन में
केंद्रित हो।
और इस सतत
केंद्रित
होने के कारण
मन के साथ तुम्हारा
तादात्म्य हो
गया है। तुम
सोचते हो कि
मैं मन हूं।
यही
एकमात्र
समस्या है, बुनियादी
समस्या है। और
जब तक तुम्हें
यह बोध नहीं
होता कि मैं
मन नहीं हूं
तब तक कुछ
अर्थपूर्ण
घटित नहीं
होगा। तब तक
तुम दुख में
रहोगे। यह
तादात्म ही
दुख है। यह
मानो अपनी
छाया के साथ
तादात्म्य है।
तब सारा जीवन
झूठ हो जाता
है।
तुम्हारा
सारा जीवन झूठ
है। और
बुनियादी भूल
यह है कि
तुमने मन के
साथ तादात्म्य
कर लिया है।
तुम सोचते हो
कि मैं मन हूं।
यही अज्ञान है।
तुम मन को
विकसित भी कर
सकते हो; लेकिन
उससे अज्ञान
का विसर्जन
नहीं होगा।
तुम बहुत
बुद्धिमान हो
जा सकते हो; तुम बहुत
मेधावी हो
सकते हो, तुम
जीनियस, अति—प्रतिभावान
भी हो सकते हो।
लेकिन अगर मन
के साथ
तादात्म बना
रहता है तो
तुम मीडियाकर ही,
औसत आदमी ही
बने रहते हो।
क्योंकि
तुम्हारा
झूठी छाया के
साथ तादात्म्य
है।
यह
कैसे होता है? जब
तक तुम इस
प्रक्रिया को
नहीं समझते कि
यह कैसे होता
है,’' तब तक
तुम मन के पार
नहीं जा सकते।
और ध्यान की
सभी विधियां पार
जाने की, मन
के पार जाने
की
प्रक्रियाएं
हैं; इसके
अतिरिक्त वे
और कुछ नहीं
हैं। ध्यान की
विधियां
संसार के विरोध
में नहीं है; वे मन के
विरोध में है।
सच तो यह है कि
वे विधियां मन
के भी विरोध
में नहीं हैं;
वे असल में
तादात्म्य के
विरोध में हैं।
तुम मन के साथ
तादात्म्य
कैसे कर लेते
हो? तादात्म्य
की प्रक्रिया
क्या है?
मन
एक जरूरत है—बडी
जरूरत है।
विशेषकर
मनुष्य जाति
के लिए मन
बहुत जरूरी है।
मनुष्य और पशु
में यही
बुनियादी
फर्क है।
मनुष्य विचार
करता है। और
उसने अपने
जीवन संघर्ष
में विचार को
एक अस्त्र की
भांति उपयोग
किया है। वह
बच सका; क्योंकि
वह विचार कर
सकता है।
अन्यथा वह
किसी भी पशु
से ज्यादा
कमजोर है, ज्यादा
असहाय है।
शारीरिक रूप
से उसका बचना
असंभव था। वह
बच सका, क्योंकि
वह सोच—विचार
कर सकता है।
और विचार के
कारण ही वह
दुनिया का
मालिक बन गया
है।
जब
विचार इतना सहयोगी
रहा है तो यह
समझना आसान है
कि आदमी ने मन के
साथ
तादात्म्य
क्यों कर लिया।
तुम्हारे
शरीर के साथ
तुम्हारा
वैसा तादात्म्य
नहीं है जैसा
मन के साथ है।
निश्चित ही, धर्म
कहे जाते हैं
कि शरीर के
साथ
तादात्म्य मत
करो; लेकिन
कोई भी शरीर
के साथ
तादात्म्य
नहीं करता है।
कोई भी नहीं
करता।
तुम्हारा
तादात्म्य मन
के साथ है, शरीर
के साथ नहीं।
और शरीर के
साथ
तादात्म्य
उतना घातक
नहीं है जितना
मन के साथ
तादात्म्य
घातक है।
क्योंकि शरीर
ज्यादा
यथार्थ है।
शरीर है; वह
अस्तित्व के
साथ ज्यादा
गहराई में
जुड़ा है। और
मन मात्र छाया
है। शरीर के
तादात्म्य से
मन का तादात्म
ज्यादा सूक्ष्म
है।
लेकिन
हमने मन के
साथ
तादात्म्य
किया है, क्योंकि
जीवन—संघर्ष
में मन ने बड़ी
मदद की है। मन
न सिर्फ
जानवरों के
विरुद्ध, न
सिर्फ
प्रकृति के
विरुद्ध
संघर्ष में
सहयोग करता है,
बल्कि अन्य
मनुष्यों के
विरुद्ध
संघर्ष में भी
वह सहयोग करता
है। अगर
तुम्हें तीक्ष्ण
बुद्धि है तो
तुम दूसरे
मनुष्यों से
भी जीत जाओगे।
तुम सफल होओगे,
तुम धनवान
होओगे; क्योंकि
तुम ज्यादा
हिसाबी हो, तुम ज्यादा
चालाक हो।
अन्य
मनुष्यों के
विरुद्ध भी मन
अस्त्र का काम
करता है। यही
कारण है कि मन
के साथ हमारा तादात्म्य
इतना है—यह
स्मरण रहे।
मौत
से,
रोग से, प्रकृति
और अन्य
मनुष्यों से
भी मन
तुम्हारा बचाव
करता है, तुम्हारी
सुरक्षा करता
है। मन ने
बहुत किया है,
इसलिए साफ
है कि हम अपने
को मन मान
बैठे हैं। अगर
कोई तुम्हें
कहे कि
तुम्हारा
शरीर रुग्ण है
तो उससे
तुम्हें बुरा
नहीं महसूस
होता; लेकिन
अगर कोई कहे
कि तुम्हारा
मन रुग्ण है
तो तुम्हें
निश्चित बुरा
लगता है।
क्यों? शरीर
के बीमार होने
की बात गुनकर
तुम्हें क्षोभ
नहीं होता है।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारा
शरीर के साथ
तादात्म्य नहीं
है। लेकिन अगर
तुम्हारा मन
बीमार है और
कोई कहता है
कि तुम मानसिक
रूप से बीमार
हो तो तुम्हें
बहुत क्षोभ
होता है।
क्योंकि अब यह
तुम्हारे
संबंध में खबर
देता है, तुम्हारे
शरीर के संबंध
में नहीं।
तुम
शरीर के साथ
ऐसा व्यवहार
करते हो जैसे
कि वह एक वाहन
है,
तुम्हारी
कोई चीज है।
लेकिन मन के
साथ ऐसा
व्यवहार तुम
नहीं करते। मन
के साथ तुम मन
ही हो, शरीर
के साथ तुम
उसके मालिक हो।
इस
मन ने
तुम्हारे
अस्तित्व में, होने
में भी विभाजन
पैदा कर दिया
है। और वह
दूसरा
बुनियादी
कारण है कि
हमने उसके साथ
तादात्म्य
कर रखा है।
तुम बाहर की
चीजों के
संबंध में ही
विचार नहीं
करते, तुम
भीतर की चीजों
के संबंध में
भी विचार करते
हो। उदाहरण के
लिए, शरीर
की भी अपनी
अनेक
वृत्तियां
हैं, तुम
उन वृत्तियों
के संबंध में
भी विचार करते
हो। तुम सोच—विचार
ही नहीं करते, तुम उनसे
लड़ते भी हो।
एक सतत आंतरिक
लड़ाई चलती
रहती है। कामवासना
है; मन
उससे लड़ता है
या उसे अपने
ढंग—ढांचे में
ढालना चाहता
है। वह उसका
दमन करता है, उसे विकृत
करता है और
उसे
नियंत्रित
करता है।
मन
भीतर भी लड़
रहा है। वह
लड़ाई
तुम्हारे और
तुम्हारे
शरीर के बीच
विभाजन पैदा
कर देती है।
और तब तुम
सोचने लगते हो
कि शरीर दुश्मन
है,
दोस्त नहीं
है। क्योंकि
शरीर ऐसे काम
किए जाता है
जिनके मन विरोध
में है। और
शरीर मन की
सुनने को राजी
नहीं है; और
इससे मन नाराज
होता है, वह
इसे अपनी हार
मानता है। वह
शरीर से लड़ता
है। और उससे
विभाजन पैदा
होता है।
और
तुम सदा मन के
साथ तादात्म्य
करते हो, शरीर
के साथ नहीं।
मन तुम्हारा
अहंकार है, वह तुम्हारा
मैं है। अगर
शरीर कामुक
अनुभव करता है
तो तुम विभाजन
कर सकते हो, तुम कह सकते
हो कि यह शरीर
है, मैं
नहीं! मैं तो
इसके विरोध
में हूं। तुम
कह सकते हो कि
मैंने
ब्रह्मचर्य
का व्रत लिया
है, मैं तो
कामवासना का
विरोधी हूं यह
शरीर की मांग
है, मेरी
नहीं।
लेकिन
तब तुम कौन हो? तुम
वह मन हो
जिसने व्रत
लिया है। यह
मन तुम्हारा
अहंकार है। और
तुम शरीर के
विरोध में हो
जाते हो, क्योंकि
शरीर अहंकार
को तोड़ता है।
तुम जो भी तय
करते हो वह
उसे सुनता ही
नहीं है।
तपस्या
की सारी मूढ़ता
इसी से पैदा
हुई;
शरीर सुनता
ही नहीं है।
शरीर प्रकृति
है; शरीर
जागतिक
समग्रता का एक
अंग है। शरीर
के अपने नियम
हैं। वे नियम
अचेतन हैं और
शरीर उनके
मुताबिक काम करता
है। मन शरीर
के ऊपर भी
अपने नियम
बनाने और
थोपने की
चेष्टा करता
है। तब
द्वंद्व पैदा
होता है, तब
मन शरीर से
लड़ने लगता है।
तब मन शरीर को
भूखा मारने
लगता है, हर
तरह से उसकी
हत्या के उपाय
करता है।
अतीत
में यही हुआ; तथाकथित
धार्मिक लोग
सचमुच पागल की
तरह शरीर के
पीछे पड़ गए।
वे जो भी करते
थे उसका संबंध
परमात्मा से
नहीं था, वे
बस शरीर के
विरोध में सब
कुछ करते थे।
असल में ईश्वर
की खोज शरीर—विरोध
का पर्याय बन
गई। धार्मिक
लोगों ने यही
रुख अपनाया कि
शरीर को मारो,
शरीर को
नष्ट करो; शरीर
शत्रु है।
सच
तो यह है कि यह
धार्मिक
दृष्टि नहीं
है। यह तो
सर्वाधिक
अधार्मिक
दृष्टि है, क्योंकि
यह सर्वाधिक
अहंकार—भरी है।
यह अहंकार है
और अहंकार को
चोट लगती है।
तुम निश्चय
करते हो कि
क्रोध नहीं
करूंगा और क्रोध
आ जाता है।
इससे
तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती है, वह
पराजित अनुभव
करता है।
तुम्हारा
निश्चय
व्यर्थ हो गया,
क्रोध उठ
गया। और जब
क्रोध उठता है
तो तुम समझते
हो कि यह क्रोध
शरीर से उठ
रहा है। वैसे
ही तुम
कामवासना के
विरुद्ध
निर्णय लेते
हो और
कामवासना घेर
लेती है। फिर
तुम नाराज
होते हो और
तुम शरीर को
दंड देने की
चेष्टा करते
हो। तपस्या
दंड के सिवाय
और क्या है? तुम शरीर को
दंडित करते हो,
ताकि वह
तुम्हारे
अहंकार के
अनुकूल चलने
को मजबूर हो।
यह
मन,
यह सोच—विचार
की प्रक्रिया,
यह अहंकार तुम्हारे
समूचे
अस्तित्व का
एक अंश भर है।
और यह अंश
मालिक होने की,
सर्वेसर्वा
होने की कोशिश
करता है। यह
संभव नहीं है; अंश
सर्वेसर्वा
नहीं हो सकता
है। उसका निष्फल
होना
अनिवार्य है।
यहीं कारण है
कि जीवन में इतनी
निराशा है।
तुम कभी सफल
नहीं हो सकते,
तुम असंभव
की चेष्टा कर
रहे हो। अंश
कभी भी
सर्वेसर्वा
नहीं हो सकता
है। संपूर्ण
अंश से बहुत
बड़ा है। अंशी
अंश से बहुत
बड़ा है, और
संपूर्ण बहुत
शक्तिशाली है।
यह
ऐसा ही है कि
पेडू की एक
डाल समूचे
पेडू पर मालकियत
करना चाहे, जड़ों
सहित पूरे पेड़
पर अधिकार
जमाना चाहे।
अब एक शाखा
पूरे पेडू को
कैसे
नियंत्रित कर
सकती है? वह
जड़ों को कैसे
अपने पीछे
चलने के लिए
मजबूर कर सकती
है? यह
असंभव है। वह
जो भी सोचे, वह पागलपन
है। वह शाखा
पागल हो गई है।
चाहे वह कितना
ही सोच—विचार
करे, कितना
ही सपना देखे
कि भविष्य में
वृक्ष उसका
अनुगमन करेगा;
लेकिन वह
संभव नहीं है।
यह संभव ही
नहीं है। शाखा
को ही वृक्ष
के पीछे चलना
होगा। वृक्ष
और उसकी जड़ों
के कारण वह
जीवित है। और
जड़ें शाखा के
भी पहले थीं।
और जड़ें ही
शाखा की स्रोत
हैं।
तुम्हारा
मन तुम्हारे
शरीर का एक
अंश है, वह उस
पर नियंत्रण
नहीं कर सकता।
शरीर पर
नियंत्रण
करने की
चेष्टा
असफलता लाएगी,
निराशा
लाएगी। और इस
कारण पूरी
मनुष्यता
असफल सिद्ध
हुई है।
प्रत्येक
व्यक्ति पीड़ा
में है, चिंता
में है, संताप
में है।
प्रत्येक
व्यक्ति भय से
कांप रहा है।
क्योंकि
असंभव की
चेष्टा चल रही
है। लेकिन
अहंकार सदा
असंभव की
चेष्टा करता
है। संभव उसके
लिए चुनौती
नहीं बन पाता,
असंभव
चुनौती बन
जाता है। अगर
असंभव किया जा
सके तो अहंकार
बहुत खुश होगा।
लेकिन तुम
चाहे कितनी ही
चेष्टा करो, तुम अपनी
जिंदगी ही
गवाओगे, जो
नहीं हो सकता
है वह नहीं
होगा।
मालिक
बनने के इस आंतरिक
प्रयत्न के
कारण
तुम्हारा मन
के साथ
तादात्म्य हो
गया है। नौकर
के साथ
तादात्म्य
करना कौन
चाहेगा? अचेतन
के साथ
तादात्म्य
करना कौन
चाहेगा? यह
व्यर्थ है।
अचेतन
उपेक्षित
रहता है, क्योंकि
वह पकड़ में
नहीं आता है।
और अचेतन के
साथ अहंकार
नहीं हो सकता
है, उसमें ’मैं'
का अनुभव
नहीं होता है।
इसे
इस तरह समझने
की कोशिश करो।
जब कामवासना
तुम्हें
पकडती है तो
तुम मैं का उपयोग
नहीं कर सकते।
तुमसे किसी
बड़ी शक्ति ने
तुम्हें अपने
बस में कर
लिया है, मानो
तुम प्रबल
जलधार में पड़
गए हो। तुम
नहीं हो, कोई
और तुम्हें
चला रहा है।
इसीलिए तुम
कहते हो कि
मुझे काम ने
वशीभूत कर लिया।
वैसे ही क्रोध
पकड़ता है, या
भूख पकड़ती है।
यह तुमसे बड़ी
शक्ति है; तुम
बस उसके
वशीभूत हो
जाते हो। और
यह शक्ति
भयभीत करती है।
यह बहुत भयभीत
करती है; क्योंकि
तब तुम नहीं
रहते हो। यह
एक तरह की
मृत्यु है।
यही कारण है
कि तुम
कामवासना के
इतने विरोध में
हो। वह एक तरह
की मृत्यु है।
जो
लोग कामवासना
के विरोध में
हैं वे सदा
मृत्यु से
भयभीत रहेंगे।
और जो काम से
भयभीत नहीं
हैं,
जो उसमें
सरलता से, सहजता
से बहते हैं, वे मृत्यु
से कभी नहीं
डरेंगे। इस
एसोसिएशन को
देखो : जो काम
के विरोधी हैं
वे मृत्यु से
भयभीत रहेंगे
और जो मृत्यु
से भयभीत हैं
वे काम के
विरोधी होंगे।
मृत्यु से डरे
हुए लोग अमरता
के सिद्धांत
गढ़ते हैं : वे
हमेशा
मरणोत्तर
जीवन के संबंध
में सोच—विचार
करते हैं। और
जो अमरता का
चिंतन करते
हैं वे हमेशा
सेक्स या काम
के विरोधी
होंगे। यही दो
विकल्प हैं।
काम
भयभीत करता है।
यह भय क्या है? भय
यह है कि
कामवासना के
उठने पर तुम
नहीं रहते हो,
तुमसे कोई
बड़ी शक्ति
तुम्हें
वशीभूत कर
लेती है। तुम
विदा हो जाते
हो, फिंक
जाते हो; तुम
नहीं रहते।
इसलिए जो काम
के विरोधी
नहीं हैं वे
भी कभी काम—
भोग में गहरे
नहीं उतरते
हैं। वे सदा
अपने को रोके
रहते हैं, थामे
रहते हैं, वे
उसमें कभी
पूरी तरह नहीं
डूबते। यही
कारण है कि आर्गाज्म
जैसी, काम—समाधि
जैसी सहज चीज
स्त्री—पुरुषों
के लिए असंभव
हो गई है।
प्रगाढ़ आर्गाज्म
का अर्थ है कि
तुम किसी ऐसी
चीज में उतर
गए थे जो
तुमसे बहुत बड़ी
थी; तुम
किसी ऐसी चीज
में थे जहां
तुम नहीं थे, जहां
तुम्हारा
अहंकार नहीं
था।
अहंकार
हर चीज पर
नियंत्रण
पाने के लिए
संघर्ष करता
है और मन
इसमें सहयोग
करता है। और
इस प्रयत्न
में मन के साथ
तुम्हारा
तादात्म्य हो जाता
है। और यही
तादात्म्य
दुख है। यह
छाया है—झूठी
छाया है। मन
बहुत उपयोगी
यंत्र है।
उसका उपयोग
करो;
लेकिन उसके
साथ
तादात्म्य मत
करो। यह बढ़िया
यंत्र है, जरूरी
यंत्र है, उसे
काम में लाओ, लेकिन अपने
को मन मत मानो।
एक बार तुमने
मान लिया कि
मैं मन हूं तो
फिर तुम मन का
उपयोग न कर
सकोगे, तब
मन ही
तुम्हारा
उपयोग करने
लगेगा। तब तुम
मन के साथ
भटकते रहोगे।
सभी ध्यान—विधियां
तुम्हें उसकी
झलक देने के
लिए हैं जो मन
नहीं है। तो
मन के पार
कैसे जाया जाए?
कैसे उसे
छोड़ा जाए और
कैसे उसे एक
क्षण के लिए भी
देखा जाए?
ध्वनि—संबंधी
पहली विधि :
हे देवी
बोध के मधु—
भरे दृष्टिपथ
में संस्कृत
वर्णमाला के
अक्षरों की
कल्पना करो—
पहले अक्षरों
की भांति फिर
सूक्ष्मतर
ध्वनि की
भांति और फिर
सूक्ष्मतम
भाव की भांति
और तब उन्हें छोड़कर
मुक्त होओ।
शब्द
ध्वनि हैं।
विचार एक
अनुक्रम में, तर्कयुक्त
अनुक्रम में
बंधे, एक
खास ढांचे में
बंधे शब्द हैं।
ध्वनि मूलभूत
है। ध्वनि से
शब्द बनते हैं
और शब्दों से
विचार बनते
हैं। और तब
विचार से धर्म
और
दर्शनशास्त्र
बनता है, सब
कुछ बनता है।
लेकिन गहराई
में ध्वनि है।
यह विधि
विपरीत
प्रक्रिया का
उपयोग करती है।
शिव
कहते हैं: ’हे
देवी, बोध के
मधु— भरे
दृष्टिपथ में
संस्कृत
वर्णमाला के
अक्षरों की
कल्पना करो—पहले
अक्षरों की
भांति, फिर
सूक्ष्मतर
ध्वनि की
भांति, और
फिर
सूक्ष्मतम
भाव की भांति।
और तब, उन्हें
छोड़कर मुक्त
होओ।’
हम
दर्शनशास्त्र
में जीते हैं।
कोई हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई कुछ है।
हम
दर्शनशास्त्रों
में जीते हैं,
विचार—तंत्रों
में जीते हैं।
और वे हमारे
लिए इतने
महत्वपूर्ण
हो गए हैं कि
हम उनके लिए
अपनी जान दे
सकते हैं।
आदमी शब्दों
के लिए मर
सकता है—मात्र
शब्दों के लिए।
कोई उसके
परमात्मा को,
उसकी
परमात्मा की
धारणा को गलत
कह दे और वह लड
पडेगा। कोई
राम या ईसा या
किसी ऐसी
धारणा को गलत
कह दे और वह लड़
पड़ेगा।
मनुष्य महज
शब्द के लिए
लड़ सकता है, हत्या कर
सकता है।
शब्द
इतना
महत्वपूर्ण
हो गया है। यह
मूढ़ता है, लेकिन
यही मूढ़ता
हमारा इतिहास
है। और हम अभी
उसी भाति पेश
आ रहे हैं। एक
अकेला शब्द
तुम्हारे
भीतर इतना
उपद्रव पैदा कर
सकता है कि
तुम मरने—मारने
को तैयार हो
जाते हो। हम
दर्शनशास्त्रों
में जीते हैं; विचार—तंत्रों
में जीते है।
दर्शनशास्त्र
क्या हैं? तर्कयुक्त
ढंग से, व्यवस्था
से, ढांचे
में विचारों
के जमाव को हम
दर्शनशास्त्र
कहते हैं। और
विचार क्या
हैं? व्यवस्था
से और
अर्थवत्ता के
साथ शब्दों के
जमाव को हम
विचार कहते
हैं। और शब्द
क्या हैं? शब्द
वे ध्वनियां
हैं जिनके
बारे में आम
सहमति है कि
उनका मतलब यह
या वह होगा।
ध्वनि
बुनियादी है, आधारभूत
है। मन की
बुनियादी
संरचना में
ध्वनि है।
दर्शनशास्त्र
उसका शिखर है;
लेकिन जिन
ईंटों से पूरी
इमारत बनी है
वे ध्वनियां
हैं। इसमें
गलत क्या है!
ध्वनि
बस ध्वनि है।
अर्थ उसमें हम
डालते हैं; अर्थ
आम सहमति से
तय होता है।
अन्यथा ध्वनि
का कोई अर्थ
नहीं है। अर्थ
हमारा दिया
हुआ है, हमारा
प्रक्षेपण है।
अन्यथा राम
शब्द मात्र
ध्वनि है—अर्थहीन
ध्वनि। अर्थ
हम उसे देते
हैं। और वह
शब्द बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
और तब हम उसके
इर्द—गिर्द
विचारों का
तंत्र
निर्मित करते
हैं। तब तुम
सब कुछ कर
सकते हो, कुछ
भी कर सकते हो;
उसके लिए जी—मर
सकते हो। अगर
कोई इस ध्वनि
राम को
अपमानित करे
तो तुम
क्रुद्ध हो जाओगे।
और यह शब्द
राम महज एक
सहमति है, नियमगत
सहमति है कि
इसका यह अर्थ
होगा। अन्यथा
अपने आप में
किसी शब्द का
कोई अर्थ नहीं
है, वह महज
ध्वनि है।
यह
सूत्र
प्रतिक्रमण
करने को, विपरीत
दिशा में चलने
को कहता है।
ध्वनि पर आ
जाओ। फिर
ध्वनि से भी
ज्यादा
बुनियादी चीज
भाव है, जो
कहीं गहरे में
छिपा है। इसे
समझना होगा।
आदमी
शब्द का उपयोग
करता है। शब्द
का मतलब ऐसी
ध्वनि है
जिसको सहमति
से अर्थ मिला
हुआ है। पशु—पक्षी
भी ध्वनि का
प्रयोग करते
हैं;
लेकिन उनकी
ध्वनि में कोई
भाषागत अर्थ
नहीं होता, उनकी कोई
भाषा नहीं है।
लेकिन वे भाव
के साथ ध्वनि
का प्रयोग
करते हैं। कोई
पक्षी गाता है;
उसके गाने
में भाव है, वह किसी भाव
को प्रकट कर
रहा है। हो
सकता है कि वह
अपनी
प्रेमिका को
पुकार रहा हो,
या मां को
पुकार रहा हो,
या हो सकता
है, बच्चा
भूखा हो और
अपनी पीड़ा जता
रहा हो। वह
ध्वनि भाव—बोधक
है।
ध्वनि
के ऊपर शब्द
हैं,
विचार हैं,
दर्शनशास्त्र
है; ध्वनि
के नीचे भाव
हैं। और जब तक
तुम भाव के
नीचे नहीं
उतरते तब तक
मन के नीचे
नहीं उतर सकते।
सारा जगत
ध्वनियों से
भरा है; सिर्फ
मनुष्य का जगत
शब्दों से भरा
है। मनुष्य का
बच्चा भी जब
तक भाषा नहीं
सीखता है, ध्वनियों
का ही प्रयोग
करता है।
सच
तो यह है कि
भाषा का सारा
विकास उन
ध्वनियों के
आधार पर हुआ
जो दुनियाभर
में बच्चे
बोलते हैं।
उदाहरण के लिए
किसी भी भाषा
में मां के
लिए शब्द किसी
न किसी रूप
में मां ध्वनि
से जुडा है।
चाहे वह मातृ
हो,
मदर हो, मादर
हो, मां हो;
सब कमोबेश
मां ध्वनि से
जुड़े हैं।
बच्चा मां
ध्वनि अत्यंत
सरलता से बोल
सकता है। यह
वह पहली ध्वनि
है जो बच्चा
बोल सकता है।
फिर सारी
इमारत मां
ध्वनि पर उठती
है। बच्चा मां
कहना शुरू
करता है; क्योंकि
यह पहली ध्वनि
है जिसे बच्चा
आसानी से बोल
सकता है। यह नियम
सब देश और सब
समय के लिए
लागू है। शरीर
और गले की
संरचना ही ऐसी
है कि मां
बोलना उसके
लिए सबसे आसान
पड़ता है। और
बच्चे के लिए
उसकी मां
निकटतम व्यक्ति
होती है, सबसे
महत्वपूर्ण
होती है।
इसलिए पहली
ध्वनि पहले
अर्थपूर्ण
व्यक्ति के
साथ जुड़ गई और
उससे ही मातृ,
मदर, मादर,
मां शब्द बने।
लेकिन
बच्चा जब पहली
दफा ’मां' कहता
है तो उसमें
कोई भाषागत
अर्थ नहीं
रहता, पर
भाव अवश्य
रहता है। और
उसी भाव के
कारण यह ध्वनि
मां का पर्याय
बन गयी। वह
भाव ध्वनि से
ज्यादा
बुनियादी है।
यह
सूत्र कहता है
कि ’संस्कृत
वर्णमाला के
अक्षरों की
कल्पना करो।’
कोई
भी भाषा काम
दे देगी।
क्योंकि शिव
पार्वती से
बोल रहे थे, इसलिए
उन्होंने
संस्कृत का
नाम लिया। तुम
अंग्रेजी, लैटिन
या अरबी भाषा
भी इस्तेमाल
कर सकते हो।
किसी भाषा से
भी काम चल
जाएगा।
संस्कृत यहां
इसलिए कही गई
है क्योंकि
शिव पार्वती
से संस्कृत
में चर्चा
करते थे। ऐसी
बात नहीं है
कि संस्कृत और
भाषाओं से श्रेष्ठ
है। नहीं, कोई
भी भाषा चलेगी।
पहले
अपने भीतर, अपनी
चेतना में,’बोध के मधु—
भरे दृष्टिपथ'
में अ, ब,
स, आदि
अक्षरों को
अनुभव करो।
किसी भी भाषा
के अक्षरों से
काम चल जाएगा।
और यह किया जा
सकता है; यह
बहुत सुंदर
प्रयोग है।
अगर तुम इसे
प्रयोग करना
चाहो तो पहले आंख
बंद करो और
भीतर अपनी
चेतना को इन
अक्षरों से भर
जाने दो।
चेतना को काली
पट्टी समझो और
तब उस पर अ, ब,
स, अक्षरों
की कल्पना करो।
कल्पना में
उन्हें
सावचेत होकर
और साफ—साफ
लिखो और उनको
देखो। फिर
धीरे— धीरे
अक्षर अ को
भूल जाओ और
उसकी ध्वनि को
स्मरण रखो—सिर्फ
ध्वनि को।
लेकिन
पहले कल्पना
की आंखों से
देखना जरूरी
है;
क्योंकि
हमारे लिए आंख
बहुत
महत्वपूर्ण
है। कान उतने
महत्वपूर्ण
नहीं हैं। हम आंख—केंद्रित
हैं। कारण वही
है कि आंख
अन्य किसी भी
चीज से ज्यादा
हमें जीने में
सहयोग देती है;
हमारी
नब्बे
प्रतिशत
चेतना आंखों
में बसती है। आंख
को हटाकर अपने
संबंध में
कल्पना करो और
तुम मरे—मरे
से हो जाओगे।
बहुत न्यून बच
रहेगा।
इसलिए
पहले देखो।
दृष्टि को
भीतर ले जाओ
और अक्षरों को
देखो। वैसे
अक्षर आंखों
की बजाय कानों
से ज्यादा
संबंधित हैं; क्योंकि
वे ध्वनियां
हैं। लेकिन
हमारे लिए वे आंख
से जुड़ गए हैं;
क्योंकि हम
पढ़ने के इतने
आदी हो गए हैं।
बुनियादी रूप
से वे कान से
संबंधित हैं,
वे
ध्वनियां हैं।
तो आंख से
शुरू करो। और
फिर धीरे—धीरे
आंख को भूल
जाओ और आंख से
कान पर चले
जाओ। पहले
उन्हें
अक्षरों के
रूप में
कल्पना करो, फिर उन्हें
देखो और फिर
उन्हें
सूक्ष्मतर ध्वनियों
की भांति सुनो
और अंत में
सूक्ष्मतम भाव
की भांति भाव
करो।
यह
एक बहुत सुंदर
प्रयोग है। जब
तुम अ कहते हो
तो तुम्हारे
भीतर क्या भाव
होता है? हो
सकता है, तुम्हें
इसका बोध न हो
कि क्या भाव
होता है। जब
भी तुम कोई
ध्वनि करते हो
तो तुम्हारे
भीतर कैसे भाव
का उदय होता
है? हम
इतने भाव—शून्य
हो गए हैं कि
भूल ही गए हैं।
जब तुम कोई
ध्वनि देखते
हो तो क्या
होता है? तुम
उसका उपयोग
किए जाते हो
और ध्वनि को
बिलकुल भूल गए
हो। उसे तुम
निरंतर देखते
हो। यदि मैं अ
कहता हूं तो
तुम पहले अ को
देखोगे, तुम्हारे
मन में अ
दृश्य हो
जाएगा। लेकिन
अब जब मैं अ
कहूं तो उसे
देखो नहीं, सुनो। और तब
अनुभव करो कि
तुम्हारे भाव—केंद्र
में क्या घटित
होता है। क्या
कुछ भी नहीं होता
है?
शिव
कहते हैं कि
अक्षरों से
ध्वनि की तरफ
चलो,
इन अक्षरों
के जरिए ध्वनि
को उघाड़ो।
पहले ध्वनि को
उघाड़ो, और
फिर ध्वनि के
जरिए भाव को
उघाड़ो।
तुम्हें कैसा
भाव होता है, इसके प्रति
सजग होओ।
कहते
हैं कि मनुष्य
बहुत
संवेदनशून्य
हो गया है; वह
अभी धरती पर सब
से
संवेदनशून्य
जानवर है। मैं
एक जर्मन कवि
का संस्मरण पढ़
रहा था। वह
अपने बचपन की
एक घटना बताता
है। उसके पिता
को घोड़ों का
बहुत शौक था।
उसके घर पर
अनेक घोड़े थे;
एक बड़ा
अस्तबल था।
लेकिन उसका
बाप उसे घोड़ों
के पास नहीं
जाने देता था।
बाप डरता था; क्योंकि
बच्चा अभी
बहुत छोटा था।
लेकिन कभी—कभी
जब बाप घर पर
नहीं होता तो
बच्चा चुपचाप
अस्तबल में
चला जाता था।
वहां उसकी एक
घोड़े से
दोस्ती हो गई।
और जब वह लड़का
वहां पहुंचता
तो घोड़ा
हिनहिनाने
लगता था।
उस
कवि ने लिखा
है कि तब मैं
भी घोड़े के
साथ कुछ ध्वनि
करने लगा, क्योंकि
उससे भाषा में
बोलने का तो
कोई उपाय न था।
और तब घोड़े के
साथ इस तरह
संवाद करते
हुए मुझे पहली
बार ध्वनियों
का बोध हुआ, उनके
सौंदर्य का, उनके भाव का
बोध हुआ।
तुम्हें
किसी मनुष्य
के साथ संवाद
करके यह बोध
नहीं हो सकता
है;
क्योंकि
मनुष्य
मुर्दा हो चला
है। घोड़ा ज्यादा
जीवंत है और
उसके पास भाषा
नहीं है। उसके
पास शुद्ध
ध्वनि है। वह
हृदय से भरा
है, मन से
नहीं।
तो
कवि ने
संस्मरण में
कहा है कि
पहली बार मुझे
ध्वनि के
सौंदर्य का, उसके
अर्थ का बोध
हुआ। यह वह
अर्थ नहीं था
जो शब्दों और
विचारों से आता
है; यह
अर्थ भाव से
भरा था। अगर
वहां और कोई
मौजूद होता तो
घोड़ा नहीं हिनहिनाता;
उससे बच्चा
समझ जाता कि
घोड़ा कह रहा
है कि यहां मत
आओ, यहां
कोई है, और
तुम्हारे
पिता नाराज
होंगे। और जब
वहां कोई नहीं
होता तो घोड़ा
हिनहिनाता, जिसका मतलब
होता कि आ जाओ,
यहां कोई
नहीं है। कवि
याद करता है
कि यह एक
साजिश थी
जिससे मुझे
बहुत सहायता
मिली; उस
घोड़े ने मेरी
बड़ी मदद की।
कवि
ने यह भी
बताया है कि
जब मैं जाता
था और घोड़े को
प्रेम करता था
तो यदि मेरा
प्रेम घोड़े को
पसंद आता तो
वह एक ढंग से
सिर हिलाता था।
और यदि नहीं
पसंद आता तो
वह सिर ही
नहीं हिलाता
था। पसंदगी की
बात और थी, घोड़ा
उसे प्रकट
करता था। और
जब उसका मूड, उसकी भाव—दशा
और होती तो वह
उस ढंग से सिर
नहीं हिलाता था।
और कवि कहता
है कि यह
सिलसिला
वर्षों चला कि
मैं जाता और
घोड़े को
सहलाता। और
घोड़े के साथ
यह प्रेम इतना
प्रगाढ़ था कि
मुझे कभी किसी
और के साथ उस घनिष्ठता
का एहसास नहीं
हुआ।
कवि
आगे कहता है
कि एक दिन मैं
घोड़े की गरदन
सहला रहा था
और वह मस्ती
में डोलकर
उसका आनंद ले रहा
था कि मैं
अचानक पहली
बार अपने हाथ
के प्रति सजग
हो उठा और
मुझे खयाल हुआ
कि मैं घोड़े
को सहला रहा
हूं। इसके साथ
ही घोड़े ने
डोलना बंद कर दिया, और
गरदन हिलाना
बिलकुल बंद कर
दिया। और वह
कवि कहता है, फिर तो
मैंने वर्षों कोशिश
की; लेकिन
घोड़े से कोई
प्रत्युत्तर
नहीं मिला।
बहुत समय
बीतने पर मुझे
बोध हुआ कि
मेरे हाथ के
प्रति, मेरे
अहंकार के
प्रति सजग
होते ही मेरा
घोड़े के साथ
संवाद समाप्त हो
गया और उसे मैं
फिर कभी प्राप्त
नहीं कर सका। क्या
हुआ?
वह
भाव का संवाद
था। ज्यों ही
अहंकार आता है, शब्द
आता है, भाषा
आती है, विचार
आता है, त्यों
ही पूरा तल ही
बदल जाता है।
अब तुम ध्वनि
के ऊपर हो; पहले
ध्वनि के नीचे
थे। वे
ध्वनियां भाव
हैं और घोड़ा
भाव समझ सकता
था। वह अहंकार
की भाषा नहीं
समझ सकता था, इसलिए संवाद
टूट गया।
कवि
ने बहुत
चेष्टा की; लेकिन
कोई चेष्टा
सफल नहीं हुई।
कारण यह है कि
तुम्हारी
चेष्टा भी
तुम्हारे अहंकार
का ही हिस्सा
है। कवि ने
अपने हाथ को भूलने
की चेष्टा की;
लेकिन भूल न
सका। यह भूलना
असंभव है। तुम
जितनी भूलने
की कोशिश
करोगे उतनी ही
हाथ की याद
आएगी। चेष्टा
से कुछ भी
भूला नहीं जा
सकता है।
चेष्टा
स्मृति को और
भी सबल बना
देगी। कवि
कहता है कि
मैं अपने हाथ
में उलझ गया; मैं घोड़े को
फिर उद्वेलित
न कर सका। मैं
अपने हाथ ले
जाता था, लेकिन
उससे कोई
ऊर्जा घोड़े की
ओर नहीं बहती
थी। और घोड़े
को इसका पता
चल गया। घोडे
को यह पता
कैसे चला?
अगर
मैं अचानक कोई
दूसरी भाषा
बोलने लग तो
संवाद बंद हो
जाएगा, तब
तुम मुझे नहीं
समझ सकोगे। और
अगर यह भाषा
तुम्हारे लिए
परिचित नहीं
है तो तुम
अचानक रुक
जाओगे।
तुम्हें भाषा
ही नहीं समझ
पड़ेगी। घोड़ा
ऐसे ही रुक
गया था।
प्रत्येक
बच्चा भाव के
साथ जीता है।
पहले ध्वनि
आती है, तब वह
ध्वनि भाव से
भरती है। तब
शब्द, विचार,
व्यवस्था, धर्म और
दर्शनशास्त्र
आते हैं। और
तब आदमी भाव
के केंद्र से
दूर—दूर हटता
चला जाता है।
यह
सूत्र कहता है
कि ध्वनि से
भाव पर लौट आओ, भाव
की शइम पर खड़े होओ।
भाव तुम्हारा
मन नहीं है, यही कारण है
कि तुम भाव से
डरते हो। तुम
तर्क से नहीं
डरते, लेकिन
तुम भाव से
सदा डरते हो।
क्योंकि भाव
तुम्हें
अराजकता में
ले जा सकता है,
जिस पर
तुम्हारा
काबू नहीं है।
तर्क
तुम्हारे
नियंत्रण में
है; सिर के
तुम मालिक हो।
सिर से नीचे
उतरते ही
तुम्हारी
मालकियत जाती
रहती है। तब
तुम्हारा
नियंत्रण
नहीं रहता; तब तुम
मनमानी नहीं
कर सकते। भाव
ठीक मन के
नीचे है; भाव
तुम्हारे और
तुम्हारे मन
के बीच की कड़ी
है।
फिर
शिव कहते हैं ’तब
उन्हें अलग छोड़कर
मुक्त हो जाओ।’
तब
भाव को भी छोड़
दो। और स्मरण
रहे,
भाव के
गहनतम तल पर
पहुंचकर ही
तुम भाव को
छोड़ सकते हो।
अगर तुम उनके
गहन तल पर
नहीं हो तो
उन्हें कैसे
छोड़ सकते हो? पहले
तुम्हें
दर्शनशास्त्र
को छोड़ना होगा;
हिंदू धर्म,
ईसाइयत और
इस्लाम को
छोड़ना होगा।
पहले
दर्शनशास्त्र
छोड़ना है और
तब विचार छोड़ना
है। फिर क्रमश:
शब्द, अक्षर,
ध्वनि और
भाव को छोड़ना
है।
तुम
उसी जगह को
छोड़ सकते हो
जहां तुम हो।
तुम उसी सीढ़ी
को छोड़ सकते
हो जिस पर तुम
खड़े हो। उस
सीढ़ी को कैसे
छोड़ सकते हो
जिस पर तुम
खड़े ही नहीं
हो?
तुम दर्शनशास्त्र
की सीढ़ी पर
खड़े हो। यह
सबसे दूर की
सीडी है। यही
कारण है कि
मैं इस बात पर इतना
जोर देता हूं
कि जब तक तुम
धर्मों को नहीं
छोड़ते, तुम
धार्मिक नहीं
हो सकते हो।
यह
सूत्र, यह
विधि बहुत
आसानी से
प्रयोग की जा
सकती है।
कठिनाई भाव के
साथ नहीं है; कठिनाई शब्दों
के साथ है।
किसी भाव को
तुम वैसे ही
छोड़ सकते हो
जैसे तुम अपने
कपड़े उतारते
हो। जैसे तुम
अपने शरीर के
कपड़े उतारकर
फेंक देते हो,
ठीक वैसे ही
तुम अपने
भावों को अपने
से अलग कर सकते
हो। लेकिन अभी
तुम यह नहीं
कर सकते, अभी
यह करना असंभव
है। इसलिए कदम—कदम
चलना ठीक है।
अ, ब,
स, आदि
अक्षरों को
कल्पना की आंखों
से देखो, और
तब उनके लिखित
रूप से हटकर
उनके सुने हुए
स्वर पर ध्यान
दो। अब तुम
गहराई में उतर
रहे हो, सतह
पीछे छूट गई।
तुम गहराई में
डूब रहे हो।
और अब देखो कि
किसी विशेष
ध्वनि से क्या
भाव पैदा होता
है। ऐसी
विधियों के
कारण ही भारत
अनेक चीजों का
आविष्कार कर
सका जो भाव—विशेष
से संबंधित
हैं। इस
विज्ञान के
कारण ही मंत्र
का विकास हुआ।
एक खास ध्वनि
एक खास भाव के
साथ जुडी है; इससे अन्यथा
नहीं हो सकता।
तो यदि तुम
अपने भीतर वह
ध्वनि पैदा
करो तो उससे
उस विशेष भाव
का जन्म होगा।
तुम एक मंत्र
के द्वारा
उससे संबंधित
भाव पैदा कर
सकते हो।
मंत्र से वह
वातावरण पैदा
होता है, जिसमें
वह विशेष भाव
जन्म लेता है।
इसलिए
यूं ही किसी
मंत्र का
उपयोग मत करो।
वह ठीक नहीं
है;
वह
तुम्हारे लिए
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है।
अगर तुम नहीं
जानते हो या
वह व्यक्ति
नहीं जानता है
जिससे तुम
मंत्र लेते हो
कि किस ध्वनि
से कौन—सा भाव
निर्मित होगा,
या अगर तुम
नहीं जानते हो
कि तुम्हें उस
भाव की जरूरत
है अथवा नहीं
तो मंत्र का
उपयोग मत करो।
मारण मंत्र
जैसे भी मंत्र
हैं। अगर तुम
मारण मंत्र का
जाप करोगे तो
एक निश्चित
अवधि के भीतर
तुम्हारी
मृत्यु हो
जाएगी। वह
मंत्र
तुम्हारे भीतर
मृत्यु की
कामना पैदा कर
देगा और एक
निश्चित समय
के अंदर तुम
समाप्त हो
जाओगे।
फ्रायड
कहता है कि
आदमी में दो
बुनियादी
वृत्तियां
हैं। उनमें एक
है जीवेषणा, इरोस;
यानी जीने
की कामना, जीवित
रहने की चाह।
और दूसरी है
मृत्युएषणा, थानाटोस, यानी मरने
की कामना, मृत्यु
की चाह।
ऐसी
ध्वनियां हैं
जिनके सतत
उच्चारण से
तुम्हारे
भीतर मरण—कामना
का जन्म होगा, तुम
मृत्यु में
समा जाना
चाहोगे। वैसे
ही ऐसी
ध्वनियां हैं
जो तुम्हें
अधिक जीवेषणा
प्रदान
करेंगी, जिनसे
जीने में, जीवन
में तुम्हारा
रस बढ़ जाएगा; तुम ज्यादा
जीवित रहना
चाहोगे। तो
अगर तुम अपने
भीतर उन
ध्वनियों को
पैदा करोगे तो
उनसे संबंधित
भाव तुम्हें
अभिभूत कर देंगे।
ऐसी ध्वनियां
हैं जिनसे मौन
और शाति
प्राप्त होती
है और ऐसी
ध्वनियां भी
हैं जिनसे
क्रोध का जन्म
होता है।
इसलिए जब तक
किसी जानकार
गुरु से मंत्र
न मिले तब तक
मंत्र का
प्रयोग करना
ठीक नहीं है।
जब
तुम ध्वनि से
नीचे उतरते हो
तो तुम्हें
पता चलता है
कि प्रत्येक
ध्वनि का अपना
एक भाव है, जो
उसके साथ चलता
है, जो
उसके पीछे
छिपा रहता है।
जब तुम भाव
में गति कर
जाओ, तब
तुम ध्वनि को
भूल जाओ और
भाव में सरक
जाओ। इसे
समझना कठिन है,
लेकिन यह
तुम कर सकते
हो।
ओर
इसके लिए
विशेष
विधियां हैं।
विशेषकर झेन—साधना
में इसके लिए
अलग विधियां
हैं। किसी
साधक को एक
खास मंत्र
दिया जाता है।
और अगर वह
उसका ठीक
प्रयोग करता
है तो यह बात
गुरु उसके
चेहरे से जान
लेता है।
चेहरा देखकर
ही गुरु जान
जाता है कि साधक
ठीक प्रयोग कर
रहा है या
नहीं; क्योंकि
ठीक प्रयोग से
एक भाव—विशेष
का उदय अनाहत होता
है। अगर ध्वनि
ठीक से पैदा की
जाए तो भाव का आविभार्व
निश्चित है। और
वह भाव चेहरे
पर प्रकट होगा;
तुम गुरु को
धोखा नहीं दे
सकते। वह
तुम्हारे
चेहरे से जान
लेगा कि
तुम्हारे भीतर
क्या घट रहा है।
डोजो
एक बड़ा झेन
गुरु हुआ। जब
वह शिष्य ही
था तो उसे बड़ी
हैरानी होती
कि मेरे गुरु
यह कैसे जानते
हैं कि मेरे
भीतर क्या
अनुभव घट रहा
है। और झेन
गुरु अपना
डंडा लिए
घूमता था और
शिष्य के सिर
पर डंडे से
चोट कर देता
था। अगर
तुम्हारे
मंत्र के
प्रयोग में
कोई भूल हो
रही है तो वह
तुम्हारे सिर
पर चोट कर
देगा। तो डोजो
ने पूछा कि आप
कैसे जान लेते
हैं कि ठीक
वक्त पर ही
चोट करते हैं।
आप जानते कैसे
हैं?
चेहरा
भाव को प्रकट
कर देता है।
वह ध्वनि को
नहीं प्रकट कर
सकता, लेकिन
भाव को प्रकट
कर देता है।
और तुम जितने
गहरे जाओगे
उतना ही
तुम्हारा
चेहरा
अभिव्यक्ति
के योग्य, नमनीय
और तरल होता
जाएगा। वह
तुरंत बता
देता है कि
भीतर क्या हो
रहा है। अभी
जो तुम्हारा
चेहरा है वह
नहीं रहेगा।
वह तो मुखौटा
है, चेहरा
नहीं। जब तुम
भीतर जाते हो
तो मुखौटे गिर
जाते हैं; क्योंकि
उनकी जरूरत
नहीं रहती। मुखौटे
तो दूसरों के
लिए होते हैं।
यही
कारण है कि
पुराने गुरु
संसार छोड़ने
के लिए जोर
देते थे। यह
इसलिए कि तुम
आसानी से अपने
मुखौटे से मुक्त
हो जाओ।
अन्यथा जब तक
दूसरे रहेंगे
तुम उनके लिए
मुखौटे लगाते
रहोगे। तुम
अपने पति या
पत्नी को
प्रेम नहीं
करते हो; लेकिन
तुम्हें एक
मुखौटा पहने
रहना पड़ता है,
एक
प्रीतिपूर्ण
चेहरा बनाए
रखना पड़ता है।
जिस क्षण तुम
अपने घर में
प्रवेश करते
हो, तुम
अपना चेहरा
सजाने लगते हो,
तुम भीतर
जाते ही
मुस्कुराने
लगते हो। वह
तुम्हारा
असली चेहरा
नहीं है।
झेन
गुरु इस बात
पर जोर देते
थे कि पहले तुम
जानो कि
तुम्हारा
मौलिक चेहरा
क्या है।
मौलिक चेहरे
के साथ सब कुछ
आसान हो जाता
है। तब गुरु
को सब पता चल
जाता है कि
क्या हो रहा
है। इसलिए
ज्ञानोपलब्धि
की घटना बतानी
नहीं पड़ती थी।
अगर कोई साधक
ज्ञान को
उपलब्ध होता
था तो उसे यह
बात गुरु को
बताने की
जरूरत नहीं
पड़ती थी। गुरु
अपने आप ही
जान लेता था
और वही शिष्य
को कहता था।
शिष्य को अपनी
तरफ से जाकर
गुरु को बताने
की इजाजत नहीं
थी,
उसकी जरूरत
नहीं थी।
चेहरा बता
देता था, आंख
बता देती थी, चलने का ढंग
बता देता था।
उसका
प्रत्येक
कृत्य, उसकी
हरेक भाव—
भंगिमा बताती
है कि वह
पहुंच गया।
जब
तुम ध्वनि से
भाव पर जाते
हो तो तुम
बहुत ही आनंदपूर्ण
संसार में गति
करते हो—एक
अस्तित्वगत
संसार में।
तुम मन से दूर
हट जाते हो।
भाव
अस्तित्वगत
है;
भाव शब्द का
अर्थ ही वह है।
तुम भावों को
अनुभव करते हो।
तुम उन्हें
देख नहीं सकते,
सुन नहीं
सकते, सिर्फ
अनुभव कर सकते
हो।
और
जब तुम इस
बिंदु पर
पहुंचते हो तो
छलांग लगा
सकते हो। यह
आखिरी कदम है।
अब तुम अनंत
खड्ड के पास
खड़े हो, अब
कूद सकते हो।
और अगर तुम
भाव से छलांग
लगाते हो तो
तुम अपने में
छलांग लगाते
हो। वह अनंत, वह अतल तुम
हो—मन की तरह नहीं,
अस्तित्व
की तरह; संचित
भविष्य की तरह
नहीं, बल्कि
वर्तमान की
तरह, यहां
और अभी की तरह।
तुम मन’ अस्तित्व
पर गति कर
जाते हो; भाव
उनके बीच सेतु
का काम करता
है।
लेकिन
भाव पर
पहुंचने के
लिए तुम्हें
बहुत सी चीजें
छोड़नी होंगी।
शब्द, ध्वनि
और मन की सब
प्रवंचना
छोड़नी होगी।
'तब उन्हें
अलग छोड़कर
मुक्त हो जाओ।’
तब
तुम मुक्त हो।
’मुक्त हो जाओ' का
यह मतलब नहीं
है कि तुम्हें
मुक्त होने के
लिए कुछ करना
होगा। ’तब
उन्हें अलग छोड़कर
मुक्त हो जाओ'
का मतलब है
कि तुम मुक्त
हो। होना
मुक्ति है, मन बंधन है।
इससे ही कहा
है कि मन
संसार है।
संसार को मत
छोड़ो; तुम
उसे छोड़ भी
नहीं सकते।
अगर मन है तो
तुम दूसरा
संसार
निर्मित कर
लोगे। बीज तो
बचा है। तुम
पहाड़ पर जा
सकते हो, तुम
भागकर किसी
आश्रम में रह
सकते हो; लेकिन
मन तुम्हारे
साथ जाएगा। मन
को छोड़कर तो
नहीं जा सकते।
और मन के साथ
संसार चलता है।
तुम फिर दूसरा
संसार गढ़ लोगे।
आश्रम में भी
तुम संसार
बनाने लगोगे;
क्योंकि
बीज साथ में
है। तुम फिर
संबंध बनाने
लगोगे—चाहे वह
संबंध पेडू—पौधे
और पशु—पक्षी
के साथ ही
क्यों न हो।
फिर तुम्हारी
अपेक्षाएं
खड़ी हो जाएंगी।
जाल बढ़ता ही
जाएगा।
क्योंकि बीज
मौजूद है। तुम
फिर संसार में
होंगे। मन ही
संसार है; मन
को तुम कहीं
नहीं छोड़ सकते।
तुम
मन को तभी छोड़
सकते हो जब
तुम अपने भीतर
यात्रा करो।
वही एक हिमालय
है,
कोई दूसरा
हिमालय नहीं
है। अगर तुम
शब्द से भाव
पर और भाव से
होने पर आ जाओ तो
तुम संसार से
मुक्त हो
जाओगे। और जब
तुम इस
अस्तित्व के
अनंत विराट को
जान लोगे तब
तुम कहीं भी
रह सकते हो, नरक में भी
रह सकते हो।
तब कोई फर्क
नहीं पड़ेगा; कोई भी फर्क
नहीं। अगर मन
नहीं है तो
नरक तुममें
प्रवेश नहीं
कर सकता और मन
के साथ सिर्फ
नरक आता है।
मन नरक का
द्वार है।
'उन्हें अलग छोड़कर
मुक्त हो जाओ।’
लेकिन
भाव के साथ
सीधा प्रयोग
मत करो; तुम
सफल न हो
सकोगे। पहले
शब्दों के साथ
प्रयोग करो।
लेकिन अगर
तुमने
दर्शनशास्त्र
नहीं छोड़ा, विचारों को
नहीं छोड़ा तो
शब्दों के साथ
भी सफल न हो
पाओगे। शब्द
सिर्फ
इकाइयां हैं।
और अगर तुम
शब्दों को
महत्व दोगे तो
तुम उन्हें
नहीं छोड़ सकते।
यह
भलीभांति जान
लो कि भाषा
मनुष्य की
बनाई हुई है।
उसका उपयोग है; वह
जरूरी है। और
ध्वनियों को
जो अर्थ मिला
है वह भी
हमारा दिया
हुआ है। इस
बात को
भलीभांति समझ
लो तो यात्रा
सरल हो जाएगी।
अगर कोई कुरान
या वेद के
विरुद्ध
बोलता है तो
तुम्हें कैसा
लगता है? क्या
तुम उस पर हंस
सकते हो? या
कि तुम्हारे
भीतर कुछ भिंच
जाता है? कोई
गीता का अपमान
कर रहा है, या
कोई कृष्ण, राम या
क्राइस्ट के
खिलाफ बोल रहा
है। क्या तुम
उस पर हंस
सकते हो? क्या
तुम देख सकते
हो कि वे महज
शब्द हैं?
नहीं, तुम्हें
चोट लगेगी। और
तब शब्दों को
छोड़ना कठिन
होगा। समझना
होगा कि शब्द
सिर्फ शब्द
हैं। वे
ध्वनियां हैं
जिन्हें
सर्वसम्मत
अर्थ दिया गया
है। वे और कुछ
भी नहीं हैं।
इस बात को ठीक
से आत्मसात कर
लो। हकीकत यही
है कि शब्द मात्र
शब्द हैं।
पहले
शब्दों से
विरक्त होओ।
शब्दों से
विरक्त होकर
ही तुम जानोगे
कि वे ध्वनियां
भर हैं। यह
वैसे ही है
जैसे
मिलिट्री में
वे संख्याओं
का प्रयोग
करते हैं। कोई
सिपाही एक सौ
एक नंबर का
सिपाही है; वह
एक सौ एक के
साथ
तादात्म्य कर
ले सकता है।
और अगर कोई
व्यक्ति एक सौ
एक नंबर के
विरुद्ध कुछ
कहेगा तो उसे
बुरा लगेगा, वह झगड़ा
करेगा। और एक
सौ एक महज
संख्या है, लेकिन उससे
उसका
तादात्म्य हो
गया है।
तुम्हारा
नाम भी संख्या
जैसा ही है—गिनती
के लिए है।
उसके बिना काम
चलाना कठिन
होगा। वह बस
एक लेबल है।
कोई दूसरा
लेबल भी वही
काम देगा।
लेकिन
तुम्हारे लिए
वह लेबल ही
नहीं रहा है, वह
कुछ और हो गया
है। तुम्हारा
नाम तुममें
गहरे उतरकर
तुम्हारा अहंकार
बन गया है।
इसीलिए बड़े—बूढ़े
कहते हैं कि
नाम पैदा करो,
अपने नाम की
शान रखो; ऐसा
कुछ करो कि
मरने के बाद
भी तुम्हारा
नाम रहे।
यह
नाम पहले भी
नहीं था। और
वह कोड नंबर
से ज्यादा
नहीं है। तुम
मरोगे और नाम
रहेगा? जब
तुम ही नहीं
रहोगे तो नाम
कैसे रहेगा?
शब्दों
को देखो; उनकी
व्यर्थता को,
अर्थहीनता
को देखो। उनसे
आसक्त मत होओ,
लगाव मत
बनाओ। केवल
तभी इस विधि
का प्रयोग तुम
कर सकोगे।
ध्वनि—संबंधी
दूसरी विधि:
ध्वनि के
केद्र में
स्नान करो, मानो
किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो। या
कानों में
अंगुली डालकर
नादों के नाद
अनाहत को सुनो।
इस
विधि का
प्रयोग कई ढंग
से किया जा
सकता है। एक
ढंग यह है कि
कहीं भी बैठकर
इसे शुरू कर
दो। ध्वनियां
तो सदा मौजूद
हैं। चाहे
बाजार हो या हिमालय
की गुफा, ध्वनियां
सब जगह हैं।
चुप होकर बैठ
जाओ।
और
ध्वनियों के
साथ एक बडी
विशेषता है, एक
बड़ी खूबी है। जहां
भी, जब भी
कोई ध्वनि
होगी, तुम
उसके केंद्र
होगे। सभी
ध्वनियां
तुम्हारे पास
आती हैं, चाहे
वे कहीं से
आएं, किसी
दिशा से आएं। आंख
के साथ, देखने
के साथ यह बात
नहीं है।
दृष्टि
रेखाबद्ध है।
मैं तुम्हें
देखता हूं तो
मुझसे तुम तक
एक रेखा खिंच
जाती है।
लेकिन ध्वनि
वर्तुलाकार
है; वह
रेखाबद्ध
नहीं है। सभी
ध्वनियां
वर्तुल में
आती हैं और
तुम उनके
केंद्र हो।
तुम जहां भी
हो, तुम
सदा ध्वनि के
केंद्र हो।
ध्वनियों के लिए
तुम सदा
परमात्मा हो—समूचे
ब्रह्मांड का
केंद्र। हरेक
ध्वनि वर्तुल
में तुम्हारी
तरफ यात्रा कर
रही है।
यह
विधि कहती है’ ध्वनि
के केंद्र में
स्नान करो।’
अगर
तुम इस विधि
का प्रयोग कर
रहे हो तो तुम
जहां भी हो
वहीं आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
सारा
ब्रह्मांड ध्वनियों
से भरा है।
तुम भाव करो
कि हरेक ध्वनि
तुम्हारी ओर
बही आ रही है।
और तुम उसके
केंद्र हो। यह
भाव भी कि मैं
केंद्र हूं
तुम्हें गहरी
शाति से भर
देगा। सारा
ब्रह्मांड
परिधि बन जाता
है और तुम
उसके केंद्र
होते हो। और
हर चीज, हर
ध्वनि
तुम्हारी तरफ
बह रही है।
'मानो किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो।’
अगर
तुम किसी
जलप्रपात के
किनारे खड़े हो
तो वहीं आंख
बंद करो और
अपने चारों और
से ध्वनि को
अपने ऊपर बरसते
हुए अनुभव करो।
और भाव करो कि तुम
उसके केंद्र हो।
अपने
को केंद्र समझने
पर यह जोर क्या
है? क्योंकि केंद्र
में कोई ध्वनि
नहीं है; केंद्र
ध्वनि—शून्य
है। यही कारण
है कि तुम्हें
ध्वनि सुनाई
पड़ती है, अन्यथा
नहीं सुनाई
पड़ती। ध्वनि
ही ध्वनि को
नहीं सुन सकती।
अपने केंद्र
पर ध्वनि—शून्य
होने के कारण
तुम्हें
ध्वनियां
सुनाई पड़ती
हैं। केंद्र
तो बिलकुल ही
मौन है, शांत
है। इसीलिए
तुम ध्वनि को
अपनी ओर आते, अपने भीतर
प्रवेश करते,
अपने को
घेरते हुए
सुनते हो।
अगर
तुम खोज लो कि
यह केंद्र कहा
है,
तुम्हारे
भीतर वह जगह
कहां है जहां
सब ध्वनियां
बहकर आ रही
हैं तो अचानक
सब ध्वनियां
विलीन हो
जाएंगी और तुम
निर्ध्वनि
में, ध्वनि—शून्यता
में प्रवेश कर
जाओगे। अगर
तुम उस केंद्र
को महसूस कर
सको जहां सब
ध्वनियां
सुनी जाती हैं
तो अचानक
चेतना मुड़ जाती
है। एक क्षण
तुम
निर्ध्वनि से
भरे संसार को
सुनोगे और
दूसरे ही क्षण
तुम्हारी
चेतना भीतर की
ओर मुड़ जाएगी
और तुम बस
ध्वनि को, मौन
को सुनोगे जो
जीवन का
केंद्र है। और
एक बार तुमने
उस ध्वनि को
सुन लिया तो
कोई भी ध्वनि
तुम्हें
विचलित नहीं
कर सकती। वह
तुम्हारी ओर
आती है; लेकिन
वह तुम तक
पहुंचती नहीं
है। वह सदा
तुम्हारी ओर
बह रही है; लेकिन
वह कभी तुम तक
पहुंच नहीं
पाती। एक बिंदु
है जहां कोई
ध्वनि नहीं
प्रवेश करती
है; वह
बिंदु तुम हो।
बीच
बाजार में इस
विधि का
प्रयोग करो।
बाजार जैसा
कोई दूसरा
स्थान नहीं है, वह
शोरगुल से, पागल शोरगुल
से इस कदर भरा
रहता है।
लेकिन इस
शोरगुल के
संबंध में सोच—विचार
मत करो; यह
मत कहो कि यह
ध्वनि अच्छी
है, यह
बुरी है; यह
उपद्रव पैदा
करती है, यह
सुंदर और
लयपूर्ण है।
ध्वनियों के
संबंध में
तुम्हें सोच—विचार
नहीं करना है।
तुम्हारा यह
काम नहीं है
कि जो भी
ध्वनि तुम्हारी
तरफ बहकर आए
उस पर तुम
विचार करो कि
वह अच्छी है, बुरी है, या
सुंदर है।
तुम्हें इतना
ही स्मरण रखना
है कि मैं
केंद्र हूं और
सभी ध्वनियां
बहकर मेरे पास
आ रही हैं।
शुरू—शुरू
में घबराहट
होगी; क्योंकि
तुम अपने
चारों ओर उठने
वाली सब ध्वनियों
को नहीं सुनते
हो। तुम सुनने
में चुनाव
करते हो। अब
वैज्ञानिक
शोध कहती है
कि हम सिर्फ
दो प्रतिशत
सुनते हैं, अट्ठानबे
प्रतिशत
अनसुना कर
देते हैं। अगर
तुम शत—प्रतिशत
सुनो तो तुम
पागल हो जाओगे।
अपने चारों ओर
की आवाजों को
शत—प्रतिशत
सुनकर तुम
पागल होने से
नहीं बचोगे।
पहले
यह समझा जाता
था कि
इंद्रियां
द्वार—दरवाजे
हैं जिनसे
बाहर की
दुनिया भीतर
प्रवेश करती
है। लेकिन अब
वे कहते हैं
कि ऐसी बात
नहीं है, वे
दरवाजे नहीं
हैं, वे
उतनी खुली
नहीं हैं
जितना समझा
जाता था। वे
द्वार नहीं
हैं, बल्कि
वे नियंत्रण
का, सेंसर
का काम करती
हैं; वे
पहरेदार की
तरह हर क्षण
देखती रहती
हैं कि किसे
भीतर जाने
दिया जाए और
किसे नहीं। दो
प्रतिशत
सुनकर ही तो
तुम पागल हो
गए हो; शत—प्रतिशत
सुनकर
तुम्हारा
क्या हाल
होगा!
तो
जब तुम इस
विधि का
प्रयोग शुरू
करोगे तो तुम्हारा
सिर चकराने
लगेगा। उस से मत
डरना। केंद्र
पर रहो और जो
कुछ हो रहा है
उसे होने दो।
सब कुछ को आने
दो। अपनी इंद्रियों
को शिथिल करो, पहरेदारों
को आराम करने
दो, सब कुछ
को विश्राम
में जाने दो
और तब सब कुछ
को अपने भीतर
प्रवेश करने
दो। अब तुम
ज्यादा तरल हो
गए हो; तुम
खुले हो। और
सब ध्वनियां,
सब आवाजें
तुम्हारी ओर आ
रही हैं। तब
ध्वनियों के
साथ चल पड़ो और इस
केंद्र पर पहुंचों
जहां तुम उसे सुनते
हो।
ध्वनियां
कान में नहीं
सुनी जाती हैं, कान
उन्हें सुन भी
नहीं सकते; कान सिर्फ
संचारण करने
का काम करते
हैं। और इस
संचारण के
क्रम में वे
उस सब को छांट
देते हैं जो
तुम्हारे लिए
जरूरी नहीं है।
वे चुनाव करते
हैं, वे
छांटते हैं, और फिर वे
चुनी हुई
ध्वनियां
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करती हैं। अब
भीतर खोजो कि
तुम्हारा
केंद्र कहां
है। कान
केंद्र नहीं
हैं। तुम कहीं
किसी गहराई
में सुनते हो।
कान तो कुछ
चुनी हुई
ध्वनियों को
ही भेजते हैं।
तुम कहां हो? तुम्हारा
केंद्र कहां
है?
अगर
तुम ध्वनियों
के साथ प्रयोग
जारी रखते हो तो
देर— अबेर तुम
जानकर चकित होगे
कि यह केंद्र
सिर में नहीं
है। मालूम तो
होता है कि
सिर में है, क्योंकि
तुम ध्वनि
नहीं, शब्द
सुनते हो।
शब्दों के लिए
तो सिर ही
केंद्र है, लेकिन ध्वनि
के लिए वह
केंद्र नहीं
है। यही कारण
है कि जापान
में वे कहते
हैं कि आदमी सिर
से नहीं, पेट
से सोचता है।
जापान में
उन्होंने
बहुत लंबे समय
से ध्वनि पर
काम किया है।
तुमने
मंदिरों में
घंटे लगे देखे
होंगे। वे
वहां साधकों
के लिए ही
ध्वनि पैदा
करने के लिए
रखे गए हैं।
कोई साधक
ध्यान कर रहा
है और घंटे
बजाए जा रहे हैं।
तुम्हें
लगेगा कि इस
घंटे की आवाज
से साधक के लिए
बाधा खड़ी हो
रही है। लगेगा
कि ध्यान करने
वाले को बाधा
महसूस हो रही
है। यह क्या
उपद्रव है!
मंदिर में आने
वाला हरेक दर्शनार्थी
घंटे को बजा
देता है।
पर
यह आवाज
उपद्रव नहीं
है। वह साधक
तो इसी ध्वनि
की प्रतीक्षा
कर रहा है। हर
दर्शनार्थी
इसमें सहयोग
दे रहा है।
बार—बार घंटा
बजता है, ध्वनि
होती है और
ध्यानी फिर
अपने में डूब
जाता है। वह
उस केंद्र को
देखता है जहां
वह ध्वनि गहरे
में उतरती
जाती है। पहली
चोट
दर्शनार्थी
घंटे पर लगाता
है; दूसरी
चोट कहीं
ध्यानी के
भीतर होती है।
यह दूसरी चोट
कहां लगती है?
यह
दूसरी चोट सदा
पेट में लगती
है,
सिर में कभी
नहीं। अगर चोट
सिर में लगे
तो समझना
चाहिए कि वह
ध्वनि नहीं है,
शब्द है। तब
तुमने ध्वनि
के संबंध में
सोचना शुरू कर
दिया। तब
शुद्धता नष्ट
हो गई।
अभी
गर्भस्थ
शिशुओं पर
बहुत
अनुसंधान हो
रहा है।
उन्हें भी
ध्वनि का आघात
लगता है और वे
भी प्रतिक्रिया
करते हैं। वे
भाषा के प्रति
प्रतिक्रिया
नहीं कर सकते, अभी
उनको सिर नहीं
है, उन्हें
अभी तर्क करना
नहीं आता है।
वे भाषा और
समाज—सम्मत
नियम नहीं
जानते हैं। वे
भाषा नहीं
जानते हैं, लेकिन वे
ध्वनि ठीक से
सुनते हैं। और
हर ध्वनि मां
से ज्यादा
बच्चे को प्रभावित
करती है।
क्योंकि मां
ध्वनि नहीं
सुन सकती, वह
शब्द सुनती है।
और हम पागल और
अराजक आवाजें
पैदा करते
रहते हैं और
वे आवाजें
गर्भस्थ
बच्चों को
पीड़ित कर रही
हैं। वे बच्चे
पागल पैदा
होंगे। तुमने
उन्हें बहुत
उपद्रव में
डाल दिया है।
ध्वनि
से पौधे भी
प्रभावित
होते हैं। अगर
पौधों के निकट
संगतिपूर्ण
ध्वनि पैदा की
जाए तो उनका
विकास अधिक
होता है। और
उनके निकट
अराजक ध्वनि
पैदा करने से विकास
कम होता है।
तुम उन्हें
बढ़ने में मदद
दे सकते हो; ध्वनियों
के द्वारा तुम
उन्हें बहुत
मदद दे सकते हो।
अब
तो वे कहते
हैं कि
ट्रैफिक के
शोर से, आधुनिक
शहरों में
होने वाले
यातायात के
शोर से आदमी
पागल हुआ जा
रहा है।
ट्रैफिक का
शोर अराजक है,
उसमें जरा
भी लयबद्धता
नहीं है। कहते
हैं कि यह शोर
अपनी चरम सीमा
पर पहुंच गया
है। और अगर वह
इससे भी आगे
गया तो आदमी
के लिए कोई आशा
नहीं रहेगी।
ये
ध्वनियां
निरंतर तुम पर
आघात कर रही
हैं। अगर तुम
उनके संबंध
में विचार
करोगे तो वे
तुम्हारे सिर
पर चोट करेंगी।
और सिर केंद्र
नहीं है, केंद्र
तो नाभि में
है—नाभि—केंद्र।
इसलिए
ध्वनियों के
संबंध में
विचार मत करो।
सभी
मंत्र
अर्थहीन
ध्वनियां हैं।
अगर कोई गुरु
किसी मंत्र का
अर्थ बताता है
तो समझना
चाहिए कि वह
मंत्र ही नहीं
है। यह जरूरी
है कि मंत्र
में कोई अर्थ
न हो। उसकी
उपयोगिता है; लेकिन
उसमें कोई
अर्थ नहीं है।
वह तुम्हारे
भीतर कुछ
करेगा; लेकिन
उसमें कोई
अर्थ नहीं है।
उसे तुम्हारे
भीतर शुद्ध
ध्वनि के रूप
में ही काम
करना है। यही
कारण है कि ओम
मंत्र का
विकास हुआ।
उसमें कोई
अर्थ नहीं है;
वह अर्थहीन
है। वह शुद्ध
ध्वनि है। अगर
तुम्हारे
भीतर यह शुद्ध
ध्वनि पैदा की
जा सके, अगर
तुम इसे पैदा
कर सको तो भी
यही विधि
प्रयोग की जा
सकती है।
'ध्वनि के
केंद्र में स्नान
करो, मानो
किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो। या
कानों में
अंगुली डालकर
नादों के नाद,
अनाहत को
सुनो।’
तुम
अंगुली के
जरिए कानों को
बंद करके भी
ध्वनि पैदा कर
सकते हो। कोई
भी चीज जो
बलपूर्वक
कानों को बंद
कर दे, काम दे
देगी। उस हालत
में भी एक
ध्वनि सुनाई
देती है। वह
कौन सी ध्वनि
है जो कान के
बंद करने पर
सुनाई देती है?
और उसे तुम
क्यों सुनते
हो?
अमेरिका
में ऐसी घटना
घटी। किसी नगर
के पास से
रेलगाड़ी
गुजरती थी।
आधी रात उसके
गुजरने का समय
था;
कोई दो बजे।
फिर एक नई
लाइन का
उदघाटन हुआ, पुरानी लाइन
से गाड़ी का
चलना बंद हो
गया। लेकिन एक
बड़ी हैरानी की
बात हुई कि
जिस इलाके से
पुरानी लाइन
गुजरती थी और
जिधर से गाड़ी
का चलना बंद
हो गया था, उन
लोगों ने
पुलिस से
शिकायत की कि
उन्हें रात के
दो बजे के समय
कुछ
रहस्यपूर्ण
आवाज सुनाई देती
है। और इस तरह
की इतनी
शिकायतें आईं
कि पुलिस को
जांच—पड़ताल
करनी पड़ी।
दो
बजे रात एक
अजीब आवाज
सुनाई पड़ती थी, जो
पहले कभी नहीं
सुनी गई थी जब
रेलगाड़ी उस इलाके
से गुजरती थी।
लोग रेलगाड़ी
के आदी हो गए
थे। अब अचानक
रेल का गुजरना
बंद हो गया।
वे नींद में
रेल की आवाज
सुनने का
इंतजार करने
लगे; वे
उसके इतने आदी
हो गए थे, उससे
इतने जुड़ गए
थे, वे
इंतजार करते
थे। लेकिन अब
आवाज नहीं आती
थी। उसकी जगह
उसकी
अनुपस्थिति
सुनाई देने
लगी; और यह
अनुपस्थिति
बिलकुल नई चीज
थी। और उस
इलाके के लोग
इस बात को
लेकर बहुत
परेशान हुए; उनकी नींद
हराम हो गई।
और
पहली बार पता
चला कि अगर
कोई ध्वनि तुम
निरंतर सुनते
रहे हो और फिर
वह बंद हो जाए
तो तुम उसकी
अनुपस्थिति
को सुनने लगोगे।
यह मत सोचो कि
बस तुम्हें
उसका सुनाई
देना बंद हो
जाएगा; उसका
अभाव सुनाई
देने लगेगा।
यह
ऐसा ही है कि
मैं यहां
तुम्हें देख
रहा हूं और फिर
अगर मैं आंखें
बंद कर लूं तो तुम्हारा
निगेटिव, तुम्हारा
उलटा रूप
दिखाई देने
लगेगा। अगर
तुम खिड़की को
देखो और फिर आंखें
बद कर लो तो तुम्हें
खिड़की का
निगेटिव
दिखाई देने
लगेगा। और यह
निगेटिव
चित्र इतना
जोरदार हो
सकता है कि
अगर तुम अचानक
दीवार को देखो,
तो वह दीवार
पर
प्रक्षेपित
हो जाएगा और
तुम उसे देख
सकोगे।
जैसे
फोटोग्राफ के
निगेटिव होते
हैं,
वैसे ही
निगेटिव
ध्वनियां भी
होती हैं। और
न सिर्फ आंखें
निगेटिव
चित्र देखती
हैं; कान
भी निगेटिव
ध्वनि सुनते
हैं। जब तुम
कान बंद करते
हो तो तुम
ध्वनियों के
निगेटिव
संसार को सुनते
हो। सभी
ध्वनियां बंद
हो गई हैं और
अचानक एक नयी
आवाज सुनाई
देने लगी है।
यह ध्वनि
ध्वनियों की
अनुपस्थिति
है। एक अंतराल
आ गया; तुम
कुछ चूक रहे
हो और तब तुम
अनुपस्थिति
को सुनते हो।
'या कानों
में अंगुली
डालकर नादों
के नाद, अनाहत
को सुनो।’
वह
निगेटिव
ध्वनि ही अनाहत
कहलाती है।
क्योंकि वह
दरअसल ध्वनि
नहीं है, ध्वनि
की
अनुपस्थिति
है। या वह
नैसर्गिक
ध्वनि है; क्योंकि
वह पैदा नहीं
की जाती है।
सभी ध्वनियां
पैदा की जाती
हैं; लेकिन
तुम जो ध्वनि
कान बंद करके
सुनते हो वह अनाहत
ध्वनि है। अगर
सारा संसार
पूरी तरह मौन
हो जाए तो तुम
उस मौन को भी
सुनोगे।
पास्कल
ने कहीं कहा
है कि जिस
क्षण मैं अनंत
ब्रह्मांड की
सोचता हूं
उसका मौन मुझे
बहुत भयभीत कर
देता है। उसे
मौन भयभीत
करता है, क्योंकि
ध्वनियां तो
पृथ्वी पर ही
हैं। ध्वनि के
लिए वायुमंडल
चाहिए। जिस
क्षण तुम
पृथ्वी के
वायुमंडल के
बाहर निकल
जाते हो, वहा
कोई ध्वनि
नहीं मिलेगी।
वहां परम मौन
है। उस मौन को
तुम पृथ्वी पर
भी पैदा कर
सकते हो, अगर
तुम अपने
दोनों कान
पूरी तरह बंद
कर लो। तुम
धरती पर होकर
भी धरती पर
नहीं हो, तुम
ध्वनि से नीचे
उतर गए।
अंतरिक्ष—यात्रियों
को अनेक चीजों
के लिए प्रशिक्षित
किया जा रहा
है। उनमें
उन्हें मौन
में रहना भी
सिखाया जाता
है। उन्हें
ध्वनि—शून्य
कक्षों में
रखकर
निर्ध्वनि
में रहने का
अभ्यास कराया
जाता है।
अन्यथा वे
अंतरिक्ष में
जाकर पागल हो
जाएंगे।
उन्हें अनेक
समस्याओं का
सामना करना
पड़ता है; उनमें
सबसे गंभीर समस्या
यह है कि
मनुष्य के
ध्वनि— भरे
जगत के बाहर
कैसे रहा जाए।
वहा तुम अलग—
थलग पड़ जाते
हो, अकेले
हो जाते हो।
अगर
तुम किसी जंगल
में खो जाओ और
कोई आवाज तुम्हें
सुनाई दे तो
उसके स्रोत को
न जानते हुए भी
तुम कम भयभीत
होते हो।
तुम्हें लगता
है कि कोई है।
तुम अकेले
नहीं हो, कोई
है। सन्नाटे
में तुम अकेले
हो जाते हो।
अगर तुम भीड़
में अपने
दोनों कान
पूरी तरह बंद करके
अपने में डूब
जाओ, तो
तुम अकेले हो
जाओगे। भीड़
विलीन हो
जाएगी, क्योंकि
तुम शोरगुल से
ही भीड़ को
जानते हो।
'कानों में
अंगुली डालकर
नादों के नाद,
अनाहत को
सुनो।’
यह
ध्वनियों की
अनुपस्थिति
बहुत ही
सूक्ष्म अनुभव
है। यह
तुम्हें क्या
दे सकता है? जिस
क्षण
ध्वनियां
नहीं रहती’, तुम अपने पर
आ जाते हो।
ध्वनि के साथ
तुम अपने से
दूर चल पड़ते
हो; ध्वनि
के साथ तुम
दूसरे की तरफ
चल पड़ते हो।
इसे समझने की
कोशिश करो।
ध्वनि से हम
दूसरे से
संबंधित होते
हैं, दूसरे
से संवाद करते
हैं।
इसीलिए
एक अंधा आदमी भी
उतनी कठीनाई में
नहीं होता जितनी
कठिनाई में गूंगा
होता है। किसी
बहरे आदमी का
निरीक्षण करो, वह
अमानुषिक
मालूम पड़ता
है। अंधा आदमी
अमानुषिक
नहीं मालूम
पड़ता; लेकिन
गूंगा
अमानुषिक
मालूम पड़ता है।
उसका चेहरा
देखकर भाव
होता है कि
इसमें आदमीयत
कुछ कम है। गूंगा
आदमी अंधे से
अधिक कठिनाई
में होता है।
अंधा आदमी देख
नहीं सकता; लेकिन वह
दूसरे से
संवाद कर सकता
है। वह बड़ी
मनुष्यता का
अंग हो सकता
है। वह समाज
और परिवार का
सदस्य हो सकता
है। वह प्रेम
कर सकता है।
वह बातचीत कर
सकता है। गूंगा
आदमी अचानक
समाज से बाहर
पड़ जाता है।
वह बोल नहीं
सकता, वह
संवाद नहीं कर
सकता; वह
अभिव्यक्ति
नहीं कर सकता।
जरा
कल्पना करो कि
तुम एक
वातानुकूलित
और साउंड—पूफ
कांच के कमरे
में हो। वहां
कोई ध्वनि
नहीं पहुंच
सकती है। वहां
तुम चीख नहीं
सकते; अपने को
अभिव्यक्त
करने के लिए
कुछ भी नहीं
कर सकते हो।
वहां से ध्वनि
बाहर भी नहीं
जा सकती है।
कांच के कमरे
में से तुम
सारे संसार को
अपने इर्द—गिर्द
चलते—फिरते
देख सकते हो; लेकिन न तुम
उनसे बात कर
सकते हो, न
वे तुम से बात
कर सकते हैं।
तुम बुरी तरह
हताश हो जाओगे
और पूरी चीज
एक दुखस्वप्न
में बदल जाएगी।
एक
बहरा आदमी सतत
ऐसे ही दुखस्वप्न
में जीता है।
संवाद के बिना
वह मनुष्यता
का अंग नहीं
हो पाता है।
अभिव्यक्ति
के बिना उसके
जीवन का फूल
नहीं खिल सकता
है। वह किसी
के भी संपर्क
में नहीं आ
सकता है। वह
तुम्हारे साथ
होकर भी तुमसे
बहुत दूर है।
तुम्हारे और
उसके बीच कोई
सेतु नहीं
बनता है।
अगर
ध्वनि दूसरे
तक पहुंचने का
वाहन है तो
मौन स्वयं में
पहुंचने का
वाहन बन जाता
है। ध्वनि के
द्वारा तुम
दूसरे के साथ
संवाद करते हो, मौन
के द्वारा तुम
अपने में, अपने
अतल में उतर
जाते हो। यही
कारण है कि
अनेक विधियों
में
अंतर्यात्रा
के लिए मौन को
काम में लाया
जाता है।
बिलकुल गूंगा
और बहरे हो
जाओ—जरा देर
के लिए ही सही।
तब तुम अपने
अतिरिक्त और
कहीं नहीं जा
सकते; अचानक
तुम पाओगे कि
तुम अपने अंतस
में विराजमान
हो। कोई गति
संभव नहीं
होगी। इस कारण
से ही मौन का
इतना अभ्यास
कराया जाता था।
मौन में दूसरे
तक जाने के
सारे सेतु गिर
जाते हैं।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को लंबे मौन
में जाने को
कहता था। वह
इस बात पर जोर
देता था कि
मौन में न
सिर्फ भाषा का
व्यवहार बंद
रहे,
बल्कि आंख
या हाथ के
इशारे से भी
बातचीत न की
जाए। किसी तरह
का भी संवाद
निषिद्ध था।
मौन का अर्थ
ही है, संवाद
शून्यता।
गुरजिएफ अपने
तीस—तीस, चालीस—चालीस
शिष्यों को एक
घर में बंद कर
देता था और उनसे
कहता था कि यहां
ऐसे रहो जैसे
कि तुम में से
प्रत्येक
अकेले हो।
उन्हें घर से
बाहर जाने की
इजाजत भी नहीं
थी। वह उनसे कहता
था कि इस घर
में साथ रहते
हुए भी ऐसे
रहो कि तुम
अकेले—अकेले
हो; आपस
में किसी तरह
की भी बातचीत
न हो। वह उनसे
कहता था कि
तुम यह मानो
ही मत कि इस घर
में तुम्हारे
सिवाय कोई
दूसरा भी रहता
है; आंख के
इशारे से भी
दूसरे के होने
को मत स्वीकार
करो। इस घर
में ऐसे चलो—फिरो,
मानो तुम ही
इसके एकमात्र
निवासी हो।
अगर तीन महीने
ऐसे गूंगा और
बहरे होकर रह
सको, जिसमें
किसी तरह के
संवाद की
गुंजाइश न हो
तो गति करने
का, अपने
से बाहर जाने
का कोई उपाय
नहीं रहेगा।
तुमने
शायद यह देखा
होगा कि जो
लोग खूब बात
करना जानते
हैं वे समाज
में प्रसिद्ध हो
जाते है; जो अपने
विचारों को ठीक
से संप्रेषित कर
सकते है वि नेता
हो जाते है। धार्मिक, राजनीतिक
या साहित्यिक,
किसी भी
क्षेत्र में
यही होता है
कि जो कुशलता
से अपने विचार
व्यक्त कर
सकते हैं, जो
निपुणता से
बातचीत कर
सकते हैं, वे
नेता बन जाते
हैं। क्यों? क्योंकि वे
ज्यादा से
ज्यादा लोगों
तक, सर्वसाधारण
तक पहुंच सकते
हैं।
क्या
तुमने कभी
सुना कि कोई गूंगा
आदमी नेता हुआ
हो?
अंधा आदमी
आसानी से नेता
हो सकता है; कोई कठिनाई
नहीं है। कभी—कभी
तो वह बड़ा
नेता हो जाता
है; क्योंकि
उसकी आंखों की
ऊर्जा भी उसके
कानों को मिल
जाती है।
लेकिन कोई गूंगा
आदमी जीवन के
किसी क्षेत्र
में नेता नहीं
हो सकता है।
उसमें संवाद
की क्षमता
नहीं है; वह
सामाजिक नहीं
हो सकता।
समाज
भाषा है।
सामाजिक जीवन
के लिए, संबंधों
के लिए भाषा
आधारभूत है।
भाषा को छोड़कर
तुम अकेले पड़
जाते हो।
पृथ्वी
करोड़ों लोगों
से भरी हो; लेकिन
भाषा के खोते
ही तुम अकेले
हो जाते हो।
मेहर
बाबा निरंतर
चालीस वर्षों
तक मौन में रहे।
मौन में वे
क्या करते थे? सच
तो यह है कि
मौन में तुम
कुछ नहीं कर
सकते; क्योंकि
हर कृत्य किसी
न किसी भांति
दूसरों से
संबंधित होता
है। यदि
कल्पना में भी
तुम कुछ करोगे
तो तुम्हें दूसरों
को कल्पित
करना होगा, तुम अकेले
नहीं कर सकते।
अगर तुम
बिलकुल अकेले
हो तो कृत्य
असंभव हो जाएगा।
करना दूसरों
से संबंधित है।
यदि तुम भीतर
भाषा छोड़ दो
तो सब करना
समाप्त हो
जाता है। तुम
तो हो, लेकिन
कुछ कर नहीं
रहे।
कभी—कभी
मेहर बाबा
अपने शिष्यों
को लिखकर
सूचित करते थे
कि अमुक तारीख
को मैं अपना
मौन तोड्ने जा
रहा हूं।
लेकिन उस दिन
के आने पर वे
मौन नहीं
तोड़ते थे। यह
सिलसिला
चालीस वर्षों
तक चलता रहा।
और तब वे मौन
ही मर गए। बात
क्या थी? वे
क्यों कहते थे
कि मैं अमुक
वर्ष, माह
और दिन को
अपना मौन
तोडूगा, लेकिन
उसे तोड़ नहीं
पाते थे? उन्हें
अपना यह
कार्यक्रम
क्यों बार—बार
स्थगित करना
पड़ता था गुर
उनके भीतर
क्या हो रहा
था? वे
अपना वचन
क्यों नहीं
पूरा कर पाते
थे?
अगर
तुम लंबे अरसे
के लिए मौन
में रह जाओ, उसे
जान लो तो
तुम्हारे लिए
ध्वनि के जगत
में लौटना
असंभव हो
जाएगा। एक
नियम है जिसका
कि पालन मेहर
बाबा ने नहीं
किया और
इसीलिए वे मौन
से नहीं लौट
सके। नियम यह
है कि किसी को
तीन साल से
ज्यादा समय तक
मौन नहीं रहना
चाहिए। अगर
तुम उस सीमा
को पार कर जाओ
तो तुम ध्वनि
के जगत में
फिर वापस नहीं
आ सकते। तुम
प्रयत्न कर
सकते हो; लेकिन
यह असंभव है।
ध्वनि से मौन
में जाना आसान
है, लेकिन
मौन से ध्वनि
में लौटना
बहुत कठिन है।
तीन वर्षों के
बाद बहुत
बातें कठिन हो
जाती हैं। तब
मेकेनिज्य
वही नहीं रह
जाता है, पुराने
ढंग से काम
नहीं कर सकता
है। उसको
निरंतर उपयोग
में लाना
जरूरी है। कोई
ज्यादा से
ज्यादा तीन
साल मौन रह सकता
है; उससे
आगे उसे
खींचने से
ध्वनि और शब्द
पैदा करने
वाला
मेकेनिज्म
बेकार हो जाता
है, वह मर
जाता है।
दूसरी
बात यह है कि
अपने साथ
अकेले रहते—रहते
आदमी इतना मौन
और शांत हो जाता
है कि अब उसके लिए
बातचीत बहुत दुखदायी
हो जायेगी। तब
किसी से बातचीज
करने में उसे
लगेगा कि मैं
दीवार से बात
कर रहा हूं।
क्योंकि जो
व्यक्ति इतने
दिन मौन रह
गया है वह
जानता है कि
तुम उसे नहीं
समझ पाओगे। वह
यह भी जानता
है कि मैं वही
नहीं कह रहा
हूं जो कहना
चाहता हूं।
पूरी बात ही
समाप्त हो गई।
इतने गहन मौन
के बाद अब वह
ध्वनियों के
जगत में नहीं
लौट सकता है।
यही
कारण है कि
मेहर बाबा
कोशिश करने के
बावजूद फिर
बोल न पाए। और
वे कुछ कहना
चाहते थे, उनके
पास कुछ कहने
योग्य भी था।
लेकिन नीचे तल
पर उतरने का
यंत्र ही
व्यर्थ हो चला
था। ऐसे जो वे
कहना चाहते थे
उसे वे कहे
बिना चले गए।
यह
समझना उपयोगी
होगा। जो भी
करो,
उसका
विपरीत भी
करते रहो।
विपरीत में
गति करना मत
भूलो। कुछ
घंटों के लिए
मौन रहो और
फिर बातचीत
करो। किसी एक
ही ढांचे में
बंद मत हो जाओ।
तब तुम अधिक
जीवित और
गतिमान रहोगे।
कुछ दिनों तक
ध्यान करो, और फिर उसे
अचानक बंद
करके वह सब
करो जिससे तनाव
निर्मित होता
है। तब फिर
ध्यान में उतर
जाओ। विपरीत
छोरों के बीच
गति करते रहो;
उससे तुम
ज्यादा जीवित
और गतिमान
रहोगे। बंध मत
जाओ; अटक
मत जाओ। एक
बार अटक गए तो
तुम दूसरे छोर
पर गति नहीं
कर पाओगे। और
दूसरे छोर पर
गति करना ही
जीवन है। यह
गति गई कि तुम
भी गए। तब तुम
मुर्दा हो। यह
गति बहुत शुभ
है।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को आकस्मिक
बदलाहट करना
सिखाता था।
पहले वह उपवास
पर जोर देता
था और फिर
कहता था कि
जितना खा सको
खाओ। और फिर
उपवास करवाता
था। कुछ
शिष्यों से वह
कहता था कि
लगातार कुछ
दिन—रात जागते
रहो और फिर
कुछ दिन—रात
सोते ही रहो।
ध्रुवीय
विपरीतताओ के
बीच गति करते
रहने से
जीवंतता और
गति उपलब्ध
होती है। ’या
कानों में
अंगुली डालकर
नादों के नाद, अनाहत
को सुनो।’
एक
ही विधि में
दो विपरीत
बातें कही गई
हैं।
'ध्वनि के
केंद्र में
स्नान करो, मानो किसी
जलप्रपात की
अखंड ध्वनि
में स्नान कर
रहे हो।’ यह एक
अति है। ’या
कानों में
अंगुली डालकर
नादों के नाद
को सुनो।’ यह
दूसरी अति है।
एक हिस्सा
कहता है कि
अपने केंद्र
पर पहुंचने
वाली
ध्वनियों को
सुनो और दूसरा
हिस्सा कहता है
कि सब
ध्वनियों को
बंद कर
ध्वनियों की
ध्वनि को सुनो।
एक ही विधि
में दोनों को
समाहित करने
का एक विशेष
उद्देश्य है
कि तुम एक छोर
से दूसरे छोर
तक गति कर सको।
यहां
’या'
शब्द चुनाव
करने को नहीं
कहता है कि
इनमें से किसी
एक को प्रयोग
करना है। नहीं,
दोनों को
प्रयोग करो।
इसीलिए एक
विधि में
दोनों को
समाविष्ट
किया गया है।
पहले कुछ
महीनों तक एक
का प्रयोग करो
और फिर दूसरे
का। इस प्रयोग
से तुम ज्यादा
जीवंत होगे और
तुम दोनों
छोरों को जान
लोगे। और अगर
तुम दोनों
छोरों के बीच
आसानी से डोलते
रही तो तुम
सदा—सर्वदा
युवा बने
रहोगे। जो लोग
सदा एक ही छोर
से अटके रहते
हैं वे के हो जाते
हैं और मर जाते
हैं।
आज
इतना ही।
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