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शनिवार, 15 अगस्त 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--29

ध्‍वनि से मौन की यात्रा—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

सूत्र:

42—किसी ध्‍वनि का उच्‍चार ऐसे करो कि वह सुनाई

दे; फिर उस उच्‍चार को मंद से मंदतर किए जाओ—

जैसे—जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।



43—मुंह को थोड़ा—सा खुला रखेत हुए मन को जीभ

के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप

भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।



44—अ और म के बिना ओम ध्‍वनि पर मन को एकाग्र करो।


      तंत्र जीवन को दो आयामों में बांटता है। एक आयाम संसार है—यानी जो है। और दूसरा आयाम मोक्ष है—यानी जो हो सकता है, जो अप्रकट से प्रकट हो सकता है। लेकिन इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। जो अप्रकट है, छिपा है, वह भी यहां है, संसार में ही है, लेकिन वह तुम्हारे लिए अज्ञात है। वह अनस्तित्व नहीं है, वह भी है। परम और प्रत्यक्ष दो चीजें नहीं हैं, वरन एक ही अस्तित्व के दो आयाम हैं।
तो तंत्र के लिए कोई विरोध नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। एक ही दो जैसा भासता है; क्योंकि हमारी सीमा है; क्योंकि हम पूरे को, संपूर्ण को नहीं देख सकते हैं। जिस घड़ी हम संपूर्ण को देख सकते हैं, एक एक मालूम होता है। विभाजन यथार्थत: नहीं है, वह हमारे सीमित ज्ञान के कारण है। जिसे हम जानते हैं, वह संसार है। और जो अज्ञात है, लेकिन जाना जा सकता है, वह मोक्ष है, परम है।
दूसरी परंपराओं में संसार और मोक्ष में विरोध है; लेकिन तंत्र कोई विरोध नहीं मानता। इस बात को मन और हृदय के तल पर बहुत गहरे से समझना जरूरी है। जब तक तुम इसे गहन भाव से नहीं समझते, तुम तंत्र की दृष्टि को कभी नहीं समझ पाओगे।
और तुम्हारे जो भी विश्वास हैं, धारणाएं हैं, वे सब द्वैत को, द्वंद्व को मानकर चलती हैं। चाहे तुम ईसाई हो या मुसलमान हो, या हिंदू हो या जैन हो, तुम्हारी मान्यता द्वैत की है, द्वंद्व की है। संसार तुम्हें परमात्मा के विरोध में दिखाई देता है और परमात्मा को पाने के लिए संसार से लड़ना जरूरी मालूम पड़ता है। सभी तथाकथित धर्मों की, खासकर संगठित धर्मों की यह समान धारणा है।
मन द्वैत को बहुत आसानी से समझ सकता है। सच तो यह है कि वह द्वैत को ही समझ सकता है; क्योंकि मन का काम ही बांटना है, विभाजन करना है। मन संपूर्ण को खंडों में तोड़ देता है। यही उसका काम है। मन एक प्रिज्‍म की भांति है। जब प्रकाश की किरण प्रिज्‍म से गुजरती है तो सात रंगों में बंट जाती है। मन एक प्रिज्‍म है, जो सत्य को विभाजित कर देता है। यही कारण है कि मन विश्लेषण करने में बहुत मजा लेता है। वह चीजों को खंडों में बांटता चला जाता है, वह तब तक नहीं रुकता है जब तक बांटने को कुछ शेष रहता है। मन की वृत्ति है कि वह अंतिम इकाई पर, परमाणु पर पहुंच जाता है। वह बांटता जाता है, बांटता जाता है; उस क्षण तक बांटता जाता है जब बांटने को कुछ नहीं बचता है। अगर अब भी बांटना संभव हो तो मन बांटता ही चला जाएगा।
मन खंड करता जाता है, छोटे से छोटे खंड करता जाता है। और सत्य पूर्ण है; सत्य अखंड है। इसलिए सत्य को जानने के लिए सर्वथा विपरीत प्रक्रिया की जरूरत पड़ती है। वह प्रक्रिया संश्लेषण की है, विश्लेषण की नहीं। वह प्रक्रिया जोड़ती है, बांटती नहीं। एक अ—मन की प्रक्रिया जरूरी है।
तंत्र विभाजन को नहीं मानता है। तंत्र कहता है कि पूर्ण पूर्ण है। जिस अंश को हम जानते हैं, वह संसार है; और जो अंश छिपा हुआ है, वह मोक्ष है, परमात्मा है, या उसे जो भी नाम दो। लेकिन जो छिपा है वह भी यहां और अभी है। तुम उसे संभवत: नहीं जानते हो; लेकिन वह है, यहां और अभी है। वह है ही। तुम्हारे लिए वह भविष्य में होगा; लेकिन अस्तित्व में वह यहां और अभी है। हो सकता है कि तुम्हें उस तक पहुंचने के लिए यात्रा करनी पड़े; हो सकता है कि तुम्हें देखने के लिए अ—मन की अवस्था प्राप्त करनी पड़े तब कहीं जाकर तुम उसे जान सको।
यह ऐसा ही है कि तुम खड़े हो और सुबह का सूरज उग रहा है; लेकिन तुम आंख बंद किए खड़े हो। सुबह तो यहां और अभी है, लेकिन तुम्हारे लिए वह यहां और अभी नहीं है। जब तुम आंख खोलोगे तब वह तुम्हारे लिए तथ्य होगा। अस्तित्व में तो सुबह है; लेकिन तुम्हारे लिए नहीं है। तुम उसके प्रति बंद हो; तुम्हारे लिए वह छिपा है। तुम्हारे लिए तो सिर्फ अंधेरा है; प्रकाश छिपा है। लेकिन अगर तुम आंख खोल लो तो किसी भी क्षण सुबह तुम्हारे लिए हकीकत हो जाए। हकीकत तो वह थी ही; लेकिन तुम अंधे थे।
तंत्र कहता है कि संसार ही परमात्मा है; लेकिन तुम अंधे हो। इसलिए तुम अपने अंधेपन में जो कुछ जानते हो वह संसार कहलाता है, और तुम्हारे अंधेपन के कारण जो भी छिपा है वह परमात्मा है। यह एक बुनियादी सिद्धांत है कि संसार ही मोक्ष है, संसार ही परमात्मा है, संसार ही निर्वाण है। प्रत्यक्ष और परम दो नहीं, एक ही हैं। यहां और वहां दो नहीं, एक ही हैं।
इस स्पष्ट दृष्टि के कारण तंत्र के लिए बहुत सी चीजें संभव हो जाती हैं। एक तो यह कि तंत्र सब कुछ को स्वीकार कर सकता है। और यह प्रगाढ़ स्वीकृति तुम्हें बहुत शांति से भर देती है। कोई दूसरी चीज तुम्हें इतनी शांति नहीं दे सकती।
अगर इहलोक और परलोक में विभाजन नहीं है, अगर परम तत्व यहीं और अभी है, अगर पदार्थ परमात्मा का ही शरीर है तो कुछ भी अस्वीकृत नहीं रहता, कुछ भी निंदा योग्य नहीं रहता। और तब तनाव की क्या जरूरत है! अगर परमात्मा को पाने में सदियां लग जाएं तो भी तंत्र को कुछ जल्दी नहीं है। वह है ही; और समय की कोई कमी नहीं है। वह शाश्वत रूप से यहां है; जब भी तुम आंख खोलोगे वह तुम्हें मिल जाएगा। और अभी भी तुम्हें जो कुछ मिल रहा है, वह भी परमात्मा ही है—अप्रकट परमात्मा।
तो ईसाइयों की निंदा और पाप की जो धारणा है, या अन्य धर्मों की जो ऐसी धारणाएं हैं, वे तंत्र को स्वीकृत नहीं हैं; तंत्र उन्हें सर्वथा गलत और बेकार मानता है। क्योंकि जब तुम किसी चीज की निंदा करते हो तो तुम भी अपने भीतर बंट जाते हो। तुम सिर्फ चीजों को बहार से बांट नहीं सकते, जब तुम किसी चीज को बांटते हो तो तुम भी साथ—साथ बंट जाते हो। अगर तुम कहते हो कि यह संसार गलत है तो तुम्हारा शरीर गलत हो जाता है, क्योंकि तुम्हारा शरीर इस संसार का ही हिस्सा है। अगर तुम कहते हो कि यह संसार परमात्मा को पाने के लिए बाधा है तो यह कहने से ही तुम्हारा सारा जीवन निंदित हो जाता है और तुम अपराधी अनुभव करते हो। तब तुम आनंदित नहीं हो सकते हो। तब तुम्हारे लिए जीना कठिन होगा। तब तुम हंस नहीं सकते हो। तब तुम्हारा चेहरा सदा गंभीर बना रहेगा। तब तुम गंभीर ही हो सकते हो। तब तुम गैर—गंभीर नहीं हो सकते; तब तुम जीवन को खेल की तरह नहीं ले सकते।
यही हुआ है। संसार में सबके मनों के साथ यही हुआ है। सबके मन गंभीर हो गए हैं, मृत हो गए हैं। गंभीरता के कारण वे मृतवत हो गए हैं। क्योंकि जीवन जैसा है वे उसे वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते। वे उसे इनकार करते हैं और वे समझते हैं कि उसे इनकार किए बिना वे परलोक को नहीं प्राप्त कर सकते। इसलिए परलोक उनका आदर्श, उनका भविष्य, उनकी कामना, उनका स्वप्न बना है और यह लोक पाप बन गया है। और तब आदमी उसके साथ अपराधी अनुभव करता है। और जो धर्म तुम्हें अपराधी बनाता है। वह तुम्हें रुग्ण बना देता है। वह तुम्हें विक्षिप्त बना देता है।
इस अर्थ में तंत्र ही एकमात्र स्वस्थ धर्म है। और जब भी कोई धर्म स्वस्थ होता है, वह तंत्र हो जाता है, तंत्रमय हो जाता है। प्रत्येक धर्म के दो पक्ष हैं। एक उसका बाहरी पक्ष है, जिसमें संगठन है, व्यवस्था है, चर्च है; वह उसका प्रचलित और सार्वजनिक रूप है। यह पक्ष सदा जीवन—विरोधी होता है। दूसरा आंतरिक पक्ष है, गुह्य पक्ष है। और प्रत्येक धर्म में यह गुह्य पक्ष भी होता है। और वह पक्ष सदा तंत्र—सम्मत होता है—सब स्वीकार करने वाला होता है।
जब तक तुम संसार को समग्रता से स्वीकार नहीं करते, तुम अपने भीतर चैन में नहीं हो सकते हो। अस्वीकार से तनाव पैदा होता है। जब तुम जीवन जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेते हो, यह संसार तुम्हारा घर हो जाता है। और तंत्र कहता है कि यह बात आधारभूत है कि तुम्हें अपने घर में होने का अनुभव हो—शांत और स्वस्थ। तभी कुछ महत के घटित होने की संभावना होती है। अगर तुम तनावग्रस्त हो, विभाजित हो, अपराधी अनुभव करते हो, दुख—द्वंद्व में हो तो तुम अतिक्रमण नहीं कर सकते। तुम अपने भीतर इतने विक्षिप्त हो कि आगे की यात्रा कैसे होगी? तुम यहीं इतने उलझे हो, यहीं तुम इतने ग्रस्त हो कि तुम इसके पार नहीं जा सकते।
यह बड़ा विरोधाभास है। जो लोग संसार के बहुत विरोध में होते हैं, वे उतने ही संसार में होते हैं। उन्हें होना पड़ता है। तुम अपने दुश्मन से भागकर नहीं जा सकते; दुश्मन ने तुम्हें बांधा हुआ है। अगर संसार तुम्हारा दुश्मन है तो चाहे तुम कुछ भी करो या करने का नाटक करो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, तुम संसारी ही रहोगे। तुम उसके विपरीत भी जा सकते हो, तुम उसका त्याग भी कर दे सकते हो, लेकिन तुम्हारी पकड़ सांसारिक की ही पकड़ रहेगी। मैं एक संत को जानता हूं। वे बड़े प्रसिद्ध संत हैं। वे धन को नहीं छूते हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ मुद्राएं रख दो तो वे अपनी आंखें बंद कर लेंगे। यह मानसिक रुग्णता है। यह आदमी बीमार है। वह क्या कर रहा? लेकिन इसके लिए ही लोग उसकी पूजा करते है। वे सोचते हैं कि वे बड़े भारी संत हैं, जो कि वे नहीं हैं। वे संसार में बहुत ग्रस्त हैं। तुम भी उतने ग्रस्त नहीं हो। पर वे कर क्या रहे हैं?
उन्होंने बस प्रक्रिया को उलट दिया है। वे शीर्षासन कर रहे हैं। वे वही आदमी अब भी हैं जो धन का लोभी था। पहले वे निरंतर धन की चिंता में लगे थे, धन बटोर रहे थे। अब वे उसके ठीक विपरीत हो गए हैं। लेकिन तो भी वे वही आदमी हैं; कोई फर्क नहीं पड़ा है। अब वे धन के विरुद्ध हैं; अब वे धन को नहीं छूते हैं। पर यह भय क्यों? यह घृणा क्यों?
स्मरण रहे, घृणा प्रेम का ही सिर के बल खड़ा रूप है; घृणा शीर्षासन करता हुआ प्रेम है। तुम उसी चीज से घृणा करते हो जिसके साथ गहरे प्रेम में होते हो। जिससे तुम प्रेम करते हो, उससे ही घृणा भी करते हो। सदा प्रेम के साथ ही घृणा संभव होती है। तुम अगर किसी चीज के बहुत पक्ष में हो तो ही तुम उसके विरोध में जा सकते हो। लेकिन बुनियादी वृत्ति वही की वही रहती है। यह आदमी लोभी है।
मैंने उस आदमी से पूछा कि तुम इतने भयभीत क्यों हो? उसने कहा कि धन बाधा है, यदि मैं धन के प्रति अपने लोभ पर अंकुश न लगाऊं तो मैं परमात्मा को नहीं पा सकूंगा।
लेकिन यह तो नया लोभ हो गया। यह आदमी सौदा कर रहा है। अगर वह धन छूता है तो परमात्मा को खो देता है। और वह परमात्मा को पाना चाहता है, परमात्मा पर कब्जा करना चाहता है, इसलिए वह धन के खिलाफ है।
तंत्र कहता है, न संसार के पक्ष में होओ और न विपक्ष में, बस उसे वैसा ही स्वीकार करो जैसा वह है। उसको समस्या मत बनाओ।
इस स्वीकार से क्या होगा? अगर तुम संसार को अपनी समस्या नहीं बनाते, अगर तुम इस बात को लेकर—पक्ष या विपक्ष में जाकर—तनावग्रस्त और बीमार नहीं होते, अगर तुम उसके साथ राजी होते हो, वह जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करते हो तो तुम्हारी सारी ऊर्जा उससे मुक्त हो जाती है। और तब वह अज्ञात जगत में, अदृश्य आयाम में गति कर सकती है। इस जगत में स्वीकार उसके लिए अतिक्रमण बन जाता है। यहां का सर्व —स्वीकार तुम्हें दूसरे आयाम में, अज्ञात आयाम में ले जाएगा, तुम्हें रूपांतरित कर देगा। क्योंकि स्वीकार करते ही तुम्हारी सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती है; वह यहां बंधी नहीं रहती।
तंत्र नियति की धारणा में प्रगाढ़ रूप से भरोसा करता है। तंत्र कहता है कि इस जगत को अपनी नियति मानो, भाग्य की भांति लो और उसकी चिंता मत करो। अगर तुम उसे अपनी नियति की तरह ले सको तो ही तुम उसे स्वीकार कर सकोगे—चाहे वह जो भी हो। तब तुम्हें उसे बदलने की, उसमें फर्क लाने की, उसे अपनी इच्छा के अनुसार बनाने की फिक्र नहीं रहेगी। और जब तुम उसे वैसा ही स्वीकार कर लेते हो जैसा वह है, जब तुम उससे परेशान नहीं हो, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा मुक्त होकर अंतर्यात्रा पर निकल जाती है।
अगर तुम्हारी दृष्टि ऐसी हो तो ही ये विधियां सहयोगी हो सकती हैं; अन्यथा नहीं। और ये विधियां इतनी सरल मालूम पड़ती हैं। अगर तुम वैसे ही रहे जैसे हो और सीधे उनका प्रयोग करने लगे तो तुम उनके साथ सफल नहीं हो सकते—चाहे वे कितनी ही सरल मालूम पड़ें। क्योंकि वह बुनियादी पृष्ठभूमि ही नहीं है। स्वीकार वह बुनियादी पृष्ठभूमि है। इस स्वीकार के होते ही ये सरल सी विधियां कमाल करने लगेंगी।

 ध्वनि—संबंधी छठवीं विधि:

किसी ध्वनि का उच्चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे; फिर उस उच्चार को मंद से मंदतर किए जाओ— जैसे— जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।
कोई भी ध्वनि काम देगी; लेकिन अगर तुम्हारी कोई प्रिय ध्वनि हो तो वह बेहतर होगी। क्योंकि तुम्हारी प्रिय ध्वनि मात्र ध्वनि नहीं रहती; जब तुम उसका उच्चार करते हो तो उसके साथ एक अप्रकट भाव भी उठता है। और फिर धीरे— धीरे वह ध्वनि तो विलीन हो जाएगी और भाव भर रह जाएगा।
ध्वनि को भाव की तरफ ले जाने वाले मार्ग की तरह उपयोग करना चाहिए। ध्वनि मन है और भाव हृदय है। मन को हृदय से मिलने के लिए मार्ग चाहिए। हृदय में सीधा प्रवेश कठिन है। हम हृदय को इतना भुला दिए हैं, हम हृदय के बिना इतने जन्मों से रहते आए हैं कि हमें पता नहीं रहा है कि कहां से उसमें प्रवेश करें। द्वार बंद मालूम पड़ता है। हम हृदय की बात बहुत करते हैं; लेकिन वह बातचीत भी मन की ही है। हम कहते तो हैं कि हम हृदय से प्रेम करते हैं, लेकिन हमारा प्रेम भी मानसिक है, मस्तिष्कगत है। हमारा प्रेम भी बौद्धिक प्रेम है। हृदय की बात भी मस्तिष्क में घटित होती है। हमें पता ही नहीं रहा है कि हृदय कहा है।
हृदय से मेरा अभिप्राय शारीरिक हृदय से नहीं है, उसे तो हम जानते हैं। लेकिन शरीर शास्त्री और वैद्य—डाक्टर कहेंगे कि उस हृदय में प्रेम की संभावना नहीं है, वह तो केवल पंप का काम करता है, फुफ्फुस का काम करता है। उसमें और कुछ नहीं है, और बातें बस कपोलकल्पना हैं, कविता हैं, स्‍वप्‍न हैं।
लेकिन तंत्र जानता है कि तुम्हारे शारीरिक हृदय के पीछे ही एक गहरा केंद्र छिपा है। उस गहरे केंद्र तक मन के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, क्योंकि हम मन में हैं। हम अपने मन में हैं और अंतस की ओर कोई भी यात्रा वहीं से आरंभ हो सकती है।
मन ध्वनि है, आवाज है। अगर सब ध्वनि बंद हो जाए तो तुम्हारा मन नहीं रहेगा। मौन में मन नहीं है। यही कारण है कि मौन पर इतना बल दिया जाता है। मौन अ—मन की अवस्था है। आमतौर से हम कहते हैं कि मेरा मन शांत है। यह बात बेतुकी है, अर्थहीन है। क्योंकि मन का अर्थ है मौन की अनुपस्थिति। तुम यह नहीं कह सकते कि मन शांत है। मन है तो शाति नहीं हो सकती और शाति है तो मन नहीं हो सकता। शांत मन नाम की कोई चीज नहीं होती। हो नहीं सकती। यह ऐसा ही है जैसे कि तुम कहो कि कोई व्यक्ति जीवित—मृत है। उसका कोई अर्थ नहीं है। अगर वह मृत है तो वह जीवित नहीं हो सकता और अगर वह जीवित है तो मृत नहीं हो सकता। तुम जीवित—मृत नहीं हो सकते हो। इसलिए शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। शाति आती है तो मन नहीं रहता। सच तो यह है कि मन जब विदा होता है तो शाति आती है। या कहो कि शाति आती है तो मन विदा हो जाता है। दोनों एक साथ नहीं हो सकते।
मन ध्वनि है। अगर यह ध्वनि व्यवस्थित है तो तुम स्वस्थ चित्त हो। और अगर वह अराजक हो जाए तो तुम विक्षिप्त कहलाओगे। लेकिन दोनों हालत में ध्वनि है, आवाज है।
और हम मन के तल पर रहते हैं। उस तल से हृदय के आंतरिक तल पर कैसे उतरा जाए? ध्‍वनि का उपयोग करो। ध्‍वनि का उच्‍चार करो। किसी एक ध्‍वनि का उच्‍चार उपयोगी होगी। अगर मन में अनेक ध्वनियां हैं तो उन्हें छोड़ना कठिन होगा। और अगर एक ही ध्वनि हो तो उसे सरलता से छोड़ा जा सकता है। इसलिए पहले एक ध्वनि के लिए अनेक का त्याग करना होगा। एकाग्रता का यही उपयोग है।
किसी एक ध्वनि का उच्चार करो। उसका उच्चार करते जाओ। पहले जोर से उच्चार करो कि तुम उसे सुन सको और फिर धीरे— धीरे उच्चार को मंद से मंदतर करते जाओ कि सुनाई न पड़े। तब कोई दूसरा उसे न सुन सकेगा, यद्यपि तुम तो उसे भीतर सुनोगे। इस उच्चार को और धीमा करते जाओ कि कम से कम सुनाई दे, और फिर अचानक उच्चार को बंद कर दो। तब शाति होगी, शाति का विस्फोट होगा। लेकिन भाव रहेगा। विचार तो अब नहीं रहेंगे, लेकिन भाव रहेगा।
इसलिए अच्छा है कि कोई ध्वनि, कोई नाम, कोई मंत्र लो, जो तुम्हें प्रीतिकर हो, जिससे तुम्हारा भाव जुड़ा हो। अगर कोई हिंदू राम शब्द का उपयोग करता है तो उसके साथ उसका भाव जुड़ा होगा। यह उसके लिए मात्र शब्द नहीं रहेगा। यह उसकी बुद्धि तक ही सीमित नहीं रहेगा, इसकी तरंगें उसके हृदय तक चली जाएंगी। उसको भला इसका पता न हो; लेकिन यह ध्वनि उसके रक्त में समाई है, उसकी मांस—मज्जा में समाहित है। उसके पीछे लंबी परंपरा है, गहरे संस्कार हैं; उसके पीछे जन्मों—जन्मों के संस्कार हैं। जिस ध्वनि के साथ तुम्हारा लंबा लगाव बन जाता है, वह तुममें गहरी जड़ें जमा लेती हैं। उसका उपयोग करो। उसका उपयोग किया जा सकता है।
अगर कोई ईसाई ’राम' का उपयोग करता है तो वह कर सकता है, लेकिन यह उसके मन में ही रहेगा, वह उसमें गहरा नहीं जा पाएगा। उसके लिए जीसस या मारिया या कुछ ऐसा ही नाम उपयोगी रहेगा। नई धारणा से प्रभावित होना आसान है, लेकिन उसका उपयोग करना कठिन है। उसके लिए तुम्हारे दिल में कोई भाव नहीं रहेगा। अगर तुम्हें अपने मन में विश्वास भी हो कि यह नई धारणा बेहतर होगी तो भी यह विश्वास सतही होगा।
मेरे एक मित्र जर्मनी में बीमार पड़े। वे जर्मनी में तीस वर्षों से रह रहे थे और अपनी मातृभाषा बिलकुल भूल गए थे। वे महाराष्ट्र के थे और उनकी मातृभाषा मराठी थी। वे मराठी बिलकुल भूल गए थे। तीस वर्षों से वे जर्मन भाषा में बोलते थे। जर्मन भाषा उनकी मातृभाषा जैसी हो गई थी। मैं मातृभाषा जैसी इसलिए कहता हूं क्योंकि कोई दूसरी भाषा तुम्हारी मातृभाषा नहीं हो सकती। वह संभव ही नहीं है; क्योंकि मातृभाषा तुम्हारी गहराई में बसी होती है। चेतन रूप से वे अपनी मातृभाषा भूल गए थे; वे न उसे बोल सकते थे, न समझ सकते थे।
और फिर वे बीमार पड़े। और वे इतने अधिक बीमार हुए कि उनके पूरे परिवार को उन्हें देखने के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे तो बेहोश पड़े थे। कभी—कभी होश वापस आता था। और बड़ी हैरानी की बात यह थी कि जब वे होश में होते थे तो जर्मन बोलते थे और जब बेहोशी में होते थे तो मराठी में बड़बड़ाते थे। बेहोशी में वे मराठी बोलते थे और होश में जर्मन। चेतन अवस्था में वे मराठी बिलकुल नहीं समझते थे; और अचेतन अवस्था में वे जर्मन नहीं समझते थे।
कहीं गहरे अचेतन में मराठी बसी थी, जीवित थी। वह उनकी मातृभाषा थी और मातृभाषा छीन से मौन की जगह कोई नहीं ले सकता। तुम उसके ऊपर दूसरी भाषाएं आरोपित कर सकते हो, दूसरी की यात्रा तो अगर कोई ध्वनि तुम्हें प्रीतिकर है तो उसका उपयोग करना अच्छा रहेगा। कोई बौद्धिक ध्वनि मत उपयोग करो। उससे कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि ध्वनि का उपयोग मन से हृदय तक मार्ग बनाने के लिए करना है। इसलिए कोई ऐसी ध्वनि काम में लाओ जिसके लिए तुम्हें गहरा लगाव हो, भाव हो। अगर कोई मुसलमान ’राम' का उपयोग करता है तो यह उसके लिए कठिन होगा। यह शब्द उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखता है।
यही कारण है कि दुनिया के दो सबसे पुराने धर्म—हिंदू और यहूदी—धर्म—परिवर्तन में कभी विश्वास नहीं करते। वे सबसे प्राचीन धर्म हैं, आदि धर्म हैं; और सारे धर्म उनकी ही शाखा—प्रशाखा हैं। ईसाइयत और इस्लाम यहूदी परंपरा की शाखाएं हैं और बौद्ध, जैन और सिक्‍ख धर्म हिंदू धर्म की शाखाएं हैं। और ये दो आदि धर्म धर्म—परिवर्तन को नहीं मानते हैं। उसका कारण यह है कि तुम किसी को बौद्धिक तल पर ही बदल सकते हो, हृदय के तल पर नहीं बदल सकते। तुम एक हिंदू को ईसाई बना सकते हो, एक ईसाई को हिंदू बना सकते हो, लेकिन यह बदलाहट मन के तल पर ही रहेगी। धर्म—परिवर्तन करने वाला हिंदू अपने अंतस में हिंदू ही रहता है। वह चर्च जा सकता है, वह मैरी या जीसस की प्रार्थना भी कर सकता है; लेकिन उसकी प्रार्थना भी बुद्धिगत ही रहेगी। तुम उसके अचेतन को नहीं बदल सकते। अगर तुम उसे सम्मोहित करोगे तो पाओगे कि वह हिंदू है। अगर उसे सम्मोहित करके उसके अचेतन को प्रकट करने का मौका दोगे तो उसके भीतर तुम्हें हिंदू मिलेगा।
इसी बुनियादी तथ्य के कारण हिंदू और यहूदी धर्म—परिवर्तन नहीं कराते थे। तुम किसी व्यक्ति के धर्म को नहीं बदल सकते; क्योंकि तुम उसके हृदय और अचेतन भावों को नहीं बदल सकते। अगर तुम वैसी चेष्टा करोगे तो सिर्फ उस व्यक्ति को उपद्रव में डालोगे। क्योंकि तुम उसे कुछ पकड़ा दोगे जो सतह पर ही रहेगा और वह खंडित हो जाएगा। तब उसका व्यक्तित्व खंडित व्यक्तित्व बन जाएगा। गहरे में वह हिंदू रहेगा और सतह पर ईसाई होगा। वह ईसाई ध्वनियों और मंत्रों का प्रयोग करेगा, जो गहरे नहीं जाएंगे, और वह गहरे जाने वाली हिंदू ध्वनियों का प्रयोग नहीं करेगा। उसका जीवन एक उपद्रव हो जाएगा।
तो कोई ऐसी ध्वनि खोजो जिसके प्रति तुम्हारे हृदय में कुछ भाव हो, रस हो। तुम्हारा अपना नाम भी इस अर्थ में सहयोगी हो सकता है। तुम्हारा नाम भी! अगर किसी और चीज के लिए भाव न हो तो तुम्हारा नाम ही काम दे देगा। ऐसे कई उदाहरण हैं।
बक्स नाम का एक प्रसिद्ध संत अपने नाम को ही उपयोग में लाता रहा। वह कहता था कि मैं किसी परमात्मा को नहीं मानता, मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, यह भी नहीं जानता कि उसका नाम क्या है। जो भी नाम हैं वे मैंने सुने भर हैं; लेकिन क्या सबूत है कि वे उसके ही नाम हैं! और फिर वह कहता था कि मैं तो अपने को खोजता हूं तो अपना नाम ही क्यों न पुकारूं! और वह अपना नाम ले—लेकर मौन में उतर जाया करता था।
तो अगर तुम्हें और किसी ध्वनि से प्रेम नहीं है तो अपना नाम ही उपयोग करो। लेकिन
यह भी बहुत कठिन है। कारण यह है कि तुम अपने प्रति इतनी निंदा से भरे हो कि तुम्हें अपने प्रति कोई भाव नहीं है, कोई आदर नहीं है। दूसरे भले तुम्हारा आदर करते हों; लेकिन तुम खुद अपना आदर नहीं करते।
तो पहली बात है कि कोई उपयोगी ध्वनि खोजो। उदाहरण के लिए, अपने प्रेमी या अपनी प्रेमिका का नाम भी चलेगा। अगर तुम्हें फूल से प्रेम है तो गुलाब शब्द काम दे देगा। कोई भी ध्वनि जो तुम्हें भाती हो, जिसे सुनकर तुम स्वस्थ अनुभव करते हो, उसका उपयोग कर लो। और अगर तुम्हें ऐसा कोई शब्द न मिले तो परंपरागत स्रोतों से जो कुछ शब्द उपलब्ध हैं उनका उपयोग कर सकते हो। ओम का उपयोग करो। आमीन का उपयोग करो। मारिया भी चलेगा। राम भी चलेगा। बुद्ध और महावीर के नाम भी काम में लाए जा सकते हैं। कोई भी नाम, जिसके लिए तुम्हें भाव हो, चलेगा। लेकिन भाव का होना जरूरी है। इसीलिए गुरु का नाम सहयोगी हो सकता है; लेकिन भाव चाहिए। भाव अनिवार्य है।
'किसी ध्वनि का उच्चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे; फिर उस उच्चार को मंद से मंदतर किए जाओ—जैसे—जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।’
ध्वनि को निरंतर घटाते जाओ। उच्चार को इतना धीमा करो कि तुम्हें भी उसे सुनने के लिए प्रयत्न करना पड़े। ध्वनि को कम करते जाओ, कम करते जाओ—और तुम्हें फर्क मालूम होगा। ध्वनि जितनी धीमी होगी, तुम उतने ही भाव से भरोगे। और जब ध्वनि विलीन होती है तो भाव ही शेष रहता है। इस भाव को नाम नहीं दिया जा सकता; वह प्रेम है, प्रगाढ़ प्रेम है। लेकिन यह प्रेम किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं है। यही फर्क है।
जब तुम कोई ध्वनि या शब्द उपयोग करते हो तो उसके साथ प्रेम जुड़ा रहता है। तुम राम—राम कहते हो तो इस शब्द के प्रति तुम्हारे भीतर बड़ा गहरा भाव होता है। लेकिन यह भाव राम के प्रति निवेदित है, राम पर सीमित है। लेकिन जब तुम राम ध्वनि को मंद से मंदतर करते जाते हो तो एक क्षण आएगा जब राम विदा हो जाएगा, ध्वनि विदा हो जाएगी और सिर्फ भाव शेष रहेगा। यह प्रेम का भाव है जो राम के प्रति नहीं है, यह किसी के भी प्रति नहीं है। केवल प्रेम का भाव है—मानो तुम प्रेम के सागर हो।
प्रेम जब किसी के प्रति निवेदित नहीं होता है तो वह हृदय का प्रेम होता है। और जब वह निवेदित प्रेम होता है तो वह मस्तिष्क का प्रेम होता है। जो प्रेम किसी के प्रति है, वह मस्तिष्क से घटित होता है। और केवल प्रेम, मात्र प्रेम हृदय का होता है। और यह केवल प्रेम, अनिवेदित प्रेम ही प्रार्थना बनता है। अगर वह किसी के प्रति निवेदित है तो वह प्रार्थना नहीं बन सकता; तब तुम अभी राह पर ही हो।
इसीलिए मैं कहता हूं कि अगर तुम ईसाई हो तो तुम हिंदू की भांति नहीं आरंभ कर सकते; तुम्हें ईसाई की भाति ही आरंभ करना चाहिए। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम ईसाई की तरह शुरू नहीं कर सकते, तुम्हें मुसलमान की तरह ही शुरू करना चाहिए। लेकिन तुम जितने गहरे जाओगे उतने ही कम मुसलमान या ईसाई या हिंदू रहोगे। सिर्फ आरंभ हिंदू मुसलमान या ईसाई की तरह से होगा।
तुम जितना ही हृदय की तरफ गति करोगे—ध्वनि जितनी कम होगी और भाव जितना बढ़ेगा—तुम उतने ही कम हिंदू या मुसलमान रह जाओगे। और जब ध्वनि विलीन हो जाएगी तो तुम केवल मनुष्य होगे—न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई।
संप्रदाय या धर्म का यही फर्क है। धर्म एक है; संप्रदाय अनेक हैं। संप्रदाय शुरू करने में सहयोगी हैं। लेकिन तुम अगर सोचते हो कि संप्रदाय अंत हैं, मंजिल हैं, तो तुम कहीं के न रहेगा। वे आरंभ भर है। तुम्‍हें उसके पार जाना होगा; क्‍योंकि आरंभ अंत नहीं है। अंत में धर्म है; आरंभ में संप्रदाय है। संप्रदाय का उपयोग धर्म के लिए करो; सीमित का उपयोग असीम के लिए करो; क्षुद्र का उपयोग विराट के लिए करो।
किसी भी ध्वनि से काम चलेगा। अपनी ध्वनि खोज लो। और जब तुम उसका उच्चार करोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि उसके साथ तुम्हारा संबंध प्रेमपूर्ण है अथवा नहीं। प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा हृदय उसके साथ तरंगायित होने लगेगा। प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा शरीर ज्यादा संवेदनशील होने लगेगा। तुम्हें लगेगा जैसे कि मैं प्रेमिका की गोद जैसी उष्ण व सुखद जगह में बैठा हूं। एक उष्णता तुम्हें घेरने लगेगी। तुम्हें यह अनुभव न केवल मानसिक तल पर होगा, बल्कि शारीरिक तल पर भी होगा। अगर तुम किसी ऐसी ध्वनि का उच्चार करोगे जो तुम्हें प्रीतिकर है तो तुम्हें अपने भीतर और बाहर, चारों तरफ एक ऊष्मा का, सुख का अनुभव होगा। तब यह संसार एक कठोर संसार नहीं रह जाएगा, एक हृदयपूर्ण संसार होगा।
यदि तुम किसी हिंदू मंदिर में गए हो तो वहां तुमने गर्भ—गृह का नाम सुना होगा। मंदिर के अंतरस्थ भाग को गर्भ कहते हैं। शायद तुमने ध्यान न दिया हो कि उसे गर्भ क्यों कहते हैं। अगर तुम मंदिर की ध्वनि का उच्चार करोगे—हरेक मंदिर की अपनी ध्वनि है, अपना मंत्र है, अपना इष्ट—देवता है और उस इष्ट—देवता से संबंधित मंत्र है—अगर उस ध्वनि का उच्चार करोगे तो पाओगे कि उससे वहां वही ऊष्णता पैदा होती है जो मा के गर्भ में पाई जाती है। यही कारण है कि मंदिर के गर्भ को मां के गर्भ जैसा गोल और बंद, करीब—करीब बंद बनाया जाता है। उसमें एक ही छोटा सा द्वार रहता है।
जब ईसाई पहली बार भारत आए और उन्होंने हिंदू मंदिरों को देखा तो उन्हें लगा कि ये मंदिर तो बहुत अस्वास्थ्यकर हैं; उनमें खिड़कियां नहीं हैं, सिर्फ एक छोटा सा दरवाजा है। लेकिन मां के गर्भ में भी तो एक ही द्वार होता है और उसमें भी हवा के आने—जाने की व्यवस्था नहीं रहती। यही वजह है कि मंदिर को ठीक मां के पेट जैसा बनाया जाता है; उसमें एक ही दरवाजा रखा जाता है। अगर तुम उसकी ध्वनि का उच्चार करते हो तो गर्भ सजीव हो उठता है। और इसे इसलिए भी गर्भ कहा जाता है क्योंकि वहां तुम नया जन्म ग्रहण कर सकते हो, तुम नया मनुष्य बन सकते हो।
अगर तुम किसी ऐसी ध्वनि का उच्चार करो जो तुम्हें प्रीतिकर है, जिसके लिए तुम्हारे हृदय में भाव है, तो तुम अपने चारों ओर एक ध्वनि—गर्भ निर्मित कर लोगे। अत: इसे खुले आकाश के नीचे करना अच्छा नहीं है। तुम बहुत कमजोर हो; तुम अपनी ध्वनि से पूरे आकाश को नहीं भर सकते। एक छोटा कमरा इसके लिए अच्छा रहेगा। और अगर वह कमरा तुम्हारी ध्वनि को तरंगायित कर सके तो और भी अच्छा। उससे तुम्हें मदद मिलेगी। और एक ही स्थान पर रोज—रोज साधना करो तो वह और भी अच्छा रहेगा। वह स्थान आविष्ट हो जाएगा। अगर एक ही ध्वनि रोज—रोज दोहराई जाए तो उस स्थान का प्रत्येक कण, वह पूरा स्थान एक विशेष तरंग से भर जाएगा; वहां एक अलग वातावरण, एक अलग माहौल बन जाएगा।
यही कारण है कि मंदिरों में अन्य धर्मों के लोगों को प्रवेश नहीं मिलता। अगर कोई मुसलमान नहीं है तो उसे मक्का में प्रवेश नहीं मिल सकता है। और यह ठीक है। इसमें कोई भूल। इसका कारण यह है कि मक्का एक विशेष विज्ञान का स्थान है। जो व्‍यक्‍ति मुसलमान नहीं है वह वहां ऐसी तरंग लेकर जाएगा जो पूरे वातावरण के लिए उपद्रव हो सकती है। अगर किसी मुसलमान को हिंदू मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता है तो यह अपमानजनक नहीं है। जो सुधारक मंदिरों के संबंध में, धर्म और गुह्य विज्ञान के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं और व्यर्थ के नारे लगाते हैं, वे सिर्फ उपद्रव पैदा करते हैं।
हिंदू मंदिर केवल हिंदुओं के लिए हैं, क्योंकि हिंदू मंदिर एक विशेष स्थान है, विशेष उद्देश्य से निर्मित हुआ है। सदियों —सदियों से वे इस प्रयत्न में लगे रहे हैं कि कैसे जीवंत मंदिर बनाएं; और कोई भी व्यक्ति उसमें उपद्रव पैदा कर सकता है। और यह उपद्रव खतरनाक सिद्ध हो सकता है। मंदिर कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है। वह एक विशेष उद्देश्य से और विशेष लोगों के लिए बनाया गया है। वह आम दर्शकों के लिए नहीं है।
यही कारण है कि पुराने दिनों में आम दर्शकों को वहां प्रवेश नहीं मिलता था। अब सब को जाने दिया जाता है; क्योंकि हम नहीं जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं। दर्शकों को नहीं जाने दिया जाना चाहिए; यह कोई खेल—तमाशे का स्थान नहीं है। यह स्थान विशेष तरंगों से तरंगायित है, विशेष उद्देश्य के लिए निर्मित हुआ है।
अगर यह राम का मंदिर है और अगर तुम उस परिवार में पैदा हुए हो जहां राम का नाम पूज्य रहा है, प्रिय रहा है, तो जब तुम उस मंदिर में प्रवेश करते हो जो सदा राम के नाम से तरंगायित है तो वहां जाकर तुम अनजाने, अनायास जाप करने लगोगे। वहां का माहौल तुम्हें राम—नाम जपने को मजबूर कर देगा। वहां की तरंगें तुम पर चोट करेंगी और तुम्हारे अंतस से नाम—जप उठने लगेगा।
इसलिए एक ही स्थान का उपयोग करो—स्थान के रूप में मंदिर अच्छा है। ये विधियां मंदिर के लिए हैं। मंदिर अच्छा है, मस्जिद अच्छी है; चर्च अच्छा है। तुम्हारा अपना घर इन विधियों के लिए उपयुक्त नहीं है। वहां इतना कोलाहल है कि वह अराजकता का स्थान बन गया है। और तुम इतने बलवान नहीं हो कि अपनी ध्वनि से उस वातावरण को बदल सको। तो अच्छा है कि किसी ऐसी जगह चले जाओ जो किसी विशेष ध्वनि के लिए बनी हो। ऐसे स्थान का उपयोग करो। और अच्छा है कि रोज—रोज एक ही स्थान को काम में लाओ।
धीरे— धीरे तुम शक्तिशाली हो जाओगे और धीरे— धीरे तुम मन से हृदय में उतर जाओगे। तब तुम कहीं भी यह प्रयोग कर सकते हो; तब सारा ब्रह्मांड तुम्हारा मंदिर बन जाएगा। तब समस्या नहीं रहेगी।
लेकिन आरंभ में स्थान का चुनाव जरूरी है। और अगर तुम समय का, निश्चित समय का चुनाव कर सको तो वह और अच्छा। क्योंकि तब वह मंदिर उस निश्चित समय पर तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा। रोज ठीक उसी समय पर मंदिर तुम्हारा इंतजार करेगा। उस वक्त वह ज्यादा खुला होगा; उसे प्रसन्नता होगी कि तुम आ गए। वह सारा स्थान प्रसन्न होगा। और मैं यह बात प्रतीक के अर्थ में नहीं कह रहा हूं; यह एक सचाई है।
यह ऐसा ही है जैसे कि तुम किसी निश्चित समय पर भोजन लेते हो तो रोज ठीक उसी समय पर तुम्हारा शरीर भूख अनुभव करने लगता है। शरीर की अपनी अलग आंतरिक घड़ी है। शरीर अपने ठीक समय पर भूख—प्यास अनुभव करता है। अगर तुम प्रतिदिन एक विशेष समय पर सोते हो तो तुम्हारा पूरा शरीर उस समय सोने के लिए तैयार हो जाता है। और अगर तुम रोज—रोज अपने खाने और सोने का समय बदलते रहते हो तो तुम अपने शरीर को उपद्रव में डाल रहे हो।
अब तो वे कहते हैं कि ऐसे परिवर्तन से तुम्हारी आयु प्रभावित हो सकती है। अगर तुम रोज—रोज अपने शरीर की चर्या को, रूटीन को बदलते हो तो संभव है कि तुम्हारी उम्र कम हो जाए। यदि तुम अस्सी साल जीने वाले थे तो इस सतत परिवर्तन के कारण तुम सत्तर साल ही जीओगे। तुम दस वर्ष गंवा दोगे। और अगर तुम शरीर की घड़ी के अनुसार अपनी चर्या चलाते हो तो तुम आसानी से अस्सी की बजाय नब्बे वर्षों तक जीवित रह सकते हो। दस वर्ष जोड़े जा सकते हैं।
ठीक इसी तरह तुम्हारे चारों तरफ हर चीज की अपनी घड़ी है और सारा संसार जागतिक समय में गति करता है। अगर तुम प्रतिदिन निश्चित समय पर मंदिर में प्रवेश करते हो तो मंदिर तुम्हारे लिए तैयार होता है और तुम मंदिर के लिए तैयार होते हो। ये दो तैयारियां आपस में मिलती हैं और उसका फल हजार गुना हो जाता है।
या तुम अपने घर में एक छोटा सा कोना इसके लिए सुरक्षित कर ले सकते हो। लेकिन तब उस स्थान को किसी और काम के लिए उपयोग मत करो। क्योंकि हर काम की अपनी तरंगें हैं। अगर तुम उस स्थान को व्यवसाय के काम में लाते हो, वहां ताश खेलते हो, तो वह स्थान कनफ्यूजड हो जाएगा। अब तो इन कनफ्यूजन को रेकार्ड करने के यंत्र हैं; जाना जा सकता है कि स्थान कनफ्यूजड है।
अगर तुम अपने घर में एक छोटा सा कोना इसके लिए अलग कर लो तो अच्छा। घर में एक छोटा सा मंदिर ही बना लो, बहुत अच्छा रहेगा। अगर तुम एक छोटा मंदिर बना सको तो सर्वोत्तम है। लेकिन फिर उसे किसी दूसरे काम में मत लाओ। उसे अपना निजी मंदिर रहने दो। और शीघ्र ही परिणाम आने लगेंगे।

 ध्वनि—संबंधी सातवीं विधि :

मुंह को थोड़ा— सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए हकार ध्वनि को अनुभव करो।
न को शरीर में कहीं भी स्थिर किया जा सकता है। सामान्यत: हमने उसे सिर में स्थिर कर रखा है; लेकिन उसे कहीं भी स्थिर किया जा सकता है। और स्थिर करने के स्थान के बदलने से तुम्हारी गुणवत्ता बदल जाती है। उदाहरण के लिए, पूर्व के कई देशों में, जापान, चीन, कोरिया आदि में परंपरा से सिखाया जाता है कि मन पेट में है, सिर में नहीं। और इस कारण उन लोगों के मन के गुण बदल गए जो सोचते हैं कि मन पेट में है। जो लोग सोचते हैं कि मन सिर में है, उनमें ये गुण नहीं हो सकते।
असल में मन कहीं नहीं है। सिर में मस्तिष्क है, मन नहीं है। मन का अर्थ है एकाग्रता; तुम मन को कहीं भी स्थिर कर सकते हो। और जहां उसे एक बार स्थिर कर दोगे वहां से उसे हटाना कठिन होगा। उदाहरण के लिए, अब मनोवैज्ञानिक और मनुष्य के गहरे में शोध करने वाले लोग कहते हैं कि जब तुम संभोग कर रहे हो तो तुम्हारा मन सिर से उतरकर कामेंद्रित पर चला आता है। अन्‍यथा तुम्‍हारी काम—क्रिया बैकार जाएगी। अगर मन सिर में ही रहे तो तुम काम— भोग में गहरे नहीं उतर पाओगे। तब काम—समाधि नहीं घटित होगी और तुम्हें आर्गाज्म का अनुभव नहीं होगा। तब तुम्हें उसका शिखर नहीं प्राप्त होगा। तुम बच्चे पैदा कर सकते हो; लेकिन तुम्हें प्रेम के शिखर का कोई अनुभव नहीं होगा।
तुम्हें उसकी कोई समझ नहीं है जिसकी तंत्र चर्चा करता है या जिसे खजुराहो चित्रित करता है। तुम नहीं समझ सकते। क्या तुमने खजुराहो देखा है? अगर तुम खजुराहो नहीं गए हो तो तुमने खजुराहो के मंदिरों के चित्र अवश्य देखे होंगे। उनके चेहरों को ध्यान से देखो; संभोगरत जोड़ों को देखो, उनके चेहरों को देखो। वे चेहरे दिव्य मालूम पड़ते हैं। वे काम— भोग में संलग्न हैं; लेकिन उनके चेहरों में बुद्ध की समाधि झलकती है। उन्हें क्या हो रहा है?
उनका काम— भोग मानसिक नहीं है। वे बुद्धि से संभोग नहीं करते हैं; वे उसके संबंध में विचार नहीं करते हैं। वे बुद्धि से नीचे उतर आए हैं, उनका फोकस बदल गया है। और सिर से हट जाने के कारण उनकी चेतना कामेंद्रिय पर उतर आई है। अब मन नहीं है। अब मन अ—मन हो गया है। इसीलिए उनके चेहरों पर बुद्ध की समाधि झलकती है। उनका काम— भोग ध्यान बन गया है। क्यों?
क्योंकि फोकस बदल गया। अगर तुम अपने मन के फोकस को बदल देते हो, अगर तुम उसे सिर से हटा लेते हो, तो सिर विश्राम में होता है, चेहरा विश्राम में होता है। तब सभी तनाव विलीन हो जाते हैं। तब तुम नहीं हो। तब अहंकार नहीं है।
यही कारण है कि चित्त जितना बौद्धिक होता है, बुद्धिवादी होता है, उतना ही वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाता है। प्रेम के लिए भिन्न फोकसिंग की जरूरत है। प्रेम में तुम्हारा फोकस हृदय के पास होने की जरूरत है, संभोग में तुम्हारा फोकस काम—केंद्र के पास होने की जरूरत है। जब तुम गणित करते हो तो सिर उसके लिए उचित जगह है। लेकिन प्रेम गणित नहीं है, संभोग बिलकुल गणित नहीं है। और अगर सिर में गणित से भरे होकर तुम संभोग में उतरते हो तो तुम अपनी ऊर्जा नष्ट करते हो। तब सारा श्रम बेचैनी पैदा करेगा।
लेकिन मन को बदला जा सकता है। तंत्र कहता है कि शरीर में सात चक्र हैं और मन को उनमें से किसी भी चक्र पर स्थिर किया जा सकता है। प्रत्येक चक्र का अलग गुण है। और अगर तुम एक विशेष चक्र पर एकाग्र करोगे तो तुम भिन्न ही व्यक्ति हो जाओगे।
जापान में एक सैनिक समुदाय हुआ है, जो भारत के क्षत्रियों जैसा है। उन्हें समुराई कहते हैं। उन्हें सैनिक के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है। और उन्हें पहली सीख यह दी जाती है कि तुम अपने मन को सिर से उतारकर नाभि—केंद्र के ठीक दो इंच नीचे ले आओ। जापान में इस केंद्र को हारा कहते हैं। समुराई को मन को हारा पर लाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जब तक समुराई हारा को अपने मन का केंद्र नहीं बना लेता है तब तक उसे युद्ध में भाग लेने की इजाजत नहीं दी जाती है।
और यही उचित है। समुराई संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में गिने जाते हैं। दुनिया में समुराई का कोई मुकाबला नहीं है। वह भिन्न ही किस्म का मनुष्य है, भिन्न ही प्राणी है; क्योंकि उसका केंद्र भिन्न है।
वे कहते हैं कि जब तुम युद्ध करते हो तो समय नहीं रहता है। और मन को समय की जरूरत पड़ती है; वह हिसाब—किताब करता है। अगर तुम पर कोई आक्रमण करे और उस समय तुम्हारा मन सोचविचार करने लगे कि कैसे बचान किया जाए। तो तुम गए; तुम अपना बचाव न कर सकोगे। समय नहीं है, तुम्हें तब समयातीत में काम करना होगा। और मन समयातीत में काम नहीं कर सकता है। मन को समय चाहिए। चाहे कितना भी थोड़ा हो, मन को समय चाहिए।
नाभि के नीचे एक केंद्र है जिसे हारा कहते हैं— यह हारा समयातीत में काम करता है। अगर चेतना को हारा पर स्थिर किया जाए और तब योद्धा लड़े तो वह युद्ध प्रज्ञा से लड़ा जाएगा, मस्तिष्क से नहीं। हारा पर स्थित योद्धा आक्रमण होने के पूर्व जान जाता है कि आक्रमण होने वाला है। यह हारा का एक सूक्ष्म भाव है, बुद्धि का नहीं। यह कोई अनुमान नहीं है; यह टेलीपैथी है। इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करो, इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करने की सोचो, वह विचार उसे पहुंच जाता है। उसके हारा पर चोट लगती है और वह अपना बचाव करने को तत्पर हो जाता है। वह आक्रमण होने के पहले ही अपने बचाव में लग जाता है। उसने अपना बचाव कर लिया।
कभी—कभी जब दो समुराई आपस में लड़ते हैं तो हार—जीत मुश्किल हो जाती है। समस्या यह होती है कि कोई किसी को नहीं हरा पाता है। किसी को विजेता नहीं घोषित किया जा सकता। एक तरह से निर्णय असंभव है; क्योंकि आक्रमण ही नहीं हो सकता। तुम्हारे आक्रमण करने के पहले ही वह जान जाता है।
एक भारतीय गणितज्ञ हुआ। सारा संसार चकित था; क्योंकि वह कोई हिसाब—किताब नहीं करता था। उसका नाम रामानुजम था। तुम उसे कोई भी समस्या दो और वह तुरंत उत्तर बता देता था। इंग्लैंड का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ हार्डी रामानुजम के पीछे पागल रहता था। हार्डी सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ था, लेकिन उसे भी किसी—किसी प्रश्न को हल करने में छह—छह घंटे लग जाते थे। लेकिन रामानुजम का हाल यह था कि तुम उसे प्रश्न दो और वह उसका उत्तर तुरंत बता देता था। इस ढंग से मन के काम करने का कोई उपाय नहीं था। मन को तो समय चाहिए। रामानुजम को बार—बार पूछा गया कि तुम यह कैसे करते हो? वह कहता था कि मैं नहीं जानता; तुम मुझे प्रश्न कहते हो और मुझे उसका उत्तर आ जाता है। वह कहीं नीचे से आता है, वह मेरे सिर से नहीं आता है।
यह उत्तर उसके हारा से आता था। उसे खुद यह बात नहीं मालूम थी। उसे कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिला था। लेकिन मेरे देखे वह अपने पिछले जन्म में जापानी रहा होगा; क्योंकि भारत में हमने हारा पर काम नहीं किया है।
तंत्र कहता है कि अपने मन को भिन्न—भिन्न केंद्रों पर स्थिर करो और उसके भिन्न—भिन्न परिणाम होंगे। यह विधि मन को जीभ पर, जीभ के मध्य भाग पर स्थिर करने को कहती है।
’मुंह को थोड़ा—सा खुला रखते हुए......।’
मानो तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को बंद नहीं, थोड़ा—सा खुला रखना है—मानो तुम बोलने वाले हो। ऐसा नहीं कि तुम बोल रहे हो; ऐसा ही कि तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को’' इतना ही खोलों जितना उस समय खोलते हो जब बोलने को होते हो। और तब मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। तब तुम्हें अनूठा अनुभव होगा; क्योंकि जीभ के ठीक बीच में एक केंद्र है जो तुम्‍हारे को नियंत्रित करता है। अगर तुम अचानक सजग जाओ और उस केंद्र पर मन को स्थिर करो तो तुम्हारे विचार बंद हो जाएंगे। जीभ के ठीक बीच में मन को स्थिर करो—मानो तुम्हारा समस्त मन जीभ में चला आया है। जीभ के ठीक बीच में।
मुंह को थोड़ा—सा खुला रखो, जैसे कि तुम बोलने जा रहे हो। और तब मन को इस तरह स्थिर करो कि वह सिर में न होकर जीभ में आ जाए जीभ के ठीक मध्य भाग में।
जीभ में वाणी का, बोलने का केंद्र है; और विचार वाणी है। जब तुम सोचते हो, विचार करते हो, तो क्या करते हो? तुम अपने भीतर बातचीत करते हो। क्या तुम भीतर बात किए बिना विचार कर सकते हो? तुम अकेले हो; तुम किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो। लेकिन तब भी तुम विचार कर रहे हो। जब तुम विचार कर रहे हो तो क्या कर रहे हो? तुम अपने भीतर बातचीत कर रहे हो; तुम अपने साथ बातचीत कर रहे हो और उसमें तुम्हारी जीभ संलग्न है।
अगली दफा जब तुम विचार में संलग्न होओ तो सजग होकर अपनी जीभ पर अवधान दो। उस वक्त तुम्हारी जीभ ऐसे कंपित होगी जैसे वह किसी के साथ बातचीत करते समय कंपित होती है। फिर अवधान दो और तुम्हें पता चलेगा कि तरंगें जीभ के मध्य में केंद्रित हैं; वे मध्य से उठकर पूरी जीभ पर फैल जाती हैं।
विचार करना अंतस की बातचीत है। और अगर तुम अपनी पूरी चेतना को, अपने मन को जीभ के मध्य में केंद्रित कर सको तो विचार ठहर जाते हैं। जो लोग मौन का अभ्यास करते हैं, वे यही तो करते हैं कि बातचीत बंद कर देते हैं। जब तुम बाहर की बातचीत बंद कर देते हो तो तुम अपने भीतर चलने वाली बातचीत के प्रति बहुत बोधपूर्ण हो जाते हो। और अगर तुम महीने दो महीने, या वर्ष भर बिलकुल मौन रह सको, बिना बातचीत के रह सको, तो तुम देखोगे कि तुम्हारी जीभ कितनी जोर से कंपित होती है। तुम्हें इसका पता नहीं चलता है; क्योंकि तुम निरंतर बात करते रहते हो और उससे तरंगों का निरसन हो जाता है।
लेकिन अगर अभी भी तुम रुककर अपने विचार के प्रति सजग होओ तो तुम्हें मालूम होगा कि जीभ थोड़ी— थोड़ी कंपित हो रही है। अब अपनी जीभ को पूरी तरह ठहरा दो, रोक दो और तब सोचने की चेष्टा करो; तुम नहीं सोच पाओगे। जीभ को ऐसे स्थिर कर दो जैसे वह जम गई हो, उसमें कोई गति मत होने दो; और तब तुम्हारा सोचना—विचारना असंभव हो जाएगा। केंद्र ठीक मध्य में है; मन को वहीं स्थिर करो।
'मुंह को थोड़ा—सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्वनि को अनुभव करो।’
यह दूसरी विधि है और पहली जैसी ही है।
'अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्वनि को अनुभव करो।’
पहली विधि से तुम्हारा विचार बंद हो जाएगा। तुम अपने भीतर एक ठोसपन अनुभव करोगे—मानो तुम ठोस हो गए हो। जब विचार नहीं होते हैं तो तुम अचल हो जाते हो, थिर हो जाते हो। और जब विचार नहीं हैं और तुम अचल हो तो तुम शाश्वत के अंग हो जाते हो। यह शाश्वत बदलता हुआ लगता है, लेकिन दरअसल वह अचल है, ठहरा हुआ है। निर्विचार में तुम शाश्वत के, अचल के अंग हो जाते हो।
विचार के रहते तुम चलायमान के, परिवर्तनशील के अंग हो; क्योंकि प्रकृति चलायमान है, संसार चलायमान है। यही कारण है कि हम इसे संसार कहते हैं। संसार का अर्थ है. चक्र, चाक। यह चल रहा है, चल रहा है, यह सतत घूम रहा है। संसार निरंतर गति है। और जो अदृश्य है, परम है, वह अचल है, ठहरा हुआ है।
यह ऐसा है कि चाक तो घूमता है, लेकिन जिसके सहारे वह घूमता है वह धुरी अचल है। चाक तभी घूम सकता है जब उसके केंद्र पर कुछ है जो सदा अचल है—धुरी अचल है। संसार चल रहा है; और ब्रह्म अचल है। जब विचार विसर्जित होता है तो तुम अचानक इस लोक से दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। भीतरी गति के बंद होते ही तुम शाश्वत के अंग हो जाते हो—उस शाश्वत के, जो कभी बदलता नहीं है।
'अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए हकार ध्वनि को अनुभव करो।’
मुंह को थोड़ा—सा खुला रखो, मानो तुम बोलने जा रहे हो। और तब श्वास को भीतर ले जाओ और उस ध्वनि के प्रति सजग रहो जो भीतर आती हुई श्वास से पैदा होती है। वह ध्वनि ही हकार है—चाहे श्वास भीतर जाती हो या बाहर। इस ध्वनि को तुम्हें पैदा नहीं करना है; तुम्हें तो अंदर आती श्वास को अपनी जीभ पर केवल महसूस करना है। यह बहुत धीमा स्वर है; लेकिन है। वह हकार जैसा मालूम देगा। वह बहुत मौन है; मुश्किल से सुनाई देता है। उसे सुनने के लिए तुम्हें बहुत सजग होना पड़ेगा। लेकिन उसे पैदा करने की चेष्टा मत करो। तुमने अगर उसे पैदा करने की चेष्टा की तो तुम चूक जाओगे। पैदा की हुई ध्वनि किसी काम की नहीं होगी। जब—जब श्वास भीतर जाती है या बाहर आती है, तब जो ध्वनि अपने ही आप पैदा होती है वह स्वाभाविक है।
लेकिन विधि कहती है कि भीतर आती श्वास के साथ प्रयोग करना है, बाहर जाती श्वास के साथ नहीं। क्योंकि बाहर जाती श्वास के साथ तुम भी बाहर चले जाओगे, ध्वनि के साथ—साथ तुम भी बाहर चले जाओगे, जब कि चेष्टा भीतर जाने की करनी है। अत: भीतर जाती श्वास के साथ हकार ध्वनि को अनुभव करो। देर—अबेर तुम्हें अनुभव होगा कि यह ध्वनि सिर्फ जीभ में ही नहीं, कंठ में भी हो रही है। लेकिन तब वह बहुत ही धीमी हो जाती है; उसे सुनने के लिए प्रगाढ़ जागरूकता की जरूरत है।
तो जीभ से शुरू करो; फिर धीरे—धीरे सजगता को बढ़ाओ, उसे महसूस करो। तब तुम उसे कंठ में सुनोगे। और उसके बाद उसे अपने हृदय में सुनने लगोगे। और जब वह हृदय में पहुंचती है तो तुम मन के पार चले गए। ये सारी विधियां वह सेतु निर्मित करती हैं जहां से तुम विचार से निर्विचार में, मन से अ—मन में, सतह से केंद्र में प्रवेश करते हो।

 ध्वनि—संबंधी आठवीं विधि :
अ और न के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।
म ध्वनि पर एकाग्र करो; लेकिन इस ओम में अ और म न रहें। तब सिर्फ उ बचता है। यह कठिन विधि है; लेकिन कुछ लोगों के लिए वह योग्य पड़ सकती है, खासकर जो लोग ध्वनि के साथ काम करते हैं। संगीतज्ञ, कवि, जिनके कान बहुत संवेदनशील हैं, उनके लिए यह विधि सहयोगी हो सकती है। लेकिन दूसरों के लिए, जिनके कान संवेदनशील नहीं है; यह विधि कठिन पड़ेगी। क्‍योंकि यह बहुत सूक्ष्म।
तो तुम्हें ओम का उच्चारण करना है और इस उच्चारण में तीनों ध्वनियों को—अ, उ और म को महसूस करना है। ओम का उच्चारण करो और उसमें तीन ध्वनियों को—अ, , म को अनुभव करो। वे तीनों ओम में समाहित हैं। बहुत संवेदनशील कान ही इन तीनों ध्वनियों को अलग—अलग सुन सकते हैं। वे अलग— अलग हैं, यद्यपि बहुत करीब—करीब भी हैं। अगर तुम उन्हें अलग—अलग नहीं सुन सकते तो यह विधि तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारे कानों को उनके लिए प्रशिक्षित करना होगा।
जापान में, विशेषकर झेन परंपरा में, वे पहले कानों को प्रशिक्षित करते हैं। कानों के प्रशिक्षण के उपाय हैं। बाहर हवा चल रही है, उसकी एक ध्वनि है। गुरु शिष्य से कहेगा कि इस ध्वनि पर अपने कान को एकाग्र करो; उसके सूक्ष्म भेदों को, उसकी बदलाहटों को समझो; देखो कि कब ध्वनि कुपित है और कब उन्मत्त, कब ध्वनि करुणावान है और कब प्रेमपूर्ण है, कब वह शक्तिशाली है और कब नाजुक है। ध्वनि की बारीकियों को अनुभव करो। वृक्षों से होकर हवा गुजरती है, उसे महसूस करो। नदी बह रही है; उसके सूक्ष्म भेदों को पहचानो।
और महीनों साधक नदी के किनारे बैठकर उसके कलकल स्वर को सुनता रहता है। नदी का स्वर भी भिन्न—भिन्न होता है, वह सतत बदलता रहता है। बरसात में नदी पूर पर होती है, बहुत जीवंत होती है, उमड़ती होती है। उस समय उसके स्वर भिन्न होते हैं। और गर्मी में नदी ना—कुछ हो जाती है, उसका कलकल भी समाप्त हो जाता है। लेकिन अगर तुम सुनना चाहो तो वह सूक्ष्म स्वर भी सुना जा सकता है। सालभर नदी बदलती रहती है और साधक को सजग रहना पड़ता है।
हरमन हेस के उपन्यास सिद्धार्थ में सिद्धार्थ एक माझी के साथ रहता है। नदी है, माझी है और सिद्धार्थ है; उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है। और माझी बहुत शांत व्यक्ति है। वह आजीवन नदी के साथ रहा है; वह इतना शांत हो गया है कि कभी—कभार ही बोलता है। और जब भी सिद्धार्थ अकेलापन महसूस करता है, माझी उससे कहता है कि नदी के किनारे जाओ और उसकी कलकल ध्वनि को सुनो। मनुष्य की बकवास की बजाय नदी को सुनना बेहतर है। और सिद्धार्थ धीरे— धीरे नदी के साथ लयबद्ध हो जाता है। और तब उसे नदी की भावदशा का बोध होने लगता है। नदी की भावदशा बदलती रहती है। कभी वह मैत्रीपूर्ण है और कभी नहीं; कभी वह गाती है और कभी रोती—चीखती है; कभी वह हंसती है और कभी उसे उदासी घेर लेती है। और सिद्धार्थ उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म भेदों को पकड़ने लगता है। उसके कान नदी के साथ लयबद्ध हो जाते हैं।
तो हो सकता है, आरंभ में तुम्हें यह विधि कठिन मालूम पड़े। लेकिन प्रयोग करो, ओम का उच्चार करो और उच्चार करते हुए ओम की ध्वनि को अनुभव करो। इसमें तीन ध्वनियां सम्मिलित हैं; ओम तीन स्वरों का समन्वय है। और जब तुम इन तीन स्वरों को अलग— अलग अनुभव कर लो तो उनमें से अ और म को छोड़ दो। तब तुम ओम नहीं कह सकोगे, क्योंकि अ निकल गया, म भी निकल गया। तब सिर्फ उ बच रहेगा। क्यों? क्या होगा?
म् मंत्र असली चीज नहीं है। असली चीज ओम नहीं है और न उसका छोड़ना है। असली
चीज तुम्हारी संवेदनशीलता है। पहले तुम तीन ध्वनियों के प्रति संवेदनशील होते हो, जो कठिन काम है। और जब तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम उनमें से दो स्वरों कै।, अ और म को छोड़ सकते हो तो सिर्फ बीच का स्‍वर बचता है। और इस प्रयत्‍न में तुम्‍हारा मन विसर्जित हो जाता है। तुम उसमें इतने तल्लीन हो जाओगे, उसके प्रति इतने अवधान से भर जाओगे, तुम इतने संवेदनशील हो जाओगे कि विचार विसर्जित हो जाएंगे। और अगर तुम सोच—विचार करते हो तो तुम स्वरों के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकते।
यह तुम्हें तुम्हारे सिर से बाहर निकालने का परोक्ष उपाय है। बहुत सारे उपाय प्रयोग में लाए गए हैं और वे बहुत सरल प्रतीत होते हैं। तुम्हें आश्चर्य होता है कि इन सरल उपायों से क्या हो सकता है! लेकिन चमत्कार घटित होता है, क्योंकि वे उपाय परोक्ष हैं। तुम्हारे मन को बहुत सूक्ष्म चीज पर स्थिर किया जा रहा है। इस प्रयत्न में सोच—विचार नहीं चल सकता है, तुम्हारा मन खो जाएगा। और तब किसी दिन अचानक तुम्हें इस बात का पता चलेगा और तुम चकित रह जाओगे कि क्या हुआ।
झेन में कोआन का, पहेली का प्रयोग होता है। एक बहुत प्रचलित कोआन है जो नए साधकों को दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ की ताली सुनो। अब ताली तो दो हाथों से बजती है। लेकिन उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ से बजने वाली ताली को सुनो।
किसी झेन गुरु की सेवा में एक लड़का रहता था। वह देखता था कि अनेक लोग आते हैं, गुरु के पैर पर सिर रखते हैं और कहते हैं कि हमें बताएं कि हम् किस पर ध्यान करें। गुरु उन्हें कोई कोआन दिया करता था। वह लड़का गुरु के छोटे —मोटे काम कर दिया करता था; वह उसकी सेवा में था। उसकी उम्र नौ—दस वर्ष की थी। रोज—रोज साधकों को आते—जाते देखकर वह भी एक दिन बहुत गंभीरता के साथ गुरु के निकट गया और उसके चरणों में सिर रखकर निवेदन किया कि मुझे भी ध्यान करने के लिए कोई कोआन दें।
गुरु हंसा। लेकिन लड़का गंभीर बना रहा। तो गुरु ने उसे कहा कि ठीक है, एक हाथ की ताली सुनने की चेष्टा करो और जब सुनाई पड़ जाए तो आकर मुझे बताना।
लड़के ने बहुत प्रयत्न किए। रातभर उसे नींद नहीं आई। दूसरे दिन सुबह वह गुरु के पास जाकर बोला : मैंने सुन लिया, वह वृक्षों से गुजरने वाली हवा है। लेकिन गुरु ने पूछा. इसमें हाथ कहां है? जाओ और फिर प्रयत्न करो। ऐसे लड़का रोज ही आता रहा। वह कोई ध्वनि खोज लेता और गुरु को बताता। लेकिन हर बार गुरु कहता कि यह भी नहीं है, और प्रयत्न करो।
फिर एक दिन लड़का गुरु के पास नहीं आया। गुरु ने उसकी बहुत प्रतीक्षा की; लेकिन वह नहीं आया। तब उसने अपने दूसरे शिष्यों से कहा कि जाकर पता करो कि क्या हुआ। गुरु ने कहा कि मालूम होता है कि उसने एक हाथी की ताली सुन ली। शिष्य गए। लड़का एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ बैठा था—मानो एक नवजात बुद्ध बैठा हो।
उन्होंने लौटकर गुरु को खबर दी। उन्होंने कहा कि हमें उसे हिलाने में डर लगा, वह तो नवजात बुद्ध मालूम पड़ता है। मालूम पड़ता है कि उसने ताली सुन ली। तब गुरु स्वयं आया, उसने लड़के के चरणों पर अपना सिर रखा और पूछा. क्या तुमने सुना? मालूम होता है कि तुमने सुन लिया। लड़के ने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा : हां, लेकिन वह तो मौन है।
इस लड़के ने कैसे सुना? उसकी संवेदनशीलता विकसित हुई। उसने प्रत्येक ध्वनि को सुनने की चेष्‍टा की और उसने बहुत अवधान से सुना। उसका अवधान विकसित हुआ। उसकी नींद जाती रही। वह रात—रातभर जागकर सुनता कि एक हाथ की ताली क्या है। वह तुम्हारे जैसा बुद्धिवादी नहीं था; उसने यह सोचा ही नहीं कि एक हाथ की ताली नहीं हो सकती है।
वही पहेली तुम्हें दी जाए तो तुम प्रयोग करने वाले नहीं हो। तुम कहोगे कि यह मूढ़ता है, एक हाथ की ताली नहीं हो सकती। लेकिन उस लड़के ने प्रयोग किया। उसने सोचा कि जब गुरु ने कहा है तो उसमें जरूर कुछ होगा, उसने श्रम किया। वह सरल था। जब भी उसे लगता कि कोई नई चीज है तो वह दौड़कर गुरु के पास जाता। इस ढंग से उसकी संवेदनशीलता विकसित हुई; वह सजग और बोधपूर्ण होता गया। वह एकाग्र हो गया। वह लड़का खोज में लगा था, इसलिए उसका मन विसर्जित हो गया। गुरु ने उससे कहा था कि अगर तुम सोच—विचार करते रहोगे तो तुम चूक जाओगे। कभी—कभी ऐसी ध्वनि होती है जो एक हाथ की होती है, इसलिए सजग रहना ताकि चूक न जाओ। और उसने प्रयत्न किए।
एक हाथ की ताली नहीं होती है। लेकिन यह तो संवेदनशीलता को, बोध को पैदा करने का एक परोक्ष उपाय था। और एक दिन अचानक सब कुछ विलीन हो गया। वह इतना अवधानपूर्ण हो गया कि अवधान ही रह गया। वह इतना संवेदनशील हो गया कि संवेदनशीलता ही रह गई। वह इतना बोधपूर्ण हो गया कि बोध ही रह गया। वह सिर्फ बोधपूर्ण था; किसी चीज के प्रति बोधपूर्ण नहीं। और तब उसने कहा मैंने सुन लिया। लेकिन यह तो मौन है, शून्य है।
लेकिन इसके लिए तुम्हें सतत और होशपूर्ण होने का अभ्यास करना होगा।
'अ और म के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।’
यह विधि है जो तुम्हें ध्वनि के सूक्ष्म भेदों के प्रति, नाजुक भेदों के प्रति सजग बनाती है। इसका प्रयोग करते—करते तुम ओम को भूल जाओगे। न सिर्फ अ गिरेगा, न सिर्फ म गिरेगा, बल्कि किसी दिन तुम भी अचानक खो जाओगे। तब शून्य का, मौन का जन्म होगा। और तब तुम भी किसी वृक्ष के नीचे बैठे नवजात बुद्ध हो जाओगे।

आज इतना ही।


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