प्रश्नसार:
1—क्या हम
सचेतन रूप से
वृत्तियों
का नियमन और
संयमन करें?
2—अराजक
शोरगुल को
विधायक ध्वनि
में कैसे
बदलें?
पहला
प्रश्न :
कल
रात आपने चेतन
मन के द्वारा
अचेतन
वृत्तियों के
नियंत्रण और
दमन की चर्चा
कीं शिखर की
और कहा कि
विकास—क्रम
में अचेतन
वृत्तियां
मनष्य को उसके
पशु— जीवन से
विरासत में
मिली हैं। तो
क्या यह अच्छा
नहीं होगा कि चेतन
मन अपनी
बुद्धि, विवेक
और जीवन— कला
के अनुसार
उच्च। नियमन
और संयमन करे?
एक
पशु है, लेकिन
वह पशु ही
नहीं है, पशु
से बहुत
ज्यादा भी है।
लेकिन यह ’ज्यादा'
पशु का
निषेध नहीं कर
सकता, उसे
उसको समाहित
करना है।
मनुष्य पशु से
ज्यादा है; लेकिन उससे
पशु का इनकार
नहीं किया जा
सकता। उसे
सृजनात्मक ढंग
से समाहित
करना है। तुम
पशु को अलग
नहीं कर सकते;
वह
तुम्हारी
जड़ों में
समाया है। पशु
को हटाया नहीं
जा सकता, तुम्हें
उसका
सृजनात्मक
उपयोग करना है।
तो
पहली बात याद
रखने की यह है
कि तुम्हें
अपनी पशुता को
इनकार नहीं
करना है। अगर
तुम उसके
संबंध में
नकार की भाषा
में सोचने
लगोगे, तो
तुम अपने
प्रति
विध्वंसात्मक
हो जाओगे।
क्योंकि तुम
निन्यानबे
प्रतिशत पशु
हो। अगर तुम
अपने ही भीतर
विभाजन पैदा
करोगे, तो
तुम्हारी हार
सुनिश्चित है,
तब तुम जीत
नहीं सकते।
तुम्हारी
लड़ाई का
परिणाम उलटा
होगा; क्योंकि
तुममें
निन्यानबे
प्रतिशत पशु
है। सिर्फ एक
प्रतिशत मन
सचेतन है, यह
एक प्रतिशत
निन्यानबे
प्रतिशत के
खिलाफ नहीं
जीत सकता।
उसकी हार
निश्चित है।
यही वजह है कि
दुनिया में
इतनी निराशा
है, हताशा
है, क्योंकि
आदमी अपने ही
पशु से हार—हार
जाता है।
इसमें सफलता
असंभव है; तुम्हारी
हार अनिवार्य है।
एक प्रतिशत
निन्यानबे
प्रतिशत से
नहीं जीत सकता
है।
असल
में इस एक
प्रतिशत को
निन्यानबे
प्रतिशत से न
अलग किया जा
सकता है और न
उसे उससे
लड़ाया जा सकता
है। यह एक फूल
जैसा है, फूल
पूरे वृक्ष के,
वृक्ष की
जड़ों के विरोध
में नहीं जा
सकता है। क्या
तुम्हें पता
है कि तुम
अपने जिस पशु
के विरोध में
हो वही पशु तुम्हें
पाल रहा है!
उसके सहारे ही
तुम जीवित हो।
जिस क्षण
तुम्हारा पशु
मर जाएगा, तुम
भी तुरंत मर
जाओगे।
तुम्हारा मन
फूल है; तुम्हारा
पशु ही पूरा
वृक्ष है।
तो
विरोध में मत
होओ। यह
आत्मघातक है।
और अगर तुम
अपने ही विरोध
में बंटकर खड़े
हो गए, तो तुम
कभी आनंद को
नहीं उपलब्ध
हो सकोगे। तुम
ही अपना नरक
निर्मित कर
रहे हो। नरक
और कहीं नहीं
है, विभाजित
व्यक्तित्व
ही नरक है। और
नरक कोई भौगोलिक
स्थान नहीं है,
नरक
मनोवैज्ञानिक
स्थिति है।
वैसे ही
स्वर्ग भी
मनोवैज्ञानिक
स्थिति है। अखंड, अविभाजित
व्यक्तित्व, जिसमें कोई
द्वैत, कोई
द्वंद्व नहीं
है, वहीं
स्वर्ग है।
तो
पहले तो बात
मैं कहना
चाहूंगा कि
अपने को मत बांटो; अपने
ही विरोध में
मत खड़े होओ।
द्वंद्व में
मत रहो। वह जो
पशु है वह कुछ
बुरा नहीं है;
वह
तुम्हारे लिए
बहुत संभावना
से भरा है। वह
तुम्हारा
अतीत है और
वही तुम्हारा
भविष्य भी है।
उसमें बहुत
कुछ छिपा है।
उसे उघाड़ो, उसे विकसित
करो; उसे
बढ़ने दो। उसके
पार जाना है, उससे लड़ना
नहीं है।
तंत्र की
बुनियादी
शिक्षा यही है।
दूसरी
सभी परंपराएं
विभाजन करती
हैं। वे
तुम्हें
बांटती हैं; वे
तुम्हारे
भीतर एक
संघर्ष पैदा
करती हैं।
तंत्र विभाजन
नहीं करता है;
तंत्र
संघर्ष में
विश्वास ही
नहीं करता।
तंत्र बिलकुल
विधायक है, तंत्र नहीं
कहना नहीं
जानता है।
तंत्र ही कहने
में विश्वास
करता है—पूरे
जीवन को ही
कहने में। हां
के द्वारा
रूपांतरण
घटित होता है;
नहीं से
सिर्फ उपद्रव
पैदा होता है—रूपांतरण
नहीं। तुम
किसके विरोध
में लड रहे हो?
अपने ही
विरोध में तुम
कैसे जीत सकते
हो? तुम्हारा
बड़ा भाग पशु
है; इसलिए
बड़ा भाग
जीतेगा।
इसलिए जो लड़ते
हैं, वे
हारने के लिए
ही लड़ते हैं।
यदि हारना
चाहते हो, तो
लड़ो। और यदि
जीतना चाहते
हो, तो मत
लड़ो।
जीतने
के लिए शान
जरूरी है, संघर्ष
नहीं। संघर्ष
सूक्ष्म
हिंसा है। यह
अजीब है, लेकिन
यही हुआ है।
जो लोग दूसरों
के प्रति
अहिंसा की बात
करते हैं वे
अपने प्रति
बहुत
हिंसापूर्ण
होते हैं। ऐसी
देशनाएं हैं,
ऐसी
परंपराएं हैं,
जो कहती हैं
कि किसी के
प्रति हिंसा
मत करो, लेकिन
जहां तक
तुम्हारा
अपना संबंध है
वे बहुत हिंसक
हैं। वे
तुम्हें
दूसरों के
प्रति तो
अहिंसक होने को
कहती हैं, लेकिन
स्वयं के
प्रति हिंसक
होने को कहती
हैं। त्याग—तपस्या
पर आधारित जो
जीवन—विरोधी
दर्शन हैं, सब तुम्हारे
स्वयं के
प्रति हिंसक
रुख रखते हैं;
वे तुम्हें
अपने प्रति
हिंसा सिखाते
हैं।
तंत्र
बहुत अहिंसक
है—बिलकुल
अहिंसक।
तंत्र कहता है
कि अगर तुम
अपने प्रति
अहिंसक नहीं
हो सकते, तो
तुम किसी के
प्रति भी
अहिंसक नहीं
हो सकते, यह
असंभव है। जो
अपने साथ
हिंसा करेगा
वह सबके साथ
हिंसा करेगा।
वह अपनी
अहिंसा में भी
हिंसा छिपाए
रहेगा। तुम
हिंसा का रुख
अपनी तरफ मोड़
सकते हो, लेकिन
हिंसा मात्र
विध्वंसात्मक
है।
लेकिन
उसका यह मतलब
नहीं है कि
तुम पशु हो, तो
तुम्हें पशु
ही रहना है।
जिस क्षण तुम
अपनी विरासत
को स्वीकार
करते हो, जिस
क्षण तुम अपने
अतीत को स्वीकार
करते हो, उसी
क्षण
तुम्हारे
भविष्य का
द्वार खुल
जाता है।
स्वीकार ही
द्वार है। पशु
अतीत है; पर
उसे भविष्य
होने की जरूरत
नहीं है। अतीत
के विरोध में
जाने की जरूरत
नहीं है, तुम
जा भी नहीं
सकते। उसका
सृजनात्मक
उपयोग करो।
उसका
सृजनात्मक
उपयोग कैसे
करें?
पहली
बात कि उसके
अस्तित्व के
प्रति प्रगाढ़
रूप से सजग
रहना है, जागरूक
रहना है। जो
लोग उससे लड़ते
हैं वे उसके
प्रति जागरूक
नहीं हो सकते।
क्योंकि वे
भयभीत हैं, वे अपने पशु
को पीछे धकेल
देते हैं, अचेतन
में डाल देते
हैं। असल में
अचेतन के होने
की कोई जरूरत
नहीं है; अचेतन
तो दमन के
कारण निर्मित
होता है।
तुम्हारे
भीतर बहुत
चीजें हैं, जिन्हें तुम
बिना समझे ही
निंदित करार
देते हो। और
जो आदमी
समझदार है वह
किसी चीज की
भी निंदा नहीं
करता, निंदा
की जरूरत नहीं
है। वह जहर को
भी औषधि बना
लेता है।
क्योंकि वह जानता
है कि हर चीज
का सृजनात्मक
उपयोग किया जा
सकता है।
क्योंकि तुम
नहीं जानते हो, इसलिए
अज्ञान में वह
जहर है। विवेक
के साथ वह
अमृत बन जाता है।
जो
व्यक्ति अपनी
कामवासना से, क्रोध
से, लोभ से
लड़ता है वह
क्या करेगा? वह दमन
करेगा। लड़ना दमन
है। वह अपने
क्रोध को, काम
को, लोभ को,
घृणा को, ईर्ष्या को
सबको दबाएगा।
वह सब को किसी
तलघर में डाल
देगा और ऊपर
से झूठा
व्यक्तित्व
ओढ़ लेगा। वह
व्यक्तित्व
झूठा होगा; क्योंकि जो
ऊर्जा उसे
सच्चा बना
सकती थी, उसका
रूपांतरण
नहीं किया गया।
यह
व्यक्तित्व
नकली होगा।
असली ऊर्जा तो
दमित होकर
नीचे अचेतन
में डाल दी गई
है। वह ऊर्जा
सदा वहां
सक्रिय रहेगी
और मौका पाकर
किसी भी क्षण
उसका विस्फोट
हो सकता है।
तुम एक
ज्वालामुखी
पर बैठे हो और
प्रत्येक क्षण
वह
ज्वालामुखी
फूट पड़ने की
कोशिश में है।
और उसके फूटते
ही तुम्हारा
ओढ़ा हुआ
व्यक्तित्व
बिखर जाएगा।
तुमने
धर्म, नैतिकता
और संस्कृति
के नाम पर जो
व्यक्तित्व
निर्मित किया
है वह नकली है,
ऊपर—ऊपर है।
वह बस मुखौटा
है। भीतर असली
आदमी छिपा है।
तुम्हारा पशु
तुमसे दूर
नहीं है।
तुम्हारा
मुखौटा बहुत
झीना है। कोई
तुम्हारा
अपमान करता है
और तुरंत
तुम्हारा
सज्जन पुरुष
विदा हो जाता
है, पशु
प्रकट हो जाता
है। सज्जनता
का आवरण बहुत
झीना है; उसके
नीचे ही
ज्वालामुखी
धधक रहा है।
किसी भी क्षण
तुम्हारा पशु
प्रकट हो सकता
है। और जब वह
प्रकट होता है,
तुम्हारी
बुद्धि, तुम्हारी
नैतिकता, तुम्हारा
धर्म, तुम्हारा
पशु से ऊपर
होने का भाव, सब विदा हो
जाता है। जब
यथार्थ सामने
आता है, तो
झूठ की क्या
बिसात? वह
तो जब यथार्थ
फिर भूमिगत हो
जाता है, झूठ
फिर से प्रकट
होता है।
जब
तुम क्रोध में
होते हो, तो
तुम्हारा मन
कहां है? तुम्हारा
चैतन्य कहा है?
तुम्हारी
नैतिकता कहां
है? और
तुम्हारे वे
व्रत कहां हैं
जो तुमने बार—बार
लिए कि मैं
फिर क्रोध
नहीं करूंगा?
जब क्रोध
आता है, वे
सब काफूर हो
जाते हैं। हां,
जब क्रोध
फिर से तलघर
में लौट जाता
है, तब तुम
पश्चात्ताप
करते हो। तब
नीति, नियम
और व्रत के
झूठे पहरेदार
फिर से इकट्ठे
हो जाते हैं।
और पुरानी
बातचीत और
निंदा में फिर
से संलग्न हो
जाते हैं। वे
फिर से भविष्य
की योजनाएं
बनाने लगते
हैं। लेकिन
भविष्य में
फिर वही होने
वाला है। जब
क्रोध आएगा, ये छायाएं
विदा हो
जाएंगी।
अभी
जो तुम्हारी
चेतना है वह
महज छाया है।
वह असली नहीं
है;
उसमें सार—तत्व
नहीं है। तुम
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
सकते हो; उससे
तुम्हारी
कामवासना में
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
कामवासना
सिर्फ भूमिगत
हो जाती है, छिप जाती है।
और जब वह फिर
ऊपर आएगी, तो
तुम्हारा
ब्रह्मचर्य
का व्रत सपने
से ज्यादा
नहीं सिद्ध
होगा। छाया
यथार्थ का
मुकाबला नहीं
कर सकती।
तो
ये दो
दृष्टिकोण
हैं। या तो
तुम काम का
दमन कर सकते
हो,
तब तुम कभी
उसके पार नहीं
जा सकते हो।
या तुम अपनी
काम—ऊर्जा का
सृजनात्मक
उपयोग कर सकते
हो; उसे
इनकार न करके
समग्र रूप से
स्वीकार कर
सकते हो। तब
तुम उसे भूमिगत
जाने को मजबूर
नहीं करोगे, तुम उसके लिए
भी ऊपर ही एक
घर बना दोगे।
और तभी तुम
सच्चे मनुष्य
बनोगे।’
निश्चित
ही,
यह कठिन
होगा। इसीलिए
हम आसान
रास्ते चुनते
हैं। एक झूठा व्यक्तित्व
ओढ़ लेना आसान
है, उसके
लिए कुछ करने
की जरूरत नहीं
है। उसके लिए
एक ही काम
करना जरूरी है,
और वह यह कि
तुम अपने को ही
धोखा दो, बस।
अगर तुम अपने
को धोखा दे
सकते हो, तो
झूठा
व्यक्तित्व
निर्मित करना
आसान है। सच
में कुछ भी
नहीं बदलेगा,
लेकिन तुम
मान ले सकते
हो कि सब कुछ
बदल गया। वह
आसान है—भ्रांति
निर्मित करना
आसान है।
लेकिन सच्चाई
को, यथार्थ
को निर्मित
करना कठिन है।
वह सचमुच कठिन
काम है।
लेकिन
वही करने
योग्य है।
क्योंकि यदि
सच्ची ऊर्जा
से कुछ
निर्मित किया
जाए,
तो वह खोएगा
नहीं। उदाहरण
के लिए, अगर
कामवासना को
दबाया न जाए, उसे
स्वाभाविक
रहने दिया जाए,
तो तुम उससे
कुछ सृजन कर
सकते हो; उससे
प्रेम का जन्म
हो सकता है।
अगर कामवासना
रूपांतरित
होती है, तो
वह प्रेम बन
जाती है। और
अगर उसे दमित
किया जाता है,
तो वह घृणा
बन जाती है।
काम—दमन
के कारण तुम
प्रेम से डरने
लगते हो। जिस
आदमी ने काम
का दमन किया
है वह सदा
प्रेम से
भयभीत रहेगा।
क्योंकि
प्रेम के साथ
कामवासना चली
आती है। प्रेम
आत्मा है और
कामवासना
शरीर है। और
कामवासना के
डर से प्रेम
को ही इनकार
कर दिया जाएगा।
डर होगा कि
कहीं प्रेम के
आस—पास ही काम
का वास हो।
काम का जिसने
दमन किया, वह
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता।
वह प्रेम का
प्रदर्शन कर
सकता है, प्रेमपूर्ण
होने का ढोंग
कर सकता है, लेकिन वह सच
में प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता।
वह भयभीत जो
है। वह
तुम्हें
प्रेमपूर्ण
हाथों से नहीं
छू सकता; क्योंकि
भय है। भय यह
है कि
प्रेमपूर्ण
स्पर्श किसी
भी क्षण कामुक
स्पर्श बन
सकता है। वह
डरेगा, वह
तुम्हें अपने
को भी नहीं
छूने देगा। वह
इसके लिए अनेक
तर्क दे सकता
है, लेकिन असली
बात भय है—दमित
वृत्ति का भय।
और
ऐसा व्यक्ति, दमित
और भयभीत
व्यक्ति घृणा
से भरा होगा।
क्योंकि जो
ऊर्जा दमित
होती है वह
उलटी दिशा में
बहने लगती है।
कामवासना
सरलता से
प्रेम में गति
करती है; वह
उसका सहज
प्रवाह है। और
अगर तुम उसे
रोक दोगे, उसके
रास्ते में रोड़े
अटकाओगे, तो
वह घृणा बन
जाती है। तो
जो तुम्हारे
तथाकथित संत
और महात्मा, तथाकथित
नैतिक शिक्षक
हैं, यदि
तुम उनमें
गहरे झाकोगे,
तो पाओगे कि
वे घृणा से
भरे हैं। वह
होना ही है, वह
स्वाभाविक है।
कामवासना वहा
दबी है, वह
किसी भी क्षण
फूटकर ऊपर आ
सकती है। वे
एक खतरनाक
ज्वालामुखी
पर बैठे हैं।
अगर तुम ऊर्जा
को दबाते हो, तो उसका
अर्थ है कि
तुम उसे
स्थगित कर रहे
हो। और जितना
तुम टालोगे वह
उतना ही
असाध्य होता जाएगा।
तंत्र कहता है
कि अपने जीवन
को सच्ची
ऊर्जा से
निर्मित करो।
और सब सच्ची
ऊर्जा पशु—ऊर्जा
है। लेकिन जब
मैं पशु—ऊर्जा
कहता हूं र तो
उसमें कोई
निंदा निहित
नहीं है। मेरे
लिए पशु शब्द
निंदा सूचक
नहीं है, जैसा
वह तुम्हारे
लिए है। पशु
अपने आप में
सुंदर है।
उसमें निंदा
की कोई बात
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जो पशु
है वह शुद्ध
ऊर्जा है, जो
नैसर्गिक
नियमों के
मुताबिक चलती
है।
पूछा
गया है कि ’हम
सचेतन रूप से
क्या करें? क्या
हम उसका नियमन
न करें? क्या
हम उसका
नियंत्रण न
करें?'
नहीं, तुम्हारी
चेतना
नियंत्रण
करने के लिए
नहीं है।
तुम्हारी
चेतना नियमन
करने के लिए
नहीं है।
तुम्हारी
चेतना एक ही
काम कर सकती
है—तुम्हारी
चेतना समझ
सकती है। और समझ
ही रूपांतरण
बनती है।
तंत्र
कहेगा, कामवासना
को समझो; उसके
नियमन की
चेष्टा मत करो।
अगर तुम इसे समझ
नहीं सकते, तो सब
चेष्टा
व्यर्थ होने
वाली है, सब
चेष्टा हानि
करने वालों है।
कुछ करना नहीं
है। पहले इसे
समझो। और समझ
से ही मार्ग
बनता है।
तुम्हें अपनी
ऊर्जा को
जबरदस्ती कोई
मार्ग नहीं
देना है।
जैसे
कि विज्ञान
में होता है, समझ
के द्वारा
तुम्हें
नियमों का
ज्ञान हो जाता
है। तुम
विज्ञान में
क्या करते हो?
जैसे ही तुम
नियम को समझते
हो, प्रकृति
का रहस्य
प्रकट हो जाता
है। और एक बार
प्राकृतिक
रहस्य का पता
चल जाए तो तुम
उस ऊर्जा का
सृजनात्मक
उपयोग कर सकते
हो। बुनियादी
नियमों को
समझे बिना सभी
प्रयत्न निष्फल
होने को बाध्य
हैं।
तो
तंत्र कहता है, पशु
को समझो; क्योंकि
पशु के भीतर
ही तुम्हारे
भविष्य की संभावना
छिपी है। सच
तो यह है कि
पशु में
परमात्मा
छिपा है। पशु
तुम्हारा
अतीत है और
परमात्मा
तुम्हारा भविष्य
है। लेकिन
तुम्हारा
भविष्य
तुम्हारे
अतीत में छिपा
है—बीज—रूप
में छिपा है।
तुम्हारी जो
भी प्राकृतिक
शक्तियां हैं,
उन्हें
समझो। उन्हें
स्वीकारो; उन्हें
समझो।
तुम्हारे मन
का यह काम
नहीं है कि इन
शक्तियों पर
प्रभुत्व करे,
उनका
नियंत्रण करे,
उनसे लड़े; मन का काम
उन्हें समझना
है। अगर सच
में तुम
उन्हें समझते
हो, तो ही
तुम अपने मन
का सही उपयोग
कर रहे हो।
काम
को,
क्रोध को, लोभ को समझो।
सावचेत बनो।
वृत्तियों के
ढंग—ढांचे को
समझो कि वे कैसे
काम करती हैं,
उनके काम
करने का ढंग
क्या है। और
अपने भीतर इन
पशु —वृत्तियों
की पूरी गति
के प्रति
निरंतर सजग रहो,
जागे रहो।
अगर तुम इन
पशु —वृत्तियों
के प्रति
बोधपूर्ण रह
सके, तो
द्वैत नहीं
होगा; तब
तुम्हारे
भीतर अचेतन मन
नहीं होगा।
अगर तुम इन
वृत्तियों के
साथ गहराई में
यात्रा कर सके,
तो
तुम्हारे पास
सिर्फ चेतन मन
होगा, अचेतन
नहीं होगा।
अचेतन
मन दमन के
कारण पैदा
होता है। तुम
भय के कारण
अपने
अस्तित्व के
बड़े हिस्से को
चेतना के
प्रकाश के
सामने नहीं
आने देते; तुम
अपने ही
यथार्थ को
नहीं देख पाते।
तुम इतने भयभीत
हो कि तुम
अपने घर के
बाहर सदा
बरामदे में रहते
हो। तुम कभी
अपने अंदर
नहीं जाते; क्योंकि भय
है।
अगर
तुम अपने आमने—सामने
आ जाओ, अपना
साक्षात्कार
कर लो, तो
तुम्हारी
अपने संबंध
में जो
कल्पनाएं हैं,
जो भ्रम हैं,
वे सब के सब
गिर जाएंगे।
तुम अपने को
धार्मिक व्यक्ति
समझते हो, या
और कुछ मानते
हो, अगर
तुम अपनी
वास्तविकता
को देखोगे, तो ये सारे
भ्रम विदा हो
जाएंगे। और
हरेक आदमी ने
अपनी एक इमेज
बना रखी है।
वह इमेज झूठी
है। लेकिन हम
उससे चिपके
रहते हैं और
इस कारण ही अपने
भीतर प्रवेश
नहीं कर पाते।
तो
पहली बात कि
अपने पशु को
स्वीकार करो।
वह है, और
उसमें कुछ गलत
नहीं है। वह
तुम्हारा
अतीत है; और
तुम अपने अतीत
को इनकार नहीं
कर सकते।
लेकिन तुम उसे
उपयोग में ला
सकते हो। अगर
तुम
बुद्धिमान हो,
तो तुम उसके
उपयोग से अपने
लिए बेहतर भविष्य
का निर्माण कर
सकते हो।
लेकिन अगर तुम
मूढ़ निकले, तो तुम अपने
पशु से लड़ोगे और
लड़कर अपना
भविष्य बरबाद
कर लोगे। बीज
से लड़कर तुम
बीज को नष्ट
कर दोगे। उसका
सदुपयोग करो, उसे जमीन दो, उसकी देख—भाल
करो, ताकि
बीज वृक्ष बन
जाए, जीवंत
वृक्ष बन जाए
और उसके जरिए
भविष्य का फूल
खिले। पशु
तुम्हारा बीज
है, उससे लड़ो
मत।
तंत्र
के मन में पशु
के लिए कोई
निंदा नहीं है, प्रेम
ही प्रेम है।
तुम्हारा
सारा भविष्य
उसमें छिपा है।
उसे भलीभांति
जानो। और तब
तुम उसका
उपयोग कर
सकोगे। तब तुम
उसे धन्यवाद
दे सकोगे।
मैंने
सुना है कि जब
संत फ्रांसिस
मृत्यु—शथ्या
पर थे, तो मरने
के पूर्व उन्होंने
अचानक अपनी आंखें
खोलीं और अपने
शरीर को
धन्यवाद दिया।
दूसरे लोक में
जाने के पूर्व
उन्होंने
शरीर को
धन्यवाद दिया।
उन्होंने कहा,’हे मेरे
शरीर, तुम्हारा
धन्यवाद!
तुम्हारे
भीतर कितना
खजाना छिपा था
और तुमने मेरी
कितनी सहायता
की! मैं
अज्ञानी था।
और ऐसे अनेक
अवसर आए जब
मैंने तुमसे
लड़ाई भी की, तुम्हें
अपना शत्रु भी
समझा, लेकिन
तुम सदा मित्र
बने रहे। और
तुम्हारे ही
कारण मैं
चैतन्य की इस
अवस्था को
उपलब्ध हो सका।’
शरीर
को ऐसे
धन्यवाद देना
सुंदर है।
लेकिन संत फ्रांसिस
को यह बात अंत
में समझ पड़ी।
तंत्र कहता है
कि आरंभ में
ही यह समझ आ
जानी चाहिए।
जब तुम मरने
लगोगे, तब
शरीर को
धन्यवाद देने
से क्या फायदा?
तुम्हारा
शरीर गुप्त
शक्तियों का,
रहस्यपूर्ण
संभावनाओं का
खजाना है।
तंत्र कहता है
कि तुम्हारे
शरीर के भीतर
लघु रूप में
समूचा
ब्रह्मांड
छिपा है, वह
समूचे
ब्रह्मांड का पिंड
रूप है। उससे
लड़ो मत।
और
अगर तुम्हारा
शरीर पिंड रूप
में ब्रह्मांड
है,
तो
तुम्हारा
सेक्स या काम
क्या है? अगर
यह सच है कि
तुम्हारा
शरीर पिंड रूप
में ब्रह्मांड
है, तो
तुम्हारी
कामवासना
क्या है?
ब्रह्मांड
में जो सृजन—ऊर्जा
है,
वही
तुम्हारे
भीतर
कामवासना है।
पूरे
ब्रह्मांड
में
प्रतिक्षण जो
सृजन का काम
चल रहा है, वही
तुम्हारे
भीतर
कामवासना है।
और अगर उसमें
इतना बल है, तो उसका
कारण यह है कि
तुम्हें
सर्जक होना
अनिवार्य है।
अगर काम इतना
शक्तिशाली है,
तो तंत्र के
लिए उसका इतना
ही अर्थ है कि
तुम्हें
असृजनशील
नहीं होने
दिया जा सकता।
तुम्हें
सृजनशील होना
है। अगर तुम
कुछ बड़ा नहीं
रच सकते, तो
कम से कम जीवन
का सृजन करो।
अगर तुम कुछ
अपने से
श्रेष्ठ नहीं
रच सकते, तो
कम से कम वह तो
रचो जो
तुम्हारे
मरने पर तुम्हारी
जगह ले सके।
कामवासना
इतनी
शक्तिशाली
इसीलिए है कि
अस्तित्व तुम्हें
असृजनशील
नहीं रहने दे
सकता। और तुम
काम—ऊर्जा से
लड़ते हो!
लड़ों
मत,
उसका उपयोग
करो। और जरूरी
नहीं है कि
संतान पैदा
करने के लिए ही
उसका उपयोग
करो। हर सृजन
में काम—ऊर्जा
का उपयोग है।
संभवत: यही
कारण है कि एक
बड़े कवि को, एक बड़े
चित्रकार को
सेक्स की, काम
की बहुत चाह
नहीं होती।
उसका कारण यह
नहीं है कि वह
कोई संत है।
उसका कुल कारण
इतना है कि वह
किसी महान चीज
का सृजन कर
रहा है और
उसकी जरूरत
पूरी हो रही
है।
एक
महान
संगीतज्ञ
संगीत की रचना
करता है। कोई
पिता उतना
तृप्त अनुभव
नहीं कर सकता
जितना तृप्त
महान संगीत के
सृजन पर एक
संगीतज्ञ
अनुभव करता है।
कोई बेटा अपने
मां—बाप को
इतना सुख नहीं
दे सकता जितना
सुख एक महान
संगीत
संगीतज्ञ को
देता है, या एक
सुंदर कविता
कवि को देती
है। और
क्योंकि वह
ऊंचे तल पर
सृजन करता है,
प्रकृति
उसे छोटे तल
के सृजन कर्म
से मुक्त कर
देती है। अब
ऊर्जा ऊर्ध्व
गति करने लगी।
तंत्र
कहता है, ऊर्जा
से लड़ो नहीं; ऊर्जा को
ऊर्ध्व गति दो।
और ऊर्ध्व गति
के अनेक तल
हैं, अनेक
आयाम हैं।
बुद्ध
न चित्रकार
हैं,
न संगीतज्ञ
हैं और न ही
कवि; लेकिन
बुद्ध काम के
पार चले गए
हैं। क्या हुआ?
आत्म—सृजन,
स्वयं का
सृजन
श्रेष्ठतम
सृजन है। अपने
भीतर की समग्र
चेतना का, समस्त
आंतरिकता का,
अखंडता का
सृजन
सर्वश्रेष्ठ
सृजन है। वह
शिखर है। वह
गौरीशंकर है।
बुद्ध उसी
शिखर पर हैं, उन्होंने
स्वयं का सृजन
किया है। जब
तुम कामवासना
में उतरते हो,
तो तुम शरीर
का सृजन करते
हो, उसकी
प्रतिकृति
निर्मित करते
हो। और जब तुम
ऊंचे उठते हो,
तो तुम
आत्मा का सृजन
करते हो। और
अगर तुम मुझे
कहने की इजाजत
दो तो मैं
कहूंगा, तुम
परमात्मा का
सृजन करते हो।
तुमने सुना है
कि परमात्मा
ने संसार की
रचना की; लेकिन
मैं कहता हूं कि
तुममें
परमात्मा को
निर्मित की
क्षमता है। और
जब तक तुम
परमात्मा को न
निर्मित कर लो,
तब तक तुम
तृप्त नहीं हो
सकते।
तो
ऐसा मत सोचो
कि परमात्मा
प्रारंभ में
है। अच्छा
होगा यह सोचना
कि परमात्मा
अंत में है।
परमात्मा जगत
का कारण नहीं
है,
बल्कि वह
जगत का लक्ष्य
है, उद्देश्य
है, उसकी
परिणति है, मंजिल है, शिखर है।
अगर तुम अपनी
समग्रता में
खिल जाओ, तो
तुम परमात्मा
हो जाओगे।
यही
कारण है कि
बुद्ध को हम
भगवान कहते
हैं। और बुद्ध
ने कभी भगवान
को नहीं माना।
यह बहुत
विरोधाभासी
बात है।
उन्होंने कभी
ईश्वर को नहीं
माना, वे सबसे
गहरे
नास्तिकों
में एक हैं।
वे कहते हैं
कि ईश्वर नहीं
है, लेकिन
हमने उन्हें
ही भगवान कहा।
एच जी वेल्स
ने लिखा है कि
गौतम बुद्ध
सर्वाधिक
ईश्वर—विहीन
व्यक्ति थे और
सर्वाधिक
ईश्वर—तुल्य
भी।
इन
गौतम बुद्ध को
क्या हुआ था? उन्होंने
सर्वोच्च
शिखर को, आत्यंतिक
संभावना को
जन्म दिया था।
उनमें परम
घटित हुआ था।
फिर उन्होंने
कुछ और सृजन
नहीं किया; उसकी जरूरत
नहीं रही।
बुद्ध के लिए
काव्य—रचना
व्यर्थ होती;
उनके लिए
चित्रकारी
व्यर्थ होती।
वह बचपना होता।
उन्होंने परम
का सृजन किया
था; उन्होंने
स्वयं को नया
जन्म दिया था।
नए के जन्म के
लिए पुराने का
उपयोग किया
गया था। और
क्योंकि यह
परम घटना थी, इसलिए इसमें
समस्त अतीत का
उपयोग किया
गया था। अतीत
विलीन हो गया
था, पशु
विदा हो गया
था। जब वृक्ष
पैदा होता है,
तो बीज
विलीन हो जाता
है। तब बीज
नहीं रह सकता।
जीसस
कहते हैं कि
जब तक अन्न का
दाना जमीन में
गिरकर मिट
नहीं जाता, तब
तक कुछ नहीं
हो सकता है।
जब बीज जमीन
में गिरकर मिट
जाता है, नया
जीवन उभरकर
ऊपर आता है।
यह मृत्यु बीज
की मृत्यु है,
अतीत की
मृत्यु है।
लेकिन कोई
मृत्यु नए को
जन्म दिए बिना
नहीं हो सकती,
उससे कुछ
नया आएगा ही।
तंत्र
कहता है, नियंत्रण
करने की
चेष्टा मत करो।
नियंत्रण
करने वाले तुम
हो कौन? और
तुम नियंत्रण
कैसे कर पाओगे?
तुम्हारा
नियंत्रण
धोखा होगा।
इसे समझने की
कोशिश करो।
ऊर्जा की गति
को, उसके आंतरिक
स्वभाव को, उसकी घटना
को समझने की
कोशिश करो। और
वह समझ ही
तुम्हें
सहजता से बदल
देगी।
बदलाहट
प्रयत्न से नहीं
होता है। अगर
वह प्रयत्न से
हो,
तो वह आनंद
नहीं ला सकती।
आनंद प्रयत्न
के द्वारा कभी
घटित नहीं
होता है।
प्रयत्न से
सदा तनाव पैदा
होता है और वह
दुखदायी है।
प्रयत्न सदा
कुरूप होता है,
क्योंकि
तुम जबरदस्ती
कर रहे हो।
समझ प्रयत्न
नहीं है। समझ
सुंदर है, समझ
सहज घटना है।
तो
नियंत्रण मत
करो। यदि
नियंत्रण
करने की कोशिश
करोगे, तो
तुम्हें
असफलता ही हाथ
लगेगी। और उस
कोशिश में ही
तुम नष्ट हो
जाओगे। समझो!
समझ को ही
एकमात्र नियम
बनने दो। समझ
को ही अपनी
साधना बनाओ।
सब कुछ को समझ पर
छोड़ दो। जो
बात समझ से
नहीं हो सकती,
वह हो ही
नहीं सकती है।
उस बात को भूल
जाओ। जो कुछ
भी हो सकता है,
समझ से ही
हो सकता है।
तो
तंत्र कहता है, चीजों
को स्वीकार
करो, क्योंकि
समझ के लिए, बोध के लिए
स्वीकार
जरूरी है। तुम
किसी चीज को
नहीं समझ सकते,
अगर तुम उसे
इनकार करते हो।
अगर मैं
तुम्हें घृणा
करता हूं र तो
मैं तुम्हारी आंखों
में झांक नहीं
सकता, मैं
तुम्हारा
मुंह भी नहीं
देख सकता। मैं
अपना ही मुंह
फेर लूंगा, मैं तुमसे
बचूंगा; मैं
कभी तुम्हें
सीधा नहीं देख
पाऊंगा। जब
मैं तुम्हें
प्रेम करूंगा,
तभी मैं
तुम्हारी आंख
में आंख डालकर
देख सकूंगा।
और जब मैं
तुम्हें
प्रगाढ़ रूप से
प्रेम करूंगा,
तभी मैं
तुम्हारा
मुंह देख
सकूंगा।
प्रेम
ही मुंह देखता
है,
अन्यथा तुम
कभी किसी का
मुंह नहीं
देखते। तुम
मिलते हो, तुम
देखते भी हो, लेकिन यह
देखना देखना
नहीं है।
उसमें गहराई
नहीं होती; वह छूता तो
है, लेकिन
भीतर प्रवेश
नहीं करता।
लेकिन जब तुम
प्रेम करते हो,
तो
तुम्हारी
पूरी ऊर्जा आंख
बन जाती है।
तब वह ऊर्जा
बहती है, गहराई
से स्पर्श
करती है, दूसरे
व्यक्ति में
गहरे उतर जाती
है; उसके
प्राणों से एक
हो जाती है।
और तभी तुम
किसी को जान
सकते हो।
इसीलिए
पुरानी
बाइबिल में
उन्होंने
संभोग के लिए, प्रेम
के लिए, गहरे
प्रेम के लिए,
जानना शब्द
का उपयोग किया
है। यह कोई
सांयोगिक बात
नहीं है।
बाइबिल में
विवरण है कि
आदम ने अपनी
पत्नी ईव को
जाना और तब
केन का जन्म
हुआ। संभोग के
लिए, प्रेम
के लिए, जानना
शब्द का
प्रयोग
आश्चर्यजनक
है और बहुत
अर्थपूर्ण है।
क्योंकि जब
तुम किसी को
जानते हो तो
उसका अर्थ है
कि तुमने उसे
प्रेम किया।
जानने का कोई
दूसरा उपाय
नहीं है।
और
व्यक्तियों
के साथ ही ऐसा
नहीं है, ऊर्जाओं
के साथ भी ऐसा
ही है। अगर
तुम अपने
अंतरस्थ
अस्तित्व को
और ऊर्जा की
बहुआयामी
घटना को जानना
चाहते हो, तो
प्रेम करो।
पशु को घृणा
मत करो, उसे
प्रेम करो। और
तुम उससे अलग
नहीं हो; तुम
उसके अंग हो।
पशु ही
तुम्हें इस
बिंदु तक
खींचकर ले आया
है जहां तुम
मनुष्य बने हो।
उसका अहसान
मानो। यह निरी
कृतध्नता है
जब लोग पशु की,
आदमी के
भीतर के पशु
की निंदा करते
हैं। पशु ही
तुम्हें वहां
लाया है जहां
तुम मनुष्य
हुए हो। और
पशु ही
तुम्हें वहा
पहुंचा सकता
है जहां तुम
परमात्मा बन
सकते हो। पशु
ही तुम्हें
गतिमान कर रहा
है। उसे समझो,
उसके ढंग—ढांचे
को समझो; उसके
काम करने की
प्रक्रिया को
समझो। वह समझ
ही तुम्हारा
रूपांतरण
बनेगी।
तो
नियंत्रण मत
करो,
मालिक बनने
की चेष्टा मत
करो। बिलकुल
भी नहीं। तुम
अपने पशु से
इतने भयभीत
क्यों हो? इसलिए
कि सच में
तुम्हारा मन
नपुंसक है, इसीलिए तुम भयभीत
हो। तुम उस पर
काबू क्यों
पाना चाहते हो?
अगर तुम
वास्तव में
उसके मालिक हो,
तो पशु
तुम्हारा
अनुगमन करेगा।
लेकिन तुम
अच्छी तरह
जानते हो कि
पशु मेरा मालिक
है और मुझे
उसका अनुगमन
करना पड़ेगा।
इससे ही मालिक
बनने की यह सारी
चेष्टा चलती है।
तुम भलीभांति
जानते हो कि
जो कुछ
वास्तविक है
वह पशु के
द्वारा घटित
होता है; और
जो नकली है वह
मन के द्वारा
घटित होता है।
यह बोध भय
पैदा करता है।
यही कारण है
कि तुम मालिक
बनने की
चेष्टा करते
हो।
लेकिन
मालिक
प्रयत्न से
नहीं पैदा
होता है। केवल
गुलाम मालिक
बनने की
चेष्टा करते
हैं। मालिक बस
मालिक है। वह
मालिक है! मैं
तुम्हें एक
कहानी कहता
हूं।
एक
बड़े योद्धा के
घर ऐसा हुआ।
एक रात उसे
अचानक एक चूहे
से पाला पड़
गया। वह बड़ा
योद्धा था, खड्गधारी
था। और चूहा
ठीक उसके
सामने बैठकर
उसे घूर रहा
था। इससे
योद्धा को
बहुत क्रोध
आया। कभी किसी
ने उसके साथ
ऐसा करने की
हिमाकत नहीं
की थी। तो
उसने अपनी
तलवार म्यान
से निकाल ली, लेकिन चूहा
अपनी जगह से
टस से मस नहीं
हुआ। फिर तो
योद्धा ने
उठाकर तलवार
चला दी। लेकिन
चूहे ने झट से
छलांग लगाई और
योद्धा की तलवार
जमीन पर गिरकर
टूट गई।
योद्धा
तो पागल हो
उठा। उसने बार—बार
चेष्टा की।
लेकिन जितनी
चेष्टा की
उतनी ही हार
हाथ लगी। हार
पर हार। चूहे
से लड़ना कठिन
है। उससे लड़ने
को राजी होना
ही हार का
न्योता देना
है। वही हार
है। चूहा
बलवान हो गया, योद्धा
की हर हार ने
उसे बलवान बना
दिया। वह
उछलकर उसकी
खाट पर चढ़ गया।
योद्धा तो घर
से बाहर चला
गया। उसने मित्रों
से पूछा कि
क्या किया जाए?
उसने कहा कि
ऐसा तो मेरी
जिंदगी में
कभी भी नहीं
हुआ। किसी की
भी ऐसी जुर्रत
नहीं हो सकती
है। और वह भी
एक मामूली
चूहा! लेकिन
यह तो चमत्कार
मालूम होता है,
मैं तो बुरी
तरह हार गया।
तो
मित्रों ने
कहा कि चूहे
से लड़ना
व्यर्थ है, उसके
लिए किसी
बिल्ली को
लाना बेहतर
होगा। लेकिन
चारों ओर यह
अफवाह फैल' गई कि
योद्धा हार
गया। और
बिल्लियों तक
यह खबर पहुंच
गई। कोई
बिल्ली आने को
राजी न हुई।
सब बिल्लियां
इकट्ठी हुईं
और उन्होंने
अपने नेता से
कहा कि तुम
जाओ, क्योंकि
यह कोई साधारण
चूहा नहीं है।
उससे योद्धा
हार गया है।
और हम तो
मामूली
बिल्लिया हैं।
जब उससे यह
महायोद्धा
हार गया, तो
हम किस खेत की
मूली हैं? तो
तय हुआ कि
नेता भीतर
जाएगा और शेष
बिल्लियां
बाहर इंतजार
करेंगी।
नेता
भी डर गया।
नेता सदा
डरपोक होते
हैं। वे नेता
हैं,
क्योंकि
कायरों की भीड़
है और कायर ही
उन्हें चुनते
हैं। वे
कायरों के
नेता हैं।
कायर नहीं
होते तो नेता
भी नहीं होते।
बुनियादी बात
यह है कि वे
कायरों
द्वारा चुने
जाते हैं; वे
कायरों के
नेता हैं।
लेकिन नेता को
जाना पड़ा, क्योंकि
अनुयायी उसे
धक्के दे रहे
थे। वह नेता
चुना जा चुका
था और अब कुछ
नहीं किया जा
सकता था।
तो
वह नेता
बिल्ली डरते—डरते, कापते—कांपते
भीतर गई। चूहा
बिस्तर पर
बैठा था।
बिल्ली ने ऐसा
चूहा कभी नहीं
देखा था; वह
बिस्तर पर मजे
से बैठा था।
बिल्ली सोचने
लगी कि क्या
किया जाए, क्या
उपाय लगाया
जाए। वह इस
हालत में अपनी
पुरानी याददाश्त
और अनुभवों को
टटोल ही रही
थी कि चूहे ने
अचानक आक्रमण
कर दिया।
बिल्ली भाग
खड़ी हुई, क्योंकि
अतीत में कभी
ऐसा नहीं हुआ
था। इतिहास
में ऐसा कोई
उल्लेख नहीं
है कि किसी चूहे
ने बिल्ली पर
हमला किया हो!
बिल्ली
बाहर आकर जमीन
पर गिर पड़ी ओर
मर गई।
तो
पास—पड़ोस के
लोगों ने
योद्धा को
सलाह दी कि अब
मामूली
बिल्लियों से
काम नहीं
चलेगा; तुम
राजमहल जाओ और
राजा की
बिल्ली मांग
लाओ। राजा की
बिल्ली ही कुछ
कर सकती है।
यह कोई मामूली
मामला नहीं है।
योद्धा को
राजा के पास
जाना पड़ा।
उसने बिल्ली
के लिए निवेदन
किया और
राजमहल से
बिल्ली आयी। लेकिन
योद्धा को
भरोसा नहीं
आया, क्योंकि
बिल्ली बहुत
मामूली नजर
आयी—महज
सामान्य। उसे
डर था कि कहीं
इस बार भी न
असफलता हाथ आए।
इससे तो वह
बिल्ली कहीं
बड़ी और बलशाली
थी जो नेता
चुनी गई थी और
चूहे से हारकर
मर गई थी। यह
अदना बिल्ली!
राजा ने कहीं
मजाक तो नहीं
किया। लेकिन
राजा से वह
कुछ कह भी
नहीं सकता था।
तो
योद्धा उस
मामूली
बिल्ली को
लेकर घर आया।
बिल्ली अंदर
गई,
चूहे को मार
डाला और बाहर
आ गई। सभी
बिल्लियां
इंतजार कर रही
थीं। वे
राजमहल की
बिल्ली को
घेरकर खड़ी हो
गईं और उन्होंने
उससे पूछा कि
तुम्हारा राज
क्या है? उस
चूहे के हाथों
हमारा नेता
मारा गया, योद्धा
को मुंह की
खानी पड़ी और
तुमने उसे
कैसे इतनी
सरलता से मार
गिराया और
उसके मृत शरीर
को लिए बाहर आ
गई?
बिल्ली
ने कहा : मैं
बिल्ली हूं और
वह चूहा है।
कोई और विधि
नहीं है। मैं
बिल्ली हूं यह
काफी है। किसी
विधि की क्या
जरूरत? बिल्ली
होना काफी है।
जब मैंने घर
में प्रवेश
किया, तो
यह काफी था कि
एक बिल्ली ने
प्रवेश किया।
मैं बिल्ली
हूं।
यह
एक झेन कथा है।
अगर तुम्हारा
मन मालिक है
तो प्रयत्न की
क्या जरूरत? सब
प्रयत्न
आत्मवचना है
कि तुम बिल्ली
नहीं हो और
तुम चूहे से
लड़ रहे हो।
मालिक बनो!
लेकिन मालिक
कैसे बना जाए?
तंत्र
कहता है कि
समझ तुम्हें
मालिक बना
देगी, और कुछ
मालिक नहीं
बना सकता। सब
मालकियत की
कुंजी समझ है,
बोध है। अगर
तुम इसे ठीक
से जानते हो, तो तुम
मालिक हो। और
अगर नहीं
जानते, तो
तुम लड़ते
रहोगे और तब
तुम गुलाम ही
रहोगे। और जितने
लड़ोगे उतने ही
हारते रहोगे।
तुम चूहे से
लड़ रहे हो।
दूसरा
प्रश्न:
अगर
हम अपने शरीर
के केंद्र से
सुने तो क्या
भयानक आवाजें
नहीं रहेंगी? शहरों
के उस चीखते
शोरगुल को क्या
किया जाए जो
हमें
जिंदगीभर परेशान
करता है? क्या
हम उसे भी
विधायक ध्वनि
में बदल सकते
हैं?
यह सदा
ही एक
बुनियादी
सवाल रहा है
कि किसी नकारात्मक
ध्वनि को
विधायक ध्वनि
में कैसे बदला
जाए?
तुम नहीं
बदल सकते। अगर
तुम खुद
विधायक हो, तो तुम्हारे
लिए कुछ भी
नकारात्मक
नहीं है। और
अगर तुम खुद
नकारात्मक हो,
तो
तुम्हारे लिए
सब कुछ
नकारात्मक हो
जाएगा। तुम्हारे
चारों तरफ जो
भी है, तुम
ही उसके स्रोत
हो। तुम अपने
संसार के आप
स्रष्टा हो।
और
याद रहे, हम एक
ही जगत में
नहीं रहते हैं।
उतने ही जगत
हैं जितने मन
हैं। प्रत्येक
मन अपने ही
जगत में रहता
है। मन ही जगत
की सृष्टि
करता है। तो
अगर तुम्हें
हर चीज
नकारात्मक, विध्वंसक और
शत्रु जैसी
लगती है, तो
उसका कारण यह
है कि
तुम्हारे भीतर
विधायक
केंद्र नहीं
है। यह मत
सोचो कि
नकारात्मक
ध्वनियों को
कैसे बदला जाए।
अगर
तुम्हें अपने
चारों ओर
नकारात्मक
अनुभूति होती
है तो उसका
इतना ही मतलब
है कि तुम
भीतर
नकारात्मक हो।
जगत तो एक
दर्पण है और
उसमें तुम
अपना ही प्रतिबिंब
देखते हो।
मैं
एक डाकबंगले
में ठहरा हुआ
था—एक गांव के
डाकबंगले में।
गांव बहुत
गरीब था, लेकिन
उसमें कुत्ते
बहुत थे। रात
में सब कुत्ते
डाकबंगले के
चारों ओर जमा हो
गए। शायद उनकी
रोज की आदत
रही हो।
डाकबंगला
अच्छी जगह पर
था, जहां
अनेक छायादार
वृक्ष थे।
संभव है, कुत्ते
रात में वहीं
विश्राम करते
थे। मैं वहां
ठहरा हुआ था
और किसी राज्य
के एक मंत्री
भी वहा ठहरे
हुए थे।
कुत्तों के
भौंकने से
मंत्री जी
बहुत परेशान हो
रहे थे। आधी
रात बीत चली
और मंत्री सो
न सके।
फिर
वे मेरे पास
आए और
उन्होंने
पूछा कि क्या आप
सो गए हैं? मैं
गहरी नींद में
था। तो वे
मेरे निकट आए
और मुझे जगाकर
उन्होंने पूछा
कि इस शोर—शराबें
के बीच आप
कैसे सो रहे
हैं? कम से
कम बीस—तीस
कुत्ते हैं और
वे भौंक रहे
हैं, आपस
में लड—झगडू
रहे हैं और वह
सब कर रहे हैं
जो कुत्ते
आमतौर से करते
हैं। मंत्री
ने कहा, मुझे
तो नींद ही
नहीं आ रही है।
और मैं दिनभर
की यात्रा से
थका हूं और कल
भी मुझे दौरे
पर जाना है।
उन्होंने कहा
कि यदि आज
मुझे नींद न
आई तो मुश्किल
होगी। कल सुबह
ही मुझे
निकलना है। और
नींद आने से
रही; मैं
सब उपाय कर
चुका। मैंने
सुना था कि
मंत्र जपने से,
परमात्मा
की प्रार्थना
करने से काम
बन जाता है।
वह सब भी मैं
कर चुका। अब
मैं क्या करूं?
तो
मैंने उनसे
कहा कि ये
कुत्ते यहां
इस इरादे से
नहीं जमा हुए
हैं कि आपको
परेशान करें, वे
आपके लिए नहीं
आए हैं।
उन्हें पता भी
नहीं है कि
यहां कोई
मंत्री ठहरा
है; वे
समाचारपत्र
नहीं पढ़ते; उन्हें कुछ
पता नहीं है; वे यहां
किसी
उद्देश्य से
नहीं हैं।
उन्हें आप से
कुछ लेना—देना
नहीं है। वे
अपना काम कर
रहे हैं। आप
क्यों परेशान
होते हैं? उन्होंने
कहा कि परेशान
न होऊं? कैसे
परेशान न होऊं?
इतनी भौंक—
भांक के बीच
कैसे सोऊ?
मैंने
उन्हें कहा कि
कुत्तों के
भौंकने से लड़े
न। आप लड़ रहे
हैं,
यही उपद्रव
है। शोरगुल
उपद्रव नहीं
है; आप
उससे नहीं
परेशान हैं।
आप शोरगुल को
निमित्त
बनाकर स्वयं
ही अपने को
उपद्रव में
डाल रहे हैं।
आप शोरगुल के खिलाफ
हैं, आपकी
शर्त है। आप
कह रहे हैं कि
अगर कुत्ते
भौंकना बंद कर
दें, तो
मैं सोऊंगा।
कुत्ते आपकी
नहीं सुनेंगे।
आपकी शर्त है।
आप सोचते हैं
कि यह शर्त
पूरी हो जाए, तो मैं सो
पाऊंगा। यही
शर्त आपको
परेशान कर रही
है। कुत्तों
के भौंकने को
स्वीकार कर
लें, यह शर्त
न रखें कि जब
वे भौंकना बंद
कर देंगे तो
सोऊंगा। बस
स्वीकार कर
लें। कुत्ते
हैं, और वे
भौंक रहे हैं।
उनका
प्रतिरोध न
करें और न लड़े।
उनके शोरगुल
को अनसुना
करने की भी
कोशिश न करें,
उन्हें
स्वीकार कर
लें, उन्हें
सुनें। वे
सुंदर हैं।
रात इतनी शांत
है और कुत्ते
इतने
प्राणवान ढंग
से भौंक रहे
हैं। उन्हें
सुनें। इसे
मंत्र बना लें।
यही सम्यक
मंत्र है:
उन्हें सुनें।’'
उन्होंने
कहा कि अच्छा, मैं
मानता तो नहीं
कि इससे कुछ
होने वाला है,
लेकिन अब कोई
और उपाय भी
नहीं है, तो
इसका ही
प्रयोग करता
हूं।
वे
जाकर सो गए, और
कुत्ते अब भी
भौंक रहे थे।
और सुबह नींद
से उठकर
उन्होंने कहा
कि चमत्कार हो
गया। मैंने
उनका भौंकना
स्वीकार कर
लिया, अपनी
शर्त हटा ली; मैंने उनको
सुना।
कुत्तों का
भौंकना संगीत
बन गया और सब
उपद्रव
समाप्त हो गया।
एक तरह से
उनका भौंकना
लोरी जैसा बन
गया और इस कारण
मुझे गहरी
नींद नसीब हुई।
यह
तुम्हारे मन
पर निर्भर है।
अगर तुम
विधायक हो, तो
सब चीज विधायक
हो जाती है।
और अगर तुम
नकारात्मक हो,
तो सब चीज
नकारात्मक हो
जाती है, खट्टी
हो जाती है।
इसे याद रखो, शोरगुल के
प्रसंग में ही
नहीं, पूरे
जीवन के
प्रसंग में।
अगर तुम्हें
लगे कि
तुम्हारे आस—पास
कुछ
नकारात्मक है,
तो अपने
भीतर उसके
कारण का पता
करो।
तुम्हारी
जरूर कुछ
अपेक्षा होगी।
तुम कुछ चाह
रहे होगे; तुम
कुछ शर्त बांध
रहे होगे।
अस्तित्व
की धारा को
तुम अपनी
मर्जी के
मुताबिक बहने
को मजबूर नहीं
कर सकते, वह
अपनी ही चाल
से बहती है।
अगर तुम उसके
साथ बह सकते
हो तो तुम
विधायक बनोगे
और अगर तुम
उससे लड़ते हो
तो तुम
नकारात्मक बन
जाओगे। तुम ही
नहीं, तुम्हारे
इर्द—गिर्द का
सारा जगत
नकारात्मक हो
जाएगा।
यह
वैसा ही है
जैसे कोई नदी
की धारा के
विपरीत तैरने
की चेष्टा करे; उस
हालत में धारा
उसके लिए
नकारात्मक हो
जाएगी। अगर
तुम नदी में
ऊपर की तरफ
तैरने की
कोशिश करोगे,
तो तुम्हें
लगेगा कि नदी
मेरे खिलाफ है,
कि नदी
मुझसे लड़ रही
है, कि नदी
मुझे नीचे की
तरफ धकेल रही
है। नदी
तुम्हें ऊपर
की तरफ नहीं
नीचे की तरफ
धकाएगी और
तुम्हें
लगेगा कि नदी
मुझसे लड़ रही
है। लेकिन नदी
को तुम्हारा
कुछ भी पता
नहीं है; वह
अपने आप में
मगन है। और यह
अच्छा है; अन्यथा
नदी को
पागलखाने
जाना पड़े। नदी
तुमसे नहीं लड़
रही है, तुम
नदी से लड़ रहे
हो; क्योंकि
तुम ऊपर की ओर
तैर रहे हो।
मैं
तुम्हें एक
कहानी कहूं।
एक भीड़ मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर के पास जमा
हो गई। लोगों
ने मुल्ला से
चिल्लाकर कहा
कि क्या कर रहे
हो! तुम्हारी
पत्नी नदी में
गिर गई है और नदी
पूर पर है।
उन्होंने
उससे कहा कि
जल्दी भागकर
जाओ,
अन्यथा नदी
तुम्हारी
पत्नी को
बहाकर समुद्र में
ले जाएगी।
नदी
करीब थी, मुल्ला
दौड़कर किनारे
पहुंचा। और
अपनी पत्नी को
खोजने के लिए
वह नदी में
कूदकर ऊपर की
तरफ तैरने लगा।
लोगों ने
चिल्लाकर
पूछा कि यह
क्या कर रहे
हो नसरुद्दीन!
तुम्हारी
पत्नी ऊपर की
तरफ नहीं गई
होगी, नीचे
की तरफ गई
होगी।
मुल्ला
ने कहा, मुझे
बाधा मत दो।
मैं अपनी
पत्नी को
भलीभांति
जानता हूं वह
जरूर ऊपर की
तरफ गई होगी।
अगर कोई दूसरा
होता तो नीचे
की तरफ जाता; लेकिन मेरी
पत्नी नहीं।
वह ऊपर की ओर
ही गई होगी।
मैं अपनी
पत्नी को
भलीभांति
जानता हूं मैं
चालीस वर्षों
से उसके साथ
रह रहा हूं।
मन
सदा धारा के
विपरीत बहना
चाहता है। और
सबसे लड़कर तुम
अपने चारों ओर
एक नकार की
दुनिया बना
लेते हो। तब
यही घटता है।
संसार
तुम्हारे
विरोध में
नहीं है।
लेकिन क्योंकि
तुम उसके साथ
नहीं हो, इसलिए
तुम्हें ऐसा
प्रतीत होता
है कि संसार
मेरे विरोध
में है।
नीचे
की तरफ बहो
नदी की धारा
के साथ बहो।
और तब नदी
तुम्हें बहने
में सहयोग देगी।
तब बहने के
लिए तुम्हारी
ऊर्जा की
जरूरत नहीं
पड़ेगी। तब नदी
नाव बन जाएगी
और तुम्हें ले
जाएगी। नदी
में नीचे की
तरफ बहते हुए
तुम्हें
ऊर्जा खोने की
जरूरत नहीं
होगी। यदि तुम
नीचे की तरफ
बहने लगे, तो
उसका अर्थ है
कि तुमने नदी
को स्वीकार कर
लिया, नदी
की दिशा को, धारा को, सबको
स्वीकार कर
लिया। तुम
उसके प्रति
विधायक हो गए।
और जब तुम
विधायक होते
हो, तो नदी
भी विधायक हो
जाती है। तुम
सब कुछ को
विधायक बना
सकते हो, अगर
तुम जीवन के
प्रति विधायक
बन जाओ।
लेकिन
हम जीवन के
प्रति विधायक
नहीं हैं।
क्यों? हम
जीवन के प्रति
विधायक क्यों
नहीं हैं? हम
नकारात्मक
क्यों हैं? यह सतत
संघर्ष क्यों?
हम क्यों
जीवन के साथ
पूरी तरह बहने
को राजी नहीं
होते? भय
क्या है?
हो
सकता है कि
तुम्हें पता न
हो,
पर तुम जीवन
से भयभीत हो, बहुत भयभीत
हो। यह कहना
अजीब लगता है
कि तुम जीवन
से भयभीत हो, डरे हुए हो।
साधारणत: तुम
सोचते हो कि
हम मृत्यु से
डरे हुए हैं, जीवन से
नहीं।
सामान्य
दृष्टिकोण
यही है कि
आदमी मृत्यु
से भयभीत है।
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
मृत्यु से इसलिए
डरते हो, क्योंकि
तुम जीवन से
डरते हो। जो जीवन
से नहीं डरता
है वह मृत्यु
से भी नहीं
डरेगा। और हम
जीवन से क्यों
भयभीत हैं?
इसके
तीन कारण हैं।
पहली बात कि
तुम्हारा
अहंकार तभी जी
सकता है यदि
वह नदी के
विपरीत बहे; नदी
के अनुकूल
बहकर वह नहीं
जी सकता।
तुम्हारा
अहंकार जब
लड़ता है, जब
नहीं कहता है,
तभी उसे जीने
का एहसास होता
है। अगर वह ही
कहे, सदा हां
कहे, तो जी
नहीं सकता। सब
कुछ को नहीं
कहने का
बुनियादी
कारण अहंकार
है।
अपने
ढंग—ढांचे को
देखो, देखो कि
तुम कैसे
व्यवहार करते
हो, कैसे
प्रतिक्रिया
करते हो। देखो
कि कैसे मन को
नहीं कहना सरल
पड़ता है और हा
कहना बहुत—बहुत
कठिन। कारण यह
है कि नहीं
कहने से
अहंकार पुष्ट
होता है। हा
कहने से
तुम्हारी
अस्मिता ही
नहीं रहती, तुम सागर
में बूंद के
समान हो जाते
हो। हा कहने
में अहंकार
नहीं बचता है।
यही कारण है
कि हां कहना
इतना कठिन है।
क्या
तुम मुझे समझ
रहे हो? अगर
तुम नदी के
विपरीत बह रहे
हो, तो
तुम्हें
एहसास होता है
कि मैं हूं।
और अगर तुम
अपने को नदी
की मर्जी पर
छोड़ देते हो, अगर तुम
उसकी धारा के
साथ बहने लगते
हो—वह चाहे जहां
ले जाए—तो
तुम्हें
मालूम ही नहीं
होता कि मैं
हूं। तब तुम
धारा के
हिस्से बन गए।
यह अहंकार, यह मैं होने
का अलग— थलग
भाव तुम्हारे
आस—पास
नकारात्मकता
पैदा करता है।
अहंकार ही
नकारात्मकता
की लहरें
उठाता है।
दूसरा
कारण है कि
जीवन अज्ञात
है;
उसकी
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। और
तुम्हारा मन
बहुत संकीर्ण
है। वह ज्ञात
में जीना
चाहता है, वह
उसमें जीना
चाहता है
जिसकी
भविष्यवाणी
हो सके। मन
सदा अज्ञात से
डरता है। इसका
कारण यह है कि
मन ज्ञात से
ही बना है। जो
भी तुमने जाना
है, अनुभव
किया है, सीखा
है, मन उस
सबका जोड़ है।
इसलिए मन सदा अज्ञात
से डरा रहता
है। अज्ञात
उसे उपद्रव
में डालेगा; इसलिए मन
अज्ञात के
प्रति बंद
रहता है। मन
रूटीन में, पुनरुक्ति
में जीता है, ढांचे बनाकर
जीता है, वह
जाने—माने
रास्तों से ही
चलता है। वह
कोल्हू के बैल
की तरह चक्कर
काटता रहता है।
वह अज्ञात में
कदम रखने से
डरता है।
लेकिन
जीवन सदा
अज्ञात में
गति करता है।
और तुम उससे
ही भयभीत हो।
तुम चाहते हो
कि जीवन
तुम्हारे मन
की सुनकर चले, ज्ञात
की लीक पर चले।
लेकिन जीवन
तुम्हारी
सुनकर नहीं चल
सकता, वह
सदा अज्ञात
में सरकता
रहता है। यही
कारण है कि हम
जीवन से इतने
भयभीत हैं। और
जब भी हमें
मौका मिलता है,
हम जीवन की
हत्या करने की
चेष्टा करते
हैं। जब भी
हमें मौका
मिलता है, हम
जीवन को
बांधकर रखना
चाहते हैं।
जीवन प्रवाह
है, प्रवाहमान
है; और हम
उसे बांधकर
रखना चाहते
हैं। क्योंकि
बंधे—बंधाए की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
अगर
मैं किसी को
प्रेम करता
हूं तो मन
तुरंत विवाह
की व्यवस्था
करने में
संलग्न हो
जाएगा। विवाह
चीजों को बांध
देता है, उन्हें
स्थिर कर देता
है, जड़ बना
देता है। और
प्रेम प्रवाह
है; उसकी
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। कोई
नहीं जानता है
कि प्रेम कहां
ले जाएगा, या
वह कहीं ले भी
जाएगा या नहीं।
कोई नहीं
जानता है। वह
नदी के साथ बह
रहा है और कोई
नहीं जानता है
कि नदी कहां
जा रही है।
अगले दिन या
अगले क्षण नदी
वहा नहीं हो
सकती है जहां
वह अभी है।
अगले क्षण के
बारे में तुम
निश्चित नहीं
हो सकते।
लेकिन मन
निश्चित होना
चाहता है। और
जीवन
असुरक्षा है।
मन
निश्चित होना
चाहता है, इसलिए
मन प्रेम के
विरोध में है।
मन विवाह के
पक्ष में है; क्योंकि
विवाह
निश्चित है, थिर है। और
जब ठहराव आता
है, तो
प्रवाह टूट
जाता है। अब
पानी बहता
नहीं, बर्फ
बन गया है। अब
तुम्हारे हाथ
में प्रेम की
लाश है। और
लाश की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
केवल मुर्दा
चीजों की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
जो चीज जितनी
जीवंत होती है
उतनी ही उसकी
भविष्यवाणी
असंभव है। कोई
नहीं जानता है
कि जीवन कहां
ले जाएगा।
इसीलिए
हम जीवन को
नहीं, मृत
चीजों को पसंद
करते हैं। यही
कारण है कि हम
वस्तुओं का
परिग्रह करते
हैं। किसी
व्यक्ति के
साथ रहना कठिन
है, वस्तुओं
के साथ रहना
आसान है।
इसीलिए हम
चीजों और
चीजों के
संग्रह में
लगे रहते हैं।
व्यक्ति के
साथ रहना कठिन
है। और अगर
हमें व्यक्ति
के साथ रहना
पड़ता है, तो
हम उसे तुरंत
वस्तु बना
देने की कोशिश
करते हैं। हम
उसे व्यक्ति
नहीं रहने
देते हैं।
पत्नी
वस्तु है; पति
वस्तु है। वे
जीवित
व्यक्ति नहीं,
जड़ चीजें हैं।
जब पति घर आता
है, तो वह
जानता है कि
पत्नी उसका
इंतजार कर रही
होगी। वह
जानता है; वह
उसकी
भविष्यवाणी
कर सकता है।
अगर वह प्रेम
करना चाहेगा,
तो प्रेम कर
सकता है, पत्नी
उपलब्ध रहेगी।
पत्नी वस्तु
हो गई है।
पत्नी यह नहीं
कह सकती कि
नहीं, आज
मैं प्रेम
करने के मूड
में नहीं हूं।
पत्नियां ऐसी
बातें नहीं
कहतीं कि मेरा
मूड नहीं है।
उनके भी मूड
हैं, ऐसा
नहीं माना
जाता। वे जड़
संस्था जैसी
हैं। और तुम
संस्था पर
भरोसा कर सकते
हो; जीवन
पर भरोसा नहीं
किया जा सकता।
ऐसे
हम
व्यक्तियों
को वस्तुओं
में बदल देते
हैं। किसी भी
संबंध पर नजर
डालो, शुरू में
तो वह दो
व्यक्तियों
का संबंध
मालूम पड़ता है,
लेकिन
शीघ्र ही वह
दो वस्तुओं का
संबंध म् बन जाता
है। व्यक्ति
विदा हो जाता
है, वस्तुएं
प्रकट हो जाती
हैं। तब हम एक—दूसरे
से अपेक्षाएं
करने लगते हैं।
हम एक—दूसरे
से कहते हैं, यह करो और वह
करो, यह
पत्नी का कर्तव्य
है और वह पति
का कर्तव्य है।
हम कहते हैं, तुम्हें यह
करना ही होगा।
यह कर्तव्य है, इसे करना ही
होगा। और तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं
यह नहीं कर सकता।
यह
ठहराव, यह
जड़ता जीवन के
भय से पैदा
होती है। जीवन
एक प्रवाह है;
जीवन के संबंध
में कुछ नहीं
कहा जा सकता।
मैं तुम्हें
इस क्षण प्रेम
करता हूं; अगले
क्षण यह प्रेम
विदा हो जा
सकता है। एक
क्षण पहले
प्रेम नहीं था,
इस क्षण वह
मौजूद है। और
वह है, तो
मेरे कारण
नहीं है; वह
बस घटित हुआ
है। मैं उसे
घटित नहीं करा
सकता था; वह
अपने आप ही
घटित हुआ है।
और जो घटित हो
सकता है वह
किसी क्षण खो
भी सकता है।
तुम क्या कर
सकते हो? दूसरे
क्षण प्रेम खो
सकता है।
दूसरे क्षण का
क्या भरोसा?
लेकिन
मन निश्चितता
चाहता है।
इसलिए मन
प्रेम को
विवाह में बदल
देता है। और
जीवित वस्तु
मृत हो जाती
है। तब तुम उस
पर मालकियत कर
सकते हो, तब
तुम उसका
भरोसा कर सकते
हो। तब अगले
दिन भी प्रेम
होगा। और पूरी
विडंबना यही
है। उस पर
मालकियत करने
के इरादे से
तुमने व्यक्ति
को मार डाला, वस्तु बना
दिया। और उसके
साथ ही
व्यक्ति का जो
सुख था, उससे
तुम वंचित हो
गए। व्यक्ति
तो रहा नहीं, वह मर गया।
और तुमने
व्यक्ति को
प्रेम किया था।
लेकिन
मालकियत करने
के लिए
व्यक्ति की
हत्या कर दी
गई।
प्रेमिका
को तुमने
पत्नी बना
लिया और
तुम्हारी
अपेक्षा है कि
पत्नी
प्रेमिका की
तरह व्यवहार
करे। वह
व्यर्थ है; पत्नी
प्रेमिका
जैसा व्यवहार
नहीं कर सकती।
प्रेमिका
जीवंत थी; पत्नी
तो लाश है।
प्रेमिका
घटना थी, पत्नी
संस्था है। और
जब पत्नी
प्रेमिका का
व्यवहार नहीं
करती, तो
तुम कहते हो
कि तुम अब
मुझे प्रेम
नहीं करती, पहले करती
थी। लेकिन यह
अब वही
व्यक्ति नहीं
है, बस एक
वस्तु है।
पहले तो तुमने
उस पर मालकियत
करने के लिए
उसे मार डाला
और अब तुम उससे
जीवित
व्यक्ति का
व्यवहार
खोजते हो।
उससे ही सारा
संताप पैदा
होता है।
हम
जीवन से भयभीत
हैं;
क्योंकि
जीवन एक
प्रवाह है। और
मन निश्चित
होना चाहता है।
अगर तुम सचमुच
जीवित होना
चाहते हो, तो
असुरक्षा के
लिए तैयार हो जाओ।
कोई सुरक्षा
नहीं है और
सुरक्षा पैदा
करने का कोई
उपाय भी नहीं
है। सुरक्षा
का तो एक ही
रास्ता है कि
जीओ ही मत; तब
तुम सुरक्षित
रहोगे। इसलिए
मुर्दे
सर्वाधिक
सुरक्षित हैं।
जीवित
व्यक्ति तो
असुरक्षित ही
होगा।
असुरक्षा
जीवन का
आधारभूत नियम
है। लेकिन मन
सुरक्षा
चाहता है।
तीसरी
बात कि जीवन
में,
अस्तित्व
में एक
बुनियादी
द्वैत है।
अस्तित्व
द्वैत पर ही
खड़ा है। लेकिन
मन इस द्वैत
के एक हिस्से
को स्वीकार करता
है और दूसरे
को अस्वीकार
कर देता है।
उदाहरण के लिए
तुम सुखी होना
चाहते हो, तुम
सुख चाहते हो;
लेकिन दुख
तुम नहीं
चाहते। पर दुख
सुख का ही
हिस्सा है, सुख का ही
दूसरा पहलू है।
सिक्का एक ही
है; उसके
एक पहलू पर
सुख है और
दूसरे पर दुख।
तुम सुख चाहते
हो; लेकिन
तुम नहीं
जानते कि तुम
जितना सुख
चाहोगे उतना
ही दुख भी
तुम्हें
भोगना पड़ेगा।
तुम सुख के
प्रति जितने
संवेदनशील
होओगे उतने ही
दुख के प्रति
भी संवेदनशील
हो जाओगे।
तो
जो व्यक्ति
सुख चाहता है
उसे दुख के
लिए भी तैयार
हो जाना चाहिए।
यह तो घाटी और
शिखर जैसी बात
है,
दोनों साथ—साथ
हैं। मगर तुम
शिखर को तो
चाहते हो, घाटी
को नहीं चाहते।
वह घाटी कहा
जाएगी? और
घाटी के बिना
शिखर कैसे हो
सकता है? घाटी
के बिना शिखर संभव
नहीं है। अगर तुम
शिखर को प्रेम
करते हो, तो
घाटी को भी प्रेम
करो। दोनों
नियति के
हिस्से हैं।
लेकिन
मन एक को
चाहता है और
दूसरे को नहीं।
और दूसरा उसका
ही अभिन्न
हिस्सा है। मन
कहता है कि
जीवन शुभ है
और मृत्यु
अशुभ। लेकिन
मृत्यु एक
हिस्सा, घाटी
जैसा हिस्सा
है। और जीवन
शिखर जैसा
हिस्सा है।
जीवन मृत्यु
के बिना नहीं
हो सकता; वह
मृत्यु के
कारण ही है।
अगर मृत्यु
विदा हो जाए, तो उसके साथ
जीवन भी विदा
हो जाएगा।
लेकिन मन कहता
है, मैं
सिर्फ जीवन को
चाहता हूं
मृत्यु को
नहीं। और तब
मन एक स्वप्नलोक
में विचरण
करने लगता है,
जो स्वप्नलोक
कहीं भी नहीं
है। और तब मन
हर चीज से
लड़ता है।
क्योंकि जीवन
में हर चीज
अपने विपरीत
से जुड़ी है और
विपरीत से
बचने की
चेष्टा में
संघर्ष जरूरी
हो जाता है।
जो
मनुष्य यह समझ
लेता है कि
जीवन द्वैत पर
खड़ा है, वह
दोनों को
स्वीकार करता
है। वह मृत्यु
को भी स्वीकार
करता है। वह
मृत्यु को
जीवन के विरोध
के रूप में
नहीं बल्कि
जीवन के भाग
के रूप में, उसके घाटी
वाले हिस्से
के रूप में
स्वीकार करता
है। वह रात को
दिन के घाटी
वाले हिस्से
के रूप में स्वीकार
करता है।
एक
क्षण तुम
आनंदित हो, दूसरे
क्षण तुम उदास
हो। तुम दूसरे
क्षण को नहीं
स्वीकार करना
चाहते, वह
घाटी वाला
हिस्सा है। और
आनंद का शिखर
जितना ही ऊंचा
होगा उसकी घाटी
उतनी ही गहरी
होगी।
क्योंकि ऊंची
घाटियां ऊंचे
शिखरों के
नीचे ही
निर्मित होती
हैं। इसलिए
तुम जितने
ऊंचे उठोगे
उतने ही नीचे
गिरना होगा।
जो लहर जितना
ऊंचा उठेगी
उसे उतना ही
नीचे गिरना
पड़ेगा।
समझ
का अर्थ है इस
तथ्य के प्रति
जागरूक होना।
इस तथ्य के
प्रति जागरूक
होना ही काफी
नहीं है, उसका
स्वीकार भी
जरूरी है; क्योंकि
तथ्य से भागा
नहीं जा सकता।
तथ्य की जगह
तुम कल्पना कर
सकते हो, स्वप्न
निर्मित कर
सकते हो।
सदियों—सदियों
से हम स्वप्न
निर्मित करते
रहे हैं। हमने
नरक को कहीं
नीचे पाताल
में रखा है और
स्वर्ग को
कहीं ऊपर
सातवें आसमान
पर। हमने
दोनों को एक—दूसरे
से बिलकुल अलग
कर रखा है, जो
कि
मूढ़तापूर्ण
है। सच तो यह
है कि नरक
स्वर्ग का
घाटी वाला
हिस्सा है, वह स्वर्ग
के साथ ही
रहता है, वह
अलग नहीं रह
सकता है।
यह
समझ तुम्हें
विधायक बनने
में सहयोग
देगी; तब तुम
सब कुछ को
स्वीकार
करोगे।
विधायक से
मेरा मतलब यह
है कि तुम सब
कुछ को स्वीकार
करते हो, क्योंकि
तुम जानते हो
कि अस्तित्व
का विभाजन नहीं
हो सकता।
मैं
एक श्वास भीतर
ले जाता हूं
और तुरंत ही
उसे बाहर निकालना
पड़ता है।
श्वास भीतर
लेता हूं और
फिर श्वास
छोड़ता हूं।
अगर मैं सिर्फ
श्वास लूं और
छोडूं नहीं, तो
मैं मर जाऊंगा।
वैसे ही अगर
मैं सिर्फ
श्वास छोडूं
और लूं नहीं, तो भी मैं मर
जाऊंगा।
क्योंकि
श्वास लेना और
श्वास छोड़ना
एक ही
प्रक्रिया के
हिस्से हैं।
दोनों मिलकर
वर्तुल बनाते
हैं। मैं श्वास
छोड़ ही इसलिए
पाता हूं
क्योंकि मैं
श्वास लेता
हूं। दोनों
साथ—साथ हैं; उन्हें पृथक
नहीं किया जा
सकता।
ऐसा
ही है मुक्त
पुरुष—अविभाजित।
अगर समझ आ जाए, तो
यह मुक्ति
घटित तंत्र:
घाटी और होती
है। मैं उसे
ही मुक्त या
बुद्धपुरुष
कहता हूं जो अस्तित्व
के इस द्वैत
को स्वीकार कर
लेता
है।
तब वह विधायक
है। और तब जो
भी घटित होता
है वह उसे
स्वीकार है।
तब उसकी कोई अपेक्षा
नहीं है; तब वह
अस्तित्व से
कुछ मांग नहीं
करता है। तब
वह धारा के
साथ बह सकता
है।
आज
इतना ही।
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