दिनांक
4 फरवरी, 1968;
रात्रि
ध्यान
शिविर,
आजोल।
विचार
की
श्रृंखलाओं
में मनुष्य एक
कैदी की भांति
बंधा है।
विचार के इस
कारागृह में, इस
कारागृह की
नींव में कौन
से पत्थर लगे
हैं, उन
पत्थरों में
एक पत्थर के
संबंध में
दोपहर हमने
बात की। दूसरे
और उतने ही
महत्वपूर्ण
पत्थर के
संबंध में अभी
रात हमें बात
करनी है। अगर
बुनियाद के ये
दो पत्थर हट
जाएं—सीखे हुए
ज्ञान को ज्ञान
समझने की भूल
समाप्त हो जाए
और दूसरा और
पत्थर जिसकी
मैं अभी बात
करूंगा, वह
हट जाए तो
मनुष्य
विचारों के
जाल से अत्यंत
सरलता से ऊपर
उठ सकता है।
दूसरा
कौन सा पत्थर
है?
कौन से
दूसरे आधार पर
मनुष्य के मन
में विचारों
का भवन और
विचारों का
जाल गूंथा गया
और खड़ा किया
गया है, शायद
आपको खयाल में
भी न हो। यह
खयाल भी न हो
कि हम इतने
अंतर—विरोधी,
सेल्फ—कंट्राडिक्टरी
विचारों से
कैसे भर गए
हैं!
हमारी
दशा उस
बैलगाड़ी की
भांति है
जिसमें चारों
तरफ बैल जोत
दिए गए हों और
उन सभी बैलों
को भगाने की
कोशिश की जा
रही हो, ताकि
हम मंजिल तक
पहुंच जाएं।
और उस बैलगाड़ी
के प्राण संकट
में पड़ गए हैं,
उसका अस्थि—पंजर
ढीला हुआ जाता
है। चारों तरफ
बैल उसे खींच
रहे हैं
विरोधी दिशाओं
में। वह
बैलगाड़ी कहीं
पहुंच सकती है?
कोई मंजिल
पर उसका
पहुंचना हो
सकता है? एक
ही मंजिल हो
सकती है उसकी।
उस बैलगाड़ी की
मौत हो सकती
है, और कोई
मंजिल नहीं हो
सकती। वह
बैलगाड़ी मर
जाएगी। चारों
तरफ बैल उसकी
हड्डियां और
अस्थि—पंजर
खींच कर निकल
जाएंगे और तो
कुछ भी नहीं हो
सकता। लेकिन
वह बैलगाड़ी
कहीं पहुंच
नहीं सकती।
क्योंकि
चारों तरफ
विरोधी
दिशाओं में एक
ही साथ बैल
जुते हुए हैं।
हमारे
मन के विचारों
का
अंतर्द्वंद्व
हमारे प्राण
लिए लेता है।
हमारे सब
विचार असंगत
और स्व—विरोधी
हैं —एक—दूसरे
के विरोध में
खड़े हुए हैं।
और हमारे सब
विचारों के
बैल हमारे मन
को खींच रहे
हैं अलग—अलग
दिशाओं में और
हम उसके बीच
पीड़ित और
परेशान हैं।
यह जो सेल्फ—कंट्राडिक्यान
है,
यह जो अंतर—विरोध
है विचारों का,
यह हमारे
खयाल में भी
नहीं है कि
हमारे भीतर किस
भांति बैठा
हुआ है।
मैं
एक बहुत बड़े
डॉक्टर के घर
में मेहमान था।
सुबह ही कहीं
जाने को मैं
और वह डॉक्टर
दोनों घर के
बाहर निकलते
थे कि डॉक्टर
के छोटे बच्चे
को छींक आ गई।
और उस डॉक्टर
ने कहा. थोड़ी
देर रुक जाएं, दो
मिनट रुक जाएं
फिर हम चलेंगे।
मैंने कहा कि
तुम बड़े अजीब
डॉक्टर मालूम
होते हो, क्योंकि
डॉक्टर को तो
कम से कम पता
होना चाहिए कि
छींक आने का क्या
कारण होता है।
और छींक आने
से किसी के
कहीं जाने और
रुक जाने का
क्या संबंध है?
डॉक्टर को
भी यह पता न हो
तो फिर
आश्चर्य हो गया!
मैंने
उन डॉक्टर को
कहा कि अगर
मैं बीमार पड़
जाऊं और मरने
की भी हालत आ
जाए तो भी
आपसे इलाज करवाने
को राजी नहीं
हो सकता हूं।
मेरी दृष्टि
से तो आपका
प्रमाण—पत्र
छीन लिया जाना
चाहिए कि आप
डॉक्टर हो! यह बात
गलत है। छींक
आने से आप
रुकते हो, बड़ी
हैरानी की बात
है। वे कहने
लगे, बचपन
से सुना हुआ
खयाल काम करता
है। बचपन से
सुना हुआ खयाल
भी काम कर रहा
है। और वे
डॉक्टर भी हो
गए हैं। वे एफ.
आर.सी.एस भी हो
गए हैं लंदन
से जाकर। और
ये दोनों
विचार एक साथ
मौजूद हैं।
छींक आती है
तो पैर रुकते
हैं और वे
भलीभांति जानते
हैं कि निपट
बेवकूफी है!
छींक से रुकने
का कोई भी
संबंध नहीं है।
ये दोनों
विचार एक साथ
मन में किसी
के बैठे काम
कर रहे हैं।
हमारे
भीतर इस तरह के
हजारों विचार
एक साथ बैठे
हुए हैं और वे
सब विचार हमें
खींच रहे हैं
अलग— अलग
दिशाओं में।
और तब हमारी
यह अस्त—व्यस्त
दशा हो गई है—जो
हमें दिखाई
पड़ती है। यह
जो आदमी
बिलकुल पागल
मालूम होता है, यह
इसीलिए मालूम
होता है। यह
पागल न होगा
तो और क्या
होगा?
विक्षिप्तता
बिलकुल
स्वाभाविक है।
क्योंकि
हजारों—हजारों
वर्षों से
अनंत—अनंत
अंतर—विरोधी
विचार एक ही
मनुष्य के मन
में इकट्ठे हो
गए हैं।
हजारों
पीढ़ियां एक
साथ एक—एक
आदमी के भीतर
जी रही हैं।
हजारों
सेंचुरीज एक
साथ एक आदमी
के भीतर बैठी
हुई हैं। पांच
हजार साल पहले
का खयाल भी
बैठा है और
अत्याधुनिक
समय का खयाल
भी उसके भीतर
बैठा है। और
इन दोनों
विचारों में
कोई तुक और
कोई सामंजस्य
नहीं हो सकता
है।
हजारों
दिशाओं से
पैदा हुए खयाल
उसके भीतर बैठे
हैं,
हजारों
तीर्थंकरों
और पैगंबरों,
अवतारों और
गुरुओं के
खयाल उसके
भीतर बैठे हैं,
और इन सबने
एक अदभुत बात
की है। दुनिया
के सारे धर्म,
सारे
शिक्षक, सारे
उपदेशक एक बात
पर राजी रहे
हैं— और किसी
बात पर राजी
नहीं रहे— और
वे इस बात पर
राजी रहे हैं,
आदमी को
समझाने के लिए
कि जो हम कहते
हैं उस पर विश्वास
करो। सभी यह
कहते हैं कि
जो हम कहते
हैं उस पर
विश्वास करो।
और
सब बातों में
विरोध हैं।
हिंदू कुछ और
कहता है, मुसलमान
कुछ और कहता
है, जैन
कुछ और कहते
हैं, ईसाई
कुछ और कहते
हैं। लेकिन एक
मामले में वे
सब सहमत हैं
कि हम जो कहते
हैं, उस पर
विश्वास करो।
और ये सब
विरोधी बातें
कहते हैं। और
आदमी के
प्राणों पर इन
सारे लोगों की
विरोधी बातें
पड़ती हैं और वे
सभी चिल्लाते
हैं कि हम जो
कहते हैं उस
पर विश्वास
करो। और आदमी
बेचारा गरीब
है और कमजोर
है, इन
सबकी बातों पर
विश्वास कर
लेता है। वे
सब एक—दूसरे
की बातों पर
हंसते हैं, लेकिन खुद
की
बेवकूफियों
पर कोई भी
नहीं हंसता है।
अगर
ईसाई कहते हैं
कि जीसस
क्राइस्ट
कुंआरी कन्या
से पैदा हुए
हैं और जो इस
बात को नहीं
मानेगा वह नरक
में पड़ेगा; इस
बात को मानना
बिलकुल जरूरी
है, नहीं
तो नरक जाना
पड़ेगा। और
गरीब, कमजोर
आदमी डरता है
कि नरक जाने
से बचने के लिए
कोई हर्जा भी
क्या है! हुए
होंगे जीसस
क्राइस्ट
कुंआरी कन्या
से पैदा तो मान
लेने में हर्ज
क्या है। और
नरक जाने की
जरूरत क्या है
इस बात के
पीछे। वह मान
लेता है कि
ठीक कहते हैं—होंगे।
सारी दुनिया
के बाकी लोग
हंसते हैं—मुसलमान
हंसते हैं, जैन हंसते
हैं, हिंदू
हंसते हैं कि
यह पागलपन की
बात है।
कुंआरी लड़की
से बच्चा पैदा
कैसे हो सकता
है? निहायत
नासमझी की बात
है।
लेकिन
मुसलमान कहते
हैं कि
मोहम्मद अपनी
घोड़ी पर बैठे
हुए सदेह
मोक्ष चले गए।
इस पर ईसाई
हंसते हैं, इस
पर हिंदू
हंसते हैं, इस पर जैन
हंसते हैं कि
यह क्या
पागलपन की बात
है। पहली तो
बात यह है कि
घोड़ी तो मोक्ष
जा ही नहीं
सकती। घोड़ा
होती तो जा भी
सकती थी, क्योंकि
स्त्रियों को
मोक्ष जाने की
कोई व्यवस्था
नहीं है, पुरुष
तो मोक्ष जा
भी सकता है।
एक तो घोड़ी जा
ही नहीं सकती
मोक्ष। घोड़ा
होती तो
बर्दाश्त भी
कर लेती, यह
बात चल भी
सकती थी। और
फिर सदेह कोई
स्वर्ग, मोक्ष
कैसे जा सकता
है? देह तो
यहीं छोड़ देनी
पड़ती है, देह
तो पृथ्वी की
चीज है। कोई
मोहम्मद पूरी
देह को साथ
लिए हुए मोक्ष
नहीं जा सकते!
इस पर सब
हंसते हैं, ईसाई भी
हंसते हैं, जैन भी, हिंदू
भी। लेकिन
मुसलमान कहते
हैं कि यह
मानो! अगर
नहीं मानोगे
तो नरक चले
जाओगे। नरक
में सडाए
जाओगे, कष्ट
भोगोगे। यह
बात माननी ही
पड़ेगी और नहीं
मानोगे तो जानते
हो, भलीभांति
जान लेना, एक
ही ईश्वर है
जगत में और एक
ही उसका
पैगंबर है
मोहम्मद। अगर
नहीं उसकी बात
मानी तो बड़े
कष्ट में पड़
सकते हो।
तो
आदमी को
डरवाया जाता
है कि मानो, तो
आदमी मान लेता
है कि शायद यह
ठीक हो। जैन
हंसते हैं
मुसलमानों पर,
ईसाइयों पर।
लेकिन जैन
कहते हैं कि
महावीर का
गर्भ एक ब्राह्मण
स्त्री के पेट
में आया।
लेकिन जैन
तीर्थंकर
कहीं
ब्राह्मणों
के घर में
पैदा हो सकते
हैं? असली
और ऊंची जाति
तो क्षत्रिय
है, तो तीर्थंकर
हमेशा
क्षत्रियों
के घर में
पैदा होते हैं।
ब्राह्मणों
के घर में
पैदा नहीं
होते।
ब्राह्मण
भिखमंगे के घर
में कहीं
तीर्थंकर पैदा
हो सकते हैं? तो महावीर
का जन्म तो एक
ब्राह्मणी के
गर्भ में आया
था। लेकिन
देवताओं ने
देख कर कि यह
तो बड़ी गलती
हुई जा रही है;
कहीं
तीर्थंकर
ब्राह्मण के
घर में पैदा
हो सकते हैं? उन्होंने
रातों—रात
उसका गर्भ
निकाल कर एक
क्षत्राणी के
गर्भ में रख
दिया और
क्षत्राणी की
लड़की निकाल कर
उस ब्राह्मणी
के गर्भ में
रख दी।
सारी
दुनिया के लोग
हंसते हैं कि
बड़े मजाक की बातें
हैं ये। एक तो
देवताओं को
क्या मतलब कि
किसी का गर्भ
बदलें और यह
बात हो कैसे
सकती है? सारी
दुनिया हंसती
है, लेकिन
जैन नाराज
होते हैं कि
अच्छा हंसते
रहो, तुमको
पता नहीं है
कि हमारे
तीर्थंकर ने
जो कहा है और
जो तीर्थंकर
के बाबत कहा
गया है, वह
बिलकुल सत्य
है। जो नहीं
मानेगा, वह
कष्ट भोगेगा
नरक में, हमें
कोई फिकर नहीं
है, तुम
भोगते रहो।
ये
सारे लोग
दुनिया के
इकट्ठे होकर
आदमी से विश्वास
मांगते हैं।
ये सब कहते
हैं कि
विश्वास करो।
और इन सबकी
बातें......एक
जमाना था कि
आदमी को सबकी
बातें पता
नहीं थीं।
अपने—अपने
घेरे थे, अपने—
अपने घेरे की
बातें पता थीं,
तो इतनी
उलझन न थी। अब
दुनिया बहुत
करीब आ गई है
और सबको सबकी
बातें पता चल
गई हैं, तो
आदमी की उलझन
बिलकुल
पागलपन पर
पहुंच गई है।
अब उसकी समझ
के बाहर हो
गया है कि यह
सब शोरगुल किस
बात के लिए
मचाया जा रहा
है। यह कौन सी
बात मनवाना
चाहते हैं, क्या मनवाना
चाहते हैं?
लेकिन
कोई बहुत
अच्छी हालत
पहले भी न थी।
अगर हिंदू को
मुसलमान की
बातें पता
नहीं थीं, अगर
जैन को ईसाई
की बातें पता
नहीं थीं तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता था।
जैन भी जरूरी
रूप से एक ही
बात नहीं कहते।
दिगंबर कुछ और
कहते हैं, श्वेतांबर
कुछ और कहते हैं।
और ऐसी—ऐसी
बातों पर
मतभेद है कि
जान कर हैरानी
होगी। हम आंखें
फाड़े रह
जाएंगे कि ये
भी कोई मतभेद
की बातें हैं!
जैनों
के चौबीस
तीर्थंकरों
में एक
तीर्थंकर हुए, मल्लीनाथ।
दिगंबर कहते
हैं वे पुरुष
थे और
श्वेतांबर कहते
हैं वे स्त्री
थे।
श्वेतांबर
कहते हैं, वे
मल्लीबाई थे,
दिगंबर
कहते हैं, वे
मल्लीनाथ थे।
और दोनों कहते
हैं कि हमारी
बात नहीं
मानोगे तो नरक
जाना पड़ेगा।
दिगंबर कहते
हैं, स्त्री
तो कभी
तीर्थंकर हो
ही नहीं सकती,
यह तो बात
ही झूठी है, इसलिए वे
पुरुष ही थे।
वह मल्लीनाथ
थे, मल्लीबाई
नहीं थे। हद
हो गई, एक
आदमी के बाबत
इस पर भी
विवाद हो सकता
है कि वह स्त्री
है या पुरुष
है! और जो नहीं
मानेगा उसके लिए
नरक का फल है
और कष्ट भोगना
पड़ते हैं। तो
हम जो कहते
हैं उसे मान
लें।
और
सारी दुनिया
में आदमी के
मन पर विश्वास
दिलाने वाले
इन लोगों की
शिक्षाओं ने
एक उत्पात खड़ा
कर दिया है और
आदमी का मन इन
सारी बातों
में घबड़ाया
हुआ खड़ा रह
गया है। वह
सबकी सुन लेता
है और इस सबके
प्रभाव उसके भीतर
छूट जाते हैं
और फिर ये
विरोधी
दिशाओं में
उसके प्राणों
को खींचने
लगते हैं।
फिर
इन धर्मों के......सबके
बाद में आया
कम्युनिज्म।
उसने कहा, सब
धर्म अफीम का
नशा है। इसमें
कोई सार नहीं
है, ईश्वर
बिलकुल झूठ है,
यह सब बकवास
है। असली धर्म
तो वह है जो
मार्क्स कहते
हैं।
कम्युनिज्म
असली धर्म है।
इसको मानना
चाहिए और कुछ
भी नहीं मानना
चाहिए।
बाइबिल गलत, गीता गलत, कुरान गलत, वह दास
कैपिटल जो है
वही असली धर्मग्रंथ
है, उसको
ही मानना
चाहिए।
उन्होंने एक
नया...।
फिर
इसके पीछे विज्ञान
आया,
उसने कहा कि
ये सब बातें
फिजूल हैं। जो
भी बातें
धर्मग्रंथों
में लिखी हैं,
वे कोई भी
ठीक नहीं। ठीक
तो जो वितान
कहता है वही
है। और एक
वैज्ञानिक मर
भी नहीं पाता
है कि दूसरा वैज्ञानिक
कहता है कि वह
गलत था, ठीक
जो कहते हैं
वह यह है। वह
आदमी जिंदा ही
रहता है और
तीसरा वैज्ञानिक
कहता है कि वह
बात सब गड़बड़
थी, जो ठीक
है वह मैं
कहता हूं। और
उसे भी पक्का
भरोसा नहीं कि
दो दिन नहीं
बीत पाएंगे, कोई चौथा
आदमी कहेगा कि
यह सब गलत था।
जो कहता हूं
मैं, वह
ठीक है।
आदमी
के मन पर यह
सत्य के
दावेदारों ने
उसके चित्त के
भीतर विचारों
का एक ऐसा जाल
खड़ा कर दिया
है जो बहुत
विरोधी है और
सब दिशाओं में
खींचता है। और
इस जाल को खड़ा
करने में भय
का,
फियर का
उपयोग किया
गया है कि अगर
आप नहीं मानते
हैं तो नरक है।
भय
का और प्रलोभन
का उपयोग किया
गया है इस जाल
को खड़ा करने
में। यह जो
विश्वास का
जाल जबरदस्ती
आदमी पर थोपा गया
है इसके पीछे
भय और प्रलोभन
के सीक्रेट, सूत्र
काम में लाए
गए हैं। अगर
मान लोगे तो
स्वर्ग है और
नहीं मानोगे
तो नरक है।
ये
सारे
धर्मगुरु वही
करते रहे हैं
जो आज के विज्ञापनदाता
कर रहे हैं।
लेकिन
विज्ञापनदाता
इतने बोल्ड, इतने
हिम्मतवर
नहीं हैं।
लक्स टायलेट
को बेचने वाले
कहते हैं कि
फलां सुंदरी
कहती है कि
लक्स टायलेट
लगाने से मैं
सुंदरी हो गई
हूं। जो
लगाएगा वह
सुंदर हो
जाएगा, जो
नहीं लगाएगा
वह असुंदर हो
जाएगा। भय
पकड़ता है कि
कहीं असुंदर न
हो जाऊं। तो
आदमी लक्स
टायलेट साबुन
खरीद लाता है।
जैसे कि लक्स
टायलेट जब
नहीं थी तो
लोग सुंदर नहीं
थे। जैसे कि
किल्योपेट्रा,
मुमताज, और
नूरजहां
सुंदर न रही
हों, क्योंकि
लक्स टायलेट
तो थी नहीं।
अभी ज्यादा
हिम्मत नहीं
बढ़ी उनकी, नहीं
तो आगे वे
कहेंगे कि जो
लक्स टायलेट
नहीं लगाएगा,
फलाने
तीर्थंकर
कहते हैं, फलाने
पैगंबर कहते
हैं, फलाने
जगदगुरु कहते
हैं कि वह नरक
जाएगा, वह
स्वर्ग नहीं
जा सकता।
स्वर्ग में तो
केवल उनको ही
प्रवेश
मिलेगा जो
लक्स टायलेट
साबुन का
उपयोग करते
हैं।
आदमी
को डरवाया जा
सकता है।
स्वर्ग वे ही
लोग जाएंगे जो
पनामा सिगरेट
पीते हैं, क्योंकि
सिगरेट पीना
और पिलाना—पनामा
सिगरेट पीना
और पिलाना
बहुत उम्दा
बात है। और
जिसने पनामा
सिगरेट नहीं
पी उसको नरक
में रहना
पड़ेगा। और
हिंदुस्तानी
बनी हुई बीड़ी
पीना पड़ेगी, उसे वहां
बहुत कष्ट झेलने
पड़ेंगे। और
अगर कोई
विश्वास नहीं
करता तो खुद
फल भोगेगा। जो
विश्वास करता
है उसको शुभ
फल मिलते हैं,
जो विश्वास
नहीं करता है
उसको अशुभ फल
मिलते हैं।
लेकिन
अभी इतनी
हिम्मत
आधुनिक
विज्ञापनदाताओं
में नहीं आई
है। वे पुराने
विज्ञापनदाता
बड़े हिम्मतवर
लोग थे। उन्होंने
सरासर झूठी
बातें कह कर
भी आदमी को
डरवा दिया और
भयभीत कर दिया
और हम उन
बातों को मानते
रहे और चुपचाप
सुनते रहे और
चुपचाप
स्वीकार करते
रहे।
असल
में कोई भी
असत्य अगर
बहुत बार
दोहराया जाए, हजारों
साल तक
दोहराया जाए,
तो उसके
दोहराने से वह
सत्य जैसा
प्रतीत होने
लगता है। झूठी
से झूठी बात
अगर कोई आदमी
दोहराए ही चला
जाए और दोहराए
ही चला जाए, तो आपको
धीरे— धीरे
विश्वास
पकड़ने लगता है
कि शायद बात
ठीक ही होगी, नहीं तो
इतने दिन तक
कैसे दोहराई
जा सकती थी।
एक
गांव में एक
गरीब किसान
शहर से जाकर
एक बकरी का
बच्चा खरीद लाया।
वह बकरी के
बच्चे को लेकर
अपने गाव की
तरफ चला और
शहर के दो—चार
बदमाश लोगों
ने सोचा कि
किसी भांति यह
बकरी का बच्चा
छीन लिया जाए
तो अच्छा आज
का भोजन का और
एक उत्सव का
आनंद आ जाएगा।
कुछ मित्रों
को बुला लेंगे
और भोज हो
जाएगा, लेकिन
छीन कैसे लिया
जाए?
वह
गांव का गंवार
बड़ा तगड़ा और
मजबूत आदमी
मालूम पड़ता था।
वे शहर के
शैतान जरा
कमजोर थे।
उससे छीनना
झगड़े की बात
थी,
उपद्रव हो
सकता था। तो
फिर कोई
होशियारी से
काम लिया जाए।
तो उन्होंने
एक तरकीब तय
की और जब वह
गांव का आदमी
शहर से बाहर
निकलने को था,
तो एक बड़े
रास्ते पर उन
पांच—छह लोगों
में से एक
आदमी उसे मिला
और कहा कि नमस्कार!
जयराम जी।
उस
आदमी ने जयराम
जी की। और उस
आदमी ने ऊपर
देखा और कहा
कि अरे! यह आप
कुत्ते का
बच्चा सिर पर
लिए चले जा
रहे हैं? —वह
बकरी के बच्चे
को अपने कंधे
पर रख कर जा
रहा था। —यह
कुत्ता कहां
से खरीद लाए? बड़ा अच्छा
कुत्ता ले आए!
वह किसान आदमी
हंसा। उसने
कहा. पागल हो
गए हैं आप? कुत्ता
नहीं है, बकरी
का खरीद कर
लाया हूं बकरी
का बच्चा है।
उस आदमी ने
कहा कि अरे, गांव में
कुत्ते को लिए
मत पहुंच जाना,
नहीं तो लोग
पागल समझेंगे।
यह बकरी समझ
रहे हो इसको?
और
वह आदमी अपने
रास्ते पर चला
गया। और वह
किसान हंसा कि
बड़ी अजीब बात
है। फिर भी
उसने एक दफा
पैर टटोल कर
देखे कि कहीं
कुत्ते के तो
नहीं है, क्योंकि
कोई आदमी को
क्या प्रयोजन
था। देखा कि
बकरी ही है।
निश्चित
होकर आगे बढ़ा
था कि दूसरी
गली पर दूसरा
आदमी मिला।
उसने कहा नमस्कार, बड़ा
अच्छा कुत्ता
ले आए हैं।
मैं भी कुत्ता
खरीदना चाहता
हूं। कहां से
खरीद लिया
आपने? अब
उतनी हिम्मत
से वह किसान
नहीं कह सका
कि यह कुत्ता
नहीं है।
क्योंकि अब
दूसरा आदमी कह
रहा था और दो—दो
आदमी धोखे में
नहीं हो सकते
थे। फिर भी वह
हंसा। और उसने
कहा कि कुत्ता
नहीं है साहब,
बकरी है। वह
आदमी कहने लगा,
किसने कहा
बकरी है? किसी
ने बेवकूफ
बनाया मालूम
होता है। यह
बकरी है? वह
अपने रास्ते
पर चला गया।
उस आदमी ने
फिर जाकर बगल
की गली में उस
बकरी को उतार
कर देखा कि
देख लेना
चाहिए कि क्या
गड़बड़ है, लेकिन
बकरी ही थी। ये
दो आदमी धोखा
खा गए। लेकिन
डर उसके भीतर
भी पैदा हो
गया कि मैं
किसी भ्रम में
तो नहीं हूं।
अब
की बार वह
उसको लेकर डरा—डरा
हुआ सा सड़क से
जा रहा था कि
तीसरा आदमी
मिला। और उसने
कहा नमस्कार!
यह कुत्ता
कहां से ले आए? अब
की बार तो
उसकी हिम्मत
ही नहीं पड़ी
कि यह कह दे कि
यह बकरी है।
उसने कहा कि
जी, यहीं
से खरीद लाया
हूं। अब
हिम्मत बहुत
मुश्किल थी
जुटानी कि कह
सके कि यह
बकरी है। थोड़ी
देर में सोचा
कि इसको गांव
लेकर जाना कि नहीं,
जो दों—चार—पांच
रुपये गए सो
एक तरफ, गांव
में बदनामी
होगी, लोग
पागल समझेंगे।
जब
वह यह सोच ही
रहा था तो
पांचवां आदमी
मिला। और उसने
कहा कि वाह, गजब
कर दिया! आज तक
कुत्ते को
कंधे पर लिए
किसी को नहीं
देखा। क्या
बकरी समझ रहे
हो इसको?
उस
आदमी ने देखा
कि एकांत है, कोई
नहीं है। उस
बकरी को छोड़
कर वह भागा
अपने गांव की
तरफ कि इसे
यहीं छोड़ देना
बेहतर है। जो
पांच रुपये गए
वे गए, पागलपन
से तो बच जाना
चाहिए। वे
पांच आदमी उस
बकरी को उठा
कर ले गए।
पांच
आदमियों ने
बार—बार
दोहराया और उस
आदमी के लिए
कठिनाई हो गई
यह बात को
मानने में कि
जो पांच कहते
हैं वे गलत कहते
होंगे। और जब
कहने वाले
गेरुआ वस्त्र
पहने हों, तब
और मुश्किल हो
जाती है। और
जब कहने वाले
सचाई और
ईमानदारी के
मूर्तिमंत
रूप हों, तब
तो और कठिन हो
जाता है। और
जब कहने वाले
ईमानदार हों,
जगत के
त्याग करने
वाले हों, तब
तो और भी
मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
उनकी बात पर
अविश्वास
करने की कोई
वजह ही नहीं
रह जाती। और
यह भी जरूरी
नहीं है कि वे
आपको धोखा दे
रहे हों। सौ
में से
निन्यानबे
मौके ये हैं
कि वे भी धोखा
खाए हुए लोग
हैं और उनको
भी धोखा दिया
गया है। वे
बेईमान हैं यह
जरूरी नहीं है,
लेकिन वे भी
उसी चक्कर में
हैं जिसमें आप
हैं।
एक
बात तय है कि
जब तक आदमी को
विश्वास करने
के लिए कहा
जाएगा, तब तक
आदमी का शोषण
जारी रहेगा, बिलीफ करने
के लिए जब तक
कहा जाएगा तब
तक आदमी शोषण
से मुक्त नहीं
हो सकता। फिर
चाहे वह
विश्वास
हिंदू का हो, चाहे जैन का,
चाहे
मुसलमान का, चाहे किसी
का भी—कम्युनिस्ट
का हो, गैर
कम्युनिस्ट
का हो, किसी
का भी हो—जब तक
आदमी से यह
कहा जाएगा कि
हम जो कहते
हैं उस पर
विश्वास कर लो
और नहीं
विश्वास
करोगे तो दुख
पाओगे और
विश्वास
करोगे तो सुख
पाओगे; जब
तक यह तरकीब
काम लाई जाएगी
तब तक आदमी के
भीतर जो
विचारों का
जाल खड़ा होता
है, उसे
तोड्ने का
साहस जुटा
पाना बहुत
कठिन है।
मैं
आपसे क्या
कहना चाहता
हूं मैं आपसे
यह कहना चाहता
हूं कि अगर
अपने भीतर जो
जाल बन गया है, हजारों
सदियों का हाथ
है उसमें, सैकड़ों
वर्षों के
प्रभाव हैं
उसके भीतर, अगर उससे
छुटकारा पाना
है तो एक बात
निश्चित मान
लेनी चाहिए कि
विश्वास से
ज्यादा
आत्मघातक और
कोई चीज नहीं
है। एक बात
निश्चित समझ
लेनी चाहिए कि
विश्वास करना,
अंधा
विश्वास, आंख
बंद किए
चुपचाप मान
लेना यही
हमारे जीवन की
आज तक की
पंगुता का
बुनियादी
कारण रहा है।
लेकिन
सभी लोग कहते
हैं,
विश्वास
करो। हां, वे
यह जरूर कहते
हैं, दूसरे
पर मत करो मुझ
पर करो। इतना
वे जरूर कहते
हैं कि दूसरों
पर विश्वास मत
करो, क्योंकि
दूसरे गलत हैं,
मैं सही हूं?
मुझ पर
विश्वास करो।
मैं
आपसे कहना
चाहता हूं
किसी पर भी
विश्वास करना
घातक है और
आपके जीवन को
नुकसान
पहुंचाएगा।
विश्वास नहीं, विश्वास
बिलकुल भी
नहीं।
विश्वास के
आधार पर जो
खड़ा होगा, वह
अंधी दुनिया
में प्रवेश कर
रहा है और
उसके जीवन में
कभी आंखों
वाली रोशनी
नहीं उतर सकती।
उसके जीवन में
कभी प्रकाश
उपलब्ध नहीं
हो सकता। वह
कभी स्वयं
जानने में
समर्थ नहीं हो
पाएगा जिसने
दूसरों पर
विश्वास कर
लिया है।
तो
मैं क्या कह
रहा हूं
अविश्वास
करें आप? नहीं!
अविश्वास की
भी कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन हमें यह
खयाल है कि जब
हम विश्वास
नहीं करते, तो हम
अनिवार्य रूप
से अविश्वास
करते हैं। यह
बिलकुल गलत
खयाल है। इन
दोनों से अलग
चित्त की
अवस्था भी है
जो न विश्वास
करती है, न
अविश्वास
करती है, क्योंकि
अविश्वास भी
विश्वास का ही
रूप है। वह जो
डिस—बिलीफ है,
वह भी बिलीफ
का ही रूप है।
जब हम कहते
हैं, मैं
ईश्वर पर
विश्वास नहीं
करता, तो
हम क्या कहते
हैं? हम यह
कहते हैं कि
हम ईश्वर के न
होने पर विश्वास
करते हैं। जब
हम कहते हैं, हम आत्मा पर
विश्वास नहीं
करते हैं; तो
हम यह कह रहे
हैं कि हम
आत्मा के न
होने पर विश्वास
करते हैं।
विश्वास
और अविश्वास
दोनों एक ही
तरह की चीजें
हैं,
उनमें कोई
भेद नहीं है।
विश्वास
पाजिटिव
बिलीफ है और
अविश्वास
निगेटिव
बिलीफ है।
विश्वास
विधायक
श्रद्धा है और
अविश्वास निषेधात्मक
श्रद्धा है, लेकिन दोनों
श्रद्धा हैं।
और वही आदमी
भीतर के जाल
से मुक्त हो
सकता है जो
श्रद्धा और
विश्वास से ही
मुक्त हो जाता
है— जो समस्त
दूसरे की तरफ
देखने की
दृष्टि और इच्छा
से मुक्त हो
जाता है, जो
यह खयाल ही
छोड़ देता है
कि कोई और
मुझे सत्य दे
सकता है। जब
तक मुझे यह
खयाल है कि
कोई और मुझे
सत्य दे सकता
है, तब तक
मैं किसी न
किसी रूप में
बंध जाऊंगा।
एक से छूटूगा
तो दूसरे से
बंध जाऊंगा, दूसरे से
छूटूगा तो मैं
तीसरे से बंध
जाऊंगा, लेकिन
मेरा बंधन से
छुटकारा नहीं
हो सकता है।
और एक से छूट
कर दूसरे से
बंध जाना
हमेशा
राहतपूर्ण
होता है।
एक
आदमी मर जाता
है,
और चार आदमी
उसकी अरथी को
उठा कर मरघट
ले जाते हैं।
एक कंधा दुखने
लगता है तो
दूसरे कंधे पर
अरथी के डंडे
को रख लेते
हैं। थोड़ी देर
राहत मिलती है,
थका हुआ
कंधा!......फिर
दूसरा कंधा थक
जाता है। थोड़ी
देर में दूसरा
कंधा भी थक
जाता है, फिर
कंधा बदल लेते
हैं। जो
विश्वास
बदलता है, वह
केवल कंधे बदल
रहा है, बोझ
हमेशा मौजूद
रहता है, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। थोड़ी
देर के लिए
राहत मिल जाती
है।
एक
आदमी हिंदू से
मुसलमान हो
जाता है, मुसलमान
से जैन हो
जाता है, जैन
से ईसाई हो
जाता है, सब
धर्मों को छोड़
कर
कम्युनिस्ट
हो जाता है या
कुछ और हो
जाता है। जब
तक वह आदमी एक
विश्वास को
छोड़ कर दूसरे
विश्वास को
पकड़ता है तब
तक उस आदमी के
चित्त के बोझ
में कोई अंतर
नहीं आता, केवल
कंधे बदल जाते
हैं, लेकिन
थोड़ी देर को
राहत मिलती है।
और राहत का और
कोई भी अर्थ
नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
गांव में दो
आदमी थे। एक
आदमी आस्तिक
था, परम
आस्तिक था और
एक आदमी
नास्तिक था, परम नास्तिक
था। उन दोनों
लोगों की वजह
से गांव बड़ा
परेशान था।
ऐसे लोगों की
वजह से गांव
हमेशा ही
परेशानी में
पड़ जाते हैं, क्योंकि
आस्तिक दिन—रात
गांव को
समझाता था
ईश्वर के होने
की बात और नास्तिक
दिन—रात खंडन
करता था। गांव
के लोग बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए थे कि
किसके साथ
जाएं और किसके
साथ न जाएं।
आखिर गांव के
लोगों ने यह
तय किया कि हम
बहुत मुश्किल
में पड़ गए हैं।
इन दोनों
आदमियों को
कहा जाए कि
तुम दोनों
गांव के सामने
विवाद करो। जो
जीत जाएगा हम
उसी के साथ हो
जाएंगे। यह
परेशानी
हमारे सिर पर
मत डालो। तुम
दोनों विवाद
कर लो। जो जीत
जाएगा हम उसी
के साथ हो
जाएंगे।
एक
रात,
पूर्णिमा
की रात, उस
गांव में
विवाद का
आयोजन हुआ।
सारे नगर के
लोग इकट्ठे
हुए। आस्तिक
ने अपनी
आस्तिकता की
बातें समझाई,
सब दलीलें
दीं, नास्तिकता
का खंडन किया।
नास्तिक ने
आस्तिकता का
खंडन किया, नास्तिकता
के पक्ष में
सारी दलीलें
दीं। रात भर
विवाद चला और
सुबह जो
परिणाम हुआ वह
यह हुआ कि
आस्तिक रात भर
में नास्तिक
हो गया और नास्तिक
आस्तिक हो गया।
उन दोनों को
एक—दूसरे की
बातें जंच गईं।
गांव की
मुसीबत
पुरानी की
पुरानी बनी
रही। वह कोई
हल न हुआ। वे
एक—दूसरे से
कनविस हो गए, वे एक—दूसरे
से राजी हो गए
और गांव की
परेशानी वही रही,
क्योंकि
फिर भी गांव
में एक
नास्तिक रहा
और एक आस्तिक
रहा, कुल जोड़
वही रहा।
हम
भी जीवन में
एक विश्वास को
बदल कर दूसरे
विश्वास पर
चले जाएं, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। हमारे
प्राणों की
परेशानी वही
रहती है। इससे
कोई भेद नहीं
पड़ता।
प्राणों की
परेशानी न
हिंदू के कारण
है, न
मुसलमान के, न जैन के
कारण है, न
ईसाई के, न
कम्युनिस्ट
के कारण है, न फैसिस्ट
के।
प्राणों
की परेशानी इस
कारण है कि आप
विश्वास करते
हैं। जब तक आप
विश्वास करते
हैं तब तक आप
बंधन को आमंत्रित
करते हैं, तब
तक आप कारागृह
में जाने को
खुद निमंत्रण
देते हैं अपने
को। और तब तक
आप किसी न
किसी रूप में,
कहीं न कहीं
बंधे हुए
होंगे।
और
बंधा हुआ आदमी, बंधा
हुआ मन
विचारों से
कैसे मुक्त हो
सकता है? जिन
विचारों को वह
प्राणपण से
पकड़ता हो और
विश्वास करता
हो उनसे कैसे
मुक्त हो सकता
है? वह
उनसे कैसे
छुटकारा पा
सकता है? उनसे
छुटकारा कठिन
है। छुटकारा
उनसे हो सकता
है, अगर हम
बुनियाद के पत्थर
को हटा दें।
विश्वास, बिलीफ
बुनियाद का
पत्थर है सारे
विचारों के जाल
के नीचे।
विश्वास के
आधार पर
मनुष्य को
विचारों में
दीक्षित किया
गया है और जब
विचार मन को
जोर से पकड़
लेते हैं तो
भय भी पकड़ता
है कि अगर
मैंने इनको
छोड़ दिया तो
फिर क्या होगा।
तो आदमी पूछता
है कि अगर
इससे बेहतर
कुछ मुझे
पकड़ने को पहले
बता दें तो
मैं उसे छोडूं
भी, लेकिन
पकड़ना ही
छोडूं, यह
उसके खयाल में
नहीं आ पाता।
और
मन की फ्रीडम, मन
की
स्वतंत्रता
और मन की
मुक्ति
विश्वासों के
परिवर्तन में
नहीं, विश्वास—मात्र
से मुक्त हो
जाने में है।
बुद्ध
एक गांव में
गए थे। एक
अंधे आदमी को
कुछ लोग उनके
पास लाए और उन
मित्रों ने
कहा कि यह
आदमी अंधा है
और हम इसके परम
मित्र हैं। और
हम इसे सब
भांति समझाने
की कोशिश करते
हैं कि प्रकाश
है,
लेकिन यह
मानने को राजी
नहीं होता और
इसकी दलीलें
ऐसी हैं कि हम
हार जाते हैं।
और हम जानते
हैं कि प्रकाश
है, हमें
देखते हुए
हारना पड़ता है।
यह आदमी हमसे
कहता है, मैं
प्रकाश को
छूकर देखना
चाहता हूं। अब
हम प्रकाश का
स्पर्श कैसे
करवाएं? यह
आदमी कहता है
छोड़ो, स्पर्श
न हो सके तो
मैं सुन कर
देखना चाहता
हूं मेरे पास
कान हैं। तुम
प्रकाश में
आवाज करो, मैं
सुन लूं। छोड़ो,
यह भी न हो
सके तो मैं
स्वाद लेकर
देख लूं या प्रकाश
में कोई गंध
हो तो गंध
लेकर देख लूं।
कोई
उपाय नहीं है।
प्रकाश तो आंख
से देखा जा
सकता है और आंख
इसके पास नहीं
है। और यह आदमी
यह कहता है कि
तुम फिजूल ही
मुझे अंधा
सिद्ध करने को
प्रकाश की
बातें करते हो।
तुम भी अंधे
मालूम होते हो, प्रकाश
की ईजाद तुमने
मुझे अंधा
बताने के लिए तय
कर ली है। तो
हमने सोचा, आप इस गांव
में आए हैं, शायद आप
इसको समझा
सकें।
बुद्ध
ने कहा कि मैं
इसे समझाने के
पागलपन में
नहीं पडूगा। आदमी
की आज तक
मुसीबत ही उन
लोगों ने की
है जिन लोगों
ने आदमी को
ऐसी बातें
समझाने की
कोशिशें की
हैं जो उनको
दिखाई नहीं
पड़ती। मनुष्य
के ऊपर उपदेशक
बड़ी महामारी
सिद्ध हुआ है।
वे ऐसी बातें
समझाता है जो
उसको दिखाई
नहीं पड़ती।
तो
बुद्ध ने कहा
कि मैं यह
गलती करने वाला
नहीं हूं र
मैं यह समझाने
वाला नहीं हूं
कि प्रकाश है।
मैं तो इतना
कह सकता हूं
कि इस आदमी को
तुम गलत जगह
ले आए हो।
मेरे पास लाने
की जरूरत न थी।
किसी वैद्य के
पास ले जाओ जो
इसकी आंख का
इलाज कर सके।
इसे उपदेश की
नहीं, उपचार
की जरूरत है।
तुम्हारे
समझाने का सवाल
नहीं, तुम्हारी
समझाई गई बात
पर विश्वास
करने का सवाल
नहीं। इसकी आंख
ठीक होनी
चाहिए। और आंख
ठीक हो जाए तो
तुम्हें
समझाने की
जरूरत न पडेगी,
यह खुद ही
देख सकेगा, खुद ही जान
सकेगा।
उनको
बात ठीक जंची।
बुद्ध ने कहा
है कि मैं तो
धर्म को उपदेश
नहीं मानता
हूं उपचार
मानता हूं। तो
इसे ले जाओ।
वे उस अंधे को
ले गए और
भाग्य की बात
थी कि वह अंधा
कुछ महीनों के
इलाज से ठीक
हो गया। बुद्ध
तो दूसरे गांव
चले गए थे। वह
अंधा आदमी ठीक
हो गया था। वह
बुद्ध के चरण
छूने गया और
उसने उन्हें
प्रणाम किया
और उसने कहा
कि मैं गलती
में था। प्रकाश
तो था, लेकिन
मेरे पास आंख
नहीं थी।
लेकिन बुद्ध
ने कहा तू
गलती में जरूर
था, लेकिन
तूने जिद्द की
कि जब तक आंख न
होगी तब तक
मैं मानने को
राजी न होऊंगा,
तो तेरे आंख
का इलाज भी हो
सका। अगर तू
मान लेता उन
मित्रों की
बात कि तुम
कहते हो तो
ठीक है, तो
बात वहीं खत्म
हो जाती। आंख
के इलाज का
सवाल भी नहीं
उठता।
जो
लोग विश्वास
कर लेते हैं, वे
विवेक तक नहीं
पहुंच पाते।
जो लोग चुपचाप
स्वीकार कर
लेते हैं, वे
स्वयं के
अनुभव तक नहीं
पहुंच पाते।
जो अंधे हैं
और पकड़ लेते
हैं कि दूसरे
कहते हैं
प्रकाश है तो
जरूर होगा, फिर उनकी यात्रा
वहीं बंद हो
जाती है।
यात्रा तो तब
होती है जब
बेचैनी बनी
रहे, बनी
रहे, बनी
रहे, बेचैनी
छूटे नहीं। और
बेचैनी तभी
होती है जब
मुझे लगता है
कि कोई चीज है,
लोग कहते
हैं लेकिन
मुझे दिखाई
नहीं पड़ती तो
मैं कैसे मान
लूं? मैं
ही देखूं तो
मानूं! यह
बेचैनी मन में
हो कि मेरे
पास आंख हो तो
मैं स्वीकार
करूं।
विश्वास
दिलाने वाले
लोगों ने यह
कहा है कि तुम्हें
अपने आंख की
कोई फिकर नहीं
है। महावीर के
पास आंख थी वह
काफी है, बुद्ध
के पास आंख थी
वह काफी है।
हरेक को आंख
की क्या जरूरत
है? सबको आंख
की क्या जरूरत
है? गीता
में तो आंख है
फिर तुम्हें
क्या जरूरत है।
गीता पढ़ो और
मजा करो।
कृष्ण को
दिखाई पड़ता था,
उन्होंने
कह दिया। अब
सभी को देखने
की क्या जरूरत
है कि हरेक को
देखना चाहिए।
तुम तो
विश्वास करो।
बताने वाले और
देखने वाले
बता गए हैं, तुम्हारा
काम विश्वास
करना है। ज्ञान
तो उपलब्ध हो
गया है, अब
तुम्हें
जानने की क्या
जरूरत है?
तो
आदमी को अंधा
रखने के लिए
इस उपदेश ने
काम किया।
अधिकतम लोग
पृथ्वी पर
अंधे रह गए और
अधिकतम लोग आज
भी अंधे हैं।
और जैसी
स्थिति चल रही
है शायद
अधिकतम लोग आगे
भी अंधे
रहेंगे।
क्योंकि
अंधेपन को
तोड्ने की जो
बुनियादी कीमिया
होती है, अंधेपन
को तोड्ने की
जो प्यास होती
है उसकी हत्या
कर दी गई है।
विश्वास देकर
उसको समाप्त
कर दिया गया
है।
कहा
जाना चाहिए यह
कि चाहे कृष्ण
की आंख कितनी
भी अच्छी हो
और कितनी भी
दूर देखती हो, और
महावीर की आंख
कितनी ही
सुंदर हो, कमल
जैसी हो और
कितनी ही दूर
तक दिखाई पड़ता
हो, लेकिन
महावीर की आंख
महावीर की आंख
है, मेरी आंख
नहीं है। और
मेरी छोटी—मोटी
आंख सही, कमल
जैसी न सही, घास के फूल
जैसी सही, लेकिन
मेरी ही आंख
मेरे पास होगी
तो ही मुझे
दिखाई पड़ सकता
है। तो मैं तो
अपनी ही आंख
की खोज करूंगा,
दूसरों की आंखों
की पूजा करने
से मुझे कुछ
उपलब्ध नहीं
होना है।
लेकिन
स्वयं की आंख
की खोज शुरू
तब होती है जब
हम दूसरों की आंख
का आसरा छोड़
देते हैं। जब
तक कोई सब्स्टीटूयूट
है आदमी के
लिए,
जब तक कोई
चीज मूर्ति कर
रही है उसकी, तब तक खोज—बीन
पैदा नहीं
होती।
जब
कोई सहारा नहीं
है,
और कोई
पूर्ति नहीं
है और कोई
मार्ग नहीं है
दूसरे से
मिलने वाला, तब आदमी के
भीतर वह
चुनौती जन्म
लेती है कि वह अपने
मार्ग की खोज
में निकलता है,
खुद की आंख
की तलाश करता
है।
आदमी
बहुत आलसी है
और अगर उसे
बिना मेहनत
किए जान मिल
जाता हो तो वह
काहे के लिए
मेहनत करे, किसलिए
उपाय करे। अगर
बिना खोजें
हुए विश्वास
कर लेने से ही
मोक्ष उपलब्ध
हो जाता हो, तो फिर
मोक्ष तक की
यात्रा हम
अपने पैरों से
क्यों करें।
और जब कोई यह
कहता हो कि
तुम हमको मान
लो, हम
तुम्हें
मोक्ष पहुंचा
देंगे तो फिर
हम इतना श्रम
क्यों लें कि
उतनी दूर तक
जाएं। जब कोई
कहता है कि
हमारी नाव में
बैठ जाओ, हम
पार लगा देंगे,
तो बात खत्म
हो गई, हम
चुपचाप नाव
में बैठ जाते
हैं और सो
जाते हैं।
लेकिन
कोई आदमी किसी
दूसरे की नाव
में कहीं भी
नहीं पहुंच
सकता है। और
किसी दूसरे की
आंख से न देख
सकता है, न कभी
देखा है, न
कभी देखेगा।
अपने ही पैर
से चलना होता
है, अपनी
ही आंख से
देखना होता है,
अपने ही
हृदय की धड़कन
में जीना होता
है। खुद ही
जीना होता है
और खुद ही
मरना होता है।
न तो मेरी जगह
कोई जी सकता
है और न मेरी
जगह कोई मर
सकता है। मेरी
कोई जगह नहीं
ले सकता, न
मैं आपकी जगह
ले सकता हूं।
दुनिया में
अगर कुछ असंभव
है तो यह एक
बात असंभव है
कि कोई किसी
की जगह ले ले।
दो
सैनिक दूसरे
महायुद्ध में
एक युद्ध—स्थल
पर पड़े थे। एक
सैनिक बिलकुल
मरने के करीब
था। उसे इतनी
चोट पहुंची थी
कि उसके बचने
की कोई आशा
नहीं थी। घड़ी, आधा
घड़ी में उसके
प्राण निकल
जाएंगे।
दूसरा सैनिक
चोट तो खाया
हुआ था, लेकिन
जिंदा था और
मरने की कोई
बात न थी।
दोनों मित्र
थे।
मरते
हुए सैनिक ने
अपने मित्र को
गले मिलाया और
कहा कि अब मैं
विदा लेता हूं
और मेरे बचने
की कोई
संभावना नहीं
है।
जो
मित्र जिंदा
रहने को था
अभी,
उसने कहा एक
काम करो मरने
के पहले। एक
काम करो। मरते
हुए मित्र ने
उस जिंदा
सैनिक को कहा
कि एक काम करो—
मेरी जो किताब
है, मेरे
नाम की जो
किताब है, मेरा
जो रिकॉर्ड है,
वह तुम ले
लो और
तुम्हारी
किताब का
रिकॉर्ड मुझे
दे दो।
तुम्हारा
रिकॉर्ड खराब
है, तुम्हारे
रिकॉर्ड में
बहुत
असम्मानजनक
बातें हैं, लेकिन मेरा
रिकॉर्ड बहुत
अच्छा है, तो
हम किताबें
बदल लें अपनी।
मैं तो मर ही
रहा हूं।
तुम्हारी
किताब और
तुम्हार नंबर
मैं ले लेता हूं
अधिकारी
समझेंगे कि
तुम मर गए, और
अधिकारी
समझेंगे कि
मैं जिंदा हूं।
और मेरी किताब
का रिकॉर्ड
अच्छा है, तुम्हें
अच्छी गति मिल
सकेगी और आगे
अच्छा प्रमोशन
मिल सकेगा, तुम्हारी
इज्जत बढ़
जाएगी। तो
जल्दी करो यह
किताब और नंबर
बदल लो।
मरते
हुए मित्र की
यह आकांक्षा
बिलकुल ठीक थी, क्योंकि
सैनिक के पास
नंबर ही होता
है, कोई
नाम तो होता
नहीं। सैनिक
के पास तो
रिकॉर्ड की
किताब होती है,
कोई आत्मा
तो होती नहीं।
सो ठीक था, बदलाहट
कर ली जाए तो
ठीक होगा, वह
तो मर ही रहा
है। तो एक
बुरा आदमी मर
जाएगा और
अच्छा आदमी बच
जाएगा।
लेकिन
जो आदमी जिंदा
रहने को था
उसने कहा कि क्षमा
करो। मैं
तुम्हारी किताब
तो ले सकता
हूं तुम्हारा
नंबर भी ले
सकता हूं।
लेकिन फिर भी
मैं मैं ही
रहूंगा और मैं
आदमी बुरा हूं
सो मैं आदमी
बुरा रहूंगा।
मैं शराब पीता
हूं सो मैं
शराब पीऊंगा, मैं
वेश्यालय
जाता हूं सो
मैं वेश्यालय
जाऊंगा। तो
तुम्हारी
अच्छी किताब
कितनी देर तक
अच्छी रह पाएगी,
किताब
कितनी देर तक
किसको धोखा दे
पाएगी। उलटे
दो आदमी बुरे
हो जाएंगे।
तुम तो बुरे
हो ही जाओगे
कि मर गए, एक
बुरा आदमी मर
गया और एक
बुरा आदमी
जिंदा रहेगा
ही। तो अभी कम
से कम एक
अच्छा आदमी मर
गया यह लोग कहेंगे।
तुम्हें फूल
चढाएंगे, वह
भी चढ़ाने नहीं
आएंगे और बुरा
आदमी तो जिंदा
रहेगा।
क्योंकि तुम
मेरी जगह नहीं
हो सकते, मैं
तुम्हारी जगह
नहीं हो सकता
हूं।
तुम्हारा
प्रेम तो ठीक
कहता है कि हम
जगह बदल लें।
लेकिन
जिंदगी के
नियम के बाहर
है यह बात।
कोई जगह नहीं
बदली जा सकती।
न कोई किसी की
जगह जी सकता
है और न मर सकता
है। न कोई
किसी की जगह
जान सकता है, न
कोई किसी की
जगह आंखों को
उपलब्ध हो
सकता है।
लेकिन
विश्वास
दिलाने वाले
लोगों ने आज
तक यही समझाया
है कि तुम
दूसरे की आंख
से देखो—
तीर्थंकर की आंख
से देखो, अवतार
की आंख से
देखो और हम इस
पर विश्वास
करते चले आए
हैं, इसलिए
हम एक अंधे
जाल में
ग्रसित हो गए
हैं। और यह
हजारों
शिक्षकों ने
इतने जोर से
शोरगुल मचाया
है और हजारों
शिक्षकों के
अनुयायियों ने
इतने जोर से
आवाजें की हैं,
इतने जोर से
उन्होंने
घबड़ाहट पैदा
की है नरक की
और स्वर्ग का
प्रलोभन पैदा
किया है कि
हमने धीरे—
धीरे सबकी ही
बातें मान लीं।
और उन सबकी
बातों ने
हमारे भीतर एक
ऐसा विरोधाभास
खड़ा कर दिया
है कि हमारे
जीवन की गाड़ी
टूट सकती है, लेकिन कहीं
पहुंच नहीं
सकती।
इसलिए
पहला समझदार
व्यक्ति के
लिए जो काम है
करने जैसा वह
यह है कि वह
अपने सारे
अंतर— विरोधी
विश्वासों को
एक साथ तिलांजलि
दे दे और वह
क्षमा मांग ले
कि मैं विश्वास
नहीं करूंगा, मैं
जानना चाहता
हूं। जिस दिन
मुझे ज्ञान
उपलब्ध होगा
उस दिन मैं मान
लूंगा, उसके
पहले मेरे लिए
मानना जैसी
कोई चीज नहीं
हो सकती है।
यह धोखा है, यह आत्म—प्रवंचना
है। मैं अपने
को धोखा नहीं
दे सकता कि मैं
बिना जाने हुए
कहूं कि मैं
जानता हूं मैं
बिना पहचाने
हुए कहूं कि
मैं पहचानता
हूं। मैं झूठी
स्वीकृति दूं
यह मेरे लिए
संभव नहीं है।
इसका
मतलब यह नहीं
है कि आप
अस्वीकार कर
रहे हैं। इसका
कुल मतलब यह
है कि आप
स्वीकार—
अस्वीकार
दोनों से अपने
को तटस्थ खड़ा
कर रहे हैं।
आप यह कह रहे
हैं कि हम इन
दोनों में
राजी नहीं हैं।
न हम कहते हैं
कि महावीर गलत
हैं,
न हम कहते
हैं कि सही
हैं। हम इतना
ही कहते हैं
कि महावीर जो
कहते हैं वह मैं
नहीं जानता
हूं इसलिए
मुझे हां और न
कहने का कोई
भी हक नहीं है।
जिस दिन मैं
जानूंगा उस
दिन हां
कहूंगा, जानूंगा
कि गलत कहते
हैं तो न
कहूंगा, लेकिन
अभी मैं जानता
नहीं, इसलिए
मैं कैसे हां
कहूं और कैसे
न कहूं?
अगर
यह हमारे
चित्त की दशा
हो कि हम ही और
न कहने से बच
जाएं, तो
हमारे मन का
जाल आज और अभी
और यहीं टूट
सकता है। उस
जाल के टूटने
में फिर कोई
नीचे आधार
नहीं रह जाता
है, फिर वह
पत्तों का एक
महल रह जाता
है जो जरा में गिर
जाएगा। अभी वह
पत्थरों का
महल है, क्योंकि
नीचे बहुत
बुनियाद में
सख्त पत्थर रखे
हुए हैं और वे
पत्थर हमें
दिखाई नहीं
पड़ते, बल्कि
हमको तो यही
कहा जाता है
कि जो श्रद्धा
करते हैं वे ही
धार्मिक हैं,
जो श्रद्धा
नहीं करते वे
अधार्मिक हैं।
और
मैं आपसे कहता
हूं जो
श्रद्धा करता
है वह भी
धार्मिक नहीं
है,
जो
अश्रद्धा
करता है वह भी
धार्मिक नहीं
है। धार्मिक
तो वह है जो
सच्चा है। और
सच्चे का मतलब
यह है कि जो
नहीं जानता उस
पर श्रद्धा
नहीं करता, जो नहीं
जानता उस पर
अश्रद्धा
नहीं करता। वह
निपट
ईमानदारी से
यह घोषणा कर
देता है कि मैं
नहीं जानता
हूं मैं अज्ञानी
हूं इसलिए
मेरी
स्वीकृति—अस्वीकृति
का कोई भी
सवाल नहीं है।
क्या
इस मध्य—बिंदु
पर आप अपने
चित्त को ले
जाने की
सामर्थ्य और
साहस जुटा
सकते हैं? जुटा
सकते हैं तो
यह भवन
विचारों का तत्क्षण
गिर सकता है, इसके गिरने
में कोई भी
कठिनाई नहीं।
तीन
सूत्र मैंने
सुबह कहे थे।
एक सूत्र
मैंने दोपहर
को कहा और एक
आपसे अब कहा।
इन पांचों
सूत्रों पर
ध्यान से
विचार करना आप।
मेरी बात मान
कर ही इनको
उपयोग में मत
ले आना, अन्यथा
मैं भी फिर एक
उपदेशक ही
आपके लिए हो
जाता हूं।
मैंने कहा
इसलिए मत मान
लेना।
क्योंकि मेरी
बात हो सकती
है सभी गलत
हों और आप
दिक्कत में पड़
जाएं, मेरी
बात सभी झूठी
हों और व्यर्थ
हों और आप दिक्कत
में पड़ जाएं, इसलिए मेरी
बात को मत मान
लेना। सोचना,
खोजना, देखना
और अगर ऐसा
लगे कि इसमें
कोई सचाई है—
अपने अनुभव
में, अपने
मन की खोज—बीन
में, अपने
मन की खिड़की
से झांकने पर
लगे कि इन
बातों में कोई
सचाई है, तो
फिर वह सचाई
आपकी अपनी हो
जाएगी, फिर
मेरी नहीं रह
जाती। फिर वह
मेरी आंख नहीं,
वह आपकी
अपनी आंख हो
जाती है। और
तब आप जो करते
हैं वह आपके
जीवन को विवेक,
जागृति, जागरण
की दिशा में
ले जाने का
मार्ग बन जाता
है। और
विश्वास करके
आप जो करते
हैं वह आपको
और अंधकार में
और मूर्च्छा
में और बेहोशी
में ले जाता
है। इस सूत्र
पर भी ध्यान
से विचार करना
उपयोगी है।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
बैठेंगे। तो
थोड़ी सी बातें
ध्यान के लिए
समझ लें। कुछ
प्रश्न ध्यान
के लिए पूछे
हैं, उनको
मैं समझा दूं
थोड़ा सा और
फिर हम ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
एक
मित्र ने पूछा
हुआ है ध्यान
के संबंध में
कि क्या नाम—
जप कोई पवित्र
मंत्र का जप
सहयोगी नहीं
हो सकता है?
बिलकुल
भी सहयोगी
नहीं हो सकता, बल्कि
बाधक हो सकता
है। क्योंकि
जब आप कोई
मंत्र जपते
हैं, तब आप
एक विचार को
ही बार—बार
पुनरुक्त
करते हैं।
मंत्र यानी एक
विचार। जब आप
कोई नाम जपते
हैं, तो एक
शब्द को ही
बार—बार
दोहराते हैं।
शब्द यानी
विचार का एक
अंश, एक
टुकड़ा, एक
हिस्सा। तो
विचार को ही
दोहरा कर अगर
आप विचार से
मुक्त हो जाना
चाहते हों तो
आप गलती में
हैं। जितनी
देर आप एक ही
विचार को
दोहराते
रहेंगे उतनी
देर तक दूसरे
विचार आपको
आते हुए नहीं
मालूम पड़ेंगे।
क्योंकि मन का
नियम जैसा
मैंने आपसे
कहा, एक
चीज पर अटका
रहेगा। लेकिन
जिस विचार को
आप दोहरा रहे
हैं, यह भी
उतना ही विचार
है जितने
दूसरे विचार
हैं। इसके
दोहराने से
कोई हित नहीं
है। बल्कि
अहित यह है कि
एक
ही
शब्द को बार—बार
दोहराने से मन
में मूर्च्छा
पैदा होती है, निद्रा
पैदा होती है।
तो कोई भी एक
शब्द को ले
लें और उसे
बार—बार
दोहराएं, तो
आपके भीतर
नींद पैदा
होगी; जागरण
पैदा नहीं
होगा।
रिपीटीशन जो
है किसी भी
शब्द का, निद्रा
लाने का सूत्र
है। तो अगर
नींद न आती हो
आपको रात में,
तो राम—राम
जपना, ओम—ओम
जपना सहयोगी
हो सकता है
नींद लाने में,
लेकिन आत्म—ज्ञान
में नहीं। न
सत्य के दर्शन
में, न
परमात्मा के
पास ले जाने
में।
यह
सरल सा सूत्र
सबको गांव—गांव
में पता है, लेकिन
हमें खयाल में
नहीं है। एक
मां को अपने
बच्चे को
सुलाना होता
है, तो वह
कहती है, राजा
बेटा सो जा, राजा बेटा
सो जा, राजा
बेटा सो जा।
वह मंत्र का
उपयोग कर रही
है। वह ये दो
शब्दों का
दोहरा रही है
राजा बेटा, राजा बेटा, राजा बेटा
सो जा, राजा
बेटा सो जा।
वह थोड़ी देर
में राजा बेटा
जरूर सो जाएगा।
मां सोचेगी कि
मेरे बहुत
संगीतपूर्ण
स्वर के कारण
सो गया, तो
गलती में है।
बच्चा बोर्डम
की वजह से सो
जाता है, ऊब
की वजह से सो
जाता है।
अब
किसी के सिर
के पास बैठ कर
कहो राजा बेटा
सो जा, राजा
बेटा सो जा, तो घबड़ाहट
पैदा होती है।
ऊब पैदा होती
है। अब छोटा
बच्चा भाग कर
कहीं जा नहीं
सकता। तो
भागने का फिर
एक ही रास्ता
रह जाता है कि
वह नींद में
चला जाए, तो
यह बकवास
सुनाई पड़नी
बंद हो जाए।
यह बकवास से
छुटकारा, एस्केप
एक ही है कि वह
नींद में चला
जाए। नहीं तो
यह बकवास
सुननी पड़ेगी
राजा बेटा सो
जा! मुन्ना
बेटा सो जा! यह
बकवास कितनी
देर तक मुन्ना
बेटा सुनने को
राजी हो!
कितना ही राजा
बेटा हो, वह
भी घबड़ा जाता
है। और उस घबड़ाहट
में, उस ऊब
में, उस
बोर्डम में
उसके पास एक
ही विकल्प है
कि वह सो जाए
जल्दी से तो
यह बकवास बंद
हो सकती है, नहीं तो यह
बकवास जारी
रहेगी। तो वह
नींद में
प्रवेश कर
जाता है।
नींद
में प्रवेश
करना इस बकवास
से बचाव का
उपाय है। तो
अगर आप बैठ कर
एक शब्द पकड़
लें—यही राजा
बेटा ही पकड़
लें— और राजा
बेटा, राजा
बेटा दोहराते
रहें, या
राम—राम
दोहराते रहें।
सब शब्द एक
जैसे हैं, कोई
फर्क नहीं
पड़ता है। तो
आप, जो मां
करती है छोटे
बच्चे के साथ,
वह अपने मन
के साथ खुद ही
कर रहे हैं।
तो मन थोड़ी
देर में घबड़ा
जाएगा, ऊब
जाएगा, परेशान
हो जाएगा। फिर
एक ही रास्ता
है बचने का कि
वह नींद में
चला जाए। और
नींद में चला
जाए तो आपकी
यह बकवास से
छुटकारा हो
सकता है।
इस
नींद में जाने
को अगर आप
समझते हों कि
आप ध्यान में
चले गए, तो आप
बड़ी भूल में
हैं। यह नींद
एक तंद्रा है।
एक मूर्च्छा
की अवस्था है।
हां, इसके
बाद अच्छा
लगेगा। इस
नींद के बाद
अच्छा लगेगा।
जैसा की सभी
नींद के बाद
अच्छा लगता है।
इस नींद के
बाद थोड़ी राहत
मिलेगी, क्योंकि
इतनी देर के
लिए आप
चिंताओं से, दुख से, जीवन
से, सबसे
दूर चले गए।
जैसे शराब
पीने वाले को
राहत मिलती है।
जैसे गांजा
पीने वाले को,
अफीम पीने
वाले को राहत
मिलती है।
जितनी देर के
लिए नशे में
होता है उतनी
देर तक दुनिया
की चिंता से
भूल जाता है।
फिर जब होश
में आता है, सब दुख वहीं
के वहीं खड़े
हैं। फिर वह
कहता है और
अफीम चाहिए।
कल तक अगर एक
थोड़े से अफीम
के हिस्से से
काम चलता था, कुछ दिनों
बाद दुगुनी
अफीम चाहिए।
और दिनों के
बाद और ज्यादा
अफीम चाहिए।
ऐसे
साधु हैं
गांजा—अफीम
खाने वाले कि
फिर अफीम और
गांजा असर
नहीं करते, तो
सांप पाल कर
रखते हैं।
उससे जीभ पर
कटवा लेते हैं,
तब कहीं नशा
पैदा होता है,
नहीं तो नशा
पैदा नहीं
होता। फिर और
ज्यादा नशा
चाहिए।
तो
आज अगर पंद्रह
मिनट राम—राम
जप किया था, कल
तीस मिनट
चाहिए। साल भर
बाद एक घंटा चाहिए।
फिर दो घंटा
चाहिए। फिर दस
घंटा चाहिए।
फिर दुकान
नहीं चल सकती—
राम—जप करो कि
दुकान करो—तो
फिर जंगल में
जाना चाहिए।
फिर सब छोड़ना
चाहिए।
क्योंकि अब वह
राम—जप जो वह
नशे की दौड़ की
तरफ बढ़ता जा
रहा है। अब
उसको जितनी
ज्यादा देर
करो उतना
जरूरी हो गया,
नहीं तो
उसके बाहर आओ
तो दुख मालूम
होता है। तो
फिर आदमी कहता
है हम तो अखंड
ही जप करेंगे—चौबीस
ही घंटे
करेंगे।
यह
पागलपन की
सीमाओं को
छूना है, इससे कुछ
आदमी के जीवन
में कोई जान
उत्पन्न नहीं
होता है। न
कोई समझ पैदा
होती है। और
जो कौम, और
जो देश इस तरह
के पागलपन में
पड़ जाते हैं
वे सब—कुछ
खोकर निस्तेज
हो जाते हैं।
हमारा देश एक
सीधा—सादा
जागता उदाहरण
है। हमारा देश
सारे प्राण, प्रतिभा, सारा तेज
खोकर निस्तेज
हो गया। वह इस
तरह की गलत
नासमझी की
बातों को के
कारण।
क्योंकि
प्रतिभा
विकसित नहीं
होती पुनरुक्ति
से।
पुनरुक्ति से
मुर्च्छा
विकसित होती
है। तो जो
कौमें भी
पुनरुक्ति की
तरकीब सीख
लेती हैं कि
कुछ दोहरा कर
नींद में चले
जाने की तरकीब
खोज लेती हैं......घर
में बच्चा
बीमार है, आप
बैठ कर राम—राम
जप कर नींद
में चले
जाएंगे—बच्चा
गया, दुनिया
गई, कोई
पता नहीं है
अब। नौकरी
नहीं मिल रही,
आप राम—राम
जप लेते हैं
और छुटकारा पा
जाते हैं। न
नौकरी की फिकर,
न खाने की
फिकर।
दरिद्र
कौमें, दीन—हीन
मुल्क धीरे—
धीरे इस तरह
की तरकीबें
खोजते चले
जाते हैं। और
इन तरकीबों के
कारण और दीन—हीन
होते चले जाते
हैं। क्योंकि
जीवन बदलता है
लड़ने और जूझने
से। जीवन
बदलता है उसके
सामने खड़े
होने से और
बदलने की
चेष्टा से।
जीवन ऐसा आंखें
बंद करके और
राम—राम जपने
से नहीं बदलता
है। ये सब
अफीम सिद्ध
होती हैं इस
तरह की सारी
बातें।
इसलिए
कोई नाम—जप
नहीं, कोई
मंत्र नहीं, कोई शब्द की
पुनरुक्ति
नहीं।
ध्यान
तो धीरे— धीरे
भीतर जो चेतना
है उसके जागरण
का नाम है।
उसे सुलाने का
नाम नहीं है।
भीतर मेरे जो
छिपा बैठा है
वह जागे, और
जागे, और
जागे, वह
इतना जागरूक
हो जाए कि मेरे
भीतर सोया हुआ
कोई हिस्सा न
रह जाए, मेरे
सारे प्राण
जाग्रत हो
जाएं। उस
जागरण की, उस
अवेयरनेस की
अवस्था का नाम
ध्यान है। सो
जाने का......पड़े
हैं और लोग कह
रहे हैं कि
समाधि आ गई है,
और मुंह से
फसूकर गिर रहा
है, और
चक्कर में, फिट में पड़े
हुए हैं और
लोग कह रहे
हैं कि समाधि
आ गई।
हिस्टीरिया
है और लोग समझ
रहे हैं कि
समाधि आ गई।
यह
ध्यान नहीं है
और न समाधि है।
ये सिर्फ रोग
हैं
हिस्टेरिक।
ये सिर्फ
बीमारियां
हैं मूर्च्छा
की। लेकिन
दुनिया ऐसी
पागल है और
ऐसी नासमझ कि
हिस्टीरिया
किसी को आ जाए
और बीमार हो
जाए तो यूरोप
में और अमरीका
में उसका इलाज
करेंगे, हम
चारों तरफ भजन—कीर्तन
करेंगे उसके
कि महाराज को
समाधि उत्पन्न
हो गई है।
दुनिया
समझदार होगी
तो इन सब
महाराजों की
सबका इलाज
करवाने की
व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
ये सब बीमार
हैं,
ये स्वस्थ
नहीं हैं।
इनका मानसिक
रोग है, मानसिक
तनाव का यह
अंतिम फल है।
यह कोई समाधि
नहीं है कि
मुंह से फसूकर
गिर रहा है और
वे घंटों
बेहोश पड़े हैं
और भक्तगण आस—पास
कीर्तन कर रहे
हैं कि इनको
समाधि हो गई
है।
समाधि
का मतलब है
परिपूर्ण
जागरण। समाधि
का मतलब
निद्रा और
बेहोशी और
मूर्च्छा नहीं
है। समाधि का
मतलब है प्राण
इतने जागरूक
हो गए हैं कि
भीतर कोई अंधकारपूर्ण
कोना नहीं रह
गया है, सब
प्रकाशित हो
गया है, भीतर
एक दीया जल
उठा है चेतना
का। समाधि का
मतलब सो जाना
और मूर्च्छा
नहीं है।
समाधि
का अर्थ है
जागृति, होश, अलर्टनेस।
वैसा व्यक्ति
तो जीवन भर
जागा हुआ जीता
है, प्रतिपल,
प्रतिक्षण,
प्रति
श्वास जागा
हुआ जीता है।
यह
सब समाधि नहीं
है। लेकिन अगर
किसी का दिमाग
खराब है और
किसी को हिस्टीरिया
आता हो और आस—पास
भक्तगण मिल
जाएं, तो वह भी
काहे को कहे
कि यह गड़बड़ है।
यह और ही
अच्छा हुआ। यह
और ही ठीक हुआ।
यह
चल रहा है
हजारों
वर्षों से। और
यह दुर्भाग्य
है कि यह कब तक
चलता रहेगा कुछ
कहा नहीं जा
सकता। हम इसको
चला रहे हैं।
मैं
किसी जप को, किसी
पुनरुक्ति को
ध्यान नहीं
कहता हूं।
ध्यान का मतलब
है मेरे भीतर
सोई हुई चेतना
जितनी तेजी से
जागने लगे। तो
उसी जागने की
कोशिश करना है।
अभी रात
भी हम जो
ध्यान करेंगे, तो
उसमें आपको सो
नहीं जाना है।
शरीर शिथिल कर
देना है, श्वास
शिथिल छोड़
देनी है, मन
शांत कर लेना
है, लेकिन
सो नहीं जाना
है, भीतर
परिपूर्ण
जागे रहना है।
इसीलिए मैंने
कहा कि बाहर
का सब सुनते
रहना आप, क्योंकि
अगर आप सुन
रहे हैं तो आप
जागे रहेंगे और
अगर आप नहीं
सुन रहे हैं
तो आपके सो
जाने की संभावना
है। नींद
अच्छी बात है,
नींद बुरी
बात नहीं है, लेकिन नींद
को ध्यान मत
समझ लेना।
नींद बहुत
अच्छी बात है।
नींद जरूर
लेनी चाहिए, लेकिन नींद
ध्यान नहीं है,
यह ध्यान
रखना चाहिए।
और
नींद न आती हो, तो
कोई जप वगैरह
का उपयोग करके
आप नींद ला
सकते हैं।
लेकिन उससे
कोई
साक्षातकार
हो जाएगा इस
भूल में नहीं
पड़ जाना चाहिए।
वह आप कर सकते
हैं, उसकी
कोई कठिनाई
नहीं है। जैसे
कोई आदमी नींद
की दवा खा
लेता है, वैसे
नाम—जप ले लें,
तो कोई
हर्जा नहीं है।
वह नींद की
दवा का काम
करेगा।
विवेकानंद
पहली दफा
अमरीका में जब
ध्यान की बात
कहे तो एक
अखबार ने एक
लेख लिखा और
उस लेख में
लिखा कि
विवेकानंद जो
कह रहे हैं वह
तो बड़ी अच्छी
चीज है, वह तो
नॉन—मेडिसिनल
टैंरक्येलाइजर
जैसा मालूम
होता है, कि
बिना दवा के
नींद की दवा
मालूम होती है।
नींद लाने की
अच्छी तरकीब
है।
तो
नींद लाना हो
तो बात दूसरी
है,
लेकिन
ध्यान लाना हो
तो बात बिलकुल
दूसरी है।
तो
यहां जो हम
प्रयोग कर रहे
हैं उसमें सब
शिथिल हो
जाएगा, सब
शांत जाएगा, लेकिन भीतर
पूरी तरह जागे
रहना है। उस
जागे रहने के
सूत्र पर कल
हम और बात
करेंगे, तो
वह स्पष्ट समझ
में आ सकेगा।
इस प्रयोग को
करने के पहले
दों—तीन बातें
खयाल में ले
लें। एक बात
तो यह कि बड़ा
सरल सा प्रयोग
है। आप कोई
बहुत कठिन काम
कर रहे हैं, ऐसा भाव न ले
लें मन में।
क्योंकि जिस
काम को हम
कठिन समझ लेते
हैं वह कठिन
हो जाता हैं—कठिन
होने के कारण
नहीं, हमारे
समझने के कारण।
जिस काम को हम
सरलता से लेते
हैं वह सरल हो
जाता है।
कठिनता हमारी
दृष्टि में
होती है।
तो
हमें समझाया
गया है हजारों
साल से कि
ध्यान बड़ी
कठिन चीज है।
यह तो किन्हीं
दुर्लभ लोगों
को उपलब्ध
होती है, यह तो
तलवार की धार
पर चलना है, और यह तो
फलां है और
ढिका है। इन
सब बातों ने
हमारे मन में
ऐसा भाव पैदा
कर दिया है कि
यह तो कुछ
लोगों का काम
है, यह
सबके लिए हो
नहीं सकता।
हमारे लिए तो
यही हो सकता
है कि भजन—कीर्तन
करें, राम—राम
जप करें, या
कहीं अपना कोई
अखंड पाठ बिठा
दें और माइक
लगा कर जोर—जोर
से चिल्लाएं
कि खुद का भी
लाभ हो, पास—पड़ोस
के लोगों का
भी लाभ हो, हमसे
यही हो सकता
है। यह ध्यान
वगैरह तो कुछ
थोड़े से लोगों
की बात है। यह
झूठी बात है।
ध्यान
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए संभव है।
ध्यान इतनी
सरल बात है कि ऐसा
कोई आदमी
खोजना ही कठिन
है जिसके लिए
ध्यान न हो
सके। लेकिन
उसकी तैयारी, उस
सरलता के भीतर
प्रवेश करने
की उसकी
भूमिका और
पात्रता उसे
इकट्ठी करनी
होती है। बहुत
सरल बात है, उतनी ही सरल
बात, जितनी
कि कोई सरल से
सरल बात हो
सकती है। कली
जैसे फूल बनती
है उतनी ही
सरल बात है कि
मनुष्य का
चित्त ध्यान
बन जाए, लेकिन
कली फूल बने
इसके लिए खाद
चाहिए, पानी
चाहिए, रोशनी
चाहिए। यह ठीक
है, उसकी
जरूरतें हैं।
ऐसे ही मन
ध्यान बने
इसके लिए कुछ
जरूरतें हैं,
उन्हीं
जरूरतों की हम
बात कर रहे
हैं।
कल
हमने शरीर की
जरूरतों की
बात की। आज
हमने बुद्धि, मस्तिष्क
से कैसे हम
पात्रता ले
आएं, मस्तिष्क
के जाल से छूट
सकें, उसकी
बात की। और कल
हम हृदय की
तीसरे केंद्र
की बात करेंगे।
हृदय और
मस्तिष्क
दोनों सुलझ
जाएं, तो
तीसरे केंद्र
पर हमारा
प्रवेश, पहुंचना
एकदम सरल हो
जाता है।
शायद
कुछ नये लोग
होंगे तो उनको
मैं कह दूं कि
अभी हम ध्यान
के लिए लेटेगे।
यह रात्रि का
ध्यान है, सोते
समय करने का
है, इसलिए
लेट कर करने
का है। तो सब
लोग अपनी—अपनी
जगह बना लें
और कोई किसी
को बिना छूए
हुए लेट जाए।
कुछ लोग यहां
ऊपर आ जाएं, कुछ आगे
फर्श पर आ
जाएं।
हां, बातचीत
नहीं करेंगे,
क्योंकि
बातचीत का
ध्यान से कोई
भी संबंध नहीं
है। हां, अपनी
जगह बना लें
और बातचीत
बिलकुल न करें।
क्योंकि जिस
काम के लिए हम
जा रहे हैं
उसका बातचीत
का क्या नाता
है। इधर आगे
हट आएं वहां
भीतर जगह न हो
तो, यहां
आगे दों—चार
लोग हट आएंगे।
लेकिन वहां
भीतर ऐसे न
पड़े रहें कि
वहां मुसीबत
में पड़े हैं
और किसी तरह
लेटे हुए हैं,
तो क्या
ध्यान हो
पाएगा। फिर
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
इसलिए अगर
आपको ठीक जगह
न मिली हो तो
आगे हट आएं।
(ठहर जाइए एक
मिनट। यह माइक
चलने देना।)
हां, जल्दी
आप कर लें
इंतजाम, ताकि
फिर प्रकाश
बुझाया जा सके।
(ठहर जाइए, अभी जला
रहने दें, सबको
लेट जाने दें।)
आप
लोग बैठे रहने
का इरादा है, जगह
नहीं है वहां,
तो यहां आगे
कुछ लोग हट कर
आ सकते हैं
जिनको जगह
नहीं है।
जगह
छोड़ना अपनी
बड़ी मुश्किल
बात होती है।
जो जिस जगह है
वहीं बैठा
रहना चाहता है, ऐसा
है न। ठीक है!
और खयाल रखें
कि आपके कारण
किसी दूसरे
व्यक्ति को
जरा भी बाधा न
हो। क्योंकि
आपको यह तो हक
है कि अपना
ध्यान खराब कर
लें, लेकिन
यह हक नहीं है
कि किसी दूसरे
का ध्यान खराब
हो। ठीक है!
प्रकाश बुझा
दें।
सबसे
पहले आंख को
धीरे से बंद
कर लें। आंख
बंद कर लें।
बहुत धीरे से आंख
बंद कर लें।
फिर सारे शरीर
को ढीला छोड़
दें। बिलकुल
ढीला, जैसे
शरीर में कोई
प्राण नहीं
हैं। बिलकुल
ढीला छोड़ दें।
शरीर को एकदम
शिथिल और ढीला
छोड़ दें। एकदम
शांत और ढीला
छोड़ दें, जैसे
शरीर में कोई
प्राण ही नहीं
हैं— शरीर
बिलकुल ढीला
छोड़ दिया गया।
फिर मैं सुझाव
दूंगा, मेरे
साथ अनुभव
करें।
शरीर
शिथिल हो रहा
है... अनुभव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
रिलैक्स हो
रहा है......ढीला
छूट रहा है...
धीरे— धीरे
शरीर विश्राम
को उपलब्ध हो
रहा है। शरीर
शिथिल हो रहा
है. .....शरीर
शिथिल हो रहा है...
शरीर शिथिल हो
रहा है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
बिलकुल शिथिल
होता जा रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो गया
है...।
श्वास
शांत हो रही
है... भाव करें, श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत होती जा
रही है... श्वास
शांत हो रही है......श्वास
बिलकुल शांत
हो गई है...।
भाव
करें, मन शांत
हो रहा है.. मन
मौन हो रहा है......मन
मौन हो रहा है......मन
मौन होता जा
रहा है......मन मौन
होता जा रहा
है......मन भी
बिलकुल मौन हो
गया है. .मन भी
शांत हो गया है...।
अब
दस मिनट के
लिए बिलकुल
शांत पड़े रह
जाएं। लेकिन
भीतर जागे
रहें, होश से
भरे रहें।
बाहर की कोई
भी ध्वनि हो
शांति से
सुनते रहें।
ध्यान रखें, सो नहीं
जाना है, जागे
रहना है।
शरीर
सो गया, मन सो
गया, लेकिन
हम जागे हुए
हैं। चुपचाप
सुनते रहें, कोई भी
ध्वनि हो
चुपचाप सुनते
रहें। सुनते
ही सुनते, सुनते
ही सुनते मन
एक बिलकुल
गहरे शून्य
में उतर जाएगा।
सुनें......दस
मिनट के लिए
चुपचाप सुनते
रहें...।
मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
बिलकुल शांत
हो गया है......मन
बिलकुल शांत
हो गया है......मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है.. मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है......मन
शांत हो गया है......मन
बिलकुल शांत
हो गया है......मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है...।
जागे
रहें, भीतर
होश से भरे
रहें। एक गहरे
सन्नाटे में
प्रवेश हो रहा
है। बिलकुल
होश से भरे
रहें। एक गहरी
शांति में
प्रवेश हो रहा
है।
मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है... और
गहरे डूब जाएं, और
गहरे डूब जाएं......मन
बिलकुल शांत
हो गया है...। एक
गहरा सन्नाटा
पैदा हो गया, एक बिलकुल
शून्य पैदा हो
गया। और गहरे
डूब जाएं, और
गहरे डूब जाएं,
बिलकुल
शून्य में चले
जाएं। मन
शून्य हो गया
है...।
अब
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें. .प्रत्येक
श्वास के साथ
और भी शांति
मालूम होगी।
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......फिर बहुत
आहिस्ता से आंख
खोलें......जैसी
शांति भीतर है
वैसी ही शांति
बाहर भी मालूम
होगी। धीरे—
धीरे आंख
खोलें, बहुत
आहिस्ता से आंख
खोलें। फिर
उतने ही
आहिस्ता से
धीरे— धीरे उठ
कर बैठ जाएं।
गड़बड़ न हो, सब
अपनी जगह
चुपचाप बैठ
जाएं। चुपचाप
अपनी जगह बैठ
जाएं।
यह
तो हमने
प्रयोग किया
समझने के लिए।
अभी रात सोते
समय इस प्रयोग
को करें और
फिर प्रयोग
करने के बाद
चुपचाप सो
जाएं। सोने के
पहले अपने
कमरे में जाकर
इस प्रयोग को
करें और
प्रयोग को
करके सो जाएं।
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