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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

साधना--सूत्र--(प्रवचन--15)

पूछोपवित्र पुरूषों से(प्रवचनपंद्रहवां)

सूत्र:

आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके,
बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीतकर,
जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पाकर और ज्ञान प्राप्त करके,
हे शिष्य,
वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा।
मार्ग मिल गया है
उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।

 10—पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—
उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।

 तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।


 11—पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से,
उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं।

 बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

सूत्र के पहले कुछ मित्रों ने थोड़े से प्रश्न पूछे हैं.. .सभी प्रश्न साधना के समय नग्न होने से संबंधित हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि नग्नता पर रोक क्यों लगाई गई है? क्या उसका उपयोग नहीं है?
नग्नता का तो बहुत उपयोग है। सिर्फ नग्नता, नग्नता ही नहीं है इसलिए। तुम्हारे वस्त्रों के साथ तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे संस्कार, सभी जुड़े हुए हैं। उन्हें उतार कर रखते ही वह सब भी, जो तुम्हारे ऊपर चढ़ा है वस्त्रों की भांति, उतार कर रख दिया जा सकता है। नग्न होने का भय ही यही है कि मैं जैसा हूं वैसा ही दिखाई न पड़ जाऊं।
बाह्य नग्नता तो प्रथम चरण है। वस्तुत: तो नग्न भीतर होना है, कि मैं जैसा हूं वैसा ही प्रकट हो जाऊं। कोई नकाब, कोई चेहरा, कोई मुखौटा, कोई ऊपर का आवरण, जो झूठा है, मेरे ऊपर न रहे। लेकिन मनुष्य चूंकि बाहर ही जीता है, इसलिए बाहर की नग्नता भी भीतर की नग्नता की तरफ सहयोगी होती है। नग्न होने में भय भी लगता है। क्योंकि वस्त्रों ने तुम्हें वह रूप दिया है, जो तुम्हारे शरीर पर नहीं है। वस्त्रों ने तुम्हें ढांक रखा है, वस्त्रों ने तुम्हें छिपा रखा है। दूसरे की आंखों से तुम वस्त्रों के कारण बच जाते हो।
नग्न खड़े होने का अर्थ है, मैं जैसा हूं बुरा—भला, सुंदर—असुंदर, वैसा प्रकट हूं और अपने को छिपाता नहीं हूं।
यह एक प्रतीक है। और सुबह के ध्यान में, दूसरे चरण में, जब कि मैं तुमसे कहता हूं कि जो भी तुम्हारे भीतर हो, उसे प्रकट कर दो, तो स्वभावत: वस्त्रों को फेंक देने का खयाल भी पैदा होता है। और वस्त्रों को जो उतार कर रख देता है, उसे दूसरे चरण में अपनी विक्षिप्तता को प्रगट करने में ज्यादा आसानी हो जाती है। क्योंकि जो नग्न होने को राजी हो गया, उसे अब दूसरे की चिंता नहीं है। अब वह चीख भी सकता है, चिल्ला भी सकता है, नाच भी सकता है। दूसरे की चिंता जैसे वस्त्रों के साथ ही उतर गई। दूसरे क्या कहेंगे, जिसको इस बात का भय है, वह तो वस्त्र भी नहीं उतार पाएगा। सहयोगी है कि वस्त्रों को उतार कर रख कर ही सुबह के ध्यान में प्रवेश किया जाए। लेकिन कुछ साधक उतना साहस नहीं भी कर पाते, तो बीच में भी दूसरे चरण में उन्हें ऐसा खयाल आ सकता है कि वस्त्र अलग कर दें, तब भी वस्त्रों को अलग कर देना उपयोगी है।
यह उपयोगिता अगर वस्त्र सिर्फ वस्त्र ही होते, तो न होती। वस्त्रों के साथ बहुत कुछ जुड़ा है। जब तुम बच्चे की भांति पैदा हुए थे तो नग्न थे। जब भी तुम पुन: नग्न खडे हो जाते हो, तुम अपने बचपन में वापस लौट जाते हो। वस्त्र तुम पर आरोपित किए गए हैं। जिस दिन से तुम्हारे ऊपर वस्त्र आरोपित किए गए, उसी दिन से तुम्हें शरीर का बोध हुआ। उसी दिन से शरीर में कुछ पाप है, शरीर में कुछ छिपाने योग्य है, शरीर में कुछ ढांकने योग्य है, शरीर में कुछ बुरा है, ये सारे भाव पैदा हुए। छोटे बच्चे को उसके मां—बाप, अगर वह नग्न बाहर आ जाए, तो डांटेंगे, डपटेंगे। तो शरीर के प्रति एक निंदा का भाव, वस्त्रों के साथ ही पैदा हुआ है।
शरीर में कुछ बुरा है, विशेष कर जननेंद्रिया बुरी हैं, छिपाने योग्य हैं। उसके साथ ही तुम्हारा शरीर भी दो हिस्‍सों में बंट गया है। नीचे का शरीर कुछ बुरा है और ऊपर का शरीर कुछ अच्छा! यह जो विभाजन है शरीर के भीतर, इसने तुम्हारी जीवन चेतना को भी दो खंडों में बांट दिया है। आमतौर से लोग अपने सिर को ही अपना मानते हैं, बाकी शरीर को अपना नहीं मानते! बहुत हुआ तो ऊपर के हिस्से को अपना मानते हैं, नीचे के हिस्से को ऐसा मानते हैं कि मजबूरी है। इससे तुम्हारे भीतर जो जीवन—ऊर्जा है, वह खंडित हो गई है। बच्चे के भीतर जीवन—ऊर्जा अखंड होती है, उसका वर्तुल होता है। तुम्हारे भीतर वह वर्तुल नहीं है। लेकिन जिस क्षण तुम साहस करते हो और वस्त्रों को उतार कर रख देते हो, उसी क्षण, वस्त्र पहनने के दिन से, वस्त्र जबर्दस्ती पहनाए जाने के दिन से, अब तक तुम्हारे चित्त पर जो—जो शरीर के संबंध में निंदा के भाव थे, वे भी हट जाते हैं।
तुम्हें खयाल ही न होगा कि हम इतने वस्त्रों में रहते हैं कि धीरे— धीरे हमें खुद भी भूल गया है कि वस्त्रों के बिना हमारा शरीर क्या है। वस्त्रों में हम एक कैद की तरह हैं, वस्त्र हटते ही हम मुक्त हो जाते हैं। पशु—पक्षियों की तरह मुक्त हो जाते हैं। उस मुक्तता का उपयोग किया जा सकता है।
इसलिए उपयोगिता तो बहुत है, लेकिन इस शिविर में मजबूरी थी। मजबूरी ऐसी थी कि या तो शिविर हो, तो नग्नता की सुविधा न हो सकेगी; नग्नता की सुविधा करनी हो तो शिविर न हो सकेगा। तो इन दोनों में जो कम बुराई थी, वही चुन लेनी उचित समझी। क्योंकि राजस्थान सरकार ने केवल दो दिन पहले खबर भेज दी कि वह अपने कोई मैदान, अपनी कोई संस्था, अपना कोई भवन नहीं दे सकेंगे। दो दिन पहले कोई भी व्यवस्था होनी मुश्किल थी। और साधक सारी दुनिया से आ चुके थे। भारत के साधक तो आने वाले थे, भारत के बाहर के साधक आ चुके थे। और कोई उपाय नहीं था। और सरकार को इतना तो हक है ही कि वह अपनी जमीन के लिए इंकार कर दे, कि वहां नग्न कोई नहीं हो सकेगा। उसके हक में भी कोई बुराई नहीं है, वह जमीन उनकी है, हमारे पास अपनी कोई जमीन नहीं है। यहां इस पैलेस होटल में जहां व्यवस्था की गई है, होटल व्यवस्थापकों की भी मजबूरी है, वे भी साहस नहीं जुटा सकते हैं कि नग्न होने का मौका दें। क्योंकि उनके लिए सवाल व्यवसाय का है।
तो इसलिए मजबूरी थी कि सुबह की नग्नता पर प्रतिबंध लगा देना पड़ा। लेकिन इससे आप यह न समझें कि हमने कोई साधना की पद्धति बदल ली है। और इससे आप यह भी न समझें कि सरकार के सामने कोई हम झुक गए हैं। ये सारी बातें नहीं हैं। न तो कोई झुकने का सवाल है, न कोई व्यवस्था बदलने की बात है। सरकार ने हमें एक सुविधा ही दी और उससे लाभ ही होगा कि हम अपनी ही व्यवस्था शीघ्र कर पाएंगे, जहां किसी का कोई प्रतिबंध न हो सके।
सरकार की अपनी मजबूरियां हैं, उसके ऊपर अपने दबाव हैं—समाज के, संस्कारों के, समूह के। लेकिन हमारी निजी व्यवस्था हो तो कोई दबाव डाला नहीं जा सकता। वह हमारी निजी व्यवस्था होगी। उसके भीतर जो नग्न होना चाहते हैं, वे हो सकते हैं। वह कोई पब्लिक, कोई सार्वजनिक जगह नहीं होगी। अब यह होटल है, सार्वजनिक जगह है, और लोग भी आ सकते हैं। तो जहां और लोग भी आ सकते हैं, वहां और लोगों का ध्यान भी रखना जरूरी है।
और फिर जीवन को बदलने की जो भी प्रक्रियाएं हैं, वे आमतौर से हमेशा ही समूह के विपरीत पड़ जाती हैं। नग्नता का ही सवाल नहीं है, नग्नता तो केवल प्रतीक है, हम जो भी कर रहे हैं, वह समूह की धारणाओं के प्रतिकूल पड़ेगा ही। क्योंकि समूह जीता है अंधे की भांति बिना सोचे—समझे। समूह जीता है परंपरा की लीक पर। जो परंपरा कहती है, उसे ठीक मानता है। चाहे उसे ठीक मानने के कारण उसे कितना ही दुख झेलना पड़ता हो। उसे खयाल भी नहीं होता कि मेरी मान्यताएं ही मेरे दुख का कारण हैं। जो लोग भी जीवन में क्रांति करने को उत्सुक हैं, उन्हें समूह की धारणाओं के पार तो उठना ही पड़ता है।
संन्यास का यही अर्थ है। संन्यास का अर्थ समाज को छोड़ना नहीं है, क्योंकि समाज को तो छोड़ा जा नहीं सकता। संन्यास का अर्थ है, समाज की धारणाओं के पार उठना। वह जो समाज जिसको ठीक समझता है, अगर वह अनुभव से ठीक मालूम पड़े तो ही मानना, अगर अनुभव से ठीक न मालूम पड़े, तो उससे भिन्न की खोज करना।
लेकिन फिर भी बुद्धिमान व्यक्ति को यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिनके बीच हम जीते हैं, उनकी मान्यताएं, उनकी धारणाएं, हम अपने लिए तो छोड़ सकते हैं, लेकिन उनकी धारणाओं को हम तोड़े, वह उचित नहीं है। हम अपने लिए उनकी धारणाएं तोड़ सकते हैं, हम धारणाओं से मुक्त हो सकते हैं। वह हमारी निजी स्वतंत्रता है। लेकिन मैं आपसे नहीं कहूंगा कि आप सड़क पर जा कर नग्न खड़े हो जाएं, क्योंकि सड़क आपकी नहीं है। और सड़क के आसपास रहने वाले जो लोग हैं, उनको किसी भी बात से दुख हो, ऐसा कोई भी काम करना उचित नहीं है। लेकिन मैं सड़क के लोगों से भी कहना चाहता हूं कि उनका भी यह हक नहीं है कि कोई एकांत निर्जन में अपनी व्यवस्था के भीतर नग्न खड़ा हो, तो वह उसमें अड़चन पैदा करें। व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य होना जरूरी है।
लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता का कभी भी यह अर्थ नहीं है कि वह स्वतंत्रता स्वच्छंदता हो जाए। तुम्हें मैंने अगर कहा भी है कि सुबह के ध्यान में नग्न हो सकते हो, तो वह तुम्हें कोई नग्न होने की छूट नहीं दे दी है कि तुम कहीं भी नग्न हो सकते हो। और अगर तुम कहीं भी नग्न होना चाहो, तो उसका अर्थ ही यह हुआ कि तुम्हें ध्यान में रस नहीं है, तुम्हें नग्नता में रस है। वह रोग है। फिर तो रोग हो गया, उलटा रोग हो गया। कोई वस्त्रों के दीवाने हैं, तुम नग्नता के दीवाने हो गए। उसमें कुछ फर्क न रहा। नासमझी उलटी हो गई। तुम शीर्षासन करके खड़े हो गए। कोई पागल है, वह कहता है, वस्त्र उतारना नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए।
मैंने एक ईसाई साध्वी के संबंध में पढ़ा है कि वह अपने स्नानगृह में भी वस्त्र पहन कर ही स्नान करती थी! तो उसके साथियों—संगियों ने कहा कि तू बिलकुल पागल है, स्नानगृह में तेरे अतिरिक्त तो कोई होता नहीं, तो वहां कपड़े पहन कर स्नान करने का क्या अर्थ है? स्नान का तो मजा ही चला गया! तो उस साध्वी ने कहा कि जब से मैंने बाइबिल में यह पढ़ा है कि परमात्मा तुम्हें सब जगह देख रहा है, तब से मैं बाथरूम में भी नग्न नहीं हो पाती।
यह एक पागलपन है। और अगर परमात्मा सभी जगह देख रहा है, तो कपड़ों के भीतर नहीं देख सकेगा? उसे कपडे क्या अड़चन देंगे? जब दीवाल अड़चन नहीं दे रही है, तो कपड़े क्या अड़चन देंगे? और परमात्मा भी कोई पीपिंग टीम है कि हर किसी के बाथरूम में झांक रहा है! तो रुग्ण है फिर तुम्हारा परमात्मा भी।
आदमी खुद रुग्ण हो तो वह अपने परमात्मा को भी रुग्ण कर लेता है। तुम्हारे रोग तुम्हारे देवी— देवताओं पर हावी हो जाते हैं। क्योंकि तुम्हारे ईश्वर की धारणा भी तुम्हीं तो निर्मित करते हो। अगर घोड़े ईश्वर की धारणाएं बनाएं, तो उसका चेहरा आदमी जैसा नहीं बनाएंगे, घोड़े जैसा ही बनाएंगे। अगर नीग्रो ईश्वर बनाते हैं तो वे उसको काला ही चित्रित करते हैं। उनके ईश्वर के ओंठ नीग्रो के ओंठ होते हैं, उनके ईश्वर के नीग्रो के बाल होते हैं। अगर चीनी ईश्वर को बनाते हैं, तो उसकी गाल की हड्डियां निकालते हैं, चपटी नाक रखते हैं।
हम अपने ईश्वर को अपनी ही शकल में बनाते हैं। तो हमारे जो रोग होते है, वे हमारे ईश्वर पर भी हावी हो जाते हैं। अब ये आदमी एक—दूसरे के बाथरूम में झांक कर जरूर देखना चाहते हैं। यह आदमी का रोग है। ये ईश्वर भी ऐसा बना लेते हैं, जो सब जगह झांक रहा है!
नग्न होने का मोह अगर पैदा हो जाए, तो वह भी रोग है, बीमारी है। ध्यान रहे, आपका नग्न होना एक बात है। और आप दूसरों को नग्न हो कर दिखाएं, यह दूसरी बात है। इन दोनों में फर्क है। आप का नग्न होना सहज हो सकता है। लेकिन आप नग्न हो कर दूसरे को दिखाने में उत्सुक हों कि कोई देखे, तो मनोविज्ञान में उसे वे कहते हैं, एक्जिबीशनिस्ट। वह प्रदर्शनवादी जो है, वह रोगी है।
इसे थोड़ा समझें। मनोविज्ञान दो तरह की बीमारियां बताता है इस संबंध में। एक को वह कहता है, व्योरिज्म— दूसरा नग्न हो, ऐसा देखने में रस लेना। एक को कहता है, एक्जिबीशनिज्म— हम नग्न हों और दूसरे देखें, इसमें रस लेना। ये दोनों बीमारियां हैं। ये दोनों सहज नहीं हैं। पुरुष अक्सर वोयूर होते हैं। पुरुषों को जो बीमारी होती है, वह झांक कर स्त्रियों को देखने की होती है। स्त्रियां एक्जिबीशनिस्ट होती हैं। उनकी जो बीमारी होती है, वह यह होती है कि उन बूढ़ो कोई झांक कर देखे। इसलिए स्त्रियां सारा उपाय करती हैं। ऐसे वस्त्र पहनती हैं, ऐसे गहने लगाती हैं, ऐसा सारा इंतजाम करती हैं कि कोई देखे। और पुरुष सारा इंतजाम करते हैं कि किस भांति देखें। मगर ये दोनों रोग हैं।
और आप जान कर हैरान होंगे कि दोनों रोग ही वस्त्रों के कारण पैदा हुए हैं। अगर आप एक आदिवासी समाज में चले जाएं, जहां पुरुष—स्त्रियां नग्न हैं, तो न तो वहां वोयूर होता है, और न एक्जिबीशनिस्ट होता है। वहां न तो कोई देखने में उत्सुक होता है, क्योंकि देखने को बचा क्या है? जिसमें उत्सुकता रखो। सभी नग्न हैं, देखने को है क्या? देखने की उत्सुकता तो जब कुछ छिपाया हो, तब होती है। जब बातें खुली ही हों, तो देखने को क्या है? तो आदिवासी समाज में, जहां स्त्री—पुरुष नग्न हैं, न तो कोई देखने में उत्सुक है, न कोई दिखाने में उत्सुक है। देखने—दिखाने का रोग वस्त्रों के साथ पैदा हुआ है। फिर रोग कितना बढ़ सकता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
कितने चित्र, कितनी कहानियां, कितनी फिल्में, कितनी पत्रिकाएं, सिर्फ इसलिए छपती हैं और बिकती हैं कि उनमें नग्न चित्र छपते हैं। और सारी दुनिया की सरकारें रुकावट लगाती हैं कि यह न हो। लेकिन यह नहीं रुक पाता। अंडर—ग्राउंड प्रेस हैं, भारी प्रचार चलता है, करोड़ों रुपए का साहित्य नीचे— नीचे बिकता रहता है। कोई दुनिया की ताकत उस पर रोक लगा नहीं पाती। बल्कि जितनी रोक लगाई जाती है, उतना ब्लैक—मार्केट में वह सारा का सारा साहित्य बिकता है।
पर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आदमी क्यों किसी को नग्न देखने में इतना उत्सुक है?
आप जान कर चकित होंगे कि आप उन्हीं हिस्सों को देखने में उत्सुक होते हैं, जो ढंके हैं। जो उघडे हैं, उनको देखने में उत्सुक नहीं होते। जिन लोगों ने वस्त्रों की ईजाद की, शायद आप सोचते होंगे कि वे लोग कामवासना के बड़े विपरीत थे, इसलिए ईजाद किए, तो आप गलती में हैं। जिन्होंने वस्त्रों की ईजाद की, उन्होंने आदमियों को कामातुर बनाने का बड़ा भारी उपाय किया। क्योंकि जो अंग छिपा दिए गए हैं, उनमें बहुत रस पैदा हो गया है, रूग्‍ण रस पैदा हो गया है। इस रस का कोई भी कारण नहीं है, शरीर सहज बात है। लेकिन उसको छिपा—छिपा कर हमने, निषेध कर—कर के बहुत रस पैदा कर दिया। सारी दुनिया इस रस से ग्रस्त हो गई है।
तो आप दोनों बातें खयाल रखें। न तो दूसरे को नग्न देखने में उत्सुकता लेनी कोई समझदार व्यक्ति की बात है। और न ही कोई उसे नग्न देखे, इसमें कोई रस लेना किसी समझदार व्यक्ति की बात है। ये दोनों रोग हैं। और ये दोनों रोग आपके वस्त्रों के साथ ही रख दिए जाने चाहिए। तो ही आपकी नग्नता में अध्यात्म प्रविष्ट होता है। तो ही आपकी नग्नता अश्लील नहीं रह जाती।
लेकिन यह तो आपकी बात है। समाज इसके लिए राजी होगा, जरूरी नहीं है। क्योंकि समाज तो उन्हीं रुग्ण बातों से भरा हुआ पड़ा है। अखबार राजी होंगे, यह सवाल नहीं है। अखबार छापने वाला, पत्रकार, वे सब उन्हीं रुग्ण बातो से भरे पड़े हैं। उनकी भी तकलीफ वही है, उनकी भी अड़चन वही है। सरकार राजी हो जाएगी, ऐसा नहीं है। क्योंकि सरकार के पदों पर जो लोग बैठे हैं, उन्हें कोई अध्यात्म की जरा सी भी झलक होती, तो वहां नहीं होते, कहीं और होते। इसलिए वे कोई राजी हो जाएंगे, यह सवाल नहीं है। उनको राजी करने की कोई जरूरत भी नहीं है, कोई प्रयोजन भी नहीं है। उनकी तरफ ध्यान भी देने की जरूरत नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन इतना तो तय है कि वे बाधा और अड़चन डाल सकते हैं। लेकिन बाधा और अड़चन वे तभी डाल सकते हैं, जब आप भी नग्नता को रोग की तरह पकड़ लें। नहीं तो वे भी बाधा और अड़चन नहीं डाल सकते। यह हमारी निजी साधना की बात है, और निजी स्थल पर है।
मैं तो पक्ष में नहीं हूं कि इस बात के भी कि जैन मुनि भी सड़क पर नग्न निकलें। क्योंकि सड़क निकलने वाले की ही नहीं है, सड़क पर जो लोग रहते हैं, उनकी भी है; जिनको दिखाई पड़ता है, उनकी भी है। अगर वे नहीं देखना चाहते हैं, तो उनकी आंखों पर हमला करना उचित नहीं है। वे ठीक हैं या गलत, यह सवाल नहीं है। लेकिन आख मेरी है और मैं आपको नग्न नहीं देखना चाहता हूं तो आपको ऐसी जगह खड़े नहीं होना चाहिए, जहां से आप मुझे नग्न दिखाई पड़े। और आप ऐसी जगह खड़े होते हैं, तो उसका मतलब ही यह है कि आपको नग्न होने में रस कम है, कोई आपको नग्न देखे, इसमें ज्यादा रस है। तब तो बात ही व्यर्थ हो गई। तब तो यह हुआ कि हम एक रोग को छोड़ कर दूसरे रोग में पड़ गए। कुएं से बचे तो खाई में गिर गए।
मैं कोई नग्नतावाद का प्रचारक नहीं हूं। लेकिन नग्नता का एक उपयोग हो सकता है साधना में, उसमें जरूर मेरी सहमति है। लेकिन समाज का ध्यान रखना सदा ही जरूरी है। इसलिए नहीं कि आप समाज से कोई डरते हैं, यह डर का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन यह तो ऐसा ही हुआ कि जैसे कोई हार्न बजा रही हो बस और आप सामने ही खड़े रहें, कि हम डरते थोड़े ही हैं, जो रास्ते से हटें? तो आप पागल हैं। हार्न बज रहा हो और बस आ रही हो, तो कोई डर की वजह से थोड़े ही हटता है। कि जो हट जाए उसको आप कहेंगे कि डरपोक हो, क्योंकि जब बस आ रही थी, तब आप हटे क्यों? जब हार्न बज रहा था, तब खड़े रहना था। तो कोई पागल होता तो खड़ा रहता।
जीवन में झुकने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन जीवन में व्यर्थ अकड़े रहने की भी कोई जरूरत नहीं है, और दोनों के बीच मार्ग खोज लेना जरूरी है।
इसलिए यहां जो एक ही उपाय था कि शिविर हो सकता, तो नग्नता पर रोक लगानी—जरूरी थी, होगा। थोड़ी बाधा तो पड़ेगी ही, लेकिन उस बाधा से इतना नुकसान नहीं होगा, जितना शिविर के न होने से होता। और मैं किसी भी मामले में अंधा नहीं हूं। और किसी भी मामले में मुझे किसी तरह का पागलपन नहीं है। जो उचित हो, और जो सुगम हो, और जिस भांति अधिक लोगों को लाभ हो सके, सदा उस पर ही विचार कर लेना उचित है।
'आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत कर, जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पा कर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।

दसवां सूत्र, ' पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं। तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।
सवां सूत्र बहुत विचारणीय है। लंबी यात्रा के बाद, जिन सूत्रों की हमने बात की है, उनको समझ कर और उनको जीने के बाद, दसवें सूत्र पर प्रयोग किया जा सकता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले तो यह बात ही बड़ी अजीब लगेगी, यह सूत्र बेबूझ मालूम पड़ेगा। कोई बहुत ही ज्यादा समझने की कोशिश करेगा, तो सोचेगा कि काव्य की बात है, सुंदर है, प्रतीक है। लेकिन यह काव्य नहीं है और न ही प्रतीक है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। पर यह तथ्य विज्ञान का, सारे प्रयोग कर चुके हैं तो ही खयाल में आ सकता है।
'पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से— उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।
यह अध्यात्म की गुह्य विद्या के कुछ बुनियादी आधारों में से एक है। इसे हम समझें।
इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम सत्य की उदघोषणा होती है, वह शास्त्रों में तो संगृहीत होती ही है, लेकिन वह अस्तित्व में भी संगृहीत हो जाती है। शास्त्रों में तो भूल भी हो सकती है, क्योंकि आदमी संगृहीत करता है। लेकिन अस्तित्व में कोई भूल नहीं हो सकती, क्योंकि कोई संगृहीत करता नहीं, संगृहीत होती है।
बुद्ध बोले। पहला वचन बोधि—वृक्ष के नीचे प्रकट हुआ। उसके भी पहले बुद्ध को जो ज्ञान की परम—अवस्था हुई, वह बोधि—वृक्ष के नीचे घटित हुई। बौद्धों ने उस बोधि—वृक्ष को बचाने की कोशिश की है। वही बोधि—वृक्ष अब भी जीवित है। उसकी एक शाखा अशोक ने अपनी बेटी संघमित्रा और अपने बेटे महेन्द्र के हाथ लंका भेजी। बौद्ध भिक्षुओं ने, जो भविष्य में झांक सकते थे, उनको यह प्रतीति थी कि भारत में बौद्ध— धर्म बचेगा नहीं। बुद्ध ने भी घोषणा की थी कि मेरा धर्म अब पांच सौ वर्ष से ज्यादा भारत में न बच सकेगा। कारण? कारण था स्त्रियों का संघ में प्रवेश।
बुद्ध ने बहुत समय तक, स्त्रियों को संन्यास न दिया जाए, इसकी जिद्द पकड़े रखी। बहुत समय तक, वर्षों तक बुद्ध टालते रहे, कि स्त्रियों को संन्यास न दिया जाए। बौद्ध भिक्षुओं का संघ सिर्फ पुरुषों के लिए हो। लेकिन इसमें थोड़ी ज्यादती मालूम पड़ती थी। थी भी। और अनेकों, लाखों स्त्रियां भिक्षुणी होने को तैयार थीं, और उनकी प्रार्थना बढ़ती चली गई। और आखिर उनके दबाव में, और उनके प्रति करुणा के वश, बुद्ध राजी हुए। और बुद्ध ने स्त्रियों को संन्यास दिया। जिस दिन उन्होंने स्त्रियों को दीक्षा दी, उसी दिन उन्होंने कहा कि अगर मैं स्त्रियों को संघ में दीक्षा न देता, तो जो धर्म हजारों वर्ष चल सकता था, वह अब केवल पांच सौ वर्ष चलेगा।
मैं भी बहुत सोचता था कि बुद्ध ने थोडी ज्यादती की, इतनी देर तक स्त्रियों को रोकना उचित न था। लेकिन जैसे—जैसे स्त्रियों से मेरा संपर्क बढ़ रहा है, वैसे—वैसे मुझे लगता है कि शायद उन्होंने ठीक ही किया था।
स्त्रियों की जो भाव—दशा है, उनके काम करने का जो ढंग है, वह पुरुषों से बहुत भिन्न है। और उसके कारण, अकारण ही बहुत से उपद्रव खड़े हो जाते हैं, जिनसे कि बचा जा सकता था। और वे उपद्रव इस ढंग से खड़ा करती हैं, और इतना जाल बुन लेती हैं, भावना का, कल्पना का, और उसको इतना सत्य मान लेती हैं कि उन्हें उस कल्पना के बाहर खींचना मुश्किल है। वह दूसरों को भी अपने कल्पना—जाल में फंसा डालती हैं। स्त्री और पुरुष के विचार का काम भिन्न है, विपरीत है।
पुरुष चलता है बुद्धि से, विचार से, तर्क से; तो उसके काम में एक व्यवस्था होती है, एक योजना होती है। स्त्रियां चलती हैं भाव से, कल्पना से, स्वप्न से; उनके काम में कोई व्यवस्था और कोई योजना नहीं होती। फिर तर्क और बुद्धि में तो दस लोग साथ राजी हो सकते हैं, कल्पना में कोई राजी नहीं हो सकता। कल्पना आपकी निजी होती है, तर्क सामूहिक हो सकता है। अगर मैं कोई तर्क दूं तो हम निर्णय कर सकते हैं कि किस तरफ राजी हो जाना है। लेकिन अगर भावना की ही बात हो, तो निर्णय का कोई उपाय नहीं रहता। भावना निजी होती है।
इसलिए स्त्रियां कभी संघबद्ध नहीं हो पातीं। चार स्त्रियों को भी इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है। स्त्रियों की कोई सेना खड़ी करनी हो तो असंभव है। क्योंकि हर स्त्री सेनापति बन जाएगी, सैनिक नहीं बन सकती। और हर स्त्री आदेश जारी कर देगी, और आदेश मानने वाला कोई भी नहीं होगा। और हर स्त्री अपनी बात में इतनी दृढ़ होगी कि झुकने को भी राजी नहीं हो सकती। और झुकाने का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि तर्क का तो कोई सवाल ही नहीं है। तर्क में तो सुविधा है कि हम सोच— विचार कर लें, कोई निष्कर्ष निकाल लें, कि क्या ठीक है। लेकिन भावना में कोई सुविधा नहीं है। दस— पच्चीस स्त्रियां इकट्ठी हो जाएं, तो वे इतना उपद्रव मचा सकती हैं, जितना कि पचास हजार पुरुष भी इकट्ठे हो कर नहीं मचा सकते। और काम करने की प्रक्रिया भिन्न है, ढंग भिन्न है।
इसलिए कभी—कभी तो मैं भी सोचता हूं कि बुद्ध ठीक थे। उन पर जोर देना शायद उचित नहीं हुआ। पहले मैं सोचता था कि यह करुणा नहीं है उनकी, क्यों स्त्रियों को रोकते हैं? अब मैं सोचता हूं कि शायद यही करुणावान हुआ होता कि स्त्रियों को वे रोक देते, तो धर्म उनका हजारों साल रह जाता। वह करुणा ज्यादा होती, कि स्त्रियों को दीक्षा दे कर पांच सौ साल में नष्ट हो जाए, यह करुणा ज्यादा होती—कहना मुश्किल है।
अशोक ने अपने बेटे और अपनी बेटी को बोधि—वृक्ष की एक शाखा ले कर लंका भेजा, ताकि यह बोधि—वृक्ष सुरक्षित रह सके। क्योंकि भारत में जिस दिन बुद्ध धर्म समाप्त होगा, उसी दिन बोधि— वृक्ष भी जला दिया जाएगा, तोड़ दिया जाएगा, मिटा दिया जाएगा— सूख जाएगा। वह बोधि—वृक्ष लंका में जिंदा रहा। और अभी कुछ ही वर्ष पहले उसमें से फिर शाखा ला कर वापस बोधि—वृक्ष को बुद्ध गया में पुनर्स्थापित किया।
इस वृक्ष के पीछे इतने लगाव का कारण सिर्फ भावना का नहीं है। इस वृक्ष ने बुद्ध के जीवन में जो परम—प्रकाश हुआ, वह अंकित किया है अपने में। यह वृक्ष उस प्रकाश को पी गया है। बुद्ध के अस्तित्व में जो विस्फोट हुआ, वह इस वृक्ष के रोएंरोएं में समा गया है।
तो आदमी ने जो संग्रह किया है बुद्ध के बाबत, उसमें तो भूलें हैं। भूलें होंगी। बड़ी कठिनाई है। बुद्ध बोलते हैं, तो भी पच्चीस सुनने वाले पच्चीस अर्थ निकालते हैं। बुद्ध के मर जाने के बाद इकट्ठा हुआ संघ, बुद्ध की वाणी इकट्ठी करने को, तो बड़ी अड़चन आई, कोई तालमेल न था। जो लोग सदा से उनके साथ रहे थे, उनमें भी भेद था। वे कहते, यह कभी कहा नहीं। कोई कहता था, यह उन्होंने सदा कहा। कोई कहता था, उसका यह अर्थ है। कोई कहता था, उसका यह अर्थ हो ही नहीं सकता। बड़ी कठिनाई थी। फिर किसी तरह सब के बीच छान—बीन कर जो सब में ताल—मेल खाता था, वह इकट्ठा किया गया।
अगर बुद्ध आएं तो उसे बिलकुल इंकार कर देंगे, क्योंकि वह मौलिक है ही नहीं। पहले तो पचास लोगों ने इकट्ठा किया, फिर उसमें भी जिन—जिन में तालमेल नहीं खाता था, वे हिस्से अलग कर दिए। फिर सबकी बात जिसमें सहमति होती थी, वह इकट्ठी कर ली। अगर बुद्ध आएं, तो वे कहेंगे, यह तो मैंने कभी कहा नहीं।
ऐसा ही समझें कि मैं यहां कुछ बोल रहा हूं फिर आप सब लोगों का मंतव्य लिया जाए कि मैंने क्या कहा है। फिर उसमें से सार निकाला जाए, जिसमें कोई नाराज न हो, कोई असहमत न हो, ऐसा सार—बिंदु खोजा जाए। तो आप इतना पक्का समझ लें कि वह कुछ भी हो, जो मैंने कहा है, वह नहीं हो सकता है। क्योंकि आप इतने लोग मिल कर उसको नष्ट ही कर देंगे।
लेकिन यह बोधि—वृक्ष के पास तो कोई मन नहीं है, यह बोधि—वृक्ष तो मौन, मूक है। इसके नीचे जो बुद्धत्व की घटना घटी, वह इस बोधि—वृक्ष में प्रविष्ट हो गई है। न केवल बोधि—वृक्ष में, बल्कि पास से बहती निरंजना में भी वह समाविष्ट हो गई है। उस पृथ्वी में जिसके पास इतना ज्वलंत प्रकाश हुआ, उस पृथ्वी के कणों में भी समाविष्ट हो गई। उस आकाश में जो उसका गवाह और साक्षी हुआ, उसमें भी प्रविष्ट हो गई।
यह सूत्र यह कह रहा है कि ' आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत कर, जीवात्माओं की इच्छाओं पर विजय पा कर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।
' पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से— उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।
शास्त्रों से पूछने की जरूरत इसीलिए है कि हम अस्तित्व से पूछने की कला नहीं जानते हैं। अन्यथा बोधि—वृक्ष कहेगा कि क्या हुआ। अन्यथा निरंजना नदी कहेगी कि क्या हुआ। अन्यथा यह पृथ्वी कहेगी कि क्या हुआ। बुद्ध जब इस पृथ्वी पर चले, महावीर जब इस पृथ्वी पर बैठे, कृष्ण जब इस पृथ्वी पर नाचे, तो इस पृथ्वी की क्या संजोई हुई स्मृतियां हैं।
अब तो धीरे— धीरे इसके वैज्ञानिक आधार भी मिलते जाते हैं। इसलिए यह बात समझनी आसान हो सकती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जैसे अभी मैं बोल रहा हूं तो जो मैं बोल रहा हूं वह वाणी कभी भी खोएगी नहीं। वह खो नहीं सकती, वह गूंजती ही रहेगी, गूंजती ही रहेगी—वायु की तरंगों में मौजूद रहेगी। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक कहते हैं, ऐसे यंत्र के बनने की संभावना है कि हम अतीत की वाणियों को पकड़ सकें। कृष्ण ने सच में ही गीता युद्ध के मैदान पर कही है या नहीं कही है, इसका निर्णय हो सकेगा। क्योंकि जो वाणी है, वह नष्ट नहीं होती, वह गूंजती रहती है। सूक्ष्म हो जाती है, लेकिन गूंजती रहती है। सूक्ष्मतर हो जाती है, लेकिन गूंजती रहती है। उसको पकड़ा जा सकता है।
ऐसा समझें कि अगर न्यूयार्क से रेडियो स्टेशन कुछ घोषणा करता है, तो आप यहां सुनते हैं। लेकिन न्यूयार्क से यहां तक आने में समय लगता है। अगर न्यूयार्क में दो मिनट पहले घोषणा की गई, तो आप दो मिनट बाद सुनते हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि जो बात दो मिनट पहले हुई, वह दो मिनट बाद सुनी जा सकती है। अतीत की बात हो गई वह। वह घटी दो मिनट पहले थी, सुनी दो मिनट बाद गई।
अगर दो मिनट बाद सुनी जा सकती है, तो दो दिन बाद क्यों नहीं? क्योंकि सैद्धांतिक रूप से तो बात साफ हो गई कि अतीत भी पकड़ा जा सकता है। दो मिनट पहले जो हुआ था, वह दो मिनट बाद पकड़ा जा सकता है। तो दो दिन बाद क्यों नहीं? थोड़े और विस्तीर्ण यंत्र चाहिए, तो दो दिन बाद भी पकड़ा जा सकेगा। जब तक रेडियो नहीं था, तो हम दो मिनट बाद भी नहीं पकड़ सकते थे। अब हम दो मिनट बाद पकड़ सकते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इस पर काम चल रहा है। और वे कहते हैं कि असंभावना नहीं है कि हम अतीत को, दो हजार साल, दो लाख साल पहले भी जो वाणी प्रकट हुई हो, उसे हम पकड़ने में समर्थ हो जाएं। जटिलताएं हैं, लेकिन वाणी मौजूद है।
यह सूत्र उसी की बात कह रहा है। विज्ञान किस दिन पकड़ेगा पता नहीं। लेकिन जो व्यक्ति बाह्य इंद्रियों और अंतर इंद्रियों को विजय कर लेता है, इन सारे सूत्रों पर चल कर जो शून्य में विराजमान हो जाता है, जो ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, वह व्यक्ति बिना किसी यंत्र के भी, सिर्फ ध्यान अपना फोकस कर ले, सिर्फ शांत हो जाए, और अपने ध्यान को अतीत में ले जाए, और उस जगह केंद्रित कर लें, जहां कृष्ण ने गीता कही, तो पुन: अंतर्वाणी में गीता सुनी जा सकती है।
क्योंकि उस अंतर—जगत के लिए समय का कोई फासला नहीं है। वहां समय है ही नहीं। वहां कोई स्थान का फासला नहीं है, वहां कोई स्थान है ही नहीं। वह जो भीतर का केंद्र है, वह सनातन है। उस जगह से आप अतीत में जा सकते हैं और भविष्य में भी। तो फिर वायु में जो रहस्य छिपे हों, वह आपको पता चल जाएंगे।
यह सूत्र कहता है, पूछो वायु से, पूछो पृथ्वी से, पूछो जल से—इन तीनों ने बहुत से रहस्य छिपाए हुए हैं।
हिंदुओं ने अपने मंदिर नदियों के किनारे बनाए हैं, खास कारणों से। क्योंकि हिंदुओं के साधना— स्थल सभी नदियों के किनारे थे। वह भी खास कारणों से। हिंदुओं के सभी तीर्थ नदियों के किनारे हैं, वह भी खास कारणों से। हिंदू—साधना की जो गहनतम प्रक्रियाएं हैं, हिंदू ऋषि—महर्षियों ने जल में उनको संरक्षित किया है, इसलिए तीर्थ इतने मूल्यवान हैं।
लोग तो नासमझी की तरह यात्रा करते रहते हैं, गंगा की, जमुना की। चले जाते हैं तीर्थों में, संगम पर पहुंच जाते हैं, मेले जुटा लेते हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं है कि जब प्राथमिक रूप से यह घटना शुरू हुई थी, तो इसके पीछे बड़े रहस्य थे। गंगा में हिंदुओं ने अपने जीवन—रहस्य के अनुभवों का सब कुछ हू' छिपाया हुआ है। और जो व्यक्ति भी गंगा से पूछने में समर्थ हो सकता है, उसे उत्तर उपलब्ध हो जाएंगे।। तो गंगा के किनारे जा कर बैठ जाना, कोई परंपरागत बात ही नहीं है, गंगा के किनारे बैठना बड़ा अर्थपूर्ण है।
जैनों ने अपने सारे मंदिर और सारे तीर्थ पहाड़ों पर बनाए हुए हैं, जान कर। क्योंकि नदियों के किनारे हिंदुओं ने अपनी धारणाओं को काफी दूर तक प्रविष्ट किया था। और दोनों के मिश्रित होने की और दोनों के एक—दूसरे में उलझ जाने की संभावना थी। तो जैनों ने अपने सारे तीर्थ पहाड़ों पर चुने हैं। और पर्वतों में उन्होंने अपनी धारणा को आविष्ट किया है।
एक छोटे से पहाड़ पर, पार्श्वनाथ हिल पर, जैनों के बाईस तीर्थंकरों ने देह—त्याग की। चौबीस में से बाईस! आकस्मिक नहीं हो सकता। चौबीस तीर्थंकरों में से, हजारों साल की यात्रा में, बाईस तीर्थंकर एक ही पर्वत पर जा कर देह को त्याग करें! वे दो भी नहीं कर पाए तो कुछ आकस्मिक दुर्घटनाओं के कारण। अन्यथा योजना यही थी कि चौबीस के चौबीस तीर्थंकर एक ही पर्वत पर देह को त्याग करें। क्योंकि देह के त्याग के वक्त, तीर्थंकर से जो ज्योति उत्पन्न होती है, वह पत्थरों पर सदा के लिए अंकित हो जाती है। जो उस रहस्य को जानता है, वह पार्श्वनाथ हिल पर जा कर आज भी पहाड़ से पूछ सकता है, कि जब पार्श्वनाथ ने देह त्यागी, तो इस पर्वत पर क्या घटा, इस पर्वत ने क्या अनुभव किया?
प्रक्रियाओं में फर्क है। क्योंकि नदी में अगर अंकित करना हो तो और ढंग से अंकित करना होता है, क्योंकि नदी सतत प्रवाहशील है। अगर पर्वत पर कोई चीज अंकित करनी हो तो और ढंग से अंकित करनी होती है। पूरी प्रक्रिया, पूरा तंत्र अलग होता है, क्योंकि पर्वत स्थिर है।
सारे धर्मों ने सिर्फ शास्त्र ही नहीं रचे हैं, क्योंकि शास्त्र तो बहुत ही कागजी चीज है, उसका ज्यादा भरोसा नहीं, उससे भी गहरे उपाय उन्होंने खोजें हैं। जैसे इजिप्त में पिरामिड बनाए हैं, इजिप्त के धार्मिक लोगों ने। उन्होंने पिरामिड की रचना में सब कुछ छिपा दिया है। पिरामिड की बनावट में, पिरामिड के पत्थर—पत्थर में, उसकी पूरी योजना में, सब छिपा दिया, जो उन्होंने जाना था। और जो पिरामिड को समझने वाले लोग हैं— अब कई तरह से खोज चलती है पिरामिडों की, वे चकित हैं कि कितना रहस्य! कहा जाता है कि इजिप्त ने जो भी जाना था, वह सब पिरामिड में डाल दिया है। लेकिन कुंजियां खो गई हैं। थोड़ा—बहुत कुछ कुंजी पकड़ में आती है कहीं से, तो थोड़े—बहुत रहस्य समझ में आते हैं। सारी दुनिया में किताब पर भरोसा पुराने धर्मों ने कभी नहीं किया। उन्होंने कुछ और उपाय किया। लेकिन पिरामिड भी आदमी की बनाई हुई चीज है, कितनी ही मजबूत हो, मिट सकती है। इसलिए भारत में हमने आदमी की बनाई हुई चीजों में छिपाने की कोशिश न करके प्रकृति के ही उपादानों में डाल देने की व्यवस्था की है।
'पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।
एक विशेष ध्यान की अवस्था में, संपर्क स्थापित हो जाता है, उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। लेकिन उसके पहले तुम्हारा हृदय इतना शांत हो जाना चाहिए कि तुम अपने उत्तर उसमें न डाल लो। नहीं तो सब विकृत हो जाएगा। तुम्हें इतना मौन हो जाना चाहिए कि तुम्हारी तरफ से जोड्ने का कोई उपाय न रहे। तो ही तुम्हें पता चलेगा कि क्या कहा जा रहा है। अन्यथा तुम अपना ही मिश्रित कर लोगे।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपने स्वप्न में हमसे ऐसा कहा! मैं उनसे कहता हूं कि तुम पहले चुप होना सीखो। नहीं तो स्वप्न भी तुम्हारा है और तुम्हारे स्वप्न में आया हुआ मैं भी तुम्हारा ही हूं, मैं नहीं हूं। स्वप्न भी तुम्हीं निर्मित कर रहे हो, मुझे भी तुम्हीं निर्मित कर रहे हो, और मुझसे जो वाणी तुम बुलवा रहे हो, वह भी तुम्हारी ही है। लेकिन तुम होशियार हो, क्योंकि तुम अपने पर तो भरोसा नहीं कर सकोगे, इसलिए तुम मुझसे बुलवा रहे हो। और तुम जो चाहते हो वही बुलवा रहे हो।
आदमी को स्वयं के साथ छल करने की इतनी संभावना है कि जिसका कोई हिसाब नहीं, अंत नहीं। मेरे पास ही आ कर लोग मुझसे कहते हैं कि आपने ही आदेश दिया था, इसलिए हमने ऐसा किया! कब तुमने मुझसे आदेश लिया था? कहते हैं, स्वप्न में आपने कह दिया था! और किया उन्होंने वही, जो वे करना चाहते थे! और कई दफे तो मैं इतना चकित हो जाता हूं कि मैं सामने ही उनको आदेश दे रहा हूं कि ऐसा मत करना, वे उसको सुन ही नहीं रहे हैं! वे कह रहे हैं कि आपने आदेश दिया था स्वप्न में, उसको हमने किया! और मैं सीधा आदेश दे रहा हूं वह उसको सुन ही नहीं रहे हैं, करने की तो बात ही अलग है! इसको कहता हूं मैं छल। पर इसका उन्हें पता भी नहीं कि वे क्या कर रहे हैं! मैं उनसे कह रहा हूं प्रकट में कि ऐसा करो, उसको वे सिर हिला रहे हैं कि यह हमसे न होगा! लेकिन स्वप्न में मैंने कहा था, उसको मान कर उन्होंने किया! निश्चित ही, जो वे करना चाहते हैं, वही कर रहे हैं।
जब तक तुम्हारा मन पूरी तरह शांत न हो गया हो, तब तक तुम वही सुनोगे, जो तुम सुनना चाहते हो। तब तक तुम वही करोगे, जो तुम करना चाहते हो। तब तक इस जगत के रहस्य तुम्हारे सामने न खुल सकेंगे। क्योंकि तुम अपनी ही भावनाओं, अपनी ही वासनाओं, अपनी ही कामनाओं से इस बुरी तरह भरे हो कि जगत कुछ प्रकट भी करना चाहे, तो प्रकट कर नहीं सकता है। लेकिन अगर ध्यान तुम्हारा सधता जाए और ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम अनुभव कर सको कि अब कोई भी विचार नहीं है, तो थोड़ा प्रयोग करना।
थोड़ा प्रयोग करना। ऐसे ध्यान की अवस्था में किसी वृक्ष के नीचे कुछ दिन प्रयोग करना। किसी भी वृक्ष के नीचे प्रयोग हो सकता है। लेकिन अगर कोई विशेष वृक्ष हो तो परिणाम बहुत शीघ्र और साफ होंगे। जैसे बुद्ध—गया का बोधि—वृक्ष है। अगर उसके नीचे बैठ कर तुम सात दिन ध्यान करते रहो। और तुम्हारा ध्यान जम गया हो, ठीक आ गया हो, तो फिर तुम वहां चले जाओ और सात रात बैठे रहो वृक्ष के नीचे, ध्यान करते हुए। और जब तुम्हें लगे कि तुम बिलकुल शून्य हो गए हो, तब तुम वृक्ष को सिर्फ इतना कह दो, कि तुझे कुछ मेरे लिए कहना हो तो कह दे। और तब तुम मौन बैठ कर प्रतीक्षा करते रहो। तुम हैरान हो जाओगे कि वृक्ष तुमसे कुछ कहेगा। और कुछ ऐसा कहेगा जो तुम्हारे पूरे जीवन को रूपांतरित कर दे।
वृक्ष कुछ संजोए हुए है, कुछ संगृहीत किए हुए है, और केवल उन्हीं के लिए संजोए हुए है, जो पूछने की सामर्थ्य रखते हैं। वे पूछेंगे तो उनको उत्तर मिल जाएगा। लेकिन उतनी दूर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। यह आकाश सारे बुद्धों को अपने में समाए हुए है। इस पृथ्वी पर सारे महावीर और सारे जीसस और सारे कृष्ण चले और उठे हैं। इस पृथ्वी से ही पूछ सकते हो।
पूरी तरह ध्यान की अवस्था में पृथ्वी पर नग्न लेट जाओ, जैसे कोई छोटा बच्चा मां की छाती पर लेटा हो। और ऐसा ही खयाल कर लो कि यह पूरी पृथ्वी तुम्हारी मां है, तुम उसके स्तन अपने हाथ में लिए हुए उसकी छाती पर लेटे हुए हो। बिलकुल शांत और शून्य हो जाओ। और जब तुम्हें लगे कि अब तुम्हारे शरीर की मिट्टी में और उसकी मिट्टी में कोई फर्क न रहा, दोनों एक हो गई हैं, और तुम्हारे भीतर शून्य विराजमान हो गया है, तब तुम पूछ लो। यह पृथ्वी अगर तुम्हारे लिए कोई संदेश रखे है, तो तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। और तुम पाओगे कि ऐसा बलशाली संदेश तुमने कभी कहीं से नहीं पाया। उसके पाने के बाद तुम वही न रह जाओगे, जो तुम थे। और तब इस प्रक्रिया में गहरा उतरा जा सकता है। और इस तरह से बहुत सी चीजें उपलब्ध की जा सकती है; जो वैसे खो गई है।
यह किताब भी मैबल कॉलिन्स की इसी तरह खोज कर पाई गई है। क्योंकि इसकी मूल—प्रति संस्कृत में तो खो चुकी है, हजारों साल पहले खो चुकी है। इसकी कोई मूल—प्रति अब नहीं है। मैबल कॉलिन्स ने यह तो इसी तरह के रहस्य—सूत्रों से वापस ये सूत्र उपलब्ध किए हैं। इसलिए वह इसकी लेखिका नहीं है। यह पुस्तक मैबल कॉलिन्स की लिखी हुई नहीं है। यह उसके द्वारा पढ़ी हुई है। उसने यह पढ़ा है जीवन के किन्हीं गुप्त द्वारों से। उसको उसने संगृहीत कर दिया है। ये सूत्र, उसने इतना ही उल्लेख किया है कि किसी खो गए संस्कृत ग्रंथ के हैं। मैं लेखिका नहीं हूं मैंने इन्हें रचा नहीं है, मैंने इन्हें सुना है। और उनको वैसा ही संगृहीत कर दिया है, जैसे वे हैं।
बहुत सी किताबें खो गई हैं। आदमी जो भी बनाता है, वह खो ही जाता है। लेकिन कोई और उपाय भी है, जिनसे जो खो गया है, उसे वापस पाया जा सकता है। बहुत सी किताबें प्रक्षिप्त हो गई हैं, उनमें बहुत कुछ डाल दिया गया है, जो बाद में लोग जोड़ते चले गए हैं। जब तक पृथ्वी से, आकाश से वापस उनकी मूल—प्रति न पाई जा सके, तब तक उन पुस्तकों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनमें बहुत कुछ जोड़ा हुआ है, वह मूल नहीं है। लेकिन हमें कुछ पता नहीं उन कुंजियों का, जिनसे वायु का ताला खुल जाए। एक कुंजी स्पष्ट है, उसको मैं मास्टर—की कहता हूं। उससे सभी ताले खुल जाते हैं। और वह है तुम्हारी एक शून्य—अवस्था। तब तुम महावीरों से बोल सकते हो, बुद्धों से साक्षात ले सकते हो, कृष्ण की बांसुरी फिर से सुनी जा सकती है। लेकिन तुम्हारा शून्य हो जाना जरूरी है।
'तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।
ग्‍यारहवां सूत्र, ' पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं। बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने कर अधिकार प्राप्त हो जाएगा।’ ' पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से।
ह पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से पूछने की बात भी थोड़ी समझ लेने जैसी है।
इस जगत में, जो शरीर लिए हुए हैं, वे ही अकेले नहीं हैं। इस जगत में अशरीरी पुरुष भी हैं, अशरीरी आत्माएं भी हैं। जब भी कोई व्यक्ति मरता है, तो अगर साधारण व्यक्ति हो— साधारण वासनाओं से भरा, साधारण शुभ आकांक्षाओं से भरा, साधारण बुराई, साधारण अच्छाई— तो क्षण भर भी नहीं लगता, उसका नया जन्म हो जाता है। क्योंकि साधारण आदमी के लिए साधारण गर्भ निरंतर उपलब्ध हैं, उनकी कोई कमी नहीं है। उसे कभी क्यू में खड़े होने की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन अगर असाधारण बुराई से भरा हुआ आदमी हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। क्योंकि असाधारण बुरा गर्भ पाने में कठिनाई है। हिटलर मरे तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कभी—कभी सैकड़ों वर्ष भी लग सकते हैं जब ठीक इतना ही उपद्रवग्रस्त गर्भ मिले, जिसमें हिटलर पैदा हो सके। या असाधारण रूप से अच्छी आत्मा हो, बहुत साधु आत्मा हो, तो भी हजारों वर्ष लग जाते हैं। क्योंकि उतना श्रेष्ठ गर्भ पाना भी मुश्किल है। श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ मुश्किल हैं। सामान्य, बिलकुल साधारण रोज उपलब्ध है। जो बुरी आत्माएं रुक जाती हैं बिना देह के, उन्हीं को हम प्रेत कहते हैं। जो भली आत्माएं रुक जाती हैं बिना देह के, उन्हें ही हम देवता कहते हैं। इसमें देवताओं का उल्लेख है।
'पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं।
अगर तुम शांत हो सको, तो तुम पाओगे कि तुम एक दूसरे जगत में प्रवेश कर रहे हो। जहां बहुत सी अशरीरी आत्माएं तुम्हें सहायता करने को उत्सुक हैं, और बहुत सी बातें तुम्हें खोल सकती हैं, जो कि तुम अपने श्रम से जन्मों में भी नहीं उपलब्ध कर पाओगे। ये आत्माएं मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो गई हैं, क्योंकि जो मोक्ष को उपलब्ध हो गई हैं, उनसे संपर्क स्थापित करना अति कठिन है। लेकिन जो आत्माएं अशरीरी हैं और केवल किसी शुभ जन्म की प्रतीक्षा कर रही हैं, उनसे संपर्क स्थापित कर लेना बहुत ही आसान है। सिर्फ एक टयूनिंग— जैसे रेडिओ पर तुम बटन को घुमाते हो, नॉब को घुमाते हो, ताकि ठीक स्टेशन पर कांटा रुक जाए। अगर जरा भी गड़बड़ हो, इधर—उधर हिला—डुला हो तो शोरगुल मचता है, कुछ पकड़ में नहीं आता है। अगर ठीक जगह रुक जाए, तो पकड़ में आना शुरू हो जाता है। ठीक तुम्हारा ध्यान भी, अगर ठीक जगह रोकने की कला आ जाए, तो तुम कहीं भी उस ध्यान को जोड़ ले सकते हो। बहुत सी आत्माएं उत्सुक हैं, जो तुम्हें सहायता कर दें और तुम्हारा बहुत सा काम हल कर दें। और बहुत सी आत्माएं उत्सुक हैं कि तुम्हें नुकसान पहुंचा दें, और तुम्हारा बहुत सा बना हुआ काम बिगाड़ दें।
जो लोग दुष्ट प्रकृति के हैं, वे दूसरे को परेशान करने में आनंदित होते हैं। जो भली प्रकृति के हैं, वे दूसरे को आनंदित करने में आनंदित होते हैं। तुम्हारे आसपास बहुत सी आत्माएं हैं, जो तुम्हें लाभ पहुंचा सकती हैं। और बहुत सी आत्माएं हैं, जो तुम्हें नुकसान पहुंचा सकती हैं। अगर तुम बहुत भयभीत हो, अगर तुम बहुत चिंताग्रस्त हो, अगर तुम्हारे मन में भीतर बहुत उत्पात चल रहा है, तो तुम्हारी बुरी आत्माओं से संबंधित होने की संभावना है। क्योंकि तुम तब बुरी आत्माओं के लिए खुले द्वार हो। अक्सर ऐसा होता है कि जब तुम भयभीत हो, तब तुम्हें भूत—प्रेत दिखाई पड़ जाते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि भय के कारण वे पैदा हो जाते हैं। भय के कारण तुम उनसे संबंधित हो जाते हो। भय तुम्हें खोल देता है उनके प्रति।
जब तुम अभय हो, शांत हो, आनंदित हो, तब तुम्हारा बुरी आत्माओं से कोई संपर्क नहीं बन सकता। उस तरफ से तुम्हारा द्वार बंद है। लेकिन उस क्षण में तुम्हारा अच्छी आत्माओं से संबंध बन सकता है। वह जो मैं निरंतर ध्यान में तुमसे कहता हूं कि आनंद के क्षण में ही, परम— आनंद के क्षण में ही तुम प्रभु से संयुक्त हो सकते हो, और कोई उपाय नहीं है। वह टयूनिंग है। तुम जब पूरे आनंद से भरे हो, तब तुम इस जगत का जो आनंद का स्रोत है, उससे जुड़ सकते हो। जब तुम दुख से भरे हो, तो इस जगत में जहां—जहां दुख का विस्तार है, तुम उससे जुड़ सकते हो।
दुखी आदमी हम कहते हैं कि नरक में चला जाता है। जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुखी आदमी सिर्फ नरक की तरफ खुल जाता है, नरक उसमें आ जाता है। सुखी आदमी स्वर्ग की तरफ खुल जाता है, स्वर्ग उसमें आ जाता है। आनंदित आदमी जीवन की परम—सत्ता की तरफ खुल जाता है, परम— सत्ता उसमें प्रवेश कर जाती है। तुम किस तरफ खुले हो? उसी तरफ तुम्हारे जीवन का विस्तार होना शुरू हो जाएगा।
यह सूत्र कहता है, 'पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं। बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

आज इतना ही।

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