ऋत् है स्वभाव में जीना—(प्रवचन—नौंवां)
प्यारे
ओशो!
ऋतस्य
यथा प्रेत।
अर्थात्
प्राकृत नियमों
के अनुसार जीओ।
यह
सूत्र ऋग्वेद का
है।
प्यारे
ओशो! हमें
इसका
अभिप्रेत
अर्थ समझाने
की कृपा करें।
आनंद
मैत्रेय! यह
सूत्र अपूर्व
है। इस सूत्र
में धर्म का
सारा सार—निचोड़
है। जैसे
हजारों गुलाब
के फूलों से
कोई इत्र निचोड़े, ऐसा
हजारों
प्रबुद्ध
पुरुषों की
सारी अनुभूति
इस एक सूत्र
में समायी हुई
है। इस सूत्र
को समझा तो सब
समझा। कुछ
समझने को फिर
शेष नहीं रह
जाता।
लेकिन
इस सूत्र का
इतना ही अर्थ
नहीं है कि प्राकृत
नियमों के
अनुसार जीओ।
सच तो यह है कि 'ऋत्
शब्द के लिए
हिंदी में
अनुवादित करने
का कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए समझने
की कोशिश करो।’प्राकृत' शब्द से भूल
हो सकती है।
निश्चित ही वह
एक आयाम है
ऋत् का। लेकिन
बस एक आयाम।
ऋत् बहु आयामी
है। जिसको
लाओत्सु ने 'ताओ' कहा
है, उसको
ही ऋग्वेद ने
ऋत् कहा है।
जिसको बुद्ध
ने 'एस
धम्मो सनंतनो'
कहा है, 'धम्म'
कहा है, वही
ऋत् का अर्थ
है।
ऋत्
का अर्थ : जो
सहज है, स्वाभाविक
है; जिसे
आरोपित नहीं
किया गया है, आविष्कृत
किया गया है; जो अंतस् है
तुम्हारा, आचरण
नहीं, जो
तुम्हारी
प्रज्ञा का
प्रकाश है, चरित्र की
व्यवस्था
नहीं; जिससे
यह सारा जीवन
अनुस्थूत है;
जिसके आधार
से सब ठहरा है,
सब चल रहा
है; जिसके
कारण अराजकता
नहीं है। वसंत
आता है और फूल
खिलते हैं।
पतझड़ आता है
और पत्ते गिर
जाते हैं। वह
अदृश्य नियम,
जो वसंत को
लाता है और
पतझड़ को। सूरज
है, चांद
है, तारे
हैं। यह विराट
विश्व है और
कहीं कोई
अराजकता नहीं है।
सब सुसंबद्ध
है। सब
संगीतपूर्ण
है। इस
लयबद्धता का
नाम ऋत् है।
इतने
विराट विश्व
के भीतर अकारण
ही इतना सुनियोजन
नहीं हो सकता।
कोई अदृश्य
ऊर्जा सबको
बांधे हुए है।
सब समय पर हो
रहा है। सब
वैसा हो रहा
है जैसा होना
चाहिये
अन्यथा नहीं
हो रहा है। यह
जो जीवन की आंतरिक
व्यवस्था है......न
तो वृक्षों से
कोई कह रहा है
कि हरे हो जाओ, न
पत्तों को कोई
खींच—खींचकर
उगा रहा है...
बीज से वृक्ष
पैदा होते है,
वृक्षों
में फूल लग
जाते हैं।
सुबह होती है,
पक्षी गीत
गाते हैं।
संगीत
में कोई
बांसुरी
बजाता है तो
हम कहेंगे सुंदर
है और कोई
सितार बजाता
है,
वह भी सुंदर
है और कोई
तबला बजाता है,
वह भी सुंदर
है। लेकिन जब
बहुत से वाद्य
आर्केस्ट्रा
बनते हैं, जब
सारे वाद्य एक
साथ किसी एक
राग और एक लय
में नियोजित
हो जाते हैं, जब सारे
वाद्यों का
संगीत मिलकर
एक प्रवाह बनता
है—तब जो रस है,
तब जो संगीत
है, तब जो
सौंदर्य है, वह एक—एक
वाद्य का नहीं
हो सकता। और
अगर सारे
वाद्य अलग—अलग
संगीत पैदा
करें तो सिर्फ
शोरगुल पैदा
होगा, संगीत
नहीं पैदा
होगा।
यह
विश्व एक
आर्केस्ट्रा
है। और जिस
सत्य के कारण
यह
आर्केस्ट्रा
है,
कि बांसुरी
तबले से बंधकर
बज रही है, तबला
सितार से बंधकर
बज रहा है, सब
एक दूसरे से
बंधकर बज रहे
हैं, कोई
किसी के
विपरीत नहीं
है, कहीं
कोई संघर्ष
नहीं है, सहयोग
है—ऋत् शब्द
में यह सब
समाया हुआ है।
इसलिए ऋत् का
अर्थ समझो :
धर्म।
प्राकृत होना
उसका एक अंग
है।
जैसे
आग का धर्म है
गर्म होना और
पानी का धर्म है
नीचे की तरफ
प्रवाहित
होना और
मनुष्य का
धर्म है
परमात्मा की
तरफ ऊपर उठना।
जैसे अग्नि की
लपट ऊपर की ओर
ही जाती है, चाहो
तुम दीए को
उलटा भी कर दो
तो भी ज्योति
ऊपर की तरफ ही
जाएगी, ज्योति
उलटी नहीं
होगी—ऐसे ही
सारा जीवन
प्रवाहित हो
रहा है किसी
अज्ञात शिखर
की ओर! किसी
ऊंचाई को छूने
के लिए एक
गहरी अभीप्सा
है। किसी सत्य
को जानने की
प्यास है। उस
परम सत्य का
नाम ऋत् है।
लाओत्सु
ने कहा, उसका
कोई नाम नहीं,
इसलिए मैं
उसको 'ताओ'
कहूंगा।
वेद भी कहते
हैं, उसका
कोई नाम नहीं,
हम उसे ऋत्
कहेंगे। ऋत् शब्द
से ही ऋतु बना
है। ऋतु का
अर्थ है. पता
नहीं कौन
अज्ञात हाथ कब
मधुमास ले आते
हैं, मगर
नियोजित, सुसम्बद्ध,
संगीतपूर्ण!
कब हेमंत आ
जाता, कब
वसंत आ जाता!
कैसे आता है! न
कहीं कोई
आज्ञा सुनायी
पड़ती है, न
कहीं ढोल पीटे
जाते, न
कहीं नोटिस
लगाए जाते।
कोई किसी को
कुछ कहता नहीं।
पता नहीं कैसे
फूलों को खबर
हो जाती है!
पता नहीं कैसे
पक्षियों को
पता चल जाता
है! पता नहीं कैसे
मेघ घिर आते
हैं, मोर
नाचने लगते
हैं! पता नहीं
कैसे, यह
जो अज्ञात
सबको समाए हुए
है अपने में, यह जो
अज्ञात सबके
भीतर यूं
समाया हुआ है
जैसे माला के मनकों
में धागा
पिरोया होता
है! यूं तो
फूलों का ढेर
भी लगा सकते
हो, मगर
फूलों का ढेर
ढेर ही है।
लेकिन धागा
पिरो दो, इन्हीं
फूलों में, तो माला बन
जाए। और माला
ही अर्पित हो
सकती है। यह
जगत फूलों का
ढेर नहीं, एक
माला है। और
माला
परमात्मा के
चरणों में
अर्पित की जा
सकती है। यह
सारा जगत, जैसे—जैसे
तुम समझोगे
वैसे —वैसे
पाओगे—संगीतपूर्ण
है, लयबद्ध
है।
तुम
अपने ही भीतर
देखो।
वैज्ञानिक आज
तक नहीं खोज
पाए कोई उपाय
कि रोटी कैसे
खून बन जाती
है। नहीं तो
वैज्ञानिक
रोटी से सीधा
खून बना लें।
रक्तदान की, अस्पतालों
में रक्त के
बैंक बनाने की
ऐसी कोई जरूरत
न रह जाए, लोगों
से रक्त
मांगना न पड़े,
मशीन में ही
इधर रोटी डाली,
पानी डाला
और दूसरी तरफ
से रक्त निकाल
लिया।
विज्ञान इतना
विकसित हुआ है,
फिर भी अभी
छोटी—सी बात
पकड़ में नहीं
आ सकी कि कैसे
रोटी रक्त बन
जाती है। और
तुम बनाते हो,
ऐसा तो तुम
सोचोगे भी
नहीं, भूलकर
भी नहीं कह
सकते हो कि
तुम बनाते हो।
तुमने रोटी से
गले के नीचे
कर ली, इसके
बाद तुम्हें
पता नहीं कि
क्या होता है,
कौन सब
सम्हाल जाता
है? कैसे
रोटी टूटती है,
कैसे रक्त
बनती है, कैसे
मांस मज्जा
बनती है? वही
रोटी
तुम्हारी
मस्तिष्क की
ऊर्जा बनती है।
वही रोटी
वीर्य—क्या
बनती है। उसी
रोटी से जीवन
की धारा बहती
है। तुम्हारा
जीवन ही नहीं,
तुम्हारे
बच्चों का
जीवन भी उस
रोटी से निर्मित
होता है।
तुम्हारे
भीतर एक
अद्भुत
कीमिया काम कर
रही है। उस
कीमिया का नाम
ऋत् है।
तुम
क्यों सांस
लेते हो, कैसे
सांस लेते हो?
अकसर हम
सोचते हैं, हम सांस
लेते हैं।
वहां बड़ी भूल
है, बुनियादी
भूल है। हम
सांस नहीं
लेते। अगर हम
सांस लेते
होते 1 तब तो
किसी का मरना
संभव ही नहीं
था। मौत आती
और हम सांस
लिए चले जाते।
हम कहते हम तो
सांस लेंगे, तो मौत क्या
करती? लेकिन
जब सांस चली
जाती है बाहर
और नहीं भीतर
लौटती, तो
कोई उपाय नहीं
है हमारे पास
उसे भीतर लौटा
लेने का। गयी
तो गयी। हम
श्वास लेते
हैं, यह
भ्रांति है।
श्वास हमें
लेती है, यह
ज्यादा बड़ा
सत्य होगा।
ज्यादा सही
होगा कि श्वास
हमें लेती है।
यह
हमारा अहंकार
है,
नहीं तो ऋत्
को समझने में
जरा भी अड़चन न
हो। तुम्हारे
भीतर भी ऋत्
समाया हुआ है।
तुम्हारी हर
सांस उसकी
गवाही है। कौन
ले रहा है
श्वास
तुम्हारे
भीतर? तुम
तो नहीं ले
रहे हो, यह
पक्का है।
नहीं तो रात
नींद में कैसे
लोगे जब तुम
सो जाते हो? यह शराब
पीकर जब तुम
बेहोश होकर
नाली में गिर
जाते हो, जब
यह भी होश
नहीं रहता कि
नाली है, जब
यह भी होश
नहीं रहता कि
कहां गिर पड़ा
हूं जब यह भी
होश नहीं रहता
कि कौन हूं.....।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात शराब पीकर
लौटा। सामने
ही उसके
दरवाजे पर
बिजली का
खम्भा है। दूर
से ही उसने
देखा खम्भे को, तो
खम्भे से बचकर
निकलने की
कोशिश की कि
कहीं टकरा न
जाऊं। यूं
काफी जगह है
खम्भे के
दोनों तरफ। और
खम्भे की
मोटाई ही क्या
होगी—छह इंच।
कोई उससे
टकराने का
कारण न था।
कोई अंधा भी
निकलता तो सौ
में एक ही
मौका था कि टकराता।
मगर वह बचकर
निकलने को
कोशिश की कि
कहीं टकरा न
जाऊं और टकरा
गया। बचकर
निकलने में एक
खतरा है
टकराने का।
अगर
तुमने नयी—नयी
साइकिल चलानी
सीखी हो तो
तुम्हें पता
होगा, साठ फीट
चौड़ा रास्ता,
और रास्ते
के किनारे लगा
हुआ एक मील का
पत्थर। वह
बेचारा
हनुमान जी की
तरह अलग बैठा
हुआ है, उसको
कुछ लेना—देना
नहीं
तुम्हारी
साइकिल से, तुमसे। मगर
दूर से ही वह
जो लाल हनुमान
जी दिखाई पड़ते
हैं मील के
पत्थर के, सिक्खड़
साइकिल वाले
को घबड़ाहट
होती है कि
कहीं पत्थर से
टकरा न जाऊं।
और टकराता है,
उसी पत्थर
से जाकर
टकराता है।
साठ फीट चौड़े
रास्ते पर, साठ मील लंबे
रास्ते पर, एक छोटा—सा
पत्थर जिसमें
कोई बहुत
निशानेबाज भी
अगर तीर मारना
चाहता तो शायद
चूक जाता, मगर
नया सिक्खड़
नहीं चूकता।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जिससे हम बचना
चाहते हैं उस
पर हमारी आंखें
आरोपित हो
जाती हैं।
स्वभावत:, उससे
बचना है तो
हमारा सारा
चित्त उसी पर
केंद्रित हो
जाता है। और
सब भूल जाता
है, सारी
नजर वहीं टिक
जाती है, सारे
प्राण वहीं
अटक जाते हैं।
वह साठ फीट
चौड़ा रास्ता
भूल गया, बस
वे हनुमान जी
दिखाई पड़ने
लगे। अब तुम
लाख भीतर—
भीतर हनुमान—चालीसा
पढ़ो, कि
कहो कि जय
बजरंग बली, बचाओ बजरंग
बली! मगर अब कुछ
न होगा, आंखें
तुम्हारी
टिकी हैं।
इसको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं :
आत्म—सम्मोहन।
तुम सम्मोहित
हो गए हो
पत्थर से। अब
वह पत्थर
तुम्हें खींच
रहा है। पत्थर
का कोई हाथ
नहीं है, तुम्हारा
ही सब खेल है।
और सिक्खड़
जाकर उसी
पत्थर से
टकराता है। और
सोचता भी है
कि माजरा क्या
है, इतने
बड़े रास्ते पर,
खाली पड़े
रास्ते पर
टकरा क्यों
गया! मगर उसके पीछे
मनोवैज्ञानिक
सूत्र है, वह
आत्म—सम्मोहित
हो गया, उसकी
आंखें अटक
गयीं। बचने की
कोशिश में वह
सारा रास्ता
ही भूल गया।
बस पत्थर ही
याद रहा। और
पत्थर याद रहा
तो चल पड़ा
पत्थर की तरफ।
जितना बचने
लगा उतना ही
पत्थर की तरफ
चल पड़ा। इस
सूत्र को खयाल
में रखना।
तो
शराबी तो और
भी जल्दी
सम्मोहित हो
जाता है। शराब
का अर्थ ही
इतना होता है
कि वह तुमसे
तुम्हारा होश
छीन लेती है।
और जहां होश
नहीं है वहा
सम्मोहित हो
जाना है; किसी
भी चीज से
सम्मोहित हो
जाने में कोई
अड़चन नहीं है;
किसी भी
कल्पना में
जकड़ जाने में
कोई अड़चन नहीं
है।
मुल्ला
बिलकुल
सम्हलकर चला
कि खंभे से
बचकर निकलना
है और टकरा ही
गया खंभे से
जाकर। बड़ी जोर
से चोट लगी।
लौटा दस कदम
पीछे। फिर से
कोशिश की कि
बचकर निकल
जाऊं। अब की
दफा और बुरी
तरह टकराया।
खयाल रखना, जिस
चीज से तुम एक
बार टकरा गए
हो उससे फिर
अगर कोशिश
करोगे बचकर
निकलने की तो
निश्चित ही टकराओगे।
तीसरी बार और
मुश्किल हो
गयी। चौथी बार,
पांचवीं
बार, छठवीं
बार... तब वह
एकदम घबड़ाया
और जोर से
चिल्लाया कि,
'हे प्रश्न,
बचाओ! लगता
है मैं खंभों
के जंगल में
खो गया हूं!' उसको लगा कि
खंभे ही खंभे
हैं चारों तरफ,
जहां जाता
हूं खंभे से
ही टकराता
हूं! वहां एक ही
खंभा है कुल
जमा।
एक
पुलिसवाले ने
किसी तरह
पकड़कर उसे
उसके दरवाजे
पर पहुंचा
दिया और कहा
कि कोई जंगल
वगैरह नहीं है, एक
खंभा है। और
मैं खड़ा देख
रहा हूं मैं
चकित हो रहा
हूं कि तुम
कैसे उससे
टकरा रहे हो।
हाथ
कंप रहे हैं
उसके। ताला
पकड़ता है तो
ताला कंप रहा
है। तो पुलिस
वाले ने कहा
कि लाओ ., मैं
तुम्हारा
ताला खोल दूं।
उसने कहा कि
नहीं—नहीं, मैं खोल
लूंगा। ऐसा
कुछ नशा नहीं
है।
कोई
नशा करनेवाला
नहीं मानता कि
मैं कुछ नशे
में हूं। पूरी
कोशिश यह करता
है कि मैं नशे
में हूं ही नहीं।
और फिर पुलिस
वाले के सामने
तौ कैसे
स्वीकार करे
कि नशे में
हूं। खीसे में
हाथ डाला, चाबी
निकाली। अब वह
चाबी ताले में
नहीं जाती, क्योंकि हाथ
दोनों कंप रहे
हैं, ताला
भी कैप रहा है,
जिसमे चाबी
लिए हुए है वह
भी कैप रहा है।
पुलिसवाले ने
कहा कि लाओ
भैया र चाबी
मुझे दो, मैं
खोल दूं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
'ऐसा करो कि
अगर सहायता ही
करनी है तो
जरा मकान को
पकड़ लो कि
मकान हिले न।
यह मकान इतने
जोर से हिल
रहा है, भूकंप
आ रहा है या
क्या हो रहा
है?'
इस
बीच पत्नी भी
जग गयी। उसने
खिड़की से
झांककर देखा
और कहा कि
फजलू के पिता, बात
क्या है? चाबी
तो नहीं खो
गयी है? कहो
तो दूसरी चाबी
फेंक दूं।
नसरुद्दीन
ने कहा, 'चाबी
बिलकुल ठीक है।
हरामजादा
ताला गड़बड़ कर
रहा है। तू
दूसरा ताला
फेंक दे।’
होश
न हो तो आदमी
जो भी करेगा, जो
भी सोचेगा, वहीं भूल
होती चली जाती
है। होशियारी
करता है। नशे
में आया हुआ
आदमी बड़ी
होशियारी
करता है।
होशियारी में
ही फंसता है।
कैसे
होशियारी
करेगा?
हम
सब अहंकार के
नशे में पड़े
हुए हैं, इसलिए
ऋत् से वंचित
हैं। देख नहीं
पाते। कहते
हैं—'मैं
सांस ले रहा
हूं! मुझे भूख
लगी है!' क्या
तुम्हें भूख
लगेगी? तुम
साक्षी हो भूख
के। भूख
तुम्हें नहीं
लगती। न
तुम्हें
प्यास लगती है।
न तुम श्वास
ले रहे हो। न
तुम जवान होते
हो, न तुम
के होते हो।
तुम तो कुछ भी
नहीं होते।
तुम तो जैसे
हो वैसे ही हो।
तुम्हारे
चारों तरफ कुछ
हो रहा है।
मगर होश कहां!
शरीर बच्चा था,
जवान हुआ, बूढ़ा होगा—और
शरीर किसी एक
अज्ञात नियम
को मानकर चल
रहा है।
तुम्हारा कुछ
वश नहीं है।
लाख उपाय करता
है आदमी कि
जवानी में ही
अटका रहे।
चंदूलाल
की पत्नी उससे
कह रही थी कि
जरा मेरी तरफ तो
देखो। तीन
घंटे आईने के
सामने सजकर
आयी थी। और
चंदूलाल
भन्नाए बैठे
थे,
क्योंकि अब
स्टेशन जाने
से कोई सार
नहीं था, गाड़ी
कभी की निकल
गयी होगी। अब
तो दूसरी गाड़ी
मिल जाए, वह
भी बहुत है।
मगर इसी आशा
में थे कि
दूसरी गाड़ी
मिल जाएगी।
मगर भन्नाए तो
बहुत थे। और
उसने, पत्नी
ने आकर क्या
पूछा.. उसको
गाड़ी—वाड़ी से
क्या लेना!
उसने पूछा कि
जरा मेरी तरफ तो
देखो, मेरी
उम्र तुम्हें
तीस साल की
लगती है या
नहीं?
चंदूलाल
ने कहा कि
लगती थी जब
रहीं तुम तीस
साल की। अब
कैसे लगे? अब
तीन घंटे नहीं,
तुम तीस
घंटे भी
संवारी अपने
को तो तीस साल
की नहीं लग
सकती हो। लगती
थी कभी, जब
तीस साल की
रहीं।
मगर
हर स्त्री
कोशिश कर रही
है कि जवानी
को रोक ले। हर
पुरुष कोशिश
कर रहा है कि
जवानी को रोक
ले। तुम्हारे
हाथ में नहीं
है। सांस ही
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, जवानी
और बुढ़ापा तो
तुम्हारे हाथ
में क्या होगा!
फिर किसके
हाथों में है?
कौन है
अदृश्य ऊर्जा?
उस ऊर्जा का
नाम : ऋत्। उसे
नाम तो देना
होगा, ताओ
कहो, ऋत्
कहो, धम्म
कहो, धर्म
कहो, कोई
भी नाम दे दो।
उसका कोई नाम
नहीं है, अनाम
है। लेकिन एक
बात समझ लो कि
यह सारा जीवन
किसी एक अशात
सूत्र के
सहारे चल रहा
है। उस सूत्र
को खोज लेना
ही सत्य को
खोज लेना है।
और उसे खोजने
की दिशा में
पहला कदम होगा
अपने से शुरू
करो। अपने ही
भीतर ऋत् को
खोजो। लेकिन
वह ऋत् नहीं
खोज पाओगे अगर
अहंकार में दबे
रहे।
और
अहंकार कैसे—कैसे
तर्क खोज लेता
है—यह मैंने
किया! कुछ
तुमने किया
नहीं है, सब
हुआ है। कोई
चित्रकार है,
उसने कुछ
किया नहीं। यह
उसका ऋत् है।
यह उसका
स्वभाव है।
कोई कवि है, उसने कुछ
किया नहीं।
कोई गायक है, उसने कुछ
किया नहीं।
उसका जो
स्वभाव था, वही प्रगट
हुआ है। गुलाब
है, जुही
है, चंपा
है। अगर गुलाब,
जुही और
चंपा के पास
भी सोच—विचार
की क्षमता
होती तो गुलाब
भी कहता कि
देखो, क्या
फूल मैंने
खिलाए हैं!
कैसे फूल
मैंने खिलाए
हैं! क्या
सुगंध है! और
रातरानी भी
कहती कि चुप
रहो, बकवास
बंद करो।
सुगंध है तो
मेरी है, कि
सारा अपान भर
दिया है सुगंध
से! तुम्हारी
क्या सुगंध, कि जब कोई
पास आए, सूंघे
तो बामुश्किल
पता चले? सुगंध
मेरी है! राह
से गुजरते लोग
भी आंदोलित हो
रहे हैं। यह
मैंने किया
है!
मैंने
सुना है, एक
बच्चे ने एक
पत्थर को
उठाया और एक
महल की खिड़की
की तरफ फेंक
दिया। पत्थर
जब उठने लगा
ऊपर की तरफ, तो उसने
पत्थरों की जो
नीचे ढेरी थी
जिसमें वह
वर्षों से पड़ा
था, अपने
मित्रों, सगे—संबंधियों
की तरफ
चिल्लाकर कहा
कि देखते हो, मैं जरा महल
की यात्रा के
लिए जा रहा
हूं। फेंका
गया था, लेकिन
कहा कि महल की
यात्रा के लिए
जा रहा हूं।
कसमसा गए और
पत्थर, ईर्ष्या
से जल— भुन गए
और पत्थर, मगर
करते भी क्या!
इनकार भी नहीं
कर सकते थे।
जा तो रहा ही
था। उन्हें भी
पता नहीं कि
भेजा जा रहा
है। और उनकी
भी तो
आकांक्षा थी
कि कभी इस महल
की यात्रा
करें। यह महल
पास में ही
खड़ा है। यह
सुंदर महल, पता नहीं
इसके भीतर
क्या हो रहा
है! कभी गीत उठते
हैं, कभी
संगीत बजता है,
कभी दीए
जलते हैं, कभी
दीवाली है, कभी होली है।
पता नहीं क्या
रंग, क्या
ढंग भीतर गुजर
रहा है! देखने
की तो उनकी भी
इच्छा थी। वे
सब हार गए और
उनका एक साथी
जीत गया। जा
रहा है, इनकार
कर भी नहीं
सकते। मन
मसोसकर रह गए।
वह
पत्थर ऊपर उठा
और जाकर
टकराया काच की
खिड़की से। काच
चकनाचूर हो
गया। स्वभावत:, जब
पत्थर कांच से
टकराता है तो
काच चकनाचूर
हो जाता है।
वह पत्थर का
ऋत् और कांच
का ऋढ़ इसमें
कुछ पत्थर की
खूबी नहीं और
काच की कोई
कमजोरी नहीं।
यह सिर्फ
स्वाभाविक
नियम है, कि
रात्थर कांच
से टकराएगा तो
कांच टूटता है।
पत्थर कांच को
तोड़ता नहीं, कुछ हथौड़ी
लेकर कांच को
तोड्ने नहीं
बैठ जाता है।
बस यह
स्वाभाविक है।
इसमें पत्थर
को अकड़ने की
कोई जरूरत
नहीं है। न
कोई कांच को
दीन होने की
जरूरत है।
लेकिन कांच
दीन—हीन हो
गया। और पत्थर
ने कहा, 'मैंने
हजार बार कहा
है, सुना
नहीं तुमने? तुम्हें खबर
नहीं? कितनी
बार मैंने
नहीं कहा है, कि जो मुझसे
टकराएगा, चकनाचूर
हो जाएगा! अब
देख लो, अब
खुद देख लो
अपनी आंखों से
क्या गति
तुम्हारी हो
गयी है। मुझसे
दुश्मनी लेना
ठीक नहीं है।’
और
तभी पत्थर
जाकर भीतर
बहुमूल्य
कालीन पर गिरा—ईरानी
कालीन। और
पत्थर ने कहा, 'बहुत
थक भी गया।
लंबी यात्रा,
आकाश में
उड़ना। फिर
दुश्मनों का
सफाया। इस काच
से टकराना, कांच को
चकनाचूर कर
देना। यह
विजय! थोड़ा
विश्राम कर
लूं।
विश्राम
कर लूं—ऐसा
सोच रहा है!
गिरा है
मजबूरी में; क्योंकि
जिस बच्चे ने
फेंका था वह
ऊर्जा पूरी हो
गयी। जितनी ऊर्जा
उस बच्चे के
हाथ ने दी थी
वह समाप्त हो
गयी। अब पत्थर
को गिरना ही
है। यह 'मजबूरी
है, मगर
मजबूरी को कोई
स्वीकार करता
है? हम तो
मजबूरी में भी
अहंकार खोज
लेते हैं। हम
तो वहा भी
तरकीबें खोज
लेते हैं। उस
पत्थर ने भी
खोज लीं। कहा
कि थोड़ा
विश्राम कर
लूं फिर आगे
की यात्रा पर
निकलूंगा।
तभी
महल के दरबान
ने,
यह पत्थर का
आना और कोच का
टूटना, आवाज
सुनी, पत्थर
का गिरना, वह
भागा आया।
पत्थर पड़ा पड़ा
ईरानी कालीन
पर बहुत आनंद
ले रहा था।
सोच रहा था इस
महल के लोग भी
बड़े अतिथि—प्रेमी
मालूम होते
हैं। लगता है
मेरे आने की
खबर उनको पहले
ही हो गयी थी।
कालीन
इत्यादि बिछा
रखे हैं। सब
फानूस लटका
दिए हैं।
सुंदर चित्र
भी लगा रखे
हैं। दीवालों
पर नया—नया ही
रंग—रोगन किया
गया है।
फर्नीचर भी सब
ताजा—ताजा है।
तैयारी पूरी
है। कहा भी है
कि अतिथि तो
देवता है। मैं
अतिथि हूं!
मेरे लिए ही
यह इंतजाम हुआ
है।
यही
हमारी भाषा है।
हर आदमी यही
सोचता है कि
मेरे लिए ही
सारा इंतजाम
हुआ है। जैसे
सब चांद—तारे
सूरज मेरे लिए
ही उगते और ड़बते
हैं! यह सारा
जगत,
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
आसपास ही
घूमता हुआ अनुभव
करता है कि
मैं ही केंद्र
हूं। पत्थर ने
भी कुछ भूल तो
न की, मनुष्य
की भाषा में
ही सोचा।
दरबान ने
पत्थर हाथ मैं
उठाया और
पत्थर ने सोचा
कि दिखता है, महल का
मालिक मुझे
हाथों में
उठाकर स्वागत
कर रहा है कि
धन्यभाग
हमारे कि आप
पधारे! पलक—पांवड़े
बिछाते हैं!
स्वीकार करो
हमारा आतिथ्य!
हाथों में
उठाकर यही कह
रहा है। हाथों
में उठाया था
दरबान ने
इसलिए कि
वापिस फेंक दे।
लेकिन यह बात
तो कोई सोचता
नहीं।
मौत
तुम्हारी
करीब आती है
और तुम जन्म—दिन
मनाए चले जाते
हो। मनाना
चाहिए मृत्यु—दिवस।
हर साल मृत्यु—दिवस
मनाना चाहिए, मनाते
हो जन्म—दिवस।
और जन्म तो
पीछे छूटता जा
रहा है, मौत
करीब आती जा
रही है। हर
साल एक साल और
बीत गया। एक
साल और गुजर
गया। एक साल
और कम हो गया।
तुम्हारा
जीवन—घट और
रीत गया। तुम
व्यतीत हो रहे
हो। तुम अतीत
.रहे हो। तुम
समाप्त हो रहे
हो। तुम बूंद—बूंद
निचुड़ते जा
रहे हो। मगर
मनाते हो जन्म—दिन।
मृत्यु के दिन
को तुम जन्म —दिन
मनाते हो!
मरते हो और
सोचते हो कि
जीवन घटित हो
रहा है।
घसिटते हो, लेकिन सोचते
हो कि विजय —यात्रा
हो रही है!
उस
पत्थर को
दरबान ने
वापिस फेंक
दिया। लेकिन
पत्थर ने यही
सोचा कि दरबान
समझ सका... यह मालिक
महल का समझ सका
—वह तो मालिक
ही समझ रहा था
उसे—कि मुझ घर
की बहुत याद आ
रही है, कि
मुझे अपने
प्रियजनों की
बहुत याद सता
रही है। मैं
तो वापिस जाता
हू,। अरे
मुझे महलों से
क्या लेना!
महलों में रखा
भी क्या है!
अफ
खट्टे। मिलें
न तो खट्टे, मिल
जाएं तो मीठे।
पत्थर वापिस
गिरा अपनी
ढेरी पर।
गिरते समय
उसने कहा, 'मित्रो,
महल सुंदर
था, बहुत
सुंदर था! मगर
अपने घर की
बात और, स्वदेश
की बात ही और!
तुम्हारी बड़ी
याद आती थी, मैं तो
वापिस लौट आया।’
और
कहते हैं, बाकी
पत्थरों ने
उससे कहा कि
तुम हमारे बीच
सबसे
धन्यभागी
पत्थर हो। तुम
साधारण पत्थर
नहीं, अवतारी
हो। तम अपनी
जीवन—कथा लिखो,
ताकि
बच्चों के काम
आए।
अब
वह पत्थर जीवन—कथा
लिख रहा है।
तुम्हारी
भी जीवन—कथा
यही है। ऋत्
को कैसे
समझोगे? अहंकार
को थोपते जाते
हो, आरोपित
करते जाते हो।
अहंकार को जरा
हटाकर देखो, अहंकार का
घूंघट हटाकर
देखो! घूंघट
के पट खोल! वह
घूंघट क्या है?
वह घूंघट का
पट क्या है? किस चीज का घूंघट
है तुम्हारे
स्वभाव पर? अहंकार का।
हटाओ अहंकार
के घूंघट को!
थोड़ा अपने में
झांको। और तुम
चकित हो जाओगे।
तुम इस सूत्र
का ही अर्थ, इस सूत्र का
अभिप्राय, अभिप्रेत
अनुभव कर
पाओगे।’ऋतस्य
यथा प्रेत!'.. तब तुम
जानोगे कि
जीवन की
सम्यक् कला
ऋत् के साथ एक
होकर जीने में
है; भिन्न
होकर नहीं, अभिन्न होकर।
जो इससे अलग
होकर जीने की
कोशिश करता है
—टूटता है, हारता
है, पराजित
होता है। जो
इसके साथ जीता
है, उसकी
जीत
सुनिश्चित है।
उसकी जीत नहीं
है, जीत तो
ऋत् की है
हमेशा।
तुम
यूं हो, अहंकार
यूं है, जैसे
कोई नदी में
उलटी धार
तैरना चाहे।
थोड़े—बहुत हाथ
मार सकता है, मगर जल्दी
थक जाएगा।
नाहक थक जाएगा।
और थकेगा तो
नदी पर नाराज
होगा। और
कहेगा, 'ये
दुष्ट नदी
मुझे ऊपर की
तरफ नहीं जाने
देती।’ नदी
जा रही Sऐ?ए3 सागर की
तरफ। तुम नदी
के संगी—साथी
हो लो।’ऋतस्य
यथा प्रेत!' तुम नदी से
लड़ो मत, नदी
के साथ बहो।
तैसे भी मत
बहो।
तुमने
देखा, जिंदा
आदमी नदी में ड़ब
जाता है और मर
जाता है और
मुर्दा तैर
जाता है! कुछ
कला है जो
मुर्दे को आती
है, जो
जिंदा को नहीं
आती। जिंदा
कैसे ड़ब गया
और मुर्दा
कैसे तैर गया?
जिंदा नीचे
जाता है, मुर्दा
ऊपर आता है, बात क्या है,
मामला क्या
है, रहस्य
क्या है? रहस्य
इतना ही है कि
मुर्दा लड़ता
नहीं है नदी से।
लड सकता नहीं,
मुर्दा है।
समर्पित है।
समर्पित है तो
नदी का मित्र
है। और मित्र
को कौन हाथों
पर न उठा ले! और
जिंदा लड़ता है।
हर तरह से
लडता है; जब
तक सांस है, लड़ता है, झगड़ता
है। झगड़ने मैं
ही .टूट जाता
है। लड़ने में
ही खुद की
शक्ति गंवा
बैठता है।
लड़ने में ही ड़बता
है। लड़ने मे
ही मरता है।
ऋतस्य यथा
प्रेत।
ऋत्
के अनुसार जीओ, अर्थात्
नदी के साथ
बहो, लड़ो
मत। यह जीवन
की नदी, यह
जीवन की सरिता
परमात्मा के
सागर की तरफ
अपने—आप जा
रही है। कुछ
और करना नहीं
है। इस जीवन
के प्रति
समर्पित हो
जाओ। इस जीवन
के स्नान अपने
को एक अनुभव
करो। एक तुम
हो, अनुभव
करो या न करो!
करो तो विजय
का आनंद है। न
करो तो पराजय
की पीड़ा है।
लेकिन
हमारी सारी
शिक्षा इसके
विपरीत है।
हमारा सारा
समाज इसके
विपरीत है। हम
प्रत्येक
व्यक्ति को
आचरण सिखाते
हैं —अंतस का
आविष्कार
नहीं। आचरण का
अर्थ है ऊपर
से थोपी हुई
बात। हम कहते
हैं : 'ऐसे जीओ, ऐसा
करो, ऐसा
मत करना! यह
पुण्य है, यह
पाप है।’ दूसरे
तय करते हैं।
दूसरे अपने
स्वार्थ से तय
करते हैं।
निश्चित, उनके
अपने स्वार्थ
होने वाले हैं।
उन्हें तुमसे
कोई प्रयोजन
नहीं।
जब
बच्चा पैदा
होता है तो
मां बाप तय
करते हैं कि
कैसे जीए क्या
बने क्या न
बने। किसे पड़ी
है बच्चे की, कि
वह क्या बनने
का राज लेकर
आया है, कि
उसका ऋत् क्या
है, किसी
को प्रयोजन
नहीं है।
इसलिए तो हमने
इतनी उदास
मनुष्यता को
जन्म दिया है,
इतनी
विक्षिप्त
मनुष्यता को
जन्म दिया है।
जिसको
संगीतज्ञ
होना था, वह
डाक्टर है। वह
कभी सुखी नहीं
होगा। वह सदा
दुखी होगा।
उसे बजानी थी
वीणा, वह
दवाइयों की बोतलें
भर रहा है, प्रिस्कि्रपान
लिख रहा है।
कैसे प्रसन्न
हो? और
जिसको डाक्टर
होना था वह
दुकान कर रहा
है। जिसको
दुकानदार
होना था वह
नौकरी कर रहा
है। जिसको
नौकरी करनी थी
वह कविता कर
रहा है। जिसको
कवि होना था
वह सब्जी बेच
रहा है। सब
औरों की जगह
बैठे हुए हैं,
कोई अपनी
जगह नहीं है।
कोई अपने
स्वभाव में
नहीं है, सब
च्युत हो गए
हैं। किसने
किया यह सब
उपद्रव? कौन
कर रहा है यह
उपद्रव? यह
उपद्रव भी
उनसे हो रहा
है जो
तुम्हारे बड़े हिताकांक्षी
हैं। यह बड़ी
अच्छी
अभिलाषा से हो
रहा है। कौन
मां—बाप अपने
बच्चे को दुखी
देखना चाहता है?
लेकिन कौन
मां—बाप अपने
बच्चे को उसके
स्वभाव के
अनुसार जीने
देने के लिये
राजी है। मां—बाप
की अपनी
महत्त्वाकांक्षाएं
हैं, जो
अतृप्त रह
गयीं।
महत्त्वाकांक्षाएं
तो सभी की
अतृप्त रह
जाती हैं, किसी
की कभी पूरी
होती नहीं।
बुद्ध
ने कहा है :
तृष्णा दुष्पूर
है। तृष्णा का
स्वभाव ही है दुष्पूर
होना, वह कभी
पूरी नहीं
होती। मां—बाप
की अभिलाषाएं
अधूरी रह गयी
हैं, वे
बच्चों के
कंधों पर सवार
होकर अपनी
अभिलाषाएं
पूरी करना
चाहते हैं।
हालाकि ऐसा वे
सोचते नहीं, न ऐसा वे
कहते हैं, न
ऐसा उन्हें
बोघ है। वे तो
सोचते हैं
बच्चों के हित
में वे यह कर
रहे हैं।
बच्चा कहता है,
मुझे
बांसुरी
बजानी है। बाप
कहता है, 'पागल,
फेंक
बांसुरी, गणित
कर, भूगोल
पढ़, इतिहास
पढ़। यह काम
आएगा।
बांसुरी
बजाकर क्या
भूखे मरना है,
क्या भीख
मांगनी है? '
एक
बहुत बडे
सर्जन की
पचहत्तरवीं
वर्षगांठ मनायी
गयी। नृत्य का
आयोजन हुआ, भोज
का आयोजन हुआ।
उसके सारे
मित्र, उसके
सारे शिष्य
इकट्ठे हुए।
उन्होंने बड़ी
प्रशंसा में,
उसकी
स्तुति में
बड़ी—बड़ी बातें
कहीं। कहा कि
आपसे बड़ा
सर्जन पृथ्वी
पर नहीं है।
लेकिन वह उदास
ही बैठा रहा।
उसके एक मित्र
ने कहा कि हम
सब उत्सव मना
रहे हैं
तुम्हारे
पचहत्तरवें
जन्म—दिन का, दुनिया से, दूर—दूर
कोनों से
तुम्हारे
मित्र और
तुम्हारे शिष्य
इकट्ठे हुए
हैं और तुम हो
कि उदास बैठे
हुए हो! तुम
सफलतम
व्यक्तियों
में से एक हो।
उस
सर्जन ने कहा, मत
कहो यह बात, मत कहो! यह
सारा उत्सव
देखकर, नाचते
हुए जोड़ों को
देखकर मेरे
चित्त में जो
उदासी छा रही
है, वह मैं
जानता हूं।
क्योंकि मैं
वस्तुत: एक
नर्तक होना
चाहता था।
लेकिन मेरे
पिता ने मुझे
सर्जन बना
दिया। धक्के
दे—देकर भेज
दिया मुझे
मेडीकल कालेज।
मैं जाना
चाहता था
संगीत
अकेडेमी में।
आज तुम सबको
नाचते देखकर
मैं अनुभव कर
रहा हूं मेरा
जीवन व्यर्थ
गया। मुझे कोई
आनंद नहीं
मिला सर्जन
होने से। धन
मिला, सफलता
मिली, आनंद
नहीं मिला।
मैं भीतर खाली
का खाली रहा।
मैं गरीब रहता,
लेकिन
नर्तक हो गया
होता, तो
मुझे आनंद
मिलता।
और
आनंद से बड़ी
कोई संपदा है?
स्वभाव
के अनुसार जब
कोई चलता है
तो आनंद घटता
है और स्वभाव
के प्रतिकूल
जब कोई चलता है
तो दुख। दुख
और सुख की तुम
परिभाषा खयाल
रखना। सुख का
अर्थ है :
स्वभाव के
अनुकूल। कभी
भूल—चूक से जब
तुम स्वभाव के
अनुकूल पड़
जाते हो तो सुख
होता है। भूल—चूक
से ही पड़ते हो
तुम,
क्योंकि
तुम्हें बोध
तो है नहीं।
कभी आकस्मिक
रूप से संग—साथ
हो जाता है, तुम्हारे
स्वभाव का, ये और बात।
लेकिन जितनी
देर को संग
साथ हो जाता
है, उतनी
देर के लिए
जीवन में
रोशनी आ जाती
है। जितनी देर
के लिए संग—साथ
हो जाता है, जीवन में
नृत्य और
उत्सव आ जाता
है। मगर यह सब
आकस्मिक है।
कभी—कभी हो
जाता है।
आमतौर से तो
तुम अपने साथ
जबरदस्ती किए
जाते हो, वही
तुम्हें
सिखाया गया है।
इसको अच्छे—अच्छे
नाम दिए हैं—अनुशासन,
कर्त्तव्य,
शिक्षा, दीक्षा।
मगर क्या करते
हैं हम शिक्षा—दीक्षा
में? महत्वाकांक्षा
सिखाते हैं।
सम्यक्
शिक्षा का अभी
पृथ्वी पर
जन्म नहीं हुआ
है। हो जन्म
तो इस पृथ्वी
पर एक—एक
व्यक्ति
उत्सव हो। हर
व्यक्ति में
फूल खिले। हर
व्यक्ति में
सुगंध हो, ज्योति
जले। लेकिन सब
उदास, सब
बुझे दीए बैठे
हैं। सारी
पृथ्वी पर
विषाद ही
विषाद है।
किसी तरह
ढकेले जाते
हैं, जीए
जाते हैं। एक
ही आशा है कि
कोई सदा थोडे
ही जिंदा रहना
है, अरे
कभी तो खत्म
हो ही जाएंगे।
और इतने दिन
गुजारा और
थोड़े दिन
गुजार लेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मर रही
थी,
मरणशैया पर
पड़ी थी।
डाक्टर ने
उसके कान में
फुसफुसाकर
कहा कि क्षमा
करो, तुम्हारी
पत्नी दो—तीन
महीने से ज्यादा
नहीं जी सकेगी।
मुल्ला
ने कहा, 'कोई
फिक्र न करो।
अरे जब तीस
साल गुजार दिए
तो तीन महीने
और गुजार
देंगे। क्यों
इतने दुखी हो
रहे हो? तीन
महीने की बात
है, गुजार
देंगे।
यहां
न कोई प्रेम
अनुभव कर रहा
है,
न कोई
धन्यभाग
अनुभव कर रहा
है। मामला
क्या हो गया
है? पशु—पक्षी
भी ज्यादा
आनंदित मालूम
होते हैं।
तुमने कभी
किसी कोयल से
बेसुरापन
सुना, किसी
कोयल से? तुमने
कभी किसी कोयल
के कंठ से
बेसुरे राग
उठते देखे? सभी कोयलों
के कंठ से सदा
सुरभरे राग ही
उठते हैं।
तुमने किसी
पपीहे को जब
पी—कहा
पुकारता है, तो अनुभव
किया? सारे
पपीहे एक ही
माधुर्य से पी—कहा
पुकारते हैं।
तुमने किसी
हिरण को कुरूप
देखा? सभी
हिरण सुंदर
मालूम होते
हैं। जरा जंगल
जाओ, पशु—पक्षियों
को देखो। सभी
प्रफुल्लित, सभी मस्त, सभी अपनी
चाल में
मदमाते! आदमी
को क्या हो
गया है? आदमी,
जो कि इस
पृथ्वी पर
सबसे ज्यादा
श्रेष्ठतम
चैतन्य का
मालिक है, बुद्धिमत्ता
का धनी है, इसको
क्या हो गया
है? इस पर
कौन—सा
दुर्भाग्य
घटा है? इस
पर कौन—सा
अभिशाप पड़ गया
है?
पशु—पक्षियों
के पास इतनी
बुद्धि नहीं
है कि वे स्वभाव
के विपरीत जा
सकें। सहज ही
स्वभाव के
अनुकूल होते
हैं। आदमी का
सौभाग्य भी
यही है कि
उसके पास
बुद्धि है और
दुर्भाग्य भी
यही है कि
उसके पास
बुद्धि है। अब
तुम्हारे हाथ
में है, तुम
चाहे सौभाग्य
बना लो चाहे
दुर्भाग्य।
धन्य हैं वे
लोग जो अपनी
बुद्धि का
उपयोग ऋत् के
साथ जोड़ लेते
हैं। और अभागे
हैं वे जन, जो
ऋत् के विपरीत
चल पडते हैं।
ध्यान
है ऋत् के
आविष्कार की
प्रक्रिया।
ध्यान का अर्थ
होता है :
साक्षीभाव।
भीतर
साक्षीभाव से
देखो कि
तुम्हारी
निजता क्या है।
और अपनी निजता
की उद्घोषणा
करो,
चाहे कुछ भी
कीमत चुकानी
पड़े। भूखा
मरना पड़े, गरीब होना
पड़े, मगर
अगर बांसुरी
बजाने में ही
तुम्हारा रस है
तो बांसुरी ही
बजाना। तुम
भिखारी होकर
भी सिकंदर
महान से
ज्यादा सुखी
होओगे। मत बेच
देना अपनी
आत्मा को, क्योंकि
आत्मा को
बेचने का एक
ही अर्थ होता
है. ऋत् के
विपरीत चले
जाना। आचरण
थोथा है, ऊपर
से आरोपित है।
दूसरों ने कह
दिया—ऐसा करो,
ऐसा उठो, ऐसा बैठो—और
तुम मानकर चले
जा रहे हो।
तुम नकलची हो
गए हो। तुम
पाखंडी हो गए
हो। तुमने एक
पर्त ओढ़ ली है
ऊपर से, एक
चदरिया ओढ़ ली
है राम—नाम की।
और भीतर? भीतर
तुम कुछ और हो।
तो तुम्हारे
भीतर खंड हो
गए। तुम्हारा
व्यक्तित्व
विभाजित हो
गया। और जहां
विभाजन है वहा
विषाद है।
क्योंकि
संगीत टूट
जाता है।
बांसुरी अलग
बज रही है, तबला
अलग बज रहा है;
दोनों में
कोई तालमेल
नहीं है। तबला
बांसुरी को
नष्ट कर रहा
है, बांसुरी
तबले को नष्ट
कर रही है; दोनों
एक दूसरे से
दुश्मनी साधे
हुए हैं।
संगीत नहीं
बैठ रही है, साज नहीं
बैठ रहा है।
सब बेसाज हुआ जा
रहा है!
तुम
जरा अपने को
भीतर देखो सब
बेसाज हुआ जा
रहा है। और
क्या कारण है
बेसाज हो जाने
का—तुमने अपनी
न सुनी, औरों
की सुनी। और
औरों को क्या
पता कि तुम
क्या होने को
पैदा हुए, तुम्हारी
नियति क्या है।
औरों को क्या
पता कि
तुम्हारे
जीवन का
अभिप्राय
क्या है। तुम्हें
पता नहीं तो
औरों को कैसे
पता होगा।
औरों को अपना
पता नहीं, तुम्हारा
कैसे पता
होगा।
संन्यास
का मैं एक ही
अर्थ करता हूं
: अपनी निजता
की उद्घोषणा।
संन्यास
बगावत है, विद्रोह
है—समस्त थोपे
गए आचरण के
विपरीत; दूसरों
की जबरदस्ती
के विपरीत।
संन्यास इस
बात का स्पष्ट
स्वीकार है कि
मैं अब अपने
ढंग से जीऊंगा,
चाहे जो भी
परिणाम हो।
मैं किसी और
के द्वारा
नहीं जीऊंगा।
कोई और मुझे
खींचतान करे
तो मैं इनकार
करूंगा। न तो
मैं किसी की
जबरदस्ती सहूंगा
और न किसी पर
जबरदस्ती
करूंगा।
संन्यास इन दो
बातों की
घोषणा है। ये
दो बातें एक
ही सिक्के के
पहल हैं—दो
पहलू मगर
सिक्का एक।
मैं
स्वतंत्रता
से जीऊंगा।
यह
'स्वतंत्रता'
शब्द बड़ा
प्यारा है।
दुनिया की
किसी भाषा में
ऐसा शब्द नहीं।
स्वतंत्रता
का अर्थ होता
है : स्वयं का
तंत्र, स्वयं
के आंतरिक बोध
में जीना। और वही
स्वच्छंदता
का भी अर्थ
होता है। बिगड
गया, लोगों
ने उसका अर्थ
खराब कर लिया
है।
जिन्होंने
खराब कर लिया
है, वे ही
लोग हैं
तुम्हारे
दुश्मन।
उन्होंने ही
तुम्हें खींच—खींचकर
परतंत्र किया
है। मगर
परतंत्र भी जब
किसी को करना
हो तो होशियारी
से करना होता
है। जंजीरें
भी पहनानी हों
तो सोने की
पहनाओ, क्योंकि
वे आभूषण
लगेंगी। और
आभूषण के धोखे
में आदमी पहन
लेगा। मछली को
भी पकड़ने जाते
हैं तो काटे
में आटा लगाते
हैं। कोई मछली
कांटा तो
लीलने को राजी
होगी नहीं, आटा लीलने
को राजी हो
जाती है। और
आटे के साथ
काटा चला जाता
है। जंजीरें
बनानी हों तो
कम से कम सोने
का पालिश तो चढा
ही दो। न
मिलें असली
हीरे—जवाहरात
तो सस्ते
खरीदकर नकली
लगा दो, मगर
चमकदार पत्थर
होने चाहिए।
ऐसी भ्रांति
हो जाए कैदी
को कि ये
आभूषण हैं, तो फिर
तुम्हें उस पर
पहरा नहीं
बिठाना पड़ेगा।
वह खुद ही
अपने आभूषणों
की रक्षा
करेगा।
संन्यास
इस बात की
घोषणा है कि
दूसरे आभूषण
भी दें तो
जंजीरें बन
जाते हैं।
दूसरा
तुम्हें
परतंत्रता ही
दे सकता है।
और दूसरे
तुम्हें
समझाते हैं कि
देखो स्वच्छंद
मत हो जाना।
हालांकि 'स्वच्छंद'
शब्द बड़ा
प्यारा है।
उसका अर्थ है :
स्वयं के छंद
को उपलब्ध हो
जाना। बड़ा
अद्भुत शब्द
है! स्वयं के
गीत को... छंद
यानी गीत!
हमारे पास एक
उपनिषद् है :
छांदोग्य
उपनिषद्। छंद
बड़ा प्यारा
शब्द है। ऋत्
का भी वही
अर्थ है।
तुम्हारे
भीतर का जो
नाच है, जो
गीत है, जो
संगीत है, जो
स्वर हैं—उसको
ही जीओ। जरूर
कठिनाई होगी।
तलवार की धार
पर चलने जैसा
है, क्योंकि
ये चारों तरफ
जो लोग
तुम्हें घेरे
हुए हैं, कोई
भी बर्दाश्त न
करेंगे।
क्योंकि जो
व्यक्ति अपने
छंद से जीता
है वह बहुत
बार दूसरों की
आज्ञा
स्वीकार करने
में अपने को
असमर्थ पाता
है। हर बात
में ही न भर
सकेगा। जब
उसके स्वयं के
छंद के अनुकूल
होगी तो हां
भरेगा, जब
प्रतिकूल
होगी तो
विनम्रता से
नहीं कहेगा।
वह आज्ञाकारी
नहीं हो सकता।
जरूरत नहीं है
कि वह जरूरी
रूप से आज्ञा
का खंडन करे।
मगर आज्ञा को
तब तक ही
मानेगा जब तक
उसके छंद के
साथ तालमेल है;
जहां छंद से
तालमेल टूटा,
वहा पिता
कहते हों, कि
शिक्षक कहते
हों, कि
राजनेता कहते
हों, कि
धर्मगुरु
कहते हों, कोई
भी कहता हो..।
स्वयं के छंद
से बड़ी कोई
चीज नहीं
क्योंकि स्वयं
का छंद ईश्वर
की वाणी है।
वह तुम्हारे
भीतर बैठे हुए
परमात्मा का
स्वर है। उसके
अनुसार जीना
संन्यास है और
उसको खोज लेना
ध्यान है।
प्यारा
है यह सूत्र : 'ऋतस्य
यथा प्रेत!' ऋत् के
अनुसार जीओ।
यह क्रांति का
मूलसूत्र है।
यह
आध्यात्मिक क्रांति
का आधार है, बुनियाद है।
यह एक चिनगारी
है, जो
तुम्हारे
भीतर आग को
पैदा कर देगी।
तुम्हें
आग्नेय कर
देगी। तुम
प्रज्जवलित
हो उठोगे। तुम
न केवल खुद
प्रकाशित हो
जाओगे, तुम्हारे
प्रकाश से
दूसरे भी
प्रकाशित
होने लगेंगे।
तुम्हारी
ज्योति से
दूसरे भी अपने
बुझे दीयों को
जला सकते हैं।
मगर
यह जमीन
गुलामों से
भरी है। कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई जैन है।
ये सब गुलामों
के नाम हैं।
मैं तुमसे
नहीं कहता किए
जैन बनो। मैं
कहता हूं : जिन
बनो! जिन यानी
विजेता। जैसे
महावीर जिन थे।
महावीर जैन
नहीं थे, जिन
थे। जैन वह है
जो नकल कर रहा
है, जो
महावीर के ढंग
से चलने की
कोशिश कर रहा
है। और ध्यान
रखना, दुनिया
में दो महावीर
न पैदा हुए
हैं, न
होंगे। इस जगत
मे प्रत्येक व्यक्ति
को परमात्म।.
अद्वितीय
बनाता है, बेजाड़
बनाता है। और
जब भी तुम
किसी की नकल
करते हो, तुम
परमात्मा का
अपमान करते हो।
तुम अपना भी
अपमान करते हो।
ये दोनों एक
ही बात हैं—परमात्मा
का अपमान करना
या अपना अपमान
करना।
और
जब भी तुम नकल
करोगे तो एक
बात खयाल रखना, जिसकी
तुम नकल कर
रहे हो वह तो
तुम हो ही न
पाओगे। वह तो
हो ही नहीं
सकता। वह तो
ऋत् के विपरीत
है। क्योंकि
दो आदमी एक
जैसे न कभी
होते हैं, न
हो सकते हैं।
और दूसरा खतरा
है कि दूसरे होने
की कोशिश में
तुम्हारी
ऊर्जा लग
जायेगी तो स्वयं
होने के लिए
ऊर्जा न बचेगी।
दूसरे तुम हो
न सकोगे। और
स्वयं जो हो
सकते थे, वह
तुम हो न
पाओगे।
तुम्हारा
जीवन विडंवना
हो जायेगी।
तुम्हारा
जीवन एक तनाव—सिर्फ
एक तनाव, एक
चिंता, एक
व्यथा हो
जायेगी।
हर
आदमी के चेहरे
पर व्यथा लिखी
है। व्यथा ही
हमारी
एकमात्र कथा
है,
और हमारे
पास कुछ भी
नहीं। दुख ही
दुख! और सबसे
बड़ा दुख यह है
कि व्यक्ति अपने
केंद्र से
स्मृत हो जाए।
और सारे
तुम्हारे
हितेच्छु
तुम्हें
स्मृत करने
में लगे हैं।
वे भी अंधे
हैं। कोई
जानकर नहीं कर
रहे हैं। सारी
शिक्षा की
आयोजना ऐसी है
कि प्रत्येक
व्यक्ति को
उसके स्वभाव
से हटा देती
है। महत्त्वाकांक्षा
दे देती है।
पद पर पहुंचने
की दौड़ दे
देती है। धन
कमाने की एक
विक्षिप्तता
पैदा कर देती
है।’आगे हो
जाओ, सबसे
आगे हो जाओ!
दौड़ो, लड़ो!
फिर कोई भी
साधन हों, येन
केन प्रकारेण,
लेकिन
तुम्हें पद पर
होना है! धनी
होना है!' और
कोई नहीं
पूछता कि पद
पर होकर करोगे
क्या? धन
ही पा लोगे तो
करोगे क्या? अगर खुद को
गंवा दिया और
सारी दुनिया
का धन भी पा
लिया तो क्या
सार है क्या
हाथ लगेगा? खाक भी हाथ
नहीं लगेगी।
लकड़ी जल
कोयला भई
कोयला जल भई
खाक
मैं पापिन
ऐसी जली कोयला
भई न राख
ऐसे
जलोगे कि न
कोयला हाथ
लगेगा, न राख
हाथ लगेगी।
कुछ भी हाथ न
लगेगा।
व्यर्थ ही जल
जाओगे। लेकिन
न तो अभी
सम्यक्शिक्षा
पैदा हो सकी
है, न
सम्यक्
सभ्यता पैदा
हो सकी है, क्योंकि
बिना शिक्षा
के कैसे
सभ्यता पैदा
हो? और जब
सभ्यता ही
पैदा नहीं हो
सकती तो संस्कृति
कैसे पैदा हो?
शिक्षा
पहली चीज है।
सम्यक्
शिक्षा
अर्थात्
स्वयं के ऋत्
के अन्वेषण की
विधि। उससे
दोनों चीजें
पैदा होंगी!
बाहर के जगत
में सभ्यता
पैदा होगी; तुम्हारा
दूसरों से जो
संबंध है, बड़े
प्रीति और बड़े
आनंद का हो
जाएगा। और
उससे
.संस्कृति
पैदा होती है—संस्कृति
भीतरी चीज है,
आंतरिक चीज
है। तुम्हारा
आत्म—परिष्कार
होगा।
तुम्हारे
भीतर जो भी
कूड़ा—करकट है,
छंटता
जाएगा।
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा की
मूर्ति
निखरती आएगी।
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
से किसी ने
कहा कि आपका
सभ्यता के
संबंध में
क्या खयाल है? जार्ज
बर्नार्ड शॉ
ने कहा, 'सभ्यता
बहुत अच्छा
विचार है, लेकिन
किसी को उस
विचार को
क्रियान्वित
करने की कोशिश
करनी चाहिए।
विचार ही है
सिर्फ। अभी
आदमी सभ्य हुआ
नहीं। अभी हम
सभ्यता पूर्व
अवस्था में
हैं। और
संस्कृति तो
बहुत दूर की
बात है, जब
सभ्यता ही
नहीं हुई।
सभ्यता यानी
बाहर के संबंध,
तो भीतर का
परिष्कार तो
अभी कैसे होगा?
और दोनों
नहीं हो पा
रहे हैं, क्योंकि
शिक्षा हमारी
बुनियादी रूप
से गलत है।
जिस
शिक्षा में
ध्यान आधार
नहीं है, वह
शिक्षा कभी भी
सही नहीं हो
सकती। वह क्या
सिखाएगी? धन
सिखाएगी, पद
सिखाएगी, प्रतिष्ठा
सिखाएगी। ये
अहंकार के ही
सींग हैं—पद
प्रतिष्ठा
इत्यादि—इत्यादि।
और ध्यान
तुम्हें
निरहकारिता
सिखाता है। और
निरहंकारिता
में ही तो ऋत्
का अनुभव हो
सकता है। जब
मैं नहीं हूं
तभी तो पता
चलता है कि
परमात्मा है। जहां
मैं गया वहां
परमात्मा है।
और जहां मैं
नहीं वहां ऋत्
है।
ऋत्परमात्मा
से भी प्यारा
शब्द है।
क्योंकि
परमात्मा से
खतरा है कि
कहीं तुम पूजा
न करने लगो।
ऋत् में तो यह
खतरा नहीं है।
ऋत् की पूजा
नहीं की जा
सकती। ऋत् के
अनुसार जीआ जा
सकता है। ऋत्
जीवन बनता है, परमात्मा
आराध्य बन
जाता है, वह
खतरा है, शब्द
का खतरा है।
इसलिए बुद्ध
जैसे अद्भुत व्यक्ति
ने परमात्मा
शब्द का उपयोग
ही नहीं किया,
इनकार ही कर
दिया कि छोड़ो
यह बकवास है।
धर्म की बात
करो, परमात्मा
की बात मत करो।
आमतौर
से हम सोचते
हैं कि
परमात्मा के
बिना कैसा
धर्म? लेकिन
बुद्ध ने कहा :
धर्म
पर्याप्त है।
धर्म यानी ऋत्।
धर्म यानी
जिसने सबको धारण
किया है। धर्म
यानी जिसके
आधार पर हम जी
रहे हैं; श्वास
ले रहे हैं, हम चेतन हैं।
उसको ही समझ
लो। उसको ही
पहचान लो।
ध्यान उसी के
आविष्कार की
कला है। जैसे
हर जगह जमीन
के नीचे पानी
है, कुदाली
उठाकर खोदो तो
पानी मिल
जाएगा। ध्यान
कुदाली है।
हरेक के भीतर
ऋत् है। जरा
खोदो। समाज ने
बहुत सी
मिट्टी
तुम्हारे ऊपर
जमा दी है। न
मालूम कहां—कहां
के कचरा विचार
तुम्हारे ऊपर
आरोपित कर दिए
हैं! उन सबको
जरा हटा डालो।
कूड़ा—करकट को
अलग कर दो, पत्थर—मिट्टी
को तोड़ डालो
और तुम्हारे
भीतर झरना फूट
पड़ेगा। फिर उस
झरने को जीओ।
वही झरना तुम
हो, तुम्हारा
स्वभाव है—तुम्हारी
स्वतंत्रता, तुम्हारी
स्वच्छंदता, तुम्हारी
निजता, तुम्हारा
अहोभाव। फिर
तुम जैसा भी
जीओगे वही ठीक
है, वही
सम्यक है, वही
पुण्य है।
ऋत्
के विपरीत
जाना पाप है।
ऋत् के साथ
कदम उठाना
पुण्य है। ऋत्
के विपरीत जो
गया उसका
परिणाम दुख है।
और ऋत् के साथ
जो बहा उसका
परिणाम
महासुख है।
'ज्यू
मछली बिन नीर'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
26 सितम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
Thank You Guruji
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