सूत्र:
5—उत्तेजना
की इच्छा को
दूर करो।
इंद्रियजन्य
अनुभवों से
शिक्षा लो और
उसका निरीक्षण
करो,
क्योंकि
आत्म—विद्या
का पाठ इसी
प्रकार आरंभ
किया जा सकता
है
और इसी
प्रकार तुम इस
सीडी की पहली
पटिया पर अपना
पैर जमा सकते
हो।
6—उन्नति की
आकांक्षा को
दूर करो।
फूल के
समान खिलो और
विकसित होओ।
फूल को
अपने खिलने का
भान नहीं रहता,
किंतु वह
अपनी आत्मा को
वायु के समक्ष
उन्मुक्त
करने को
उत्सुक रहता
है।
तुम भी उसी
प्रकार अपनी
आत्मा को
शाश्वत के
प्रति खोल
देने को
उत्सुक रहो।
परंतु
उन्नति की
आकांक्षा
नहीं,
शाश्वत ही
तुम्हारी
शक्ति और
तुम्हारे
सौंदर्य को
आकृष्ट करे।
क्योंकि
शाश्वत के
आकर्षण से तो
तुम पवित्रता
के साथ आगे
बढ़ोगे, पनपोगे,
किंतु
व्यक्तिगत
उन्नति की बलवती
कामना
तुमको
केवल जड़ व
कठोर बना देगी।
आनंद
है अति
सूक्ष्म।
आवाज
परमात्मा की
बहुत धीमी है।
केवल वे ही
सुन सकते हैं
उस आवाज को, जिन्होंने
व्यर्थ की
आवाजों और
व्यर्थ की आवाजों
के आकर्षण से
अपने को मुक्त
कर लिया हो।
हम तो भीड़ में
जीते हैं
आवाजों की।
परमात्मा का
स्वाद बहुत
सूक्ष्म है।
और केवल वे ही
उस स्वाद को
ले सकेंगे, जिनकी स्वाद
लेने की
क्षमता
उत्तेजना की
दौड़ ने नष्ट
नहीं कर दी है।
लेकिन
सारी
इंद्रियां
उत्तेजना के
लिए आतुर हैं।
और उत्तेजना
का एक नियम है
कि जितनी
उत्तेजना दी
जाए,
उतनी ही
ज्यादा
उत्तेजना की
जरूरत होती
चली जाती है।
जैसे कोई आदमी
शराब की एक
प्याली पीए, तो आज बेहोश
होगा, लेकिन
कल दो प्याली
की जरूरत
पड़ेगी—एक
प्याली काफी न
रह जाएगी। एक
प्याली को पचा
लेने की
क्षमता पैदा
हो जाएगी। एक
प्याली से कोई
उत्तेजना ही
पैदा न होगी।
कल दो प्याली
की जरूरत पड़ेगी,
लेकिन
परसों तक दो
प्याली भी
व्यर्थ हो
जाएंगी। उतनी
उत्तेजना भी
शरीर समा लेगा,
तब तीन
प्याली की
जरूरत पड़ेगी।
और
ऐसी घड़ी भी आ
सकती है कि
शराब पानी
जैसी हो जाए, उसमें
कोई उत्तेजना
न रह जाए। तब
और मादक जहर
काम में लाने
पड़ेंगे।
आसाम
में अब भी
तांत्रिकों
का एक छोटा
समुदाय सांप
को पाल कर
रखता है।
क्योंकि और
सभी तरह के
जहर नशा नहीं
लाते, सिर्फ
सांप से जीभ
पर कटाएं, तो
थोड़ा—बहुत नशा
आता है।
उत्तेजना
की दौड़ में हम
धीरे— धीरे जड़
होते चले जाते
हैं। जितनी
तेज उत्तेजना
हम लेंगे, उतनी
ही हमारी
इंद्रियों की
क्षमता अनुभव
करने की कम हो
जाती है। फिर
और ज्यादा
चाहिए, फिर
और ज्यादा
चाहिए। और इस
दौड़ का कोई
अंत नहीं है।
आखिर में यह
दौड़
इंद्रियों को
बिलकुल पत्थर
बना देती है।
अगर
आप भोजन में
बहुत तेज
उत्तेजनाएं
पसंद करते हैं, तो
बहुत शीघ्र ही
आपके स्वाद की
क्षमता मर जाएगी।
कितनी ही
मिर्च आप लें,
बेस्वाद
मालूम पड़ेगा।
मिर्च का रस
क्या है? तेज
उत्तेजना है
स्वाद को
जगाने के लिए।
लेकिन जिसे हम
जगाने के लिए
लेते हैं, वही
मारने का कारण
हो जाता है।
अगर आप बिना
मिर्च के भोजन
लें, तो
आपको लगेगा कि
आप मिट्टी खा
रहे हैं। भोजन
का जो स्वाद है,
वह आपको आता
ही नहीं अब।
आपकी स्वाद की
क्षमता कम हो
गई। यह उलटा
लगेगा। स्वाद
की दौड़ में
स्वाद की
क्षमता कम हो
जाती है। जो
स्वाद बुद्ध
और महावीर को
भोजन से मिला
होगा, वह
आपको नहीं मिल
सकता।
इसलिए
मैं तो निरंतर
कहता हूं कि
जिनको हम आप त्यागी
कहते हैं, उन
जैसा परम—
भोगी खोजना
मुश्किल है।
क्योंकि उनका
जो भी अनुभव
है, शुद्धतम
है। अगर बुद्ध
पानी भी
पीएंगे, तो
उसमें भी जो
स्वाद ले
पाएंगे, वह
आप शराब में
भी न ले
पाएंगे।
क्योंकि
जितनी
उत्तेजना कम
दी गई है
इंद्रियों छ
को, उतनी
ही इंद्रियां
ज्यादा सक्षम
रहती हैं और सूक्ष्म
को पकड़ने में
कुशल होती हैं।
अगर
आप जोर से बैंड़—बाजे
के सुनने के
आदी रहे हों, तो
फिर पक्षियों
की धीमी सी
आवाज आपको
सुनाई नहीं
पड़ेगी। लेकिन
उनका भी गीत
है। फिर
झींगुर की
सन्नाटे में
आने वाली आवाज
का आपको पता
भी नहीं चलेगा,
उसका भी गीत
है। फिर हवाएं
जो वृक्षों से
गुजरती हैं, उनकी जो सरसराहट
है, उसका
भी संगीत है, लेकिन वह
आपको सुनाई
नहीं पड़ेगा।
लेकिन ये भी
उत्तेजनाएं काफी
हैं। हृदय के
भीतर जो गीत
की गज उठती है,
वह तो आपको
पता ही नहीं
चलेगी। और
आपके अंतस—आलोक
में अंतस—आकाश
में जो नाद
प्रतिध्वनित
होता है ओंकार
का, वह तो
आपको कभी पता
न चलेगा। और
जिसने अपने
हृदय के नाद
को नहीं सुना,
उसने कुछ भी
नहीं सुना। वह
वंचित ही रह
गया संगीत के
परम माधुर्य
से।
तो
यह बात पहले
खयाल में ले
लें,
फिर हम
सूत्र को
समझने चलें, कि जितनी
उत्तेजना की
दौड़ होगी, उतनी
ही ज्यादा आपके
अनुभव की
क्षमता कम हो
जाएगी। इसलिए
आज दुनिया में
उत्तेजना बहुत
है, और
अनुभव बहुत कम
है। इतने सुख
के साधन जमीन
पर कभी भी
नहीं थे।
पुराणों में
स्वर्ग की जो
चर्चा है, उसमें
भी इतने
साधनों का
वर्णन नहीं है।
कल्पना में
थीं ये बातें,
वे सब पूरी
हो गईं।
विज्ञान
ने कल्पना को
साकार कर दिया।
आपके पास इतने
साधन हैं
अनुभव के, लेकिन
आदमी जो अनुभव
करने वाला है,
वह बिलकुल
जड़ हो गया है।
अमरीका
से एक युवती
अभी कुछ दिन
पहले मेरे पास
आई। उसने मुझे
कहा कि आपकी
पुस्तक पढ़ी, फ्राम
सेक्स टु सुपर
कांशसनेस, संभोग
से समाधि की
ओर। उसको पढ़
कर ही मैं
आपके पास आई
हूं। मुझे न
ध्यान में कोई
उत्सुकता है,
न मुझे
परमात्मा की
कोई तलाश है, लेकिन मुझे
सेक्स में,
काम—संबंध में,
किसी तरह का
भी रस अनुभव
नहीं होता, मैं उससे ही
परेशान हूं।
किसी तरह का
रस मुझे अनुभव
नहीं होता, मुझे कोई
उत्तेजना ही प्रतीत
नहीं होती।
मैं चिकित्सा
करा चुकी हूं
डाक्टरों के पास,
मनोविश्लेषकों
के पास मानसिक
विश्लेषण करा चुकी
हूं हजारों
रुपए व्यर्थ
खराब हो गए
हैं, लेकिन
मुझे सेक्स
में किसी तरह
का रस नहीं है।
सोचा आपने यह
किताब लिखी है,
तो आपके पास
आई। तो मैंने
उससे पूछा कि सेक्स
के संबंध में
तूने प्रयोग
क्या—क्या किए
हैं?
तो
आपने अभी सुना
भी न होगा, लेकिन
अमरीका में
बहुत प्रचलित
हो गया है। एक
विद्युत जननेंद्रिय
उन्होंने बना
ली है, इलेक्ट्रिक
वाइब्रेटर।
पुरुष की
जननेंद्रिय
जैसी विद्युत
की जननेंद्रिय
बना ली है, जो
बैटरी से चलती
है या बिजली
से चलती है।
तो वह लड़की
इलेक्ट्रिक
वाइब्रेटर का
प्रयोग कर रही
थी। तो
इलेक्ट्रिक
वाइब्रेटर का
जब आप प्रयोग
करेंगे, तो
फिर आपकी काम—इंद्रिय
बिलकुल जड़ हो
जाएगी।
क्योंकि किसी
पुरुष की
जननेंद्रिय
में विद्युत
जैसी
जननेंद्रिय
की शक्ति नहीं
है। तो मैं उसको
कहा कि तुझे
और कहीं कोई
कठिनाई नहीं
है, यह
इलेक्ट्रिक
वाइब्रेटर ने
तुझे नष्ट कर
दिया है, तू
इसे छोड़े दे।
कोई भी
इंद्रिय हो, अगर आप उसके
साथ उत्तेजना
की दौड़ में
पड़ेंगे, तो
निश्चित ही इलेक्ट्रिक
वाइब्रेटर
बहुत उत्तेजक
है। लेकिन तब
जो नैसर्गिक
क्षमता है
इंद्रिय की, वह खो जाएगी।
जान
कर आप हैरान
होंगे कि
तंत्र ने तो
जननेंद्रिय
के साथ भी
सूक्ष्म
अनुभव के
प्रयोग किए हैं।
तो दूसरे के
शरीर से भी
जननेंद्रिय
का जो घर्षण
है,
वह भी
उत्तेजना है,
उसकी भी
जरूरत नहीं है।
आपके काम—केंद्र
पर जो
कामवासना
उठती है, उसका
ही अनुभव, बिना
दूसरे की
मौजूदगी के, बिना. दूसरे
की सहायता के।
वह और भी
सूक्ष्म है, उसका रस और
भी गहरा है।
लेकिन
उत्तेजना जब
तक जननेंद्रिय
के पास पहुंच
जाती है, तब
भी वह काफी
उत्तेजना हो
गई। वह भी आप
अपने ही शरीर
के. भीतर
घर्षण की
स्थिति में
पहुंच गए।
दूसरा मौजूद
नहीं है, लेकिन
आपके भीतर ही
घर्षण शुरू हो
गया। वह भी
काफी स्थूल हो
गई बात! तो
तंत्र ने फिर
यह भी प्रयोग
किया है कि
सिर्फ भाव में—शरीर
में उसकी कोई
भी
प्रतिध्वनि न
हो— सिर्फ भाव
में काम का
अनुभव हो। वह
और भी सूक्ष्म
है। लेकिन भाव
का भी घर्षण
है। तो भाव
में भी नहीं!
भाव के नीचे
भी जो अचेतन
का तल है, जहां
हमें पता भी नहीं
चलता कि क्या
हो रहा है, वहां
तंत्र उस
अनुभव को ले
गया है। और तब
तंत्र ने जो
काम के गहन
अनुभव उपलब्ध
किए हैं, वे
पृथ्वी पर
किसी ने भी
उपलब्ध नहीं
किए हैं।
डुबाते जाना
है।
अगर
आप मंत्र—शास्त्र
के संबंध में
कुछ जानते हैं, तो
आपको पता होगा
कि मंत्र शुरू
किया जाता है उच्चार
से— ओंम। तो
उच्चार करते
हैं, लेकिन
उच्चारण काफी
उत्तेजक हो
गया, संघर्ष
शुरू हो गया।
आपकी वाणी जा
कर वायुमंड़ल
से टकरा गई, स्थूल हो गई
बात। लेकिन
शुरुआत करते
हैं, और
फिर ओंठ को
बंद कर लेते
हैं, फिर
भीतर ही
गुंजार करते
हैं— ओंम।
बाहर कहीं कोई
ध्वनि पैदा
नहीं होती, लेकिन भीतर
उसका रस लेते
हैं। लेकिन
भीतर भी तो
संघर्ष पैदा
होता है। तो
फिर धीरे—
धीरे भीतर भी
ओंम के गुंजार
को छोड़ देते
हैं, अपनी
तरफ से नहीं
करते। फिर तो
इस बात की फिक्र
करते हैं कि ओंम
का गुंजार
भीतर होता हो,
तो उसको
सुनें। हम न
करें, क्योंकि
हमारे करने से
घर्षण हो
जाएगा। और
भीतर एक ओंकार
का गुंजन है।
जब हम नहीं
करते, तब
वह सुनाई पड़ता
है। उसको अजपा
जाप कहा है।
हम जाप नहीं
करते और जाप
होता है।
लेकिन
जैसे—जैसे हम
भीतर सूक्ष्मता
में उतरते हैं, वैसे—वैसे
हमें
उत्तेजना का
मोह छोड़ना
पड़ता है। और
एक ऐसा स्थल
है भीतर, जो
उत्तेजना
शून्य है, जिसको
बुद्ध ने
शून्य कहा है।
इसीलिए शून्य
कहा है, कि
वहां कोई
उत्तेजना
नहीं है। जब
तक उसका अनुभव
न हो जाए, तब
तक आनंद का
कोई अनुभव न
होगा।
अब
आप फर्क को
समझ लें।
सुख
पैदा होता है
उत्तेजना से
और आनंद पैदा
होता है
निरुत्तेजना
से। सुख में
घर्षण है, आनंद
में शून्यता
है, शांति
है।
इसलिए
सुख की खोज
में हर सुख
दुख हो जाता
है,
क्योंकि और
बड़ा सुख चाहिए
तब। आज एक
स्त्री सुंदर
मालूम पड़ती है,
लेकिन चार
दिन साथ रह
जाने के बाद
सुंदर न रह
जाएगी। चार
दिन साथ रहने
के बाद और
सुंदर स्त्री
की जरूरत है।
क्योंकि आपकी
इंद्रियां तब
तक उस
उत्तेजना के
लिए राजी हो
गईं, अब और
बड़ी उत्तेजना
चाहिए।
एक
मित्र मेरे
पास आए थे।
पति और पत्नी
में गहरा
संघर्ष है।
मैंने उन
दोनों की बातें
सुनीं तो फिर
मुझे ऐसा लगा
कि उन दोनों
के बीच कहीं
भी मिलन का
कोई सेतु नहीं
रहा है। मैंने
उनसे पूछा कि
तुम ईमानदारी
से मुझे कहो
कि तुम एक—दूसरे
को देखते भी
हो?
तुम एक—दूसरे
की तरफ आख भी
उठाते हो? पति
ने मुझे कहा
कि आप पूछते
हैं तो मैं
कहता हूं कि
मैं जब इस
अपनी पत्नी को
प्रेम भी कर
रहा होता हूं
तब भी कल्पना
में यह नहीं
होती मेरे, कोई फिल्म
अभिनेत्री
होती है। और
जब तक मैं
किसी फिल्म
अभिनेत्री को
न सोच लूं तब
तक मैं इसको
प्रेम ही नहीं
कर पाता। पति
ने सोचा था कि
यह उसको ही घट
रहा है। पत्नी
ने कहा, जब
आप बता ही रहे
हैं तो मैं भी
आपको बता दूं
मैं भी जब आपसे
विवाहित न थी
तो मेरे जो
प्रेमी थे, जब तक मैं
उनको न सोच
लूं आप में, तब तक मैं
आपको प्रेम
नहीं कर पाती।
इसका
अर्थ आप समझते
हैं क्या हुआ?
दोनों
में से कोई
किसी को प्रेम
नहीं कर रहा है।
और दो नहीं
हैं उस मकान में, चार
आदमी हैं। वे
दो बीच में
खड़े हैं इन
दोनों के। और
उन दोनों के
कारण इनमें
कभी कोई मिलना
नहीं हो पाएगा।
लेकिन उनकी भी
मजबूरी है, क्योंकि
दोनों की
उत्तेजना एक—दूसरे
में समाप्त हो
गई है।
अनुभव
से उत्तेजना
समाप्त हो
जाती है, इसलिए
अनुभव से सुख
दुख बन जाते
हैं। जो सुख
आपको नहीं
मिला है अभी
तक, वही
सुख मालूम
पड़ता है। जब
मिल जाएगा, वही दुख हो
जाएगा। मिला
कि दुख हुआ।
मिलते ही सुख
दुख हो जाते
हैं, क्योंकि
उत्तेजनाएं
और बड़ी
उत्तेजनाओं
की मांग करती
हैं। और आपके
अनुभव की
इंद्रियां
शिथिल होती
चली जाती हैं।
एक घड़ी ऐसी
आती है कि आप
कुछ भी अनुभव
नहीं कर पाते हैं।
क्योंकि आपकी
सब इंद्रियों
के अनुभव की
जो संवेदनशीलताए
हैं, वे सब
जड़ हो गई होती
हैं। फिर आप
परमात्मा की
खोज में लगते
हैं!
जब
आदमी का हो
जाता है.. .मैं
बूढ़ा आदमी
उसको कहता हूं—उम्र
से नहीं—बूढ़ा
आदमी उसको
कहता हूं
जिसने
उत्तेजनाओं
की दौड़ में
अपनी सारी इंद्रियों
को जड़ कर लिया
है। यह जवानी
में भी हो
सकता है, यह
बचपन में भी
हो सकता है।
आज अमरीका में
बचपन में हुआ
जा रहा है। अब
इतनी देर नहीं
लगती, बुढ़ापे
तक रुकने की
जरूरत नहीं है।
अगर आपको इतनी
सुविधाएं
मिलें उत्तेजना
की, तो आप
बचपन में ही
जड़ हो जाएंगे।
और जब सब तरफ
से इंद्रियां
जड़ हो जाती
हैं, तब
आदमी खोज करता
है— आनंद कहां
है? आत्मा
कहां है? परमात्मा
कहां है? बड़ी
मुश्किल है, क्योंकि
उनकी खोज के
लिए तो
इंद्रियों की
संवेदना की
क्षमता शुद्ध
होनी चाहिए।
अगर
महावीर और बुद्ध
अपने
राजमहलों को
छोड़ कर भाग
जाते हैं, यह
घटना बहुत
ऊपरी है।
भीतरी घटना तो
यह है कि वह
उत्तेजना की
जगह को छोड़ कर
हट रहे हैं, ताकि
इंद्रियों की
शुद्धि और
उनकी
नैसर्गिकता
को पुन: पाया
जा सके। जंगल
की तरफ भाग
रहे हैं, उसका
अर्थ है कि
निसर्ग की तरफ
भाग रहे हैं, प्रकृति की
तरफ भाग रहे
हैं। ताकि
अनुभव करने के
जो द्वार हैं
हमारे भीतर, उन पर जितना
कूड़ा—करकट और
कचरा इकट्ठा
हो गया है, वह
हट जाए। वह जब
हट जाएगा और
हम सूक्ष्मतर
होने लगेंगे,
तभी हम उसको
सुन पाएंगे, जो केवल
सूक्ष्म
इंद्रियों से
ही सुना जा
सकता है। और
उसको देख
पाएंगे, जो
केवल सूक्ष्म आंखों
से ही देखा जा
सकता है। इसी
संबंध में यह
सूत्र है।
पहला सूत्र, ' उत्तेजना की
इच्छा को दूर
करो।’
हटाओ
उत्तेजना की
इच्छा को।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि यह
सूत्र
इंद्रिय विरोधी
है। सच तो यह
है कि आपकी
उत्तेजना की
इच्छा ही इंद्रियों
की हत्या है।
यह सूत्र
इंद्रियों की
शुद्धिकरण का
सूत्र है, उनका
विरोधी नहीं
है। अगर आप
स्वाद से
उत्तेजना को
हटा दें, तो
रूखी रोटी में
भी वैसा स्वाद
उपलब्ध हो सकेगा,
जो
राजमहलों के
भोग में
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
क्योंकि
स्वाद रोटी पर,
भोजन पर
निर्भर नहीं
करता, स्वाद
लेने वाले पर
निर्भर करता
है। आप पर
निर्भर करता
है कि आप
कितना अनुभव
कर सकते हैं, कितना गहरा
उतर सकते हैं
अनुभव में।
उत्तेजना
की इच्छा को
दूर किए बिना
कोई भी व्यक्ति
साधना के जगत
में प्रवेश
नहीं कर सकता।
क्योंकि
साधना का अर्थ
ही है कि अब हम स्थूल
को छोड़ते हैं
और सूक्ष्म की
तलाश पर निकलते
हैं। लेकिन
सूक्ष्म की
तलाश करनी तो
आपको होगी! आप सूक्ष्म
को अनुभव भी
कर सकते हैं
या नहीं? आपके
पास वह क्षमता
भी है जिससे
सूक्ष्म का मेल
हो सके?
अगर
वह क्षमता ही
नहीं, आंखें
अंधी हैं और
देखा नहीं जा
सकता, तो सूक्ष्म
मौजूद भी हो
जाए, तो भी
आपको दिखाई
नहीं पड़ेगा।
आपको क्रमश:
शुद्ध होते
जाना है। आपको
इतना शुद्ध हो
जाना है कि
कोई भी घटना
घटती हो
अंतरतम के
केंद्र पर, तो भी आपको
उसकी प्रतीति
हो जाए, तो
भी आपको अहसास
हो जाए।
आप
समझें। जिस
इंद्रिय को हम
ज्यादा उत्तेजना
देते हैं, वह
मृत हो जाती
है। और मृत हो
जाने के कारण
हमें और
उत्तेजना देनी
पड़ती है, तो
हम उसे और मृत
करते हैं।
दुष्टचक्र
पैदा हो जाता
है। फिर रोज
नया स्वाद
चाहिए, रोज
नई स्त्री
चाहिए, रोज
नया पुरुष
चाहिए, रोज
नया मकान
चाहिए, रोज
नई कार चाहिए,
फिर रोज नया
चाहिए। पर वह
नया भी कितनी
देर टिकता है?
थोड़ी देर को
पुलक आती है, क्योंकि
उसकी
उत्तेजना
हमारे अनुभव
में नहीं होती,
तो थोड़ी देर
जरा अच्छा
लगता है। फिर
थोड़ी देर में
सब चीजें
पुरानी हो
जाती हैं। हर
चीज पुरानी हो
जाएगी, जो
नई है। और
जितनी जड़
होंगी
इंद्रियां
उतनी जल्दी
पुरानी हो
जाएगी। इसलिए
कोई चीज
तृप्ति नहीं
देगी, बल्कि
हर चीज
अतृप्ति देगी।
तो तृप्ति का
रास्ता क्या
होगा?
तृप्ति
का रास्ता
होगा—वस्तुओं
पर ध्यान मत
दें,
स्वयं के
अनुभव करने की
क्षमता पर
ध्यान दें। तो
बहुत थोड़ी
वस्तुएं बहुत
तृप्ति दे
सकती हैं। न
कुछ से भी
आनंद मिल सकता
है, क्योंकि
आप देख ही रहे
हैं, सब
कुछ होने से
भी आनंद मिलता
नहीं है। न
कुछ से भी
आनंद मिल सकता
है।
डायोजनीज
हुआ यूनान में।
उसने सब छोड़
दिया, बड़ा
चिंतक था।
महावीर की तरह
यूनान में
नग्न हो जाने
वाला वह अकेला
आदमी था। वह
नग्न हो गया।
सिर्फ उसने एक
भिक्षापात्र
रख लिया था, भिक्षा के
लिए, पानी
पीने के लिए।
फिर एक दिन
उसने देखा एक
गांव से
गुजरते हुए एक
ग्रामीण को, कि वह अपनी
अंजुलि में भर
कर पानी पी
रहा है, तो
उसने तत्क्षण
अपना
भिक्षापात्र
फेंक दिया। उस
ग्रामीण ने
पूछा, आपने
यह क्या किया?
उसने कहा कि
मुझे यह खयाल
ही न था कि जब
पानी हाथ से
भी पीया जा
सकता है, तो
मैं इस आनंद
से क्यों
वंचित रहूं? भिक्षापात्र
तो जड़ है, उस
जड़ में पानी
पड़ता है, मुझे
कोई अनुभव
नहीं होता
उसका। तो मेरी
अंजुलि में ही
पानी को लूंगा,
मेरे हाथ भी
पानी के
स्पर्श को अनुभव
करेंगे, पानी
की शीतलता को,
पानी की
जीवन—दायिनी
शक्ति को, और
मेरे हाथों का
प्रेम भी पानी
में प्रवेश करेगा,
तो वह पानी
जीवंत हो
जाएगा, उसको
भी मैं पीऊंगा।
और जब
डायोजनीज ने
पहली दफा
अंजुलि से
पानी पीया, तो वह नाचने
लगा और उसने
कहा कि मैं भी
कैसा पागल था
कि एक जड़
वस्तु से पानी
पी रहा था, उसमें
से गुजर कर
पानी भी जड़ हो
जाता था। हाथ
की उष्मा, हाथ
की गर्मी पानी
को न मिल पाती
थी और वह पानी का
अपमान भी था।
इसलिए
डायोजनीज की
यह बात कह रहा
हूं कि हमारी
सारी
इंद्रियां जड़
भिक्षापात्र
की तरह हो गई हैं।
उनके द्वारा हम
जो भी लेते
हैं,
वह मुर्दा
हो जाता है।
भोजन जब तक
थाली में
दिखाई पड़ता है,
तब तक सुंदर
मालूम पड़ता है,
जैसे ही
मुंह में जाता
है, साधारण
हो जाता है।
हमारा मुंह
उसे साधारण कर
देता है।
संगीत कान में
पड़ता है, साधारण
हो जाता है।
फूल आख में
दिखाई पड़ते
हैं, साधारण
हो जाते हैं।
हम
हर चीज को
साधारण कर
देते हैं, जब
कि जगत बिलकुल
असाधारण है।
जो फूल आपको
वृक्ष पर
दिखाई पड़ रहा
है, वैसा
फूल कभी नहीं
खिला था। वह
फूल बिलकुल
नया है। उस
तरह का दूसरा
फूल पूरी
पृथ्वी पर
खोजना असंभव
है। उस तरह का
फूल कभी
इतिहास में न
हुआ और न कभी
आगे होगा। ऐसे
अद्वितीय फूल
के होने की
घटना को भी
हमारी आंखें
साधारण कर
देती हैं, कह
देती हैं कि
ठीक है, गुलाब
का फूल है, हजारों
देखे हैं।
वह
जो हजारों
देखे हैं, उनकी
वजह से आंखें
अंधी हो गई
हैं, और यह
जो सामने
मौजूद है, यह
दिखाई नहीं
पड़ता। उन
हजारों से इस
फूल का क्या
संबंध है?
इमर्सन
ने लिखा है कि
इस गुलाब के
फूल को देख कर
मुझे खयाल आया
कि इस गुलाब
के फूल को तो
कोई भी पता
नहीं है
हजारों फूलों
का—न आने वाले
फूलों का, न
जा चुके फूलों
का— यह गुलाब
का फूल तो
परमात्मा के
लिए सीधा
मौजूद है। और
यह फूल इसीलिए
आनंदित है, क्योंकि कोई
तुलना नहीं है।
लेकिन जब मैं
इसे देखता हूं
तो हजारों फूल
जो मैंने देखे
हैं, बीच
में आ जाते
हैं। आंखें धुंधली
हो जाती हैं, यह फूल की
अनूठी घटना
व्यर्थ हो
जाती है। इससे
न कोई सौंदर्य
का अनुभव होता,
और न हृदय
के कोई तार
हिलते, न
कोई में आ
कंपता।
हम
एक असाधारण
जगत में जी
रहे हैं। यहां
चारों तरफ
विराट मौजूद
है न मालूम
कितने रूपों में।
यहां परम—सौंदर्य
घटित हो रहा
है,
परम—संगीत
बज रहा है, नाद
का कोई अंत
नहीं है।
लेकिन हम बहरे—अंधे
की तरह इस
सबके बीच से
गुजर जाते हैं।
हमें कुछ भी
छूता नहीं। हम
मरी हुई लाशें
हैं। हमने
अपनी
इंद्रियों को
कब्रें बना
लिया है। हम
उनके भीतर
घिरे हैं, ताबूत
की तरह बंद
हैं। हम गुजर रहे
हैं— हमें कुछ
छूता नहीं, कुछ अनुभव
नहीं होता। और
हम पूछते हैं,
आनंद कहां
है? और हम पूछते
हैं, परमात्मा
कहां है? और
वह चारों तरफ
मौजूद है।
बाहर— भीतर
उसके
अतिरिक्त कोई
भी नहीं है।
और ऐसा कोई
क्षण नहीं है,
जो आनंद का
क्षण न हो।
लेकिन अनुभव
करने वाला
चाहिए। और अनुभव
करने वाले को
हम उत्तेजना
में मार डालते
हैं।
त्याग
की मेरे लिए
परिभाषा—
त्याग परम—
भोग का
विज्ञान है।
और जो जानता
है छोड़ना, वही
अनुभव कर पाता
है। व्यर्थ को
छोड़े, ताकि
सार्थक का
अनुभव हो सके।
उत्तेजना को
छोड़े, ताकि
सूक्ष्म की
प्रतीति हो
सके।
चीन
में कहावत है
कि जब कोई
संगीतज्ञ परम—संगीत
को उपलब्ध हो
जाता है, तो वह
अपनी वीणा को
तोड़ कर फेंक
देता है। ठीक
है।
जिन्होंने
कहा है ऐसा, खूब समझ कर
कहा होगा।
क्योंकि
वीणा
के तार भी तो
उत्तेजना
पैदा करते हैं।
और जब कोई परम—संगीत
को उपलब्ध हो
जाता है, तो
उसे वीणा के
तार भी संगीत
में बाधा बन
जाते हैं। तब
वह उन्हें तोड़
कर फेंक देता
है। तब तो वह
उस संगीत को
सुनने लगता है,
जो मौजूद ही
है, जिसको
पैदा नहीं
करना पड़ता, जो बज ही रहा
है चारों तरफ।
ऐसा कोई क्षण
नहीं है, जब
वह न बज रहा हो।
हम उसे नहीं
सुन पाते तो
हमें वीणा के
तार पर पैदा करना
पड़ता है। यह
हमारी
इंद्रियों की
कमजोरी के
कारण वीणा के
तारों की
सहायता लेनी पड़ती
है। वीणा के
तार संगीत
पैदा नहीं कर
रहे हैं, केवल
शोरगुल पैदा
कर रहे हैं, व्यवस्थित
शोरगुल पैदा
कर रहे हैं।
लेकिन हम
चूंकि बहुत
कमजोर हो गए
हैं और हमें कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता है, इसलिए
हम तारों से, वाद्यों से
पैदा किए हुए
संगीत की
फिक्र करते हैं।
जापान
में झेन फकीर
एक ध्यान को
निरंतर अपने साधकों
को देते हैं।
वे कहते हैं, उस
आवाज को सुनो,
जो एक हाथ
की ताली से
पैदा हो सके।
इस पर वर्षों
ध्यान करवाते
हैं। दो हाथ
की ताली की.
आवाज तो सबने
सुनी है, लेकिन
झेन फकीर कहते
हैं कि उस
ताली की आवाज
पर ध्यान करो,
जो एक हाथ
से ही पैदा
होती है। दो
तालियों की जिसमें
जरूरत नहीं
होती। बिलकुल
पागलपन की
बात. है। कहीं
एक हाथ से कोई
ध्वनि पैदा
हुई है! मगर
झेन फकीर कहता
है कि सुनो, एक दिन
सुनाई पड़ेगी,
सुनते चले
जाओ।
एक
ऐसा नाद भी है
जो बिना घर्षण
के पैदा होता
है। उसी नाद
को हमने ओंकार
कहा है। उसमें
दो हाथ की
ताली नहीं
बजती, वह
संघात से पैदा
नहीं होता, आघात से
पैदा नहीं
होता। वह
मौजूद ही है, वह जीवन का
ढंग ही है, वह
जीवन के साथ
ही बज रहा है।
मगर वह बहुत
सूक्ष्म हो
गया है। हमें
तो जोर से कोई
चीज टकराए तो
ही पता चलता है।
अगर कहीं कुछ
भी न टकरा रहा
हो, तो
हमें लगेगा कि
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
लेकिन
बहुत कुछ हो
रहा है, चुपचाप।
जीवन का जो भी
गहन है, वह
बिलकुल मौन
में हो रहा है।
बीज जमीन में
टूट रहे हैं, कोई आवाज
नहीं है। पौधे
बड़े हो रहे
हैं, कोई
आवाज नहीं है।
तारे चल रहे
हैं, कोई
आवाज नहीं है।
सूरज निकल रहा
है, कोई
शोरगुल नहीं
है। लेकिन एक
सूक्ष्म
अस्तित्व में,
जो हमें
सन्नाटा
मालूम पड़ता है,
वहां भी एक
संगीत है
सन्नाटे का, मौन का। पर
उसके लिए
हमारी
इंद्रियां
सक्षम होनी
चाहिए।
'उत्तेजना की
इच्छा को दूर
करो।
इंद्रियजन्य
अनुभवों से
शिक्षा लो।’
क्या
शिक्षा? इंद्रियों
को मारो मत, इंद्रियों
को जिलाओं, इंद्रियों
को ज्यादा
संवेदनशील
बनाओ।
प्रत्येक
इंद्रिय
शुद्धतम
अनुभव कर सके,
तो
प्रत्येक
इंद्रिय से
परमात्मा का
अनुभव होगा।
तब उसका स्वाद
भी लिया जा
सकता है।
यह
बात बड़ी
व्यर्थ मालूम
पड़ेगी कि
परमात्मा का
स्वाद! और आप
कहेंगे कि आप
क्या कह रहे
हैं! हमने तो
सदा यही कहा
है कि परमात्मा
का दर्शन होता
है। उसका कारण
यह नहीं है कि
परमात्मा का
स्वाद नहीं
होता। उसका
कारण यह है कि
दुनिया के
अधिकतम
साधकों ने आंखों
को शुद्ध करके
ही उसकी खोज
की है। और कोई
कारण नहीं है।
चूंकि आंखें
शुद्ध करके
खोज की है, इसलिए
उन्होंने कहा
साक्षात्कार,
दर्शन।
हमने तो अपनी
पूरी खोज का
नाम ही दर्शन
रख दिया है।
पर यह आंखों
के कारण— आदमी
आख केंद्रित
है।
और
ऐसा इसी मुल्क
में नहीं है, सारी
दुनिया में है।
पश्चिम में भी
वे अनुभवी को
सिअर कहते हैं,
देखने वाला।
लेकिन क्यों?
कोई भी नहीं
कहता स्वाद
लेने वाला।
कोई भी नहीं
कहता श्रवण
करने वाला!
कोई भी नहीं
कहता
परमात्मा की
गंध!
उलटा
लगेगा। लेकिन
अगर आख देख
सकती है तो
नाक क्यों
नहीं सूंघ
सकती? और आख के
देखने में
हमें कोई अड़चन
नहीं मालूम पड़ती।
और अगर मैं
कहूं
परमात्मा का
स्वाद, तो
अड़चन मालूम
पड़ेगी। उसका
कारण सिर्फ
इतना है कि
आदमी की बाकी
सब इंद्रियां,
आख की बजाय,
ज्यादा
जल्दी स्थूल
हो जाती हैं।
आख
मनुष्य के
शरीर में सबसे
तरल इंद्रिय
है। ऐसा समझें
कि आख मनुष्य
के शरीर में
सबसे कम शरीर
का हिस्सा है, अशरीरी
है। और इसलिए
जब हम किसी की आंखों
में झांकते
हैं तो उसमें
पूरी तरह झांक
लेते हैं।
इसलिए बहरा
आदमी उतना
नहीं खोता, अंधा आदमी
बहुत खो देता
है। आख के बंद
होते ही अस्सी
प्रतिशत
अनुभव बंद हो
जाते हैं।
बाकी
इंद्रियों से
हम बीस
प्रतिशत
अनुभव लेते
हैं, आख से
अस्सी
प्रतिशत
अनुभव लेते
हैं। इसलिए बहरे
आदमी पर आपको
उतनी दया नहीं
आती, जितनी
अंधे आदमी पर
दया आती है।
उसका कारण है।
क्योंकि वह
कितना खो रहा
है! आख के खोते
ही अस्सी
प्रतिशत
अनुभव खो जाते
हैं। इसलिए आख
केंद्रित
होने की वजह
से हमने कहा, ईश्वर का
दर्शन।
लेकिन
यह जरूरी नहीं
है। अगर आप
अपनी स्वाद की
इंद्रिय को
शुद्ध कर लें, तो
स्वाद से भी उसका
स्वाद मिलेगा।
अगर आप अपने
हाथ के अनुभव को
शुद्ध कर लें,
तो उसका स्पर्श
भी होगा।
आप
किसी भी
इंद्रिय को
शुद्ध कर लें, तो
आपको उसकी
प्रतीति उसी
इंद्रिय से हो
जाएगी। अगर आप
अपनी
सारी
इंद्रियों को
शुद्ध कर लें, तो
परमात्मा आप
पर सब तरफ से
बरस पड़ेगा।
साधना
इंद्रिय—शुद्धि
है। और
इंद्रिय—शुद्धि
का सूत्र है—
'उत्तेजना की
इच्छा को दूर
करो, इंद्रियजन्य
अनुभवों से
शिक्षा लो और
उसका निरीक्षण
करो।’
क्या
है निरीक्षण? कि
जितनी
उत्तेजना, उतनी
इंद्रिय मरती
है। जितनी कम
उत्तेजना, उतनी
इंद्रिय जीतती
है, जगती
है, सजग
होती है।
'आत्म—विद्या
का पाठ इसी
प्रकार
प्रारंभ किया
जा सकता है और
इसी प्रकार
तुम सीढ़ी की
पहली पटिया पर
अपना पैर जमा
सकते हो।’
जिसका
हमें अनुभव
करना है, वह
भीतर छिपा है।
और उत्तेजना
की खोज होती
है बाहर। तो जितनी
उत्तेजना, उतने
ही हम अपने से
दूर निकल जाते
हैं। इसलिए
मजे की बात है
कि आदमी चाँद पर
उतर जाता है
और अपने भीतर
उतरने की उसे
कोई भी फिक्र
नहीं है। वह
भी उत्तेजना
की तलाश है।
लेकिन कैसी भी
उत्तेजना हो...।
चांद
पर पहुंचने की
आकांक्षा
कितनी पुरानी
है! जब से
मनुष्य है, तब
से चांद पर पहुंचने
की आकांक्षा
है। और बच्चे
पैदा होते से
ही चांद की
तरफ हाथ बढ़ाने
लगते हैं।
आदमी अनंत काल
से
सोच
रहा है चांद
पर पहुंच जाए।
लेकिन आपको
पता है कि
क्या हुआ? जब
पहली दफा आदमी
चांद
पर
उतरा, तो सारी
दुनिया में
भारी
उत्तेजना थी,
विशेष कर
अमरीका में, क्योंकि उनका
आदमी उतरा
था, तो
और भी ज्यादा
उत्तेजना थी।
सारे लोग अपने
टेलीविजन
लगाए बैठे हुए
थे। लेकिन दो
घंटे के बाद
उत्तेजना खतम
हो गई। आदमी
उतर गया, लोगों
ने टेलीविजन
बंद कर दिए।
फिर उनकी
रूटीन, रोज
की दुनिया
शुरू हो गई।
चौबीस घंटे
चर्चा रही और
बात समाप्त हो
गई! हजारों
वर्ष से जिस
उत्तेजना के
लिए आदमी आतुर
था, वह दो
घंटे में खतम
हो गई! चांद पर
पहुंच गया, अब क्या है? एक क्षण को
लगा कि कोई
बड़ी घटना घट
रही है, फिर
सब ठीक हो गया,
फिर दुनिया
अपने रास्ते
पर चलने लगी।
इतनी बड़ी विजय
की यात्रा, इतने कल्पों
तक जिसका
स्वप्न देखा
हो, वह भी
दो घंटे में
पुरानी पड़
जाती है!
आदमी
का मन हर चीज
को पुरानी कर
देता है। और
दूर हम कितने
ही निकल जाएं, जितने
दूर जाते हैं,
उतना ही
भीतर का अनुभव
मुश्किल होता
जाता है।
आत्म—विद्या
का पहला पाठ
इंद्रियों के
अनुभव से शुरू
होता है, कि
उत्तेजना में मत
जाओ, तो तुम
अपने पास आ
सकोगे। दूर की
खोज मत करो, तो तुम निकट
को उघाड़ सकोगे।
'उन्नति की
आकांक्षा को
दूर करो।’
उन्नति
की आकांक्षा
भी वैसी ही
घातक है, शायद
उससे भी
ज्यादा, जितनी
उत्तेजना की
आकांक्षा है।
पर बड़ा अजीब
लगेगा, क्योंकि
हम तो सोचते
हैं कि अध्यात्म
भी तो आखिर
उन्नति की
आकांक्षा है!
कि हम आनंद
चाहते हैं, कि मुक्ति
चाहते हैं, कि परमात्मा
को चाहते हैं—
यह भी तो
उन्नति की आकांक्षा
है।
लेकिन
एक बुनियादी
फर्क समझ लेना
जरूरी है।
एक
तो उन्नति है, जो
आपकी चाह से
आती है। और एक
उन्नति है, जो आपकी चाह
से नहीं आती, जब आपमें
चाह नहीं होती,
तब आती है।
एक तो उन्नति
है, जो
आपकी चेष्टा
से आती है,
और
आपकी चेष्टा
से आई हुई
उन्नति आपसे
बड़ी नहीं होगी।
हो भी नहीं
सकती। आपका ही
कृत्य आपसे
बड़ा नहीं हो
सकता। कृत्य
हमेशा कर्ता
से छोटा होता
है। आप जो भी
करेंगे, वह आपसे
छोटा काम होगा।
होगा ही। आप
अपने से बड़ा
काम कर कैसे
सकते हैं? और
जब आप ही करने
वाले हैं तो
काम आपसे बड़ा
नहीं होगा।
कितना ही बड़ा
काम हो, आप
उससे बड़े ही
रहेंगे।
कितना ही
सुंदर कोई
चित्र बनाए, चित्रकार
चित्र से बड़ा
रहेगा। और
कितना ही कोई
मधुर संगीत
पैदा कर ले, संगीतज्ञ
संगीत से बड़ा
रहेगा। जो आप
करते हैं, वह
आपसे बड़ा नहीं
हो सकता।
कृत्य सदा
कर्ता से छोटा
होगा।
यह
तो बड़ी कठिन
बात हो गई।
इसका तो मतलब
हुआ कि अगर आप
कोई
आध्यात्मिक उन्नति
भी कर लें, तो
वह आपसे बड़ी
नहीं हो सकती।
जो आप हैं, आपसे
छोटी होगी। तब
तो आप एक बड़े
चक्कर में हैं।
आप अपने से
छूट नहीं सकते,
आप रहेंगे
ही और सदा बड़े
रहेंगे, जो
भी आप पा लें।
अगर आपको
परमात्मा भी
मिल जाए—
ध्यान रखना, मैं कह रहा
हूं कि अगर
आपकी कोशिश से
आपको परमात्मा
मिल जाए—तों
आपसे छोटा
होगा। होगा ही,
क्योंकि
आपकी कोशिश से
मिला है, आपसे
बड़ा नहीं हो
सकता।
इसलिए
आप परमात्मा
को कोशिश से
नहीं पा सकते, क्योंकि
वह आपसे बड़ा
है। तो उसको
पाने का एक
दूसरा उपाय है,
कोशिश को
छोड़ कर उसे
पाया जा सकता
है।
यह
सूत्र कहता है, 'उन्नति
की आकांक्षा
को दूर करो।
फूल के समान
खिलों और
विकसित होओ।
फूल को अपने
खिलने का भान
भी नहीं होता।’
कली
कब फूल बन
जाती है, पता
भी नहीं चलता।
'किंतु वह
अपनी आत्मा को
वायु के समक्ष
उम्मुक्त
करने को
उत्सुक रहता
है।’
कली
सिर्फ उत्सुक
होती है खुलने
को। खुलने की
कोई चेष्टा
नहीं करती।
कोई व्यायाम, कोई
प्राणायाम, कोई योगासन,
कली कुछ भी
नहीं करती।
कली सिर्फ
आतुर होती है,
सिर्फ
प्यासी होती
है। उसके भीतर
जो सुगंध है, वह हवाओं
में लुट जाए।
वह आतुरता भी
चेष्टा नहीं
बनती, प्रतीक्षा
ही रहती है।
कली सिर्फ
प्रतीक्षा
करती है, सुबह
सूरज उगेगा, हवाएं आएंगी,
और कली फूल
बन जाएगी।
लेकिन कोई
चेष्टा नहीं
होती कि वह
फूल बन जाए, कि किसी
स्कूल में
भरती हो, कि
किसी गुरु के
पास जाए, कहीं
सीखे, कोई
उपाय सीखे, कोई विधि, कोई तंत्र—मंत्र,
वह कुछ नहीं
करती—वह सिर्फ
प्रतीक्षा
करती है।
'तुम भी उसी
प्रकार अपनी
आत्मा को
शाश्वत के प्रति
खोल देने को
उत्सुक रहो।
परंतु उन्नति
की आकांक्षा
नहीं, शाश्वत
ही तुम्हारी
शक्ति और
तुम्हारे
सौंदर्य को
आकृष्ट करे।’
इस
फर्क को समझ
लेना। तुम
कोशिश मत करना
अपनी तरफ से
शाश्वत को पाने
की,
तुम तो
सिर्फ तैयारी
रखना कि अगर
शाश्वत तुम्हारे
में आना चाहे
तो तुम बाधा न
दो। तुम तो
सिर्फ द्वार
खुला रखना कि
ऐसा न हो कि
शाश्वत
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक दे
और पाए कि बंद
है। कि
परमात्मा
तुम्हें
खोजता हुआ आए
और पाए कि तुम
घर पर नहीं हो,
तुम कहीं गए
हो और
तुम्हारा
किसी को कोई
पता नहीं है।
कि परमात्मा
तुम्हारे
हृदय में आना
चाहे और पाए
कि वहां इतनी
भीड़ है कि
प्रवेश का कोई
उपाय नहीं। कि
वहां कोई जगह
ही नहीं है कि
मेहमान ठहर
सके। वहां कोई
रिक्तता नहीं
है कि
परमात्मा
प्रवेश कर सके।
तुम्हारे
द्वार—दरवाजे
बंद है—बस
इतना भर न हो।
तुम
कोशिश मत करना
परमात्मा को
खोजने की।
खोजोगे भी
कैसे? तुम्हें
उसका कुछ पता भी
तो नहीं है, तुम उसे
खोजोगे कहां?
तुम उसे
वहीं खोजोगे,
जो रास्ते
तुम्हें पता
हैं। और उन रास्तों
पर तो तुमने
उसे पा ही
लिया होता, अगर वह होता।
तुम अपने से
अतिरिक्त
करोगे भी क्या?
और तुम जो
भी करोगे, वह
तुम्हारी ही
सीमा में बंद
होगा, वह
असीम से संबंध
स्थापित न करा
पाएगा।
'शाश्वत ही
तुम्हारी
शक्ति और
तुम्हारे
सौंदर्य को
आकृष्ट करे।
क्योंकि
शाश्वत के
आकर्षण से तो
तुम पवित्रता
के साथ आगे
बढ़ोगे, पनपोगे,
किंतु
व्यक्तिगत
उन्नति की
बलवती कामना
तुमको केवल जड़
और कठोर बना
देगी।’
तो
तुम परमात्मा
को मुट्ठी में
लेने की कोशिश
मत करना, तुम्हारी
मुट्ठी बहुत
छोटी है, तुम्हारी
मुट्ठी
में वह न
समाएगा। तुम
जितनी मुट्ठी
बाधोगे, तुम
पाओगे, वह
उतना ही बाहर
हो गया है। तुम्हारी
मुट्ठी खाली
ही रह जाएगी।
तुम्हारी
मुट्ठी में
तुम पाओगे कि
तुम्हारे अतिरिक्त
और कोई भी नहीं
समाता है।
तो
दो उपाय हैं
विकास के। एक
उपाय है—चेष्टा, संकल्प,
प्रयास, प्रयत्न,
श्रम। तुम
उसके मालिक
होते हो। तुम
जो भी करते हो,
तुम ही उसकी
योजना बनाते
हो। तुम फिर
जो भी पाते हो,
वह तुम्हारा
ही खेल होता
है।
निश्चित
ही बहुत कुछ
पाया जाता है
प्रयास से, श्रम
से, संकल्प
से। लेकिन तुम
जो भी पाते हो, वह तुमसे
छोटा होता है।
और वह जो तुम
भी पा लेते हो,
उसी का नाम
संसार है।
संकल्प से जो
पाया जाता है,
श्रम से जो
पाया जाता है,
वही संसार
है। उसमें
तुम्हारा
अहंकार बलवती
होता है, वह
तुम्हारे अहंकार
की खोज है।
एक
और पाने का
उपाय है। जो पाया
जाता है
समर्पण से, छोड़ने
से, प्रतीक्षा
से, प्रार्थना
से। श्रम से
नहीं, विश्राम
से। तुम जब
विश्राम में
होते हो, तब
वह घटित होता
है। तुम जब
प्रार्थना
में होते हो, तब वह घटित
होता है। तुम
जब अपने को
छोड़ देते हो
चरणों में, समर्पित कर
देते हो, तब
घटित होता है।
तुम जब तैरते
नहीं, बहते
हो नदी की धार
में, तब
घटित होता है।
तुमसे घटित
नहीं होता, तुम केवल अपने
को खुला रखते
हो, और
उससे घटित
होता है।
तुमसे
विराटतर उसे
घटाता है, तुम
केवल बाधा नहीं
डालते हो।
अध्यात्म
की खोज मौलिक
रूप से
प्रयत्न नहीं
है,
अप्रयत्न
है।
झेन
फकीरों ने कहा
है,
इफर्टलेस
इफर्ट, प्रयास
रहित प्रयास।
ठीक कहा है।
अभ्यास नहीं
है वह, अपने
को छोड़ना है
उसके हाथों
में। फिर वह
जहां ले जाए, फिर वह जो
करे, फिर
वह चाहे मिटाए,
चाहे
बचाए, फिर हम
राजी हैं उसके
साथ। हम सिर्फ
आतुर हैं कि
वह मिले।
आतुरता हमारी
तैयारी. है।
हम रोकेंगे न,
हम उसके
प्रयास में
बाधा न
डालेंगे। हम
एक लोहे के
टुकड़े की तरह
हो जाएंगे,
ताकि
उसका चुंबक
खींच ले। लोहे
का टुकड़ा
चुंबक की तरफ
जाता नहीं, जा
नहीं सकता, चुंबक.
खींचता है।
लोहे का टुकड़ा
सिर्फ बाधा न
डाले, बस
इतना काफी है।
खिंचने को राजी
हो, बस
इतना काफी है।
बुलाया जाए तो
दौड़ पड़े, इतना
काफी है। अपनी
तरफ से दौड़ने
का कोई उपाय
भी कहां है
लोहे
के टुकड़े के
पास?
परमात्मा
है जागतिक
चुंबक, कास्मिक
मैग्नेट। तुम
लोहे के टुकड़े
की भांति हो
जाओ।
यह
सूत्र कह रहा
है,
तुम
आकांक्षा मत
करो उन्नति की,
तुम सिर्फ
अभीप्सा करो।
तुम मांगो मत,
चीखो—चिल्लाओ
मत, योजना
मत बनाओ, तुम
अपनी वासना का
फैलाव मत करो,
तुम उसे मत
बताओ कि वह
क्या करे। तुम
सिर्फ इतना
करो कि उससे
कह दो कि तू जो
भी करे, कर।
हम राजी हैं।
तुम्हारा
राजीपन ही
तुम्हारी
साधना है। और
उन्नति घटित
होगी। वस्तुत:
तभी उन्नति
घटित होगी, ऐसी उन्नति
जो तुमसे
ज्यादा होगी।
संसार
में हम जो भी
पा लें, वह
हमसे छोटा
होता है।
अध्यात्म में
जब भी कुछ
पाया जाता है,
वह हमसे बड़ा
होता है। और
इसीलिए भक्त
कहते हैं कि
उसके प्रसाद
से मिला, हमारे
प्रयास से
नहीं। उसका
कारण इतना ही
है, क्योंकि
हमारे प्रयास
से तो कुछ बड़ा
मिल नहीं सकता,
क्षुद्र ही
मिलेगा। हम
क्षुद्र हैं।
उसके प्रसाद
से मिला, उसकी
कृपा से मिला,
उसकी
अनुकंपा से
मिला।
यह
जो भक्त कहते
हैं,
इसमें सार
है। वे असल
में यह कह रहे
हैं कि हमारे
प्रयास से क्या
होने वाला था!
वह हमारे
प्रयास से
नहीं मिला। पर
उन्होंने भी
एक प्रयास
किया है। आप
यह मत सोचना
कि फिर आपको
भी जब मिलना
है, मिल
जाएगा। तो मिल
गया होता। आप
भी कोई प्रयास
कहां किए हैं?
इस बात से
आप यह मत समझ
लेना कि आपको
कुछ भी नहीं
करना है।
क्योंकि वह
अप्रयास भी एक
तरह का करना
है, वह
अपने को छोड़ना
भी एक कृत्य
है, वह
समर्पित होना
भी एक साधना
है। आप यह मत
सोचना कि फिर
ठीक है। कई
लोग हैं, जो
ऐसा सोच लेते
हैं। जो सोच
लेते हैं कि
जब हमारे
प्रयास से
मिलेगा ही
नहीं, तो
जब मिलना होगा,
मिल जाएगा।
तो फिर हम
बैठे हुए हैं।
इस सूत्र का
यह मतलब नहीं
है।
इस
सूत्र का मतलब
यह है कि
तुम्हारे
प्रयास से तो
नहीं मिलेगा, लेकिन
इतना प्रयास
तुम्हें करना
पड़ेगा, इतना
प्रयास कि तुम
कोई बाधा न
डालो। नहीं तो
तुम बाधा डाल
रहे हो, अभी
तुम पीठ किए
खड़े हो। अभी
हालत ऐसी है
कि सूरज निकला
हुआ है और तुम
सब तरफ से
द्वार—दरवाजे
बंद करके कमरे
के भीतर बैठे
हुए हो। सूरज
तुम्हारे
प्रयास से
नहीं निकलेगा
और न तुम्हारे
प्रयास से तुम
सूरज को घर के
भीतर ला सकते
हो, लेकिन
दरवाजा बंद कर
सकते हो, घर
के बाहर रोक
सकते हो।
परमात्मा को
भीतर लाने का
तुम्हारे हाथ
में कोई बल
नहीं है, लेकिन
उसे बाहर
रोकने में तुम
समर्थ हो, तुम
दरवाजा बंद रख
सकते हो।
और
परमात्मा
आक्रामक नहीं
है कि
तुम्हारे दरवाजे
तोड़ कर भीतर आ
जाए। वह
प्रतीक्षा
करेगा, बाहर
सीढ़ियों पर
बैठा रहेगा कि
जब तुम दरवाजा
खोलोगे, तब
ठीक है। और
तुम जन्मों तक
बैठे रह सकते
हो भीतर। तो
दरवाजा खुला
रखना।
तुम्हारे
दरवाजा खोलने
से ही वह भीतर
आ जाएगा, ऐसा
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारा
दरवाजा खुला
हो तो उसके
भीतर आने की
संभावना है।
इसलिए दरवाजा
खोल कर एकदम
मत कहना कि
दरवाजा खोला
है, अभी तक
नहीं आया है।
सिर्फ
तुम्हारी
संभावना है कि
दरवाजा खुला हो
तो वह वापस
नहीं लौटेगा,
जब घड़ी पक
जाएगी।
और
बिना पके कुछ
भी नहीं होता।
जब क्षण आ
जाएगा, तुम्हारा
दरवाजा खुला
होगा और वह
तुम्हारे दरवाजे
पर होगा और
तुम उन्मुख, उत्सुक, आतुर,
प्रतीक्षा
कर रहे होओगे;
जब
तुम्हारी प्रतीक्षा
पूरी होगी, दरवाजा पूरा
खुला होगा, घटना घट
जाएगी। अगर
तुम्हारा
दरवाजा भी
खुला हो और
तुम सोचते हो
कि दरवाजा
खुला है और
परमात्मा
नहीं आ रहा है,
तो समझना कि
या तो दरवाजा
खुला नहीं है,
तुम सपना
देख रहे हो कि
दरवाजा खुला
है। और या फिर
दरवाजा भी थोड़ा—बहुत
तुमने खोला है,
तो भी तुम
आतुर नहीं हो
कि वह आ जाए।
तुम शायद भीतर
ड़रे हुए हो
कि कहीं वह आ
ही न जाए। हम ड़रते
हैं, क्योंकि
वह अगर आ जाए
जीवन में, तो
तुम्हारी
जिंदगी फिर
यही नहीं हो
पाएगी, जो
है। वह बिलकुल
बदल जाएगी।
लंका
में ऐसा हुआ
कि एक बौद्ध
भिक्षु पचास
वर्ष तक बोलता
रहा लोगों से।
वह ज्ञान को
उपलब्ध था।
उसकी मृत्यु
का दिन करीब आ
गया। तो उसने
कहा कि मैं
तुम्हें इतने
दिनों से समझाता
हूं अब मेरी
मृत्यु का दिन
भी करीब आ गया
और मैंने तुम्हें
समझाया है कि
क्या करो, क्या
करो, क्या
करो। लेकिन
तुम कुछ करते
नहीं हो। तो
मरने के पहले
मैं तुम्हें
एक आखिरी मौका
देता हूं। अब
मैं तुमसे नहीं
कहता कि तुम
क्या करो
जिससे
निर्वाण उपलब्ध
हो जाए, अब
मैं तुमसे
पूछता हूं कि
तुममें से अगर
कोई निर्वाण
लेने को
उत्सुक है तो
मैं देता हूं
तो वह खड़ा हो
जाए।
वहां
हजारों लोग जो
उसके शिष्य थे, इकट्ठे
हुए थे, मरता
था उनका गुरु,
सब एक—दूसरे
की तरफ देखने
लगे कि कौन
खड़ा हो!
उन्होंने कभी
सोचा न था कि
निर्वाण ऐसे
बिना सोचे—समझे,
अचानक, दुर्घटना
की तरह दरवाजे
पर खड़ा हो
जाएगा। एक
आदमी ने सिर्फ
हाथ उठाया, उसने कहा कि
लेकिन मैं
पहले ही बता
दूं कि अभी
नहीं, आज
नहीं, सिर्फ
रास्ता बता
दें, कभी
जरूरत हो!
चाहिए
निर्वाण जरूर,
एक दिन जरूर
चाहिए, लेकिन
अभी नहीं। अभी
बहुत काम पड़े
हैं, अधूरे
हैं। और अभी
बहुत काम
निबटा लेने
हैं। बहुत से
आश्वासन हैं,
वह पूरे
करने हैं, बच्चे
की शादी करनी
है, पत्नी
बीमार है—तो अभी
नहीं, इतनी
कृपा करना।
मगर इतना मैं
कहे देता हूं
कि एक दिन
चाहिए जरूर
निर्वाण, तो
रास्ता बता
दें।
अगर
आपको
परमात्मा आज
ही मिलता हो, अभी
और यहीं, तो
आप बड़ी चिंता
में पड़ जाएंगे।
इसके क्षण भर
पहले आप इस
चिंता में थे
कि परमात्मा
कैसे मिले, क्योंकि वह
इतनी आसानी से
मिलता नहीं।
आप मजे से
चिंता करने का
मजा ले सकते
हैं। लेकिन
अगर अभी—यहीं
मिलता हो तो
आप दूसरी चिंता
में पड़ जाएंगे
कि फंसे! कि अब
घर कैसे वापस
लौटें? अगर
परमात्मा मिल
गया तो वह जो
सब पीछे छोड़
आए हैं जाल, उनको फिर
कौन पूरा
करेगा? और
वह जाल आपको
बड़ा मालूम
पड़ता है परमात्मा
से। आप उसको
ही चुनेंगे।
आप परमात्मा
से कहेंगे कि
तुम्हें पाने
की जल्दी भी
क्या है? यह
तो शाश्वत का
है मामला। और
जन्म—जन्म पड़े
हैं, कभी
भी पा लेंगे, इतनी जल्दी
भी क्या है? लेकिन वे सब
काम तो शाश्वत
के नहीं हैं।
वक्त पर हो
जाएं तो हो
जाएं, नहीं
तो चूक गए तो
चूक गए। उनके लिए
तो समय की
दुनिया है और
तुम तो सनातन
हो, तुम्हें
फिर भी मिल
लेंगे।
तो
तुम्हारे
प्रयास की
इतनी तो जरूरत
है—एक निषेध
की,
एक निगेटिव,
नकार की, कि तुम बाधा खड़ी
मत करना।
ये
हम जो यहां
ध्यान के
प्रयोग कर रहे
हैं,
ये सब
बाधाएं
तोड्ने के
प्रयोग हैं।
सारी विधियां
बाधाएं
तोड्ने की हैं,
कोई विधि
परमात्मा को
पाने की नहीं
है। परमात्मा
किसी भी विधि
से पाया नहीं
जा सकता।
क्योंकि जो
विधि से पा
लिया जाए, वह
क्या खाक
परमात्मा
होगा!
किसी
विधि से
परमात्मा
नहीं पाया जा
सकता। वह तो
अविधि में है, अविधि
में फलित होता
हे। लेकिन
विधियों से
तुम्हारी
बाधाएं तोडी
जा सकती हैं।
द्वार—दरवाजे
के ताले तोड़े
जा सकते हैं।
जंग खा गई
चाबियां खो गई
हैं, क्योंकि
उन्हें बंद
किए न मालूम
कितने जन्म हो
गए। अब तो वे
दीवालों जैसे मालूम
पड़ते हैं; दरवाजा
है, उसका भी
पता नहीं चलता।
क्योंकि उनको
कभी खोला नहीं
है। उनकी चाबियां
तुम फेंक आए
हो ऐसी जगह कि
तुम भी खोजो
तो न मिलें, क्योंकि
तुम्हें भी ड़र
है कि कहीं
चाबी मिल जाए
और भूल—चूक से
दरवाजा खोल
लें!
सारी
विधियां
नकारात्मक
हैं,
वे तोड्ने
की हैं।
लोग
मुझसे पूछते हैं
कि ऐसे क्या
होगा? कि अगर
कोई दस मिनट
गहरी सांस भी
ले ले, नाच
भी ले पागल की
तरह, हूं—हूं
भी चिल्ला ले,
क्या इससे
परमात्मा मिल
जाएगा?
नहीं, इससे
परमात्मा
नहीं मिलेगा।
लेकिन इससे
तुम टूटोगे।
और तुम टूटो, यह उसके
घटने की पहली
अनिवार्यता
है। इससे तुम
टूटोगे। यह
तुम्हें
मिटाने का
उपाय है, उसे
पाने का नहीं।
हालांकि तुम
मिटो तो ही वह
पाया जा सकता
है, तो यह
अनिवार्य है।
तो
तुम्हें पागल
की तरह
विधियां जो ये
मैं करवा रहा
हूं ये
तुम्हें
मिटाने के लिए
हैं—तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
मिटे, तुम्हारी
समझदारी मिटे,
तुम्हारा
अहंकार मिटे,
तुम्हारी
जड़ता मिटे।
तुमने जो अपने
को बना रखा है,
वह टूटे, पिघल जाए, तुम खो जाओ, तुम सरल हो
जाओ, तुम्हारे
दरवाजे खुलें,
तो किसी दिन,
ठीक घड़ी में
उसका आगमन हो
जाता है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें