सूत्र:
57—तीव्र
कामना की
मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।
58—यह
तथाकथित जगत
जादूगरी जैसा
या चित्र—कृति
जैसा
भासता है।
सुखी होने के
लिए उसे वैसा
ही देखो।
59—प्रिय, न
सुख में और न
दुःख में,
बल्कि दोनों
के
मध्य
में अवधान को
स्थिर करो।
60—विषय
और वासना जैसे
दूसरों में है
वैसे ही
मुझमें है।
इस
भांति स्वीकार
करके उन्हें
रूपांतरित
होने दो।
जो मूलभूत
मन है वह
दर्पण की
भांति है; वह
शुद्ध है। वह
शुद्ध ही रहता
है। उस पर धूल
जमा हो सकती
है, लेकिन
उससे दर्पण की
शुद्धता नष्ट
नहीं होती।
धूल शुद्धता
को मिटा नहीं
सकती, लेकिन
वह शुद्धता को
आच्छादित कर
सकती है।
सामान्य मन की
यही अवस्था है—वह
धूल से ढंका
है। लेकिन धूल
में दबा हुआ
मौलिक मन भी
शुद्ध ही रहता
है।
वह अशुद्ध
नहीं हो सकता,
यह असंभव है।
और अगर उसका
अशुद्ध होना
संभव होता तो
फिर उसकी
शुद्धता को
वापस पाने का
उपाय नहीं
रहता। अपने आप
में मन शुद्ध
ही रहता है—सिर्फ
धूल से
आच्छादित हो
जाता है।
हमारा
जो मन है वह
मौलिक मन +
धूल है, वह
शुद्ध मन +
धूल है, वह
परमात्म—मन .
धूल है; और
जब तुम जान
लोगे कि इस मन
को कैसे उघाड़ा
जाए कैसे धूल
से मुक्त
किया जाए, तो
तुमने सब जान
लिया जो जानने
योग्य है और
तुमने सब पा लिया
जो पाने योग्य
है।
ये
सभी विधियां
यही बताती हैं
कि कैसे
तुम्हारे मन
को रोज—रोज की
धूल से मुक्त
किया जाए। धूल
का जमा होना
लाजिमी है; धूल
स्वाभाविक है।
जैसे अनेक
रास्तों से
यात्रा करते
हुए यात्री पर
धूल जमा हो
जाती है वैसे
ही तुम्हारे
मन पर भी धूल
जमा होती है।
तुम भी अनेक
जन्मों से
यात्रा कर रहे
हो; तुमने
भी बड़ी दूरियां
तय की हैं; और
फलत: बहुत—बहुत
धूल इकट्ठी हो
गई है।
विधियों
में प्रवेश
करने के पहले
अनेक बातें समझने
जैसी हैं। एक
कि आंतरिक
रूपांतरण के
प्रति पूरब की
दृष्टि
पश्चिम की
दृष्टि से
सर्वथा भिन्न
है। ईसाइयत
समझती है कि
मनुष्य की
आत्मा को कुछ
हुआ है, जिसे
वह पाप कहती
है। पूरब ऐसा
नहीं सोचता है।
पूरब का खयाल
है कि आत्मा
को कुछ नहीं
हुआ है; कुछ
हो भी नहीं
सकता। आत्मा
अपनी
परिपूर्ण
शुद्धता में
है; उससे
कोई पाप नहीं
हुआ है। इसलिए
पूरब में
मनुष्य
निंदित नहीं
है; वह
पतित नहीं है।
बल्कि इसके
विपरीत
मनुष्य ईश्वरीय
बना रहता है—जो
वह है, जो
वह सदा रहा है।
और
यह स्वाभाविक
है कि धूल जमा
हो। धूल का
जमा होना
अनिवार्य है।
वह पाप
नहीं
है;
महज गलत
तादात्म्य है।
हम मन से, धूल
से तादात्म्य
कर लेते हैं।
हमारे अनुभव, हमारे ज्ञान,
हमारी स्मृतियां
सब धूल है।
तुमने जो भी
जाना है,
जो भी अनुभव
किया है,
जो भी
तुम्हारा
अतीत रहा है, सब धूल है।
मूलभूत मन को
पुन: प्राप्त
करने का अर्थ
है कि शुद्धता
को पुन:
प्राप्त किया
जाए—अनुभव और
ज्ञान से, स्मृति
और अतीत से मुक्त
शुद्धता को।
समूचा
अतीत धूल है।
और हमारा
तादात्म्य
अतीत से है, उस
चैतन्य से
नहीं जो सदा
मौजूद है। इस
पर इस भांति
विचार करो।
तुम जो कुछ
जानते हो वह
सदा अतीत का
है; और तुम
वर्तमान में
हो, अभी और
यहीं हो। जीना
सदा वर्तमान
में है।
तुम्हारा
सारा ज्ञान
धूल है। जानना
तो शुद्ध है, शुद्धता है;
लेकिन
ज्ञान धूल है।
जानने की
क्षमता, जानने
की ऊर्जा, जानना
तुम्हारा
मूलभूत
स्वभाव है। उस
जानने के जरिए
तुम ज्ञान
इकट्ठा कर
लेते हो; वह
ज्ञान धूल
जैसा है। अभी
और यहां, इसी
क्षण तुम बिलकुल
शुद्ध हो, परम
शुद्ध हो; लेकिन
इस शुद्धता के
साथ तुम्हारा
तादात्म्य
नहीं है।
तुम्हारा
तादात्म्य
तुम्हारे
अतीत के साथ है,
सारे
संगृहीत अतीत
के साथ है।
तो
ध्यान की सारी
विधियां
बुनियादी रूप
से तुम्हें
तुम्हारे
अतीत से तोड़कर
अभी और यहां
से जोड्ने
के उपाय हैं, तुम्हें
तुम्हारे
वर्तमान में
प्रवेश देने के
उपाय हैं।
बुद्ध
खोज रहे थे कि
कैसे चेतना की
इस शुद्धता को
फिर से
प्राप्त किया
जाए कैसे अतीत
से मुक्त हुआ
जाए। क्योंकि
जब तक तुम
अतीत से मुक्त
नहीं होते, तुम
बंधन में
रहोगे, तुम
गुलाम बने
रहोगे। अतीत
तुम पर बोझ की
तरह है, और
इस अतीत के
कारण वर्तमान
सदा अनजाना रह
जाता है। अतीत
ज्ञात है, और
इस अतीत के
चलते तुम
वर्तमान को
चूकते जाते हो,
जो बहुत
आणविक है, सूक्ष्म
है। और अतीत
के कारण ही
तुम भविष्य
का प्रक्षेपण
करते हो, निर्माण
करते हो। अतीत
ही भविष्य
में प्रक्षेपित
हो जाता है; और दोनों ही
झूठ हैं। अतीत
बीत चुका और भविष्य
होने को बाकी
है, दोनों
नहीं हैं। और
जो है, वह
वर्तमान, वह
अस्तित्व इन
दो अनस्तित्वों
के बीच छिपा
है, दबा है।
बुद्ध
खोज में थे, वे
एक गुरु से
दूसरे गुरु के
पास गए। वे
खोज में थे और
अनेक गुरुओं
के पास गए जो
सबके सब जाने—माने
गुरु थे।
उन्होंने
उनकी बात सुनी;
उन्होंने
उनके अनुसार
साधना की।
गुरुओं ने जो
कुछ करने को
कहा, बुद्ध
ने सब किया।
उन्होंने
अनेक ढंग से
अपने को
अनुशासित
किया, साधा;
लेकिन वे
तृप्त न हुए।
और कठिनाई यही
थी कि गुरु भविष्य
में उत्सुक थे,
मृत्यु के
बाद किसी
मोक्ष में
उत्सुक थे। वे
किसी भविष्य
में, किसी
ईश्वर में, किसी
निर्वाण में,
किसी मोक्ष
में उत्सुक थे।
और बुद्ध अभी
और यहां में
उत्सुक थे।
इसलिए दोनों
के बीच कोई
तालमेल नहीं
हो सका।
बुद्ध
ने हरेक गुरु
से कहा कि मैं
अभी और यहां में
उत्सुक हूं
मैं अभी और
यहां में
समग्र होना
चाहता हूं
पूर्ण होना
चाहता हूं। और
गुरु कहते कि
यह उपाय करो, वह
उपाय करो; और
अगर ठीक से
उपाय करोगे तो
भविष्य में
किसी दिन, किसी
भविष्य जीवन
में, किसी भविष्य
अवस्था में
तुम पा लोगे।
देर—अबेर
बुद्ध ने एक—एक
करके सभी
गुरुओं को छोड़
दिया, और
फिर उन्होंने
स्वयं ही, अकेले
ही प्रयोग
किया। क्या
किया
उन्होंने?
बुद्ध
ने बहुत सरल
काम किया। तुम
इसे एक बार
जान लो तो यह
बहुत सरल है, सीधा—साफ
है। लेकिन
नहीं जानने पर
वह बहुत कठिन
है, असंभव
सा ही है।
उन्होंने एक
ही काम किया; वे वर्तमान
क्षण में रहे।
वे अपने अतीत
को भूल गए, अपने
भविष्य को
भूल गए।
उन्होंने कहा
कि मैं अभी और
यहीं होऊंगा,
मैं सिर्फ
होऊंगा।
और
अगर तुम एक
क्षण के लिए
भी सिर्फ हो
सके तो तुमने
स्वाद जान
लिया, अपनी
शुद्ध चेतना
का स्वाद। और
एक बार ले
लेने पर यह
स्वाद भूलता
नहीं है। वह
स्वाद
तुम्हारे साथ
रहता है; और
वही रूपांतरण
बन जाता है।
अतीत
से अपने को
अनावृत करने
के,
धूल को
हटाकर अपने मन
के दर्पण में
झांकने के अनेक
उपाय हैं। ये
सारी विधियां
उसके ही भिन्न—भिन्न
उपाय हैं।
लेकिन स्मरण
रहे, प्रत्येक
विधि के प्रति
एक गहरी समझ जरूरी
है। ये
विधियां
यांत्रिक
नहीं हैं; क्योंकि
उन्हें चेतना
को अनावृत
करना है, उघाड़ना
है। वे
यांत्रिक
नहीं हैं।
तुम
इन विधियों का
प्रयोग
यांत्रिक ढंग
से भी कर सकते
हो। और अगर
ऐसा करोगे तो
तुम्हें मन की
थोड़ी शांति भी
प्राप्त हो
जाएगी; लेकिन
वह मूलभूत
शुद्धता नहीं
होगी।
तुम्हें थोड़ा
मौन उपलब्ध हो
सकता है; लेकिन
वह मौन अभ्यासजनित
मौन होगा। वह
भी मन की धूल
का ही हिस्सा
होगा। वह
मूलभूत
शुद्धता नहीं
होगी।
तो
इनका प्रयोग
यांत्रिक ढंग
से मत करो। एक
गहरी समझ की
जरूरत है। और
समझ से ये
विधियां
तुम्हारी
आत्मा को उघाड़ने
में,
आविष्कृत
करने में बहुत
सहयोगी होंगी।
साक्षीत्व
की पहली विधि:
तीव्र
कामना की
मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।
'तीव्र कामना
की मनोदशा में
अनुद्विग्न
रही।’
जब
तुम्हें
कामना घेरती
है,
चाह पकड़ती
है, तो तुम
उत्तेजित हो
जाते हो, उद्विग्न
हो जाते हो।
यह स्वाभाविक
है। जब चाह पकड़ती
है तो मन
डोलने लगता है,
उसकी सतह पर
लहरें उठने
लगती हैं।
कामना
तुम्हें
खींचकर कहीं भविष्य
में ले जाती
है; अतीत
तुम्हें कहीं भविष्य
में धकाता है।
तुम उद्विग्न
हो जाते हो, बेचैन हो
जाते हो। अब
तुम चैन में न
रहे। चाह
बेचैनी है, रुग्णता है।
यह
सूत्र कहता है
: 'तीव्र कामना
की मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।’
लेकिन
अनुद्विग्न
कैसे रहा जाए? कामना
का अर्थ ही
उद्वेग है, अशांति है; फिर
अनुद्विग्न
कैसे रहा जाए?
शांत कैसे
रहा जाए? और
वह भी कामना
के तीव्रतम
क्षणों में!
तुम्हें
कुछ प्रयोगों
से गुजरना
होगा तो ही
तुम इस विधि
का अभिप्राय
समझ सकते हो।
तुम क्रोध में
हो;
क्रोध ने
तुम्हें पकड़
लिया है। तुम
अस्थायी रूप
से पागल हो, आविष्ट हो, अवश हो। तुम
होश में नहीं
हो। इस अवस्था
में अचानक
स्मरण करो कि
अनुद्विग्न
रहना है—मानो
तुम कपड़े उतार
रहे हो, नग्न
हो रहे हो। भीतर
नग्न हो जाओ, क्रोध से
निर्वस्त्र
हो जाओ। क्रोध
तो रहेगा, लेकिन
अब तुम्हारे
भीतर एक बिंदु
है जो अनुद्विग्न
है, शांत
है। तुम्हें
पता होगा कि
क्रोध परिधि
पर है; बुखार
की तरह वह वहा
है। परिधि कांप
रही है; परिधि
अशांत है।
लेकिन तुम
उसके द्रष्टा
हो सकते हो। और
यदि तुम उसके
द्रष्टा हो
सके तो तुम
अनुद्विग्न
रहोगे। तुम
उसके साक्षी
हो जाओ, और
तुम शांत हो
जाओगे। यह
शांत बिंदु ही
तुम्हारा
मूलभूत मन है।
मूलभूत
मन अशांत नहीं
हो सकता; वह
कभी अशांत
नहीं होता है।
लेकिन तुमने
उसे कभी देखा
नहीं है। जब
क्रोध होता है
तो तुम्हारा
उससे तादात्म्य
जाता है। तुम
भूल जाते हो कि
क्रोध तुमसे
भिन्न है, पृथक
है। तुम उससे
एक हो जाते हो;
और तुम उसके
द्वारा
सक्रिय हो
जाते हो, कुछ
करने लगते हो।
और तब दो
चीजें संभव
हैं।
तुम
क्रोध में
किसी के प्रति, क्रोध
के विषय के
प्रति
हिंसात्मक हो
सकते हो; लेकिन
तब तुम दूसरे
की ओर गति कर
गए। क्रोध ने
तुम्हारे और
दूसरे के बीच
जगह ले ली।
यहां मैं हूं
जिसे क्रोध
हुआ है, फिर
क्रोध है और
वहां तुम हो, मेरे क्रोध
का विषय।
क्रोध से मैं
दो आयामों में
यात्रा कर
सकता हूं। या
तो मैं
तुम्हारी तरफ
जा सकता हूं
अपने क्रोध के
विषय की तरफ।
तब तुम, जिसने
मेरा अपमान
किया, मेरी
चेतना के
केंद्र बन गए;
तब मेरा मन
तुम पर
केंद्रित हो
गया। यह एक
ढंग है क्रोध
से यात्रा
करने का।
दूसरा
ढंग है कि तुम
अपनी ओर, स्वयं
की ओर यात्रा
करो। तुम उस
व्यक्ति की ओर
नहीं गति करते
जिसने तुम्हें
क्रोध करवाया,
बल्कि उस
व्यक्ति की
तरफ जाते हो
जो क्रोध अनुभव
करता है। तुम
विषय की ओर न
जाकर विषयी की
ओर गति करते
हो।
साधारणत:
हम विषय की ओर
ही बढ़ते हैं।
और विषय की ओर
बढ़ने से मन का
धूल— भरा
हिस्सा
उत्तेजित और अशांत
हो जाता है; और
तुम्हें
अनुभव होता है
कि मैं अशांत
हूं। अगर तुम
भीतर की ओर मुड़ो,
अपने
केंद्र की ओर मुड़ो, तो
तुम धूल वाले
हिस्से के
साक्षी हो
जाओगे। तब तुम
देख सकोगे कि
धूल वाला
हिस्सा तो
अशांत है, लेकिन
मैं अशांत
नहीं हूं। और
तुम किसी भी
इच्छा के साथ,
किसी भी अशांति
के साथ यह
लेकर प्रयोग
कर सकते हो।
तुम्हारे
मन में
कामवासना
उठती है; तुम्हारा
सारा शरीर
उससे अभिभूत
हो जाता है।
अब तुम काम—विषय
की ओर, अपनी
वासना के विषय
की ओर जा सकते
हो। चाहे वह
वास्तव में
वहा हो या न हो।
तुम कल्पना
में भी उसकी
तरफ यात्रा कर
सकते हो।
लेकिन तब तुम
और ज्यादा अशांत
होते जाओगे।
तुम अपने
केंद्र से
जितनी दूर
निकल जाओगे
उतने ही अधिक
अशांत होते
जाओगे। सच तो
यह है कि दूरी
और अशांति सदा
समान अनुपात
में होती हैं।
तुम अपने
केंद्र से
जितनी दूर
होंगे उतने
ज्यादा अशांत
होंगे और
केंद्र के
जितने करीब
होंगे उतने कम
अशांत होगे।
और अगर तुम ठीक
केंद्र पर हो
तो कोई अशांति
नहीं है।
हर
तूफान के बीचो—बीच
एक केंद्र
होता है जो
बिलकुल शांत
रहता है; वैसे
ही क्रोध के
तूफान के
केंद्र पर, काम के
तूफान के
केंद्र पर, किसी भी
वासना के
तूफान के
केंद्र—ठीक
केंद्र पर कोई
तूफान नहीं
होता है। और
कोई भी तूफान शांत
केंद्र के
बिना नहीं हो
सकता; वैसे
ही क्रोध भी
तुम्हारे उस
अंतरस्थ के
बिना नहीं हो
सकता जो क्रोध
के पार है।
यह
स्मरण रहे, कोई
भी चीज अपने
विपरीत तत्व
के बिना नहीं
हो सकती।
विपरीत जरूरी
है; उसके
बिना किसी भी
चीज के होने
की संभावना
नहीं है। यदि
तुम्हारे
भीतर कोई
स्थिर केंद्र
न हो तो गति
असंभव है। यदि
तुम्हारे
भीतर शांत
केंद्र न हो
तो अशांति
असंभव है।
इस
बात का
विश्लेषण करो, इसका
निरीक्षण करो।
अगर तुम्हारे
भीतर परम
शांति का कोई
केंद्र न होता
तो तुम कैसे
जानते कि मैं
अशांत हूं? तुम्हें
तुलना चाहिए;
तुलना के लिए
दो बिंदु
चाहिए।
मान
लो कि कोई
व्यक्ति
बीमार है। वह
व्यक्ति
बीमारी अनुभव
करता है; क्योंकि
उसके भीतर
कहीं कोई
बिंदु है, केंद्र
है, जहां
परम
स्वास्थ्य
विराजमान है।
इससे ही वह
तुलना कर सकता।
तुम कहते हो
कि मुझे
सिरदर्द है, लेकिन तुम
कैसे जानते हो
कि यह दर्द है, सिरदर्द है?
अगर तुम ही
सिरदर्द होते
तो तुम इसे
कभी न जान सकते।
अवश्य ही तुम
कुछ और हो, कोई
और हो। तुम
द्रष्टा हो, साक्षी हो, जो कहता है
कि मुझे
सिरदर्द है।
इस दर्द को
वही अनुभव कर
सकता है जो
खुद दर्द नहीं
है। अगर तुम
बीमार हो, ज्वरग्रस्त
हो तो तुम उसे अनुभव
कर सकते हो; क्योंकि तुम
ज्वर नहीं हो।
खुद ज्वर ज्वर
को नहीं अनुभव
कर सकता है; कोई चाहिए
जो उसके पार
हो। विपरीत
जरूरी है।
जब
तुम क्रोध में
हो और अगर तुम
महसूस करते हो
कि मैं क्रोध
में हूं तो
उसका अर्थ है
कि तुम्हारे
भीतर कोई
बिंदु है जो
अब भी शांत है और
जो साक्षी हो
सकता है। यह
बात दूसरी है
कि तुम इस
बिंदु को नहीं
देखते हो। तुम
इस बिंदु पर
अपने को कभी
नहीं देखते, यह
बात अलग है।
लेकिन वह सदा
अपनी मौलिक
शुद्धता में
वहा मौजूद है।
यह
सूत्र कहता है
: 'तीव्र कामना
की मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।’
तुम
क्या कर सकते
हो?
यह विधि दमन
के पक्ष में
नहीं है। यह
विधि यह नहीं
कहती है कि जब
क्रोध आए तो
उसे दबा दो और शांत
रहो। नहीं, अगर तुम दमन
करोगे तो तुम
ज्यादा अशांति
निर्मित
करोगे। अगर
क्रोध हो और
उसे दबाने का
प्रयत्न भी
साथ—साथ हो तो
उससे अशांति
दुगुनी हो
जाएगी। नहीं,
जब क्रोध आए
तो द्वार—दरवाजे
बंद कर लो और
क्रोध पर
ध्यान करो।
क्रोध को होने
दो, तुम
अनुद्विग्न
रहो और क्रोध
का दमन मत करो।
दमन
करना आसान है, प्रकट
करना भी आसान
है। और हम
दोनों करते
हैं। अगर
स्थिति
अनुकूल हो तो
हम क्रोध को
प्रकट कर देते
हैं। अगर उसकी
सुविधा हो, अगर तुम्हें
खुद कोई खतरा
नहीं हो, तो
तुम क्रोध को अभिव्यक्त
कर दोगे। अगर
तुम दूसरे को
चोट पहुंचा
सकते हो और
दूसरा बदले
में तुम पर
चोट न कर सकता
हो तो तुम
अपने क्रोध को
खुली छूट दे
दोगे। और अगर
क्रोध को
प्रकट करना
खतरनाक हो, अगर दूसरा
तुम्हें
ज्यादा चोट कर
सकने में
समर्थ हो, अगर
वह तुम्हारा
मालिक हो या
तुमसे ज्यादा
बलवान हो, तो
तुम क्रोध को
दबा दोगे।
अभिव्यक्ति
और दमन सरल
हैं,
साक्षी
कठिन है।
साक्षी न
अभिव्यक्ति
है और न दमन; वह दोनों
में कोई नहीं
है। वह
अभिव्यक्ति
नहीं है; क्योंकि
तुम उसे दूसरे
पर नहीं प्रकट
कर रहे हो।
तुम उसका दमन
भी नहीं करते।
तुम उसे शून्य
में विसर्जित
कर रहे हो।
तुम उस पर
ध्यान कर रहे
हो।
किसी
आईने के सामने
खड़े हो जाओ और
अपने क्रोध को
प्रकट करो—और
उसके साक्षी
बने रहो। तुम
अकेले हो, इसलिए
तुम उस पर
ध्यान कर सकते
हो। तुम जो भी
करना चाहो करो,
लेकिन
शून्य में करो।
अगर तुम किसी
को मारना—पीटना
चाहते हो तो
खाली आकाश के
साथ मार—पीट
करो। अगर
क्रोध करना
चाहते हो तो
क्रोध करो, अगर चीखना
चाहते हो तो
चीखो। लेकिन
सब अकेले में
करो। और अपने
को उस केंद्र—बिंदु
की भांति
स्मरण रखो जो
यह सब नाटक
देख रहा है।
तब यह एक
साइकोड्रामा
बन जाएगा और
तुम उस पर हंस
सकते हो। वह
तुम्हारे लिए
गहरा रेचन बन
जाएगा। और न
केवल
तुम्हारा
क्रोध विसर्जित
हो जाएगा, बल्कि
तुम उससे कुछ
फायदा उठा
लोगे।
तुम्हें एक प्रौढ़ता
प्राप्त होगी; तुम एक
विकास को
उपलब्ध होओगे।
और अब तुम्हें
पता होगा कि
जब तुम क्रोध
में भी थे तो कोई
केंद्र था जो शांत
था। अब इस
केंद्र को
अधिकाधिक उघाडते
जाओ। और वासना
की अवस्था में
इस केंद्र को
उघाड़ना आसान
है।
इसीलिए
तंत्र वासना
के विरोध में
नहीं है। वह
कहता है.
वासना में
उतरो, लेकिन
उस केंद्र को
स्मरण रखो जो
शांत है।
तंत्र कहता है
कि इस प्रयोग
के लिए
कामवासना का
भी उपयोग किया
जा सकता है।
काम—कृत्य में
उतरो, लेकिन
अनुद्विग्न
रही, शांत
रहो; और
साक्षी रहो, गहरे में
द्रष्टा बने
रहो। जो भी हो
रहा है वह
परिधि पर हो
रहा है और तुम
केवल देखने
वाले हो, दर्शक
हो।
यह
विधि बहुत
उपयोगी हो
सकती है और
इससे तुम्हें
बहुत लाभ हो
सकता है।
लेकिन यह कठिन
होगा।
क्योंकि जब
तुम अशांत
होते हो तो
तुम सब कुछ भूल
जाते हो। तुम
यह भूल जा
सकते हो कि
मुझे ध्यान
करना है। तो
फिर इसे इस
भांति प्रयोग
करो। उस क्षण
के लिए मत
रुको जब
तुम्हें
क्रोध होता है।
उस क्षण के
लिए मत रुको।
अपना कमरा बंद
करो और क्रोध
के किसी अतीत
अनुभव को
स्मरण करो
जिसमें तुम
पागल ही हो गए
थे। उसे स्मरण
करो और फिर से
उसका अभिनय
करो।
यह
तुम्हारे लिए
सरल होगा। उस
अनुभव को फिर
से अभिनीत करो, उसे
फिर से जीओ।
स्मरण ही मत
करो, उसे जीओ। स्मरण
करो कि किसी
ने तुम्हारा
अपमान किया था;
स्मरण करो
कि अपमान करते
हुए उसने क्या
कहा था और फिर
तुमने क्या
प्रतिक्रिया
की थी। पूरी
चीज को फिर से
अभिनीत करो, फिर से पूरा
नाटक दोहराओ।
शायद
तुम्हें पता न
हो कि मन टेप—रिकार्डिंग
यंत्र जैसा ही
है। अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं, अब
तो यह
वैज्ञानिक
तथ्य है कि
अगर तुम्हारे
स्मृति—केंद्रों
को
इलेक्ट्रोड
से छुआ जाए तो
वे केंद्र फिर
से संगृहीत
अनुभवों को
दोहराने लगते हैं।
उदाहरण के लिए,
तुमने कभी
क्रोध किया था
और वह घटना
तुम्हारे मन
के टेप—रिकार्डर
पर रिकार्ड है;
ठीक उसी अनुक्रम
में वह
रिकार्ड है
जिस अनुक्रम
में वह घटित
हुई थी। अगर
उसे
इलेक्ट्रोड
से छुओगे
तो वह घटना
पुन: जीवंत
होकर दोहरने
लगेगी।
तुम्हें वही—वही
भाव फिर से
होंगे जो
क्रोध करते
समय हुए थे।
तुम्हारी आंखें
लाल हो जाएंगी;
तुम्हारा
शरीर कांपने
लगेगा, ज्वरग्रस्त
हो जाएगा; पूरी
कहानी फिर
दोहरेगी। और
ज्यों ही
इलेक्ट्रोड
को वहा से
हटाओगे, नाटक
बंद हो जाएगा।
यदि तुम उसे
फिर ऊर्जा
देते हो, वह
फिर बिलकुल
शुरू से चालू
हो जाता है।
अब
वे कहते हैं
कि मन एक
रिकार्डिंग
मशीन है और
तुम किसी भी
अनुभव को
दोहरा सकते हो।
लेकिन
स्मरण ही मत
करो,
उसे फिर से जीओ।
अनुभव को फिर
जीना शुरू करो
और मन उसे पकड़
लेगा। वह घटना
वापस लौट आएगी
और तुम उसे
फिर जीओगे। और
इसे पुन: जीते
हुए
अनुद्विग्न
रही, शांत
रहो। अतीत से
शुरू करो। और
यह सरल है, क्योंकि
अब यह नाटक है।
यह यथार्थ
स्थिति नहीं
है। और अगर
तुम यह करने
में समर्थ हो
गए तो जब सच ही क्रोध
की स्थिति
पैदा होगी, तुम उसे भी
कर सकोगे। और
यह प्रत्येक
कामना के साथ
किया जा सकता
है; प्रत्येक
कामना के साथ
किया जाना
चाहिए।
अतीत
के अनुभवों को
फिर से जीना
बड़े काम का है।
हम सब के मन
में घाव हैं; ऐसे
घाव हैं जो
अभी भी हरे
हैं। अगर तुम
उन्हें फिर
से. जी लोगे तो
तुम निर्भार
हो जाओगे। अगर
तुम अपने अतीत
में लोट सके और
अधूरे अनुभवों
को जी सके तो तुम
अपने अतीत के बोझ
से मुक्त हो
जाओगे।
तुम्हारा मन
ताजा हो जाएगा;
धूल झड़
जाएगी।
अपने
अतीत में से
कोई ऐसा अनुभव
स्मरण करो जो तुम्हारे
देखे अधूरा
पड़ा है। तुम
किसी की हत्या
करना चाहते थे, तुम
किसी को प्रेम
करना चाहते थे;
तुम यह या
वह करना चाहते
थे। लेकिन वे
सारे काम
अपूर्ण रह गए
अधूरे रह गए।
और वह अधूरी
चीज तुम्हारे
मन के आकाश पर
बादल की भांति
मंडराती
रहती है। वह
तुम्हें और
तुम्हारे
कृत्यों को
सदा प्रभावित
करती रहती है।
उस बादल को
विसर्जित
करना होगा। तो
उसके कालपथ
को पकड़कर
मन में पीछे लौटो और उन
कामनाओं को
फिर से जीओ
जो अधूरी रह
गई हैं, उन
घावों को फिर
से जीओ जो
अभी भी हरे
हैं। वे घाव
भर जाएंगे; तुम स्वस्थ
हो जाओगे। और
इस प्रयोग के
द्वारा
तुम्हें एक
झलक मिलेगी कि
कैसे किसी
अशांत स्थिति में
शांत रहा जाए।
’तीव्र कामना
की मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।’
गुरजिएफ
ने इस विधि का
खूब प्रयोग
किया। वह इसके
लिए
परिस्थितियां
निर्मित करता
था। लेकिन
परिस्थितियां
निर्मित करने
के लिए समूह
जरूरी है, आश्रम
जरूरी है। तुम
अकेले यह नहीं
कर सकते। फाउंटेनब्लू
में गुरजिएफ
ने एक आश्रम
बनाया था। और
वह बड़ा कुशल
गुरु था जो
जानता था कि
स्थिति कैसे
निर्मित की
जाती है।
तुम
किसी कमरे में
प्रवेश करते
हो जहां एक
समूह पहले से
बैठा है। तुम
कमरे में
प्रवेश करते
हो और तभी कुछ
किया जाता है
जिससे तुम
क्रोधित हो
जाते हो। और
वह चीज इस स्वाभाविक
ढंग से की
जाती कि
तुम्हें कभी
कल्पना भी
नहीं होती कि
यह परिस्थिति
तुम्हारे लिए
निर्मित की जा
रही है। यह एक
उपाय था। कोई
व्यक्ति कुछ
कहकर तुम्हें
अपमानित कर देता
है और तुम अशांत
हो जाते हो।
और फिर हर कोई
उस अशांति को
बढ़ावा देता है
और तुम पागल
ही हो जाते हो।
और जब तुम ठीक
विस्फोट के
बिंदु पर
पहुंचते हो तो
गुरजिएफ
चिल्लाकर
कहता है.
स्मरण करो और अनुद्विग्न
रहो!
ऐसी
परिस्थिति
निर्मित की जा
सकती है, लेकिन
केवल वहीं
जहां अनेक लोग
अपने ऊपर काम
कर रहे हों।
और जब गुरजिएफ
चिल्लाकर
कहता कि स्मरण
करो और अनुद्विग्न
रहो; तो
तुम जान जाते
कि यह
परिस्थिति
पहले से तैयार
की गई थी।
लेकिन अब
तुम्हारा
उद्वेग, तुम्हारी
अशांति इतनी
शीघ्रता से, इतनी जल्दी
मिटने नहीं
वाली है। इस अशांति
की जड़ें
तुम्हारे
शरीर में हैं;
तुम्हारी
ग्रंथियों ने
तुम्हारे शरीर
में जहर छोड़
दिए हैं। तुम्हारा
शरीर उससे
प्रभावित है।
क्रोध इतनी
शीघ्रता से
नहीं जाने
वाला है। अब
जबकि तुम्हें
पता हो गया है
कि मुझे धोखा
दिया गया है, कि किसी ने
सच ही मुझे
अपमानित नहीं
किया, तो
भी तुम कुछ
नहीं कर सकते।
क्रोध जहां का
तहां है, तुम्हारा
शरीर क्रोध की
स्थिति में है।
लेकिन
एक बात होती
है कि अचानक
तुम्हारा
ज्वर भीतर
शांत होने
लगता है।
क्रोध अब
सिर्फ शरीर पर, परिधि
पर है, केंद्र
पर तुम अचानक
शीतल होने
लगते हो। और
अब तुम जानते
हो कि मेरे
भीतर एक बिंदु
है जो अनुद्विग्न
है, शांत
है। और तुम
हंसने लगते हो।
अभी भी तुम्हारी
आंखें क्रोध
से लाल हैं, तुम्हारा
चेहरा पशुवत
हिंसक बना हुआ
है; लेकिन
तुम हंसने
लगते हो। अब
तुम्हें दो
चीजें पता
हैं. एक
अनुद्विग्न केंद्र
और दूसरी
उद्विग्न
परिधि।
तुम
एक—दूसरे के लिए
सहयोगी हो सकते
हो। तुम्हारा परिवार
ही आश्रम बन
सकता है; तुम
एक—दूसरे की मदद
कर सकते हो।
मित्र आश्रम
बन सकते हैं
और एक—दूसरे
की सहायता कर
सकते हैं। तुम
अपने परिवार
से बात करके
तय कर सकते हो,
पूरा
परिवार तय कर
सकता है कि
पिता के लिए
या मां के लिए
एक परिस्थिति
पैदा की जाए; और पूरा
परिवार उस
परिस्थिति के
पैदा करने में
हाथ बंटाता
है। जब मां या
पिता पूरी तरह
विक्षिप्त हो
जाते हैं तो
सब हंसने लगते
हैं और कहते
हैं : बिलकुल अनुद्विग्न
रहो!
तुम
परस्पर एक—दूसरे
की मदद कर
सकते हो।
और
यह अनुभव बहुत
अदभुत है। जब
तुम्हें किसी
उत्तेजित
परिस्थिति के
भीतर एक शीतल
केंद्र का पता
चल जाए तो तुम
उसे भूल नहीं
सकते। और तब
तुम किसी भी
तरह की अशांत
परिस्थिति में
उसे स्मरण कर
सकते हो, उसे
पुन: उपलब्ध
कर सकते हो।
पश्चिम
में अब एक
विधि का, चिकित्सा—विधि
का प्रयोग हो
रहा है, जिसे
वे
साइकोड्रामा
कहते हैं। वह
सहयोगी है और
इसी तरह की
विधियों पर
आधारित है। इस
साइकोड्रामा
में तुम एक
अभिनय करते हो,
एक खेल
खेलते हो।
शुरू में तो
वह खेल ही है, लेकिन देर—अबेर
तुम उसके
वशीभूत हो
जाते हो। और
जब तुम वशीभूत
होते हो, आविष्ट
होते हो तो
तुम्हारा मन
सक्रिय हो जाता
है। क्योंकि
तुम्हारे
शरीर और मन
स्वचालित ढंग
से काम करते
हैं; वे स्वचालित
व्यवहार करते
हैं।
तो
साइकोड्रामा
में व्यक्ति
क्रोध की
स्थिति में
सचमुच
क्रोधित हो
जाता है। तुम
सोच सकते हो
कि वह अभिनय
कर रहा है, लेकिन
ऐसी बात नहीं
है। संभव है
कि वह सच में
ही क्रोधित हो
गया हो; केवल
अभिनय ही न कर
रहा हो। वह
कामना के वश
में है, उद्वेग
के वश में है, भाव के वश
में है। और जब
वह सच में
उनसे आविष्ट
होता है तभी
उसका अभिनय
यथार्थ मालूम
पड़ता है।
तुम्हारे
शरीर को नहीं
पता हो सकता
कि तुम अभिनय
कर रहे हो या
सच में कर रहे
हो। तुमने
अपने ही जीवन
में कभी देखा
होगा कि तुम क्रोध
का केवल अभिनय
कर रहे थे और
तुम्हारे
अनजाने ही
क्रोध सच बन
गया। या कि
तुम उत्तेजित
नहीं थे, सिर्फ
पत्नी या
प्रेमिका के
साथ खेल कर
रहे थे कि
अचानक और
अनजाने सारा
खेल सच हो गया।
शरीर उसे पकड़
लेता है। और
शरीर को धोखा
दिया जा सकता
है। शरीर नहीं
जान सकता, विशेषकर
कामवासना के
प्रसंग में कि
यह सच है या
अभिनय। तुम
कल्पना भी
करते हो तो
शरीर सोचता है
कि वह सच है।
काम—केंद्र
शरीर का सबसे
अधिक
कल्पनात्मक
केंद्र है।
सिर्फ कल्पना
से तुम काम के
शिखर— अनुभव
को,
आर्गाज्म
को उपलब्ध हो
सकते हो। तुम
शरीर को धोखा
दे सकते हो।
स्वप्न में भी
तुम संभोग को,
आर्गाज्म
को उपलब्ध हो
सकते हो। स्वप्न
में भी शरीर
धोखा खा सकता
है। तुम किसी
के भी साथ सच
में संभोग
नहीं कर रहे हो,
सिर्फ स्वप्न
में, कल्पना
में तुम संभोग
कर रहे हो।
लेकिन शरीर
में काम—ऊर्जा
का उद्रेक हो
सकता है; शरीर
गहन आर्गाज्म
भी अनुभव कर सकता
है। क्या होता
है? शरीर
कैसे धोखे में
आ जाता है?
शरीर
नहीं जान सकता
कि क्या सच है
और क्या झूठ
है। जब तुम
कुछ करने लगते
हो
तो
शरीर सोचता है
कि यह सच है और
वह वैसा ही
व्यवहार करने
लगता है।
साइकोड्रामा ऐसी
विधियों पर
आधारित है।
तुम क्रोधित
नहीं हो, सिर्फ
क्रोध का
अभिनय कर रहे
हो; और फिर तुम
उससे आविष्ट हो
जाते हो।
लेकिन
साइकोड्रामा
सुंदर है, क्योंकि
तुम जानते हो
कि मैं महज
अभिनय कर रहा
हूं। और तब
परिधि पर
क्रोध यथार्थ
हो जाता है और
ठीक उसके पीछे
तुम छिपकर
उसका
निरीक्षण कर
रहे होते हो।
तुम जानते हो
कि मैं
उद्विग्न
नहीं हूं; लेकिन
क्रोध है, उद्वेग
है, अशांति
है। अशांति है
और फिर भी
अशांति नहीं
है। यह दो
ऊर्जाओं का
युगपत काम
करने का अनुभव
तुम्हें उनके
अतिक्रमण में
ले जाता है।
और फिर असली
क्रोध में भी
तुम उसे अनुभव
कर सकते हो।
जब तुमने जान
लिया कि उसे
कैसे अनुभव
किया जाए, तुम
वास्तविक
स्थितियों
में भी अनुभव
कर सकते हो।
इस
विधि का
प्रयोग करो; यह
तुम्हारे
समग्र जीवन को
बदल देगी। और
जब तुमने
अनुद्विग्न
रहना सीख लिया
तो संसार
तुम्हारे लिए
दुख न रहा। तब
कुछ भी
तुम्हें
भ्रांत नहीं
कर सकता; तब
कुछ भी तुम्हें
सच में पीड़ित
नहीं कर सकता।
अब तुम्हारे
लिए कोई दुख न
रहा।
और
तब तुम एक और
काम कर सकते
हो। गुरजिएफ
यह करता था।
वह किसी भी
क्षण अपना
चेहरा, अपनी
मुख—मुद्रा
बदल सकता था।
वह हंस रहा है,
मुस्कुरा
रहा है, तुम्हारे
साथ बैठकर
प्रसन्न है; और अचानक वह
बिना किसी कारण
के ही क्रोधित
हो जाएगा। और
कहते हैं कि
वह इस कला में
इतना निष्णात
हो गया था कि
वह एक साथ
अपने आधे
चेहरे से
क्रोध और
दूसरे आधे
चेहरे से
मुस्कुराहट
प्रकट कर सकता
था। अगर उसके
दोनों ओर दो
व्यक्ति बैठे
हों तो वह साथ—साथ
एक पर
मुस्कुरा
सकता है और
दूसरे पर क्रोधित
हो सकता है।
एक व्यक्ति
कहेगा कि
गुरजिएफ
कितना सुंदर
आदमी है और
दूसरा कहेगा
कि वह बहुत
खराब है। वह
एक साथ एक को
हंसकर देखता
था और दूसरे
को गुस्से से।
एक
बार तुम अपने
केंद्र को
परिधि से पूरी
तरह पृथक कर
लो तो तुम यह
कर सकते हो।
अगर तुम क्रोध
और कामना की
मनोदशा में
अनुद्विग्न
रह सकते हो तो
तुम क्रोध, कामना
और उद्वेग के
साथ खेल भी कर
सकते हो।
यह
विधि
तुम्हारे
भीतर दो
अतियों को
अनुभव करने की
विधि है।
दोनों अतियां
वहां हैं—विपरीत
अतियां। एक
बार तुम्हें
इन अतियों का
बोध हो जाए तो
पहली दफा तुम
अपने मालिक
हुए। अन्यथा
दूसरे मालिक
हैं;
तुम खुद
गुलाम हो।
तुम्हारी
पत्नी जानती
है, तुम्हारा
बाप जानता है,
तुम्हारे
बेटे, तुम्हारे
दोस्त जानते
हैं कि
तुम्हें कैसे
हिलाया जा
सकता है, तुम्हें
कैसे अशांत
किया जा सकता
है, तुम्हें
कैसे खुश—नाखुश
किया जा सकता
है।
और
जब दूसरा तुम्हें
सुखी और दुखी
कर सकता है तो
तुम मालिक नहीं
हो,
गुलाम ही हो।
कुंजी दूसरे
के हाथ में है;
बस उसकी एक
भाव—भंगिमा
तुम्हें दुखी
बना सकती है; उसकी एक
मुस्कुराहट
तुम्हें सुख
से भर सकती है।
तो तुम दूसरे
की मर्जी पर
हो, दूसरा
तुम्हारे साथ
कुछ भी कर
सकता है।
और
अगर यही
स्थिति है तो
तुम्हारी सब
प्रतिक्रियाएं
बस
प्रतिक्रियाएं
ही हैं; उन्हें
क्रियाएं
नहीं कहा जा
सकता। तुम
सिर्फ
प्रतिक्रिया
करते हो, क्रिया
नहीं। कोई
तुम्हारा
अपमान करता है
और तुम
क्रोधित हो
जाते हो तो
तुम्हारा यह
क्रोध क्रिया
नहीं, प्रतिक्रिया
है। और जब कोई
तुम्हारी
प्रशंसा करता
है और तुम
मुस्कुराने
लगते हो, फूलकर
कुप्पा हो
जाते हो, तो
यह
प्रतिक्रिया
है, क्रिया
नहीं।
बुद्ध
एक गांव से
गुजर रहे थे।
कुछ लोग उनके
पास इकट्ठे हो
गए;
वे सब उनके
विरोध में थे।
उन्होंने
बुद्ध का
अपमान किया, उन्हें
गालियां दीं।
बुद्ध ने सब
सुना और फिर
कहा : मुझे समय
पर दूसरे गांव
पहुंचना है; तो क्या मैं
अब जा सकता
हूं? अगर
तुमने वह सब
कह लिया हो जो
कहने आए थे, अगर बात खतम
हो गई तो मैं
जाऊं और यदि
कुछ कहने को
शेष रह गया हो तो
मैं लौटते हुए
यहां रुकूंगा,
तुम आ जाना
और कह लेना।
वे
लोग तो चकित
रह गए; उन्हें
कुछ समझ में
नहीं आया। वे
तो उनका अपमान
कर रहे थे, उन्हें
गालियां दे
रहे थे। तो
उन्होंने कहा
कि हमें कुछ
कहना नहीं है;
हम तो बस
आपका अपमान कर
रहे हैं, आपको
गालियां दे
रहे हैं।
बुद्ध
ने कहा : तुम वह
कर सकते हो; लेकिन
यदि तुम्हें
मेरी
प्रतिक्रिया
की अपेक्षा है
तो तुम देरी
करके आए। दस
वर्ष पूर्व
तुम अगर ये
शब्द लेकर आए
होते तो मैं
प्रतिक्रिया
करता। लेकिन
अब मैं क्रिया
करना सीख गया
हूं मैं अब अपना
मालिक हूं। अब
तुम मुझे कुछ
करने को मजबूर
नहीं कर सकते।
तुम लौट जाओ; तुम अब मुझे
विचलित नहीं
कर सकते हो।
मुझे अब कुछ
भी अशांत नहीं
कर सकता है।
मैंने अपने
केंद्र को जान
लिया है।
केंद्र
का यह ज्ञान
या केंद्र में
प्रतिष्ठित
होना तुम्हें
अपना मालिक
बना देता है।
अन्यथा तुम
गुलाम हो—एक
ही मालिक के
नहीं, अनेक
मालिकों के
गुलाम हो। तब
हर कोई
तुम्हारा
मालिक है और
तुम सारे जगत के
गुलाम हो।
निश्चित ही
तुम पीड़ा में,
दुख में
रहोगे। इतने
मालिक और वे
इतनी दिशाओं
में तुम्हें खींचेंगे
कि तुम अखंड न
रह सकोगे, एक
न रह सकोगे।
और इतने
आयामों में
खींचे जाने के
कारण तुम
संताप में
रहोगे। वही
व्यक्ति
संताप का
अतिक्रमण कर
सकता है जो
अपना स्वामी
है।
साक्षीत्व
की दूसरी विधि
:
यह
तथाकथित जगत
जादूगरी जैसा
या चित्र—
कृति जैसा
भासता है सुखी
होने के लिए
उसे वैसा ही
देखो।
यह
सारा संसार
ठीक एक नाटक
के समान है, इसलिए
इसे गंभीरता
से मत लो।
गंभीरता
तुम्हें
उपद्रव में
डाल देगी, तुम
मुसीबत में
पड़ोगे। इसे
गंभीरता से मत
लो, कुछ
गंभीर नहीं है।
सारा संसार एक
नाटक मात्र है।
अगर
तुम सारे जगत
को नाटक की
तरह देख सको
तो तुम अपनी
मौलिक चेतना
को पा लोगे।
उस पर धूल जमा
हो जाती है, क्योंकि
तुम अति गंभीर
हो। वह
गंभीरता ही
समस्या पैदा
करती है। और
हम इतने गंभीर
हैं कि नाटक
देखते हुए भी
हम धूल जमा
करते हैं।
किसी
सिनेमाघर में
जाओ और
दर्शकों को
देखो। फिल्म
को मत देखो, फिल्म को
भूल जाओ; पर्दे
की तरफ मत
देखो, हाल
में जो दर्शक
हैं उन्हें
देखो। कोई रो
रहा होगा, कोई
हंस रहा होगा,
किसी की
कामवासना
उत्तेजित हो
रही होगी।
सिर्फ लोगों
को देखो। वे
क्या कर रहे
हैं? उन्हें
क्या हो रहा
है? पर्दे
पर छाया—चित्रों
के सिवाय कुछ
भी नहीं है—धूप—छांव
का खेल है, पर्दा
खाली है।
लेकिन वे
उत्तेजित
क्यों हो रहे
हैं?
वे
हंस रहे हैं, रो
रहे हैं, चीख
रहे हैं।
चित्र मात्र
चित्र नहीं है,
फिल्म
मात्र फिल्म
नहीं है। वे
भूल गए हैं कि
यह एक कहानी
भर है।
उन्होंने
इसको गंभीरता
से ले लिया है।
चित्र जीवित हो
उठा है, यथार्थ
बन गया है।
और
यही चीज
सर्वत्र घट
रही है। यह
सिनेमाघरों
तक ही सीमित
नहीं है। अपने
चारों ओर के
जीवन को तो
देखो; वह क्या
है? इस
धरती पर
असंख्य लोग रह
चुके हैं।
जहां तुम बैठे
हो, वहां
कम से कम दस
लाशें गड़ी
हैं। और वे
लोग भी
तुम्हारे
जैसे ही गंभीर
थे। वे अब
कहां हैं? उनका
जीवन कहां चला
गया? उनकी
समस्याएं कहां
गईं? वे
लड़ते थे; एक—एक
इंच जमीन के
लिए लड़ते थे।
वह जमीन पड़ी
है और वे लोग
कहीं नहीं हैं।
और
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
उनकी
समस्याएं समस्याएं
नहीं थीं। वे
थीं,
जैसे
तुम्हारी
समस्याएं समस्याएं
हैं। वे गंभीर
समस्याएं थीं,
जीवन—मरण की
समस्याएं थीं।
लेकिन कहा गईं
वे समस्याएं?
और अगर किसी
दिन पूरी
मनुष्यता खो
जाए तो भी
धरती रहेगी, वृक्ष बड़े
होंगे, नदियां बहेंगी
और सूरज उगेगा;
और पृथ्वी
को मनुष्यता
की गैर—मौजूदगी
पर न कोई खेद
होगा न
आश्चर्य।
जरा
इस विस्तार पर
अपनी निगाह को
दौड़ाओ।
पीछे देखो, आगे
देखो, सभी
आयामों को
देखो और देखो
कि तुम क्या
हो, तुम्हारा
जीवन क्या है।
सब कुछ एक बड़ा स्वप्न
जैसा मालूम
पड़ता है। और
हर चीज जिसे
तुम इस क्षण
इतनी गंभीरता
से ले रहे हो, अगले क्षण
ही व्यर्थ हो
जाती है।
तुम्हें उसकी
याद भी नहीं
रहती।
अपने
प्रथम प्रेम
को स्मरण करो।
कितनी गंभीर
बात थी वह, जैसे
कि जीवन ही उस
पर निर्भर था।
और अब वह
तुम्हें
स्मरण भी नहीं
है, बिलकुल
भूल गया है।
वैसे ही वे
चीजें भी भूल
जाएंगी जिन पर
तुम आज अपने
जीवन को
निर्भर समझते
हो।
जीवन
एक प्रवाह है, वहां
कुछ भी नहीं
टिकता है।
जीवन भागती
फिल्म की
भांति है
जिसमें हर चीज
दूसरी चीज में
बदल रही है। लेकिन
इस क्षण वह
तुम्हें बहुत
गंभीर, बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती है
और तुम उद्विग्न
हो जाते हो।
यह
विधि कहती है : 'यह
तथाकथित जगत
जादूगरी जैसा
या चित्र—कृति
जैसा भासता है।
सुखी होने के
लिए उसे वैसा
ही देखो।’
भारत
में हम इस जगत
को परमात्मा
की सृष्टि नहीं
कहते, हम उसे
लीला कहते हैं।
यह लीला की
धारणा बहुत
सुंदर है।
सृष्टि की
धारणा गंभीर
मालूम पड़ती है।
ईसाई और यहूदी
ईश्वर बहुत
गंभीर है। एक
अवज्ञा के लिए
आदम को अदन के बगीचे से
निकाल दिया
गया। और न
सिर्फ आदम को,
बल्कि उसके
कारण पूरी
मनुष्यता को
निकाल बाहर
किया गया। वह
हमारा पिता था;
और हम सब
उसके कारण दुख
में पड़े हैं!
ईश्वर बहुत
गंभीर मालूम
पड़ता है। उसकी
अवज्ञा नहीं
होनी चाहिए।
और अगर अवज्ञा
होगी तो वह
बदला लेगा। और
उसका
प्रतिशोध अभी
तक चला आ रहा
है! प्रतिशोध
के मुकाबले
में पाप इतना
बड़ा नहीं लगता
है।
सच
तो यह है कि
आदम ने
परमात्मा की
बेवकूफी के
चलते यह पाप किया।
परम पिता
परमात्मा ने
आदम से कहा कि
ज्ञान के वृक्ष
के पास मत
जाना और उसका
फल मत खाना।
यह निषेध ही
निमंत्रण बन
गया। यह
मनोवैज्ञानिक
बात है। उसे
बड़े बगीचे
में केवल ज्ञान
का वृक्ष
आकर्षण हो गया, क्योंकि
वह निषिद्ध था।
कोई भी
मनोवैज्ञानिक
कहेगा कि भूल परमात्मा
की थी। अगर उस
वृक्ष के फल को
नहीं खाने देना
था तो उसकी चर्चा
ही नहीं करनी थी।
तब आदम उस
वृक्ष तक कभी
नहीं जाता और
मनुष्यता अभी
भी उसी बगीचे
में रहती होती।
लेकिन इस वचन
ने, इस
आज्ञा ने कि 'मत खाना', सारा
उपद्रव खड़ा कर
दिया। इस
निषेध ने
उपद्रव पैदा
किया।
क्योंकि आदम
ने अवज्ञा की,
वह स्वर्ग
से निकाल बाहर
किया गया। और
प्रतिशोध
कितना बड़ा है!
ईसाई
कहते हैं कि
जीसस हमें
हमारे पाप से
उद्धार
दिलाने के लिए, हमें
आदम के किए
पाप से मुक्त
करने के लिए
सूली पर चढ़ गए।
तो ईसाइयों की
इतिहास की
पूरी धारणा दो
व्यक्तियों
पर निर्भर है,
आदम और जीसस
पर। आदम ने
पाप किया और
जीसस उससे
हमारा उद्धार
करने के लिए
सूली पर चढ़े।
उन्होंने आदम
को क्षमा
दिलाने के लिए
सब यंत्रणा
झेली, पीड़ा
झेली। लेकिन
ऐसा नहीं लगता
कि ईश्वर ने
अब भी क्षमादान
दिया हो। जीसस
को तो सूली लग
गई, लेकिन
मनुष्यता अब
भी उसी भांति
दुख में है।
पिता
के रूप में
ईश्वर की
धारणा ही
गंभीर है, कुरूप
है। ईश्वर की
भारतीय धारणा
स्रष्टा की
नहीं, लीलाधर
की है। वह
गंभीर नहीं है,
वह खेल रहा
है। नियम हैं,
लेकिन वे
खेल के नियम
हैं। उनके
संबंध में गंभीर
होने की जरूरत
नहीं है। कुछ
पाप नहीं है, भूल भर है।
और तुम भूल के
कारण दुख सहते
हो, इसलिए
नहीं कि
परमात्मा
तुम्हें दंड
देता है। तुम
नियम न पालने
के कारण कष्ट
में पड़ते हो; परमात्मा
तुम्हें
दंडित नहीं कर
रहा है। लीला
की पूरी धारणा
जीवन को एक
नाटकीय रंग दे
देती है। जीवन
एक लंबा नाटक
हो जाता है।
और यह विधि
इसी लीला की
धारणा पर
आधारित है।
'यह तथाकथित
जगत जादूगरी
जैसा या चित्र—कृति
जैसा भासता है।
सुखी होने के
लिए उसे वैसा
ही देखो।’
अगर
तुम दुखी हो
तो इसलिए कि
तुमने जगत को
बहुत गंभीरता
से लिया है।
और सुखी होने
का कोई उपाय
मत खोजो, सिर्फ
अपनी दृष्टि
को बदलो।
गंभीर चित्त
से तुम सुखी
नहीं हो सकते,
उत्सव
मनाने वाला
चित्त ही सुखी
हो सकता है।
इस पूरे जीवन
को एक नाटक, एक कहानी की
तरह लो। ऐसा
ही है। और अगर
तुम उसे इस
भांति ले सके
तो तुम दुखी
नहीं होगे।
दुख अति
गंभीरता का
परिणाम है।
सात
दिन के लिए यह
प्रयोग करो।
सात दिन तक एक
ही चीज स्मरण
रखो कि सारा
जगत नाटक
मात्र है—और
तुम वही नहीं
रहोगे जो अभी
हो। सिर्फ सात
दिन के लिए
प्रयोग करो।
तुम्हारा कुछ
खो नहीं जाएगा, क्योंकि
तुम्हारे पास
खोने के लिए
भी तो कुछ नहीं
है। तुम
प्रयोग कर
सकते हो। सात
दिन तक सब कुछ
को नाटक समझो,
तमाशा समझो।
इन
सात दिनों में
तुम्हें
तुम्हारे
बुद्ध—स्वभाव
की,
तुम्हारी आंतरिक
पवित्रता की
अनेक झलकें
मिलेंगी। और
इस झलक के
मिलने के बाद
तुम फिर वही
नहीं रहोगे जो
हो। तब तुम
सुखी होगे। और
तुम सोच भी
नहीं सकते कि वह
सुख किस तरह
का होगा, क्योंकि
तुमने कोई सुख
नहीं जाना है।
तुमने सिर्फ
दुख की कम—अधिक
मात्राएं भर
जानी हैं; कभी
तुम ज्यादा
दुखी थे और
कभी कम। तुम
नहीं जानते हो
कि सुख क्या
है, तुम
उसे नहीं जान
सकते हो। जब
तुम्हारी जगत
की धारणा ऐसी
है कि तुम उसे
बहुत गंभीरता
से लेते हो तो
तुम नहीं
जान
सकते कि सुख
क्या है। सुख
तो तभी घटित
होता है जब
तुम्हारी यह
धारणा दृढ़
होती है कि यह
जगत केवल एक
लीला है।
इस
विधि को
प्रयोग में
लाओ और हर चीज
को उत्सव की
तरह लो, हर
चीज को उत्सव
मनाने के भाव
से करो। ऐसा
समझो कि यह नाटक
है, कोई
असली चीज नहीं।
अगर तुम पति
हो तो नाटक के
पति बन जाओ; अगर तुम
पत्नी हो तो
नाटक की पत्नी
बन जाओ। अपने
संबंधों को
खेल बना लो।
बेशक खेल के
नियम हैं; खेल
के लिए नियम
जरूरी हैं।
विवाह नियम है,
तलाक नियम
है। उनके बारे
में गंभीर मत
होओ। वे नियम
हैं और एक
नियम से दूसरा
नियम निकलता
है। तलाक बुरा
है, क्योंकि
विवाह बुरा है।
एक नियम दूसरे
नियम को जन्म
देता है।
लेकिन उन्हें
गंभीरता से मत
लो और फिर
देखो कि कैसे
तत्काल
तुम्हारे
जीवन का
गुणधर्म बदल जाता
है।
आज
रात अपने घर
जाओ और अपनी
पत्नी या पति
या बच्चों के
साथ ऐसे
व्यवहार करो
जैसे कि तुम
किसी नाटक में
भूमिका निभा
रहे हो। और
फिर उसका
सौंदर्य देखो।
अगर तुम श्रइमका
निभा रहे हो
तो तुम उसमें
कुशल होने की
कोशिश करोगे, लेकिन
उद्विग्न
नहीं होगे।
उसकी कोई
जरूरत नहीं है।
तुम अपनी
भूमिका निभाकर
सोने चले
जाओगे। लेकिन
स्मरण रहे कि
यह अभिनय है।
और सात दिन तक
इसका सतत खयाल
रखो। तब
तुम्हें सुख
उपलब्ध होगा।
और जब तुम जान
लोगे कि क्या
सुख है तो फिर
दुख में गिरने
की जरूरत नहीं
रही, क्योंकि
यह तुम्हारा
ही चुनाव है।
तुम
दुखी हो, क्योंकि
तुमने जीवन के
प्रति गलत
दृष्टि चुनी
है। तुम सुखी
हो सकते हो, अगर दृष्टि
सम्यक हो जाए।
बुद्ध सम्यक
दृष्टि को
बहुत महत्व
देते हैं। वे
सम्यक दृष्टि
को ही आधार
बनाते हैं, बुनियाद
बनाते हैं।
सम्यक दृष्टि
क्या है? उसकी
कसौटी क्या है?
मेरे
देखे कसौटी यह
है : जो दृष्टि
तुम्हें सुखी
करे वह सम्यक
दृष्टि है। और
जो दृष्टि
तुम्हें दुखी—पीड़ित
बनाए वह
असम्यक
दृष्टि है। और
कसौटी बाह्य
नहीं है, आंतरिक
है। और कसौटी
तुम्हारा सुख
है।
साक्षीत्व
की तीसरी
विधि:
प्रिये न
सुख में और न
दुख में बल्कि
दोनों के मध्य
में अवधान को
स्थिर करो।
प्रत्येक
चीज ध्रुवीय
है,
अपने
विपरीत के साथ
है। और मन एक
ध्रुव से
दूसरे ध्रुव
पर डोलता रहता
है, कभी
मध्य में नहीं
ठहरता।
क्या
तुमने कोई ऐसा
क्षण जाना है
जब तुम न सुखी
थे न दुखी? क्या
तुमने कोई ऐसा
क्षण जाना है
जब तुम न स्वस्थ
थे न बीमार? क्या तुमने
कोई ऐसा क्षण
जाना है जब
तुम न यह थे न
वह? जब तुम
ठीक मध्य में
थे, ठीक
बीच में थे?
मन
अविलंब एक अति
से दूसरी अति
पर चला जाता
है। अगर तुम
सुखी हो तो
देर—अबेर तुम
दुख की तरफ
गति कर जाओगे
और शीघ्र गति
कर जाओगे। सुख
विदा हो जाएगा
और तुम दुख
में हो जाओगे।
अगर तुम्हें
अभी अच्छा लग
रहा है तो देर—अबेर
तुम्हें बुरा
लगने लगेगा।
और तुम बीच
में कहीं नहीं
रुकते, इस
छोर से सीधे
उस छोर पर चले
जाते हो। घड़ी
के पेंडुलम
की तरह तुम
बाएं से दाएं
और दाएं से
बाएं डोलते
रहते हो। और पेंडुलम डोलता
ही रहता है।
एक
गुह्य नियम है।
जब पेंडुलम
बायीं ओर
जाता है तो
लगता तो है कि बायीं ओर
जा रहा है, लेकिन
सच में तब वह दायीं ओर
जाने के लिए
शक्ति जुटा
रहा है। और
वैसे ही जब वह दायीं ओर
जा रहा है तो बायीं ओर
जाने के लिए
शक्ति जुटा
रहा है। तो
जैसा दिखाई
पड़ता है वैसा ही
नहीं है। जब
तुम सुखी हो
रहे हो तो तुम
दुखी होने के
लिए शक्ति
जुटा रहे हो।
तो जब मैं
तुम्हें
हंसते देखता
हूं तो जानता हूं
कि रोने का
क्षण दूर नहीं
है।
भारत
के गांवों में
माताएं यह
जानती हैं। जब
कोई बच्चा
बहुत हंसने
लगता है तो वे
कहती हैं कि
उसका हंसना बंद
करो,
अन्यथा वह
रोएगा। यह
होने ही वाला
है। अगर कोई
बच्चा बेहद
खुश हो तो
उसका अगला कदम
दुख में पड़ने
ही वाला है।
इसलिए माताएं
उसे रोकती हैं,
अन्यथा वह
दुखी होगा।
लेकिन
यही नियम
विपरीत ढंग से
भी लागू होता
है;
और लोग यह
नहीं जानते
हैं। जब कोई
बच्चा रोता है
और तुम उसे
रोने से रोकते
हो तो तुम
उसका रोना ही नहीं
रोकते हो, तुम
उसका अगला कदम
भी रोक रहे हो।
अब वह सुखी भी
नहीं हो पाएगा।
बच्चा जब रोता
है तो उसे
रोने दो।
बच्चा जब रोता
है तो उसे मदद
दो कि और रोए।
जब तक उसका
रोना समाप्त
होगा, वह
शक्ति जुटा
लेगा, वह
सुखी हो सकेगा।
अब
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जब बच्चा रोता—चीखता
हो तो उसे
रोको मत, उसे
मनाओ मत, उसे
बहलाओ मत।
उसके ध्यान को
रोने से हटाकर
कहीं अन्यत्र
ले जाने की
कोशिश मत करो,
उसे रोना
बंद करने के
लिए रिश्वत मत
दो। कुछ मत
करो, बस
उसके पास मौन
बैठे रहो और
उसे रोने दो, चिल्लाने दो,
चीखने दो।
तब वह आसानी
से सुख की ओर
गति कर पाएगा।
अन्यथा न वह
रो सकेगा और न
सुखी हो सकेगा।
हमारी
यही स्थिति हो
गई है; हम कुछ
नहीं कर पाते
हैं। हम हंसते
हैं तो आधे
दिल से और
रोते हैं तो
आधे दिल से।
लेकिन यही मन
का प्राकृतिक
नियम है, वह
एक छोर से
दूसरे छोर पर
गति करता रहता
है। यह विधि
इस प्राकृतिक
नियम को बदलने
के लिए है।
'प्रिये, न
सुख में और न
दुख में, बल्कि
दोनों के मध्य
में अवधान को
स्थिर करो।’
किन्हीं
भी ध्रुवों को, विपरीतताओ को चुनो और
उनके मध्य में
स्थिर होने की
चेष्टा करो।
इस मध्य में
होने के लिए
तुम क्या
करोगे? मध्य
में कैसे
होओगे?
एक
बात कि जब दुख
में होते हो
तो क्या करते
हो?
जब दुख आता
है तो तुम
उससे बचना
चाहते हो, भागना
चाहते हो। तुम
दुख नहीं
चाहते हो; तुम
उससे भागना
चाहते हो।
तुम्हारी
चेष्टा रहती
है कि तुम
उससे विपरीत को
पा लो, सुख
को पा लो, आनंद
को पा लो। और
जब सुख आता है
तो तुम क्या
करते हो? तुम
चेष्टा करते
हो कि सुख बना
रहे, ताकि
दुख न आ जाए; तुम उससे
चिपके रहना
चाहते हो। तुम
सुख को पकड़कर
रखना चाहते हो
और दुख से
बचना चाहते हो।
यही
स्वाभाविक
दृष्टिकोण है,
ढंग है।
अगर
तुम इस प्राकृतिक
नियम को बदलना
चाहते हो, उसके
पार जाना
चाहते हो, तो
जब दुख आए तो
उससे भागने की
चेष्टा मत करो,
उसके साथ
रहो, उसको
भोगो। ऐसा करके
तुम उसकी पूरी
प्राकृतिक
व्यवस्था को अस्तव्यस्त
कर दोगे।
तुम्हें
सिरदर्द है, उसके साथ
रहो। आंखें
बंद कर लो और
सिरदर्द पर
ध्यान करो, उसके साथ
रहो। कुछ भी
मत करो,
बस
साक्षी रहो।
उससे भागने की
चेष्टा मत करो।
और जब सुख आए
और तुम किसी
क्षण विशेष
रूप से आनंदित
अनुभव करो तो
उसे पकड़कर
उससे चिपको
मत। आंखें बंद
कर लो और उसके साक्षी
हो जाओ।
सुख
को पकड़ना
और दुख से
भागना धूल—
भरे चित्त के
स्वाभाविक
गुण हैं। और
अगर तुम
साक्षी रह सकी
तो देर—अबेर
तुम मध्य को
उपलब्ध हो
जाओगे।
प्राकृतिक
नियम तो यही
है कि एक से
दूसरी अति पर
आते—जाते रहो।
अगर तुम
साक्षी रह सको
तो तुम मध्य
में होगे।
बुद्ध
ने इसी विधि
के कारण अपने
पूरे दर्शन को
मज्झिम
निकाय—मध्य
मार्ग कहा है।
वे कहते हैं
कि सदा मध्य
में रहो, चाहे
जो भी विपरीतताए
हों, तुम
सदा मध्य में
रहो। और
साक्षी होने
से मध्य में
हुआ जाता है।
जिस क्षण
तुम्हारा
साक्षी खो
जाता है, तुम
या तो आसक्त
हो जाते हो या विरक्त।
अगर तुम विरक्त
हुए तो दूसरी
अति पर चले जाओगे
और आसक्त हुए
तो इस अति पर
बने रहने की
चेष्टा करोगे।
लेकिन तब तुम
कभी मध्य में
नहीं होगे।
सिर्फ साक्षी
बनो, न
आकर्षित होओ
और न विकर्षित।
सिरदर्द
है तो उसे
स्वीकार करो।
वह तथ्य है।
जैसे वृक्ष
हैं,
मकान है, रात है, वैसे
ही सिरदर्द है।
आख बंद करो और
उसे स्वीकार
करो। उससे
बचने की
चेष्टा मत करो।
वैसे ही तुम
सुखी हो तो
सुख के तथ्य
को स्वीकार
करो। उससे
चिपके रहने की
चेष्टा मत करो
और दुखी होने
का प्रयत्न भी
मत करो; कोई
भी प्रयत्न मत
करो। सुख आता
है तो आने दो; दुख आता है
तो आने दो।
तुम शिखर पर
खड़े द्रष्टा
बने रहो, जो
सिर्फ चीजों
को देखता है।
सुबह आती है, शाम आती है, फिर सूरज
उगता है और
डूब जाता है, तारे हैं और
अंधेरा है, फिर सूयोंदय—और
तुम शिखर पर
खड़े द्रष्टा
हो।
तुम
कुछ कर नहीं
सकते; तुम
सिर्फ देखते
रहते हो। सुबह
आती है, इस
तथ्य को तुम
भलीभांति देख
लेते हो और तुम
जानते हो कि
अब सांझ आएगी,
क्योंकि
सांझ सुबह के
पीछे—पीछे आती
है। वैसे ही
जब सांझ आती
है तो तुम उसे
भी भलीभांति
देख लेते हो
और तुम जानते
हो कि अब सुबह
आएगी, क्योंकि
सुबह सांझ के
पीछे—पीछे आती
है। जब दुख है
तो तुम उसके
भी साक्षी हो।
तुम जानते हो
कि दुख आया है,
देर—अबेर वह
चला जाएगा और
उसका विपरीत
ध्रुव आ जाएगा।
और जब सुख आता
है तो तुम
जानते हो कि
वह सदा नहीं
रहेगा, दुख
कहीं पास ही
छिपा होगा, आता ही होगा।
तुम खुद
द्रष्टा बने
रहते हो।
अगर
तुम आकर्षण और
विकर्षण के
बिना, लगाव और
दुराव के बिना
देखते रहे तो
तुम मध्य में
आ जाओगे। और
जब पेंडुलम
बीच में ठहर
जाएगा तो तुम
पहली दफा देख
सकोगे कि
संसार क्या है।
जब तक तुम दौड़
रहे हो, तुम
नहीं जान सकते
कि संसार क्या
है। तुम्हारी
दौड़ सब कुछ को
भ्रांत कर
देती है, धूमिल
कर देती है; और जब दौड़
बंद होगी तो
तुम संसार को
देख सकोगे। तब
तुम्हें पहली
बार सत्य के
दर्शन होंगे।
अकंप मन ही
जानता है कि
सत्य क्या है;
कंपित मन
सत्य को नहीं
जान सकता।
तुम्हारा
मन ठीक कैमरे
की भांति है।
अगर तुम चलते
हुए फोटो लेते
हो तो जो भी
चित्र बनेगा
वह धुंधला—
धुंधला होगा, अस्पष्ट
होगा, विकृत
होगा। कैमरे
को हिलना नहीं
चाहिए; कैमरा
हिलेगा तो
चित्र बिगड़ेगा
ही।
तुम्हारी
चेतना एक
ध्रुव से
दूसरे ध्रुव पर
गति करती रहती
है और इस भांति
जो सत्य जानते
हो वह भ्रांति
है,
दुःस्वप्न
है। तुम नहीं
जानते हो कि
क्या क्या
है; सब
भ्रम है, सब
धुआं— धुआं है।
सत्य से तुम
वंचित रह जाते
हो। सत्य को
तुम तब जानते
हो जब तुम
मध्य में ठहर
जाते हो, जब
पेंडुलम
ठहर जाता है
और तुम्हारी
चेतना
वर्तमान के क्षण
में होती है, केंद्रित
होती है। अचल
और अकंप चित्त
ही सत्य को
जानता है।
'प्रिये, न
सुख में और न
दुख में, बल्कि
दोनों के मध्य
में अवधान को
स्थिर करो।’
साक्षीत्व
की चौथी विधि:
विषय और
वासना जैसे
दूसरों में
हैं वैसे ही
मुझमें हैं।
इस भांति
स्वीकार करके
उन्हें
रूपांतरित होने
दो।
यह
विधि बहुत
सहयोगी हो
सकती है। जब
तुम क्रोधित
होते हो तो
तुम सदा अपने
क्रोध को उचित
मानते हो, लेकिन
जब कोई दूसरा
क्रोधित होता
है तो तुम उसकी
सदा आलोचना
करते हो।
तुम्हारा
पागलपन
स्वाभाविक है,
दूसरे का
पागलपन
विकृति है।
तुम जो भी
करते हो वह
शुभ है—शुभ
नहीं तो कम से
कम उसे करना
जरूरी था। तुम
अपने कृत्य के
लिए सदा कुछ
औचित्य खोज
लेते हो, उसे
तर्कसम्मत
बना लेते हो।
और जब वही काम
दूसरा करता है
तो वही औचित्य,
वही तर्क
लागू नहीं
होता है।
तुम
क्रोध करते हो
तो कहते हो कि
दूसरे के हित के
लिए यह जरूरी
था;
अगर मैं
क्रोध न करता
तो दूसरा
बर्बाद ही हो
जाता। वह किसी
बुरी आदत का
शिकार हो जाता,
इसलिए उसे
दंड देना
जरूरी था, यह
उसके भले के
लिए था। लेकिन
जब दूसरा तुम
पर क्रोध करता
है तो वही तर्कसरणी
उस पर नहीं
लागू की जाती।
दूसरा पागल है,
दूसरा
दुष्ट है।
हमारे
मापदंड सदा
दोहरे हैं; अपने
लिए एक मापदंड
है और शेष
सबके लिए
दूसरा मापदंड
है। यह दोहरे
मापदंड वाला
मन सदा दुख
में रहेगा। यह
मन ईमानदार
नहीं है, सम्यक
नहीं है। और
जब तक
तुम्हारा मन,
ईमानदार
नहीं होता, तुम्हें
सत्य की झलक
नहीं मिल सकती
है। और एक
ईमानदार, मन
ही दोहरे
मापदंड से मुक्त
हो सकता है।
जीसस
कहते हैं
दूसरों के साथ
वह व्यवहार मत
करो जो
व्यवहार तुम न
चाहोगे कि
तुम्हारे साथ
किया जाए।
यह
विधि एक
मापदंड की
धारणा पर
आधारित है।
'विषय और
वासना जैसे
दूसरों में
हैं वैसे ही
मुझमें हैं।’
तुम
अपवाद नहीं हो; यद्यपि
प्रत्येक
व्यक्ति
सोचता है कि
मैं अपवाद हूं।
अगर तुम सोचते
हो कि मैं
अपवाद हूं तो
भलीभांति जान
लो कि ऐसे ही
हर सामान्य मन
सोचता है। यह
जानना कि मैं
सामान्य हूं
जगत में सबसे
असामान्य
घटना है।
किसी
ने सुजुकी से
पूछा कि
तुम्हारे
गुरु में असामान्य
क्या था? सुजुकी
स्वयं झेन
गुरु था।
सुजुकी ने कहा
कि उनके संबंध
में मैं एक
चीज कभी न
भूलूंगा कि मैंने
कभी ऐसा
व्यक्ति नहीं
देखा जो अपने
को इतना
सामान्य
समझता हो। वे
बिलकुल
सामान्य थे और
वही उनकी सबसे
बड़ी असामान्यता
थी। अन्यथा
साधारण से
साधारण
व्यक्ति भी
सोचता है कि
मैं असामान्य
हूं अपवाद हूं।
लेकिन
कोई व्यक्ति
असामान्य
नहीं है। और
तुम अगर यह
जान लो तो तुम
असामान्य
हो
जाते हो। हर
आदमी ठीक
दूसरे आदमी
जैसा है। जो
वासनाएं
तुम्हारे
भीतर चक्कर
लगा रही हैं
वे ही दूसरों
के भीतर घूम
रही हैं।
लेकिन तुम
अपनी
कामवासना को
प्रेम कहते हो
और दूसरो के
प्रेम को कामवासना
कहते हो। तुम
खुद जो भी कहते
हो,
उसका बचाव करते
हो। तुम कहते हो
कि वह शुभ काम
है, इसलिए
करता हूं। और
वही काम जब
दूसरे करते
हैं तो वे वही
नहीं रहते, वे शुभ नहीं
रहते।
और
यह बात
व्यक्तियों
तक ही सीमित
नहीं है, जाति
और राष्ट्र भी
यही करते हैं।
अगर भारत अपनी
सेना बढ़ाता है
तो वह सुरक्षा
का प्रयत्न है
और जब चीन
अपनी सेना को
मजबूत करता है
तो वह आक्रमण
की तैयारी है।
दुनिया की हर
सरकार अपने
सैन्य
संस्थान को सुरक्षा
संस्थान कहती
है। तो फिर
आक्रमण कौन
करता है? जब
सभी सुरक्षा
में लगे हैं
तो आक्रामक
कौन है? अगर
तुम इतिहास देखोगे तो
तुम्हें कोई
आक्रामक नहीं
मिलेगा। ही, जो हार जाते
हैं वे
आक्रामक करार
दे दिए जाते
हैं। पराजित
लोग सदा
आक्रामक माने
गए हैं, क्योंकि
वे इतिहास
नहीं लिख सकते
हैं। इतिहास
तो विजेता
लिखते हैं।
अगर
हिटलर विजयी
हुआ होता तो
इतिहास दूसरा
होता। तब वह
आक्रामक नहीं, संसार
का रक्षक माना
जाता। तब
चर्चिल, रूजवेल्ट
और उनके मित्रगण
आक्रामक माने
जाते और कहा
जाता कि
उन्हें मिटा
डालना अच्छा
हुआ। लेकिन
क्योंकि
हिटलर नहीं
जीत सका, वह
आक्रामक हो
गया और चर्चिल,
रूजवेल्ट
और स्टैलिन
मनुष्य—जाति
के रक्षक बन
गए। तो न
सिर्फ
व्यक्ति, बल्कि
जाति और
राष्ट्र भी
यही तर्क पेश
करते हैं; अपने
को औरों से
भिन्न बताते
हैं।
कोई
भी भिन्न नहीं
है! धार्मिक
चित्त वह है
जो जानता है
कि प्रत्येक
व्यक्ति समान
है। इसलिए तुम
जो तर्क अपने
लिए खोज लेते
हो वही दूसरों
के लिए भी
उपयोग करो। और
अगर तुम
दूसरों की
आलोचना करते
हो तो उसी आलोचना
को अपने पर भी
लागू करो।
दोहरे मापदंड
मत गढ़ो।
एक मापदंड
रखने से तुम
पूरी तरह
रूपांतरित हो
जाओगे। एक
मापदंड
तुम्हें
ईमानदार
बनाएगा और
पहली दफा तुम
सत्य को सीधा देखोगे
जैसा वह है।
'विषय और
वासना जैसे
दूसरों में
हैं वैसे ही
मुझमें हैं।
इस भांति
स्वीकार करके
उन्हें
रूपांतरित होने
दो।’
तुम
उन्हें
स्वीकार कर लो
और वे
रूपांतरित हो जाएंगी।
लेकिन हम क्या
कर रहे हैं? हम
स्वीकार करते
हैं कि विषय—वासना
दूसरों में है।
जो—जो गलत है
वह दूसरों में
है और जो—जो
सही है वह तुम
में है। तब
तुम
रूपांतरित
कैसे होगे? तुम तो
रूपांतरित ही
हो। तुम सोचते
हो कि मैं तो
अच्छा ही हूं;
दूसरे सब
लोग बुरे हैं।
रूपांतरण की
जरूरत संसार
को है, तुम्हें
नहीं।
इसी
दृष्टिकोण के
कारण नेता, क्रांतियां
और पैगंबर
पैदा होते हैं।
वे घर के मुंडेरों
पर चढ़कर
चिल्लाते हैं
कि दुनिया को
बदलना है, कि
इंकलाब लाना
है। हम क्रांति
पर क्रांति
किए जाते हैं
और कुछ भी
नहीं बदलता है।
मनुष्य वही का
वही रहता है, दुनिया
पुराने दुखों
से ही ग्रस्त
रहती है।
चेहरे और नाम
बदल जाते हैं;
पर दुख बना
रहता है।
दुनिया
को बदलने की
बात नहीं है।
तुम गलत — हो।
प्रश्न है कि
तुम कैसे बदलो।
धार्मिक
प्रश्न यह है
कि मैं कैसे बदलू? दूसरों
को बदलने की
बात राजनीति
है।
राजनीतिज्ञ सोचता
है कि मैं तो
बिलकुल ठीक
हूं; कि
मैं तो आदर्श
हूं जैसा कि
सारी दुनिया
को होना चाहिए।
वह अपने को आदर्श
मानता है। वह आदर्श—पुरूष
है और उसका काम
दुनियां को बदलना
है।
धार्मिक
व्यक्ति जो
कुछ भी दूसरों
में देखता है
उसे अपने भीतर
भी देखता है।
अगर हिंसा है
तो वह सोचने
लगता है कि यह
हिंसा मुझमें
है या नहीं।
अगर लोभ है, अगर
उसे कहीं लोभ
दिखाई पड़ता है,
तो उसका
पहला खयाल यह
होता है कि यह
लोभ मुझमें है
या नहीं। और
जितना ही
खोजता है वह
पाता है कि
मैं ही सब बुराई
का स्रोत हूं।
तब फिर प्रश्न
यह नहीं है कि
संसार को कैसे
बदला जाए; तब
फिर प्रश्न यह
है कि अपने को
कैसे बदला जाए।
और बदलाहट उसी
क्षण होने
लगती है जब
तुम एक मापदंड
अपनाते हो।
उसे अपनाते ही
तुम बदलने लगे।
दूसरों
की निंदा मत
करो। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि अपनी
निंदा करो।
नहीं, बस
दूसरों की
निंदा मत करो।
और अगर तुम
दूसरों की
निंदा नहीं
करते हो तो तुम्हें
उनके प्रति
गहन करुणा का
भाव होगा।
क्योंकि सब की
समस्याएं
समान हैं। अगर
कोई पाप करता
है—समाज की
नजर में जो
पाप है—तो तुम
उसकी निंदा
करने लगते हो।
तुम यह नहीं
सोचते कि
तुम्हारे
भीतर भी उस
पाप के बीज
पड़े हैं। अगर
कोई हत्या
करता है तो
तुम उसकी
निंदा करते हो।
लेकिन
क्या तुमने
कभी किसी की
हत्या करने का
विचार नहीं
किया है? क्या
उसका बीज, उसकी
संभावना
तुम्हारे
भीतर भी नहीं
छिपी है? जिस
आदमी ने हत्या
की है वह एक
क्षण पूर्व हत्यारा
नहीं था, लेकिन
उसका बीज
उसमें था। वह
बीज तुममें भी
है। एक क्षण
बाद कौन जानता
है, तुम भी
हत्यारे हो
सकते हो! उसकी
निंदा मत करो;
बल्कि
स्वीकार करो।
तब तुम्हें
उसके प्रति
गहन करुणा
होगी, क्योंकि
उसने जो कुछ
किया है वह
कोई भी कर सकता
है, तुम भी
कर सकते हो।
निंदा
से मुक्त
चित्त में
करुणा होती है।
निंदा—रहित
चित्त में गहन
स्वीकार होता
है। वह जानता
है कि
मनुष्यता ऐसी
ही है, कि मैं
भी ऐसा ही हूं।
तब सारा जगत
तुम्हारा
प्रतिबिंब बन
जाएगा; वह
तुम्हारे लिए
दर्पण का काम
देगा। तब
प्रत्येक
चेहरा
तुम्हारे लिए
आईना होगा; तुम
प्रत्येक
चेहरे में
अपने को ही देखोगे।
'विषय और
वासना जैसे
दूसरों में
हैं वैसे ही
मुझमें हैं।
इस भांति
स्वीकार करके
उन्हें रूपांतरित
होने दो।’
स्वीकार
ही रूपांतरण
बन जाता है।
यह समझना कठिन
है,
क्योंकि हम
सदा इनकार
करते हैं और
उसके बावजूद
हम बिलकुल नहीं
बदल पाते हैं।
तुममें— लोभ
है, लेकिन
तुम उसे
अस्वीकार
करते हो। कोई
भी अपने को
लोभी मानने को
राजी नहीं है।
तुम कामुक हो,
लेकिन तुम
उसे अस्वीकार
करते हो। कोई
भी अपने को
कामुक मानने
को राजी नहीं
है। तुम
क्रोधी हो, तुममें
क्रोध है; लेकिन
तुम उसे इनकार
कर देते हो।
तुम एक मुखौटा
ओढ़ लेते हो और
उसे उचित
बताने की
चेष्टा करते
हो। तुम कभी
नहीं सोचते कि
मैं क्रोधी
हूं या मैं क्रोध
ही हूं।
लेकिन
अस्वीकार से
कभी कोई
रूपांतरण
नहीं होता है।
उससे चीजें
दमित हो जाती हैं।
लेकिन जो चीज
दमित होती है
वह और भी
शक्तिशाली हो
जाती है। वह
तुम्हारी
जड़ों तक पहुंच
जाती है, तुम्हारे
अचेतन में
गहराई तक उतर
जाती है और वहां
से काम करने
लगती है।
और
अचेतन के उस
अंधेरे में वह
वृत्ति और भी
शक्तिशाली हो
जाती है। और
अब तुम उसे और
भी नहीं
स्वीकार कर
सकते, क्योंकि
तुम्हें उसका
बोध भी नहीं है।
स्वीकार
सबको ऊपर ले आती
है। दमन करने की
जरूरत नहीं है।
तुम जानते हो कि
मैं लोभी हूं
तुम जानते हो
कि मैं क्रोधी
हूं कि मैं
कामुक हूं और
तुम उन
वृत्तियों को
बिना किसी
निंदा के
स्वाभाविक
तथ्य की तरह
स्वीकार कर
लेते हो।
उन्हें दमित
करने की जरूरत
नहीं है। वे
वृत्तियां मन
की सतह पर आ
जाती 'हैं और
वहा से उन्हें
बहुत आसानी से
विसर्जित किया
जा सकता है।
गहरे अचेतन से
उनका विसर्जन
संभव नहीं है।
और जब वे सतह
पर होती हैं
तो तुम उनके
प्रति होशपूर्ण
होते हो, जब
वे अचेतन में
होती हैं तो
तुम उनके
प्रति बेहोश
बने रहते हो।
और उस रोग से
ही मुक्ति
संभव है जिसके
प्रति तुम
होशपूर्ण हो;
जिसके
प्रति तुम
बेहोश हो उस
रोग से मुक्ति
नहीं हो सकती।
प्रत्येक
चीज को सतह पर
ले आओ। अपनी
मनुष्यता को
स्वीकार करो, अपनी
पशुता को
स्वीकार करो।
जो भी है उसे
बिना किसी
निंदा के
स्वीकार करो।
लोभ है, उसे
अलोभ में
बदलने की
चेष्टा मत करो।
तुम उसे नहीं
बदल सकते हो।
और अगर तुम
उसे अलोभ
बनाने की
चेष्टा करोगे
तो तुम उसका
दमन करोगे।
तुम्हारा
अलोभ और कुछ
नहीं, केवल
दूसरे ढंग का
लोभ ही होगा।
अगर तुम लोभ
को बदलने की
कोशिश करोगे
तो क्या करोगे?
लोभी मन
अलोभ के आदर्श
के प्रति तभी
आकर्षित होता
है जब उसका
कोई और लोभ
उससे सधने
वाला हो।
अगर
कोई तुम्हें
कहता है कि
यदि तुम अपने
सारे धन का
त्याग कर दो
तो तुम्हें
परमात्मा के
राज्य में
प्रवेश मिल
जाएगा तो तुम
त्याग करने के
लिए भी तैयार
हो जाओगे। अब
एक नया लोभ
संभव हो गया।
यह सौदा है।
तो लोभ को
अलोभ नहीं
बनाना है, लोभ
का अतिक्रमण
करना है। तुम
उसे बदल नहीं
सकते। हिंसक
मन कैसे
अहिंसक हो
सकता है? अगर
तुम अहिंसक
होने के लिए
अपने को मजबूर
करोगे तो यह
अपने प्रति
हिंसा होगी।
तुम एक चीज को
दूसरी चीज में
नहीं बदल सकते;
तुम सिर्फ
सजग हो सकते
हो; तुम
सिर्फ
स्वीकार कर
सकते हो। लोभ
को लोभ की तरह
स्वीकार करो।
स्वीकार
का यह अर्थ
नहीं है कि
उसे
रूपांतरित करने
की जरूरत नहीं
है। स्वीकार
का इतना ही.
अर्थ है कि
तुम तथ्य को, स्वाभाविक
तथ्य को
स्वीकार करते
हो; जैसा
वह है वैसा ही
स्वीकार करते
हो। तब जीवन
में यह जानकर
गति करो कि
लोभ है। तुम
जो भी करो यह
स्मरण रखकर
करो कि लोभ है।
यह बोध
तुम्हें
रूपांतरित कर
देगा। यह
रूपांतरित
करता है, क्योंकि
बोधपूर्वक
तुम लोभी नहीं
हो सकते, बोधपूर्वक
तुम क्रोधी
नहीं हो सकते।
क्रोध के लिए
लोभ के लिए, हिंसा के
लिए मूर्च्छा
बुनियादी
शर्त है।
यह
वैसा ही है
जैसे तुम जान—बूझकर
जहर नहीं खा
सकते, जान—बूझकर
तुम अपना हाथ
आग में नहीं
डाल सकते; अनजाने
ही ऐसा कर
सकते हो। अगर
तुम्हें नहीं
पता है कि आग
क्या है तो ही
तुम उसमें हाथ
डाल सकते हो।
यदि जानते हो
कि आग जलाती
है तो तुम
उसमें हाथ नहीं
डाल सकते।
जैसे—जैसे
तुम्हारा
ज्ञान, तुम्हारा
बोध बढ़ेगा, वैसे—वैसे
लोभ तुम्हारे
लिए आग बन जाएगा,
क्रोध जहर
बन जाएगा। तब
वे बस असंभव
हो जाते हैं।
और दमन न हो तो
वे विसर्जित
हो जाते हैं।
और जब लोभ
अलोभ के आदर्श
के बिना
विसर्जित होता
है तो उसका अपना
ही सौंदर्य है।
जब हिंसा अहिंसा
के आदर्श के बिना
विसर्जित होती
है तो अपना ही
सौंदर्य है।
अन्यथा
जो व्यक्ति
आदर्श के
अनुसार
अहिंसक बनता
है वह गहरे
में हिंसक, अति
हिंसक बना
रहता है। वह
हिंसा उसमें
छिपी रहती है
और तुम्हें
उसकी झलक उसकी
अहिंसा में भी
मिल सकती है।
वह अपनी
अहिंसा को
अपने पर और
दूसरों पर
बहुत हिंसक
ढंग से थोपेगा।
उसकी हिंसा
सूक्ष्म ढंग
ले लेगी।
यह
सूत्र कहता है
कि स्वीकार
रूपांतरण है, क्योंकि
स्वीकार से
बोध संभव होता
है।
आज
इतना ही।
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