दिनांक
3 फरवरी, 1968,
दोपहर
साधना—शिविर--आजोल।
सुबह
की बैठक में
शरीर का
वास्तविक
केंद्र क्या है, इस
संबंध में
हमने थोड़ी सी
बातें कीं।
न
तो मस्तिष्क
और न हृदय, बल्कि
' नाभि ' मनुष्य
के जीवन का
सर्वाधिक
केंद्रीय और
मूलभूत आधार
है।
इस
संबंध में कुछ
और प्रश्न
पूछे गए हैं, उनके
संबंध में मैं
थोड़ी बात
करूंगा।
मस्तिष्क
के आधार पर
निर्मित जो
मनुष्य है, उसकी
जीवन—दिशा और
धारा गलत चली
गई है। पिछले
पांच हजार
वर्षों में
हमने केवल
मस्तिष्क को
ही, बुद्धि
को ही दीक्षित
और शिक्षित
किया है।
परिणाम बहुत
घातक उपलब्ध
हुए हैं।
परिणाम ये
उपलब्ध हुए
हैं कि करीब—करीब
सारे मनुष्य
ही
विक्षिप्तता
के किनारे खड़े
हो गए हैं।
थोड़ा सा धक्का लग जाए और कोई भी आदमी पागल हो सकता है। मस्तिष्क बिलकुल टूटने की सीमा पर ही खड़ा हुआ है। जरा सा धक्का और मस्तिष्क जवाब दे देता है।
थोड़ा सा धक्का लग जाए और कोई भी आदमी पागल हो सकता है। मस्तिष्क बिलकुल टूटने की सीमा पर ही खड़ा हुआ है। जरा सा धक्का और मस्तिष्क जवाब दे देता है।
और
यह भी आश्चर्य
की बात है कि
पिछली आधी सदी
में,
पचास
वर्षों में, दुनिया के
श्रेष्ठतम
विचारक करीब—करीब
सभी पागल होते
देखे गए हैं।
पश्चिम में तो
पिछले पचास
वर्षों में एक
भी बड़ा विचारक
नहीं था, जिसने
मानसिक रूप से
विक्षिप्तता
को अनुभव न किया
हो। बड़े कवि, बड़े
चित्रकार, बड़े
विचारक, बड़े
दार्शनिक, बड़े
वैज्ञानिक अनिवार्यरूपेण
मन की विकृतियों
से पीड़ित होते
दिखाई पड़ते
हैं। और धीरे.— धीरे
जैसे मनुष्य
की जाति अधिक
अंशों में शिक्षित
होती जा रही
है, वैसे—वैसे
यह पागलपन के
प्रभाव
सामान्य जनता
तक भी पहुंच
रहे हैं।
एक
नया मनुष्य
पैदा करना हो, तो
मनुष्य के
जीवन का
केंद्र बदल
देना अत्यंत आवश्यक
है। और वह
केंद्र
मस्तिष्क की
बजाय नाभि के
निकट होगा, उतना ही
जीवन— धारा के
करीब पहुंच
जाएगा।
यह
मैं क्यों
कहता हूं? इस
संबंध में दों—चार
बातें और समझ
लेनी जरूरी
हैं।
मां
के पेट में जो
बच्चा
निर्मित होता
है,
जो आ
निर्मित होता
है, वह
नाभि से ही
मां से
संयुक्त होता
है। मां की
जीवन— धारा
नाभि के
द्वारा ही उस
बच्चे में
प्रवाहित
होती है। मां
की जीवन— धारा
भी एक अत्यंत
अज्ञात, एक
अत्यंत अनजान
विद्युत की
धारा है, जो
उस बच्चे की
नाभि से उसके
पूरे
व्यक्तित्व को
पोषित करती है।
फिर बच्चा मां
से अलग होता
है। उसका जन्म
होता है। जन्म
होते ही उसकी
नाभि काट देनी
पड़ती है। मां
से पृथक होने
की शुरुआत हो
जाती है। मां
से पृथक होना
अत्यंत जरूरी
है, अन्यथा
बच्चे का कोई
अपना जीवन
नहीं हो सकता।
जिस मां के
शरीर के साथ
एक होकर बच्चा
बड़ा होता है, उसी मां से
एक सीमा पर
उसे अलग हो
जाना पड़ता है।
और यह अलग हो
जाने की घटना
उसकी नाभि से
जो संबंध था
मां का, उसके
विच्छेद से
होती है। वह
संबंध तोड़
दिया जाता है।
जो जीवन— धारा
उसे नाभि से
मिलती है, वह
एकदम बंद हो
जाती है। उसके
सारे प्राण तड़फड़ा
उठते हैं।
उसके सारे
प्राण उस धारा
की मांग करने
लगते हैं, जो
उसे कल तक
मिली थी।
लेकिन आज
अचानक सारी
धारा टूट गई
है।
बच्चा
जो रोना शुरू
करता है, वह जो
पीड़ा अनुभव
करता है जन्म
के बाद, वह
पीड़ा भूख की
पीड़ा नहीं है।
वह पीड़ा जीवन—
धारा से टूट
जाने और
विच्छिन्न हो
जाने की पीड़ा
है। सारी जीवन—
धारा से उसका
संबंध टूट गया
है, जिससे
कल तक उसने
जीवन पाया था,
वह सब टूट
गया है। वह
बच्चा तड़फड़ाता
है और जो
बच्चा नहीं
रोता, तो
चिकित्सक या
जो लोग जानते
हैं, वे
कहेंगे कि कुछ
बात गड़बड़ हो
गई है। वह
बच्चा अगर
नहीं रो रहा
है, तो
इसका मतलब यह
है कि वह
बच्चा जी नहीं
सकेगा। जीवन—
धारा से
विच्छिन्न हो
जाने का उसे
कोई पता नहीं
चला है। इसका
एक ही अर्थ हो
सकता है कि
उसके भीतर
मृत्यु करीब—करीब
निकट है। वह
बच्चा जी नहीं
सकेगा। इसलिए
बच्चे को रुलाने
की पूरी कोशिश
की जाती है।
उसका रोना
बहुत जरूरी है,
क्योंकि
जीवन— धारा से
टूटे हुए
संबंध का उसे
पता चलना चाहिए,
अगर वह
जीवित है। और
अगर पता नहीं
चलता है, तो
यह बड़ी खतरनाक
बात है।
और
वह बच्चा नये
रूप में अपनी
जीवन— धारा को
फिर से जोड्ने
की कोशिश करता
है। मां के
दूध के साथ ही
उसकी जीवन—
धारा फिर से
संयुक्त होती
है। इसलिए
बच्चे का
दूसरा संबंध
हृदय से होता
है। मां के
हृदय के साथ
उसके अपने
हृदय का
केंद्र भी
धीरे— धीरे
विकसित होता
है और नाभि का
केंद्र भूल जाता
है। नाभि का
केंद्र भूल
जाना जरूरी है, क्योंकि
वह टूट गया है,
उससे संबंध
बंद हो गए और
जो विद्युत—
धारा नाभि से
मिलती थी, वह
बच्चा ओंठों
से लेना शुरू
कर देता है।
वह मां से फिर
वापस जुड़ जाता
है। एक दूसरा
सर्किट, एक
दूसरा
विद्युत—वृत्त
खड़ा हो जाता
है, वह
उससे संयुक्त
हो जाता है।
यह
जान कर आपको
हैरानी होगी
कि अगर बच्चे
को मां के दूध
पर जीवन न
मिले, पालन न
मिले, तो
बच्चे की जीवन—
धारा हमेशा के
लिए क्षीण रह
जाती है। उसे
दूध पिलाया जा
सकता है और
तरह से भी, लेकिन
अगर मां के
हृदय का उसे
निरंतर
स्पर्श न मिले,
तो उसका
जीवन हमेशा के
लिए कुंठित हो
जाता है और
हमेशा के लिए
उसके जीवन की
संभावना
क्षीण हो जाती
है। जो बच्चे
मां के दूध पर
नहीं पाले
जाते, वे
बच्चे कभी भी
जीवन में बहुत
आनंद को और
शांति को
उपलब्ध नहीं
हो सकते हैं।
पश्चिम
का सारा युवक
समाज और धीरे—
धीरे भारत का
भी,
जो अत्यंत
विद्रोह से भर
रहा है, इसके
बहुत गहरे में
और बुनियाद
में यह बात है कि
पश्चिम के
बच्चे मां के
दूध पर नहीं
पाले जा रहे
हैं। जीवन के
प्रति उनकी
आस्था और जीवन
के प्रति उनके
संबंध प्रीतिपूर्ण
नहीं हैं।
बचपन से ही
उनकी जीवन—
धारा ने धक्के
पाए हैं और वे अप्रीतिपूर्ण
हो गए हैं। उन
धक्कों में, मां से
विच्छिन्न
होने में जीवन
से ही वे विच्छन्न
हो गए हैं।
क्योंकि
बच्चे के लिए
प्राथमिक रूप
से मां के
अतिरिक्त और
कोई जीवन नहीं
होता।
सारी
दुनिया में, जहां
भी स्त्रियां
शिक्षित हो
रही हैं, वे
बच्चों को
अपने निकट
पालना पसंद
नहीं करती हैं
और उसके
परिणाम घातक
होने शुरू हुए
हैं। आदिवासी
समाजों में
बच्चे बहुत
देर तक मां के
दूध पर पलते
हैं। जितना
समाज शिक्षित
होता जाता है,
बच्चे उतनी
ही जल्दी मां
के दूध से अलग
कर दिए जाते
हैं। जो बच्चे
जितनी जल्दी
मां के दूध से
अलग कर दिए
जाएंगे, वे
बच्चे अपने
जीवन में
शांति को उतनी
ही कठिनाई से
अनुभव कर
सकेंगे। उनके
जीवन में एक
गहरी अशांति
हमेशा के लिए
प्रांरभ से ही
शुरू हो जाएगी।
और यह अशांति
का बदला वे
किससे लें?
इसका
बदला मां—बाप
से ही लिया
जाएगा, और
सारी दुनिया
में बच्चे मां—बाप
से बदला ले
रहे हैं। इसका
बदला किससे
लेंगे बच्चे?
उनको भी पता
नहीं है कि यह
कौन सी
प्रतिक्रिया
उनके भीतर
पैदा हो रही
है, यह कौन
सा एक विद्रोह
उनके भीतर
पैदा हो रहा है,
यह कौन सी
आग उनके भीतर
पैदा हो रही
है। लेकिन
अनजान में, बहुत गहरे
में उनका मन
जानता है कि
यह विद्रोह
मां से बहुत
शीघ्र छुड़ा
लिए जाने का
ही परिणाम है।
उनकी जीवन—चेतना
इस बात को
जानती है, उनकी
बुद्धि नहीं
जानती। इसका
परिणाम यह
होगा कि वे
मां से, पिता
से सबसे इसका
बदला लेंगे।
और
जो बच्चा मां
और पिता के
विरोध में है, वह
बच्चा
परमात्मा के
कभी भी पक्ष
में नहीं हो
सकता। कोई
संभावना नहीं
है कि वह
परमात्मा के
पक्ष में हो
जाए। क्योंकि
परमात्मा के
प्रति जो सबसे
पहले भावनाएं
उठनी शुरू
होती हैं, वे
वे ही हैं,
जो मां और
पिता के प्रति
उठती हैं।
सारी
दुनिया में परमात्मा
को पिता कहना
अकारण नहीं है।
परमात्मा को
पिता की शक्ल
में देखना
अकारण नहीं है।
बच्चे के पहले
जीवन—अनुभव
मां और पिता
के प्रति ही
अगर कृतज्ञता, धन्यता
और श्रद्धा के
हैं, तो ही
वे अनुभव
परमात्मा के
प्रति भी
विकसित होंगे,
अन्यथा
नहीं हो सकते।
लेकिन
बच्चे को तोड़
लिया जाता है।
दूसरी उसकी
जीवन— धारा
हृदय से
संबंधित होती
है मां के।
लेकिन एक सीमा
पर आकर बच्चे
को मां के दूध
से अलग होना
ही पड़ेगा।
लेकिन
ठीक समय वह कब
आता है? वह
उतनी जल्दी
नहीं आ जाता
है, जितनी
जल्दी हम
सोचते हैं। वह
इतनी जल्दी
नहीं आता।
बच्चे और थोड़ी
ज्यादा देर तक
मां के हृदय
के करीब होने चाहिए,
अगर उनके
जीवन में
प्रेम और हृदय
का ठीक विकास
करना है। वे
बहुत जल्दी
छीन—झपट कर
अलग किए जाते
हैं। मां को
उन्हें अलग
नहीं करना
चाहिए, उन्हें
अपने आप अलग
होने देना
चाहिए। एक
सीमा पर आकर
वे अपने से
अलग होंगे। यह
वैसे ही है—
उनको कोशिश
करके अलग करना,
जैसे मां के
पेट में नौ
महीने बच्चा
रहने के बाद
अपने आप बाहर
आएगा—लेकिन
कोई मां जल्दी
में चार महीने
के बच्चे को
या पांच महीने
के बच्चे को
बाहर निकाल
देना चाहे। यह
उतना ही
खतरनाक है, उससे कम
खतरनाक नहीं,
कि कोई मां
जब कि बच्चा
खुद उसका दूध
छोड़े, उसके
पहले उसे अपने
से अलग करना
चाहे। मां की
यह कोशिश
खतरनाक है और
इस कोशिश में
बच्चे के हृदय
का दूसरा
केंद्र ठीक से
विकसित नहीं
होता।
और
आप हैरान
होंगे.....चूंकि
बात आ गई, इसलिए
मैं आपसे कहना
उचित समझूंगा।......
सारी
दुनिया में
स्त्रियों के
प्रति
पुरुषों का जो
सबसे ज्यादा
आकर्षण का
केंद्र है, वह
स्त्रियों का
हृदय ही क्यों
बना रहता है? —ये सब बच्चे
मां के दूध से
बहुत जल्दी
अलग कर लिए गए
हैं। सारी
दुनिया में
स्त्रियों के
प्रति पुरुषों
का जो आकर्षण
है, वह
उनके हृदय के
प्रति ही क्यों
बना रहता है? वह उनके
स्तनों के
प्रति ही
क्यों बना
रहता है? ये
सब बच्चे मां
से बहुत जल्दी
अलग कर लिए गए
हैं। इनकी
जीवन—चेतना
में कहीं गहरे
में
स्त्रियों के
स्तन के निकट
रहने की कामना
शेष रह गई है, वह पूरी
नहीं हो पाई
है, अन्यथा
कोई कारण नहीं
है, अन्यथा
कोई वजह नहीं
है। आदिवासी
समाजों में, प्रिमिटिव सोसाइटीज
में जहां
बच्चे मां के
स्तन के पास
पूरे समय तक
रहते हैं, स्तन
के प्रति
पुरुषों का
कोई आकर्षण
नहीं है।
लेकिन
हमारी
कविताएं, हमारे
उपन्यास, हमारी
फिल्में, हमारे
नाटक, हमारे
चित्र सभी
स्त्रियों के
स्तन के पास
क्यों
केंद्रित हैं?
ये
उन पुरुषों के
द्वारा बनाई
गई बातें हैं, जो
पुरुष अपने
बचपन में मां
के स्तन के
निकट पूरी तरह
नहीं रह पाए।
वह कामना शेष
रह गई है, वह
कामना अब नये
रूपों में
प्रकट होनी
शुरू होती है।
और फिर हम
कहेंगे कि
अश्लील चित्र
बनते हैं, अश्लील
किताबें लिखी
जाती हैं, अश्लील
गीत लिखे जाते
हैं। फिर हम
कहेंगे कि
बच्चे
रास्तों पर
स्त्रियों को
धक्का देते
हैं, पत्थर
मारते हैं। ये
सब बेवकूफियां
हम पैदा
करवाते हैं और
फिर इसके पीछे
इन पर रोते
हैं और इनको
दूर करने के
उपाय करते हैं।
बच्चे
को बहुत देर
तक मां के
स्तन के निकट
रहना अत्यंत
अनिवार्य है।
उसके मानसिक
विकास में, उसके
शारीरिक
विकास में, उसके चित्त
के विकास में,
उसके हृदय
का केंद्र ठीक
से विकसित
नहीं होगा, वह अधूरा रह
जाता है। वह
रुका हुआ रह
जाता है, अवरुद्ध
रह जाता है।
और जब हृदय का
केंद्र
अवरुद्ध रह जाए
तो एक और
अनहोनी घटना
घटनी शुरू
होती है। और
वह यह कि जो
काम हृदय पूरा
नहीं कर पाया,
जो काम नाभि
पूरा नहीं कर
पाई, उस
काम को मनुष्य
अपने
मस्तिष्क से
पूरा करने की
कोशिश करता है।
यह कोशिश और
भी उपद्रव ले
आती है, क्योंकि
प्रत्येक
केंद्र का
अपना काम है, और प्रत्येक
केंद्र अपना
ही काम पूरा
कर सकता है, किसी दूसरे
केंद्र का काम
पूरा नहीं कर
सकता।
न
तो नाभि हृदय
का काम कर
सकती है और न
हृदय का काम
मस्तिष्क कर
सकता है।
लेकिन मां से
जैसे ही बच्चा
अलग कर दिया
जाता है, उसके
पास अब एक ही
केंद्र रह
जाता है, जिस
पर वह सारा का
सारा भार पड़
जाता है, वह
मस्तिष्क का
केंद्र होता
है। फिर
शिक्षा भी उसी
की, उपदेश
भी उसी के, स्कूल
भी उसी के, विद्यालय
भी उसी के।
जीवन में
विकास भी
उन्हीं का
जिनका
मस्तिष्क ज्यादा
विकसित और
ज्यादा
संपन्न हो। एक
दौड़ शुरू होती
है और सारा
काम जीवन का
मस्तिष्क से
लेने की कोशिश
शुरू हो जाती
है।
जो
आदमी
मस्तिष्क से
प्रेम करेगा, उसका
प्रेम झूठा
होगा।
क्योंकि
मस्तिष्क का
प्रेम से कोई
संबंध नहीं है।
प्रेम तो हृदय
से हो सकता है,
मस्तिष्क
से नहीं हो
सकता। लेकिन
हृदय के
केंद्र हमारे
ठीक से विकसित
नहीं हैं, तो
हम मस्तिष्क
से काम लेना
शुरू करते हैं।
तो प्रेम भी
हम सोचते—विचारते
हैं। प्रेम के
सोचने—विचारने
से कोई संबंध
नहीं है।
लेकिन प्रेम
भी हममें
मानसिक रूप से
सोच—विचार की
तरह प्रकट
होता है।
इसीलिए सारी
दुनिया में
इतनी सेक्सअलिटी,
इतनी
कामुकता
व्याप्त हो गई
है।
कामुकता
का एक ही अर्थ
है कि सेक्स
का केंद्र और
सेक्स के
केंद्र का काम
मस्तिष्क से
लिया जा रहा है, बुद्धि
से लिया जा
रहा है। और
बुद्धि में जब
काम प्रविष्ट
हो जाएगा, तो
जीवन नष्ट हो
जाता है। और
हमारी बुद्धि
में काम
प्रविष्ट हो
गया है।
काम
का,
सेक्स का जो
केंद्र है, वह नाभि ही
.है, क्योंकि
जीवन की सबसे
बड़ी ऊर्जा
सेक्स है, सबसे
बड़ी ऊर्जा काम
है। उसी से
जन्म है, उसी
से जीवन है, उसी से जीवन
का विकास है।
लेकिन नाभि के
केंद्र हमारे
अविकसित हैं,
तो हम दूसरे
केंद्रों से
उनका काम लेना
शुरू करते हैं।
पशुओं
में सेक्स है, लेकिन
सेक्सुअलिटी
नहीं है। काम
है, लेकिन
कामुकता नहीं
है। इसलिए
पशुओं का काम
भी एक सौंदर्य
है, एक
अभिनव आनंद है।
और
मनुष्य की
कामुकता एक
कुरूपता है, एक
अग्लीनेस
है, क्योंकि
वह काम भी
चिंतन बन गया
है, उसके
मन में जाकर।
वह काम का भी
चिंतन कर रहा
है।
एक
आदमी भोजन
करता हो, भोजन
करना बहुत
अच्छा है।
लेकिन एक आदमी
चौबीस घंटे
भोजन के संबंध
में चिंतन
करता हो, तो
यह आदमी पागल
है। भोजन करना
बिलकुल ठीक है
और भोजन बहुत
जरूरी है और
भोजन करना ही
है। लेकिन
भोजन के संबंध
में अगर कोई
चिंतन करता हो
चौबीस घंटे, तो इस आदमी
के केंद्र
डांवाडोल हो
गए। जो काम
इसे पेट से
लेना चाहिए था,
वह यह
बुद्धि से ले
रहा है!
और
बुद्धि कोई
भोजन नहीं पचा
सकती है. और न
बुद्धि तक
भोजन
पहुंचाया जा
सकता है।
बुद्धि केवल
सोच सकती है, विचार
कर सकती है।
और बुद्धि
जितना भोजन के
संबंध में
विचार करेगी,
उतना ही काम
पेट का छिन
जाएगा और पेट
अस्त—व्यस्त
हो जाएगा। आप
कभी सोचें, करके देखें।
आप
भोजन कर लेते
हैं,
फिर आप कोई
सोच—विचार
नहीं करते। वह
अपने आप जाता
है। पेट पचाने
का काम करता
है। वे अनकांशस
सेंटर्स
हैं, अचेतन
केंद्र हैं, वे अपने काम
करते हैं।
आपको सोचना—विचारना
नहीं पड़ता है।
लेकिन
आप किसी दिन
सजग होकर इस
बात का विचार
करें कि अब
पेट में भोजन
पहुंच गया
होगा अब पच रहा
होगा, अब ऐसा
हो रहा होगा, अब वैसा हो
रहा होगा। और
आप पाएंगे कि
आपका भोजन उस
दिन पचना
असंभव हो गया
है। जितना
चिंतन
प्रविष्ट
होगा उतना पेट
की जो अचेतन प्रक्रिया
है, उसमें
बाधा पड़ जाएगी।
भोजन के साथ
ऐसी दुर्घटना
कम घटती है, सिर्फ उन
लोगों को छोड़
कर जो उपवासवादी
होते हैं।
अगर
कोई आदमी
अकारण उपवास
करता है, तो
धीरे— धीरे
भोजन उसके
चिंतन में
प्रविष्ट हो
जाएगा। वह
भोजन तो नहीं
करेगा, उपवास
करेगा, लेकिन
फिर भोजन का
चिंतन करेगा।
और यह चिंतन
भोजन करने से
भी बहुत
खतरनाक है।
भोजन करना तो
खतरनाक है ही
नहीं। भोजन तो
जीवन के लिए
अत्यंत जरूरी
है। लेकिन
भोजन का चिंतन
रुग्णता है।
और जो आदमी
भोजन का चिंतन
करने लगे, उसके
जीवन में सब
तरह के विकास
होने बंद हो
जाएंगे। उसका
चिंतन इस
फिजूल की बात
में ही समाप्त
होगा।
सेक्स
के साथ, यौन
के साथ, काम
के साथ ऐसी
घटना घट गई है।
उसे हमने
केंद्र से झपट
कर छीन लिया
है और चिंतन
कर रहे हैं
उसका। तो ऐसे
हमारे जीवन के
जो तीन
महत्वपूर्ण
केंद्र हैं, उन सबका काम
धीरे— धीरे
बुद्धि के हाथ
में सौंप दिया
गया है। यह
ऐसा ही है, जैसे
कोई आदमी आख
से ही सुनने
की भी कोशिश
करे। यह वैसा
ही है, जैसे
कोई आदमी मुंह
से भी देखने
की कोशिश करे।
यह वैसा ही है,
जैसे कोई
आदमी कान से
भी देखने की
कोशिश करे या
स्वाद लेने की
कोशिश करे। तो
हम कहेंगे, यह आदमी
पागल है, क्योंकि
आख देखने का
यंत्र है, कान
सुनने का
यंत्र है। कान
देख नहीं सकते,
आख सुन नहीं
सकती। और अगर
हम ऐसी कोशिश
करेंगे तो
उसका कुल परिणाम—केऑस, व्यक्तित्व
में एक
अराजकता ही हो
सकती है।
ऐसे
ही तीन केंद्र
हैं मनुष्य के।
जीवन का
केंद्र नाभि
है,
भाव का
केंद्र हृदय
है, विचार
का केंद्र
मस्तिष्क है।
विचार इन
तीनों
केंद्रों में
सबसे ऊपरी
केंद्र है।
उससे गहरा
केंद्र भाव का
है। उससे भी
गहरा केंद्र
प्राणों का है।
शायद
आप सोचते
होंगे कि हृदय
अगर बंद हो
जाए तब तो
जीवन— धारा
बंद हो जाती
है। लेकिन अभी
वैज्ञानिक इस
नतीजे पर सहज
ही पहुंच गए
हैं कि हृदय
की गति बंद हो
जाने के बाद
भी अगर छह
मिनट के भीतर
हृदय फिर से
चलाया जा सके
तो आदमी
पुनरुज्जीवित
हो सकता है।
हृदय का संबंध
समाप्त हो
जाने पर भी छह
मिनट के पीछे
तक नाभि का
जीवन—केंद्र
सक्रिय रहता
है। और छह
मिनट के भीतर
अगर हृदय को
फिर से चलाया
जा सके या नया
हृदय डाला जा
सके,
तो आदमी
पुनरुज्जीवित
हो जाएगा।
आदमी के मरने
की तब कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर
नाभि—केंद्र
से जीवन हट
गया तो फिर
किसी भी हृदय
को बदलने से
कुछ भी नहीं
हो सकता है।
तो
हमारे भीतर
सर्वाधिक
गहरा और
बुनियादी केंद्र
नाभि का है।
इस
नाभि—केंद्र
के लिए सुबह
मैंने थोड़ी सी
बातें कीं।
अभी
हमने जो आदमी
बनाया है, वह
सिर के बल पर
खड़ा हुआ है।
जैसे एक आदमी
शीर्षासन
करता है।
शीर्षासन
करने वाला सिर
को आधार बना
लेता है पैरों
की जगह, और
पैरों को ऊपर
उठा देता है।
अगर एक आदमी
चौबीस घंटे
शीर्षासन
करता रहे तो
उसकी क्या
स्थिति होगी,
आप समझ सकते
हैं। वह आदमी
सुनिश्चित ही
पागल हो जाएगा।
वह पागल हो ही
गया है, नहीं
तो चौबीस घंटे
खड़ा भी नहीं
हो सकता था।
कोई कारण भी
नहीं था।
लेकिन जीवन
में हमने ऐसा
ही रिवर्सन
कर दिया है, ऐसा ही उलटा
कर दिया है! हम
सब सिर के बल
पर खड़े हुए
हैं! जीवन का
आधार हमने सिर
बना लिया है।
सोचना और
विचारना यह
हमारे जीवन के
आधार हो गए
हैं।
धर्म
कहता है सोचना
और विचारना
जीवन का आधार
नहीं है, बल्कि
सोचने और
विचारने से
मुक्त हो जाना,
निर्विचार
हो जाना जीवन
का आधार है।
लेकिन
हम तो सोच—विचार
से ही जीते
हैं,
और सोच—विचार
से ही हम सारे
जीवन को मार्ग
निर्दिष्ट करने
की कोशिश करते
हैं। इससे
सारे मार्ग
भटक गए हैं।
सोचने—विचारने
से कभी कोई
मार्ग उपलब्ध
नहीं हो सकता।
क्योंकि न तो
भोजन पचता है
आपके सोचने से,
न आपकी नाड़ियों
में खून बहता
है आपके सोचने
से, न आपकी
श्वास चलती है
आपके सोचने से।
कभी
आपने सोचा है
कि जीवन की
कोई भी
महत्वपूर्ण
क्रिया आपके
सोचने से
संबंधित नहीं
है,
बल्कि जीवन
की सब
क्रियाएं
आपके अत्यधिक
सोचने से
कुंठित होती
हैं और उनको
बाधा पड़ती है।
इसलिए रोज रात
को आपका गहरी
नींद में खो
जाना जरूरी
होता है, ताकि
आपकी सारी
क्रियाएं ठीक
से चल सकें, आप बाधा न दे
पाएं और सुबह
आप वापस ताजगी
अनुभव कर सकें।
जिस
आदमी की नींद
खो जाए, उस
आदमी का बचना
फिर कठिन हो
जाता है, क्योंकि
सोच—विचार
जीवन की
बुनियादी
क्रियाओं में
बाधा डालता है
पूरे समय। तो
थोड़ी देर को
प्रकृति आपको
गहरी नींद में
डुबा
देती है। वह
एक मूर्च्छा
में ले जाती
है। सारा सोच—विचार
बंद हो जाता
है और आपके
वास्तविक
केंद्र
सक्रिय हो
जाते हैं।
हमारे
वास्तविक
केंद्रों का
भी एक नाता है।
मैं
आपसे बुद्धि
से जुड़ सकता
हूं। मेरे
विचार आपको
ठीक मालूम पड़े, मेरे
विचार आपको
प्रभावी
मालूम पड़े, तो मेरा और
आपका
बुद्धिगत
नाता होगा। यह
कम से कम नाता
है। यह कम से
कम रिलेशनशिप
है। बुद्धि का
कोई गहरा
संबंध नहीं
होता।
उससे
गहरे संबंध
हृदय के होते
हैं,
प्रेम के
होते हैं।
लेकिन प्रेम
के संबंध आपके
सोच—विचार से
नहीं होते।
प्रेम के
संबंध बिलकुल
अनजान में
आपके बिना सोचे—विचारे
घटित होते हैं।
उससे भी गहरे
जीवन के संबंध
होते हैं।
जैसे, जो
नाभि से
प्रभावित
होते हैं, हृदय
से भी
प्रभावित
नहीं होते, वे तो और भी
अव्याख्य
होते हैं।
उनकी तो
व्याख्या ही
करना मुश्किल
होता है कि
मेरा क्या
संबंध है, क्योंकि
हमें पता ही
नहीं होता।
लेकिन
जैसा मैंने
आपसे कहा कि
मां की जीवन—
धारा बच्चे की
नाभि को
प्रभावित
करती रहती है।
एक विद्युत
मां की नाभि
से बच्चे की
नाभि तक बहती
रहती है। जीवन
में वह बच्चा
जब भी किसी
ऐसी स्त्री के
करीब
पहुंचेगा, जिससे
वैसे ही
विद्युत— धारा
प्रवाहित हो
रही है जैसी
उसकी मां से
प्रवाहित
होती थी, तो
बिलकुल अनजान
संबंध में गिर
जाएगा। उसे
समझ में ही
नहीं आएगा कि
यह क्या संबंध
बनना शुरू हुआ।
उस अनजान
संबंध को हम
प्रेम कहते
रहे हैं। वह
हमारी पहचान
में नहीं आता
है, इसलिए
उसको ब्लाइंड
कहते हैं—
अंधा है प्रेम।
निश्चित
प्रेम अंधा है,
जैसे कान
अंधे हैं, जीभ
अंधी है, लेकिन
आख बहरी है।
प्रेम अंधा है,
क्योंकि वह
बहुत गहरे उन
तलों से उठता
है जिनकी हमें
कोई खबर नहीं।
हमें समझना
मुश्किल हो
जाता है कि
क्या कारण है
इस प्रेम के
उठने के।
किन्हीं
लोगों के
प्रति हमें
अचानक तीव्र
रूप से दूर हटने
का रिपल्सन
पैदा होता है।
कोई कारण समझ
में नहीं आता
कि इनसे हम
क्यों दूर
हटना चाहते
हैं?
क्यों दूर
हटाना चाहते
हैं? इनसे
क्यों दूर
होना चाहते
हैं? अगर
आपकी विद्युत—
धारा और उनकी
विद्युत— धारा,
जो नाभियों
से प्रभावित
होती हैं, विरोधी
हैं, तो
आपकी समझ में
नहीं आएगा, लेकिन आपको
दूर हटना
पड़ेगा। आपको
ऐसा लगेगा कि
कोई चीज दूर
कर रही है। और
किसी व्यक्ति
के पास आप
अचानक खिंचे
चले जाना
चाहते हैं।
आपकी समझ में
नहीं आता। कोई
कारण दिखाई
नहीं पड़ता।
आपकी विद्युत—
धारा और उसकी
विद्युत— धारा
निकट मालूम हो
रही हैं, सजातीय
मालूम हो रही
हैं, करीब
मालूम हो रही
हैं, एक—दूसरे
से संबंधित हो
रही हैं।
इसलिए वैसी
प्रतीति आपको
होती है।
तीन
तरह के संबंध
मनुष्य के
जीवन में होते
हैं। बुद्धि
के संबंध, जो
बहुत गहरे
नहीं हो सकते।
गुरु और शिष्य
में ऐसी
बुद्धि के
संबंध होते
हैं। प्रेम के
संबंध, जो
बुद्धि से
ज्यादा गहरे
होते हैं।
हृदय के संबंध,
मां—बेटे
में, भाई—
भाई में, पति—पत्नी
में इसी तरह
के संबंध होते
हैं, जो
हृदय से उठते
हैं। और इनसे
भी गहरे संबंध
होते हैं, जो
नाभि से उठते
हैं
नाभि
से जो संबंध
उठते हैं, उन्हीं
को मैं
मित्रता कहता
हूं। वे प्रेम
से भी ज्यादा
गहरे होते हैं।
प्रेम टूट
सकता है, मित्रता
कभी भी नहीं
टूटती है।
जिसे
हम प्रेम करते
हैं,
उसे कल हम
घृणा भी कर
सकते हैं।
लेकिन जो
मित्र है, वह
कभी भी शत्रु
नहीं हो सकता
है। और हो जाए,
तो जानना
चाहिए कि
मित्रता नहीं
थी।
मित्रता
के संबंध नाभि
के संबंध हैं, जो
और भी अपरिचित
गहरे लोक से
संबंधित हैं।
इसीलिए बुद्ध
ने नहीं कहा
लोगों से कि
तुम एक—दूसरे
को प्रेम करो।
बुद्ध ने कहा
मैत्री। यह
अकारण नहीं था।
बुद्ध ने कहा
कि तुम्हारे
जीवन में
मैत्री होनी
चाहिए। किसी
ने बुद्ध को
पूछा भी कि आप
प्रेम क्यों नहीं
कहते? बुद्ध
ने कहा मैत्री
प्रेम से बहुत
गहरी बात है।
प्रेम टूट भी
सकता है।
मैत्री कभी
टूटती नहीं।
और
प्रेम बांधता
है,
मैत्री
मुक्त करती है।
प्रेम
किसी को बांध
सकता है अपने
से,
पजेस कर सकता है, मालिक बन सकता
है, लेकिन
मित्रता किसी
की मालिक नहीं
बनती, किसी
को रोकती नहीं,
बांधती नहीं, मुक्त
करती है। और
प्रेम इसलिए
भी बंधन वाला
हो जाता है कि
प्रेमियों का
आग्रह होता है
कि हमारे
अतिरिक्त और
प्रेम किसी से
भी नहीं।
लेकिन
मित्रता का
कोई आग्रह
नहीं होता। एक
आदमी के
हजारों मित्र
हो सकते हैं, लाखों
मित्र हो सकते
हैं, क्योंकि
मित्रता बड़ी
व्यापक, गहरी
अनुभूति है।
जीवन की सबसे
गहरी
केंद्रीयता
से वह उत्पन्न
होती है।
इसलिए
मित्रता
अंततः
परमात्मा की
तरफ ले जाने
वाला सबसे बड़ा
मार्ग बन जाती
है। जो सबका
मित्र है, वह
आज नहीं कल
परमात्मा के
निकट पहुंच
जाएगा, क्योंकि
सबके नाभि—केंद्रों
से उसके संबंध
स्थापित हो
रहे हैं और एक
न एक दिन वह
विश्व की नाभि—केंद्र
से भी संबंधित
हो जाने को है।
ये, ये
जो नाते हैं, यह जो
रिलेशनशिप है
जीवन की, वह
बौद्धिक तो
नहीं होनी
चाहिए, अकेली
बौद्धिक नहीं
होनी चाहिए।
हार्दिक होनी
चाहिए और
अकेली
हार्दिक भी
नहीं होनी
चाहिए, उससे
भी गहरी नाभिगत
होनी चाहिए।
जैसे यह हमें
आज बहुत
स्पष्ट नहीं
है जगत में— आज
नहीं कल
ज्यादा
स्पष्ट हो
सकेगा, आज
नहीं कल हमें
पता चल सकेगा
कि हम जीवन की
बहुत दूर
धाराओं से
जुड़े हैं, जो
हमें दिखाई
नहीं पड़ती। हम
जानते हैं कि
चांद बहुत दूर
है, लेकिन
समुद्र के
पानी पर कोई
अनजाना
प्रभाव छोड़ता
रहता है। चांद
के साथ समुद्र
का पानी ऊपर
उठने लगता है,
चांद के साथ
नीचे गिरने
लगता है।
हमें
पता है सूरज
बहुत दूर है, लेकिन
किन्हीं
अदृश्य धागों
से वह जीवन से
बंधा है। सुबह
सूरज निकलता
है और जीवन
में एक
क्रांति घटित
हो जाती है।
जो सब सोया
हुआ था, जो
सब मुर्दा सा
पड़ा था, जो
सब बेहोश था, वह होश में
आने लगता है।
कोई सोई चीज
जागने लगती है।
फूल खिलने
लगते हैं, पक्षी
गीत गाने लगते
हैं। सूरज की
अदृश्य धारा
कोई प्रभाव हम
तक पहुंचाती
है।
और
भी जीवन की
अदृश्य
धाराएं हैं, जो
इसी भांति हम
तक पहुंचती
हैं और हमारे
जीवन को
संचालित करती
रहती हैं; निरंतर
संचालित करती
रहती हैं।
सूरज ही नहीं,
चांद ही
नहीं, आकाश
के तारे ही
नहीं, बल्कि
जीवन की भी एक
विद्युत— धारा
है, जो
हमें कहीं भी
दिखाई नहीं
पड़ती और जो
निरंतर हमारे
केंद्रों को
प्रभावित
करती है और
संचालित करती
है। लेकिन
जितना
रिसेप्टिव
हमारा केंद्र
होगा, जितना
ग्राहक हमारा
केंद्र होगा,
वह जीवन—
धारा उतनी ही
हमारे जीवन को
प्रभावित कर
सकती है। जो
केंद्र हमारा
जितना कम
ग्राहक होगा,
उतनी ही वह
जीवन— धारा
उसे प्रभावित
करने से वंचित
रह जाएगी।
सूरज
निकलता है, फूल
खिल जाता है।
लेकिन अगर हम
फूल के चारों
तरफ दीवाल उठा
दें और सूरज
की रोशनी फूल
तक न पहुंच
पाए, तो
फूल नहीं
खिलेगा, कुम्हला
जाएगा। बंद
दीवाल में फूल
कुम्हला ही
जाएगा। सूरज
जबरदस्ती घुस
कर उस फूल को
नहीं खोल सकता।
फूल को खुले
में होना
चाहिए। फूल को
तैयार होना
चाहिए। फूल के
लिए मौका देना
चाहिए सूरज को
कि वह आए और
खोल दे।
सूरज
किसी एक—फूल
को ढूंढने
नहीं जा सकता
कि कौन फूल
दीवाल के भीतर
छिपा है, तो
उसके दीवाल के
भीतर पहुंचे।
सूरज को कोई
पता भी नहीं
है फूलों का।
यह तो बिलकुल
ही एक अचेतन
जीवन—प्रभाव
है। सूरज
निकलता है, फूल खिलते
हैं। लेकिन
अगर कोई फूल
दीवाल के भीतर
बंद है, तो
नहीं खिलेगा,
मुर्झा
जाएगा और मर
जाएगा।
जीवन—
धारा चारों
तरफ से बह रही
है और जिनके
नाभि—केंद्र
खुले हुए नहीं
हैं,
वे उस धारा
से वंचित रह
जाएंगे। उनको
उस धारा का
कोई पता नहीं
चलेगा।
उन्हें बोध ही
नहीं होगा कि
यह धारा भी आई
थी और हमें
प्रभावित कर
सकती थी।
हमारे भीतर
कुछ छिपा था
उसे खोल सकती
थी। उन्हें
पता भी नहीं
होगा। यह जीवन—धारा
प्रभावित कर
सके—यह हमारे
नाभि का जो
फूल है, जिसको
बहुत पुराने
दिनों से लोग
कमल कहते रहे,
लोटस कहते
रहे, वे
इसीलिए कहते
रहे कि वह खिल
सके, कोई
एक जीवन— धारा
उसे खोल दे।
उसके लिए
तैयारी चाहिए।
उसके लिए
हमारे केंद्र
को खुले आकाश
के नीचे होना
चाहिए। हमारा
ध्यान होना
चाहिए उस पर।
हमारी जीवन—
धारा, भीतर
जो हमारी जीवन—
धारा है, वह
उस फूल तक
पहुंच कर उसे
जीवन देना
चाहिए। इसलिए
मैंने सुबह
कुछ थोड़ी सी
बातें कहीं।
यह
कैसे संभव
होगा? यह कैसे
संभव हो सकता
है कि हमारे
जीवन का केंद्र
एक खिला हुआ
फूल बन जाए, ताकि जो भी
चारों तरफ से
अदृश्य
विद्युत—
धाराएं आ रही
हैं, वे
उससे संपर्क
स्थापित कर
सकें? किस
रास्ते से यह
होगा? दों—चार
बातें
स्मरणीय हैं
जो अभी और रात
में आपसे बात
कर लूंगा, ताकि
कल हम दूसरे
बिंदु पर बात
कर सकें।
पहली
बात. आपकी
ब्रीदिंग, आपकी
श्वास की
प्रक्रिया
जितनी गहरी हो,
उतना ही आप
नाभि को
प्रभावित
करने में और
विकसित करने
में समर्थ हो
सकते हैं।
लेकिन हमें
इसका कोई खयाल
नहीं है। हमें
इस बात का पता
ही नहीं है कि
श्वास हम कितनी
ले रहे हैं या
कितनी कम ले
रहे हैं, या
जरूरत के
माफिक ले रहे
हैं या नहीं
ले रहे हैं।
और जितने हम
ज्यादा
चिंतित होते
जाते हैं, जितने
चिंतन से भरते
जाते हैं, मस्तिष्क
पर जितना बोझ
बढ़ता है, आपको
खयाल भी न
होगा, श्वास
की धारा उतनी
ही क्षीण और
अवरुद्ध होती है।
क्या आपने कभी
खयाल किया है,
क्रोध में
आपकी श्वास
दूसरी तरह से
चलती है, शांति
में दूसरी तरह
से चलती है?
क्या
आपने कभी खयाल
किया है कि
तीव्र
कामवासना मन
में चलती हो, तो
श्वास और तरह
से चलती है और
मन मधुर भावों
से भरा हो, तो
श्वास दूसरी
तरह से चलती
है? क्या
आपने खयाल
किया है, बीमार
आदमी की श्वास
और तरह से
चलती है, स्वस्थ
आदमी की और
तरह से चलती
है? श्वास
के स्पंदन
प्रतिक्षण
आपके चित्त को
देख कर
परिवर्तित
होते रहते हैं।
ठीक
उलटी बात भी
सच है। अगर
श्वास के
स्पंदन
बिलकुल संगतिपूर्ण
हों,
तो आपका
चित्त भी
परिवर्तित
होता रहता है।
या तो चित्त
को बदलिए
तो श्वास
बदलती है या
श्वास को बदलिए
तो चित्त पर
परिणाम होते
हैं।
तो
जिस व्यक्ति
को भी जीवन—केंद्रों
को विकसित
करना है और
प्रभावित करना
है,
उसे पहली
बात है, रिदमिक ब्रीदिंग, उसके लिए
पहली बात है, लयबद्ध
श्वास। चलते—उठते—बैठते
इतनी लयबद्ध,
इतनी शांत,
इतनी गहरी
श्वास कि
श्वास का एक
अलग संगीत, एक अलग
हार्मनी दिन—रात
उसे मालूम
होने लगे। आप
चल रहे हैं
रास्ते पर, कोई काम तो
नहीं कर रहे
हैं। बड़ा आनदपूर्ण
होगा कि आप
गहरी, शांत,
धीमी और
गहरी और
लयबद्ध श्वास
लें। दो फायदे
होंगे। जितनी
देर तक लयबद्ध
श्वास रहेगी,
उतनी देर तक
आपका चिंतन कम
हो जाएगा, उतनी
देर तक मन के
विचार बंद हो
जाएंगे।
अगर
श्वास बिलकुल
सम हो, तो मन के
विचार एकदम
बंद हो जाते
हैं, शांत
हो जाते हैं।
श्वास मन के
विचारों को
बहुत गहरे, दूर तक
प्रभावित
करती है। और
श्वास ठीक से
लेने में कुछ
भी खर्च नहीं
करना होता है।
और श्वास ठीक
से लेने में
कोई समय भी
नहीं लगाना
होता है।
श्वास ठीक से
लेने में कहीं
से कोई समय
निकालने की भी
जरूरत नहीं
होती है। आप
ट्रेन में
बैठे हैं, आप
रास्ते पर चल
रहे हैं, आप
घर में बैठे
हैं—धीरे—धीरे
अगर गहरी, शांत
श्वास लेने की
प्रक्रिया
जारी रहे तो
थोड़े दिन में
यह प्रक्रिया
सहज हो जाएगी।
आपको इसका बोध
भी नहीं रहेगा।
यह सहज ही
गहरी और धीमी
चलने लगेगी।
जितनी
श्वास की धारा
धीमी और गहरी
होगी, उतना ही
आपका नाभि—केंद्र
विकसित होगा।
श्वास
प्रतिक्षण
जाकर नाभि—केंद्र
पर चोट पहुंचाती
है। अगर श्वास
ऊपर से ही लौट
आती है, तो
नाभि—केंद्र
धीरे— धीरे
सुस्त हो जाता
है, ढीला
हो जाता है।
उस तक चोट
नहीं पहुंचती।
पुराने
लोगों ने एक
सूत्र खोज
निकाला था।
लेकिन आदमी
इतना नासमझ है
कि सूत्रों को
दोहराने लगता
है। उनका अर्थ
नहीं देख पाता, उनको
समझ भी नहीं
पाता। जैसे
अभी
वैज्ञानिकों
ने पानी का एक
सूत्र निकाल
लिया एच टू ओ।
वे कहते हैं
कि पानी में
उदजन और
आक्सीजन दोनों
के मिलने से
पानी बनता है।
दो अणु उदजन
के, एक अणु
आक्सीजन का—
तो वह एच टू ओ
फार्म बना
लिया, उदजन
दो और आक्सीजन
एक। अब कोई
आदमी अगर बैठ
जाए और
दोहराने लगे
एच टू ओ, एच
टू ओ, जैसे
लोग राम—राम, ओम—ओम
दोहराते हैं,
तो उसको हम
पागल कहेंगे।
क्योंकि
सूत्र को
दोहराने से
क्या होता है?
सूत्र तो
केवल सूचक है
किसी बात का।
वह बात समझ
में आ जाए तो
सूत्र सार्थक
है।
ओम
आप निरंतर
सुनते होंगे।
लोग बैठे
दोहरा रहे हैं, ओम—ओम
जप कर रहे हैं!
उन्हें पता
नहीं है ओम तो
एच टू ओ जैसा
सूत्र है। ओम
में तीन अक्षर
हैं अ है, उ
है, म है।
शायद आपने
खयाल न किया
हो अगर आप
मुंह बंद करके
जोर से ‘अ’ कहें भीतर
तो ‘अ’ की
ध्वनि
मस्तिष्क में गूंजती
हुई मालूम
होगी। ‘अ’ जो है, वह
मस्तिष्क के
केंद्र का
सूचक है। अगर
आप भीतर 'उ'
कहें, तो
'उ' की
ध्वनि हृदय
में गूंजती
हुई मालूम
होगी। 'उ' हृदय का
सूचक है। और
अगर आप 'म' कहें भीतर, तीसरा ओम का
हिस्सा, तो
वह नाभि के
पास आपको
गूंजता हुआ
मालूम होगा।
यह 'अ, उ
और म' मस्तिष्क,
हृदय और
नाभि के तीन
सूचक शब्द हैं।
अगर आप ' म ' कहें, तो
आपको सारा जोर
नाभि पर पड़ता
हुआ मालूम
पड़ेगा। अगर आप
'उ' कहें,
तो जोर हृदय
तक जाता हुआ
मालूम पड़ेगा।
अगर आप ‘अ’ कहें, तो ‘अ’ मस्तिष्क
में ही गंज कर
विलीन हो
जाएगा।
ये
तीन सूत्र हैं।
‘अ’ से 'उ'
की तरफ और 'उ' से ' म'
की तरफ जाना
है। ओम—ओम बैठ
कर दोहराने से
कुछ भी नहीं
होता। तो जो
इस दिशा में
ले जाए— 'अ' से 'उ' की
तरफ, 'उ' से
'म' की
तरफ— वे
प्रक्रियाएं
ध्यान देने की
हैं। उसमें
गहरी श्वास
पहली
प्रक्रिया है।
जितनी गहरी
श्वास, जितनी
लयबद्ध, जितनी
संगतिपूर्ण,
उतनी ही
आपके भीतर
जीवन—चेतना
नाभि के आस—पास
विकीर्ण होने
लगेगी, फैलने
लगेगी।
नाभि
एक जीवित
केंद्र बन
जाएगी। और
थोड़े ही दिनों
में आपको नाभि
से अनुभव होने
लगेगा कि कोई
शक्ति बाहर फिंकने
लगी। और थोड़े
ही दिनों में
आपको यह भी
अनुभव होने लगेगा
कि कोई शक्ति
नाभि के करीब
आकर खींचने भी
लगी। आप
पाएंगे कि एक
बिलकुल
लिविंग, एक
जीवंत, एक
डाइनैमिक
केंद्र नाभि
के पास विकसित
होना शुरू हो
गया है।
और
जैसे ही यह
अनुभव होगा, और
बहुत से अनुभव
इसके आस—पास
प्रकट होने
शुरू हो
जाएंगे। फिजियोलॉजिकलि,
शारीरिक
रूप से श्वास
पहली चीज है
नाभि के केंद्र
को विकसित
करने के लिए।
मानसिक रूप से
कुछ गुण नाभि
को विकसित
करने में सहयोगी
होते हैं।
जैसा मैंने
सुबह आपसे कहा,
अभय, फियरलेसनेस। जितना
आदमी भयभीत
होगा, उतना
ही आदमी नाभि
के निकट नहीं
पहुंच पाएगा।
जितना आदमी
निर्भय होगा,
उतना ही
नाभि के निकट
पहुंचेगा।
इसीलिए
बच्चों के लिए
शिक्षा देने में
मेरा
अनिवार्य
सुझाव है कभी
भूल कर बच्चों
से मत कहना कि
बाहर अंधेरा
है,
वहां मत जाओ।
आपको पता नहीं,
आप उनके
नाभि—केंद्र
को हमेशा के
लिए नुकसान
पहुंचा रहे
हैं। जहां
अंधेरा हो, वहां बच्चों
से कहना कि
जरूर बाहर जाओ,
बाहर
अंधेरा
तुम्हें
बुलाता है।
नदी पूर पर आई
हो, तो
बच्चों को मत
कहना कि इसमें
मत उतरो, क्योंकि
आपको पता नहीं,
पूर में आई
नदी में जो
बच्चा उतरने
की हिम्मत करता
है, उसका
नाभि—केंद्र
विकसित होता
है। और जो
बच्चा नहीं
उतरता है, उसका
नाभि— केंद्र
कमजोर और
क्षीण होता है।
बच्चे पहाड़ पर
चढ़ते हों
तो चढ़ने
देना। बच्चे
वृक्षों पर चढ़ते हों
तो चढ़ने
देना। जहां
साहस और जहां
अभय उनको
उपलब्ध होता
हो, वहां
उनको जाने
देना। अगर
किसी कौम के
दस—पचास हजार
बच्चे
प्रतिवर्ष मर
जाए—पहाड़ों पर
चढ़ने में,
नदियों में
उतरने में, वृक्षों पर चढ़ने में—कोई
हर्जा नहीं है।
लेकिन अगर
बच्चे पूरी
कौम के भय से
भर जाएं और अभय
से खाली हो
जाएं, तो
पूरी कौम
जिंदा दिखाई
पड़ती है, लेकिन
वस्तुत: पूरी
कौम मर गई
होती है।
हमारे
देश में यह
दुर्भाग्य
घटित हुआ है।
हम धर्म की
बहुत बातें
करते हैं, लेकिन
साहस की जरा
भी नहीं। और
हमें यह पता
ही नहीं है कि
बिना साहस के
कभी कोई धर्म
है ही नहीं।
क्योंकि साहस
के अभाव में
जीवन के
केंद्रीय तत्व
ही अविकसित रह
जाते हैं। करेज
चाहिए— इतना
साहस चाहिए
अदम्य कि
मृत्यु के
सामने भी कोई
खड़ा हो सके।
और हमारी कौम
इतनी धर्म की
बातें करती है,
लेकिन मरने
से हम इतना
डरते हैं, जिसका
कोई हिसाब
नहीं! होना
उलटा चाहिए कि
जो लोग आत्मा
को जानते हों,
पहचानते
हों, उनको
मरने से
बिलकुल नहीं
डरना चाहिए, क्योंकि
मृत्यु है ही
नहीं। लेकिन
हम आत्मा की
इतनी बातें
करते हैं और
मृत्यु से इस
भांति डरते
हैं, जिसका
कोई हिसाब
नहीं!
शायद
हम आत्मा की
बातें इसीलिए
करते हों कि
हम मृत्यु से
डरते हैं। और
आत्मा की
बातें करने से
हमको राहत
मिलती हो कि
नहीं मरेंगे, आत्मा
तो अमर है।
शायद भय के
कारण ही हम
बातें करते
हों। सचाई कुछ
ऐसी ही मालूम
होती है।
अभय
विकसित होना
चाहिए। अदम्य
अभय विकसित
होना चाहिए।
और इसके लिए
जीवन में जो
भी खतरे के
मौके हों, उनको
स्वागत मानना
चाहिए।
नीत्शे
से किसी ने
पूछा था एक
बार,
कि हम अपने
व्यक्तित्व
को कैसे
विकसित करें?
उसने एक बड़ा
अजीब सूत्र
दिया, जिसका
खयाल भी नहीं
हो सकता था।
उसने कहा लिव
डेंजरसली!
उसने कहा खतरे
में जीओ, अगर
व्यक्तित्व
को विकसित
करना हो!
लेकिन
हम तो सोचते
हैं,
जितनी
सुरक्षा में,
जितनी
सिक्योरिटी
में जीएं—
बैंक—बैलेंस
हो, मकान
हो, कोई डर
न हो, पुलिसवाले
हों, मिलिटरी हो और हम
चुपचाप उसके
भीतर जीएं।
तो हमको पता
ही नहीं है कि
इस व्यवस्था
और इस सुविधा
जुटाने में हम
मर ही गए।
जीने
का कोई सवाल न
रहा। क्योंकि
जीने का एक ही
अर्थ है खतरे
में जीना!
जीने
का कोई दूसरा
अर्थ होता ही
नहीं। मुर्दे
बिलकुल
सुरक्षित हैं।
क्योंकि अब वे
मर भी नहीं
सकते हैं। अब
उनको कोई मार
भी नहीं सकता
है। कब्रें
बिलकुल
सुरक्षित हैं।
एक
सम्राट ने एक
महल बनवाया था।
और सुरक्षा की
दृष्टि से
उसने उस महल
में एक ही
दरवाजा रखा।
पड़ोस का
सम्राट देखने
आया उसे। देख
कर बहुत खुश
हुआ। और उसने
कहा ऐसा मकान
तो मैं भी
बनवाना चाहूंगा।
यह तो बड़ा ही
सुरक्षित है।
इसमें कोई
शत्रु आ ही
नहीं सकता। एक
ही दरवाजा था
और दरवाजे पर
बहुत पहरा था।
फिर वह सम्राट
विदा होने लगा, जब
उस रास्ते पर
आकर मकान के
मालिक सम्राट
ने आए हुए
मेहमान को
विदा किया तो
रास्ते पर भीड़
इकट्ठी हो गई।
और जब उस
सम्राट ने
जाते वक्त कहा
कि मैं बहुत खुश
हुआ, मैं
भी एक ऐसा
मकान बनवाऊंगा।
तो एक का आदमी
वहां खड़ा था, वह हंसने
लगा। उस
सम्राट ने
पूछा तुम
क्यों हंसते
हो?
उसने
कहा कि अगर आप
मकान बनवाएं, तो
एक गलती मत
करना जो इसने
की है।
कौन
सी गलती?
यह
एक दरवाजा और
मत रखना। सब
दरवाजे बंद कर
देना। तो फिर
आप बिलकुल
खतरे के बाहर
हो जाएंगे।
पर
उस आदमी ने
कहा. फिर तो वह
कब बन जाएगी!
कब्र
यह भी बन गई है।
एक दरवाजा
जहां है और
जहां सब तरह
की सुरक्षा है
और जहां कोई
भय नहीं रहा
चारों तरफ से।
हम
भय के न रह
जाने को अभय
समझ लेते हैं, यह
गलती है। अभय
भय की
अनुपस्थिति
नहीं है। भय
की उपस्थिति
में कोई दूसरी
ही घटना है
अभय, जो
भीतर घटती है।
वह भय की
अनुपस्थिति
नहीं है, एकेंस
ऑफ फियर
नहीं है। अभय
भय की पूरी
उपस्थिति में
सामना करने का
साहस है।
लेकिन यह
हमारे जीवन
में विकसित
नहीं हो पाता
है।
मेरी
प्रार्थना है
आपसे, मंदिरों
में
प्रार्थना
करने से नहीं
आप परमात्मा
के निकट
पहुंचेंगे।
लेकिन जहां
जीवन का अभय
आपको बुलाता
हो, साहस
बुलाता हो, जहां खतरे
बुलाते हों, वहां
पहुंचने से
जरूर
परमात्मा के
निकट पहुंचेंगे।
खतरों में, डेंजर्स में, इनसिक्योरिटी में, असुरक्षा
में, वहां
आपके भीतर जो
छिपा केंद्र
है, सोया
हुआ, वह
जागता है और
सजग होता है।
वहां उसे
चुनौती मिलती
है। वह केंद्र
नाभि का वहीं
विकसित होता
है। पुराने
दिनों में
संन्यासी ने
यही असुरक्षा स्वीकार
की थी। इसी इनसिक्योरिटी
को स्वीकार
किया था। घर
छोड़ दिया, इसलिए
नहीं कि घर
बुरा था। पीछे
के पागल लोग
यही समझने लगे
कि घर बुरा था
इसलिए छोड़
दिया। पत्नी—बच्चे
छोड़ दिए, इसलिए
नहीं कि पत्नी—बच्चे
जंजीर थे। गलत
है यह बात।
लेकिन जहां—जहां
सुरक्षा थी, संन्यासी
उसको छोड़ देता
था। असुरक्षा
में प्रवेश
करता था, इनसिक्योरिटी में, जहां
कोई सहारा
नहीं, जहां
कोई मित्र
नहीं, जहां
कोई परिचित
नहीं, जहां
कोई अपना नहीं।
जहां बीमारी
होगी, मौत
होगी, खतरे
होंगे, एक
पैसा पास नहीं—ऐसी
असुरक्षा में
प्रवेश करता
था। तो वह जो इनसिक्योरिटी
में जाता था, असुरक्षा
में जाता था, वही
संन्यासी था।
लेकिन
पीछे
संन्यासियों
ने भी बहुत
अच्छी सुरक्षा
कर ली। गृहस्थियों
से भी ज्यादा
अच्छी
सुरक्षा कर
ली! गृहस्थी को
बेचारे को
कमाना भी पड़ता
है,
संन्यासी
को कमाना भी
नहीं पड़ता है।
वह और भी
सुरक्षित है।
उनको तो मिल
जाता है। उनको
वस्त्र भी
मिलते हैं, कपड़ा भी मिलता है,
मकान भी
मिलते हैं।
कोई उन्हें
कमी नहीं रही।
सिर्फ फर्क एक
पड़ा कि उन्हें
यह बनाना भी
नहीं पड़ता।
बनाने की झंझट
और असुरक्षा
भी खत्म हो गई
कि बना पाएंगे
कि नहीं बना
पाएंगे। कोई न
कोई बना देता
है, कोई न
कोई व्यवस्था
जुटा देता है।
तो संन्यासी
और भी खूंटे
से बंधा हुआ
आदमी हो गया।
इसीलिए
संन्यासी
हिम्मत नहीं
करता।
संन्यासी
बहुत कमजोर
मालूम होता है
आज की दुनिया
में। वह जरा
सी भी हिम्मत
नहीं कर सकता।
एक
संन्यासी
कहता है, मैं
जैन हूं। एक
संन्यासी
कहता है, मैं
हिंदू हूं। एक
संन्यासी
कहता है, मैं
मुसलमान हूं।
संन्यासी भी
हिंदू जैन और
मुसलमान हो
सकते हैं? संन्यासी
तो सबका है।
लेकिन
सबका कहने में
डर है।
क्योंकि सबका
कहने का मतलब
कहीं यह न हो
जाए कि किसी
के हम नहीं
हैं,
तो जो रोटी
देते हैं, मकान
बनाते हैं, उनसे साथ
छूट जाएगा। वे
कहेंगे कि आप
हमारे नहीं, सबके हैं, तो सबके पास
जाएं। हम तो, जैन साधु हो,
तो आपके लिए
व्यवस्था
करते हैं, हिंदू
साधु हो, तो
व्यवस्था
करते हैं, मुसलमान
साधु हो, तो
हम व्यवस्था
करते हैं। हम
तो मुसलमान
हैं, हम
मुसलमान
साधुओं की
व्यवस्था
करते हैं। तो
साधु कहता है,
हम मुसलमान
हैं। साधु
कहता है, हम
हिंदू हैं। यह
सिक्योरिटी
की तलाश है, यह सुरक्षा
की तलाश है।
यह नये घर की
खोज है।
पुराना घर
छोड़ा है, नया
घर चाहिए।
बल्कि अब तो
हालत ऐसी है
कि जो समझदार
हैं और जिनको
अच्छा घर
चाहिए, वे
घर बनाते ही
नहीं—संन्यासी
हो जाते हैं।
आप
तो नासमझ हैं।
अपना घर बनाएं
और पाप में भी
पड़े और नरक
में भी जाएं।
दूसरे से घर
बनवा लें, उसमें
रहें भी, स्वर्ग
भी जाने का
मजा लें, पुण्य
भी कमाए और
झंझट से भी
बचें। तो
संन्यासी ने
एक अपने तरह
की सुरक्षा
खड़ी कर ली है।
लेकिन
मूलतः
संन्यासी का
अर्थ होता है
खतरे में जीने
की कामना।
मूलतः
अर्थ होता है
कोई छाया नहीं
घर पर, कोई
साथी नहीं। कल
का कोई भरोसा
नहीं।
क्राइस्ट
एक बगिया के
पास से निकलते
थे। और
उन्होंने
अपने मित्रों
को कहा कि
देखते हो, इस
बगिया में
खिले फूलों को?
इन्हें पता
नहीं कि कल
सूरज निकलेगा
कि नहीं निकलेगा।
इन्हें पता
नहीं कि कल
पानी मिलेगा
कि नहीं
मिलेगा, लेकिन
ये आज अपने
आनंद में खिले
हुए हैं।
आदमी
अकेला है, जो
कल की
व्यवस्था आज
ही कर लेता है।
परसों की
व्यवस्था कर
लेता है। ऐसे
भी आदमी हैं
कि उनकी कब्र
कैसी बने, इसका
भी इंतजाम कर
लेते हैं। जो
समझदार हैं, वे तो अपना
स्मारक मरने
के पहले ही बना
लेते हैं।
उसमें उनकी
लाश रख दी
जाएगी पीछे!
हम
सब इंतजाम कर
लेते हैं और
हम यह भूल ही
जाते हैं कि
कल का इंतजाम
जो आदमी आज कर
लेता है, वह आज
को कल के
इंतजाम में
खत्म कर देता
है। कल फिर वह
आने वाले कल
का इंतजाम
करेगा और उसकी
हत्या कर देगा।
वह रोज आने
वाले कल का
इंतजाम करेगा
और आज की
हत्या करता
चला जाएगा। और
आज के
अतिरिक्त कभी
कुछ आता ही
नहीं।
कल
कभी आता ही
नहीं। जब भी
आता है, आज ही
आता है। आज की
हत्या कर देता
है कल के लिए!
यह सुरक्षा खोजने
वाले मन की
प्रवृत्ति है
आज की हत्या
कर देता है कल
के लिए!
वर्तमान को
न्योछावर कर
देता है
भविष्य के
लिए! और भविष्य
कभी आता नहीं।
कल कभी आता
नहीं। आखिर
में वह पाता
है सारा जीवन
उसके हाथ से
निकल गया।
जो
आज जीने की
हिम्मत करता
है और जो कल की
फिकर भी नहीं
करता, यह आदमी
डेंजर में जी
रहा है, यह
आदमी खतरे में
जी रहा है, कल
हो सकता है
खतरा हो। किसी
चीज का कोई
भरोसा नहीं है।
आज जो पत्नी
प्रेम करती है,
हो सकता है,
कल प्रेम न
करे। आज जो
पति घर प्रेम
करता है, हो
सकता है कल
प्रेम न करे।
कोई भरोसा
नहीं है कल का!
आज पैसा है, कल पैसा न हो,
आज कपड़े हैं,
कल कपड़े न
हों। लेकिन कल
की इस
असुरक्षा को,
इस इनसिक्योरिटी
को जो पूरी
तरह स्वीकार
करता है और कल
की प्रतीक्षा
करता है कि कल
जब सामने होगा
तब देखेंगे।
इस
आदमी के भीतर
वह केंद्र
विकसित होना
शुरू होता है, जिसे
मैं नाभि—केंद्र
कह रहा हूं।
इसके भीतर एक
बल खड़ा होता
है, एक
ऊर्जा खड़ी
होती है, एक
वीर्य खड़ा
होता है। इसके
भीतर एक
हिम्मत का
संबल खड़ा होता
है। एक पिलर
की तरह इसके
भीतर कोई चीज
खड़ी हो जाती है।
उसी स्तंभ के
ऊपर जीवन आगे
यात्रा करता
है।
तो
शारीरिक
दृष्टि से
श्वास और
मानसिक दृष्टि
से साहस, ये दो
बातें नाभि—केंद्र
के विकास के
लिए प्राथमिक
रूप से जरूरी
हैं। कुछ और
बात होगी, कुछ
आपके मन में
इस संबंध में
प्रश्न होंगे,
तो रात मैं
आपसे बात कर
लूंगा। एक बात
अंत में कह कर
अभी की बैठक
पूरी होगी।
जापान
में इधर कोई
सात—आठ सौ
वर्षों से एक
अलग ही तरह के
आदमी को पैदा करने
की उन्होंने
कोशिश की, उसे
वे समुराई
कहते थे। वह
साधु भी होता
था और सैनिक
भी होता था।
यह बात बड़ी
बेबूझ थी, क्योंकि
साधु और सैनिक
का क्या संबंध?
जापान में
जो ध्यान के
मंदिर थे, वे
भी बड़े अजीब
थे। वे ध्यान
के मंदिर, जहां
ध्यान सिखाया
जाता था, वहां
जुजुत्सु
भी सिखाते हैं,
खे
भी सिखाते हैं,
कुश्ती
लड़ने की कला
भी सिखाते हैं,
तलवार
चलाना भी
सिखाते हैं, तीर चलाना
भी सिखाते हैं।
अगर हम वहां
जाकर देखते, तो हम हैरान
हो जाते कि
ध्यान के
मंदिर में तलवार
चलाने की क्या
जरूरत है! और
यहां को सिखाना,
और जुजुत्सु
सिखाना, और
कुश्ती लड़ना
सिखाना, इसका
क्या संबंध
ध्यान से!
ध्यान के
मंदिर के सामने
तलवारों के
निशान बने
रहते हैं! बड़ी
अजीब बात हो
गई थी।
लेकिन
कुछ कारण था।
जापान के
साधकों ने
धीरे— धीरे
अनुभव की यह
बात कि जिस
साधक के जीवन
में साहस और
बल के पैदा
होने की
संभावना नहीं
होती, उस साधक
का केवल मस्तिष्क
ही रह जाता है
पास में। उसका
और गहरा
केंद्र
विकसित नहीं
होता। वह
पंडित ही हो
सकता है, साधु
नहीं हो पाता।
वह ज्ञानी हो
सकता है
तथाकथित—कि
उसे गीता भी
मालूम है, कुरान
भी मालूम है
और बाइबिल भी
मालूम है, उपनिषद
भी मालूम है!
तोते की तरह
सब कंठस्थ है,
यह हो सकता
है। लेकिन
जीवन का उसे
कोई अनुभव
नहीं होता। तो
वे तलवार भी
सिखाते, वे
तीर चलाना भी
सिखाते।
अभी
एक मेरे मित्र
जापान से लौटे
तो किसी ने उनको
एक मूर्ति
भेंट कर दी।
वे उस मूर्ति
से बड़े हैरान
हुए। उनको वह
मूर्ति
बिलकुल समझ
में नहीं आ
सकी कि यह
मूर्ति कैसी है।
वे लौटे तो
मेरे पास
मूर्ति लेकर
आए और कहा कि किसी
ने मुझे भेंट
की तो मैं ले
तो आया, लेकिन
मैं बार—बार
सोचता रहा कि
यह मूर्ति है
कैसी? इसका
मतलब क्या है?
वह एक
समुराई सैनिक
की मूर्ति थी।
तो
मैंने उनको
कहा आपकी समझ
में इसलिए
नहीं पड़ रहा
है कि हजारों
साल से हमने
गलत ही समझ
पैदा कर रखी
है। उस मूर्ति
में एक सैनिक
है। और उसके
हाथ में एक
नंगी तलवार है।
और जिस हाथ
में उसके नंगी
तलवार है, उस
तरफ का उसका
चेहरा नंगी
तलवार की चमक
में चमक रहा
है। वह चेहरा
ऐसा मालूम
पड़ता है कि
जैसे हो सकता
है, अर्जुन
का रहा हो! और
दूसरे हाथ में
उसके एक दीया
है और दीये की
ज्योति उसके
चेहरे के
दूसरे हिस्से
पर पड़ रही है।
और वह चेहरा
ऐसा मालूम
पड़ता है, जैसा
बुद्ध का रहा
हो, महावीर
का रहा हो, क्राइस्ट
का रहा हो! एक
हाथ में तलवार
है और एक हाथ
में दीया है!
हमारी
समझ में यह
बात नहीं आती, क्योंकि
या तो तलवार
होनी चाहिए
हाथ में या
दीया होना
चाहिए हाथ में।
दोनों चीजें
एक आदमी के
हाथ में कैसे
हो सकती हैं? तो उनकी समझ
में कुछ नहीं
पड़ता था।
उन्होंने
मुझे आकर कहा
कि मैं बड़ा
परेशान हूं यह
मामला क्या है?
मैंने
कहा कि यह जो
दीया है, यह
उसी आदमी के
हाथ में हो
सकता है, जिसके
हाथ में तलवार
की चमक भी हो
सकती है! जिसके
पास तलवार पकड़ने
का, तलवार
चलाने का सवाल
नहीं हैं—तलवार
चलाते तो
कमजोर लोग हैं,
भयभीत लोग
हैं; लेकिन
जिनकी जिंदगी
एक तलवार हो
जाती है, वे
तलवार नहीं चलाते।
उन्हें तलवार
चलाने की
जरूरत नहीं रह
जाती। उनकी
पूरी जिंदगी
एक तलवार होती
है। तो जिसके
हाथ में तलवार
है, इससे
यह मत समझ
लेना कि वह
तलवार चलाने
वाला ही है, कि किसी की
हत्या करेगा,
काटेगा!
क्योंकि
हत्या तो वही
करता है जो
अपनी हत्या से
डरता है, अन्यथा
कोई हत्या
नहीं करता।
हिंसक तो
सिर्फ भयभीत
ही होता है।
तलवार तो
अहिंसक के हाथ
में ही हो
सकती है। असल
में अहिंसक एक
तलवार ही होता
है। खुद ही एक
तलवार होता है,
तो ही
अहिंसक हो
सकता है; नहीं
तो नहीं हो
सकता।
लेकिन
यह जो दीया है, यह
जो शांति का
दीया है, यह
उसी के हाथ
में शोभा पा
सकता है, और
उसी के हाथ
में हो सकता
है केवल, जिसके
प्राणों में
वीर्य की
तलवार भी पैदा
हो गई हो—ऊर्जा
की, शक्ति
की तलवार भी
पैदा हो गई हो।
तो
एक तरफ
व्यक्तित्व
पूरी
शक्तिमत्ता
से भर जाए और
दूसरी तरफ
पूरी शांति से, तो
ही परिपूर्ण
व्यक्ति, इंटिग्रेटेड
पर्सनैलिटी
जिसको हम कहें,
जिसे हम
पूर्ण योग
कहें, वह
उत्पन्न होता
है।
अब
तक दुनिया में
दो तरह की
बातें हुई हैं।
या तो लोगों
ने दीये हाथ
में रख लिए
हैं और बिलकुल
कमजोर हो गए
हैं। इतने कि
उनका कोई दीया
फूंक दे, तो वह
इनकार भी नहीं
कर सकते कि आप
हमारा दीया
क्यों फूंक
रहे हैं। वे
सोचेंगे कि
बेचारा चला
जाए तो हम फिर
जला लेंगे, या नहीं गया
तो अंधेरे में
ही रह लेंगे, ऐसा भी क्या
हर्जा है।
लेकिन कौन
झंझट करे। तो
एक तो दीया पकड़ने
वाले ऐसे लोग
हैं कि जिनका
दीया बचाने की
भी जिनके पास
कोई सामर्थ्य
नहीं है।
भारत
ऐसे ही कमजोर
कौमों में से
एक कमजोर कौम
हो गई है। और
यह कमजोर कौम
इसलिए हुई कि
हमने जीवन की
शक्ति के
वास्तविक
केंद्र तो
विकसित नहीं
किए। हमने
केवल बुद्धि
के पास बैठ कर
गीता कंठस्थ कर
ली और महावीर
के वचन याद कर
लिए और बैठ कर
व्याख्या
करने लगे। और
उपनिषद याद
करने लगे और
गुरु—शिष्य
बैठे हैं और
जमाने भर की
फिजूल की
बातों पर
बातें कर रहे
हैं,
जिनका जीवन
से कोई संबंध
नहीं है। यह
हम, सारा
मुल्क, पूरी
की पूरी कौम
कमजोर हो गई
है, दीन—हीन
हो गई है, नपुंसक
हो गई है।
और
दूसरी तरफ ऐसे
लोग हैं, जिन्होंने
दीये की फिकर
ही छोड़ दी, सिर्फ
तलवार लेकर
चलाने में लग
गए। फिर वह
उनके पास दीया
न होने से
अंधेरे में दिखता
नहीं कि वह
किसको काट रहे
हैं— अपने
लोगों को काट
रहे हैं कि
दूसरों को काट
रहे हैं। वे
काटे चले जाते
हैं! और कोई
दीया—वीया
जलाने की बात
कहे, तो
कहते हैं, बकवास
मत करो। जितनी
देर में दीया
जलाएंगे उतनी
देर में तलवार
नहीं चला
लेंगे। और जिस
धातु से दीया बनाएंगे, उससे एक
तलवार और बन
जाएगी। उतना
तेल कौन खराब
करे, उतनी
धातु कौन खराब
करे। जिंदगी
तो तलवार
चलाना है।
तो
पश्चिम के लोग
अंधेरे में ही
तलवार चलाए जा
रहे हैं। और
पूरब के लोग
बिना तलवार
लिए दीया लिए
बैठे हुए हैं।
वे दोनों रो
रहे हैं। सारी
दुनिया रो रही
है। ठीक आदमी
पैदा नहीं हो
सका है। ठीक
आदमी एक जीवंत
तलवार भी होता
है और एक शांति
का दीया भी
होता है। ये
दोनों बातें
जिस
व्यक्तित्व
में फलित होती
हैं,
उस व्यक्ति
को ही मैं योगी
कहता हूं और
किसी व्यक्ति
को योगी नहीं
कहता।
उसके
पहले सूत्र पर
आज हमने बात
की है। इस
संबंध में
आपके मन में
बहुत से
प्रश्न उठने
जरूरी हैं, उठने
चाहिए। तो वे
प्रश्न आप
लिखेंगे तो
रात मैं उनकी
बात कर सकूंगा।
फिर कल हम
दूसरे
सूत्रों पर
चर्चा शुरू
करेंगे। इसलिए
आज इस संबंध
में ही प्रश्न
पूछें और किसी
संबंध में
नहीं। फिर कल
दूसरे संबंध
में बात होगी, तब उस संबंध
में प्रश्न
पूछ लें।
परसों तीसरे
संबंध में बात
होगी, तब
उस संबंध में
प्रश्न पूछ
लेंगे।
तो
जो मैंने कहा
है,
उस संबंध
में ही
पूछेंगे तो
ठीक होगा। और
अगर कुछ ऐसे
प्रश्न हों, जो कि इन
तीनों दिनों
में संबंधित न
हों, तो
अंतिम दिन आप
उनको पूछ
लेंगे। तो
अंतिम दिन हम
उनकी बात कर
सकेंगे।
(आज
इतना ही)
आज
दोपहर की बैठक
पूरी हुई।
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