सूत्र:
7—समग्र
जीवन का सम्मान
करो,
जो तुम्हें
चारों और से
घेरे हुए है।
अपने
आसपास के
निरंतर बदलने
वाले
और
चलायमान जीवन
पर ध्यान दो,
क्योंकि
वह मानवों के
ह्रदय का ही
बना है।
और ज्यों–ज्यों
तुम उसकी
बनावट और उसकी
आशय समझोगे,
त्यों—त्यों
क्रमश: तुम
जीवन का विशालतर
शब्द भी
पढ़ और
समझ सकोगे।
8—समझ
पूर्वक मानव
ह्रदय में
झांकना सीखों।
मनुष्य
के ह्रदयों
का अध्ययन
करो,
ताकि
तुम जान सको
कि वह जगत
कैसा है,
जिसमें
तुम रहते हो, और
जिसके
तुम एक अंश बन
जाना चाहते
हो।
बुद्धि
निष्पक्ष
होती है,
सभी
समान रूप से
तुम्हारे
शिक्षक है।
तुम्हारा
शत्रु एक रहस्य
बन जाता है।
जिसे
तुम्हें हल
करना है,
चाहे
इस हल करने
में युगों का
समय लग जाए,
क्योंकि
मानव को समझना
तो है ही।
तुम्हारा
मित्र
तुम्हारा ही
एक अंग बन
जाता है,
तुम्हारा
ही एक विस्तृत
रूप हो जाता
है,
जिसे
समझना कठिन
होता है।
जीवन—सत्य की
खोज में जो
बड़ी से बड़ी
कठिनाई हो
सकती है, वह है जीवन
के प्रति
असम्मान का
भाव। और हम सबके
भीतर जीवन के
प्रति
असम्मान का
भाव है। और यह
बात उलटी
लगेगी और
समझने में
थोड़ी मुश्किल पड़ेगी
कि तथाकथित
धर्मों ने ही
हमें जीवन के
प्रति
असम्मान से भर
दिया है, जब
कि वास्तविक
धर्म हमें
जीवन के प्रति
सम्मान से
भरेगा।
क्योंकि
परमात्मा
जीवन में ही
छिपा है। जीवन
उसका ही
वस्त्र है, उसका ही
आच्छादन है।
जीवन उसकी ही
श्वास है। और
अगर जीवन के
प्रति
असम्मान का
भाव है, तो
परमात्मा को
खोजना असंभव
है। क्योंकि
उस सम्मान से
ही तो उसमें
प्रवेश का
द्वार मिलेगा।
असम्मान से तो
हमारी पीठ
उसकी तरफ हो
जाती है।
पर ऐसी
उलझन हो गई है
कि धर्म कहते
हैं कि परमात्मा
को खोजो। और
धर्म यह भी
कहते हैं कि
परमात्मा
जीवन के कण—कण
में छिपा है।
लेकिन परमात्मा
को खोजने की
बात, जो
रुग्ण चित्त
लोग हैं, वे
समझते हैं, जैसे जीवन
का निषेध करके
खोजना है!
जैसे
परमात्मा की
खोज जीवन का
विरोध है।
जैसे
परमात्मा को
पाना है तो
जीवन को छोड़ना
होगा।
अगर यह
सच है कि
परमात्मा को
पाने के लिए
जीवन को छोड़ना
होगा, तो
फिर जीवन का
सम्मान नहीं
हो सकता है, जीवन की
निंदा होगी, अपमान होगा।
और जीवन का
अपमान होगा तो
जीवन का जो
परम—रहस्य है,
उसका
सम्मान कैसे
हो सकता है?
कृष्ण
तो जीवन के
प्रति सम्मान
से भरे हैं, जीसस तो
जीवन के प्रति
सम्मान से भरे
हैं, बुद्ध
तो जीवन के
प्रति सम्मान
से भरे हैं, लेकिन उनके अनुयायिओं
का बड़ा वर्ग
जीवन के प्रति
अपमान से भरा
है। इसका कारण
बुद्ध, कृष्ण
या क्राइस्ट
की शिक्षाओं
में नहीं है।
इसका कारण अनुयायिओं
की समझ में
है।
क्योंकि
वे सभी कहते
हैं कि
परम—सत्य को
खोजो। हम भी
उसे खोजना
चाहते हैं।
लेकिन जब भी
हम उसकी खोज
का विचार करते
हैं, तभी
हमें लगता है
कि हमारा जो
आज का क्षण, अभी का जो
जीवन है, उसे
छोड़ना पड़े, तभी उसकी
खोज हो सके।
इससे हटना पड़े,
इसे नष्ट
करना पड़े, तभी
उसकी खोज हो
सके। इसलिए
नहीं कि उसकी
खोज के लिए
इससे हटना
जरूरी है, बल्कि
सचाई यह है कि
हम इससे इतने
ऊब गए हैं, और
परेशान हो गए
हैं, और हम
इसमें इतने
दुखी और इतने
दीन हो गए हैं,
कि जब भी
हमें कोई मौका
मिले, इसे
छोड़ने और तोड्ने
का, तो हम
तैयार हैं।
कोई भी बहाना
मिले तो हम
जीवन को नष्ट
करने को तैयार
हैं। हम
आत्मघाती हैं,
हम रुग्ण
हैं। और ये
रुग्ण लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं, और
ये सारी जीवन
की परिभाषा
बदल देते हैं,
सारा ढंग
बदल देते हैं।
और ये पूरी
व्यवस्था को
उलटा कर देते
हैं।
धर्म
की तरफ पैथालाजिकल, रुग्ण
चित्त लोग
बहुत तीव्रता
से उत्सुक होते
हैं। उनकी
उत्सुकता का
कारण है।
क्योंकि वे जीवन
के तो विरोध
में हैं।
क्योंकि जीवन
से तो उनको
कोई सुख और
शांति नहीं
मिली। इसका
कारण यह नहीं
है कि जीवन में
सुख और शांति
नहीं है। इसका
कारण यह है कि
उनका जो ढंग
था जीवन से
सुख और शांति
पाने का, वह
गलत था। तो वे
जीवन के प्रति
विरोध से भर
गए हैं। और जब
भी उन्हें कोई
शिक्षक मिल जाता
है, जो
किसी और बड़े
जीवन की तरफ
इशारा करता है,
तभी वे
तत्काल यह
निर्णय बना
लेते हैं कि
इस जीवन में
ही पाप है, इस
जीवन में ही दुःख
है। इसको छोड़ेंगे
तो वह
परम—जीवन
मिलेगा।
जीवन
में दुख नहीं
है, जीवन
को देखने के
ढंग में दुख
है। और अगर
यही ढंग ले कर
तुम परम—जीवन
में भी प्रवेश
कर गए, तो
वहां भी दुख
पाओगे। वह ढंग
तुम्हारे साथ
है। तुम कहां
हो यह सवाल नहीं
है। तुम जहां
भी रहोगे, वह
ढंग तुम्हारे
साथ रहेगा।
तुम जहां भी
जाओगे, तुम्हारी
आख तुम्हारे साथ
रहेगी।
तुम्हें
परमात्मा भी
मिल जाए, तो
तुम उससे भी
दुखी होने
वाले हो! तुम
सुखी हो नहीं सकते,
तुम्हारा
जो ढंग है
उसको बिना
बदले। लेकिन
ढंग तुम बदलना
नहीं चाहते, तुम
परिस्थिति बदलने
को उत्सुक हो
जाते हो। तुम
जीवन की निंदा
करने में रस
लेते हो। खुद
गलत हो, यह
तुम्हें सोचना
मुश्किल हो
जाता है।
यह जो
निंदकों का एक
समूह है, यह जीवन को
नुकसान तो
पहुंचा देता
है, लेकिन
परमात्मा की तरफ
एक भी कदम
बढ़ने में
सहायता नहीं
कर पाता।
एक बात
समझ लेनी
जरूरी है कि
अगर कोई
परम—जीवन भी
है, तो
इस जीवन की ही
गहराई का नाम
है। अगर कोई
पार का जीवन
भी है, तो
भी इसी जीवन
की सीढ़ियों से
होकर वह
रास्ता जाता
है। यह जीवन
तुम्हारा
दुश्मन नहीं
है। यह जीवन
तुम्हारा
सहयोगी है, साथी है, संगी
है। और अगर इस जीवन
से तुम्हें
कोई रास्ता
दिखाई नहीं
पड़ता, तो
तुम अपने
देखने के ढंग
को बदलना। तुम
अपने देखने की
वृत्ति को
बदलना। लेकिन
कोई भी आदमी
अपने को बदलने
को तैयार
नहीं! मैं तो
इतना चकित
होता हूं कि
जो लोग कहते
भी हैं कि हम
स्वयं को
बदलने को
तैयार हैं, वे भी स्वयं
को बदलने को
तैयार नहीं
होते, कहते
ही हैं। उनकी
उत्सुकता भी
होती है कि सब बदल
जाएं और वे न
बदलें।
क्योंकि खुद
को बदलना—अहंकार
को बड़ी चोट
लगती है, बहुत
पीडा होती है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे मुझे
भी बदलने की
योजनाएं ले कर
आ जाते हैं! वे
कहते हैं कि
अगर आप ऐसा
करें तो बहुत
अच्छा होगा, अगर आप
ऐसा कहें तो
बहुत अच्छा हो,
अगर आप ऐसे जीएं तो
बहुत अच्छा
हो! मैं उनसे
पूछता हूं कि
तुम यहां किसलिए
आए थे? तुम
अपने को बदलने
आए हो या मुझे?
मैं जैसा
हूं आनंदित
हूं। मुझे
इसमें रत्ती भर
बदलने का कोई
सवाल नहीं है।
तुम अगर दुखी
हो तो खुद को
बदलने की
फिक्र करो।
अगर तुम भी
आनंदित हो तो
बात खतम हो
गई।
लेकिन
दुखी आदमी भी
आता है तो उसे
इसका खयाल ही
नहीं कि वह किसलिए
आया हुआ है! वह किसलिए
आया हुआ है? अपने को
बदलने!
यहां
शिविर में लोग
आते हैं, दिन भर मेरा
सिर खाते
हैं—फलां आदमी
ऐसा कर रहा है,
ढिकां आदमी
ऐसा कर रहा है!
तुम यहां किसलिए
आए हो? तुम
सारे लोगों की
चिंता के लिए
यहां आए हो? तुम्हें
किसने ठेका
दिया सबकी
चिंता का? तुम्हारे
पास बहुत समय
मालूम पड़ता है,
बहुत शक्ति मालूम
पड़ती है। अपना
जीवन तुम
दूसरों के लिए
चुका रहे हो कि
कौन आदमी क्या
कर रहा है।
क्या प्रयोजन
है? कौन
आदमी किस
स्त्री के साथ
बात कर रहा है,
कौन आदमी
किस स्त्री के
पास बैठा हुआ
है, तुम्हें
चिंता का क्या
कारण है? तुम
कौन हो?
लेकिन
तुम आए थे
यहां अपने को
बदलने को और
यहां तुम
फिक्र में पड़
जाते हो किसी
दूसरे को
बदलने की! असल
में तुम अपने
को बदलने आए
ही नहीं हो, इसीलिए
यह फिक्र पैदा
होती है। तुम्हारा
खयाल गलत था
कि तुम अपने
को बदलने आए
हो। तुमने
अपने को धोखा
दिया। तुम
चाहते तो सारी
दुनिया को
बदलना हो, तुम
तो जैसे हो, उससे तुम
रत्ती भर हटना
नहीं चाहते!
और फिर तुम
चाहते हो कि
तुम्हारा दुख
समाप्त हो जाए,
तुम्हारी
पीड़ा समाप्त
हो जाए! तुम
जैसे हो, वैसे
ही रह कर दुख
समाप्त न
होगा। फिर
इससे क्या
तुम्हें पीड़ा
होती है कि
कोई आदमी किसी
स्त्री के साथ
बात कर रहा है,
प्रेमपूर्ण
ढंग से बैठा
हुआ है? इससे
तुम्हें क्या
पीड़ा होती है?
मुझे
खबर दी किसी
ने कि फलां
आदमी किसी
स्त्री के साथ
इस ढंग से
बैठा है, जो शोभादायक
नहीं है। शोभा
का कौन
निर्णायक है?
और जो आदमी
खबर दे रहा है,
उसे इस बात
का खयाल ही
नहीं है कि
उसको यह पीड़ा क्यों
पकड़ रही है।
इस आदमी को
मैं भलीभांति
जानता हूं। यह
किसी भी
स्त्री के पास
बैठने में
समर्थ नहीं
है। कोई
स्त्री इसके
पास बैठने में
समर्थ नहीं है।
यह परेशान है।
यह उस आदमी की
जगह बैठना
चाहता था, इसलिए
यह परेशानी की
खबर ले आया।
लेकिन इसे यह
खयाल नहीं है
कि इसका खुद
का रोग इसको
खा रहा है। यह
दूसरे को
बदलने की फिक्र
में है!
मैंने
उस आदमी को
कहा कि जो
आदमी वहां
बैठा है स्त्री
के पास, तुमने उस
आदमी के बाबत
एक बात खयाल
की, कि वह
आदमी सदा
प्रसन्न रहता
है, सदा
हंसता है, सदा
खुश है। और
तुम सदा उदास,
दुखी और
परेशान हो।
तुम उस आदमी
से कुछ सीखो, उसके पास
में बैठी
स्त्री की फिक्र
छोड़ दो। और यह
भी हो सकता है
कि तुम भी उतने
खुश हो जाओ कि
कोई स्त्री
तुम्हारे पास
भी बैठना
चाहे। लेकिन
तुम्हारी शकल
नारकीय है। तुम
इतने दुख और
परेशानी से
भरे हो कि कौन
तुम्हारे पास
बैठना चाहेगा!
और फिर अगर दो
व्यक्ति
प्रेमपूर्ण
ढंग से बैठे
हैं, तो
इसमें अशोभन
क्या है?
यह
बहुत मजे की
बात है कि
जीवन के
असम्मान के कारण
प्रेम अशोभन
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
प्रेम जीवन का
गहनतम
फूल है। अगर
दो आदमी सड़क
पर लड़ रहे हों
तो कोई नहीं
कहता कि
अश्लील है।
लेकिन दो आदमी
गले में हाथ
डाल कर एक
वृक्ष के नीचे
बैठे हैं, तो लोग
कहेंगे, अश्लील
है! हिंसा
अश्लील नहीं
है, प्रेम
अश्लील है!
प्रेम क्यों
अश्लील है? हिंसा क्यों
अश्लील नहीं
है? हिंसा
मृत्यु है, प्रेम जीवन
है। जीवन के
प्रति
असम्मान है और
मृत्यु के
प्रति सम्मान
है!
देखिए, कितनी
हैरानी की बात
है! युद्ध की
फिल्में बनती
हैं, कोई
सरकार उन पर
रोक नहीं
लगाती। हत्या
होती है, खून
होता है फिल्म
में, कोई
दुनिया की
सरकार नहीं
कहती कि
अश्लील है। लेकिन
अगर प्रेम की
घटना है तो
सारी सरकारें
चिंतित हो
जाती हैं।
सरकारें तय
करती हैं कि
चुंबन कितने
दूर से लिया
जाए! छ: इंच का
फासला हो, कि
चार इंच का
फासला हो! कि
कितने इंच के
फासले पर चुंबन
श्लील होता है
और कितने इंच
के फासले पर
अश्लील हो
जाता है!
लेकिन छुरा
भोंका जाए
फिल्म में, तो अश्लील
नहीं होता!
कोई नहीं कहता
कि छ: इंच दूर
छुरा रहे।
यह
बहुत विचार की
बात है कि
क्या कठिनाई
है। चुंबन में
ऐसा क्या पाप
है, जो
छुरा भोंकने
में नहीं है? लेकिन चुंबन
जीवन का साथी
है और छुरा
मृत्यु का।
छुरे पर किसी
को एतराज नहीं
है। हम सब
आत्मघाती
हैं। हम सब
हत्यारे हैं।
लेकिन प्रेम
के हम सब
दुश्मन हैं!
यह दुश्मनी
क्यों है? इसको
अगर हम बहुत
गहरे में
खोजने जाएं तो
हमारा जीवन के
प्रति सम्मान
का भाव नहीं
है।
फिर
अगर दो
व्यक्ति
प्रेम से बैठे
हैं, किसी
को नुकसान
नहीं पहुंचा
रहे हैं, यह
उनकी निजी बात
है, यह
उनका निजी
आनंद है। अगर
यह आपको कष्ट
देता है तो
आपको अपने
भीतर खोज करनी
चाहिए। आपके
जीवन में
प्रेम की कमी
रह गई है। या
आपकी
कामवासना
पूरी नहीं हो
पाई है, अटकी
रह गई है।
आपकी
कामवासना पूरी
बन गई है, घाव
बन गई है। मगर
ये आदमी जो
मेरे पास आ कर खबर
लाएंगे, वे यह नहीं
कहते कि हम
अपनी
कामवासना से
पीड़ित हैं! वे
यह कहते हैं
कि यह क्या हो
रहा है!
अपनी
तरफ खयाल करो, अपने दृष्टिकोणों
को सोचो, दूसरे
की चिंता मत
करो। और एक
बात सदा खयाल
में रखो कि
तुम किस बात
का सम्मान
करते हो? जीवन
का?
दो
व्यक्तियों
का
प्रेमपूर्ण
ढंग से खड़ा
होना, इस
पृथ्वी पर
घटने वाली
सुंदरतम
घटनाओं में से
एक है। और अगर
प्रेम सुंदर
नहीं है, तो
फूल सुंदर
नहीं हो सकते,
पक्षियों
के गीत सुंदर
नहीं हो सकते,
क्योंकि
फूल भी प्रेम
की घटना है।
वह भी वृक्ष
की कामवासना
है। उससे
वृक्ष अपने
बीज पैदा कर
रहा है, अपने
वीर्य—क्या
पैदा कर रहा
है। पक्षियों
के सुबह के
गीत सुंदर
नहीं हो सकते,
क्योंकि वह
भी प्रेयसियों
के लिए बुलाई
गई पुकार है
या प्रेमियों
की खोज है—वह
भी कामवासना
है।
अगर
कोई व्यक्ति
जीवन के प्रति
असम्मान से भरा
है तो इस जगत
में फिर कुछ
भी सुंदर नहीं
है, सब
अश्लील है।
आपको फूल में
दिखाई नहीं
पड़ता, क्योंकि
फूल की
कामवासना का
आपको पता नहीं
है। जब वसंत
आता है, तो
पृथ्वी जवान
होती है। वह
जो आप खुशी
देखते हैं
चारों तरफ, वह भी
कामवासना की
ही खुशी है, वह जो उत्सव
दिखाई पड़ता
है।
जीवन
की निंदा में
कामवासना भी
एक कारण है। न मालूम
किस—किस भांति
से हमने
कामवासना का
विरोध किया है, उसको पाप
कहा है। वह
पाप हो सकती
है, क्योंकि
उसमें पुण्य
होने की
क्षमता है। एक
बात खयाल
रखना. वही चीज
पाप हो सकती
है, जिसमें
पुण्य होने की
क्षमता हो।
एक
छोटा बच्चा
अगर कोई भूल
करता है, तो हम उसे
माफ कर देते
हैं। हम पाप
नहीं कहते, हम कहते हैं
कि वह बच्चा
है। अभी ठीक
करने की क्षमता
ही उसमें नहीं
है, तो गलत
करना माफ किया
जाए। एक आदमी
शराब पी कर
कोई जुर्म कर
लेता है, तो
अदालत भी माफ
कर देती है, क्योंकि
उसने बेहोशी
में किया है।
होश में होता
तो हम मानते
हैं कि उसमें
ठीक करने की
क्षमता भी थी।
जब क्षमता ही
न थी तो फिर
गलत का जुम्मा
भी नहीं रह
जाता। एक आदमी
पागल सिद्ध हो
जाए तो बड़े से
बड़ा जुर्म भी
माफ हो जाता
है, क्योंकि
पागल को क्या
दोष देना? वह
ठीक कर ही
नहीं सकता था,
तो गलत करने
के लिए
जिम्मेवार भी
नहीं रह जाता।
एक बात—
कि जिस स्थिति
में पाप हो
सकता है, वह वही
स्थिति है, जिसमें
पुण्य भी हो
सकता था। नहीं
तो पाप नहीं
हो सकता है।
जो ऊर्जा पाप
बन सकती है, वही ऊर्जा
पुण्य भी बन
सकती है।
इसलिए कामवासना
का जो विरोध
किया है जानने
वालों ने, उसका
कारण दूसरा
है। न जानने
वालों ने
विरोध को पकड़
लिया, उसका
कारण दूसरा
है। जानने
वालों ने
इसलिए कहा है
कि तुम
कामवासना में
मत पड़ों, ताकि तुम्हारी
काम—ऊर्जा
परमात्मा की
तरफ प्रवाहित
हो सके। इसमें
कामवासना की
निंदा नहीं है,
केवल उसका
महत्तर उपयोग
है। सच पूछें
तो इसमें उसकी
महत्ता है।
क्योंकि
कामवासना में
पड़ कर तुम
संसार में
प्रवेश कर
जाओगे, और
गहन अंधकार
में। अगर तुम
कामवासना में
न पड़ी, तो
यही ऊर्जा ऊपर
चढने की सीढ़ी
बन जाएगी।
तो जो
सीढ़ी तुम्हें
ऊपर ले जा
सकती हो, उसको तुम
नीचे की
यात्रा पर मत
लगाओ। इसमें
सम्मान है, अपमान नहीं
है। इसका अर्थ
यह हुआ कि
काम—ऊर्जा
परम—सत्य तक
ले जा सकती
है। और तुम
उसे व्यर्थ मत
खो देना।
लेकिन रुग्ण
लोगों ने उसका
जो अर्थ लिया,
उन्होंने
अर्थ लिया कि कामवासना
के शत्रु हो जाओ।
वे सीढ़ी ऊपर की
तरफ तो लगाते नहीं, सीढ़ी नीचे की
तरफ भी नहीं
लगाते! वे
सीढ़ी कंधे पर
ले कर घूमते
रहते हैं, वे
सीडी लगाते ही
नहीं!
ऊपर की
तरफ लगाओ, बहुत
सुखद है, परम—आनंदपूर्ण
है। ऊपर की
तरफ न लगा सको,
तो कंधे पर
ले कर मत घूमो।
क्योंकि उससे
तुम सिर्फ
रुग्ण हो रहे
हो और बोझ ढो
रहे हो।
कामवासना के
विरोध के कारण
जीवन का भी
अपमान हो गया
हमारे मन में।
क्योंकि जीवन
उसी से तो
उठता है, जीवन
उसी से तो
जगता है। जीवन
कामवासना का
ही तो फैलाव
है।
प्रेम
छुप—छुप कर
करना पड़ता है, कहीं भाव
है कि पाप है। अगर
प्रेम पाप है,
तो प्रेम से
पैदा होने
वाले बच्चे
पुण्य नहीं हो
सकते। अगर
प्रेम पाप है,
तो पूरा
जीवन पाप है।
ये
सूत्र बहुत
कीमती हैं, समझने
जैसे हैं।
पहला सूत्र
है—
सातवां
सूत्र, ' समग्र जीवन
का सम्मान करो,
जो तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।’
समस्त जीवन का
सम्मान करो—
मृत्यु का
नहीं, हिंसा
का नहीं, विध्वंस
का नहीं—जीवन
का, सृजन
का, प्रेम
का। जहां से
जीवन उठता है,
जहां से
जीवन जन्मता
है, जहां
से जीवन फैलता
है—चाहे पौधों
में, चाहे
पक्षियों में,
चाहे
मनुष्यों
में—जीवन का
सम्मान करो, समग्र जीवन
का।
'अपने
आसपास के
निरंतर बदलने
वाले और
चलायमान जीवन
पर ध्यान दो, क्योंकि यह
मानवों के
हृदय का ही
बना है। और ज्यों—ज्यों
तुम उसकी
बनावट और उसका
आशय समझोगे, त्यों—त्यों
क्रमश: तुम
जीवन का विशालतर
शब्द भी पढ़ और
समझ सकोगे।’
जीवन
के सम्मान में
एक सृजनात्मक
दृष्टिकोण है।
चारों ओर देखो, हृदय से
बना है सब
कुछ।
तुम्हारे
पड़ोस में जो बैठा
है, उसका
हृदय भी धड़क
रहा है। वह जो
वृक्ष लगा है,
उसकी भी
जीवन— धारा
प्रवाहित हो
रही है। वह जो तुम्हारे
नीचे पृथ्वी
है, वह भी
श्वास ले रही
है। छोटा सा
कीड़ा—मकोड़ा
हो या आकाश के
बड़े से बड़े
तारा—मंडल हों,
उन सबमें एक
ही जीवन
विभिन्न
रूपों में
प्रकट हो रहा
है। इसका
सम्मान अगर मन
में न हो, तो
तुम अस्तित्व
में प्रवेश
कैसे करोगे? तुम कैसे
प्रवेश करोगे?
कहां से
द्वार खोजोगे?
अगर
तुम्हारी
घृणा है, अगर
तुम्हारा
विरोध है, निंदा
है, तो तुम
पीठ करके खड़े
हो जाओगे
द्वार की तरफ।
जहां भी जीवन
दिखाई पड़े, उसकी पूजा
करो। जहां भी
जीवन की कली
खिलती हो, उसका
स्वागत करो।
विध्वंस
तुम्हारे मन
में न आए, निंदा
तुम्हारे मन
में न आए, सम्मान
तुम्हारी भावदशा
बन जाए।
श्वीत्जर ने
किताब लिखी है, रिवरेन्स फार लाइफ, जीवन के
प्रति सम्मान।
और श्वीत्जर
ने अपना पूरा
जीवन, जीवन
के प्रति
सम्मान में
समर्पित
किया। और श्वीत्जर
ने कहा है कि
जीवन का
सम्मान
करते—करते ही
मुझे प्रभु की
प्रतीति होने
लगी। और न
मैंने कोई पूजा
की है, और न
मैंने कोई
प्रार्थना की
है, और न
मैंने कोई
ध्यान किया
है। मुझे तो जहां
भी जीवन दिखाई
पड़ा, जो भी
मुझसे बन सका
जीवन के
स्वागत, सेवा,
समादर के
लिए, वह
मैंने किया
है। और जहां
भी मुझे खयाल
आ गया कि मैं
मृत्यु का
पक्षपाती हो
रहा हूं र
वहीं से मैंने
अपने को हटा
लिया। जहां भी
मुझे लगा कि
मुझसे कोई
विध्वंस हो
रहा है, वहीं
मैंने अपने
हाथ रोक लिए।
मैंने अपनी
शक्ति को
विध्वंस में
नियोजित नहीं
किया। कुछ
मैंने तोड्ने
में अपनी
शक्ति नहीं
लगाई। कुछ जोड़
सका, कुछ
बना सका, कुछ
निर्मित कर
सका, जीवन
के लिए कोई
रास्ता, कोई
सहारा—वही
मैंने किया
है। तो यही
मेरी पूजा है।
और मैं इसमें
तृप्त हूं। क्योंकि
मैंने पा लिया
वह, जो
मुझे पाने
जैसा लगता है।
कोई और खोज बाकी
नहीं है।
लेकिन
यह तभी हो
सकेगा, जब तुम्हारा
दृष्टिकोण
बदले। अभी तो
तुम विध्वंस
की तलाश में
रहते
हो। कहीं
तुम्हें कुछ
तोड़ने—फोड़ने
को मिल जाए, तो
तुम्हारे
आनंद का अंत
नहीं होता।
बनाने में किसी
बूढ़ो
कोई रस नहीं
है, मिटाने
की बड़ी
उत्सुकता है।
इस
उत्सुकता को
अपने भीतर
खोजना। निंदा
का बड़ा भाव
है। अगर मैं
किसी की निंदा
करूं, तो
आप बिना किसी
विवाद के
स्वीकार कर
लेते हैं। अगर
मैं किसी की
प्रशंसा करूं,
तो आपका मन एकदम
चौंक जाता है,
आप स्वीकार
करने को राजी
नहीं होते
हैं। आप कहते
हैं, सबूत
क्या है? प्रमाण
क्या है? आप
वहम में पड़ गए
हैं! लेकिन जब
कोई निंदा
करता है, तब
आप ऐसा नहीं
कहते।
कभी
आपने देखा कि
कोई आ कर जब
आपको किसी की
निंदा करता है, तो आप
कैसे मन से, कैसे भाव से
स्वीकार करते
हैं? आप यह
नहीं पूछते कि
यह बात सच है? आप यह नहीं
पूछते कि इसका
प्रमाण क्या
है? आप यह
भी नहीं पूछते
कि जो आदमी
इसकी खबर दे
रहा है, वह
प्रमाण योग्य है?
आप यह भी
नहीं पूछते कि
इसको मानने का
क्या कारण है?
क्या
प्रयोजन है?
नहीं, कोई
निंदा करता है
तो आपका प्राण
एकदम खुल जाता
है, फूल
खिल जाते हैं,
सारी निंदा को
आत्मसात करने
के लिए मन
राजी हो जाता
है! और इतना ही
नहीं, जब
आप यही निंदा
दूसरे को सुनाते
हैं, क्योंकि
ज्यादा देर आप
रुक नहीं
सकते। घड़ी, आधा घड़ी
बहुत है। आप भागेंगे
किसी को बताने
को। क्योंकि
निंदा का रस
ही ऐसा है। वह हिंसा
है। और अहिंसक
दिखाई पड़ने
वाली हिंसा
है। किसी को
छुरा मारो
अदालत में, पकड़े जाओगे।
लेकिन निंदा
मारो, तो
कोई पकड़ने
वाला नहीं है।
कोई कारण नहीं
है, कोई
झंझट नहीं है।
हिंसा भी हो
जाती है साध्य,
रस भी आ
जाता है तोड्ने
का, और कोई
नुकसान भी
कहीं अपने लिए
होता नहीं। भागोगे
जल्दी। और
खयाल करना, कि जितनी निंदा
पहले आदमी ने
की थी, उससे
दुगुनी करके
तुम दूसरे को
सुना रहे हो।
अगर उसने पचास
कहा था, तो
तुमने सौ
संख्या कर ली
है। तुम्हें
खयाल भी नहीं
आएगा कि तुमने
कब यह सौ कर ली
है। निंदा का
रस इतना गहरा
है कि आदमी
उसे बढ़ाए
चला जाता है।
लेकिन
कोई तुमसे
प्रशंसा करे
किसी की, तुमसे नहीं
सहा जाता फिर,
तुम्हारा
हृदय बिलकुल
बंद हो जाता
है, द्वार—दरवाजे
सख्ती से बंद
हो जाते हैं।
और तुम जानते
हो कि यह बात
गलत है, यह
प्रशंसा हो
नहीं सकती, यह आदमी इस
योग्य हो नहीं
सकता। तुम
तर्क करोगे, तुम दलील
करोगे, तुम
सब तरह के
उपाय करोगे, इसके पहले
कि तुम मानो
कि यह सच है।
और तुम जरूर
कुछ न कुछ खोज लोगे,
जिससे यह
सिद्ध हो जाए
कि यह सच नहीं
है। और तुम
आश्वस्त हो
जाओगे कि नहीं,
यह बात सच
नहीं थी। और
यह कहने तुम
किसी से भी न
जाओगे, कि
यह प्रशंसा की
बात तुम किसी
से कहो। यह
तुम्हारा
जीवन के प्रति
असम्मान है और
मृत्यु के
प्रति
तुम्हारा
सम्मान है।
अखबार
में अगर कुछ
हिंसा न हुई
हो, कहीं
कोई आगजनी न
हुई हो, कहीं
कोई लूटपाट न
हुई हो, कोई
डाका न पड़ा हो,
कोई युद्ध न
हुआ हो, कहीं
बम न गिरे हों,
तो तुम
अखबार ऐसा पटक
कर कहते हो कि
आज तो कोई खबर
ही नहीं है!
क्या तुम इसकी
प्रतीक्षा कर
रहे थे? क्या
तुम सुबह—सुबह
उठ कर यही
अपेक्षा कर
रहे थे कि
कहीं यह हो? कोई समाचार
ही नहीं है।
तुम्हें लगता
है कि अखबार
में जो दो आने
खर्च किए, वे
व्यर्थ गए।
तुम्हारे दो
आने के पीछे
तुम क्या चाह
रहे थे, इसका
तुमने कुछ
सोच—विचार
किया? तुम्हारे
दो आने की
सार्थकता का
कितना मूल्य तुम
लेना चाहते हो
जगत से?
अखबार
भी तुम्हारे
लिए ही छपते
हैं। इसलिए अखबार
वाले भी अच्छी
खबर नहीं
छापते। उसे
कोई पढ़ने वाला
नहीं है, उसमें कोई सेन्सेशन
नहीं है, उसमें
कोई उत्तेजना
नहीं है।
अखबार वाले भी
वही छापते हैं,
जो तुम
चाहते हो।
वहीं खोजते
हैं, जो
तुम चाहते हो।
दुनिया में जो
भी कचरा और गंदा
और व्यर्थ कुछ
हो, उस
सबको इकट्ठा
कर लाते हैं।
तुम
प्रफुल्लित होते
हो सुबह से, तुम्हारा
हृदय बडा
आनंदित होता
है। तुम अखबार
से जो इकट्ठा
कर लेते हो, दिन भर फिर
उसका प्रचार
करते हो।
तुम्हारा ज्ञान
अखबार से
ज्यादा नहीं
है, फिर
तुम उसी को
दोहराते हो
पर कभी
यह खयाल किया
कि तुम्हारा
रस क्या है? लोग डिटेक्टिव
कहानियां
पढ़ते हैं।
क्यों? क्यों
जासूसी
उपन्यास पढ़ते
हैं? क्यों
जा कर हत्या
और युद्ध की
फिल्में
देखते हैं? अगर रास्ते
पर दो आदमी लड़
रहे हों, तो
तुम हजार काम
रोक कर खड़े हो
कर देखोगे।
हो सकता है
तुम्हारी मां
मर रही हो और
तुम दवा लेने
जा रहे हो।
लेकिन फिर
तुम्हारे पैर
आगे न बढ़ेंगे।
तुम कहोगे कि
मां तो थोड़ी
देर रुक भी
सकती है, ऐसी
कोई जल्दी
नहीं है। बाकी
यह जो दो आदमी
लड़ रहे हैं, पता नहीं, क्या से
क्या हो जाए? और अगर दो
आदमी लड़ते
रहें और कुछ
से कुछ न हो, तो थोड़ी देर
में तुम वहां
से निराश हटते
हो कि कुछ भी न
हुआ।
इसलिए
मैं कह रहा
हूं इसे तुम
निरीक्षण
करना। इससे
तुम्हें पता
चलेगा कि तुम्हारा
कोण क्या है
जीवन को देखने
का? तुम
चाहते क्या हो?
तुम्हारी
क्या है
मनोदशा? इसको
तुम पहचानना
और तब इसे
बदलना। तब
देखना जहां—जहां
तुम्हें लगे
कि मृत्यु, हिंसा और
विध्वंस के
प्रति
तुम्हारा रस
है, उसे
हटाना। और
जीवन के प्रति
बढ़ाना। अच्छा
हो कि जब कली
फूल बन रही हो,
तब तुम रुक
जाना। घड़ी भर
वहां बैठ कर
ध्यान कर लेना
उस फूल बनती
कली पर, क्योंकि
वहां जीवन खिल
रहा है। अच्छा
हो कि कोई
बच्चा जहां
खेल रहा हो, हंस रहा हो, नाच रहा हो, वहां घड़ी भर
तुम रुक जाना।
दो
आदमी छुरा ले
कर लड़ रहे हों, वहां
रुकने से क्या
प्रयोजन है? और तुम्हें
शायद पता न हो
और तुमने कभी
सोचा भी न हो
कि वे दो आदमी
जो छुरा मार
रहे हैं
एक—दूसरे को, उसमें
तुम्हारा हाथ
हो सकता है।
क्योंकि तुम ध्यान
देते हो। अगर
भीड़ इकट्ठी न
हो तो लड़ने वालों
का रस भी चला जाता
है। अगर कोई
देखने न आए, तो लड़ने
वाले भी सोचते
हैं कि बेकार
है; फिर
देखेंगे, फिर
कभी। जब भीड़
इकट्ठी हो
जाती है तो
लड़ने वालों को
भी रस आ जाता
है। जितनी भीड़
बढ़ती जाती है,
उतना उनका
जोश गरम हो
जाता है, उतना
अहंकार और
प्रतिष्ठा का
सवाल हो जाता
है।
इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि तुम
खड़े थे तो तुम
भागीदार नहीं
थे, तुम्हारी
आंखों ने भी
हिंसा में भाग
लिया। और वह
जो छुरा भोंका
गया है, अगर
दुनिया में
कोई सच में
अनूठी अदालत
हो, तो
उसमें छुरा
मारने वाला ही
नहीं, तुम
भी पकड़े
जाओगे, क्योंकि
तुम भी वहां
खड़े थे। तुम
क्यों खड़े थे?
तुम्हारे
खड़े होने से
सहारा मिल
सकता है। तुम्हारे
खड़े होने से
उत्तेजना मिल
सकती है। तुम्हारे
खड़े होने से
वह हो सकता है,
जो न हुआ
होता।
पर
अपनी
उत्सुकता को
खोजो, और
अपनी
उत्सुकता को
जीवन की तरफ
ले जाओ। और जहां
भी तुम्हें
जीवन दिखाई पडे, वहां
तुम सम्मान से
भर जाना। वहां
तुम अहोभाव से
भर जाना। और तुमसे
जीवन के लिए
जो कुछ बन सके,
तुम करना।
अगर
ऐसा तुम्हारा
भाव हो तो तुम
अचानक पाओगे, तुम्हारी
हजार चिंताएं
खो गईं, क्योंकि
वे तुम्हारी
रुग्ण—वृत्ति
से पैदा होती
हैं।
तुम्हारे
हजार रोग खो
गए, क्योंकि
तुम्हारे रोग,
तुम
विध्वंस की भावना
से भरते थे।
तुम्हारे
बहुत से घाव
मिट गए, क्योंकि
उन घावों को
तुम दूसरे को
दुख पहुंचा—पहुंचा
कर खुद भी
अपने को दुख
पहुंचाते थे
और हरा करते
थे।
इस जगत
में केवल वही
आदमी आनंद को
उपलब्ध हो सकता
है, जो
अपनी तरफ से, जहां भी आनंद
घटित होता हो,
उस आनंद से
आनंदित होता
है।
लेकिन
जब तुम किसी
को सुखी देखते
हो, तो
तुम दुखी होते
हो। तुम्हारी
पूरी चिंता यह
हो जाती है कि
इस व्यक्ति को
दुखी कैसे
किया जाए। जान
कर शायद तुम
ऐसा न भी करते
हो, लेकिन
अनजाने यह
चलता है कि
तुम किसी को
सुखी नहीं देख
पाते। जब तुम
किसी को दुखी
देखते हो, तब
तुम्हारे पैरों
में थिरकन आ
जाती है। तब
तुम बड़ी
सहानुभूति
प्रकट करते
हो। और शायद
तुम सोचते हो
कि तुम
दुखियों के
बड़े साथी हो, क्योंकि
कितनी
सहानुभूति
प्रकट करते
हो। लेकिन एक
बात ध्यान
रखना कि अगर
तुम दूसरे के
सुख में सुखी
नहीं होते, तो तुम्हारा
दूसरे के दुख
में दुखी होना
झूठा है। यह
हो ही नहीं
सकता। जब तुम
दूसरे के सुख
में सुखी नहीं
होते, तो
तुम दूसरे के
दुख में दुखी
नहीं हो सकते।
जब तुम
दूसरे के सुख
में दुखी होते
हो, तो
खोज करना अपने
भीतर, तुम
दूसरे के दुख
में जरूर सुखी
होते होंगे।
क्योंकि यह तो
सीधा गणित है।
इस गणित से
विपरीत नहीं
होता।
तुम्हारी
सहानुभूति
दूसरे
के लिए नहीं
है, तुम्हारी
सहानुभूति
में तुम मजा
लेते हो। दूसरा
नीचे पड़ गया
है आज, उसका
पैर छिलके से
फिसल गया है
और जमीन पर
चारों खाने
चित्त पड़ा है।
तुम्हारा
चित्त बड़ा प्रसन्न
है कि तुम
नहीं गिरे, कोई और गिर
गया है। अब
तुम बड़ी
शिष्टता और
सभ्यता दिखला
रहे हो, बड़ी
सहानुभूति—
उठा कर झाडू
रहे हो, उस
आदमी के
वस्त्रों को।
लेकिन
तुम्हारा हृदय
प्रसन्न हो
रहा है कि तुम
नहीं गिरे, और यह पड़ोसी
गिर गया।
कितनी दफा
तुमने इसे गिराना
चाहा था, आज
केले के छिलके
ने वह काम कर
दिया है। तुम
जब किसी के दुख
में दुख प्रकट
करने जाते हो,
तब जरा अपने
भीतर देखना कि
तुम सुखी तो
नहीं हो रहे
हो?
मैं एक
घर में रहता
था। उस घर की
गृहिणी बड़ी तलाश
में रहती थी
कि कब, कौन,
कहां मर गया!
न भी हो पहचान,
तो भी वह गृहिणी
संवेदना
प्रकट करने
जाती थी! और जब
भी मैंने उस
गृहिणी को
संवेदना
प्रकट करते
जाते देखा, तो उसकी चाल
का मजा ही और
था! मैंने
पूछा भी कि मामला
क्या है? कोई
मर जाता है, कुछ हो जाता
है, तो तू
इतनी क्यों
प्रसन्न हो कर
जाती है? उसने
कहा कि दुख
में तो साथ
देना ही
चाहिए। मैंने
कहा कि तेरी
आंखों से दुख
का कोई पता
नहीं चलता, तेरी चाल से
कुछ पता नहीं
चलता। मुझे तो
ऐसा लगता है
कि तू
प्रतीक्षा
में थी कि कब
कोई मरे। तेरी
जल्दी, तेरा
रस, यह सब
शक पैदा करते
हैं।
आप
अपने पर ध्यान
करना। जब आप
किसी के दुख
में दुख प्रकट
कर रहे हों, एक क्षण आँख
बंद करके भीतर
देखना कि रस
तो नहीं आ रहा
है। आपको
अच्छा तो नहीं
लग रहा है, मजा
तो नहीं ले
रहे हैं
सहानुभूति
में। अगर मजा
ले रहे हैं, तो इस मजे को
आप समझना कि
रोग है। और जब
कोई सुखी
दिखाई पड़े, तो क्या
आपको ईर्ष्या पकड़ती है? क्या यह
होता है कि
दूसरा आदमी
सुखी है, तो
आपको कष्ट
होता है? अगर
कष्ट होता है,
तो आपके मन
में जीवन का
सम्मान नहीं
है।
जीवन
कहीं भी खिलता
हो और खुश
होता हो, आपको खुश
होना चाहिए।
और यह
मैं इसलिए
नहीं कह रहा
हूं कि इससे
दूसरों को लाभ
होगा, यह
मैं इसलिए कह
रहा हूं कि
इससे तुम रोग
से मुक्त हो
जाओगे।
तुम्हारे घाव
मिट जाएंगे। तुम
अपने लिए दुख
पैदा करना बंद
कर
दोगे।
क्योंकि जो
दूसरों के लिए
दुख पैदा करता
है, वह
अपने ही लिए
दुख पैदा कर
रहा है; उसे
इसका पता नहीं
है। जो दूसरे
के लिए सुख पैदा
करता है, वह
अपने लिए बड़े
सुख का आयोजन
कर रहा है।
अगर
तुम दुखी हो
तो तुम
जिम्मेवार
हो। और यह जिम्मेवारी
तुम्हारी तभी
तुम्हारे
खयाल में आनी
शुरू होगी।
क्योंकि हर
आदमी अपने को
तो सुखी करना
ही चाहता है।
ऐसा आदमी
खोजना कठिन है, जो अपने
को सुखी नहीं
करना चाहता।
और बड़े मजे की
बात है कि
पृथ्वी पर चार
अरब आदमी हैं,
सभी आदमी
अपने को सुखी
करना चाहते
हैं और सभी आदमी
दुखी हैं!
जरूर कहीं कुछ
भूल हो रही
है। और भूल
कुछ बड़ी है और
बुनियादी है।
नहीं तो चार अरब
आदमी एक ही
भूल को कैसे
दोहराते
रहेंगे? और
सभी सुखी होना
चाहते हैं और
कोई सुखी नहीं
है!
भूल यह
हो रही है कि
आप खुद तो
सुखी होना
चाहते हैं, लेकिन
दूसरे को दुखी
करना चाहते
हैं। और जो दूसरे
को दुखी करना
चाहता है, वह
कभी सुखी नहीं
हो सकता। भूल
यह हो रही है
कि आप खुद तो
सुखी होना
चाहते हैं, लेकिन किसी
को सुखी नहीं
देखना चाहते
हैं। और जो
किसी को सुखी
नहीं देख सकता,
वह दुखी
रहेगा, वह
कभी सुखी नहीं
हो सकता।
जो हम
दूसरों के लिए
चाहते हैं, वह हमें
उपलब्ध हो
जाता है। जो
हम दूसरों के
लिए करते हैं,
वह
प्रतिध्वनित
हो कर हम पर
बरस जाता है।
यह जगत एक गज
है। यहां सब
जो तुम लुटाते
हो, तुम पर
ही बरस जाता
है। तुम
गालियां फेंकते
हो, गालियां
तुम पर लौट
आती हैं। तुम
सुख लुटाते हो,
सुख तुम पर
लौट आता है।
यह जगत
तुम्हें वही
दे देता है, तुम जो इसे
देने को तत्पर
हो।
अगर
तुमने जीवन का
सम्मान किया
है, तो
यह सारा जगत, यह सारा
अस्तित्व, तुम्हारे
प्रति सम्मान
से भर जाएगा।
अगर तुमने
जीवन का अपमान
किया है, तो
यह सारा
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति अपमान से
भर जाएगा।
और तब
एक बहुत कठिन
समस्या पैदा
हो जाती है। अगर
तुम जगत का
अपमान करते हो, जीवन का
अपमान करते हो,
तो जगत और
जीवन
तुम्हारा
अपमान करता
है। और जब
तुम्हारा
अपमान जगत और
जीवन करता है,
तो तुम
सोचते हो कि
ठीक ही था
मेरा
दृष्टिकोण, यह जगत
अपमान के ही
योग्य है। अब
तुम एक चक्कर में
पड़ गए, जिसके
बाहर आना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। अब तो तुम्हें
लगेगा कि
तुम्हारा यह
खयाल ठीक ही
था, कि यह
जगत एक दुख
है। यह कोई
उत्सव नहीं है,
यह एक रुदन
है। अब तो
तुम्हें पक्का
ही हो जाएगा।
क्योंकि यह
जगत तुम्हें दुख
देगा। और
तुम्हें यह
खयाल भी न
आएगा कि यह दुख
तुम्हारा ही
बोया हुआ है, जो तुम्हारी
तरफ वापस लौट
रहा है।
अगर
कर्म के
सिद्धांत का
कोई मौलिक
अर्थ है, तो यह है कि
तुम जो करते
हो, वह तुम
पर ही लौट आता
है। तुम जो भी
करते हो, वही
तुम्हें मिल
जाता है।
तुम्हारा
किया हुआ ही
तुम्हारी
संपदा बन जाती
है। वही संपदा
फिर तुम्हें ढोनी पडती
है। वह संपदा
दुख की है, तो
तुम समझना कि
तुमने जो किया
है, वह दुख
लाने वाला था।
वह सुख की है, तो तुम
समझना कि
तुमने जो किया
है, वह सुख
लाने वाला था।
ये
सूत्र महा—सुख
के सूत्र हैं।
'समग्र
जीवन का
सम्मान करो,
जो तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।
अपने आसपास के
निरंतर बदलने
वाले और
चलायमान जीवन
पर ध्यान दो, क्योंकि
यह मानवों के
हृदय का ही
बना है। और ज्यों—ज्यों
तुम उसकी
बनावट और उसका
आशय समझोगे, त्यों—त्यों
क्रमश: तुम
जीवन का विशालतर
शब्द
भी पढ़ और समझ
सकोगे।’
आठवां
सूत्र, 'समझपूर्वक मानव हृदय
में झांकना
सीखो।’
'समझपूर्वक मानव हृदय
में झांकना
सीखो।
मनुष्यों के
हृदय का
अध्ययन करो, ताकि तुम
जान
सको कि
वह जगत कैसा
है, जिसमें
तुम रहते हो
और जिसके तुम
एक अंश बन
जाना चाहते
हो।’
समझपूर्वक मानव
हृदय में
झांकना सीखो—
हम झांकते
ही नहीं, समझ की तो
बात ही दूर
है। नासमझी तक
से नहीं झांकते।
दूसरे के हृदय
में झांकने की
हम झंझट नहीं
लेते। सच तो
यह है कि हम
बिना दूसरे को
समझे, दूसरे
के संबंध में
धारणाएं बना
लेते हैं। हम
अपनी धारणाओं
से ही चलते हैं।
हम दूसरे के
हृदय में नहीं
झांकते, हम पहले से
ही पक्का कर
लेते हैं, कौन
कैसा है! फिर
हम जो पक्का
कर लेते हैं, उसी के
अनुकूल हम
तथ्य भी खोज
लेते हैं।
हमने हजार
तरकीबें बना
ली हैं, जिससे
हम मानव हृदय
में झांकने से
बच जाते हैं।
वह कष्ट हमें
नहीं उठाना
पड़ता, वह
श्रम नहीं उठाना
पड़ता।
आप
किसी के पड़ोस
में बैठे हैं।
आप उससे पूछते
हैं कि कौन
हैं आप? क्या है
धर्म आपका?
क्या है जाति?
नाम— धाम? पता—ठिकाना?
आप यह इसलिए
पूछते हैं, ताकि उस
आदमी में
झांकने से बच
सकें। अगर वह
आदमी कह दे कि
मैं ब्राह्मण
हूं और आप भी
ब्राह्मण हैं,
तो आप
आश्वस्त हुए, अब झांकने
की जरूरत नहीं
है। आप
ब्राह्मण के संबंध
में जानते ही
हैं। लेकिन
कोई ब्राह्मण
दूसरे
ब्राह्मण जैसा
ब्राह्मण
नहीं है। हर
आदमी अलग है।
अगर वह
आदमी कह दे कि
मैं मुसलमान
हूं तो आप पक्के
हो गए कि अब
इससे आगे
बातचीत बढ़ाना
ठीक नहीं है।
आदमी मुसलमान
है। और मुसलमान
बुरा है हिंदू
के लिए। हिंदू
है तो मुसलमान
के लिए बुरा
है। बात तय हो
गई। अब इस
निजी एक व्यक्ति
में झांकने की
कोई जरूरत
नहीं है। हमने
लेबल चिपका
दिया है कि यह
मुसलमान है।
हमारे भीतर हृदय
ने कह दिया है
कि आदमी बुरा
है।
अब आगे
संबंध बढ़ाना
ठीक नहीं है।
अगर उस आदमी ने
कहा कि मैं
कम्युनिस्ट
हूं तब हम सरक कर
बैठ गए कि अब
जरा दूर ही
बैठना उचित
है।
हम
व्यक्तियों
में झांकने से
बचते हैं, हम लेबल
लगा देते हैं।
कोई दो
मुसलमान एक से
होते हैं? कि कोई दो
हिंदू एक से
होते हैं? कि
कोई दो
कम्युनिस्ट
एक से होते
हैं? एक
आदमी तो अकेला
अपने ही जैसा
होता है, दूसरा
उसके जैसा कोई
होता ही नहीं।
लेकिन सुविधा
इसमें है।
क्योंकि अगर
हम एक—एक को
अद्वितीय मान
लें, तो
एक—एक का
अध्ययन करना
पड़ेगा। इतनी
झंझट में कौन
पड़े? तो हम
उसका धंधा पूछ
लेते हैं, व्यवसाय
पूछ लेते हैं,
फिर हम
निश्चिंत हो
जाते हैं।
उससे हम तय कर
लेते हैं।
ऊपर—ऊपर से दो
मिनट में तय
हो जाता है कि दूसरा
आदमी कौन है।
पूरी
जिंदगी भी
अध्ययन करके
मुश्किल है
दूसरे आदमी को
जानना कि वह
क्या है! हम दो
मिनट में तय कर
लेते हैं, उस हिसाब
से चलने लगते
हैं! फिर हम
इमेज बना लेते
हैं, प्रतिमाएं
बना लेते हैं।
ईं वे भी
तरकीबें हैं
हमारी।
आपके
मन में आपकी
पत्नी की एक
प्रतिमा है।
आपकी पत्नी के
मन में आपके
बाबत, अपने
पति के बाबत
एक प्रतिमा
है। बस उसी
प्रतिमा से
काम चलता है!
सीधे आदमी से
कोई संबंध
नहीं है!
पत्नी जानती
है कि पति को
क्या करना
चाहिए। अगर
पति वही करता
है तो ठीक है, अगर वही
नहीं करता है
तो गलत है।
लेकिन पति क्या
है, इसके
समझने की उसे
कोई चिंता
नहीं है।
सिद्धांत
पहले से तय
हैं। उन सिद्धांतो
पर, आदमियों
को हम ढांचे में
बिठा देते
हैं! ढांचे
आदमियों के
लिए नहीं हैं,
आदमी
ढांचों के लिए
मालूम पड़ते
हैं! तो वह यह नहीं
देखती कि यह
जो पति सामने
खड़ा है, यह
क्या है? पति
की एक धारणा
है, उस
धारणा से वह
जीवित है! अगर
वह धारणा के
अनुकूल है तो
ठीक है, अगर
प्रतिकूल है
तो ठीक नहीं
है!
लेकिन
कोई भी आदमी
किसी धारणा के
अनुकूल, प्रतिकूल
नहीं होता।
प्रत्येक
आदमी अपने ही जैसा
होता है। सभी
धारणाएं ओछी
पड़ जाती हैं।
सभी धारणाएं रेडीमेड
कपड़ों की तरह
होती हैं। वह
आपके लिए नहीं
बनाई गई होती
हैं। सामान्य
हिसाब से बनाई
गई होती हैं, औसत होती
हैं। और हर
आदमी औसत से
भिन्न होता
है। कोई आदमी
औसत में नहीं
होता।
जैसे, हो सकता
है आप अपने
गांव की ऊंचाई
नाप लें, सब
आदमी की ऊंचाई
नाप ली जाए—
छोटे बच्चे भी
हैं, बूढ़े
भी हैं, लंबे
लोग भी हैं, ठिगने लोग
भी हैं, पांच
सौ आदमी
हैं—पांच सौ
की ऊंचाई नाप
कर पांच सौ का भाग
दे दिया जाए, तो जो आएगा, वह औसत
ऊंचाई होगी।
फिर आप उस औसत
ऊंचाई के आदमी
को खोजने जाएं,
गांव में एक
आदमी नहीं
मिलेगा, जो
उस औसत ऊंचाई
का हो।
क्योंकि कोई
औसत होता ही
नहीं। औसत तो
एक झूठ है। हर
आदमी अपनी ही
ऊंचाई का होता
है। औसत जैसी
कोई चीज नहीं
होती। एवरेज
गणित का हिसाब
है, जिंदगी
का नहीं है।
तो हम
सिद्धांत, प्रतिमाएं
निर्मित करके
उनमें जीते
रहते हैं।
सीधा कोई
देखता ही नहीं,
हृदय में
कोई झांकता
नहीं! हृदय
में क्या हो
रहा होगा, इससे
किसी को
प्रयोजन भी
नहीं! वह जरा
खतरनाक मामला
भी है।
क्योंकि हृदय
में झांको तो
आप उलझन में
पड़ सकते हो।
इसलिए दूर
बाहर खडे
रहना अच्छा
है। ज्यादा
गहराई में
किसी के भी उतरना
खतरनाक है।
क्योंकि तब
दूसरे की
गहराई आपको भी
बदलेगी। तब
इतनी आसानी से
आप निपटारा न
कर सकेंगे।
आपका
नौकर है। आप
उसके हृदय में
कैसे झांक सकते
हैं? झाकेंगे तो झंझट
आएगी। झांकेंगे
तो फिर उसके
साथ नौकर जैसा
व्यवहार करना
मुश्किल हो
जाएगा।
क्योंकि तब वह
एक मानव हृदय
है। उसके साथ
नौकर जैसा
व्यवहार रखना
है, तो फिर
आपको हृदय में
नहीं झांकना
चाहिए।
कभी
आपने खयाल
किया है कि आप
कमरे में बैठे
अखबार पढ़ रहे
हैं, अगर
कोई अजनबी कमरे
में आ जाए तो
आप उसकी तरफ
उठ कर खड़े हो
जाएंगे, बैठने
को कहेंगे।
कोई परिचित आ
जाए, तो आप
उस पर ध्यान
देंगे। नौकर
कमरे में आ कर
बुहारी लगा
जाएगा, आपको
पता ही नहीं
चलेगा कि कोई
आया और गया!
जैसे नौकर कोई
मनुष्य नहीं
है, एक
यंत्र है। काम
फंक्शनल
है, उसका
काम से संबंध
है। उसके हृदय
में झांकना
खतरनाक है।
क्योंकि उसकी
मां बीमार है,
उसके बच्चे
को शिक्षा
चाहिए। उसके
हृदय में भी
वही सब घटित
होता है, जो
किसी मनुष्य
के हृदय में
घटित होता है।
अगर आप
उसके हृदय में
झांकते
हैं, तो
आप झंझट में
पड़ेंगे। आपको
कुछ करना पडेगा।
तब आप भी सोच
में पड़ जाएंगे
कि पचास रुपए
वेतन इस आदमी
को हम देते
हैं, क्या
होता होगा? इसकी मां है
की, इसका
बच्चा है, इसकी
पत्नी है, घर
है, पचास
रुपए में यह
कैसे जीता
होगा? अगर इसके
ह्रदय में झांकेंगे
तो आपको किसी
न किसी दिन इस आदमी
की जगह अपने को
रख कर सोचना
पड़ेगा कि अगर
मुझे पचास
रुपए मिलें, तो क्या
होगा?
इससे
उचित है कि
भीतर हृदय में
न उतरा जाए, दूर रहा
जाए। इतना ही
समझा जाए कि
यह आदमी काम
करता है, पचास
रुपए काम के
दिए जाते हैं।
इससे ज्यादा इस
आदमी के संबंध
में समझदारी
खतरनाक है।
इसलिए हमने
दीवालें खड़ी कर
ली हैं। हम
किसी के हृदय
में नहीं झांकते, हम दूर—दूर
रहते हैं। हम
सब एक—दूसरे
से अछूत की
तरह रहते हैं।
यह
सूत्र कहता है, 'समझपूर्वक मानव हृदय
में झांकना
सीखो।’
क्योंकि
जब तक तुम
मानव के हृदय
में झांकना न सीखोगे, तब तक तुम
पिघलोगे
भी नहीं, गलोगे भी
नहीं, तब
तक तुम मिटोगे
भी नहीं, तब
तक तुम्हारे
अहंकार से
छुटकारा बहुत
मुश्किल है।
तुम दूसरे के
हृदय में बहो,
तो धीरे—
धीरे
तुम्हारा
अहंकार अपने
आप गल जाएगा।
क्योंकि तुम
पाओगे कि तुम्हारा
जैसा ही हृदय
दूसरों में भी
धड़कता
है। तब तुम
पाओगे कि ठीक
तुम ही, दूसरे
के भीतर भी बैठे
हुए हो। तब
तुम्हें अपना
जो दंभ है, वह
व्यर्थ दिखाई
पड़ने लगेगा।
तब तुम्हें यह
भी दिखाई पड़ना
साफ हो जाएगा,
यह भी दिखाई
पडने
लगेगा कि
व्यक्ति—व्यक्ति
के जो फासले
हैं, वह
बहुत ऊपरी
हैं। भीतर
शायद एक ही
महा—हृदय धड़क
रहा है। अगर
हृदय में
झांकना तुम
सीख लो तो हृदय
की जो शुद्धतम
गहराई है, वह
तुम्हें
दिखाई पड़नी
शुरू हो
जाएगी। तब तुम
पाओगे कि एक
ही हृदय धड़क
रहा है बहुत
हृदयों में।
फेफड़े बहुत
होंगे, हृदय
शायद एक ही
है। और यह
प्रतीति
तुम्हें परमात्मा
की तरफ ले
जाने में एक
बहुत बड़ा कदम
सिद्ध होगी।
'मनुष्यों
के हृदय का
अध्ययन करो, ताकि तुम
जान सको कि यह
जगत कैसा है, जिसमें तुम
रहते हो और
जिसके तुम एक
अंश बन जाना
चाहते हो। बुद्धि
निष्पक्ष
होती है। न
कोई तुम्हारा
शत्रु है और न
कोई मित्र।
सभी समान रूप
से तुम्हारे
शिक्षक हैं।
तुम्हारा
शत्रु एक
रहस्य बन जाता
है, जिसे
तुम्हें हल
करना है, चाहे
इस हल करने
में युगों का
समय लग जाए।
क्योंकि मानव
को समझना तो
है ही। तुम्हारा
मित्र
तुम्हारा ही
एक अंग बन
जाता है, तुम्हारा
ही एक विस्तृत
रूप हो जाता
है, जिसे
समझना कठिन
होता है।’
मनुष्यों
के हृदय का
अध्ययन अगर
करना है, तो निष्पक्ष
होना जरूरी है,
नहीं तो अध्ययन
न हो सकेगा।
अगर तुम्हारे
पक्ष पूर्व से
ही तय हैं, तो
तुम जो भी खोज
लोगे, वह
तुम्हारी ही
मान्यता का
पुन: आविष्कार
होगा, वह
तुम्हारी ही
धारणा की
पुनरुक्ति
होगी। तुम
अपने को ही
ठीक सिद्ध कर
लोगे। हम इसी
तरह जीते हैं।
हमारा पक्ष तो
पहले से तय
होता है, फिर
हम सत्य की
खोज करने
निकलते हैं। तो
यह सत्य की
खोज तो पहले
से ही झूठ हो
गई। अगर तुम्हारा
पक्ष पहले से
ही तय है, तो
बात ही व्यर्थ
हो गई।
राजस्थान
विश्वविद्यालय
में एक
अध्यापक हैं, वे
मृत—आत्माओं
और पुनर्जीवन
की खोज करते हैं।
तो कभी कोई
उन्हें मुझसे मिलने
लिवा
लाया था। तो
उन्होंने कहा
कि मैं
वैज्ञानिक रूप
से सिद्ध करना
चाहता हूं कि
पुनर्जन्म
होता है।
तो
मैंने उनको
कहा कि तुमने
मुझे आते से
ही मुश्किल
में डाल दिया।
क्योंकि तुम
कहते हो कि वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
करना चाहता
हूं कि पुनर्जन्म
होता है! इसका
एक मतलब तो यह
हुआ कि तुम तो
मान ही चुके
हो कि
पुनर्जन्म
होता है, और अब तुम
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
करना चाहते हो
कि पुनर्जन्म
होता है। तो
तुम्हारा
पक्ष तो पहले
से तय है।
उचित हो, अगर
तुम सच में ही
वैज्ञानिक
बुद्धि के हो,
तो तुम यह
कहो कि मैं
जानना चाहता
हूं
वैज्ञानिक
रूप से कि
पुनर्जन्म
होता है या
नहीं होता है।
तुम तो कहते
हो कि मैं सिद्ध
करना चाहता
हूं! तो इसका
अर्थ हुआ कि
यह तो तय ही है
तुम्हारे लिए
कि पुनर्जन्म
होता है! अब रह
गई बात
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
करने की, तो
वह तुम करके
दिखा दोगे।
क्योंकि तुम
वही घटनाएं
खोज लोगे, जो
सिद्ध करती
हैं, और वे
घटनाएं छोड़
दोगे, जो
सिद्ध नहीं
करतीं। तुम
मतलब की बातें
छांट लोगे, और गैर—मतलब
की छोड
दोगे। तब तो
आदमी कुछ भी
सिद्ध कर सकता
है।
एक
आदमी ने किताब
लिखी है, जिसमें
सिद्ध किया है
कि तेरह तारीख
अपशकुन है। और
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
किया है कि
तेरह तारीख अपशकुन
है। उसने क्या
किया है? उसने
तेरह तारीख को
दुनिया भर की
अदालतों में
जितने मुकदमे
चलते थे, वे
सब इकट्ठे कर
लिए हैं। तेरह
तारीख को
कितने लोगों
को फांसी लगती
है, वह
इकट्ठी कर ली
है। तेरह
तारीख को
कितने एक्सीडेंट
होते हैं, वे
इकट्ठे कर लिए
हैं। तेरह
तारीख को
कितने लोग
मरते हैं, वह
इकट्ठा कर
लिया है। तेरह
तारीख को जो
लोग पैदा होते
हैं, उनमें
से कितने लोग
बीमार रहते
हैं, वह
इकट्ठा कर
लिया है। उसने
सब इकट्ठा कर
लिया है
उपद्रव। उसने
एक भारी किताब
लिखी है। अगर आप
भी किताब पढ़ेंगे,
तो आप भी डर
जाएंगे कि
तेरह तारीख से
बचना चाहिए।
लेकिन
यह चौदह तारीख
के बाबत भी
इतने ही तथ्य उपलब्ध
हैं। और
पंद्रह के
बाबत भी इतने
ही उपलब्ध
हैं। लेकिन
उसने उसकी कोई
फिक्र नहीं की, बस तेरह
के उपलब्ध कर
लिए! और तेरह
को दुर्घटनाएं
ही नहीं होतीं,
सुघटनाएं भी होती हैं,
वह उसने छोड़
दीं! तेरह को असफलताएं
ही नहीं होतीं,
सफलताएं भी
होती हैं। और
तेरह को
मृत्यु ही नहीं
होती, जन्म
भी होते हैं।
तेरह को फांसी
ही नहीं लगती,
तेरह को
मुकदमे खारिज
भी होते हैं
और फासिया
छूटती भी हैं।
लेकिन वह उसने
छोड़ ही दी हैं!
और यही सब
चौदह को भी
होता है।
लेकिन किताब
पढ़ कर तो आप भी
थोड़े घबड़ा
जाएंगे, क्योंकि
इतने तथ्य
उसने इकट्ठे
किए हैं कि तेरहवीं
मंजिल से
कितने लोग गिर
कर मर जाते
हैं। बारहवीं
से भी मरते
हैं। कोई मरने
वाला तेरह और
चौदह, बारह
को खोजने जाता
है?
उसकी
किताब का यह
परिणाम हुआ कि
अमरीका में
होटलों में
तेरह नंबर की
मंजिल समाप्त
कर दी। अमरीका
की बड़ी होटलों
में आपको बारह
नंबर की मंजिल
मिलेगी, फिर सीधी
चौदह नंबर की!
क्योंकि तेरह
पर कोई रुकने
को राजी नहीं
होता कि कौन
झंझट ले, जब
तेरह में इतना
उपद्रव हो रहा
है! तेरह का आकड़ा
ही खराब है।
मकान लोग
बनाते हैं तो तेरहवें
नंबर की मंजिल
को छोड़ देते
हैं। नंबर
नहीं रखते
तेरह का। नहीं
तो कोई उसको
खरीदता ही
नहीं, वह
खाली रह जाता
है हिस्सा!
यह
विक्षिप्तता
पैदा हो सकती
है, अगर
पक्ष पहले से
तय है।
यह
सूत्र कहता है
कि अगर सच में
तुम मनुष्यों के
हृदय का
अध्ययन करना
चाहते हो, तो तुम
निष्पक्ष
रहना।
और
बुद्धि का
लक्षण
निष्पक्षता
है। अगर तुम बुद्धिमान
हो, तो
निष्पक्ष
होओगे। अगर
तुम
पक्षपातपूर्ण
हो तो तुममें
बुद्धि नहीं
है। बुद्धि का
अर्थ ही है कि
जानने के पहले
तय नहीं
करेंगे। जब तक
पूर्णता से
कोई बात सिद्ध
न हो जाए, तब
तक हम कोई
पक्ष न लेंगे,
तब तक हम
बीच में ही
खड़े रहेंगे।
हम इस पार या उस
पार कोई
निर्णय न
करेंगे।
बुद्धिमान
होना कठिन है, क्योंकि
उसके लिए
प्रतीक्षा
चाहिए और
धैर्य चाहिऐ।
बुद्धिहीन
होना बहुत
आसान है, उसमें
दिक्कत ही
नहीं है।
जल्दी से कहीं
भी सम्मिलित
हो जाता है
कोई आदमी। अगर
तुम निष्पक्ष
हो तो तुम्हें
खयाल करना
पड़ेगा कि न
कोई तुम्हारा
शत्रु है और न
कोई मित्र। सभी
समान रूप से
तुम्हारे
शिक्षक हैं।
यह
सूत्र बड़ा गजब
का है, 'सभी
समान रूप से
तुम्हारे
शिक्षक हैं।’
तुम्हारा
मित्र भी
तुम्हें कुछ
सिखा रहा है, तुम्हारा
शत्रु भी
तुम्हें कुछ
सिखा रहा है। और
कई बार मित्र
से भी ज्यादा
शत्रु सिखाता
है। बहुत बार
शत्रु से तुम
इतना सीख सकते
हो, जिसका
हिसाब नहीं।
लेकिन अगर
तुम्हारे मन
में यह खयाल
हो कि शत्रु
भी शिक्षक है
और मित्र भी, तब तुम
शत्रु के हृदय
में भी उतर
सकते हो। तब
शत्रु का हृदय
भी तुम्हारे
लिए बंद नहीं
होगा। तब
तुम्हारे लिए
जगत में कोई
चीज बंद नहीं
है, सभी
चीजें खुली
हैं, क्योंकि
तुम खुले हो।
'तुम्हारा
शत्रु एक
रहस्य बन जाता
है, जिसे
तुम्हें हल
करना है।’
आखिर
कोई तुम्हारा
शत्रु क्यों
है? हम
तो आमतौर से
तय कर लेते
हैं, क्योंकि
वह आदमी बुरा
है, इसलिए
शत्रु है। आप
अच्छे आदमी
हैं, वह
आदमी बुरा है,
इसलिए आपका
शत्रु है। और
यही वह भी
मानता है कि
वह अच्छा आदमी
है और आप बुरे
आदमी हैं, इसलिए
उसके शत्रु
हैं।
नहीं, अपने को
अच्छा मान कर,
दूसरे को
बुरा मान कर
आप हल नहीं कर
रहे हैं कुछ
भी। समझ भी
नहीं बढ़ रही
है आपकी। आप
वहीं खड़े हैं,
जहां आप सदा
से खड़े थे। वह
शत्रु है आपका,
तो समझने की
कोशिश करें कि
क्यों शत्रु
है? क्या
बात है कि वह
आपका शत्रु है?
उसकी
शत्रुता में
आपका होना भी
सम्मिलित है। आप
जिस ढंग के
हैं, वह
भी सम्मिलित
है। वह जिस
ढंग का है, वह
भी सम्मिलित
है। यह एक
रहस्य है।
यह
सूत्र कहता है, तुम्हारा
शत्रु एक
रहस्य बन जाता
है, एक मिस्ट्री,
जिसे
तुम्हें हल
करना है। इसे
तुम हल करो।
और यह तभी हल
हो सकेगा, जब
तुम निष्पक्ष
हो।
जीसस
ने मरते वक्त
सूली पर कहा है, क्षमा कर
देना इन सबको
जो मुझे सूली
पर चढ़ा रहे
हैं, क्योंकि
इन्हें पता ही
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं! हे प्रभु,
इन्हें
क्षमा कर
देना!
यह है
शत्रु के हृदय
में झांकना।
जीसस मर रहे हैं, सूली पर चढ़ाए जा
रहे हैं, फांसी
लगने के करीब
है, और
उनसे कहा जाता
है कि कोई
प्रार्थना
आखिरी
तुम्हें
परमात्मा से करनी
हो तो कर लो, क्योंकि
आखिरी क्षण आ
गया है। तो
क्या प्रार्थना
जीसस ने की? गजब की
प्रार्थना, मनुष्य—जाति
के इतिहास में
कभी किसी ने
इतनी महत्वपूर्ण
प्रार्थना
नहीं की। जीसस
ने प्रार्थना
की कि हे पिता,
एक ही बात
मुझे तुझसे
कहनी है, कि
इन सबको माफ
कर देना जो
मुझे सूली लगा
रहे हैं, क्योंकि
इन्हें पता ही
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं! ये
अज्ञान—वश कर
रहे हैं, ये
क्षमा योग्य
हैं। ये भूल
में कर रहे
हैं। ये सोचते
हैं कि मैं
इनका शत्रु
हूं इसलिए कर
रहे हैं। ये
सोचते हैं कि
मैं बुरा आदमी
हूं इसलिए कर
रहे हैं। ये
सोचते हैं कि
मैं नुकसान
पहुंचा रहा
हूं इसलिए कर
रहे हैं। बाकी
ये नासमझ हैं,
और इनको
मेरी फांसी के
लिए दंड मत
देना।
यह
शत्रु के हृदय
में झांकना
है। यह
निष्पक्ष भाव
है। नहीं तो
जो आपको सूली
लगा रहा है, उसके
क्ले लिए आप
ऐसी
प्रार्थना कर
सकते हैं? आप
तो प्रार्थना
करते कि इन
सबको जड़—मूल
से ही नष्ट कर देना,
नरक में डाल
देना।
और ऐसा
नहीं कि आप ही
ऐसा करते हैं, ऐसे ऋषि
तक हो गए हैं, उनको हम ऋषि
भी कहते है, जो अभिशाप
दे देते हैं!
अगर दुर्वासा
होते जीसस की
जगह, तो आप
सोच सकते हैं
कि क्या होता?
थोड़ी
कल्पना करिए—
सारा जगत नरक
में पड़ा होता!
हम ऐसे
व्यक्तियों
को भी ऋषि कह
देते हैं! उसका
जिम्मा
ऋषियों पर
नहीं है, हम पर है।
हमें समझ में
नहीं आ रहा है
कि हम क्या कर
रहे हैं। हम
कहते हैं कि
दुर्वासा ऋषि
ने अभिशाप दे
दिया। ऋषि और
अभिशाप दे
सकता है! तो
फिर आपमें और
ऋषि में फर्क
क्या है? और
अगर ऋषि
अभिशाप दे
सकता है, तो
आप क्यों
कंजूसी कर रहे
हैं? अभिशाप
दें और ऋषि हो
जाएं।
लेकिन
जो दुर्वासा
को ऋषि कह रहे
हैं, ये
अपने संबंध
में खबर दे
रहे हैं, दुर्वासा
के संबंध में
नहीं। यह अपने
संबंध में खबर
दे रहे हैं।
इनको
दुर्वासा तक
में ऋषि दिख जाता
है! उसका अर्थ
है, इनको
खयाल ही नहीं
है कि विध्वंस,
घृणा और
हिंसा, इनसे
ऋषित्व
का क्या संबंध
हो सकता है? निष्पक्ष
जिसका मन हो, शत्रु भी
उसे एक पहेली
है। चाहे इसे
हल करने में
युगों का समय
लग जाए, तो
भी कोई हर्ज
नहीं। जल्दी
मत करना, निष्पक्ष
रहना। जल्दी
के कारण पक्ष
मत बनाना, चाहे
कितना ही समय
लग जाए; मानव
को समझना तो
है ही।
'तुम्हारा
मित्र
तुम्हारा एक
अंग बन जाता
है, तुम्हारा
ही एक विस्तृत
रूप हो जाता
है, जिसे
समझना कठिन
होता है।’
शत्रु
को समझना कठिन
है, क्योंकि
वह एक पहेली
है। मित्र को
भी समझना कठिन
है, क्योंकि
वह भी एक
पहेली है!
शत्रु को
समझना कठिन है,
क्योंकि वह
बहुत दूर खड़ा
हो जाता है।
मित्र को
समझना कठिन है,
क्योंकि वह
बहुत पास आ
जाता है।
आप
अपने मित्रों
को भी नहीं
समझते। आप
फिक्र ही नहीं
करते कि किसी
को समझना है; कि मानव
हृदय एक किताब
है, जिसे
खोलना है और पढ़ना है; कि मानव
हृदय एक सितार
है, जिसे
सीखना है और
बजाना है; कि
मानव हृदय एक
बीज है, जिसे
भूमि देनी है,
प्रकाश और
पानी देना है
और अंकुरित
करना है!
नहीं, मानव
हृदय के संबंध
में हम कुछ
सोचते ही
नहीं।
ये दो
सूत्र खयाल
रखें, 'समग्र
जीवन का
सम्मान करो, जो तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।
और समझपूर्वक
मानव हृदय में
झांकना सीखो।’
ये
तुम्हें परम
हृदय, परमात्मा
के हृदय तक ले
चलने वाली सीढ़ियां
बन सकते हैं।
आज इतना
ही।
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