दिनांक, 6
जून, 1964 सुबह;
मुछाला
महावीर,
राणकपुर
सत्य
का दर्शन
कितनी सरल बात
है,
लेकिन
सरलतम को ही
देख पाना सदा
कठिनतम रहा है।
यह
इसलिए कि जो
सरल है और
निकट है, वह
सरल और निकट
होने के कारण
ही भूल जाता
है। हम दूर
में उलझे रहते
हैं और इसलिए
निकट दृष्टि
से ओझल हो जाता
है, और हम ’पर'
में व्यस्त,
ऑकुपाइड
होते हैं, इसलिए
’स्व’ की
विस्मृति हो
जाती है।
नाटक
में क्या ऐसा
नहीं होता है
कि देखने वाले
दृश्यों में
इतने खो जाते
हैं कि स्वयं
को भूल ही
जाएं? ऐसा ही
जीवन में भी
हुआ है। वह भी
एक बड़ी नाटयशाला
है और हमने
दृश्यों की
तल्लीनता में
द्रष्टा को, स्वयं को खो
ही दिया है।
सत्य
को,
स्वयं को
पाने को कुछ
और नहीं करना
है, बस
दृश्यों से, नाटक से
जागना भर है।
मैं
देखता हूं कि
आपके आस—पास
निरंतर एक
अशांति का
घेरा बना रहता
है। आपके उठते—बैठते, चलते—सोते
वह प्रकट होता
रहता है।
वह आपकी प्रत्येक छोटी—बड़ी प्रक्रिया में उपस्थित होता है। क्या आप भी यह अनुभव नहीं करते हैं? क्या आपने कभी देखा है कि आप जो भी कर रहे हैं, सब अशांति में कर रहे हैं? इस अशांति के घेरे को तोड़ना है और एक शांति का घेरा, जोन ऑफ साइलेंस पैदा करना है। उस भूमिका में ही आप उस आनंद को और उस संगीत को अनुभव कर सकेंगे जो कि निरंतर आपके ही भीतर मौजूद है, पर अपने ही आतंरिक कोलाहल के कारण जिसे सुन पाना और जी पाना संभव नहीं हो रहा है।
वह आपकी प्रत्येक छोटी—बड़ी प्रक्रिया में उपस्थित होता है। क्या आप भी यह अनुभव नहीं करते हैं? क्या आपने कभी देखा है कि आप जो भी कर रहे हैं, सब अशांति में कर रहे हैं? इस अशांति के घेरे को तोड़ना है और एक शांति का घेरा, जोन ऑफ साइलेंस पैदा करना है। उस भूमिका में ही आप उस आनंद को और उस संगीत को अनुभव कर सकेंगे जो कि निरंतर आपके ही भीतर मौजूद है, पर अपने ही आतंरिक कोलाहल के कारण जिसे सुन पाना और जी पाना संभव नहीं हो रहा है।
मित्र!
बाहर का
कोलाहल कोई
बाधा, डिस्टरबेंस
नहीं है। हम भीतर
शांत हों तो
वह है ही नहीं।
हम भीतर अशांत
हैं, यही
एकमात्र बाधा
है।
सुबह
कोई मुझसे
पूछता था.’ भीतर
शांत होने के
लिए क्या करें?' मैंने
कहा’ फूलों को
देखो, उनके
खिलने को देखो।
पहाड़ के झरनों
को देखो और
उनके बहने को
देखो। क्या
वहां कोई
अशांति दिखाई
देती है? सब
कितना शांति
से हो रहा है।
मनुष्य को छोड़
कर कहीं भी
अशांति नहीं
है। इस भांति
हम भी जी सकते
हैं। इस तरह
जीओ और अनुभव
करो कि आप भी
निसर्ग के एक अंग
हो।’ मैं' की पृथकता
ने सब अशांति
और तनाव पैदा
कर दिया है!'
'मैं—शून्य' होकर कार्य
करो। और आप
पाओगे कि एक
अलौकिक शांति
भीतर अवतरित
हो रही है।
हवाओं में
समझो कि आप भी
हवा हो, और
वर्षा में
समझो कि आप भी
वर्षा हो। और
फिर देखो कैसी
शांति क्रमश:
घनी होने लगती
है।
आकाश
के साथ आकाश
हो जाओ, और
अंधकार के साथ
अंधकार, और
प्रकाश के साथ
प्रकाश। अपने
को अलग न रखो
और अपनी बूंद
को सागर में
गिरने दो, फिर
वह जाना जाता
है जो कि
संगीत है, जो
कि सौंदर्य है,
जो कि सत्य
है।
मैं
चलूं तो मुझे
स्मरण होना
चाहिए कि मैं
चल रहा हूं।
मैं उठूं तो
मुझे होश होना
चाहिए कि मैं
उठ रहा हूं।
कोई भी क्रिया
शरीर से या मन
से मूर्च्छित
और बेहोशी में
नहीं होनी
चाहिए। इस
भांति जाग कर
अप्रमाद से
जीवनाचरण
करने से चित्त
अत्यंत
निर्मल और
निर्दोष और
पारदर्शी हो
जाता है। इस
भांति के
अप्रमत्त
जीवन आचरण से
ध्यान हमारे
समग्र जीवन
व्यवहार पर
परिव्याप्त
हो जाता है।
उसकी अंतधारा
अहर्निश
हमारे साथ बनी
रहती है। वह
हमें शांत
करती है और
हमारे
व्यवहार को
शुद्ध और सात्विक
बनाती है।
यह
स्मरणीय है कि
जो व्यक्ति
अपनी
प्रत्येक
शारीरिक और
मानसिक
क्रिया में
सजग और जाग्रत
है,
उससे किसी
दूसरे के
प्रति कोई
दुर्व्यवहार
असंभव है।
दोषों के लिए
मूर्च्छा
आवश्यक है।
इसलिए
अमूर्च्छा
में उनका
परिहार सहज ही
हो जाता है।
समाधि
को मैं
महामृत्यु, ग्रेट
डैथ कहता हूं—वह
है भी। साधारण
मृत्यु से मैं
मिटूगा, पर
पुन: हो
जाऊंगा, क्योंकि
मेरा’ मैं' उसमें
नहीं मिटेगा।
वह’ मैं' नये
जन्म लेगा और
नई मृत्युओं
से गुजरेगा।
साधारण
मृत्यु
वास्तविक
मृत्यु नहीं
है, क्योंकि
उसके बाद फिर
जन्म है और
फिर मृत्यु है।
और यह चक्रीय
गति उस समय तक
है जब तक कि
समाधि की
महामृत्यु
आकर जन्मों और
मृत्युओं से
छुटकारा नहीं
दे देती।
समाधि
महामृत्यु है,
क्योंकि
उसमें ’मैं’ मिट जाता है
और उसके साथ
ही जन्म और
मृत्यु भी मिट
जाता है। और
जो शेष रह
जाता है वही
जीवन है।
समाधि की
महामृत्यु से
अमृत—जीवन
उपलब्ध होता
है। उसका न
जन्म है, न
मृत्यु है।
उसका न तो आदि
है, न अंत
है। इस
महामृत्यु को
ही मोक्ष कहते
हैं, निर्वाण
कहते हैं, ब्रह्म
कहते हैं।
मेरी
सलाह है कि
ध्यान को काम
नहीं, विश्राम
समझना है। अक्रिया
का यही अर्थ
है। वह पूर्ण
विश्राम है —समस्त
क्रियाओं का
पूर्ण विराम
है। और जब
समस्त
क्रियाएं
शून्य होती
हैं और चित्त
के सब स्पंदन
विलीन हो जाते
हैं, तब जो
सारे धर्म मिल
कर भी नहीं
सिखा सकते हैं
वह उस विश्राम
में उभरना
शुरू हो जाता
है। क्रियाएं
जब नहीं हैं, तब उसका
दर्शन होता है
जो कि क्रिया
नहीं वरन सब
क्रियाओं का
केंद्र और
प्राण है, कर्त्ता
है।
सरहपाद
ने कहा है:
'जेहि क्या
पका न संचरई, रवि ससि
णाहि पवेस।
तहि बढ़
चित्त विसाम
करु, सरहें
कहिय उवेस।।’
‘ऐ चित्त! उस
मन में चल कर
विश्राम करें
जहां पवन तक
की गति नहीं
होती है, और
जहां सूरज और
चांद का भी
प्रवेश नहीं
है। ऐसा एक
केंद्र हमारे
भीतर है, जहां
हमारे
अतिरिक्त और
किसी का
प्रवेश नहीं है।
वही हमारी
आत्मा है। और
जहां तक किसी
का प्रवेश है,
वहां तक ही
हमारा शरीर है।’
संसार
जिस सीमा तक
हममें
प्रविष्ट हो सकता
है,
वही हमारी
देह है। संसार
उसमें प्रवेश
कर सकता है, क्योंकि वह
संसार का ही
अंग है।
इंद्रियां इस
प्रवेश के
द्वार हैं। और
मन इस भांति
प्रविष्ट
संस्कारों का
संग्रह है।
शरीर, इंद्रियों
और मन के अतीत
जो है, वह
हमारी आत्मा
है। उस आत्मा
को पाए बिना
जीवन व्यर्थ
है। क्योंकि
उसे जाने और
जीते बिना
हमारी कोई जीत
नहीं है और
हमारी कोई
उपलब्धि, उपलब्धि
नहीं है।
मैं
संसार को और
निर्वाण को
भिन्न नहीं
देखता हूं।
उसमें जो भेद
है,
वह सत्ता—
भेद नहीं है।
वह भेद उनमें
नहीं, मेरी
दृष्टि में है।
संसार और
निर्वाण ऐसी
दो सत्ताएं
नहीं हैं। वे’ जो
है' उसे
देखने की मेरी
दो दृष्टियां
हैं। सत्ता तो
एक ही है। पर
देखना दो
प्रकार का है।
ज्ञान की
दृष्टि से वही
सत्ता कुछ
दिखती है और
अज्ञान की
दृष्टि से कुछ
और दिखती है।
अज्ञान
में जो संसार
है,
ज्ञान में
वही निर्वाण
हो जाता है। न
जानने पर जो
जगत है, जानने
पर वही ईश्वर
है। इसलिए
प्रश्न वहां
बाहर का नहीं,
यहां भीतर
परिवर्तन का
है। मैं बदलता
हूं तो सब बदल
जाता है। मैं
ही संसार हूं
मैं ही
निर्वाण हूं।
सत्य
को किसी मूल्य
पर नहीं पाया
जाता। उसे
किसी अन्य से
पाया नहीं जा
सकता। वह तो
आत्म— विकास
का फल है।
सम्राट
बिंबिसार ने
एक बार महावीर
से जाकर कहा
था.’ मैं सत्य
पाना चाहता
हूं। मेरे पास
जो कुछ है, वह
मैं सब देने
को राजी हूं
पर मैं वह
सत्य चाहता
हूं जो कि
मनुष्य को दुख
से मुक्त कर
देता है।’
महावीर
ने देखा कि
जगत को जीतने
वाला सम्राट सत्य
को भी उसी भांति
जीतना चाहता
है। सत्य को
भी वह खरीदने
के विचार में
है। उसके
अहंकार ने ही
यह रूप भी धरा
है। उन्होंने
बिंबिसार से
कहा.
'सम्राट, अपने
राज्य के
पुण्य— श्रावक
से पहले एक
सामायिक का, एक ध्यान का
फल प्राप्त
करो। उससे
सत्य और मोक्ष—प्राप्ति
का तुम्हारा
मार्ग प्रशस्त
होगा।’
बिंबिसार
पुण्य— श्रावक
के पास गए।
उन्होंने कहा
:’ श्रावक
श्रेष्ठ, मैं
याचना करने
आया हूं।
मूल्य जो
मांगोगे, दूंगा।’
सम्राट
की मांग सुन
कर श्रावक ने
कहा.’ महाराज, सामायिक
तो समता का
नाम है। राग—द्वेष
की विषमता को
चित्त से दूर
कर स्वयं में
ठहरना ही
सामायिक है।
यह कोई किसी
को कैसे दे
सकता है? आप
उसे खरीदना
चाहते हैं, यह तो असंभव
है। उसे तो
आपको स्वयं ही
पाना होगा।
उसके
अतिरिक्त और
कोई मार्ग
नहीं है।’
सत्य
को खरीदा नहीं
जा सकता है। न
उसे दान में, भिक्षा
में ही पाया
जा सकता है और
न उसे आक्रमण
करके ही जीता
जा सकता है।
उसे
पाने का मार्ग
आक्रमण नहीं
है। आक्रमण
अहंकार की
वृत्ति है। और
अहंकार जहां
है,
वहां सत्य
नहीं है।
सत्य
को पाने के
लिए स्वयं को
शून्य होना
पड़ता है।
शून्य के
द्वार से उसका
आगमन होता है, अहंकार
के आक्रमण से
नहीं, शून्य
की
ग्रहणशीलता
से, सेसिटिविटी
से वह आता है।
सत्य पर
आक्रमण नहीं
करना है, उसके
लिए स्वयं में
द्वार, ओपनिंग
देना है।
हुईनेंग
ने कहा’ सत्य
को पाने का
मार्ग है—
अनभ्यास के
द्वारा
अभ्यास, कल्टीवेशन
बाई मीन्स ऑफ
नॉन—कल्टीवेशन।
अभ्यास में भी
आक्रमण न हो, इसलिए उसमें
अनभ्यास की
शर्त रखी है।
वह किया नहीं
अक्रिया है, अभ्यास नहीं
अनभ्यास है, पाना नहीं
खोना है। पर, यही उसे
पाने का मार्ग
भी है। मैं
जितना अपने को
रिक्त और खाली
कर लेता हूं वह
उतना ही मुझे
उपलब्ध हो
जाता है।
वर्षा
में पानी कहां
पहुंच जाता
है! भरे हुए टीलों
पर नहीं, खाली
गडुाएं में
उसका आगमन
होता है। सत्य
की प्रकृति भी
वही है जो जल
की है। यदि
सत्य को चाहते
हैं, तो
अपने को
बिलकुल खाली
और शून्य कर
लें। शून्य
होते ही पूर्ण
उसे भर देता
है।
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