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शनिवार, 8 अगस्त 2015

साधना--सूत्र--(प्रवचन--06)

स्‍वामित्‍व की अभीप्‍स–(प्रवचन—छठवां)

सूत्र:

10—शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो।

और जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा,
वह शक्ति ऐसी होगी जो उसे लोगों की दृष्टि
में ना—कुछ जैसा बना देगी।

 11—शांति की अदम्य अभीप्सा करो।

जिस शांति की कामना तुमको होगी,
वह ऐसी पवित्र शांति है,
जिसमें कोई विध्‍न न डाल सकेगा।
और जिस शांति के वातावरण में
आत्मा उसी प्रकार विकसित होगी, जैसे
शांत सरोवर में पवित्र कमल विकसित होता है।

 12—स्वामित्व की अपूर्व अभीप्सा करो।

 परंतु ये संपत्तियां केवल शुद्ध आत्मा की हों
और इसलिए सभी शुद्ध आत्मा इसके समानरूप से स्वामी हों
और इस प्रकार ये सभी की (जब वे संयुक्त हों) संपत्ति हों।
 सवा सूत्र, 'शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। और जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी जो उसे लोगों की दृष्टि में ना—कुछ जैसा बना देगी।

सबसे पहले तो इच्छा और अभीप्सा के भेद को समझ लेना जरूरी है। भाषाकोश में एक ही अर्थ लिखा हुआ है। लेकिन जीवन के कोश में बड़ा भेद है। इच्छा और अभीप्सा, दोनों ही इच्छाएं मालूम होती हैं। दोनों में ही थोड़ी दूर तक समानता है। और फिर दोनों असमान हो जाती हैं। अंग्रेजी में तो अभीप्सा के लिए कोई शब्द ही नहीं है। इसलिए मैबल कॉलिन्स ने दोनों के लिए ही डिजायर का उपयोग किया है।
अभीप्सा जैसा शब्द खोजना किसी दूसरी भाषा में बहुत कठिन है। क्योंकि इस तरह की इच्छा की घटना ही दूसरी भाषाओं में बहुत कम घटी है।
इच्छा का अर्थ है, हम कुछ चाहते हैं। अभीप्सा का भी अर्थ है, हम कुछ चाहते हैं। लेकिन इच्छा ऐसी वस्तु की चाह है जो हमारे पास नहीं है। और अभीप्सा ऐसी वस्तु की चाह है जो हमारे पास है ही। इच्छा में भी मांग है, लेकिन मांग के साथ अशांति है। जब तक न मिलेगी तब तक दुख है। अभीप्सा में भी मांग है, लेकिन मांग के साथ बड़ी तृप्ति है। न मिलेगी तो भी अशांति नहीं है। शांत इच्छा अगर हो सकती हो, तो उसका नाम अभीप्सा है। बड़ा उलटा लगता है। जैसे ठंडी अग्नि। क्योंकि इच्छा में तो अशांति होगी। उसका तो अर्थ ही है कि मैं असंतुष्ट हूं। जो भी है, उससे राजी नहीं हूं। कुछ और होना चाहिए तो मैं संतुष्ट होऊंगा।
अभीप्सा का अर्थ है, कुछ और होना चाहिए तो मैं और भी ज्यादा संतुष्ट होऊंगा, लेकिन जो है उससे मैं संतुष्ट हूं।
इस फर्क को समझना।
इच्छा में मैं असंतुष्ट हूं जब तक मांग पूरी न हो, मैं असंतुष्ट रहूंगा। मांग पूरी होगी तो संतोष होगा। तो मेरा संतोष सशर्त है। एक शर्त पूरी हो जाए तो मैं संतुष्ट हो जाऊंगा। और इसलिए इच्छा से भरा हुआ आदमी कभी संतुष्ट नहीं होता। उसकी शर्त कभी पूरी नहीं होती। जब तक एक इच्छा पूरी होती है तब तक पच्चीस इच्छाएं पैदा हो गई होती हैं। हर इच्छा की शइर्त नई इच्छाओं को जन्म दे जाती है।
अभीप्सावान व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वह संतुष्ट तो है ही। उसको असंतुष्ट करने का उपाय नहीं। जो है, उससे वह संतुष्ट है। इस संतोष से एक मांग पैदा हो रही है—संतोष से, स्मरण रखना— और भी ज्यादा संतोष पाने की। जब यह मांग पूरी होगी तो वह और भी ज्यादा संतुष्ट हो जाएगा।
एक और फर्क खयाल में ले लेना जरूरी है। कि इच्छा कभी पूरी नहीं होती, अभीप्सा पूरी हो जाती है। क्योंकि इच्छा के पूरे होते ही, इच्छा दस नए बच्चों को जन्म दे जाती है। इच्छा संततिवान है। अभीप्सा बांझ है, उसके बच्चे नहीं होते। जब अभीप्सा पूरी होती है तो उससे कोई संतति पैदा नहीं होती।
और भी एक फर्क समझ लेना। इच्छा सदा एक खिंचाव है—बाहर की तरफ, वस्तुओं की तरफ, साधनों की तरफ, धन की तरफ, यश की तरफ, पद की तरफ। लेकिन मुझसे बाहर है कोई चीज जो
खींच रही है। तो बाहर की दौड़ इच्छा से पैदा होती है। अभीप्सा भी एक खिंचाव है, लेकिन भीतर की तरफ। वह भी एक दौड़ है, लेकिन अपने से दूर ले जाने वाली नहीं, अपने से पास लाने वाली।
दोनों का शब्दकोश में एक ही अर्थ है। लेकिन जीवन के कोश में बड़े भिन्न अर्थ हैं। अभीप्सा जैसा शब्द भारत खोज पाया। क्योंकि हमने साधारण इच्छाएं ही नहीं की, हमने कुछ असाधारण इच्छाएं भी की, जो इच्छा के बिलकुल विपरीत हैं। और इसलिए हमें एक नया शब्द बनाना पड़ा— अभीप्सा। सूत्र है, 'शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो।
शक्ति की उत्कट अभीप्सा......। तो दूसरी बात, शक्ति के संबंध में समझ लेनी आवश्यक है।
एक तो शक्ति है जो साधनों से उपलब्ध होती है। आपके पास धन है तो आप शक्तिवान हैं। आपके हाथ में तलवार है तो आप शक्तिशाली हैं। आपके शरीर में बल है तो आप शक्तिशाली हैं। धन है तो आप खरीद सकते हैं, तलवार है तो आप किसी को झुका सकते हैं। लेकिन आप स्वयं शक्तिशाली नहीं हैं। शक्ति तलवार में है, अगर तलवार टूट जाए तो आप नपुंसक हो जाएंगे। शक्ति धन में है, अगर धन खो जाए तो आप निर्बल हो जाएंगे। एक राजनेता है, उसकी शक्ति है कि लोग उसे मत दे रहे हैं। कल वे मत न दें, तो उसकी शक्ति तिरोहित हो जाएगी।
तो एक तो शक्ति है जो साधनों से मिलती है। लेकिन वह वास्तविक शक्ति नहीं है। क्योंकि आप तो कमजोर ही बने रहते हैं। आपके आसपास शक्ति होती है, आप कमजोर होते हैं। और यह शक्ति किसी भी दिन छीनी जा सकती है। राजसिंहासन पर बैठा हुआ आदमी किसी भी क्षण भिखारी हो सकता है। जिनके नामों की चर्चा दिन—रात अखबारों में होती है, जब वे पद पर नहीं रह जाते तो पता ही नहीं चलता कि वे जीवित भी हैं कि मर गए। उनकी कोई खबर ही नहीं रह जाती। कितने राजनेता चुपचाप खो जाते हैं। फिर एक दफे इनकी खबर छपेगी, छोटे में, जिस दिन वे मरेंगे। तभी आपको पता चलेगा कि अरे, अभी ये जिंदा थे! इस बीच सब खो जाएगा। और जब वे शक्ति पर होते हैं, सिंहासन पर होते हैं, तब जैसे इनके नाम के अतिरिक्त अखबार वालों के पास छापने को कुछ होता ही नहीं।
इसका यह अर्थ हुआ कि साधनों से मिलने वाली शक्ति आपकी निर्बलता को मिटाती नहीं, केवल छिपाती है। सिर्फ छिपाती है, चारों तरफ एक पर्दा बांध देती है। पर्दे पर रंग—रोगन होता है। आप! आप जैसे निर्बल थे वैसे ही होते हैं।
इसीलिए जो आदमी एक बार पद पर पहुंच जाता है, वह पद को छोड़ना नहीं चाहता। जी—जान से जकड़ लेता है। क्योंकि अब उसे पता है, उसने शक्ति का भी मजा ले लिया, निर्बल होते हुए। अब अगर यह कुर्सी छूट जाती है तो वह पुन: निर्बल हो जाएगा। और यह जो दूसरी निर्बलता है, यह पहले वाली निर्बलता से बहुत ज्यादा अखरेगी। क्योंकि पहले तो इसे शक्ति का कोई स्वाद नहीं था, अब शक्ति का स्वाद ले लिया। तो पहले तो उसे कभी पता भी नहीं चला था कि वह इतना निर्बल है। अब उसे पता चलेगा कि वह कितना निर्बल है।
ऐसे ही जैसे रास्ते से आप गुजरते हैं अंधेरी रात में। अंधेरा होता है, लेकिन थोड़ा—थोड़ा रास्ता खोजते.. ...तभी पास से एक तेज प्रकाश वाली गाड़ी निकल जाती है। तेज प्रकाश आंखों में पड़ता है, एक क्षण को रोशनी हो जाती है। और जब गाड़ी जा चुकी होती है, आप पाते हैं, रास्ता और भी अंधेरा हो गया। अब कुछ भी नहीं सूझता।
पद के ऊपर पहुंचा हुआ आदमी जब फिर से पदहीन होता है, तो ऐसे रास्ते पर खड़ा हो जाता है जहां और अंधेरा हो गया। वह जो क्षण भर की कौंध भी, उससे रोशनी नहीं मिली, उससे और अंधापन आ गया। इसलिए पद पर जो एक बार पहुंच जाता है, वह छोड़ना ही नहीं चाहता। हर कीमत पर वहां टिका रहना चाहता है। यह बड़े मजे की बात है। पहले लोग पद पर पहुंचने के लिए जीवन लगाते हैं, फिर पद को पकड़े रहने के लिए जीवन लगाते हैं। और अगर पद को पकड़े रहना है तो एक ही उपाय है कि आगे के पद की कोशिश जारी रखनी चाहिए। अपनी जगह रुके रहने का एक ही उपाय है कि आगे की दौड़ जारी रखनी चाहिए। क्योंकि नीचे से लोग खींच रहे हैं। सैकड़ों लोग उसी पद पर चढ़ने की कोशिश में लगे हैं।
राजनीति निर्बलों की खोज है, नपुंसकों की यात्रा है। तो जितनी नपुंसकता भीतर होती है, उतना ही बाहर से शक्ति को आयोजित करने का मन होता है। फिर, ध्यान रखें, मैं सारी बातो को राजनीति कहता हूं जिनमें भी आप बाहर से शक्ति पाते हैं। वह चाहे धन हो, वह चाहे शास्त्र से लिया हुआ शान हो। आप तो कमजोर ही रहते हैं। गीता कंठस्थ हो जाती है, जब जरूरत पड़े गीता बोलने लगते हैं। लेकिन आप कृष्ण नहीं हैं। यह गीता आपका अंतर्भाव नहीं है। यह बाहर से भीतर डाला गया है, भीतर से बाहर नहीं आ रहा है। जो भीतर से बाहर आए, तब तो आप शक्तिशाली हो जाएंगे। और अगर बाहर से भीतर डाल कर आप शक्तिशाली समझ रहे हैं, तो शक्ति का भ्रम है।
यह सूत्र कहता है, 'शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो।
किस शक्ति की? निश्चित ही, इस शक्ति की नहीं, जो धन से, पद से, शास्त्र से, उधार शान से मिलती है। उस शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो, जो किसी से भी नहीं मिलती, जो तुमसे पैदा होती है। जो मिलती ही नहीं, जन्मती है। जिसको खरीद लाने का बाजार से कोई उपाय नहीं है, जो तुम्हारी आत्मा का स्फुरण है। जो तुम्हारे भीतर जन्मती है। और तुम्हारे भीतर से बाहर की तरफ जाती है। बाहर से भीतर की तरफ नहीं आती। तब आप समझ जाएंगे कि अभीप्सा और शक्ति को इसमें क्यों जोड़ा है।
अभीप्सा का अर्थ है, भीतर की आकांक्षा। और शक्ति भी भीतर ही छिपी है, वहीं से पैदा होती है। तब ही तुम वस्तुत: शक्तिशाली हो पाओगे। इसलिए हमने वर्धमान को महावीर कहा। कोई ऐसा नहीं कि कोई गामा से महावीर लड़ते तो जीत जाते। ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन फिर भी हम गामा को महावीर नहीं कह सकते। क्योंकि शरीर तो शक्तिशाली है, लेकिन भीतर की आत्मा तो वैसी ही दुर्बल है। और शरीर कितनी देर चलेगा? गामा क्षय रोग से मरा। और आखिरी दिन बड़े कष्ट के रहे।
यह आप जान कर हैरान होंगे कि पहलवान सभी खतरनाक बीमारियों से मरते हैं। और आखिरी दिन पहलवानों के बहुत दुखद होते हैं। क्योंकि जो भी शक्ति थी वह शरीर की थी। और शरीर की शक्ति को ही उन्होंने समझा कि अपनी है। और जब शरीर क्षीण होने लगता है तब उनको लगता है कि यह तो धोखा था। और शरीर तो क्षीण होगा। और पहलवान का शरीर जल्दी क्षीण होता है, क्योंकि उसने शरीर के साथ जबर्दस्ती की। सब पहलवानी जबर्दस्ती है। जिसको हम कसरत कहते हैं, वह श्रम नहीं है, वह जबर्दस्ती है।
तो पहलवान जबर्दस्ती कर रहा है शरीर के साथ। तो उसकी मांस—पेशियां उभर आएंगी। क्योंकि वह इतना जोर डाल रहा है मांस—पेशियों पर, इतना खून जबर्दस्ती बहा रहा है उनमें से कि वे उभर आएंगी। इसलिए कोई पहलवान ज्यादा उम्र का नहीं होता, जल्दी मर जाता है। क्योंकि जो शरीर साठ साल काम दे सकता था, वह अब चालीस साल ही काम देगा। आपने बीस साल की शक्ति का हिंसात्मक रूप से उपयोग कर लिया।
पहलवान जल्दी मरते हैं। और पहलवानों के आखिरी दिन बड़े दीन और दुखी हो जाते हैं। क्योंकि
जैसे ही वार्धक्य आना शुरू होता है वैसे ही उन्हें पता लगता है कि हम तो कमजोर ही थे। तो शक्ति का जो भ्रम पैदा हो रहा था, वह शरीर से हो रहा था।
हमने वर्धमान को महावीर कहा है। इसलिए कहा है कि एक ऐसी जगह से वीर्य की ऊर्जा पैदा हो रही है, जो कभी भी छीनी न जा सकेगी। अंतर्भाव हुआ है, शक्ति जगी है। किसी भी साधन पर निर्भर नहीं है। न धन पर, न पद पर, न शरीर पर। निर्भर ही नहीं है। स्वतंत्र है, अपनी है, तो इसको हमने आत्म—शक्ति कहा है। जो अपनी है, वह आत्म—शक्ति है। जो किसी भी ढंग से पराए से मिलती है, जिसके होने में पराए के सहारे की जरूरत पड़ती है, वह शक्ति का धोखा है।
'शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो।
इस शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो, बाकी शेष शक्तियों पर से ध्यान हटा लो। क्योंकि उन पर ध्यान देने का अर्थ है कि इस शक्ति का विकास न हो सकेगा। और जब तक तुम निर्भर रहोगे दूसरों पर, तब तक तुम पाओगे कि तुम रोज—रोज कमजोर होते गए हो। सभी निर्भर लोग कमजोर हो जाते हैं। निर्भरता कैसी भी हो, कमजोरी लाती है।
और हम सब निर्भर हैं। और हमने अनेक तरह के उपाय कर रखे हैं, जिनमें निर्भरता से हम शक्तिशाली होने के भ्रम में होते हैं। निर्भरता धोखा है। उससे शक्ति का आभास होता है, लेकिन शक्ति कभी उपलब्ध नहीं होती।
शक्ति तो एक ही है, जिसके तुम ही मालिक हो। और जिसे कोई भी बाहरी साधन न तो घटा सकता है और न बढ़ा सकता है। जिसे न तो तुमसे कोई छीन सकता है, न मिटा सकता है। शरीर भी समाप्त हो जाए, तो भी तुम्हारी शक्ति में रंचमात्र भेद नहीं पड़ेगा। तुम्हारी अंतज्योंति वैसी ही जलती रहेगी। तुम्हारे भीतर का प्रकाश वैसा ही प्रज्वलित रहेगा। तुम्हारे भीतर की जीवन— धारा में जरा सी भी क्षीणता न आएगी, उस जीवन— धारा को कोई सुखा न सकेगा। वह जीवन— धारा अनादि और अनंत है।
उस सनातन स्रोत की खोज का अर्थ है, शक्ति की उत्कट अभीप्सा।
और एक बहुत मजे की बात है। बाहर से जो शक्ति मिलती है, स्वभावत: उसका दिखावा बाहर
होता है। तुम भीतर कमजोर होते हो, लेकिन बाहर लोगों की आंखें चौंधिया जाती हैं। जब तुम राष्ट्रपति हो जाते हो, तो सारे लोग तुम्हारे चरणों में झुकने लगते हैं। सारे लोग तुम्हारा जय—जयकार करने लगते हैं। सारे लोग मान लेते हैं कि हां, तुम्हारे पास शक्ति है। तुम भीतर बिलकुल निर्बल और कमजोर होते हो। तुम भीतर जानते हो कि कोई शक्ति नहीं है, लेकिन सारा जगत देखता है कि शक्ति घटित हो रही है। जो शक्ति बाहर से मिलती है, बाहर के लोग उस शक्ति का अनुभव भी कर पाते हैं, क्योंकि वह उन्हीं की दी गई है। तुम सिर्फ दर्पण हो, जिसमें उन्हीं की शक्ति प्रतिबिंबित हो रही है और उन्हीं पर वापस लौट रही है। जो उन्होंने दिया है, वह उन्हें दिखाई भी पड़ता है।
लेकिन जो शक्ति भीतर से पैदा होती है, साधारणत: बाहर के लोगों को वह दिखाई नहीं पड़ती। वह केवल उनको ही दिखाई पड़ सकती है, जिनको भीतर का कोई अनुभव है। अन्यथा बाकी लोगों को दिखाई नहीं पड़ती।
महावीर तुम्हारे पास से निकल जाएं, तो तुम यह मत सोचना कि तुम पहचान लोगे। गामा निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक सम्राट निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक बुद्ध निकलेगा, तुम नहीं पहचान पाओगे। क्योंकि बुद्ध की शक्ति किसी ऐसे स्रोत से आ रही है, जिसको देखने की तुम्हारे पास आख भी नहीं है। उलटा होगा, जब बुद्ध तुम्हारे पास से निकलेंगे, तुमको लगेगा कि यह कुछ भी नहीं हैं, ना—कुछ हैं। बड़ी कठिनाई होगी तुम्हें पहचानने में। और पहचानने का अर्थ होगा कि तुम्हारा जीवन रूपांतरित होगा, तो ही तुम पहचान पाओगे।
इसलिए बुद्ध को पहचानना सस्ता नहीं है। बुद्ध को पहचानने में तुम्हें बदलना पड़ेगा। इसके पहले कि तुम पहचान सको, तुम्हें नया होना पड़ेगा, तब तुम पहचान पाओगे। लेकिन कौन इतनी झंझट करता है! कि बुद्ध को पहचानने की जरूरत भी क्या है जिसमें हमको बदलना पड़े? हम जैसे हैं, वैसे ही बुद्ध हमारी पहचान में नहीं आएंगे। हम चूक जाएंगे।
हां, लेकिन राजनेताओं को, धनपतियों को, सेनापतियों को हम पहचान लेंगे। हम जैसे हैं, वैसे में ही वे पहचान में आ जाएंगे। क्योंकि हमारे और उनके बीच कोई भी फर्क नहीं है। हम एक ही जगत के अंग हैं। हमारी उनकी भाषा एक है, हमारा उनका अस्तित्व एक है। और जो भी उनके पास है, वह हमारा दिया हुआ है। इसलिए हम उसे भलीभांति पहचानते हैं, वह हमारी ही संपदा है।
तो यह सूत्र कहता है, 'शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। और जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी, जो उसे लोगों की दृष्टि में ना—कुछ जैसा बना देगी।
यह बहुत ठीक से समझ लेने की जरूरत है।
अगर आपको ऐसा लगता हो कि आप अध्यात्म की आकांक्षा कर रहे हैं, लेकिन उस आकांक्षा के भीतर यह रस है कि जब लोग आपको पहचानेंगे तो चरणों में झुक जाएंगे, तो आप गलती में हैं। अगर यह रस है भीतर, तो आप साधु के भेष में राजनेता हैं। आपकी वृत्ति राजनीति की ही है। अगर आप यह भी सोचते हैं कि जिस दिन मैं आत्मवान बन जाऊंगा, इतनी बन जाऊंगा, उस दिन लोग देखेंगे मेरा चमत्कार, अगर लोगों को चमत्कार दिखाने का खयाल कहीं भी छिपा है, तो आप गलती से धर्म पर चल रहे हैं, उचित हो कि आप राजनीति में चलें। तब चीजें साफ और ईमानदार होंगी।
इधर मैं देखता हूं साधुओं को देखता हूं संन्यासियों को देखता हूं उनकी खोज भी मौलिक रूप से राजनैतिक है। रस उनका भी यही है कि लोगों को शक्ति का पता चले। रस उनका यह नहीं है कि शक्ति उपलब्ध हो, रस यह है कि लोगों को पता चले! न भी हो शक्ति तो भी पता चल जाए, तो भी तृप्ति हो जाएगी।
वास्तविक शक्ति का जब जन्म होता है, तो बहुत थोड़े लोग ही उसे पहचान पाएंगे। वे पहचानें या न पहचानें, यह आत्म—खोजी की आकांक्षा का हिस्सा नहीं है। वे पहचान लें उनका हित, वे न पहचान लें उनका अहित, लेकिन आत्म—खोजी के लिए इससे कोई संबंध ही नहीं है। उसकी खोज तो इस बात की है कि मैं शक्तिशाली हो जाऊं। दूसरे की आख में मेरा क्या प्रतिबिंब बनता है, यह दूसरे की आख समझे। यह उसकी समस्या है, यह मेरी समस्या नहीं है। और अगर यह खयाल रहे तो आत्म—खोजी शून्यवत हो जाएगा। बाहर से लोग उसे पहचान ही न सकेंगे। क्योंकि बाहर के लोग जिन बातो को पहचान सकते हैं, वे उसके भीतर नहीं होंगी।
बाहर के लोग क्या पहचान सकते है? बाहर के लोग या तो आपके हाथ में धन चलता हो, तो पहचान सकते हैं। मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते हैं कि फलां साधु के यहां धन की कभी भी कमी नहीं होती, हजारों लोग भी आ जाएं, तो भी भोजन चलता है; लाखों लोग भी आ जाएं, तो भी भोजन चलता है। यह व्यक्ति साधु से प्रभावित हो कर नहीं लौटा है, धन की महिमा से प्रभावित हो कर लौटा है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि फलां साधु के पास जाते हैं, तो हाथ में ताबीज प्रकट हो जाता है, भस्म प्रकट हो जाती है। ये मदारी से प्रभावित हो कर लौटे हैं, अध्यात्म से प्रभावित हो कर नहीं लौटे हैं। यह जो शक्ति है, यह जो ताबीज या भस्में प्रकट कर रहा है, उसकी भी जो गहरे में आकांक्षा है, वह अध्यात्म नहीं है। जो प्रभावित हो रहा है, उसका भी जो प्रभावित होने में जो कारण है, वह अध्यात्म नहीं है। वे सब शक्ति के प्रदर्शन से प्रभावित हो रहे हैं। कि किसी साधु के छूने से कोई बीमार ठीक हो जाता है, तो भी हम जो प्रभावित हो रहे हैं, वह अध्यात्म नहीं है। वह कुछ और है। बाहर की भाषा हमारी समझ में आती है।
लेकिन हम बुद्ध जैसे व्यक्ति को न पहचान पाएंगे। न तो उनके छूने से कोई बीमार ठीक हो रहा है, न वह किसी बीमार को ठीक कर रहे हैं छू कर। और कभी अगर ऐसा हो भी जाता है, तो भी बुद्ध यह नहीं कहते कि ऐसा मैंने किया है। वे यही कहते हैं कि संयोग की होगी बात, तुम्हारे कर्मफल ऐसे होंगे कि यह बात होने के करीब होगी। वे यह नहीं कहते, मैंने किया है। वे यही कहते हैं, ऐसा हो गया है, इस पर ज्यादा ध्यान मत दो। न धन है, न पद है, न चमत्कार है, तो बुद्ध को आप पहचानेंगे कैसे? आपके पहचानने के सारे रास्ते ही समाप्त हो गए।
मैं एक यात्रा में था। मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन और थे। हम दोनों ही थे। स्वभावत: उन्हें चुप रहना मुश्किल हो गया, कुछ बात चलानी चाही। लेकिन मैंने हां—ना में उत्तर दिए, तो बात ज्यादा चली नहीं। तो फिर उन्होंने पान निकाला कि आप पान लें, मैंने कहा कि पान मैं खाता नहीं। तो फिर उन्होंने सिगरेट निकाली कि आप सिगरेट लें, मैंने कहा कि सिगरेट मैं पीता नहीं। तो उन्होंने कहा, यह बताइए कि आपसे मैत्री बनाने का कोई उपाय है या नहीं। क्योंकि अगर मैं पान लेता तो मैत्री बनती, सिगरेट लेता तो मैत्री बनती। मैंने उनसे पूछा कि पान और सिगरेट के अतिरिक्त आपको मैत्री बनाने का कोई और उपाय पता है या नहीं? उनकी भाषा खतम हो गई थी। वे जो उपाय कर सकते थे, वह समाप्त हो गया, तो लगा कि अब कोई संबंध निर्मित नहीं हो सकता।
बुद्ध से आप कैसे संबंध निर्मित करेंगे? क्योंकि शक्ति की सारी भाषा व्यर्थ है। अगर आप शून्य को भी शक्ति मानते हों! जानते हों कि किसी का शून्यवत हो जाना इस जगत में सबसे बड़ा चमत्कार है। ना—कुछ हो जाना इस जगत में सबसे बड़ी घटना है। क्योंकि क्षुद्रतम आदमी भी मानता है कि मैं कुछ हूं। क्षुद्रतम आदमी भी मानता है कि मैं कुछ हूं तो इस जगत में मैं कुछ हूं यह मानना तो सामान्य बात है। लेकिन यह अनुभव कर लेना कि मैं ना—कुछ हूं शून्यवत हूं बड़े से बड़ा चमत्कार है।
यहूदी फकीर, हसीद—रहस्य का जन्मदाता था बालसेम। तो बालसेम के संबंध में किसी ने आ कर उसके गांव में पूछा कि हमारे गांव में भी एक रबी है, वह बड़ा चमत्कारी है; और तुम बालसेम को इतना पूजते हो, बालसेम का चमत्कार क्या है? उस गांव के लोगों ने कहा कि पहले तो हम व्याख्या कर लें चमत्कार की। क्या तुम इस बात को चमत्कार कहोगे कि अगर हमारा बालसेम, हमारा फकीर परमात्मा से जो कुछ कहे और परमात्मा को उसी वक्त करना पड़े, और परमात्मा उसी वक्त करे, तो तुम उसको चमत्कार मानोगे? उन्होंने कहा कि निश्चित ही, यही तो चमत्कार है। यही तो हमारा फकीर, जो भी कहता है, कहे भर कि परमात्मा पूरा करता है। तो उस गांव के लोगों ने कहा कि हमारा बालसेम भी चमत्कारी है, लेकिन चमत्कार जरा उलटा है—परमात्मा जो भी कहे, बालसेम करता है। बालसेम कहता ही नहीं। अगर तुम इसको भी चमत्कार समझ सकते हो, तो हमारा बालसेम चमत्कारी है। परमात्मा जो भी कहे, जिस क्षण भी कहे, वह करता है। और उसने अब तक परमात्मा से कुछ भी नहीं कहा है, इसलिए दूसरी बात का हमें कुछ पता नहीं है। और हम उससे कहते भी हैं, तो वह कहता है, मैं परमात्मा को आशा देने वाला कौन? मैं ना—कुछ हूं। बस उसकी आशा पूरी हो जाए तो पर्याप्त है।
अध्यात्म का खोजी जिस शक्ति को खोज रहा है, वह शून्यता की शक्ति है। आप जिस शक्ति को खोज रहे हैं बाहर के जगत में, वह शून्यता की शक्ति नहीं है। वह पदार्थ की, वस्तु की, धन की, पद की, किसी साधन के ऊपर निर्भर शक्ति की खोज है। और जब कोई व्यक्ति ना—कुछ होने को तैयार हो जाता है, तो उसके भीतर इस ना—कुछ की भाव—दशा में जो बीज टूटता है खुद की आत्मा का, और जो अंकुरण होता है— उस शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो।
ग्यारहवां सूत्र है, 'शांति की अदम्य अभीप्सा करो।
ठीक शक्ति के बाद शांति की अभीप्सा को जोड़ा है। क्योंकि बाहर से जो भी शक्ति मिलती है, वह अशांति लाती है। धन से शक्ति मिलती है, लेकिन साथ में अशांति मिलती है। धनी आदमी और शांत पाना बड़ा मुश्किल है। गरीब आदमी कभी—कभी शांत मिल सकता है, लेकिन धनी आदमी कभी शांत नहीं मिलता। और जिनको शांत होना पड़ा है, वे धन छोड़ कर गरीब हो गए हैं। राजनैतिक पद पर जो आदमी है, वह कभी शांत नहीं होता। हो नहीं सकता। शक्ति बाहर से जब भी आती है, तो साथ में अशांति की छाया लाती है। और अगर आप शांत रहना चाहते हैं, तो बाहर की शक्ति से आपका संबंध नहीं जुड़ पाएगा।
एक मेरे मित्र हैं। एक राज्य के मिनिस्टर हैं, अब चीफ मिनिस्टर होना चाहते हैं! तो वे मुझसे हमेशा आ कर कहते हैं कि शांति का कोई उपाय बताइए। तो मैं उनको कहता हूं कि तुम पहले चीफ मिनिस्टर हो लो। अभी तो तुम अशांति का उपाय पूछो। अभी तुम शांति का उपाय ही मत पूछो। नहीं तो शांति का तुमने उपाय किया तो एक बात पक्की है कि चीफ मिनिस्टर तुम न हो पाओगे। यह तुम पहले पक्का कर लो कि चीफ मिनिस्टर नहीं होना, तो मैं तुम्हें शांति का उपाय बता दूं। अन्यथा तुम पीछे मुझसे मत कहना कि चुका दिया, कि खराब कर दी जिंदगी.....तुम पहले चीफ मिनिस्टर हो ही लो। और तुम जब अच्छी तरह अशांत हो जाओगे, तो शांति की प्यास भी पैदा होगी। जब कोई आदमी ठीक से मेहनत करता है तो भूख लगती है। ऐसे ही जब कोई ठीक से अशांत होता है तो शांति की भूख लगती है। अभी, मैंने कहा, तुम्हारी भूख भी असली नहीं है। अभी भूख भी तुमने किताबों से पढ़ ली है, अभी तुम शांति के भी लोलुप हो, अभी शांति भी तुम्हारा लोभ है। अभी तुम चाहते हो कि चीफ मिनिस्टर भी हो जाओ और शांत भी हो जाओ।
और मैंने पूछा कि तुम अगर ठीक से गहरे में खोज करोगे, तो तुम्हें लगेगा कि तुम अभी शांति भी इसलिए चाहते हो, ताकि सुविधा से चीफ मिनिस्टर हो जाओ। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने कैसे पहचाना! यही है बात। क्योंकि इतनी दौड़— भाग करनी पड़ रही है कि अगर चित्त थोड़ा शांत रहे तो मैं सफल हो सकता हूं। और चित इतना अशांत हो जाता है कि रात मुझे नींद भी नहीं आती, परेशान हो जाता हूं बीमार भी पड़ जाता हूं। तो दूसरे मुझसे आगे निकले जा रहे हैं। न उनको नींद की तकलीफ है, न वे बीमार होते हैं, सुबह से फिर ताजे हैं, फिर दौड़— धूप में लगे हैं, और मैं थक मरता हूं! इसीलिए तो आपके पास आया हूं कि कोई ऐसी विधि बताएं कि मैं भी शांत हो सकूं, तो टक्कर ठीक से ले पाऊँ।
अब शांति को भी हम अशांति की सेवा में नियोजित करना चाहते हैं! हम शांति भी इसलिए चाहते हैं ताकि ठीक से अशांत हो सकें, ताकि हमारी अशांति ज्यादा कुशल हो जाए। हम शांति भी इसलिए चाहते हैं ताकि उससे शक्ति मिल सके। लेकिन शक्ति से मिलती है अशांति।
तो इसको लक्षण समझना। जिस शक्ति से अशांति मिले, समझ लेना कि वह बाहर की है और अभीप्सा के योग्य नहीं है। जिस शक्ति से शांति जन्मती हो, वही भीतर की है और वही अभीप्सा के योग्य है। बाहर की शक्ति अर्थात अशांति, भीतर की शक्ति अर्थात शांति।
इसीलिए सूत्र ठीक शक्ति के बाद है, ' शांति की अदम्य अभीप्सा करो।
सिर्फ शक्ति की अभीप्सा करोगे तो खतरा है। अपने को धोखा दे सकते हो, सोच सकते हो कि यह मैं भीतर की शक्ति की अभीप्सा कर रहा हूं। लेकिन वह भीतर की शक्ति की अभीप्सा भी, हो सकता है, बाहर की शक्ति की ही अभीप्सा हो। वह भी दौड़ हो, वह भी शायद प्रतियोगिता हो। वह भी शायद किसी दूसरे ने आत्म—शान पा लिया है, तो उसको नीचे दिखाना हो। कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरे रहते और कोई दूसरा आत्मज्ञानी हो गया! तो मैं भी आत्मज्ञानी हो कर बता दूंगा।
महावीर के पास एक बहुत बडा धनिक आया, एक नगर सेठ। और उसने आ कर महावीर को कहा कि मुझे सामयिक खरीदनी है, मुझे ध्यान खरीदना है। और जो भी आप मूल्य कहें, मैं चुकाने को तैयार हूं। महावीर ने कहा, यह असंभव है, ध्यान खरीदा नहीं जा सकता। खरीदने वाली वृत्ति वाला व्यक्ति ध्यान को समझ भी नहीं सकता, पाना तो बहुत दूर है। तुम्हारा सब धन भी नहीं खरीद सकेगा। उस धनी ने कहा कि शायद तुम्हें पता नहीं कि कितना धन मेरे पास है! तुम बोलो, उससे दुगुना भी दूंगा। तुम सिर्फ बोलो भर कि इतना लगेगा।
वह आदमी एक ही भाषा जानता होगा— धन की। और उसने जीवन में सब धन से खरीदा था, तो उसकी कुछ गलती नहीं है, क्षमा योग्य है। उसने सब खरीद लिया था। सुंदर स्त्री चाहिए तो धन से मिल गई थी। बड़ा महल चाहिए तो धन से मिल गया था। बड़ा चिकित्सक चाहिए तो धन से मिल गया था। धन से क्या नहीं खरीदा जा सकता? उसने सब खरीद लिया था। तो उसने सोचा होगा कि ध्यान भी ऐसी क्या बला है जो धन से न मिल जाए! जब सब धन से मिलता है, तो यह भी मिल जाएगा।
लेकिन तकलीफ असल में ध्यान पाने की थी ही नहीं। गांव का एक गरीब आदमी ध्यानी हो गया था, उसी के गांव का! और महावीर ने कहा था कि यह उपलब्ध हो गया ध्यान को। इससे अड़चन थी। महावीर को पता चल गया था कि धनी को अड़चन क्या हो रही है।
तो महावीर ने कहा कि तू ऐसा कर, कि तेरे गांव में ही एक गरीब आदमी है, उसको ध्यान उपलब्ध हो गया है, तू उसी से खरीद ले, तू उसी के पास चला जा। और वह गरीब आदमी है, शायद पैसे के लोभ में आ जाए। तू उससे खरीद ले, शायद बेच दे। तो उसने कहा कि इसमें क्या दिक्कत है, यह तो बिलकुल आसान है। अगर वह ध्यान न बेचे, तो मैं उस गरीब आदमी को पूरा का पूरा ही खरीद सकता हूं। इसमें कोई अड़चन ही नहीं।
अब उसकी भाषा बिलकुल ठीक है, क्योंकि जब हम पूरे गरीब आदमी को ही खरीद सकते हैं, तो ध्यान में क्या रखा है। मगर गरीब आदमी खरीद लिया जाए तो भी ध्यान नहीं खरीदा जा सकता। वह गरीब आदमी उठा कर, जंजीरों में डाल कर, घर में भी पटक दिया जाए, तो भी ध्यान जंजीरों में नहीं पड़ जाएगा। भाषा की मुश्किल है। वह धन की भाषा ही समझता है।
वह गया उस गरीब आदमी के पास। और उसने कहा, जो तुझे चाहिए तू बोल, मैं सब देने को तैयार हूं लेकिन ध्यान मुझे दे दे। और अगर तूने ध्यान न दिया, तो मैं सैनिक ले कर आया हूं तुझे उठा लेंगे। उस गरीब आदमी ने कहा कि तुम मुझे उठा लो, वही आसान है। ध्यान मैं तुम्हें कैसे दूं? ध्यान कोई वस्तु है, जो मैं तुम्हें दे दूं! ध्यान तो अनुभव है। तुम मुझे ले चलो, लेकिन मेरे अनुभव को कैसे मैं तुम्हें दे दूं? अनुभव तो तुम्हें तुम्हारा ही करना पड़ेगा।
एक शक्ति है, जो दूसरे से मिल सकती है। और एक शक्ति है, जो स्वयं के अनुभव से ही मिल सकती है। जो दूसरे से मिलती है, उसके साथ अशांति रहेगी, क्योंकि उसके साथ भय रहेगा। जो दूसरे ने दी है, वह दूसरा छीन सकता है। और जो दूसरे ने दी है, वह मेरी है नहीं— चाहे मैंने चुराई हो, चाहे मैंने फुसला कर मांगी हो, चाहे दान में प्राप्त की हो, चाहे शक्ति के दवाब से ली हों—किंतु वह मेरी नहीं है, वह किसी दूसरे की है। और जो दूसरे की है, वह दूसरे की ही रहती है, इसलिए भय लगा रहता है। भय पीछे—पीछे सरकता रहता है।
भय से अशांति पैदा होती है। जो छिन सकता है, उससे चिंता पैदा होती है। और फिर जितनी बाहर की शक्ति इकट्ठी होती जाती है, उतना ही उसके अनुपात में भीतर की निर्बलता दिखाई पड़ती है। इससे अशांति पैदा होती है।
इसलिए कोई गरीब आदमी इतनी गरीबी का अनुभव नहीं करता, जितना अमीर आदमी कर सकता है, अगर उसमें अक्ल हो। नालायक हो, बे— अक्ल हो तो उसे पता ही नहीं चलता। थोड़ी सी भी बुद्धि हो तो अमीर आदमी को जिस तरह की गरीबी का पता चलता है, उस तरह की गरीबी का पता गरीब आदमी को कभी नहीं चल सकता। क्योंकि कंट्रास्ट नहीं है, तुलना नहीं है। अमीर आदमी के पास धन का ढेर लग जाता है और भीतर वह देखता है, हृदय भिखारी का पात्र है, वहां कुछ भी नहीं है। गरीब आदमी के हाथ में भी भिक्षा का पात्र है, भीतर भी भिक्षा का पात्र है। तुलना में विरोध नहीं है। उसे पता नहीं चलता कि वह कितना गरीब है। कितना गरीब है आदमी, यह अमीर हो कर ही पता चलता है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि महावीर जब साम्राज्य को छोड़ कर गरीब होते हैं, बुद्ध जब सम्राट के सिंहासन से उतर कर रास्ते के भिखारी बनते हैं, तो उन्हें जिस गरीबी का अनुभव हुआ है, वह किसी दूसरे भिखारी को नहीं हो सकता है। उनकी गरीबी में अमीरी का बड़ा हाथ है, उनकी गरीबी शाही है, उसमें सम्राट होने का अनुभव छिपा है। और उन्होंने सम्राट हो कर जान लिया कि इससे भी भीतर की गरीबी नहीं मिटती, बल्कि प्रकट हो कर दिखाई पड़ती है।
तो जितनी बाहर की शक्ति इकट्ठी होगी, उतनी भीतर की निर्बलता प्रकट हो कर दिखाई पड़ेगी। उससे चिंता पैदा होगी। इसलिए ध्यान रहे, गरीब आदमी उतना चिंतित नहीं होता, जितना अमीर आदमी चिंतित होता है।
और अगर आज अमरीका में सबसे ज्यादा चिंता है, तो उसका कारण यह नहीं है कि अमरीका
का कोई नैतिक पतन हो गया है। उसका कुल कारण यह है कि अमरीका आज सबसे ज्यादा धनी है। अमरीका में चिंता स्वाभाविक है। और आप सब भी कोशिश में लगे हैं कि मुल्क हमारा धनी हो, होना ही चाहिए, तो आप ध्यान रखना कि वह सारी चिंता आपकी भी हो जाएगी। धन के साथ चिंता आएगी ही। गरीबी में एक निश्चिंतता है, क्योंकि गरीबी का कोई पता नहीं है।
मैं कोई यह नहीं कह रहा हूं कि आप गरीब बने रहें। मैं तो कह रहा हूं कि अच्छा है, आपको गरीबी का पता चले, तो अध्यात्म का जन्म हो। तो मैं तो कहता हूं कि अमीर होना धर्म के लिए अनिवार्य है। जितना समाज समृद्ध होगा, उतने ही विराट धर्म के जन्म की संभावना है।
गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है। गरीब आदमी के धर्म में भी जो वासना होती है, वह बाहर की शक्ति की ही होती है। वह प्रार्थना भी करता है तो धन के लिए, वह पूजा भी करता है तो धन के लिए। गरीब की पूजा और प्रार्थना में मांग पदार्थ की ही बनी रहती है। अमीर को पदार्थ तो उपलब्ध होता है, उसकी मांग का कोई सवाल नहीं है, वह उसके पास है। अब उसमें और जोड्ने का कोई प्रयोजन नहीं है। और उससे एक महत चिंता पैदा होती है, एक गहन चिंता पैदा होती है, कि अब क्या? इसलिए आज अमरीका जितना विक्षिप्त है, जमीन पर कोई राष्ट्र नहीं है। मगर यह सौभाग्य है। क्योंकि इस विक्षिप्तता का अर्थ ही यह हुआ कि धन गरीबी को प्रकट करता है, शक्ति निर्बलता को प्रकट करती है, शिक्षा भीतर के अज्ञान को उघाड़ती है।
बाहर हम जो पाते हैं, उससे विपरीत भीतर अनुभव में आता है, तो तनाव पैदा होता है, संताप पैदा होता है। बाहर जो भी हम उपलब्ध कर लेंगे, वह अशांति को जन्म देगा। इसलिए शक्ति की अभीप्सा के साथ—साथ शांति की अदम्य अभीप्सा जारी रहनी चाहिए। तो ही तुम्हारी शक्ति भीतर की शक्ति बन पाएगी।
शक्ति स्शांति यह तुम्हारी खोज रहे। और जहां भी तुम पाओ कि तुम्हारी शक्ति शांति के विपरीत जाती है, समझना कि वह गलत शक्ति है। उसे तुम छोड़ देना। शांति को आधार रखना। जहां भी तुम्हारी शक्ति शांति को खंडित करने लगे, शक्ति को छोड़ देना और शांति को पकड़ना। शांति को सूत्र बना लेना, कसौटी बना लेना—निकष, उस पर तौल लेना! जो शक्ति शांति की कसौटी पर सही उतरे, समझना, वही सोना है। और जो शक्ति शांति की कसौटी पर खरी न उतरे, मिट्टी समझ कर छोड़ देना। उसे क्षण भर भी पास मत रखना।
अगर यह शांति का बोध बना रहे, तो हम कभी भी न भटकेंगे। शांति दिशा—सूचक यंत्र का काम करती है। जिस तरफ शांति बताए, समझना कि वहीं दिशा है। और जिस तरफ शांति की सुई इशारा न करती हो, वह गंतव्य नहीं है, वहां से अपने को हटा लेना। शक्ति धोखे में न डाल दे, इसलिए शांति को स्मरण रखना जरूरी है।
'जिस शांति की कामना तुमको होगी, वह ऐसी पवित्र शांति है, जिसमें कोई विघ्‍न न डाल सकेगा। और जिस शांति के वातावरण में आत्मा उसी प्रकार विकसित होगी, जैसे शांत सरोवर में पवित्र कमल विकसित होता है।
जिस शांति की कामना तुमको होगी, वह ऐसी पवित्र शांति होगी, जिसमें कोई विघ्‍न न डाल सकेगा। ध्यान रहे, जिसमें कोई विघ्‍न डाल सके, वह शांति नहीं है। इसे समझ लेना जरूरी है।
अक्सर लोग कहते हैं कि हमारी शांति में विघ्‍न डाल दिया। लेकिन अगर दूसरा आपकी शांति में विघ्‍न डाल सकता है, तो वह शांति दूसरे की दी हुई है। क्योंकि हम उसी में विघ्‍न डाल सकते हैं, जो दी हुई है, अन्यथा विघ्‍न नहीं डाल सकते। अगर आप शांत बैठे हैं, और एक बच्चा वहां शोरगुल कर रहा है, और आप कहते हैं कि वह विघ्‍न डाल रहा है, तो इसका अर्थ हुआ यह कि बच्चा अगर चुप बैठे तो वह आपको शांति देता है, ऊधम करे तो शांति छीन लेता है। वह शांति आपकी नहीं है, बच्चे की है। आप कहते हैं, बाजार में शोरगुल होता है तो मेरा ध्यान भ्रष्ट हो जाता है। तो ध्यान है ही नहीं। क्योंकि जिस ध्यान को बाजार भ्रष्ट कर देता है, उस ध्यान की क्या कीमत है! दो कौड़ी का भी नहीं है। वह बाजार का ही दिया हुआ है। आप कहते हैं, जंगल में जा कर बड़ा ध्यान लगता है। वह ध्यान वगैरह नहीं है, जंगल का दान है, जंगल की देन है। जंगल ने जो दिया है, वह आपका नहीं है। बाजार जो छीन लेता है, वह आपका नहीं है।
तो आप वर्षों बैठे रहे जंगल में, पहाड़ पर, आप भ्रम में हैं, जैसे ही उतरेंगे बाहर, पाएंगे फिर अशांत हो गए। और ज्यादा अशांत हो जाएंगे, जितने पहले कभी भी नहीं हुए थे। विघ्‍न जिसमें कोई डाल सके, उसका अर्थ ही हुआ कि वह आपका नहीं है।
उस शांति को खोजना, जिसमें कोई विघ्‍न न डाल सके। इसका यह अर्थ हुआ कि विघ्‍न से बच कर मत खोजना, विघ्‍न के बीच ही खोजना। बच्चा शोर न भी मचा रहा हो, तो और मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठा कर लेना और कहना कि तुम सब शोर मचाओ, मैं ध्यान करता हूं। और जिस दिन तुम पाओ कि बच्चे शोर कर रहे हैं और तुम्हारा ध्यान चल रहा है, उस दिन तुम समझना कि यह तुम्हारा है। पहाड़, हिमालय मत खोजना, ठीक बीच बाजार में बैठ कर ध्यान करना। क्योंकि पहाड़ धोखा दे सकता है। पहाड़ शांति देता है, इसलिए धोखा दे सकता है। पहाड़ से बचना, बाजार में ही शांति खोजना। जिस दिन बाजार में ही तुम शांति को पा लोगे, उस दिन अब तुमसे कोई भी छीन न सकेगा। क्योंकि जो छीन सकता था, उसी के बीच तुमने पा लिया है।
इसलिए घर छोड़ कर मत भागना। गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो गए अगर तुम, तो ही संन्यास सच्चा है। अगर घर छोड़ा, पत्नी छोड़ी, बच्चे छोड़े, धन छोड़ा, और फिर तुम संन्यासी हुए, तो संन्यास जो है, आरोपित है, झूठा है, कंडीशनल है। अगर पत्नी फिर वापस दे दी जाए, तो वह एक रात में तुम से तुम्हारे संन्यास को छीन लेगी। और जल्दी छीन लेगी। देर न लगेगी।
इसीलिए तथाकथित संन्यासी बड़ा ड़रा रहता है। कहीं स्त्री न छू जाए, ड़रा हुआ है। क्यों ड़रा हुआ है इतना? इतना भयभीत संन्यास कहां ले जाएगा? इतना निर्बल संन्यास क्या परिणाम लाएगा? इससे आत्मा सबल हुई कि निर्बल हो गई? यह हम कभी सोचते ही नहीं!
एक आदमी स्त्री को छूने से ड़रता है। हम सोचते हैं, बड़ा आत्मवान है। और स्त्री को छूने से ड़र रहा है! स्त्री छू जाए तो उनका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है! यह तो हद की निर्बल आत्मा हो गई। इस निर्बल आत्मा की क्या उपलब्धि है? ऐसे कहता रहता है कि स्त्री तो हड्डी—मांस का ढेर है। और छूने से ड़रता भी है! तो यह जो ऊपर—ऊपर कह रहा है, यह केवल आयोजन है अपने को समझाने का, भीतर रस मौजूद है। छू ले तो रस का जन्म हो जाए। रस का जन्म हो जाए तो उसे लगेगा कि भीतर पतन हो गया है।
लेकिन कोई स्त्री किसी पुरुष में रस पैदा नहीं करती और न कोई पुरुष किसी स्त्री में रस पैदा करता है। रस होता है, तो उसे बाहर खींच लेती है। यह सहारा है आत्‍मदर्शन का। अगर आपके भीतर वासना है, तो स्त्री की मौजूदगी उस वासना को बाहर ले आती है। तो स्त्री सिर्फ दर्पण का काम कर रही है, स्त्री सिर्फ निदान कर रही है, वह एक डायग्नोसिस कर रही है कि आपके भीतर क्या छिपा है। उससे भागना क्या! उसे सदा पास रखना अच्छा है, क्योंकि पता चलता रहे कि भीतर क्या है। और उसके पास रहते अगर वासना खो जाए, तो ब्रह्मचर्य उपलब्ध हुआ, तो शक्ति उपलब्ध हुई, जो आंतरिक है।
जीवन को विपरीत से भाग कर अगर आप सम्हालते हैं, तो वह सम्हाला हुआ होगा, वह हाट— हाउस प्लांट होगा। तो आप एक कांच का घर बना सकते हैं, उसमें वातानुकूलित व्यवस्था कर सकते हैं, कोई भी पौधा उसमें सम्हाला रह सकता है। लेकिन भूल कर भी इस पौधे को धूप में, रोशनी में, हवा में मत निकालना। यह मर जाएगा। तो आपके संन्यासी हाट—हाउस प्लांट हैं। उनकी व्यवस्था है। उस व्यवस्था के भीतर वे संन्यासी हैं। उनकी व्यवस्था से जरा ही उनको बाहर लाओ प्रकृति की दुनिया में, वे मिट्टी साबित होंगे। मिट्टी के शेर हैं, जरा सा पानी पड़ा कि बह जाएंगे। पानी से इतने ड़रे हुए हैं, असली शेर हो नहीं सकते। असली शेर तो पानी का आनंद ले लेगा और प्रफुल्लित हो जाएगा और शक्तिशाली हो जाएगा।
विपरीत से समृद्ध होने की कला आनी चाहिए, विपरीत से बचना कमजोरी है।
तो जिस शांति में कोई विघ्‍न डाल सके, उस शांति की कामना ही मत करना। वह काम की भी नहीं है, वह तो और मुसीबत है। सच तो यह है कि वह और भी अशांति का कारण है।
इसलिए किसी—किसी घर में अगर कोई आदमी दुर्भाग्य से धार्मिक हो जाए, तो वह पूरे घर की भी अशांति का कारण हो जाता है और खुद भी बहुत अशांति, उपद्रव करवाता है। अगर आप ध्यान करने लगें— एक मुसीबत पूरे परिवार की हो गई। क्योंकि आप अपने ध्यान का उपयोग अब पूरे परिवार की निंदा के लिए करेंगे। अब जरा सी बात आपको अशांत करेगी। और अशांति का जुम्मा आप दूसरे पर डालेंगे कि बर्तन क्यों इतनी जोर से गिरा, कि बच्चे ने आवाज क्यों लगाई, कि कोई रोया क्यों, कि किसी ने रेडियो क्यों खोल दिया? आप शांत होने चले थे कि दुनिया भर की अशांत होने की व्यवस्था आपने ही इकट्ठी कर ली!
रेडियो चलते रहेंगे, बच्चे रोके भी, हंसेंगे भी, बर्तन छूट कर गिरेगा भी—इस सबकी गहन स्वीकृति होनी चाहिए। और इसकी मौजूदगी में आपको शांत होना चाहिए। विघ्‍न से घबडाएं न, विघ्‍न को साधना का क्षेत्र समझें। तो जो शांति उपलब्ध होगी, वह आपकी है। उस पर भरोसा किया जा सकता है। अगर आप सच में ही धार्मिक आदमी बनेंगे तो घर में आपके कारण शांति बढ़ेगी। अगर आप झूठे धार्मिक आदमी बन गए—जैसे कि मुल्क भर में है—तो घर—घर अशांत हो जाएगा। एक आदमी घर में धार्मिक हो जाए तो घर भर को पागल कर सकता है।
एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि कोई भी तरह बचाओ, मेरे पति धार्मिक हो गए हैं। हम घर भर मुसीबत में पड़ गए हैं। फिर वे साधारण पति भी न थे, सरदार थे। मैंने कहा कि क्या कर रहे हैं वे? ऐसी क्या तकलीफ आ गई? तो वह कहने लगी कि दो बजे रात से उठ कर कीर्तन करते हैं, तो कोई सो ही नहीं पा रहा है। बच्चों की परीक्षा करीब आ रही है, बच्चे सिर पीट रहे हैं। मगर वे हैं धार्मिक और वे दो बजे रात से कीर्तन करते हैं।
तो मैंने उनके पति को बुलाया। मैंने कहा कि यह क्या कर रहे है? वे कहने लगे कि ब्रह्म—मुहूर्त   में कीर्तन करता हूं। दो बजे रात ब्रह्म—मुहूर्त! वे कहने लगे कि ब्रह्म—मुहूर्त में सबको उठना ही चाहिए, इसमें बाधा का क्या सवाल है? मुझसे बोले कि आप उन लोगों की बातो में मत पड़ना, सब अधार्मिक हैं, दुष्ट हैं—कीर्तन में बाधा डालते हैं, धार्मिक कार्य में अड़चन खड़ी करते हैं।
अब वे सारे घर की निंदा में हैं। और जिससे भी कहेंगे कि ब्रह्म—मुहूर्त में कीर्तन करो, तो किसी की हिम्मत नहीं है उनसे कहने की कि आप बंद करो। क्योंकि कौन अधार्मिक बनेगा! तो मैंने उनसे कहा कि ऐसा करो, बंद न करो, ब्रह्म—मुहूर्त को थोड़ा नीचे सरकाओ। दो बजे जरा ज्यादा ब्रह्म—मुहूर्त है, थोड़ा तीन बजे करो। फिर और सरका कर चार बजे करना, फिर पांच बजे करना। कहने लगे कि आप क्या कहते हैं? कहां तक इसको सरकाना है?
मैंने कहा कि मैं ब्रह्म—मुहूर्त उसको कहता हूं जब तुम्हारे भीतर छिपे हुए ब्रह्म की आख खुले। और किसी उपाय को मैं ब्रह्म—मुहूर्त नहीं कहता। तुम सोए रहना, जब नींद अपने आप खुले। अभी तुम अलार्म भर कर उठते हो, यह ब्रह्म—मुहूर्त नहीं है, अलार्म—मुहूर्त है। तुम इसको बंद करो। जब तुम्हारे भीतर जो ब्रह्म छिपा है, उसकी जब नींद खुले, तब तुम ब्रह्म—मुहूर्त समझना। वे कहने लगे, आप मुझे भ्रष्ट कर देंगे! मैं तो फिर नौ बजे के पहले उठ ही नहीं सकता। तो मैंने कहा, जब तुम नहीं उठ सकते, तो बच्चों का भी थोड़ा ध्यान करो। और तुम्हें अध्यात्म की खोज पैदा हो गई, उनको अभी पैदा नहीं हुई, उनको क्यों परेशान कर रहे हो? और तुम्हारी वजह से ये बच्चे अध्यात्म से सदा के लिए सचेत हो जाएंगे। ये बच्चे कभी भूल कर धर्म की तरफ न जाएंगे। तुम इसके जिम्मेवार रहोगे। क्योंकि तुम उनकी जिंदगी खराब किए दे रहे हो। जब भी कोई धर्म की बात करेगा, ये समझेंगे कि दो बजे रात का ब्रह्म—मुहूर्त है। इस बात में पड़ना ही नहीं। और तुम इनको निंदित कर रहे हो और पागल तुम हो। और तुम कह रहे हो कि ये तुम्हें अशांत करते हैं, बाधा डालते हैं; अशांत तुम इन्हें कर रहे हो।
यह जो धर्म है, यह करीब—करीब विक्षिप्त लोग इसमें बड़े आकर्षित होते हैं। क्योंकि धार्मिकता की आड़ में विक्षिप्तता को छिपाना इतना आसान है कि जिसका हिसाब नहीं। और हजार तरह के रोग लोग धर्म की आड़ में छिपा लेते हैं। अगर आपको गंदा रहने में रस है— और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे कुछ लोग हैं, जिनको शरीर की गंदगी में वासना हैं—तो फिर आप कोई ऐसा मार्ग चुन लें। कोई जैनों के साधु हो जाएं, जिसमें नहाने वगैरह की मनाही है। तो फिर आप गंदगी में जो मजा लेंगे! और आपके पास अगर कोई भी थोड़ा स्वच्छ आदमी आ गया, तो आप उसको निंदा से देख सकते हैं। नहाया— धोया तो वासनातुर है, क्योंकि शरीर की इतनी सजावट कर रहा है। नहाना— धोना शरीर की सजावट है। गंदे होना, दातुन न करना, मुंह से बास निकल रही हो, ये पुण्य—कर्म हैं!
पागल इस तरह के लोग हैं। पश्चिम में इनका इलाज होता है। यहां वे कोई तरकीब खोज कर धार्मिक हो जाते हैं। पश्चिम में कोई आदमी अगर ऐसी हरकत करे, तो उसका इलाज होने के लिए फौरन वे चिकित्सक के पास ले जाएंगे, मनोवैज्ञानिक के पास ले जाएंगे, कि इसमें कुछ गड़बड़ हो गई। लेकिन यहां कोई गड़बड़ नहीं हुई। यहां उसको हम स्वीकार कर लेंगे।
जुग ने कहा है कि हिंदुस्तान में पागल आदमी कम हैं, उसका कारण यह है कि हिंदुस्तान में पागलों को और ढंग के उपाय भी हैं। वे पागल भी रह सकते हैं और बिना जाहिर हुए!
अब अगर कोई आदमी खाना खा रहा है और साथ में पाखाना भी कर रहा है तो हम उसे परमहंस कहते हैं। दुनिया में कहीं भी उसको फौरन जेलखाने में डालेंगे। हम कहते हैं, इसको तो अभेद उपलब्ध
हो गया, अद्वैत, यह परमहंस है, इसको कोई भेद ही नहीं है। यह आदमी विक्षिप्त है, यह आदमी पागल है, इसकी चिकित्सा की जरूरत है। इसने बुद्धि खो दी है। यह बुद्धि के पार नहीं गया, बुद्धि से नीचे गिर गया। लेकिन हम इसको.. .हम इसका सम्मान करेंगे!
ध्यान रहे, झूठा धर्म आपके भीतर की अशांति को बढ़ावा देगा, विक्षिप्तता को बढ़ावा देगा। और झूठा धर्म सदा ही दूसरों को दोषी ठहराएगा। आप सदा ठीक हैं, दूसरे सदा दोषी हैं। लेकिन सच्चा धर्म किसी को दोषी नहीं ठहराता। दूसरे जैसे हैं, वैसे हैं। उनको वैसा होने का हक है, वैसे होने की स्वतंत्रता है।
एक बच्चे को हक है कि वह गीत गाए, नाचे। यह बच्चा होने का अधिकार है। आपकी जरूरत है कि आप ध्यान कर रहे हैं, लेकिन बच्चे की जरूरत है कि नाचे—कूदे, चिल्लाए। आप मजे से ध्यान करिए। बच्चा तो आपसे नहीं कहता कि आप ध्यान करके मुझे बाधा दे रहे हैं और आपके ध्यान में बैठने से मेरे खेलने में बाधा पड़ती है। तो आप क्यों कह रहे हैं कि तेरे खेलने से हमारे ध्यान में बाधा पड़ती है? बच्चे को खेलने है, आप ध्यान करें। आप यह खयाल ही छोड़ दें कि कोई आपके ध्यान में बाधा डाल सकता है। यह खयाल के छूटते ही आप ध्यान की ठीक दिशा में गति करने लगेंगे। और जब भी कोई आपको लगे कि विघ्‍न डाल रहा है, तब तत्‍क्षण आप समझना कि आप ही कोई भूल कर रहे हैं, नहीं तो विघ्‍न नहीं पड़ सकता।
इसलिए यह सूत्र कहता है, 'जिस शांति की कामना तुमको होगी, वह ऐसी पवित्र शांति है, जिसमें कोई विश्व न डाल सकेगा। और उस शांति के वातावरण में आत्मा उसी प्रकार विकसित होगी, जैसे शांत सरोवर में पवित्र कमल विकसित होता है।
और उस शांत ध्यान की अवस्था में ही तुम्हारी आत्मा का कमल खिलेगा, जैसे शांत झील में कमल खिलता है। फिर तुम्हें उसे खिलाने की कोशिश न करनी पड़ेगी, वह खिलना शुरू हो जाएगा। बाहर से मुक्त शांति, बाहर से मुक्त शक्ति, बस दो अनिवार्यताए हैं। और तुम्हारे जीवन का कमल खिलना शुरू हो जाएगा।
बारहवां सूत्र, 'स्वामित्व की अपूर्व अभीप्सा करो। परंतु ये संपत्तियां केवल शुद्ध आत्मा की हों और इसलिए सभी शुद्ध आत्माएं इसके समान रूप से स्वामी हों और इस प्रकार ये सभी की (जब वे सब संयुक्त हो) संपत्ति हों।
'स्वामित्व की अपूर्व अभीप्सा करो।
मालकियत! इसलिए हिंदू संन्यासियों ने संन्यासी का नाम स्वामी चुना है। लेकिन कैसा स्वामित्व? मकान का, धन का, दुकान का स्वामित्व? नहीं, क्योंकि वह तो सिर्फ धोखा है। तुम बनते हो गुलाम और स्वामी होने का खयाल रखते हो! तुम बनते हो दास और सोचते हो कि सम्राट हो गए!
सुना है मैंने, मुसलमान फकीर फरीद एक गांव से गुजरता था। और एक आदमी एक गाय को रस्सी से बांध कर घर की तरफ ले जाता था। तो फरीद रुक गया—उसकी ऐसी आदत थी—उसने अपने शिष्यों से कहा, घेर लो इस आदमी को और इस गाय को, और तुम्हें मुझे कुछ शिक्षा देनी है। तो वह आदमी थोड़ा चौंका। उसने कहा कि मुझे घेरने की क्या जरूरत है? उसने कहा कि तुम चुप रहो, तुमसे हमें कुछ करना नहीं, सिर्फ मेरे शिष्यों को शिक्षा देनी है। और फरीद ने कहा कि शिष्यो, मैं पूछता हूं इन दोनों में मालिक कौन है? गाय या यह आदमी? शिष्यों ने कहा कि आप भी क्या पूछते हैं? जाहिर है कि आदमी मालिक है। क्योंकि गाय उसकी संपत्ति है और गले में उसने उसके फंदा डाला है। तो फरीद ने कहा कि मैं तुमसे दूसरा सवाल पूछता हूं अगर हम बीच की रस्सी काट दें और गाय भाग खड़ी हो, तो गाय के पीछे यह आदमी दौड़ेगा कि गाय आदमी के पीछे दौड़ेगी? उन्होंने कहा कि निश्चित ही यह आदमी गाय के पीछे दौड़ेगा। तो गाय इस आदमी को नहीं खोजेगी? यह आदमी गाय को खोजेगा? तो फिर मालिक कौन है? तो फरीद ने कहा कि यह रस्सी तुम्हें दिखाई पड़ती है गाय के गले में, यह इस आदमी के गले में है।
वस्तुएं हमारे गले में फंदा कस लेती हैं। जिनके हम मालिक होते हैं, उनके हम गुलाम हो जाते हैं। जिसके भी आप मालिक होंगे, उसके गुलाम हो जाएंगे।
जरा खयाल करें! हमारे मुल्क में पति अपने को स्वामी कहते हैं। उनसे बड़ा गुलाम खोज सकते हैं आप? स्वामी हैं वे। पत्नी जब उनको पत्र लिखती है तो उसमें स्वामी लिखती है और नीचे दस्तखत करती है, आपकी दासी। और सब भलीभांति जानते हैं कि कौन दास है और कौन मालिक है। किसी को जरा भी संदेह नहीं है उस मामले में। स्त्रियां होशियार हैं, वे राजी हैं, कि ठीक, दस्तखत ही करने हैं दासी के—चलेगा। लेकिन असलियत में कौन मालिक है? पति तब तक गुलाम रहेंगे, जब तक वे मालिक होने का खयाल रखते हैं। जब तक उनको खयाल है कि पत्नी के स्वामी होना है, तब तक वे शब्दों में स्वामी बने रहें, वे गुलाम रहेंगे।
जो भी मालिक बनने की दूसरे के ऊपर कोशिश करेगा, वह गुलाम हो जाएगा। सब तरह की मालकियत बाहर की दुनिया में गुलामी लाती है।
तो यह किस स्वामित्व की तरफ इशारा है?
यह भीतर की मालकियत की तरफ इशारा है। तुम सिर्फ केवल अपने ही मालिक हो सकते हो। किसी दूसरे के तुम मालिक हो नहीं सकते हो। उस भूल में पड़ना भी मत। बाहर की मालकियत असंभव है, वहां सिर्फ प्रवंचना है। तुम जब भी उस प्रवंचना में पड़ोगे, आखिर में पाओगे कि गुलाम हो गए। मालिक नहीं हुए। आखिर में पाओगे कि तुमने जो बनाया था मालकियत का मकान, वह कारागृह हो गया गुलामी का और तुम उसके भीतर घिर गए और फंस गए।
सिर्फ एक ही मालकियत हो सकती है—वह है अपनी। और ध्यान रहे, जो अपना ही मालिक नहीं है, वह किसका मालिक हो सकता है? कैसे हो सकता है? जो खुद का ही मालिक नहीं है, वह कैसे किसी और का मालिक हो सकता है? सिर्फ अपने ही मालिक होने का उपाय है। और जो अपना मालिक होना चाहता है, वह दूसरे की मालकियत छोड़ देता है।
यह जो सूत्र है, स्वामित्व की अपूर्व अभीप्सा करो, यह सूत्र इसीलिए है कि तुम धोखे से राजी मत होना। अपूर्व अभीप्सा करो स्वामित्व की, असली स्वामित्व की अभीप्सा करो। धोखे से राजी मत होना, नकली चीजों से मत सोच लेना कि मैं मालिक हो गया। जब तक कि तुम अपने ही मालिक न हो जाओ, तब तक तुम अभीप्सा जारी रखना।
उलटा लगता है। जिन्होंने सब छोड़ कर सड़क पर भिक्षुक का वेष बना लिया है, उनको हमने स्वामी कहा है। सिर्फ बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को स्वामी नहीं कहा, भिक्षु कहा। सोच कर कहा। वे दोनों बातें बड़ी मजेदार हैं।
हिंदुओं ने संन्‍यासियों को स्‍वामी कहा—इस कारण कि उसने सारा स्‍वामित्‍व छोड़ दिया और अब एक ही जगह उसने अपने स्वामित्व को बनाने की चेष्टा की है, वह उसकी स्वयं की आत्मा है। वह अपना मालिक है। इसलिए हिंदुओं ने अपने संन्यासियों को स्वामी कहा है।
बुद्ध ने अपने संन्यासियों को भिक्षु कहा है। उलटा लगता है। लेकिन बुद्ध ने इसलिए अपने संन्यासियों को भिक्षु कहा, कि इस दुनिया में सभी को स्वामी होने का खयाल है। यहां सभी स्वामी हैं, कोई इसका, कोई उसका। यह शब्द गंदा हो गया। तो मैं तुम्हें भिक्षु कहूंगा। भिक्षु तो मैं इसलिए कहूंगा कि इस दुनिया में हालत उलटी है, यहां सब भिखारी अपने को स्वामी कह रहे हैं, इसलिए मैं स्वामी को भिखारी कहूंगा।
बुद्ध ने कहा कि इस दुनिया में जब सब मामला ही उलटा है और लोग शीर्षासन कर रहे हैं, तो तुम्हें मुझे पैर के बल खड़ा करना पड़ेगा। यहां सब भिखारी अपने को स्वामी मान रहे हैं, तब तुमको स्वामी कहने से बड़ी भांति पैदा होगी, इसलिए मैं तुमको भिक्षु कहूंगा। क्योंकि तुम अपने स्वामी हो। और भिक्षु अपने को स्वामी कह रहे हैं, इसलिए उचित है कि स्वामी अपने को भिक्षु कहें।
पर बात एक ही है, इरादा एक ही है, कि आंतरिक मालकियत उपलब्ध हो।
'स्वामित्व की अपूर्व अभीप्सा करो।
आज इतना ही।



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