प्रश्न—सार:
1—अगर तंत्र
मध्य में
रहने को कहता
है तो भोग
और
दमन के फर्कको
कैसे समझा जाए?
2—क्या
गुरु के प्रति
खुलेहोने
और कामवासना
के
प्रति खुले
होने के बीच
कोई संबंध है?
पहला
प्रश्न:
पिछली
रात आपने सभी
तंत्र—साधना
के आधार के
रूप मैं सर्व—स्वीकार
की चर्चा की। जहां
तक मुझे स्मरण
है, किसी दूसरे
दिन आपने कहा
था कि तंत्र का
विज्ञान सब
कुछ के मध्य
में होना
सिखाता है,
जीवन में
अतियों से
बचना सिखाता
है। इस संदर्भ
में कृपया
समझाएं कि
जीवन में
कामवासना के भोग
और दमन के
फर्क को कैसे
समझा जाए।
समग्र जीवन
को स्वीकार
करने का ही
अर्थ है मध्य
मार्ग। अगर
तुम अस्वीकार
करते हो तो
तुम दूसरी अति
पर चले गए।
अस्वीकार अति
है। अगर तुम
किसी चीज को
अस्वीकार
करते हो तो
उसे उसके
विपरीत के लिए
अस्वीकार
करते हो। वह
दूसरी अति पर
जाना हुआ। अगर
कोई कामवासना
को इनकार करता
है तो वह ब्रह्मचर्य
को,
दूसरी अति
को पकड़ेगा।
और अगर वह
ब्रह्मचर्य
को इनकार करता
है तो वह उसके
दूसरे छोर भोग
पर चला जाएगा।
इनकार करते ही
तुम अति मार्ग
पर चले जाते
हो।
समग्र
का स्वीकार
सहज ही मध्य
में होना है।
तुम न किसी के
पक्ष में होते
हो और न
विपक्ष में, तुम
चुनाव ही नहीं
करते हो। तुम
नदी की धारा
के साथ बहते
हो। तुम्हारी
कोई मंजिल नहीं
है, तुम्हारा
कोई चुनाव
नहीं है, जो
होता है तुम
उसे बस होने
देते हो।
तंत्र
पूरी तरह धारा
के साथ बहने
में भरोसा करता
है। जब तुम
चुनाव करते हो
तो उसके साथ
ही तुम्हारा
अहंकार
प्रविष्ट हो
जाता है। जब
तुम चुनाव
करते हो तो
उसमें
तुम्हारा
संकल्प
समाविष्ट हो
जाता है। जब
तुम चुनाव
करते हो तो
तुम सारे जगत
के विरोध में
खड़े हो जाते
हो। तुम्हारा
चुनाव
तुम्हारा
होता है। जब
तुम चुनाव
करते हो तो
तुम जागतिक
प्रवाह से टूट
जाते हो, उससे
अलग— थलग हो
जाते हो। तब
तुम एक द्वीप
बन जाते हो।
तब तुम जीवन
के समस्त
प्रवाह के
विरुद्ध होकर
स्वयं होने की
चेष्टा करते
हो।
अचुनाव का
अर्थ है कि
जीवन कहां जाए
इसका निर्णय
तुम्हें नहीं
करना है। तुम
जीवन को बहने
देते हो, तुम
भी जीवन के
साथ हो जाते
हो, जीवन
जहां ले जाए।
तब तुम्हारी
कोई निश्चित
मंजिल नहीं है।
अगर तुम्हारी
कोई निश्चित
मंजिल है तो चुनाव
करना
अनिवार्य हो
जाता है। अचुनाव
में जीवन की
मंजिल
तुम्हारी
मंजिल हो जाती
है। तुम जीवन
के विरोध में
नहीं जाते हो,
जीवन के
विरोध में
तुम्हारी
अपनी कोई
धारणा नहीं है।
तुम अपने को
जीवन—शक्ति के
हाथों में छोड़
देते हो, समर्पित
हो जाते हो।
समग्र
स्वीकार से
तंत्र का यही
अर्थ है।
और
एक बार जीवन
को समग्रता
में स्वीकार
करते ही चीजें
अपने आप घटित
होने लगती हैं।
क्योंकि यह
समग्र
स्वीकार
तुम्हें
अहंकार से
मुक्त कर देता
है। तुम्हारा
अहंकार ही समस्या
है,
इसके कारण
ही तुम्हारी
निर्मित होती
है। जीवन कोई समस्या
नहीं है, अस्तित्व
समस्या—रहित
है। तुम खुद
समस्या हो।
तुम खुद ही
समस्या के
निर्माता हो।
और तुम हर चीज
को समस्या बना
लेते हो। अगर
तुम्हें
परमात्मा मिल
जाए तो तुम
परमात्मा को
भी समस्या बना
लोगे। अगर तुम
स्वर्ग पहुंच
जाओ तो तुम
स्वर्ग को भी
समस्या में
बदल दोगे।
क्योंकि तुम
समस्याओं के
मूल स्रोत हो।
तुम समर्पण
नहीं करोगे।
और यही समर्पण
न करने वाला
अहंकार ही सभी
समस्याओं की
जड़ है।
तंत्र
कहता है कि
कुछ उपलब्ध
करने का
प्रश्न नहीं
है,
प्रश्न यह
नहीं है कि
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध कैसे
हुआ जाए। अगर
तुमने
कामवासना के
विरुद्ध ब्रह्मचर्य
उपलब्ध भी कर
लिया तो
तुम्हारा ब्रह्मचर्य
बुनियादी रूप
से कामुक होगा।
दो अतियां, चाहे एक—दूसरे
से कितने
विपरीत हों, एक के ही अंग
हैं, एक ही
चीज के दो
पहलू हैं। अगर
तुमने एक को
चुना तो उसके
साथ ही दूसरे
को भी चुन
लिया। दूसरा
अभी छिपा
रहेगा, दबा
रहेगा। दमन का
क्या अर्थ है?
एक ही चीज
के दो पक्षों
में से, दो
अतियों में से
एक के विरुद्ध
दूसरे को चुनना
दमन है।
तुम
कामवासना के
विरुद्ध
ब्रह्मचर्य
को चुनते हो।
लेकिन
ब्रह्मचर्य
क्या है? वह
कामवासना का
उलटा रूप है।
तुमने
ब्रह्मचर्य
चुना तो उसके
साथ ही तुमने कामवासना
को भी चुन
लिया। अब सतह
पर
ब्रह्मचर्य
होगा और गहरे
में कामवासना
होगी। और तुम
उपद्रव में
रहोगे। और यह
उपद्रव
तुम्हारे
चुनाव के कारण
होगा। तुम एक
छोर को चुन लो
और दूसरा छोर
अपने आप ही चला
आएगा। और
चूंकि तुम
दूसरे छोर के
विरुद्ध हो, इसलिए तुम
उपद्रव में
रहोगे।
तंत्र
कहता है, चुनाव
मत करो, चुनाव—रहित
होओ। और एक
बार यदि तुम
यह समझ जाओ तो
फिर यह प्रश्न
नहीं उठेगा कि
भोग क्या है
और दमन क्या
है। तब न दमन
है और न भोग है।
यह प्रश्न
इसीलिए उठता
है क्योंकि
तुम अब भी चुनाव
करते हो। लोग
आते हैं और
मुझसे कहते
हैं कि हम
जीवन को
स्वीकार कर
लेंगे, लेकिन
जीवन को
स्वीकार करने
पर
ब्रह्मचर्य कब
घटित होगा?
वे
समग्र
स्वीकार के
लिए राजी हैं, लेकिन
उनका यह राजी
होना झूठा है,
केवल सतह पर
है। गहराई में
वे अभी भी
अतियों को पकड़े
हुए हैं। वे
ब्रह्मचर्य
चाहते हैं।
लेकिन
कामवासना से लड़कर
उन्हें
ब्रह्मचर्य
नहीं मिला। और
जब वे मुझे
सुनते हैं तो
सोचते हैं कि लड़कर नहीं
मिला तो अब
उसे स्वीकार
के द्वारा
पाना चाहिए।
लेकिन पाने
वाला मन, चाह
वाला मन, लोभी
मन ज्यों का
त्यों है।
मंजिल भी है, चुनाव भी है;
सब ज्यों का
त्यों कायम है।
और जब तक
तुम्हें कुछ
पाना है तब तक
तुम समग्र को
नहीं स्वीकार
कर सकते। यह
स्वीकार
समग्र नहीं है।
तब तुम
स्वीकार को भी
उपलब्धि का
साधन बना रहे
हो।
स्वीकार
का अर्थ है कि
अब तुम कामना
वाले मन को, चाह
भरे मन को, किसी
के पीछे भागने
वाले मन को
तिलांजलि
देते हो। अब
तुम जीवन को खुलकर
बहने देते हो।
जैसे पेड़ों से
होकर हवा बहती
है, वैसे
ही तुम जीवन
को अपने भीतर
स्वतंत्रतापूर्वक
बहने देते हो,
तुम कोई
प्रतिरोध खड़ा
नहीं करते।
जीवन जहां ले
जाए तुम वहीं
जाने को राजी
हो। तुम्हारी
अपनी कोई
मंजिल नहीं है।
अगर कोई मंजिल
है तो तुम
जीवन का प्रतिरोध
करोगे, जीवन
से लड़ोगे।
अगर
वृक्ष का कोई
लक्ष्य है,
कोई रूझान, कोई धारणा
है, तो वह
हवा को अपने
से होकर
स्वतंत्रतापूर्वक
नहीं बहने
देगा। अगर हवा
दक्षिण की तरफ
जाना चाहती है
और वृक्ष
चाहता है कि
वह उत्तर की
तरफ जाए तो
वृक्ष हवा के
साथ दुश्मनी
करेगा। अगर तुम्हारा
कोई लक्ष्य है
तो तुम जीवन
को मित्र की
तरह कभी
स्वीकार नहीं
कर सकते।
तुम्हारा
लक्ष्य
शत्रुता
निर्मित करता
है। अगर तुम
जीवन से कुछ
अपेक्षा रखते
हो तो तुम जीवन
पर अपने को
आरोपित करते
हो, तुम
जीवन को घटित
होने से रोकते
हो।
तंत्र
कहता है कि
चीजें अपने आप
घटित होती हैं।
जब तुम उनकी
चाह नहीं करते, चीजें
घटित होती हैं।
जब तुम उनके
साथ जबरदस्ती
नहीं करते, चीजें घटित
होती हैं। जब
तुम उनके पीछे
भागते नहीं, चीजें घटित
होती हैं।
लेकिन यह
परिणति है, फल नहीं।
परिणति
और फल के भेद
को साफ—साफ
समझ लेना
चाहिए। फल
सचेतन रूप से
चाहा जाता है, परिणति
बाइ—प्रोडक्ट
है, उप—उत्पत्ति
है। उदाहरण के
लिए, अगर
मैं तुम से
कहता हूं कि
खेलो, क्योंकि
अगर खेलोगे
तो परिणाम में
सुख मिलेगा, तो तुम फल के
उद्देश्य से खेलोगे।
तब तुम खेलते
भी हो और सुख
के फल की
प्रतीक्षा भी
करते रहते हो।
लेकिन
मैंने तुमसे
कहा था कि सुख
परिणति होगा, फल
नहीं। परिणति
का अर्थ है कि
अगर तुम सच
में खेलते हो तो
सुख घटित होगा।
और अगर तुम
सतत सुख की
सोच रहे हो तो
वह सुख फल होगा
और वह कभी हाथ
नहीं आएगा। फल
सचेतन
प्रयत्न है, परिणति उप—उत्पत्ति
है। अगर तुम
खेल में डूब
जाओ तो सुख
मिलेगा ही।
लेकिन अगर तुम
सुख की
प्रतीक्षा
करोगे तो प्रतीक्षा
ही, सुख की
सचेतन चाह ही
तुम्हें खेल
में गहरे नहीं
डूबने देगी, वह फल की आकांक्षा
ही बाधा बन
जाएगी और तुम
सुखी न हो
सकोगे। सुख फल
नहीं, परिणति
है।
अगर
मैं तुमसे
कहूं कि तुम
प्रेम करोगे
तो सुखी होगे, तो
यह समझना
चाहिए कि सुख
फल नहीं, परिणति
होगा। और अगर
तुम सोचते हो
कि क्योंकि
मैं सुखी होना
चाहता हूं
इसलिए मुझे
प्रेम करना
चाहिए, तो
उस प्रेम से
कुछ भी हाथ
आने वाला नहीं
है। तब पूरी
बात झूठी हो
जाएगी, बनावटी
हो जाएगी, क्योंकि
कोई व्यक्ति
फल के लिए
प्रेम नहीं कर
सकता है।
प्रेम तो बस
होता है, उसके
पीछे कोई
फलाकांक्षा
नहीं होती। और
अगर उसमें कोई
फलाकांक्षा
है तो वह
प्रेम नहीं है,
वह कुछ और
चीज होगी। अगर
मेरे भीतर फलाकांक्षा
है और मैं
सोचता हूं कि
क्योंकि मैं
सुख चाहता हूं
इसलिए मैं
प्रेम करूंगा,
तो वह प्रेम
झूठा होगा। और
क्योंकि
प्रेम झूठा
होगा इसलिए
उससे सुख का
फल कभी नहीं
निकलेगा।
उससे सुख नहीं
मिलेगा, वह
असंभव है।
लेकिन अगर मैं
किसी फलाकांक्षा
के बिना प्रेम
करता हूं तो
सुख उसके पीछे
छाया की तरह
आता है।
तंत्र
का मानना है
कि रूपांतरण
स्वीकार के पीछे—पीछे
आता है। लेकिन
स्वीकार को
रूपांतरण की
विधि मत बनाओ।
स्वीकार विधि
नहीं है।
रूपांतरण की
आकांक्षा मत
करो। और मजे
की बात है कि
तभी रूपांतरण
घटित होता है।
अगर तुम उसकी
आकांक्षा
करते हो तो वह आकांक्षा
ही बाधा बन
जाएगी।
तब
फिर यह प्रश्न
नहीं उठता है
कि भोग क्या
है और दमन
क्या है। मन
में यह प्रश्न
इसीलिए उठता
है। क्योंकि
तुम पूरे को
स्वीकार
करने को राज़ी
नहीं हो। पूरे
को स्वीकार
करो। अगर वह
भोग है तो भोग
को स्वीकार
करो। और
स्वीकार करते
ही तुम मध्य
में फेंक दिए
जाओगे। और अगर
वह दमन है तो
दमन को भी
स्वीकार करो।
अगर स्वीकार
है तो तुम
निश्चित ही
मध्य में पहुंच
जाओगे।
स्वीकार की
स्थिति में
तुम अति पर
नहीं ठहर सकते
हो। अति का
अर्थ ही है
किसी चीज का
अस्वीकार, तुम
कुछ स्वीकार
करते हो और
कुछ अस्वीकार।
अति का अर्थ
है कि तुम
किसी चीज के
पक्ष में हो और
किसी चीज के
विपक्ष में हो।
लेकिन जब तुम
सब कुछ को
स्वीकार करते
हो जो है, तुम
मध्य में फेंक
दिए जाते हो, तब तुम अति
पर नहीं रह
सकते। इसलिए
दमन और भोग की
बौद्धिक
व्याख्या को
भूल जाओ। वह
व्यर्थ है, कचरा है।
उससे तुम कहीं
भी नहीं पहुंच
सकते। जहां भी
तुम हो उसे
पूरी तरह
स्वीकार करो।
अगर भोग में
हो तो उसे
स्वीकार करो।
उससे डरना
क्या!
लेकिन
एक समस्या है।
समस्या यह है
कि अगर तुम
भोगी हो तो
तुम तभी भोगी
बने रह सकते
हो जब तुम भोग
के साथ—साथ
भोग से
छुटकारे के
प्रयत्न भी
करते रहो। वह
अहंकार को
बहुत अच्छा
लगता है, उससे
तुम अच्छा
अनुभव करते हो
और तुम बदलाहट
को भविष्य के
लिए स्थगित कर
सकते हो। तुम
जानते हो कि
ऐसा ही सदा
नहीं रहेगा।
तुम सोचते हो
कि आज तो मैं
भोगी हूं
लेकिन कल इसके
पार चला जाऊंगा।
आने वाला कल
तुम्हें आज
भोग में
संलग्न रहने की
सुविधा देता
है। तुम सोचते
हो कि आज मैं
शराब पीता हूं
या सिगरेट
पीता हूं
लेकिन यह बात
मेरे साथ
जीवनभर नहीं
रहने वाली है,
मैं जानता
हूं कि यह
बुरी बात है
और कल मैं इसे छोड़
दूंगा।
कल
की यह आशा
तुम्हें आज
भोग में
संलग्न रखती है।
और यह एक
अच्छी तरकीब
है,
चालबाजी है।
जो लोग भोग
में लिप्त
रहना चाहते
हैं उन्हें जरूर
बड़े—बड़े
आदर्शों का
सहारा लेना
चाहिए। वे बड़े
—बड़े आदर्श
तुम्हें अवसर
देते हैं, सुविधा
देते हैं। तब
तुम्हें अपने
कृत्यों के
लिए बहुत
ग्लानि अनुभव
करने की जरूरत
नहीं रहती, क्योंकि तुम
सोचते हो कि
भविष्य में सब
कुछ ठीक हो
जाने वाला है,
यह तो थोड़े
समय की बात है।
यह
मन की चालाकी
है। इसलिए
भोगी लोग सदा
त्याग की बात
करते हैं।
भोगी उन
गुरुओं के पास
जाएंगे जो भोग
के विरोध में
हैं। और तुम
उनके बीच एक
गहरा संबंध देखोगे।
अगर तुम धन और
पद के पीछे
दौड़ते हो तो
तुम सदा किसी
ऐसे व्यक्ति
की पूजा करोगे
जो धन के
खिलाफ है, जो
त्यागी है।
त्यागी
तुम्हारा
आदर्श हो
जाएगा।
समृद्ध समाज
केवल उनको
पूजता है, जिन्होंने
धन का त्याग
किया है।
अपने
चारों ओर देखो
और तुम्हें
दिखाई पड़ जाएगा।
अगर तुम
कामवासना में
लिप्त हो तो
तुम उस आदमी
को आदर दोगे
जो उसके पार
चला गया है, जो
ब्रह्मचारी
हो गया है।
तुम उसकी पूजा
करोगे। वह
तुम्हारा
आदर्श है। वह
तुम्हारा
भविष्य है।
तुम सोचते हो
कि किसी दिन
मैं भी उसके
जैसा हो जाऊंगा।
तुम उसे पूजते
हो।
और
किसी दिन अगर
तुम्हारे कान
में कोई अफवाह
पड़ जाए कि यह
आदमी काम— भोग
करता है तो
तुम्हारा आदर
तुरंत काफूर
हो जाएगा।
क्योंकि तुम
अपने को आदर
म् नहीं दे
सकते। तुम जो
भी हो उसके
प्रति इतनी
निंदा से भरे
हो,
तुम इतनी आत्मनिंदा
से भरे हो कि
अगर तुम्हें
पता चले कि
तुम्हारा
गुरु तुम्हारे
जैसा ही है तो
उसके लिए
तुम्हारा आदर
समाप्त हो
जाएगा। उसे
तुम्हारे ठीक
विपरीत होना
चाहिए। तभी
तुम्हें
भरोसा हो सकता
है कि वह तुम्हैं
दूसरे किनारे
पर पहुंचा
देगा। तब तुम
उसके पीछे चल सकते
हो।
तो
अनुयायियों
और गुरुओं के
बीच सदा ही
गहरा संबंध
रहा है। तुम
सदा उन्हें
विपरीत
ध्रुवों पर
पाओगे।
अनुयायी
विपरीत ध्रुव
पर होगा, इस
कारण ही तो वह
अनुयायी है।
अगर तुम्हें
भोजन में बहुत
रस है तो तुम
उस आदमी को
आदर दोगे जो
लंबे उपवास
करता है। वह
तुम्हारे लिए
चमत्कार है और
तुम्हें आशा है
कि तुम भी
किसी दिन उसके
जैसे हो जाओगे।
वह तुम्हारा
भविष्य बन
जाएगा। तुम
उसे सम्मान
दोगे, तुम
उसकी पूजा
करोगे। वह
तुम्हारे
आदर्श की
प्रतिमा है।
लेकिन
यह आदर्श
तुम्हें तुम
जो हो वही बने
रहने की
सुविधा देता
है। वह
तुम्हें
बदलने नहीं
देता। बदलने
का प्रयत्न ही, बदलने
का विचार ही
बाधा है।
तंत्र की यही
दृष्टि है।
तंत्र
कहता है कि
तुम जो भी हो
उसे स्वीकार
करो,
कोई आदर्श
निर्मित मत
करो। सब आदर्श
सपने हैं, झूठे
हैं। जो है
उसे स्वीकार
करो, उसे
भला या बुरा
मत कहो, उसे
उचित या
अनुचित मत कहो,
उसे
तर्कसंगत
बनाने की
कोशिश न करो।
उसे जीओं और
देखो कि यही
सचाई है। तथ्य
के साथ रहो और
तथ्य को
स्वीकार करो।
यह
कठिन है, बहुत
कठिन है।
लेकिन यह कठिन
क्यों है? क्योंकि
तथ्य को
स्वीकारते ही
तुम्हारा अहंकार
चूर—चूर हो
जाता है। तब
तुम जानते हो
कि तुम एक
कामुक पशु हो।
तब
ब्रह्मचर्य
का ऊंचा आदर्श
तुम्हारे
अहंकार को कुछ
भी सहारा न दे
सकेगा। तब तुम
जानते हो कि
तुम
निन्यानबे
प्रतिशत पशु
हो—यहां मैं
एक प्रतिशत
छोड़ देता हूं
ताकि तुम्हें
बहुत ज्यादा
चोट न लग जाए।
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण और
क्राइस्ट को
आदर्श बनाकर
तुम समझते हो
कि तुम
निन्यानबे
प्रतिशत
परमात्मा हो,
सिर्फ एक
प्रतिशत की
कमी है जिसे
देर—अबेर
ईश्वर की कृपा
से पूरा कर
लोगे। और तब
तुम जैसे हो
उससे प्रसन्न
अनुभव करते हो।
लेकिन
उससे कुछ भी न
होगा। उससे
तुम सिर्फ
असली समस्या
को स्थगित कर
सकते हो, असली
संकट को टाल
सकते हो।
लेकिन जब तक
तुम उस संकट
का सामना नहीं
करते, तुम
रूपांतरित
नहीं हो सकते।
तुम्हें उससे
गुजरना ही
होगा, तुम्हें
उसकी पीड़ा
झेलनी ही होगी।
जीवन की
असलियत ही
तुम्हें सत्य
तक पहुंचा
सकती है, कल्पना
से काम नहीं
होगा।
तो
तथ्य के साथ जीओ। तुम
जो भी हो, पशु
या और कुछ, वही
ठीक है।
कामवासना है,
क्रोध है, लोभ है, सब
ठीक है। जो है
सो है। जैसा
है वैसा है।
जगत तुम्हारे
लिए इसी रूप
में घटित हुआ
है। तुमने
अपने को इसी
रूप में पाया
है। जीवन ने
तुम्हें इसी
भांति बनाया
है। और इसी
भाति जीवन
तुम्हें कहीं
लिए जा रहा है।
यही तुम्हारी
नियति है।
अपनी ओर से सब
तनाव छोड़ दो, विश्राम में
उतर जाओ। और
जीवन तुम्हें जहां
ले जाना चाहे
उसे वहां ले
जाने दो।
लेकिन
विश्राम में
उतरने में
कठिनाई है।
कठिनाई क्या
है?
कठिनाई यह
है कि अगर तुम
शिथिल हुए, अगर तुम
विश्राम में
उतरे तो
तुम्हारा
अहंकार नहीं
बचेगा।
अहंकार को प्रतिरोध
के द्वारा ही
कायम रखा जा
सकता है। जब
तुम नहीं कहते
हो, तुम्हारा
अहंकार मजबूत होता
है। और जब ही
कहते हो, अहंकार
विलीन हो जाता
है।
यही
कारण है कि
किसी चीज को
ही कहना इतना
कठिन है।
मामूली बातों
में भी ही कहना
कठीन है। नहीं
कहना हमे रास
आता है। लड़ने
से अहंकार या का
भाव सुख अनुभव
करता है। जब
तुम किसी
दूसरे से लड़ते
हो तो अहंकार
को अच्छा लगता
है,
जब स्वयं से
लड़ते हो तो
अहंकार को और
भी अच्छा लगता
है। क्योंकि
दूसरों से
लड़ने में और झंझटें
आती हैं, अपने
से लड़ने में
कोई झंझट नहीं
है। जब तुम
दूसरों से
लड़ते हो तो
समाज
तुम्हारे लिए
समस्याएं खड़ी
करेगा, लेकिन
अगर स्वयं से लड़ोगे तो
सारा समाज
तुम्हारी
पूजा करेगा।
यह
अच्छा है, क्योंकि
तब तुम किसी
दूसरे की हानि
नहीं करते हो।
और जो लोग
आत्म—पीड़क
हैं उन्हें
अगर अपने को सताने से
रोका जाए तो
वे दूसरों को सताने
लगेंगे।
अन्यथा उनकी
ऊर्जा कहां
जाएगी? इसलिए
समाज उन मूढ़ों
से प्रसन्न
रहता है जो
अपने को सताते
हैं। समाज
उनसे प्रसन्न
इसलिए रहता है
क्योंकि ऊर्जा
उन पर ही लौट
आती है, उससे
किसी दूसरे की
हानि नहीं
होती।
इसीलिए
तो हम उन्हें
साधु—महात्मा
कहते हैं। वे
साधु हैं, क्योंकि
वे बहुत हानि
कर सकते हैं
और कर रहे हैं,
लेकिन अपनी
ही हानि कर
रहे हैं। वे
आत्मघातक हैं।
खूनी और
हत्यारे अगर
अपने ही विरोध
में हो जाएं
तो वे
आत्मघातक हो
जाएंगे। और
समाज इससे खुश
होता है कि
चलो एक
हत्यारे से
मुक्ति हुई, क्योंकि वह
आत्मघातक हो
गया। समाज
उसकी प्रशंसा
करता है, उसे
सम्मान देता
है। लेकिन ऐसा
व्यक्ति वही
का वही बना
रहता है। वह
हिंसक ही बना
रहता है, लेकिन
अब वह स्वयं
के प्रति
हिंसक है।
अगर
ऐसा व्यक्ति
लोभी है तो वह
लोभी ही बना
रहता है, यद्यपि
वह अलोभ की
बात करता है।
लेकिन इस अलोभ
को देखो, उसे
समझने की
कोशिश करो।
उसके आधार में
सदा लोभ है।
वे कहते हैं
कि अगर तुम
लोभ छोड़ दोगे
तो ही तुम्हें
स्वर्ग
प्राप्त होगा।
और स्वर्ग में
क्या मिलेगा?
वे ही सब
चीजें जो लोभ
खोजता है। तो
स्वर्ग पाने
के लिए लोभ छोड़ो,
अलोभ धारण
करो।
अगर
तुम
ब्रह्मचारी
नहीं हो तो
स्वर्ग नहीं पहुंच
सकोगे। और
तुम्हें
स्वर्ग में
मिलने क्या
वाला है? यहां
पृथ्वी पर जिन—जिन
चीजों की
निंदा करते हो,
वे ही चीजें
वहां मिलने
वाली हैं। वहां
सुंदर
स्त्रियां
मिलेंगी, अप्सराएं
मिलेंगी, जिनका
कोई मुकाबला
नहीं है।
क्योंकि यहां
जो स्त्री आज
सुंदर है वह
कल कुरूप हो
जाएगी, ऐसा
शास्त्र
समझाते हैं।
लेकिन
अप्सराएं कभी
की नहीं होतीं,
उनकी उम्र
सोलह वर्ष पर
रुक जाती है।
यदि यहां
ब्रह्मचर्य
का पालन करोगे
तो स्वर्ग में
अप्सराएं
भोगने को
मिलेंगी।
लेकिन
यह किस तरह का
तर्क है? यह
वही लोभ है, वही का वही
लोभ, सिर्फ
विषय बदल जाते
हैं, समय—क्रम
बदल जाता है।
तुम भविष्य के
लिए अपनी
कामनाओं को
स्थगित कर रहे
हो। यह
सौदेबाजी है।
तंत्र
कहता है, मन की
इस पूरी
प्रक्रिया को,
उसके ढंग—ढांचे
को समझने की
कोशिश करो। और
तब अच्छा है
कि लड़ना छोड़
दो, अच्छा
है कि जैसे हो
वैसे अपने को
स्वीकार करो
और जीवन को
बहने दो। हमें
डर लगता है कि
अगर हम
स्वीकार कर
लेंगे तो हम बदलेंगे
कैसे! और
तंत्र कहता है
कि स्वीकृति ही
अतिक्रमण है। लड़कर तो
तुमने देख
लिया और तुम
नहीं बदले।
अपने पूरे
जीवन को देखो,
उसका
विश्लेषण करो।
और अगर तुम
ईमानदार
हो तो तुम
पाओगे कि तुम
रंचमात्र भी नहीं
बदले हो। अपने
बचपन में
लौटकर देखो, अपने
पूरे जीवन को उघाड़कर
देखो। और तुम
पाओगे कि चाहे
विचार या
बातें कुछ भी करो
तुम्हारा
यथार्थ जीवन
वहीं का वही
रहा है। और
तुम निरंतर
लड़ते रहे हो
और कुछ भी नहीं
हुआ।
तो
अब तंत्र का
प्रयोग करो।
तंत्र कहता है
कि लड़ो मत, लड़कर
कोई कभी नहीं
बदलता है।
स्वीकार करो।
और फिर यह
प्रश्न नहीं
रहता है कि
भोग क्या है और
दमन क्या है, ब्रह्मचर्य
क्या है और यह—वह
क्या है। तब
कोई प्रश्न
नहीं रहता है।
जो भी है, तुम
उसे स्वीकार
करते हो और
उसके साथ बहते
हो। तुम अपने
अहंकार के
प्रतिरोध को
छोड़ देते हो और
अस्तित्व के
साथ
विश्रामपूर्ण
हो जाते हो।
और तब जीवन
तुम्हें जहां
ले जाए वहां
जाने को तुम
राजी हो। अगर
अस्तित्व की
नियति कहती है
कि तुम्हें
पशु रहना है
तो तंत्र कहता
है कि तुम पशु
रहने को राजी
हो जाओ। इससे
क्या होगा और
कैसे होगा?
तंत्र
कहता है कि
समग्र
स्वीकार से
समग्र रूपांतरण
घटित होता है।
क्योंकि जब
तुम स्वीकार
कर लेते हो तो आंतरिक
विभाजन
विसर्जित हो
जाता है। और
तुम अखंड हो
जाते हो, एक हो
जाते हो। तब
तुम्हारे
भीतर दो नहीं
रहे, संत
और पशु नहीं
रहे। अभी
दोनों एक साथ
हैं। संत पशु
के दमन में
लगा है और पशु
प्रत्येक क्षण
संत को उखाड़
फेंकने में
लगा है। तब
दोनों विदा हो
जाएंगे। तब
तुममें खंड
नहीं होंगे।
तब तुम अखंड
हो।
और
यह अखंडता
ऊर्जा देती है।
तुम्हारी सब
ऊर्जा आंतरिक
द्वंद्व और
संघर्ष में
नष्ट हो जाती
है। यह
स्वीकृति
तुम्हें
एकजुट कर देती
है। अब न वह
पशु रहा जिसकी
निंदा की जाए
और न वह संत रहा
जिसको उछाला
जाए। तुम अब
जो भी हो वह हो।
तुमने उसे
स्वीकार कर
लिया है, तुम उसके
साथ विश्राम
में हो, इसलिए
तुम्हारी सब
ऊर्जा इकट्ठी
हो गई है। तब
तुम अखंड हो, पूर्ण हो।
तब तुम अपने
भीतर बंटे
नहीं हो।
यह
अखंडता, यह
संपूर्णता ही
वह कीमिया है
जो रूपांतरित
करती है। इस
संपूर्णता के
साथ तुम
ऊर्जावान
होते हो। अब
तुम अपने जीवन
का अपव्यय नहीं
करते, क्योंकि
कोई आंतरिक
द्वंद्व न रहा।
अब तुम अपने
भीतर चैन में
हो। और
द्वंद्व—मुक्त
होने से जो
ऊर्जा
प्राप्त होती
है वही ऊर्जा
तुम्हारा बोध
बन जाती है, चैतन्य बन
जाती है।
ऊर्जा
दो आयामों में
गति कर सकती
है। अगर वह
संघर्ष में
उतरती है तो
वह रोज—रोज
नष्ट होगी।
लेकिन अगर
संघर्ष न हो
और ऊर्जा
इकट्ठी होती जाए
तो एक दिन वही
ऊर्जा
रूपांतरण बन
जाती है। यह
वैसे ही है
जैसे पानी को
गर्म करते हो।
और जब सौ
डिग्री पर
पहुंच जाता है
तब पानी कुछ और
हो जाता है।
तब पानी पानी
नहीं रहता, भाप
बन जाता है।
निन्यानबे
डिग्री पर भी
पानी भाप नहीं
बनेगा, सिर्फ
सौ डिग्री पर
ही वह
रूपांतरित
होगा।
वही
प्रक्रिया
अंतस जगत में
घटती है। तुम
तो रोज—रोज
अपनी ऊर्जा
नष्ट कर रहे
हो,
इसलिए
वाष्पीभूत
होने का बिंदु
कभी नहीं आता है।
वह नहीं आ
सकता, क्योंकि
ऊर्जा ही
इकट्ठी नहीं
हो पाती है। आंतरिक
संघर्ष के
विदा होते ही
ऊर्जा
संगृहीत होने
लगती है और
तुम ज्यादा से
ज्यादा सबल
होते जाते हो।
लेकिन
यह बात अहंकार
के लिए नहीं
है,
अहंकार तो
संघर्ष से ही
शक्तिशाली अनुभव
करता है। जब
संघर्ष नहीं
रहता तो
अहंकार
नपुंसक अनुभव करता
है। लेकिन तब
तुम शक्तिशाली
अनुभव करते हो।
और यह तुम
सर्वथा भिन्न
चीज है। जब तक
तुम अखंड नहीं
होता हो,
एक नहीं होते
हो। जब तक तुम
इसे नहीं जान
सकते। अहंकार
तोड़ने में
जीता है। विभाजन
में जीता है।
और यह तो वह
तुम है जिसे
हम आत्मा कहते
हैं। वह आत्मा
तब पैदा होती
है जब विभाजन
नहीं रहता है,
संघर्ष
नहीं रहता है।
आत्मा का अर्थ
है संपूर्ण।
आत्मा का अर्थ
है. अखंड
ऊर्जा। और जब
ऊर्जा अखंड
होती है तो वह
संगृहीत होने लगती
है।
तुम
रोज—रोज ऊर्जा
का सृजन करते
हो,
तुम्हारे
भीतर जीवन—ऊर्जा
निर्मित होती
रहती है।
लेकिन तुम इस
ऊर्जा को
संघर्ष में
गंवा देते हो।
यही ऊर्जा एक
बिंदु पर
पहुंचकर बोध
बन जाती है, चैतन्य बन
जाती है। यह
अपने आप होता
है। तंत्र
कहता है कि यह
अपने आप होता
है। जब तुम
जानोगे कि
अखंड कैसे हुआ
जाता है, समग्र
कैसे हुआ जाता
है, तब तुम
ज्यादा से
ज्यादा सजग और
बोधपूर्ण हो जाओगे।
और एक दिन
आएगा जब तुम्हारी
समग्र ऊर्जा
बोध में
रूपांतरित हो
जाएगी।
और
जब ऊर्जा बोध
में
रूपांतरित
होती है तो
बहुत सी चीजें
घटित होती हैं।
अब यह ऊर्जा
कामवासना में
नहीं जा सकती।
जब वह ऊंचे
आयाम में गति
कर सकती है तो
वह नीचे आयाम
में नहीं जा
सकती।
तुम्हारी
ऊर्जा नीचे की
तरफ प्रवाहित
होती है, क्योंकि
तुम्हारे लिए
कोई ऊंचा आयाम
उपलब्ध नहीं
है। और
तुम्हें
ऊर्जा का वह
तल भी नहीं
उपलब्ध है जहां
से ऊर्जा
ऊर्ध्वगमन
करती है।
इसलिए वह
कामवासना में
गति करती रहती
है। और जब वह
कामवासना
बनती है तो
तुम भयभीत हो
जाते हो और
ब्रह्मचर्य
का आदर्श निर्मित
कर लेते हो।
इस आदर्श के
कारण तुम
विभाजित हो
जाते हो और तुम्हारी
शक्ति क्षीण
होने लगती है।
इस तरह
तुम्हारी
शक्ति नष्ट
होती है।
यह
एक
महत्वपूर्ण
अनुभव है कि
जब तुम कमजोर
होते हो तो
अधिक कामुक
अनुभव करते हो।
जीवशास्त्र
की दृष्टि से
यह बात अत्यंत
बेतुकी मालूम
पड़ती है, क्योंकि
जीवशास्त्र
कहता है कि जब
तुम
शक्तिशाली हो,
तब उन्हें
अधिक कामुक
होना चाहिए।
लेकिन ऐसी बात
नहीं है। जब
तुम दुर्बल हो,
बीमार हो, तब कामवासना
ज्यादा सताती
है। जब तुम
स्वस्थ हो, जब एक
सूक्ष्म ढंग
का स्वास्थ्य
तुम्हें उपलब्ध
है, तब तुम
उतने कामुक
नहीं अनुभव
करते। और तब
कामवासना की
गुणवत्ता भी
और होगी। जब
तुम कमजोर हो
तो तुम्हारी
कामवासना भी
रुग्ण होगी।
और तब एक
दुष्ट—चक्र
निर्मित हो
जाएगा। काम—
भोग के जरिए
तुम ज्यादा
कमजोर हो
जाओगे और जितने
ज्यादा कमजोर
होओगे उतने ही
ज्यादा कामुक
होते जाओगे।
और
तब कामुकता मस्तिष्कगत
हो जाएगी, वह
काम—केंद्र से
हटकर
मस्तिष्क में
समा जाएगी। और
जब तुम स्वस्थ
होते हो, जब
भले—चंगे
होते हो, जब
तुम आनंदित
अनुभव करते हो,
विश्रामपूर्ण
होते हो, तब
तुम कामुक
नहीं होते। और
यदि सेक्स
घटता भी है तो
वह रुग्णता
नहीं है। तब
वह ऊर्जा का
अतिरेक है, तब वह ऊर्जा
की बाढ़ है।
उसकी
गुणवत्ता ही
और है। जब काम
ऊर्जा की बाढ़
की तरह घटता
है तो वह प्रेम
है, जो
जैविक ऊर्जा
के द्वारा
अपने को
अभिव्यक्त करता
है। वह जैविक
ऊर्जा के
द्वारा गहन
मिलन बन जाता
है, गहरा
संपर्क बन
जाता है। वह
प्रेम का ही
हिस्सा है।
और
जब तुम कमजोर
होते हो, जब
काम—ऊर्जा बाढ़
नहीं बनती, तब काम— भोग
अपने प्रति ही
हिंसा है। और
आत्म—हिंसा
कभी प्रेम
नहीं बन सकती
है। दुर्बल
आदमी
कामवासना में उतर
सकता है, लेकिन
उसका काम कभी
प्रेम नहीं हो
सकता। यह करीब—करीब
बलात्कार है,
दोनों के
प्रति
बलात्कार है;
उसके अपने
प्रति भी
बलात्कार है।
लेकिन तब एक
दुष्ट—चक्र निर्मित
हो जाता है, वह जितना
दुर्बल होता
है उतना ही
कामुक होता जाता
है।
लेकिन
ऐसा क्यों
होता है? जीवशास्त्र के पास इसका
कोई उत्तर
नहीं है, लेकिन
तंत्र के पास
इसका उत्तर है।
तंत्र कहता है
कि कामवासना
मृत्यु का एंटीडोट
है। कामवासना
समाज के लिए
जीवन है। तुम
मर जाओगे, लेकिन
जीवन चलता
रहेगा। इसलिए
जब तुम निर्बल
होते हो, मृत्यु
करीब मालूम
पड़ती है।
तंत्र कहता है
कि तब
कामवासना
बहुत प्रबल हो
जाती है, क्योंकि
तुम किसी भी
क्षण समाप्त
हो सकते हो।
तुम्हारी
ऊर्जा का तल
नीचे गिर गया
है, तुम
किसी भी क्षण
मर सकते हो।
इसलिए
कामवासना
प्रबल हो जाती
है, ताकि
कोई नया जीवन
तुम्हारी जगह
ले और जीवन चलता
रहे।
तंत्र
की दृष्टि में
बूढ़े लोग
युवकों से
ज्यादा कामुक
होते हैं। और
यह दृष्टि
बहुत गहरी है।
युवक में शक्ति
ज्यादा होती
है,
लेकिन
कामुकता उतनी
नहीं होती। बूढ़े
लोगों में
शक्ति कम होती
है, लेकिन
वे कामुक
ज्यादा होते
हैं। अगर हम
किसी बूढ़े के
मन में प्रवेश
कर सकें तो
पता चलेगा कि
क्या स्थिति
है। जहां तक
काम—ऊर्जा का
संबंध है, बूढ़े
में वह कम है
और युवक में
ज्यादा।
लेकिन जहां तक
कामुकता का
संबंध है, काम—चिंतन
का संबंध है, वह युवक से बूढ़े
में ज्यादा है।
मृत्यु करीब आ
रही है, इसलिए
क्षीण होती
ऊर्जा चाहेगी
कि किसी को जन्म
दे जाए। जीवन
को चलते रहना
है। जीवन को
तुम्हारी
चिंता नहीं है,
उसे अपनी
चिंता है। और
यही दुष्ट—चक्र
है।
और
यही बात
विपरीत क्रम
में भी घटित
होती है। अगर
तुम ऊर्जा से
लबालब हो तो
कामवासना कम
और प्रेम
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
और तब काम
प्रेम के ही
एक अंग की तरह, एक
गहन मिलन की
तरह घटित होता
है। जैविक—ऊर्जा
का मिलन सबसे
गहरा मिलन है,
क्योंकि
वही जीवन—शक्ति
है। तुम जिसे
प्रेम करते हो
उसे कुछ देना
चाहोगे। देना
प्रेम का अंग
है। प्रेम में
तुम कुछ भेंट
देते हो। और
सबसे बड़ी भेंट
अपनी जीवन—ऊर्जा
की भेंट है।
प्रेम में
सेक्स जैविक
ऊर्जा की, जीवन
की भेंट बन
जाता है। तुम
अपना एक अंश
भेंट करते हो।
सच तो यह है कि
प्रत्येक
संभोग में तुम
अपने को
समग्रत: दे
देते हो। और
तब एक दूसरा
वर्तुल
निर्मित होता
है, तुम
जितने
प्रेमपूर्ण
होते हो उतने
ही सबल भी होते
हो। तुम जितना
प्रेम करते हो,
जितना
प्रेम देते हो,
उतने ही सबल
होते जाते हो।
क्योंकि
प्रेम में
अहंकार विलीन
हो जाता है, प्रेम में
तुम्हें जीवन
के साथ बहना
पड़ता है।
राजनीति
में रहकर
तुम्हें जीवन
के साथ बहने की
जरूरत नहीं है।
राजनीति में
रहकर जीवन के
साथ बहना मूढ़ता
होगी।
क्योंकि
राजनीति में
तो जीवन के
विरुद्ध बहना
पड़ता है, तभी
तुम राजनीति
में ऊपर उठ
सकते हो। अगर
तुम दुकानदार
हो तो तुम
जीवन के साथ
बहने की मूढ़ता
न करोगे। जीवन
के साथ बहकर
तुम कहीं के न
रहोगे। बाजार
में तुम्हें
प्रतियोगिता
करनी होगी, संघर्ष करना
होगा, हिंसा
करनी होगी।
वहां तुम
जितने हिंसक बनोगे, जितने
पागल बनोगे,
उतने ही सफल
होओगे।
व्यवसाय
संघर्ष है।
प्रेम
में,
केवल प्रेम
में
प्रतियोगिता
नहीं है, संघर्ष
नहीं है, हिंसा
नहीं है।
प्रेम में तो
तुम तभी जीतते
हो जब समर्पण
करते हो।
इसलिए पृथ्वी
पर प्रेम ही
एकमात्र
अपार्थिव तत्व
है, संसार
में प्रेम ही
एकमात्र गैर—सांसारिक
चीज है, अलौकिक
वस्तु है। और
अगर तुम प्रेम
में हो तो तुम
ज्यादा अखंड
होगे,ज्यादा
समग्र बनोगे।
तब तुम्हारे
पास ज्यादा
से ज्यादा
ऊर्जा संगृहीत
होगी। और
जितनी ज्यादा
ऊर्जा होगी, कामुकता
उतनी कम होगी।
और फिर एक
क्षण आता है
जब ऊर्जा उस
जगह पहुंचती
है जहां
रूपांतरण
घटित होता है
और वही ऊर्जा
बोध बन जाती है।
तब काम विदा
हो जाता है और
सिर्फ
प्रेमपूर्ण हार्दिकता,
मात्र
करुणा बच रहती
है।
बुद्ध
के चारों ओर
जो
प्रेमपूर्ण
करुणा की आभा
फैली है वह
काम—ऊर्जा का
ही रूपांतरण
है। लेकिन तुम
इसे लड़कर
नहीं प्राप्त
कर सकते, क्योंकि
लड़ने से तुम
विभाजित होते
हो और विभाजन
तुम्हें
ज्यादा कामुक
बनाता है। यह
तंत्र की
दृष्टि है, यह उससे
सर्वथा भिन्न
है जिसे तुम
काम या ब्रह्मचर्य
समझते हो।
केवल तंत्र के
द्वारा ही
सच्चा
ब्रह्मचर्य, सच्ची
निर्दोषता
घटित होती है।
लेकिन वह फल
नहीं, परिणति
है, वह
समग्र
स्वीकार की
छाया है।
दूसरा
प्रश्न:
मेरा
मन कहता है कि
मैं आपका
संदेश ग्रहण
करने के लिए
तत्पर हूं
लेकिन अंत में
मैं प्रतिरोध
करने लगता हूं
और थक जाता
हूं। मुझे
संदेह है कि
अगर मैं
कामवासना के
तल पर खुला
रहता तो मैं आपके
संदेश के
प्रति भी खूला
रहता। तो क्या
गुरु के प्रति
खुला होने और
कामवासना के
प्रति खुला
होने के बीच
कोई विशेष
संबंध है? मेरी
पृष्ठभूमि, मेरा अतीत
जीवन समर्पण
का एक नकारात्मक
और निष्क्रिय
अर्थ प्रदान
करता है। मुझे
ऐसा लगता है कि
जब तक मैं
अपने चित्त की
इस
नकारात्मकता
के ऊपर नहीं
उठता तब तक
मैं गहरे नहीं
जा सकता हूं।
क्या समर्पण
तब भी संभव है
जब कि उसका
विपरीत भाव
इतनी गहरी जड़
जमाकर बैठा हो?
हां, समर्पण
और काम के बीच
संबंध है, क्योंकि
काम पहला
समर्पण है। वह
जैविक समर्पण
है, जिसे
तुम आसानी से
अनुभव कर सकते
हो। समर्पण का
क्या अर्थ है?
उसका अर्थ
है खुला होना,
निर्भय
होना, ग्राहक
होना। उसका
अर्थ है दूसरे
को अपने में
प्रवेश देना।
जैविक तल पर, प्रकृति के
तल पर काम वह
बुनियादी
अनुभव है जिसमें
तुम अनायास
दूसरे को अपने
में प्रवेश देते
हो, या
किसी को अपने
इतने करीब आने
देते हो कि
उससे कोई बचाव
नहीं करते, कोई
प्रतिरोध
नहीं करते।
तुम उसके साथ
बहते हो, विश्रामपूर्ण
होते हो, निर्भय
होते हो। उसके
संग में
तुम्हें
भविष्य की
चिंता नहीं रहती,
परिणाम की
चिंता नहीं
रहती, तुम
बस उस क्षण
में होते हो।
उस क्षण में
यदि मृत्यु भी
हो जाए तो तुम
उसे स्वीकार
कर लोगे।
गहन
प्रेम में
प्रेमियों ने
सदा अनुभव
किया है कि
मरने के लिए
यही ठीक क्षण
है। अगर
मृत्यु आ जाए
तो उस क्षण
में मृत्यु का
भी स्वागत
किया जा सकता
है। प्रेमी
खुले होते हैं, मृत्यु
के प्रति भी
खुले होते हैं।
अगर तुम जीवन
के प्रति खुले
हो तो मृत्यु
के प्रति भी
खुले रहोगे।
और अगर तुम
जीवन के प्रति
बंद हो तो
मृत्यु के
प्रति भी बंद
रहोगे। जो लोग
मृत्यु से
भयभीत हैं वे
बुनियादी रूप से
जीवन से भयभीत
हैं। असल में
वे जी नहीं
पाए, यही
कारण है कि वे
मृत्यु से
भयभीत हैं। और
यह भय
स्वाभाविक है।
अगर तुम जीवन
को नहीं जी
पाए हो तो तुम
मृत्यु से अनिवार्यत:
भयभीत होओगे।
क्योंकि
मृत्यु
तुम्हें जीने
के अवसर से
वंचित कर देगी।
अब तक तुम जीए
ही नहीं और
मृत्यु आ गई
तो फिर तुम कब
जीओगे?
जो
आदमी जीवन को प्रगाढ़ता
से जीता है वह
मृत्यु से
नहीं डरता है।
वह तृप्त है और
अगर मृत्यु भी
उसके सामने आ जाए
तो वह उसका भी स्वागत
करेगा, उसे भी
स्वीकार करेगा।
जीवन उसे जो
कुछ दे सकता
था, वह
उसने पा लिया
है। जीवन में
जो कुछ जाना
जा सकता था, वह उसने जान
लिया है। अब
वह आसानी से
मृत्यु में
प्रवेश कर
सकता है। वह
तो स्वेच्छा
से मृत्यु में
जाना पसंद
करेगा, ताकि
कुछ अज्ञात, कुछ नया
जाना जा सके।
काम
में,
प्रेम में
तुम निर्भय
होते हो। तुम
भविष्य में
मिलने वाली
किसी चीज के
लिए नहीं लड़
रहे हो, यही
क्षण
तुम्हारे लिए
स्वर्ग है, यही क्षण
शाश्वत है।
लेकिन
जब मैं यह
कहता हूं तो
उसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुमने काम के
द्वारा यह
अनुभव
प्राप्त कर
लिया है। अगर
तुम भयभीत हो, प्रतिरोध
कर रहे हो तो
सेक्स में
तुम्हें बस जैविक
राहत का अनुभव
होगा, तुम
बस तनाव—मुक्त
हो जाओगे, लेकिन
तुम्हें उस
समाधि का
अनुभव नहीं
होगा जिसकी
तंत्र चर्चा
करता है।
विलहेम
रेख कहता है
कि जब तक
संभोग में
तुम्हें प्रगाढ
आर्गाज्म का, काम—समाधि
का अनुभव नहीं
होता, तब
तक समझना कि
तुमने काम को
नहीं जाना। वह
मात्र काम—ऊर्जा
का बहिर्गमन
नहीं है, तुम्हारे
पूरे शरीर को
विश्राम में
डूब जाना चाहिए।
तब काम का
अनुभव काम—केंद्र
पर ही सीमित
नहीं रहता है,
वह पूरे
शरीर पर फैल
जाता है।
तुम्हारे
शरीर की रग—रग
उससे नहा
जाती है और
तुम्हें एक
शिखर—अनुभव
प्राप्त होता
है, जिसमें
तुम शरीर नहीं
रहते। अगर
तुमने संभोग
में इस शिखर—
अनुभव को नहीं
जाना है
जिसमें तुम
शरीर नहीं रहते
तो तुमने काम
को जाना ही
नहीं। इसलिए
विलहेम रेख एक
विरोधाभासी
बात कहता है, वह कहता है
कि सेक्स इज़ स्प्रिचुअल—काम—
भोग
आध्यात्मिक
है।
तंत्र
भी यही कहता
है और उसका
अर्थ यह है कि
गहरे काम— भोग
में तुम शरीर
नहीं रहोगे, तुम
कंपती—डोलती
हुई ऊर्जा
मात्र रह
जाओगे।
तुम्हारा
शरीर बहुत
पीछे छूट
जाएगा, तुम
उसे बिलकुल
भूल जाओगे, वह नहीं
जैसा हो जाएगा।
तुम भौतिक जगत
के हिस्से
नहीं रहोगे, तुम
अपार्थिव हो
जाओगे। तभी
काम—समाधि घटित
होती है।
संभोग के
संबंध में
तंत्र यही
कहता है।
उसमें एक ऐसे
समग्र
विश्राम का
भाव आता है, जहां
व्यक्ति
आप्तकाम
अनुभव करता है,
जहां किसी
भी चीज की चाह
नहीं रह जाती
है। जब तक
संभोग में यह
भाव न उठे—यह
अचाह का भाव—तब
तक तुमने
संभोग बिलकुल
नहीं जाना। हो
सकता है कि
तुमने बच्चे
पैदा किए हों,
वह आसान है,
लेकिन वह
भिन्न चीज है।
काम
में अध्यात्म
का अनुभव केवल
मनुष्य उपलब्ध
कर सकता है, अन्यथा
कामवासना महज
पाशविक
वृत्ति है।
लेकिन जब साधु—महात्मा
कामवासना की
निंदा करते
हैं तो तुम कहते
हो कि वे सही
हैं। और जब
तंत्र कुछ और
कहता है तो
उसमें भरोसा
करना कठिन
होता है, क्योंकि
वह तुम्हारा
अनुभव नहीं है।
यही कारण है
कि तंत्र का
संदेश अब तक
विश्वव्यापी
नहीं हो सका।
लेकिन उसका
भविष्य
उज्जवल है, क्योंकि
मनुष्य जितना
ही विवेकशील
होगा, जितनी
उसकी समझ बढ़ेगी,
उतना ही
ज्यादा तंत्र
भी स्वीकृत
होगा। पिछले
सौ वर्षों में
मनोविज्ञान
ने उस संसार
का आधार रख
दिया है जो
तांत्रिक
संसार होगा।
लेकिन
तुम तो उसकी
ही में ही
मिलाते हो जो
काम की निंदा
करता है, क्योंकि
तुम्हारा अनुभव
भी वही है।
तुम भी जानते
हो कि उसमें कुछ
नहीं होता है,
कामवासना
में उतरने के बाद
तुम थकावट
अनुभव ही का अनुभव
करते हो। इसलिए
काम की इतनी नींदा होती
है, जब भी तुम
उसमें उतरते
हो तुम उदास
हो जाते हो और
बाद में
पश्चात्ताप
करते हो।
तंत्र, विलहेम
रेख, फ्रायड
और दूसरे
जानने वाले
लोग इस बात
में बिलकुल
एकमत हैं कि
अगर संभोग में
तुम्हें आर्गग्ज
उपलब्ध हो तो
उसकी पुलक
घंटों रहेगी
और तुम सर्वथा
भिन्न अनुभव
करोगे।
तुम्हें कोई
चिंता नहीं
रहेगी, कोई
तनाव नहीं
रहेगा, बस
आह्लाद का भाव
होगा, समाधि
का भाव होगा।
और वह समाधि
तभी घटित होती
है जब तुम
उसमें पूरे
मुक्त भाव से
उतरते हो, अपने
को जरा भी
बचाकर नहीं
रखते। जब तुम
लड़ते नहीं, जीवन—ऊर्जा
के साथ बहते
हो।
जीवन—ऊर्जा
के दो तल हैं
और उन्हें समझ
लेना अच्छा रहेगा।
मैं उस दिन
श्वास की
चर्चा कर रहा
था। मैंने
तुम्हें
बताया कि
श्वास
तुम्हारी स्वैच्छिक
व्यवस्था और
तुम्हारी गैर—स्वैच्छिक
व्यवस्था के
बीच सेतु है।
तुम्हारे
शरीर का बड़ा
भाग गैर—स्वैच्छिक
है।
खून
दौड़ता
रहता है और
तुम्हें उसके
लिए कुछ भी
नहीं करना
पड़ता है, वह
अपने आप ही दौड़ता
रहता है।
सिर्फ पिछले
तीन सौ वर्षों
से आदमी को
पता है कि खून दौड़ता है।
उसके पहले
समझा जाता था
कि शरीर में
बस खून भरा है—नहीं
कि वह भीतर
बहता रहता है।
कारण यह है कि
तुम्हें उसके
बहने का एहसास
नहीं होता है,
वह
तुम्हारे
बिना ही, तुम्हारे
अनजाने ही
अपना काम करता
है। वह गैर—स्वैच्छिक
है।
तुम
भोजन लेते हो।
भोजन लेने के
बाद ही शरीर
अपना काम शुरू
कर देता है।
मुंह के आगे
तुम्हारी कोई
जरूरत नहीं है।
ज्यों ही भोजन
मुंह से नीचे
उतरता है कि
शरीर उसे अपने
हाथ में ले
लेता है, गैर—स्वैच्छिक
व्यवस्था
अपना काम शुरू
कर देती है।
और यह अच्छा
ही है कि यह
काम ऐसे होता
है। अगर यह
काम तुम्हारे
हाथ में होता
तो तुम उसे भी
चौपट कर देते।
यह काम अपने
आप में इतना
बड़ा है कि अगर
तुम्हें करना
पड़ता तो फिर
तुम और कोई
काम नहीं कर
सकते थे। एक
कप चाय पीने
के बाद
तुम्हें पूरा
दिन उसी चाय
में व्यस्त
रहना पड़ता कि
कैसे उसे खून
में रूपांतरित
करें। काम ही
इतना बड़ा है।
तो
शरीर गैर—स्वैच्छिक
ढंग से काम
करता है।
लेकिन थोडे से
काम हैं जो हम
स्वैच्छिक
ढंग से कर
सकते हैं। मैं
अपने हाथ को
चला सकता हूं
लेकिन मैं उस
खून को नहीं
चला सकता जो
हाथ को चलाता
है। मैं उसकी
व्यवस्था के
साथ कुछ नहीं
कर सकता हूं
लेकिन मैं हाथ
को चला सकता
हूं। मैं अपने
शरीर को चला
सकता हूं
लेकिन उसके भीतर
जो कुछ हो रहा है, उसके
साथ मैं कुछ
नहीं कर सकता।
मैं उस
व्यवस्था में
हस्तक्षेप
नहीं कर सकता जो
उसके भीतर है।
मैं कूद सकता
हूं मैं दौड़
सकता हूं बैठ
सकता हूं लेट
सकता हूं
लेकिन भीतर
मैं कुछ भी
नहीं कर सकता।
सिर्फ सतह पर
मुझे थोड़ी
स्वतंत्रता
है।
सेक्स
बहुत
रहस्यपूर्ण
घटना है। तुम
उसे आरंभ तो
करते हो, लेकिन
एक क्षण आता
है जब तुम
नहीं होते हो।
सेक्स का आरंभ
तो स्वैच्छिक
है, लेकिन
फिर उसकी एक
सीमा है। अगर
तुम उस सीमा
के पार गए तो
फिर लौट नहीं
सकते। सीमा के
भीतर रहने पर
वापस लौटा जा
सकता है।
इसलिए सेक्स
स्वैच्छिक और
गैर—स्वैच्छिक
दोनों है। एक
सीमा तक तुम्हारे
मन की जरूरत
पड़ती है।
लेकिन अगर
तुमने अपना मन,
अपनी
बुद्धि, अपनी
चेतना, अपना
धर्म, अपना
दर्शन, अपनी
जीवन—शैली, सब कुछ बचाए
रखा, अगर
तुमने अपना मन
विसर्जित
नहीं किया तो
फिर सीमा का
अतिक्रमण नहीं
हो सकेगा और
तुम
स्वैच्छिक
क्षेत्र में
है। सेक्स का
अनुभव करते रहोगे।
वही
हो रहा है। और
तब संभोग के
बाद तुम थकावट
महसूस करोगे,
तुम उसके
विरोध में हो
जाओगे, तबै
तुम उसके
विरुद्ध व्रत
लोगे, तब
तुम्हें जीवन
से ही विराग
होने लगेगा।
यह ठीक है कि
ये व्रत—नियम
ज्यादा दिन
नहीं चलेंगे,
चौबीस घंटे
के भीतर तुम
ठीक हो जाओगे
और फिर कामवासना
में उतरने को
तैयार हो
जाओगे। लेकिन
वह पुनरुक्ति
हो जाती है और
सारी चीज व्यर्थ
हो जाती है।
तुम फिर—फिर
ऊर्जा इकट्ठी
करते हो, फिर—फिर
उसे बाहर
फेंकते हो और
उससे कुछ भी
फलित नहीं
होता है। और
यह एक लंबी ऊब
का, विरसता
का सिलसिला बन
जाता है। और
इसीलिए वे
साधु—महात्मा
तुम्हें
प्रभावित
करते हैं जो
कामवासना की
निंदा करते
हैं, उनकी
बात तुम्हें
समझ आती है
लेकिन
तुम्हें गैर—स्वैच्छिक
संभोग का पता
नहीं है। वह
सेक्स का सबसे
गहरा जैविक
आयाम है, जिसे
कभी तुमने
स्पर्श नहीं
किया है। तुम
सदा सीमा से
ही लौट आते
रहे, क्योंकि
सीमा पर भय
लगता है। उस
सीमा के पार
तुम्हारा
अहंकार नहीं
बचेगा, उस
सीमा के पार
तुम खुद नहीं
बचोगे। उस
सीमा के पार
तुम काम—ऊर्जा
के बस में हो
जाओगे, काम—ऊर्जा
तुम्हें
आविष्ट कर
लेगी। तब तुम
कुछ करोगे जिस
पर तुम्हारा
नियंत्रण
नहीं रहेगा।
और जब तक तुम
इस
अनियंत्रित
क्षेत्र में
नहीं प्रवेश
करते तब तक आर्गाज्म
को नहीं
उपलब्ध हो
सकते। इस
अनियंत्रित
जीवन—ऊर्जा को
जानते ही तुम
नहीं रहते, तुम सागर
में लहर जैसे
हो जाते हो।
और तब चीजें
अपने आप ही
घटित होती हैं,
उन पर
तुम्हारा बस
नहीं रहता।
असल में तुम
सक्रिय नहीं
रहते, निष्क्रिय
हो जाते हो।
शुरू में ही
तुम सक्रिय
होते हो, फिर
एक क्षण आता
है जब तुम निष्क्रिय
हो जाते हो।
और तभी आर्गाज्म,
काम—समाधि
घटित होती है।
अगर
तुम इस अनुभव
को जान लो तो
फिर तुम बहुत
सी चीजें समझ
सकते हो। तब
तुम समझ सकोगे
कि धार्मिक
समर्पण क्या
चीज है। तब
तुम गुरु के
प्रति शिष्य
के समर्पण को
समझ सकोगे। तब
तुम अस्तित्व
के प्रति किसी
के समर्पण को भी
समझ सकोगे।
लेकिन अगर तुम
किसी भी
समर्पण से
परिचित नहीं
हो तो तुम्हें
इसकी कल्पना
भी नहीं हो
सकती कि समर्पण
क्या है।
तो
यह सही है कि
सेक्स या काम
समर्पण से
गहरे ढंग से
संबंधित है।
अगर तुमने
सेक्स का गहन
अनुभव किया है
तो तुम समर्पण
करने में
ज्यादा सक्षम
होंगे।
क्योंकि
तुमने समर्पण
से आने वाले
गहन सुख को
जाना है, तुमने
उस आनंद को
जाना है जो
समर्पण की
छाया की तरह
आता है। सेक्स
जैविक समर्पण
है, समाधि
अस्तित्वगत
समर्पण है।
काम के द्वारा
तुम जीवन का
संस्पर्श
करते हो, समाधि
में तुम जीवन
से भी गहरे उतरकर
अस्तित्व के
आधार को ही छू
लेते हो। काम
के द्वारा तुम
स्वयं से
दूसरे
व्यक्ति में
गति करते हो, समाधि में
तुम स्वयं से समस्त
में, पूरे
ब्रह्मांड
में गति कर
जाते हो।
तो
यदि तुम मुझे
कहने दो तो
तंत्र जागतिक
संभोग है। यह
पूरे जगत के
प्रेम में पड़ना
है,
यह पूरे जगत
के प्रति
समर्पित होना
है। और
तुम्हें निष्क्रिय
रहना है। एक
सीमा तक
सक्रिय होना
है, लेकिन
उसके पार
तुम्हारी
जरूरत नहीं
रहती, उसके
पार तुम बाधा
बन सकते हो। उसके
पार सब कुछ
जीवन—ऊर्जा के
हाथ में छोड़
दो, अस्तित्व
के हाथ में
छोड़ दो।
दूसरी
बात,
अगर तुम समर्पण
को नकारात्मक और
निष्क्रिय मानते
हो तो उसमें
कोई भूल नहीं
है। वह निष्क्रिय
और नकारात्मक
है, लेकिन
यह निष्क्रियता
और नकारात्मकता
कोई निंदा की
बात नहीं है।
हमारे मन में
नकार शब्द
सुनते ही
निंदा का भाव
उठता है, निष्क्रिय
शब्द सुनते ही
निंदा उठती है,
क्योंकि
अहंकार के लिए
ये दोनों
मृत्यु जैसे हैं।
निष्क्रिय
होने में कोई
गलती नहीं है।
निष्क्रियता
जगत के साथ
गहन संपर्क
में होने का
ढंग है। तुम
इस संपर्क में
सक्रिय नहीं
हो सकते हो।
धर्म
और विज्ञान
में यही भेद
है। विज्ञान
जगत के प्रति
सक्रिय है, धर्म
जगत के प्रति निष्क्रिय
है। विज्ञान
पुरुष चित्त
जैसा है—सक्रिय,
हिंसक, बलात्कारी।
और धर्म
स्त्रैण
चित्त जैसा है—खुला,
निष्क्रिय,
ग्राहक।
ग्राहकता सदा निष्क्रिय
होती है।
तुम्हें
सत्य को
निर्मित नहीं
करना है, उसे
बस ग्रहण करना
है। तुम सत्य
का निर्माण
नहीं कर सकते,
सत्य तो है
ही। उसे ग्रहण
भर करना है।
तुम आतिथेय हो
जाओ तो सत्य
तुम्हारा
अतिथि हो
जाएगा। तुम
मेजबान बनो तो
वह तुम्हारा
मेहमान बन जाएगा।
और मेजबान को निष्क्रिय
ही रहना है।
सत्य को ग्रहण
करने के लिए
गर्भ बनना
पड़ता है।
लेकिन
तुम्हारा मन
सक्रियता में
प्रशिक्षित
है, वह सदा
कुछ करता रहता
है। और यह वह
जगत है जहां
तुम्हारा कुछ
करना ही बाधा
बन जाता है।
कुछ मत करो, बस होओ। निष्क्रियता
का यही अर्थ
है : कुछ मत करो,
बस होओ; और
जो है उसे
होने दो।
तुम्हें
सक्रिय रूप से
कुछ करना नहीं
है, तुम्हें
बस ग्राहक
होने की जरूरत
है। निष्क्रिय
रहो, हस्तक्षेप
मत करो।
निष्क्रियता
में कोई दोष
नहीं है।
कविता तभी
घटित होती है
जब तुम निष्क्रिय
होते हो।
विज्ञान के
बड़े से बड़े
आविष्कार भी
निष्क्रियता
में ही घटित
हुए हैं।
लेकिन
विज्ञान का
रुझान सक्रिय
है। विज्ञान
में भी जो
सर्वश्रेष्ठ
है वह तब घटित
होता है जब
वैज्ञानिक निष्क्रिय
होता है, प्रतीक्षातुर होता है, कुछ
करता नहीं। और
धर्म तो
बुनियादी रूप
से निष्क्रिय
है।
बुद्ध
जब ध्यान करते
हैं तो क्या करते
हैं?
हमारी भाषा,
हमारे शब्द
गलत धारणा
पैदा करते हैं।
जब हम कहते
हैं कि बुद्ध
ध्यान कर रहे
हैं तो शब्दों
के कारण ऐसा
प्रतीत होता
है कि वे कुछ कर
रहे हैं।
लेकिन ध्यान
का अर्थ है
कुछ भी नहीं
करना। अगर तुम
कुछ कर रहे हो
तो ध्यान नहीं
होगा।
लेकिन
सब करना सेक्स
जैसा है : आरंभ
में तुम्हें
सक्रिय होना है, लेकिन
तब एक क्षण
आता है जब सब
सक्रियता
समाप्त हो
जाती है और
तुम निष्क्रिय
हो जाते हो।
जब मैं कहता
हूं कि बुद्ध
ध्यान कर रहे
हैं तो उसका
अर्थ है कि
बुद्ध नहीं
हैं; वे
कुछ कर नहीं
रहे, वे निष्क्रिय
हैं। बुद्ध बस
मेजबान हैं, प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
और
जब तुम अज्ञात
की प्रतीक्षा
करते हो तो
तुम कोई
अपेक्षा भी
नहीं कर सकते।
असल में तुम
नहीं जानते हो
कि क्या होने
जा रहा है।
क्योंकि अगर
तुम जानते हो
तो प्रतीक्षा
अशुद्ध हो गई
और उसमें
वासना
प्रविष्ट हो
गई। तुम कुछ
नहीं जानते हो।
तुम जो कुछ
जानते थे वह
विसर्जित हो
गया है, सब
ज्ञात गिर गया
है। मन कुछ भी
नहीं कर रहा
है, मात्र
प्रतीक्षा कर
रहा है। और तब
सब कुछ घटित
होता है। तब
सारा
ब्रह्मांड
तुममें समा
जाता है, सभी
दिशाओं से
तुममें
प्रवेश कर
जाता है। तब
सभी अवरोध गिर
जाते हैं, तुम
अपने को
बिलकुल नहीं
बचाते हो।
निष्क्रियता
में कोई भूल
नहीं है, वरन
तुम्हारी
सक्रियता ही
समस्या है।
लेकिन हमें सक्रियता
में प्रशिक्षिण
किया गया है। हमें
द्वंद्व और संघर्ष
और हिंसा में प्रशिक्षित
किया गया है।
और यह अपनी
जगह ठीक भी है,
क्योंकि
संसार में
निष्क्रियता
से काम नहीं चलेगा।
संसार में तो
तुम्हें सक्रिय,
संघर्षशील
और कठोर होना
पड़ेगा। लेकिन
जो चीज संसार
में सहयोगी
होती है, वह
तब सहयोगी
नहीं होती जब
तुम अस्तित्व
के गहन तलों
में प्रवेश
करते हो। तब
तुम्हें ठीक
विपरीत दिशा
में कदम रखने
होंगे। अगर
तुम राजनीति
में हो, समाज
में हो, धन
की दौड़ में हो,
तो तुम्हें
सक्रिय होना
पड़ेगा। लेकिन
परमात्मा में,
धर्म में, ध्यान में
प्रवेश के लिए
निष्क्रियता
जरूरी है। वहां
निष्क्रियता
ही उपाय है।
और
नकारात्मकता
में भी कोई
दोष नहीं है।
नकारात्मक का
अर्थ है कि
कोई चीज छोड़नी
है। उदाहरण के
लिए,
अगर मुझे इस
कमरे में
स्थान
निर्मित करना
है तो मैं
क्या करूंगा?
स्थान
निर्मित करने
की प्रक्रिया
क्या है? मैं
क्या करूंगा?
क्या बाहर
से स्थान लाकर
इस कमरे को भर
दूंगा? बाहर
से स्थान नहीं
लाया जा सकता
है। स्थान तो
यहां पहले से
है, उससे
ही तो यह कमरा
कहलाता है।
लेकिन यह
लोगों से या
फर्नीचर से या
चीजों से भरा
हुआ है। तो
मैं उसे चीजों
और लोगों से
खाली कर देता
हूं और तब
स्थान फिर से
उपलब्ध हो
जाता है। यह
स्थान कहीं से
आया नहीं है, यह तो था ही।
केवल भरा था, तो मैंने
नकार की
प्रक्रिया के
द्वारा उसे खाली
कर दिया।
नकार
का अर्थ है, अपने
को खाली करना।
कुछ विधायक
नहीं करना है,
क्योंकि
तुम जिसे पाना
चाहते हो वह
है ही। सिर्फ
फर्नीचर को
बाहर करना है।
और मन के
विचार ही
फर्नीचर हैं।
उन्हें हटा दो
और मन आकाश बन
जाता है। और
वह आकाश ही
तुम्हारी
आत्मा है। जब
वह विचारों से,
कामनाओं से
भरा होता है
तब वह मन है; रिक्त, खाली
होकर वह मन
नहीं रह जाता।
नकार चीजों को
हटाने का, छांटने
का उपाय है।
तो
नकार और निष्क्रिय
शब्दों से
भयभीत मत होओ।
यदि भयभीत
होगे तो तुम
कभी समर्पण
नहीं कर सकते।
समर्पण निष्क्रिय
और नकारात्मक
है। समर्पण
किया नहीं
जाता है, वरन
समर्पण में सब
करना छोड़ना
पड़ता है, यह
धारणा भी छोड़नी
पड़ती है कि
मैं कुछ कर
सकता हूं। तुम
कुछ नहीं कर
सकते, यही
समर्पण का
बुनियादी भाव
है। तभी
समर्पण संभव
है। यह
नकारात्मक है,
क्योंकि
तुम अज्ञात
में प्रवेश कर
रहे हो। ज्ञात
तो छूट गया।
यह
अपने में
चमत्कार ही है
कि तुम किसी
गुरु के प्रति
समर्पण करते
हो। क्योंकि
तुम्हें यह भी
नहीं मालूम है
कि क्या होने
जा रहा है और
यह आदमी
तुम्हारे साथ
क्या करने
वाला है। और
तुम्हें यह भी
पक्का नहीं है
कि यह आदमी प्रामाणिक
है या नहीं।
तुम्हें पता
नहीं है कि
तुम किसको
समर्पित हो
रहे हो और वह
तुम्हें कहां
ले जाएगा। तुम
पक्का पता
करने की
चेष्टा करोगे, लेकिन
यह प्रयत्न ही
बताता है कि
तुम समर्पण के
लिए तैयार
नहीं हो।
समर्पण
के पहले अगर
तुम बिलकुल
निश्चित हो कि
यह आदमी
तुम्हें कहां
ले जाने वाला
है,
किस स्वर्ग
में पहुंचाने
वाला है और तब
तुम समर्पण
करते हो तो वह
समर्पण समर्पण
ही नहीं है।
तब तुमने
समर्पण ही
नहीं किया।
समर्पण सदा
अज्ञात के
प्रति होता है।
जब सब चीज जान
ली गई तो वह
समर्पण नहीं
है। तुमने तो
पहले ही पता
कर लिया कि यह होने
वाला है, कि
दो और दो चार
होते हैं, तब
समर्पण नहीं
है। तुम नहीं
कह सकते कि
मैं समर्पण करता
हूं, क्योंकि
मुझे चार का पता
है। अनिश्चय में, असुरक्षा में
समर्पण है।
इसलिए
ईश्वर के
प्रति समर्पण
करना आसान है।
वस्तुत: वहां
कोई भी नहीं
है और तुम
अपने मालिक
बने रहते हो।
एक जीवित गुरु
के प्रति
समर्पण कठिन
है,
क्योंकि तब
तुम मालिक
नहीं रहते हो।
ईश्वर के नाम
पर तुम समर्पण
का भ्रम पाल
सकते हो, क्योंकि
वहां कोई
तुमसे पूछने
वाला नहीं है।
मैं
एक यहूदी
कहानी पढ़ रहा
था। एक का
व्यक्ति
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहा था। उसने
कहा कि मेरा अ
नामक पड़ोसी
बहुत गरीब है, पिछले
साल भी मैंने
आपसे उसके लिए
प्रार्थना की
थी, लेकिन
आपने कुछ नहीं
किया। और उसने
कहा कि मेरा
दूसरा पड़ोसी ब
अपंग है। और
बीते वर्ष में
मैंने उसके
लिए भी आपसे
प्रार्थना की
थी और उसके
लिए भी आपने
कुछ नहीं किया।
और इस प्रकार
वह गिनाता चला
गया। उसने
अपने सभी पड़ोसियों
की चर्चा की
और अंत में
कहा. अब मैं इस वर्ष
भी प्रार्थना
करूंगा। अगर
आप मुझे क्षमा
कर दें तो मैं
भी आपको क्षमा
कर सकता हूं।
लेकिन
वह आदमी अपने
से ही बातें
कर रहा था।
परमात्मा से
की गई सब
बातचीत
एकालाप है, वहां
दूसरा कोई
नहीं है। तो
यह तुम्हारी
अपनी मर्जी की
बात है। तुम
क्या करते हो,
उसके तुम मालिक
हो।
यही
कारण है कि
तंत्र में
जीवित गुरु के
प्रति समर्पण
पर इतना जोर
दिया जाता है, क्योंकि
तब तुम्हारा
अहंकार चूर—चूर
हो जाता है।
और अहंकार का
विसर्जन ही
आधार है। वही
आधार है और
तभी उससे कुछ
संभव है।
लेकिन
मुझसे यह मत
पूछो कि
समर्पण कैसे
करें? तुम कुछ
नहीं कर सकते।
या तुम सिर्फ
एक चीज कर
सकते हो : इसके
प्रति जागरूक
हो जाओ कि
करके भी मैं
क्या कर सकता
हूं! करके
मैंने क्या
पाया! अपने
करने के प्रति
जागरूक बनो।
तुमने बहुत
कुछ पाया है, तुमने बहुत
दुख पाया है, तुमने बहुत
संताप पाया है।
तुमने अपने
करने से यही
पाया है। और
यही है जिसे
अहंकार पा
सकता है। इसके
प्रति सजग होओ।
तुमने जो दुख,
समर्पण किए
बिना, सक्रिय
रूप से, विधायक
रूप से अर्जित
—किया है, उसके
प्रति
होशपूर्ण बनो।
तुमने अपने
जीवन के साथ
जो किया है, उसके प्रति
जागरूक बनो।
यही
बोध एक दिन इन
चीजों को कचरेघर
में फेंकने
में और समर्पण
करने में
तुम्हें सहयोगी
होगा। और
स्मरण रहे, तुम
किसी गुरु के
प्रति समर्पण
से रूपांतरित नहीं
होते, समर्पण
से रूपांतरित
होते हो। गुरु
प्रासंगिक
नहीं है, वह
सवाल नहीं है।
बहुत
लोग मेरे पास
आकर कहते हैं
कि हम समर्पण करना
चाहते हैं, लेकिन
किसके प्रति
समर्पण करें?
वह बात ही
नहीं है, तुम
तब बात ही चूक
गए। प्रश्न यह
नहीं है कि
किसको समर्पण
करें। समर्पण
करने से ही
बात बन जाती
है। किसके
प्रति समर्पण
किया, वह
व्यक्ति
महत्वपूर्ण
नहीं है। संभव
है वहां कोई
व्यक्ति न हो,
संभव है वह
व्यक्ति
प्रामाणिक न
हो, ज्ञानोपलब्ध न हो। यह भी
संभव है कि वह
कोई बदमाश हो।
लेकिन
यह बात प्रासगिकनहीं
है। तुमने
समर्पण किया, यही
बात सहयोगी है।
क्योंकि अब
तुम खुले हो, ग्राहक हो, संवेदनशील
हो। अब तुम
स्त्रैण हो गए।
पुरुष—अहंकार
जाता रहा और
अब तुम
स्त्रैण गर्भ
बन गए।
जिस
व्यक्ति के
प्रति तुमने
समर्पण किया, वह
धोखेबाज भी हो
सकता है। वह महत्वपूर्ण
ही नहीं है। महत्वपूर्ण
यह हे कि तुमने
समर्पण किया। अब
तुम्हें कुछ घटित
हो सकता है।
अनेक बार ऐसा
हुआ है कि
नकली गुरुओं
के साथ रहकर
भी शिष्य
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं। तुम्हें
जानकर
आश्चर्य होगा
कि झूठे
गुरुओं के साथ
रहकर भी शिष्य
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गए
हैं।
मिलरेपा के
संबंध में कथा
है कि वह एक
गुरु के पास
गया और उसके
प्रति
समर्पित हो
गया। मिलरेपा
बहुत
निष्ठावान, बहुत
श्रद्धापूर्ण
व्यक्ति था।
जब गुरु ने
कहा कि
तुम्हें
समर्पण करना
होगा तो ही
मैं तुम्हारी
मदद करूंगा, तो मिलरेपा
ने हा कर दी।
अनेक लोगों को
मिलरेपा
से ईर्ष्या
होने लगी, क्योंकि
मिलरेपा
बिलकुल भिन्न
ढंग का
व्यक्ति था।
उसमें कोई
चुंबकीय
शक्ति थी।
गुरु के
पुराने शिष्य
डरने लगे कि
कहीं यह आदमी
टिक गया तो यह
प्रधान शिष्य
हो जाएगा, अगला
गुरु हो जाएगा।
तो उन्होंने
गुरु से कहा
कि यह आदमी
झूठा मालूम
पड़ता है, इसकी
परीक्षा होनी
चाहिए कि क्या
इसका समर्पण
सच्चा है।
गुरु ने पूछा
कि किस ढंग की
परीक्षा ली
जाए? तो
उन्होंने कहा
कि इसे इस
पहाड़ी से नीचे
कूद जाने को
कहा जाए—वे सब
एक पहाड़ी पर
बैठे थे।
तो
गुरु ने मिलरेपा
से कहा कि अगर
तुम्हारा समर्पण
सच्चा है तो
इस पहाडी
से नीचे कूद
जाओ। मिलरेपा
ही कहने के
लिए भी नहीं
रुका और पहाड़ी
से नीचे कूद
गया। शिष्यों
ने सोचा कि वह
मर गया। यह
देखने के लिए
वे पहाड़ी से
नीचे उतरे, उन्हें
घाटी में
पहुंचने में
घंटों लग गए। मिलरेपा
वहां एक वृक्ष
के नीचे बैठा
ध्यान कर रहा
था और वह बहुत
प्रसन्न था—सदा
की तरह
प्रसन्न।
शिष्यों
ने फिर इकट्ठे
होकर इस बात
पर विचार किया।
उन्होंने
सोचा कि यह एक
संयोग हो सकता
है। गुरु भी
चकित हुआ।
उसने मिलरेपा
से एकांत में
पूछा कि तुमने
यह कैसे किया? यह
चमत्कार कैसे
घटित हुआ? मिलरेपा ने कहा कि
मैंने जब
समर्पण कर
दिया तो मेरे
कुछ करने की
बात कहां उठती
है! आपने ही
कुछ किया होगा।
गुरु तो
भलीभांति
जानता था कि
उसने कुछ नहीं
किया है। उसने
फिर परीक्षा
लेने की सोची।
सामने
एक मकान जल
रहा था। गुरु
ने मिलरेपा
से कहा कि उस
जलते हुए मकान
में जाओ, वहां
अंदर बैठो और
वहां तब तक
बैठे रहो जब
तक मकान जलकर राख
न हो जाए। मिलरेपा
चला गया और
वहां घंटों
बैठा रहा।
मकान जलकर राख
हो गया। जब सब
लोग उसे
ढूंढने गए तो
वह राख में
दबा पड़ा मिला,
लेकिन वह
जीवित और
आनंदित था—सदा
की तरह आनंदित।
मिलरेपा
ने अपने गुरु
के पैर छुए और कहा
कि आप चमत्कार
कर रहे हैं।
गुरु
ने इस बार कहा
कि अब इसे
संयोग मानना
कठिन है।
लेकिन
शिष्यों ने
इसे भी संयोग
बताया और कहा कि
एक और परीक्षा
ली जानी चाहिए।
उन्होंने कहा
कि कम से कम
तीन
परीक्षाएं
जरूरी हैं।
वे
सब एक गांव से
गुजर रहे थे जहां
एक नदी पार
करनी थी। गुरु
ने मिलरेपा
से कहा कि नाव
नहीं है और न
माझी ही है, मालूम
होता है कि
दोनों दूसरे
किनारे पर ही
हैं। तुम पानी
पर चलकर उस
पार जाओ और
माझी को बुला
लाओ।
मिलरेपा
चला गया। वह
पानी पर चलकर
दूसरे किनारे
पहुंच गया और
नाव को इस पार ले
आया। अब तो गुरु
को भी पक्का
गया कि यह
चमत्कार है।
उसने मिलरेपा
से पूछा कि
तुमने यह कैसे
किया? मिलरेपा ने कहा कि
मैं बस आपका
नाम लेकर चला
जाता हूं।
गुरुदेव, आपका
नाम लेने भर
से काम हो
जाता है।
गुरु
ने सोचा कि जब
मेरे नाम से
हो जाता है तो
मैं ही क्यों
न प्रयोग
करूं! और उसने
पानी पर चलने
की कोशिश की, लेकिन
वह नदी में
डूब गया। और
तब से फिर
किसी ने उस
गुरु के संबंध
में कुछ नहीं
सुना।
यह
कैसे हुआ? समर्पण
असली चीज है, गुरु या वह
व्यक्ति नहीं
जिसके प्रति
समर्पण किया
जाता है। कोई
मूर्ति, कोई
मंदिर, वृक्ष,
पत्थर, कुछ
भी काम दे
देगा। अगर तुम
समर्पण करते
हो तो तुम
अस्तित्व के प्रति
खुले हो जाते
हो, तब
समस्त
अस्तित्व
तुम्हें अपनी बाहों में
ले लेता है।
हो सकता है कि
यह कथा कथा
ही हो, लेकिन
इसका अर्थ यह
है कि जब तुम
समर्पण करते हो
तो सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
हो जाता है। तब
आग, पर्वत,
नदी, घाटी,
सब
तुम्हारे साथ
हैं, कोई
भी तुम्हारे
विरोध में
नहीं है।
क्योंकि जब
तुम ही किसी
के विरुद्ध
नहीं रहे तो
सारी शत्रुता
समाप्त हो
जाती है।
अगर
तुम पहाड़ से
गिरते हो और
तुम्हारी
हड्डियां टूट
जाती हैं तो
वे तुम्हारे
अहंकार की हड्डियां
हैं जो टूटती
हैं। तुम
प्रतिरोध कर
रहे थे, तुमने
घाटी को
तुम्हारी
सहायता करने
का मौका नहीं
दिया। तुम
स्वयं अपनी
सहायता करने
में लगे थे, तुम अपने को
अस्तित्व से
ज्यादा
बुद्धिमान समझते
थे।
समर्पण
का अर्थ है कि
तुम्हें यह
समझ आ गई कि मैं
जो भी करूंगा
वह मूढ़तापूर्ण
होगा। और
तुमने जन्मों—जन्मों
ये मूढ़ताएं
की हैं। अब
इसे अस्तित्व
पर छोड़ दो।
तुमसे कुछ
होने वाला
नहीं है।
तुम्हें यह
समझना होगा कि
मैं असहाय हूं।
यह असहाय होने
की प्रतीति ही
समर्पण करने
में सहयोगी
होती है।
आज
इतना ही।
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