सूत्र:
नीरवता
(साइलेंस) में
से, जो
स्वयं शांति
है,
एक
गूंजती हुई
वाणी प्रकट
होगी।
और
वह वाणी
कहेगी.
'यह
अच्छा नहीं है,
काट तो तुम
चुके, अब
तुम्हें बोना
चाहिए।’
यह
वाणी स्वयं
नीरवता ही है,
यह
जानकर तुम
उसके आदेश का
पालन करोगे।
तुम
जो अब शिष्य
हो,
अपने
पैरों पर खड़े
रह सकते हो,
सुन
सकते हो, देख
सकते हो, बोल
सकते हो।
तुम
जिसने
वासनाओं को
जीत लिया है
और आत्म—ज्ञान
प्राप्त कर
लिया है,
जिसने
अपनी आत्मा को
विकसित
अवस्था में
देख लिया है
और पहचान लिया
है,
और
नीरवता के नाद
को सुन लिया
है,
तुम
अब उस ज्ञान—मंदिर
में जाओ,
जो
परम—प्रज्ञा
का मंदिर है
और
जो कुछ
तुम्हारे लिए
वहां लिखा है, उसे
पढ़ो।
नीरवता
की वाणी सुनने
का अर्थ है,
यह
समझ जाना कि
एकमात्र पथ—निर्देश
अपने
भीतर से ही
प्राप्त होता
है।
प्रज्ञा
के मंदिर में
जाने का अर्थ
है,
उस
अवस्था में
प्रविष्ट
होना
जहां
ज्ञान
प्राप्ति
संभव होती है।
तब
तुम्हारे लिए
वहां बहुत से
शब्द लिखे
होंगे
और
वे ज्वलंत
अक्षरों में
लिखे होंगे,
जिससे
तुम उन्हें
सरलता से पढ
सको,
क्योंकि
जब शिष्य
तैयार हो जाता
है,
तो
श्री गुरुदेव
भी तैयार ही
हैं।
सत्य
की खोज के लिए
दो अध्याय हैं।
एक—
जब साधक खोजता
है।
और
दूसरा—जब साधक
बांटता है।
आनंद
तब तक पूरा न
समझना, जब तक
तुम उसे
बांटने में भी
सफल न हो जाओ।
आनंद की खोज
तो लोभ का ही
हिस्सा है।
आनंद की चाह
तो अस्मिता
केंद्रित ही
है मेरे लिए।
मेरे लिए ही
वह खोज है। और
जब तक मेरा
इतना भी बाकी
है कि मैं
आनंद अपने लिए
ही चाहूं तब
तक आनंद मेरा
अधूरा ही
रहेगा। और उस
आनंद के साथ—साथ
अंधेरे की एक
रेखा भी चलेगी।
और उस आनंद के
साथ—साथ दुख
की एक छाया भी
मौजूद रहेगी।
क्योंकि जब तक
मैं मौजूद हूं
तब तक दुख से
पूर्ण
छुटकारा
असंभव है।
मुझे आनंद की
झलक भी मिल
सकती है, लेकिन
वह झलक ही
होगी। और पीड़ा
किसी न किसी
रूप में सदा
मेरे साथ संबद्ध
रहेगी, क्योंकि
मैं ही पीड़ा
हूं।
जिस
दिन दूसरी
घटना भी घटती
है— आनंद को
बांटने की—उस
दिन मैं
महत्वपूर्ण
नहीं रह जाता, दूसरा
महत्वपूर्ण
हो जाता है, तुम
महत्वपूर्ण
हो जाते हो।
उस दिन आनंद
मांगता नहीं
है साधक, उस
दिन आनंद देता
है, उस दिन
आनंद बांटता
है। और जब तक
आनंद बंटने न
लगे, तब तक
पूरा नहीं
होता। आनंद
मिलता है जब, तब अधूरा
होता है। और
आनंद जब बटता
है, तब
पूरा होता है।
ऐसा
समझें, कि एक
भीतर आती हुई
श्वास है, और
एक बाहर जाती
हुई श्वास है।
भीतर आती हुई
श्वास आधी है
और तुम अकेली
भीतर आती
श्वास से जी न
सकोगे। और अगर
तुमने चाहा कि
भीतर जो श्वास
आती है, उसे
मैं भीतर ही
रोक लूं तो
श्वास जो कि
जीवन का आधार
है, वही
श्वास मृत्यु
का कारण बन
जाएगी। श्वास
भीतर आती है, तो उसे बाहर
छोड़ना भी होगा।
और जब श्वास
बाहर भी छूटती
है, तब ही
वर्तुल पूरा
होता है। भीतर
आती श्वास आधी
है, बाहर
जाती श्वास
आधी है। दोनों
मिल कर पूरी
होती हैं। और
वे दो कदम हैं,
जिनसे जीवन
चलता है।
आनंद
जब तुम्हारे
भीतर आता है, तो
आधी श्वास है।
और जब आनंद
तुमसे बाहर
जाता है और
बटता है, बिखरता
है, फैलता
है, विस्तीर्ण
होता है लोक—लोकांतर
में— तब आधी
श्वास और भी
पूरी हो गई।
ध्यान
रहे,
तुम जितने
जोर से श्वास
को बाहर
फेंकने में समर्थ
हो जाते हो, उतनी ही
गहरी श्वास
भीतर लेने में
भी समर्थ हो
जाते हो। अगर
कोई ठीक से
श्वास को बाहर
फेंके, तो
जितनी श्वास
बाहर फेंकेगा,
उतनी ही
गहरी
सामर्थ्य
भीतर श्वास
लेने की हो जाती
है। जो
लुटाएगा, वह
और भी ज्यादा
पा लेता है!
फिर और ज्यादा
पा कर और
ज्यादा
लुटाता है तो
और ज्यादा पा
लेता है। फिर
यह श्रृंखला
अनंत हो जाती
है।
इस
बात को ठीक से
समझ लेना
चाहिए कि जो
तुम्हारे पास
है,
वह तब ही
तुम्हारे पास
है, जब तुम
उसे देने में
समर्थ हो। और
जब तक तुम
देने में
असमर्थ हो, तब तक समझना
कि वह तुम्हें
मिला ही नहीं
है। मिलते ही
बंटना शुरू हो
जाता है।
एक
बात समझ लेने
जैसी है कि
अगर जीवन में
दुख हो तो
आदमी सिकुड़ता
है,
बंद होता है;
चाहता है
कोई मिले ना, कोई संगी—साथी
पास न आए; कहीं
एकांत, दूर
किसी गुफा में
बैठ जाऊं,
अपने
द्वार—दरवाजे
बंद कर लूं।
दुखी आदमी
अपने को सब
तरफ से घेर कर
बंद कर लेना
चाहता है। दुख
संकोच है, सिकुडाव
है। दुख में
तुम नहीं
चाहते कि कोई
बोले भी, कोई
कुछ कहे भी।
कोई
सहानुभूति भी
प्रकट करता है,
तो अड़चन
मालूम होती है।
जब तुम सच में
दुख में हो, तो
सहानुभूति
प्रकट करने
वाला भी खटकता
है। तुम्हारा
कोई प्रियजन
चल बसा है, गहन
दुख की
बदलियों ने
तुम्हें घेर
लिया है, तो
कोई समझाने
आता है, सांत्वना
देता है। उसकी
सांत्वना, उसका
समझाना, सब
थोथा मालूम
पड़ता है। उसकी
ज्ञान की
बातें भी कि
आत्मा अमर है,
घबड़ाओ मत, कोई मरता
नहीं—दुश्मन
की बातें
मालूम पड़ती
हैं। दुख सब
तरफ से अपने
को बंद कर
लेना चाहता है
बीज की तरह, और सिकुड़
जाना चाहता है।
ठीक
इसके विपरीत
घटना आनंद की है।
जब आनंद फलित
होता है, जैसे
दुख में
सिकुड़ता है
आदमी, वैसा
आनंद में
फैलता है। तब
वह चाहता है
कि जाए और दूर—दिगंत
में, हवाएं
जहां तक जाती
हों, आकाश
जहां तक फैलता
हो, वहां
तक जो उसने
पाया है, उसे
फैला दे। जैसे
फूल जब खिलता
है तो सुगंध
दूर—दूर तक
फैल जाती है।
और दीया जब
जलता है तो
प्रकाश की
किरणें दूर—दूर
तक फैल जाती
हैं। ऐसे ही
जब आनंद की
घटना घटती है,
तब बंटना
शुरू हो जाता
है। अगर
तुम्हारा
आनंद
तुम्हारे
भीतर ही सिकुड़
कर रह जाता हो,
तो समझना कि
वह आनंद नहीं
है। क्योंकि
आनंद का
स्वभाव ही
बंटना है, विस्तीर्ण
होना है।
इसलिए
हमने
परमात्मा के
परम—रूप को
ब्रह्म कहा है।
ब्रह्म का
अर्थ है, जो
विस्तीर्ण
होता चला जाता
है। ब्रह्म
शब्द में वही
आधार है, जो
विस्तार में
है, विस्तीर्ण
में है।
ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही चला
जाता है, जिसके
फैलाव का कहीं
कोई अंत नहीं
है। ऐसी कोई
जगह नहीं आती,
जहां उसकी
सीमा आती हो, वह फैलता ही
चला जाता है।
अभी
फिजिक्स ने और
ज्योतिष—शास्त्र
ने,
अंतरिक्ष
के खोजियों ने
तो अभी ही यह
बात आ कर इस
सदी में कही
है, कि जो
विश्व है वह
एक्सपेंडिंग
है, विस्तीर्ण
होता हुआ है।
पश्चिम में तो
यह खयाल नहीं
था। पश्चिम
में तो यह
खयाल था कि
विश्व जो है
वह चाहे कितना
ही बड़ा हो, उसकी
सीमा है, वह
फैल नहीं रहा
है। लेकिन
आइंस्टीन के
बाद एक नई
धारणा का जन्म
हुआ है। और वह
धारणा बड़ी
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
वह धारणा
ब्रह्म के
बहुत करीब
पहुंच जाती है।
आइंस्टीन
ने कहा कि यह
जगत सीमित
नहीं है, यह
फैल रहा है।
जैसे जब आप
श्वास भीतर
लेते हैं, तो
आपकी छाती
फैलती है, ऐसा
यह जगत फैलता
ही चला जा रहा
है। इसके
फैलाव का कोई
अंत नहीं
मालूम होता।
बड़ी तीव्र गति
से जगत बड़ा
होता चला जा
रहा है।
मगर
भारत में यह
धारणा बड़ी
प्राचीन है।
हमने तो परम—सत्य
के लिए ब्रह्म
नाम ही दिया
है। ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही चला
जाता है, इनफिनिटली
एक्सपेंडिंग।
जिसका कहीं
अंत नहीं आता,
जहां वह रुक
जाए, जहां
उसका विकास
ठहर जाए। और
ब्रह्म के
स्वभाव को
हमने आनंद कहा
है। आनंद
विस्तीर्ण
होती हुई घटना
है। आनंद ही
ब्रह्म है।
तो
जिस दिन
तुम्हारे
जीवन में आनंद
की घटना घटेगी, उस
दिन तुम कृपण
न रह जाओगे।
कृपण तो सिर्फ
दुखी लोग होते
हैं। इसे थोड़ा
समझ लेना, यह
सभी अर्थों
में सही है।
दुखी
आदमी कृपण
होता है, वह दे
नहीं सकता। वह
सभी चीजों को
पकड़ लेता है, जकड़ लेता है।
सभी चीजों को
रोक लेता है
छाती के भीतर।
वह कुछ भी
नहीं छोड़ सकता।
जान कर आप
चकित होंगे, मनस्विद
कहते हैं कि
कृपण आदमी
गहरी श्वास भी
नहीं लेता।
क्योंकि गहरी
श्वास लेने के
लिए गहरी
श्वास छोड़नी
पड़ती है। छोड़
वह सकता ही
नहीं।
मनस्विद कहते
हैं कि कृपण
आदमी
अनिवार्य रूप से
कब्जियत का
शिकार हो जाता
है—मल भी नहीं
त्याग कर सकता,
उसे भी रोक
लेता है।
मनस्विद तो
कहते हैं कि
कब्जियत हो ही
नहीं सकती, अगर किसी न
किसी गहरे
अर्थों में मन
के अचेतन में
कृपणता न हो।
क्योंकि मल को
रोकने का कोई
कारण नहीं है।
शरीर तो उसे
छोड़ता ही है, शरीर का
छोड़ना तो
स्वाभाविक है,
नैसर्गिक
है। लेकिन मन
उसे रोकता है।
ध्यान
रहे,
बहुत से लोग
ब्रह्मचर्य
में इसीलिए
उत्सुक हो
जाते हैं कि
वे कृपण हैं।
उनकी
ब्रह्मचर्य
की उत्सुकता
वास्तविक रूप में
कोई परम—सत्य
की खोज नहीं
है। उनकी
ब्रह्मचर्य
की उत्सुकता
वीर्य की शक्ति
बाहर न चली
जाए, उस
कृपणता का
हिस्सा है।
बहुत थोड़े से
लोग ही
ब्रह्मचर्य
में समझ—बूझ
कर उत्सुक
होते हैं।
अधिक लोग तो
कृपणता के
कारण ही! जो भी
है, वह
भीतर ही रुका
रहे, बाहर
कुछ चला न जाए।
इसलिए कृपण
व्यक्ति
प्रेम नहीं कर
पाता। आप
कंजूस आदमी को
प्रेम करते
नहीं पा सकते।
क्योंकि
प्रेम में दान
समाविष्ट है।
प्रेम स्वयं
दान है, वह
देना है। और
जो दे नहीं
सकता, वह
प्रेम कैसे
करेगा? इसलिए
जो भी आदमी
कंजूस है, प्रेमी
नहीं हो सकता।
इससे उलटा भी
सही है। जो
आदमी प्रेमी
है, वह
कृपण नहीं हो
सकता।
क्योंकि
प्रेम में
अपना हृदय जो
दे रहा है, वह
अब सब कुछ दे
सकेगा। आनंद
के साथ कृपणता
का कोई भी
संबंध नहीं है,
दुख के साथ
है।
तो
जिस दिन
तुम्हें सच
में ही आनंद
की घटना घटेगी, उस
दिन तुम दाता
हो जाओगे। उस
दिन तुम्हारा
भिखारीपन गया।
उस दिन तुम
पहली दफा
बांटने में
समर्थ हुए। और
तुम्हें एक
ऐसा स्रोत मिल
गया है, जो
बांटने से
बढ़ता है, घटता
नहीं।
धन
बांटो, तो घट
जाता है।
घटेगा ही, क्योंकि
धन का आधार
दुख है, आनंद
नहीं है। धन
किसी न किसी
रूप में, किसी
न किसी के दुख
पर ही खड़ा है।
धन में कहीं न
कहीं मनुष्य
की पीड़ा
समाविष्ट है।
तो धन को तो
इकट्ठा करो, तो भी दुख ही
इकट्ठा किया
जा रहा है। धन
को अगर बांटने
जाओ तो बांटने
से घटेगा।
क्योंकि धन
कोई अंतर—
अवस्था नहीं
है, वस्तुओं
का संग्रह है।
वस्तुएं
बांटी जाएंगी,
तो घट
जाएंगी।
सुना
है मैंने, एक
फकीर एक गृहणी
से भिक्षा
मांग रहा था।
उस गृहणी ने
उसे भरपूर दिया,
उसका
भिक्षापात्र
भर दिया। ऊपर
से कुछ कपड़े
और कुछ रुपए
भी दिए। वह
फकीर, वह
भिखमंगा बड़ा
सुंदर था। और
ऐसा लगता था, किसी अच्छे
खानदान का
होगा। कपड़े तो
उसके पास फटे—पुराने
थे, लेकिन आंखों
में जो चमक थी,
चेहरे पर जो
रौनक थी, चेहरे
का जो ढंग था, जो आकृति थी,
शरीर में जो
लावण्य था— तो
गृहणी पूछने
से न रुक सकी, उसने पूछा, तुम्हें देख
कर लगता है कि
तुम किसी बड़े
परिवार के हो,
तुम्हारी
यह दशा कैसे
हुई? तो उस
फकीर ने कहा, जो तुम कर
रही हो, यही
मैं करता रहा—
देता रहा। जो
हालत मेरी है,
थोड़े दिन
में तुम्हारी
भी हो जाएगी।
धन
की सीमा है—बंटेगा, तो
कम होगा। आनंद
की कोई सीमा
नहीं है—बंटेगा,
तो बढ़ेगा।
और आनंद का
स्रोत भीतर है।
तो जितना तुम
उलीचते हो, उतने नए
झरने आ जाते
हैं।
इसे
ऐसा भी समझ
लें। हम एक कुआं
खोदते हैं। तो
पानी को
उलीचते हैं, तो
झरने पानी को
भरते जाते हैं।
कभी आपने सोचा
कि ये झरने
कहां से आते
हैं? ये
दूर सागर से
जुड़े हैं, ये
कभी रिक्त
होने वाले
नहीं है। कुआं
सड़ सकता, अगर
न जाए। छ अगर
जाए, ताजा और
नया होगा। और
सागर अनंत है,
जिससे झरने
जुड़े हैं।
ध्यान
रहे,
हमारे भीतर
जब आनंद की
घटना घटती है,
हम उसे
उलीचना शुरू
करते हैं, तभी
हमें पता चलता
है कि आनंद के
झरने ब्रह्म से
जुड़े हैं। हम
कितना ही
उलीचें, वे
समाप्त नहीं
होते। हम
सिर्फ एक कुआं
हैं और उसके
झरने दूर सागर
से जुड़े हैं।
वह सागर ही
ब्रह्म है।
आनंद बंटने से
इसीलिए बढ़ता
है। और आनंद
बंटने से ही
पूर्ण होता है।
अब
हम इस सूत्र
को समझें।
'नीरवता में,
जो स्वयं
शांति है, एक
गूंजती हुई
वाणी प्रकट
होगी। और वह
वाणी कहेगी, यह अच्छा
नहीं है, काट
तो तुम चुके, अब तुम्हें
बोना चाहिए।’
बड़ा
उलटा है। लोग
पहले बोते हैं, फिर
काटते हैं।
यह
सूत्र कहता है, 'काट
तो तुम चुके, अब तुम्हें
बोना चाहिए।’
संसार
में हम बोते
हैं पहले, काटते
हैं बाद में।
अध्यात्म में
हम काटते हैं
पहले, बोते
हैं बाद में।
संसार और
अध्यात्म का
संबंध बिलकुल
उलटा है। जो
यहां नियम है,
ठीक उससे
विपरीत वहां
नियम है।
संसार के सारे
नियम अगर हम
विपरीत कर लें,
तो वे
अध्यात्म के
नियम हो जाते
हैं।
ऐसा
समझें, कि
कोई एक आदमी
झील के किनारे
खड़ा है। झील
में मछलियां
हैं। वे
मछलियां झील
में बनते हुए
प्रतिबिंब को
देखती हैं उस
आदमी के, तो
उनको उस आदमी
के पैर ऊपर और
सिर नीचे
दिखाई पड़ेगा।
क्योंकि झील
में जो
प्रतिबिंब
बनता है, वह
उलटा बनेगा।
लेकिन मछली
अगर छलांग लगा
कर देखे, पानी
के ऊपर आ कर
आदमी को, तो
बहुत चकित हो
जाएगी। वह
सोचेगी कि यह
आदमी शायद
उलटा खड़ा है, चूंकि नीचे
तो जल में, सिर
नीचे दिखाई
पड़ता है, पैर
ऊपर दिखाई
पड़ते हैं।
छलांग लगा कर
देखे पानी के
ऊपर, तो यह
आदमी के पैर
नीचे दिखाई
पड़ते हैं और
सिर ऊपर दिखाई
पड़ता है!
मछलियां लौट
कर अपने साथी—संगियों
को कहेंगी कि
जमीन पर आदमी
उलटा खड़ा है।
संसार
प्रतिबिंब है
अध्यात्म का।
सत्य का
प्रतिबिंब है
यहां। यहां जो
भी हमें सीधा
मालूम पड़ता है, वह
सीधा है नहीं।
मगर हमारे जगत
में सीधा है।
जिस दिन हम
उठते हैं
विचारों के
सरोवर से ऊपर,
उस दिन हमें
लगता है कि सब
चीजें उलटी
हैं। वे ही
ठीक हैं, वे
ही सीधी हैं—हमारे
विचारों की
छाया में जो
प्रतिफलित
होता था, विचारों
के दर्पण में
जो दिखाई पड़ता
था, वही
उलटा था, वही
प्रतिबिंब था।
वहां
तो हमें पहले
काट लेना पड़ता
है,
फिर बोना
पड़ता है।
क्यों? आनंद
तो पहले
उपलब्ध हो
जाता है, इसका
अर्थ हुआ कि
आपने फसल काट
ली। श्वास तो
आप पहले भीतर
ले लेते हैं, फिर श्वास
छोड़नी पड़ती है।
आपने फसल काट
ली आनंद की!
दूसरा हिस्सा
है कि अब आनंद
के बीज आप बो
दें दूर—दिगंत
तक, ताकि
और लोग उसकी
फसल काट सकें।
किसी और ने
बोया था, उसकी
फसल आपने काट
ली है।
बुद्ध
बोते हैं, महावीर
बोते हैं, कृष्ण
बोते हैं, क्राइस्ट
बोते हैं, मोहम्मद
बोते है—वह जो
भी आनंद को पा
लेता है, वह
बोता ही है।
काट पहले लेता
है, बोता
बाद में है।
क्योंकि
बोएंगे तो आप
तब ही, जब
आप काट चुके होंगे।
आपके पास होना
भी चाहिए न
बोने को! जो है
ही नहीं, उसे
आप बोएंगे
कैसे? जो
है, वही
बोया जा सकता
है। तो आनंद
ही जब पास न हो
तो आप बोएंगे
क्या?
हम
सब इस तरह की
भूल कर रहे
हैं और जगत
बड़ी दुविधा
में पड़ा है।
हम सब एक—दूसरे
को आनंद देने
की कोशिश करते
हैं,
बिना इसकी
फिक्र किए कि
आनंद हमारे
पास है? इसका
परिणाम यह
होता है कि हम
सब आनंद देना
चाहते हैं और
सब दुख देने
में सफल हो
पाते हैं। कोई
किसी को आनंद
दे नहीं पाता।
पति
बड़ी कोशिश कर
रहा है कि
पत्नी को आनंद
दे और पत्नी
दुखी हो रही
है! पत्नी बड़ी
कोशिश कर रही
है कि पति को
आनंद दे और
पति सोच रहा
है,
कहां की
झंझट में पड़
गया, कैसे
छुटकारा हो!
बाप बेटे को
आनंद देने की
कोशिश कर रहा
है और बेटा
सोच रहा है कि
कब मौका आएगा
कि मैं निकल
भाग इस बाप के
जाल से! बेटे
बाप को आनंद
दे रहे हैं और
बाप सिर पीट
रहे हैं कि कहां
के कुपुत्र घर
में पैदा हो
गए हैं!
हम
सब एक—दूसरे
को आनंद देने
की कोशिश कर
रहे हैं! और ऐसा
नहीं है कि हम
सच में कोशिश
नहीं करते हैं, हम
कोशिश करते
हैं। इसमें
कोई संदेह
नहीं है, इसमें
कोई शक—शुबहा
नहीं है कि हम
कोशिश नहीं
करते। लेकिन
हम यह बिना
समझे कोशिश
करते हैं कि जो
हमारे पास
नहीं है, उसे
हम दूसरे को
कैसे दे सकते
हैं? पत्नी
खुद दुखी है
और पति को
आनंद देने की
कोशिश कर रही
है! पति खुद
दुखी है और
पत्नी को आनंद
देने की कोशिश
कर रहा है! बाप
खुद दुखी है
और बेटे को
आनंदित करने
की कोशिश कर
रहा है! यह
निहायत
पागलपन है। यह
कौन सा गणित
है? जो
नहीं है मेरे
पास, वह
मैं आपको नहीं
दे सकता हूं।
और
यह भी इसके
साथ जुड़ा हुआ
हिस्सा है कि
मेरे पास आनंद
नहीं है, तो
मैं दूसरों से
लेने की भी
कोशिश कर रहा
हूं। लेकिन
जिनसे मैं
लेने की कोशिश
कर रहा हूं कभी
नहीं देखता कि
वे भी मुझ से
आनंद ही लेने
की कोशिश कर
रहे हैं। जब
आप किसी से
आनंद लेने की
कोशिश कर रहे
हैं और वह भी
आपसे आनंद
लेने की कोशिश
कर रहा है, तो
आपकी हालत ऐसी
है कि दो
भिखारी एक—
दूसरे के
सामने
भिक्षापात्र
रखे खड़े हैं
कि कुछ दान
में मिल जाए।
यह दान कैसे
घटित होगा? दोनों दुखी
होने वाले हैं।
क्योंकि
दोनों ही असफल
होंगे और
दोनों समझेंगे
कि दूसरे ने
धोखा दिया—दें
सकता था और
नहीं दिया। जो
दे सकता होता,
तो दे ही
देता।
आनंद
कुछ बात ऐसी
है कि देने से
बढ़ता है।
इसलिए जो दे
सकता है, वह
देगा ही। वह
रोक नहीं सकता।
क्योंकि
रोकने से सडता
है, रोकने
से कम होता है,
रोकने से खो
जाता है। तो
जब देने से
कोई चीज बढ़ती
है, तो कौन
नहीं देगा?
देना सभी
चाहते हैं, लेकिन है
नहीं। लेना
सभी चाहते हैं,
लेकिन
जिनसे लेने गए
हैं, वे
खुद ही उनसे
लेने आए थे!
तो
भिखारियों का
एक संसार एक—दूसरे
को खूब दुखी
कर देता है।
भारी दुख है।
सब जगह शुरू—
शुरू में सुख
मालूम पड़ता है, फिर
धीरे— धीरे
दुख मालूम
पड़ने लगता है।
सुख तभी तक
मालूम पड़ता है,
जब तक आशा
रहती है कि
मिलेगा। जब
आशा टूटने
लगती है, और
एक—एक आशा का
कदम क्षीण
होने लगता है,
एक—एक जड़
कटने लगती है,
तो दुख
व्याप्त हो
जाता है।
आनंद
पहले काटना
होगा, फिर
उसके बीज बोने
होंगे। फिर
उसकी फसल कोई
और काटेगा। हम
भी जो फसल
काटते हैं, वह किसी की
बोई हुई है, इस अर्थ में।
तो बुद्ध आज न
हों, लेकिन
वह जो बोते
हैं, वह हम
काटते हैं।
जीसस आज न हों,
लेकिन वह जो
बोते हैं, वह
हम काटते हैं।
यह विस्तार अनंत
है, अनादि
है। यहां सारी
मनुष्यता एक
ही प्रवाह है।
यह
सूत्र कह रहा
है कि जब तुम
शांत हो चुके
होगे तूफान के
बाद,
जब तूफान जा
चुका होगा, आधी जा चुकी
होगी और
नीरवता, परम—शांति
तुम्हारे
भीतर प्रकट
होगी, और
फूल खिलेगा
जीवन का, तब
उस शांति में
से ही तुम्हें
एक गूंजती हुई
वाणी सुनाई
पड़ेगी।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति शांत
होता है, तत्क्षण
यह प्रतीति
उसे होने लगती
है।
'
वह वाणी
कहेगी, यह
अच्छा नहीं है,
काट तो तुम
चुके, अब
तुम्हें बोना
चाहिए।’
ले
तो तुम चुके, अब
बांटो। मिल तो
तुम्हें गया,
अब लुटाओ।
मालिक तो तुम
बन गए, लेकिन
अभी मालकियत
अधूरी है। अब
इसे तुम दो और
पूरे मालिक बन
जाओ।
क्या
कभी आपने यह
सोचा कि जिस
चीज को हम दे
सकते हैं, उसके
ही हम मालिक
होते हैं। यह
उलटा लगता है।
जिस चीज को हम
दे सकते हैं, उसके ही हम
मालिक होते
हैं। देने में
ही पता चलता
है कि हम
मालिक थे। अगर
आप नहीं दे
पाते और चीज
को पकड़ते हैं,
सोचते हैं
देना बहुत
मुश्किल है—
आप मालिक नहीं
हैं, चीज
मालिक है। आप
जब दे पाते
हैं, तो आप
मालिक हैं।
मालिक दे सकता
है, गुलाम
क्या देगा?
और
जिस दिन हम
आनंद को दे
पाते हैं, उस
दिन हमारी
आनंद पर
मालकियत हो
जाती है।
दुख
तो हम देते
हैं— बहुत
देते हैं—
बिना जाने।
पता ही नहीं
कि हम किस—किस
तरह का दुख
किस—किस को
देते हैं। किस
शब्द से, किस
इशारे से, किस
आख के ढंग से, किसको हम
दुख पहुंचा
देते हैं, इसका
हमें पता ही
नहीं। हम तो
दुख देते ही
रहते हैं
चारों तरफ।
हमारे उठने
में, बैठने
में, दुख
का जहर फैलता
रहता है। वह
हमारे भीतर
भरा है, हम
कुछ कर भी
नहीं सकते। हम
उसे रोकें भी
तो वह मिथ्या
है। हम चाह कर
दीवालें भी
बना लें तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। वह
दूसरा रास्ता
खोज कर बहेगा
और कहीं न
कहीं से
निकलेगा।
झरने रोके
नहीं जा सकते।
तो
दुख तो हम
देते हैं।
हमारा जीवन ही
दुख का बांटना
है। लेकिन यह
अगर हमें खयाल
आ जाए कि हम
दुख बांट रहे
हैं.......। कोई
मानता नहीं है
यह। आप कितना
ही किसी को
दुख दें, कोई
आप से कहे तो
आप कभी मानने
को राजी नहीं
होते कि आप
दुख देते हैं।
आप तो कहेंगे
कि यह गलत बात
है, समझ की भूल
है। मैं तो
सुख ही दे रहा
हूं। हालांकि
आप भी दूसरों
से दुख पाते
हैं, वे भी
यही कहते हैं
कि हम तो सुख
ही दे रहे हैं।
आप दुख पा रहे
हैं, तो
आपकी गलती है।
सब सुख दे रहे
हैं और किसी
को सुख नहीं
मिल रहा है, फिर भी यह
बोध नहीं आता
है कि यहां
कहीं जरूर कोई
बुनियादी भूल
हो रही है।
एक
सूत्र स्मरण
रख लें— कि जो
आपके पास है, वही
आप दे सकते
हैं, अन्यथा
कोई उपाय नहीं
है। यह
स्वाभाविक है
कि हम दुख दें
और दुख पाएं।
और इस तरह दुख
को घना करें।
यह तब तक जारी
रहेगा, जब
तक तूफान आपके
दुख को न छीन
ले।
क्यों
दे रहे हैं
लोगों को? तूफान
उठाएं और दुख
की सारी
धाराओं को
तूफान को ले
जाने दें। यह
तब तक जारी
रहेगा, जब
तक आप दुख को
आकाश में
विसर्जित
करने की कला न
सीख जाएं। तब
तक आप किसी न
किसी पर दुख
को विसर्जित
करेंगे।
एक
युवक मेरे पास
आया। वह
अमरीका से भाग
कर आया था और
भागने का कारण
था। मनस—विश्लेषण
में पाया गया
कि वह अपने
बाप की हत्या
करने को आतुर
है। और उसने
भी समझ लिया
यह कि यह बात
सच है। उसके
मन में एक ही
कल्पना बार—बार
पकड़ती है कि
बाप को मार
डालें!
बाप ने उसको
सताया है। फिर
मां उसकी छोड़
कर चली गई।
फिर बाप ने
दूसरी शादी कर
ली। फिर सब
तरह की पीड़ाएं
उसने झेली हैं।
और बाप के
प्रति गहन
घृणा उसके मन
में है। जब
मनस्विदों ने
उसे कहा कि यह
विचार तेरे मन
को घेरे हुए
है और यह कभी
प्रकट न हो
जाए,
तो वह खुद
भी भयभीत हो
गया। वह इसलिए
हिंदुस्तान
चला आया है कि
न रहेगा बाप
के पास और न यह
उपद्रव की
संभावना होगी।
वह
मेरे पास आया।
मैंने उसको
कहा कि तू
कहीं भी भाग, जिस
दिन तुझे बाप
की हत्या करनी
है, उस दिन
तू बाप के पास
पहुंच जाएगा।
भाग तू सकता
नहीं ऐसे, क्योंकि
अपने से कैसे
भागेगा? बाप
से भाग सकता
है। लेकिन
तेरा वह जो
हत्या करने
वाला मन है, वह तेरे
भीतर है, वह
तेरे साथ है, वह और सघन हो
जाएगा। उसने
कहा, मैं
क्या करूं? मैंने उससे
कहा, तू
बाप की हत्या
कर ही दे।
उसने कहा कि
आप क्या कहते
हैं! आप होश
में हैं? आप
जैसा आदमी
मैंने नहीं
देखा! मैं
आपके पास शांत
होने आया हूं
आप कहते हैं, बाप की
हत्या ही कर
दे!
तो
मैंने उससे
कहा कि जा कर
सचमुच के बाप
की हत्या करने
की जरूरत नहीं
है। मेरे कमरे
में एक तकिया
पड़ा था। मैंने
उसको कहा कि
यह तकिया तू
ले जा, इसकी तू
अपना बाप समझ,
इस पर बाप
का नाम भी लिख
दे, इस पर
बाप की तस्वीर
भी लगा दे, और
बाजार से एक
छुरा खरीद ला।
उसने कहा कि
आप भी क्या
मजाक कर रहे
हैं! पर देखा
मैंने कि उसकी
आंखों में चमक
आ गई और
प्रसन्नता आ
गई। उसका उदास
चेहरा
प्रफुल्लित
दिखाई पड़ा।
मैंने कहा, तू बेफिक्री
से रोज हत्या
कर। एक दिन से
भी क्या होगा?
तू आधे घंटे
का उपक्रम ही
बना ले— कि
सुबह पहला
कार्य बाप की
हत्या करने का
है। उसने कहा,
लेकिन
इसमें क्या रस
आएगा! मैंने
कहा, तू
इसे शुरू कर।
सात दिन बाद
मुझे तू आ कर
बताना।
सात
दिन बाद वह
आया,
वह कहने लगा
कि आपने क्या
किया मुझे? आधा घंटे
में दिल नहीं
मानता है। कभी—कभी
तो घंटे, डेढ़
घंटे ऐसी
पिटाई करता
हूं र फिर
छुरा भी मारता
हूं; और
चित्त ऐसी
शांति अनुभव
करता है उसके
बाद... और उसने
कहा कि इधर दो
दिन से एक नई
घटना घट रही है
कि मुझे अपने
बाप पर दया
आने लगी है।
घृणा
विसर्जित हो
गई है और मुझे
दया का भाव आता
है।
मैंने
कहा कि तू
जारी रख तीन
सप्ताह। और
तीसरे सप्ताह
उसने आ कर
मुझे कहा कि
मुझे क्षमा कर
दें,
और मुझे आशा
दें कि मैं
जाऊं और अपने
बाप के चरणों
में सिर रख कर
क्षमा मांग
लूं। मेरे मन
से सारी घृणा
निकल गई है।
और अब मुझे
लगता है कि
बाप का कोई
कसूर नहीं था,
परिस्थितियां
ऐसी थीं। और
अब मुझे सिर्फ
दया का भाव है।
और अब मुझे ऐसा
भी
पश्चात्ताप
लगता है कि
मैंने तीन
सप्ताह अपने
पिता के साथ
कैसा व्यवहार
किया! उससे मैं
पूछता था, तो
उसने कहा कि
तीन दिन के
बाद तकिया खो
गया और मेरा
पिता मौजूद हो
गया—
प्रोजेक्यान
पूरा हो गया।
जो
वह साल भर मनस—चिकित्सा
से संभव न हो
पाया, वह तीन
सप्ताह तूफान
पैदा करने से
संभव हो गया।
वह
युवक वापस लौट
गया। और उसके
पिता का पत्र
मेरे पास आया
कि आपने मेरा
बेटा मुझे
वापस लौटा
दिया, इसलिए
जितना
अनुग्रह
मानूं थोड़ा है।
और मैंने तो
कभी सोचा ही
नहीं था कि इस
बेटे में और
ऐसा सरल भाव आ
जाएगा, कि
यह कभी मेरे
चरणों पर सिर
रख देगा। यह
तो कल्पना के
बाहर था। मैं
तो सोच ही
चुका था कि
बात समाप्त हो
गई, अब इस
बेटे का आमना—सामना
करना भी ठीक
नहीं है।
जो
भी आपके भीतर
है— दुख है, पीड़ा
है, संताप
है— उसे खुले
आकाश में
छोड़ने की
सामर्थ्य
चाहिए, तो
आप दुख से
मुक्त होंगे।
व्यक्तियों
पर निकालने की
कोई जरूरत
नहीं है।
व्यक्तियों
पर भी निकाल
कर आप करते
क्या हैं? व्यक्ति
भी खूटियां
हैं। जब आकाश
जैसी बड़ी
खूंटी उपलब्ध
हो, तो
क्या छोटे—छोटे
व्यक्तियों
को खोजना? और
सब व्यक्ति
वैसे ही दुख
से बहुत भरे
हैं, उन पर
और दुख क्या
लादना? पत्नी
आपकी वैसे ही
दबी और मरी जा
रही है। पति
आपका वैसे ही
टूटा जा रहा
है। अब उस पर
और क्या दुख
फेंकना? और
क्या क्रोध
करना? यह
खुला आकाश
काफी बड़ा है।
और यह छाती
इतनी बड़ी है
कि आपके बोझ
से थकेगी नहीं।
इस खुले आकाश
में अपने दुख
को उड़ जाने
दें। इस दुख
का कहीं कोई
पता भी नहीं
चलेगा, यह
लीन हो जाएगा।
आकाश
में सभी कुछ
लीन हो जाता
है। आप तक लीन
हो जाएंगे, तो
आपके दुख की
क्या बिसात है?
कल आप नहीं
थे, इसी
आकाश से आपका
आगमन हुआ; कल
आप फिर नहीं
हो जाएंगे, इसी आकाश
में फिर खो
जाएंगे।
पृथ्वियां
बनती हैं और
खो जाती हैं, सूरज जलते
हैं और चुक
जाते हैं, तारे
बनते हैं और
बिखर जाते हैं,
सृष्टियां
आती हैं और
लीन हो जाती
हैं—यह आकाश
सबको पी लेता
है। यह आपका
दुख ना—कुछ है,
इसे आकाश को
दे दें, यह
उसे पी लेगा।
तूफान
उठाएं और दुख
को बह जाने
दें। और उसके
बाद आपको आनंद
की झलक शुरू
होगी। इस
शून्यता में, इस
नीरवता में जो
तूफान के बाद
आएगी, आपको
निरंतर, सतत
अनुभव होने
लगेगा।’ यह
अच्छा नहीं है,
काट तो तुम
चुके, अब
तुम्हें बोना
चाहिए। यह
वाणी स्वयं
नीरवता ही है,
यह जान कर
तुम उसके आदेश
का पालन करोगे।’
इस
आदेश से बचा
नहीं जा सकता, क्योंकि
यह आदेश कहीं
बाहर से नहीं
आ रहा है। यह
तुम्हारी
अपनी अंतर—आत्मा
की आवाज है।
यह तुम्हारा
ही आदेश है।
यह तुमने अपने
लिए ही दिया
है। इसलिए
इससे तुम बच न
सकोगे।
ध्यान
रहे,
दूसरे का
आदेश बोझ हो
जाता है। उससे
हम बचना चाहते
हैं। अगर हम
उसे करते भी
हैं तो
कर्तव्य मान
कर। कर्तव्य गंदा
शब्द है। इसका
मतलब है, करना
पड़ रहा है, वह
आनंद नहीं है।
कोई मुझे आ कर
कहता है कि
मां की सेवा
कर रहा हूं र
क्योंकि यह
कर्तव्य है।
तो मैं उससे
कहता हूं कि
तू सेवा मत कर।
क्योंकि जब तू
कह रहा है कि
कर्तव्य है, तो उसका
अर्थ है, मां
के लिए तेरे
मन में कोई प्रेम
नहीं है। जो
भी कर्तव्य
शब्द का उपयोग
करता है, वह
कह रहा है कि
प्रेम मेरा
नहीं है।
जहां
प्रेम होता है, वहां
कर्तव्य नहीं
होता है, वहां
आनंद होता है।
यह कहना कि
मेरी मां है, इसलिए सेवा
कर रहा हूं
क्योंकि मेरा
प्रेम है। यह
कोई कर्तव्य
का सवाल नहीं
है। करना
चाहिए, इसलिए
कर रहा हूं तब
तो बात ही
व्यर्थ हो गई।
लेकिन
फर्क है।
कर्तव्य का
आदेश मिलता है
बाहर से। और
प्रेम का आदेश
मिलता है भीतर
से। प्रेम का
आदेश
तुम्हारा ही
आदेश होता है, इसलिए
पूरा करने में
प्रसन्नता
होती है।
कर्तव्य का
आदेश किसी और
का होता है—
शास्त्र का, समाज का, गुरु
का, किसी
और का, परंपरा
का, व्यवस्था
का—कहीं और से
आदेश आता है।
और तुम्हें
उसको पूरा
करना पड़ता है।
तुम पूरा करते
हो, लेकिन
मन—हृदय वहां
होता नहीं है।
तुम निपटाते
हो, तुम
किसी तरह बोझ
को ढोते हो।
और
तब तुम्हारे
कर्तव्य से आई
हुई सेवा में
जहर हो जाता
है। तब तुम
समझते हो बड़ी
सेवा कर रहे
हो। और जिसकी
तुम कर रहो हो, उसको
लगता है कि
तुम कुछ भी
नहीं कर रहे
हो। क्योंकि
तुम्हारा
हृदय, तुम
जो करते हो
उसमें मौजूद न
हो, तो
दूसरे को समझ
में आ जाता है।
छोटे—छोटे
बच्चे तक समझ
लेते हैं, बाप
कर्तव्यवश
उनकी पीठ सहला
रहा है, मुस्कुरा
रहा है। छोटे
बच्चे भी समझ
जाते हैं कि
मुस्कुराहट
झूठी है और यह
जो पीठ ठोंकी;
ठोंकी जरूर,
लेकिन
सिर्फ हाथ था
वहां, हृदय
नहीं था। छोटे
बच्चे भी जान
जाते हैं कि
नहीं, यहां
हृदय नहीं है।
पहचान जाते
हैं।
हम
सब यहां एक—दूसरे
को पहचान जाते
हैं। धोखा
देना संभव
नहीं है।
क्योंकि हृदय
जहां मौजूद
होता है, उसका
रस अनुभव में
आ ही जाता है।
जहां मौजूद
नहीं होता, वहां सूखापन
अनुभव में आ
ही जाता है।
लेकिन
तुम इस आदेश
का पालन करोगे, क्योंकि
यह तुम्हारी
ही अंतर—आत्मा
का आदेश है।’ तुम जो अब
शिष्य हो......।’
तुम
जो अब सीखने
में समर्थ हो
गए हो, तुम
जिसने अपने
हृदय को शून्य
कर लिया है, पूरी तरह
झुका दिया है।
'अपने पैरों
पर खड़े रह
सकते हो।’
यह
बड़े मजे की
बात है। जो
झुकने को राजी
है,
वह अपने
पैरों पर खड़े
होने में
समर्थ हो जाता
है। और जो
झुकने को राजी
नहीं है, वह
सदा दूसरों पर
निर्भर होता
है। यह बड़ी
उलटी बात है।
लेकिन ऐसा ही
है। क्योंकि
जो झुकने में
समर्थ है, इस
जगत की सारी
शक्ति उसकी
तरफ बहनी शुरू
हो जाती है।
जो अकड़ कर खड़ा
रहता है, वह
अपनी ही शक्ति
को गवाता है, इस जगत की
शक्ति उसे
उपलब्ध नहीं
होती।
लाओत्से
कहता था कि
तूफान आता है
तो बड़े वृक्ष
अकड़ कर खड़े
रहते हैं और
गिर जाते हैं।
छोटे पौधे
तूफान के साथ
ही झुक जाते
हैं;
तूफान निकल
जाता है। बड़े
वृक्षों की
जड़ें उखड़ जाती
हैं, वे
नीचे पड़े होते
हैं; छोटे
पौधे वापस खड़े
हो जाते हैं।
तूफान छोटे
पौधों को जीवन
दे जाता है। अंकड़े
हुए, अहंकारी
वृक्षों को
नष्ट कर जाता
है। एक ही
तूफान है! और
कमजोर बच जाता
है, और
ताकतवर टूट
जाता है!
बड़ी
अजीब बात है।
वृक्ष बड़ा
ताकतवर था, उसी
अकड़ में तो वह
खड़ा रहा था।
और उसने कहा
था, आने दो
तूफान को, हम
झुकने वाले
नहीं हैं। टूट
जाएंगे, पर
झुकेंगे नहीं।
छोटे—छोटे
पौधे थे, उन्होंने
न तो कोई अकड़
दिखाई, न
उन्होंने
तूफान से कोई
संघर्ष लिया,
बल्कि
तूफान के साथ
खेले। और
तूफान ने जब
उन्हें
झुकाया, तो
वे झुक गए, जैसे
कोई प्रेमी
अपनी प्रेयसी
को झुकाए।
कहीं कोई
दुश्मनी न थी,
यह प्रेम का
ही एक अनुभव
था। तूफान
उन्हें नहला
गया, उनकी
धूल— धवांस
झाडू गया, तूफान
उन्हें ताजा
कर गया, उनके
पुराने सूखे
पत्ते गिरा
गया। और तूफान
जा चुका और वे
पौधे फिर खड़े
हैं। पहले से
भी ज्यादा
हंसते, पहले
से भी ज्यादा
जीवंत और
प्रफुल्लित—
आकाश में उनका
सिर उठा है।
कमजोर
थे वे, लेकिन
किसी और भाषा
में— जो मैं कह
रहा हूं उस
जगत की उलटी
भाषा में—वें ताकतवर
सिद्ध हुए। और
जो ताकतवर थे
इस जगत की
भाषा में, वे
कमजोर सिद्ध हुए
और जमीन पर पड़े
हैं। अब उठ
नहीं सकते, उनकी जडें
उखड़ गई हैं।
अपने ही
अहंकार ने
उन्हें मिटा
दिया है।
तूफान ने नहीं
मिटाया।
क्योंकि
तूफान मिटाता,
तो इन छोटे
पौधों को भी
मिटा देता।
तूफान ने कुछ
भी न किया, तूफान
तो गुजरा था।
उन्होंने कुछ
किया, जिससे
वे मिटे। और
इन छोटे पौधों
ने कुछ किया, जिनसे वे
बचे।
जिसको
हम ताकत कहते
हैं संसार की
भाषा में, वह
अध्यात्म की
भाषा में
कमजोरी है। और
जिसको हम
कमजोरी कहते
हैं संसार की
भाषा में, वह
अध्यात्म की
भाषा में ताकत
है। झुकना
कमजोरी है
संसार में। मत
झुको, चाहे
कुछ भी हो; कहीं
झुकना मत।
अध्यात्म
की भाषा में
झुकना, शक्ति
को आमंत्रण है।
और जो झुक
जाता है, वह
सब तरफ से भर
जाता है। सारे
जगत की शक्ति
उसकी तरफ
दौड़ने लगती है।
वह गड्डे की
तरह हो जाता
है। उसका
निमंत्रण
चारों तरफ
सुना जाता है।
अकड़ा हुआ आदमी
पहाड़ के शिखर
की तरह हो
जाता है।
वर्षा होती है,
शिखर पर भी
होती है, लेकिन
शिखर पर टिक
नहीं सकती।
शिखर बहुत
अकड़ा हुआ है।
वर्षा जा कर
झीलों में समा
जाती है।
झीलें खाली
हैं, झुकी
हुई हैं। होती
है वर्षा शिखर
पर, लेकिन
झील पानी को
पी लेती है।
क्योंकि झील
खाली है, इसलिए
भर जाती है।
और शिखर पहले
से ही भरा है, इसलिए खाली
रह जाता है।
यह
सूत्र कहता है
कि तुम जो अब
शिष्य हों—झुकने
में समर्थ, विनम्र
हो गए, समर्पित
हो गए— अपने
पैरों पर खड़े
रह सकते हो।
अब
तुम्हारे
पैरों में बल
आ गया है।
क्योंकि यह बल
अब अहंकार का
नहीं है, यह बल
विनम्रता का
है। यह बल अब
तुम्हारा
नहीं है, यह
बल अब समस्त
शक्ति का है।
यह समस्त
अस्तित्व
तुम्हें बल दे
रहा है।
'तुम सुन
सकते हो.......।’
वह
अहंकार गया, जो
सुनने न देता
था। वह अकड़ गई,
जो सुनने
में बाधा बनती
थी।
अब
मैं देखता हूं
मेरे पास
अक्सर पंडित आ
जाते हैं, वे
सुन नहीं सकते।
मैं बिलकुल
प्रत्यक्ष
देखता हूं कि
मैं बोल रहा
हूं लेकिन वे
सुन नहीं रहे।
जब मैं बोल
रहा हूं तब भी
वे सोच रहे
हैं कि उन्हें
मेरे बोलने के
बाद क्या कहना
है! जब मैं बोल
रहा हूं तब भी
वे भीतर अपना
गणित बिठा रहे
हैं कि क्या
सही कह रहा
हूं क्या गलत
कह रहा हूं!
शास्त्र के
अनुकूल है कि
प्रतिकूल है?
अपना
मंतव्य
बैठेगा कि
नहीं? वे
बिठा रहे हैं!
मैं उनके
चेहरे को देख
कर साफ समझता
हूं कि वे सुन
नहीं रहे हैं,
वे तैयारी
कर रहे हैं, वे बोलने के
लिए तैयार हो
रहे हैं। और
जब मैं चुप
होता हूं तो
जहां से वे
बोलना शुरू
करते हैं, वह
स्थान वह नहीं
है, जहां
मैंने बोलना
समाप्त किया।
वह मैंने जो
बोला है, जैसे
उन्होंने
सुना ही नहीं
है। वह जो
मैंने बोला है,
जैसे उनके
कान पर पड़ा ही
नहीं है। वे
किसी और ही
लोक से बोलना
शुरू करते हैं।
इस
पर आप खुद भी
खयाल करना। जब
आप किसी को
सुनते हैं, तो
सच में आप
सुनते हैं? या आप भीतर
बोले चले जाते
हैं? अगर
आप भीतर बोल
रहे हैं, तो
आप सुन नहीं
रहे हैं, क्योंकि
बोलना और
सुनना साथ—साथ
नहीं हो सकता।
अगर भीतर बोल
रहे हैं, तो
आप सुन नहीं
रहे हैं। हां,
कुछ—कुछ भनक
पड़ जाएगी। कुछ—कुछ
भनक पड़ जाएगी।
उसी भनक के
सहारे पर आप
बोलना शुरू
करेंगे, जब
एक चुप हो
जाएगा। लेकिन
जो दूसरे ने
कहा है, वह
बड़ा चकित होगा, क्योंकि यह
तो उसने कहा
नहीं, जो
आपने समझा है।
और अगर वह भी, जब आप बोल
रहे हैं, अपने
भीतर बोल रहा
हो, तो यह
बातचीत दो
पागलों के बीच
हो रही है।
इसमें से कुछ
अर्थ नहीं
निकल सकता। यह
व्यर्थ का
विवाद हो रहा
है। यह व्यर्थ
की आवाज एक—दूसरे
की तरफ फेंकी
जा रही है। यह
संवाद नहीं है।
यह
सूत्र कहता है
कि तुम अब सुन
सकते हो।
क्योंकि अब
भीतर, वह जो
अहंकार की गंज
चलती रहती थी,
बंद हो गई
है।
'देख सकते हो,
बोल सकते हो।’
और
जो सुन सकता
है,
वही बोल
सकता है। और
जो देख सकता
है, वही
बोल सकता है।
बोलने के पहले
सुनने की कला
आ जानी चाहिए।
क्योंकि
तुम्हारे
बोलने में तब
ही अर्थ होगा,
जब तुम
शून्य हो कर
सुनने के
योग्य हो गए
होओ। क्योंकि
बोलने योग्य
बात शून्य में
ही सुनी जाती
है। तो
जिन्होंने
मौन को नहीं
साधा, उनकी
वाणी का कोई
भी मूल्य नहीं
है।
जिन्होंने
चुप्पी की कला
नहीं सीखी, उनके शब्द
व्यर्थ हैं।
तो
दो तरह से
बोलना हो सकता
है। कोई आदमी
शास्त्र को पढ़
ले और बोले।
वह भी बोलना
है। और कोई
आदमी गहरे
ध्यान में
उतरे, मौन हो
जाए, शून्य
हो जाए और
बोले। वह भी
बोलना है।
लेकिन दोनों
के बोलने में
जमीन—आसमान का
फर्क है।
एक
वाणी पंडित की
है और एक वाणी
ज्ञानी की है।
पंडित की वाणी
कुशल हो सकती
है,
टेक्यिकली
सुंदर हो सकती
है, स्पष्ट
हो सकती है, तर्कयुक्त
हो सकती है, लेकिन सत्य
नहीं हो सकती।
क्योंकि सत्य
उसका अनुभव
नहीं है।
अनुभव से जो
वाणी आएगी— और
अनुभव आता है
शून्य में, मौन में, नीरवता
में। तूफान के
बाद जो नीरवता
आती है, उसमें
अनुभव आता है।
उस अनुभव की
वाणी में.. .तब
ही बोलने में
कोई समर्थ है।
महावीर
बारह वर्ष चुप
रहे,
मौन रहे।
बहुतों ने कहा
कि बोलें। पर
नहीं बोले।
बारह वर्ष के
बाद बोलना
शुरू किया। यह
बारह वर्ष जब
तक उनको
स्पष्ट न हो
गया कि पूर्ण
शून्यता, पूर्ण
नीरवता आ गई
है, तब तक
बोलने का कोई
अर्थ नहीं है।
क्या बोलना है?
किससे
बोलना है? जब
हम सुन भी
नहीं सके हैं
उस अंतरिक्ष
की वाणी को, तो बोलेंगे
क्या?
'अब तुम बोल
सकते हो। तुम
जिसने
वासनाओं को
जीत लिया, और
आत्म—ज्ञान
प्राप्त कर
लिया। जिसने
अपनी आत्मा को
विकसित
अवस्था में
देख लिया और
पहचान लिया।
और नीरवता के
नाद को सुन
लिया। तुम अब
उस ज्ञान—मंदिर
में जाओ, जो
परम—प्रज्ञा
का मंदिर है, और जो कुछ
तुम्हारे लिए
वहां लिखा है,
उसे पढ़ो।’
यह
तो प्रतीक है।
लेकिन जो
परिपूर्ण
नीरव हो गया, शून्य
हो गया, शांत
हो गया, उसके
सामने जगत का
रहस्य खुल
जाता है। इस
जगत का जो
रहस्य—शास्त्र
है, इस
अस्तित्व के
भीतर ही छिपी
हुई जो ज्ञान
की कुंजियां
हैं, अगर
इस अस्तित्व
की हम कल्पना
करें, एक
प्रतीति की कि
इसके गहन
अंतस्तल में
कहीं छिपा हुआ
एक प्रज्ञा का
मंदिर है, तो
उसके द्वार
में प्रवेश
मिल जाता है।
यह
सूत्र कहता है, यह
भीतर की अंतर—वाणी
ही तुमसे
कहेगी, नीरवता
तुमसे कहेगी
कि अब तुम
तैयार हो गए
हो, और जाओ
उस परम—प्रज्ञा
के मंदिर में।
जो कुछ
तुम्हारे लिए
वहां लिखा है,
उसे पढो।
'नीरवता की
वाणी सुनने का
अर्थ है, यह
समझ जाना कि
एकमात्र पथ—निर्देश
अपने ही भीतर
से प्राप्त
होता है।’
जब
तक तुम मौन
नहीं हो, तब तक
तुम्हारी
आत्मा
तुम्हें पथ—निर्देश
न दे सकेगी।
तब तक तुम्हें
किसी गुरु की
शरण लेनी
पड़ेगी। वह शरण
इसीलिए लेनी
पड़ रही है कि
तुम अपने ही भीतर
छिपी हुई गुरु—वाणी
को सुनने में
असमर्थ हो।
तुम इतने
शोरगुल से भरे
हो कि वह भीतर
की जो बहुत
धीमी, बहुत
बारीक, सूक्ष्म
आवाज है, वह
खो जाती है
तुम्हारे नाद
में, तुम्हारे
उपद्रव में, तुम्हारे
शोरगुल में, तुम्हारे
भीतर के मन की
भीड़ में। वह
कहीं सुनाई
नहीं पड़ती।
इसलिए जरूरत
है कि बाहर से
कोई गुरु
तुम्हें आदेश
दे, निर्देश
दे, मार्ग
बताए। अन्यथा
कोई जरूरत
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारा
गुरु छिपा है।
लेकिन भीतर की
आवाज तुम नहीं
समझ सकते हो, इसलिए बाहर
किसी गुरु की
तलाश करनी
पड़ती है।
उपयोगी है वह
तलाश। और तब
तक जरूरी है, जब तक कि तुम
भीतर के गुरु
की आवाज सुनने
में समर्थ न
हो जाओ। और
जिस दिन भीतर
के गुरु की
आवाज तुम सुन
लेते हो, बाहर
के गुरु का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम
बाहर के गुरु
के प्रति उस
दिन अवज्ञा से
भर जाते हो, बल्कि
उस दिन ही तुम
पूरा अनुग्रह
अनुभव करते हो।
क्योंकि उसने
ही तुम्हें
तुम्हारे
भीतर के गुरु
से मिला दिया
है।
कबीर
ने कहा है
गुरु गोविंद
दोऊ खड़े, काके
लागूं पांव।
वह
गुरु खड़ा है
बाहर वाला और
अब गोविंद भी
प्रकट हो गए
हैं,
भीतर का
गुरु भी प्रकट
हो गया है। और
कबीर पूछते
हैं कि अब मैं
बड़ी दुविधा
में पड़ा हूं
दोनों मेरे
सामने खड़े हैं
गुरु गोविंद दोऊ
खड़े, काके
लागू पांव। और
तब कबीर कहते
हैं कि मैंने
गुरु के ही
पैर छुए, क्योंकि
बलिहारी गुरु
आपकी, गोविंद
दियो बताये।
तुम्हारे
बिना ये
गोविंद का
मुझे पता न
चलता, इसलिए
पैर मैं पहले
तुम्हारे ही
छूता हूं।
बाहर का गुरु
विदा हो जाता
है भीतर के
गुरु को बता
कर। फिर
यात्रा
नितांत अंतस की
है। फिर स्वयं
के अतिरिक्त
वहां कोई भी
नहीं है।
'नीरवता की
वाणी सुनने का
अर्थ है, यह
समझ जाना कि
एकमात्र पथ—निर्देश
अपने ही भीतर
से प्राप्त
होता है। प्रज्ञा
के मंदिर में
जाने का अर्थ
है, उस
अवस्था में
प्रविष्ट
होना, जहां
ज्ञान—प्राप्ति
संभव होती है।
तब तुम्हारे
लिए वहां बहुत
से शब्द लिखे
होंगे और वे
ज्वलंत
अक्षरों में
लिखे होंगे, जिससे तुम
उन्हें सरलता
से पढ़ सको।
क्योंकि जब
शिष्य तैयार
हो जाता है, तो श्री
गुरुदेव भी
तैयार ही हैं।’
वह
जो भीतर का
परम—गुरु है, तुम
जिस दिन शिष्य
बनने को पूरी
तरह तैयार हो जाते
हो, वह
तुम्हें
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन यह
शिष्यत्व की
प्रक्रिया
पहले तुम्हें
किसी बाहर के
गुरु के साथ
सीखनी पड़ती है।
एक बार तुम
शिष्यत्व में
पूरी तरह
निष्णात हो
जाते हो, बाहर
का गुरु विदा
हो जाता है, भीतर का
गुरु प्रकट हो
जाता है। वह
भीतर का गुरु
सदा तैयार है,
सिर्फ
तुम्हारी
तैयारी की
प्रतीक्षा है।
जिस दिन तुम
तैयार हो, वह
तैयार था ही।
इस अंतर—वाणी
को सुन लेने
के बाद फिर
जीवन में कोई
भटकाव नहीं है।
फिर जीवन में
कोई भूल—चूक
नहीं होती।
फिर होने का
कोई उपाय न
रहा, क्योंकि
अब चलने वाला
और चलाने वाला
दोनों एक हैं।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
अब
शिष्य और गुरु
दोनों एक हैं।
जब तक बाहर का
गुरु था और आप
शिष्य थे, तब
तक फासला तो
रहेगा ही।
कितनी ही
आत्मीयता हो,
और कितनी ही
गहरी श्रद्धा
हो, और
कितनी ही
निकटता हो, और कितनी ही
आस्था हो—फासला
तो रहेगा ही।
क्योंकि बाहर
फासले के ही
संबंध होते
हैं। निकटता
भी फासला ही
है। लेकिन इस
फासले को तुम
कम करते जाना।
एक सीमा आएगी
कि उसके बाद
और कुछ कम
करने को नहीं
बचेगा। जिस
दिन ऐसा लगे
कि बाहर के
गुरु और मेरे
भीतर अब कम
करने को कुछ
भी नहीं बचा, उसी दिन तुम
पाओगे कि बाहर
का गुरु विलीन
हो गया, भीतर
का गुरु प्रकट
हो गया।
जैसे
सौ डिग्री पर
अचानक पानी
भाप बन जाता
है,
ऐसे ही गुरु
के पास आने की
एक डिग्री है।
बाहर के गुरु
के निकट आने
की एक सीमा है।
एक ऐसा क्षण
कि जहां बाहर
का गुरु तुमसे
कहे कि कूद
पड़ो और मर जाओ,
तो भी
तुम्हारे
भीतर से ही ही
निकले। तो उसी
क्षण बाहर का
गुरु विलीन हो
जाएगा, भीतर
का गुरु प्रकट
हो जाएगा। जब
तक तुम बाहर
के गुरु को
किसी भी अर्थ
में 'नहीं' कह सकते हो, तब तक फासला
कायम है। और
तब तक भीतर के
गुरु की आवाज
सुनाई नहीं पड़
सकती।
श्रद्धा का
यही अर्थ है, संपूर्ण रूप
से ही का भाव।
जिस
दिन यह हो
जाएगा, उसी
दिन बाहर के
सहारे की
जरूरत समाप्त
हो गई। अब तुम
उस आस्था को
उपलब्ध हो गए,
जिस आस्था
में भीतर का
गुरु प्रकट हो
सकता है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें