कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

साधना--पथ--(प्रवचन--07)

स्‍व की अग्‍नि—परीक्षा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक,4 जून, 1964; संघ्‍या।
मुछाला महावीर, राणकपुर।

मैं दूसरों की दृष्टि में क्या हूं यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मैं अपनी स्वयं की दृष्टि में क्या हूं! पर हम दूसरों की दृष्टि से ही स्वयं को भी देखने के आदी हो जाते हैं, और भूल जाते हैं कि स्वयं को सीधा, डायरेक्ट और प्रत्यक्ष, इमिजिएट देखने का भी एक रास्ता है और वही रास्ता वास्तविक भी है, क्योंकि वह परोक्ष नहीं है। पहले तो हम स्वयं ही दूसरों को दिखाने के लिए अपना एक रूप, एक आवरण बना लेते हैं और फिर दूसरों को जैसे दिखते हैं, उस पर ही स्वयं के संबंध में भी धारणा कर लेते हैं।
ऐसी आत्म—प्रवंचना, सेल्फ—डिसेप्‍श्‍न मनुष्य जीवन भर करता रहता है। धार्मिक जीवन के प्रारंभ के लिए इस आत्म—प्रवंचना पर ही सबसे पहले आघात करना होता है।

मैं जैसा हूं और जो हूं उसे सारी आत्म—प्रवचनाओ को तोड़ कर, पूरी नग्नता, नेकेडनेस में जानना आवश्यक है, क्योंकि उसके बाद ही जीवन—साधना की किसी वास्तविक दिशा में चरण उठाए जा सकते हैं। स्वयं के संबंध में असत्य धारणाओं के रहते—स्वयं के अभिनय—व्यक्तित्व को वास्तविक समझने की भ्रांति के रहते—मनुष्य सत्य के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता है।
इसके पूर्व कि हम परमात्मा को जानें या कि स्व—सत्ता को या कि सत्य को—हमें उस काल्पनिक व्यक्ति को अग्निसात कर ही देना होगा जो कि हमने स्वयं अपने ऊपर ओढ़ लिया है। यह धोखे की खाल हमें नाटकीय जीवन के ऊपर जो वास्तविक जीवन है, उस तक नहीं उठने देती है। सत्य में चलना है, तो इस नाटक से जागना आवश्यक है।
क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता है कि आप एक नाटक कर रहे हैं? क्या कभी ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि आप भीतर कुछ हैं और बाहर कुछ हैं? क्या किसी अमूर्च्छित क्षण में इस वंचना का बोध आपको पीड़ा नहीं देता है? यदि आपमें इस संबंध में प्रश्न उठता है और पीड़ा उठती है तो वही संभावना है जो आपको नाटक के बाहर ले जा सकती है— रंगमंच से उस पृष्ठभूमि में जहां आप किसी अभिनय के पात्र नहीं, बल्कि स्वयं आप हैं।
मैं अपने आपको जो भी समझ रहा हूं कि मैं हूं वह क्या वस्तुत: मैं हूं? —यह अपने से पूछना आवश्यक है। इस प्रश्न को हमारी गहराइयों में प्रतिध्वनित होना चाहिए। वह इतनी तीव्रता और सजगता से हमारे भीतर खड़ा हो कि भ्रम की कोई संभावना न रहे। इस प्रश्न, इस जिज्ञासा, इस अंतखोंज के परिणाम में एक अभूतपूर्व जागरण और चेतना आती है, जैसे किसी ने हमें नींद से जगा दिया हो। और तब दिखाई पड़ता है कि हमने जो महल खड़े किए थे वे स्वप्न में थे और हमने जो नावें चलाई थीं वे झूठी थीं।
सारा जीवन ही तब असत्य दिखता है, जैसे वह अपना नहीं किसी और का ही हो। वस्तुत: वह अपना है भी नहीं। वह कोई अभिनय है जो हम पूरा कर रहे हैं—ऐसा अभिनय जो हमारी शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, परंपरा और समाज ने हमें सिखा दिया है, लेकिन जिसकी जड़ें हममें नहीं हैं।
यदि किसी गुलदस्ते में सजे फूल अनायास जाग जाएं तो उन्हें जैसे ज्ञात हो कि उनकी कोई जड़ें नहीं हैं, ऐसा ही हमें भी जागने पर शात होना अवश्यम्भावी है। हम व्यक्ति नहीं, केवल धोखा हैं—जडहीन, भूमिहीन, अधर में लटके हुए किसी कथा के पात्र हैं— किसी स्वप्न—कथा के, जिनका वस्तुत: कोई होना नहीं है।
मैं इस स्वप्न में आपको डूबा और चलता हुआ देखता हूं। आपके सारे कार्य निद्रित हो रहे हैं। आपकी सारी क्रियाएं सोई हुई हैं। पर सोने से जागना हो सकता है। निद्रा और मृत्यु में यहीं तो भेद है। एक से जाग सकते हैं, दूसरे से जाग नहीं सकते हैं।
निद्रा कितनी भी गहरी हो, तो भी जागरण उसकी संभावना, पॉसिबिलिटी है— वह उसमें प्रसुप्त बीज, पोटेशियलिटी है।
मैं स्वयं के आमने—सामने हो सकूं तो बहुत से भ्रम भंग हो जाते हैं, जैसे किसी ने अपने आपको बहुत सुंदर मान रखा हो और वह पहली बार दर्पण के सामने आ जाए।
जैसे शरीर को देखने का दर्पण है, वैसे ही स्वयं को देखने का दर्पण भी है। मैं उसी दर्पण, मिरर की चर्चा कर रहा हूं। वह दर्पण स्व—निरीक्षण, सेल्फ ऑब्जर्वेशन का है।
क्या आप अपने आपके सत्य को देखना चाहते हैं? क्या उस व्यक्ति से मिलना चाहते हैं, जो कि आप हैं? और क्या, इस संभावना को जान कर कि स्वयं के नग्न—रूप को जाना जा सकता है, आपको डर नहीं मालूम होता है? वह मालूम होना बहुत स्वाभाविक है। उसके कारण ही तो हम स्वयं के संबंध में नये—नये स्वप्न गढ़ते रहते हैं, और उसे भुलाए रहते हैं जो कि हमारी वास्तविकता है। पर ये स्वप्न साथी नहीं हो सकते हैं। उनके सहारे कहीं भी पहुंचना नहीं होता है। वे केवल उस समय को और उस अवसर को नष्ट करते हैं, जिससे कि कहीं पहुंचा जा सकता था।
आप सोचते होंगे कि मैं स्वयं की इस नग्नता, कुरूपता और रिक्तता को देखने के लिए क्यों इतना आग्रह कर रहा हूं? क्या यह अच्छा नहीं है कि जो देखने—योग्य नहीं है, उसे देखा ही न जाए? और क्या यह शुभ और सुंदर नहीं है कि जो कुरूप है उसे हम आभूषणों से ढांक दें और जो दर्शनीय नहीं है, उसे पर्दों में छिपा दें?
साधारणत: हम यही करते हैं। यही रिवाज है। यही प्रचलन है। पर यह प्रचलन बहुत आत्मघाती है, क्योंकि हम जिन घावों को छिपा लेते हैं, वे छिपाने से मिटते नहीं हैं, वरन और भी घातक हो जाते हैं। और हम जिन कुरूपताओं को ढांक लेते हैं, वे नष्ट नहीं होतीं, वरन हमारे समस्त व्यक्तित्व के अंतस्रोतों में प्रविष्ट हो जाती हैं।
ऊपर झूठी सुगधिया हम छिड़कते रहते हैं और भीतर दुर्गंध का राज्य हो जाता है। और फिर एक दिन कोई भी सुगंध काम नहीं देती है, और भीतर की दुर्गंध बाहर आने लगती है। और एक दिन कोई आभूषण काम नहीं देते हैं और कुरूपता उन्हें फोड़ कर बाहर निकल आती है।
मैं सुगंध छिड़कने के नहीं, दुर्गंध का अंत करने के पक्ष में हूं। मैं आभूषणों और फूलों से कुरूपता को ढांकने के पक्ष में नहीं, उसे आमूल नष्ट कर, सौंदर्य और संगीत को अंतस में जगाने के पक्ष में हूं। वह न हो तब सब व्यर्थ है। सारी चेष्टाएं व्यर्थ हैं। सारा श्रम रेत से तेल निकालने जैसा है।
और इसलिए जो ढंका है, उसे मैं स्वयं के समक्ष उघाड़ने को कहता हूं। अपने को उघाड़ो और अपने को जानो। स्वयं से भागो मत। स्वयं से पलायन, एस्केप भी संभव नहीं है। भाग कर जाओगे कहां? जो आप हो वह तो साथ ही होगा। उसे बदला जा सकता है, पर उससे भागा नहीं जा सकता है।
इस परिवर्तन—श्रृंखला की प्राथमिक कड़ी स्व—निरीक्षण है।
और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि कुरूपता का जानना, कुरूपता से मुक्त हो जाना है। स्वयं के भय को जानना, भय से मुक्त हो जाना है। घृणा को जानना, घृणा से मुक्त हो जाना है।
उन पर दृष्टि नहीं है, इसलिए वे हैं। हम उनसे भाग रहे हैं, इसलिए वे हमारे पीछे हैं। हम रुके तो वे रुक जाएं, वैसे ही जैसे स्वयं के भागने के साथ स्वयं की छाया भागती है और रुकने के साथ रुक जाती है।
और यदि हम उनका निरीक्षण करें, तो सारा दृश्य ही बदल जाता है। जिन्हें हमने भूत—प्रेत समझा था, वे हमारी छायाएं मात्र थीं! हम भागते थे, इसलिए वे भूत—प्रेत हमारा पीछा करते और हमें भगाते थे। उनके प्राण उनमें नहीं, हमारे भागने में थे! रुकते ही वे निष्प्राण हैं, निरीक्षण करते ही वे भूत—प्रेत भी नहीं हैं, वे मात्र छायाएं हैं। और निश्चय ही छायाएं, शैडोज़ तो कुछ भी नहीं कर सकती हैं।
कुरूपता की छाया थी, उसे ढांकने को फूलों के वस्त्र पहनाए थे— ऐसे एक भ्रांति को जन्म दिया था। अब जब दिखता है कि वहां केवल छाया ही है, और वस्त्र पहनाने अनावश्यक हो जाते हैं, तो छाया से मुक्ति होती है और उसका बोध होता है, जिसकी कि वह छाया थी। यही बोध सुंदर के, परम सुंदर के दर्शन को जन्म देता है।
यह दर्शन मुझे हुआ। छायाओं से भागने से रुका, तो छायाओं के पीछे देखने की क्षमता आई। और जो वहां दिखाई पड़ा उसने—उस सत्य ने सब कुछ बदल डाला। सत्य सब बदल डालता है, उसकी उपस्थिति ही क्रांति है।
इसलिए कहता हूं डरो मत। जो है, उसे देखो और कल्पनाओं में, स्वप्नों में शरण मत लो। उस शरण से जो बचने का साहस करता है, सत्य उसे अपनी शरण में ले लेता है।
सुबह कोई पूछता था कि स्वयं को सीधा जानने का क्या अर्थ है? सीधा जानने का अर्थ है कि अपने संबंध में दूसरों के मतों, ओपिनियस को ग्रहण मत करो। खुद देखो कि आपके भीतर क्या है— आपके विचारों में, आपकी वासनाओं में, आपकी क्रियाओं में, आपकी आकांक्षाओं—अभीप्साओ में क्या छिपा है? क्या गुप्त हिडन है? इसका सीधा साक्षात करो जैसे कोई बिलकुल अभिनव भूमि में पहुंच कर निरीक्षण करता है। ऐसे ही स्वयं को देखो, वैसे ही जैसे कोई अपरिचित को और अजनबी, स्ट्रेजर को देखता है। इससे बहुत हित होगा। सबसे बड़ा तो यह कि आपने अपनी ही आंखों में अपनी जो दिव्य मूर्ति बना रखी होगी, वह भग्न .और खंडित हो जाएगी। यह मूर्ति— भंजन आवश्यक है, क्योंकि इस कल्पना—मूर्ति के गिरने के बाद ही हम स्वप्न— भूमि से वास्तविक भूमि पर चरण रखते हैं।
इसके पूर्व कि हम सत्य और शुभ हों, सत्य और शुभ होने के भ्रम टूट जाने जरूरी हैं, जिन्हें कि हमने अपने असत्य और अशुभ को छिपाने के लिए आविष्कृत किया था, जो कि हमारी आत्मवचनाए थीं।
प्रत्येक व्यक्ति अपना एक कल्पित रूप और व्यक्तित्व व्यर्थ ही नहीं बना लेता है। वह भी किसी आवश्यकता से ही होता है। वह होता है, स्वयं के समक्ष अपमान से बचने के लिए। भीतर पशु दिखता है। इस पशु की उपस्थिति पीड़ा देती है और स्वयं के समक्ष ही स्वयं को अपमानित करती है। इससे बचने के दो उपाय हैं। या तो पशु विलीन हो या फिर पशु भूल जाए। विलीन करना तो एक साधना से गुजरना है पर विस्मृत करना बहुत आसान है। वह बड़ी सरल बात है। कल्पना ही उसके लिए पर्याप्त है। स्वयं के समक्ष हम स्वयं ही एक कल्पना—मूर्ति खड़ी कर लेते हैं। इस मूर्ति से वह पशु दब जाता है। पर वह दबता ही है, मिटता नहीं है। और हमारी मूर्ति के पीछे सक्रिय बना रहता है। वस्तुत: दिखने में ही वह मूर्ति होती है, पीछे पशु ही होता है।
इस मूर्ति को क्या वास्तविक जीवन में, वास्तविक परिस्थतियों में रोज ही हारते और पराजित होते हुए नहीं देखते हैं? वह स्वाभाविक ही है। जो पशु भीतर है, वही वास्तविक है। और इसलिए वह हमारे सारे उपायों को व्यर्थ करता रहता है। काल्पनिक व्यक्तित्व उसके समक्ष प्रतिदिन ही हारता है। फिर भी हम उसे बनाए और सजाए रहते हैं। और स्वयं को और अन्यों को इसकी उपादेयता के प्रमाण देने के अनेक उपाय भी करते रहते हैं। हमारे दान, हमारे त्याग, हमारी दया, हमारी सेवा— हमारी सारी तथाकथित नैतिकता क्या ऐसे ही प्रमाणों की तलाश नहीं है! पर, इस सबसे कुछ भी नहीं होता है, और जो मूर्ति हमने गढ़ी है वह मृत ही रहती है, उसमें प्राण नहीं आते हैं, नहीं आ सकते हैं।
इस मृत—बोझ से मैं मुक्त होने को कहता हूं। इस झूठे साथी को, मुर्दा साथी को छोड़े और जो वास्तविक है, उसे समझें और जानें। इससे नहीं, उसी से मार्ग है, जिससे बचने को हमने इस मिथ्या प्रवंचना को गढ़ा है। मैं कल रात्रि खेतों के करीब से निकलता था। वहां मैंने खेतों में खड़े झूठे आदमी देखे। डंडों पर हंडिया रखी हैं, और उन डंडों को कुर्ते पहना दिए हैं। अंधेरे में वे पशु—पक्षियों को रखवालों के होने का धोखा दे देते हैं। मैं उन्हें देखता रहा और जो मेरे साथ थे, उन्हें भी देखता रहा। फिर मैंने कहा ' हम अपने में देखें कि कहीं हम भी तो झूठे आदमी ही नहीं हैं?' मेरे साथ जो थे, सुन कर हंसने लगे। पर मैंने देखा कि उनकी हंसी बिलकुल झूठी थी। हमारा सब झूठा हो गया है। हमारा सारा जीवन, सारा व्यवहार, हमारी हंसी, हमारा रुदन सब झूठ हो गया है। इस झूठ को हम खींचते—खींचते थक जाते हैं। यह झूठ बहुत बोझिल है, पर फिर भी हम इसे उतारते नहीं हैं, क्योंकि जो इस झूठ के पीछे है, उससे हमें और भी भय होता है। वहां प्रवेश करते डर लगता है, क्योंकि जो हमने सदा अपने को माना है, वह वहां कहीं भी नहीं है, और जिसकी हमने सदा दूसरों से निंदा की है, वह सब बहुत प्रगाढ़ रूप में वहां उपस्थित है। यह भय हमें स्वयं को नहीं उघाड़ने देता है।
साधना के जीवन में अभय, फियरलेसनेस पहली शर्त है। जो उसका साहस नहीं कर सकता है, वह अपने भीतर भी नहीं जा सकता है।
अंधेरी रातों में, अंधेरे और अनजान और बीहड़ रास्तों पर अकेले जाने में जिस साहस, करेज की जरूरत है, उससे भी कहीं ज्यादा साहस स्वयं के भीतर जाने के लिए करना होता है, क्योंकि इस प्रवेश से स्वयं के संबंध में ही खड़े किए हुए मधुर स्वप्न टूटते हैं, और ऐसी कुरूपताओं और घिनौने पापों का साक्षात करना होता है, जिनकी कि मैंने स्वयं से बिलकुल निवृत्ति ही मान ली थी।
पर साहस से जो अपने को उघाड़ता है, और उन अंधी गलियों और अंधेरे गलियारों में प्रवेश करता है, जो उसके ही भीतर है; पर जिन पर उसने जाना बंद कर दिया है, तो एक अभिनव जीवन का प्रारंभ हो जाता है। एक ऐसी यात्रा इस अंधेरे में जाने के साहस से प्रारंभ होती है, जिसकी अंतिम परिणति पर वह आलोक उपलब्ध होता है जिसकी कि हम जन्म—जन्म से खोज में थे, पर अंधेरे में जाने के साहस के अभाव के कारण जिससे वंचित थे।
अंधेरा आलोक को छिपाए हुए है, जैसे राख अंगारे को छिपाए हो। अंधेरे को चीरते ही उसके दर्शन होंगे, जो कि अंधेरा नहीं है।
इससे कहता हूं कि यदि आलोक को पाना है, तो अंधेरे से मत डरो। जो अंधेरे से डरता है, वह आलोक को कभी भी नहीं पा सकता है।
आलोक का मार्ग अंधेरे से होकर जाता है। अंधेरे में प्रवेश का साहस ही वस्तुत: भीतर आलोक बन जाता है। उस साहस से ही वह जागता है, जो कि सोया है।
मैं देखता हूं कि आप आत्म—ज्ञान के लिए तो आकांक्षी हैं, पर अपने आपको जैसे आप हैं, उसे जानने से डरते हैं। आत्मा सच्चिदानंद है, नित्य—शुद्ध—बुद्ध है, ऐसी बातें सुन कर आपको अच्छा लगता है। यह भी इसलिए कि इस भांति आप जो हैं— सच्चिदानंद, शुद्ध—बुद्ध स्थिति के बिलकुल विपरीत, और दूसरे छोर पर उसे विस्मृत करने में और अपने अहंकार को परिपुष्ट करने में आपको सुविधा और सहायता मिलती है।
साधुओं के पास पापियों की भीड़ इसीलिए इकट्ठी हो जाती है, क्योंकि वहां आत्मा की शुद्धता और स्वयं के ब्रह्म होने की बातें उन्हें बहुत प्रीतिकर लगती हैं। उन बातों को सुन कर उनका पश्चात्ताप कम हो जाता है, और हीनता दब जाती है और वे स्वयं के समक्ष फिर सीधे खड़े हो जाने में समर्थ हो जाते हैं। इसका एक ही परिणाम होता है कि वे पाते हैं कि पाप करना आसान होता जाता है, क्योंकि आत्मा तो शुद्ध है!
आत्मा को शुद्ध—बुद्ध मान लेने से पापों का अंत नहीं होता है। वह बहुत गहरी आत्म—वंचना है। वह मनुष्य—बुद्धि की अंतिम तरकीब है।
अंधकार है ही नहीं, ऐसा मानने से आलोक नहीं हो जाता है।
पाप है ही नहीं, आत्मा कुछ करती ही नहीं है, ऐसी विचार—सरणि बहुत धोखे की है। वह स्वयं की पाप— स्थिति को विस्मरण करने का उपाय है। उससे पाप मिटते नहीं, केवल विस्मृत हो जाते हैं, जो कि पाप के होने से भी बुरा है। उनका दिखना, उनका बोध शुभ है; उनका न दिखना, उनके प्रति मूर्च्छा अशुभ है। क्योंकि वे दिखते हैं तो चुभते हैं, सालते हैं और स्वयं के परिवर्तन की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं। पाप का बोध परिवर्तन लाता है, और उसका पूर्ण बोध तो तत्‍क्षण क्रांति पैदा कर देता है।
इसलिए, आत्मा शुद्ध—बुद्ध है, इन बातों में मत पड़ जाना। वह मानने की बात ही नहीं है। वह तो जब पाप—व्यक्तित्व विसर्जित हो जाता है और अंधकार की पर्तों को तोड़ कर साधक स्वयं के निगूढ़ और गुप्त आलोक केंद्र में प्रवेश करता है, तब अनुभव में आया हुआ साक्षात है। वह साक्षात है, उसकी धारणा नहीं बनानी है। उसकी धारणा बहुत घातक हो सकती है। वह आलोक तक पहुंचने में बाधा हो सकती है। क्योंकि यदि अंधकार है ही नहीं, तो जो नहीं है उसे दूर करने का प्रश्न ही कहां उठता है? आत्मा यदि पाप—पुण्य करती ही नहीं है, तो पाप—पुण्य के ऊपर उठने का सवाल ही नहीं उठता है। इन तथाकथित तत्वज्ञान की थोथी बातों ने बहुतों को बेहोश किया हुआ है। यह जहर बहुत दूर तक प्रभावी हो गया है, और यही वजह है कि हम परमात्मा भी बने हुए हैं और हम जैसे पापी भी जमीन पर खोज लेना असंभव है!
यह स्मरण रहे कि आत्मा की शुद्धता की ये बातें और उनका प्रभाव पाप को विस्मरण करने के लिए है। इन बातों के जाल में जो गिर जाते हैं उनका उबरना मुश्किल हो जाता है। पाप से उबरना आसान है, पर इस घातक तत्वज्ञान से उबरना बहुत कठिन है।
आत्मा शुद्ध है, यह सिद्धात नहीं साक्षात है। उसकी चर्चा व्यर्थ है, क्योंकि वह बीमारों के सामने यह भ्रम पैदा करने जैसा है कि बीमारियां हैं ही नहीं, और यदि बीमारों ने मान लिया तो परिणाम स्वास्थ्य नहीं, केवल मृत्यु ही हो सकता है! जो जानते हैं, वे उसकी चर्चा नहीं करते हैं। वे तो उस साधना की चर्चा करते हैं जो कि उस साक्षात तक पहुंचा देती है।
साक्षात नहीं, साधना विचारणीय है।
साधना के बाद साक्षात तो होगा ही। उसे विचार में लेना व्यर्थ है। उसे यदि किसी ने मान लिया तो साधना असंभव हो जाएगी। और साक्षात को बिना साधना के मान लेना कितना आसान और सुखद है। उस भांति पाप से बिना मुक्त हुए ही, मुक्ति का रस आ जाता है। और धोखे की एक गहरी धुंध में भिखमंगे बादशाह होने का मजा ले लेते हैं!
आह! भिखमंगों को यह बताना कितना आनंद देता होगा कि वे भिखमंगे नहीं हैं, सम्राट हैं! और जो उन्हें ऐसा बताते हैं, वे यदि उन्हें बहुत श्रद्धा देते हों और उनके चरणों में सिर रखते हों तो आश्चर्य नहीं है! पाप से, दरिद्रता से, इससे सस्ती और कोई मुक्ति नहीं हो सकती है। थोथा तत्वज्ञान, सूडो फिलॉसफी बड़ी सस्ती मुक्ति दे देता है, जब कि साधना श्रम मांगती है।
आप भी तो ऐसे ही किसी तत्वज्ञान या तत्वज्ञानी के चक्कर में तो नहीं हैं? कोई संक्षिप्त और सस्ता रास्ता, शॉर्टकट आपने भी तो नहीं पकड़ लिया है? सबसे सस्ता यही है कि आत्मा शुद्ध—बुद्ध है, वह स्वयं ब्रह्म है और इसलिए फिर कुछ करने जैसा नहीं है, अर्थात जो आप कर रहे हैं वह सब करने जैसा है, क्योंकि छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।
स्मरण रहे कि सत्य का भी दुरुपयोग हो सकता है। और श्रेष्ठ सत्य भी निकृष्ट असत्यों को छिपाने के काम में लाए जा सकते हैं।
ऐसा हुआ है और नित्य होता है। कायरता अहिंसा में छिपाई जा सकती है, और पाप आत्मा की शुद्ध— बुद्धता के सिद्धांत में ढांके जा सकते हैं, और अकर्मण्यता संन्यास बन सकती है!
मैं आपको इन धोखों से सावधान करना चाहता हूं। जो इनसे सचेत नहीं है, वह स्वयं में बहुत प्रगति नहीं कर सकता है। पाप का, अंधकार का, जो घेरा हम पर है, उससे बचने को, उससे पलायन करने को किसी सिद्धात—जाल की शरण न खोजें। उसे जानें और उससे परिचित हों। वह है। उसके होने को विस्मरण नहीं करना है। वह स्वप्नवत है, तो भी है। वह नहीं है' —ऐसा नहीं है। स्वप्न की भी अपनी सत्ता है। वह भी घेर लेता है और वह भी हममें आंदोलन करता है। उसे स्वप्न कह कर और मान कर ही कोई गति नहीं है। उससे जागे बिना कोई रास्ता नहीं है।
पर कोई चाहे तो बिना जागे भी, स्वप्न में ही जागने का स्वप्न देख सकता है। थोथा तत्वज्ञान, साधना— शून्य तत्वज्ञान यही करता है। वह जगाता नहीं है, स्वप्न में ही जगाने का स्वप्न पैदा कर देता है।
यह स्वप्न के भीतर स्वप्न है। ऐसे स्वप्न आपने नहीं देखे हैं क्या, जिनमें आप देख रहे हों कि आप जागे हुए हैं? पाप नहीं है, अंधकार नहीं है, ऐसा कहने और विश्वास करने से कुछ भी नहीं होता है। इससे सत्य नहीं, केवल हमारी आकांक्षा की ही घोषणा होती है। हम चाहते हैं कि पाप न हो, अंधकार न हो। पर चाहना ही काफी नहीं है। अकेली चाह नपुंसक, इंपोटेंट है। और तब धीरे— धीरे जैसे भिखमंगा सम्राट होने की चाह करते—करते अंततः स्वप्न ही देखने लगे कि वह सम्राट हो गया है, ऐसी ही तत्वज्ञानियों की गति हो जाती है। वे चाहते—चाहते उसे मान ही लेते हैं, जो कि केवल उन्होंने चाहा था, और जो उन्हें मिला नहीं है। पराजय को इस भांति भूलना आसान हो जाता है। और जो सत्य में नहीं मिला, उसे स्वप्न में मिला जान कर वे तृप्ति की श्वास ले पाते हैं!
आपके इरादे तो इस भांति तृप्त होने के नहीं हैं? अन्यथा आप एक गलत व्यक्ति के पास पहुंच गए हैं! मैं आपको कोई भी स्वप्न नहीं दे सकता हूं और आत्म—वंचना के लिए भी कोई सहारा नहीं दे सकता हूं। मैं तो स्वप्न— भंजक हूं और आपकी निद्रा को तोड़ना चाहता हूं। इससे पीड़ा भी हो, तो मुझे क्षमा करना। जागरण सच ही पीड़ा है, क्योंकि वही एकमात्र तपश्चर्या है।
इस पीड़ा, इस तप का प्रारंभ स्वयं की वास्तविक पाप—स्थिति, स्वयं की वास्तविकता को जानने से होता है। कोई भ्रम, इलूजन नहीं पालना है, और जो है और जैसा है, उसे वैसा ही जानना है। इससे दुख होगा, पीड़ा होगी, क्योंकि वे स्वप्न टूटेंगे जो कि मधुर थे और जिनमें कि हम सम्राट थे। सम्राट तो मिटेगा, भिखमंगा प्रकट होगा। सौंदर्य मिटेगा और कुरूपता प्रकट होगी। शुभ वाष्पीभूत हो जाएगा और अशुभ के दर्शन होंगे। वह पशु अपनी नग्नता में हमारे सामने होगा जो कि हममें छिपा है। यह आवश्यक है, अत्यंत आवश्यक है। इस पीड़ा से गुजरना अनिवार्य और अपरिहार्य, इनएविटेबल है, क्योंकि यह प्रसव—पीड़ा है और इसके बाद ही— इस पशु से मिलन के बाद ही, हममें उसका बोध स्पष्ट होना शुरू होता है जो कि पशु नहीं है।
पशु का जिसे साक्षात होता है, वह इस साक्षात के कारण ही पशु से भिन्न और अन्य हो जाता है। यह जागरण, अपने पशु के प्रति—हमारे उससे तादात्म्य, आइडेंटिटी को तोड़ देता है। यह निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन निरीक्षित, ऑब्जर्ब्द से निरीक्षक, ऑब्जर्वर को अलग कर देता है। और उस बिंदु का हममें जन्म हो जाता है, जिसकी पूर्णता पर आत्मा अनुभव होती है।
इसलिए पाप से, पशु से, अंधकार से भागना साधना नहीं, पलायन है। वह शुतुरमुर्ग के तर्क की भांति है जो शत्रु को देख रेत में मुंह छिपा कर निश्चित खड़ा हो जाता है, यह सोच कर कि जो अब उसे नहीं दिखाई दे रहा है, वह अब नहीं है। काश, ऐसा ही होता! पर ऐसा नहीं है, शत्रु का न दिखाई पड़ना, उसका न हो जाना नहीं है। इस भांति तो वह और भी घातक हो जाएगा। आपकी आंखें बंद करने पर उसके और भी आसान शिकार हो जाएंगे! शत्रु है यदि तो आंखें और भी खुली चाहिए। उसका पूरा ज्ञान हमारे हित में है। अज्ञान से अहित के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है। मैं इसलिए ही स्वयं की समग्र अंधकार—स्थिति को उघाड़ कर देखने को कह रहा हूं।
अपने सारे वस्त्रों को अलग करके देखो कि आप क्या हैं?
अपने सारे सिद्धांतों को दूर रखकर देखो कि आप क्या हैं?
रेत से मुंह बाहर निकालो और देखो। वह आख का खोलना ही, उस भांति देखना ही, एक परिवर्तन है—एक नये जीवन की शुरुआत है। आख खुलते ही एक बदलाहट शुरू हो जाती है, और उसके बाद ही जो हम करते हैं, वह सत्य तक ले जाता है।
अंधकार की पर्तों को उघाड़ कर प्रकाश तक चलना है। पाप की पर्तों को उघाड़ कर प्रभु तक चलना है। अज्ञान के विनाश से आत्मा को उपलब्ध करना है। साधना का यही सम्यक पथ है। और उसके पूर्व स्वप्न नहीं देखने हैं— आत्मा और परमात्मा के स्वप्न नहीं देखने हैं। सच्चिदानंद ब्रह्म—स्वरूप के स्वप्न नहीं देखने हैं। वे सब शुतुरमुर्ग के रेत में मुंह छिपाने के उपाय हैं। वह पुरुषार्थ का मार्ग नहीं, पुरुषार्थहीनो की मिथ्या तृप्ति है।
रात्रि कोई पूछता था कि 'सत्संग' क्या है? मैंने कहा सत्संग यानी स्वयं का संग। सत्य बाहर नहीं है। कोई गुरु, कोई शास्त्र उसे आपको नहीं दे सकता है। वह भीतर है और उसे पाना है तो अपना साथ करो। अपने साथ होओ। पर हम सबके साथ तो हैं, अपने साथ बिलकुल भी नहीं हैं।
इकहार्ट एक बार अकेले में था। किसी वृक्ष—कुंज के एकांत कोने में बैठा था। उसका कोई परिचित वहां से निकला। वह इकहार्ट को अकेला देख उसके पास गया और बोला आपको अकेला देख मैंने सोचा कि चलूं आपको साथ दूं। ज्ञात है आपको कि इकहार्ट ने क्या उत्तर दिया? उसने कहा मैं अपने साथ था, आपने आकर मुझे अकेला कर दिया है।
क्या इस भांति कभी आप अपने साथ होते हैं? वही सत्संग है, वही प्रार्थना है, वही ध्यान है।
मैं जब अपने भीतर बिलकुल अकेला, अलोन ही हूं और कोई विचार, किसी का विचार वहां नहीं है, तब स्वयं का साथ होता है। संसार जब भीतर अनुपस्थित होता है, तब स्वयं का साथ होता है। उस तनहाई और अकेलेपन में, उस अपनी निपट निजता में सत्य का अनुभव होता है। क्योंकि आप अपनी आत्यंतिक सत्ता में स्वयं सत्य हैं।
धार्मिक होने का सवाल है, धार्मिक दिखने का सवाल नहीं है। कोई मुझसे धार्मिक होने के लिए पूछता है तो उससे मैं सबसे पहले यही जिज्ञासा करता हूं—उससे पूछता हूं कि आप धार्मिक दिखना चाहते हैं, या कि धार्मिक होना चाहते हैं? ये दोनों दिशाएं बिलकुल ही भिन्न हैं।
धार्मिक होना साधना है, धार्मिक दिखना अपने को सजाना है! साधुओं के वेश—उनके बंधे—बंधाए रूप— रंग, टीका—तिलक, वस्त्र, उपकरण— यह सब धार्मिक दिखने के उपाय हैं। आप भी ऐसे ही दिखना चाहें, तो दिखना बहुत सरल है!
पर स्मरण रहे कि दिखना दूसरों के लिए है, होना अपने लिए है। मैं वह नहीं हूं जो मुझे बाहर से जाना जाता है। मैं वह हूं जो स्वयं मैं अपने को अपने भीतर से जानता हूं।
मैं आपको स्वस्थ दिखता हूं क्या इसका कोई मूल्य है? नहीं। मूल्य तो मैं स्वस्थ हूं इसका है।
धार्मिक वेशभूषाओं की भांति धार्मिक गुण भी ओढ़ लिए जाते हैं। उन्हें भी लोग आभूषणों की भांति पहन लेते हैं। वह धोखा और भी गहरा है। मनुष्य का आचरण दो भांति से हो सकता है— असली फूलों की भांति या कागज के फूलों की भांति। एक का वृक्षों के प्राण से आना होता है, दूसरे में कोई प्राण ही नहीं होते हैं; इसलिए वे आते नहीं, उन्हें चिपकाना होता है।
सत्याचरण आता है, मिथ्या—आचरण चिपकाना होता है।
मनुष्य का आचरण लाक्षणिक, सिबालिक है। वह उसके अंतस को प्रकट करता है। उसे नहीं, अंतस को बदलना ही अर्थपूर्ण है।
शरीर उत्तप्त हो, ज्वरग्रस्त हो, तो हम उत्ताप कम करके बीमारी ठीक करने की नहीं सोचते हैं। हम ज्वर को कम करके उत्ताप कम करते हैं। उत्ताप तो ज्वर की सूचना मात्र है, वह स्वयं बीमारी नहीं है। वह तो संकेत है। वह शत्रु नहीं है। और जो उससे ही लड़ने लगें, उन्हें क्या कहिएगा? धार्मिक जीवन के लिए, नैतिक जीवन के लिए इसी तरह की नासमझी चलती है। संकेतों को ही शत्रु मान लिया जाता है और लक्षणों को ही बीमारी समझ उनसे हम संघर्ष शुरू कर देते हैं। इस भांति बीमारी तो नहीं मिटती है, हां बीमार अवश्य मिट सकता है! अहंकार, हिंसा, असत्य, काम, क्रोध, लोभ, मोह—सब लक्षण हैं, उत्ताप हैं, संकेत हैं। वे बीमारियां नहीं हैं। उनसे ही सीधे नहीं लड़ना है। उनसे तो जानना है कि भीतर शत्रु है। वह शत्रु आत्म—अज्ञान है।
आत्म—अज्ञान ही बहुविध रूपों में— अहंकार, हिंसा, असत्य, भय, काम, क्रोध आदि में अभिव्यक्त होता है। इसलिए मिटाने से वह नहीं मिट सकता है, क्योंकि वह तो मूल है, ये तो मात्र उसकी अभिव्यक्तियां हैं। और न ही इन्हें मिटाने से इन्हें मिटाया जा सकता है। बस, असत्य के ऊपर सत्य के, और हिंसा के ऊपर अहिंसा के, और भय के ऊपर अभय के कागजी फूल ही चिपकाए जा सकते हैं। आपने भी ऐसे कुछ फूल जरूर ही चिपका लिए होंगे, पर उनसे दूसरे धोखे में आ जाएं; आप तो स्वयं धोखे में नहीं हैं न?
असत्य, हिंसा और भय को दूर करने का सवाल नहीं है, सवाल आत्म—अज्ञान को दूर करने का है। वही समस्या है। उसके कारण इनका होना है, उसके न होने पर इनकी कोई सत्ता नहीं रह जाती है। वह न हो तो इनकी अपने आप निर्जरा हो जाती है। और इनकी जगह निर—अहंकारिता, सत्य, अकाम, अक्रोध, अहिंसा, अपरिग्रह का सहज ही आविर्भाव हो जाता है। वे भी लक्षण हैं। वे आत्म—ज्ञान के लक्षण हैं।

 आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें