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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--06)

जीवंत धर्म—(प्रवचन—छट्ठवां)


 प्यारे ओशो!
मनुस्मृति में यह श्लोक है :
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतो वधीत्।।
मारा हुआ धर्म मार डालता है;
रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।
इसलिए धर्म को न मारना चाहिए,
जिससे मारा हुआ धर्म हमको न मार सके।
हजानन्द! यह श्लोक प्रीतिकर है। ऐसे तो मनुस्मृति बहुत कुछ कचरे से भरी है, लेकिन खोजो तो राख में भी कभी—कभी कोई अंगारा मिल जाता है। कचरे में भी कभी—कभी कोई हीरा हाथ लग जाता है।
मनुस्मृति निन्यानबे प्रतिशत तो कभी की व्यर्थ हो चुकी है। भारत की छाती से उसका बोझ उतर जाए तो अच्छा। उसमें ही जड़ें हैं भारत के बहुत से रोगों की। भारत की वर्ण—व्यवस्था; अछूतों के साथ अनाचार, स्त्रियों का अपमान, जिसकी अंतिम परिणति स्वभावत: बलात्कार में होती है;
ब्राह्मणों की उच्चता का गुणगान—जिसका परिणाम पाण्डित्य के बढ़ने में तो होता है लेकिन बुद्धत्व के विकसित होने में नहीं।
लेकिन फिर भी कभी—कभी कोई सूत्र हाथ लग जा सकता है, जो अपूर्व हो। यह उन थोड़े से सूत्रों में से एक है। इस सूत्र को ठीक से समझो, तो मैंने जो अभी कहा कि निन्यानबे प्रतिशत मनुस्मृति कचरा है, वह भी समझ में आ जायेगी बात—इस सूत्र को समझने
यह सूत्र निश्चित ही मनु का नहीं हो सकता; मनु से प्राचीन होगा। क्योंकि मनु ने जो भी कहा है, वह इसके बिलकुल विपरीत है। मनु के सारे वक्तव्य धर्म की हत्या करनेवाले वक्तव्य हैं। मनु जैसे व्यक्तियों ने ही तो धर्म की हत्या की है।
यह सूत्र किसी बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति से आया होगा। लेकिन पुराने समय में एक ही ग्रंथ में सब कुछ समाहित कर लिया जाता था। जैसे अभी भी विश्वकोश निर्मित करते हैं—इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका—तो सभी कुछ, जो भी खोजा गया है, जो भी आज की समझ है, उसका संकलन कर लेते हैं। ऐसे ही पुराने शास्त्र संकलित थे। इसलिए उन्हें संहिताएं कहा जाता है।
वेद को हम संहिता कहते हैं। संहिता का अर्थ होता है—संकलन। वेद में किसी एक व्यक्ति के वचन नहीं हैं। अनेक—अनेक ऋषियों के वचन हैं। और उनके साथ—साथ बहुत से अंधों के वचन भी हैं। इसलिए वेद को पढ़ते समय बहुत होश चाहिए। क्योंकि अंधे हमेशा आंख वालों से ज्यादा होते हैं। हीरे तो मुश्किल से ही मिलते हैं। कंकड़—पत्थर तो गली—कूचे, जगह—जगह मिल जाते हैं। उनकी कोई खदानें थोड़े ही खोजनी पड़ती हैं।
मनुस्मृति का अर्थ भी यही होता है कि जो—जो मनु उस समय स्मरण कर सके, जो—जो चारों तरफ व्याप्त था, जो—जो हवा में रोशनी छूट गई थी, सदियों पुरानी हो सकती है; मनु उसके लेखक नहीं हैं, केवल स्मृतिकार हैं। मनु उसके रचयिता नहीं हैं, सिर्फ संग्राहक हैं। उन्होंने उस सब को स्मृति में बांध दिया है, जो बिखरा पड़ा था।
यह सूत्र मनु का नहीं हो सकता। और अगर यह सूत्र मनु का है, तो फिर पूरी मनुस्मृति मनु की नहीं हो सकती। यह मैं इसलिए कहता हूं—आंतरिक साक्षी के आधार पर। यूं तो मनुस्मृति में यह सूत्र है, इसलिए शोधकर्ता मेरे विरोध में हो सकते हैं। लेकिन मेरे देखने—सोचने—समझने के ढंग और हैं। शोधकर्ता के वे ढंग नहीं हैं।
अंतसाक्षी का अर्थ होता है : यह वक्तव्य इतना विपरीत है बाकी सारे वक्तव्यों से कि या तो यह ठीक होगा या फिर बाकी सब ठीक हो सकते हैं। इस एक को हटा लो, तो मनुस्मृति में से सार की बात ही निकल जाती है।
और इस सूत्र को समझना जरूरी है। फिर किसी का हो। किसने कहा, यह बात मूल्यवान नहीं है; मगर जो कहा है, अपूर्व है, अद्वितीय है। शायद भूल—चूक से मनु से ही निकल गया हो! कभी—कभी तो विक्षिप्त भी पते की बातें कह जाते हैं! कभी—कभी पागल भी बड़े दूर की खोज लाते हैं। कहावत है : 'अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी!'
कभी—कभी टटोलते—टटोलते भी अंधे को भी दरवाजा हाथ लग जाता है। अपवाद है वह, नियम नहीं।
इसलिए यह भी हो सकता है कि मनु ने ही यह सूत्र कहा हो। लेकिन मनु ने किसी ऐसी अवस्था में कहा होगा र जो साधारण मनु से बिलकुल भिन्न है। कोई झरोखा खुल गया होगा; किसी मस्ती में होंगे। कोई क्षण ध्यान का उतर आया होगा। मगर मनु की प्रकृति के अनुकूल नहीं है यह।
मनु की गिनती बुद्धों में नहीं है। वे भारतीय नीति—नियम के सर्जक हैं। उन्होंने भारत को नैतिक व्यवस्था दी। और नैतिक व्यवस्था अकसर ही राजनीति का अंग होती है।राजनीति' में भी जो 'नीति' शब्द है, वह ध्यान रखने योग्य है। व्यक्ति की नीति होतsईहै, तो उसको हम नैतिकता कहते हैं। और राज्य की नीति होती है, तो उसको राजनीति कहते हैं। दोनों में तालमेल है लेकिन दोनों ऊपर—ऊपर होती हैं, सतही होती हैं। धर्म होता है आंतरिक— भीतर का दिया जले तो। फिर उसके अनुसार जो जीवन में क्रांति होती है, वह क्रांति किन्हीं नियमों के आधार पर नहीं होती, किसी शास्त्र के अनुसार नहीं होती। इसलिए उस क्रांति की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। कोई नहीं कह सकता कि उस क्रांति का अंतिम निखार क्या होगा। एक बात सुनिश्चित जरूर कही जा सकती है कि वह क्रांति कभी भी पुनरुक्ति नहीं करती। बुद्ध जैसा व्यक्ति फिर दुबारा उस क्रांति से पैदा नहीं होता—न महावीर जैसा, न कृष्ण जैसा, न कबीर जैसा, न मोहम्मद जैसा। उस क्रांति से हमेशा मौलिक प्रतिभा का जन्म होता है। पुनरुक्ति नहीं होती। इतनी बात भर कही जा सकती है।
नीति हमेशा पुनरुक्ति करती है। नीति तो यूं है, जैसे कार्बन कापी करते हैं हम। किसी के पीछे चलो। किसी की मानकर चलो। अपने ऊपर जैसे वस्त्र ओढ़ते हो, ऐसे ही शास्त्रों को ओढ़ लो, तो तुम नैतिक हो जाओगे, लेकिन धार्मिक नहीं।
नीति ऐसे है जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में बातें करने लगे। बातें करने में क्या अड़चन है! प्रकाश के संबंध में अंधा आदमी सारी जानकारी इकट्ठी कर सकता है। लेकिन फिर भी उसने प्रकाश देखा नहीं है। और जिसने देखा नहीं, 'उसकी कितनी ही बडी जानकारी हो, हिमालय के पहाड़ जैसा ढेर हो जानकारी का, तो भी दो कौड़ी उसका मूल्य है। और जिसने प्रकाश देखा है, शायद प्रकाश के संबंध में और कुछ भी न जानता हो, तो भी क्या बात है। प्रकाश देख लिया, तो सब जान लिया। न समझे प्रकाश का भौतिकशास्त्र, न समझे प्रकाश का रसायनशास्त्र, न समझे प्रकाश का गणित, पर करना क्या है! फूल देख लिए, रंग देख लिए, इंद्रधनुष देख लिए, तितलियों के पंख देख लिए हरियाली देख ली, लोगों के चेहरे देख लिए चांद—तारे देख लिए सूर्योदय—सूर्यास्त देख लिए, रोशनी के अनंत—अनंत खेल और लीलाएं देख लीं—अब क्या करना है, कि न समझे प्रकाश का विज्ञान!
लेकिन कुछ मूढ़ प्रेम को समझते रहते हैं, प्रेम नहीं करते! प्रकाश को समझते रहते हैं, आंख नहीं खोलते! उधार बासी बातों को गुनते रहते हैं, कभी अपने जीवन की किरण को जगाते नहीं। कभी अपने सोये हुए प्राणों को पुकारते नहीं।
यह सूत्र जिससे भी आया हो, आँख वाले से आया होगा। और मनु सबूत नहीं देते—आँख वाले का। आँख वाला आदमी, आदमी—आदमी को ब्राह्मण और शूद्र में नहीं बांट सकता। आँख वाले आदमी के लिए सारे विभाजन गिर जाते हैं। न कोई काला रह जाता, न कोई गोरा—न कोई ब्राह्मण, न कोई शूद्र। न कोई स्त्री, न कोई पुरुष। यूं हुआ कि कुछ शराबी युवक धनाड्य थे, एक सुंदर वेश्या को लेकर और खूब शराब लेकर जंगल गये। पूर्णिमा की रात थी; मजा करेंगे। खूब डटकर उन्होंने शराब पी और नशे में ऐसे धुत हो गये कि वेश्या के सारे कपड़े छीनकर उसे नग्न कर दिया। वेश्या तो घबड़ा गयी, उनका नशा देखकर, कि इन्होंने कपड़े ही छीने, यही बहुत है। ये चमड़ी तक नोंच ले सकते हैं। उनको नशे में धुत्त देखकर वह भाग खड़ी हुई। कपड़े तो उसके पास थे नहीं, तो नंगी ही भाग गयी वह। उसने सोचा : जान बची और लाखों पाये। अब किसी तरह पहुंच ही जाऊंगी घर, रात का वक्त है, नंगी भी पहुंची तो किस को पता चलेगा!
सुबह—सुबह भोर होने के करीब होती होगी, जब ठण्डी हवाएं चलीं, उन युवकों को थोड़ा होश आया। वे रातभर उन कपड़ों को ही छाती से लगाये रहे थे! होश आया तो पता चला : वेश्या तो नदारद है। किसी के हाथ में साड़ी है, किसी के हाथ में चोली है, किसी के हाथ में कुछ है। वेश्या तो नदारद है; वेश्या तो किसी के हाथ में नहीं है! वे उसकी तलाश में निकले।
जिस रास्ते से वे आये थे, वह एक ही रास्ता था, उसी रास्ते पर उन्हें याद आया कि जब वे आये थे, तो उन्होंने एक संन्यासी को वृक्ष के नीचे बैठा देखा था। शायद वह अब भी बैठा हो! अगर वह बैठा हो तो पता दे सकता है, क्योंकि इसी रास्ते से भागी होगी। और तो कोई रास्ता नहीं है।
वह संन्यासी कोई साधारण संन्यासी न था, स्वयं गौतम बुद्ध थे। वे बैठे थे अब भी। डोल रहे थे अपनी मस्ती में। सुबह की ताजी हवाएं उठने लगी थीं; फूलों की सुगंध बिखरने लगी थी; पक्षियों के गीत गंजने लगे थे। सारा वन प्रांत सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा था; अभिनन्दन कर रहा था; बंदनवार सजाये बैठा था।
उन्होंने जाकर उनको हिलाया। बुद्ध ने आंखें खोलीं। उन्होंने पूछा कि 'आपने जरूर यहां से एक नग्न स्त्री को भागते देखा होगा। बहुत सुंदर है; युवा है। ऐसा नाक—नक्‍श है, जैसे अप्सरा हो। क्या उर्वशी होगी! क्या मेनका होगी! सोने जैसी देह है उसकी। नागिन जैसे उसके बाल हैं। मछलियों जैसी उसकी आंखें हैं! कवियों ने जिसका वर्णन किया है, सब उसमें मौजूद है? और नग्न भागी है, जरूर आपने देखा होगा।
बुद्ध ने कहा, 'तुम अगर मुझे पहले ही कह गये होते, क्योंकि तुम जब गये थे, तब मैंने भीड़— भाड़ देखी थी; शोरगुल सुना था, तुम जा रहे हो। तुम अगर तभी मुझे कह गये होते, कि जरा ध्यान रखना, खयाल रखना, तो मैं खयाल रखता। कोई निकला जरूर था, कोई गुजरा जरूर था, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वह स्त्री थी या पुरुष! और यूं भी नहीं कि मैंने न देखा हो। मगर जब से मेरे भीतर की वासना गिर गयी, तब से मेरे भीतर ये फासला भी नहीं उठता कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष। तुम मुझे क्षमा करो। तुमने कहा होता, तो मैं खयाल करता; ध्यानपूर्वक देखता। और अब तुम मुझसे यह भी मत पूछो कि वह सुंदर थी या असुंदर। जब से वासना गयी, तब से कौन सुंदर है—कौन असुंदर है! वह तो हमारे ही भीतर की भूख होती है, जो सौदर्य—असौदर्य के मापदण्ड बनाती है; स्त्री—पुरुष के मापदण्ड बनाती है। कोई निकला जरूर था। किस दिशा में गया, यह भी मत पूछो, क्योंकि मैं अपने में डूबा बैठा हूं मैं किस—किस की फिक्र करूं कि कौन किस दिशा में जा रहा है! मैं भीतर की दिशा में जा रहा हूं। और सब दिशाएं बाहर हैं। मैंने बाहर की दिशाएं छोड़ दीं तो अब बाहर की दिशाओं में जानेवाले लोग......। यूं कान में भनक मेरे पड़ी थी कि कोई गुजरा है, जरूर गुजरा है। मगर यूं तो यहां से हिरण भी गुजरते हैं, हाथी भी गुजरते हैं; कभी सिंह भी गुजर जाता है। यह जंगल है। कोई गुजरा जरूर, मगर मैं तुम्हें ठीक—ठीक न कह सकूंगा—कौन गुजरा!'
यह बुद्धत्व की दशा है, जहां स्त्री और पुरुष का भेद भी गिर जाता है। लेकिन मनु के लिए ये भेद गिरे नहीं।स्त्री नरक का द्वार है।यह पुरुष का दंभ!
स्त्रियों की जब चर्चा करते हैं जब मनु जैसे लोग, तो उसके भीतर की हड्डी, मांस—मज्जा, मवाद, खून इत्यादि—इत्यादि की बातें करते हैं जैसे खुद के शरीर में सोना—चांदी भरा हो! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि महात्मागण स्त्रियों के शरीर का वर्णन करने में जैसे बेहूदे, भद्दे, अभद्र शब्दों का उपयोग करते हैं, उस समय बिलकुल भूल ही जाते हैं कि खुद भी स्त्री से पैदा हुए हैं! उनकी देह भी उसी




मांस—मज्जा से बनी है, स्त्री की ही मांस—मज्जा से बनी है। तुम्हारे पिता का दान तो ना—कुछ के बराबर है। वह तो काम एक इंजेक्‍शन कर सकता है, जो तुम्हारे पिता ने किया! वह कोई खास काम नहीं है। और भविष्य में इंजेक्‍शन ही करेगा। जानवरों की दुनिया में तो इंजेक्‍शन करने ही लगा है।
लेकिन तुम्हारे देह की पूरी की पूरी जीवन ऊर्जा तो स्त्री से आती है, मां से आती है। तुम्हारी देह में वही सब है, जो स्त्री की देह में है। लेकिन स्त्री की देह को गाली देते वक्त, गंदगी का ढेर बताते वक्त पता नहीं महात्मा भूल ही जाते हैं कि उनकी भी देह उसी से बनी है; वैसी ही गंदगी से। फिर गंदगी क्या गंदगी का वर्णन कर रही है! फिर पुरुष की देह में ऐसी क्या खूबी है, ऐसा कौन—सा स्वर्ग है—जो स्त्री की देह नरक का द्वार है!
स्त्री की जैसी अवमानना मनु ने की है, और फिर बाबा तुलसीदास तक मनु के पीछे चलनेवालों की जो कतार है, वह सब उन्हीं गालियों को दोहराती रही है। शूद्रों को तो पशुओं से भी गया—बीता माना है। गाय की हत्या करो तो महापाप है। लेकिन शूद्र की हत्या में कोई पाप नहीं बताया! जैसे गाय से भी ज्यादा गर्हित, गिरा हुआ शूद्र है। यह मनु जैसे ही लोगों की बात मानकर तो राम ने एक शूद्र के कान में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया, क्योंकि उसने वेद के वचन सुन लिए थे! पशु—पक्षी सुनते रहते हैं, तो किसी को एतराज नहीं। कुत्ते—बिल्लियां सुनते रहें, चूहे—मच्छड़ सुनते रहें—किसी को एतराज नहीं। कितने चूहों ने नहीं सुना होगा वेद! सुना क्या—पचा गये! चूहों के हाथ जब भी वेद पड़ गया है, तो पचा ही गये उसको। कितने चूहों के कान में राम ने सीसा पिघलवाकर भरवा दिया! और ऋषि—मुनि जहां वेद का पाठ कर रहे हों, वहां तुम सोचते हो—मच्छडू भाग जाते हैं! वहीं गुन—गुन मचाते हैं।
महावीर ने तो अपने मुनियों के लिए कहा है कि कैसी जगह में बैठकर ध्यान करना. ऊंची—नीची जगह न हो; कंकड—पत्थर वाली न हो; मच्छड़ों इत्यादि से भरी हुई न हो—यह भी उसमें उल्लेख है! निश्चित ही महावीर को मच्छड़ों ने खूब सताया होगा। निश्चित सताया होगा। एक तो नंग— धडंग आदमी और फिर भारतीय मच्छड़! और ये क्या फिक्र करें कि कौन महावीर है और कौन कौन है! ऐसा शुभ अवसर ये छोड़े! ऐसी मीठी देह; ऐसा सुस्वादु भोजन ये छोड़े! अरे तीर्थंकर मिलता हो भोजन को, तो फिर ये साधारण मनुष्यों की फिक्र करें! महावीर को बहुत सताया होगा, सताया होगा इसलिए उल्लेख किया है अपने जैन मुनियों को कि जहां मच्छड़ इत्यादि हों, वहां ध्यान करने मत बैठना। क्योंकि वे ध्यान करने नहीं देंगे।
बुद्ध ने भी उल्लेख किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मच्छड़ ध्यानियों के सदा से दुश्मन रहे हैं! राक्षस वगैरह ध्यान में बाधा डालते हैं कि नहीं, यह तो कपोल—कल्पना मालूम पड़ती है, मगर मच्छड़—यह यथार्थ मालूम होता है।
मैं सारनाथ में मेहमान था। मच्छड़ मैंने बहुत देखे, लेकिन जैसे सारनाथ में हैं, वैसे कहीं भी नहीं। हों भी क्यों न—वह पहला स्थल है जहां बुद्ध ने प्रवचन दिया। उसकी महिमा ही और है। यूं तो जबलपुर जब मैं रहता था, तो जबलपुर में भी बड़े मच्छड़ हैं। तो मैं सोचता था कि जबलपुरी मच्छड़ का कोई मुकाबला नहीं। मगर जब सारनाथ गया, तब मुझे पता चला कि मच्छड़ हैं 'तो सारनाथ के!
भिक्षु जगदीश काश्यप के घर में मैं मेहमान था। रात हम दोनों ने किस तरह गुजारी—मत पूछो! वे तो अभ्यासी भी थे, क्योंकि वहीं रह रहे थे वर्षों से। मैंने उनसे पूछा कि 'इतने मच्छड़ों के बीच कैसे गुजार रहे हो?' उन्होंने कहा, 'मत पूछिये। पूछिये ही मत यह बात! खुद भगवान बुद्ध एक ही बार आये; एक ही रात रुके हैं सारनाथ! फिर नहीं आये। हालांकि और सभी स्थानों पर वे कई बार गये। वैशाली, कहते हैं चालीस बार गये। मगर सारनाथ बस एक ही बार आये! तो मैंने कहा, मै भी समझा राज, क्यों एक ही बार आये! मैं भी दुबारा आनेवाला नहीं हूं!' और दुबारा गया भी नहीं। उन्होंने बहुत निमंत्रण दिये; मैंने कहा, 'क्षमा करो। सारनाथ छोड़ कहीं और मिलना हो जायेगा। मगर सारनाथ नहीं आना है!' दिन में भी मच्छडूदानी के भीतर बैठे रहो! बाहर निकले कि वे तैयार हैं! तो बुद्ध बेचारे कोई मच्छडूदानी लेकर चलते भी नहीं थे! उन दिनों शायद मच्छड्दानी थी भी नहीं। और होती भी तो संन्यासी मच्छडूदानी लेकर चले, तो बदनामी हो जाये! मेरे जैसा कोई संन्यासी हो, जो बदनामी से डरते ही नहीं! एक मच्छडूदानी नहीं, कई मच्छडूदानियां लेकर चल सकते हैं; पूरी दुकान लेकर चल सकते हैं! कोई हर्जा नहीं।
लेकिन राम ने शूद्र के कानों में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया। यह मनु के ही इशारों पर सारा काम चला। इस देश में जो आज भी अत्याचार हो रहा है शूद्रों पर, उसमें मनु महाराज का हाथ है।
अभी भी मनुस्मृति हिंदू—मानस का आधार—स्तंभ है। अभी भी हम उससे छूट नहीं पाये।
मगर यह सूत्र बड़ा प्यारा है। यह सूत्र अकेला ही होता, तो मनुस्मृति अद्भुत होती। मगर यह सूत्र तो दबा पड़ा है। यह सहजानंद ने कैसे' खोज लिया, यह भी आश्चर्य है! क्योंकि मनुस्मृति—बहुत से सूत्र हैं, बहुत श्लोक हैं। पूरे पढे होंगे तब कभी इस सूत्र पर हाथ लगा होगा। मगर यह सूत्र... जब मैं मनुस्मृति को देख रहा था—उलट—पलट रहा था—तब मेरी आंखों में भी जगमगाते दीये की तरह बैठा रह गया था। मैं इसे भूला नहीं। इस सूत्र का अर्थ तुम समझो। अर्थ मनु के बिलकुल विपरीत जाता है। अर्थ ब्राह्मणों के विपरीत जाता है। अर्थ पण्डितों के विपरीत जाता है। पुरोहितों के विपरीत जाता है। क्योंकि धर्म को मारता कौन है!
यह सूत्र कहता है : 'धर्म एव हतो हन्ति—मारा हुआ धर्म मार डालता है।
निश्चित ही इसके प्रमाण ही चारों तरफ दिखाई पड़ेंगे। हिंदू धर्म ने हिंदुओं को मार डाला है। मुसलमान धर्म ने मुसलमानों को मार डाला है। जैन धर्म ने जैनों को' मार डाला है। बौद्ध धर्म ने बौद्धों को मार डाला है। ईसाई धर्म ने ईसाईयों को मार डाला है। यह पृथ्वी मरे हुए लोगों से भरी है। इसमें मुरदों के अलग— अलग मरघट हैं! कोई हिंदुओं का, कोई मुसलमानों का, कोई जैनों का—वह बात और—मगर सब मरघट हैं!
मारता कौन है धर्म को! तुम 'सोचते हो अधार्मिक लोग धर्म को मारते हैं, तो गलत। अधार्मिक की क्या हैसियत है कि धर्म को मारे।
तुमने कभी देखा : अंधेरे ने आकर और दीये 'को बुझा दिया हो! अंधेरे की क्या हैसियत कि दीये को बुझाये! अंधेरा दीये को नहीं बुझा सकता। अंधेरा धोखा भी नहीं दे सकता आलोक होने का। इसलिए इस बात को बहुत गांठ में बांध लेना, भूलना ही मत कभी। इस दुनिया में धर्म को खतरा अधर्म से नहीं होता; झूठे धर्म से होता है। असली सिक्कों को खतरा कंकड़—पत्थरों से नहीं होता; नकली सिक्कों से होता है। नकली सिक्के चूकि असली सिक्कों जैसे मालूम पड़ते हैं, इसलिए असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं।
अर्थशास्त्र की यह मान्य धारणा है, और उचित मालूम होती है : कि असली सिक्कों को चलन के बाहर करने की क्षमता केवल नकली सिक्कों में होता है। तुम्हारी जेब में भी अगर सौ—सौ रुपये के दो नोट हों—स्व नकली और एक असली—तो तुम पहले किसको चलाओगे? तुम पहले नकली को चलाओगे। क्योंकि असली तो कभी भी चल जायेगा। तुम नकली को किसी भी बहाने चलाओगे। अखबार ही खरीद लोगे, चाहे पढ़ना हो या न पढ़ना हो! कुछ भी खरीद लोगे—रुपये दो रुपये की चीज, चार—छह आने की चीज। सौ रुपये का नकली सिक्का चल जाये! और जिसके हाथ में वह पड़ेगा, जैसे ही वह पहचानेगा कि नकली है, वह भी पहला काम यह करेगा कि इससे निपटारा हो। क्योंकि नकली को रखना खतरे से खाली नहीं है। चले—न चले, तो जल्दी चला दो। असली तो कभी भी चल सकता है। इसलिए जब नकली सिक्के बजार में होते हैं, तो असली सिक्के तिजोडियो में बंद हो जाते हैं, और नकली सिक्के चलने लगते हैं।
यही नियम धर्म के जगत में भी लागू होता है। बुद्धों को चलन के बाहर कर देते हैं—पण्डित —पुरोहित। ये नकली सिक्के हैं। ईसा को चलन के बाहर कर दिया ईसाई पादरियों ने, लेकिन महावीर को चलन के बाहर कर दिया जैन मुनियों ने। कृष्ण को चलन के बाहर कर दिया तथाकथित कृष्ण के उपासक, पुजारी, पण्डित—इन्होंने चलन के बाहर कर दिया।
नकली सिक्के सस्ते भी मिलते हैं। असली सिक्कों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है! और बड़े मजे की बातें हैं कि नकली सिक्के के लिए कोई श्रम ही नहीं उठाना पड़ता। असली सिक्के के लिए बहुत श्रम से गुजरना पड़ता है।
धर्म को मारता कौन है?
पहले समझें कि धर्म को जिलाता कौन है? क्योंकि अगर हम जिलाने वाले को पहचान लें, तो मारनेवाले को भी पहचान जायेंगे।
धर्म को जिलाते हैं, इस जगत में जीवंत करते हैं वे लोग जो धर्म के अनुभव से गुजरते हैं। बुद्ध, जीसस, कृष्ण, मोहम्मद, जलालुद्दीन, नानक, कबीर—ये धर्म के मृत प्राणों में पुनरुज्जीवन फूंक देनेवाले लोग हैं। फिर बांसुरी बज उठती है, जो सदियों से न बजी हो। ठूंठ फिर हरे पत्तों से भर जाते हैं, और फूलों से लद जाते हैं—जिन पर सदियों से पत्ते न आये हों।
बुद्ध के जीवन में कहानी आती है......।कहानी' ही कहूंगा, क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह कोई तथ्य है; मगर प्रतीकात्मक है। बहुमूल्य है। सत्य है—तथ्य नहीं।
कहानी कहती है कि बुद्ध जब निकलते हैं—अगर किसी ठूंठ के पास से निकल जायें, तो ठूंठ हरा हो जाता है। और किसी बांझ वृक्ष के पास से निकल जायें, जिसमें फल न लगते हों, तो फल लग जाते हैं। असमय में भी फूल खिल जाते हैं।
कथा है एक गांव में बुद्ध ठहरे हैं। सुबह—सुबह एक शूद्र चमार—उसका नाम था—सुदास, वह उठा; अपने घर के पीछे गया। काम— धाम में लगने का वक्त हो गया। घर के पीछे उसका पोखर था, छोटी—सी तलैया। चमार था; गांव में उसे कोई पानी भरने न दे, तो अपनी ही तलैया से अपना गुजारा करता था।
देखकर उसकी आंखें ठगी रह गयीं! बे—मौसम कमल का फूल खिला। उसने अपनी पत्नी को पुकारा, 'सुन। यह क्या हुआ! यह कभी नहीं हुआ! मेरी जिंदगी हो गयी। यह कोई मौसम है, यह कोई समय है! कली भी न थी रात तक, और सुबह इतना बड़ा फूल खिला! इतना बड़ा फूल कि कभी खिला नहीं देखा! यह कैसे हुआ?' उसकी पत्नी ने कहा, 'हो न हो बुद्ध पास से गुजरे होंगे। क्योंकि मैंने सुना है—जब बुद्ध गुजरते हैं, तो असमय फूल खिल जाते हैं।
सुदास हंसने लगा। उसने कहा कि 'पागल! यहां कहां बुद्ध गुजरेंगे! इस चमार के झोपड़े के पास से कहां बुद्ध गुजरेंगे!' उसने आस—पास खबर की। पता चला कि यह सच है; सांझ ही बुद्ध का आगमन हुआ है। वे इसी रास्ते से गुजरे हैं और आगे जाकर एक अमराई में रुके हैं।
तो सुदास ने कहा कि 'फिर क्या करूं इस फूल का! यह तो बड़ा शुभ अवसर है। इस फूल को तोड़कर मैं सम्राट को बेच दूं। सौ —पचास रुपये जरूर इनाम में मिल जायेंगे। क्योंकि असमय का कमल!'
तो वह फूल को तोड़कर राजमहल की तरफ जाता था। चकित हुआ। राजा का रथ ही आ रहा था! अभी सूरज ज्या रहा था और राजा का रथ—स्वर्ण रथ—सूरज में यूं चमक रहा था, जैसे दूसरा सूरज ध्या रहा हो। वह ठिठककर राह पर ही खड़ा हो गया।
माजरा क्या है! रात इस गरीब के झोपड़े के सामने से बुद्ध गुजरे; सुबह सम्राट का स्वर्ण—रथ आ रहा है! इस रास्ते पर कभी आया ही नहीं। यह चमारों की बस्ती, यहां सम्राट आयें किसलिए! ठिठककर खडा हो गया। हिम्मत ही न पड़ी कहने की कि मैं फूल लेकर राजमहल की तरफ आ रहा था। लेकिन रथ खुद ही रुका। सम्राट ने सारथी को कहा— 'रुको। इस सुदास को बुलाओ।
सुदास सम्राट के जूते बनाता था। सुदास का नाम सम्राट को मालूम था। सुदास डरते हुए गया और कहा कि ' फूल लेकर आपकी तरफ ही आ रहा था। असमय का फूल है, मैंने सोचा—किसको भेंट करूं! आपके ही योग्य है।
सम्राट ने कहा, 'मांग, क्या मांगता है? जो मांगेगा इसके बदले में—दूंगा।सुदास ने कहा कि 'जो आप दे देंगे।
'नहीं' सम्राट ने कहा, 'तू मांग। क्योंकि यह फूल मैं बुद्ध को चढ़ाने ले जाऊंगा। तू जो मांगेगा, दूंगा। बुद्ध प्रसन्न होंगे देखकर—ऐसे असमय का फूल! इतना सुंदर—इतना बड़ा फूल कमल का!'
सुदास के गरीब मन में भी एक अमीर चाह उठी कि क्यों न मैं ही चढ़ा दूं जाकर फूल! रोटी—रोजी तो चल ही जाती है। मगर लालच भी मन में उठा कि आज सम्राट कहता है—जो मांगना हो मांग ले!
लेकिन इसके पहले कि वह कुछ कहे, वह सोच रहा था कि कहूं—स्व हजार स्वर्ण अशर्फियां; हिम्मत नहीं बंध रही थी कि एक हजार स्वर्ण अशर्फियां मांग रहा हूं एक फूल के लिए! तो थोड़ा झिझक रहा था। तभी सम्राट के रथ के पीछे ही उसके वजीर का रथ आकर रुका। और वजीर ने कहा, 'सुदास, बेच मत देना; मैं भी खरीददार हूं। मैं चढ़ाऊंगा बुद्ध को। और सम्राट तो औपचारिकता वश जा रहे हैं। इनको बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है। जाना चाहिए, इसलिए जा रहे हैं। मैं बुद्ध का प्रेमी हूं, इसलिए सम्राट को कहा कि 'देखें, आप बीच में न आयें। आप प्रतिस्पर्धा में न पड़े। निश्चित ही मैं आप से कैसे जीतूंगा, अगर प्रतिस्पर्धा हो जाये। मगर आप बीच में न आयें, क्योंकि आपके लिए तो सिर्फ औपचारिक है जाना; मेरे हृदय की बात है।’—'सुदास, तू मल जो मांगेगा, दे दूंगा।
सुदास ने सोचा, 'जब बात यूं है, तो अब एक हजार अशर्फियां क्या मांगनी; दो हजार अशर्फियां मांग लूं!' मगर उसकी जबान न खुले। दो अशर्फियां मांगने में भी बात ज्यादा होती थी; दो हजार अशर्फियां!
और तभी नगरसेठ का भी रथ आकर रुका, उसने कहा, 'सुदास, बेचना मत, मैं भी खरीददार हूं।नगरसेठ तो इतना बड़ा सेठ था कि सम्राट को भी खरीद सकता था। सम्राट को जब जरूरत पड़ती थी, तो उससे ही उधार मांगता था। और इस अकेले सम्राट को ही नहीं, आसपास के और बड़े सम्राट भी इस नगरसेठ से धन उधार लेते थे। कहते थे कि इस नगरसेठ के पास धन तौला जाता था—गिना नहीं जाता था। क्योंकि गिनने की फुर्सत किसको थी! तो फावड़े से भर— भरकर टोकरियों में अशर्फियां गिनी जाती थीं, कि कितनी टोकरियां गिने एक—एक दो—दो! ऐसे गिनती करने की फुर्सत किसको थी!
उस सेठ ने कहा कि 'तू जो कहेगा। लाख अशर्फियां मांगना हो, लाख अशर्फियां मांग। लेकिन फूल मैं चढ़ाऊंगा।
सुदास ठिठका खड़ा रह गया। उसने कहा, 'फूल बेचना नहीं है।उन तीनों ने एक साथ पूछा— 'क्यों।सुदास ने कहा कि 'जिस फूल के लिए एक लाख अशर्फियां देने के लिए कोई तैयार हो, गरीब आदमी हूं मगर मेरे मन में भी गहन भाव उठा कि फिर मैं ही क्यों न इस फूल को बुद्ध के चरणों में चढा दूं। जरूर उन चरणों में चढ़ाने का मजा लाख अशर्फियों से ज्यादा होगा। नहीं तो तुम एक अशर्फी न देते', नगरसेठ से उसने कहा, 'मुझे! लाख अशर्फियां दे रहे हो! सम्राट राजी है, वजीर राजी है; तुम राजी हो। और मुझे ऐसा लगता है कि अगर गांव में जाऊं तो और भी लोग राजी हो जायेंगे। मुझे इसके जितने दाम चाहिए, उतने मिल सकते हैं। लेकिन अब बेचना ही नहीं है।
नगरसेठ ने कहा, 'दो लाख अशर्फियां देता हूं। तू जो मांग—मुंहमांगा।उसने कहा, ' अब बेचना ही नहीं है। सुदास गरीब है मगर इतना गरीब नहीं। चमार है। काम तो चल ही जाता है मुझ गरीब का—जूते सीने से ही। यह मौका मैं नहीं छोडूंगा। यह फूल मैं ही चढ़ाऊंगा।और सुदास ने जाकर वह फूल बुद्ध के चरणों में स्वयं चढ़ाया। और बुद्ध ने उस सुबह अपने प्रवचन में कहा कि 'सुदास ने आज इतना कमाया है, जितना कि सदियों में सम्राट नहीं कमा सकते। पूछो इस सम्राट से, पूछो इस वजीर से पूछो इस नगरसेठ से! आज इन सब को हरा दिया सुदास ने। आज इस शूद्र ने अपने को परम श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। आज लात मार दी धन पर। आज इसका अपरिग्रही रूप प्रगट हुआ है। यह धन्यभागी है।
और सुदास पर ऐसी वर्षा हुई उस दिन अमृत की कि फिर लौटा नहीं। उसने कहा, 'अब जाना क्या! जब फूल चढ़ाने से इतना मिला, तो अपने को भी चढ़ाता हूं।सुदास भिक्षु हो गया। फूल ही नहीं चढ़ा; खुद भी चढ़ गया।
यूं कहानियां हैं कि असमय, बुद्ध के पास से गुजरने से फूल खिल जाते हैं। ऐसा होता हो, न होता हो.. हो नहीं सकता ऐतिहासिक अर्थों में। क्योंकि समय कोई नियम नहीं बदलता। होना चाहिए, मगर होता नहीं है। प्रकृति तो निरपवाद रूप से चलती है; कुछ भेद नहीं करती। लेकिन प्रतीकात्मक हैं ये बातें। बुद्धों की मौजूदगी में सदियों से निष्प्राण पड़े धर्म में पुन: प्राण की प्रतिष्ठा होती है।
जिस व्यक्ति ने स्वयं सत्य को जाना है वह धर्म को जीवित करता है—सिर्फ वही, केवल वही। उसके छूने से ही धर्म जीवित हो उठता है और उस धर्म को मारनेवाले वे लोग हैं, जिन्होंने स्वयं तो अनुभव नहीं किया है, लेकिन जो दूसरों के उधार वचनों को दोहराने में कुशल होते हैं।
पण्डित और पुरोहित का व्यवसाय क्या है! उनका व्यवसाय है कि बुद्धों के वचनों को दोहराते रहें; बुद्धों की साख का मजा लूटते रहें। बुद्धों को लगे सूली, बुद्धों को मिले जहर, बुद्धों पर पड़े पत्थर—और पण्डितों पर, पुजारियों पर, पोपों पर फूलों की वर्षा!
अभी तुम देखते हो—पोप किसी देश में जाते है, तो इतने लोग देखने को इकट्ठे होते हैं कि अभी ब्राजील में सात आदमी भीड में दबकर मर गये; और जीसस को सूली लगी, तब सात आदमी भी जीसस को प्रेम करनेवाले भीड़ में इकट्ठे नहीं थे। सात यहां दबकर मर गये—साधारण आदमी को देखने के लिए जिसमें कुछ भी नहीं है! जिसके पोप होने के पहले कोई एक आदमी देखने न आता। अभी सालभर पहले जब यह आदमी पोप नहीं हुआ था, किसी को नाम का भी पता नहीं था! किसी को प्रयोजन भी नहीं था। और ऐसा इस आदमी में कुछ भी नहीं है। लेकिन लाखों लोग इकट्ठे होंगे। इतने लोग इकट्ठे होंगे, कि सात आदमी भीड़ में दबकर मर जायें! और यह पहली घटना नहीं है। ऐसी और घटनाएं घट चुकी हैं पहले। कहीं तीन आदमी मरे, कहीं दो आदमी मरे भीड़ में दबकर! देखने का ऐसा पागलपन! और जीसस को कितने लोग देखने गये थे! जब जीसस को सूली लगने का वक्त आया, तो उनके बारह शिष्य भी भाग खड़े हुए थे। सिर्फ एक पीछे चला। जीसस ने उसको इंगित करके कहा; नाम तो लिया नहीं, क्योंकि नाम लेना खतरे से खाली न था। पकड़ लिया जाये बेचारा। तो जोर से इतना ही कहा कि 'भाई लौट जा। लौट ही जा!'
जो लोग जीसस को पकड़कर ले जा रहे थे, उन्होंने पूछा, 'किससे आप कह रहे हैं? क्या कोई जीसस का संगी—साथी यहां भीड़ में है?' उन्होंने मशालें घुमाकर देखा। एक आदमी पकड़ गया, जो आदमी अजनबी लग रहा था। उन्होंने पूछा, 'क्या तुम जीसस के साथी हो?' उसने कहा कि 'नहीं।और जीसस ने कहा, 'देख, मैं कहता था लौट जा। मुर्गा सुबह की बांग दे, उसके पहले तीन बार कम से कम तू मुझे इनकार कर चुका होगा।
और यही हुआ। मुर्गे की बांग देने के पहले तीन बार वह आदमी पकड़ागया। दुश्मनों ने बार—बार देखा कि कौन है! तो वह हर बार बदल जाये कि 'मैं! मैं तो अजनबी हूं। बाहर के गांव से आया हूं। गांव का पता मुझे मालूम नहीं। आप सब गांव की तरफ जा रहे हैं, मशालें हैं आप के हाथ में, तो सोचा मैं भी साथ हो लूं।
उन्होंने पूछा, 'तू पहचानता है, यह आदमी कौन है, जिसको हम बांधे हैं?'
उसने कहा, 'नहीं, कभी देखा नहीं! मैं बिलकुल पहचानता नहीं। मुझे क्या पता! कौन है यह आदमी? क्यों इसको बांधकर ले जा रहे हो? चोर होगा, बदमाश होगा!'
सुबह मुरगे के बांग देने के पहले एक शिष्य साथ गया था, वह भी इनकार कर गया था! हालांकि भीड़ इकट्ठी हुई थी, कोई एक लाख लोग इकट्ठे हुए थे। लेकिन वे एक लाख लोग जीसस को देखने इकट्ठे नहीं हुए थे... गालियां देने, पत्थर फेंकने, सडे—गले केले —टमाटर फेंकने; जीसस का मखौल उडाने, मजाक करने—कि 'यह देखो ईश्वर का बेटा, सूली पर लटक रहा है! अब स्पासे अपने बाप को। अब कहो अपने बाप से जो आकाश में है, जिसकी तुम बातें करते थे सदा, कि अब बचाये। बड़े चमत्कार तुम दिखाते थे, कहते हैं—मुर्दों को जिलाते थे, कहते हैं लंगड़ों को चला दिया, कहते हैं अंधों को दिखा दिया, अब कुछ करो!'
लोगों ने भाले भोंक— भोंककर जीसस को कहा, 'अरे, अब कुछ चमत्कार दिखाओ! अब क्या हो गया! कैसे गुमसुम खड़े हो? अब भूल गयी चौकड़ी!'
आये थे लाख लोग देखने तमाशा—हंसी—मजाक करने! यह जीसस जैसे व्यक्तियों के साथ हमारा व्यवहार है। और फिर जीसस के पादरी—पुरोहितों के साथ हमारा व्यवहार बिलकुल बदल जाता है। बड़ी अजीब दुनिया है! बड़ा अजीब रिवाज है! यहां झूठे पूजे जाते हैं, यहां सच्चे मारे जाते हैं! सत्य को यहां सूली लगती है—झूठ को सिंहासन मिलता है!
धर्म को कौन मार डालता है?
'धर्म एव हतो हन्ति—और निश्चित ही अगर धर्म मरा हुआ होगा, तो वह तुम्हारी क्या खाक रक्षा करेगा! तुम उसके बोझ के नीचे दबकर मर जाओगे। तुम उसकी लाश के नीचे सड़कर मर जाओगे।
'मारा हुआ धर्म मार डालता है।मगर धर्म को कौन मारता है? नास्तिक तो नहीं मार सकते। नास्तिक की क्या बिसात! लेकिन झूठे आस्तिक मार डालते हैं। और झूठे आस्तिकों से पृथ्वी भरी है। झूठे धार्मिक मार डालते हैं। और झूठे धार्मिकों का बड़ा बोल—बाला है। मंदिर उनके, मस्जिद उनके, गिरजे उनके, गुरुद्वारे उनके। झूठे धार्मिक की बडी सत्ता है! राजनीति पर बल उसका; पद उसका, प्रतिष्ठा उसकी; सम्मान और सत्कार उसका!
किसी जैन मुनि के कानों में तुमने खीले ठोंके जाते देखे! महावीर के कानों में खीले ठोंके गये! और जैन मुनि आते हैं, तो उनके पावों में तुम आंखें बिछा देते हो! कि आओ महाराज! पधारी। धन्यभाग कि पधारे! और महावीर को तुमने ठीक उलटा व्यवहार किया था। तुमने पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, कि नोंच डालो, चीथ डालो इस आदमी को!
तुमने बुद्ध को मारने की हर तरह कोशिश की। पहाड से पत्थर की शिलाएं सरकाई कि दबकर मर जाये। पागल ह ;थी छोड़ा। जहर पिलाया।
तुमने मीरा को जहर पिलाया! और अब भजन गाते फिरते हो! कि ऐ री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरी दरद न जाने कोय! और दरद तुमने दिया मीरा 'को; तुम क्या खाक दरद जानोगे! दरद जाने मीरा। और मीरा जाने कि प्रेम का दीवानापन क्या है!
क्या तुमने व्यवहार किया मीरा के साथ! तुमने सब तरह से दुर्व्यवहार किया। आज तो तुम मीरा के गुणगान गाते हो, लेकिन वृन्दावन में कृष्ण के बड़े मंदिर में मीरा को घुसने नहीं दिया गया। रुकावट डाली गयी। क्योंकि उस कृष्ण मंदिर का जो बड़ा पुजारी था..... रहा होगा उन्हीं विक्षिप्तों की जमात में से एक जो स्त्रियों को नहीं देखते, जो स्त्रियों को देखने में डरते हैं। जिनके प्राण स्त्रियों को देखने से निकल जाते हैं! जिनका धर्म ही मर जाता है—स्त्री देखी कि धर्म गया उनका! कि एकदम अधर्म हो जाता है उनके जीवन में; पाप ही पाप हो जाता है!
उसने कसम ले रखी थी कि स्त्री को नहीं देखेगा। तो मीरा को कैसे घुसने दे! जैसे ही खबर आयी वृन्दावन में कि मीरा आ रही है, वह घबडाया। उसने पहरेदार लगा दिये कि मीरा को अंदर मत आने देना, क्योंकि उसके मंदिर में स्त्रियां आ ही नहीं सकती थीं।
मगर मीरा तो मस्त थी। वह इतनी मस्त थी कि जब वह नाचने लगी मंदिर के द्वार पर जाकर, तो मंदिर के पहरेदार भी उसकी मस्ती में डोलने लगे। और यूं नाचते—नाचते वह भीतर प्रवेश हो गयी! जब वह भीतर प्रवेश हो गयी, तब द्वारपालों को पता चला कि यह क्या हो गया! अब तो बड़ी मुश्किल हुई!
ब्रह्मचारी महाराज भीतर अपना पूजा का थाल लिए आरती उतार रहे थे। उनके हाथ से थाली गिर पडी। स्त्री सामने आ जाये! कैसे—कैसे लोग इस दुनिया में हुए! और ऐसे लोग अभी भी हैं!
अभी इंग्लैण्ड में श्री प्रमुख स्वामी स्त्रियों को नहीं देखते! तो बहुत तहलका मचा हुआ है। वे कैन्टरबरी के प्रमुख बिशप से मिलने गये, तो उसको बेचारे को पता नहीं था। जब मिलने की घड़ी आयी, तब खबर पहुंची कि 'कोई स्त्री मौजूद नहीं होना चाहिए।अब बिशप की सेक्रेटरी ही स्त्री! टाइपिस्ट स्त्री! और कई स्त्रियां पत्रकार—फोटोग्राफर—वे सब आयी हुई थीं। उन सब को हटाना पड़ा। इंग्लैण्ड में बहुत चर्चा हुई इस बात की, कि यह स्त्रियों का अपमान है। वे स्त्रियों को नहीं देख सकते! ऐसा ही वह आदमी रहा होगा—ऐसा ही विक्षिप्त। उसके हाथ से थाली गिर पड़ी। और वह ए_कदम नाराज हो गया, आगबबूला हो गया। ऐसे लोगों के भीतर आग तो सुलगती ही रहती है। ये तो ज्वालामुखी पर बैठे हुए लोग हैं। कब भभक उठे इनकी अता—जरा—सा अवसर, बस काफी है।
चिल्लाया—चीखा कि स्त्री! तुझे तमीज नहीं! जब तुझे मालूम है—और बार—बार दरवाजे पर लिखा हुआ है कि स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है—तू कैसे प्रवेश की? मेरा पूजा का थाल गिर गया; मेरे तीस वर्ष की साधना भ्रष्ट हो गयी! स्त्री को देखने से इनकी साधना भ्रष्ट हो गयी! इनकी पूजा का थाल गिर गया; कृष्ण ने भी अपना माथा ठोंक लिया होगा—यह मेरा भक्त है! और कृष्ण की साधना भ्रष्ट न हुई! और सोलह हजार सखियां नाचती रहीं चारों तरफ। और ये उनके भक्त हैं!
ये कृष्ण—जीवंत धर्म। जिसके पास सोलह हजार स्त्रियां नाचे, तो कुछ नहीं बिगड़ता। और यह मुरदों का धर्म—कि एक स्त्री आ जाये—वह भी मीरा जैसी स्त्री, जिसको देखकर भी इस अंधे को आंखें खुल सकती थीं, इस मुरदे में प्राण पड़ सकते थे—उसके हाथ की थाली गिर गयी!
लेकिन मीरा ने जो वचन कहे, बड़े प्यारे हैं। मीरा ने कहा कि 'क्षमा करें। मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्त मानते हैं—कृष्ण के अलावा और कोई पुरुष नहीं। तो दो पुरुष हैं : एक कृष्ण और एक आप? मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्तों की यह धारणा है कि हम सब स्त्रियां ही हैं; पुरुष तो एक परमात्मा है; हम सब उसकी प्रेमिकाएं हैं। उसकी सखियां हैं, उसकी गोपियां हैं। आज पता चला कि वह धारणा गलत थी। दो पुरुष हैं। एक कृष्ण और एक ब्रह्मचारी महाराज आप! मगर आप क्यों पूजा का थाल उठाकर प्रार्थना कर रहे हैं! आप तो स्वयं परमात्मा हैं! आप तो स्वयं पुरुष हैं! और परमात्मा होकर आपके हाथ से थाली गिर गयी—स्त्री को देखकर आप ऐसे विचलित, ऐसे उद्विग्न हो उठे!'
इस दुनिया में सबसे बड़ी दुश्मनी बुद्धों और पण्डितों के बीच है। मगर मजा यह है कि जब तक बुद्ध जिंदा होते हैं, पण्डित उनका विरोध करते हैं। और जैसे ही बुद्ध विदा होते हैं, पण्डित बुद्धों की जो छाप छूट जाती है, उसका शोषण करने लगते हैं। तत्‍क्षण चींटों की तरह इकट्ठे हो जाते हैं! क्योंकि बुद्धों का जीवन ऐसी मिठास छोड़ जाता है कि सब तरफ से चींटे भागे चले आते हैं! जैसे शक्कर के ढेर पर चींटे इकट्ठे हो जायें।
बुद्धों की मौजूदगी में तो उन्हें विरोध करना पड़ता है। क्योंकि बुद्ध का एक—एक वचन, जाग्रत व्यक्ति का एक—एक वचन उनके लिए प्राणघाती तीर जैसा लगता है। लेकिन जैसे ही बुद्ध विदा हुए, वैसे ही वे कब्जा कर लेते हैं। बुद्ध जो अपने आसपास हजारों लोगों को प्रभावित छोड जाते हैं, अपनी आभा से मण्डित छोड़ जाते है—ये पण्डित जल्दी से उनकी उस विराट प्रतिभा का शोषण करने में तल्लीन हो जाते हैं। ऐसे धर्म निर्मित होते हैं—तथाकथित धर्म।
ईसा के पीछे ईसाइयत; इसका ईसा से कुछ लेना—देना नहीं है। और बुद्ध के पीछे बौद्ध धर्म—इसका बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है। और महावीर के पीछे जैन धर्म—इसका महावीर से कुछ लेना—देना नहीं है। मगर इनकी घबडाहटें बडी अजीब हैं! एक से एक हैरानी की घबडाहटें! इनकी बेचैनी!
पण्डितों की हमेशा एक बेचैनी रहती है : कहीं फिर कोई बुद्ध न पैदा हो जाये! नहीं तो इनका जमाया हुआ अखाड़ा फिर उखड़ जाये! मगर सौभाग्य से बुद्ध आते रहते हैं। कभी कहीं न कहीं कोई दीया जल जाता है। और बुझे दीयों की छाती कंप जाती है।
'धर्म एव हतो हन्ति—मारा हुआ धर्म मार डालता है।सहजानन्द! बात तो बडे पते की हैं। धर्म को पण्डित मारते हैं, पुजारी मारते हैं। फिर मारा हुआ धर्म, तुम जो उस मुरदा धर्म के पीछे चलते हो, तुम्हें मार डालता है। मुरदे को ढोओगे, तो मरोगे नहीं तो क्या होगा और!
'रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।लेकिन रक्षा धर्म की कौन करेगा? धर्म की रक्षा तो वही करे, जिसे धर्म का अनुभव हुआ हो। जिसने धर्म को जिया हो, पिया हो, पचाया हो; जिसके लिए धर्म उसका रोआ—रोआ हो गया हो; जिसकी धड़कन— धड़कन में धर्म समाया हो—वह व्यक्ति धर्म की रक्षा करेगा। और धर्म की अगर रक्षा की जाये, तो धर्म तुम्हारी रक्षा करता है—स्वभावत।
'तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो—इसलिए धर्म को मत मारो।
इसलिए पण्डित—पुजारियों से बचो; धर्म को मत मारो। मंदिर—मसजिद कब्रें हैं धर्म की। इनसे बचो। कभी किसी सद्गुरु के मयखाने में बैठो, मयकदे में बैठो—जहां अभी जीवंत शराब ढाली जाती हो, पी जाती हो, पिलायी जाती हो—जहां दीवाने जुड़ते हों, जहां परवाने इकट्ठे होते हों। जहां दीया जलता है, वहां परवाने इकट्ठे होते हैं। मंदिर—मसजिदों में क्या है अब! हा, दीये की तस्वीरें हैं। मगर दीये की तस्वीरों को तुम सोचते हो—परवाने आयेंगे!
जरा एक दीये की तस्वीर तो लगाकर बैठो घर में और राह देखो कि कोई परवाना आ जाये! परवाने इतने मूरख नहीं—जितना मूरख आदमी होता है! परवाने पर भी न मारेंगे वहां। कितनी ही सुंदर तस्वीर हो दीये की, कितनी ही चमचमाती तस्वीर हो दीये की—सोने की बना लो—तो भी परवानों को धोखा न दे पाओगे।
सोलोमन के जीवन में उल्लेख है। ईथोपिया की रानी उसकी परीक्षा लेने गयी। क्योंकि उसने सुन रखा था कि सोलोमन पृथ्वी पर आज सर्वाधिक ज्ञानी व्यक्ति है। ईथोपिया की रानी उसकी परीक्षा लेने गयी। उसने एक हाथ में नकली फूल लिए, जो बड़े कलाकारों से बनवाये थे। और दूसरे हाथ में असली फूल लिए। नकली फूल इतने सुंदर बने थे कि असली को मात करते लगते थे! वह दोनों फूलों को लेकर सोलोमन के दरबार में गयी। सोलोमन से थोड़ी दूर पर खडे होकर उसने कहा कि 'सोलोमन, मैंने सुना है कि तुम पृथ्वी के सबसे बडे ज्ञानी हो। जरा सा मेरे प्रश्न का उत्तर दे दो। मेरे किस हाथ में असली फूल हैं? और किस हाथ में नकली फूल हैं?
सोलोमन भी बहुत हैरान हुआ! देखे दोनों हाथ में फूल; तय करना मुश्किल था। मैं होता तो तय कर लेता। जो असली से भी ज्यादा असली मालूम हो रहे थे, उनको नकली कह देता। क्योंकि असली से कहीं ज्यादा असली कहीं कुछ होता है!
मगर सोलोमन ने जल्दी से तय करना ठीक न समझा। उसने कहा कि 'जरा अंधेरा है; मैं तो का भी हो गया; जरा द्वार—खिड़कियां खोल दो सब, ताकि रोशनी आये, ताकि मैं देख तो सकूं ठीक से।सारे द्वार—खिड़कियां खोल दी गयीं। और वह थोड़ी देर चुपचाप रहा और उसने कहा, 'तेरे बांये हाथ में असली फूल हैं।
ईथोपिया की रानी हैरान हुई। उसके वजीर हैरान हुए। दरबारी हैरान हुए। उन्होंने कहा, 'आपने कैसे पहचाना! क्योंकि हम भी देख रहे हैं रोशनी में भी। मगर कुछ पहचान में नहीं आता कि कौन असली है!'
उसने कहा, 'मैंने नहीं पहचाना। मैं तो सिर्फ राह देखता रहा था कि कोई मधुमक्खी भीतर आ जाये। और एक मधुमक्खी खिडकी से भीतर आ गयी। अब मधुमक्खी को तुम धोखा नहीं दे सकते, चाहे कितने ही बड़े चित्रकारों ने फूल बनाये हों। मधुमक्खी जिस फूल पर बैठ गयी, वे असली फूल हैं।
परवानों को धोखा न दे सकोगे। मुझे भी धोखा नहीं होता। मैं फौरन पहचान जाता; जो असली से ज्यादा असली मालूम होते.
एक आदमी सेठ चंदूलाल के पास दान मांगने गया था। चंदूलाल यु किसी को दान देते नहीं। उनके घर के सामने से भिखारी यूं निकल जाते हैं कि यह तो चंदूलालजी का मकान है! मांगते ही नहीं। अगर कोई भिखारी उनके घर के सामने भीख मांगता है, तो दूसरे लोग कहते हैं, 'मालूम होते हो, अजनबी हो; इस गांव में नये हो। अरे यह चंदूलाल का मकान है! जल्दी करो, निकल जाओ। हाथ में होगा कुछ, छीन लेगा और! चंदूलाल से मिला कभी किसी को नहीं है। जिसका ले गया—पा गया, सो पा गया!'
लेकिन गांव में कुछ बहुत जरूरत पड़ गयी थी और गाव के कुछ लोगों ने सोचा, एक दफे कोशिश करनी चाहिए। कई सालों से कोशिश की भी नहीं। आदमी बदल भी जाता है! अब कौन जाने बदल गया हो। बुढापा भी करीब आ रहा है; तो मौत के पास आते—आते आदमी के हृदय में भी. बदलाहट होने लगती है। आदमी धार्मिक होने लगता है। कौन जाने दया— भाव जगा हो! चलो, एक कोशिश करने में हमारा क्या बिगड़ जायेगा! बहुत से बहुत मना ही करेगा न। तो हमारा क्या ले लेगा!
वे गये। चंदूलाल ने बड़े प्रेम से बिठाया। चंदूलाल ने कहा कि 'जरूर, जरूर दान दूंगा!' बड़े हैरान हुए। खुद भी भरोसा न आया कि क्या सुन रहे हैं! फिर सोचा कि ठीक ही हमने सोचा था कि आदमी बूढ़ा होता है, तो बदलाहट होती है। पर', चंदूलाल ने कहा, 'एक शर्त है। मेरी दोनों आंखों को देखकर बताओ कि कौन—सी असली—कौन—सी नकली। अगर बता सके सही—सही, तो जो मांगोगे वह दान दूंगा!'
बहुत गौर से उन्होंने देखा। आखिर उन्होंने कहा, ' आपकी बायीं आंख नकली है।चंदूलाल ने कहा, 'गजब कर दिया! मार डाला मुझ गरीब को! कैसे पहचाने कि मेरी बायीं आंख नकली है?'
उन्होंने कहा, 'इसलिए पहचाने कि बायीं आंख में थोड़ा दया— भाव मालूम पड़ता है! दायीं आंख तो असली होनी चाहिए; उसमें तो कोई दया — भाव नहीं!'
परवानों को धोखा नहीं दिया जा सकता। लेकिन मंदिरों में, गिरजों में, गुरुद्वारों में, जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, ये परवाने नहीं हैं; नहीं तो इनको धोखा नहीं हो सकता था। परवाने तो मयकदों में इकट्ठे होते हैं। और मयकदा वहां होता है, जहां कोई जीवित सद्गुरु होता है।
मगर भीड़ सदा जीवित सद्गुरु के खिलाफ होगी। क्योंकि भीड़ तो पण्डित—पुरोहितों से ही चलती है। और भीड़ के पास तो झूठा और सस्ता धर्म है। और भीड़ अपने सस्ते धर्म को, और झूठे धर्म को झूठ मानने को राजी नहीं होना चाहती। क्योंकि उसे झूठ मान ले, तो छोड़ना पड़ेगा। और उसे छोड़ना अर्थात सच को खोजना भी पड़ेगा। और फिर सच्चे को खोजना कठिन भी हो सकता है, दुरूह हो सकता है। साधना करनी होगी; ध्यान करना होगा।
यह झूठा धर्म तो सत्यनारायण की कथा करवाने से मिल जाता है! खुद करनी भी नहीं पडती! कोई और कर जाता है! एक दस—पांच रुपये का खर्चा हो जाता है। एक उधार नौकर को ले आते हैं, वह कर देता है!
जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है कि 'दुर्भाग्य के वो दिन भी एक दिन आयेंगे, जब धनपति अपनी पत्नियों के पास भी नौकरों को भेज दिया करेंगे कि जा मेरी पत्नी को चुम्बन दे आ। कहना—पति ने भेजा है; उनको जरा फुर्सत नहीं है काम में। और ये छोटे मोटे काम तो नौकर भी कर सकते हैं। इसके लिए मेरे आने की क्या जरूरत है!' लेकिन तुम धर्म के साथ यही कर रहे हो।
तुम एक पुजारी से कहते हो कि आकर रोज हमारे घर में मंदिर की घंटी बजा जाया कर। पूजा चढ़ा जाया कर। दो फूल चढ़ा जाया कर। तीस रुपये महीने लगा दिये। वह भी दस—पच्चीस घरों में जाकर घंटी बजा आता है। उसको भी घंटी बजाने में कोई मतलब नहीं है। इससे मतलब नहीं है कि भगवान ने घंटी सुनी कि नहीं। वह जो तीस रुपये महीने देता है, उसको सुनाई पड़ जानी चाहिए, बस! जल्दी से सिर पटकता है। कुछ भी बक—बकाकर भागता है, क्योंकि उसको और दस—पच्चीस जगह जाना है। कोई एक ही भगवान है! कई मंदिरों में पूजा करनी है! जगह—जगह जाकर किसी तरह क्रियाकर्म करके भागता है।
उधार! तुम प्रार्थना उधार करवा रहे हो! तो तुम प्रेम भी उधार करवा सकते हो। आखिर प्रार्थना प्रेम ही तो है। परमात्मा से भी तुम सीधी बात नहीं करते; बीच में दलाल रखते हो। परमात्मा के भी आमने—सामने कभी नहीं बैठते! अरे, फूल चढ़ाने हैं—खुद चढ़ाओ। अगर दीप जलाने हैं—खुद जलाओ। अगर नाचना—गाना हो, तो खुद नाचो—गाओ। ये किराये के टट्ट, इनको लाकर तुम पूजा करवा रहे हो! यह पूजा झूठी है। इनको पूजा से प्रयोजन नहीं है; इनको पैसे से प्रयोजन है। तुमको इससे प्रयोजन है कि भगवान कभी होगा, कहीं मरने के बाद मिलेगा, तो कहने को रहेगा कि भई पूजा करवाते थे। तीस रुपया महीना खर्च किया था। कुछ तो खयाल रखो। आखिर उस सब का कुछ तो बदला दो! बहुत सुनते आये थे कि पुण्य का फल मिलता है, कहां है फल! अब मिल जाये।
लेकिन न तुमने पूजा की; न तुम्हारे पुजारी ने पूजा की। पुजारी को पैसे से मतलब था; तुम्हें कुछ आगे के लोभ का इंतजाम कर रहे हो। तुम आगे के लिp बीमा कर रहे हो! तुम कुशल व्यवसायी हो।
धर्म को मार डाला है, इस तरह के लोगों ने।
और क्या—क्या मजे की बातें फिर निकालते हैं! कल एक व्यक्ति का पत्र पढ़ रहा था अखबार में। उसने लिखा है कि मेरे घर एक साधु बाबा मेहमान हुए। सुबह उठकर उन्होंने ध्यान—स्नान इत्यादि किया। मैंने कहा कि 'कुछ नाश्ता करें।उन्होंने नाश्ता नहीं लिया। चले गये कुछ काम से बाहर। सांझ को लौटे। फिर स्नान— ध्यान किया। मैंने कहा, 'कुछ भोजन करें'। उन्होंने कहा, 'नहीं बच्चा'। मैंने पूछा कि 'साधु बाबा, आप न भोजन सुबह किये, न सांझ! कुछ सत्संग ही हो जाये; कुछ दो शब्द मुझे कह दें।तो उन्होंने कहा, 'जो असली साधु है, वह मुलाकात नहीं देता। जो असली साधु है, वह जमात इकट्ठी नहीं करता। जो असली साधु है, वह करामात नहीं दिखाता।यही तीन उन्होंने व्याख्याएं कीं असली साधु की—'मुलाकात नहीं देता, जमात नहीं जुटाता, करामात नहीं दिखाता।और उसी रात वे चले गये।
उन सज्जन ने लिखा है कि मुझे तो उनका नाम भी पता नहीं, लेकिन उनकी परिभाषा याद रह गयी। उसकी परिभाषा के अनुसार आजकल का कोई महात्मा, कोई साधु, सच्चा साधु नहीं है, न सच्चा महात्मा है। कोई उन सज्जन को कहे—तो फिर कृष्ण भी सच्चे महात्मा नहीं हैं! मुलाकात दी अर्जुन को, नहीं तो गीता कैसे पैदा होती! फिर बुद्ध भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—मुलाकात भी दी, जमात भी इकट्ठी की, नहीं तो भिक्षुओं का संघ कैसे निर्मित होता! फिर तो महावीर भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—मुलाकात भी दी, जमात भी इकट्ठी की! फिर जीसस भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—और मोहम्मद भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—करामात, मुलाकात, जमात; सभी कुछ किया!
तो इनके हिसाब से कौन सच्चा महात्मा है? न कृष्ण, न लाओत्सु, न जरथुस्त्र, न महावीर, न बुद्ध, न मोहम्मद, न क्राइस्ट, न नानक, न कबीर। इनके हिसाब से वह एक आदमी जो इनके घर में ठहरा था, जिसका इनको नाम भी पता नहीं, उसके सिवाय कोई महात्मा नहीं है! खूब इनको पकड़ा गया परिभाषा! अब उस परिभाषा को पकडे बैठे रहना। मगर इस तरह की बातें लोग पकड़कर बैठ जाते हैं। और फिर सोचते हैं कि बड़ा ज्ञान हाथ लग गया। अब ये किसी कृष्ण के पास पहुंच जायेंगे, तो अपनी परिभाषा से ये बच जायेंगे। बुद्ध के पास से गुजर जायेंगे—अपनी परिभाषा से बच जायेंगे, कि अरे, इसने जमात इकट्ठी की! अगर जीसस के पास जायेंगे, तो फौरन बच जायेंगे—अरे, यह तो करामात दिखा रहा है! इनके पास बचने के लिए इंतजाम हो गया! और वह कौन आवारा आदमी, जो इनके घर में ठहरा था, जो इनको परिभाषा दे गया.. और ठहरा भी कि नही, ठहरा, कि किसी सपने में इन्होंने देख लिया! मगर इनके पास एक परिभाषा है, जो इनको सब से बचा देगी। नानक मिलेंगे—बचा देगी! कबीर मिलेंगे—बचा देगी। कृष्ण मिलेंगे—बचा देगी।
पण्डित भी तुम्हें क्या—क्या चीजें दे जाते हैं, क्या—क्या चीजें पकड़ा जाते हैं; क्या—क्या मूर्खतापूर्ण विवरण तुम्हारे हाथ में थमा देते हैं, कसौटियां थमा देते हैं—और फिर उनके हिसाब से तुम चलने लगते हो।
दिगम्बर जैन सोचता है कि तब तक कोई आदमी भगवान को उपलब्ध नहीं होता है, जब तक नग्न न हो। इसलिए वह बुद्ध को भगवान नहीं मानता, कृष्ण को भगवान नहीं मानता, क्राइस्ट को भगवान नहीं मानता, मोहम्मद को भगवान नहीं मानता, उसके पास एक परिभाषा है।
जीसस को माननेवाला मानता है कि जब तक कोई आदमी अंधों को आंख न दे, बहरों को कान न दे, मुरदों को जिलाये न—तब तक वह महात्मा नहीं! तब तक वह भगवान का असली बेटा नहीं! तो, न तो महावीर ने किसी अंधे को आंख दी। न कबीर ने किसी अंधे की आंखें ठीक कीं, न किसी मुरदे को जिलाया। न कृष्ण ने किसी मुरदे को जिलाया, ये सब कोई महात्मा न रहे! ये सब व्यर्थ हो गये। इनका ईश्वर से कुछ संबंध न रहा!
अपनी—अपनी परिभाषाएं लिए लोग बैठे हैं! और परिभाषाएं तुम्हें कौन पकडा देता है? दो कौड़ी के लोग परिभाषाएं पकड़ाने को तैयार हैं! लेकिन उन दो कौड़ी के लोगों की बातें तुम्हारी समझ में आ जाती हैं, क्योंकि उतनी ही तुम्हारे पास समझ भी है। जितनी ओछी बात हो, उतनी जल्दी तुम्हारी समझ में आ जाती है। और कितना शोरगुल तुम मचाने लगते हो फिर!
'मारा हुआ धर्म मार डालता है।और पण्डित धर्म को मारते हैं। फिर मारा हुआ धर्म तुम्हें मारता है।
'रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।बुद्धपुरुष धर्म की रक्षा करते हैं। बुद्धों के साथ होना, स्वयं की रक्षा पा लेना है। बुद्ध में ही शरण है।
'इसलिए धर्म को न मारना चाहिए।पण्डितों से साथ अलग कर लो अपना। उनके साथ रहना, उनके साथ अपना संबंध जोड़ना धर्म को मारने में भागीदार होना है।...... 'जिससे मारा हुआ धर्म हमको न मार सके।पृथ्वी को बड़ी जरूरत है आज धर्म के पुनरुज्जीवित होने की, नहीं तो आदमी मर ही चुका; उसकी ऊर्जा खो गयी, आनंद खो गया, उत्सव खो गया, नृत्य खो गया। बांसुरी यूं पड़ी है! दर्पण पर धूल जमी है। न कोई गीत उठता है; न सत्य की कोई छवि बनती है।
अब कब तक राह देखोगे! झाड़ो यह धूल। साफ करो इस बासुरी को, कि फिर गीत उतर सकें। फिर सत्य की छवि बन सके, फिर कोयल तुम्हारे भीतर कूके और पपीहा तुम्हारे भीतर पुकारे।
लेकिन यह तभी संभव है जब किसी सद्गुरु के साथ हो जाओ। किसी जलते हुए दिये के पास ही अपने दीये केले जाओ, तो तुम्हारा दीया जल सकता है। लेकिन जिनके दीये खुद ही बुझे हैं, उनके पास तुम अपना दिया लिए बैठे हो! बैठे रहो जन्मों—जन्मों, तुम्हारे दीये के जलने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन सस्ता है यह काम।
पण्डितों के पास होने में कुछ हर्ज नहीं, कुछ खर्च नहीं। और तुम्हारे जैसे ही लोग हैं वे, इसलिए उनसे तालमेल बैठ जाता है, उनसे समझौता बैठ जाता है। बुद्धों से तालमेल बिठालने के लिए क्रांति से गुजरना जरूरी है? आग से गुजरना जरूरी है।
अब मेरे साथ जो आज संन्यासी हैं, उनको सब तरह की आग से गुजरना पड़ रहा है, गुजरना पड़ेगा। इसी आग से गुजरकर वे कुंदन बनेंगे।
हर छोटी—मोटी बात पर उपद्रव है! हर छोटी—मोटी बात पर बाधा है! और कितना शोर—शराबा मचता है! अब मैं कच्छ के रेगिस्तान में बस जाना चाहता था, ताकि लोगों को मुझ से परेशानी न हो। तो कच्छ के रेगिस्तान में भी बसने देना कठिन है! भारी शोरगुल मचा हुआ है! कच्छियों के प्राण निकले जा रहे हैं! जैसे मैं कच्छ पहुंच जाऊंगा, तो कच्छ एकदम लुट जायेगा! जैसे मेरे बिना कच्छ में बहुत कुछ है, जो एकदम बरबाद ही हो जायेगा! एकदम प्राणों पर बन आयी है!
जैन मुनि इकट्ठे हो रहे हैं। जैनियों से आह्वान किया जा रहा है। भद्रगुप्त मुनि ने—किस तरह की भद्रता है, पता नही—और किस तरह का जैन—धर्म है, पता नहीं—आह्वान किया है सारे जैनों का, कि अब सब कुछ बलिदान करना पड़े, तो भी करने की तैयारी रखो। मगर इस व्यक्ति को कच्छ में प्रवेश नहीं करने देना है।
मैं कच्छ का क्या बिगाडूगा!
कल खबर थी कि बंबई के सारे कच्छियों की सभा होने वाली है। सभा का निमंत्रण छापा गया है, उसमें यह साफ लिखा हुआ है कि जो लोग विरोध करना चाहते हों, केवल वे ही आयें! तो मतलब, जो विरोध नहीं करना चाहता है, उसको तो आने भी नहीं देना है! सभा में भी नहीं आने देना है, ताकि विरोध नहीं करने की तो बात ही न उठे! जो लोग विरोध करना चाहते हैं, केवल उनके लिए निमंत्रण है। और फिर घोषणा मचाएंगे कि देखो, जितने लोग आये, सब ने विरोध किया। एक भी तो पक्ष में होता! एक भी आदमी पक्ष में नहीं है। और निमंत्रण में ही जाहिर है, कि सिर्फ निमंत्रण ही उनके लिए दिया गया है, जो विरोध में हैं।
अब बंबई के कच्छियों के प्राण क्यों संकट में पड़े हैं! मैं कच्छ जा रहा हूं तुम कच्छ छोड़कर बंबई बस गये हो! तुम कच्छ कब का छोड़ चुके। कच्छ में है कौन अब? मैं भी एक दीवाना हूं कि कच्छ को चुना हूं जहां से सब भाग गये! मैं इस लिहाज से चुना कि अब यहां किसी को परेशानी न होगी। यहां है ही कौन! पूरे कच्छ की आबादी सात लाख है। सैकड़ों मील खाली पड़े हैं।
कभी डेढ़ सौ साल पहले कच्छ आबाद हुआ करता था, तब सिंध नदी कच्छ के पास से गुजरती थी। फिर सिंध ने अपना रास्ता बदल लिया। सिंध भी भाग खडी हुई! उसने भी कच्छ छोड दिया! डेढ़ सौ साल पहले सिंध ने भी कहा कि 'क्षमा करो। हे कच्छ महाराज, आप ऐसे ही रहो!' सिंध ने जब से छोड़ दिया, कच्छ रेगिस्तान है। और जिस दिन से सिंध ने छोड़ा, कच्छ का व्यवसाय मर गया, कच्छ का उत्पादन मर गया। कच्छ के लोगों को हट जाना पड़ा। कच्छ बर्बाद हो गया। कच्छ में कुछ भी न बचा।
लेकिन कच्छ पर भारी संकट आ गया है; उससे भी बड़ा संकट जो सिंध को हटने से आया था; उससे भी बड़ा संकट आ रहा है—मेरे वहां जाने से! मैं कभी—कभी चकित होता हूं कि कैसे छो की जमात है! कैसे अजीब लोग हैं! इनको क्या इतनी बेचैनी हो रही है! आखिर जैन—धर्म को क्या खतरा आ गया होगा, कि सातों जैन धर्मों के अलग—अलग पंथ इकट्ठे हो गये और सातों ने मिलकर निर्णय किया। इनको क्या खतरा आ गया होगा! इनको क्या बेचैनी हो रही है!
बंबई के सारे उद्योगपति इकट्ठे हो गये, जैसे इनके उद्योग को भी कोई खतरा पहुंचा रहा हूं! कि कच्छ मैं चला जाऊंगा तो इनके उद्योग खत्म हो जायेंगे, या इनके कारखाने बंद हो जायेंगे। कच्छ में तो कोई कारखाने हैं नहीं। इनको क्या बेचैनी आ रही है!
एक से एक घबडाहटें! अब उन्होंने एक नया शिगूफा खड़ा किया कि मेरे कच्छ में पहुंचने से देश की सुरक्षा को खतरा हो जायेगा! उस रेगिस्तान में मैं अपने मित्रों को लेकर बैठ जाऊंगा—देश को खतरा—देश की सुरक्षा को खतरा हो जायेगा! देश फिर बच नहीं सकता! फिर देश का बचना मुश्किल है!
अजीब बातें लोग उठाते हैं! लेकिन ये सारे बहाने हैं। ये सब बहाने ऊपर—ऊपर—भीतर बात कुछ और है। भीतरी डर! डर एक बात का कि तुम जिस धर्म को पकड़े बैठे हो, मेरी मौजूदगी में तुम उसे पकड़े न रह सकोगे।
तो इस आश्रम के खिलाफ कितनी अफवाहें उड़ाई जाती हैं! और जब अफवाहें चलती हैं, छपती हैं अखबारों में, तो लोग तो छपे हुए अखबार को मानते हैं। छपी हुई बात तो सच होनी ही चाहिए! लिखे पर हमारा ऐसा भरोसा है! और छापाखाने का छपा हो, तो फिर कहना ही क्या! फिर तो सत्य होना ही चाहिए। फिर उन्हें कोई फिक्र नहीं है—यहां आने की, यहां आकर देखने की, यहां आकर परिचित होने की। यहां तो आने में भी डर होता है।
मेरे पास पत्र आते हैं कि हम आना तो चाहते हैं, लेकिन हमने सुना है, जो भी आता है—सम्मोहित हो जाता है! तो यह भी आने में एक डर है, कि वहां जो जाता है, वह सम्मोहित हो जाता है।
एक व्यक्ति ने विरोध में पत्र लिखा है। अखबार में छपा है, कि मेरे पक्ष में सिवाय मेरे अनुयायियों के और कोई भी नहीं है। बाकी सब लोग मेरे विरोध में हैं।
बात बड़े पते की है! तुम सोचते हो, कृष्ण के पक्ष में कृष्ण के अनुयायियों के सिवाय कोई और है! कि बुद्ध के पक्ष में बुद्ध के अनुयायियों के सिवाय कोई और है? कि क्राइस्ट के पक्ष में क्राइस्ट के अनुयायियों के सिवाय कोई और है? मेरे ऊपर ही सिर्फ यह नियम लागू होगा!
और बड़े मजे का तर्क है : जो मेरे पक्ष में है, वह मेरा अनुयायी। और अनुयायी तो पक्ष में होगा ही! इसलिए जो मेरे पक्ष में है, उसकी तो बात सुननी ही मत, क्योंकि वह अनुयायी है। और जो मेरे विपक्ष में है, वह सच कह रहा होगा, क्योंकि वह अनुयायी नहीं है! अब यह तो बड़ा मुश्किल हो गया है मामला। मेरे पक्ष में कहना चाहिए—और मेरे अनुयायी होना नहीं चाहिए, तब उसकी बात
में कुछ बल होगा। मगर यह कैसे होगा? जिसे मेरी बात सही लगेगी, वह मेरा अनुयायी हो गया। सही लगी और फिर अनुयायी न हुआ, तो क्या खाक सही लगी! सही भी लगी, और अनुयायी भी न हुआ, तो सही कैसे लगी?
तो जो मेरे पक्ष में बोले, वह मेरा अनुयायी है, इसलिए इसकी बात का तो कोई मूल्य नहीं है। और जो मेरे विपक्ष में बोले, उसकी बात का मूल्य है, क्योंकि वह मेरा अनुयायी नहीं है! अगर यह मापदण्ड एक—सा ही लागू करना है, तो अगर मेरे पक्षवाला मेरे पक्ष में बोले, उसकी बात का कोई मूल्य नहीं; तो जो मेरे विपक्ष में है, उसकी बात का भी कोई मूल्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह विपक्ष में है इसलिए विपक्ष में बोलेगा। तब उस तीसरे आदमी को खोजो जो न पक्ष में है, न विपक्ष में है। मगर ऐसा आदमी तुम्हें मिलना मुश्किल है, जो न पक्ष में है—न विपक्ष में। जो पक्ष में, विपक्ष में नहीं है, उसका मतलब हुआ कि वह उदासीन है; उसे प्रयोजन ही नहीं है। वह क्या बोलेगा? किसलिए बोलेगा? और बोलने के पहले उसको विचार करना पड़ेगा कि ठीक है या गलत! और उसी में तो गड़बड़ हो जायेगी। या तो पक्ष में हो जायेगा, या विपक्ष में हो जायेगा। लोग अजीब—अजीब तर्क ईजाद करते हैं! लेकिन असली बात को छिपाने के लिए। और ये वही पुराने तर्क हैं, जो सदा से वे ईजाद करते रहे।
बौद्धों को भारत में टिकने नहीं दिया। आखिर भारत में एक समय था, कि बुद्ध की छाया में और प्रभाव में और फिर अशोक की गर्जना में पूरा का पूरा भारत बौद्ध हो गया था। फिर सारे बौद्ध गये कहां! फिर उनका हुआ क्या? लाखों संन्यासी थे बौद्धों के भारत में, उनको कड़ाहों में जलाया गया; उनको मारा गया, काटा गया। उनको खदेड़ा गया मुल्क के बाहर। उनको भारत छोड़ देना पड़ा। तिब्बत में बसे। लंका में बसे। बर्मा में बसे। जापान गये। चीन गये। कोरिया गये। पूरा एशिया बौद्ध हो गया। सिर्फ भारत को छोड़ना पड़ा उन्हें। इतनी उनको मजबूरियां कर दीं खडी!
उनकी सारी चेष्टा यही है कि वे इतनी मजबूरियां मेरे लिए खडी कर दें कि मुझे भारत छोड़ना पड़े। उनकी आकांक्षा यही है। लेकिन मैं भारत छोड़नेवाला नहीं हूं। मैं तो यहीं शराब ढालूंगा। यहीं पीऊंगा, यहीं पिलाऊंगा। यहीं दीवानगी फैलाऊंगा। क्योंकि मेरे हिसाब में भारत के पास ठीक—ठीक भूमि है। बुद्धों ने इस भूमि को निर्मित किया है। महावीरों ने इस भूमि को सींचा है। कृष्णों ने इस भूमि पर बीज बोये हैं। इस भूमि को यूं छोड़ देनेवाला नहीं हूं। इस भूमि का पूरा—पूरा उपयोग कर लेना है, क्योंकि इसी भूमि से सारी मनुष्यता को बचानेवाले धर्म का अष्णुदय हो सकता है, पुनरोदय हो सकता है। अभागे होंगे भारतवासी, अगर वे न लाभान्वित हों। वे जानें।
और यह तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो गया है कि सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं। लेकिन भारतीयों को क्या हो रहा है! मुझे पत्र लिखकर पूछते हैं कि क्या बात है—सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं, फिर भारतीय क्यों नहीं आ रहे हैं?
अभागे हैं। किस्मत खराब है। दो हजार साल से गुलाम रहे हैं। भूमि तो बुद्धों की है, लेकिन बुद्धओं के हाथ में पड़ गयी है। तो जिनमें भी थोड़ी बुद्धि है, वे आ रहे हैं। बुद्ध तो इकट्ठे होकर किस तरह से, जो सूर्य उदय हो सकता है उसको न उदय होने दिया जाये, उसकी चेष्टा में संलग्न हैं!
मगर यह सूरज उगेगा। यह उग ही चुका है। ये गैरिक वस्त्र पूरब में फैल गयी लाली के प्रतीक हैं। सूरज को आने में देर नहीं है। पूरब लाल हो रहा है; उठ रहा है।
यह काम जारी रहेगा। ये बाधाएं बिलकुल स्वभाविक हैं। ये बाधाएं किसी और के लिए नहीं हैं भारत में। न सत्य साईं बाबा के लिए ये बाधाएं हैं; न बाबा मुक्तानंद के लिए बाधाएं हैं; न स्वामी अखण्डानंद के लिए ये बाधाएं हैं। तुम जरा सोचते हो कि ये बाधाएं सिर्फ एक आदमी के लिए हैं! मेरे लिए हैं। और किसी के लिए ये बाधाएं नहीं हैं। इससे कुछ सोचो, इससे कुछ विचारो, कि मामला क्या है? जरूर कुछ राज है इस बाधा में।
मरे हुए धर्म को जो भी पोषण देनेवाले लोग हैं, और उसको मुरदा ही रखनेवाले लोग हैं, मरी लाश को ही जो सम्हालनेवाले लोग हैं, उनको कोई बाधा नहीं है। मैं कहता हूं—अता लगाओ इस लाश को। जो मर गया है, उसे जलाओ, ताकि हम नये के लिए जगह बना सकें। इसलिए बाधा है।
यह श्लोक प्रीतिकर है।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा के धर्मो हतो वधीत।

 'जो बोलैं तो हरिकथा' प्रवचनमाला से
दिनांक 22 जुलाई 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।

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