सूत्र:
53—हे
कमलाक्षी,
हे सुभगे,
गाते हुए,
देखते हुए,
स्वाद
लेते हुए या
बोध बना रहे
कि मैं हूं।
और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।
54—जहां—जहां,
जिस किसी कृत्य
में संतोष
मिलता हो,
उसे वास्वतिक
करो।
55—जब
नींद अभी नहीं
आयी हो और
बाह्म जागरण
विदा हो
गया हो,
उस मध्य
बिंदु पर
बोधपूर्ण
रहने से
आत्मा
प्रकाशित
होती है।
56—भ्रांतियां
छलती है,
रंग सीमित
करते है,
विभाज्य
भी अविभाज्य
है।
सभ्यता
इस बात का प्रशिक्षण
है कि कैसे
झूठा हुआ जाए, नकली हुआ
जाए। तंत्र
ठीक विपरीत
प्रक्रिया है,
तंत्र
तुम्हें झूठा
होने से बचाता
है। और अगर
तुम झूठे हो
गए हो तो
तंत्र सिखाता
है कि कैसे उस
सत्य से फिर
से संपर्क
साधो जो तुम्हारे
भीतर छिपा है,
कि कैसे फिर
से सच्चे हो
जाओ। पहली चीज
समझने की यह
है कि हम कैसे
झूठे होते चले
जाते हैं। और
जब यह
प्रक्रिया
समझ में आ
जाती है तो
तुरंत ही बहुत
सी बातें बदल
जाती हैं। और
समझ ही
रूपांतरण बन
जाती है, क्रांति
बन जाती है।
मनुष्य
अविभाजित, अखंड
जन्म लेता है।
वह न शरीर है न
मन, वह
अखंड, एक
व्यक्ति की
भांति पैदा
होता है। वह
शरीर और मन
दोनों है। यह
कहना भी गलत
है कि वह शरीर
और मन दोनों
है। वह शरीर—मन
है। शरीर और
मन उसके होने
के दो पहलू
हैं, अलग—
अलग खंड नहीं।
वे जीवन या
ऊर्जा या किसी
भी चीज अ, ब,
स, केर
दो छोर हैं, पर शरीर और
मन दो चीजें
नहीं हैं।
सभ्यता, शिक्षा,
संस्कृति, संस्कार की
प्रक्रिया
विभाजन से
शुरू होती है।
हरेक व्यक्ति
को सिखाया
जाता है कि
तुम एक नहीं, दो हो। और तब
स्वभावत: हरेक
व्यक्ति मन के
साथ तादात्म्य
करने लगता है,
शरीर के साथ
नहीं। फिर सोच—विचार
की जो
प्रक्रिया है
वह तुम्हारा
केंद्र बन
जाती है।
लेकिन विचार
की प्रक्रिया
केवल परिधि है,
वह केंद्र
नहीं है।
क्योंकि तुम
सोच—विचार के
बिना भी जी
सकते हो, कभी
तुम उसके बिना
जीते ही थे।
जीने के लिए
सोच—विचार
आवश्यक नहीं
है।
अगर
तुम ध्यान में
गहरे उतरो तो
तुम तो रहोगे, लेकिन
विचार—प्रक्रिया
नहीं रहेगी।
वैसे ही अगर
तुम बेहोश हो
जाओ तो तुम तो
रहोगे, लेकिन
विचार—प्रक्रिया
नहीं रहेगी।
गाढ़ी नींद में
उतर जाने पर
भी तुम तो
रहोगे, लेकिन
विचार—प्रक्रिया
नहीं रहेगी।
विचार—प्रक्रिया
परिधि पर है, तुम्हारा
होना कहीं और
है—विचार—प्रक्रिया
से बहुत गहरे
में।
लेकिन
तुम्हें
निरंतर
सिखाया जाता
है कि तुम दो हो, शरीर
और मन हो।
तुम्हें
सिखाया जाता
है कि दरअसल
तुम मन हो और
शरीर
तुम्हारे अधिकार
में है, तुम्हारी
मालकियत में
है। तब मन मालिक
बन जाता है।
और शरीर
गुलाम। और तब
तुम शरीर के
साथ संघर्ष करते हो; और
उससे अलगाव
पैदा होता है,
अंतराल
पैदा होता है।
और यह अलगाव
ही समस्या है।
सब मानसिक रोग
इस अलगाव से
जन्म लेते हैं,
सब चिंताएं
उससे ही पैदा
होती हैं।
तुम्हारा
होना
तुम्हारे
शरीर से जुड़ा
हुआ है। और
तुम्हारा
शरीर
अस्तित्व से
पृथक नहीं है, अलग
नहीं है, वह
अस्तित्व का
हिस्सा है।
तुम्हारा
शरीर समूचा
ब्रह्मांड है,
वह कोई
सीमित और छोटी
चीज नहीं है।
तुमने हो सकता
है न निरीक्षण
किया हो, लेकिन
अब निरीक्षण
करना कि
तुम्हारा
शरीर दरअसल
कहां समाप्त
होता है। क्या
तुम सोचते हो
कि तुम्हारा
शरीर चमड़ी पर समाप्त
हो जाता है? तो सूरज जो
इतना दूर है, अगर वह अभी
ठंडा हो जाए
तो तुम भी
तुरंत यहं। ठंडे
हो जाओगे। अगर
सूरज की
किरणें यहां
आना बंद कर
दें तो तुम
समाप्त हो
जाओगे। इतनी
दूरी पर जो
सूरज है उसके
बिना
तुम्हारा शरीर
नहीं जीवित
रहेगा। तो
सूरज और तुम
किसी न किसी
तरह गहरे में
जुड़े हो। सूरज
तुम्हारे शरीर
में सम्मिलित
है, अन्यथा
तुम नहीं हो
सकते हो। तुम
उसकी किरणों
के हिस्से हो।
सुबह
तुम फूलों को
खिलते देखते
हो,
उनका खिलना
असल में सूरज
का उगना है।
रात में फूल
बंद हो जाते
हैं, उनका
बंद होना सूरज
का डूबना है।
वे फूल बस
सूरज की फैली
हुई किरणें
हैं। तुम यहां
हो, क्योंकि
बहुत दूर पर
सूरज भी है।
तुम्हारी
चमड़ी पर ही
तुम्हारी
चमड़ी समाप्त नहीं
है, वह
फैलती ही जाती
है और सूरज को
भी अपने में
समेट लेती है।
तुम
श्वास लेते हो।
तुम श्वास ले
सकते हो, क्योंकि
वायु है, वायुमंडल
है। प्रत्येक
क्षण तुम
वायुमंडल से
श्वास लेते हो
और उसी में
श्वास छोड़ते
हो। अगर एक
क्षण को हवा न
रहे तो तुम मर
जाओगे।
तुम्हारी
श्वास ही
तुम्हारा
जीवन है। और
अगर तुम्हारी
श्वास
तुम्हारा
जीवन है तो सारा
वायुमंडल
तुम्हारा अंग
है, तुम
उसके बिना
नहीं जी सकते।
तो तुम्हारा
शरीर वस्तुत:
कहा समाप्त
होता है? उसकी
सीमा कहां है?
कोई
सीमा नहीं है।
अगर तुम
निरीक्षण करो, अगर
गहराई से देखो
तो तुम्हें
पता चलेगा कि
कोई सीमा नहीं
है। या कि
ब्रह्मांड की
सीमा ही
तुम्हारे
शरीर की सीमा
है, समूचा ब्रह्मांड
तुम में निहित
है, वह तुम
से अभिन्न है।
तो तुम्हारा
शरीर
तुम्हारा शरीर
ही नहीं है, वह तुम्हारा
ब्रह्मांड है
और तुम उसमें
आधारित हो।
तुम्हारा मन
भी शरीर के
बिना नहीं रह
सकता, वह
शरीर का एक
हिस्सा है, उसकी एक
प्रक्रिया है।
विभाजन
विध्वंसकारी
है। और विभाजन
के होते ही
तुम्हारा मन
के साथ तादात्म्य
अनिवार्य हो
जाता है। तुम
सोचते हो—और
सोचे बिना
विभाजन नहीं
हो सकता—तुम
सोचते हो और
तुम्हारा
सोचने के साथ
तादात्म्य हो
जाता है। तब
तुम्हें ऐसा
लगता है मानो
शरीर
तुम्हारे अधिकार
में है।
यह
बात सत्य के
सर्वथा
विपरीत है।
शरीर
तुम्हारे
अधिकार में
नहीं है और न
तुम ही शरीर
के अधिकार में
हो। वे दो
चीजें नहीं
हैं।
तुम्हारा
अस्तित्व एक
है—विपरीत
ध्रुवों की
सघन लयबद्धता।
लेकिन ये
विपरीत ध्रुव
बंटे नहीं हैं, वे
परस्पर जुड़े
हैं। तो ही वे
विपरीत ध्रुव हो
सकते हैं। और
यह विपरीतता,
यह विरोध
शुभ है; इससे
चुनौती पैदा
होती है; इससे
बल, शक्ति
और ऊर्जा
निर्मित होती
है। यह
द्वंद्वात्मक
है। अगर तुम
वस्तुत: एक ही
होते, अगर
तुम्हारे
भीतर विपरीत
ध्रुव नहीं
होते तो तुम
उदास और
मुर्दा होते।
ये जो विपरीत
ध्रुव हैं—शरीर
और मन—वे
तुम्हें जीवन
देते हैं। वे
विपरीत हैं, लेकिन साथ
ही साथ परिपूरक
भी है। और
मूलत: तथ अंतत:
वे एक ही है, दोनों में
ऊर्जा की एक
ही धारा
प्रवाहित
होती है।
लेकिन
जब हम विचार
की प्रक्रिया
से एकात्म हो जाते
हैं तो हमें
लगता है कि हम
अपने सिर में
केंद्रित हैं।
अगर तुम्हारे
पांव काट दिए
जाएं तो
तुम्हें ऐसा
नहीं लगेगा कि
मैं कट गया, तुम
कहोगे कि मेरे
पांव कट गए।
लेकिन अगर
तुम्हारा सिर
कट जाए तो तुम
ही कट गए, तुम्हारी
हत्या हो गई।
अगर तुम आख
बंद करके यह
महसूस करो कि
मैं कहौ हूं
तो तुम्हें
तुरंत महसूस
होगा कि मैं
अपने सिर में
हूं।
लेकिन
तुम सिर में
नहीं हो।
क्योंकि जब
तुमने पहली
दफा अपनी मां
के पेट में
प्रवेश किया
था,
जीवन में
प्रवेश किया
था, जब
पहली बार
पुरुष और
स्त्री के अणु
मिले थे, तब
कोई सिर नहीं
था। लेकिन तभी
जीवन आरंभ हो
गया था और तुम
थे, लेकिन
सिर नहीं था।
दो जीवित
अणुओं के उस
प्रथम मिलन
में तुम निर्मित
हुए थे; सिर
तो पीछे आया।
लेकिन
तुम्हारा
होना था। वह
होना कहां है?
वह
तुम्हारे सिर
में नहीं है।
वस्तुत: वह
कहीं नहीं है,
या वह
तुम्हारे
शरीर में
सर्वत्र है।
वह कहीं एक
जगह नहीं है, तुम अंगुली
उठाकर नहीं
बता सकते कि
वह यहां है।
और जिस क्षण
तुम ऐसा
बताओगे, तुम
चूक गए, पूरी
बात ही चूक गए।
वह सर्वत्र है।
तुम्हारा
जीवन सर्वत्र
है। वह
तुम्हारे
शरीर में
सर्वत्र फैला
है। और वह
सिर्फ
तुम्हारे
शरीर में ही
नहीं सर्वत्र
फैला है, अगर
तुम उसका
अनुसरण करो तो
तुम्हें
ब्रह्मांड के
आखिरी छोर तक
जाना पड़े। वह
सर्वत्र है।
इस
तादात्म्य के
साथ कि मैं मन
हूं सब कुछ
झूठ हो जाता
है। तुम झूठे
हो जाते हो, क्योंकि
यह तादात्म्य
ही झूठा है।
इस तादात्म को
तोड़ना है। और
तंत्र की
विधियां इसे
ही तोड़ने के
लिए हैं।
तंत्र
तुम्हें सिर—विहीन,
केंद्र—विहीन
बनाने की
चेष्टा करता
है कि तुम या
तो सर्वत्र
होओ या कहीं न
होओ।
और
मनुष्य या
मनुष्यता मन
के कारण झूठी
और नकली क्यों
हो जाती है? क्योंकि
मन एक उप—घटना
है, गौण है।
९ मन एक
प्रक्रिया है
जो जरूरी है, उपयोगी है; लेकिन
प्राथमिक
नहीं है। मन
एक प्रक्रिया
है जो शब्दों
से बनी है, सत्यों
से नहीं।
प्रेम शब्द
प्रेम नहीं है,
न ईश्वर
शब्द ईश्वर है।
लेकिन मन
शब्दों से बना
है, वह एक
शाब्दिक
प्रक्रिया है,
और तब प्रेम
प्रेम शब्द से
कम
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
मन के लिए
शब्द ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। ईश्वर
ईश्वर शब्द से
कम
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
मन का यही हाल
है, उसके
लिए शब्द
ज्यादा
अर्थपूर्ण, ज्यादा
प्राथमिक हो
जाते हैं।
और
तब हम शब्दों
में जीने लगते
हैं। और तुम
जितना ज्यादा
शब्दों में
जीते हो उतने
ही उथले हो
जाते हो। और
तब तुम सत्य
से वंचित हो
जाते हो, क्योंकि
सत्य शब्द
नहीं है। सत्य
अस्तित्व है।
मन
में रहना ऐसा
है मानो तुम
दर्पण में
रहते हो। रात
में अगर तुम
किसी झील पर
जाओ और झील
शात हो, उसमें
लहरें न हों, तो वह झील
दर्पण बन
जाएगी। तुम
उसमें चाँद को
देख सकते हो।
लेकिन वह चांद
झूठा है, प्रतिबिंब
भर है। वह
प्रतिबिंब
सत्य से आता
है, लेकिन
खुद सत्य नहीं
है। वैसे ही
मन भी दर्पण
जैसी घटना है।
उसमें सत्य
प्रतिबिंबित
होता है, लेकिन
प्रतिबिंब
सत्य नहीं है।
और अगर तुम
प्रतिबिंबों
में उलझ गए तो
तुम सत्य को
बिलकुल चूक
जाओगे। यही
कारण है कि मन
और मन के
प्रतिबिंब
सदा कंपित
होते रहते हैं;
एक छोटी सी
भी हलचल, एक
हलकी सी भी
लहर तुम्हारे
मन को विचलित
कर देती है।
मन दर्पण जैसा
है और हम मन
में ही रहते
हैं।
तंत्र
कहता है : नीचे
आओ,
सिंहासन से
उतरी, अपने
सिरों से नीचे
उतर आओ। तंत्र
कहता है
प्रतिबिंबों
को भूल जाओ. और
सत्य की ओर
बढ़ो। जिन
विधियों की हम
यहां चर्चा
करने वाले हैं
वे सब इसी से
संबंधित हैं
कि कैसे मन से
हटकर सत्य में
गति की जाए।
अब
हम विधियों को
लेंगे।
आत्म—स्मरण
की पहली विधि:
हे
कमलाक्षी हे
सुभने गाते
हुए देखते हुए
स्वाद लेते
हुए यह बोध
बना रहे कि
मैं हूं और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।
हम
हैं,
लेकिन हमें
बोध नहीं है
कि हम हैं।
हमें आत्म—स्मरण
नहीं है। तुम
खा रहे हो, या
तुम स्नान कर
रहे हो, या
टहल रहे हो।
लेकिन टहलते
हुए तुम्हें
इसका बोध नहीं
है कि मैं हूं।
सजग नहीं हो
कि मैं हूं सब
कुछ है, केवल
तुम नहीं हो।
झाडू हैं, मकान
हैं, चलते
रास्ते हैं, सब कुछ है; तुम अपने
चारों ओर की
चीजों के
प्रति सजग हो,
लेकिन
सिर्फ अपने
होने के प्रति
कि मैं हूं
सजग नहीं हो।
लेकिन अगर तुम
सारे संसार के
प्रति भी सजग
हो और अपने
प्रति सजग
नहीं हो तो सब
सजगता झूठी है।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारा मन
सबको
प्रतिबिंबित
कर सकता है, लेकिन वह
तुम्हें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकता।
और अगर
तुम्हें अपना
बोध है तो तुम
मन के पार चले
गए।
तुम्हारा
आत्म—स्मरण
तुम्हारे मन
में
प्रतिबिंबित
नहीं हो सकता, क्योंकि
तुम मन के
पीछे हो। मन
उन्हीं चीजों
को
प्रतिबिंबित
करता है जो उसके
सामने होती
हैं। तुम केवल
दूसरों को देख
सकते हो, तुम
अपने को नहीं
देख सकते।
तुम्हारी आंखें
सबको देख सकती
हैं, लेकिन
अपने को नहीं
देख सकतीं।
अगर तुम अपने
को देखना चाहो
तो तुम्हें
दर्पण की
जरूरत होगी।
दर्पण में ही
तुम अपने को
देख सकते हो, लेकिन उसके
लिए तुम्हें
दर्पण के
सामने खड़ा होना
होगा।
तुम्हारा मन
दर्पण है तो
वह सारे संसार
को प्रतिबिंबित
कर सकता है, लेकिन
तुम्हें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकता।
क्योंकि तुम
उसके सामने
नहीं खड़े हो
सकते, तुम
सदा पीछे हो, दर्पण के
पीछे खड़े हो।
यह
विधि कहती है
कि कुछ भी
करते हुए—गाते
हुए,
देखते हुए,
स्वाद लेते
हुए—यह बोध
बना रहे कि
मैं हूं और
शाश्वत को
आविर्भूत कर
लो। अपने भीतर
उसे आविष्कृत
कर लो जो सतत
प्रवाह है, ऊर्जा है, जीवन है, शाश्वत
है।
लेकिन
हमें अपना ही
बोध नहीं है।
पश्चिम में
गुरजिएफ ने
आत्म—स्मरण का
प्रयोग एक
बुनियादी
विधि के रूप
में किया। वह
आत्म—स्मरण
इसी सूत्र से
लिया गया है।
और गुरजिएफ की
सारी साधना
इसी एक सूत्र
पर आधारित है।
सूत्र है कि
तुम कुछ भी
करते हुए अपने
को स्मरण रखो।
यह
बहुत कठिन
होगा। यह सरल
मालूम होता है, लेकिन
तुम भूल— भूल
जाओगे। तीन या
चार सेकेंड के
लिए भी तुम
अपना स्मरण नहीं
रख सकते।
तुम्हें
लगेगा कि मैं
अपना स्मरण कर
रहा हूं और
अचानक तुम
किसी दूसरे
विचार में चले
गए। अगर यह
विचार भी उठा कि
ठीक है, मैं
तो अपना स्मरण
कर रहा हूं तो तुम
चूक गए; क्योंकि
यह विचार आत्म–स्मरण
नहीं है। आत्म—स्मरण
में कोई विचार
नहीं होगा, तुम बिलकुल रिक्त
और खाली होगे।
और आत्म—स्मरण
कोई मानसिक
प्रक्रिया
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि
तुम कहते रही
कि हा, मैं
हूं। यह कहते
ही कि ही, मैं
हूं तुम चूक
गए। मैं हूं
यह सोचना एक
मानसिक कृत्य
है। यह अनुभव
करो कि मैं
हूं। मैं हूं
इन शब्दों को
नहीं अनुभव
करना है। उसे
शब्द मत दो, बस अनुभव
करो कि मैं
हूं। सोचो मत,
अनुभव करो।
प्रयोग
करो। कठिन है, लेकिन
अगर तुम
प्रयोग में लगन
से लगे रहे तो
यह घटित होता
है। टहलते हुए
स्मरण रखो कि
मैं हूं अपने
होने को महसूस
करो। ऐसे किसी
विचार या
धारणा को नहीं
लाना है, बस
महसूस करना है।
मैं तुम्हारा
हाथ छूता हूं
या तुम्हारे
सिर पर अपना
हाथ रखता हूं
तो उसे शब्द
मत दो, सिर्फ
स्पर्श को
अनुभव करो। और
इस अनुभव में
स्पर्श को ही
नहीं, स्पर्शित
को भी अनुभव
करो। तब
तुम्हारी
चेतना के तीर
में दो फलक
होंगे।
तुम
वृक्षों की
छाया में टहल
रहे हो; वृक्ष
हैं, हवा
है, उगता
हुआ सूरज है।
यह है
तुम्हारे
चारों ओर का
संसार और तुम
उसके प्रति
सजग हो। घूमते
हुए क्षणभर के
लिए ठिठक जाओ
और अचानक
स्मरण करो कि
मैं हूं अपने
होने को अनुभव
करो। कोई शब्द
मत दो, सिर्फ
अनुभव करो कि
मैं हूं। यह
शब्दहीन अनुभूति,
क्षण मात्र
के लिए ही सही,
तुम्हें
सत्य की वह
झलक दे जाएगी
जो कोई एल .एस .डी.
नहीं दे सकती।
क्षणभर के लिए
तुम अपने
अस्तित्व के
केंद्र पर
फेंक दिए जाते
हो। तब तुम
दर्पण के पीछे
हो, तुम
प्रतिबिंबों
के जगत के पार
चले गए हो। तब
तुम
अस्तित्वगत
हो।
और
यह प्रयोग तुम
किसी भी समय
कर सकते हो।
इसके लिए न
किसी खास जगह
की जरूरत है
और न किसी खास
समय की। तुम
यह नहीं कह
सकते कि मेरे
पास समय नहीं
है। तुम भोजन
करते हुए इसका
प्रयोग कर
सकते हो। तुम
स्नान करते
हुए इसका
प्रयोग कर
सकते हो। चलते
हुए या बैठे
हुए,
किसी समय भी
यह प्रयोग कर
सकते हो। कोई
भी काम करते
हुए अचानक
अपना स्मरण
करो और फिर
अपने होने की
उस झलक को
जारी रखने की
चेष्टा करो।
यह
कठिन होगा। एक
क्षण लगेगा कि
यह रहा और
दूसरे क्षण ही
वह विदा हो
जाएगा। कोई
विचार प्रवेश
कर जाएगा, कोई
प्रतिबिंब, कोई चित्र
मन में तैर
जाएगा और तुम
उसमें उलझ जाओगे।
उससे दुखी मत
होना, निराश
मत होना। ऐसा
होता है, क्योंकि
हम जन्मों—जन्मों
से
प्रतिबिंबों
में उलझे रहे
हैं। यह
यंत्रवत
प्रक्रिया बन
गई है। अविलंब,
आप ही आप हम
प्रतिबिंबों
में उलझ जाते
हैं।
लेकिन
अगर एक क्षण
के लिए भी
तुम्हें झलक
मिल गई तो वह
प्रारंभ के
लिए काफी है।
और वह क्यों
काफी है?
क्योंकि
तुम्हें कभी
दो क्षण एक
साथ नहीं मिलेंगे।
सदा एक क्षण
ही तुम्हारे
हाथ में होता
है। और अगर
तुम्हें एक
क्षण के लिए
भी झलक मिल
जाए तो तुम
उसमें ज्यादा
बने रह सकते
हो। सिर्फ
चेष्टा की
जरूरत है, सतत
चेष्टा की।
तुम्हें एक
क्षण ही तो
दिया जाता है,
दो
क्षण
तो कभी एक साथ
नहीं आते। दो
क्षणों की
फिक्र मत करो, तुम्हें
सदा एक क्षण
ही मिलेगा। और
अगर तुम्हें एक
क्षण के लिए बोध
हो सके तो जीवन
भर के लिए बोध बना
रह सकता है।
अब सिर्फ
प्रयत्न
चाहिए। और यह
प्रयोग सारा
दिन चल सकता
है। जब भी
स्मरण आए, अपने
को स्मरण करो।
'हे कमलाक्षी,
हे सुभगे, गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते
हुए यह बोध
बना रहे कि
मैं हूं? और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।’
जब
सूत्र कहता है
कि 'बोध बना रहे
कि मैं हूं, तो तुम क्या
करोगे? क्या
तुम याद करोगे
कि मेरा नाम
राम है, या
जीसस है, या
और कुछ है? क्या
तुम स्मरण
करोगे कि मैं
फलां परिवार
का हूं फला
धर्म का हूं
फलां—फलां
परंपरा का हूं?
क्या तुम
याद करोगे कि
मैं अमुक देश
का हूं अमुक
जाति का हूं
अमुक मत का
हूं? क्या
तुम स्मरण
करोगे कि मैं
कम्युनिस्ट
हूं या हिंदू
या ईसाई हूं? तुम क्या
स्मरण करोगे?
सूत्र
कहता है कि 'बोध
बना रहे कि
मैं हूं,, इतना
ही कहता है कि
मैं हूं। किसी
नाम की जरूरत
नहीं है, किसी
देश की जरूरत
नहीं है, सिर्फ
होने की जरूरत
है कि तुम हो।
तो अपने से यह
मत कहो कि तुम
कौन हो। यह मत
कहो कि मैं यह
हूं वह हूं।
तुम हो, इस
अस्तित्व को
स्मरण करो।
लेकिन
यह कठिन हो
जाता है, क्योंकि
हम कभी मात्र
अस्तित्व को
स्मरण नहीं
करते। हम सदा
उसे स्मरण
करते हैं जो एक
लेबल है, पदवी
है, नाम है,
वह
अस्तित्व
नहीं है। जब
भी तुम अपने
बारे में
सोचते हो, तुम
अपने नाम, धर्म,
देश
इत्यादि की
सोचते हो, तुम
कभी इस मात्र
अस्तित्व की
नहीं सोचते कि
मैं हूं।
तुम
इसकी साधना कर
सकते हो। अपनी
कुर्सी में या
किसी पेड़ के
नीचे
विश्रामपूर्वक
बैठ जाओ, सब
कुछ भूल जाओ
और इस अपने
होनेपन को
अनुभव करो। न
ईसाई हो, न
हिंदू न बौद्ध,
न भारतीय, न अंग्रेज, न जर्मन; बस
तुम हो। इसकी
प्रतीति भर हो,
भाव भर हो।
और तब
तुम्हारे लिए
याद रखना आसान
होगा कि यह सूत्र
क्या कहता है।
'बोध बना रहे
कि मैं हूं और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।’
जिस
क्षण तुम्हें
बोध होता है
कि मैं कौन
हूं उसी क्षण
तुम शाश्वत की
धारा में फेंक
दिए जाते हो।
जो असत्य है, उसकी
मृत्यु
निश्चित है, केवल सत्य
शेष रहता है।
यही
कारण है कि हम
मृत्यु से
इतना डरते हैं, क्योंकि
झूठ को मिटना
ही है। असत्य
सदा नहीं रह
सकता है। और
हम असत्य से
बंधे हैं, असत्य
से तादात्म
किए बैठे हैं।
तुममें जो
हिंदू है, वह
तो मरेगा; जो
राम है या
कृष्ण है, वह
तो मरेगा; जो
कम्युनिस्ट
है, आस्तिक
है, नास्तिक
है, वह तो
मरेगा—जो—जो
नाम—रूप है वह
मरेगा। और अगर
तुम नाम—रूप
के मोह में
पड़े हो, उससे
आसक्त हो तो
जाहिर है कि
मृत्यु का डर
तुम्हें घेरेगा।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो सत्य
है,
जो
अस्तित्वगत
है, जो
आधारभूत है, वह अमृत है।
जब नाम—रूप
भूल जाते हैं
और तुम्हारी
दृष्टि भीतर
के अनाम और
अरूप पर पड़ती
है, तब तुम
शाश्वत में
प्रवेश कर गए।
'बोध बना रहे
कि मैं हूं और
शाश्वत
आविर्भूत
होता है।’
यह
विधि अत्यंत
कारगर
विधियों में
से एक है और
हजारों साल से
सदगुरुओं ने इसका
उपयोग किया है।
बुद्ध इसे
उपयोग में लाए, महावीर
लाए, जीसस
लाए। और आधुनिक
जमाने में
गुरजिएफ ने
इसका खूब
उपयोग किया।
सभी विधियों
से इस विधि की क्षमता
सर्वाधिक है। इसका
प्रयोग करो। यह
समय लेगा, महीनों
लग सकते है।
जब
आस्पेंस्की
गुरजिएफ के
पास साधना कर
रहा था तो उसे
तीन महीने तक
इस बात के लिए
बहुत श्रम, कठिन
श्रम करना पड़ा
कि आत्म—स्मरण
की एक झलक
मिले। निरंतर
तीन महीने तक
आस्पेंस्की
एक एकांत घर में
रहकर एक ही
प्रयोग करता
रहा—आत्म—स्मरण
का प्रयोग।
तीस
व्यक्तियों
ने उस प्रयोग
को आरंभ किया
था और पहले
सप्ताह के खतम
होते—होते
सत्ताइस
व्यक्ति भाग
खड़े हुए, सिर्फ
तीन बचे। सारा
दिन वे और कोई
काम नहीं करते
थे, सिर्फ
स्मरण करते थे
कि मैं हूं।
सत्ताइस
लोगों को ऐसा
लगा कि इस
प्रयोग से हम
पागल हो
जाएंगे, हमारे
विक्षिप्त
होने के सिवाय
कोई चारा नहीं
है। और वे
गायब हो गए।
वे फिर कभी
नहीं वापस आए,
वे गुरजिएफ
से फिर कभी
नहीं मिले।
क्यों?
हम
जैसे हैं, असल
में हम
विक्षिप्त ही
हैं, पागल
ही हैं। जो
नहीं जानते
हैं कि हम
क्या हैं, हम
कौन हैं, वे
पागल ही हैं।
लेकिन हम इस
विक्षिप्तता
को ही
स्वास्थ्य माने
बैठे हैं। जब
तुम पीछे
लौटने की
कोशिश करोगे,
जब तुम सत्य
से संपर्क
साधोगे तो वह
विक्षिप्तता
जैसा, पागलपन
जैसा ही मालूम
पड़ेगा। हम
जैसे हैं, जो
हैं, उसकी
पृष्ठभूमि
में सत्य ठीक
विपरीत है। और
अगर तुम जैसे
हो उसको ही
स्वास्थ्य
मानते हो तो
सत्य जरूर
पागलपन मालूम
पड़ेगा।
लेकिन
तीन व्यक्ति
प्रयोग में
लगे रहे। उन
तीन में पी .डी.
आस्पेंस्की
भी एक था। वे
तीन महीने तक
प्रयोग में
जुटे रहे।
पहले महीने के
बाद उन्हें
मात्र होने की—कि
मैं हूं —झलक
मिलने लगी।
दूसरे महीने
के बाद मैं भी
गिर गया और
उन्हें मात्र
होनेपन की हूं
—पन की झलक
मिलने लगी। इस
झलक में मात्र
होना था, मैं
भी नहीं था, क्योंकि मैं
भी एक संज्ञा
है। शुद्ध
अस्तित्व न
मैं है न तू वह
बस है। और
तीसरे महीने
के बाद हूं —पन
का भाव भी
विसर्जित हो
गया। क्योंकि
हूं —पन का भाव
भी एक शब्द है,
यह शब्द भी
विलीन हो जाता
है। तब तुम बस
हो और तब तुम
जानते हो कि
तुम कौन हो।
इस
घड़ी के आने के
पूर्व तुम
नहीं पूछ सकते
कि मैं कौन
हूं। या तुम
सतत पूछते रह
सकते हो कि
मैं कौन हूं
मैं कौन हूं
और मन जो भी
उत्तर देगा वह
गलत होगा, अप्रासंगिक
होगा। तुम
पूछते जाओ कि
मैं कौन हूं
मैं कौन हूं
और एक क्षण
आएगा जब तुम
यह प्रश्न
नहीं पूछ सकते।
पहले सब उत्तर
गिर जाते हैं
और फिर खुद
प्रश्न गिर
जाता है और खो
जाता है। और
जब यह प्रश्न
भी कि 'मैं
कौन हूं?' गिर
जाता है, तुम
जानते हो कि
तुम कौन हो।
गुरजिएफ
ने एक सिरे से
इस विधि का
प्रयोग किया :
सिर्फ यह
स्मरण रखना है
कि मैं हूं।
रमण महर्षि ने
इसका प्रयोग
दूसरे सिरे से
किया।
उन्होंने इस
खोज को कि 'मैं
कौन हूं?' पूरा
ध्यान बना
दिया।
उन्होंने कहा
कि पूछते रही
कि मैं कौन
हूं? और
इसके उत्तर
में मन जो भी
कहे उस पर
विश्वास मत
करो। मन कहेगा
कि क्या
व्यर्थ का
सवाल उठा रहे
हो! मन कहेगा
कि तुम यह हो, तुम वह हो, कि तुम मर्द
हो, तुम
औरत हो, तुम
शिक्षित हो, अशिक्षित हो,
कि गरीब हो,
अमीर हो, मन उत्तर
दिए जाएगा, लेकिन तुम
प्रश्न पूछते
ही चले जाना। कोई
भी उत्तर मत
स्वीकार करना,
क्योंकि मन
के दिए गए सभी
उत्तर गलत
होंगे। वे
उत्तर तुम्हारे
झूठे हिस्से
से आते हैं।
वे शब्दों से
आते हैं, वे
शास्त्रों से
आते हैं, वे
तुम्हारे
संस्कारों से आते
हैं, वे
समाज से आते
हैं। सच तो यह
है कि वे सब के सब
दूसरों से आते
हैं, वे
तुम्हारे
नहीं हैं। तुम
पूछे ही चले
जाओ। इस 'मैं
कौन हूं?' के
तीर को गहरे
से गहरे में
उतरने दो।
एक
क्षण आएगा जब
कोई उत्तर
नहीं आएगा।
वही सम्यक
क्षण होगा। अब
तुम उत्तर के
करीब आ रहे हो।
जब कोई उत्तर
नहीं आता है, तुम
उत्तर के करीब
होते हो।
क्योंकि अब मन
मौन हो रहा है,
अब तुम मन
से बहुत दूर
निकल गए हो।
जब कोई उत्तर
नहीं होगा और
जब तुम्हारे
चारों ओर एक शून्य
निर्मित हो
जाएगा तो
तुम्हारा
प्रश्न पूछना व्यर्थ
मालूम होगा।
तुम किससे पूछ
रहे हो? जवाब
देने वाला अब
कोई नहीं है।
अचानक
तुम्हारा
प्रश्न भी गिर
जाएगा। और
प्रश्न के
गिरते ही मन
का आखिरी
हिस्सा भी गिर
गया,
खो गया, क्योंकि
यह प्रश्न भी
मन का ही था।
वे उत्तर भी
मन के थे और यह
प्रश्न भी मन
का था। दोनों
विलीन हो गए।
अब तुम बस हो।
इसे
प्रयोग करो।
अगर तुम लगन
से लगे रहे तो
पूरी संभावना
है कि यह विधि
तुम्हें सत्य
की झलक दे जाए।
और सत्य
शाश्वत है।
आत्म—स्मरण
की दूसरी विधि
:
जहां— जहां
जिस किसी
कृत्य में
संतोष मिलता
हो उसे वास्तविक
करो।
तुम्हें
प्यास लगी है, तुम
पानी पीते हो,
उससे एक
सूक्ष्म
संतोष
प्राप्त होता
है। पानी को
भूल जाओ, प्यास
को भी भूल जाओ
और जो सूक्ष्म
संतोष अनुभव
हो रहा है
उसके साथ रही।
उस संतोष से
भर जाओ, बस
संतुष्ट
अनुभव करो।
लेकिन
मनुष्य का मन
बहुत उपद्रवी
है। वह केवल
असंतोष और
अतृप्ति
अनुभव करता है, वह
कभी संतोष
नहीं अनुभव
करता है। अगर
तुम असंतुष्ट
हो तो तुम उसे
अनुभव करोगे और
असंतोष से भर
जाओगे। जब तुम
प्यासे हो तो
तुम्हें
प्यास अनुभव
होती है, तुम्हारा
गला सूखता है।
और अगर प्यास
और बढ़ती है तो
वह पूरे शरीर
में महसूस
होने लगती है।
और एक क्षण
ऐसा भी आता है
जब तुम्हें
ऐसा नहीं लगता
कि मैं प्यासा
हूं तुम्हें
लगता है कि मैं
प्यास ही हो गया
हूं। अगर तुम
किसी मरुस्थल
में हो और
पानी मिलने की
कोई भी आशा
नहीं हो तो
तुम्हें ऐसा
नहीं लगेगा कि
मैं प्यासा
हूं तुम्हें
लगेगा कि मैं
प्यास ही हो
गया हूं।
असंतोष
अनुभव में आते
हैं,
दुख और
संताप अनुभव
में आते हैं।
जब तुम दुख
में होते हो
तो तुम दुख ही
बन जाते हो।
यही कारण है
कि पूरा जीवन
नरक हो जाता
है। तुमने कभी
विधायक को
नहीं अनुभव
किया है, तुमने
सदा
नकारात्मक को
अनुभव किया है।
जीवन वैसा दुख
नहीं है जैसा
हमने उसे बना
रखा है। दुख
हमारी महज
व्याख्या है।
बुद्ध
यहीं और अभी
सुख में हैं, इसी
जीवन में सुखी
हैं। कृष्ण
नाच रहे हैं
और बांसुरी
बजा रहे हैं।
इसी जीवन में
यहीं और अभी, जहां हम दुख
में हैं, वहीं
कृष्ण नाच रहे
हैं। जीवन न
दुख है और न
जीवन आनंद है,
दुख और आनंद
हमारी
व्याख्याएं
हैं, हमारी
दृष्टियां
हैं, हमारे
रुझान हैं, हमारे देखने
के ढंग हैं।
यह तुम्हारे
मन पर निर्भर
है कि वह जीवन
को किस तरह
लेता है।
अपने
ही जीवन का
स्मरण करो और
विश्लेषण करो।
क्या तुमने
कभी संतोष के, परितृप्ति
के, सुख के,
आनंद के
क्षणों का
हिसाब रखा है?
तुमने उनका
कोई हिसाब
नहीं रखा
है।
लेकिन तुमने
अपने दुख, पीड़ा
और संताप का
खूब हिसाब रखा
है। और
तुम्हारे पास इसका
बड़ा संग्रह है।
तुम एक
संगृहीत नरक
हो और यह
तुम्हारा
अपना चुनाव है।
कोई दूसरा तुम्हें
इस नरक में नहीं
ढकेल रहा है, यह तुम्हारा
ही चुनाव है। मन
नकार को पकड़ता
है, उसका
संग्रह करता
है और फिर खुद
नकार बन जाता है।
और फिर यह
दुथ्चक्र हो
जाता है।
तुम्हारे
चित्त में
जितना नकार
इकट्ठा होता है,
तुम उतने ही
नकारात्मक हो
जाते हो। और
फिर नकार का
संग्रह बढ़ता
जाता है। समान
समान को
आकर्षित करता
है। और यह
सिलसिला
जन्मों—जन्मों
से चल रहा है।
तुम अपनी
नकारात्मक
दृष्टि के
कारण सब कुछ
चूक रहे हो।
यह
विधि तुम्हें
विधायक
दृष्टि देती
है। सामान्य
मन और उसकी
प्रक्रिया के
बिलकुल
विपरीत है यह
विधि। जब भी
संतोष मिलता
हो,
जिस किसी
कृत्य में भी
संतोष मिलता
हो, उसे
वास्तविक करो,
उसे अनुभव
करो, उसके
साथ हो जाओ।
यह संतोष किसी
बडे विधायक
अस्तित्व की
झलक बन सकता
है।
यहां
हर चीज महज एक
खिड़की है। अगर
तुम किसी दुख
के साथ तादात्मय
करते हो तो
तुम दुख की
खिड़की से झांक
रहे हो। और
दुख और संताप
की खिड़की नरक
की तरफ ही
खुलती है। और
अगर तुम किसी
संतोष के क्षण
के साथ, आनंद
और समाधि के
क्षण के साथ
एकात्म होते
हो तो तुम
दूसरी खिड़की
खोल रहे हो।
अस्तित्व तो
वही है, लेकिन
तुम्हारी
खिडकियां अलग—अलग
हैं।
'जहां—जहां, जिस किसी
कृत्य में
संतोष मिलता
हो, उसे
वास्तविक करो।’
बेशर्त!
जहां कहीं भी
संतोष मिले, उसे
जीओ। तुम किसी
मित्र से
मिलते हो और
तुम्हें
प्रसन्नता
अनुभव होती है;
तुम्हें
अपनी
प्रेमिका या
अपने प्रेमी
से मिलकर सुख
अनुभव होता है।
इस अनुभव को
वास्तविक
बनाओ, उस
क्षण सुख ही
हो जाओ और उस
सुख को द्वार
बना लो। तब
तुम्हारा मन
बदलने लगेगा
और तब तुम सुख
इकट्ठा करने
लगोगे। तब
तुम्हारा मन
विधायक होने
लगेगा और वही
जगत भिन्न
दिखने लगेगा।
झेन
संत बोकोजू ने
कहा है कि जगत
वही है, लेकिन
कुछ भी वही
नहीं है, क्योंकि
मन वही नहीं
है। सब कुछ
वही रहता है, लेकिन कुछ
भी वही नहीं
रहता है, क्योंकि
मैं बदल जाता
हूं।
तुम
संसार को
बदलने की
कोशिश में लगे
रहते हो, लेकिन
तुम कुछ भी
करो, जगत
वही का वही
रहता है, क्योंकि
तुम वही के
वही रहते हो।
तुम एक बड़ा घर
बना लेते हो, तुम्हें एक
बड़ी कार मिल
जाती है, तुम्हें
सुंदर पत्नी
या पति मिल
जाता है, लेकिन
उससे कुछ भी
नहीं बदलेगा।
बड़ा घर बड़ा
नहीं होगा, सुंदर पत्नी
या पति सुंदर
नहीं होगा, बड़ी कार भी
छोटी ही रहेगी,
क्योंकि
तुम वही के
वही हो।
तुम्हारा मन,
तुम्हारी
दृष्टि, तुम्हारा
रुझान, सब
कुछ वही का
वही है। तुम
चीजें तो बदल
लेते हो, लेकिन
अपने को नहीं
बदलते। एक
दुखी आदमी
झोपड़ी को
छोड़कर महल में
रहने लगता है,
लेकिन वह
वहा भी दुखी
आदमी ही रहता
है। पहले वह
झोपड़ी में
दुखी था, अब
वह महल में
दुखी रहेगा।
उसका दुख महल
का दुख होगा, लेकिन वह
दुखी होगा।
तुम
अपने साथ अपने
दुख लिए चल
रहे हो और तुम
जहां भी जाओगे
अपने साथ
रहोगे। इसलिए
बुनियादी तौर
पर बाहरी
बदलाहट
बदलाहट नहीं
है,
वह बदलाहट
का आभास भर है।
तुम्हें लगता
है कि बदलाहट
हुई, लेकिन
दरअसल बदलाहट
नहीं होती है।
केवल एक बदलाहट,
केवल एक क्रांति, केवल एक
आमूल रूपांतरण
संभव है और वह
यह कि
तुम्हारा चित्त
नकारात्मक से
विधायक हो जाए।
अगर तुम्हारी
दृष्टि दुख से
बंधी है तो
तुम नरक में
हो और अगर
तुम्हारी
दृष्टि सुख से
जुड़ी है तो
वही नरक
स्वर्ग हो
जाता है। इसे
प्रयोग करो, यह तुम्हारे
जीवन की
गुणवत्ता को रूपांतरित
कर देगा।
लेकिन
तुम तो
गुणवत्ता में
नहीं, परिमाण
में उत्सुक हो।
तुम इसमें
उत्सुक हो कि
कैसे ज्यादा
धन हो जाए।
तुम धन की
गुणवत्ता में
नहीं, उसके
परिमाण में, मात्रा में
उत्सुक हो।
तुम्हारे दो
घर हो सकते
हैं, तुम्हें
दो कारें मिल
सकती हैं, बैंक
में तुम्हारा
खाता बड़ा हो
सकता है, बहुत
चीजें हो सकती
हैं, लेकिन
यह सब परिमाण
की बदलाहट है।
परिमाण बड़ा
होता जाता है,
लेकिन
तुम्हारी
गुणवत्ता वही
की वही रहती
है।
संपदा
चीजों की नहीं
होती, संपदा
तो तुम्हारे
चित्त की
गुणवत्ता है,
वह
तुम्हारे
जीवन की
गुणवत्ता है।
जहां तक
गुणवत्ता का
सवाल है, एक
दरिद्र आदमी
भी धनी हो
सकता है और एक
अमीर आदमी दरिद्र
हो सकता है।
सच्चाई यही है,
क्योंकि जो
व्यक्ति
चीजों और
चीजों के
परिमाण में
उत्सुक है वह
इस बात से
सर्वथा
अपरिचित है कि
उसके भीतर एक
और भी आयाम है,
वह
गुणवत्ता का
आयाम है। और
वह आयाम तभी
बदलता है जब
तुम्हारा मन
विधायक हो।
तो
कल सुबह से
दिनभर यह
स्मरण रहे जब
भी कुछ सुंदर
और संतोषजनक
हो,
जब भी कुछ
आनंददायक
अनुभव आए, उसके
प्रति
बोधपूर्ण होओ।
चौबीस घंटों
में ऐसे अनेक
क्षण आते हैं—सौंदर्य,
संतोष और
आनंद के क्षण—ऐसे
अनेक क्षण आते
हैं जब स्वर्ग
तुम्हारे
बिलकुल करीब
होता है।
लेकिन तुम नरक
से इतने आसक्त
हो, इतने
बंधे हो कि उन
क्षणों को
चूकते चले
जाते हो। सूरज
उगता है, फूल
खिलते हैं, पक्षी
चहचहाते हैं,
पेड़ों से
होकर हवा
गुजरती है।
वैसे क्षण
घटित हो रहे
हैं! एक बच्चा
निर्दोष आंखों
से तुम्हें निहारता
है और
तुम्हारे
भीतर एक
सूक्ष्म सुख
का भाव उदित
हो जाता है; या किसी की
मुस्कुराहट
तुम्हें
आह्लाद से भर देती
है।
अपने
चारों ओर देखो
और उसे खोजो
जो आनंददायक है
और उससे पूरित
हो जाओ, भर
जाओ। उसका
स्वाद लो, उससे
भर जाओ और उसे
अपने पूरे
प्राणों पर छा
जाने दो, उसके
साथ एक हो जाओ।
उसकी सुगंध
तुम्हारे साथ
रहेगी। वह
अनुभूति पूरे
दिन तुम्हारे
भीतर गूंजती रहेगी।
और वह अनुगूंज
तुम्हें
ज्यादा
विधायक होने में
सहयोग देगी।
यह
प्रक्रिया भी
और—और बढ़ती
जाती है। यदि
सुबह शुरू करो
तो शाम तक तुम
सितारों के प्रति, चांद
के प्रति, रात
के प्रति, अंधेरे
के प्रति
ज्यादा खुले
होगे। इसे एक
चौबीस घंटे
प्रयोग की तरह
करो और देखो कि
कैसा लगता है।
और एक बार
तुमने जान
लिया कि
विधायकता
तुम्हें
दूसरे ही जगत
में ले जाती
है तो तुम
उससे कभी अलग
नहीं होगे। तब
तुम्हारा
पूरा
दृष्टिकोण
नकार से विधायक
में बदल जाएगा।
तब तुम संसार
को एक भिन्न
दृष्टि से, एक नयी
दृष्टि से
देखोगे।
मुझे
एक कहानी याद
आती है। बुद्ध
का एक शिष्य
अपने गुरु से
विदा ले रहा है।
शिष्य का नाम
था
पूर्णकाश्यप।
उसने बुद्ध से
पूछा कि मैं
आपका संदेश
लेकर कहां
जाऊं बुद्ध ने
कहा कि तुम
खुद ही चुन लो।
पूर्णकाश्यप
ने कहा कि मैं
बिहार के एक
सुदूर हिस्से
की तरफ जाऊंगा—उसका
नाम सूखा था—मैं
सूखा प्रांत
की तरफ जाऊंगा।
बुद्ध
ने कहा कि
अच्छा हो कि
तुम अपना
निर्णय बदल लो, तुम
किसी और जगह
जाओ, क्योंकि
सूखा प्रांत
के लोग बड़े
क्रूर, हिंसक
और दुष्ट हैं।
और अब तक कोई
व्यक्ति वहां
उन्हें
अहिंसा, प्रेम
और करुणा का
उपदेश सुनाने
नहीं गया है।
इसलिए अपना
चुनाव बदल
डालों। पर
पूर्णकाश्यप
ने कहा : मुझे
जाने की आज्ञा
दें, क्योंकि
वहां कोई नहीं
गया है और
किसी को तो जाना
ही चाहिए।
बुद्ध
ने कहा कि
इसके पहले कि
मैं तुम्हें
वहां जाने की
आज्ञा दूं मैं
तुमसे तीन
प्रश्न पूछना
चाहता हूं।
अगर उस प्रांत
के लोग
तुम्हारा
अपमान करें तो
तुम्हें कैसा
लगेगा? पूर्णकाश्यप
ने कहा : मैं
समझूंगा कि वे
बड़े अच्छे लोग
हैं जो केवल
अपमान करते
हैं, मुझे
मार तो नहीं
रहे हैं। वे
अच्छे लोग हैं;
वे मुझे मार
भी सकते थे।
बुद्ध ने कहा :
अब दूसरा
प्रश्न, अगर
वे लोग
तुम्हें
मारें—पीटें
भी तो तुम्हें
कैसा लगेगा? पूर्णकाश्यप
ने कहा. मैं
समझूंगा कि वे
बड़े अच्छे लोग
हैं। वे मेरी
हत्या भी कर
सकते थे, लेकिन
वे मुझे सिर्फ
पीट रहे हैं।
बुद्ध ने कहा :
अब तीसरा
प्रश्न, अगर
वे लोग
तुम्हारी
हत्या कर दें
तो मरने के क्षण
में तुम कैसा
अनुभव करोगे?
पूर्णकाश्यप
ने कहा : मैं
आपको और उन
लोगों को धन्यवाद
दूंगा। अगर वे
मेरी हत्या कर
देंगे तो वे
मुझे उस जीवन
से मुक्त कर
देंगे जिसमें
न जाने कितनी
गलतियां हो
सकती थीं। वे
मुझे मुक्त
कर देंगे
इसलिए मैं
अनुगृहीत
अनुभव करूंगा।
तो
बुद्ध ने कहा
अब तुम कहीं
भी जा सकते हो, सारा
संसार
तुम्हारे लिए
स्वर्ग है। अब
कोई समस्या
नहीं है। सारा
जगत तुम्हारे
लिए स्वर्ग है,
तुम कहीं भी
जा सकते हो।
ऐसे
चित्त के साथ
जगत में कहीं
भी कुछ गलत
नहीं है। और
तुम्हारे
चित्त के साथ
कुछ भी सम्यक
नहीं हो सकता, ठीक
नहीं हो सकता।
नकारात्मक
चित्त के साथ
सब कुछ गलत हो
जाता है।
इसलिए नहीं
क्योंकि कुछ
गलत है, बल्कि
इसलिए
क्योंकि
नकारात्मक
चित्त को गलत
ही दिखाई पड़ता
है।
'जहां—जहां, जिस किसी
कृत्य में
संतोष मिलता हो,
उसे
वास्तविक करो।’
यह
एक बहुत ही
नाजुक
प्रक्रिया है, लेकिन
बहुत मीठी भी
है। और तुम
इसमें जितनी
गति करोगे, यह उतनी
मीठी होती
जाएगी। तुम एक
नयी मिठास और
सुगंध से भर
जाओगे। बस
सुंदर को खोजो,
कुरूप को
भूल जाओ। तब
एक क्षण आता
है जब कुरूप
भी सुंदर हो
जाता है। सुखी
क्षण की खोज
करो, और तब
एक क्षण आता
है जब कोई दुख
नहीं रह जाता
है। तब कोई
दुख का क्षण
नहीं रह जाता
है। आनंद की
फिक्र करो, और देर— अबेर
दुख तिरोहित
हो जाता है।
विधायक चित्त
के लिए सब कुछ
सुंदर है।
आत्म—स्मरण
की तीसरी विधि
:
जब नीदं
अभी नहीं आयी
हो और बाह्य
जागरण विदा हो
गया हो उस
मध्य बिंदु पर
बोधपूर्ण
रहने से आत्मा
प्रकाशित
होती है।
तुम्हारी
चेतना में कई
मोड आते हैं, मोड़
के बिंदु आते
हैं; इन
बिंदुओं पर
तुम अन्य
समयों की
तुलना में अपने
केंद्र के
ज्यादा करीब
होते हो। तुम
कार चलाते समय
गियर बदलते हो
और गियर बदलते
हुए तुम न्यूट्रल
गियर से
गुजरते हो। यह
न्यूट्रल
गियर निकटतर
है।
सुबह
जब नींद बिदा हो
रही होती है और
तुम जागने लगते
हो, लेकिन अभी जागे
नहीं हो, ठीक
उस मध्य बिंदु
पर तुम न्यूट्रल
गियर में होते
हो। यह एक
बिंदु है जहां
तुम न सोए हो
और न जागे हो, ठीक मध्य
में हो; तब तुम
न्यूट्रल
गियर में हो।
नींद से जागरण
में आते समय
तुम्हारी
चेतना की पूरी
व्यवस्था बदल
जाती है, वह
एक व्यवस्था
से दूसरी
व्यवस्था में
छलांग लेती है।
और इन दोनों
के बीच में
कोई व्यवस्था
नहीं होती, एक अंतराल
होता है। इस
अंतराल में
तुम्हें अपनी
आत्मा की एक
झलक मिल सकती
है।
यही
बात फिर रात
में घटित होती
है जब तुम
अपनी जाग्रत
व्यवस्था से
नींद की
व्यवस्था में, चेतन
से अचेतन में
छलांग लेते हो।
तब फिर एक
क्षण के लिए
कोई व्यवस्था
नहीं होती है,
तुम पर किसी
व्यवस्था की
पकड़ नहीं होती
है, क्योंकि
तब तुम एक से
दूसरी
व्यवस्था में छलांग
लेते हो। इन
दोनों के मध्य
में अगर तुम
सजग रह सके, बोधपूर्ण रह
सके, इन
दोनों के मध्य
में अगर तुम
अपना स्मरण रख
सके, तो
तुम्हें अपने
सच्चे स्वरूप
की झलक मिल
जाएगी।
तो
इसके लिए क्या
करें? नींद में
उतरने के पहले
विश्रामपूर्ण
होओ और आंखें
बंद कर लो।
कमरे में
अंधेरा कर लो।
आंखें बंद कर
लो और बस
प्रतीक्षा
करो। नींद आ
रही है; बस
प्रतीक्षा
करो। कुछ मत
करो, बस
प्रतीक्षा
करो।
तुम्हारा
शरीर शिथिल हो
रहा है, तुम्हारा
शरीर भारी हो
रहा है। बस
शिथिलता को, भारीपन को
महसूस करो।
नींद की अपनी
ही व्यवस्था
है, वह काम
करने लगती है।
तुम्हारी
जाग्रत चेतना
विलीन हो रही
है। इसे स्मरण
रखो, क्योंकि
यह क्षण बहुत
सूक्ष्म होगा,
यह क्षण
परमाणु सा
छोटा होगा।
इसे चूक गए तो
चूक गए। यह
कोई बड़ा
अंतराल नहीं
है, बहुत
छोटा है। यह
क्षणभर का
अंतराल है, जिसमें तुम
जागरण से नींद
में प्रवेश कर
जाते हो। तो
बस पूरी सजगता
से प्रतीक्षा
करो।
प्रतीक्षा
किए जाओ।
इसमें
थोड़ा समय
लगेगा। कम से
कम तीन महीने
लगते हैं। तब
एक दिन
तुम्हें उस
क्षण की झलक
मिलेगी जो ठीक
बीच में है।
तो जल्दी मत
करो। यह अभी
ही नहीं होगा, यह
आज रात ही
नहीं होगा।
लेकिन
तुम्हें शुरू
करना है और
महीनों प्रतीक्षा
करनी है।
साधारणत: तीन
महीने में
किसी दिन यह
घटित होगा। यह
रोज ही घटित
हो रहा है, लेकिन
तुम्हारी
सजगता और
अंतराल का
मिलन आयोजित
नहीं किया जा
सकता। वह घटित
हो ही रहा है।
तुम प्रतीक्षा
किए जाओ और
किसी दिन वह
घटित होगा।
किसी दिन
तुम्हें
अचानक यह बोध
होगा कि मैं न जागा
हूं और न सोया
हूं।
यह
एक बहुत
विचित्र
अनुभव है, तुम
उससे भयभीत भी
हो सकते हो।
अब तक तुमने
दो ही
अवस्थाएं
जानी हैं, तुम्हें
अपने जागने का
पता है और
तुम्हें अपनी
नींद का पता
है। लेकिन
तुम्हें यह
नहीं पता है
कि तुम्हारे
भीतर एक तीसरा
बिंदु भी है
जब तुम न जागे
हो और न सोए हो।
इस बिंदु के
प्रथम दर्शन
से तुम भयभीत
भी हो सकते हो,
आतंकित भी
हो सकते हो।
भयभीत मत होओ,
आतंकित मत
होओ। जो भी
चीज इतनी नयी
होगी, अनजानी
होगी, वह
जरूर भयभीत
करेगी।
क्योंकि यह
क्षण, जब
तुम्हें इसका
बार—बार अनुभव
होगा, तुम्हें
एक और एहसास
देगा कि तुम न
जीवित हो और न
मृत, कि
तुम न यह हो और
न वह। यह अतल
खाई जैसा है।
नींद
और जागरण की
व्यवस्थाएं
दो पहाड़ियों
की भांति हैं, तुम
एक से दूसरे
पर छलांग
लगाते हो।
लेकिन यदि तुम
उनके मध्य में
ठहर जाओ तो
तुम अतल खाई
मैं गिर जाओगे।
और इस खाई का कहीं
अंत नहीं है, तुम गिरते जाओगे, गिरते जाओगे।
सूफियों
ने इस विधि का
उपयोग किया है।
लेकिन जब वे
किसी साधक को
यह विधि देते
हैं तो सुरक्षा
के लिए वे साथ
ही एक और विधि
भी देते हैं।
सूफी साधना
में इस विधि
के दिए जाने
के पहले दूसरी
एक विधि यह दी
जाती है कि
तुम बंद आंखों
से कल्पना करो
कि मैं एक
गहरे और
अंधेरे कुएं में
गिर रहा हूं
एक अतल कुएं
में गिर रहा
हूं। बस
कल्पना करो कि
अतल कुएं में
गिर रहे हो—गिरते
ही जाओ, गिरते
ही जाओ, सतत
गिरते ही जाओ।
यह कुआं अतल
है, तुम
कहीं रुक नहीं
सकते। यह
गिरना कहीं
रुकने वाला
नहीं है। तुम
रुक सकते हो, तुम आंखें
खोलकर कह सकते
हो कि अब और
नहीं, लेकिन
यह गिरना अपने
आप में कहीं
रुकने वाला नहीं
है। अगर तुम
गिरते रहे तो कुआं
अतल है और वह
और—और
अंधकारपूर्ण
होता जाएगा।
सूफी
साधना में यह
अभ्यास, अतल
कुएं में
गिरने का
अभ्यास पहले
कराया जाता है।
और यह अच्छा
है, उपयोगी
है। अगर तुमने
इसका अभ्यास
किया, अगर
तुमने इसके
सौंदर्य को
समझा, इसकी
शांति को
अनुभव किया, तो तुम
जितने ही गहरे
इस कुएं में
उतरोगे उतने
ही ज्यादा
शांत होते
जाओगे। संसार
बहुत पीछे छूट
जाएगा और
तुम्हें
लगेगा कि मैं
बहुत दूर, बहुत
दूर, बहुत
दूर निकल आया
हूं। अंधकार
के साथ शांति
बढ़ती जाती है।
और क्योंकि
नीचे गहरे में
कहीं कोई तल
नहीं है, इसलिए
भय पकड़ सकता
है। लेकिन
तुम्हें
मालूम है कि
यह सिर्फ
कल्पना है, इसलिए तुम
इसे जारी रख
सकते हो।
इस
अभ्यास के
द्वारा तुम इस
विधि के लिए
तैयार होते हो।
और फिर जब तुम
जागरण और नींद
के अंतराल के
कुएं में
गिरते हो तो
वह कल्पना
नहीं है, वह
यथार्थ है। और
यह कुआं भी
अतल है, अनंत
है। इसीलिए
बुद्ध ने इसे
शून्य कहा है,
उसका अंत
नहीं है। और
तुम एक बार
इसे जान गए तो
तुम भी अनंत
हो गए।
तुम्हें
जाग्रत
अवस्था में इस
शून्य की झलक
नहीं मिल सकती
है,
कठिन है। और
नींद में इस
झलक को पाना
तो असंभव ही
है। क्योंकि
दोनों
अवस्थाओं में
शरीर की
व्यवस्था
सक्रिय रहती
है और उससे
अपने को पृथक
करना कठिन है।
लेकिन रात में
एक क्षण आता
है और वैसा ही
क्षण सुबह में
आता है—चौबीस
घंटे में ये
दो ही क्षण है—जब
यह आसान .है।
लेकिन
तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी होगी।
'जब नींद अभी
नहीं आयी हो
और बाह्य
जागरण विदा हो
गया हो, उस
मध्य बिंदु पर
बोधपूर्ण
रहने से आत्मा
प्रकाशित
होती है।’
तब
तुम जानते हो
कि मैं कौन
हूं मेरा
सच्चा स्वभाव
क्या है, मेरा
प्रामाणिक
अस्तित्व
क्या है।
जागते हुए तुम
झूठे हो। और
यह तुम भलीभांति
जानते हो। जब
तुम जागे हुए
हो, तुम
झूठे बने रहते
हो। तुम उस
समय
मुस्कुराते
हो, जब कि आंसू
बहाना ज्यादा
सच होता।
तुम्हारे आंसू
भी भरोसे
योग्य नहीं
हैं। वे भी
दिखाऊ हो सकते
हैं, नकली
हो सकते हैं, होने चाहिए
इसलिए हो सकते
हैं।
तुम्हारी
मुस्कूराहट
झूठी है। जो
लोग चेहरे
पढ़ना जानते वे
कह सकते हैं
कि यह
मुस्कूराहट
रंग—रोगन से
ज्यादा नहीं
है, भीतर
उसकी कोई जड़ें
नहीं हैं। यह मुस्कुराहट
बस तुम्हारे
चेहरे पर है, ओंठों पर है,
ऊपरी है। यह
तुम्हारे
प्राणों से
नहीं उठी है। कहीं
उसकी जड़ें नहीं
है और न कहीं उसके
हाथ—पाँव ही है।
वह ऊपर से ओढ़ी
हुई है। वह भीतर
से बाहर नहीं
आई है, वह
बाहर से थोपी
गई है।
तुम
जो भी कहते हो, तुम
जो भी करते हो,
सब नकली है।
यह जरूरी नहीं
है कि तुम यह
नकली व्यापार
जान—बूझकर
करते हो। यह
जरूरी नहीं है।
उसके प्रति
तुम सर्वथा
अनजान भी हो
सकते हो। तुम
अनजान हो।
अन्यथा इस
नकली मूढ़ता को
सतत जारी रखना
बहुत कठिन हो
जाए। यह
व्यापार
स्वचालित है।
यह झूठ चलता
रहता है जब
तुम जागे हुए
हो और यह झूठ
तब भी चलता
रहता है जब
तुम सोए हुए
हो—लेकिन तब
और ढंग से
चलता है।
तुम्हारे
सपने
प्रतीकात्मक
हैं, सच
नहीं। हैरानी
की बात है कि
तुम अपने
सपनों में भी
सच्चे नहीं हो,
तुम अपने
सपनों में भी
भयभीत हो और
तुम प्रतीक
निर्मित करते
हो।
अब
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
सपनों का
विश्लेषण
करता रहता है, यही
उसका धंधा है।
और यह एक भारी
धंधा बन गया
है, क्योंकि
तुम खुद अपने
सपनों का
विश्लेषण नहीं
कर सकते हो।
सपने
प्रतीकात्मक
हैं, वे सच
नहीं हैं। वे
सिर्फ
प्रतीकों के
द्वारा कुछ
कहते हैं। अगर
तुम अपनी मां
की हत्या करना
चाहते हो, उससे
छुटकारा पाना
चाहते हो, तो
तुम सपने में
उसकी हत्या
नहीं करोगे, तुम उसकी
जगह किसी ऐसे
व्यक्ति की
हत्या कर दोगे
जो देखने में
तुम्हारी मां
जैसा हो। तुम
अपनी चाची या
किसी और की
हत्या करोगे,
अपनी मां की
नहीं। तुम
अपने सपने में
भी प्रामाणिक
नहीं हो सकते
हो। यही कारण
है कि मनोविश्लेषण
की जरूरत पड़ती
है, एक
पेशेवर
व्यक्ति की
जरूरत पड़ती है,
जो
तुम्हारे
सपनों की
व्याख्या कर
सके। लेकिन
तुम सपने को
भी इस ढंग से
रख सकते हो कि
मनोविश्लेषण
भी धोखा खा
जाए।
तुम्हारे
सपने भी
सर्वथा झूठे
हैं। लेकिन
अगर तुम जागते
हुए सच्चे रह
सकी तो तुम्हारे
सपने सच हो
सकते हैं, तब
वे
प्रतीकात्मक
नहीं होंगे।
तब अगर तुम
अपनी मां की
हत्या करना
चाहोगे तो तुम
सपने में अपनी
मां की ही
हत्या करोगे,
किसी और की
नहीं। और फिर
व्याख्या
करने वाले की
जरूरत नहीं
होगी जो
तुम्हें बताए
कि तुम्हारे
सपने का अर्थ
क्या है।
लेकिन हम इतने
झूठे हैं, धोखेबाज
हैं कि सपने
के एकांत में
भी संसार से, समाज से
डरते हैं। मां
की हत्या करना
सबसे बड़ा पाप
है। और पता
नहीं, तुमने
कभी इस पर
विचार किया है
कि नहीं कि
मां की हत्या
करना क्यों
सबसे बड़ा पाप
है। यह सबसे
बड़ा पाप कहा
गया है, क्योंकि
प्रत्येक आदमी
मां के प्रति
गहरी शत्रुता
अनुभव करता है।
यह सबसे बड़ा
पाप है और
तुम्हें
सिखाया जाता है,
संस्कारित
किया जाता है
कि मां को चोट
पहुंचाने का
विचार करना भी
पाप है। मां
ने तुम्हें
जन्म दिया है!
सारी दुनिया
में, सभी
समाजों में
यही बात
सिखायी जाती
है। धरती पर
एक भी ऐसा
समाज नहीं है
जो इससे सहमत
न हो कि मां की
हत्या सबसे
बड़ा पाप है।
जिसने
तुम्हें जन्म
दिया उसे ही
तुम मार रहे हो?
लेकिन
यह सिखावन
क्यों? गहरे
में यह
संभावना है कि
प्रत्येक
व्यक्ति अनिवार्यत:
अपनी मां के
विरोध में चला
जाए, क्योंकि
मां ने
तुम्हें
सिर्फ जन्म ही
नहीं दिया, उसने
तुम्हें झूठ
और नकली बनने
के लिए मजबूर
भी किया। तुम
जो भी हो, अपनी
मां के बनाए
हुए हो। अगर
तुम एक नरक हो
तो इसमें
तुम्हारी मां
का बड़ा हाथ है,
सबसे बड़ा
हाथ है। अगर
तुम दुख में
हो तो उस दुख
में कहीं न
कहीं तुम्हारी
मां मौजूद है,
क्योंकि
मां ने
तुम्हें जन्म
दिया,
उसने
तुम्हें पाल—पोसकर
बड़ा किया। या
कहें कि उसने
तुम्हें पाल—पोसकर
नकली कर दिया, उसने
तुम्हें
तुम्हारी
प्रामाणिकता
से हटा दिया।
तुम्हारा
पहला झूठ
तुम्हारे और
तुम्हारी मां
के बीच घटित हुआ—पहला
झूठ।
जब
बच्चे ने
बोलना भी नहीं
सीखा है, उसके
पास भाषा भी
नहीं है, तब
भी वह झूठ बोल
सकता है। देर—
अबेर वह जान
जाता है कि
उसके अनेक भाव
मां को पसंद
नहीं हैं। मां
का चेहरा, उसकी
आंखें, उसका
व्यवहार, उसकी
मुद्रा, सब
बता देते हैं
कि उसकी कुछ
चीजें पसंद
नहीं की जाती
हैं, स्वीकृत
नहीं हैं। और
तब बच्चा दमन
करने लगता है;
उसे लगता है
कि कुछ गलत है।
अभी उसके पास
भाषा नहीं है,
उसका मन
सक्रिय नहीं
है, लेकिन
उसका सारा
शरीर दमन करने
लगता है। और
फिर उसे पता
चलता है कि
कभी—कभी कोई
बात उसकी मां
के द्वारा
सराही जाती है।
और यह बच्चा
मां पर निर्भर
है, उसका
जीवन ही मां
पर निर्भर है।
अगर मां उसे
छोड़ दे तो वह
नहीं जी सकता।
उसका पूरा
जीवन मां में
केंद्रित है।
इसलिए
मा का सब कुछ—उसका
व्यवहार, उसकी
बात, उसका
इशारा—बच्चे
के लिए
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
अगर बच्चा
मुस्कुराता
है और तब मां
उसे प्रेम
देती है, लाड़—दुलार
देती है, दूध
पिलाती है, छाती से लगा
लेती है, तो
समझो कि बच्चा
राजनीति
सीखने लगा। वह
तब भी
मुस्कुराएगा
जब उसके भीतर
मुस्कुराहट
नहीं होगी।
क्योंकि अब वह
जानता है कि
ऐसा करके वह
मां को खुश कर
सकता है। अब
वह झूठी
मुस्कुराहट
मुस्कुराएगा।
अब एक झूठा
व्यक्ति पैदा
हो गया। अब एक
राजनीतिज्ञ
अस्तित्व में
आया। अब वह
जानता है कि
कैसे झूठ हुआ
जाए।
और
यह सब वह अपनी
मां के सत्संग
में सीखता है।
संसार में यह
उसका पहला
संबंध है।
इसलिए जब उसे
अपने दुखों का
पता चलेगा, अपने
नरक का बोध
होगा, उलझनें
घेरेंगी, तब
उसे यह भी पता चलेगा
कि इस सब में
कहीं न कहीं
उसकी मां छिपी
है। और पूरी
संभावना यह है
कि तुम अपनी
मां के प्रति
शत्रुता
अनुभव करो।
यही कारण है
कि सभी
संस्कृतियां
जोर देकर कहती
हैं कि मां की
हत्या जघन्य
पाप है; विचार
में भी, स्वप्न
में भी तुम
मां की हत्या
नहीं कर सकते।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम अपनी मां
की हत्या करो।
मैं केवल यह
कह रहा हूं कि
तुम्हारे स्वप्न
तक झूठे हैं, वे
प्रतीकात्मक
हैं, सच्चे
नहीं। तुम
इतने झूठे हो
कि तुम सच्चा स्वप्न
भी नहीं देख
सकते।
ये
दो तुम्हारे
झूठे चेहरे
हैं। एक चेहरा
तुम्हारे
जागरण में
प्रकट होता है
और दूसरा
तुम्हारी
नींद में। इन
दो झूठे
चेहरों के बीच
एक छोटा सा
द्वार है, एक
छोटा सा
अंतराल है। इस
अंतराल में
तुम्हें अपने
मौलिक चेहरे
की झलक मिल
सकती है—उस
मौलिक चेहरे
की जो तब था जब
तुम मां से
नहीं संबंधित
हुए थे, और
मा के जरिए
समाज से नहीं
जुड़े थे; जब
तुम अपने साथ
अकेले थे, जब
तुम तुम थे—तुम
यह—वह नहीं थे,
जब कोई
विभाजन नहीं
था। केवल सत्य
था, कुछ
असत्य नहीं था।
इन दो
व्यवस्थाओं
के बीच
तुम्हें अपने
उस सच्चे
चेहरे की झलक
मिल सकती है।
साधारणत:
हम अपने सपनों
की चिंता नहीं
लेते, हम
सिर्फ जागते
समय की चिंता
लेते हैं।
लेकिन
मनोविश्लेषण
तुम्हारे
सपनों की ज्यादा
चिंता लेता है,
वह
तुम्हारे
जागरण की
चिंता नहीं
लेता।
क्योंकि वह
समझता है कि
जागे हुए तुम
ज्यादा झूठे
होते हो।
तुम्हारे
सपनों से कुछ पकड़ा
जा सकता है।
जब तुम सोए होते
हो तो कम सजग होते
हो, तुम कुछ
आरोपित नहीं करते,
तब तुम
तोडते—मरोड़ते
नहीं। उस
अवस्था में
कुछ सत्य पकड़ा
जा सकता है।
तुम
जागते हुए
ब्रह्मचारी
हो सकते हो, साधु
हो सकते हो।
लेकिन तुमने
अपनी
कामवासना को
दबा रखा है।
वह दबी हुई
कामवासना
तुम्हारे स्वप्नों
में अभिव्यक्त
होगी; तुम्हारे
सपने कामुक
होंगे। ऐसा
साधु खोजना
कठिन है जो
कामुक सपने न
देखता हो। यह
असंभव है।
तुम्हें
कामुक सपनों
के बिना
अपराधी तो मिल
जाएंगे, लेकिन
ऐसा धार्मिक
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
कामुक सपने न
देखता हो। एक
व्यभिचारी
कामुक सपनों
के बिना हो
सकता है, लेकिन
तथाकथित साधु—महात्मा
कामुक सपनों
के बिना नहीं
हो सकते।
क्योंकि तुम
जागते हुए
जिसे दबाओगे,
वह
तुम्हारे
सपनों में
उभरकर आएगा, वह तुम्हारे
सपनों को
प्रभावित
करेगा।
मनोचिकित्सक
तुम्हारे
जागरण की
फिक्र नहीं करते
हैं,
क्योंकि वे
जानते हैं कि
वह बिलकुल
झूठा है। अगर
कुछ सच्चा, कुछ यथार्थ
देखना हो तो वह
केवल सपनों
में देखा जा
सकता है।
लेकिन
तंत्र कहता है
कि सपने भी
उतने सच नहीं हैं।
हालांकि
जागरण की
तुलना में वे
ज्यादा सच हैं—यह
पहेली सी
मालूम होगी, क्योंकि
हम सपनों को
असत्य मानते
हैं—वे जागरण
की घड़ियों की
बजाय ज्यादा
सच हैं।
क्योंकि
सपनों में तुम
अपने पहरे पर
कम होते हो, नींद में
सेंसर सोया
रहता है, और
दमित चीजें
ऊपर आ सकती
हैं, अपने
को अभिव्यक्त
कर सकती हैं।
ही, यह
अभिव्यक्ति
प्रतीकात्मक
होगी, पर
प्रतीकों को
समझा जा सकता
है।
सारी
दुनिया में
मनुष्य के
प्रतीक समान
हैं। जागते
हुए तुम भिन्न
भाषा बोल सकते
हो,
लेकिन सपने
में तुम वही
भाषा बोलते हो
जो सारे लोग
बोलते हैं।
सारी दुनिया
की स्वप्न—
भाषा एक है।
अगर कामवासना
दबाई गई है तो
दुनियाभर में
एक ही तरह के
प्रतीक उसे अभिव्यक्त
करेंगे। अगर
भोजन की इच्छा
को दबाया गया
है, भूख को
दमित किया गया
है तो उसे भी
सपने में
सर्वत्र एक ही
तरह के प्रतीक
अभिव्यक्त
करेंगे।
स्वप्न— भाषा
एक है। लेकिन
प्रतीकों के
कारण ही स्वप्नों
के साथ एक
दूसरी कठिनाई
है। फ्रायड
उनका अर्थ एक
ढंग से कर
सकता है, दा
उनका अर्थ
भिन्न ढंग से
कर सकता है और
एडलर उनका
अर्थ और भी
भिन्न ढंग से
कर सकता है।
अगर सौ
मनोविश्लेषक
तुम्हारा
विश्लेषण
करें तो वे सौ
व्याख्याएं
करेंगे। और
तुम पहले से
भी ज्यादा
उलझन में पड़
जाओगे। एक ही
चीज की सौ
व्याख्याएं
तुम्हें और भी
भ्रांत कर
देंगी।
तंत्र
कहता है, तुम न
जागते हुए सच
हो और न सोते
हुए सच हो, तुम
इन दो
अवस्थाओं के
बीच में कहीं
सच हो। इसलिए
न जागरण की
फिक्र करो और
न नींद और
स्वप्न की, सिर्फ
अंतराल की
फिक्र करो। उस
अंतराल के
प्रति जागो।
एक से दूसरी
अवस्था में
गुजरते हुए इस
अंतराल का
दर्शन करो। और
एक बार तुम
जान जाते हो
कि. यह अंतराल
कब आता है, तुम
उसके मालिक हो
जाते हो। तब
तुम्हें
कुंजी मिल गई,
तुम किसी भी
वक्त उस
अंतराल को
खोलकर उसमें
प्रवेश कर
सकते हो। तब
होने का एक
भिन्न आयाम, एक नया आयाम
खुलता है।
आत्म—स्मरण
की चौथी और
अंतिम विधि :
भ्रांतियां
छलती हैं रंग
सीमित करते
हैं विभाज्य
भी अविभाज्य
हैं।
यह
एक दुर्लभ
विधि है जिसका
प्रयोग बहुत
कम हुआ है।
लेकिन भारत के
एक महानतम
शिक्षक
शंकराचार्य ने
इस विधि का
प्रयोग किया
है। शंकर ने
तो अपना पूरा
दर्शन ही इस
विधि के आधार
पर खड़ा किया।
तुम उनके माया
के दर्शन को
जानते हो।
शंकर कहते हैं
कि सब कुछ
माया है। तुम
जो भी देखते, सुनते
या अनुभव करते
हो, सब
माया है। वह
सत्य नहीं है,
क्योंकि
सत्य को
इंद्रियों से
नहीं जाना जा
सकता।
तुम
मुझे सुन रहे
हो और मैं
देखता हूं कि
तुम मुझे सुन
रहे हो, हो
सकता है कि यह
सब स्वप्न
हो। यह स्वप्न
है या नहीं, यह तय करने
का कोई उपाय
नहीं है। हो
सकता है कि मैं
स्वप्न देख
रहा हूं कि
तुम मुझे सुन
रहे हो। यह
मैं कैसे जान
सकता हूं कि
यह स्वप्न
नहीं, सत्य
है? कोई
उपाय नही है।
च्चांगत्सु
के बारे में
कहा जाता है
कि एक रात
उसने स्वप्न
देखा कि वह
तितली हो गया
है। सुबह
जागने पर वह
बहुत दुखी था—और
वह दुखी होने
वाला व्यक्ति
नहीं था, लोगों
ने कभी उसे
दुखी नहीं
देखा था। उसके
शिष्य इकट्ठे
हुए और
उन्होंने
पूछा गुरुदेव,
आप इतने
दुखी क्यों
हैं?
च्चांगत्सु
ने बताया कि
एक सपने के
कारण मैं दुखी
हूं। उसके
शिष्यों ने
कहा कि हैरानी
की बात है कि आप
सपने के कारण
दुखी हैं!
आपने तो हमें
सदा यही
सिखाया कि यदि
सारा संसार भी
दुख देने आए तो
दुखी मत होना।
और एक सपने के
कारण आप दुखी
हैं?
आप क्या कह
रहे हैं? च्चांगत्सु
ने कहा कि यह
सपना ही ऐसा
है कि इससे
मैं बहुत उलझन
में पड़ गया
हूं और इसलिए
दुखी हूं।
मैंने सपना
देखा कि मैं
तितली हो गया
हूं।
शिष्यों
ने पूछा कि
इसमें हैरानी
की बात क्या
है?
च्चांगत्सु
ने कहा कि
दिक्कत यह है
कि अगर च्चांगत्सु
सपना देख सकता
है कि मैं
तितली हो गया
हूं तो इससे
उलटा भी हो
सकता है, तितली
सपना देख सकती
है कि मैं
च्चांगत्सु
हो गयी हूं।
यही कारण है
कि मैं परेशान
हूं कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है? क्या
च्चांगत्सु
ने सपना देखा
था कि वह
तितली हो गया
है या कि
तितली सोने
चली गई और
उसने सपना
देखा कि वह
च्चांगत्सु
हो गई है? अगर
एक बात हो
सकती है तो
दूसरी भी हो
सकती है।
और
कहा जाता है
कि
च्चांगत्सु
को जीवनभर इस
पहेली का हल न
मिला, यह सदा
उसके साथ रही।
यह
कैसे तय हो कि
मैं जो अभी
तुमसे बात कर
रहा हूं वह
सपने में नहीं
कर रहा हूं? यह
कैसे तय हो कि
तुम सपना नहीं
देख रहे हो कि
मैं बोल रहा
हूं? इंद्रियों
से कोई निर्णय
संभव नहीं है,
क्योंकि
सपना देखते
हुए सपना
यथार्थ मालूम
पड़ता है—उतना
ही यथार्थ
जितना कुछ भी
दूसरा यथार्थ
मालूम होता है।
जब तुम सपना
देखते हो तो
तुम्हें वह
सदा सच्चा
मालूम पड़ता है।
और जब सपने को
सच की तरह
देखा जा सकता
है तो क्यों
सच को सपने की
तरह नहीं देखा
जा सकता है?
शंकर
कहते हैं कि
इंद्रियों से
यह जानना संभव
नहीं है कि जो
चीज तुम्हारे
सामने है वह
सच है या स्वप्न।
और जब जानने
का उपाय ही
नहीं है कि वह
सच है या झूठ
तो शंकर। उसे
माया कहते हैं।
माया
का अर्थ झूठ
नहीं है, माया
का अर्थ है कि
यह निर्णय
करना असंभव है
कि वह सच है या
झूठ। इस बात
को स्मरण रखो।
पश्चिम की
भाषाओं में
माया का गलत
अनुवाद हुआ है,
पश्चिम की
भाषाओं में
माया शब्द
अयथार्थ या झूठ
का अर्थ रखता
है। यह अर्थ
सही नहीं है।
माया का इतना
ही अर्थ है कि
यह निश्चय
नहीं हो सकता
है कि कोई चीज
यथार्थ है कि
अयथार्थ। यह
उलझन माया है।
यह
सारा जगत माया
है। जुम उसके
संबंध में
निश्चित नहीं
हो सकते, कुछ
भी
निर्णयपूर्वक
नहीं कह सकते।
यह जगत निरंतर
तुमसे छूट—छूट
जाता है, निरंतर
बदल जाता है, कुछ से कुछ
हो जाता है।
यह इंद्रजाल
सा लगता है, स्वप्नवत
लगता है। और
यह विधि इसी
दृष्टि से
संबंधित है।
'भ्रांतियां
छलती हैं।’
या
जो चीज छले वह
भांति है।
'रंग सीमित
करते हैं, विभाज्य
भी अविभाज्य
हैं।’
इस
माया के जगत
में कुछ भी
निश्चित नहीं
है। सारा जगत
इंद्रधनुष के
समान है, वह
भासता है, लेकिन
है नहीं। जब
तुम उससे बहुत
दूर होते हो तो
वह है, जब
करीब जाते हो
तो वह खोता
जाता है।
जितना करीब
जाओगे उतना ही
वह खोता जाएगा।
और अगर तुम उस
बिंदु पर
पहुंच जाओ
जहां इंद्रधनुष
दिखाई पड़ता था
तो वह बिलकुल
खो जाएगा।
सारा
जगत
इंद्रधनुष के
रंगों जैसा है।
और सच्चाई यही
है। जब तुम
दूर होते हो, सब
कुछ आशापूर्ण
दिखाई देता है,
जब तुम करीब
आते हो, आशा
खो जाती है।
और जब तुम
मंजिल पर
पहुंच जाते हो,
तब तो राख
ही राख बचती
है। मृत
इंद्रधनुष
बचता है जिसके
सब रंग उड़ गए
हैं, कुछ
भी वैसा नहीं
है जैसा दिखता
था। जैसा
तुमने चाहा था
वैसा कुछ भी
नहीं है।’विभाज्य
भी अविभाज्य
हैं।’
तुम्हारा
सब गणित, तुम्हारा
सब हिसाब—किताब,
तुम्हारी
सब धारणाएं, तुम्हारे सब
सिद्धात—सब
कुछ व्यर्थ हो
जाते हैं। अगर
तुम इस माया
को समझने की
चेष्टा करोगे
तो तुम्हारी
चेष्टा ही
तुम्हें और
भ्रांत कर देगी।
वहा कुछ भी
निश्चित नहीं
है, सब कुछ
अनिश्चित है। जगत
एक प्रवाह है,
परिवर्तनों
का प्रवाह, और तुम्हारे
लिए यह तय
करने का कोई
उपाय नहीं है
कि क्या सच है
और क्या सच
नहीं है।
इस
हालत में क्या
होगा? अगर
तुम्हारी ऐसी
दृष्टि हो तो
क्या होगा? अगर यह
दृष्टि
तुममें गहरी
उतर जाए कि
जिस चीज के
संबंध में
निश्चय नहीं हो
सके वह माया
है तो तुम
अपने ही आप, सहजता से
अपनी तरफ मुड़
जाओगे। तब
तुम्हें अपना
केंद्र सिर्फ
अपने भीतर खोजना
होगा। वही
एकमात्र
सुनिश्चितता
है।
इसे
इस तरह समझने
की कोशिश करो।
रात में मैं
स्वप्न देख
सकता हूं कि
मैं तितली बन
गया हूं और
मैं स्वप्न
में तय नहीं
कर सकता कि यह
सच है या झूठ।
और अगली सुबह मैं
च्चांगत्सु
की तरह उलझन
में पड़ सकता
हूं कि अब
कहीं तितली ही
यह सपना तो
नहीं देख रही
है कि वह
च्चांगत्सु
हो गई है!
अब
ये दो सपने
हैं और तुलना
का कोई उपाय
नहीं है कि
इनमें कौन सच
है और कौन झूठ।
लेकिन
च्चांगत्सु
एक चीज चूक
रहा है—वह है स्वप्न
देखने वाला।
वह केवल सपनों
की सोच रहा है, उनकी
तुलना कर रहा
है, और स्वप्न
देखने वाले को
चूक रहा है। वह
उसे चूक रहा
है जो सपना
देखता है कि
च्चांगत्सु
तितली बन गया
है। और वह उसे
चूक रहा है जो
विचार करता है
कि बात बिलकुल
उलटी भी हो
सकती है—कि
तितली सपना
देख रही हो कि
वह
च्चांगत्सु
हो गई है। यह
देखने वाला
कौन है? द्रष्टा
कौन है? कौन
है वह जो सोया
हुआ था और अब
जागा हुआ है?
तुम
मेरे लिए
असत्य हो सकते
हो,
तुम मेरे
लिए स्वप्न हो
सकते हो, लेकिन
मैं अपने लिए
स्वप्न नहीं
हो सकता।
क्योंकि
स्वप्न के
होने के लिए
भी एक सच्चे स्वप्न
देखने वाले की
जरूरत है।
झूठे स्वप्न
के लिए भी
सच्चे स्वप्नदर्शी
की जरूरत है।
स्वप्न भी
सच्चे स्वप्नदर्शी
के बिना नहीं
हो सकता है।
तो स्वप्न को
छोड़ो।
यह
विधि कहती है.
स्वप्न को भूल
जाओ। सारा जगत
माया है, तुम
माया नहीं हो।
तुम जगत के
पीछे मत भागों,
क्योंकि वहां
सुनिश्चित
होने की कोई
संभावना नहीं
है कि क्या
सत्य है और
क्या असत्य।
और अब तो
वैज्ञानिक
शोध से भी यह
बात सिद्ध हो चुकी
है।
पिछले
तीन सौ वर्षों
तक विज्ञान
सुनिश्चित था
और शंकर एक
दार्शनिक, एक
कवि मालूम
पड़ते थे। तीन
सदियों तक
विज्ञान
असंदिग्ध था,
सुनिश्चित
था, लेकिन
पिछले दो
दशकों से
विज्ञान का
निश्चय अनिश्चय
में बदल गया
है। अब बड़े से
बड़े
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कुछ भी निश्चित
नहीं है और
पदार्थ के साथ
हम कभी निश्चित
नहीं हो सकते।
सब कुछ पुन:
संदिग्ध हो
गया है। सब
कुछ
प्रवाहमान, बदलता हुआ
मालूम पड़ता है।
बाहरी रूप—रंग
ही निश्चित
मालूम पड़ता है,
लेकिन जैसे—जैसे
तुम उसमें
गहरे जाते हो,
सब
अनिश्चित
होता जाता है,
सब धुंधला—
धुंधला होता
जाता है।
शंकर
कहते हैं—और
तंत्र ने सदा
कहा है—कि जगत
माया है। शंकर
के जन्म के
पहले भी तंत्र
इस विधि का
उपयोग करता था
कि जगत माया
है,
उसे स्वप्नवत
समझो। और अगर
तुमने इसे
माया समझा—और
यदि तुमने जरा
भी ध्यान दिया
तो तुम जानोगे
ही कि यह माया
है—तो
तुम्हारी
चेतना का पूरा
तीर भीतर की
ओर मुड़ जाएगा,
क्योंकि
सत्य को जानने
की अभीप्सा
प्रगाढ़ है।
अगर
सारा जगत
अयथार्थ है, असत्य
है, तो
उसमें कोई आश्रय
नहीं मिल सकता
है। तब तुम
छायाओं के
पीछे भाग रहे
हो; अपने
समय, शक्ति
और जीवन का
अपव्यय कर रहे
हो। अब भीतर
की तरफ चलो, क्योंकि एक
बात तो
निश्चित है.
कि मैं हूं।
यदि सारा जगत
भी माया है तो
भी एक चीज
निश्चित है कि
कोई है जो
जानता है कि
यह माया है।
ज्ञान भ्रांत
हो सकता है, ज्ञेय
भ्रांत हो
सकता है, लेकिन
ज्ञाता
भ्रांत नहीं
हो सकता। यही
एकमात्र
निश्चय है, एकमात्र
चट्टान —है, जिस पर तुम
खडे हो सकते
हो।
यह
विधि कहती है :
संसार को देखो; यह
स्वप्नवत
है, माया
है, वैसा
बिलकुल नहीं
है जैसा भासता
है। यह बस
इंद्रधनुष
जैसा है। इस
भाव की गहराई
में उतरो और
तुम अपने पर
फेंक दिए
जाओगे। और
अपने अंतस पर
आने के साथ—साथ
तुम निश्चय को,
सत्य को, असंदिग्ध को,
परम को
उपलब्ध हो
जाते हो।
विज्ञान
कभी परम तक
नहीं' पहुंच
सकता, वह
सदा सापेक्ष
रहेगा। सिर्फ
धर्म परम को उपलब्ध
हो सकता है। क्योंकि
धर्म स्वप्न
को नहीं,स्वप्नदर्शी
को खोजता है। धर्म
दृश्य को नहीं,
द्रष्टा को
खोजता है।
धर्म उसे
खोजता है जो
चिन्मय है।
आज
इतना ही।
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