चार महावाक्य—(प्रवचन—एक)
'प्यारे
ओशो।
पैंगल
उपनिषद्केअनुसार
चार महावाक्य
है।
पहला: तत्वमसि,
वह तू है;
दूसरा: त्वं
तदसि, तू वह
है;
तीसरा: त्वं
ब्रह्मास्मि,
तू ब्रह्म है; और
चौथा : अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं।
प्यारे
ओशो! इस
महावाक्यों
के अर्थ और
अर्थभेद
बताने की
अनुकंपा करें।
चिदानंद!
उपनिषद्
सद्गुरु और
शिष्य के बीच
शून्य में हुआ
संवाद है। आंखों
आंखों में बात
हो गयी है।
हृदय ने हृदय
पर गीत गाया
है। न तो गुरु
ने कुछ कहा है
और न शिष्य ने
कुछ सुना है, फिर
भी गुरु ने सब
कह दिया है और
शिष्य ने सब
सुन लिया है।
गुरु
के साथ तीन
प्रकार के
संबंध हो सकते
हैं—विद्यार्थी
का;
तब गुरु
केवल शिक्षक
होता है। वहां
वाणी आवश्यक
है। संवाद
जरूरी है।
क्योंकि बात
बुद्धि से
बुद्धि तक
होगी। वह सबसे
ऊपरी नाता है।
विद्यार्थी
जिज्ञासु है,
मुमुक्षु
नहीं। जानना
चाहता है, होना
नहीं। होने के
लिए तो न—होने
की तैयारी
चाहिए। जानने
में कुछ कीमत
चुकानी नहीं
पड़ती।
जानकारी
इकट्ठी करके
और भी अहंकार
को रस आता है।
जैसे—जैसे
जानकारी बढ़ती
वैसे—वैसे
अहंकार और
परिपुष्ट
होता है।
इसीलिए तो
उपनिषद् कहते
हैं कि अज्ञान
तो थोड़ा ही
भटकाता है, ज्ञान बहुत
भटका देता है।
अज्ञान ले
जाता है
अंधकार में, ज्ञान ले
जाता है
महाअंधकार
में।
उपनिषद्
अनूठे हैं।
पृथ्वी पर
कहीं भी किसी
काल,
किसी देश
में वैसी
अपूर्व घटना
नहीं घटी है।
गुरु
और शिष्य के
बीच यह जो
पहला नाता है, इसमें
उपनिषद्
निर्मित नहीं
होते।
शास्त्र बन
सकते हैं, तर्क
निर्मित हो
सकता है, दर्शन
स्थापित हो
सकता है, लेकिन
बात ऊपर—ऊपर
की ही रहेगी, भीतर की
नहीं हो सकती।
दूसरा
नाता है : गुरु
और शिष्य के
बीच शिष्यत्व
का।
विद्यार्थी
अब केवल पूछने
में उत्सुक
नहीं है; प्रश्न
ही नहीं है, अब
विद्यार्थी
स्वयं प्रश्न
बन गया। अब
जानकारी
इकट्ठी नहीं
करनी है। अब
जानना है। और
जो भी कीमत
चुकानी पड़े, चुकाने की
तैयारी है।
जानने में मिट
भी जाना पड़े
तो भी पीछे
पैर नहीं
लौटेंगे।
इतने साहस से
ही
विद्यार्थी
का रूपांतरण
शिष्य में
होता है।
इसलिए
नानक ने अपने
सत्संगियों
को सिक्ख कहा।
वह पंजाबी
रूपांतरण है
शिष्य का।
शिष्य
के साथ ही
धर्म की
शुरुआत है।
विद्यार्थी
दर्शन के जंगल
में भटकता, शब्दों
के जाल में
अटकता, शिष्य
सुलझने लगता,
राह पाने
लगता है। राह
प्रेम की है, भटकाव तर्क
का है। उलझाव
बुद्धि का है,
सुलझाव
हृदय का है।
जब ऊर्जा
बुद्धि से
हृदय में
प्रवेश करती
है तो
विद्यार्थी
रूपांतरित
होता है। उसके
भीतर आत्मक्रांति
घटित होती है।
वह शिष्य होता
है। शिष्य और
गुरु के बीच
पहली बार कुछ
सार्थक जन्म
पाता है। उसके
पहले तो
बातचीत ही
बातचीत थी।
उसके पहले तो
संभाषण था, अब कुछ
गहराई में
उतरना हुआ। अब
चले उस
प्रगाढ़ता की
तरफ जैसे नमक
का पुतला सागर
में डुबकी
मारे थाह का
पता लगाने को,
थाह मिलते—मिलते
खुद भी खो जाए;
थाह मिले
लेकिन खुद न
बचे। शिष्य
करीब सरकने
लगा —गुरु के।
कुछ—कुछ—दूर
जैसे कोयल
बोले, ऐसे
गुरु की बात
समझ में आनी
शुरू होगी।
शब्द अब भी
गुरु बोलेगा,
लेकिन
शिष्य अब
शब्दों के बीच
में जो खाली
जगह है वह
सुनेगा। वह जो
विराम है, वह
जो विश्राम है,
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो उठेगा।
शब्द उसको
उभारने के काम
में आएंगे।
शब्द उसे
पृष्ठभूमि
देंगे। अभी
शब्दों की
जरूरत रहेगी,
लेकिन बड़ी
बदली हुई
जरूरत।
विद्यार्थी
सिर्फ शब्द को
सुनता था, लकीरों
को पढ़ता था, शिष्य
शब्दों के बीच
में जो शून्य
है, उसे
सुनता है; पंक्तियों
के बीच में जो
रिक्त स्थान
है, उसे
सुनता है।
गुरु क्या
कहता है, यह
कम
महत्वपूर्ण
है, गुरु
क्या है, यह
ज्यादा
महत्त्वपूर्ण
होने लगता है।
यह नाता प्रेम
का है। यह
मामला तर्क, समझ, गणित
के पार गया।
इसलिए
विद्यार्थी
तो दुनिया में
सब जगह हुए हैं—स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय
विद्यार्थियों
से भरे हुए
हैं—लेकिन
शिष्य कभी—कभी
हुए हैं। किसी
जीसस के पास, किसी बुद्ध
के पास, किसी
नानक के पास, किसी कबीर
के पास, शिष्य
कभी—कभी हुए
हैं। शिष्य
होने के लिए
अहंकार को
छोड़ने का साहस
चाहिए।
क्योंकि जब तक
अहंकार है तब
तक प्रेम नहीं।
और
तीसरा जो संबंध
है गुरु और
शिष्य के बीच
उसे संबंध भी
कैसे कहें? क्योंकि
जहां दो न
बचें वहां
कैसा संबंध? मगर वही परम
संबंध है।
विद्यार्थी
से जो यात्रा
शुरू हुई थी, वह उसी परम
संबंध पर जाकर
समाप्त होती
है। शिष्य का
तो पड़ाव है।
इसलिए तीसरा
जो रूप है, वह
भक्त का है।
विद्यार्थी
बाहर—बाहर, परिधि
पर, भक्त
केन्द्र पर; दोनों के
मध्य में
शिष्य।
शिष्य
को शब्दों की
जरूरत होती है—विद्यार्थी
को सिर्फ
शब्दों की
जरूरत होती है, शिष्य
को शब्दों की
और शब्दों के
साथ शून्य की
जरूरत होती है।
भक्त को
शब्दों की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती, शून्य
पर्याप्त
होता है।
उपनिषद्
प्रारंभ होता
है शिष्य के
साथ और पूर्ण
होता है भक्त
के साथ।
बुद्धि
विद्यार्थी
बनाती है, हृदय
शिष्य बनाता
है और हृदय
शिष्य से भी
गहरा जो
तुम्हारे
प्राणों का भी
प्राण है, तुम्हारी
आत्मा है, वह
भक्त बनाती है।
भक्त का संबंध
आत्मीय है। संबंध
नहीं कहना
चाहिए।
मजबूरी है
भाषा की, इसलिए
संबंध कह रहा
हूं। दो तो
मिट गये, दुई
गयी, अब तो
न गुरु है न
शिष्य है, एक
सन्नाटा है, एक शून्य है,
जिसमें
दोनों लीन हैं।
और तभी असली
गुफ्तगू है।
वहीं उपनिषद्
घटे हैं।
उपनिषदों
में सच में ही
महावाक्य हैं।
महावाक्य
कहते हैं, उन
वाक्यों को जो
महाशून्य में
घटे हों।
अनुकंपा है कि
किन्हीं ने
उन्हें
संकलित कर लिया
है।
ये
चारों
महावाक्य बड़े
महत्वपूर्ण
हैं। पहले तीन
गुरु ने शिष्य
से कहे हैं; चौथा,
शिष्य समझा
है—गुरु ने जो
कहा है, उसे
जीया है, पहचाना
है और अपनी
पहचान की उद्घोषणा
की है। चौथा
वक्तव्य
शिष्य का है।
तीन वक्तव्य
गुरु के हैं।
तीन में गुरु
तैयारी करवा
रहा है, चौथे
में शिष्य ने
उद्घोषणा की
अपनी तैयारी की।
पहला
है :
तत्त्वमसि, वह
तू है। दूसरा :
त्वं तदसि, तू वह है।
तीसरा : त्वं
ब्रह्मास्मि,
तू ब्रह्म
है। और चौथा : अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं। तीन गुरु
के द्वारा कहे
गये वचन हैं—सीढ़ियां—चौथा
मंदिर में
प्रवेश है। जो
चला था खोजी, वह आ गया
मंजिल पर।
मंजिल पर आने
की घोषणा की
है उसने गुरु
को। यह उसका
निवेदन है
गुरु के चरणों
में कि जो आपने
कहा था, जाना,
चखा, पीया,
हुआ। अहं
ब्रह्मास्मि।
मैं ब्रह्म
हूं।
फिर
ये जो तीन
पहले वचन हैं, इनमें
भी क्रम है।
पहला :
तत्त्वमसि, वह तू—जोर है
वह पर, ताकि
तू मिट सके।
तू को मिटाना
है। जितना तू
गलेगा, जितना
तू मिटेगा, उतना वह
विराट होगा, प्रगट होगा
प्रखर रूप से,
उद्घाटित
होगा, अनावृत
होगा। तू में
आच्छादित है।
तू को हटाना
है, ताकि
उसे निर्बाध
जाना जा सके।
इसलिए पहला
सूत्र है :
तत्त्वमसि, वह तू है।
याद रख, वह
है, असली
वह है, तू
तो बस छाया है!
तू उसकी छाया,
उसका
प्रतिबिंब! वह
आकाश में ऊगा
पूर्णिमा का चांद,
तू झील में
बनी उसकी झाई,
परछाईं! जोर
वह पर है।
जब
गुरु देखता है
कि बात समझ
में आ गयी, तू
खो गया, वह
ही शेष रहा, तब दूसरे
महावाक्य की
उद्घोषणा है :
त्वं तदसि, तू वह है। अब
जोर तू पर है।
क्योंकि जब तू
न रहा, तो
वही रहा। जब
तू न रहा तो अब
उसके सिवाय और
क्या बचा? तो
कहीं भ्रांति
न हो जाए कि
मुझे छोड़कर
और सब ब्रह्म
है, उस
भ्रांति को न
बनने देने के
लिए दूसरा
महावाक्य है
कि मत घबड़ा; अब तू नहीं
है
इसलिए
इस योग्य हुआ
है कि तुझसे
कहा जा सकता है
कि तू भी वही
है। चिंता न
कर,
यूं न सोच
कि और सब
परमात्मा हैं
मुझे छोड़कर।
जब सब वही है, तो तू भी सब
में सम्मिलित
है। सम्मिलित
ही नहीं है, अब यह भी कहा
जा सकता है कि
तू प्रथम है।
क्योंकि सारी
यात्रा अपने
से ही शुरू
होगी। यह जरा
बारीक और
नाजुक बात है,
सूक्ष्म है।
जब तू मिट जाए
तो फिर तू की
बात की जा
सकती है। फिर
कोई अड़चन नहीं
है, फिर
कुछ हर्जा
नहीं है। त्वं
तदसि, तू
वह है।
लेकिन
अभी इन दोनों
महावाक्यों
में वह शब्द का
प्रयोग हुआ है।
वह शब्द दूरी
का प्रतीक है!
जैसे हम
किन्हीं वस्तुओं
की बात कर रहे
हों,
तटस्थ, जैसे
अभी जीवंत
ब्रह्म की बात
नहीं छेड़ी, अभी थोड़ी—सी
दूरी बचाये
रखी है—कहीं
भी कोई खतरा न
हो जाए। गुरु
तो फूंक—फूंककर
कदम रखता है।
खतरे की बहुत
संभावना है।
क्योंकि हम
सदियों—सदियों
से, जन्मों—जन्मों
से भांति में
जीये हैं। हम
भ्रांतियों
में लिपटे हैं।
हमारे रोएं—रोएं
में भांति
समायी हुई है।
हमें धोना है,
निखारना है,
साफ करना है
गुरु को। कबीर
ने कहा है कि
गुरु तो रंगरेज
है। मगर इसके
पहले कि वह
रंगे, सफाई
करेगा, धोका,
निखारेगा, गंदगी
वस्त्र की दूर
करेगा। साफ—स्वच्छ
हो जाए वस्त्र
तो ही रंगा
जाए; तो ही
रंग अपनी
परिपूर्णता
में प्रगट
होंगे।
जब
ये दो बातें
पूरी हो गयीं, यह
बात साफ हो
गयी कि शिष्य
समझ गया कि वह
नहीं है, स्वयं
नहीं है, अस्तित्व
है, तो
उससे दूसरी
बात कही कि भय
मत कर, तू
भी वह
अस्तित्व है।
मगर अभी वह का
प्रयोग किया
जा रहा है। जब
यह भी बात समझ
में आ गयी कि
अस्तित्व, वह
सब कुछ है, तो
अब बात को
गहराया जा
सकता है, थोड़ा
और—अब थोडा और
भी
सूक्ष्मातिसूक्ष्म
में प्रवेश कराया
जा सकता है।
त्वं
ब्रह्मास्मि।
वह ही नहीं है
तू ब्रह्म भी
तू है।
ब्रह्म
का अर्थ होता
है अब हमने वह
को व्यक्तित्व
दिया। वह को
चेतना दी, वह
को जीवन दिया।
अब वह कोई
वस्तु न रही, कोई मंदिर
की प्रतिमा न
रही, अब
तटस्थ रह३ की
कोई जरूरत न
रही, अब
तैयारी इतनी
है कि हम उसको
व्यक्ति की
भाति स्वीकार
कर सकते हैं।
अब उसे
निर्विकार, निराकार, ऐसा कहने की
कोई जरूरत
नहीं है; वह
तो खतरा था
तुम्हारे साथ।
अगर पहले यह
कहा जाता तो
मंदिर की मूर्ति
की पकड जाती।
अगर पहले
तुमसे कहा
जाता. त्वं
ब्रह्मास्मि,
कि तुम
ब्रह्म हो, तो बड़ी अकड़ आ
जाती। तब तो
आति होनेवाली
थी। लेकिन कम
से, आहिस्ता—आहिस्ता,
नेति—नेति,
धीरे—धीरे;
जैसे कि मूर्तिकार
मूर्ति को
गढता है; छेनी
उठाकर धीरे—
धीरे पत्थर को
तोड़ता है, जो—जो
अनावश्यक है,
अलग करता
जाता है, तब
जो प्रगट हो
जाती है—मूर्ति।
ऐसे तो वह
छिपी ही पड़ी थी,
पत्थर में
छिपी थी, लेकिन
अनावश्यक से
जुड़ी थी।
अनावश्यक अलग
हो गया, अब
शतइr अपनी
प्रगाढ़ता में
प्रगट हो गयी
है। अब मूर्ति
बन सकती है।
अब हम वह शब्द
का प्रयोग न
करें, अब
अस्तित्व
कहना उचित
नहीं, अब
प्रकृति कहना
उचित नहीं। अब
परमात्मा को,
अस्तित्व
शब्द को लाया
जा सकता है।
देखना, कितनी
समझपूर्वक एक—एक
सूत्र आगे बढ
रहा है! इससे
नास्तिक भी
बेचैन नहीं
होगा। दो
सूत्रों से तो
नास्तिक भी
राजी हो जाएगा।
अस्तित्व के
सूत्र हैं, परमात्मा की
बात ही नहीं
उठायी है अभी।
तार्किक भी
राजी हो जाएगा।
क्योंकि
अस्तित्व तो
है, यह तो
दिखायी ही पड़
रहा है, और
मैं भी
अस्तित्व हूं
सभी कुछ
अस्तित्व है।
अस्तित्व
यानी समग्रता
का नाम।
इन
दो सूत्रों से
कार्ल
मार्क्स को
एतराज नहीं
होगा, चार्वाकों
को एतराज नहीं
होगा, इपीकुरस
को एतराज नहीं
होगा; पदार्थवादी
को, विज्ञानवादी
को, भौतिकवादी
को, किसी
को एतराज नहीं
होगा। और
प्रथमत: सभी
लोग वहीं हैं,
उसी अवस्था
में हैं।
तीसरा
सूत्र तो केवल
उससे कहा जा
सकता है, जिसने
दो सूत्र पूरे
कर लिये हों।
त्वं
ब्रह्मास्मि।
अब गुरु
आहिस्ता से कहता
है : अब तू पते
की बात सुन, अस्तित्व
कोई जड़
पदार्थमात्र
नहीं है, ब्रह्म
है, चिदानंद
है, चैतन्य
है। त्वं
ब्रह्मास्मि
का अर्थ हुआ :
तू शरीर नहीं है,
तू मन नहीं
है, तू
आत्मा है।
ये
तीन घोषणाएं
गुरु की। फिर
गुरु
प्रतीक्षा
करता है। जब
शिष्य समझ
लेता है—और
समझ का यहां
अर्थ होता है :
जब पी लेता है, जब
डोलने लगता है,
जब मस्ती
में आ जाता है—तब
उसके भीतर
उद्घोष होता
है—वह उद्घोष
करता नहीं, उद्घोष होता
है—अहं
ब्रह्मास्मि;
अनलहक; मैं
ब्रह्म हूं।
इन्हें
महावाक्य कहा
है,
क्योंकि इन
चार वाक्यों
में सब
शास्त्र आ जाते
हैं। कुछ शेष
नहीं बचता।
क्या शेष बचा
अब और?
लेकिन
शर्तें समझ लेना।
मैं जाए, तो ही
संभावना है यह
जानने की कि
मैं कौन हूं।
मैं जाए तो ही
ब्रह्म आये।
और फिर अदभुत
अवस्था हो
जाती है..।
सहजानंद
ने पूछा है कि
संन्यास
उपनिषद् में
यह श्लोक
मिलता है। यह
श्लोक,प्यारे
ओशो! बड़ा
अटपटा है। यह
कैसी आराधना
है? क्या
इसका
अभिप्रेत हमें
बताने की कृपा
करेंगे..?
अगर
तुमने ये
चिदानंद का
पहला प्रश्न
समझा तो दूसरे
प्रश्न का
अर्थ अपने आप
प्रगट हो
जाएगा।
संन्यास
उपनिषद् में
यह अपूर्व
श्लोक है।
निश्चित
अटपटा लगता है।
क्योंकि वे
चार महावाक्य
अभी पूरे नहीं
हुए तो अटपटा
लगेगा ही।
आत्मनेउस्तु
नमस्तुभ्यमविच्छिन्न
चिदात्मने।
परामृष्टोउस्मि
बुद्धिउस्मि
प्रोदितोउस्थ्यचिरादहम्।
उड़तोउस्मि
विकल्येभ्यो
योउस्मि
सोउस्मि नमोग्स्तुते।
तुभ्यं
मह्यमनन्ताय
तुभ्यं मझं
चिदात्यने।
नमस्तुभ्यं
परेशाय नमो
मह्यं शिवाय च।।
मुझ
अविच्छिन्नरूप
आत्मा को
नमस्कार है।
मैं सदैव परम, प्रत्यक्ष,
लब्ध और
उदित हूं। मैं
विकल्पों से
रहित हूं; मैं
जो हूं सो हूं
मुझे नमस्कार
है। तू और मैं
अनंत हैं, मैं
और तू
चिदात्मा हैं;
(दोनों को)
नमस्कार है।
मुझ परमेश्वर
और मुझ शिवरूप
को नमस्कार
सहजानंद
ठीक ही पूछते
हैं कि कैसा
अटपटा सूत्र
है। मुझको ही
नमस्कार है!
यह कोई बात
हुई! यह तो बड़े
अहंकार की
घोषणा मालूम
पड़ती है। मुझ
अविच्छिन्नरूप
आत्मा को
नमस्कार है।
संत नानक और
कबीर के समय
एक जैन फकीर
हुए संत तारण।
उन्होंने एक
पूरा का पूरा
ही शास्त्र
लिखा : आत्मपूजा—अपनी
ही पूजा। अपनी
ही उतारनी है
आरती। धूप—दीप
जलाना अपने
लिए। फूल चढ़ा
लेना अपने ही
सिर पर।
यूं
तो पागलपन
लगेगा, लेकिन
अगर चार
महासूत्र समझ
में आ गये तो
फिर पागलपन
नहीं लगेगा, फिर तो यह
बड़ा प्यारा
सूत्र है।
क्योंकि कौन
नमस्कार करे
और किसको
नमस्कार करे—यहां
एक ही है। वही
नमस्कार
करनेवाला है,
उसी को नमस्कार
किया जाना है।
वही एक, दो
में बंटकर खड़ा
है। इसीलिए तो
इस देश ने
नमस्कार का एक
अद्भुत ढंग
निकाला।
दुनिया में
वैसा कहीं भी
नहीं है।.. इस
देश ने कुछ
दान दिया है
मनुष्य की
चेतना को, अपूर्व!...
यह अकेला देश
है जहां जब दो
व्यक्ति नमस्कार
करते हैं तो
दो काम करते
हैं; एक तो
दोनों हाथ
जोड़ते हैं। दो
हाथ जोड़ने का
मतलब होता है
दो नहीं हैं, एक। दो हाथ
दुई के प्रतीक
हैं, द्वैत
के प्रतीक हैं।
उन दोनों को
जोड़ लेते हैं
कि दो नहीं
हैं?' एक ही
है। उस एक का
ही स्मरण
दिलाने के लिए
दोनों हाथों को
जोड़कर
नमस्कार करते
हैं। और, दोनों
हाथ जोड़कर जो
भी शब्द उपयोग
करते हैं, वह
परमात्मा का
स्मरण होता है।
कहते हैं : राम—राम,
जयराम, या
कुछ भी। लेकिन
वह परमात्मा
का नाम होता
है। दो को
जोड़ा कि
परमात्मा का
नाम उठा। दुई
गयी कि
परमात्मा आया।
दो हाथ जुड़े
और एक हुए कि
फिर बचा क्या;
हे राम!
दुनिया
में नमस्कार
के बहुत ढंग
हैं। कहीं हाथ
मिलाकर लोग
नमस्कार करते
हैं,
कहीं नाक से
नाक रगड़कर
नमस्कार करते
हैं। और भी
पहुंचे हुए
लोग हैं—जीभ
से जीभ मिलाकर
नमस्कार करते
हैं। कहीं
कहते हैं : शुभ
संध्या या शुभ
प्रभात—गुड—मार्निंग
या गुड—ईवनिंग—लेकिन
यह देश अकेला
है जो दूसरे
को छूता ही नहीं,
सिर्फ अपने
दोनों हाथों
को जोड देता
है। ऐसे एक की
उद्घोषणा कर
देता है और
फिर राम का स्मरण
करता है। और
जय भी बोलता
है तो राम की।
क्या सुबह की
बात करनी!
क्या सांझ की
बात करनी! सुबहें
आती हैं, साझे
आती हैं, सुबहें
जाती हैं, साझे
जाती हैं, जो
सदा टिका है
वह राम है।
उसी में सुबह
होती है, उसी
में सांझ होती
है, उसकी
बात कर ली तो
सबकी बात कर
ली। उस एक को
मांग लिया तो
सब मांग लिया।
एक
सम्राट विजय—यात्रा
को निकला।
सारी दुनिया
को विजय करके
जब लौटता था, तो
उसकी सौ
पत्नियां थीं,
उसने खबर
भिजवायी कि
जिसको जो मांग
हो, उसके
लिए मैं वही
ले आऊं।
निन्यान्नबे
पत्नियों ने
अपनी—अपनी महा
भेजी। किसी ने
कहा, कोहिनूर
ले आना और
किसी ने कुछ, किसी ने कुछ।
एक पत्नी ने
सिर्फ इतनी
खबर भेजी कि
तुम जल्दी घर
लौट आओ, बस!
और क्या चाहिए
तुम आ गये तो
सब आ गया!
सम्राट सभी के
लिए लाया—जों
जिसने मांगा
था, जिसने
कोहिनूर
मांगे थे, उसके
लिए कोहिनूर,
हीरे—जवाहरात,
सोने—चांदी
के जेवर—जो
जिसने मांगा
था, सबके
लिए ले आया।
सबको दे दिये।
लेकिन गया उस
पत्नी के पास
जिसने सिर्फ
उसे ही मांगा
था।
वे
निन्यान्नबे
रानियां
हैरान हुईं और
उन्होंने कहा
कि आप आये
इतने लंबे
दिनों बाद, क्या
कारण है कि आप
उस एक पत्नी
को सौ में से
चुन रहे हैं? वह सबसे
सुंदर भी नहीं
है। वह सबसे
युवा भी नहीं
है। सम्राट ने
कहा, उसका
कारण है कि
उसने भर मुझे
मांगा। तुमने
कुछ और मांगा।
तुम्हारा
मेरा नाता
वस्तुओं का
नाता। उसका
मेरा नाता
हृदय का नाता।
तुमने जो
मांगा, तुम्हें
मिल गया। उसने
जो मांगा, मुझे
उसे देने दो।
क्या
सुबह की जय
बोलें? क्या
सांझ की जय
बोलें? जय
बोलनी तो उस
एक की बोलनी।
मगर वह एक
पूजा
करनेवाले में
विराजमान है
और जिसकी तुम
पूजा करते हो
उसमें
विराजमान है।
ईस परम
उद्घोषणा को
यह संन्यास
उपनिषद् का सूत्र
कह रहा है—
आत्यनेउस्तु
नमस्तुभ्यमविच्छिन्न
चिदात्मने।
मुझ
अविच्छिन्न
रूप आत्मा को
नमस्कार है।
अटपटा
लगेगा, क्योंकि
वे चार
महावाक्य अभी
पूरे नहीं हुए।
अभी अहं
ब्रह्मास्मि
की घड़ी नहीं
आयी, इसलिए
अटपटा लगेगा।
नहीं तो बात
बिलकुल सीधी—साफ
है।
परामृष्टोउस्मि
बुद्धिउस्मि
प्रोदितोउक्यचिरादहम्।।
मैं
सदैव परम, प्रत्यक्ष,
लब्ध और
उदित हूं।
क्या
प्यारे शब्द
हैं! 'मैं सदैव
परम',... मुझसे
ऊपर और कुछ भी
नहीं। मगर 'मैं' छूटे...!
तुम यह तभी
जान पाओगे कि
मुझसे ऊपर और
कुछ भी नहीं।
यह 'मैं' की अकड़ बन
जाए तो तुमसे
नीचे और कुछ
भी नहीं। यह 'मैं' की
घोषणा हो तो
मैं से नीचे
और कुछ भी
नहीं।
'मैं' एक
अद्भुत सीढ़ी
है। इसी से
नर्क में भी
उतर सकते हो, इसी से
स्वर्ग में भी
प्रवेश कर
सकते हो। एक
ही सीढ़ी है, एक छोर नर्क
में लगा है, एक छोर
स्वर्ग में
लगा है।
'मैं सदैव
परम',. .जहां 'मैं' नहीं
हो, जैसे—जैसे
'मैं' को
छोड़ते गये, वैसे—वैसे
परम अवस्था
आती चली गयी।.. 'प्रत्यक्ष',
.. .यह शब्द तो
बहुत सोचने
जैसा है। तुम
और सारी चीजों
को कहते हो, तुम कहते हो
कि मैंने अपनी
आख से देखा, चश्मदीद
गवाह हूं यह
बात मेरे
सामने हुई, बिलकुल
प्रत्यक्ष
में हुई।
परोक्ष हम
कहते हैं, जो
हमने न देखा; किसी ने कहा।
किसी ने तुमसे
कहा कि रास्ते
पर दो करें
टकरा गयीं। यह
परोक्ष हुआ।
पर के द्वारा
खबर मिली।
माध्यम से खबर
मिली। भरोसे
का माध्यम हो
तो तुम भरोसा
कर लो, भरोसे
का माध्यम न
हो तो न करो।
लेकिन चाहे
भरोसा करो
चाहे न करो, एक बात साफ
रखना कि तुमने
नहीं देखा।
प्रत्यक्ष
नहीं है यह।
तुम्हारी आख
के सामने नहीं
हुआ।
लेकिन
तुम्हारी
अपनी आख के
सामने भी हो
तो भी क्या
जरूरी है तुम
वही देखो जो
हो रहा है?
एडमंड
बर्क बहुत बड़ा
इतिहासज्ञ
हुआ। वह विश्व
का इतिहास लिख—रहा
था। उसने
इतिहास लिखने
में कोई बीस—बाईस
वर्ष खर्च
किये थे। और
बाईसवें वर्ष
यह घटना घटी
कि उसके घर के
पीछे हत्या हो
गयी। वह भागा
हुआ पहुंचा—शोरगुल
सुना, लाश पड़ी
थी, अभी
आदमी ठंडा भी नहीं
हुआ था, अभी
खून गर्म था, हत्यारा पकड़
लिया गया था, उसके हाथ
में रंगीन
छुरा था खून
से लहूलुहान,
उसके शरीर
पर भी खून के
दाग थे, राह
पर खून की धार
बह रही थी और
सैकडों लोगों
की भीड़ इकट्ठी
थी। बर्क
पूछने लगा
लोगों से कि
क्या हुआ? एक
ने एक बात कही,
दूसरे ने
दूसरी बात कही,
तीसरे ने
तीसरी बात कही।
जितने मुंह
उतनी बातें।
और वे सभी
चश्मदीद गवाह
थे। उन सबने
अपनी आख के
सामने यह घटना
देखी थी।
बर्क
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
बर्क बड़ी
चिंता में पड़
गया। वह घर के
भीतर गया और
उसने बाईस साल
मेहनत करके जो
इतिहास लिखा
था उसमें आग
लगा दी। उसने
कहा,
मेरे घर के
पीछे हत्या हो,
आख से
देखनेवाले
लोगों का समूह
हो और एक आदमी दूसरे
से राजी न हो
कि हुआ क्या, कैसे हुआ, हर एक की
अपनी कथा हो—और
मैं इतिहास
लिखने बैठा
हूं सारी
दुनिया का!
प्रथम से, शुरुआत
से! क्या मेरे
इतिहास का
अर्थ? हम
वही देख लेते
हैं जो हम
देखना चाहते
हैं। उसमें
कोई हत्यारे
का मित्र था।
उसे बात कुछ
और दिखायी पड़ी।
उसमें कोई
जिसकी हत्या
की गयी थी
उसका मित्र था,
उसे कुछ बात
और दिखायी पड़ी।
जो तटस्थ था, उसे कुछ बात
और दिखायी पड़ी।
सब प्रत्यक्ष
गवाह थे। मगर
क्या गवाही दे
रहे थे!
उपनिषद्
के हिसाब से, समस्त
जाग्रत
पुरुषों के
हिसाब से
प्रत्यक्ष तो
सिर्फ एक चीज
है, वह
तुम्हारी
आत्मा है।
बाकी सब
परोक्ष है।
क्यों? क्योंकि
मन खबर देगा न;
मन तो बीच
में आ जाएगा, मन पर है। मन
कहेगा, ऐसा
हुआ। मन
व्याख्या
करेगा।
बुद्ध
ने एक रात
समझाया लोगों
को कि तुम
जितने लोग
यहां हो उतनी
ही बातें सुन
रहे हो।
बोलनेवाला तो
मैं एक हूं
लेकिन चूंकि
सुननेवाले
अनेक हैं, इसलिए
बातें अनेक हो
जाती हैं।
जैसे एक ही
आदमी खड़ा हो
और बहुत दर्पण
लगे हों, तो
बहुत
तस्वीरें
बनेंगी। फिर
दर्पण—दर्पण
अपने ढंग से
तस्वीर
बनाएगा।
तुमने
कभी वे दर्पण
देखे होंगे
किसी सर्कस
में,
किसी म्यूजियम
में, कोई
दर्पण
तुम्हें लंबा
कर देता है, कोई दर्पण
मोटा कर देता
है, कोई
छोटा कर देता
है, कोई
तिरछा कर देता
है। किसी में
तुम
अष्टावक्र
मालूम पड़ते हो।
किसी में आदमी
कम, ऊंट
ज्यादा मालूम
पड़ते हो। किसी
में एकदम
बिजली का खंभा
हो जाते हो।
और किसी में
इतने मोटे, इतने ठिगने
कि तुम्हें
भरोसा ही न
आएगा कि यह क्या
हुआ? और
सभी दर्पण हैं।
और सभी एक ही
कक्ष में सजे
हैं। सब अलग—अलग
बता रहे हैं।
मन
तो दर्पण है।
और हर एक के
पास अलग मन है।
बुद्ध
ने कहा, जितने
तुम यहां लोग
हो, उतनी
ही बातें सुन
रहे हो। दूसरे
दिन सुबह आनंद
ने पूछा कि यह
बात मेरी कुछ
समझ में आयी
नहीं। जब आप
कहनेवाले एक
हैं और शब्द
आपके हम सुन
रहे हैं, तो
वही शब्द तो
सुनेंगे न जो
आपने कहे हैं।
बुद्ध ने कहा,
पागल, तू
यूं समझ! कल
रात—तू जा पता
लगा ले—कल रात
की सभा में जब
मैंने यह कहा
तो मेरे जो
भिक्षु थे
उन्होंने एक
बात समझी, एक
चोर भी आया था,
उसने दूसरी
बात समझी; एक
वेश्या भी आयी
थी, उसने
तीसरी बात
समझी।
बुद्ध
का नियम था कि
रोज रात को
प्रवचन के अंत
में वे कहते
थे,
अब जाओ, दिन
का अंतिम
कार्य पूरा
करो।
भिक्षुओं ने
समझा कि अब
जाएं और ध्यान
करें; क्योंकि
वह दिन का
अंतिम कार्य
था। समाधिस्थ
हों और फिर
उसी समाधि में
डूबते—डूबते
निद्रा में
डूब जाएं।
ध्यान करते—करते
नींद में उतर
जाना सारी
नींद को समाधि
बना देता है।
तो छह घंटे
सोओ, आठ
घंटे सीओ, वे
आठ घंटे परम
समाधि में गये।
तुमने उनका
उपयोग कर लिया।
तुमने नींद को
भी व्यर्थ न
जाने दिया।
लोग, तो यहां
जागरण को भी
व्यर्थ जाने
दे रहे हैं, तुमने नींद
का भी उपयोग
कर लिया।
तुमने नींद के
समय में भी
अमृत ढाल लिया।
तो मेरे
भिक्षुओं ने,
बुद्ध ने
कहा, समझा
कि अब हम उठें,
वे उठे कि
अब जाएं ध्यान
करें, सोने
का समय हो गया।
चोर एकदम से
चौंका, उसने
कहा कि मैं भी कहां
की बातों में
पड़ा हूं, अरे,
जाऊं अपने
काम में लग! और
वेश्या ने कहा
कि अदभुत हैं
ये बुद्ध भी!
इन्हें कैसे
पता चल गया कि मैं
भी आयी हुई
हूं? क्या
कहते हैं कि जाओ,
अपने काम
में लगो! अब
अपना आखिरी
काम करो!
वेश्या
अपने धंधे पर
गयी,
चोर अपने
धंधे पर गया, भिक्षु अपने
धंधे पर चले
गये।
बुद्ध
ने आनंद से
कहा,
तू न माने
तो जाकर पूछ
ले। आनंद बड़ा
जिज्ञासु था!
वह अंत तक
विद्यार्थी बना
रहा। बहुत साथ
रहा बुद्ध के,
लेकिन
शिष्यत्व सधा
उसका बुद्ध की
मृत्यु के बाद।
कभी—कभी
निकटता भी
बाधा हो जाती
है। आदमी बड़ा
अजीब है! कभी—कभी
दूरी सहयोगी
हो जाती है, निकटता बाधा
हो जाती है।
वह चचेरा भाई
था बुद्ध का।
यही खतरा हो
गया। चचेरा
भाई ही नहीं
था, बड़ा
भाई भी था। तो
वह अकड़ उसमें
बनी ही रही कि अरे,
है तो मेरा
ही भाई! और फिर
मैं बड़ा भाई!
दोनों साथ पढ़े,
दोनों साथ
बढ़े; शिकार
खेला, लड़े—झगड़े;
कभी उसने
बुद्ध को
चारों खाने
चित्त भी कर
दिया होगा।
भाई ही थे! एक
ही महल में
बड़े हुए थे।
फिर बुद्ध जब
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, तब भी उसने
अपनी अकड़ न
छोड़ी। आया, तो झुका तो, लेकिन झुकने
के पहले उसने
कहा कि तू सुन;
सिद्धार्थ,
तू सुन—जब
तक मैं तेरा
भिक्षु नहीं
हुआ हूं तब तक
मैं तेरा बड़ा
भाई हूं तू
मेरा छोटा भाई
है; तब तक
मैं जो कहूं
उसको सुन और
मैं जो कहूं
उसको मान। फिर
तो मैं भिक्षु
हो जाऊंगा, तेरा शिष्य
हो जाऊंगा, फिर पुराना
नाता तो
समाप्त हो
जाएगा, फिर
मैं तेरी
सुनूंगा और
तेरी मानूंगा।
इसके पहले कुछ
बातें तय हो
जानी चाहिए।
देख, ये
मेरी कुछ
शर्तें हैं।
पहली
शर्त तो यह कि
भिक्षु हो
जाने के बाद
मुझे कभी तू
अपने से दूर न
भेज सकेगा। यह
मेरी आज्ञा है।
तू मेरा छोटा
भाई है, तुझे
माननी ही होगी।
तू मुझे कभी
भेज न सकेगा
दूर। तू यह न
कह सकेगा कि
आनंद, अब
तू जा और कहीं
प्रचार कर, प्रसार कर।
मैं तो साथ ही
रहूंगा।
दूसरी बात, मैं तो उसी
कमरे में सोऊंगा
जिसमें तू
सोएगा। मैं
रत्ती—पल को
भी दूर नहीं
सोना चाहता।
तीसरी बात, मैं जो भी
पूछूंगा, उसका
तुझे उत्तर
देना होगा।
जैसा तू औरों
से कहता है कि
सालभर बाद
पूछना, कि
दो साल चुप
रहो, फिर
पूछना, यह
मेरे साथ न
चलेगा। आखिर
मैं तेरा भाई!
आखिर तेरा बड़ा
भाई! और चौथी बात
कि अगर आधी
रात को भी मैं
किसी को ले
आऊं, तो
तुझे मिलना
पड़ेगा।
क्योंकि मैं
तेरे साथ रहूं
लोग मुझसे
प्रार्थना
करेंगे कि
मिलवा दो; अगर
मुझे लगा कि
किसी को
मिलवाना
जरूरी है, तो
तू मुझे रोक न
सकेगा। आधी
रात जगाकर भी,
तो भी तू यह
न कह सकेगा कि
यह क्या करते
हो? यह चार
तू वचन दे दे; फिर मैं
दीक्षा ले
लेता हूं फिर
मैं समर्पण कर
देता हूं।
तो
बुद्ध ने ये
चार वचन दिये।
उनकी करुणा, इसलिए
चार वचन दिये
कि चल, इस
बहाने ही सही,
मगर तू
दीक्षित तो हो,
फिर पीछे
निपट लेंगे।
मगर वह अकड़ जो
बनी रही, बनी
रही। बुद्ध के
जीते—जी न
मिटी। वह
जिज्ञासु ही
रहा, विद्यार्थी
ही रहा; ज्यादा
से ज्यादा
नाता उसका
उतना ही बना।
उसने पूछा
जाकर—आम्रपाली
नाम की वेश्या
के पास गया जो
रात आयी थी और
उसने पूछा कि
क्या तेरे मन
में ऐसा हुआ था?
आम्रपाली
ने कहा, यह
तो हद हो गयी।
एक तो उन्हें
कैसे पता चला
कि मैं आयी
हूं! और यह
कैसे पता चला
कि मेरे मन
में भी यह
विचार उठे! सच
कहते हैं वे!
यही विचार उठे।
जैसे ही
उन्होंने कहा
कि जाओ, अब
रात्रि का
अंतिम कार्य
करो, मैं
एकदम कपड़े
झाड्कर खड़ी हो
गयी, मैंने
कहा, मैं
भी कहा रात
गंवाए दे रही
हूं प्यारी
रात है, ग्राहक
आ गये होंगे।
आम्रपाली बड़ी
सुंदरी थी, नगरवधू थी।
दूर—दूर से
राजा और
सम्राट उसके
द्वार पर आते
थे। वह अपने
रथ पर बैठी और
वापिस गयी। और
सच में वहां
मेहमान खडे थे
आकर। गुहार
मची थी कि
आम्रपाली
कहां है? आज
कहां गयी
आम्रपाली?
आनंद
ने जब उससे
जाकर यह पूछा
कि क्या तेरे
मन में ऐसा
हुआ था? और
उसने कहा, 'हां
हुआ था', तो
आनंद के साथ—साथ
वह खुद आयी
बुद्ध के चरणों
में, उसने
दीक्षा ले ली।
उसने कहा कि
आपने रात भी
मुझे पहचान
लिया और पकड़
लिया। और इतना
ही नहीं कि
बाहर से
पहचाना और
पकड़ा, भीतर
से भी पहचाना
और पकड़ा। अब
इन चरणों के
सिवाय मेरे
लिए कहीं और
कोई शरण नहीं
है। अब कहीं
नहीं जाना है।
अब सब धंधा
समाप्त; अब
सब काम समाप्त।
मुझ अपात्र को
स्वीकार कर
लें।
आनंद
तो उस चोर के
पास भी गया।
और वह चोर भी
दीक्षित हो
गया। और आनंद
ने बुद्ध से
कहा कि आपने
भी हद कर दी! कहीं
ऐसा तो नहीं
कि मुझे यह जो
जिज्ञासा हुई कि
मैं जा—जाकर
पूछूं इस चोर
से,
इस वेश्या
से वह भी आपकी
ही तरकीब रही
हो। क्योंकि
ये दोनों आ
गये और डूब
गये! और मैं तो
अभी भी किनारे
पर खड़ा हूं सो
किनारे पर खडा
हूं! भौंचक्का,
कि यह क्या
हुआ, कैसे
हुआ?
वह
आखिर तक
भौंचक्का रहा।
प्रत्यक्ष
तो सिर्फ
आत्मा ही हो
सकती है। शेष
सब में तो मन आ
जाएगा। इसलिए
यह सूत्र प्यारा
है : मैं सदैव
परम,
प्रत्यक्ष,
लब्ध! क्या
अदभुत बात है।
लब्ध अर्थात
सदा उपलब्ध।
ऐसा एक क्षण
भी न था जब तुम
परमात्मा न थे।
ऐसा एक भी
क्षण कभी नहीं
होगा जब तुम
परमात्मा न
होओगे। अभी भी
तुम परमात्मा
हो—जानो, न
जानो! पहचानो,
न पहचानो!
भूलो, भटकी,
मगर बदल नहीं
सकते। लाख
उपाय करो, तुम
जो हो सो हो।
यह
संन्यास
उपनिषद् का
श्लोक कहता है
: लब्ध और उदित
हूं। और भीतर
सूर्य निकला
ही हुआ है।
जरा आख भीतर
ले जाओ और
रोशनी ही
रोशनी है।
कहीं कोई
अंधकार नहीं
है।’मैं
विकल्पों से
रहित हूं; मैं
जो हूं सो हूं,..
उससे
अन्यथा न हुआ
हूं न हो सकता
हूं.. .मुझे
नमस्कार है।’
अब ऐसी
अदभुत रहस्य
की अनुभूति को
नमस्कार न करोगे?
क्या सिर्फ
इस कारण रुक
जाओगे कि कैसे
अपने को
नमस्कार करूं?
अरे, कहा
अपना, कहापराया,
ऐसी अपूर्व अनुभूति
को तो नमन
करना ही होगा,
झुकना ही
होगा।’तू
और मैं अनंत
हैं, मैं
और तू
चिदात्मा हैं;
(दोनों को)
नमस्कार है।
मुझ परमेश्वर
और मुझ शिवरूप
को नमस्कार है।’
अगर
उपनिषद् के
चार महावाक्य
समझ में आ गये,
तो फिर
संन्यास
उपनिषद् का यह
अटपटा सा
सूत्र भी कठिन
नहीं रह जाता
है। इन पर
ध्यान करना।
इनमें डूबना।
इसमें सीढ़ी—सीढ़ी
उतरना। क्योंकि
यही है मार्ग।
और
जब तक इस
मार्ग पर कोई
चले न चले और
जब तक अहं ब्रह्मास्मि
की अंतिम
उद्घोषणा न हो
जाए,
तब तक
अतृप्ति
रहेगी, असंतोष
रहेगा, विषाद
रहेगा, संताप
रहेगा; तब
तक नर्क है और
नर्क ही रहेगा।
इस उद्घोषणा
के साथ ही
तुम्हारे
जीवन के फूल खिल
जाएंगे, सुगंध
ही सुगंध हो
जाएगी, वीणा
बज उठेगी; अनाहत
का नाद होने
लगेगा, अमृत
की झड़ी लग
जाएगी। एक
नहीं जैसे
हजार सूर्य एक
साथ उदित हो
गये हों। और
झड़ी ऐसी नहीं
कि एक दफा
शुरू हुई तो
बंद हो जाए।
फिर अमृत
बरसता ही रहता
है। वेद कहते
हैं : अमृतस्य
पुत्र:, तुम
हो अमृत के
पुत्र! मगर
भूल गये हो, भटक गये हो, सो गये हो।
नींद में हो, जाओ!
उनसे
जब दिल की बात
होती है
बज्म
में कायनात
होती है
लब
को महसूस तक
नहीं होता
आंखों
आंखों में बात
होती है
भूल
जाते हैं
सिर्फ अपनी ही
वरना
दुनिया की बात
होती है
एक
रात उनकी है—खुदा
रखे
एक
अपनी भी रात
होती है
उपनिषद्
दिल की बातें
हैं।’लब को
महसूस तक नहीं
होता',…… ओंठों
को पता भी
नहीं चलता। लब
को महसूस तक
नहीं होता आंखों
आंखों में बात
होती है शिष्य
और गुरु के
बीच कुछ हो जाता
है।
लब
को महसूस तक
नहीं होता
आंखों
आंखों में बात
होती है
उनसे
जब दिल की........
यह नाता
प्रेम का है, परम
प्रेम का है।
सब प्रेम छोटे
पड जाते हैं
इस नाते के
समक्ष। सब
प्रेम बडे
क्षुद्र हैं,
बड़े सीमित
हैं। सिर्फ
गुरु और शिष्य
के बीच जो
घटित होता है
वह विराट है, विशाल है, असीम है!
'लगन महूरत
झूठ सब' प्रवचन
माला से
दिनांक23
नवम्बर 1980;
श्री रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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