दिनांक
3 जून, 1964;
सुबह
मुच्छाला
महावीर, राणकपुर।
सत्य
को खोजें नहीं।
खोजने में
अहंकार, ईगो
है। और अहंकार
ही तो बाधा है।
अपने को खो
दें। मिट जाएं।
जब 'मैं' शून्य होता
है, तब
उसके दर्शन
होते हैं, जो
कि वस्तुत:
मैं हूं।’ मैं—
भाव 'मिटता
है, तब 'मैं—सत्ता'
मिलती है।
अपने को खोकर
ही 'स्व' को पाना
होता है। जैसे
बीज जब अपने
को तोड़ देता
है और मिटा
देता है, तभी
उसमें नव—जीवन
अंकुरित होता
है। वैसे ही 'मैं' बीज
है, वह
आत्मा का
बाह्य आवरण और
खोल है, वह
तब मिट जाता
है जब अमृत
जीवन के अंकुर
का जन्म होता
है।
इस
सूत्र को
स्मरण रखें
पाना है तो
मिटना होता है।
मृत्यु के
मूल्य पर अमृत
मिलता है।
बूंद जब स्वयं
को सागर में
खो देती है, तो
वह सागर हो
जाती है।
मैं
आत्मा हूं पर
अपने में
खोजूं तो
सिवाय वासना
के और कुछ भी
नहीं मिलता है।
हमारा पूरा
जीवन ही वासना
है। वासना
यानी कुछ होने
की— कुछ पाने
की अभीप्सा।
प्रत्येक कुछ
होना चाहता है—
कुछ पाना
चाहता है।
प्रतिक्षण यह
दौड़ चल रही है।
जो जहां है, वहां
नहीं होना
चाहता है। और
जो जहां नहीं
है, वहां
होना चाहता है।
वासना यानी ' जो है ' उससे
एक अंधी
अतृप्ति और ' जो नहीं है' उसकी अंधी
आकांक्षा।
इस
दौड़ का कोई
अंत नहीं है, क्योंकि
जैसे ही 'जो
उपलब्ध होगा'
वह व्यर्थ
हो जाएगा, और
आकांक्षा पुन:
अनुपलब्ध पर
केंद्रित हो
जाएगी। वह सदा
ही अनुपलब्ध
के लिए है।
वासना
आकाश—क्षितिज
की भांति है—
आप जितने उसके
निकट पहुंचें, वह
ठीक उतना ही
पुन: आपसे दूर
हो जाता है।
यह इसलिए ही
संभव है, क्योंकि
वह है ही नहीं।
वह केवल
प्रतीति, एपियरेंस है, भ्रांति
है, सत्य
नहीं है। सत्य
हो तो आपको
उसके पास जाने
से वह निकट
होता है।
असत्य हो तो
मिट जाता है।
न सत्य हो, न
असत्य हो, भ्रांति
हो, स्वप्न
हो, माया
हो, कल्पना
हो, तो आप
उसके कितने ही
निकट जाएं, उसकी दूरी
वही बनी रहती
है।
असत्य, सत्य
का विरोध है।
भ्रांति, माया—विरोध
नहीं, आवरण
है। वासना
आत्मा का
विरोध नहीं, आवरण है, वह
कुहासा है, धुआं है
जिसमें हमारी
सत्ता छिपी है।
हम
'जो नहीं हैं 'उसके लिए
दौड़ते रहते
हैं और इसलिए 'जो है' उसे
नहीं देख पाते
हैं।
वासना
आत्मा पर
पर्दा है और
उसके कारण
आत्मा का
दर्शन नहीं हो
पाता है। मैं
कुछ होना
चाहता हूं और
इसलिए उसे
देखता ही नहीं, 'जो
मैं हूं।’ एक
क्षण को भी, यह होने की
दौड़ और
अभीप्सा न हो,
तो 'जो
है ' वह
प्रकट हो जाता
है। एक क्षण
को भी आकाश
में बदलिया
न हों, तो
सूरज प्रकट हो
जाता है।
मैं
इस 'होने की दौड़
के अभाव' को
ही ध्यान कहता
हूं।
और
उस क्षण कितना
आश्चर्य होता
है,
जब हम उसे
जानते हैं, 'जो है, दैट
व्हिच इज।’
क्योंकि, उसमें वह सब
मिल जाता है जिसके
लिए कि
अभीप्सा थी।
आत्मा
का दर्शन
वासना की
पूर्ण तृप्ति
है,
क्योंकि
वहां कोई अभाव
नहीं है।
विचार, अज्ञान
का लक्षण है।
ज्ञान में
विचार नहीं
होता है—दर्शन
होता है।
इसलिए विचार
का मार्ग ज्ञान
तक नहीं ले
जाता है।
निर्विचार—चैतन्य
ज्ञान का
द्वार है।
ज्ञान
उपलब्धि नहीं, अनावरण,
डिस्कवरी
है। उसे पाना
नहीं, उघाड़ना
है। वह हममें
नित्य
उपस्थित है।
उसे खोदना है।
जैसे कोई कुआं
खोदता है, वैसे
ही उसे भी
खोदना है। जल—स्रोत
मिट्टी, कंकड़—पत्थरों
में दबे हैं।
इन आवरणों को
हटाते ही वे
फूट पड़ेंगे।
ज्ञान
के जल—स्रोतों
पर मैं
विचारों के कंकड़—पत्थरों
को जमा हुआ
देखता हूं।
इन्हें हटाते
ही चैतन्य की
अपरिसीम धारा
उपलब्ध हो
जाती है।
अपने
में कुआं खोदो—
विचारों की
पर्तों को अलग
करो— 'ध्यान' की
कुदाली से।
सम्यक स्मृति
और सजग
जागरूकता, अवेयरनेस
से विचार को
निष्प्राण
करो—विचार की
निर्जरा करो—
और फिर आप जो
जानोगे वह ज्ञान
है।
विचार
जहां नहीं है
उस निर्धूम
चेतना में ज्ञान
है।
मैं
एकांत में
जाने को नहीं
कहता हूं। मैं
कहता हूं अपने
में एकांत
लाने को।
स्थान बदलने
से कुछ नहीं
होता है।
परिवर्तन
स्थिति में
लाना है।
परिस्थिति
नहीं, मनःस्थिति
केंद्रीय और
महत्वपूर्ण
है।
कोई
एकांत में जा
सकता है, पर
यदि उसके भीतर
एकांत नहीं है,
तो एकांत
में भी वह भीड़
में होगा, क्योंकि
उसके भीतर भीड़
होगी। मित्र!
भीड़ बाहर नहीं
है, वह
भीतर है। हम
भीतर भीड़ से
घिरे हैं, इसलिए
भीड़ से भागने
से क्या होगा!
जो साथ हैं वे
साथ ही चले
जाएंगे। भीड़
से भागना
व्यर्थ है—
भीड़ को ही
भीतर से
विसर्जित
करना सार्थक
है।
इसलिए, एकांत
मत खोजो, एकांत
बनो। निर्जन
में मत जाओ, अपने को
निर्जन करो।
जिस क्षण तुम
अपने को भीतर,
अपने निकट
अकेलेपन में
अनुभव करोगे,
उस दिन
जानोगे कि
बाहर कोई भीड़
कभी भी नहीं
थी, बाहर
कोई संसार ही
नहीं था, वह
सब भीतर था।
शांति
और शून्य से, एकांत
से देखने पर
संसार
परमात्मा में
परिणत हो जाता
है, और जो
कल तक मुझे
घेरे थे वह सब
मैं ही हो
जाता हूं। मैं
सबमें हो जाता
हूं।
किसी
ऐसे ही क्षण
में कोई बोला
होगा 'अहं
ब्रह्मास्मि।’
सदियों
की धूल हमारे
मन पर है।
परंपराओं और रूढ़ियों
और अंध—विश्वासों
ने हमें वैसे
ही घेर रखा है, जैसे
किसी खंडहर को,
जैसे किसी अवासित
भवन को अंधेरे
के वासी पक्षी
घेर लेते हैं
और मकड़े—मकडियां
अपने जालों से
भर देते हैं।
हम ऐसे ही उन
विचारों से
भरे हैं, जो
दूसरे हमें दे
देते हैं। ये
दूसरों के
द्वारा सत्य
के, परमात्मा
के संबंध में
विचार बहुत
बड़ी बाधाएं
हैं। इनके
कारण हम स्वयं
जानने से
वंचित रह जाते
हैं, और
स्वयं की खोज
का वह आंदोलन
जो हमारे
प्रसुप्त
चेतन को जगा
दे, हममें
कभी
प्रवर्तित
नहीं हो पाता
है।
इससे
पूर्व कि कोई
सत्य को स्वयं
जाने, उसे
दूसरों से लिए
उधार जान से
मुक्त हो जाना
जरूरी है।
दूसरों से पाए,
परंपरा से
पाए ज्ञान को
धूल की भांति
दूर हटा दें—उससे
एक निर्मलता
का उदय होगा
और सत्य और
स्वयं के बीच
कोई पर्दा
नहीं रह जाएगा।
विचारों की
भीड़ दीवाल की
भांति बीच में
खड़ी रहती है।
सत्य
के संबंध में
जानना और सत्य
को जानने में
जमीन—आसमान का
भेद है। एक
उधार और मृत—ज्ञान
का बंधन है, दूसरा
स्व—अनुभूति
का मुक्त आकाश
है। एक उड़ान
की सारी
क्षमता छीन
लेता है, दूसरा
वे पंख देता
है जो
परमात्मा तक
ले जा सकते
हैं।
इसलिए
मैं शून्य की
बात कहता हूं।
वह विचार— भार
को छीन लेता
है,
वैसे ही
जैसे कोई
पर्वत पर चढ़ता
है तो उसे
अपना सारा भार
नीचे मैदानों
में छोड़ देना
होता है। वैसी
ही चढ़ाई
सत्य की भी है।
पर्वतारोही
जितना
निर्भार होगा, उतने
ही ऊंचे
पर्वतों पर
उसके चरण
पहुंच सकते हैं।
और सत्यारोही
भी जितना
शून्य होता है,
जितना
निर्भार होता
है, उतनी
ही ऊंचाइयां
उसका आवास हो
जाती हैं।
परमात्मा
तक—उस अंतिम
ऊंचाई तक, जिन्हें
पहुंचना है, उन्हें उस
अंतिम शून्य
तक पहुंचना
आवश्यक है, जहां उनका
होना, बीइंग,
न—होना, नॉन—बीइंग
हो जाता है।
शून्य
की गहराई में
पूर्ण ऊंचाई
का जन्म होता
है और अ—सत्ता
में सत्ता के
संगीत की
उत्पत्ति
होती है, और तब
ज्ञात होता है
कि निर्वाण ही
ब्रह्मोपलब्धि
है।
सत्य
अज्ञात है, तो
उसे उन
विचारों से
कैसे जाना जा
सकता है जो कि
ज्ञात हैं? यह चेष्टा
तो बिलकुल ही
अर्थहीन है। ज्ञात,
नोन से
अज्ञात, अननोन
तक कोई मार्ग
नहीं है। ज्ञात
अज्ञात में
नहीं ले जा
सकता। यह न
तर्क्य है, न संभव है।
ज्ञात, ज्ञात
की परिधि में
ही घूम सकता
है। जो मुझे
ज्ञात है, उसके
माध्यम से मैं
कितना भी
चिंतन करूं, उसके बाहर
और उसके ऊपर
नहीं उठ सकता
हूं। वह कोल्हू
के बैल की
भांति गति तो
है, पर
चक्रीय गति है
और उसी राह पर
बार—बार
घुमाती है, पर कहीं पहुंचाती
नहीं है।
इसलिए
आज तक विचार
से कोई भी
सत्य तक नहीं
पहुंचा है। जो
पहुंचे हैं, वे
किसी और द्वार
से पहुंचे हैं।
मैं महावीर, लाओत्सु, बुद्ध या
जीसस को
विचारक नहीं
कहता हूं।
उनकी कोई भी उपलब्धि
विचार से नहीं
है। फिर वे
कैसे पहुंचे?
वे विचार से
चल कर नहीं, विचार से
छलांग लेकर
पहुंचे।
ज्ञात
की लीक पकड़ कर
अज्ञात पर
नहीं जाया जा
सकता है, पर ज्ञात
से छलांग अज्ञात
में ले जाती
है। इस 'छलांग'
शब्द के
अर्थ को समझ
लें। इस 'छलांग'
को समझ लें।
वह आपको भी
लेनी है।
विचार
पर हम हैं। उन
पर हम खड़े हैं।
उनमें हम जी
रहे हैं। उनसे
निर्विचार
में कूदना है।
उनसे 'छलांग' लेनी है, उसमें—
जहां बस मौन
है। शब्द, साउंड
से शून्य, साइलेंस में कूद
जाना है।
क्या
यह 'छलांग' के
संबंध में
विचार करने से
होगा? क्या
आप सोचेंगे कि
छलांग कैसे
लें? नहीं,
वह तो पुन:
विचार के कोल्हू
में ही जुत
जाना है। उससे
गति नहीं है।
सोचें
नहीं, जागे।
विचार—प्रक्रिया
के प्रति जागे।
विचार की
चक्रीय गति को
देखें। बस
देखें, और
देखते ही
देखते अनायास
किसी क्षण में
छलांग लग जाती
है, और आप अपने
को अतल शून्य
में पाते हैं।
ज्ञात के
किनारे से छूट
भर जाएं, फिर
आपकी नौका सहज
ही अज्ञात के
सागर में अपने
पालों को
खोल लेती है।
और
वह बहना—
अज्ञात में बह
जाना कैसा
आनंद है? कैसे
कहूं?
अशांति
देखने नहीं
देती है। उससे
भरी आंखें देख
नहीं पाती हैं—फिर
चाहे वे आंसुओ
से भरी हों, चाहे
मुस्कुराहटों
से। भरी आख
सत्य को नहीं
देख सकती है।
उसके लिए खाली
और रिक्त आख
चाहिए—ऐसी आख,
जो दर्पण की
भांति हो, जिसमें
स्वयं में कुछ
भी नहीं है—वह
उसे देख लेती
है, जो कि 'सब—कुछ' है।
एक गांव की
बात है। कोई
मुझसे पूछता
था कि प्रभु को
कैसे खोजा जाए।
मैंने कहा, क्या आपने
स्वयं को पा
लिया है जो आप
अब परमात्मा
को खोजने
निकले हैं?
परमात्मा
को हम जानना
चाहते हैं और
आत्मा को भी
जानते नहीं
हैं?
जो सबसे
निकट है, वह
तक भी शात
नहीं है!
स्वयं
से अधिक निकट
और कोई सत्ता
नहीं है, इसलिए
अज्ञान सर्वप्रथम
वहीं टूट सकता
और पराजित हो
सकता है। और
जो वहां
अज्ञान में है,
वह किसी भी
तल पर जान में
नहीं हो सकता
है।
जान
की प्रथम
ज्योति अंतस
में ही जागती
है। वही ज्ञान
की प्राची है, वहीं
से ज्ञान का
सूर्योदय
होता है। वहां
अंधेरा है तो
स्मरण रहे कि
प्रकाश कहीं भी
नहीं हो सकता
है।
परमात्मा
को नहीं, स्वयं
को जानो— वही
ज्योति—कण अंत
में सूर्य में
परिणत हो जाता
है। स्वयं को
जान कर ही
जाना जाता है
कि वहां सत्ता
तो है, चैतन्य
तो है, आनंद
तो है, सच्चिदानंद
तो है, पर 'मैं' नहीं
है। यह अनुभव
ही परमात्मा
का अनुभव है।
'मैं' युक्त
आत्मा जीव है—यही
अज्ञान है।
'मैं' मुक्त
आत्मा
परमात्मा है—यही
ज्ञान है।
आत्मा
को खोजने कहां
जा रहे हो? वह
दसों दिशाओं
में कहीं भी
नहीं है। पर
एक ग्यारहवीं
दिशा भी है।
क्या आपको
उसका पता है? मैं उस
ग्यारहवीं
दिशा को ही
बताता हूं।
वह
ग्यारहवीं
दिशा आप स्वयं
हो। दसों
दिशाएं छोड़ दी
जाएं तो उस
ग्यारहवीं
में पहुंचना
होता है। वह
ग्यारहवीं
दिशा दस
दिशाओं जैसी
ही नहीं है।
वस्तुत: तो वह
दिशा, डायरेक्शन ही नहीं है।
वह तो अ—दिशा
है। वह कहीं
ले जाती नहीं
हैं, पर
वहां पहुंचाती
है, जहां
से स्वयं का
कभी भी कहीं जाना
नहीं हुआ है।
वह स्वरूप है।
वह स्व—अवस्था
है।
दसों
दिशाएं बाहर
जाती हैं।
उनसे जो
निर्मित है
वही जगत है।
दस दिशाएं ही
जगत हैं। वे
ही आकाश, स्पेस
हैं।
पर
इन दसों
दिशाओं को जो
जानता और दसों
में जो गति
करता है, वह
इनसे निश्चित
ही पृथक है, अन्यथा न वह
इन्हें जान
सकता था और न
इनमें गतिवान
हो सकता था।
वह
गति करता है
फिर भी गति
नहीं करता है, क्योंकि
यदि वह अपनी
स्वयं—सत्ता
में स्थिर न
हो, तो गति
भी नहीं कर
सकता है। उसकी
समस्त गति के
केंद्र में अ—गति
है। उसके
समस्त
परिवर्तन—चक्र
के बीच में
ध्रुवता है।
गाड़ी के चाको
को देखा है? चाक घूम
पाते हैं, क्योंकि
उनकी कील नहीं
घूमती है। सदा
ही कोई ध्रुव
अध्रुव को थामे
हुए है।
अध्रुव
जीवन है—
ध्रुव आत्मा
है।
यह
आत्मा
ग्यारहवीं
दिशा है। इसे
खोजने कहीं
नहीं जाना है।
इसे खोजने ही
नहीं जाना है।
सब खोज, सब
खोजना छोड़ कर
देखो कि भीतर
कौन है? उसके
प्रति जागो—
'जो है।’
यह
अ—खोज से ही
होगा। यह
दौड़ने से नहीं, रुकने
से होगा। रुको
और देखो, स्टॉप
एंड सी। इन दो
शब्दों में ही
सारा धर्म है—सारी
साधना है—
सारा योग है।
रुको
और देखो। और
ग्यारहवीं
दिशा खुल जाती
है। उससे आंतरिक
आकाश में
प्रवेश होता
है। उस आंतरिक
आकाश, इनर
स्पेस का नाम
ही आत्मा है।
मैं देख रहा
हूं कि आप
दौड़े चले जा
रहे हैं। और
सब दौड़ के अंत
में गिर पड़ने
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। क्या
रोज आप लोगों
को गिर पड़ते
नहीं देखते हैं?
क्या सब दौड़ो
का अंतिम
परिणाम वही
नहीं है? क्या
हर दौड़ के अंत
में मृत्यु
नहीं लिखा हुआ
है?
पर
जो इस सत्य को
पहले ही पढ़
लेते हैं वे
उससे बच जाते
हैं।
मैं
चाहता हूं कि
आप रुके और
देखें। क्या
आप रुकेंगे
और दखेंगे? क्या
मेरी पुकार
आपको अपनी दौड़
की मूर्च्छा में
सुनाई पड़ती है?
रुके—
और देखें कि
वह कौन है जो
दौड़ रहा है? रुके—
और देखें कि
वह कौन है जो
खोज रहा है? रुके— और
देखें कि वह
कौन है जो मैं
हूं?
और
दौड़ के उत्ताप, फीवर
के आते ही
दसों दिशाएं
विलीन हो जाती
हैं और वह एक
ही दिशा रह
जाती है, जो
कि दिशा नहीं
है। वह वहां
ले जाती है जो
कि मूल है, जो
कि उदगम है, जो कि उत्स
है।
कोई
साधु लोगों से
कहता था कि
जन्म के पूर्व
आप कैसे थे— बताइएगा? वह
साधु यदि आपको
मिल जाए तो आप
उसे क्या कहेंगे?
जानते हैं
कि जन्म के
पूर्व कैसे थे?
जानते हैं
कि मृत्यु के
बाद कैसे
होंगे? पर
यदि रुकना और
देखना आ जाए
तो आप वह जान
सकते हैं, वह
जो जन्म के
पूर्व था और
मृत्यु के
पश्चात भी
होगा— वह अभी
इस क्षण भी
भीतर है। बस
थोड़ा मुड़ कर
देखने भर की
बात है।
रुकिए
और देखिए। मैं
इस अदभुत लोक
में चलने का
आमंत्रण देता
हूं।
आज
इतना ही।
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