दिनांक, 7
जून, 1964;
सुबह।
मुछाला
महावीर,
राणकपुर।
प्रश्न
: ओशो क्या आप
तत्वदर्शन का
कोई मूल्य
नहीं मानते
हैं? क्या
सत्य को जानने
के लिए सत्य
के संबंध में जानना
आवश्यक नहीं
है?
सत्य
को जानने के
पूर्व सत्य को
नहीं जाना जा
सकता है। और
सत्य के संबंध
में जानना, सत्य
को जानना नहीं
है। वह सब
असत्य है। वह
इसलिए असत्य
है, क्योंकि
स्वानुभव के
अभाव में उसे
समझा ही नहीं
जा सकता है।
वह
कहने वाले की
ओर से नहीं, सुनने
वाले की ओर से
असत्य है।
मैं
सत्य के संबंध
में जो कहूंगा, क्या
आप वही
समझेंगे?
यह
तो संभव नहीं
है। क्योंकि
वही समझने के
लिए आपका वही
और वहीं होना
जरूरी है जो
मैं हूं और
जहां मैं हूं।
अन्यथा वह आप
तक पहुंचते—पहुंचते
ही असत्य हो
जाता है।
ऐसा
ही होता है।
क्योंकि मैं
तो शब्द ही
दूंगा, पर
उनका अर्थ
आपके भीतर से
आएगा। वह अर्थ
आपसे होगा
पैदा और वह
आपसे अन्यथा
नहीं होगा।
शब्द मेरे
होंगे, अर्थ
आपका होगा। वह
अर्थ आपसे
ज्यादा और
आपकी अनुभूति
से ऊपर नहीं
हो सकता है।
क्या
आप सोचते हैं
कि जब आप गीता
पढ़ते हैं तब आप
कृष्ण को पढ़ते
हैं,
ऐसा सोचते
हों तो बड़ी
भूल में हैं।
मित्र! गीता
में आप अपने
को ही पढ़ते
हैं, अन्यथा
गीता के इतने
अर्थ और
टीकाएं क्या
संभव थीं? प्रत्येक
शास्त्र में
हम अपनी ही
शक्ल देख लेते
हैं, और
प्रत्येक
धर्म हमारे
लिए दर्पण से
भिन्न नहीं है।
सत्य
को जानने के
पूर्व सत्य
नहीं, शब्द ही
जाने जा सकते
हैं, वे
शब्द दूसरों
के होंगे, पवित्र
ग्रंथों और अवतारों,
तीर्थंकरों
के होंगे, पर
उनमें अर्थ
हमारा ही होगा,
उनके भीतर
मैं ही रहूंगा।
क्या तथाकथित
धर्मों में जो
भेद और
वैमनस्य है, उसका कारण
यही नहीं है?
क्या
बुद्ध और
क्राइस्ट में
विरोध और
वैमनस्य संभव
है?
वह मेरा और
आपका वैमनस्य
है, वह
मेरा और आपका
अर्थ है, वह
मेरा और आपका
विरोध है, जो
हम उनके नाम
से चला रहे
हैं।
सत्य
को जो जानते
हैं,
उनसे धर्म
प्रकट होता है,
पर जो सत्य
को सुनते और
मानते हैं, उनसे धर्म
नहीं, संप्रदाय
बनते और
संगठित होते
हैं। इसलिए
धर्म तो एक ही
है, पर
संप्रदाय
अनेक हैं, क्योंकि
सत्य को’ जानना'
तो एक ही
अनुभूति है पर
सत्य को’ मानना’
एक ही नहीं है।
ज्ञान एक ही
है, पर
मान्यताएं
उतनी ही हैं
जितने कि
मानने वाले
हैं।
धर्म, रिलिजन
का जन्म तो
सत्य—दर्शन से
होता है, पर
धर्मों, रिलिजस
का जन्म सत्य—अदर्शन
से होता है।
धर्म—चक्र का
प्रवर्तन तो
वे करते हैं
जो जानते हैं,
पर धर्म—संगठन
वे करते हैं
जो नहीं जानते
हैं, और
उनके
सदप्रयासों
में ही धर्म
अधर्म हो जाता
है। मनुष्य का
पूरा इतिहास
इस दुर्भाग्य
से पीड़ित रहा
है।
प्रश्न:
ओशो सत्य की
कोई धारणा
बिना बनाए तो
हम उनके संबंध
में कुछ सोच
ही नहीं सकते
हैं?
मैं
सोचने को कह
भी नहीं रहा
हूं। सोचना
आपके जानने से
ऊपर कभी नहीं
जाता है। और
यदि आप सत्य
को नहीं जानते
हैं,
तो इस संबंध
में सोच ही
कैसे सकते हैं?
सोचना, थिंकिंग
सदा जानने की
सीमा में ही
होता है। वह
उसी की जुगाली
है।
सोचना—विचारना
सृजनात्मक, क्रिएटिव
कभी नहीं है, वह केवल
पुनर्वृत्यात्मक,
रिपीटीटिव
है। जो अज्ञात
है, वह
उससे नहीं
जाना जा सकता
है। उसे जानना
है तो जो हम
जानते ही हैं,
उसके बाहर
चलना जरूरी है।
अज्ञात में
प्रवेश के लिए
ज्ञात तटों को
छोड़ना ही होता
है।
इसलिए
अच्छा है कि
सत्य की कोई
धारणा न बनाएं।
वह धारणा एकदम
ही असत्य होगी।
वह निष्प्राण
शब्द ही होगी, जीवित
अर्थ नहीं। वह
शब्द परंपरा
से आदृत हो
सकता है, हजारों
लोगों से
पूज्य हो सकता
है, उसके
समर्थन में
धर्मशास्त्र
हो सकते हैं, पर उसका
आपके लिए कोई
मूल्य नहीं है।
सत्य—साधक के
लिए वह
निर्मूल्य ही
नहीं, घातक
भी है।
उस
शब्द के घेरे
में से, उस
शब्द की चौखट
में सें—सत्य
के खंडित आकाश
को देखना एक
बात है और सारे
घेरों और
चौखटों के
बाहर आकर अखंड
आकाश के दर्शन
करना बिलकुल
ही दूसरी बात
है। आकाश किसी
घेरे में नहीं
है, सत्य
भी किसी घेरे
में नहीं है।
सब घेरे
मनुष्य—निर्मित
हैं। सब
धारणाएं
मनुष्य—निर्मित
हैं। सब शब्द
मनुष्य
द्वारा दिए गए
हैं। सत्य वह
है जो मनुष्य—निर्मित
नहीं है।
उस
सत्य को जानना
है तो चलें, थोड़ा
अपने घरों से
बाहर चलें—शब्दों,
विचारों और
अपने तथाकथित
जान के बाहर चलें।
ज्ञात को छोड़े
ताकि अज्ञात आ
सके और मनुष्य—सृष्ट
धारणाओं को
छोड़े ताकि
उसका साक्षात
हो सके जो कि
सृष्ट नहीं है,
बल्कि
समस्त सृष्टि
का आधार है।
प्रश्न:
ओशो
शास्त्रों के
बिना हम सत्य
को जान ही कैसे
सकते हैं? सत्य
का ज्ञान तो
उन्हीं से
होता है। क्या
आप सोचते हैं
कि समस्त
शास्त्र नष्ट
हो जाएं तो सत्य
नष्ट हो जाएगा?
क्या सत्य
शास्त्र—निर्भर
है या कि
शास्त्र ही
सत्य—निर्भर
है?
मित्र!
शास्त्रों से
सत्य कभी नहीं
पाया गया है, विपरीत
सत्य को पाने
से ही शास्त्र
पाए गए हैं।
शास्त्रों का
मूल्य नहीं, मूल्य सत्य
का है, क्योंकि
मूल शास्त्र
नहीं, मूल
सत्य है।
और
यदि
शास्त्रों से
सत्य मिल सकता
तो बहुत सस्ती
बात होती, वह
स्वयं को बदले
बिना ही हो
जाता। पर
शास्त्र
स्मृति को ही
भर सकते हैं, स्वयं एक
बोध नहीं दे
सकते हैं। और
सत्य की दिशा
में स्मृति—
प्रशिक्षण, मेमोरी
ट्रेनिंग से
कुछ भी नहीं
होता है। उसके
लिए तो
स्वपरिवर्तन,
सेल्फ
ट्रांसफॉर्मेशन
का मूल्य
चुकाना होता
है।
शास्त्र
आपको पंडित
बना सकते हैं।
ज्ञान का उनसे
जन्म नहीं
होता है।
शास्त्रों
से और
शास्त्रों का
जन्म हो सकता
है। यह
स्वाभाविक ही
है;
पार्थिव से
पार्थिव ही
पैदा हो सकता
है। पर ज्ञान
उनसे कैसे
आविर्भूत
होगा?
वह
तो चैतन्य का
स्वरूप है। यह
जड़ से नहीं आ
सकता है।
शास्त्र
जड़ है, सत्य जड़
नहीं है। उनसे
जड़ स्मृति
समृद्ध हो
सकती है। चेतन
ज्ञान उनमें
गति से नहीं, स्वयं में
गति से उपलब्ध
होता है।
मैं
कहूंगा कि
शास्त्रों के
बीच में रहते
आप सत्य को
कैसे जान सकते
हैं?
यह
मिथ्या धारणा
कि सत्य कहीं
से मिल सकता
है—शास्त्र से
या गुरु से—
आपको स्वयं
में नहीं
खोजने देती है।
यह धारणा बहुत
बाधा है। यह
भी संसार में
ही तलाश है।
स्मरण
रहे कि
शास्त्र भी
संसार के ही
हिस्से हैं।
जो भी बाहर है, वही
संसार है।
सत्य वहां है,
जहां बाहर
नहीं है, क्योंकि
स्व वहां है।
स्व
ही वास्तविक
शास्त्र है और
स्व ही वास्तविक
गुरु है—उसमें
प्रवेश से ही
सत्य उपलब्ध
होता है।
प्रश्न:
ओशो बुद्धि जो
बताती है कि
सत्य है? क्या
वह सत्य नहीं
है?
बुद्धि, इंटेलेक्ट
विचार करती है।
ज्ञान उसे
नहीं होता।
विचार अंधेरे
में टटोलना है,
वह जानना
नहीं है। सत्य
विचारा नहीं
जाता, उसका
दर्शन होता है,
उसका
साक्षात होता
है। यह बुद्धि
से नहीं होता,
वरन जब
बुद्धि शांत
और शून्य होती
है, तब
होता है। वह
अंतर्बोध की
स्थिति, बुद्धि
नहीं, प्रज्ञा,
इनटयूशन है।
प्रज्ञा
विचार नहीं, आंख
है। जैसे अंधे
व्यक्ति को आंख
मिल जाए ऐसे
ही वह सत्य के
लिए आंख है।
विचार से कोई
कभी कहीं
पहुंचता नहीं
है। वह अंतहीन
टटोलना है।
जैसे अंधा
व्यक्ति अनंत
तक टटोलता रहे
तो भी क्या वह
टटोलने से
प्रकाश को पा
सकेगा? टटोलने
और प्रकाश में
जैसे कोई
संबंध नहीं है,
वैसे ही
विचारने और
सत्य में भी
नहीं है। वे
दोनों बिलकुल
भिन्न आयाम, डाइमेन्शन
हैं।
प्रश्न:
ओशो क्या
कृष्ण या
क्राइस्ट के
साक्षात को आप
आत्मिक अनुभव
नहीं मानते
हैं?
नहीं, वे
आत्मिक अनुभव
नहीं हैं।
किसी का भी
अनुभव आत्मिक
अनुभव नहीं है।
उस तल पर सब
अनुभव मानसिक,
साइकोलॉजिकल
हैं।
जब
तक’ किसी' का
साक्षात है, तब तक’ अपना' साक्षात
नहीं है। उस
तरह के
अनुभवों में
भी हम अपने से
बाहर ही हैं
और हमारा
स्वयं में आना
नहीं हुआ है।
वह
आना तो तब
होता है, जब
बाहर कोई भी
अनुभव नहीं
होता है। जब
कोई विषय, ऑब्जेक्ट
होकर चेतना के
समक्ष नहीं
होता है, तब
वह सहज ही
स्वयं में
प्रतिष्ठित
होता है।
निर्विषय, ऑब्जेक्टलेस
ही चेतना
स्वाधार होती
है।
मैं
अपने से बाहर
दो जगतों से
घिरा हूं— एक
पदार्थ, मैटर
का, एक मन, माइंड का।
वे दोनों ही
मुझसे बाहर
हैं। पदार्थ
तो बाहर है ही,
मन भी बाहर
है। मन देह के
भीतर होने से,
भीतर होने
का भ्रम देता
है। वह भी’ भीतर'
नहीं है।’मैं’ उसके
भी पीछे हूं
और उसके भी
पार हूं।
पदार्थानुभवो
को हम आत्मिक
समझने की भूल
नहीं करते हैं, पर
मानसिक
अनुभवों को
आत्मिक समझने
की भांति इसलिए
ही हो जाती है,
क्योंकि वे
पदार्थ जगत से
भिन्न मालूम
होते हैं और आंख
बंद करने पर
दिखाई पड़ते
हैं। पर
मानसिक
अनुभवों में
स्वप्न आदि को
हम आत्मिक
नहीं समझते, क्योंकि
उनकी सत्ता आंख
बंद करने पर
ही होती है, और जागरण, बाहर के जगत
से संपर्क
उन्हें खंडित
कर देता है।
उन मानसिक
अनुभवों का ही
आत्मिक और
वास्तविक होने
का भ्रम होता
है, जिन्हें
मानसिक
प्रक्षेप, मेंटल
प्रोजेक्शन
कहा जाता है।
मन की यह
क्षमता है कि
वह स्वयं को
इतना सम्मोहित,
हिप्नोटाइज
कर सकता है कि
जिन स्वप्नों
को उसने केवल आंख
बंद करके देखा
है, उन्हें
आंख खोल कर भी
देख सके। यह
एक तरह की
जाग्रत
सुषुप्ति, वेकिंग
स्लीप में
होता है।
भगवान के
मनोनुकूल
दर्शन ऐसे ही
होते हैं। ऐसे
साक्षात
मानसिक
प्रक्षेप हैं।
जो है, वह
नहीं, जो
हमने देखना
चाहा है, वही
हम उनमें
देखते हैं। ये
अनुभव न तो
आत्मिक हैं, न भगवान के
हैं। ये केवल मानसिक
हैं और आत्म—सम्मोहन
जनित हैं।
प्रश्न :
ओशो फिर भगवान
के दर्शन कैसे
होते हैं?
यह’ दर्शन' शब्द
भ्रामक है।
इससे ऐसा
प्रतिध्वनित
होता है कि
जैसे भगवान कोई
व्यक्ति है, जिसका कि
साक्षात होगा
और ऐसे ही’ भगवान'
शब्द ही
व्यक्ति का भी
भ्रम देता है।
भगवान कोई
नहीं है, केवल
भगवत्ता है।
व्यक्ति नहीं
है, शक्ति
है शक्ति का
अनंत सागर है।
चैतन्य का
अनंत सागर है।
वही सब रूपों
में
अभिव्यक्त हो
रहा है। वह
भगवान
स्रष्टा, क्रिएटर
की भांति अलग
नहीं है। वही
है सृष्टि, वही है
सृजनात्मकता,
क्रिएटिविटी,
वही है जीवन।
'अहं', ईगो
से घिर कर हम
इस’ जीवन’, लाइफ
से भिन्न होने
का आभास कर
लेते हैं। वही
प्रभु से
हमारी दूरी है,
यूं वस्तुत:
दूरी असंभव है।
अहं से,’मैं’
से पैदा हुआ
आभास ही दूरी
है। यह दूरी
अज्ञान है।
वस्तुत: दूरी
नहीं है, अज्ञान
ही दूरी है।
'मैं' मिट
जाए तो अनंत, अपरिसीम
सृजनात्मक
जीवन—शक्ति का
अनुभव होता है।
वही भगवान है।’मैं’ की
शून्यता पर जो
अनुभव है, वही’
भगवान' का
दर्शन है।
मैं
क्या देख रहा
हूं कि’ मैं' कहीं
भी नहीं है और
जो सागर की
लहरों में है
वही मुझमें है,
जो स्वयं
वसंत में नई
फूटती
कोंपलों में
है, वही
मुझमें है, जो पतझड़ में
गिरे पत्तों
में है, वही
मुझमें है।
मैं
विश्वसत्ता
से कहीं भी
टूटा और पृथक
नहीं हूं
उसमें हूं वही
हूं—यही अनुभव
प्रभु—साक्षात
है।
ऋषि
ने कहा है’ तत्वमसि
श्वेतकेतु।’ श्वेतकेतु,
वह तू ही है,
दैट आर्ट
दाउ। ऐसा ही
जिस दिन आपको
दिखे, उस
दिन जानना कि
प्रभु—साक्षात
हुआ है। इससे
नीचे और इससे
भिन्न सब
कल्पना, इमेजिनेशन
है।
प्रभु
का दर्शन क्या
होना है? स्वयं
ही प्रभु हो
जाना है। बूंद
सागर का दर्शन
क्या करती
होगी! मिट
सकती है, तो
सागर ही हो
जाती है। बूंद
होकर सागर
उससे अनंत
दूरी पर है, मिट कर वह
स्वयं ही सागर
है।
भगवान
को मत खोजो, भगवान
होने को खोजो।
और खोजने का
मार्ग वही है
जो बूंद का
सागर को खोजने
का है।
प्रश्न:
ओशो मैं ईश्वर
पर विश्वास करता
हूं। पर आप
कहते हैं कि
विश्वास घातक
है तो क्या मैं
अपना विश्वास
छोड़ हूं?
क्या
आपके प्रश्न
में ही उत्तर
नहीं छिपा हुआ
है?
जो विश्वास
पकड़ा और छोड़ा
जा सकता है, क्या वह भी
कोई विश्वास
है? वह तो
मात्र एक अंध
मानसिक धारणा
है, जिसका
कि स्पष्ट ही
कोई भी मूल्य
नहीं है। वह
अंधविश्वास
है। और अंधापन
तो जीवन में
जितना कम हो, उतना अच्छा
है।
मैं
विश्वास करने
को नहीं, जानने
को कहता हूं।
ज्ञान
से,
साक्षात से,
जानने से, जो चित्त—स्थिति
आती है, उसका
मूल्य है, चाहें
तो उसे सम्यक
श्रद्धा कहे—पर
वह श्रद्धा
नहीं है, ज्ञान
ही है।
सत्य
पर श्रद्धा मत
करिए, शोध
करिए—खोजिए।
मान्यता मत
पकडिए कोई भी।
वह चित्त की
कमजोरी का
लक्षण है। वह
आलस्य है, वह
प्रमाद है। वह
स्वयं खोज के
श्रम से बचने
का घातक उपाय
है।
अंधविश्वास
साधना से
पलायन है। एक
अर्थ में वह
आत्मघात ही है;
क्योंकि जो
उसमें गिरा वह
सत्य तक उठने
में असमर्थ हो
जाता है। वे
दोनों विपरीत
राहें हैं। एक
है खाई, जिसमें
गिरना होता है।
दूसरा है
पर्वत, जिस
पर चढ़ना होता
है।
श्रद्धा
सरल है, क्योंकि
उसमें कुछ
करना ही नहीं
है। ज्ञान उस
अर्थ में सरल
नहीं है। वह
पूरा जीवन—
परिवर्तन है।
श्रद्धा
मात्र वस्त्र
है, ज्ञान
अंतस—क्रांति
है। श्रद्धा
की सरलता धर्म
को सहज ही
साधना की तपश्चर्या
से अंधविश्वास
की निद्रा में
गिरा देती है।
धर्म श्रद्धा
नहीं है; पर
लोकधर्म
श्रद्धा ही है।
और इसलिए जो
लोकधर्म बना
दिख रहा है, उसे मैं
धर्म कहने में
अपने को
असमर्थ ही
पाता हूं।
उसके संबंध
में मार्क्स
ही सही है। वह
धर्म नहीं, नशा ही है।
आज इतना
ही।
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