सूत्र:
45—अ: से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार
चुपचाप
करो। और तब
हकार में अनायस
सहजता
को
उपलब्ध होओ।
46—कानों
को दबाकर और
गुदा को
सिकोड़कर बंद
करो,
और ध्वनि में
प्रवेश करो।
47—अपने
नाम की ध्वनि
में प्रवेश
करो, और उस
ध्वनि
के द्वारा सभी
ध्वनियों
में।
तंत्र
कोई
दर्शनशास्त्र
नहीं है, वरन
एक विशान
है। लेकिन वह
विज्ञान है एक
फर्क के साथ।
विज्ञान आब्जेक्टिव
होता है और
तंत्र सब्जेक्टिव,
विज्ञान की
खोज बाहर है
और तंत्र की
खोज भीतर। इस
फर्क के
बावजूद तंत्र
एक विज्ञान है,
तंत्र
दर्शनशास्त्र
नहीं है।
दर्शनशास्त्र
सत्य के, अज्ञात
के, परम के
संबंध में सोच—विचार
करता है।
विज्ञान, जो
है, उसकी
खोज करता है, उसे उदघाटित
करता है।
विज्ञान
प्रत्यक्ष
में प्रवेश
करता है, दर्शनशास्त्र
परम का विचार
करता है।
दर्शनशास्त्र
सदा आकाश की
ओर देखता है, विज्ञान
धरती की ओर। तंत्र
परम की चिंता
नहीं लेता है,
वह
प्रत्यक्ष की,
अभी और यहीं
की फिक्र करता
है। तंत्र
कहता है कि
परम
प्रत्यक्ष
में छिपा है, तुम्हें परम
की चिंता नहीं
लेनी है। परम
की चिंता कर—करके
तुम
प्रत्यक्ष को
गंवा दोगे और
परम प्रत्यक्ष
में ही छिपा
है। परम का
विचार करके
तुम दोनों को
गंवा दोगे।
अगर तुमने
प्रत्यक्ष को
गंवा दिया तो
तुम परम को भी
गंवा दोगे।
तो
दर्शनशास्त्र
धुआ ही धुआ है।
तंत्र की
दृष्टि
वैज्ञानिक है, लेकिन
उसका
उद्देश्य
तथाकथित
विज्ञान से भिन्न
है। विज्ञान आब्जेक्ट
को, आब्जेक्टिव संसार को—उस
सत्य को जो
तुम्हारी आंखों
के सामने है—समझने
की चेष्टा
करता है।
तंत्र उस सत्य
का विज्ञान है
जो तुम्हारी आंखों
के पीछे है, वह सब्जेक्ट
का विज्ञान है।
लेकिन तंत्र
की दृष्टि
बिलकुल
वैज्ञानिक है।
वह विचार में
नहीं, प्रयोग
और अनुभव में
विश्वास करता
है। और जब तक
तुम्हें
अनुभव नहीं
होता, तब
तक सब कुछ
शक्ति का
अपव्यय मात्र
है।
मुझे
एक घटना याद
आती है।
मुल्ला नसरुद्दीन
एक सड़क पार कर
रहा था। ठीक
चर्च के सामने
उसे एक तेज
भागती कार ने
धक्का देकर
गिरा दिया। वह
का था और भीड़
उसके पास
इकट्ठी हो गई।
उसमें से किसी
ने कहा कि यह
आदमी नहीं
बचेगा। चर्च
का पुरोहित
बाहर भागा आया
और उसने निकट जाकर
देखा कि वह
व्यक्ति मरने—मरने
को है, तो उसने उसकी
अंतिम—क्रिया
की’ की। उसने
नजदीक जाकर
मरणासन्न
मुल्ला से
पूछा, क्या
तुम परम पिता
ईश्वर में
विश्वास करते
हो? क्या
तुम ईश्वर के
पुत्र में विश्वास
करते हो? और
क्या तुम
पवित्र आत्मा
में विश्वास
करते हो? मुल्ला
ने आंखें खोलीं
और कहा. हे
परमात्मा, मैं
मर रहा हूं और
यह आदमी मुझे पहेलियां
बुझा रहा है!
सभी
दर्शनशास्त्र
ऐसे ही हैं, वे
पहेलियां
बुझा रहे हैं,
जब कि तुम
मर रहे हो।
प्रतिक्षण
तुम मर रहे हो,
प्रतिक्षण
हरेक आदमी
मृत्यु—शय्या
पर है, क्योंकि
मृत्यु तो
किसी भी क्षण
घट सकती है।
लेकिन
दर्शनशास्त्र
पहेलियां
बुझा रहे हैं।
तंत्र
कहता है, सोच—विचार
के ऊहापोह में
पड़ना
बच्चों के लिए
तो ठीक है, लेकिन
जो बुद्धिमान
हैं वे सिद्धांतों
में अपना समय
नहीं नष्ट
करेंगे। वे
जानने की
चेष्टा
करेंगे, विचारने
की नहीं, क्योंकि
विचारने से
शान नहीं होता
है। विचार के
द्वारा तुम
शब्दों के जाल
भर बुनते हो, शब्दों के
ढांचे गढ़ते
हो, लेकिन
विचार कहीं
नहीं
पहुंचाता है।
तुम वही के
वही रहते हो, न कोई
रूपांतरण
होता है, न
कोई
अंतर्दृष्टि
उपलब्ध होती
है। पुराना मन
सिर्फ धूल
इकट्ठा किए
जाता है।
जानना
और ही बात है।
उसका मतलब
किसी के संबंध
में सोचना—विचारना
नहीं है। उसका
मतलब है कि
जानने के लिए
तुम खुद
अस्तित्व की
गहराई में
प्रवेश करते
हो,
सीधे
अस्तित्व में
उतरते हो।
यह
ध्यान रहे, तंत्र
दर्शनशास्त्र
नहीं है।
तंत्र
विज्ञान है, स्वयं में
उतरने का
विज्ञान है।
उसकी दृष्टि
गैर—दार्शनिक
है, वैज्ञानिक
है। तंत्र
बहुत यथार्थवादी
है; प्रत्यक्ष
से, निकट
से उसका नाता
है।
प्रत्यक्ष: को
परम का द्वार
बनाया जा सकता
है। अगर तुम
प्रत्यक्ष
में प्रवेश कर
जाओ तो परम
घटित होता है।
परम मौजूद ही
है। और उस तक
पहुंचने के
लिए दूसरा कोई
मार्ग नहीं है।
तंत्र
की नजर में
दर्शनशास्त्र
कोई मार्ग नहीं
है,
वह झूठा
मार्ग है। वह
मार्ग जैसा
सिर्फ भासता
है। वह ऐसा
द्वार है जो
है नहीं, सिर्फ
द्वार जैसा भासता
है। वह झूठा
द्वार है।
जैसे ही तुम
उसमें प्रवेश
करने की कोशिश
करते हो, तुम्हें
पता चलता है
कि प्रवेश
संभव नहीं है।
वह द्वार का
चित्र है, सच्चा
द्वार नहीं।
दर्शनशास्त्र
द्वार का
रंगीन चित्र
है, उसके
बगल में बैठकर
सोच—विचार
करना तो अच्छा
है, लेकिन
अगर प्रवेश
करना चाहो तो
वह दीवार है।
प्रत्येक
दर्शनशास्त्र
सोच—विचार के
लिए ठीक है, अनुभव के
लिए बेकार है,
व्यर्थ है।
यही
कारण है कि
तंत्र
विधियों पर
इतना जोर देता
है—इतना
ज्यादा जोर
देता है।
क्योंकि
विज्ञान तो टेक्यीक
ही दे सकता है—चाहे
वह बाहरी
दुनिया के लिए
हो या भीतरी
दुनिया के लिए।
तंत्र शब्द का
अर्थ ही टेक्यीक
है,
विधि है।
तंत्र शब्द का
मतलब ही विधि
है। इसीलिए इस
छोटी सी, लेकिन
सर्वाधिक
महत्व और
गहराई की
पुस्तक में
विधियां ही
विधियां दी
हुई हैं, उसमें
कोई दर्शन
नहीं है।
इसमें
प्रत्यक्ष के
जरिए परम को
पाने की एक सौ
बारह विधियां
हैं।
ध्वनि—संबंधी
नौवीं विधि:
अ से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप
करो और तब
हकार में
अनायास सहजता
को उपलब्ध होओ।
'अ: से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप
करो।’
कोई
भी शब्द जिसका
अंत अ: से होता
है,
उसका
उच्चार चुपचाप
करो। शब्द के
अंत में अ: के
होने पर जोर
है। क्यों? क्योंकि जिस
क्षण तुम अ का
उच्चार करते
हो, तुम्हारी
श्वास बाहर
जाती है।
तुमने खयाल
नहीं किया
होगा, अब
खयाल करना कि जब
भी तुम्हारी
श्वास बाहर
जाती है, तुम
ज्यादा शांत
होते हो और जब
भी श्वास भीतर
जाती है, तुम
ज्यादा
तनावग्रस्त
होते हो। कारण
यह है कि बाहर
जाने वाली
श्वास मृत्यु
है और भीतर
आने वाली
श्वास जीवन है।
तनाव जीवन का
हिस्सा है, मृत्यु का
नहीं।
विश्राम
मृत्यु का अंग
है, मृत्यु
का अर्थ है
पूर्ण
विश्राम।
जीवन पूर्ण
विश्राम नहीं
बन सकता, वह
असंभव है।
जीवन का अर्थ
है तनाव, प्रयत्न,
सिर्फ
मृत्यु
विश्रामपूर्ण
है।
तो
जब भी कोई
व्यक्ति पूरी
तरह
विश्रामपूर्ण
हो जाता है, वह
दोनों हो जाता
है—बाहर से वह
जीवित होता है
और भीतर से
मृत। तुम
बुद्ध के
चेहरे में
जीवन और
मृत्यु को साथ—साथ
देख सकते हो।
इसीलिए उनके
चेहरे पर इतना
मौन, इतनी
शांति है—मौन
और शाति
मृत्यु के अंग
हैं।
जीवन
विश्रामपूर्ण
नहीं है, रात
में जब तुम सो
जाते हो तो
तुम विश्राम
में होते हो।
इसीलिए
पुरानी
परंपराएं
कहती हैं कि
मृत्यु और
नींद समान हैं।
नींद अस्थायी
मृत्यु है। और
यही कारण है
कि रात्रि विश्रामदायी
होती है, वह
बाहर जाने
वाली श्वास है।
सुबह भीतर आने
वाली श्वास है।
दिन तुम्हें
तनाव से भर
देता है, रात
तुम्हें
विश्राम से
भरती है।
प्रकाश तनाव
पैदा करता है,
अंधकार
विश्राम लाता
है। यही वजह
है कि तुम दिन
में नहीं सो
सकते, दिन
में विश्राम
करना कठिन है।
प्रकाश जीवन
जैसा है, वह
मृत्यु—विरोधी
है। अंधकार
मृत्यु जैसा
है, वह
मृत्यु के
अनुकूल है।
तो
अंधकार में
गहरी
विश्रांति है।
और जो लोग
अंधकार से
डरते हैं, वे
विश्राम में
नहीं उतर सकते।
यह असंभव है।
विश्राम
अंधेरे में
घटित होता है।
और तुम्हारे
जीवन के दोनों
छोरों पर
अंधेरा है।
जन्म के पहले
तुम अंधेरे
में होते हो
और मृत्यु के
बाद तुम फिर
अंधेरे में
होते हो।
अंधकार असीम
है। और यह
प्रकाश, यह
जीवन उस
अंधकार के
भीतर एक क्षण
जैसा है।
अंधकार के
समुद्र में
प्रकाश लहर
जैसा है जो उठता—गिरता
रहता है। अगर
तुम जीवन के
दोनों छोरों
को घेरने वाले
अंधकार को
स्मरण रख सको
तो तुम यहीं
और अभी विश्राम
में हो सकते
हो।
जीवन
और मृत्यु
अस्तित्व के
दो छोर हैं।
भीतर आने वाली
श्वास जीवन है, बाहर
जाने वाली
श्वास मृत्यु
है। ऐसा नहीं
है कि तुम
किसी दिन
मरोगे, तुम
प्रत्येक
श्वास के साथ
मर रहे हो।
यही
कारण है कि
हिंदू जीवन को
श्वासों की
गिनती कहते
हैं,
वे उसे
वर्षों की
गिनती नहीं
कहते। तंत्र,
योग आदि सभी
भारतीय
परंपराएं
जीवन को
श्वासों में
गिनती हैं, वे कहती हैं
कि तुम्हें
इतनी श्वासों
का जीवन मिला
है। वे कहती
हैं कि अगर
तुम तेजी से
श्वास लोगे, थोड़े समय
में ज्यादा
श्वासें लोगे
तो तुम बहुत
जल्दी मरोगे।
और अगर तुम
बहुत धीरे—
धीरे श्वास
लोगे, अगर
एक निश्चित
समय में कम
श्वास लोगे तो
तुम ज्यादा
समय तक जीओगे।
और
बात ऐसी ही है।
अगर तुम पशुओं
का निरीक्षण
करोगे तो
पाओगे कि बहुत
शक श्वास लेने
वाले पशु लंबी
उम्र जीते हैं।
उदाहरण के लिए
हाथी है, हाथी
की उम्र बड़ी
है, क्योंकि
उसकी श्वास
धीमी चलती है।
फिर कुत्ता है,
उसकी श्वास
तेज है और
उसकी उम्र बहुत
कम। भी पशु
बहुत तेज
श्वास लेता
मिलेगा, उसकी
उम्र लंबी
नहीं हो सकती।
लंबी उम्र सदा
धीमी श्वास के
साथ जुड़ी है।
तंत्र, योग
और अन्य
भारतीय साधना—पथ
तुम्हारे
जीवन का हिसाब
तुम्हारी
श्वासों से
लगाते हैं। सच
तो यह है कि
तुम हरेक
श्वास के साथ
जन्मते हो और
हरेक श्वास के
साथ मरते हो। येह विधि
बाहर जाने
वाली श्वास को
गहरे मौन में
उतरने का
माध्यम बनाती
है उपाय बनाती
है। यह एक
मृत्यु—विधि
है।
'अ: से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप
करो।’
श्वास
बाहर गई है—इसलिए
अ: से अंत होने
वाले शब्द का
उपयोग है। यह
अ: अर्थपूर्ण
है,
क्योंकि जब
तुम अ: कहते हो,
वह तुम्हें
पूरी तरह खाली
कर देता है।
उसके साथ पूरी
श्वास बाहर
निकल जाती है,
कुछ भी भीतर
बची नहीं रहती।
तुम बिलकुल
खाली हो जाते
हो—खाली और
मृत। एक क्षण
के लिए बहुत
थोड़ी देर के
लिए जीवन तुमसे
बाहर निकल गया
है और तुम मृत
और खाली हो।
अगर
इस रिक्तता को, इस
खालीपन को तुम
जान लो, उसके
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाओ तो तुम
पूर्णत: रूपांतरित
हो जाओगे। तुम
और ही आदमी हो
जाओगे। तब तुम
भलीभांति जान
लोगे कि न यह
जीवन तुम्हारा
जीवन है और न
यह मृत्यु ही
तुम्हारी
मृत्यु है। तब
तुम उसे जान
लोगे जो आती—जाती
श्वासों के पार
है, तब तुम
साक्षी आत्मा
को जान लोगे।
और साक्षित्व
उस समय आसानी
से घट सकता है
जब तुम
श्वासों से
खाली हो, क्योंकि
तब जीवन उतार
पर होता है और
सारे तनाव भी
उतार पर होते
हैं। तो इस
विधि को
प्रयोग में
लाओ। यह बहुत
ही सुंदर विधि
है।
लेकिन
आमतौर से, सामान्य
आदत के
मुताबिक, हम
सदा भीतर आने
वाली श्वास को
ही महत्व देते
हैं, हम
बाहर जाने
वाली श्वास को
कभी महत्व
नहीं देते। हम
सदा श्वास
भीतर लेते हैं,
उसे बाहर
नहीं छोड़ते।
हम श्वास लेते
हैं और शरीर
उसे छोड़ता है।
तुम अपनी
श्वसन—क्रिया
का निरीक्षण
करो और
तुम्हें यह पता
चल जाएगा।
हम
सदा श्वास
लेते हैं, हम
उसे छोड़ते
नहीं। छोड़ने
का काम शरीर
करता है। और
इसका कारण यह
है कि हम
मृत्यु से
भयभीत हैं। बस
यही कारण है।
अगर हमारा बस
चलता तो हम
कभी श्वास को
बाहर जाने ही
नहीं देते, हम श्वास को
भीतर ही रोक
रखते। कोई भी
व्यक्ति
श्वास छोड़ने
पर जोर नहीं
देता, सब
लोग श्वास
लेने की ही
बात करते हैं।
लेकिन श्वास
को भीतर लेने
के बाद उसे
बाहर निकालना
अनिवार्य हो
जाता है, इसलिए
हम मजबूरी में
उसे बाहर जाने
देते हैं। उसे
हम किसी तरह
बरदाश्त कर
लेते हैं, क्योंकि
श्वास छोड़े
बगैर श्वास
लेना असंभव है।
इसलिए श्वास
छोड़ना आवश्यक
बुराई के रूप
में स्वीकृत
है। लेकिन
बुनियादी तौर
से श्वास
छोड़ने में
हमारा कोई रस
नहीं है।
और
यह बात श्वास
के संबंध में
ही सही नहीं
है,
पूरे जीवन
के प्रति
हमारी दृष्टि
यही है। जो भी
हमें मिलता है,
उस पर हम
मुट्ठी बांध
लेते हैं, उसे
छोड़ने का नाम
ही नहीं लेते।
यही मन की
कृपणता है। और
याद रहे, इसके
बहुत परिणाम
होते हैं। अगर
तुम कब्जियत
से म् पीड़ित
हो तो उसका
कारण यह है कि
तुम श्वास तो
लेते हो, लेकिन
उसे छोड़ते
नहीं। जो व्यक्ति
श्वास लेना
जानता है, लेकिन
छोड़ना नहीं, वह कब्जियत
से पीड़ित होगा।
कब्जियत उसी
चीज का दूसरा
छोर है। वह
किसी भी चीज
को अपने से
बाहर जाने
देने के लिए राज़ी
नहीं है, वह
सिर्फ इकट्ठा
करता जाता है।
वह भयभीत है
और भय के कारण वह
इकट्ठा किए जाता
है।
लेकिन
जो चीज रोक ली
जाती है वह
विषाक्त हो जाती
है। तुम श्वास
तो लेते हो
लेकिन अगर उसे
छोड़ते नहीं तो
वही श्वास जहर
बन जाएगी और
तुम उसके कारण
मरोगे। अगर
तुमने कंजूसी
की तो तुम एक
जीवनदायी
तत्व को जहर
में बदल दोगे, क्योंकि
श्वास का बाहर
जाना नितांत
जरूरी है।
बाहर जाती
श्वास
तुम्हारे
भीतर से सब
जहर को बाहर
निकाल फेंकती
है।
तो
सच तो यह है कि
मृत्यु
शुद्धि की
प्रक्रिया है
और जीवन
अशुद्धि की, विषाक्त
करने की
प्रक्रिया है।
यह बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ेगी।
जीवन विषाक्त
करने की
प्रक्रिया है
क्योंकि जीने
के लिए बहुत
सी चीजों को
उपयोग में
लाना पड़ता है
और जैसे ही
तुम उनका
उपयोग कर लेते
हो, वे विष
में बदल जाती
हैं। जब तुम
श्वास लेते हो
तो तुम
आक्सीजन का
उपयोग कर रहे
हो, लेकिन
उपयोग करने के
बाद जो चीज बच
रहती है वह विष
है। आक्सीजन
के कारण ही वह
जीवन था।
लेकिन जब
तुमने उसका
उपयोग कर लिया
तो शेष विष हो
जाता है। ऐसे
ही जीवन हर
चीज को जहर
में बदलता रहता
है।
अभी
पश्चिम में एक
बड़ा आंदोलन
चलता है जिसका
नाम इकोलाजी
है परिवेश—विज्ञान
है। मनुष्य सब
चीजों का
उपयोग करता
रहा है और उन्हें
जहर में बदलता
रहा है। और
नतीजा यह है
कि पृथ्वी
मृत्यु के
कगार पर आ खड़ी
है। किसी दिन
भी उसकी
मृत्यु हो
सकती है, क्योंकि
हमने सब चीजों
को विषाक्त कर
दिया है।
मृत्यु
शुद्धि की
प्रक्रिया है।
जब सारा शरीर
विषाक्त हो
जाता है, तब
मृत्यु
तुम्हें उस
शरीर से मुक्त
कर देती है।
मृत्यु
तुम्हें फिर
से नया बना
देगी, तुम्हें
नया जन्म दे
देगी, तुम्हें
नया शरीर मिल
जाएगा।
मृत्यु के
द्वारा शरीर
का सब संगृहीत
विष प्रकृति
में विलीन हो
जाता है और
तुम्हें एक
नया शरीर
उपलब्ध होता
है।
और
यह बात
प्रत्येक
श्वास के साथ
घटित होती है।
बाहर जाने
वाली श्वास
मृत्यु के
समान है, वह
विष को बाहर
ले जाती है।
और जब वह
श्वास बाहर
जाती है तो
तुम्हारे भीतर
सब कुछ शांत
होने लगता है।
अगर तुम सारी
की सारी श्वास
बाहर फेंक दो,
कुछ भी भीतर
न रहने पाए तो
तुम शांति के
उस बिंदु को
छू लोगे जो
श्वास के भीतर
रहते हुए कभी
नहीं छुआ जा
सकता था। यह
ज्वार— भाटे
जैसा है। आती
हुई श्वास के
साथ तुम्हारे
पास जीवन—ज्वार
आता है और
जाती हुई
श्वास के साथ
सब कुछ शांत
हो जाता है।
ज्वार चला गया,
तब तुम खाली,
रिक्त सागरतट
भर रह जाते हो।
इस विधि का
यही उपयोग है।
'अ से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप
करो।’
बाहर
जाने वाली
श्वास पर जोर
दो। और तुम इस
विधि का उपयोग
मन में अनेक
परिवर्तन
लाने के लिए
कर सकते हो।
अगर तुम
कब्जियत से
पीड़ित हो तो
श्वास लेना भूल
जाओ, सिर्फ
श्वास को बाहर
फेंको। श्वास
भीतर ले जाने
का काम शरीर
को करने दो, तुम छोड़ने
भर का काम करो।
तुम श्वास को
बाहर निकाल दो
और भीतर ले
जाने की फिक्र
ही मत करो।
शरीर वह काम
अपने आप ही कर
लेगा, तुम्हें
उसकी चिंता
नहीं लेनी है।
उससे तुम मर
नहीं जाओगे।
शरीर ही श्वास
को भीतर ले
जाएगा। तुम
छोड़ने भर का
काम करो,
शेष शरीर कर
लेगा। और तुम्हारी
कब्जियत जाती
रहेगी।
अगर
तुम हृदय—रोग
से पीड़ित हो
तो श्वास को
बाहर छोड़ो, लेने
की फिक्र मत
करो। फिर हृदय—रोग
तुम्हें कभी
नहीं होगा।
अगर सीढ़ियां
चढ़ते हुए
या कहीं जाते
हुए तुम्हें
थकावट महसूस
हो, तुम्हारा
दम घुटने लगे
तो तुम इतना
ही करो : श्वास
को बाहर छोड़ो,
लो नहीं। और
तब तुम कितनी
ही सीढ़ियां
चढ़ जाओगे और
नहीं थकोगे।
क्या होता है?
जब
तुम श्वास
छोड़ने पर जोर
देते हो तो उसका
मतलब है कि
तुम अपने को
छोड़ने को, अपने
को खोने को
राजी हो, तब
तुम मरने को
राजी हो। तब
तुम मृत्यु से
भयभीत नहीं हो।
और यही चीज
तुम्हें
खोलती है, अन्यथा
तुम बंद रहते
हो। भय बंद
करता है। जब
तुम श्वास
छोड़ते हो तो
पूरी
व्यवस्था बदल जाती
है और वह
मृत्यु को स्वीकार
कर लेती है।
भय जाता रहता
है और तुम
मृत्यु के लिए
राजी हो जाते
हो।
और
वही व्यक्ति
जीता है जो
मरने के लिए
तैयार है। सच
तो यह है कि
वही जीता है
जो मृत्यु से
राजी है। केवल
वही व्यक्ति
जीवन के योग्य
है,
क्योंकि वह
भयभीत नहीं है।
जो व्यक्ति
मृत्यु को
स्वीकार करता
है, मृत्यु
का स्वागत
करता है, मेहमान
मानकर उसकी
आवभगत करता है,
उसके साथ
रहता है, वही
व्यक्ति जीवन
में गहरे उतर
सकता है।
श्वास
बाहर छोड़ो, लेने
की फिक्र मत
करो और
तुम्हारा
समस्त चित्त
रूपांतरित हो
जाएगा। इन सरल
विधियों के
कारण ही तंत्र
प्रभावी नहीं हुआ।
क्योंकि हम
सोचते हैं कि
हमारा मन तो
इतना जटिल है,
वह इन सरल
विधियों से
कैसे बदलेगा।
मन जटिल नहीं
है, मन मूढ़
भर है। और मूढ़
बड़े जटिल होते
हैं।
बुद्धिमान
व्यक्ति सरल
होता है।
तुम्हारे
चित्त में कुछ
भी जटिल नहीं
है, वह एक
बहुत सरल
यंत्र है। अगर
तुम उसे समझोगे
तो बहुत आसानी
से उसे बदल
सकते हो।
अगर
तुमने किसी
आदमी को मरते
हुए नहीं देखा
है,
अगर
तुम्हें
बुद्ध की
भांति मृत्यु
को देखने से
बचाकर रखा गया
है तो तुम
मृत्यु को
नहीं समझ सकते।
बुद्ध के पिता
भयभीत थे, क्योंकि
किसी
ज्योतिषी ने
कहा था कि
तुम्हारा
बेटा महान
संन्यासी
होने वाला है,
वह संसार का
त्याग कर देगा।
पिता ने पूछा
कि उसे
संन्यासी
होने से बचाने
के लिए क्या
किया जाए? तो
ज्योतिषियों
ने उस पर बहुत
विचार—विमर्श
किया और अंत
में वे इस
नतीजे पर
पहुंचे और
उन्होंने
बुद्ध के पिता
को कहा कि इस
बालक को कभी
मृत्यु न दिखे,
क्योंकि
अगर उसे
मृत्यु का बोध
नहीं होगा तो
वह कभी संसार
का त्याग नहीं
करेगा।
यह
कथा बहुत
सुंदर है, बहुत
अर्थपूर्ण है।
उसका अर्थ है
कि समस्त धर्म,
समस्त
दर्शन, समस्त
तंत्र और योग
बुनियादी रूप
से मृत्योगखी
हैं। अगर
तुम्हें
मृत्यु का बोध
है तो ही धर्म तुम्हारे
लिए
अर्थपूर्ण हो
सकता है। यही
कारण है कि
मनुष्य के
सिवाय कोई भी
पशु धार्मिक
नहीं है। पशु
को मृत्यु का
बोध नहीं है।
वह मरता तो है,
लेकिन उसे
इसका बोध नहीं
है। वह सोच भी
नहीं सकता कि
मैं मरने वाला
हूं।
जब
एक कुत्ता
मरता है तो
दूसरे
कुत्तों को
कभी यह आभास
नहीं होता कि
हमारी मृत्यु
भी होगी। जब
भी मरता है, कोई
दूसरा मरता है,
तो कोई
कुत्ता कैसे
कल्पना करे कि
मैं भी मरने
वाला हूं।
उसने कभी अपने
को मरते नहीं
देखा, सदा
किसी दूसरे को
ही मरते देखा
है। वह कैसे
कल्पना करे, कैसे
निष्पत्ति
निकाले कि मैं
भी मरूंगा? पशु को
मृत्यु का बोध
नहीं है, इसी
लिए कोई पशु
संसार का त्याग
नहीं करता।
कोई पशु संन्यासी
नहीं हो सकता।
केवल
एक बहुत ऊंची
कोटि की चेतना
ही तुम्हें संन्यास
की तरफ ले जा
सकती है।
मृत्यु के
प्रति जागने
से ही संन्यास
घटित होता है।
और अगर आदमी
होकर भी तुम
मृत्यु के
प्रति जागरूक
नहीं हो तो
तुम अभी पशु
ही हो, मनुष्य
नहीं हुए हो।
मनुष्य तो तुम
तभी बनते हो
जब मृत्यु का
साक्षात्कार
करते हो।
अन्यथा
तुममें और पशु
में कोई फर्क
नहीं है। पशु
और मनुष्य में
सब कुछ समान
है, सिर्फ
मृत्यु फर्क
लाती है।
मृत्यु का
साक्षात्कार
कर लेने के
बाद तुम पशु
नहीं रहे।
तुम्हें कुछ
घटित हुआ है
जो कभी किसी
पशु को घटित
नहीं होता है।
अब तुम एक
भिन्न चेतना
हो।
तो
बुद्ध के पिता
ने बुद्ध को
किसी भी भांति
की मृत्यु को
देखने से
बचाकर रखा। न
सिर्फ मनुष्य
की मृत्यु से, वरन
पशु और फूल तक
की मृत्यु से
बचाया।
मालियों को
आदेश दिया गया
कि इस बालक को मुर्झाए
फूल, पीले
फूल, मृत
फूल देखने को
न मिलें, उसे
डाल से गिरते
हुए सूखे पीले
पत्ते भी देखने
को न मिलें।
कहीं से भी
उसे यह एहसास
न हो कि कोई
चीज मरती भी
है, क्योंकि
वह इससे
अनुमान लगा
सकता है कि
मैं भी मरने
वाला हूं।
और
तुम हो कि
अपने मां—बाप
की मृत्यु से, अपने
बच्चे की
मृत्यु से भी
नहीं अनुमान
करते कि मैं
मरूंगा। तुम
उनके लिए रोते
भले हो, लेकिन
उनकी मृत्यु
से यह इंगित
नहीं लेते कि
तुम भी मरोगे।
लेकिन
ज्योतिषियों
ने कहा कि यह
बालक अत्यंत
संवेदनशील है, इसलिए
उसे मृत्यु—बोध
से बचाना
जरूरी है। और
बुद्ध के पिता
तो अति सावधान
थे, उन्होंने
व्यवस्था की
कि उनके बेटे
को कोई का आदमी
भी न देखने को
मिले।
क्योंकि बुढ़ापा
मृत्यु की खबर
है, वह दूर
से दिखाई देने
वाली मृत्यु
ही है। तो
उन्होंने
बुद्ध की
दृष्टि से
वृद्ध स्त्री—पुरुष
को दूर रखने
की आज्ञा जारी
की। अगर बुद्ध
को अचानक पता
चले कि बस
श्वास बंद होने
से आदमी मर
जाता है तो यह
उसको कठिन
पड़ेगा। उसे
आश्चर्य होगा
कि कैसे कोई
बस श्वास के न
आने से मर
जाता है! जीवन
तो इतनी विराट
और जटिल
प्रक्रिया है।
अगर
तुमने भी किसी
को मरते नहीं
देखा है तो तुम
भी नहीं सोच
सकते कि कैसे
कोई श्वास के
रुकने से मर
जाता है! क्या
मृत्यु इतनी
सरल है? कैसे
इतना जटिल
जीवन मर सकता
है?
ऐसा
ही इन विधियों
के साथ है। वे
सरल मालूम
पड़ती हैं, लेकिन
वे बुनियादी
सत्य को
स्पर्श करती
हैं। जब श्वास
बाहर जा रही
है, जब तुम
जीवन से
सर्वथा रिक्त
हो, तब तुम
मृत्यु को
छूते हो, तब
तुम उसके बहुत
करीब पहुंच
जाते हो। तब
तुम्हारे
भीतर सब कुछ
मौन और शांत
हो जाता है।
इसे
मंत्र की तरह
उपयोग करो। जब
भी तुम्हें
थकावट महसूस
हो,
तनाव महसूस हो
तो अ: से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार करो।
अल्लाह से भी
काम चलेगा—कोई
भी शब्द जो
तुम्हारी
श्वास को
समग्रत: बाहर
ले आए, जो
तुम्हें
श्वास से
बिलकुल खाली
कर दे। जिस
क्षण तुम
श्वास से
रिक्त होते हो
उसी क्षण तुम
जीवन से भी
रिक्त हो जाते
हो।
और
तुम्हारी सभी
समस्याएं
जीवन की
समस्याएं हैं, मृत्यु
की कोई समस्या
ही नहीं है। तुम्हारी
चिंताएं,
तुम्हारे
दुख—संताप, तुम्हारा
क्रोध, सब
जीवन की
समस्याएं हैं।
मृत्यु तो
समस्याहीन है,
मृत्यु
असमस्या है।
मृत्यु कभी
किसी को
समस्या नहीं
देती है। तुम
भला सोचते हो
कि मैं मृत्यु
से डरता हूं
कि मृत्यु
समस्या पैदा
करती है, लेकिन
हकीकत यह है
कि मृत्यु
नहीं, जीवन
के प्रति
तुम्हारा
आग्रह, जीवन
के प्रति
तुम्हारा लगाव
समस्या पैदा
करता है। जीवन
ही समस्या खड़ी
करता है, मृत्यु
तो सब
समस्याओं का
विसर्जन कर
देती है।
तो
जब श्वास
बिलकुल बाहर
निकल जाए—अ:ऽऽ—तुम
जीवन से रिक्त
हो गए। उस
क्षण अपने
भीतर देखो, जब
श्वास बिलकुल
बाहर निकल जाए।
दूसरी श्वास
लेने के पहले
उस अंतराल में
गहरे उतरो जो
रिक्त है और
उसके आंतरिक
मौन और शांति
के प्रति सजग
होओ। उस क्षण
तुम बुद्ध हो।
और
अगर तुम उस
क्षण को पकड़
सको तो
तुम्हें वह’ स्वाद
मिल जाएगा
जिसे बुद्ध ने
जाना। और एक
बार यह स्वाद
जान लिया गया
तो फिर तुम उसे
आने—जाने वाली
श्वास से अलग
कर ले सकते हो।
फिर श्वास आती—जाती
रह सकती है और
तुम चेतना की
उस अवस्था में
रह सकते हो
जिसे तुम ने
जाना है। वह
तो सदा है, सिर्फ
उसे उघाड़ना है।
और उसे उस समय
उघाड़ना आसान
होता है जब
तुम जीवन से, श्वास से
रिक्त होते हो।
'अ: से अंत
होने वाले
किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप
करो। और तब
हकार में
अनायास सहजता
को उपलब्ध होओ।’
और
जब श्वास बाहर
निकल जाती है, तब
सब कुछ निकल
जाता है। इस
क्षण किसी
प्रयास की
जरूरत नहीं है।
इस क्षण
अनायास, बिना
प्रयास के
सहजता को, बोध
को उपलब्ध होओ,
मृत्यु के
इस क्षण को
उपलब्ध होओ।
यही वह क्षण
है जब तुम
द्वार के
बिलकुल करीब होते
हो, परमात्मा
के द्वार के
बिलकुल पास
होते हो। जो
प्रकट है, जो
असार है, वह
बाहर चला गया;
इस क्षण में
तुम लहर नहीं
रहे, सागर
हो गए। अभी
तुम बिलकुल
सागर के निकट
हो। अगर तुम
बोधपूर्ण हो
सके, सजग
हो सके, तो
तुम भूल जाओगे
कि मैं लहर
हूं। फिर लहर
आएगी, लेकिन
अब तुम लहर के
साथ कभी
तादात्म्य
नहीं बनाओगे,
तुम सागर
बने रहोगे। एक
बार तुमने जान
लिया कि तुम
सागर हो, फिर
तुम लहर नहीं
हो सकते।
जीवन
लहर है, मृत्यु
सागर है। इस
कारण ही बुद्ध
इस बात पर जोर
देते हैं कि
मेरा निर्वाण मृत्युवत
है। वे कभी
नहीं कहते कि
तुम अमरत्व को
प्राप्त करोगे,
वे इतना ही
कहते हैं कि
तुम मिटोगे, समग्रत:
मिटोगे। जीसस
कहते हैं :
मेरे पास आओ और
मैं तुम्हें
विराट जीवन
दूंगा। बुद्ध
कहते हैं :
मेरे पास
मिटने के लिए
आओ, मैं
तुम्हें
समग्र मृत्यु
दूंगा। और
दोनों एक ही
बात कह रहे
हैं। लेकिन
बुद्ध की
शब्दावली
ज्यादा
बुनियादी है।
मगर तुम उससे
भयभीत हो
जाओगे।
यही
कारण है कि
बुद्ध भारत
में प्रभावी
नहीं हो सके, उन्हें
पूरी तरह उखाड़
फेंका गया। और
हम कहे चले
जाते हैं कि
यह भूमि
धार्मिक भूमि
है। लेकिन यहां
जो सर्वाधिक
धार्मिक
पुरुष हुआ उसे
यहां हमने
जमने नहीं
दिया। किस तरह
की धार्मिक
भूमि है यह? हम दूसरा
बुद्ध नहीं
पैदा कर सके, बुद्ध
अप्रतिम हैं।
जब भी संसार
भारत को धर्म—भूमि
के रूप में
स्मरण करता है,
वह बुद्ध को
स्मरण करता है,
और किसी को
नहीं। बुद्ध
के कारण ही
भारत धार्मिक
समझा जाता है।
किस प्रकार की
धर्म— भूमि है
यह! बुद्ध को
यहां जगह नहीं
मिली, उन्हें
सर्वथा उखाड़
फेंका गया।
कारण
यह था व बुद्ध मृत्यु
की भाषा उपयोग
की। ब्राह्मण
जीवन की भाषा
उपयोग करते थे, वे
कहते थे
ब्रह्म; बुद्ध
ने कहा
निर्वाण।
ब्रह्म का
अर्थ जीवन, अनंत जीवन
है; और
निर्वाण का
अर्थ
परिसमाप्ति, मृत्यु, समग्र
मृत्यु है।
बुद्ध कहते
हैं कि
तुम्हारी
सामान्य
मृत्यु समग्र
नहीं होती, तुम्हें फिर—फिर
जन्म लेना
पड़ेगा।
साधारण
मृत्यु समग्र
नहीं है, तुम्हें
पुन: संसार
में आना पड़ेगा।
बुद्ध कहते थे
कि मैं
तुम्हें ऐसी
समग्र मृत्यु
दूंगा कि
तुम्हें फिर
कभी जन्म लेने
की जरूरत नहीं
पड़ेगी। समग्र
मृत्यु का
अर्थ है कि अब
दुबारा जन्म संभव
नहीं रहा।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं कि
यह तथाकथित
मृत्यु मृत्यु
नहीं है, यह
विश्राम भर है।
तुम फिर जीवित
हो उठोगे। यह
मृत्यु तो
बाहर गई श्वास
जैसी है। तुम
फिर श्वास
भीतर लोगे और
तुम्हारा पुन:
जन्म हो जाएगा।
बुद्ध कहते
हैं कि मैं
तुम्हें वह
उपाय बताता
हूं कि बाहर
गई श्वास फिर
वापस नहीं
लौटेगी, वही
समग्र मृत्यु
है, निर्वाण
है।
हम
भयभीत होते
हैं,
क्योंकि हम
जीवन को जोर
से पकड़ते
हैं। जीवन के
प्रति हमारी
आसक्ति प्रगाढ़
है। और यही
विरोधाभास है।
तुम जितना
जीवन को पकड़ोगे
उतने ही तुम
मरोगे। और तुम
जितना मरने को
राजी होओगे
उतने ही तुम अमर
हो जाओगे। अगर
तुम मरने को
राजी हो तो
मृत्यु की
संभावना न रही।
अगर तुम
मृत्यु को
स्वीकार कर लो
तो कोई भी तुम्हें
नहीं मार सकता,
क्योंकि उस
स्वीकार में
ही तुम अपने
भीतर उस तत्व
को जान लेते
हो जो अमृत है।
आने
वाली और जाने
वाली श्वास
केवल शरीर के
लिए जन्म और
मृत्यु हैं, मेरे
नहीं। लेकिन
मैं अभी शरीर
के अतिरिक्त
और किसी को नहीं
जानता, शरीर
के साथ मेरा
तादात्म है।
उस हालत में
आने वाली
श्वास के साथ
बोधपूर्ण होना
कठिन है, जाने
वाली श्वास के
साथ ही बोध
संभव है। जब
श्वास बाहर जा
रही है तो उस
क्षण तुम के
हो गए मर गए खाली
हो गए।
बहिर्गामी
श्वास के साथ
तुम क्षणभर
को मर गए।
'तब हकार में
अनायास सहजता
को उपलब्ध होओ।’
इसका
प्रयोग करो।
किसी भी समय
यह प्रयोग कर
सकते हो। बस
या रेलगाड़ी
में यात्रा
करते हुए, या
अपने आफिस
जाते हुए, जब
भी तुम्हें
समय मिले
अल्लाह जैसे
शब्द का, अ
से अंत होने
वाले किसी
शब्द का
उच्चार करो।
इस्लाम का यह
अल्लाह शब्द
बड़ा काम का है—इस
कारण नहीं कि वहां
आसमान में कोई
अल्लाह है, वरन इस अ: के
कारण। यह शब्द
सुंदर है। और
जितना ही कोई
अल्लाह—अल्लाह
कहता है उतना
ही यह शब्द
छोटा होता
जाता है।
अल्लाह से वह
लाह हो जाता
है और फिर लाह
से आह रह जाता
है। यह अच्छा
है। लेकिन तुम
अ से अंत होने
वाले किसी भी
शब्द को काम
में ला सकते
हो, केवल अ:
से भी चलेगा।
तुमने
देखा होगा कि
जब भी तुम
तनाव से भरते
हो,
तुम एक आह
भरकर हलके हो जाते
हो; या जब
तुम खुशी से
भरते हो, बहुत
खुशी से, तुम
अहा कहते हो
और पूरी श्वास
बाहर निकल
जाती है और
तुम अपने भीतर
एक अपूर्व
शाति अनुभव करते
हो। इसे
प्रयोग करो।
जब तुम खूब
प्रसन्न हो तो
श्वास अंदर लो
और देखो कि
क्या होता है।
तुम स्वस्थ
अनुभव नहीं
करोगे, जितना
अहा कहने से
करते हो। वह
फर्क श्वास के
कारण है।
भाषाएं
अलग—अलग हैं, लेकिन
ये दो चीजें
सभी भाषाओं
में समान हैं।
सारी धरती पर जहां
भी कोई थकावट
अनुभव करता वह
आह करता है।
दरअसल वह
मृत्यु को
बुलाकर कहता
है कि मुझे
विश्राम दो।
और जब वह
आह्लादित
होता है, आनंदित
होता है, तब
वह अहा कहता
है। वह आनंद
से इतना पूरित
है कि वह
मृत्यु से नहीं
डरता, वह
अपने को पूरी
तरह छोड़ने को,
खोने को
राजी है।
और
अगर तुम इस
विधि का
निरंतर
प्रयोग करते
रहो तो उसके
गहरे परिणाम
होंगे। तब
तुम्हारे
भीतर जो सहज
है,
तुम उसके
बोध से भर
जाओगे, तब
तुम अपनी
सहजता को
उपलब्ध हो
जाओगे। तुम
सहज ही हो, लेकिन
तुम जीवन से
इतने बंधे हो,
ग्रस्त हो
कि उसके पीछे
खड़ी सहज सत्ता
से अपरिचित रह
जाते हो।
लेकिन जब तुम
जीवन से, आने
वाली श्वास से
ग्रस्त नहीं
हो, तब वह
सहज सत्ता
प्रकट होती है,
तब उसकी झलक
मिलती है। और
धीरे — धीरे वह
झलक उपलब्धि
में बदल जाएगी,
तुम्हारी
सिद्धि बन
जाएगी।
और
अगर तुमने एक
बार उसे जान
लिया तो फिर
तुम उसे भुला
नहीं सकोगे।
वह कोई ऐसी
चीज नहीं है
जिसे तुम
निर्मित करते
हो। वह
स्वाभाविक है, सहज
है; उसे
बनाना नहीं, उघाड़ना भर
है। वह तो है ही,
तुम भूल गए
हो। बस स्मरण
करना है, उघाड़ना
है।
बच्चों
को,
छोटे
बच्चों को
श्वास लेते
हुए देखो। वे
अगर ढंग से
श्वास लेते
हैं। किसी सोए
हुए बच्चे का
निरीक्षण करो,
उसकी छाती
नहीं, उसका
पेट उठता—गिरता
है। अगर तुम
सोए हो और
तुम्हारा
निरीक्षण
किया जाए तो
तुम्हारी
छाती ऊपर—नीचे
होती मालूम
पड़ेगी। उसका
मतलब है कि
तुम्हारी
श्वास नीचे
पेट तक नहीं
जाती है।
श्वास पेट तक
तभी जाएगी जब
तुम उसे लेने
की बजाय छोड़ने
की फिक्र
करोगे। अगर
तुमने छोडने
की बजाय लेने
की फिक्र की
तो श्वास कभी
पेट तक नहीं
जाएगी। इसका
कारण यह है कि
जब कोई श्वास
छोड़ता है तो सब
हवा बाहर निकल
जाती है और
फिर शरीर अपनी
ओर से श्वास
भीतर लेता है।
और शरीर उतनी
श्वास अंदर
लेता है जितनी
जरूरी है—न
ज्यादा, न
कम। शरीर का
अपना ही विवेक
है, वह
तुमसे ज्यादा
बुद्धिमान है।
उसे उपद्रव
में मत डालो।
अगर तुम
ज्यादा श्वास
लोगे तो वह
उपद्रव में पड़ेगा
और कम लोगे तो
भी उपद्रव में
पड़ेगा।
शरीर
अपने विवेक से
चलता है। वह
उतना ही ग्रहण
करता है जितना
जरूरी है। जब
उसे ज्यादा की
जरूरत होती है
तो वह वैसी स्थिति
बना लेता है
और कम की जरूरत
होती है तो
वैसी स्थिति
बना लेता है।
शरीर कभी अति
पर नहीं जाता
है,
वह सदा
संतुलित रहता
है। जब तुम
श्वास लेते हो
तब वह संतुलित
नहीं है, क्योंकि
तुम्हें नहीं
मालूम है कि
शरीर की जरूरत
क्या है। और
यह जरूरत क्षण—
क्षण बदलती
रहती है।
इसलिए
शरीर को मौका
दो,
तुम तो बस
श्वास छोड़ने
भर का काम करो,
उसे बाहर
फेंको। और तब
शरीर खुद
श्वास लेने का
काम कर लेगा।
और शरीर जब
खुद श्वास
अंदर लेता है
तो वह धीरे—
धीरे लेता है
और गहरे लेता
है और पेट तक
ले जाता है।
वह श्वास ठीक
नाभि—केंद्र
पर चोट करती
है, जिससे
तुम्हारा पेट
ऊपर—नीचे होता
है। और अगर
श्वास लेने का
काम भी तुम
खुद करोगे तो फिर
समग्रता से
श्वास छोड़ न
सकोगे। तब
श्वास भीतर
बची रहेगी और
उसके ऊपर से
ली गई श्वास
गहराई में न उतर
सकेगी।
इसीलिए श्वास—क्रिया
म् उथली हो
जाती है। तुम
श्वास भीतर
लेते रहते हो
और भीतर जहर
इकट्ठा होता
रहता है।
वे
कहते हैं कि
तुम्हारे
फेफड़े में कोई
छह हजार छिद्र
हैं और उनमें
से सिर्फ दो
हजार छिद्रों
तक ही श्वास
पहुंच पाती है।
बाकी चार हजार
छिद्र तो सदा
जहरीली गैस से
भरे रहते है। जिन्हें
सदा खाली करने
की जरूरत है। वह
जो तुम्हारी छाती
का दो—तिहाई हिस्सा
जहर से भरा
रहता है, वही
तुम्हारे
शरीर और मन
में दुख और
चिंता और संताप
पैदा करता है।
बच्चा
सदा श्वास
छोड़ता है, लेता
नहीं; लेने
का काम शरीर
करता है। जब
बच्चा जन्म
लेता है तो वह
जो पहला काम
करता है वह
रोना है। उस
रोने के साथ
ही उसका कंठ
खुलता है, रोने
के साथ ही वह
पहला अ: बोलता
है, उस
रोने के साथ
ही मां के
द्वारा भीतर
ली गई हवा
बाहर निकल
जाती है। वह
उसकी पहली
श्वास—क्रिया
है—श्वास—क्रिया
का आरंभ। यही
कारण है कि
अगर बच्चा
जन्म के तुरंत
बाद न रोए
तो डाक्टर
चिंतित हो
जाते हैं।
उसका मतलब हुआ
कि बच्चे ने
जीवन का लक्षण
नहीं प्रकट किया,
वह अभी मां
पर ही निर्भर
अनुभव करता है।
उसे रोना
चाहिए। रोना
बताता है कि
अब वह व्यक्ति
बन रहा है, अब
मां जरूरी न
रही। अब वह
अपनी श्वास आप
लेगा। और पहला
काम वह यह
करेगा कि वह
उस श्वास को
बाहर
निकालेगा
जिसे उसकी मां
ने भीतर लिया
था। और तब
उसका शरीर
श्वास लेना
शुरू करेगा।
बच्चा
सदा श्वास छोडता
है। और जब
बच्चा श्वास
लेने लगे, जब
उसका जोर
छोड़ने से हटकर
लेने पर चला
जाए तो सावधान
हो जाना, तब
बच्चा का होने
लगा। उसका
अर्थ है कि
बच्चे ने वह
तुमसे सीखा है,
वह
तनावग्रस्त
हो गया है।
जब
तुम
तनावग्रस्त
होते हो तो
तुम गहरी
श्वास नहीं ले
सकते। क्यों? तब
तुम्हारा पेट
सख्त हो जाता
है। जब तुम
तनाव में होते
हो तो
तुम्हारा पेट
सख्त हो जाता
है, वह
सख्ती श्वास
को गहरे नहीं
जाने देती। तब
तुम उथली
श्वास लेने
लगते हो।
अ:
का प्रयोग करो।
यह तुम्हारे
चारों ओर एक
सुंदर भाव
निर्मित करता
है। जब भी तुम
थकावट महसूस
करो,
अ: कहकर
श्वास को बाहर
फेंको। और
श्वास छोड़ने
पर बल दो। तुम
भिन्न ही आदमी
होंगे और एक
भिन्न ही मन
विकसित होगा।
श्वास लेने पर
जोर देकर
तुमने कंजूस
मन और कंजूस
शरीर विकसित
किए हैं, श्वास
छोड़ने पर बल
देकर वह
कंजूसी विदा
जो जाएगी और
उसके साथ ही
अन्य अनेक
समस्याएं भी
विदा हो
जाएंगी। तब
दूसरे पर
मालकियत करने
का भाव
तिरोहित हो जाएगा।
तो
तंत्र यह नहीं
कहता कि
मालकियत का
भाव छोड़ो, तंत्र
कहता है कि
अपने श्वास—प्रश्वास
का ढंग बदल दो
और मालकियत
अपने आप ही
छूट जाएगी।
तुम अपनी
श्वास को देखो,
अपने भावों
को देखो और
तुम्हें बोध
हो जाएगा। जो
भी गलत है वह
भीतर जाने
वाली श्वास को
महत्व देने के
कारण है और जो
भी शुभ और
सत्य, शिव
और सुंदर है
वह बाहर जाने
वाली श्वास के
साथ संबंधित
है। जब तुम
झूठ बोलते हो,
तुम अपनी
श्वास को रोक
रखते हो और जब
सच बोलते हो
तो श्वास को
कभी नहीं
रोकते। झूठ
बोलते समय
तुम्हें डर
लगता है और उस
डर के कारण
तुम श्वास को
रोक रखते हो।
तुम्हें यह डर
भी होता है कि
बाहर जाने
वाली श्वास के
साथ कहीं
छिपाया गया
सत्य भी न
प्रकट हो जाए।
इस
अ: का ज्यादा
से ज्यादा
प्रयोग करो और
तुम शरीर और
मन में ज्यादा
स्वस्थ रहोगे और
तुम्हें एक
विशेष ढंग की
शांति और
विश्राम का अनुभव
होगा।
ध्वनि—संबंधी
दसवीं विधि :
कानों को
दबाकर और गुदा
को सिकोड़कर
बंद करो और
ध्वनि में
प्रवेश करो।
हम
अपने शरीर से
भी परिचित
नहीं हैं। हम
नहीं जानते कि
शरीर कैसे काम
करता है और उसका
ताओ क्या है, ढंग
क्या है, मार्ग
क्या है।
लेकिन अगर तुम
निरीक्षण करो
तो आसानी से
उसे जान सकते
हो।
अगर
तुम अपने
कानों को बंद
कर लो और गुदा
को ऊपर की ओर सिकोड़ो तो
तुम्हारे लिए
सब कुछ ठहर
जाएगा; ऐसा
लगेगा कि सारा
संसार रुक गया
है, ठहर
गया है।
गतिविधियां
ही नहीं, तुम्हें
लगेगा कि समय
भी ठहर गया है।
जब तुम गुदा
को ऊपर खींचकर
सिकोड़ लेते हो
तो क्या होता
है? अगर
दोनों कान बंद
कर लिए जाएं
तो बंद कानों
से तुम अपने
भीतर एक ध्वनि
सुनोगे।
लेकिन अगर
गुदा को ऊपर
खींचकर नहीं सिकोड़ा
जाए तो वह
ध्वनि गुदा—मार्ग
से बाहर निकल
जाती है। वह
ध्वनि बहुत
सूक्ष्म है।
अगर गुदा को
ऊपर खींचकर
सिकोड़ लिया
जाए और कानों
को बंद किया
जाए तो
तुम्हारे
भीतर एक ध्वनि
का स्तंभ निर्मित
होगा और वह
ध्वनि मौन की
ध्वनि होगी।
यह नकारात्मक
ध्वनि है। जब
सब ध्वनियां
समाप्त हो
जाती हैं तब
तुम्हें मौन
की ध्वनि या
निर्ध्वनि का
एहसास होता है।
लेकिन वह
निर्ध्वनि
गुदा से बाहर
निकल जाएगी।
इसलिए
कानों को बंद
करो और गुदा
को सिकोड़ लो।
तब तुम दोनों ओर
से बंद हो
जाते हो और
तुम्हारा
शरीर भी बंद हो
जाता है और
ध्वनि से भर
जाता है।
ध्वनि से भरने
का यह भाव गहन
संतोष को जन्म
देता है। इस
संबंध में
बहुत सी चीजें
समझने जैसी
हैं और तभी
तुम उसे समझ
सकोगे जो घटित
होता है।
हम
अपने शरीर से
परिचित नहीं
हैं। साधक के
लिए यह एक
बुनियादी
समस्या है। और
समाज शरीर से
परिचय के
विरोध में है, क्योंकि
समाज शरीर से
भयभीत है। हम
हरेक बच्चे को
शरीर से
अपरिचित रहने
की शिक्षा
देते हैं, हम
उसे संवेदन शून्य
बना देते हैं।
हम बच्चे के
मन और शरीर के
बीच एक दूरी
पैदा कर देते
हैं, ताकि
वह अपने शरीर
से ठीक से
परिचित न हो
पाए। क्योंकि
शरीर—बोध समाज
के लिए
समस्याएं
पैदा करेगा।
इसमें
बहुत सी चीजें
निहित हैं।
अगर बच्चा
शरीर से
परिचित है तो
वह देर— अबेर
काम या सेक्स
से भी परिचित
हो जाएगा। अगर
वह शरीर से
बहुत ज्यादा
परिचित हो
जाएगा तो वह उतना
ही कामुक और इंद्रियोन्मुख
अनुभव करेगा।
इसलिए हमें
उसकी जड़ को ही
काट देना है।
हम बच्चे को
उसके शरीर के
प्रति जड़ और संवेदनशून्य
बना देते हैं, ताकि
उसे उसका
एहसास न हो।
तुम्हें
तुम्हारे
शरीर का एहसास
नहीं होता। हां,
जब वह किसी उपद्रव
में पड़ता है
तो ही उसका एहसास
होता है।
तुम्हारे
सिर में दर्द
होता है तो
तुम्हें सिर
का पता चलता
है। जब पाव
में कांटा गड़ता
है तो पांव का
पता चलता है।
और जब शरीर
में दर्द होता
है तो तुम
जानते हो कि
मेरा शरीर भी
है। जब शरीर
रुग्ण होता है
तो ही उसका
पता चलता है, लेकिन
वह भी शीघ्र
नहीं।
तुम्हें अपने
रोगों का पता
भी तुरंत नहीं
चलता है। कुछ
समय बीतने पर
ही पता चलता
है, जब रोग
तुम्हारी
चेतना के
द्वार पर बार—बार
दस्तक देता है,
तब पता चलता
है। यही कारण
है कि कोई भी
व्यक्ति समय
रहते डाक्टर
के पास नहीं
पहुंचता है।
वह देर कर के
पहुंचता है, जब रोग गहन हो
चुकता है और
बहुत हानि कर
चुकता है।
अगर
बच्चे को
संवेदनशीलता
के साथ बड़ा
किया जाए तो
वह रोग के आने
के पहले जान जाएगा
कि रो आ रहा है।
अब तो, रूस में खासकर,वे इस सिद्धांत
पर काम कर रहे है।
कि अगर कोई
अपने शरीर के
प्रति प्रगाढ़
रूप से सजग हो
तो रोग को
उसके आने के
छह महीने पहले
जाना जा सकता
है। क्योंकि
रोग के आने के
पूर्व शरीर
में सूक्ष्म परिवर्तन
होने लगते हैं,
वे
परिवर्तन
शरीर को रोग
के लिए तैयार
करते हैं।
इसलिए छह
महीने पहले
आसार नजर आने
लगते हैं।
लेकिन
रोग की क्या
बात,
हम तो
मृत्यु को भी
नहीं जान पाते
हैं। अगर कल
तुम्हारी
मृत्यु होने
वाली है तो
तुम्हें आज भी
उसका पता नहीं
चलता है।
मृत्यु जैसी
चीज भी यदि
अगले क्षण
घटित होने वाली
है तो तुम्हें
उसका पता इस
क्षण तक भी नहीं
चलता है। तुम
अपने शरीर के
प्रति बिलकुल संवेदनशून्य
हो, मृत हो।
और सारा समाज,
सारी
संस्कृति इस जड़ता को, इस मुर्दापन
को पैदा करने में
लगी है, क्योंकि
वह शरीर
विरोधी है।
तुम्हें शरीर
का बोध नहीं
होने दिया
जाता है, सिर्फ
दुर्घटनाओं
में तुम्हें
उसे जानने की अनुमति
है। अन्यथा
समाज का आदेश
है कि शरीर को
मत जानो।
इससे
कई समस्याएं
पैदा होती हैं—विशेषकर
तंत्र के लिए।
तंत्र गहन
संवेदनशीलता
और शरीर के
बोध में भरोसा
करता है।
तुम
अपने काम में
लगे हो और
तुम्हारा
शरीर बहुत कुछ
कर रहा है, जिसका
तुम्हें कोई
बोध नहीं है।
अब तो शरीर की
भाषा पर बहुत
काम हो रहा है।
शरीर की अपनी
भाषा है। और
मनोचिकित्सक
और मनस्विद
को शरीर की
भाषा का
प्रशिक्षण
दिया जा रहा है।
क्योंकि वे
कहते हैं कि
आधुनिक
मनुष्य का भरोसा
नहीं किया जा
सकता। आधुनिक
मनुष्य जो
कहता है, उस
पर भरोसा नहीं
किया जा सकता
है। उससे
अच्छा है उसके
शरीर का
निरीक्षण
करना, क्योंकि
शरीर उसके
बारे में
ज्यादा खबर दे
सकता है।
एक
आदमी
मनोचिकित्सक
के आफिस में प्रवेश
करता है।
पुरानी
मनोचिकित्सा, फ्रायडियन
मनोविश्लेषण
उस आदमी के मन
में छिपी—दबी
बातों को
जानने के लिए
उससे घंटों
बातें करेगा।
आधुनिक
मनोचिकित्सा
उसके शरीर का
निरीक्षण करेगी,
क्योंकि
शरीर ही सुराग
बता देता है।
अगर
आदमी अहंकारी
है,
अगर अहंकार
उसकी समस्या
है तो यह उसके
बैठने के ढंग
से मालूम हो
जाएगा।
अहंकारी आदमी
नम्र आदमी से
सर्वथा भिन्न
ढंग से बैठता
है। उसकी
गर्दन एक खास
ढंग से तनी
होगी, उसकी
रीढ़ लचीली
नहीं, अकड़ी होगी, मृत
होगी। और वह
आदमी जीवित
नहीं, जड़
मालूम पड़ेगा।
अगर तुम उसके
शरीर को छुओ
तो तुम्हें
सजीवता कम, जड़ता ज्यादा
मिलेगी। वह उस
सैनिक जैसा
मालूम पड़ेगा
जो मोर्चे पर
जा रहा हो।
मोर्चे
पर जाते हुए
किसी सैनिक को
देखो! उसका चेहरा
सख्त होगा, पथरीला
होगा। वह
सैनिक के लिए
जरूरी है, क्योंकि
वह मरने—मारने
जा रहा है।
उसे अपने शरीर
के प्रति
ज्यादा सजग
नहीं रहना
चाहिए, इसलिए
प्रशिक्षण के
द्वारा उसके
शरीर को सख्त
और मुर्दा कर दिया
जाता। कूच व
हुए सैनिक ऐसे
लगते कि मृत
खिलौने कूच कर
रहे हैं।
अगर
तुम विनम्र हो
तो तुम्हारे
शरीर की भंगिमा
भिन्न होगी।
तुम भिन्न ढंग
से बैठोगे, भिन्न
ढंग से खड़े
होगे। अगर
तुममें हीनता
का भाव है तो
तुम और ढंग से
खड़े होगे। और श्रेष्ठता
की ग्रंथि से पीडित
व्यक्ति और ढ़ंग से खड़ा
होगा। अगर तुम
सदा भयभीत रहते
हो तो तुम इस
ढंग से खड़े
होंगे, मानो
किसी अज्ञात
शक्ति से अपना
बचाव कर रहे हो।
वह अज्ञात
शक्ति
तुम्हें सदा
और सर्वत्र
मिलेगी। अगर
तुम निर्भय हो
तो तुम उस
बच्चे की
भांति हो, जो
मा के साथ खेल
रहा है। मां
के साथ क्या
डर! तुम जहां
जाओगे, निर्भय
होकर जाओगे; और तुम्हें
तुम्हारे
चारों ओर का
जगत अपना घर मालूम
पड़ेगा। और जो
आदमी भयभीत है
वह सदा कवच
लगाए रहेगा।
और सिर्फ प्रतीक
के रूप में
मैं कवच शब्द
का प्रयोग नहीं
कर रहा हूं
सचमुच भयभीत
आदमी शारीरिक
तल पर कवच
लगाए रहता है।
विलहेम
रेख ने शरीर
की संरचना पर
बहुत काम किया
है। और उसे
शरीर और मन के
बीच बहुत गहरा
संबंध दिखाई
पड़ा। यदि कोई
आदमी भयभीत है
तो उसका पेट
कोमल नहीं होगा, तुम
उसका पेट छुओ
और वह पत्थर
जैसा मालूम
पड़ेगा। और अगर
वह निडर हो
जाए तो उसका
पेट तुरंत
शिथिल हो
जाएगा। या अगर
पेट को शिथिल
कर लो तो भय
चला जाता है।
पेट पर थोड़ी
मालिश करो और
तुम देखोगे
कि डर कम हो
गया, निर्भयता
आई। जो
व्यक्ति
प्रेमपूर्ण
है, उसके
शरीर का गुण—
धर्म और होगा।
उसके शरीर में
उष्णता होगी,
जीवन होगा।
और जो व्यक्ति
प्रेमपूर्ण
नहीं है, उसका
शरीर ठंडा
होगा, मुर्दा
होगा।
यही
ठंडापन तथा
अन्य चीजें
तुम्हारे
शरीर में
प्रविष्ट हो
गई हैं और वे
ही बाधाएं बन
गई हैं। वे
तुम्हें
तुम्हारे
शरीर को नहीं
जानने देती
हैं। लेकिन
शरीर अपने ढंग
से अपना काम
करता रहता है
और तुम अपने
ढंग से अपना
काम करते रहते
हो। दोनों के
बीच एक खाई
पैदा हो जाती
है। उस खाई को
पाटना है।
मैंने
देखा है कि
अगर कोई
व्यक्ति दमन
करता है, अगर
तुमने क्रोध
को दबाया है
तो तुम्हारे
हाथों में, तुम्हारी
अंगुलियों
में दमित
क्रोध की उत्तेजना
होगी। और जो
जानता है वह
तुम्हारे
हाथों को छूकर
बता देगा कि
तुमने क्रोध
को दबाया है।
और
हाथ को छूकर
क्यों? क्योंकि
क्रोध को हाथ
के माध्यम से
प्रकट किया
जाता है। अगर
तुमने क्रोध
का दमन किया
है तो दमित
क्रोध
तुम्हारे दांतों
में, मसूढ़ों में इकट्ठा
हो जाता है।
और दांतों और मसुढ़ों
को छूकर उस
दमित क्रोध का
अनुभव किया जा
सकता है, उनकी
तरंगें बता
देंगी कि
क्रोध यहां
दमित पड़ा है।
अगर
तुमने
कामवासना का
दमन किया है
तो वह कामवासना
तुम्हारे काम—अंगों
में दबी पड़ी
रहेगी। ऐसे
किसी अंग को
छूकर बताया जा
सकता है कि
यहां काम दमित
पड़ा है। वह
अंग भयभीत हो
जाएगा और
तुम्हारे
स्पर्श से
बचना चाहेगा, वह
खुला या
ग्रहणशील
नहीं रहेगा।
चूंकि तुम
बचना चाहते हो
इसलिए वह अंग
भी संकुचित हो
जाएगा, वह
तुम्हें
द्वार नहीं
देगा।
अब
वे कहते हैं
कि पचास
प्रतिशत
स्त्रियां
ठंडी होती हैं, उनकी
कामवासना को
उत्तेजित
नहीं किया जा
सकता। और कारण
यह है कि हम
लड़कों से बढ़कर
लड़कियों को काम—दमन
सिखाते हैं। लड़कियां
बहुत दमन करती
हैं। और जब वे
बीस वर्ष की
उम्र तक दमन
करती हैं तो
यह उनकी लंबी
आदत बन जाती
है। बीस
वर्षों का
दमन! फिर जब वह
प्रेम करेगी
तो वह प्रेम
की बात ही
करेगी, प्रेम
के प्रति उसका
शरीर उन्मुख
नहीं होगा, नहीं
खुलेगा।
उसका शरीर एक
तरह से सेक्स
के प्रति बंद
हो जाता है, जड़
हो जाता है।
और तब एक
सर्वथा
विरोधपूर्ण
घटना घटती है,
उसके भीतर
परस्पर—विरोधी
दो धाराएं एक
साथ बहती है। वह
प्रेम करना चाहती
है, लेकिन उसका
शरीर दमित है; शरीर असहयोग
करता है, शरीर
पीछे हटने
लगता है, वह
पास आने को
तैयार नहीं
होता।
अगर
तुम किसी
स्त्री को
किसी पुरुष के
पास बैठे देखो
और अगर वह
स्त्री पुरुष
को प्रेम करती
है तो तुम
पाओगे कि वह
स्त्री उस
पुरुष की तरफ झुककर
बैठी है। अगर
वे दोनों सोफा
पर बैठे हैं
तो उनके शरीर
एक—दूसरे की
तरफ झुके
होंगे।
उन्हें इस बात
का बोध नहीं
है,
लेकिन तुम
यह जान सकते
हो। और अगर
स्त्री पुरुष
से डरती है तो
उसका शरीर उससे
विपरीत दिशा
में झुका होगा।
अगर स्त्री
पुरुष के
प्रेम में है
तो वह अपनी टांगों
को एक—दूसरे
पर रखकर नहीं
बैठेगी। वह
ऐसा तभी करेगी
जब वह पुरुष
से भयभीत होगी।
उसे इस बात की
खबर नहीं है, वह अनजाने
कर रही है।
शरीर अपना
बचाव आप करता
है, वह
अपने ढंग से
अपना काम करता
है।
तंत्र
को पहले से इस
बात का बोध था, सब
से पहले तंत्र
को ही शरीर के
तल पर ऐसी
गहरी
संवेदनशीलता
का पता चला था।
और तंत्र कहता
है कि अगर तुम
सचेतन रूप से
अपने शरीर का
उपयोग कर सको
तो शरीर ही
आत्मा में प्रवेश
का साधन बन
जाता है।
तंत्र कहता है
कि शरीर का
विरोध करना मूढ़ता है, बिलकुल मूढ़ता
है। शरीर का
उपयोग करो, शरीर माध्यम
है। और इसकी ऊर्जा
का उपयोग इस
भांति करो कि
तुम इसका अतिक्रमण
कर सको। अब कानों
को दबाकर और
गुदा को सिकोड़कर
बंद करो, और
ध्वनि में
प्रवेश करो।’ तुम
अपने गुदा को
अनेक बार सिकोड़ते
रहे हो, और
कभी—कभी तो
गुदा—मार्ग
अनायास भी खुल
जाता है। अगर
तुम्हें
अचानक कोई भय
पकड़ ले तो तुम्हारा
गुदा—मार्ग
खुल जाएगा। भय
के कारण
अनायास मल—मूत्र
निकल जाता है।
तब तुम उसे
नियंत्रण में
नहीं रख सकते।
आकस्मिक भय की
अवस्था में
तुम्हारे
मलाशय ढीले पड़
जाते हैं।
क्या होता है?
भय में क्या
होता है? भय
तो मानसिक चीज
है, फिर भय
में पेशाब
क्यों निकल
जाता है? नियंत्रण
क्यों जाता
रहता है? जरूर
ही कोई गहरा
संबंध होना
चाहिए।
भय
सिर में, मन
में घटित होता
है। जब तुम
निर्भय होते
हो तो ऐसा कभी
नहीं होता।
असल में बच्चे
का अपने शरीर
पर कोई मानसिक
नियंत्रण
नहीं होता है।
कोई पशु अपने
मल—मूत्र का
नियंत्रण
नहीं करता है।
जब भी मलाशय
भर जाता है, वह अपने आप
ही खाली हो
जाता है। पशु
उस पर
नियंत्रण
नहीं करता है।
लेकिन मनुष्य
को
आवश्यकतावश
उस पर
नियंत्रण करना
पड़ता है। हम
बच्चे को
सिखाते हैं कि
कब उसे मल—मूत्र
त्याग करना
चाहिए, हम
उसके लिए समय
बांध देते हैं।
इस तरह मन एक
ऐसे काम को
अपने हाथ में
ले लेता है, जो
स्वैच्छिक
नहीं है। और
यही कारण है
कि बच्चे को
मलमूत्र—विसर्जन
का प्रशिक्षण
देना इतना
कठिन होता है।
अब
मनस्विद
कहते हैं कि
अगर मलमूत्र—विसर्जन
का प्रशिक्षण
बंद कर दिया
जाए तो मनुष्यता
की हालत बहुत
सुधर जाएगी।
बच्चे का, उसकी
स्वाभाविकता
का, सहजता
का पहला दमन
मलमूत्र—विसर्जन
के प्रशिक्षण
में होता है।
लेकिन इन
मनस्विदों की
बात मानना कठिन
मालूम पड़ता है।
कठिन इसलिए
मालूम पड़ता है
क्योंकि तब
बच्चे बहुत सी
समस्याएं खड़ी
कर देंगे।
केवल समृद्ध
समाज, अत्यंत
समृद्ध समाज
ही इस
प्रशिक्षण के
बिना काम चला
सकता। गरीब समाज
को इसकी चिंता
लेनी ही पड़ेगी।
बच्चे जहां चाहे
पेशाब करें, यह हम कैसे
बरदाश्त कर
सकते हैं! तब
तो वह सोफा पर
ही पेशाब
करेगा और यह
हमारे लिए
बहुत खर्चीला
पड़ेगा। तो
प्रशिक्षण
जरूरी है। और
यह प्रशिक्षण
मानसिक है, शरीर में
इसकी कोई अंतर्निहित
व्यवस्था
नहीं है। ऐसी
कोई शरीरगत
व्यवस्था
नहीं है। जहां
तक शरीर का
संबंध है, मनुष्य
पशु ही है। और
शरीर को
संस्कृति से,
समाज से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
यही
कारण है कि जब
तुम्हें गहन
भय पकड़ता
है तो वह
नियंत्रण की
व्यवस्था, जो
शरीर पर लादी
गई है, ढीली
पड़ जाती है।
तुम्हारे हाथ
से नियंत्रण
जाता रहता है।
सिर्फ
सामान्य
हालातों में
यह नियंत्रण
संभव है, असामान्य
हालातों में
तुम नियंत्रण
नहीं रख सकते।
आपात
स्थितियों के
लिए तुम्हें
प्रशिक्षित नहीं
किया गया है, सामान्य दिन—चर्या
के कामों के
लिए ही
प्रशिक्षित किया
गया है। आपात
स्थिति में यह
नियंत्रण
विदा हो जाता
है, तब
तुम्हारा
शरीर अपने
पाशविक ढंग से
काम करने लगता
है।
लेकिन
इससे एक बात
समझी जा सकती
है कि निर्भीक
व्यक्ति के
साथ ऐसा कभी
नहीं होता है, यह
तो कायरों का
लक्षण है। अगर
डर के कारण
तुम्हारा मल—मूत्र
निकल जाता है
तो उसका मतलब
है कि तुम
कायर हो। निडर
आदमी के साथ
ऐसा कभी नहीं
हो सकता, क्योंकि
निडर आदमी
गहरी श्वास
लेता है। उसके
शरीर और श्वास—प्रश्वास
के बीच एक
तालमेल है, उनमें कोई
अंतराल नहीं
है। कायर
व्यक्ति के
शरीर और श्वास—प्रश्वास
के बीच एक
अंतराल होता है
और इस अंतराल
के कारण वह
सदा मल—मूत्र
से भरा रहता
है। इसलिए जब
आपात स्थिति
पैदा होती है
तो उसका मल—मूत्र
बाहर निकल
जाता है।
और
इसका एक
प्राकृतिक
कारण भी है।
मल—मूत्र के
निकलने से
कायर हलका हो
जाता है और वह
आसानी से भाग
सकता है, बच
सकता है।
बोझिल पेट
बाधा बन सकता
है, इसलिए
कायर के लिए
मल—मूत्र का
निकलना
सहयोगी होता
है।
मैं
यह बात क्यों
कह रहा हूं? मैं
यह इसलिए कह
रहा हूं
क्योंकि
तुम्हें अपने
मन और पेट की
प्रक्रियाओं
से परिचित
होना चाहिए।
मन और पेट में
गहरा अंतर्संबंध
है। मनस्विद
कहते हैं कि
तुम्हारे
पचास से नब्बे
प्रतिशत सपने
पेट की
प्रक्रियाओं
के कारण घटित
होते हैं। अगर
तुमने ठूंस—ठूंसकर
खाया है तो
तुम दुखस्वप्न
देखे बिना
नहीं रह सकते।
ये दुखस्वप्न
मन से नहीं, भारी पेट से
आते हैं।
बहुत
से सपने बाहरी
आयोजन के
द्वारा पैदा
किए जा सकते
हैं। अगर तुम
नींद में हो
और तुम्हारे
हाथों को मोड़कर
सीने पर रख
दिया जाए तो
तुम तुरंत दुखस्वप्न
देखने लगोगे।
अगर तुम्हारी
छाती पर सिर्फ
एक तकिया रख
दिया जाए तो
तुम सपना देखोगे
कि कोई राक्षस
तुम्हारी
छाती पर बैठा
है और तुम्हें
मार डालने पर
उतारू है।
यह
विचारणीय है
कि एक छोटे से
तकिए का भार
इतना ज्यादा
क्यों हो जाता
है?
यदि तुम
जागे हुए हो
तो तकिया कोई
भार नहीं है, तुम्हें कुछ
भार नहीं
महसूस होता है।
लेकिन क्या
बात है कि
नींद में छाती
पर रखा गया एक
छोटा सा तकिया
भी चट्टान की
तरह भारी मालूम
पड़ता है? इतना
भार क्यों
महसूस होता है?
कारण
यह है कि जब
तुम जागे हुए
हो तो
तुम्हारे शरीर
और मन के बीच
तालमेल नहीं रहता
है,
उनमें एक
अंतराल रहता
है। तब तुम
शरीर और उसकी
संवेदनशीलता
को महसूस नहीं
कर सकते। नींद
में नियंत्रण,
संस्कृति, संस्कार, सब विसर्जित
हो जाते हैं और
तुम फिर से
बच्चे जैसे हो
जाते हो और
तुम्हारा
शरीर
संवेदनशील हो
जाता है। उसी
संवेदनशीलता
के कारण एक
छोटा सा तकिया
भी चट्टान
जैसा भारी
मालूम पड़ता है।
संवेदनशीलता
के कारण भार
अतिशय हो जाता
है, अनंत
गुना हो जाता
है।
तो
मन और शरीर की
प्रक्रियाएं
आपस में बहुत जुड़ी
हुई हैं और
यदि तुम्हें
इसकी जानकारी
हो तो तुम
इसका उपयोग कर
सकते हो।
गुदा
को बंद करने
से,
ऊपर खींचने
से, सिकोड़ने से शरीर में
ऐसी स्थिति
बनती है
जिसमें ध्वनि
सुनी जा सकती
है। तुम्हें
अपने शरीर के
बंद घेरे में,
मौन में, ध्वनि का
स्तंभ सा
अनुभव होगा।
कानों को बंद
कर लो और गुदा
को ऊपर की ओर
सिकोड़ लो और
फिर अपने भीतर
जो हो रहा हो
उसके साथ रहो।
कान और गुदा
को बंद करने
से जो रिक्त
स्थिति बनी है
उसके साथ बस
रहो। भीतर जो
जीवन—ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है, उसे
अब बाहर जाने
का कोई मार्ग
न रहा। ध्वनि
तुम्हारे
कानों के
मार्ग से या
गुदा के मार्ग
से बाहर जाती
है। उसके बाहर
जाने के ये ही
दो रास्ते हैं।
इसलिए अगर
उनका बाहर
जाना न हो तो
तुम उसे आसानी
से महसूस कर
सकते हो।
और
इस आंतरिक
ध्वनि को
अनुभव करने से
क्या होगा? इस
आंतरिक ध्वनि
को सुनने के
साथ ही
तुम्हारे
विचार विलीन
हो जाते हैं।
दिन में किसी
भी समय यह
प्रयोग करो
गुदा को ऊपर
खींचो और
कानों को
अंगुली से बंद
कर लो। कानों
को बंद करो और
गुदा को सिकोड़
लो, तब
तुम्हें
एहसास होगा कि
मेरा मन ठहर
गया है, उसने
काम करना बंद
कर दिया है और
विचार भी ठहर गए
हैं। मन में
विचारों का जो
सतत प्रवाह
चलता है, वह
विदा हो गया
है। यह शुभ है।
और
जब भी समय
मिले इसका
प्रयोग करते
रही। अगर दिन
में पांच—छह
दफे इसका
प्रयोग करते
रहे तो
तुम्हें इस प्रयोग
में कुशलता
प्राप्त हो
जाएगी। और तब
उससे बहुत शुभ
घटित होगा।
तुम
एक बार यह आंतरिक
ध्वनि सुन लो
तो यह सदा
तुम्हारे साथ
रहेगी। तब तुम
उसे दिनभर
सुन सकते हो।
तब बाजार के
शोरगुल में भी, सडक
के शोरगुल में
भी—यदि तुमने
उस ध्वनि को
सुना है—वह
तुम्हारे साथ
रहेगी। और फिर
तुम्हें कोई
भी उपद्रव अशांत
नहीं करेगा।
अगर तुमने यह अंतर्ध्वनि
सुन ली तो
बाहर की कोई
चीज तुम्हें
विचलित नहीं
कर. सकेगी। तब
तुम शांत
रहोगे, जो
भी आस—पास
घटेगा उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा।
ध्वनि—संबंधी
अंतिम विधि :
अपने नाम
की ध्वनि में
प्रवेश करो और
उस ध्वनि के
द्वारा सभी
ध्वनियों में।
मंत्र
की तरह
तुम्हारे नाम
का उपयोग बहुत
आसानी से किया
जा सकता है।
यह बहुत
सहयोगी होगा, क्योंकि
तुम्हारा नाम
तुम्हारे
अचेतन में बहुत
गहरे उतर चुका
है। दूसरी कोई
भी चीज अचेतन
की उस गहराई
को नहीं छूती
है। यहां हम
इतने लोग बैठे
हैं। यदि हम
सभी सो जाएं
और कोई बाहर
से आकर राम को
आवाज दे तो उस
व्यक्ति के
सिवाय जिसका
नाम राम है, कोई भी उसे
नहीं सुनेगा।
राम उसे सुन
लेगा, सिर्फ
राम की नींद
में उससे बाधा
पहुंचेगी।
दूसरे किसी को
भी राम की
आवाज नहीं
देगी।
लेकिन
यही एक आदमी
क्यों सुनता
है?
कारण यह है
कि यह नाम
उसके गहरे
अचेतन में उतर
गया है। अब वह
चेतन नहीं है,
अचेतन बन
गया है।
तुम्हारा नाम
तुम्हारे
बहुत भीतर
प्रवेश कर गया
है। तुम्हारे
नाम के साथ एक
बहुत सुंदर
घटना घटती है।
तुम कभी तक
अपने
को अपने नाम
से नहीं
पुकारते हो।
सदा दूसरे
तुम्हारा नाम
पुकारते हैं।
तुम अपना नाम
कभी नहीं लेते, सदा
दूसरे लेते
हैं।
मैंने
सुना है कि
पहले
महायुद्ध में
अमेरिका में
पहली बार राशन
लागू किया गया।
थॉमस एडीसन
महान
वैज्ञानिक था, लेकिन
क्योंकि गरीब
था इसलिए उसे
भी अपने राशन
कार्ड के लिए
कतार में खड़ा
होना पड़ा। और
वह इतना बड़ा
आदमी था कि
कोई उसके
सामने उसका
नाम नहीं लेता
था। और उसे
खुद कभी अपना
नाम लेने की
जरूरत नहीं पड़ती
थी। और दूसरे
लोग उसे इतना
आदर करते थे
कि उसे सदा प्रोफेसर
कहकर पुकारते
थे। तो एडीसन
को अपना नाम
भूल गया।
वह
क्यू में खड़ा
था। और जब
उसका नाम
पुकारा गया तो
वह ज्यों का
त्यों चुप खड़ा
ताकता रहा।
क्यू में खड़े
दूसरे
व्यक्ति ने, जो
एडीसन का
पड़ोसी था, उससे
कहा कि आप चुप
क्यों खड़े
हैं! आपका नाम
पुकारा जा रहा
है। तब एडीसन
को होश आया।
और उसने कहा
कि मुझे तो
कोई भी एडीसन
कहकर नहीं
पुकारता है, सब मुझे
प्रोफेसर
कहते हैं। फिर
मैं कैसे
सुनता? अपना
नाम सुने हुए
मुझे बहुत समय
हो गया।
तुम
कभी अपना नाम
नहीं लेते हो।
दूसरे
तुम्हारा नाम
लेते हैं, तुम
उसे दूसरों के
मुंह से सुनते
भर हो। लेकिन
अपना नाम
अचेतन में
गहरा उतर जाता
है—बहुत गहरा।
वह तीर की तरह
अचेतन में छिद
जाता है।
इसलिए अगर तुम
अपने ही नाम
का उपयोग करो
तो वह मंत्र
बन जाएगा। और
दो कारणों से
अपना नाम
सहयोगी होता
है।
एक
कि जब तुम
अपना नाम लेते
हो—मान लो कि
तुम्हारा नाम
राम है और तुम
राम—राम कहे
जाते हो—तो
कभी तुम्हें
.अचानक महसूस
होगा कि मैं
किसी दूसरे का
नाम ले रहा
हूं कि यह मेरा
नाम नहीं है!
और अगर तुम यह
भी समझो कि यह
मेरा ही नाम
है तो भी
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि मेरे
भीतर कोई
दूसरा
व्यक्ति है जो
इस नाम का उपयोग
कर रहा है। यह
नाम शरीर का
हो सकता है, मन
का हो सकता है,
लेकिन जो
राम—राम कह
रहा है वह
साक्षी है।
तुमने
दूसरों के नाम
पुकारे
हैं। इसलिए जब
तुम अपना ही
नाम लेते हो
तो तुम्हें ऐसा
लगता है कि यह
नाम किसी और
का है, मेरा
नहीं। और यह
घटना बहुत कुछ
बताती है। तुम
अपने ही नाम
के साक्षी हो
सकते हो। और
इस नाम के साथ
तुम्हारा
समस्त जीवन जुड़ा
है। नाम से
पृथक होते ही
तुम अपने पूरे
जीवन से पृथक
हो जाते हो।
और यह नाम
तुम्हारे
गहरे अचेतन
में चला गया है,
क्योंकि
तुम्हारे
जन्म से ही
लोग तुम्हें
इस नाम से
पुकारते हैं।
तुम सदा—सदा
इसे सुनते रहे
हो। तो इस नाम
का उपयोग करो।
इस नाम के साथ
तुम उन गहराइयों
को छू लोगे
जहां तक यह
नाम प्रवेश कर
गया है।
पुराने
दिनों में हम
सबको
परमात्मा के
नाम दिया करते
थे,
कोई राम
कहलाता था,
कोई नारायण
कहलाता था, कोई कृष्ण
कहलाता था, कोई विष्णु
कहलाता था।
कहते हैं कि मुसलमानों
के सभी नाम
परमात्मा के
नाम हैं। और
पूरी धरती पर
यही रिवाज था
कि परमात्मा के
नाम के आधार
पर हम लोगों
के नाम रखते
थे। और इसके
पीछे अच्छे
कारण थे।
एक
कारण तो यही विधि
था। अगर तुम अपने
नाम को मंत्र की
तरह उपयोग करते
हो तो इसके
दोहरे लाभ हो
सकते हैं। एक
तो यह
तुम्हारा
अपना नाम होगा, जिसको
तुमने इतनी
बार सुना है, जीवनभर सुना
है और जो तुम्हारे
अचेतन में
प्रवेश कर गया
है। फिर यही
परमात्मा का
नाम भी है। और
जब तुम उसको
दोहराओगे तो
कभी अचानक
तुम्हें बोध
होगा कि यह
नाम मुझसे
पृथक है। और
फिर धीरे—
धीरे उस नाम
की अलग
पवित्रता
निर्मित होगी,
महिमा
निर्मित होगी।
किसी दिन
तुम्हें
स्मरण होगा कि
यह तो
परमात्मा का
नाम है। तब
तुम्हारा नाम
मंत्र बन गया।
तो इसका उपयोग
करो। यह बहुत
ही अच्छा है।
तुम
अपने नाम के
साथ कई प्रयोग
कर सकते हो।
अगर तुम सुबह
पांच बजे
जागना चाहते
हो तो तुम्हारे
नाम से बढ़कर
कोई अलार्म
घड़ी सही काम
नहीं देगी। वह
ठीक तुम्हें
पांच बजे जगा
देगा। बस अपने
भीतर तीन बार
कहो : राम, तुम्हें
ठीक पांच बजे
जाग जाना है।
तीन बार कहकर
तुरंत सो जाओ।
तुम पांच बजे
जाग जाओगे, क्योंकि
तुम्हारा नाम
राम तुम्हारे
गहन अचेतन में
बसा है। अपना
ही नाम लेकर
अपने को कहो
कि पांच बजे
मुझे जगा देना।
और कोई
तुम्हें जगा देगा।
अगर तुम इस
अभ्यास को
जारी रख सको
तो तुम पाओगे
कि ठीक पांच
बजे कोई
तुम्हें
पुकार कर कहता
है : राम, जागो!
यह तुम्हारा
अचेतन
तुम्हें
पुकारता है।
यह विधि कहती है’अपने
नाम की ध्वनि
में प्रवेश
करो, और उस
ध्वनि के
द्वारा सभी
ध्वनियों में।’
तुम्हारा
नाम सभी नामों
के लिए द्वार
बन जाता है।
लेकिन ध्वनि
में प्रवेश
करो। पहले तुम
जब राम—राम
जपते हो तो वह
शब्द भर है।
लेकिन अगर जप
सतत जारी रहता
है तो उसका
अर्थ कुछ और
हो जाता है।
तुमने
बाल्मीकि
की कथा सुनी
होगी। उन्हें
यही राम मंत्र
दिया गया था।
लेकिन बाल्मीकि
अनपढ़ आदमी थे—सीधे—सादे, बच्चे
जैसे निर्दोष।
उन्होंने राम—राम
जपना शुरू
किया। लेकिन
इतना अधिक जप
किया कि वे
भूल गए और राम
की जगह उलटा
मरा—मरा कहने
लगे। वे राम—राम
को इतनी तेजी
से जपते थे कि
वह मरा—मरा बन
गया। और मरा—मरा
कहकर ही वे
पहुंच गए।
तुम
भी अगर अपने
भीतर अपने नाम
का जाप तेजी
से करो तो वह
शब्द न रहकर
ध्वनि में बदल
जाएगा। तब वह
एक अर्थहीन
ध्वनि होगी।
और तब राम और
मरा में कोई
भेद नहीं
रहेगा। राम
कहो या मरा, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वे अब
शब्द नहीं रहे,
वे बस ध्वनि
हैं। और ध्वनि
असली चीज है।
तो
अपने नाम की
ध्वनि में प्रवेश
करो,
उसके अर्थ
को भूल जाओ; सिर्फ ध्वनि
में प्रवेश
करो। अर्थ मन
की चीज है, ध्वनि
शरीर की चीज
है। अर्थ सिर
में रहता है, ध्वनि सारे
शरीर में फैल
जाती है। अर्थ
को भूल ही जाओ,
उसे एक
अर्थहीन
ध्वनि की तरह
जपो। और इस
ध्वनि के जरिए
तुम सभी
ध्वनियों में
प्रवेश पा
जाओगे। यह
ध्वनि सब
ध्वनियों के
लिए द्वार बन
जाएगी। सब
ध्वनियों का
अर्थ है जो सब
है—सारा
अस्तित्व।
भारतीय
अंतस—अनुसंधान
का यह एक
बुनियादी
सूत्र है कि आस्तित्व
को मूलभूत इकाई
ध्वनि है, विद्युत
नहीं। आधुनिक
विज्ञान कहता
है कि
अस्तित्व की
मूलभूत इकाई
विद्युत है, ध्वनि नहीं।
लेकिन वे यह भी
मानते है कि
ध्वनि भी एक
तरह की
विद्युत है।
भारतीय सदा
कहते आए हैं
कि विद्युत
ध्वनि का ही
एक रूप है।
तुमने सुना
होगा कि किसी
विशेष राग के
द्वारा आग
पैदा की जा
सकती है। यह
संभव है।
क्योंकि
भारतीय धारणा
यह है कि
समस्त विद्युत
का आधार ध्वनि
है। इसलिए अगर
ध्वनि को एक
विशेष ढंग से छेड़ा जाए, किसी खास
राग में गाया
जाए तो
विद्युत या आग
पैदा हो सकती
है।
लंबे
पुलों पर फौज
की टुकड़ियों
को लयबद्ध
शैली में चलने
की मनाही है, क्योंकि
कई बार ऐसा
हुआ है कि
उनके लयबद्ध
कदम पड़ने के कारण
पुल टूट गए
हैं। ऐसा उनके
भार के कारण
नहीं, ध्वनि
के कारण होता
है। अगर
सिपाही
लयबद्ध शैली
में चलेंगे तो
उनके लयबद्ध
कदमों की
विशेष ध्वनि
के कारण पुल
टूट जाएगा। वे
सिपाही यदि
सामान्य ढंग
से निकलें
तो पुल को कुछ
नहीं होगा।
पुराने
यहूदी इतिहास
में उल्लेख है
कि जेरीको शहर
ऐसी विशाल
दीवारों से
सुरक्षित था
कि उन्हें
बंदूकों से
तोड़ना असंभव
था। लेकिन वे
ही दीवारें एक
विशेष ध्वनि
के द्वारा तोड़
डाली गईं। उन
दीवारों के
टूटने का राज
ध्वनि में
छिपा है।
दीवारों के
सामने अगर उस
ध्वनि को पैदा
किया जाए तो
दीवारें टूट जाएंगी।
तुमने अली
बाबा की कहानी
सुनी होगी, उसमें
भी एक खास
ध्वनि बोलकर
चट्टान हटाई
जाती है।
वे
प्रतीक हैं।
वे सच हों या
नहीं, एक बात
निश्चित है कि
अगर तुम किसी
ध्वनि का इस
भांति सतत
अभ्यास करते
रहो कि उसका
अर्थ मिट जाए,
तुम्हारा
मन विलीन हो
जाए, तो
तुम्हारे
हृदय पर पड़ी
चट्टान हट
जाएगी।
आज
इतना ही।
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