स्वयं का सत्य—(प्रवचन—चौथा)
प्यारे
ओशो!
यह
श्लोक मुंडकोपनिषद्
का है :
सत्यं
एव जयते
नानृतम्
सत्येन
पन्या विततो
देवयान:।
येनाक्रमन्ति
ऋषयो
ह्याप्तकामा
यत्र
तत्र सत्यस्य
परमं निधानम्।।
अर्थात्
सत्य की जय
होती है, असत्य
की नहीं। जिस
मार्ग से
आप्तकाम
ऋषिगण जाते
हैं और जहां
उस सत्य का
परम निधान है,
ऐसा देवों
का वह मार्ग
हमारे लिए
सत्य के
द्वारा ही
खुलता है।
प्यारे ओशो!
क्या सत्य
साध्य और साधन
दोनों है?
हमें
दिशाबोध देने
की अनुकंपा
करें!
सहजानन्द!
धर्म के
सूत्रों के
संबंध में एक
प्राथमिक बात
सदा स्मरण
रखना : वे
अन्तर्यात्रा
के सूत्र हैं, बहिर्यात्रा
के नहीं। यह भूल
जाए तो फिर
सूत्रों की
व्याख्या गलत
हो जाती है।
यह सूत्र धर्म
का प्राण है, लेकिन
राजनीति का
नहीं। धर्म
में तो
निश्चित ही
सत्य जीतता है
और असत्य
हारता है, और
राजनीति में
बात बहुत
भिन्न है। वहा
जो जीते, वह
सत्य, जो
हारे वह असत्य।
वहां निर्णय
जीत और हार से
होता है, सत्य
और असत्य से
नहीं। राम अगर
हार गये होते
रावण से, तो
तुम दशहरे पर
राम की होली
जलाते रावण की
नहीं। रावण
अगर जीत गया
होता, तो
तुम्हारे
तुलसीदासों
ने रावण की
स्तुति और
प्रशंसा में
गीत लिखे होते।
राजनीति का
जगत अर्थात
बहिर्यात्रा।
वहा बेईमानी
जीतती है, असत्य
जीतता है, पाखंड
जीतता है, चालबाजी
जीतती है, कपट
जीतता है। और
फिर जो जीतता
है, वह
सत्य मालूम
होता है। वहां
सरलता हारती
है। वहा सत्य
पराजित होता
है। वहां
ईमानदार की
कोई गति नहीं
है। वहा सीधा—साफ,
सुथरा होना
हारने के लिए
पर्याप्त
कारण है। वहां
धोखेबाज..
उनकी गति है।
यह
सूत्र
अंतर्यात्रा
का सूत्र है।
लेकिन
राजनीतिज्ञ
भी इसका उपयोग
करते हैं।
भारत ने तो
अपना
राष्ट्रीय
घोषणापत्र ही
इस सूत्र को
बना लिया है :
सत्यमेव जयते।
सत्य की सदा
विजय होती है।
मगर जिसके पास
भी आंखें हैं, वह
देख सकता है।
क्या तुम
सोचते हो कि
स्टेलिन सत्य
था, इसलिए
हिटलर से जीत
गया? दोनों
एक दूसरे से
बढ़कर असत्य थे।
हिटलर इसलिए
नहीं हारा कि
असत्य था और
चर्चिल, रूजवेल्ट
और स्टेलिन
इसलिए नहीं
जीते कि सत्य
थे। इसलिए
जीते कि ये
सारे असत्य
इकट्ठे हो गये
थे एक असत्य
के खिलाफ। एक
असत्य कमजोर
पड़ गया इन
सारे असत्यों
के मुकाबले।
असत्य ही जीता।
एडोल्फ
हिटलर जीत
सकता था। तो
सारा इतिहास
और ढंग से
लिखा जाता।
यही
इतिहासविद जो
उसकी निंदा
में लिख रहे
हैं,
उसकी
प्रशंसा में
लिखते।
इतिहास
तुम्हारा
सरासर झूठ है।
इतिहास का कोई
संबंध तथ्यों
से नहीं है।
इतिहास का संबंध
है
लिखनेवालों
से। और
लिखनेवाले
उसकी खुशामद
में लिखते हैं
जो जीता है।
हारे को तो
पूछता कौन? डूबते सूरज
को तो कौन
नमस्कार करता
है? ऊगते
सूर्यों को
नमस्कार किया
जाता है।
अंग्रेजों ने
एक ढंग का
इतिहास लिखा
था और जब हिन्दुओं
ने इतिहास
लिखना शुरू
किया, उन्होंने
दूसरे ढंग का
इतिहास लिखा।
मुसलमान
तीसरे ढंग का
इतिहास
लिखेंगे।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा इतिहासज्ञ
एडमंड बर्क
मनुष्यजाति
का इतिहास लिख
रहा था—पूरी
मनुष्यजाति
का। उसने कोई
बीस वर्ष अपने
जीवन के इस
महान कार्य
में संलग्न
किये थे। और
उसकी किताब
करीब पूरी होने
को आ रही थी, बस
आखिरी अध्याय
लिख रहा था और
एक दिन यूं
घटना घटी कि
उसने अपनी बीस
साल की मेहनत
को आग लगा दी।
बात ऐसी हुई, उसके घर के
पिछवाड़े में
ही एक हत्या
हो गयी। दो
आदमियों में
झगड़ा हुआ और
एक आदमी मार
डाला गया—उसको
गोली मार दी
गयी। यह गोली
कोई रात के अंधेरे
में एकांत में
नहीं मारी गयी
थी। भरी
दोपहरी में, भीड़ खड़ी थी, सारा
मोहल्ला
इकट्ठा था, सैकड़ों लोग
मौजूद थे जब
यह झगड़ा हुआ।
जब एडमंड बर्क
को गोली की
आवाज सुनायी
पड़ी, वह
भागा हुआ
पहुंचा। वहा
भीड़ इकट्ठी थी,
आदमी मरने के
करीब था—लहूलुहान
था—जिसने मारा
था वह भी
मौजूद था।
उसने अलग— अलग
लोगों से पूछा,
क्या हुआ? और जितने
मुंह उतनी
बातें। घर के
पिछवाड़े
हत्या हुई, अभी
मरनेवाला मरा
भी नहीं है—मर
रहा है—अभी
मारनेवाला
भाग भी नहीं
गया है—मौजूद
है—चश्मदीद
गवाह मौजूद
हैं—एक नहीं, अनेक—सबने
देखा है, लेकिन
सबकी
व्याख्या अलग
है। जो
मारनेवाले के
पक्षपाती हैं,
वे कुछ और
कह रहे हैं।
जो मरनेवाले
के पक्षपाती
हैं, वे
कुछ और कह रहे
हैं। जो तटस्थ
हैं, वे
कुछ और कह रहे
हैं। एडमंड
बर्क ने बहुत
कोशिश की
जानने की कि
तथ्य क्या है,
नहीं जान
पाया। लौटकर
उसने अपने बीस
वर्षों का जो
श्रम था उसमें
आग लगा दी।
उसने कहा, जब
मैं अपने घर
के पिछवाड़े
अभी— अभी घटी
ताजी घटना को
तय नहीं कर
पाता कि तथ्य क्या
है, और मैं
मनुष्यजाति
का इतिहास
लिखने चला
हूं! कि पांच
हजार वर्ष
पहले क्या हुआ?
मैंने ये
बीस वर्ष
व्यर्थ ही
गंवाए। मैं
पानी पर
लकीरें
खींचता रहा।
इतिहास
कौन लिखता है; कौन
लिखवाता है? और फिर
सदियों तक जो
बात लिखी गयी,
उसे हम
दोहराते चले
जाते हैं।
राजनीति
बहिर्यात्रा
है। राजनीति
का अर्थ है :
दूसरे पर विजय
पाना। और जहां
दूसरे पर विजय
पाना है, वहां
सत्य का क्या
प्रयोजन! सत्य
का कोई उपयोग
भी नहीं किया
जा सकता दूसरे
पर विजय पाने
के लिए। यह
बात ही गलत है।
दूसरे पर विजय
पाने की आकांक्षा
ही गलत है।
इसके लिए सत्य
का साधन की
तरह उपयोग
नहीं किया जा
सकता। सत्य और
दूसरे पर विजय
पाना, इन
दोनों के बीच
क्या संबंध हो
सकता है! हा, अतर्यात्रा
के जगत में यह
सूत्र जरूर
सत्य है। वहां
सत्य ही जीतता
है। सत्य ही
जीत सकता है।
वहा असत्य की
हार
सुनिश्चित है।
वहां असत्य को
हारना ही होगा।
अंतर्जगत में
असत्य वह है
जो है ही नहीं।
जो है ही नहीं,
वह जीतेगा
कैसे? मगर
वह जीत और है।
वह आत्म—विजय
है। अपने पर
विजय है। और
अपने पर विजय
में किसको धोखा
देना है? और
क्या सार है
धोखा देने का?
खुद को ही
धोखा देने से
मिलेगा भी
क्या? और
धोखा देना भी
चाहोगे तो
कैसे दोगे? तुम तो
जानते ही
रहोगे कि धोखा
दे रहे हो।
इस
भेद को खयाल
में ले लेना।
इस सूत्र की
व्याख्या तो
बहुत बार की
गयी,
क्योंकि
प्यारा सूत्र
है, मगर यह
बुनियादी भेद
कभी साफ नहीं
किया गया कि यह
सूत्र बाहर के
जगत में लागू
नहीं होता।
वहां सब तरह
की तिकडुम, चालबाजी, पाखंड, मुखौटे
उपयोगी हैं।
यहां सत्य
तुम्हें हरा
देगा। वहा तुम
सत्य बोले कि
गये। राजनीति
में कहीं सत्य
चल सकता है!
राजनीति में
तो चाणक्य का
शास्त्र चलता
है, मुंडकोपनिषद्
नहीं चलते।
राजनीति में
तो
मेक्यावेली
चलता है, बुद्ध
और महावीर की
वहा कोई गति
नहीं है। फिर
चाणक्य हों या
मेक्यावेली, इनकी
आधारशिला एक ०,,
धोखा देने
की कुशलता। हा,
जरूर सत्य
को तो नहीं
जिताया जा
सकता बाहर के जगत
में, लेकिन
असत्य को भी
जिताना हो तो
सत्य की तरह
प्रतिपादित
करना होता है।
असत्य को भी
चलाना हो तो
सत्य का रंग—रोगन
करना होता है।
सत्य की कम—से —कम
झूठी प्रतीति
खड़ी करनी पड़ती
है। क्योंकि
लोग सत्य से
प्रभावित
होते हैं। फिर
सत्य हो या न
हो, यह और
बात है। भ्रम
काफी है। झूठ
को भी यूं
सजाना होता है
कि वह सच जैसा
मालूम पड़े। कम—से—कम
मालूम पड़े!
जैसे खेत में
हम पशु—पक्षियों
को डराने के
लिए एक झूठा
आदमी बनाकर खड़ा
कर देते हैं; एक डंडे पर
हंडी रख देते
हैं, दूसरा
डंडा बांधकर
हाथ बना देते
हैं, फिर
कुर्ता पहना
दो और गांधी
टोपी लगा दो; चाहो
चूड़ीदार
पाजामा—और
मोरारजी
देसाई तैयार!
और चाहिए क्या?
पशु —पक्षियों
को भगाने के
काम में कम—से—कम
आ ही जाएंगे।
और तो किसी
काम के हैं भी
नहीं!
खलील
जिब्रान की एक
प्रसिद्ध कथा
है,
कि मैं
निकलता था एक
खेत के करीब
से और मैंने वहा
एक धोखे के
आदमी को खड़ा
देखा। वर्षा
हो, धूप हो,
सर्दी हो—यह
बेचारा सतत
प्रहरी की तरह
खड़ा रहता—न
थकता, न
ऊबता, न
बैठता, न
सुस्ताता, न
लेटता। अथक
इसकी साधना है—महायोगी
है। तो मैंने
पूछा, कभी
थक नहीं जाते
हो? कि भाई
कभी सुस्ताते
भी नहीं! कि
मैं पूछता हूं
ऊबते नहीं हो?
यही जगह, वही काम रोज सुबह—शाम,
दिन और रात,
कभी तो ऊब
पैदा हो जाती
होगी? वह
खेत में खड़ा
झूठा आदमी
हंसने लगा और
उसने कहा कि
पशु—पक्षियों
को भगाने में
ऐसा मजा आता
है, डराने
में ऐसा मजा
आता है, कि
ऊब का सवाल कहां
उठता है?
दूसरों
को डराने का
एक मजा है!
राजनीति वही
मजा है।
दूसरों पर
हावी होने का
एक मजा है!
इससे तुम राजनीतिज्ञ
को देखो, हमेशा
प्रफुल्लित
मालूम होता है।
हजार
उपद्रवों के
बीच, झंझटों
के......हजार
उपद्रवों के,
झंझटों के
बीच...... ताजा
लगता है।
राजनीतिज्ञ
लम्बे जीते
हैं। किसी और
कारण से नहीं,
दूसरों को
डराने का मजा,
धमकाने का
मजा! मरना ही
नहीं चाहते।
जीते ही रहना
चाहते हैं।
छोड़ते नहीं
बनता यह मजा!
जैसे ही कोई
राजनीतिज्ञ
पद से उतरता
है कि बस, जीवनऊर्जा
क्षीण होने
लगती है। जब
तक पद पर होता
है, तब तक
जीवनऊर्जा
बड़ी
अभिव्यक्त
होती है। ये
सब झूठे आदमी
हैं, खेत
के आदमी हैं।
अब खेत में
डराने के लिए
कोई असली आदमी
थोड़े ही खड़ा
करना जरूरी है।
लेकिन असली
आदमी का धोखा
होना चाहिए।
पशु—पक्षियों
को ऐसा लगना
चाहिए कि है
असली। तो गांधी
टोपी, खादी
का कुरता, शेरवानी,
चमचमाते
जूते—इतना
पर्याप्त है।
राजनीति
में सत्य नहीं
जीतता। कभी नहीं
जीतता। कभी
जीतेगा भी
नहीं। जिस दिन
राजनीति में
सत्य जीतने
लगेगा, उस
दिन राजनीति
राजनीति न रह
जाएगी। उस दिन
नीति हो
जायेगी सिर्फ
नीति, शुद्ध
नीति। उस दिन
जगत से
राजनीति विदा
हो जाएगी। उस
दिन धर्म ही
होगा। लेकिन
तब राजनीति की
व्याख्या और
होगी, उसकी
गुणवत्ता और
होगी—उसमें
भगवत्ता होगी।
आशा करना करीब—करीब
दुराशा है; ऐसा हो नहीं
पाएगा।
लेकिन
भीतर के जगत
में यह सूत्र
बिलकुल सत्य है—सौ
प्रतिशत!
'सत्यं एव
जयते नानृतम्'।
सत्य
जीतता है, असत्य
नहीं।
असत्य
का अर्थ समझ
लो : जो नहीं है—जैसे
अंधेरा। अब
दिया जलाओगे
तो क्या
अंधेरा जीत
सकता है? कितना
ही पुराना हो,
सदियों
पुराना हो, तो भी यह
नहीं कह सकता
दिये से कि
छोकरे, तू
तो अभी—अभी
जला, अभी
घड़ी भी नहीं
हुई तुझे और
इतनी अकड़
दिखला रहा है!
और हम सदियों
से यहां हैं, यूं हम मिट
जाएंगे क्या?
इतनी
पुरानी हमारी
परंपरा, इस
घर में हमारा
अड्डा पुराना
और तू अभी— अभी
आया, मेहमान
की तरह, और
यूं इतरा रहा
है! अभी तुझे
बुझाकर रख
देंगे! नहीं, अंधेरा एक
छोटे—से दिये
को भी नहीं
बुझा सकता।
क्योंकि
अंधेरा है
नहीं, असत्य
है।
असत्य
शब्द का अर्थ :
जो नहीं है, जिसका
अस्तित्व
नहीं है; जो
सिर्फ प्रतीत
होता है; जो
वस्तुत: अभाव
है, अनुपस्थिति
है। प्रकाश के
अभाव का नाम
अंधकार है। और
सत्य के अभाव
का नाम असत्य
है। तो जैसे
ही प्रकाश आया,
फिर अभाव
कैसे रह जाएगा?...
मैं जब तक
नहीं आया था, यह कुर्सी
खाली थी। अब
मैं इस कुर्सी
पर आ गया, अब
यह कुर्सी
खाली नहीं है।
मैं इस कुर्सी
पर बैठा हूं
तो यह कुर्सी
खाली कैसे हो
सकती है? यह
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो सकतीं। वह
जो खालीपन था,
वह सिर्फ
अभाव था। ऐसा
अंधकार है।
ऐसा असत्य है।
दीया जला कि
अंधकार मिटता
है—ऐसा कहना
भी ठीक नहीं, क्योंकि जब
हम कहते हैं
मिटता है, तो
यह भ्रांति
होती है कि
रहा होगा। यह
भाषा की
मजबूरी है।
मिटता कहना
ठीक नहीं है, युक्तियुक्त
नहीं है। सत्य
के अनुकूल
नहीं है।
क्योंकि
मिटती तो वह
चीज है जो रही
हो। और अंधकार
तो था ही नहीं,
तो मिटेगा
कैसे? जो
नहीं था वह
मिट नहीं सकता।
यह कहना भी कि
अंधकार चला गया,
ठीक नहीं है।
क्योंकि जो था
ही नहीं वह
जाएगा चलकर
कहां? क्या
उसके पैर हो
सकते हैं? तुम
दरवाजे पर खड़े
हो जाओ, भीतर
कोई दिया जलाए,
क्या तुम
सोचते हो
अंधेरा
दरवाजे से
भागता हुआ
दिखाई पड़ेगा?
तुम द्वार
दरवाजे बंद कर
दो, रंध्र—रंध्र
बंद कर दो, जरा—सी
संध न छोड़ो, जब दिया
जलाओगे तो
अंधकार कहां
से भागेगा, कहां जाएगा
भागकर? संध
भी तो नहीं है
जाने को।
तो
अंधकार कहीं
जाता नहीं। है
ही नहीं तो
जाएगा कैसे? मिटता
नहीं—है ही
नहीं तो
जायेगा कैसे?
मिटता नहीं—है
ही नहीं तो
मिटेगा कैसे?
फिर क्या हो
जाता है? प्रकाश
की अनुपस्थिति
थी, प्रकाश
आ गया, अनुपस्थिति
समाप्त हो गयी।
उपस्थिति अनुपस्थिति
को पोंछ डाली।
बस, ऐसा
ही सत्य और
असत्य का
संबंध है।
असत्य अर्थात
जो नहीं है।
सत्य आ जाए, तो असत्य तत्क्षण
तिरोहित हो
जाता है। सत्य
कैसे आ जाए, इसलिए
महत्वपूर्णं
सवाल यह है।
दीया कैसे जले,
महत्वपूर्ण
सवाल यह है।
इस
सूत्र से गलती
हो सकती है, वह
गलती होती रही
है। तुमसे न
हो जाए, इसलिए
सावधान करना
चाहता हूं।
लोग सोचते हैं,
सत्य को
शास्त्रों से
सीखा जा सकता
है। यह यूं
हुआ जैसे कि
कोई दिये की
तस्वीर बना ले
और अंधेरे में
ले जाए और
दिये की
तस्वीर रख दे।
क्या तुम
सोचते हो, दिये
की तस्वीर से
अंधेरा
मिटेगा? शास्त्रों
में केवल दीये
की तस्वारें
हैं। दीये की
तस्वारों से
अंधकार नहीं
मिटेगा। या
कोई दीये की
खूब चर्चा
करने लगे, गुणगान
करने लगे, दीये
की स्तुति में
गीत
गुनगुनाये, तो भी
अंधकार नहीं
मिटेगा। दीया
ही लाना होगा,
ज्योति ही
जलानी होगी।
इस
सूत्र से यह
भ्रांति भी
पैदा होती है
कि चूंकि
असत्य जीतता
नहीं, इसलिए
असत्य को
निकाल बाहर
करो। असत्य को
त्यागों। यह
वैसा ही हुआ
जैसे कोई
अंधकार को
त्यागने की
बात करे। कैसे
त्यागोगे
अंधकार को? धक्के देकर
निकालोगे
अंधकार को? लड़ोगे
अंधकार से? संघर्ष
करोगे? क्योंकि
यह विजय शब्द
खतरनाक है।
इससे ऐसा लगता
है, लड़ना
पडेगा, घूसेबाजी
होगी, पहलवानी
होगी, दावपेंच
लगेंगे, तलवारें
चलेंगी, कृपाणें
उठेंगी—'बोले
सो निहाल, सत
श्री अकाल'—कुछ उपद्रव
होनेवाला है;
कि या—अली या
बजरंगबली, कुछ—न—कुछ—लगोट
कसकर और जूझ
पड़ना है! कि
दंड—बैठक
लगाने होंगे!
कि हाथ—पैर
मजबूत करने
होंगे! अंधकार
से लड़ना जो है!
असत्य से लड़ना
जो है!
यह
सब पागलपन की
बातें हैं।
मगर
इन बातों का
बड़ा आकर्षण है।
लोग असत्य से
लड रहे हैं।
अनाचरण से लड़
रहे हैं, दुराचरण
से लड़ रहे हैं,
बुराइयों
से लड़ रहे हैं,
अनीति से लड़
रहे हैं, दुष्चरित्रता
से लड़ रहे हैं।
लड़कर खुद ही
टूट जाएंगे और
कुछ भी नहीं
होगा। लड़ने
में खुद ही
आत्मघात कर
लेंगे, अपनी
ही शक्ति को
व्यर्थ व्यय
कर देंगे। यह
सवाल लड़ाई का
नहीं है।
अंधकार के साथ
कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
न तो तुम लड़
सकते हो, न
तलवार से उसे
काट सकते हो, न फौजें
लाकर उसे हटा
सकते हो। जो
नहीं है, उसके
साथ कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। हां, अगर उसके
साथ कुछ करना
हो, तो
प्रत्यक्ष
मार्ग नहीं है,
परोक्ष
मार्ग है।
अंधकार के साथ
कुछ करना हो
तो प्रकाश के
साथ कुछ करो।
अगर चाहते हो
अंधकार हटे, तो प्रकाश
जलाओ। और अगर
चाहते हो
अंधकार रहे, तो प्रकाश
बुझाओ। करना
होगा प्रकाश
के साथ।
क्योंकि जो है,
उसी के साथ
कुछ किया जा
सकता है।
इसलिए
मेरा जोर आचरण
पर नहीं है, मेरा
जोर ध्यान पर
है। ध्यान है
प्रक्रिया—स्वयं
के भीतर
प्रकाश को जला
लेने की।
ध्यान है
प्रक्रिया—स्वयं
के भीतर सत्य
को आमंत्रित
कर लेने की।
सत्य में
उत्सुक हो गये
तो शास्त्रों
में उलझ जाओगे।
ध्यान में
उत्सुक होना।
नहीं तो
तस्वीरों में
पड़े रह जाओगे।
और तस्वीरें
काम नहीं आती।
दीये की चर्चा
से कुछ नहीं
होता, दीया
चाहिए।
'सत्यं एव
जयते नानृतम्'।
निश्चय
ही सत्य जीतता
है,
असत्य नहीं।
मगर सत्य
लाओगे कहा से?
ध्यान के
अतिरिक्त न
कभी सत्य आया
है, न आ
सकता है।
शास्त्र से
नहीं आता, सिद्धांतों
से नहीं आता, सिर्फ अपने
भीतर परम मौन,
पूर्ण
शून्यता में
उतरता है।
निर्विचार अवस्था
में सत्य का
बोध होता है।
लेकिन लोग
अजीब हैं! लोग
सत्य के संबंध
में विचार
करने में लगे
हैं कि सत्य
क्या है! यूं
वे दर्शनशास्त्र
में भटक जाते
हैं।
इसी
जगह से दर्शन
और धर्म का
रास्ता अलग
होता है।
दर्शनशास्त्र
सोचने लगता है
: सत्य क्या है, सत्य
को कैसे पाएं,
सत्य की
रूपरेखा क्या
है, व्याख्या
क्या है, परिभाषा
क्या है, सत्य
है या नहीं? और धर्म
ध्यान की
यात्रा पर
निकल जाता है।
निर्विचार की
यात्रा पर। और
दर्शनशास्त्र
कहीं भी नहीं
पहुंचा, किसी
निष्पत्ति पर
नहीं।
दर्शनशास्त्र
से ज्यादा असफल
पृथ्वी पर कोई
प्रयोग नहीं
हुआ है। और
कितनी
प्रतिभाएं
डूब गयीं इस
प्रयोग में! कितने
अद्भुत लोग
नष्ट हो गये!
और ध्यानियों
के पास भी
बैठकर लोग
दर्शन की
यात्रा पर
निकल जाते हैं।
सुकरात
ध्यानी है, लेकिन
उसका शिष्य
प्लेटो भटक
गया। बैठा
सुकरात के पास,
सुना सुकरात
को, लेकिन
सुन—सुनकर
सोचने
विचारने में
लग गया। और जब
सुकरात के पास
बैठकर प्लेटो
भटक गया, तो
प्लेटो का
शिष्य अरस्तू
तो और भी भटक
गया! बात ही
गड़बड़ हो गयी।
अगर सुकरात और
अरस्तु का
मिलन हो जाए
तो दोनों को
एक—दूसरे की
बात ही समझ
में न आएगी।
जमीन— आसमान
का फर्क हो
गया।
और
यह करीब—करीब
पृथ्वी के हर
देश में हुआ
है,
हर परंपरा
में हुआ है।
बुद्ध
के मरते ही
उनके संघ में
बत्तीस
दार्शनिकों
के सम्प्रदाय
पैदा हो गये।
लोग चल पड़े
सोचने की
दुनिया में
अलग— अलग। और
सोचने में
विवाद है।
सोचने में कोई
निष्कर्ष तो
मिलता नहीं, लेकिन
भारी आपाधापी,
ऊहापोह मच
जाता है। अंधे
सोचने लगते
हैं हाथी के
संबंध में।
पांच
अंधों की
कहानी तुमने
सुनी है? सुनी
है—पंचतंत्र
में, कि
गये थे अंधे
हाथी को देखने।
अंधे गये थे
हाथी को
देखने! जिसने
कान छुआ, उसने
कहा कि हाथी
सूप की सिद्धांतों
है। और जिसने
पैर छुआ था, उसने कहा...
अंधा क्या
समझेगा और..
उसने सोचा, हाथी खम्भे
की भांति है, स्तम्भ की
भांति है। और
पांचों अंधों
ने अलग— अलग
वक्तव्य दिये।
उनमें भारी
विवाद मच गया।
अंधे अकसर
दार्शनिक
होते हैं।
दार्शनिक
अकसर अंधे
होते हैं।
इनमें कुछ
बहुत भेद नहीं
होता। अंधे ही
दार्शनिक हो
सकते हैं।
जिनके पास आंखें
नहीं हैं वे
ही सोचते हैं,
प्रकाश
क्या है? नहीं
तो सोचेंगे
क्यों? जिसके
पास आंख है, वह देखता है,
सोचेगा
क्यों?
खयाल
रखना, दार्शनिक
और द्रष्टा
में बड़ा भेद
है। यह सूत्र
द्रष्टा के
लिए है, दार्शनिक
के लिए नहीं।
सोचने मत बैठ
जाना कि सत्य
क्या है।
निर्विचार
होना है।
सोचने से
मुक्त होना है।
वही भूमिका है।
जब तुम
परिपूर्ण
शून्य होते हो,
तुम मंदिर
हो जाते हो।
तुम तीर्थ बन
जाते हो। सत्य
अपने से
अवतरित होता
है, उतरता
है। क्योंकि
तुम जब शून्य
होते हो, तुम्हारे
द्वार—दरवाजे
सब खुले होते
हैं—अस्तित्व
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर सकता है।
'सत्यं एव
जयते नानृतम्'
सत्य
जीतता है, असत्य
नहीं।
'सत्येन
पन्था विछले
देवयान:'
और
यह सत्य का जो
पंथ है, यही
है देवयान, यही है
दिव्यमार्ग।
विचार का नहीं,
शास्त्र का
नहीं, दिव्यता
का।
'सत्येन प्ल—था
वितके देवयान:।’
सत्य
मार्ग है। वही
देवयान है।
दोनों
यानों को समझ
लो। एक को कहा
है परंपरा में
पितृयान और
दूसरे को कहा
है : देवयान।
यान का अर्थ
होता है नाव।
पितृयान का
अर्थ होता है.
हमारे
बुजुर्ग, हमारे
बाप—दादे जो
करते रहे, वही
हम करें।
पितृयान यानी
परंपरा। जिससे
सदियों से लोग
चलते रहे
उन्हीं
लकीरों पर हम
भी फकीर बनें
रहें। और
देवयान का
अर्थ होता है. क्रांति,
परंपरा से
मुक्ति; अपनी
दिव्यता की
खोज, औरों
के पीछे न
चलना—उद्घोषणा—बगावत—विद्रोह!
मैं
तुम्हें
देवयान दे रहा
हूं। संन्यास
का अर्थ है
देवयान। तुम
हिन्दू नहीं
हो,
मुसलमान
नहीं हो, ईसाई
नहीं हो, जैन
नहीं हो, बौद्ध
नहीं हो, तुम
सिर्फ
धार्मिक हो!
मैं तो
संन्यासी को
चाहता हूं वह
सारे
विशेषणों से
मुक्त हो जाए।
क्योंकि वह सब
पितृयान है।
तुम्हारे
पिता हिंदू थे,
इसलिए तुम
हिंदू हो। और
तो तुम्हारे
हिंदू होने का
कोई कारण नहीं
है। अगर बचपन
से ही तुम्हें
मुसलमान घर
में बड़ा किया
गया होता, तुम
मुसलमान होते।
चाहे हिंदू घर
में ही पैदा
हुए होते, लेकिन
अगर मुसलमान
मां—बाप ने
बड़ा किया होता,
तो मस्जिद
जाते, मंदिर
नहीं; कुरान
पढ़ते गीता
नहीं, जरूरत
पड़ जाती तो
मंदिर को आग
लगाते, और मस्जिद
को बचाने के
लिए प्राण दे देते
यह
तुम नहीं हो, यह
तुम्हारे
भीतर सड़ा—गला
अतीत बोल रहा
है।
जो
व्यक्ति अपने
को हिंदू या
मुसलमान या
ईसाई या जैन
कहता है, वह
अपने
व्यक्तिव को
नकार रहा है, अपनी आत्मा
को इनकार कर
रहा है। वह कह
रहा है. मेरा
कोई मूल्य
नहीं है; कब्रों
का मूल्य है, मुर्दों का
मूल्य है।
देवयान का
अर्थ होता है.
अपनी दिव्यता
की अनुभूति और
घोषणा; परंपरा
से मुक्ति; अतीत से
मुक्ति और
वर्तमान में
जीने की कला।
'सत्येन प्ल—था
विततो देवयान:।’
यह
जो सत्य का
मार्ग है, यह
देवयान है; यह बगावत का
रास्ता है, यह विद्रोह
है। यह
पितृयान नहीं
है। तुम यह
नहीं कह सकते
कि मेरे पिता
मानते थे, इसलिए
मैं मानता हूं।
नहीं, तुम्हें
जानना होगा—जानना
पहले। और
जिसने जान
लिया उसे
मानने की
जरूरत ही नहीं
होती। और
जिसने माना, उसके जीवन
में जानने का
सौभाग्य कभी पैदा
नहीं होता।
जिसने माना, वह तो मर ही
गया। जिस दिन
माना, उसी
दिन मर गया।
क्योंकि उसी
दिन खोज
समाप्त हो गयी,
अन्वेषण
बंद हो गया।
मानने का अर्थ
ही होता है कि
अब क्या करना
है, मैंने
तो मान लिया।
और तुम्हें
यही सिखाया
गया है कि
मानो, विश्वास
करो। और इस
भांति सारी
पृथ्वी पर
थोथे धार्मिक
लोग पैदा किये
गये हैं।
विश्वासी हैं,
मगर
धार्मिक नहीं।
विश्वास
थोथा ही होगा।
जो तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं है, वह
कैसे सत्य हो
सकता है? मैं
कहूं वह मेरा
अनुभव है, तुम
उसे दोहराओ, तुम्हारे
लिए असत्य हो
गया। जिस दिन
तुम भी जानोगे,
अपनी निजता
में, उस
दिन तुम्हारे
लिये सत्य
होगा। और
स्वयं का सत्य
ही मुक्त करता
है। दूसरों के
सत्य बंधन बन
जाते हैं, जंजीरें
बन जाते हैं।
इसलिए
मेरा कोई
संन्यासी
मेरा अनुयायी
नहीं है। मेरा
संगी है, मेरा
साथी है, लेकिन
मेरा अनुयायी
नहीं है—मैं
कोई सिद्धात
दे भी नहीं
रहा। तुम चाहो
भी मेरा
अनुगमन करना
तो न कर सकोगे।
मैं तुम्हें
सिर्फ इशारे
दे रहा हूं—इशारे
अंतर्यात्रा
के। मैं
तुम्हें कुछ
सिद्धात नहीं
दे रहा कि तुम पकड़
लो और मान लो।
मैं तुमसे
सारे सिद्धात
छीन रहा हूं।
यह देवयान की
प्रक्रिया है।
'सत्येन
पन्या विततो
देवयान:।
येनाक्रमन्ति
ऋषयो
ह्याप्तकामा'
इस
सत्य मार्ग से
जो जाते हैं, वे
हैं आप्तकाम।
जिसने सत्य को
जाना, उसकी
कामना मर जाती
है। कामना
बाहर कुछ पाने
की दौड़ है।
कामना
राजनीति है।
कामना का अर्थ
है धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा
मिले, यश
मिले। कामना
का अर्थ है :
दूसरों पर मैं
हावी हो जाऊं;
दूसरों के
सिरों पर बैठ
जाऊं।
आप्तकाम का
अर्थ है :
जिसने देख ली
मूढ़ता इस दौड़
की; जो इस
दौड़ से मुक्त
हो गया; जिसकी
भ्रांति टूट
गयी, जिसको
यह बात समझ
में आ गयी कि
मैं अपना
मालिक नहीं
हूं किसी और
का मालिक कैसे
हो सकूंगा? यह असंभव है।
अपना ही मालिक
हो जाऊं, इतना
ही काफी है।
काफी से
ज्यादा है।
क्योंकि जो
अपना मालिक
हुआ, उसके
जीवन में भीतर
के खजानों के
द्वार खुल जाते
हैं। इस
सत्यमार्ग से
जो जाते हैं—वे
ही आप्तकाम
हैं, वे ही
ऋषि हैं, वे
ही द्रष्टा
हैं।
ऋषि
शब्द बड़ा
प्यारा है।
दुनिया की
किसी भाषा में
ऐसा शब्द नहीं।
ऋषि का यूं तो
अर्थ होता है :
कवि। लेकिन एक
गुणात्मक भेद
है कवि और ऋषि
में। दुनिया
की सभी भाषाओं
में कवि के
लिए शब्द हैं, लेकिन
ऋषि के लिए
नहीं—कारण है।
हमने
इस देश में
कोई पांच हजार
वर्षों से
निरन्तर भीतर
की शोध की है।
जैसे आज
पश्चिम
विज्ञान के
शिखर पर है, ऐसे
हमने धर्म के
शिखर पर
पहुंचने का
सतत अभियान
किया है। जरूर
कोई सारा
पश्चिम
वैज्ञानिक
नहीं है, लेकिन
विज्ञान की एक
खूबी है; अगर
एक व्यक्ति ने
बिजली खोज ली
और बिजली का बल्व
बना लिया—जैसे
एडीसन ने—तो
एक दफा बिजली
का बल्व बन
गया और बिजली
खोज ली गयी, तो सभी उसके
हकदार हो जाते
हैं। फिर घर—घर
में बिजली
जलती है। फिर
ऐसा नहीं है
कि एडीसन के
घर में ही
बिजली जलेगी।
एक दफा बात
जान ली गयी, तो बाहर के
जगत की सारी
बातें एक बार
जान ली गयीं
तो सबकी हो
जाती हैं।
इससे
विज्ञान में
एक भांति बड़े
स्वाभाविक
रूप से पैदा
हो जाती है, वैज्ञानिक
तो थोड़े ही
होते हैं—कोई
एडीसन, कोई
आइंस्टीन, कोई
रदरफोर्ड, थोड़े
से वैज्ञानिक—लेकिन
एक वैज्ञानिक
जो भी खोजता
है, जैसे एडीसन
ने एक हजार
आविष्कार
किये, लेकिन
वे सारे
आविष्कार
सबके हो गये।
धर्म
के संबंध में
एक अड़चन है।
धर्म भी थोडे
लोगों ने ही
अनुभव किया है—बुद्ध
ने,
महावीर ने,
कृष्ण ने, पतंजलि ने, गोरख ने, नानक
ने, कबीर
ने, मीरा
ने, थोड़े—से
लोगों ने—मगर
धर्म के साथ
एक अड़चन है, जो अनुभव
करता है, बस
उसके ही भीतर
ज्योति जगती
है। इसको हर
घर में नहीं
जलाया जा सकता।
बुद्ध ने जाना
तो बुद्ध
मुक्त हो गये।
और मीरा ने
पाया तो मीरा
नाचती है मग्न
होकर; पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची रे!
मगर तुम कैसे
पद में घुंघरू
बाधोगे? और
तुम कैसे
नाचोगे? तुमने
तो पाया नहीं।
और तुम नाचे
तो नकल करोगे।
तुम नकलची हो
जाओगे। तुम
कार्बन कापी
हो जाओगे। और
इस दुनिया में
इससे बड़ा कोई
पाप नहीं है :
कार्बन कापी
हो जाना। अपनी
मौलिकता को
भूल जाना
जघन्य अपराध
है, आत्मघात
है।
थोड़े
से लोगों ने
धर्म के शिखर
को छुआ। लेकिन
जिन्होंने
धर्म के शिखर
को छुआ, उन्होंने
हमारी भाषा पर
भी छाप छोड़ दी।
हमारी भाषा को
उन्होंने नया
श्रृंगार दे
दिया। हमारी
भाषा को नये
अर्थ, नयी
अभिव्यंजनाएं
दे दीं—जैसे
ऋषि शब्द दिया।
कवि
का अर्थ होता
है. जिसके पास
बाहर की आंखें
हैं,
जो बाहर के
सौन्दर्य को
देखने में
समर्थ है, जिसके
पास बाहर के
सौन्दर्य को
अनुभव करने की
संवेदनशीलता
है। सूर्योदय
के सौन्दर्य
को देखता है, सूर्यास्त
के सौन्दर्य
को देखता है; पक्षियों के
गीत, फूलों
के रंग, रात
तारों से भरा
हुआ आकाश, किसी
की आंखों का
सौन्दर्य, किसी
के चेहरे का
सौन्दर्य, लेकिन
उसकी आंख बाहर
के सौन्दर्य
को देखती है, वह कवि। वह
इस सौन्दर्य
के गीत गाता
है। लेकिन यह
सौन्दर्य कुछ
भी नहीं है उस
सौन्दर्य के
मुकाबले जो
भीतर है।
जिसकी भीतर की
आंख खुल जाती
है—प्रतीकात्मक
रूप से हमने
उसको तृतीय
नेत्र कहा है।
यह भी थोड़ा
सोचने जैसा है।
बाहर
देखनेवाली दो आंखें
हैं और भीतर
देखनेवाली एक आंख
है।
क्यों?
क्योंकि
बाहर देखने का
जो ढंग है वह
द्वंद्व का है, द्वैत
का है। वह हर
चीज को दो में
तोड़ देने का
है। और भीतर
जो देखने का
ढंग है, वह
हर चीज को एक
में जोड़ देने
का है। बाहर
विश्लेषण है,
और भीतर
संश्लेषण।
विज्ञान
विश्लेषण है, क्योंकि
वह बाहर की आंख
है। और धर्म
संश्लेषण है,
क्योंकि वह
भीतर की आंख
है। वहां दो आंखें
मिलकर एक आंख
हो जाती है।
वहां एक ही
दृष्टि रह
जाती है। वहा
कोई द्वैत
नहीं बचता।
इसलिए हमने
उसे तीसरा
नेत्र कहा है।
वह भीतर की आंख
है। और जिसे
भीतर का
सौन्दर्य
दिखाई पड़ता है,
वह ऋषि।
लेकिन
भीतर का
सौन्दर्य तो
तब दिखाई
पड़ेगा जब भीतर
का दिया जले।
बाहर का
सौन्दर्य
दिखाई पड़ता है, क्योंकि
बाहर रोशनी है।
रात के अंधेरे
में तो फूलों
के रंग दिखाई
नहीं पड़ते!
दिन के प्रकाश
में फूलों के
रंग दिखाई पड़ते
हैं। रात में
इन्द्रधनुष
दिखाई नहीं
पड़ता—बन ही
नहीं सकता, दिखाई कैसे
पड़ेगा! उसके
लिए सूरज तो
चाहिए ही
चाहिए। हां दिन
की रोशनी में
कभी
इन्द्रधनुष
बनता है। सारे
रंग! अपूर्व
सौन्दर्य के
साथ पृथ्वी और
आकाश को जोड़
देता है, सेतु
बन जाता है।
तुम्हारे
कमरे में
कितनी ही
सुंदर
तस्वीरें टंगी
हों, बड़े—से—बड़े
चित्रकारों
कीं—पिकासो की,
डाली की, वानगाग की—मगर
रात के अंधेरे
में तुम
उन्हें देख न
पाओगे। रोशनी
चाहिए—सुबह जब
सूरज उगेगा और
खिड़कियों से
किरणें झाकेंगी
तब तुम अचानक
चकित होओगे कि
कितनी अदभुत
कलात्मक
कृतियां कमरे
में मौजूद हैं।
हो सकता है
बुद्ध की
मूर्ति रखी
हो! किसी अदभुत
मूर्ति का आपका
सृजन हो। हो
सकता है
माइकेल एन्जलो
की, जीसस
की प्रतिमा
रखी हो, मगर
रात के अंधेरे
में कैसे
देखोगे?
भीतर
अंधेरा है, इसलिए
भीतर के
सौन्दर्य का
तुम्हें पता
नहीं। भीतर भी
फूल खिलते हैं।
हमने कहा है
कि भीतर
सहस्रदल कमल
खिलता है।
बाहर के फूलों
में क्या रखा
है! क्षणभर को
होते हैं; अभी
हैं; अभी
नहीं, आ भी
नहीं पाते कि
जाने की
तैयारी शुरू हो
जाती है; झूले
में और अर्थी
में बहुत भेद
नहीं होता; सुबह खिला
फूल सांझ मर
जाता है; सुबह
झूले में था
सांझे अर्थी
बंध जाती है, राम नाम
सत्य हो जाता
है; सुबह
किस शान से
उठा था, किस
गरिमा और गौरव
से, किस
दंभ से घोषणा
की थी और सांझ
पंखुड़ियां
बिखर गयी हैं।
कैसी हताशा
है! मिट्टी
में गिर गया
है! सुबह सोचा
भी न होगा कि
यह अंत होगा, कि यूं खाक
में पड़ जाना
होगा! बाहर का
सौन्दर्य
क्षणभंगुर है,
पानी में
बने बबूले
जैसा है। कवि
उसी सौन्दर्य
की चर्चा करता
है। ऋषि उस
सौन्दर्य की
चचा करता है, जो शाश्वत
है। जिसे एक
बार जाना तो
सदा के लिए
जाना। वही
सौन्दर्य
तृप्ति दे
सकता है। कवि
भी गीत गाता
है। लेकिन कवि
के गीत भी
क्षणभंगुर की
ही छाया होते
हैं। ऋषि भी
गीत गाता है।
लेकिन ऋषि के
गीत शाश्वत की
अनुगूंज होते
हैं, अनाहद
का नाद होते
हैं।
सूफी
फकीर—स्त्री
हुई,
राबिया।
उसके घर
मेहमान था, हसन। सुबह
हुई, हसन
बाहर गया, सूरज
उगता था, पक्षी
गीत गाते थे, दूर अमराई
से कोई कोयल
कूकती थी, बड़ी
प्यारी सुबह
थी, अभी ओस
की बूंदें घास
पर जमीं थीं, मोतियों जैसी
चमकती थीं, फूलों की
गंध हवा को भर
रही थी, उसने
आवाज दी
राबिया को कि
राबिया! तू
भीतर झोपड़े
में बैठी क्या
कर रही है? बाहर
आ, परमात्मा
ने एक बहुत
सुंदर सुबह को
जन्म दिया है,
इसे देखने
से चूकना उचित
नहीं। तू
जल्दी बाहर आ!
राबिया
खिलखिलाकर
हंसी और उसने
कहा, हसन, कब तक बाहर
के सौन्दर्य
में उलझे
रहोगे? मैं
तुमसे कहती
हूं भीतर आओ!
क्योंकि
जिसने उस बाहर
की सूबह को
बनाया है, मैं
उसे देख रही
हूं। तुम
सिर्फ चित्र
देख रहे हो, मैं
चित्रकार को
देख रही हूं।
तुम्हीं भीतर
आ जाओ! सुनो
मेरी, मानो
मेरी, तुम्हीं
भीतर आ जाओ!
हसन
ने यह सोचा था
कि बात यूं हो
जाएगी। मगर
ऋषियों के हाथ
में कंकड़ भी
पड़ जाएं तो
हीरे हो जाते
हैं। हसन ने
तो यूं ही कहा
था कि राबिया, बाहर
आ! सोचा भी न था
कि इसमें कुछ
आध्यात्मिक संदेश
राबिया दे
देगी। मगर
राबिया जैसे
अनुभूति से
भूरे
व्यक्तियों
के जीवन में
तुम कुछ भी
कहो, वे उस
में से कुछ—न—कुछ
शाश्वत का
इशारा खोज
लेंगे।
कल
कृष्णतीर्थ
ने मुझसे पूछा
था कि आप जब
उत्तर देते
हैं किसी के
प्रश्न का तो
प्रश्नकर्त्ता
महत्त्वपूर्ण
होता है या
प्रश्न
महत्त्वपूर्ण?
कृष्णतीर्थ, न
तो प्रश्न
महत्त्वपूर्ण
होता है, न
प्रश्नकर्त्ता
महत्वपूर्ण
होता है, महत्त्वपूर्ण
तो हमेशा
उत्तर
देनेवाला होता
है, उत्तर
होता है।
उत्तर से भी
ज्यादा उत्तर
देनेवाला
होता है। अब
हसन ने क्या
पूछा था? हसन
ने यह बात ही न
की थी, हसन
तो कुछ और ही
पूछ रहा था, साधारण—सी
बात कर रहा था।
राबिया ने
क्या मोड़ दे दिया!
हालात बदल
दिये! हसन को
चौंका दिया!
हसन के प्रश्न
में तो कुछ भी
न था, तुमसे
यह बात अगर
किसी ने कही
होती तो तुम
यह उत्तर नहीं
दे सकते थे जो
राबिया ने
दिया। और अगर
राबिया का
उत्तर सुनकर
देते भी तो
झूठा होता। और
जहां झूठ है, वहा बल नहीं
होता। लचर—पचर
तुमने कहा
होता, हकलाते
हुए कहा होता।
तुम्हारी बात
में प्राण न
होते, श्वास
न होती। लेकिन
राबिया ने जिस
ढंग से बात
कही, हसन
को भीतर
खिंचकर आ जाना
पड़ा। पड़ी रह
गयी सुबह बाहर।
पड़े रह गये
फूल और कोयल
की पुकार। और
पड़ा रह गया
सूरज और ओस की
चमकती हुई
बूंदें—सब पड़ा
रह गया।
हसन
भीतर आया और
हसन ने कहा, राबिया
यह तूने क्या
कहा! राबिया
ने कहा, जो
कहना उचित था
वही मैंने कहा।
कब तक उलझे
रहोगे, हसन?
बहुत दिन हो
गये मुझे
देखते, तुम
बाहर ही उलझे
हो। माना कि
बाहर सुंदर है
जगत, मगर
बनानेवाले को
देखो; उस
मूल स्रोत को
देखो जहां से
यह सारा
सौन्दर्य
निकलता है, यह सौन्दर्य
उसके सामने
कुछ भी नहीं
है, बूंद
भी नहीं है! जब
सागर भीतर
मौजूद है, तो
क्यों बूंदों
में अटके हो?
और
हसन के जीवन
में यह घटना क्रांति
की हो गयी। उस
दिन से हसन की आंखें
बंद हो' गयीं।
अब तक हसन एक कवि
था, अब
उसके जीवन में
ऋषि की यात्रा
शुरू हुई।
ऋषि
का अर्थ है : जो
बाहर विजय
करनी है, इस
बात की मूढ़ता
को पहचान लिया
और अंतविजय के
लिए निकल पडा
है। और ऋषि का
अर्थ है :
जिसने भीतर के
सौन्दर्य को देखा
है और उसे
गाया है। वह
भी कवि है, लेकिन
आंखवाला; अंधा
नहीं—भीतर की आंखवाला।
वह भी कवि है, लेकिन उसके
भीतर दीया जल
रहा है। और
इसलिए उसके
प्रत्येक
शब्द में
ज्योति है।
उसके शब्द—शब्द
में आग है।
उसके शब्द—शब्द
आग्नेय हैं।
और जिनके भीतर
थोड़ी भी
क्षमता है
जागने की, वे
उसके शब्दों
को सुनकर जाग
ही जायेंगे।
'येनाक्रमन्ति
ऋषयो
ह्याप्तकामा
यत्र तत्र
सत्यस्य परमं
निधानम्।।’
जहां
सत्य है, वहीं
परम द्वार है।
और एक बार
तुमने अपने
सत्य को जाना
कि परमात्मा
दूर नहीं, निकट
से भी निकट है।
एक बार तुमने
अपने सत्य को
जाना कि उसी
सत्य के
केन्द्र पर
विराजमान तुम
परमात्मा को
पाओगे। सत्य परमात्मा
का द्वार है।
और जिसने
परमात्मा को
जाना, वही
विजयी है।
उसको हमने जिन
कहा है। जैन
दो—कौड़ी के
हैं, लेकिन
जिन..! महावीर
को हमने जिन
कहा। महावीर
जैन नहीं हैं;
खयाल रखना,
कोई भूलकर
यह दावा न करे
कि महावीर जैन
हैं; महावीर
जिन हैं।
जिन
का अर्थ है.
जिसने जीता, जिसने
जाना। और जैन
कौन है? जैन
वह है, जिसने
जीते हुए
लोगों के शब्द
तोतों की तरह
रट लिये हैं, जो उनको
दोहरा रहा है
यंत्रवत्
लेकिन उन शब्दों
पर उसके
हस्ताक्षर
नहीं हैं, उन
शब्दों पर
उसके प्राणों
की कोई छाप
नहीं है। वे
शब्द उधार हैं,
बासे हैं, झूठे हैं। और
गंदे हो गये
हैं, क्योंकि
हजारों ओंठों
से चल चुके
हैं।
सहजानंद, यह
सूत्र तो
प्यारा है।
मगर इतनी सारी
बातों को खयाल
में रखना, तो
ही तुम इस
सूत्र में
छिपे अमृत का
स्वाद ले पाओगे।
सोचने—विचारने
में मत पड़
जाना। जागो!
भीतर का दीया
जलाओ! ध्यान
की थोडी—सी
ज्योति
पर्याप्त है।
आज
इतना ही
'दीपक
बारा नाम का' प्रवचनमाला
से
दिनांक
3 अक्टूबर 1980; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
thank you guruji
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