सूत्र:
9—अपनी
अंतरात्मा का
पूर्णरूप से
सम्मान करो।
क्योंकि
तुम्हारे
हृदय के
द्वारा वह प्रकाश
प्राप्त होता
है,
जो
जीवन को
आलोकित कर
सकता है
और उसे
तुम्हारी
आंखों के
समक्ष स्पष्ट
कर सकता है।
समझने
में कठिन केवल
एक ही वस्तु
है—
स्वयं
तुम्हारा
अपना हृदय।
जब तक
व्यक्तित्व
के बंधन ढीले
नहीं होते,
तब तक
आत्मा का गहन
रहस्य खुलना
आरंभ नहीं होता
है।
जब तक
तुम उससे अलग
एक ओर खड़े
नहीं होते,
तब तक
वह अपने को
तुम पर प्रकट
नहीं करेगा।
तभी
तुम उसे समझ
सकोगे और उसका
पथ—प्रदर्शन
कर सकोगे,
उससे
पहले नहीं।
तभी तुम उसकी
समस्त
शक्तियों का
उपयोग कर
सकोगे
और
उन्हें किसी
योग्य सेवा
में लगा सकोगे, उससे
पहले नहीं।
जब तक
तुम्हें
स्वयं कुछ
निश्चय नहीं
हो जाता,
तुम्हारे
लिए दूसरों की
सहायता करना
असंभव है।
जब
तुमको आरंभ के
पंद्रह
नियमों का
ज्ञान हो चुकेगा
और तुम
अपनी
शक्तियों को
विकसित
और
अपनी
इंद्रियों को
उन्मुक्त
करके ज्ञान—मंदिर
में प्रविष्ट
हो जाओगे,
तब
तुम्हें
ज्ञात होगा कि
तुम्हारे
भीतर एक स्रोत
है,
जहां
से वाणी
मुखरित होगी।
ये
बातें केवल
उनके लिए लिखी
गयी हैं,
जिनको
मैं अपनी
शांति देता
हूं और जो लोग,
जो कुछ
मैंने लिखा है
उसके
बाह्य अर्थ के
अतिरिक्त
उसके भीतरी
अर्थ को भी
साफ समझ सकते
हैं।
हजारों—हजारों
वर्ष की
धारणाओं ने
तुम्हारे मनों
को इस भांति
विकृत कर दिया
है, कि
जो भी तुम
देखते हो, वह
निसर्ग का
सत्य नहीं
होता, तुम्हारी
अपनी धारणाओं
से देखा गया
विकृत रूप
होता है। फिर
उससे तुम जो
भी निर्णय
लेते हो, वे
भ्रांति में
ले जाते हैं।
और
जीवन को बदला
जा सकता है
निसर्ग की
सहायता से, निसर्ग
के विपरीत
नहीं।
क्योंकि तुम
निसर्ग से ही
निर्मित होते
हो, उसके
विपरीत बहने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
तुम
जिस प्रकृति
में खड़े हो, उसको ही
संस्कारित
किया जा सकता
है। उस प्रकृति
के नियमों के
ही माध्यम से
तुम उसके पार
भी जा सकते
हो। सीढ़ी के सहारे
ही आदमी पार
भी चला जाता
है। रास्ते के
सहारे ही आदमी
मंजिल तक पहुंच
जाता है, रास्ते
को छोड़ देता
है। लेकिन
रास्ते के
विपरीत चल कर
कोई मंजिल तक
नहीं
पहुंचता।
लेकिन तर्क
में भ्रांति
हो सकती है।
अगर मैं आपसे
कहूं कि यह
रास्ता मंजिल
तक पहुंचा
देगा, लेकिन
ध्यान रखना, मंजिल पर जब
पहुंचोगे तो
इस रास्ते को
छोड़ देना होगा;
क्योंकि
अगर तुमने
रास्ते को पकड़
लिया तो मंजिल
को नहीं पहुंच
सकोगे। तो
इसका अर्थ यह
भी हो सकता है,
तुम यह भी
सोच सकते हो, कि जिस
रास्ते को अंत
में छोड़ ही
देना है, उसे
पहले ही क्यों
न छोड़ दिया
जाए। लेकिन तब
तुम मंजिल तक
कभी न पहुंच
सकोगे।
रास्ते
को पकड़ना भी
होगा और छोड़ना
भी होगा। प्रारंभ
में पकड़ना
होगा, अंत
में छोड़ना
होगा। लेकिन
इसका उलटा
अर्थ दो तरह
से हो सकता
है। एक तो यह
कि रास्ते को
पकड़े ही क्यों,
जब उसे
छोड़ना है। यह
तर्कयुक्त
लगता है, कि
जो चीज छोड़ ही
देनी है, उसे
पकड़ना ही
क्यों? लेकिन
जिसे तुमने
पकड़ा ही नहीं
है, उसे
तुम छोड़ न
पाओगे। और
बिना छोड़े तुम
मंजिल तक न
पहुंचोगे।
इसका दूसरा
उपद्रव भी
संभव है। और
वह यह कि जिस
रास्ते को
पकड़ा है, उसको
छोड़ेंगे नहीं।
जब पकड़ ही
लिया है तो
फिर छोड़ना
क्या? तब
भी तुम मंजिल
तक न पहुंच
पाओगे।
रास्ता मंजिल
तक ले जाता है,
मंजिल में
नहीं ले जाता।
और जब तुम
रास्ते को छोड़
देते हो, तो
मंजिल में
प्रवेश होता
है।
सीढ़ियां
छत तक ले जाती
हैं, छत
में नहीं ले
जातीं। अगर
तुम सीढियों पर
ही खड़े रहो तो
तुम छत के पास
पहुंच गए, लेकिन
छत पर नहीं
पहुंचे।
लेकिन
सीढ़ियों को अगर
तुम पहले ही
छोड़ दो, तो
तुम छत के पास
भी न पहुंच
सकोगे।
सीढ़ियां छोड़नी
पड़ती हैं, इसका
यह अर्थ नहीं
कि तुम
सीढियों के
दुश्मन हो
जाओ। सीढ़ियां
पकड़नी पडती
हैं, इसका
यह अर्थ नहीं
कि सीढ़ियों के
तुम प्रेमी हो
जाओ। सीढ़ियों
का उपयोग करना
है।
निसर्ग
सीढ़ी है, वहां तुम
खड़े हो। इस
निसर्ग के लिए
यह सूत्र है।
पहला सूत्र था,
जीवन का
सम्मान करो।
वह निसर्ग का
सम्मान है। और
उसे समझो, अगर
पार जाना है।
पार जाना है
जरूर।
क्योंकि निसर्ग
में ही रह कर
तुम परम आनंद
को उपलब्ध न
हो सकोगे।
निसर्ग में
सुख और दुख
दोनों होंगे।
निसर्ग
द्वंद्व है, वह
द्वंद्व पर ही
खड़ा है। वहां
सुख भी मिल
सकता है, दुख
भी मिलेगा। और
जिस अनुपात
में तुम सुख
चाहोगे, उसी
अनुपात में
दुख मिलेगा।
और जिस अनुपात
में तुम सुख
पाने में समर्थ
हो जाओगे, उसी
अनुपात में
तुम दुख पाने
में भी समर्थ
हो जाओगे।
निसर्ग तो
द्वंद्व है।
और द्वंद्व के
पलड़े सदा समान
बने रहते हैं,
समतुल रहते
हैं। नहीं तो
निसर्ग विकृत
हो जाए, अस्तव्यस्त
हो जाए। तो
तुम एक तरफ जो
कमाते हो, उससे
विपरीत भी तुम
कमा रहे हो।
अगर तुम यश
चाहते हो तो
अपयश
तुम्हारे साथ
ही बढ़ रहा है।
वह साथ ही
चलेगा। अगर
तुम
स्वास्थ्य
चाहते हो तो
बीमारी
तुम्हारे साथ
ही खड़ी है।
अगर तुम जीवन
चाहते हो तो
तुम्हें
मृत्यु को भी
स्वीकार करना
होगा। निसर्ग
में रह कर
सुख—दुख दोनों
मिलेंगे। वह
द्वंद्व है।
पार तो जाना
ही है, क्योंकि
द्वंद्व ही तो
उपद्रव है। और
उस घड़ी को तो
उपलब्ध करना
है, जहां
द्वंद्व खो
जाए।
जहां
सुख—दुख दोनों
खो जाते हैं, उस घड़ी को
हमने आनंद कहा
है, उस घड़ी
को हमने शांति
कहा है, उस
घड़ी को हमने
मुक्ति कहा
है। मुक्ति का
अर्थ है, द्वंद्व
के बाहर। जहां
दो नहीं दबाते,
जहां दोनों
तरफ से विपरीत
तुम्हें नहीं
कसते। जहां
विपरीत
तुम्हें
खींचते नहीं।
जहां किनारे
खो जाते हैं
और नदी सागर
में लीन होती
है। किनारों
के सहारे ही
लेकिन नदी
सागर तक आती है।
इसलिए किनारे
मित्र हैं और
सागर तक उनका
उपयोग करना
है। लेकिन
किनारे इतने
मित्र नहीं
हैं कि सागर
में गिरने से
तुम रुक जाओ
और किनारों को
पकड़ कर ठहर
जाओ।
तो
निसर्ग का
सम्मान, जीवन का
सम्मान। और
जीवन के
नियमों का
समझपूर्वक
उपयोग।
एक
मित्र मेरे
पास आए। युवा
हैं, स्वभावत:
स्त्रियों
में रस होगा।
लेकिन हजारों
साल की मन में
धारणा है।
बचपन से
साधु—सत्संग
में पड़ गए
होंगे, तो
खयाल भी आया
कि यह पाप है।
जितना खयाल
आया कि स्त्री
के प्रति रस
लेना पाप है, उतना ज्यादा
रस बढ़ता गया।
स्त्रियों से
भागने भी लगे।
लेकिन जितना
भागने लगे, उतना उद्दाम
वेग होने लगा।
भीतर दबाने
लगे वासना को,
तो वासना और
भी नए—नए
रूपों में खड़ी
होने लगी। दिन
में विचार; रात में
स्वप्न; सब
वासना से भर
गए। फिर किसी
महात्मा के
पास गए, तो
महात्मा ने
कहा कि स्त्री
में मां को
देखो। तो बड़ी
मुश्किल थी, कैसे स्त्री
में मां को
देखो! और वह जो
प्रबल वेग था
वासना का, वह
धक्के मार रहा
है। तो
महात्मा ने
सहायता के लिए
उनको कहा कि फिर
तुम ऐसा करो, अगर स्त्री
में मां को
नहीं देख सकते,
तो तुम देवी
की पूजा करो।
देवी में मां
को देखो। और
धीरे— धीरे जब
तुम्हारा
देवी में भाव
दृढ़ हो जाएगा,
तो तुम देवी
को ही सभी
स्त्रियों
में भी देख सकोगे।
महात्मा
का प्रयोजन
ठीक ही था।
सहायता की ही
इच्छा थी।
लेकिन बिना
समझ के सहायता
भी नहीं की जा
सकती। और जीवन
जटिल है। और
जीवन के
नियमों को
समझे बिना आप
शुभ इच्छा से
भी कुछ सहायता
करें, तो
भी अशुभ ही
फलित होगा।
परिणाम
आप सोच भी
नहीं सकते।
परिणाम यह हुआ
कि उस व्यक्ति
ने देवी की
पूजा शुरू कर
दी और देवी का
चित्र अपने
साथ रखने लगा।
जो परिणाम न
महात्मा ने
सोचा था, न महात्मा
कभी सोच पाते
हैं। परिणाम
यह हुआ कि अब
देवी के प्रति
ही वासना खड़ी
हो गई। और रात
स्वप्न में
देवी से ही
काम—संबंध
स्थापित होने लगा।
तो बेचारा
घबड़ा गया। जो काम
को ही पाप
समझता था, वह
देवी के साथ
कामवासना का
भाव आ जाए, तो
भयंकर पाप से
भर गया कि अब
तो मैं मरा, अब तो मेरे
बचाव का कोई
उपाय ही न
रहा। उस व्यक्ति
ने मुझे आ कर
कहा कि मैं
ऐसा पाप कर
रहा हूं कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
मैं देवी का
खयाल करता हूं
तो भी कामवासना
ही उठती है!
तो
मैंने उसको
कहा कि जिनसे
तुमने सहायता
ली है, उनके
पास समझ नहीं
है। यही होने
वाला था।
कामवासना को
समझ कर उससे
पार हुआ जा
सकता है। यह
तो नासमझी का
काम है कि
स्त्रियों को
मां समझ लो।
समझ लेने से
क्या होगा? कि देवी के
प्रति आरोपित
कर लो अपने को!
तो तुम्हारे
भीतर जो है, वही तो
आरोपित होगा।
जो तुम्हारे
भीतर नहीं है,
वह आरोपित
कहां से होगा।
देवी थोड़े ही
सवाल है, सवाल
तो तुम हो।
भीतर तो
कामवासना
धक्के मार रही
है। और
कामवासना
इतनी प्रबल है
कि तुम जहां
भी जाओगे, वह
वहीं आरोपित
हो जाएगी। तो
एक पाप से
छूटने को और
बड़ा पाप हो
गया। और अब वह
व्यक्ति इतना
दीन और दुर्बल
हो गया, क्योंकि
उसे लग रहा है
कि देवी नाराज
हो जाएगी।
मैंने कहा, कोई देवी
नाराज नहीं
होगी। देवी
तुम्हारे महात्माओं
से ज्यादा
समझदार है।
तुम फिकर न
करो, कोई
नाराज नहीं हो
जाएगा।
लेकिन
अब इस आदमी की
पीड़ा आप समझ
सकते हैं कि
यह आदमी नरक
में पड़ गया
है। और कोई भी
महात्मा को
जिम्मेदार नहीं
ठहराएगा कि
उसने इसको नरक
में डाला है।
उसने ही डाला
है। और जिस
महात्मा ने
इसको इस नर्क
में डाला है, वह खुद भी
इसी तरह के
नर्क में
होगा। नहीं तो
इस तरह की समझ,
इस तरह की
सहायता, जो
बिलकुल
नासमझी से भरी
है और अज्ञान
से भरी है, कभी
भी पैदा नहीं
हो सकती।
अब मैं
इस व्यक्ति को
क्या कहूं? मैं इसको
नहीं कहूंगा
कि तू ऐसा कर।
मैं इससे कहूंगा
कि बजाय इस
तरह की
विकृतियों
में पड़ने के, तू किसी
स्त्री से
प्रेम कर। और
घबरा मत। और अपने
प्रेम को
स्वाभाविक
कर। यह देवी
वाला प्रेम
घातक है, क्योंकि
अस्वाभाविक
है और
कल्पनाजन्य
है। तू
वास्तविक
स्त्री के
प्रेम में ही
उतर और घबरा
मत। और प्रेम
में ही उतर कर
प्रेम को समझ
कि प्रेम क्या
है? तो
तेरा सारा
प्रेम पहले तो
प्राकृतिक
होना जरूरी है
विकृति से।
क्योंकि
प्रकृति के
सहारे फिर पार
जाया जा सकता
है। फिर तू
प्रेम को
ध्यान बना। और
फिर प्रेम को
तू जितना
शुद्ध कर सके,
उतना शुद्ध
कर। और जितना
प्रेम को
ध्यानपूर्ण
कर सके, उतना
ध्यानपूर्ण
कर। और प्रेम
तेरे जीवन में
पाप की तरह न
रहे, पुण्य
की तरह हो जाए,
उस भाव से
जी।
और
अपराध मत समझ!
क्योंकि जो
वासना है, वह भी
प्रभु—प्रदत्त
है। वह भी
परमात्मा ने
तुझे दी है।
और कोई
महात्मा, जो
परमात्मा ने
दिया है उसे
छीन नहीं
सकता। कोई
उपाय नहीं है।
जो तुझे
प्रकृति से
मिला है, उसका
तू सम्यक
उपयोग कर और
उससे पार उठ।
लेकिन पार
दुश्मन की तरह
तू न उठ
सकेगा। ये
दुश्मनी की तो
इस तरह के
परिणाम
होंगे।
दुश्मनी कहां
तक पहुंच जाती
है, उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
विक्टोरिया
के जमाने में
इंग्लैंड में
घरों में लोग
कुर्सियों की
टांग पर भी
कपड़ा बांधते थे, कि नंगी
टांग से
कामवासना
पैदा होती है!
कुर्सी की
टांग! अगर
किसी घर में
आप जाते और
आपको नंगी
कुर्सी मिल
जाती, तो
आप समझते कि
यह आदमी अशोभन
काम कर रहा है,
कुर्सी की
टांग नंगी है!
विक्टोरिया
बहुत सख्त थी
इस मामले में।
यह अनीति का
काम था। तो
घर—घर में लोग
कुर्सी रखते
थे और उसमें
टांग पर कपड़ा रखते
थे। अब टांग
पर कपड़ा डाला
हो तो ज्यादा
कामवासना का
खयाल आता है
कि यह क्या
बेवकूफी है?
लेकिन
ऐसा कोई
विक्टोरिया
के जमाने में
था ऐसा नहीं, ऐसे लोग
सब तरफ मौजूद
हैं। अभी भी
इंग्लैंड में
स्त्रियों का
एक समाज है—वे
स्त्रियां
जरूर ही प्रेम
से वंचित रही
होंगी और उनके
जीवन में प्रेम
का कोई अनुभव
न होगा—उनका
एक समाज है, वह उसका
प्रचार करता
है कि सड़क पर
जानवर भी कपड़े
में निकाले
जाने चाहिए!
कुत्ते, घोड़े,
बैल, ये
नंगे नहीं
होने चाहिए।
क्योंकि नंगे
होने से
कामवासना
पैदा होती है!
अगर आपको बैल
को देख कर यह
खयाल भी आता
है कि बैल
नंगा है, तो
इसका मतलब है
कि आप रुग्ण
हैं। आपके
भीतर कोई रोग
है, आप
स्वस्थ नहीं
हैं। नहीं तो
यह कोई सवाल
नहीं है। अगर
आप स्वस्थ
होते तो
मनुष्य को भी
नग्न देख कर
आप बूढ़ो कोई
तकलीफ न होगी।
अगर आप
अस्वस्थ हों तो
कुर्सी को भी
नग्न देख कर
तकलीफ हो सकती
है। वह आपके
अस्वस्थ होने
का प्रतीक है।
लेकिन
आप जानवरों को
भी कानून बना
कर कपड़े पहना
सकते हैं, कुर्सियों
को भी पहना
सकते हैं।
लेकिन यह जो मन
काम में लगा
हुआ है, यह
मन निसर्ग के
प्रतिकूल जा
रहा है। और यह
मन और भी जाल
में पड़ जाएगा।
और यह मन
हिम्मत खो रहा
है, और
अपराधी बन
जाएगा।
एक युग
था इस मुल्क
में कि हमने
कोणार्क, खजुराहो, भुवनेश्वर
और पुरी के
मंदिर बनाए।
बड़े हिम्मतवर
लोग रहे
होंगे।
शानदार लोग थे,
प्रकृति को
पूरा स्वीकार
किया था।
मंदिर के बाहर
की दीवाल पर
नग्न चित्र
खोदे थे, मैथुन—चित्र
खोदे थे।
संभोग की
मूर्तियां
बनाई थीं, मंदिर
के द्वार पर, मंदिर की
दीवाल पर।
बहुत
हिम्मतवर लोग
रहे होंगे, बड़े शानदार
लोग रहे
होंगे। जीवन
की ऐसी स्वीकृति
थी कि मंदिर
भी प्रकृति के
ही भीतर था।
मंदिर की बाहर
की दीवाल पर
प्रकृति थी, और मंदिर के
भीतर की दीवाल
पर परमात्मा
था।
और
खयाल यह था इन
खजुराहो और
कोणार्क के
मंदिर बनाने
वालों का, कि जब तक
तुम्हारा
बाहर की
दीवालों में
रस है, तुम
भीतर प्रवेश न
कर पाओगे। तो
अपने रस को बाहर
की दीवाल पर
पूरा कर लो, इन
मैथुन—चित्रों
पर ध्यान कर
लो। और जिस
दिन तुम्हें
बाहर की दीवाल
में कुछ भी रस
न रह जाए, और
तुम बाहर की
दीवाल से ऐसे
गुजर जाओ, जैसे
वहां कोई
चित्र नहीं है,
उसी दिन तुम
समझना कि अब
भीतर प्रवेश
के अधिकारी
बने, तो
तुम भीतर आ
जाना। लेकिन
मंदिर की बाहर
की दीवाल से
बच कर भीतर
तुम न आ
सकोगे। अगर
तुम्हारा रस
मंदिर की बाहर
की दीवाल पर
है, तो तुम
भीतर भी आ
जाओगे, तो
भी तुम्हारे
मन में बाहर
की दीवाल ही
चलती रहेगी।
उसको दबाने की
जरूरत नहीं
है।
मंदिर
के बाहर की
दीवाल पर
मैथुन—चित्र
खोदना, बड़े अदभुत
मनोवैज्ञानिकों
का काम रहा
होगा। उन्होंने
समझा होगा।
लेकिन फिर एक
कमजोरी इस मुल्क
में आई। एक
नपुंसकता का
लंबा युग आया।
मुल्क गुलाम
हुआ। और इसने
सारी हिम्मत
खो दी। तो
आखिर में
परिणाम यह हुआ
कि महात्मा
गांधी और
पुरुषोत्तमदास
टंडन ने एक
सुझाव रखा कि
खजुराहो, और
पुरी, और
कोणार्क के
मंदिरों को
मिट्टी से
ढांक कर दबा
दिया जाए, चूंकि
इनको देखना
खतरनाक है।
एक
बहादुर लोग वे
थे, जिन्होंने
ये मूर्तियां
खोदी, उन्होंने
प्रकृति को
स्वीकार किया
था। ये एक कमजोर
लोग हैं, कमजोरी
का लक्षण यह
है कि इनको
थोप दिया जाए!
खजुराहो की
मूर्तियां
थोपी जा सकती
हैं, मिटाई
जा सकती हैं, लेकिन आदमी
की प्रकृति को
कैसे
मिटाइएगा? आदमी
की प्रकृति
नहीं मिटाई जा
सकती। आदमी की
प्रकृति का
उपयोग किया जा
सकता है, विनाश
नहीं किया जा
सकता। स्मरण
रखें एक नियम,
कि जगत में
कोई भी शक्ति
नष्ट नहीं की
जा सकती— असंभव
है—सिर्फ
रूपांतरण हो
सकता है।
निसर्ग रूपांतरित
हो सकता है और
ब्रह्म में
लीन हो सकता
है, लेकिन
निसर्ग नष्ट
नहीं हो सकता।
तो
जीवन के
सम्मान में यह
महा—सूत्र
खयाल में रखें
कि जीवन ने जो
भी दिया है
बाहर और भीतर, उसका
सम्मान करना।
लेकिन ध्यान
रहे, बाहर
भी आप तभी
सम्मान कर
सकते हैं, जब
भीतर सम्मान
हो। बाहर आप
उसी चीज का
अपमान करते
हैं, जिसका
भीतर अपमान
है। अगर आपके
मन में भीतर
किसी चीज के
प्रति अपमान
है तो बाहर भी
अपमान होगा।
और अगर भीतर सम्मान
है तो बाहर भी
सम्मान होगा।
आप
अपने निसर्ग
की खोज करना।
अपने भीतर की
अंतरात्मा की
खोज करना, स्वभाव
की खोज करना।
ध्यान
रखें दो शब्द, स्वभाव
और स्वरूप।
स्वभाव प्रकृति
है और स्वरूप
ब्रह्म है। जब
तक आप स्वभाव
को न समझेंगे,
तब तक
स्वरूप में न
जा सकेंगे।
जैसे ही आप
भीतर जाएंगे
तो पहले
मिलेगा, स्वभाव,
निसर्ग। और
भी भीतर
जाएंगे तो
मिलेगा, स्वरूप,
निसर्ग के
पार जो ब्रह्म
है वह। लेकिन
अगर आप स्वभाव
से ही डर गए तो
भीतर ही न जाएंगे।
फिर आप
बाहर—बाहर
घूमेंगे। और
अगर आप स्वभाव
से डर गए, तो
स्वभाव के
विपरीत अपने
चारों तरफ आप
एक दीवाल बना
लेंगे। उस
दीवाल का नाम
व्यक्तित्व
है, पर्सनेलिटी
है।
अब हम
इस सूत्र को
समझें।
नौवां
सूत्र, 'अपनी
अंतरात्मा का
पूर्ण रूप से
सम्मान करो।’
सोच कर
ही कठिनाई
होती है, हम कहेंगे
कि अपनी
अंतरात्मा का
तो हम सम्मान करते
ही हैं। नहीं,
अभी यह जो
मित्र मेरे
पास आए, इन्होंने
अपनी
कामवासना का
सम्मान नहीं
किया, अपमान
किया, उसे
दबाया, उसे
नष्ट करने की
कोशिश की। और
अब कामवासना
उनसे बदला ले
रही है। देवी
का सहारा लिया
था उन्होंने
कामवासना से
मुक्त होने के
लिए, अब
कामवासना
देवी पर ही
आरोपित हो रही
है। देवी
कमजोर सिद्ध
हो रही है, कामवासना
ज्यादा बलवती
सिद्ध हो रही
है। यह बदला
है। यह अपने
स्वभाव को
नहीं समझा, तो कठिनाई
खड़ी होगी।
'अपनी
अंतरात्मा का
पूर्ण रूप से
सम्मान करो।’
जो भी
तुम्हारे
भीतर है। और
अभी पहले तो
निसर्ग से ही
मुलाकात
होगी। जब आप
आख बंद करोगे, तो पहले
आपका किससे
मिलना होगा? आपके देह की
प्रकृति
मिलेगी। मन की
प्रकृति मिलेगी।
और जब इन
दोनों के आप
पार चले
जाएंगे, तो
आपको आत्मा की
प्रकृति
मिलेगी। ये
तीन तल हैं।
देह की
प्रकृति है, उसका सम्मान
करो।
पर हम
उसका भी अपमान
करते हैं! हम
उपवास में रस लेते
हैं या भोजन
में रस लेते
हैं। या तो हम
भोजन में इतना
रस लेते हैं
कि भोजन ही
हमारे लिए मृत्यु
का कारण बन
जाता है। वह
भी शरीर का
सम्मान नहीं
है। जब आप
ज्यादा भोजन
करते हैं, तब आप
शरीर का अपमान
कर रहे हैं।
क्योंकि जो शरीर
को जरूरत नहीं
है, वह आप
थोप रहे हैं
उस पर। आप
उसके लिए जहर
पैदा कर रहे
हैं।
चिकित्सक
कहते हैं कि
दुनिया में
भूख से कम लोग
मरते हैं, भोजन से
ज्यादा लोग
मरते हैं।
हालांकि ऐसा
होना नहीं
चाहिए, क्योंकि
दुनिया में
बहुत भूख है।
लेकिन फिर भी
चिकित्सक
कहते हैं कि
दुनिया में
भूख से बहुत
कम लोग मरते
हैं, भोजन
से ज्यादा लोग
मरते हैं!
भूखा आदमी जी
सकता है, लेकिन
ज्यादा भोजन
किया हुआ आदमी
अपने भीतर जहर
इकट्ठा करता
है, टॉक्सिन
इकट्ठे करता
है, और
नष्ट होता है।
तो जो
आदमी ज्यादा
खा रहा है, आप यह मत
समझना कि वह
शरीर का
प्रेमी है, वह शरीर का
दुश्मन है। वह
अपमान कर रहा
है। शरीर की
जो सहज सूचना
है, उसको
स्वीकार नहीं
कर रहा है। जब
शरीर कहता है
मत खाओ, तब
भी वह खाए चला
जाता है। यह
शरीर को नष्ट
करने का एक
उपाय हुआ। इस
तरह का आदमी, आज नहीं कल
उपवास में
उत्सुक हो
जाएगा। क्योंकि
जिसने ज्यादा
खा कर शरीर को
पीडित किया है,
फिर शरीर
दुख देगा, बदला
लेगा। तो
दूसरी अति पर
जाएगा, उपवास
करने लगेगा।
उपवास भी शरीर
का अपमान है।
क्योंकि जब
शरीर भूखा है,
तब आप उसे
भोजन नहीं दे
रहे हैं। एक
अपमान है कि
शरीर जब भूखा
नहीं है, तब
आप उसमें भोजन
ठूंस रहे हैं।
एक अपमान है कि
जब शरीर भूखा
है, तब आप
भोजन नहीं दे
रहे हैं।
सम्मान
क्या है? सम्मान यह
है कि शरीर की
जो निसर्ग
प्रकृति है, शरीर की जो
सहज, स्वाभाविक
मांग है, उसको
उतना ही पूरा
कर देना—
सम्मानपूर्वक,
आदरपूर्वक।
क्योंकि शरीर
तो एक यंत्र
है। और इतना
महान यंत्र है
कि उसके सहारे
ही तो आप संसार
का अनुभव
लेंगे, और
उसके सहारे ही
आप परमात्मा
के द्वार तक
पहुंचेंगे।
उसके सम्मान
की जरूरत है।
लेकिन हमें
कोई चिंता
नहीं है।
हम मन
का भी कोई
सम्मान नहीं
करते। हम मन
के साथ भी
उपद्रव मचाए
रखते हैं। अति
पर हम डोलते
हैं। एक अति
से दूसरी अति
पर चले जाते
हैं। मध्य में
सम्मान है।
इसलिए
बुद्ध ने तो
अपने पूरे
जीवन—दृष्टिकोण
का नाम
मष्यिम—निकाय
दे दिया, मध्य—मार्ग।
उन्होंने कहा,
न तो यह अति
न वह अति, क्योंकि
दोनों में
अपमान होता है
प्रकृति का।
तुम ठीक बीच
में रुक जाना।
अति पर मत
जाना। तो तुम
सम्मानपूर्वक
रहोगे।
शरीर, मन, इनका
अगर अपमान
किया जाए, तो
आपमें झूठा
व्यक्तित्व
पैदा होता है।
अंग्रेजी
में शब्द है, पर्सनेलिटी।
वह बहुत कीमती
शब्द है।
यूनान में जो
नाटक होते थे,
उन नाटकों
में पात्रों
को अपने चेहरे
पर एक मुखौटा
लगाना पड़ता
था। उस मुखौटे
का नाम परसोना
होता था। और उसी
शब्द परसोना
से
पर्सनैलिटी
बना है। पर्सनैलिटी
का अर्थ है, ओढ़ा हुआ
व्यक्तित्व, ओढ़ा हुआ
मुखौटा। जो आप
नहीं हैं, वैसा
चेहरा।
तो जो
व्यक्ति अपने
भीतर की
प्रकृति के
विपरीत होता
है, अनिवार्य
रूप से उसे उस
प्रकृति के
विपरीत एक मुखौटा
निर्मित करना
होता है। एक
व्यक्तित्व
की खोल अपने
चारों तरफ बना
लेता है। यह
खोल अंतरात्मा
से मिलन न
होने देगी।
निसर्ग आपके खिलाफ
नहीं है, लेकिन
आपका
व्यक्तित्व
आपके खिलाफ
है। और हर आदमी
व्यक्तित्व बनाए
हुए है, और
उसको मजबूत
किए चला जाता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
आत्मा को
जानना है, लेकिन
व्यक्तित्व
को छोड़ने की
जरा भी तैयारी
नहीं होती। वे
अपने
व्यक्तित्व
को पकड़ कर ही आत्मा
को पाना चाहते
हैं! यह असंभव
है। इस व्यक्तित्व
को ठीक से समझ
लेना जरूरी है,
तो ही आप
आत्मा की खोज
में आगे बढ़
सकेंगे, अन्यथा
आप हमेशा
भटकते
रहेंगे।
क्योंकि जिसको
आपने पकड़ा है,
वही तो बाधा
है।
ऐसा
समझ लें कि एक
आदमी जेल के
बाहर आना
चाहता है, और जेल की
दीवालों को
जोर से पकडे
हुए है, और
कहता है कि ये
दीवालें मैं
कभी न छोडूंगा,
क्योंकि इन
दीवालों के
साथ मैं इतने
दिन रहा हूं।
अपनी ही
जंजीरों को
तोड्ने के लिए
राजी नहीं है!
कहता है, ये
मेरे आभूषण
हैं, ये
बड़े कीमती
हैं! और कहता
है, इन
आभूषणों के
बिना तो मैं
सो भी न
सकूंगा! इनके
बिना तो मुझे
नींद भी न
आएगी।
इनके
बिना तो मुझे
खाली—खाली, नंगापन
मालूम पड़ेगा!
इनको मैं नहीं
छोड़ सकता। लेकिन
मुझे
स्वतंत्र
होना है, मुझे
मुक्त होना
है!
आपकी
अवस्था ऐसी ही
है। जिसको आप
बचाना चाहते हैं, वही है
दीवाल। और
उसको तोड़े
बिना आप
अंतरात्मा
में प्रवेश न
कर पाएंगे।
समझें।
'अपनी
अंतरात्मा का
पूर्णरूप से
सम्मान करो।
क्योंकि
तुम्हारे
हृदय के द्वारा
वह प्रकाश
प्राप्त होता
है, जो
जीवन को
आलोकित कर
सकता है और
तुम्हारी आंखों
के समक्ष
स्पष्ट कर
सकता है।
समझने में कठिन
केवल एक ही
वस्तु
है—स्वयं
तुम्हारा
अपना हृदय। जब
तक
व्यक्तित्व
के बंधन ढीले
नहीं होते, तब तक आत्मा
का गहन रहस्य
खुलना संभव
नहीं होता है।’
क्या
हैं
व्यक्तित्व
के बंधन? हम सब पैदा
होते हैं।
अनिवार्यरूपेण
समाज, परिवार,
शिक्षा
हमें उपलब्ध
होती है, संस्कार
उपलब्ध होते
हैं, धारणाएं
उपलब्ध होती
हैं। कैसे
जीना, कैसे
उठना, कैसे
बैठना, क्या
ठीक है, क्या
गलत है—सब
हमें रेडीमेड
मिलता है। फिर
हम उसके अनुसार
बड़े होते हैं।
और हमें उसके
अनुसार ही बड़ा
होना पड़ता है।
क्योंकि
जिनके बीच हम
बड़े हो रहे
हैं, वे
शक्तिशाली
हैं। वे जो भी
सिखा रहे हैं,
वह हमें
सीखना ही
पड़ेगा।
क्योंकि अगर
हम न सीखेंगे
तो वे हमें
जिंदा ही न रहने
देंगे। उनकी
धारणाएं हमें
माननी ही
पड़ेगी, क्योंकि
उनका दबाव
चारों तरफ है,
वे
शक्तिशाली
हैं। समाज
उनका है, अधिकार
उनका है, ताकत
उनकी है, राज्य
उनका है। वे
सब तरफ से एक
छोटे बच्चे को
जो भी मनवाना
चाहते हैं, मनवा देंगे।
फिर यह बच्चा
बड़ा होगा एक
व्यक्तित्व को
ले कर, जो
दूसरों ने इसे
दिया है। इस
व्यक्तित्व
के सहारे आज
नहीं कल, इसको
भयंकर पीड़ा और
संताप पैदा
होगा। क्योंकि
यह झूठा है।
झूठ से पीड़ा
पैदा होती है।
आनंद
तो केवल सत्य
से पैदा हो
सकता है, जो तुम्हारा
स्वभाव है
उससे ही। तो
फिर यह खोज
में लगेगा
अध्यात्म की,
परमात्मा
की, ज्ञान
की, योग की,
ध्यान की।
लेकिन इसे यह
खयाल ही नहीं
है कि यह जो
व्यक्तित्व
है, इसे
तोड़ना पड़ेगा।
यह जैसे एक
खोल की तरह
तुम्हारे
झरने के चारों
तरफ हो गया
है। जैसे एक
पत्थर की तरह
तुम्हारे
झरने को रोके
हुए है। पर यह
चाहेगा कि इस
व्यक्तित्व
को ले कर ही
परमात्मा तक
पहुंच जाए और
शांति तक पहुंच
जाए, तो
अड़चन है।
और
व्यक्तित्व
को तोड़ना बड़ी
कठिन बात है, क्योंकि
हमारा बड़ा मोह
निर्मित हो
जाता है। हम
तो सोचते ही
यही हैं कि
यही
व्यक्तित्व
हमारा स्वभाव
है, यही हम
हैं।
व्यक्तित्व
के साथ इस
तादात्म्य का
नाम ही अहंकार
है।
अहंकार
की बहुत चर्चा
होती है। लोग
कहते हैं, अहंकार
छोड़ो। लेकिन
अहंकार आप
समझते ही नहीं
कि क्या है।
इस
व्यक्तित्व
के साथ जो
तादात्म्य है—
कि यही
व्यक्तित्व
मैं हूं— यही
अहंकार है।
कोई हिंदू
व्यक्तित्व
को लिए है, कोई
मुसलमान
व्यक्तित्व
को लिए है, कोई
जैन
व्यक्तित्व
को लिए है, कोई
ईसाई
व्यक्तित्व
को लिए है। वह
अड़चन डाल रहा
है। और उससे
हम जुड़े हुए
हैं कि यह मैं
हूं। इसको
तोड़ना जरूरी
है। इसमें
थोड़े से छेद
भी हो जाएं, तो आपको
थोड़ी सी
निसर्ग की
ताजी हवा
मिले। जरूरी
नहीं है कि आप
इसको तोड़ कर
समाज के विपरीत
हो जाएं।
क्योंकि इसको
तोड़ कर अगर आप
बिलकुल फेंक
दें, तो आप
समाज के
विपरीत हो
जाएंगे।
जरूरी नहीं है
कि आप समाज के
दुश्मन हो
जाएं। इतना ही
जरूरी है कि
आप इस खोल को
उतार कर पहनने
में समर्थ हो
जाएं।
आप
मेरी बात को
समझ लें। ऐसा
नहीं है कि आप
वस्त्रों को
फेंक दें सारे
व्यक्तित्व
के। तो आप
दिक्कत में पड
जाएंगे।
क्योंकि
जिनके बीच आप
रह रहे हैं, उन्होंने
व्यक्तित्व
नहीं फेंका
है। आप अड़चन
में पड़
जाएंगे। वे
आपको मुसीबत
में डाल देंगे।
क्योंकि आप
उनकी
व्यवस्था को
तोड़े डाल रहे हैं।
और उनकी
व्यवस्था में
उनका न्यस्त
स्वार्थ है, सुविधा है।
व्यक्तित्व
को छोड़ने का
एक ही अर्थ है
कि आपको यह
स्मरण आ जाए
कि
व्यक्तित्व
आप नहीं हैं, और चाहें
तो उतार कर एक
तरफ रख सकते
हैं। बस इतना
काफी है। फिर
समाज में काम
के लिए आप
व्यक्तित्व
को ओढ़े रहें।
लेकिन फिर
आपकी गुलामी
नहीं रही, फिर
खेल हो गया।
फिर समाज के
लिए आप
व्यक्तित्व को
ओढ़ लेते हैं, और अपने लिए
उतार कर रख
देते हैं।
ध्यान के वक्त
आप व्यक्ति
नहीं रह जाते,
सिर्फ
आत्मा हो जाते
हैं।
तो
आपके जीवन में
बाहर के जगत
के लिए एक
नाटक, एक
अभिनय शुरू हो
जाएगा।
बुद्धिमान
आदमी अनिवार्य
रूप से समाज
में अभिनय के
अतिरिक्त और
किसी ढंग से नहीं
जीता है। समाज
के साथ उसका
संबंध नाटकीय
है।
लेकिन
यह नाटकीयता
अपने साथ अगर
हो जाए, तो कठिनाई
खड़ी होती है।
आप दूसरे के
लिए चेहरा ओढ़
लें। दूसरे को
अच्छा लगता है
वैसा ही चेहरा,
तो क्या
अड़चन है? लेकिन
जब आप अपने एकांत
में हैं, तो
वहां तो कम से
कम चेहरा उतार
दें। क्योंकि अब
आप किसके लिए
चेहरा ओढ़े हुए
हैं? आप
किसको धोखा दे
रहे हैं अब? लेकिन यह
बोधपूर्वक हो
तो
व्यक्तित्व
बंधन नहीं
होता! तब
व्यक्तित्व
एक कुशलता हो
जाती है। तब
व्यक्तित्व
अच्छी बात है।
क्योंकि उससे संबंधों
में, सामाजिक
संबंधों में,
लुब्रीकेन्ट
का काम हो
जाता है, उससे
थोड़ा सा
संघर्षण कम
होता है।
व्यर्थ का संघर्षण
बच जाता है।
लेकिन
खुद के लिए, खुद के
एकांत में अगर
आप उसको ओढ़े
बैठे रहें, तो आप अपनी
हत्या कर रहे
हैं। समाज के
साथ व्यक्तित्व,
अपने साथ
कोई व्यक्तित्व
नहीं। और यह
व्यक्तित्व
के बंधन जब तक
ढीले नहीं
होते, तब
तक आत्मा का
रहस्य खुलना
प्रारंभ नहीं
होता है।
क्योंकि इसके
भीतर, इस
व्यक्तित्व
की गांठ के
भीतर ही आत्मा
का रहस्य छिपा
है।
थोड़ा
समझें, क्या है
व्यक्तित्व
और कैसे ढीला
हो सकता है?
आपको
भूल ही जाता
है। एक मित्र
हैं मेरे, हंसते
रहते हैं। और
मैं जानता हूं
कि दुखी आदमी
हैं। और बुरा
भी नहीं है, क्योंकि
किसी दूसरे को
क्या दुख
जाहिर करना! लेकिन
एक रात मेरे
पास रुके। आधी
रात मैं उठ कर बाथरूम
की तरफ गया, प्रकाश
जलाया तो देखा
कि नींद में
भी उनका मुंह
हंसी की तरह
फैला हुआ है।
तो मैं थोड़ा
चिंतित हुआ।
वह आदमी दुखी
हैं, दिन
भर
मुस्कुराते
रहते हैं, यह
मुस्कुराहट
थोपी हुई है।
क्योंकि वे
अपना हृदय भी
मुझे खोलते
हैं और कहते
हैं, मैं
दुखी हूं और
मुस्कुराहट
तो सिर्फ मेरी
एक सामाजिक
आदत है। रात
सोते में भी
उनका मुंह मुस्कुरा
रहा है!
तो
मैंने सुबह
उनसे पूछा, तो
उन्होंने कहा,
अभी इतनी
आदत हो गई है
कि कभी—कभी
मैं अकेले में
भी चाहता हूं
कि अब न
मुस्कुराऊं, तो भी जबड़े
को ढीला करना
मुश्किल होता
है, जकड़
गया है। आप
जरा अपने
चेहरे पर खयाल
करना। जब आप
किसी से मिल
कर आते हैं, तत्काल आईने
के सामने जा
कर खड़े हो
जाना और चेहरे
को ढीला छोडना,
तब आप फौरन
दो चेहरे
देखेंगे। एक
चेहरा जो अभी
आप ले कर आए थे,
और जब वह
शिथिल होगा, तो एक दूसरा
चेहरा होगा।
यहां
मैं देखता हूं
आपके चेहरे।
जब आप ध्यान शुरू
करते हैं, तब आपके
पास एक चेहरा
होता है। जब
आप दूसरे चरण
में बिलकुल
विक्षिप्त हो
जाते हैं, तब
आपके हजारों
चेहरे एक साथ
बदलते हैं—एक
चेहरा, दूसरा
चेहरा, तीसरा
चेहरा; एक
कतार लग जाती
है चेहरों की
आपके ऊपर!
आपके सब चेहरे,
जिनका आप
उपयोग करते
हैं अलग—अलग
रूपों में, सब झलक देते
हैं। फिर चौथे
चरण में जब आप
शांत खड़े होते
हैं, तो
आपके सब चेहरे
खो जाते हैं, और एक तरह की
फेसलेसनेस, एक तरह की
चेहरा—शून्यता
पैदा होती है।
आपका चेहरा
जैसे नहीं रह
जाता, उसकी
सब रेखाएं
तनाव की, खो
गई होती हैं।
आपका चेहरा
शायद वैसा
होता है, जैसा
बचपन में रहा
होगा, जब
समाज ने आपको
बिगाड़ना शुरू
नहीं किया था।
या मां के
गर्भ में रहा
होगा, जब
कि किसी ने आप बूढ़ो
कोई शिक्षा न
दी थी। अगर
इसमें आप थोड़े
और गहरे
प्रवेश करते
जाएं, तो
आपको वह चेहरा
उपलब्ध हो
जाएगा, जो
आपका चेहरा है,
दूसरों का
दिया हुआ नहीं
है।
जापान
में झेन फकीर
कहते हैं कि
अपने ओरिजिनल
चेहरे को, अपने मूल
चेहरे को खोजो,
जो जन्म के
पहले
तुम्हारे पास
था, या
मृत्यु के बाद
तुम्हारे पास
होगा। बीच के
सब चेहरे उधार
हैं।
पर ये
चेहरे सीखने
पड़ते हैं।
आपके घर में
छोटा बच्चा है, घर में
कोई मेहमान
आते हैं, आप
उससे कहते हैं,
चलो पैर
पड़ो। और वह
बिलकुल नहीं
पड़ना चाह रहा
है। लेकिन
आपकी आज्ञा
उसे माननी
पड़ेगी।
मैं
किसी के घर
में जाता हूं
मां—बाप पैर
पड़ते हैं, और अपने
छोटे—छोटे
बच्चों को
गर्दन पकड़ कर
झुका देते
हैं! वे बच्चे
अकड़ रहे हैं, वे इंकार कर
रहे हैं। उनका
कोई संबंध
नहीं है, उनका
कोई लेना—देना
नहीं है, और
बाप उनको दबा
रहा है!
यह
बच्चा थोड़ी
देर में सीख
जाएगा कि इसी
में कुशलता है
कि पैर छू लो।
इसका पैर छूना
व्यक्तित्व
का हिस्सा हो
जाएगा। फिर यह
कहीं भी झुक कर
पैर छू लेगा, लेकिन
इसमें कभी
आत्मीयता न
होगी। इसकी एक
महत्वपूर्ण
घटना जीवन से
खो गई। अब यह
किसी के भी
पैर छू लेगा
और वह कृत्रिम
होगा, औपचारिक
होगा। और वह
जीवन का परम
अनुभव, जो
किसी के पैर
छूने से
उपलब्ध होता
है, इसको
नहीं उपलब्ध
होगा। अब इसका
पैर छूना एक व्यवस्था
का अंग है। यह
समझ गया कि
इसमें ज्यादा
सुविधा है। यह
अकड़ कर खड़े
रहना ठीक नहीं
है। बाप
झुकाता ही है,
और बाप को
नाराज करना
उचित भी नहीं
है, क्योंकि
वह पच्चीस तरह
से सताता है, और सता सकता
है। तो इसमें
ही ज्यादा सार
है, बुद्धिमान
बच्चा झुक
जाएगा। समझ
लेगा।
मगर यह
झुकना
यांत्रिक हो
जाएगा। और
खतरा यह है कि
किसी दिन ऐसा
व्यक्ति भी
इसको मिल जाए, जिसके
चरणों में सच
में यह झुकना
चाहता था; तो
भी यह झुकेगा,
वह कृत्रिम
होगा।
क्योंकि वह सच
इतने पीछे दब गया,
और
व्यक्तित्व
इतना भारी हो
गया है।
बच्चों
से मां—बाप कह
रहे हैं कि यह
तुम्हारी मां
है, इसको
प्रेम करो। यह
भी कोई कहने
की बात है! कि यह
तुम्हारे पिता
हैं, इनको
प्रेम करो!
इसका मतलब
क्या हुआ? इसका
मतलब हुआ कि
मां का और
बेटे का संबंध
प्रेमपूर्ण
नहीं है, इसलिए
प्रेम करवाना
पड़ रहा है।
मां कहती है, मैं
तुम्हारी मां
हूं मुझे
प्रेम करो। यह
भी कोई कहने
की बात है! मां
होनी चाहिए, प्रेम फलित
होना चाहिए।
लेकिन वह नहीं
फलित हो रहा
है। और भूल
अगर कहीं होगी,
तो मां की
ही हो सकती है,
बच्चे की
क्या भूल हो
सकती है? बच्चा
तो अभी कुछ भी
नहीं जानता
है।
लेकिन
जिस मां को
बेटे से यह
कहना पड़ता है, मैं
तुम्हारी मां
हूं मुझे
प्रेम करो, वह जननी
होगी, मां
नहीं है। उसने
पैदा किया
होगा। लेकिन
मातृत्व कुछ
और बात है, सभी
स्त्रियों को
उपलब्ध नहीं
होता। जननी तो
कोई भी स्त्री
बन सकती है, लेकिन मां
बनना बड़ा कठिन
है। क्योंकि
मां तो एक बड़ी
लंबी प्रेम की
प्रक्रिया
है।
तो वह
बेटे को कह
रही है कि
मुझे प्रेम
करो, मैं
तुम्हारी मां
हूं। बेटा धीरे—
धीरे प्रेम
दिखाने
लगेगा।
क्योंकि क्या
करेगा? इस
मां से दूध
लेना है, इस
मां से पैसे
लेना है, इस
मां के ऊपर सब
कुछ निर्भर
है। बेटा
बिलकुल असहाय
है। यह मां ही
उसकी जीवन
सुविधा है, सहारा है, सुरक्षा है।
तो सौदा हो
जाएगा, बेटा
प्रेम प्रकट
करने लगेगा।
मां को देख कर
हंसने लगेगा,
चाहे हंसी
उसे न आ रही
हो। मां को
देख कर कहने लगेगा
कि मेरी जैसी
सुंदर मां और
कहीं भी नहीं है।
और मां इससे
प्रफुल्लित
होगी। और बेटा
धोखा सीख रहा
है, और
बेटा झूठ सीख
रहा है, और
प्रेम जैसी
परम घटना
असत्य हुई जा
रही है। फिर
यह बेटा बड़ा तो
मां के पास
होगा, और
झूठा प्रेम
गहरा हो जाएगा,
वह उसका
व्यक्तित्व
बन जाएगा।
फिर जब
यह किसी
स्त्री के
प्रेम में भी
पड़ेगा, तो वह प्रेम आंतरिक
नहीं हो
पाएगा। यह झूठ
ही बोलता
रहेगा। यह उस स्त्री
से भी कहेगा
कि तुझसे
ज्यादा सुंदर
स्त्री कोई भी
नहीं है। यह
स्त्री से भी
प्रेम करने की
कोशिश करेगा।
यह प्रेम प्रकट
करेगा। यह दिन
में दस दफे
कहेगा कि मैं तुझे
प्रेम करता
हूं। मगर यह
सब झूठ हुआ जा
रहा है।
इसे आप
कभी सोचना। जब
आप अपनी पत्नी
को कहते हैं
कि मैं तुझे
प्रेम करता
हूं तो भीतर
कुछ भी होता
है प्रेम जैसा
जब आप कहते
हैं? अक्सर
तो डर के कारण
कहते हैं।
अक्सर तो
इसलिए कहते
हैं कि कहते
रहना बार—बार
ठीक रहता है, याददाश्त
बनी रहती है।
पत्नी को भी
भरोसा रहता है,
आपको भी
भरोसा रहता
है। पत्नी भी
इसी तरह दोहरा
रही है, वह
भी झूठ है।
आपके
व्यक्तित्व
बातें कर रहे
हैं, आपकी
अंतर—आत्माएं
नहीं मिल रही
हैं। तब इस
झूठ से कोई आनंद
पैदा नहीं
होता है। और
तब इस झूठ से
कोई भी संतोष
नहीं मिलता।
झूठ से मिल भी
नहीं सकता।
झूठे
बीज से कहीं
अंकुर पैदा
हुए हैं? झूठे कंठ से
कहीं गीत पैदा
हुए हैं? झूठी
आख से कहीं
कोई दृश्य
दिखाई पड़े हैं?
झूठ का अर्थ
ही है कि जो
नहीं है। उससे
कुछ भी पैदा
नहीं होगा।
झूठ का अर्थ
ही है कि जो
दिखाई पड़ता है
और है नहीं!
उससे कुछ भी
पैदा नहीं
होगा। जीवन तब
एक रिक्तता बन
जाएगी। इस
व्यक्तित्व
को पहचानें!
आपके भीतर
जो—जो झूठ है, उसे
पहचानें।
मैं
आपसे यह नहीं
कहता कि झूठ
इसलिए मत
बोलें कि
दूसरे को
नुकसान
पहुंचता है, वह तो
पहुंचता ही
है। झूठ से
लेकिन पहले
आपको नुकसान
पहुंच रहा है।
आप झूठे हुए
जा रहे हैं, मिथ्या हुए
जा रहे हैं।
हुए जा रहे
हैं कहना ठीक
नहीं है, आप
बिलकुल हो
चुके हैं। आप
निष्णात हो गए
हैं! आप इतने
कुशल हो गए
हैं कि आपको
याद ही नहीं
आता कि आप
क्या कर रहे
हैं!
मैं
झूठ बोलने
वाले लोगों को
जानता हूं।
मैं उनको दोषी
नहीं ठहराता, क्योंकि
वे झूठ जान कर
नहीं बोल रहे
हैं अब। अब
उनसे झूठ बोला
जा रहा है। और
कभी—कभी वे
ऐसे झूठ बोलते
हैं कि जिससे
न तो कोई लाभ
है, न कोई
उनका हित है।
और जान कर भी
नहीं बोल रहे
हैं। झूठ ऐसा
पक्का हो गया
है कि उनसे
बोला जाता है।
जैसे ही वे बोलते
हैं, कुछ
भी वे सोचते
हैं, उनके
झूठ के ढांचे
में पड़ कर वह
झूठ हो जाता
है। वे सच भी
बोलें तो थोड़ा
झूठ बिना
मिलाए नहीं
बोल सकते!
अपने इस ढांचे
को पहचानें।
इसके प्रति
सजग हों। और
इसको उतार कर
रखने की कोशिश
करें।
एक
मित्र मेरे
पास आए। कैसे
झूठ मजबूत हो
जाता है, वह मैं आपसे
कहूं। वे मेरे
पास आए, वे
कहने लगे कि
आप कहते हैं
कि दूसरे चरण
में बिलकुल
पागल हो जाओ, तो मैं
नाचता—कूदता
हूं
रोता—चिल्लाता
हूं लेकिन आज
मुझे खयाल आया
कि यह तो मैं
झूठ ही कर रहा
हूं। न मुझे
रोना आ रहा है,
न मुझे
नाचना आ रहा
है, यह तो
मैं झूठ कर
रहा हूं। यह
तीन दिन करने
के बाद उनको
खयाल आया!
इसको मैं कहता
हूं झूठ कैसा मजबूत
ढांचा बन जाता
है। तीन दिन
से वे नाच—कूद
रहे हैं। तीन
दिन बाद उनको
खयाल आया कि
यह तो मैं झूठ
कर रहा हूं।
लेकिन फिर भी
जल्दी आ गया।
उनका ढांचा
बहुत मजबूत
नहीं है। यह
तो पहले ही
क्षण याद आ
जाना चाहिए कि
आप क्या कर
रहे हैं?
और झूठ
आप कितना ही
करें, कितना
ही नाचे—कूदे;
थोड़ी कवायद
हो जाएगी।
अच्छा भी
लगेगा, जैसे
व्यायाम से
अच्छा लगता है।
लेकिन ध्यान
नहीं होगा।
ध्यान तो आपके
भीतर से सत्य
टूटना शुरू हो,
तो होगा।
लेकिन
कठिनाई है।
बचपन से
समझाया जा रहा
है, रोना
मत। खास कर
पुरुषों को तो
इस बुरी तरह
समझाया गया है
कि रोना मत।
तो वे रोने की
कला ही भूल गए
हैं। उनको इस
बुरी तरह
समझाया गया है
कि क्या
लड़कियों जैसा
काम कर रहे हो?
जैसे रोने
का ठेका
लड़कियों ने ले
रखा है! जैसे पुरुष
रोने का
अधिकारी नहीं
है। तो
परमात्मा ने आंसू
क्यों बनाए
हैं? और
पुरुष की
आंखों के पीछे
आंसू की
ग्रंथियां
क्यों बनाई
हैं? तो
रोने की
क्षमता पुरुष
को दी गई है, तो वह
किसलिए दी गई
है? मगर
नहीं, हर
लड़के को
समझाया जा रहा
है कि यह क्या
लड़कियों जैसा
काम कर रहे हो!
जैसे यह कुछ
बुरा काम है।
और बड़ा
मजा यह है कि
स्त्रियां भी
कहती हैं, मां भी
कहती है कि
क्या लड़कियों
जैसा काम कर रहा
है? जैसे
यह कोई बुरा
काम हो, और
सिर्फ
स्त्रियां ही
कर सकती हैं।
बुरे काम क्या
स्त्रियों ने
करने का कोई
ठेका लिया हुआ
है?
लेकिन
पुरुष को कठोर
बनाना है, यह समाज
का इंतजाम है।
उसको कठोर
बनाना है, ताकि
वह दुष्ट बन
सके, हिंसा
कर सके, मार
सके, पीट
सके। अगर वह
रोका और तरल
होगा, कोमल
होगा, तो
यह सब काम
नहीं कर
सकेगा। युद्ध
पर भेजोगे
उसको बंदूक ले
कर, वह
रोने लगेगा कि
अरे, इसको
मारना है आदमी
को! मर जाएगा, ठीक नहीं
है। तो आदमी
को कठोर बनाना
है, पथरीला
बनाना है।
उसके भीतर से
आत्मा मारनी है
बुरी तरह।
इसलिए उसको
समझाया जा रहा
है, उसके
अहंकार को
फुसलाया जा
रहा है कि तू
पुरुष है, तू
रोना मत; यह
स्त्रियों का
काम है।
स्त्रियां
भी अगर कठोर
हो जाएं, तो पुरुष
बड़ी प्रशंसा
करते हैं! वे
कहते हैं कि
खूब लड़ी
मर्दानी, वह
तो झांसी वाली
रानी थी!
मर्दाना होना
जैसे कोई बड़े
गौरव की बात
है। एक स्त्री
खराब हो गई, अं वह उसकी
प्रशंसा कर
रहे हैं! और
अगर कोई पुरुष
जरा कोमल हो, नाजुक हो, तो वे कहते
हैं, स्त्रैण,
गैर—मर्दाना!
पुरुष
को हमने
सिखाया है, हिंसा के
लिए तैयार
किया है। तो
आप रो नहीं सकते!
आपके आंसू सूख
गए हैं।
वर्षों से आप
रोए नहीं हैं,
आपकी
ग्रंथियां जड़
हो गई हैं। तो
आप चीख—पुकार
भी मचाते हैं, तो
भी आंसू नहीं
आते! लेकिन
मैं चाहता हूं
कि आपकी ग्रंथियां
पुन: सक्रिय
हो जाएं, आंसू
पुन: आ जाएं।
उन आसुरों के
आते ही आपका
तीस साल का जो
समाज का
व्यक्तित्व
था, वह एक
तरफ हट जाएगा।
और आप तीस साल,
चालीस साल
पहले, जब
छोटे बच्चे थे
और रो सकते थे,
और जब किसी
ने आपको यह
नहीं कहा था
कि क्या
लड़कियों जैसा
काम कर रहे हो,
उस क्षण में
वापस लौट
जाएंगे। आपके आंसू
अगर बह सकें, सच्चे आंसू
ग्रंथियों से
खुल जाएं, तो
आप पाएंगे कि
आपका
व्यक्तित्व
सरक गया, नीचे
गिर गया; आप
हल्के हो गए, एक छेद हो
गया।
इसलिए
इतना मेरा
आग्रह है कि
रोओ, चिल्लाओ,
हंसो; क्योंकि
तुमसे सब कुछ
छीन लिया गया
है। तुम खिलखिला
कर हंस भी
नहीं सकते।
क्योंकि लोग
कहते हैं, खिलखिला
कर हंसना
असभ्यता है।
आदमी को इस
बुरी तरह मारा
है! खिलखिला
कर हंस नहीं
सकते, असभ्यता
है! अगर चार
आदमी जोर से
खिलखिला कर हंस
रहे हैं, तो
लोग उनकी तरफ
ऐसे देखेंगे,
जैसे कि
असंस्कृत हैं!
पढ़े—लिखे नहीं
हैं, गंवार
हैं! मुस्कुरा
सकते हैं
सिर्फ आप, आवाज
नहीं होनी
चाहिए!
यह तो
ऐसा है, जैसे कि
झरनों से हम
कहें कि बस
बिलकुल धीरे—
धीरे सरक सकते
हो, शोरगुल
नहीं। हवाएं
इस तरह बहो कि
पत्तों में आवाज
न हो। जब आप
दिल खोल कर
हंस लेते हैं,
तो आपको पता
नहीं कि कितना
कचरा उस
कोलाहल में बह
जाता है।
लेकिन आप हंस
नहीं सकते, वह कचरा
अटका रह जाता
है। आपको कुछ
भी हृदयपूर्वक
नहीं करने
दिया जा रहा
है अपने आप
से। खतरा है, क्योंकि
हृदयपूर्वक
अगर आप कुछ भी
करेंगे, तो
समाज आपको
गुलाम नहीं
बना सकेगा; यह कारण है।
अगर
आपकी सारी
वृत्तियों को
दबा दिया जाए, तो आप
गुलाम बनाए जा
सकते हैं। अगर
आपकी सारी वृत्तियों
को उम्मुक्त
छोड़ दिया जाए,
तो आप इतने
ताजे और इतने
जीवंत होंगे,
कि कोई ताकत
आपको गुलाम
नहीं बना
सकती। और समाज
चाहता है कि
आप गुलाम हों,
मालिक न
हों। सेवक
हों! समाज जिस
तरफ इशारा करे,
वैसा आप
करें! समाज जो
कहे, उस
तरह उठे और
बैठें! आप
मुक्त न हों।
क्योंकि
मुक्त व्यक्ति
रिबेलियस, विद्रोही
हो जाता है।
तो समाज सब
तरह की मुक्ति
छीन लेता है, और आपके ऊपर
एक खोल चढ़ा
देता है। उस खोल
के भीतर से आप
हंसे भी, तो
वह खोल जगह
नहीं देती, रोएं तो वह
खोल आंसू नहीं
बहने देती।
एक
स्त्री को
मेरे पास लाया
गया। उसका पति
मर गया, और तीन
महीने से उसे
हिस्टीरिया
हो गया था, बेहोश
हो जाती थी।
तो मैंने पूछा
कि यह स्त्री
पति के मरने
पर रोई या
नहीं? तो
जो लाए थे, उन्होंने
बड़ी प्रशंसा
से कहा, कि
बड़ी हिम्मतवर
स्त्री है, युनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
है, बड़ी
बुद्धिमान है,
इसने एक आंसू
नहीं गिराया।
मैंने कहा कि
हिस्टीरिया
उसका परिणाम
है। और तुम
नासमझों ने
इसकी प्रशंसा
की होगी, कि
तू गजब की है, क्या हृदय
पाया है मजबूत!
हृदय
और कहीं मजबूत
होता है? हृदय की तो
खूबी ही, उसकी
मजबूती तो
उसकी कोमलता
ही है। वह तो
फूल जैसी कोमल
चीज है। मजबूत
हृदय का क्या
मतलब? कोई
पत्थर का फूल
बनाया हुआ है?
उन
सबने उसकी खूब
प्रशंसा की, उन सबने
हिस्टीरिया
पैदा करवा
दिया। और कोई
नहीं सोचता कि
इसका कर्मफल
किसको भोगना
पड़ेगा? और
वह स्त्री
बेहोश हो—हो
जाती है। वह
रो नहीं पाई।
मैंने उस
स्त्री को कहा
कि तू इन
नासमझों की
बातो में पड़ी
है, तू रो
ले। क्योंकि
प्रोफेसर
होने से कोई ऐसा
थोड़े है कि तू
स्त्री नहीं
रह गई। लेकिन
प्रोफेसर
भारी है, युनिवर्सिटी
में किसी डिपार्टमेंट
की हेड है वह, कैसे रो
सकती है? समझदार
है। समझदारी
से रोने से
क्या वैपरीत्य
है? समझदार
हृदयपूर्वक
रोएगा, बस
इतना फर्क
होगा।
वह
कहने लगी, आप क्या
कहते हैं, मुझे
रोना चाहिए था?
तुझे
रोना ही चाहिए
था। क्योंकि
जिसको तूने प्रेम
किया है, और जिससे
तूने सुख पाया
है, तो दुख
क्या मैं
पाऊंगा? दुख
तुझे पाना
होगा। सुख
पाते वक्त तू
मेरे पास कभी
नहीं आई। अब
दुख कौन लेगा?
संसार
द्वंद्व है, वहां सुख
तूने पाया, तो दुख तुझे
पाना होगा। तब
तराजू तुल
जाएंगे, संतुलन
पैदा हो
जाएगा। तू खूब
छाती पीट, रो,
लोट।
उसने
कहा कि आप
क्या बातें कर
रहे हैं!
मैंने कहा, तो फिर
हिस्टीरिया
होगा।
यह
हिस्टीरिया, जो दबा है,
वेगपूर्वक
दबा है, उसका
उफान है, उसका
धक्का है। जो
नहीं बह पा
रहा है दुख, वह इतना
धक्का मार रहा
है कि तेरे
स्नायु—जाल में
पूरी की पूरी
जकड़न पैदा हो
जाती है। यह
हालत ऐसी ही
है, जैसे
कोई कार चला
रहा हो; एक्सीलेटर
भी दबा रहा हो,
और ब्रेक भी
दबा रहा हो, तो कार की जो
हालत हो जाए, वह
हिस्टीरिया
उसका नाम
होगा।
इस औरत
का पूरा हृदय
रोना चाहता
है। क्योंकि मैंने
उससे पूछा कि
तूने अपने पति
से आनंद पाया? उसने कहा,
मैंने बहुत
आनंद पाया।
मैं बहुत सुखी
थी। तो फिर
मैंने कहा कि
उतना ही दुखी
होना जरूरी
है। तो तेरा
पूरा हृदय
बहना चाह रहा
है। और तेरा
प्रोफेसर, तेरा
ज्ञान और यह
नासमझों की
कतार, जो
चारों तरफ
मौजूद है, इनकी
प्रशंसा, कि
तू गजब की है, ऐसा होना
चाहिए— तू
ब्रेक लगा रही
है। और
एक्सीलेटर भी
दबा रही है और
ब्रेक भी लगा
रही है! जब भी
किसी
व्यक्तित्व
में
एक्सीलेटर और
ब्रेक एक साथ
दबता है, तो
हिस्टीरिया
पैदा हो जाता
है। या तो
ब्रेक ही लगा,
एक्सीलेटर
मत दबा। लेकिन
वह तभी संभव
है, जब
तूने पति से
कोई सुख न
पाया हो।
लेकिन सुख तूने
पाया है, तो
उसका दूसरा
पहलू झेलना ही
पड़ेगा।
वह
स्त्री मेरे
सामने
बैठी—बैठी
रोने लगी। और मैंने
उससे कहा कि
तू आधा घंटा
यहीं बैठ, और
हृदयपूर्वक
रो ले। और आधा
घंटे बाद उसने
कहा कि मैं
जानती हूं कि
हिस्टीरिया
अब नहीं आएगा।
और मैंने कहा
कि तू किसी की
मत सुनना।
चार—छह महीने
लगेंगे, दुख
को भोगना ठीक
से। दुख का
भोगना भी
कीमती है, जरूरी
है। वह भी
जीवन—शिक्षा
का अंग है।
हिस्टीरिया
वापस नहीं
लौटा। कोई आठ
महीने हो गए, फिट नहीं
आया है। लेकिन
वह जो
समझदारों की
कतार है, उन
जैसे नासमझ
खोजने कठिन
हैं।
व्यक्तित्व
को अपने
पहचानना और
अपने
व्यक्तित्व
को तोड़ना।
मेरे
ध्यान की
प्रक्रिया
आपके
व्यक्तित्व को
तोड्ने के लिए
व्यवस्था है।
वह ध्यान नहीं
है, वह
आपके
व्यक्तित्व
का हटाना है!
और वह हट जाए, तो ध्यान तो
बड़ी सहज बात
है। आपका
पत्थर हट जाए,
तो झरने के
बहने के लिए
कुछ करना थोड़े
ही पड़ता है।
झरना अपने से
बहता है, सिर्फ
पत्थर नहीं
चाहिए। ध्यान
तो स्वभाव है।
अगर
व्यक्तित्व
के पत्थर न
हों, तो वह
आ जाएगा।
लेकिन कुछ तो
सहज बनने दो। आंसू
मुस्कुराहट, नाचना, कुछ
तो सहज होने
दो। तो फिर वह
जो परम सहज है,
वह भी हो
सकता है।
'जब
तक तुम अपने
व्यक्तित्व से
अलग एक ओर खड़े
नहीं होते, तब तक वह
अपने को तुम
पर प्रकट नहीं
करेगा।’
वह जो
तुम्हारा
स्वरूप है, तुम पर
प्रकट नहीं
होगा।
'तभी
तुम उसे समझ
सकोगे और उसका
पथ—प्रदर्शन
कर सकोगे, उससे
पहले नहीं।
तभी तुम उसकी
समस्त
शक्तियों का
उपयोग कर
सकोगे और
उन्हें किसी
योग्य सेवा
में लगा सकोगे,
उससे पहले
नहीं।’
यह भी
थोड़ा समझ लेने
जैसा है। कि
लोग खुद को बिना
समझे—बूझे
दूसरे की सेवा
में लगा देते
हैं! ऐसे बहुत
सेवक हैं, हमारे
मुल्क में तो
जरूरत से
ज्यादा हैं।
जिनबूढ़ो कोई
बोध नहीं है
स्वयं का, और
जिनके जीवन
में
अंतरात्मा की
एक किरण नहीं
उतरी है, वे
भी दूसरों की
सेवा में अपने
को लगा देते
हैं। तब उनकी
सेवा से
दुष्परिणाम
होता है। और
सेवक जितना
नुकसान कर
सकते हैं, कोई
भी नहीं कर
सकता।
क्योंकि वे
आपके हित में
ही करते हैं, उनसे बचना
मुश्किल है।
आप एक हत्यारे
से बच सकते
हैं, सेवक
से कैसे बचिका?
क्योंकि
हत्यारा
गर्दन पकड़ता
है, आप
फौरन सचेत हो
जाते हैं।
सेवक पैर से
शुरू करता है,
आप और पैर
फैला देते हैं,
कि ठीक है, सेवा करो।
लेकिन फिर पैर
से वह ऊपर की
तरह बढ़ेगा।
प्रगति तो
करनी ही होगी।
वह भी गर्दन
तक आएगा। जरा
वह फासला, वक्त
लेगा। और पैर
से दबाना शुरू
करता है, तो
जब गर्दन पकड़
लेता है, तब
आप यह नहीं कह
सकते कि गर्दन
मत दबा देना।
क्योंकि आप
सोचते हैं, सेवा कर रहा
है। सब सेवक
आखिर में
गर्दन पकड़ लेते
हैं।
गांधीजी
के साथ जमात
थी सेवकों की।
वे सब गर्दन
पकड़े हुए हैं
मुल्क की। वे
जो—जो सेवक थे, वे सब अब
पदों पर और
कुर्सियों पर
हैं, पूरे
मुल्क की
गर्दन पकड़े
हुए हैं।
निकले थे सेवा
करने, अब
वे सेवा ले
रहे हैं, और
भरपूर ले रहे
हैं। और जो
नहीं ले पा
रहे हैं, वे
बड़े दुखी हैं।
वे कहते हैं, जीवन अकारथ
हो गया, इतनी
सेवा की और
कुछ न पाया।
वे कहते हैं, कम से कम
ताम्र—पत्र ही
दे दो लिख कर
कि तुमने सेवा
की! कुछ पेंशन
बांध दो— सेवा
की! कभी—कभी
स्वागत—समारंभ
करवा दो— सेवा
की! और
उन्होंने सेवा
क्या की है? अगर सेवकों
को समझने जाएं
आप, तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
मेरे
पास सेवक आ
जाते हैं। कोई
कहता है, मैं तीस साल
से आदिवासी
बच्चों की
सेवा कर रहा
हूं कुछ
शिक्षा दे रहा
हूं। अभी एक
महिला मेरे
पास आई, कहती
है, मैंने
तीस साल, अपना
पूरा जीवन लगा
दिया। तब
मैंने उससे
पूछा कि तूने
सेवा की, वह
ठीक, तूने
अपना जीवन
लगाया, वह
ठीक, बाकी
जिन बच्चों के
लिए तूने तीस
साल जीवन लगाया,
उनको कुछ
लाभ हुआ कि
नुकसान हुआ? असली सवाल
तो वह है, कि
उन बच्चों के
जीवन में
शांति बढ़ी कि
घटी? सुख
बढ़ा कि घटा? वे कम
आनंदित हुए कि
ज्यादा
आनंदित हुए? तो वह थोड़ी
बेचैन हो गई।
क्योंकि
मैंने कहा कि
आदिवासी
बच्चों को
पढ़ा—लिखा कर, ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही करोगे कि
हमारे बच्चे
जैसे हैं, उस
तरह के हो
जाएंगे, और
क्या होगा? हमारे बच्चे
कौन से स्वर्ग
में हैं? इधर
हम
युनिवर्सिटीज
में परेशान
हैं अपने बच्चों
से, क्योंकि
उनको पढ़ा—लिखा
लिया है, अब
वे
युनिवर्सिटीज
जला रहे हैं, प्रिंसिपल
को पीट रहे
हैं, वाइस—चांसलर
का घिराव करके
पत्थर मार रहे
हैं, छुरे
दिखा रहे हैं!
यह हमने
शिक्षा दे कर
उनको किया।
तुम आदिवासी
बच्चों पर बड़ी
मेहनत कर रही
हो, तुम कह
रही हो कि
तुमने जीवन
लगा दिया। अगर
तुम सफल हो
गईं अपने काम
में, तो ये
ही बच्चे यही
काम करेंगे, और क्या
करेंगे? कौन
सा लाभ हुआ जा
रहा है?
लेकिन
उसे लाभ से
कोई मतलब नहीं
है, वह
व्यस्त है! और
व्यस्त रहना
एक तरकीब है
अपने से बचने
की। वह अच्छे
काम में लगी
है, तो
भीतर देखने का
मौका नहीं
आता। वह बहुत
अशांत है, परेशान
है, दमित
है; सारे
वेग रोग बन गए
हैं भीतर, लेकिन
वह दूसरों की
सेवा में अपने
को उलझाए हुए
है! इस सेवा की
व्यस्तता में
उसे खयाल भी
नहीं आता कि
मेरी कोई
परेशानी है।
अक्सर
लोग दूसरे की
परेशानियों
में उलझ जाते हैं, अपनी
परेशानी
मूलने को। और
उनको अगर आप
कहें कि एक
पांच दिन की
छुट्टी ले लो
सेवा से तो......।
क्योंकि पांच
दिन में भी
उनको अपनी
परेशानियां
दिखाई पड़नी
शुरू हो जाएंगी।
आदमी
बहुत चालाक
है। उसके कई
पलायन के
रास्ते हैं।
वह दूसरों में
उत्सुकता
लेने लगता है, ताकि
अपने से बच
सके, अपना
खयाल ही न आए!
भागदौड़ में
लगा रहता है, स्कूल खोलना
है, आश्रम
बनाना है, दिल्ली
जाना है! वह
महिला इसी काम
में लगी है!
चंदा इकट्ठा
करना है, एक
बस लानी है!
लगी हुई है, फुरसत कहां
है!
मैंने
उससे पूछा कि
तू शांत है? और उसने
कहा कि नहीं, शांत तो
नहीं हूं और
आप कोई रास्ता
बताएं। मैंने
उसको कहा कि
तू आबू शिविर
में आ जा।
उसने कहा, वह
तो बहुत
मुश्किल है, उस वक्त
मुझे दिल्ली
जाना है। काहे
के लिए दिल्ली
जाना है? एक
अस्पताल
खुलवाना है
आदिवासियों
के गांव में!
मैंने उससे
पूछा, पहले
तू इसकी तो
फिक्र कर ले
कि जहां
अस्पताल हैं,
वहां
ज्यादा लोग
स्वस्थ हैं? कि आदिवासी,
जहां
अस्पताल नहीं
हैं, वहां
ज्यादा लोग
स्वस्थ हैं? पहले इसकी
फिक्र कर ले।
क्योंकि
अस्पताल इलाज
भी लाता है, बीमारियां
भी लाता है!
आदिवासी
ज्यादा स्वस्थ
हैं। मगर उसको
तो अस्पताल
खोलना है! वह
बोली कि यह
बात तो ठीक है,
मगर फिर भी
अस्पताल के
बिना ठीक नहीं
है, अस्पताल
तो जरूरी है, प्रगति होनी
चाहिए। वह यह
भी मानती है
कि आदिवासी
ज्यादा
स्वस्थ हैं, लेकिन
अस्पताल होना
चाहिए! फिर
किसलिए अस्पताल
होना चाहिए? तो ठीक सेवा
यह होगी कि
जहां अस्पताल
हैं, वहां
मिटाओ और
लोगों को
आदिवासी बना
दो, अगर
स्वास्थ्य का
ही रस है। अगर
और कोई रस है, तो बात
दूसरी है।
लेकिन
स्वास्थ्य तो
आदिवासियों
के पास ज्यादा
अच्छा है। मगर
वह बोली कि
नहीं, आप
जो कहते हैं, वह ठीक है, अभी तो
दिल्ली जाना
ही पड़ेगा, फिर
मैं किसी
दूसरे शिविर
में आ जाऊंगी!
मगर
ध्यान, शांति में
कोई रस नहीं
है। अशांति को
निकालने की
तरकीब उसने
आदिवासियों
की सेवा बना
ली है। तो कोई
आदमी दुकान पर
अपनी अशांति
निकाल रहा है।
पैसा कमाने
में लगा है, उसे कोई
मतलब नहीं है
दूसरी बातो
से। कोई आदमी
राजनीति के
चक्कर में लगा
है, इलेक्शन
जीतना है, मिनिस्टरी
में जाना है, उसे कोई
मतलब नहीं है
आत्मा से! कोई
आदमी सेवा में
लगा है, उसे
कोई मतलब नहीं
है आत्मा से!
लेकिन
ध्यान रहे, जो आदमी
भी स्वयं को
जाने बिना
दूसरे की सेवा
में लगेगा, वह नुकसान
करेगा दूसरे
का। क्योंकि
जिसको अभी खुद
का हित पता
नहीं है, उसे
दूसरे का हित
पता नहीं हो
सकता।
आत्म—प्रवेश
हुए बिना सेवक
होने का मतलब
है कि आप कोई न
कोई मिसचीफ, कोई न कोई
शरारत पैदा
करोगे। यह
दुनिया
शरारतियो से कम
परेशान है, शुभेच्छुओं
से ज्यादा
परेशान है। वे
ऐसा—ऐसा इंतजाम
कर देते हैं
शुभेच्छा से,
कि उनके साथ
आपको जाना
पड़ता है। वे
नरक भी ले जाएं,
तो भी जाना
पड़ता है।
क्योंकि इतनी
शुभेच्छा से
ले जा रहे हैं,
इतने भले मन
से ले जा रहे
हैं, इतना
कष्ट उठा रहे
हैं आपके लिए,
कि आप मना
भी नहीं कर
सकते कि क्यों
नरक की तरफ घसीट
रहे हो! इंकार
भी करना अशोभन
लगता है, क्योंकि
बेचारा कितना
श्रम उठ रहा
है!
पुराना
अरबी सूत्र है
कि नरक का
रास्ता शुभेच्छाओं
से भरा पड़ा
है।
शुभेच्छाओं
से भरा पड़ा है!
सेवा का हक
केवल उसे
उपलब्ध होता
है, जो
ध्यान की
गहराई में
पहुंच गया है।
उसके पहले
सेवा का कोई
हक नहीं है।
क्योंकि जब तक
तुम्हें आनंद
नहीं मिला है,
तुम आनंद दे
नहीं सकते।
तुम दुख ही दे
सकते हो, नाम
तुम कुछ भी
रखो। आनंद है
तुम्हारे
भीतर, तो
वह आनंद
दूसरों में भी
प्रवाहित हो
सकता है।
'तभी
तुम उसकी
समस्त
शक्तियों का
उपयोग कर सकोगे
और उन्हें
किसी योग्य
सेवा में लगा
सकोगे, उससे
पहले नहीं। जब
तक तुम्हें
स्वयं कुछ निश्चय
नहीं हो जाता,
तुम्हारे
लिए दूसरों की
सहायता करना
असंभव है।’
कैसे
करोगे सहायता? जिस बात
का तुम्हें
पता ही नहीं
है, उसकी
भी तुम सहायता
करते हो! तुम
यह सोचते ही नहीं
कि तुम्हें
पता है? तुम्हारे
पास कोई सलाह
लेने आता है, कभी तुमने
ऐसा कहा कि
नहीं, मैं
सलाह नहीं दे
सकूंगा, क्योंकि
मुझे कुछ भी
पता नहीं है।
न, सलाह
देने में तुम
इतने उदार हो
कि कोई आ भर
जाए; आने
की बात ही
दूसरी, तुम्हें
पता भर चल जाए
कि फलाने को
सलाह की जरूरत
है, तुम
उसके घर चले
जाते हो। वह
तुमसे बचना भी
चाहे तो बच
नहीं सकता, तुम सलाह
देते ही हो।
यहां
मैं देखता हूं
शिविर में भी
लोग एक—दूसरे
के कमरे में
जा रहे हैं, सलाह—मश्विरा
भी दे रहे हैं,
ज्ञान दे
रहे हैं; एक—दूसरे
को जगा रहे
हैं, एक—दूसरे
को शांति
पहुंचा रहे
हैं! चैन से
नहीं बैठे हैं,
और न दूसरे
को चैन से
बैठने देते
हैं! तुम्हारी
सलाह किस को
चाहिए? तुम्हारे
पास सलाह है?
लेकिन
बड़ा मजा आता
है। गुरु बनने
में बड़ा मजा है!
कोई शिष्य बनने
को उत्सुक
नहीं है! गुरु
बनने में बड़ा
रस है, क्योंकि
अहंकार की बड़ी
तृप्ति है। और
इन सलाहकारों
की हालत अगर
देखने जाओ, तो अभी वे
तुम्हें सलाह
दे रहे हैं, और कल जब उन
पर वही घटना
घट जाए, तो
तुम उन्हें
सलाह दोगे! और
वे इसी दयनीय
हालत में
होंगे, जिसमें
तुम हो। अगर
तुम क्रोध में
हो तो वे
तुमको
बताएंगे कि
क्रोध से कैसे
मुक्त होना
है! और तुम
उनको जरा गाली
दे कर देखो।
और वे भूल
जाएंगे कि
क्या सलाह दे
रहे थे! और
तुम्हें उनको
सलाह देनी पड़ेगी।
क्यों? क्यों
इतनी
उत्सुकता है
दूसरे को सलाह
देने की? बिना
ज्ञान के
ज्ञानी होने
का रस लेना
चाहते हैं।
बुद्धिमान
आदमी से अगर
आप सलाह लेने
जाएंगे, तो
सौ में
निन्यानबे
मौके पर तो वह
कह देगा कि इसका
मुझे कुछ पता
नहीं है। एक
मौके पर जिसका
उसे पता है, वह आपसे
निवेदन कर
देगा। लेकिन
वह यह भी
निवेदन कर
देगा कि जरूरी
नहीं है कि यह
आपके काम आए, क्योंकि
मेरे काम आई
है। क्योंकि
आदमी अलग—अलग
हैं, परिस्थिति
भिन्न—भिन्न
है। इसलिए
इतना ही मैं
कह सकता हूं
कि यह सलाह
मेरे काम आई
थी, इससे
मुझे लाभ हुआ
था। इससे आपको
हानि भी हो सकती
है, इसलिए
आप सोच—समझ
लेना। यह कोई
अनिवार्य
नियम नहीं है।
लेकिन
जो सलाह आपके
ही कभी काम
नहीं आई, वह भी आप
दूसरे को दे
देते हैं!
मैं पढ़
रहा था एक
मनोवैज्ञानिक
की पत्नी का
संस्मरण।
उसने मुझे
संस्मरण लिख
कर भेजा। उसने
मुझे लिखा कि
मेरे पति
मैरिज
काउंसलर हैं।
वह लोगों के
शादी—विवाह
में जो
झगड़ा—झांसा हो
जाता है, उसको
सुलझाते हैं।
लेकिन हम
दोनों के बीच
जो झगड़ा—झांसा
चल रहा है, उसका
कोई हल नहीं
है! वह सैकड़ों
शादियों में जो
झगड़े हो जाते
हैं, उनको
सुलझा देते
हैं।
पति—पत्नी
लड़ते आते हैं,
वे उन दोनों
को समझते हैं,
समझाते हैं,
रास्ता बना
देते हैं। न
मालूम कितने
तलाक उन्होंने
बचा दिए।
लेकिन हमारा
तलाक हो कर
रहेगा, यह
निश्चित है!
तो उसने मुझे
पूछा कि तकलीफ
क्या है? आखिर
मेरे पति इतने
बुद्धिमान
हैं, यह
मैं भी मानती
हूं क्योंकि
मैंने अपने
सामने देखा कि
उन्होंने कई
लोगों को ठीक
रास्ते पर ला
दिया, लेकिन
उनकी खुद की
सलाह, खुद
के काम क्यों
नहीं आती?
कभी—कभी
यह हो सकता है
कि आपकी सलाह
दूसरे के काम
आ जाए। लेकिन
यह दूसरे के
काम आ ही
इसलिए रही है
कि आप दूसरे
से दूर खड़े
हैं, तो
आप निष्पक्ष
देख सकते हैं।
जब आपका ही
मामला होता है,
तो आप दूर
खड़े नहीं हो
पाते, निष्पक्ष
नहीं देख सकते,
पक्ष हो
जाता है।
तो
मैंने उसकी
पत्नी को पत्र
लिखवा दिया, तू फिकर
मत कर, किसी
और मैरिज
काउंसलर के
पास तुम दोनों
चले जाओ, वह
कुछ रास्ता
बना देगा। इस
अंधों की
दुनिया में, अंधे भी
एक—दूसरे को
रास्ता बताते
रहते हैं! चलता
है। तो वह
रास्ता
बनेगा। अगर तू
अपने ही पति
से सलाह लेना
चाहती है, तो
मुश्किल है।
क्योंकि पति
से तू सलाह ले
नहीं सकती।
पति तुझे सलाह
निष्पक्ष दे
नहीं सकता।
क्योंकि वह
खुद भी हिस्सा
है एक, पार्टी
है झगड़े में।
तुम दोनों
किसी और के
पास चले जाओ।
यह जो
बुद्धिमानी
है, जो
इस तरह
एक—दूसरे के
काम आती रहती
है, यह
बुद्धिमानी
बहुत गहरी
नहीं है। यह
बुद्धिमानी
किसी गहरे अनुभव
से नहीं निकली
है। यह
बुद्धिमानी
किताबी है, यह ऊपरी है।
इससे बचना
जरूरी है।
जब तक
हमें आत्मा की
कुछ झलक न
मिलने लगे, तब तक कम
से कम आत्मा
के संबंध में
सलाह—मश्विरे
से बचना जरूरी
है। क्योंकि
उससे तुम
उपद्रव ही
पैदा करोगे।
और दूसरे की
जिंदगी में
अगर तुमसे कोई
आनंद न आए, तो
कम से कम इतनी
तो कृपा करनी
ही चाहिए कि
कोई उपद्रव
पैदा न हो।
'जब
तुमको आरंभ के
पंद्रह
नियमों का
ज्ञान हो चुकेगा
और तुम अपनी
शक्तियों को
विकसित और अपनी
इंद्रियों को
उन्मुक्त
करके
ज्ञान—मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाओगे, तब
तुम्हें
ज्ञात होगा कि
तुम्हारे
भीतर एक स्रोत
है, जहां
से वाणी
मुखरित होगी।’
'ये
बातें केवल
उनके लिए लिखी
गई हैं, जिनको
मैं अपनी
शांति देता
हूं और जो लोग,
जो कुछ
मैंने लिखा है,
उसके बाह्य
अर्थ के
अतिरिक्त
उसके भीतरी
अर्थ को भी
साफ समझ सकते
हैं।’
आज इतना
ही।
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