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गुरुवार, 20 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--07)

अंतर्यात्रा पर निकलो—(प्रवचन—सातवां)

प्‍यारे ओशो,
अथर्ववेद में एक ऋचा है:
पृष्‍ठात्‍पृथिव्‍या अहमन्‍तरिक्षमारूहम्
अन्‍तरिक्षाद्दिविमारूहम् दिवोनाकस्‍य
पृष्‍ठात्उस्‍वर्ज्‍योतिरगामहम्।

अर्थात हम पार्थिव लोक से उठकर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करो,
अंतरिक्ष लोक से ज्‍योतिष्‍मान् देवलोक के शिखर पर पहुंचें और
ज्‍योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्‍योतिपुंज में विलीन हो जाएं।
प्‍यारे ओशो ! कृपया बताएं कि ये लोक क्‍या है और कहां है?

चैतन्य कीर्ति! लोक शब्द से भ्रांति हो सकती है—हुई है। सदियों तक शब्दों की भ्रांतियों के दुष्परिणाम होते हैं। लोक शब्द से ऐसा लगता है कि कहीं बाहर, कहीं दूर—यात्रा करनी है
किसी गंतव्य की ओर। लोक से भौगोलिक बोध होता है—जबकि ऋषि का मंतव्य बिल्कुल भिन्न है। यह तुम्हारे भीतर की बात है—तुम्हारे अंतरलोक की।
जो जानता है, वह बात ही भीतर की करता है। बाहर की बात तो सिर्फ इसलिए की जा सकती है ताकि भीतर की बात का स्मरण दिलाया जा सके। तुम तो बाहर की भाषा समझते हो, इसलिए मजबूरी है ऋषियों की। उन्हें बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। तुम जो समझ सकते हो वही तुमसे कहा जा सकता है। लेकिन फिर खतरा है। खतरा यह है कि तुम वही समझोगे जो तुम समझ सकते हो। ऋषि जब जीवित होता है, तब तो वह तुम्हारी भ्रांतियों को रोकने के उपाय कर लेता है, तुम्हें सम्हाल लेता है, शब्दों के जाल में नहीं पड़ने देता। लेकिन जब ऋषि मौजूद नहीं रह जाता और ऋषि की जगह पंडित—पुरोहित ले लेते हैं—जिनका कि सारा आयाम ही शब्दों का है—तब ठीक वह होना शुरू हो जाता है जो ऋषि के विपरीत है।
लेकिन फिर भी ईसाई जब हाथ जोड़ते हैं आकाश की तरफ तो वह ईश्वर तुम्हारे भीतर है। जीसस ने बहुत बार दोहराया कि वह ईश्वर का राज्य तुम्हारे भीतर है— थक गये बुद्धपुरुष कह—कहकर, लेकिन जब भी तुम पूजा करते हो तो किसी मूर्ति की। और अगर मूर्ति की भी न की, अगर मस्जिद में भी गये, तो पुकार भी लगाते हो तो बाहर के किसी परमात्मा के लिए। सारी अंगुलियां भीतर की तरफ इशारा कर रही हैं और तुम जब भी देखते हो तो बाहर की तरफ देखते हो।
मत पूछो कि ये लोक कहां हैं।कहां' से उपद्रव शुरू हो जाता है? तुमने पूछा कि कोई बतानेवाला मिल जाएगा कि कहां हैं। नक्‍शे टंगे हैं मंदिरों में, इन लोकों के। ये लोक तुम्हारी चेतना के भिन्न आयामों के नाम हैं। और इतना साफ है, फिर भी आदमी इतना अंधा है। सारी बातें इतनी रोशन हैं, फिर भी अंधे को तो कैसे दिखाई पडे! रोशनी ही दिखाई नहीं पड़ती, रोशनी में लिखे गये ये सूत्र हैं। इसलिए हमने इनकोऋचा कहा है, साधारण कविता नहीं।
कविता और ऋचा में भेद है। कविता अज्ञानी की ही व्यवस्था है, जोड़—तोड़ है, शब्दों का जमाव है। राग में बांध ले, छंद में बांध ले, तुक बिठा दें—वह सब ठीक, लेकिन अंधेरा और अंधा टटोले, बस ऐसी ही कविता है। ऋषि हम उसे कहते हैं जिसने देखा और जो देखा, उसे ग्गुनगुनाया, उसे गाया।
ऋषियों से जो वचन झरते हैं, बुद्धपुरुषों से जो वचन झरते हैं, उनके लिए हमने अलग ही नाम दिया—ऋचा। ऋषि से आए तो ऋचा। और ऋषि वह जो देखने में समर्थ हो गया, जिसके भीतर की आंख खुल गयी। भीतर की आंख खुलेगी तो भीतर की ही बात होगी। तुम्हारी तो बाहर की आंखें हैं, भीतर की आंख बंद है। ऋषि भीतर की कहते हैं, तुम बाहर की समझते हो।
इसलिए हर शास्त्र गलत समझा गया है और हर शास्त्र की गलत टीकाएं और व्याख्याएं की गयी हैं। कोई ऋषि ही किसी दूसरे ऋषि के मंतव्य को प्रगट कर सकत है। यह काम पाडित्य का नहीं, शास्त्रीयता का नहीं।
पार्थिव लोक से अर्थ है—तुम्हारी देह, तुम्हारा शरीर। अंतरिक्ष लोक से अर्थ है—तुम्हारा मन! ज्योतिष्मान देवलोक के शिखर से अर्थ है—आत्मा। और प्रकाशमान ज्योतिपुंज में अंततः सब विलीन हो जाता है, वह है अस्तित्व का नाम—चौथी अवस्था, तुरीय, समाधि, निर्वाण। तीन को पार करना है, चौथे को पाना है। न केवल शरीर के पार जाना है, न केवल मन के पार जाना है—आत्मा के भी पार जाना है, क्योंकि आत्मा भी सूक्ष्म रूप में अहंकार ही है। मैं— भाव अभी भी मौजूद है। आत्मा का अर्थ ही होता है : मैं। इसलिए बुद्ध ने 'अनत्ता' शब्द का उपयोग किया।अत्ता' यानी आत्मा, मैं। अनत्ता यानी 'न—मैं', अनात्मा।
बुद्ध को समझा नहीं जा सका। अथर्ववेद की टीका करनेवाले भी नहीं समझे, कैसा मजा है! ब्राह्मण, पंडित—पुरोहित नहीं समझे। जो दोहराते हैं ऋचाओं को निरंतर और यह अथर्ववेद का सूत्र यही कह रहा है कि 'ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं, जहां सब विलीन हो जाता है।इस 'विलीन' के लिए बुद्ध ने जो शब्द चुना, बड़ा प्यारा है—'निर्वाण'। निर्वाण का अर्थ होता है : दीये का बुझ जाना। जैसे दीया जला हो और तुम फूंक मार दो और दीया बुझ जाए और कोई पूछे कि कहां गयी ज्योति। कहा बताओगे? कहोगे विलीन हो गयी, इतना ही कह सकते हो। अब न बता सकोगे—कहां है, पता, ठिकाना, विलीन हो गयी! अस्तित्व में एक हो गयी।
जैसे दीये का बुझ जाना है, ऐसे ही व्यक्ति को बुझ जाना है—तब समष्टि के साथ एकता सधती है। व्यक्ति का होना एक तरह का त्रैत है। शरीर, मन, आत्मा—यह त्रिकोण है। इस त्रिकोण से तुम निर्मित हो। इस त्रिकोण के ठीक मध्य में वह बिंदु है, जहां त्रिकोण शून्य हो जाता है। ये तीनों कोने मिट जाते हैं; निराकार प्रगट होता है, सब आकार खो जाता है।
बहुत स्पष्ट है ऋचा—'हम पार्थिव लोक से उठकर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें।हम उठें शरीर से। अधिक लोग तो शरीर में ही खोये हैं। जो शरीर में खोया है, वह पशु। जो शरीर में खोया है, वह शूद्र। फिर चाहे वह ब्राह्मण—घर में पैदा हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो शरीर में है, वह शूद्र। और अधिकतम लोग शरीर में हैं। शरीर ही उनका सब कुछ है। खाओ, पीओ, मौज करो—बस इतना ही उनके जीवन का अर्थ है। यही उनके जीवन का गणित है। काम उनके जीवन की सारी अर्थवत्ता है। वासना उनका सारा विस्तार है। भोग—बस इतिश्री आ गयी! भोजन, वस्त्र, काम, धन—दौलत, पद—प्रतिष्ठा—बस, यहीं सब समाप्त हो जाता है।
और रोज देखते हैं, लोगो को गिरते। रोज देखते हैं, लोगों को कब्रों में उतरते। रोज देखते हैं, लोगों को चिताओं पर जलते। फिर भी होश नहीं आता। जैसे तय ही कर रखा है कि होश को आने न देंगे!
और यह जो शरीर का तल है, यहीं हमारे सारे संबंध हैं। पत्नी है, पति है, बेटे हैं, बेटियां हैं, परिवार है, मित्र हैं, प्रियजन हैं—और कौन अपना है? कहां कौन किसका है? मगर जीवनभर यही आकांक्षा रहती है—किसी तरह खोज लें, शायद कहीं कोई मिल जाए। अभी तक नहीं मिला, आज तक नहीं मिला, कल मिल सकता है—आशा बनी रहती है। आशा की टिमटिमाती मोमबत्ती में हम चले जाते हैं।

      अब तक मुझे न कोई मिस सजदा मिला
जो भी मिला असीर—जमानो—मका मिला
जो भी मिला..........
क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
सौ बार बिजलियों को मिस आशियां मिला
सौ बार बिजलियों को......
उकता गया हूं जादा—ए नौ की तलाश में
हर राह में कोई न कोई कारवां मिला
हर राह में.........
किन हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये  
सोजे—आशिकी तू बहुत की गत मिला  
सोजे—आशिकी......
था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त
लेकिन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला
लेकिन वो राजदारे.....
अब तक मुझे न कोई मिरा राजदा मिला
अब तक मुझे न कोई........

 कहां मिलता है कोई संगी—साथी, राजदा? असंभव है मिलना। मगर आशा मिट—मिटकर भी नहीं मिटती। गिर जाती है, फिर उठा लेते हैं। हर बार गिरती है, फिर सम्हाल लेते हैं। नये सहारे, नयी बैसाखिया खोज लेते हैं। कितनी बार तुम्हारा आशियां नहीं जल चुका! कितनी बार बिजलियां नहीं गिरीं तुम्हारे आशियां पर! देह में तुम पहली बार तो नहीं हो, अनंत बार रह चुके हो। यह अनुभव कोई नया नहीं, मगर भूल— भूल जाते हो, विस्मरण करते चले जाते हो।

      क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश

 पता नहीं कैसा है आदमी कि फिर—फिर भरोसा कर लेता है! वही भूलें, वही भरोसे, कुछ नया नहीं। वर्तुल में घूमता रहता है—कोल्हू के बैल की भांति घूमता रहता है।

      क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
साए बार बिजलियों को मिस आशियां मिला

 और फिर भी सौ बार बिजलियां गिर चुकीं, बार—बार मौत आयी, बार—बार आशियां मिटा। फिर—फिर चार तिनके जोड़कर तुम आशियां बना लेते हो—फिर इस आशा में कि अब नहीं बिजलियां गिरेंगी।

      क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
सौ बार बिजलियों को मेरा आशियां मिला

 उकता जाते हो, ऊब जाते हो, घबड़ा जाते हो, बेचैन हो जाते हो—फिर .कोई सांत्वना खोज लेते हो। नहीं मिलती तो गूढ़ लेते हो, ईजाद कर लेते हो।

      उकता गया हूं जादा—ए—नौ की तलाश में
हर राह में कोई न कोई कारवां मिल

 और तुम ने देखा, तुम अकेले ही नहीं चल रहे हो। किसी भी राह पर जाओ, धन के पीछे दौड़ो, पद के पीछे दौड़ो, यश के पीछे दौड्रो—हर जगह तुम करोड़ों की भीड़ को जाते देखोगे।
उकता गया हूं जादा—ए—नौ की तलाश में
हर राह में कोई न कोई कारवां मिला

 कारवां चले जा रहे हैं। तुम अकेले नहीं हो। इससे और भाति होती है। ऐसा लगता है, जहां इतने लोग जा रहे हैं वहां कुछ जरूर होगा, इतने लोग गलती में नहीं हो सकते। तो फिर अपने को सम्हाल लेते हो। जागते—जागते रुक जाते हो, फिर सपने में पड़ जाते हो।

      किन हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये
ऐ सोजे—आशिकी तू बहुत ही गरा मिला

 और क्या—क्या हौसले लेकर आदमी चलता है! क्या—क्या स्‍वप्‍न संजोता है! हर बार दीये बुझ जाते हैं। जरा—सा हवा का झोंका और दीया बुझा। फिर हम जला लेते हैं। दूसरों से मांग लेते हैं तेल—बाती। दूसरों से मांग लेते हैं ज्योति। फिर—फिर दीये जला लेते हैं। दीये बुझते जाते हैं, हम जलाते चले जाते हैं।
किन हौसलों के कितने दीये बुझके रह गये
ऐ सोजे—आशिकी तू बहुत ही गत मिला

 मगर यह हमारी वासना का विस्तार कुछ ऐसा है, टूटता ही नहीं। होश आता ही नहीं। अपने को सम्हाल ही नहीं पाते।

      था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त ले
किन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला

 आशा भर रहती है कि कोई मिल जाएगा अपना, कि कोई मिल जाएगा प्रेमी, कि कोई प्रेयसी, कि कोई मित्र। इसी आशा मे सोचते हैं जिंदगी मे रस आ जाएगा, फूल खिल जाएंगे।

      था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त
लेकिन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला

 सोचो तो, कितने जमाने हो गये खोजते—खोजते—वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला।

      अब तक न मुझे कोई मिस सजदा मिला
जो भी मिला असीरे—जमानो—मका मिला
अब तक मुझे न कोई मिस सजदा मिला

 यहां शरीर के तल पर सिवाय असफलता के और कुछ भी नहीं, सिवाय विषाद के और कुछ भी नहीं। शरीर से ऊपर उठो। तुम शरीर ही नहीं हो, तुम्हारे भीतर और बहुत है।
शरीर तो यूं समझो कि अपने घर के कोई बाहर ही बाहर जी रहा हो, अपने घर के भीतर ही नहीं प्रवेश किया हो। यूं बाहर ही चक्कर काट रहे हो, जरूर। चलो, जरा भीतर चलो—शरीर से थोड़े भीतर, शरीर से थोड़े ऊपर। और भीतर और ऊपर का एक ही अर्थ है। भाषाकोश में कुछ भी हो, जीवन के कोश में एक ही अर्थ है। जितने भीतर गये उतने ऊपर गये। जितने बाहर आये उतने नीचे गये।
भीतर चलो तो मन है। मन अंतर्यात्रा का पहला पड़ाव है। मन अर्थात् मनन की क्षमता, सोचने—विचारने की कला। मनन पैदा हो तो इतना तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि शरीर के जगत मे सिर्फ भ्रांतियां हैं, मोह हैं, आसक्तियां हैं, बंधन हैं, पाश हैं। इसलिए मैंने कहा, जो शरीर में जीता है वह पशु—बंधा हुआ पशु—पाश से बंधा हुआ, जकड़ा हुआ।
भोजन, यौन—ये दो छोर हैं जिनके बीच घड़ी के पैण्डुलम की तरह शरीर में बंधा आदमी घूमता रहता है—एक से दूसरे की तरफ। इसे समझ लेना। जो लोग अपनी कामवासना को दबा लेंगे उनका भोजन में बहुत रस हो जाएगा, क्योंकि पैण्डुलम उनका भोजन में अटक रहेगा। जो लोग अपने भोजन पर दबाव डालेंगे, रुकावट डालेंगे, उनके जीवन में कामवासना ही कामवासना रह जाएगी।
मन अर्थात् मनन। जरा सोचना अपने जीवन के संबंध में कि यह क्या है, मैं क्या कर रहा हूं क्या मेरे हाथ लग रहा है, क्या किसी और के हाथ लग रहा है? इतने लोग दौडते रहे, इतने लोग सदियों—सदियों तक खोजते रहे, किसी को कुछ भी नहीं मिला है, मुझे कैसे मिल जाएगा? एक व्यक्ति नहीं है पूरी मनुष्य—जाति के इतिहास में, जिसने यह कहा हो—बाहर मैंने खोजा और पाया। जिन्होंने पाया वे थोड़े—से लोग यही कहते हैं : भीतर खोजा और पाया। बाहर खोजनेवाला तो एक नहीं कह सका कि मैंने पाया। है ही नहीं पाने को तो कोई कहेगा भी कैसे? किस मुंह से कहेगा? किस बल से कहेगा? किस आधार पर कहेगा?
सोचो, तो थोड़ा—सा शरीर के ऊपर उठना शुरू होता है। लेकिन फिर सोच—विचार में ही उलझे न रह जाना, नहीं तो उठे थोडे ऊपर, गये थोड़े भीतर, लेकिन फिर अटकाव खड़ा हो जाता है। कुछ लोग जो शरीर से थोडे ऊपर उठते हैं, वे मन में उलझे रह जाते हैं। उनका रस बदल जाता है, शरीर के रस से बेहतर हो जाता है। संगीत में उनका रस होगा, काव्य में उनका रस होगा, कला में उनका रस होगा। कोई पशु, कोई पक्षी उत्सुक नहीं है—कला में, दर्शन में, काव्य में, मूर्तियों में, चित्रों में, संगीत में। मनुष्य केवल उस दिशा में यात्रा कर पाता है।
'मनुष्य' शब्द भी मनन से ही बनता है, मन से ही बनता है। जब तुम देह के ऊपर उठते हो तो तुम पशु नहीं रह जाते। मन में आते हो तो मनुष्य हो जाते हो—लेकिन बस मनुष्य। उतना होना काफी नहीं है। वह शुरुआत है सिर्फ यात्रा की, अंत नहीं, बस प्रारम्भ है। फिर जल्दी ही सोच—विचार करनेवाले व्यक्ति को यह भी दिखाई पड़ेगा कि सोच—विचार भी हवा में महल बनाना है, इससे भी कुछ उपलब्धि नहीं है। कितना ही तर्कयुक्त सोचो, कोई निष्कर्ष हाथ नहीं लगता। दर्शनशास्त्र के पास कोई निष्कर्ष नहीं है, कोई निष्पत्ति नहीं है।
फिर मन ही मन के ऊपर उठने का पहला बोध देता है, कि शरीर से ऊपर उठे, थोड़ा मुक्त आकाश मिला—अंतरिक्ष मिला अंतर—आकाश मिला! एक कदम और उठकर देखे।
मन से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है। शरीर से ऊपर उठने की कला का नाम मनन है। मन से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है। ध्यान से आत्मा मिलेगी। और आत्मा में बहुत सुख है, बहुत अर्थ है, गरिमा है, महिमा है। और इसलिए खतरा भी बहुत है। बहुत—से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर ही अटक रह गये। इतना सुख था कि उन्होंने सोचा, इससे ज्यादा और क्या हो सकता है! आत्मा में जितना मिलता है, उससे ज्यादा की कल्पना करना भी असंभव है। लेकिन कुछ हिम्मतवर आत्मा के भी पार गये। उन्होंने कहा : शरीर को छोड़ा इतना पाया; मन को छोड़ा, और बहुत पाया। काश, आत्मा को भी छोड़ सकें तो पता नहीं कितना मिले! बड़े साहस की जरूरत है।
और बुद्धत्व केवल उनको उपलब्ध होता है जो आत्मा को भी छोड़ देते हैं। कुछ हिम्मतवर लोगों ने वह अंतिम कदम भी उठाया। खतरनाक कदम है। किसी अतल अज्ञात में गिरना है, जिसका कोई ओर—छोर नहीं होगा। उसी को अथर्ववेद कह रहा है : 'और फिर ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।फिर विलीन हो जाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।
थोड़े से तुम बचते हो आत्मा में, बस थोड़े से—अस्मि, मैं— भाव। जरा—सी आखिरी रेखा, जैसे पुच्छल तारा गुजर जाता है और पीछे थोड़ी—सी रेखा छूट जाती है। थोड़ी देर जगमगाती रहती है, फिर विलीन हो जाती है। या जैसे जैट गुजरता है तो उसके पीछे धुएं की एक रेखा बनी रह जाती है। फिर थोड़ी देर मे वह भी बिखर जाती है।
आत्मा भी धुएं की एक रेखा मात्र है—मगर बहुत सुखद, बहुत फूलों से भरी, बहुत सुगंधित—इसलिए अटकाने मे बहुत समर्थ। और जिन्होंने सिर्फ शरीर ही जाना है, मन ही जाना है, उनके लिए तो यूं हो जाता है कि मिल गया धनों का धन। इसलिए बहुत—से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर रुक जाते हैं, सोचते हैं, बस आ गया पड़ाव, अंतिम मंजिल आ गयी, अब कहीं जाना नहीं!
अभी एक कदम और है : तुरीय। अभी चतुर्थ को पाना है। जब तक हो तब तक समझना कि अभी और कुछ पाने को शेष है। मिट जाना है, तल्लीन हो जाना है, विलीन हो जाना है। जैसे सरिता सागर में विलीन हो जाती है—ऐसे! तुम्हारी जो ज्योति है अलग— थलग वह महाज्योति में एक हो जाए। तब मैं बचता ही नहीं।
ऐसा नहीं है कि बुद्धों ने मैं शब्द का उपयोग नहीं किया—करना पड़ता है, लेकिन बस उपयोगिता की दृष्टि से, क्योंकि तुमसे बात करनी है। अन्यथा उनके भीतर कोई मैं नहीं है।
यह सूत्र प्यारा है। लेकिन चैतन्य कीर्ति, मत पूछो कि ये लोक कहां हैं। ये तुम्हारे भीतर हैं। ये तुम्हारी निज की सम्पदाएं हैं। अंतर्यात्रा पर निकलो! अथर्ववेद का यह सूत्र तुम्हारी पूरी अंतर्यात्रा के मार्ग को आलोकित कर सकता है।

 'ज्यू मछलीबिन नीर' प्रवचनमाला से
दिनांक23 सितम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।

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