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बुधवार, 5 अगस्त 2015

साधना--सूत्र--(प्रवचन--03)

द्वैतभाव—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र:

4—द्वैतभाव को समग्ररूप से दूर करो।

यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्‍य से
या मूर्ख मनुष्‍य ये दूर रह सकते हो
वे तो तुम्‍हारे ही रूप है।
यद्यपि तुम्‍हारे मित्र अथवा गुरूदेव से कुछ कम ही वे तुम्‍हारे रूप हों।
फिर भी वे है तुम्‍हारे ही रूप।
स्‍मरण रहे कि सारे संसार का पाप वे उनकी लज्‍जा,
तुम्‍हारी अपनी लज्‍जा, तुम्‍हारा अपना पापा है।
तुम संसार के एक अंग हो और तुम्‍हारे कर्मफल
उस महान कर्मफल से अकाटयरूप से संबद्ध है।
और ज्ञान प्राप्‍त करने के पहले
तुम्‍हें सभी स्‍थानों में से होकर निकलना है,
अपवित्र और पवित्र स्‍थानों से एक ही समान।

जैसे—जैसे मनुष्य ज्यादा सभ्य हुआ है, जैसे—जैसे ज्यादा शिक्षित, सुसंस्कृत हुआ है, वैसे—वैसे ज्यादा चिंतित, बेचैन और परेशान भी हो गया है। क्या होगा कारण? जैसे—जैसे मनुष्य की बुद्धि बढ़ती है, दुख क्यों बढ़ जाता है?

दुख बढ़ जाता है इस कारण कि बुद्धि का सारा विकास द्वैतभाव पर निर्भर है। बुद्धि तोड़ती है, बुद्धि अलग करती है, विश्लेषण करती है। बुद्धि सीमाएं खींचती है, परिभाषाएं करती है।
हृदय जोड़ता है, सीमाएं तोड़ता है। परिभाषाएं समाप्त हो जाती हैं, रहस्य का जन्म हो जाता है। और जितना हो जीवन में हृदय, उतनी ही चिंता कम होती है। और जितनी ज्यादा हो बुद्धि, उतनी ही चिंता ज्यादा होती है।
बुद्धि की प्रक्रिया खंड़खंड़ करने की प्रक्रिया है। जैसे कांच का प्रिज्म हो और सूरज की किरण उसमें से निकले, तो तत्‍क्षण उसके सात टुकड़े हो जाते हैं, सात रंग दिखाई पड़ने लगते हैं। वही किरण प्रिज्‍म के पहले शुभ्र थी, वही किरण प्रिज्‍म से पार हो कर सात टुकड़ों में बंट जाती है, सतरंगी हो जाती है।
वर्षा में आकाश में इंद्रधनुष बन जाता है, क्योंकि वर्षा की बूंदें प्रिज्‍म का काम कर देती हैं, किरण को तोड़ देती हैं और सात रंगों में बांट देती हैं। बुद्धि ठीक प्रिज्‍म जैसा काम करती है। जहां भी बुद्धि से देखेंगे, वहां चीजें टूट जाएंगी, अलग—अलग हो जाएंगी। यही बुद्धि का खतरा भी है, यही उसकी उपयोगिता भी है। क्योंकि अगर किसी भी चीज पर सीमा खींचनी हो, ठीक—ठीक जानना हो कि क्या है, तो उसे तोड़ना ही पड़ेगा। अन्यथा फिर कुछ भी न जाना जा सकेगा, क्योंकि जगत में तो सभी कुछ जुड़ा हुआ है।
अगर वस्तुत: एक चीज भी जाननी हो, तो तभी जानी जा सकती है, जब सब जान लिया जाए। और यह तो असंभव मालूम होता है। एक छोटा—सा कंकड़ का टुकड़ा भी इस पूरे अस्तित्व से जुड़ा है। उस कंकड़ के टुकड़े के होने में इस पूरे अस्तित्व ने भाग लिया है। सूरज ने दान दिया है, आकाश ने जगह दी है, पृथ्वी ने वस्तु दी है—इन सबसे मिल कर बना है पत्थर का टुकड़ा। अनंत ने अनंत प्रकार से उसे जीवन दिया है। तो जब तक हम सबको ही न समझ लें, तब तक उस पत्थर के टुकड़े को भी हम समझ न पाएंगे।
पर यह तो अति कठिन है। तब तक रुकना पड़ेगा, जब तक सब न जान लिया जाए! और कैसे हम सबको जान पाएंगे? क्योंकि सब है इतना विराट। और यहां एक को भी जानना हो, तो शेष को जानना जरूरी है। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि अज्ञान होगा शाश्वत, हम कभी भी जान न पाएंगे।
बुद्धि जानने में सहायता देती है। सहायता इसलिए देती है कि वह तोड़ देती है, खंड़ बना देती है। वह कहती है, सबको जानना जरूरी नहीं है, एक खंड़ को भी बांट कर जाना जा सकता है। विज्ञान बुद्धि के सहारे खड़ा हो पाता है। लेकिन खतरा भी है। और खतरा यह है कि जो अनबंटा है, उसे बुद्धि बांट देती है। जो अपने आप में अखंड़ है, उसको खंड़खंड़ कर देती है। इसलिए बुद्धि से कुछ भी जान लिया जाए, वह ज्ञान परम—ज्ञान नहीं हो पाता। वह अधूरा ही होगा। क्योंकि बहुत से हिस्से अनजाने रह गए, बहुत सी मौलिक बातें बिना खोजी रह गईं। इसलिए विज्ञान कहता है कि उसकी सारी जानकारी अस्थायी है, वह कभी स्थायी नहीं हो सकती। और इसलिए विज्ञान को हर रोज अपना ज्ञान बदल लेना पड़ता है। ज्ञान भी रोज बदलता है।
धर्म कहता है, ऐसे ज्ञान का मूल्य ही क्या, जो रोज बदल जाता हो? अस्थाई ज्ञान का मूल्य ही क्या? तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि जो कल ज्ञान था और आज अज्ञान हो गया, वह था तो कल भी अज्ञान, हमें पता नहीं था। जो आज शान है, वह कल अज्ञान हो जाएगा। तब तो अर्थ हुआ कि आज भी वह है तो अज्ञान ही, लेकिन हमें पता नहीं। जैसे—जैसे हमें पता चलेगा, हमारा ज्ञान अज्ञान होता जाएगा। तो फिर ज्ञान क्या है?
धर्म कहता है, जब तक हम पूर्ण को पूर्ण की तरह ही न जान लें, तब तक हम अज्ञानी ही रहेंगे। पूर्ण को बांट कर जानने में भांति है। उपयोगिता है, लेकिन भ्रांति है। और भ्रांतियां भी उपयोगी हो सकती हैं। विज्ञान ऐसी ही भांति है, जो बड़ी उपयोगी है। लेकिन धर्म एक दूसरे शान की खोज करता है, जो वस्तुत: शान है। और जो एक बार जान लिए जाने पर फिर कभी अज्ञान नहीं हो सकता, जो शाश्वत है।
इस शाश्वत ज्ञान के लिए क्या करना होगा?
जैसे विज्ञान तोड़ता है, अगर हमें शाश्वत ज्ञान को पाना है तो हमें जोड्ने की कला सीखनी पड़ेगी। इस सूत्र में उसी कला की ओर इशारा है।
यह सूत्र कहता है, 'द्वैतभाव को समग्ररूप से दूर करो।
दुई न रह जाए, दो न बचे, एक ही बचे। और जिस दिन तुम्हारे बीच और अस्तित्व के बीच कोई फासला न रह जाएगा, कोई दूरी न रह जाएगी; ऐसा भी न लगेगा कि मैं जानने वाला हूं और वह जो जगत है, उसे मैं जान रहा हूं; वह जाना जाने वाला है; जिस दिन ज्ञेय और ज्ञाता का भी फासला न रह जाएगा; जिस दिन सब द्वैत टूट जाएगा, सब सीमाएं गिर जाएंगी और तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाओगे; जैसे ओस की बूंद कमल के पत्ते से गिरे और सरोवर के साथ एक हो जाए, ऐसा जिस दिन मिलन हो जाएगा अस्तित्व से—उस दिन ही जो जानने योग्य है, वह जाना जाता है। उस दिन ही जो जाना जाता है, फिर उसे खोने की कोई संभावना नहीं है। उस दिन ही जो जाना जाता है, वह मुक्ति लाता है।
विज्ञान शक्ति दे सकता है, लेकिन मुक्ति नहीं। क्योंकि विज्ञान उपयोगी तथ्य दे सकता है, लेकिन शाश्वत सत्य नहीं। शाश्वत सत्य की खोज की एक ही प्रक्रिया है और वह यह है—एकत्व की अनुभूति।
लेकिन बड़ा कठिन है। क्योंकि हमारे तो सारे देखने के ढंग ही बुद्धि पर निर्भर हैं। जहां से भी देखें, वहीं से चीजें दो हो जाती हैं।
अभी मैं बोल रहा हूं आप सुन रहे हैं। यह घटना एक है। यहां बोलने वाला एक छोर है, वहां सुनने वाला दूसरा छोर हैं—घटना एक है। यहां एक ही घटना घट रही है। यहां बोला जा रहा है, सुना जा रहा है। ये दो चीजें नहीं हैं। एक छोर से बोला जा रहा है, दूसरे छोर पर सुना जा रहा है। यह एक ही अनुभव के दो कोने हैं। घटना एक है, लेकिन जैसे ही विचार करेंगे, वैसे बोलने वाला अलग हो गया, सुनने वाला अलग हो गया। सुनने के क्षण में जब आपका मन कोई काम नहीं कर रहा है, मौन सुन रहा है, तब दो नहीं होते। बोलने के क्षण में जब मन कोई काम नहीं कर रहा है, कोई विचार नहीं कर रहा, शुद्ध बोलना और शुद्ध सुनना जहां मिलता है, वहा  तो एक ही रह जाता। न सुनने वाला  होता है, न बोलने वाला होता है। और वहीं समझ आती है और वहीं संवाद भी होता है। जहां सुनने वाला अलग, बोलने वाला अलग, वहां तो विवाद होता है। वहां तो भीतर विवाद चलता ही रहता है। वस्तुत: जितने गहरे हम उतरते हैं, उतनी एकता का पता चलता है। लेकिन जैसे ही सोचते हैं लौट कर, वैसे ही लगता है चीजें बंट गईं, दो हो गईं, अलग—अलग हो गईं। वह जो सुनने वाला है, अलग हो गया; वह जो बोलने वाला है, अलग हो गया।
जब दो व्यक्ति गहरे प्रेम में होते हैं, या गहरी मैत्री में, तो उनके प्रेम में दो नहीं होते। उनके प्रेम में प्रेम ही रह जाता है। वहां प्रेमी भी खो जाता है, प्रेयसी भी खो जाती है। और जब यह खोना होता है, तभी प्रेम का जन्म होता है। जब तक यह खोना न हो, तब तक प्रेम का कोई जन्म नहीं होता। लेकिन जब हम सोचेंगे प्रेम के संबंध में, तो प्रेमी अलग हो जाएगा, प्रेयसी अलग हो जाएगी।
जब भक्त अपनी पूरी लीनता में होता है, तो भगवान और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर फासला हो तो भक्ति अधूरी है, भक्ति है ही नहीं। वहां भक्त भी मिट जाता है और भगवान भी मिट जाता है, दोनों के बीच एक की ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों छोर लीन हो जाते हैं और एक ही अस्तित्व रह जाता है। लेकिन जब हम सोचेंगे भक्ति के संबंध में, तो भगवान अलग है, भक्त अलग है।
छोड़े! शायद आपको प्रेम का भी अनुभव न हो, क्योंकि प्रेम का अनुभव भी बहुत मुश्किल हो गया है। और भक्ति का तो होगा ही नहीं, क्योंकि वह तो करीब—करीब असंभव हो गया है। जिस समाज में प्रेम का ही अनुभव मुश्किल हो जाए, उस समाज में भक्ति का अनुभव संभव नहीं रह जाता। जो प्रेम ही नहीं जानते, वे भक्ति कैसे जान पाएंगे।
प्रेम ही संसार की सीढ़ी है, जिससे व्यक्ति भक्ति के मंदिर तक उठ पाता है। लेकिन जिन्होंने प्रेम ही नहीं किया जीवन में, वे भक्ति के रस को भी कभी न समझ पाएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेम ही भक्ति है, इसका इतना ही अर्थ है कि प्रेम भक्ति का प्रशिक्षण है। इसका इतना ही अर्थ है कि इस जगत में भक्ति के करीब से करीब अगर कोई घटना है, तो वह दो व्यक्तियों का प्रेम है।
क्यों? क्योंकि दो व्यक्तियों के गहरे प्रेम में भी अद्वैत की झलक उपलब्ध होती है। झलक ही उपलब्ध होती है, लेकिन झलक भी काफी है। और अंधेरे में जब घनघोर चारों तरफ अंधेरा हो, तो बिजली की एक कौंध भी बहुत कुछ साफ कर जाती है। फिर खो जाती है, बिजली फिर खो जाती है। बिजली कोई दीया नहीं है आपके हाथ में कि आप उससे रास्ते को खोज लेंगे। लेकिन अंधेरे रास्ते पर अंधेरी रात में बिजली कौंध जाए, एक दफे एक झलक भी रास्ते की मिल जाए—तो आपकी दृष्टि बदल जाती है, भय बदल जाता है। आप जानते हैं कि रास्ता है, आप जानते हैं कि रास्ता देख लिया है, अब आप निर्भीक हैं, अब आप खोज सकते हैं, अब आप टटोल सकते हैं। अब भूल भी होगी, भटकन भी होगी, तो भी आस्था न खोंकी, क्योंकि आपने रास्ते की एक झलक देख ली है, रास्ता है। हू' अंधेरे में भूल सकते हैं, भटक सकते हैं, देर—अबेर लगेगी, लेकिन मंजिल पर पहुंचना हो जाएगा।। क्योंकि रास्ता है! अब एक आस्था पैदा हो जाएगी।
जिन लोगों के जीवन में प्रेम की घटना घट जाती है, उनके जीवन में भक्ति की संभावना शुरू हो जाती है। एक आस्था है। दो मिट सकते हैं, इसका कम से कम एक अनुभव हो गया। दो मिट सकते  हैं, ऐसी घड़ी भी आ गई। ऐसा क्षण भी आया, पल भर को आया, बिजली की तरह कौंधा और मिट गया, लेकिन देखा कि वहां दो नहीं थे—एक था। तो फिर भगवान और भक्त के बीच की संभावना भी विश्वास के योग्य हो जाती है। फिर आस्था लाई जा सकती है, फिर भरोसा किया जा सकता है। इसलिए कहता हूं कि भक्ति की संभावना तो बहुत मुश्किल हो गई, क्योंकि प्रेम की ही संभावना अति कठिन हो गई है। लेकिन एक बात समझनी जरूरी है, दो के मिटने की घटना को समझना जरूरी है। तब हम किन्हीं और पहलुओं से सोचें, शायद किसी क्षण में आपको भी ऐसा लगा हो कि आप मिट गए हैं।
वह क्षण कैसे भी उपलब्ध हुआ हो, वह क्षण कहीं से भी उपलब्ध हुआ हो, लेकिन अगर आपके जीवन में कोई भी एक क्षण है, कोई एक सौंदर्य की अनुभूति हो— आप किसी फूल के पास बैठे हों, और फूल को देखते—देखते आप मिट गए हों और फूल भी मिट गया हो, और मात्र फूल की सुगंध, मात्र फूल का सौंदर्य शेष रह गया हो, दोनों छोर मिट गए हों और एक पारदर्शी सौंदर्य का बोध—मात्र रह गया हो—तो आपको खयाल आ सकता है कि यह सूत्र किस तरफ इशारा कर रहा है। या संगीत के सुनते क्षण में, संगीतज्ञ भी भूल गया हो, आप भी भूल गए हों, मात्र संगीत रह गया हो, तो भी आपको खयाल आ सकता है कि अद्वैत की बात की क्या प्रतीति होगी।
अंतिम प्रतीति क्या होगी, यह तो जब अनुभव होगा, तभी होगा। लेकिन अभी आपके जीवन में कभी भी ऐसा कोई क्षण घटा हो, सौंदर्य का, प्रेम का, किसी रस—बोध का—जहा ऐसा लगा हो कि यहां जानने वाला और जाना जाने वाला दो नहीं रह गए हैं, विषय और विषयी मिट गए हैं, एक अनुभव की तरंग मात्र रह गई है, एक लहर जिसमें दोनों छोर खो गए हैं और मध्य का भाग ही रह गया है—ऐसी प्रतीति अगर आपको कभी भी हुई हो, तो इस सूत्र को समझना आसान हो जाएगा।
अगर ऐसी प्रतीति न हुई हो, तो ध्यान में इस प्रतीति को करने का उपाय है। ध्यान में इस भांति डूबने की कोशिश करना कि ध्यान ही न रह जाए। आपको यह खयाल ही न बचे कि मैं ध्यान कर रहा हूं। आपको यह खयाल ही न बचे कि मैं किसी का ध्यान कर रहा हूं। आप इतने आनंदमग्न हो जाना कि दो मिट जाएं।
दोपहर के कीर्तन में संभव है। अगर आप पूरी तरह लीन हो जाएं नृत्य में, तो नर्तक मिट जाएगा, बाहर का जगत भी खो जाएगा, भीतर की अस्मिता भी खो जाएगी, सिर्फ एक कृत्य रह जाएगा, शुद्ध कृत्य, प्योर एक्ट— नृत्य का, आनंद का, एक महोत्सव का—उस क्षण में किसी ऊंचाई पर दो का सारा बोध नष्ट हो जाता है और एक ही शेष रह जाता है। वह एक विराट है, उस एक में सब समाया हुआ है। उसमें ये पास खड़े हुए वृक्ष भी भागीदार होंगे, उसमें यह आकाश भी भागीदार होगा, उसमें यह पृथ्वी भी भागीदार होगी, उसमें यह सारा अस्तित्व भागीदार है। फिर उस अनुभूति के बाहर कुछ भी नहीं है, सभी कुछ उस अनुभूति में समा जाता है।
ऐसी प्रतीति का नाम ही ध्यान है। और ऐसी प्रतीति जब इतनी प्रगाढ़ हो जाए कि खोए ही ना, आप कुछ भी करें, बनी ही रहे। चलें या उठें, बैठें या खाएं, या पीए, संसार में हों, कि संन्यास में हों, कि दुकान में हों, कि मंदिर में हों, जब ऐसी प्रतीति के मिटने का कोई उपाय न रह जाए, तो वही ध्यान की प्रतीति समाधि बन जाती है।
इस समाधि की यात्रा पर ही हम निकले हुए हैं। इसलिए इस सूत्र को बहुत ठीक से समझ लेना जरूरी है।
सूत्र कहता है—
'द्वैतभाव को समग्ररूप से दूर करो। यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो। वे तो तुम्हारे ही रूप हैं। यद्यपि तुम्हारे मित्र अथवा गुरुदेव से कुछ कम ही वे तुम्हारे रूप हों, फिर भी वे हैं तुम्हारे ही रूप। स्मरण रहे कि सारे संसार का पाप व उसकी लज्जा, तुम्हारी अपनी लज्जा, तुम्हारा अपना पाप है। तुम संसार के एक अंग हो और तुम्हारे कर्मफल उस महान कर्मफल से अकाटय् रूप से संबद्ध हैं। और ज्ञान प्राप्त करने के पहले तुम्हें सभी स्थानों में से हो कर निकलना है, अपवित्र और पवित्र स्थानों से एक ही समान।
बहुत सी बातें कही गई हैं। और बहुत विचारणीय हैं। यदि यह सच है कि अस्तित्व एक है, और मैं अस्तित्व से अलग— थलग नहीं हूं मैं कोई द्वीप नहीं हूं मेरी सीमाएं कामचलाऊ हैं, मैं किन्हीं सीमाओं पर समाप्त नहीं होता हूं तो फिर दूसरा भी कोई नहीं है। तो फिर दूसरे के साथ भी जो घट रहा है, वह मेरे साथ ही घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही, लेकिन मेरे साथ ही घट रहा है।
अगर महावीर ने यह कहा है कि चींटी को भी मत मारना, तो इसी अर्थ में कहा है। अहिंसा की पूरी जीवन—दृष्टि अद्वैत के इसी भाव पर निर्भर है। चींटी को मत मारना—इसका यह अर्थ नहीं है कि चींटी पर दया करना या कि दया की जा सकती है। इसका कुल अर्थ इतना ही है कि जब भी तुम किसी को चोट पहुंचा रहे हो, या दुख पहुंचा रहे हो, या मार रहे हो, तो तुम्हें पता नहीं कि तुम आत्मघात में ही संलग्न हो।
सभी हिंसा आत्महत्या है। अगर सारा जीवन मेरे साथ एक है, तो कहीं भी मैं चोट पहुंचाऊं, मैं अपने को ही चोट पहुंचा रहा हूं। इसलिए इस बात को खयाल में रखना, जब भी तुम किसी को चोट पहुंचाते हो तो तुम जानो या न जानो, तुम्हें भी चोट पहुंच ही जाती है। क्योंकि दूसरा तुमसे अलग नहीं है। फासला हो सकता है, दूरी हो सकती है, और बीच की यात्रा लंबी हो सकती है, लेकिन हम जुड़े हैं और संयुक्त हैं। इसलिए तुम किसी को भी दुख पहुंचाओ, तो तुम्हें दुख भोगना ही पड़ेगा। तुम अपने को दुख पहुंचाए बिना किसी को दुख पहुंचाने में सफल नहीं हो सकते। कोई उपाय नहीं है।
किसी को भी दुखी करके देखो, तुम दुखी हो ही जाओगे। और इससे उलटा भी सही है। तुम किसी को सुखी करके देखो और तुम पाओगे कि सुख न मालूम कितने रूपों में तुम्हारे हृदय में भी गुंजरित हो उठा है। और तुम किसी के रास्ते से एक छोटा सा कांटा भी हटाओ, तो तुम्हारे अपने रास्ते से अनेक कांटे हट जाते हैं। और तुम किसी के रास्ते पर एक छोटा सा फूल भी रखो, तो तुम्हारे रास्ते पर फूल की शय्या बिछ जाती है। क्योंकि तुम जो भी कर रहे हो, उसकी अनंत गज चारों ओर हो जाती है। और इसीलिए हो जाती है अनंत तक उसकी गंज, क्योंकि तुम जुड़े हो, संयुक्त हो।
एक छोटा सा भी विचार तुम्हारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। और थोड़ा सा भाव भी तुम्हारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा ही नहीं है कि आज ही, अनंत काल तक वह झंकार सुनी जाएगी। तुम्हारा यह रूप खो जाएगा, तुम्हारा यह शरीर गिर जाएगा, तुम्हारा यह नाम मिट जाएगा, तुम्हारा कोई नामो—निशान भी पता लगाना मुश्किल हो जाएगा—लेकिन तुमने जो चाहा था, तुमने जो किया था, तुमने जो सोचा था, तुमने जो भावना बनाई थी, वह सब इस अस्तित्व में गूंजती रहेगी। क्योंकि तुम यहां से भले ही मिट जाओ, तुम कहीं और प्रकट हो जाओगे। और तुम यहां से खो जाओगे, लेकिन किसी और जगह तुम्हारा बीज पुन: अंकुरित हो जाएगा।
हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं। और हम जो भी हैं, वह भी खोता नहीं। क्योंकि हम एक विराट के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है। और वह जो लहर मिट गई है, उसका जल भी उस सागर में शेष रह गया है।
इसे बहुत तरह से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसका व्यापक परिणाम तुम्हारे जीवन, तुम्हारे आचरण, तुम्हारे भविष्य पर होगा। अगर यह बात ठीक से खयाल में आ जाए तो तुम दूसरे ही आदमी हो जाओ। एक ढंग की जिंदगी तुमने बनाई है, उस जिंदगी का मूल आधार यह है कि मैं अलग हूं। और इसीलिए आदमी इतना चिंतित और दुखी और परेशान है। क्योंकि तुम अलग हो नहीं, तुम्हारे अलग होने की सब कोशिश निष्फल जाती है, आखिर में तुम पाते हो कि विफल हो गए।
मृत्यु क्या है? मृत्यु सिवाय इसके कुछ भी नहीं है कि तुम्हें जो वहम था कि मैं अलग हूं वह इस वहम को तोड़ देती है। मृत्यु तुम्हें अद्वैत में वापस ले जाती है। काश, तुम खुद ही अद्वैत में वापस जा सकते, तो फिर मृत्यु तुम्हारे लिए घटती ही नहीं। लेकिन तुम्हारे लिए मृत्यु बिलकुल जरूरी है, क्योंकि तुम अपनी तरफ से अद्वैत में लौटने की कोई आकांक्षा नहीं रखते।
जन्म के पहले भी तुम अद्वैत में थे और मृत्यु के बाद भी तुम अद्वैत में वापस पहुंच जाते हो। बीच में थोड़ी देर की लहर, बीच में थोड़ी देर का लहर का शोरगुल, थोड़ी देर के लिए लहर का उठना, सूरज की किरणों में नाचना, थोड़ी देर के लिए लहर को भी यह खयाल पैदा हो जाता है कि मैं भी हूं। और हर लहर को यह लगता होगा कि सागर से अलग है। लगता ही होगा। और यह भी लगता होगा कि मेरे आस—पास जो लहरें उठ रही हैं, मुझसे भिन्न हैं। और यह भी लगता होगा, क्योंकि इसके पीछे तर्क भी हैं।
लहर का भी अगर तर्क हो, उसके पास भी बुद्धि हो, तो लहर भी सोचेगी कि मैं एक कैसे हो सकती हूं दूसरी लहरों से! कोई लहर बहुत छोटी है, मैं इतनी बड़ी हूं। मैं बहुत छोटी हूं कोई लहर पहाड़ जैसी बड़ी है। हम सब भिन्न—भिन्न हैं, हम कैसे एक हो सकते हैं? और फिर यह भी तो खयाल लहर को आएगा ही कि कोई लहर गिर रही है और मैं तो अभी जन्म पा रही हूं उठ रही हूं—तो गिरती हुई लहर से मेरी एकता कैसे हो सकती है! अगर मैं गिरती हुई लहर से एक होती तो उसके साथ गिरती। और अगर गिरने वाली लहर मेरे साथ एक होती तो मेरे साथ उठती।
आप देखते हैं, कोई मर रहा है। आप जवान हैं, कोई का हो गया है, कोई बच्चा है— आप एक कैसे हो सकते हैं? जब आप मरेंगे तो सभी आपके साथ मर जाते, अगर एक होते।
लेकिन हम जानते हैं कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर भी लहरें एक हैं; भीतर, नीचे जुड़ी हैं। और जिस जल से यह उठ रही है लहर, उसी जल से गिरने वाली बाहर वापस लौट रही है। इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी— सी देर के लिए लहर ने एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप शेष रह जाता है।
हम भी लहरों से ज्यादा नहीं हैं। इस जगत में सभी कुछ लहरवत है। एक वृक्ष भी एक लहर है, एक पक्षी भी एक लहर है, एक पत्थर भी, एक मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक ही सागर की, तो इसकी तो व्यापक निष्पत्ति होगी।
इसकी निष्पत्ति इस सूत्र में है।

 'यह मत सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो।
यह मत सोचो कि बुरा आदमी बुरा है और तुम भले हो। क्योंकि बुरा भी तुमसे जुड़ा है। और सच तो यह है कि अगर बुरा जगत से मिट जाए, तो भले भी उसी दिन मिट जाएंगे। अगर जगत में शैतान न हो, अगर जगत में असाधु न हो, अगर चोर, हत्यारा, बेईमान न हो, तो उनके साथ ही साधु भी मिट जाएंगे। साधु असाधु के बिना कैसे जी सकता है? यह कभी सोचा! साधु जीता ही असाधु के साथ है। वह एक ही सिक्के का दूसरा पहलू है। वह जो अच्छा आदमी है, शुभ आदमी है, नैतिक है, धार्मिक है, वह भी जीता है अधार्मिक के कारण। अधार्मिक के बिना वह भी जी न सकेगा।
रावण के बिना राम के होने का कोई उपाय नहीं है। न ही राम के बिना रावण के होने का कोई उपाय है। इसलिए जो ऊपर—ऊपर देखते हैं, वे सोचते हैं कि राम और रावण में बड़ी दुश्मनी है। जो भीतर देखते हैं, वे पाते हैं कि उनसे ज्यादा गहरी मैत्री खोजनी कठिन है। क्योंकि जिसके बिना हम हो ही न सकें, उसको शत्रु कहिएगा? जिसके बिना हम हो ही न सकें, वही हमारा मित्र है। जिसके बिना अस्तित्व ही संभव न होगा, जो हमारा आधार है, उसको शत्रु कहिएगा? तो फिर शत्रु की सारी परिभाषा ही बदलनी पड़ेगी। फिर तो शत्रु मित्र से भी निकट हो गया।
राम हो सकते हैं रावण के बिना? कभी सोचा!
राम की कथा में रावण को काट दें, तो राम की सारी कथा एकदम व्यर्थ हो जाएगी। रावण के कारण ही सारा रस है। रावण की मौजूदगी के कारण ही राम की सारी गरिमा है। वह जो राम का शुभ है, वह रावण के अशुभ की पृष्ठभूमि में ही उभरता है।
रावण के बिना राम वैसे ही होंगे, जैसे ब्लैक—बोर्ड के बिना उस पर लिखे हुए सफेद अक्षर हो जाएंगे। ब्लैक—बोर्ड हट जाए, सफेद अक्षर खो जाएंगे। वे सफेद अक्षर उभर कर दिखते थे, इसलिए नहीं कि वे सिर्फ सफेद थे, बल्कि इसलिए भी कि काले तख्ते पर थे। उनकी सफेदी में काले तख्ते का हाथ था। काले तख्ते के कारण ही वे इतने शुभ्र मालूम होते थे। काला तख्ता हट गया, वे शुभ अक्षर भी खो गए।
बड़े मजे की बात है कि अगर साधुओं की आकांक्षाएं पूरी हो जाएं, और सारा जगत साधु हो जाए, तो सबसे पहले मिटने वाली जो चीज होगी, वह साधुओं का अस्तित्व होगा। साधु अपने को ही मिटाने में लगे रहते हैं। अभी तक सफल नहीं हो पाए। कभी भी सफल नहीं हो पाएंगे। क्योंकि वे हो ही नहीं सकते, असाधु के बिना। जैसे रात के बिना दिन का होना असंभव है, और जैसे अंधेरे के बिना प्रकाश का होना असंभव है, और जैसे मृत्यु के बिना जन्म का होना असंभव है, वैसे ही सभी विपरीत आपस में जुड़े हैं।
तो यह कोई बुद्धिमान न सोचें कि जो मूढ़ हैं, उनसे वे अलग हैं। कोई सुंदर व्यक्ति यह न सोचे कि कोई कुरूप है, तो उससे वह अलग है। और कोई स्वस्थ आदमी यह न सोचे कि बीमार से वह भिन्न है। हम सब जुड़े हैं। हम सब गहरे में जुड़े हैं।
अगर यह जोड़ खयाल में आ जाए, तो बुद्धिमान का अहंकार गिर जाएगा। क्योंकि बुद्धिमान अहंकार ही क्या कर रहा है? वह यही अहंकार कर रहा है कि मैं मूढ़ नहीं हूं। लेकिन मूढ़ के बिना वह हो नहीं सकता। वह मूढ़ के आधार पर ही खड़ा है। अहंकार का भी क्या बल है? अहंकार से ज्यादा नपुंसक कोई चीज है जगत में? बुद्धिमान का अहंकार यही है कि मैं मूढ़ नहीं हूं। लेकिन मूढ़ के बल पर ही वह खडा है।
नेता सोचता है कि मैं अनुयायी नहीं हूं। लेकिन अनुयायियों के बिना क्या नेता हो सकता है? अनुयायियों की वजह से ही वह नेता है। महान पुरुष सोचते हैं कि वे महान हैं, तो वे महान नहीं हैं। क्योंकि वे इस बात को भूल गए हैं कि वे क्षुद्र लोगों के कारण ही महान दिखाई पड़ रहे हैं। महान व्यक्ति को यह बात भी खयाल में आ ही जाएगी कि मैं क्षुद्र लोगों के कारण ही महान दिखाई पड़ रहा हूं। तब तो महानता भी क्षुद्र हो गई। क्योंकि जिस महानता को क्षुद्रता की दीवाल का सहारा चाहिए हो, उस महानता में महानता भी क्या रही! और बात दोनों तरफ एक सी है।
अगर बुद्धिमान को यह दिखाई पड़ जाए कि मूढ़ता भी मेरे ही सिक्के का दूसरा पहलू है, तो मूढ़ के प्रति उसका जो अपमान है, जो अवमानना है, वह खो जाएगी। मूढ़ के प्रति एक बंधु— भाव पैदा हो जाएगा। अगर साधु को यह दिखाई पड़ जाए कि असाधु मेरे ही सिक्के का दूसरा अंग है, तो साधु के मन में जो असाधु की निंदा है, वह समाप्त हो जाएगी। असाधु के प्रति भी गहरी मैत्री और प्रेम का उदय हो जाएगा। और जब तक किसी साधु में ऐसी करुणा पैदा न हो, तब तक जानना कि उसे अभी अद्वैत का कुछ भी पता नहीं है।
अद्वैत का पता होते ही, वह जो विपरीत है, वह भी मेरा हिस्सा हो जाता है। तो फिर पुण्यात्मा जानता है कि मेरा दूसरा हिस्सा पापी है। और पुण्यात्मा यह भी जानता है कि जब तक पृथ्वी पर पाप हो रहा है, तब तक मैं भी भागीदार हूं।
जरा जटिल है यह बात, समझ लेनी पड़ेगी।
जब तक पृथ्वी पर पाप हो रहा है, तब तक मैं भी भागीदार हूं चाहे मैं पाप करूं या चाहे मैं पाप न करूं। अगर मैं पाप करूं, तब तो मैं भागीदार हूं ही, अगर मैं पाप न भी करूं तो भी चूंकि मैं इस जगत—चेतना का एक हिस्सा हूं और यह चेतना पाप करती है, तो मैं भागीदार हूं।
बुद्ध ने कहीं कहा है कि जब तक एक भी व्यक्ति बंधन में है अज्ञान के, तब तक कोई भी मुक्त कैसे हो सकेगा? एक भी लहर अगर सागर की गंदी है, तो कोई दूसरी लहर पवित्र कैसे हो सकेगी? यह तो तभी हो सकता था, जब लहरें अलग— अलग होतीं, तब एक लहर पवित्र हो जाती और एक अपवित्र रह जाती। लेकिन अगर लहरें एक ही सागर का हिस्सा हैं, तो पवित्रता—अपवित्रता का द्वंद्व हमें छोड़ देना पड़ेगा, पुण्य और पाप का भेद हमें छोड़ देना पड़ेगा। और हमें यह जानना पड़ेगा कि ये दोनों ही एक साथ हैं। और जो व्यक्ति ऐसा समझ लेता है, देख लेता है कि दोनों एक साथ हैं, वह दोनों के पार चला जाता है। और वह जो दोनों के पार चला जाता है, वही संत है।
इसे हम थोड़ा खयाल में लें। साधु के विपरीत असाधु है, असाधु के विपरीत साधु है। संत के विपरीत कोई भी नहीं है! इसलिए हम बुद्धत्व को शान से अलग रखते हैं। जानी के विपरीत अज्ञानी है, लेकिन अज्ञान और ज्ञान को जो एक ही जैसा समझ लेता है और अज्ञान और ज्ञान को देख लेता है कि दोनों जुड़े हैं, उसको हम बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, प्रज्ञा को उपलब्ध हुआ, ऐसा कहते हैं।
वास्तविक ज्ञान अज्ञान के विपरीत नहीं है, ज्ञान और अज्ञान दोनों से छुटकारा है।
यह जरा कठिन है। यह भी हमारी समझ में आता है कि अज्ञान से छुटकारा कर लें और ज्ञानी हो जाएं। यह भी हमारी समझ में आता है कि पाप को छोड़ दें और पुण्यात्मा हो जाएं। यह भी हमारी समझ में आता है कि दुश्चरित्रता को छोड़ दें, सच्चरित्र हो जाएं। लेकिन यह समझ द्वैत पर खड़ी है। गहरे धर्म से इसका कोई भी संबंध नहीं है। यह समझ बचकानी है। यह समझ नासमझी से भरी है। यह ऊपर—ऊपर समझ मालूम पड़ती है, भीतर— भीतर बिलकुल नासमझी है। क्योंकि ये दोनों चीजें विपरीत दिखाई पड़ती हैं, लेकिन भीतर जुड़ी हैं।
इसका तो यह भी अर्थ हुआ.. गुरजिएफ कहता था कि तुम दुनिया में जितना चरित्र बढ़ाओगे, उतना ही तुम दुश्चरित्रता भी बढ़ाओगे। समझना अड़चन की बात मालूम पड़ती है। और गुरजिएफ ठीक कहता है। क्योंकि दोनों का अनुपात सदा समान होगा। इसलिए दुनिया में जितनी नीति बढ़ती है, उतनी अनीति भी बढ़ती है।
आमतौर से लोग सोचते हैं कि एक युग था जब नीति ही नीति थी। गलत है, ऐसा कोई युग नहीं हो सकता। ऐसा कोई युग नहीं हो सकता, जब नीति ही नीति रही हो। इसका एक ही मतलब हो सकता है कि नीति इतनी कम रही होगी कि अनीति भी बहुत कम रही होगी। इसलिए हमें पता नहीं चलता कि अनीति थी। आज दोनों चीजें बहुत बढ़ गई हैं। आज नीति भी है तो शिखर पर है, और अनीति भी है तो भी शिखर पर है। इसलिए दोनों चीजें बहुत साफ दिखाई पड़ती हैं। आज फासला स्पष्ट दिखाई पड़ता है, क्योंकि दोनों अति पर पहुंच गई हैं। दोनों एक साथ घटती और बढ़ती हैं।
इसे हम ऐसा समझें कि अगर आप चाहते हों कि पहाड़ छोटा रहे, तो छोटी खाई बनेगी पास। अगर आप चाहते हैं कि पहाड़ बहुत बडा हो, आकाश को छुए, तो उतनी ही बड़ी खाई भी पास में बन जाएगी। आप सोचते हों कि पहाड़ तो बहुत बड़ा हो और खाई बिलकुल न हो, तो आप नासमझ हैं, यह नहीं हो सकता।
नीत्शे ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश को छूने की आकांक्षा हो, उसको अपनी जड़ें पाताल तक भेजनी पड़ती हैं।
जितना वृक्ष ऊपर उठता है, उतनी ही जड़ें नीचे जाती हैं। आप यह सोचते हों कि वृक्ष तो आकाश छू ले और जड़ें बिलकुल नीचे न जाएं, तो आप पागल हैं। कोई मौसमी पौधा आकाश नहीं छू सकता, उसकी जड़ें ही इस योग्य नहीं होतीं। जितना ऊपर उठना हो, उतना ही नीचे भी जाना पड़ता है। यह है जीवन का अनुपात।
तो अगर आप चाहते हैं कि समाज बहुत चरित्रवान हो जाए, तो आपको तैयार होना चाहिए कि समाज में उसी हैसियत के चरित्रहीन लोग भी पैदा होंगे। अगर आप चाहते हैं कि समाज बहुत बुद्धिमान हो जाए, तो ठीक उसी अनुपात के गैर—बुद्धिमान भी पैदा होंगे। अगर आपको बड़े बुद्धिमान चाहिए, तो बड़े मूढ़ स्वीकार करने होंगे। उनसे बचने का कोई उपाय नहीं है। जीवन का गणित ऐसा है, इसमें कुछ भी किया नहीं जा सकता। अगर आप चाहते हैं बहुत सुंदर लोग हों, तो आपको बहुत कुरूप लोगों को बर्दाश्त करना होगा। क्योंकि सुंदर हो ही सकते हैं कुरूप के विपरीत। ज्ञानी हो ही सकते हैं अज्ञानी के विपरीत। कोई दूसरा उपाय नहीं।
और अगर आप चाहते हैं कि दुनिया में पाप बिलकुल न हो, तो आपको पुण्य को भी छोड़ देने के लिए तैयार होना होगा। फिर पाप नहीं हो सकते। आप चाहते हों दुनिया में कुरूपता न हो, तो आपको सौंदर्य के सब मापदंड़ तोड़ डालने चाहिए। आपको सौंदर्य की बात ही छोड़ देनी चाहिए। फिर कोई भी कुरूप न होगा। क्योंकि बिना सौंदर्य के मापदंड़ के कुरूप को कैसे खोजिएगा? आप चाहते हैं कि दुनिया में मूढ़ता न हो, तो आपको बुद्धिमानों को समाप्त कर देना होगा। चाहते हों कि असाधु न हों, तो साधुओं को नमस्कार कर लेनी होगी। ये दोनों साथ—साथ होंगे। सभी विपरीत साथ—साथ होते हैं।
पर एक उपाय है—विपरीत में चुनो ही मत।
यही यह सूत्र कह रहा है—विपरीत में चुनो ही मत। जान लो कि दोनों एक ही हैं। सौंदर्य और कुरूप दोनों एक ही मापदंड़ के कारण हैं। बुद्धिमान और बुद्ध दोनों एक ही मापदंड़ के कारण हैं। दोनों के पार उठ जाओ। दोनों के जो पार उठ गया, उसे ही हम संत कहते हैं, परमहंस कहते हैं। ये दोनों के जो पार उठ गया, उसको ही हम परम—ज्ञानी कहते हैं। क्योंकि वही जान पाएगा कि सत्य क्या है। जो दो में कहीं भी उलझा है, इधर या उधर, वह सत्य को कभी भी न जान पाएगा। क्योंकि सत्य दोनों को समाहित करता है।
और जो चुनाव करता है, वह एक को चुनता है, दूसरे को काटता है। तो वह दूसरा कहां जाएगा? वह दूसरा भी है। आप कहते हैं, परमात्मा प्रकाश है, तो फिर अंधेरे का क्या होगा? अच्छा लगता है आपको प्रकाश, इसलिए आप परमात्मा को प्रकाश कह लेते हैं। यह आपकी पसंदगी की ही खबर देता है, लेकिन फिर अंधेरे का क्या होगा? अंधेरा भी है। और अगर परमात्मा है सिर्फ प्रकाश, तो इसका अर्थ हुआ कि जगत में फिर दो परमात्मा होंगे, एक अंधेरे का भी परमात्मा होगा। और तब बड़ी झंझट होगी। और ये दो परमात्मा लड़ते रहें, कोई भी जीत नहीं सकता। यह द्वंद्व अंतहीन और व्यर्थ होगा। और यह द्वंद्व झूठा होगा। क्योंकि प्रकाश के होने के लिए अंधेरे की जरूरत पड़ती है और अंधेरे के होने के लिए प्रकाश की जरूरत पड़ती है। तो यह द्वंद्व झूठा होगा। यह लड़ाई, माकफाइट होगी।
जैसे पहलवान अक्सर लड़ते हैं। वे सब भीतर मिले होते हैं, सिर्फ दिखावा होता है और काफी शोरगुल मचता है। बड़ी कुश्ती होती है, देखने वाले बड़े प्रभावित होते हैं, बड़े आंदोलित होते हैं। किंतु सब सौदा होता है, सब भीतर से तय होता है। और कौन जीतेगा यह भी तय होता है। कौन हारेगा इस बार, यह भी तय होता है। एक बार एक जीत जाता है, दूसरी कुश्ती में फिर दूसरा जीत जाता है, तीसरे नगर की कुश्ती में फिर दूसरा जीत जाता है। और यह सब साझा है।
ठीक अंधेरे और प्रकाश के बीच ऐसी ही साझेदारी है। उनके बीच कोई लड़ाई नहीं है। और लड़ाई जिनको दिखती है, वे नाहक ही उत्तेजित हो रहे हैं, वे नाहक ही परेशान हो रहे हैं। लेकिन दोनों के पार उठा जा सकता है। दोनों के पार में दोनों ही समाविष्ट हो जाते हैं। परमात्मा दोनों है और दोनों नहीं है। न तो परमात्मा प्रकाश है, और न परमात्मा अंधकार है। परमात्मा दोनों है। और जब दोनों है, तो फिर हम उसे प्रकाश भी नहीं कह सकते, अंधकार भी नहीं कह सकते। वह द्वंद्वातीत है, वह दोनों के पार है, वह बियांड़ है।
यह सूत्र कहता है, ' यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो, वे तो तुम्हारे ही रूप हैं। यद्यपि तुम्हारे मित्र अथवा गुरुदेव से कुछ कम ही वे तुम्हारे रूप हों, फिर भी वे हैं तुम्हारे ही रूप।
भला तुम सोचो कि तुम्हारे जो निकटतम हैं, उतने निकट वे नहीं हैं। लेकिन कितने ही दूर हों, सब दूरी निकटता का ही रूप है। इससे उलटा भी सच है। चाहे तुम कितना ही किसी के पास रहो, सब पास होना भी दूरी का ही एक नाम है। कितने ही पास रहो। किसी के कितने ही निकट आ जाओ, दूरी तो बनी ही रहती है। छाती से छाती मिला कर बैठ जाओ, तो भी दूरी बनी रहती है। वह जो निकटतम भी है, वह भी दूरी का एक रूप है। थोड़ी होगी दूरी, लेकिन थोड़ी और ज्यादा दूरी में क्या फर्क है? दूरी तो दूरी है, क्या फर्क है? एक कोस का फासला है मेरे और तुम्हारे बीच कि एक इंच का फासला है—फासला तो फासला है।
जो निकट है, वह भी दूर है। जो दूर है, वह भी निकट है। क्योंकि दूरी और निकटता एक ही मापदंड़ पर तौले जाते हैं—फासला। दोनों ही फासले के नाम हैं। दूरी और निकटता दोनों ही दूरी के नाम हैं। मित्र पास होगा, शत्रु दूर होगा। जो तुम्हें प्रिय है, पास लगता होगा। जो तुम्हें अप्रिय है, वह दूर लगता होगा। लेकिन थोड़ा गहरे खोजेंगे, तो पाएंगे ये सब संबंध हैं। और सभी संबंध दूरियों के बीच होते हैं। जिससे तुम्हारी निकटता इतनी ज्यादा हो गई कि फासला न रहा, उससे तुम्हारा कोई संबंध भी न रह जाएगा। संबंध के लिए दूरी चाहिए। तुम कहते हो यह मेरी पत्नी है, यह मेरी प्रेयसी है, यह मेरा बेटा है, यह मेरा पिता है, ये सब दूरी के नाम हैं। संबंध तो दूरी में ही तय होता है।
अगर नदी के दोनों किनारे इतने पास आ जाएं, इतने पास कि फासला ही न रहे, तो फिर बीच में सेतु बनाने की कोई जरूरत न रहेगी। और अगर नदी के किनारे इतने पास आ जाएं कि उनमें कोई फासला न रहे, तो नदी खो जाएगी और वे किनारे न रह जाएंगे, वह एक ही किनारा हो जाएगा।
हमारे सब संबंध दूरियों के नाम हैं, या दूरियों को छिपाने की तरकीबें हैं। जब हम संबंध के नाम रख लेते हैं, तो ऐसी भूल हो जाती है कि दूरी समाप्त हो गई। कहते हैं किसी को कि मेरी पत्नी है, तो ऐसा लगता है कि दूरी मिट गई। लेकिन पति और पत्नी उतनी ही दूरी पर हैं, जितनी दूरी पर कोई हो सकता है। फासला मिटता ही नहीं। फासला इस संसार में मिट ही नहीं सकता। इस संसार में तो फासले रहेंगे ही। ही, इस संसार के ऊपर जो अपनी चेतना को उठा लेता है, वह अचानक पाता है कि फासले खो गए। तब नदी किनारा हो जाती है, किनारा नदी हो जाता है। तब कोई अंतर नहीं है। तब नाव नदी हो जाती है, नदी नाव हो जाती है। तब फासले बिलकुल गिर जाते हैं, क्योंकि विपरीत के बीच में भी एक का अनुभव हो जाता है।
वह जो एक की प्रतीति है विपरीत के बीच, वह खयाल में आ सके, इसलिए ये नियम और ये सूत्र हैं।
'स्मरण रहे कि सारे संसार का पाप व उसकी लज्जा, तुम्हारी अपनी लज्जा है और तुम्हारा अपना पाप है।
इस जगत में अगर किसी को साधु होने का गौरव है, तो समझना कि वह आदमी अभी तक साधुता को समझ नहीं पाया है। और अगर कोई कहता हो कि मैं हूं पुण्यात्मा और तुम हो पापी, तो समझना कि यह आदमी बड़ी भ्रांति और बड़े अज्ञान में पड़ा है। जिसको भी प्रतीति होगी थोड़ी—सी भी जीवन के सत्य की, उसे तत्‍क्षण दिखाई पड़ेगा कि जहां भी कहीं भी कुछ हो रहा हो, मैं भी उसमें भागीदार हूं। अगर वियतनाम में युद्ध होता हो, वहां आदमी कटते हों, अगर बंगला देश में युद्ध होता हो, वहां आदमी कटते हों, या कहीं भुखमरी हो, या कहीं हत्या हो, हिंसा हो, लूट हो, तो मैं भी भागीदार हूं।
निश्चित ही सीधे—सीधे मैंने कुछ भी नहीं किया है—न तो मैं वियतनाम में युद्ध करने गया हूं न बंगला देश में किसी की हत्या की है—तो सीधा लगता है कि मेरी क्या जिम्मेवारी होगी? मेरा क्या संबंध होगा? लेकिन इस जगत में जो भी हो रहा है इस क्षण, मैं इस जगत का हिस्सा हूं। और इस जगत में जो भी कहीं प्रकट हो रहा है, उसमें मेरा हाथ है। क्‍योंकि मैं इस जगत में हूं, मेरा होना भागीदारी
है। होने मात्र से मैं भागीदार हो गया हूं। और जरूर जाने—अनजाने मैं ऐसे काम कर रहा होऊंगा, जो बहुत फासले पर होंगे, लेकिन जिनका परिणाम वहां प्रकट होता होगा।
अगर मैं कहता हूं कि मैं हिंदू हूं मुसलमान नहीं हूं तो मैं दुनिया में कलह पैदा करवा रहा हूं। भला मैं हिंदू—मुस्लिम दंगे में भाग न लूं। और जब हिंदू—मुस्लिम दंगा हो, तो यह भी हो सकता है कि मैं समझौता करवाने जाऊं। और अल्लाह—ईश्वर तेरे नाम हैं, यह भी गीत गाऊं। और लोगों में भाईचारा पैदा करवाने की कोशिश करूं। लेकिन मैं कहता हूं कि मैं हिंदू हूं दूसरा मुसलमान है, हम दोनों अलग हैं। दंगा—फसाद में मैं भागीदार नहीं होऊंगा, लेकिन दंगा—फसाद में मेरा हाथ है। नहीं मैं लड़ने जाता हूं वियतनाम में या चीन में या बंगला देश में या कहीं और, लेकिन मैं मानता हूं कि मैं भारतीय हूं तो मैं दुनिया को बांटता हूं मैं जमीन को टुकड़ों में देखता हूं। और जब मैं जमीन को टुकड़ों में देखता हूं तो युद्ध में भागीदार हो जाता हूं। दुनिया की राजनीति में जो भी कुछ हो रहा हो, या तो परोक्ष में मेरा हाथ होगा या अपरोक्ष में मेरा हाथ होगा। इधर बचने का कोई उपाय नहीं है।
सार्त्र ने कहीं कहा है कि आदमी बच नहीं सकता, वह कुछ भी करे।
यह हो सकता है कि आपके गांव में दो लोग चुनाव के लिए खड़े हों, और आप दोनों में से किसी को भी वोट न दें। पर आप यह मत सोचना कि आप बच गए, क्योंकि आपका वोट का न देना भी उतना ही निर्धारक है, जितना आपका वोट का देना होता है। यह हो सकता है कि आपके वोट के न देने से एक आदमी जीत गया, आप वोट देते तो दूसरा आदमी जीतता। तो आप दें तो कोई जीतता है, आप न दें तो कोई जीतता है। आप बच नहीं सकते, आप भाग नहीं सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैं नहीं दूंगा वोट तो मैं भागीदार नहीं हूं क्योंकि आपके न देने से किसी की जीत हो सकती है। तो फिर आप भागीदार हो गए। जरा दूरी से हुए, लेकिन भागीदार हो गए। अगर आप चुप हैं, कुछ भी नहीं बोलते, तो भी भागीदार हो सकते हैं। आपकी चुप्पी समर्थन बन सकती है। जीवित होते हुए इस संसार से बचने का कोई उपाय नहीं है।
जो व्यक्ति इस भांति अनुभव कर पाता है कि संसार में मैं जुड़ा हूं र इस संसार का सब पाप, सब पुण्य मेरा भी है, वही व्यक्ति वस्तुत: संतत्व की तरफ विकसित हो रहा है। तब न तो उसके मन में किसी की निंदा है, क्योंकि किसी की भी निंदा अपनी ही निंदा है। और तब न उसके मन में किसी की प्रशंसा है, क्योंकि किसी की प्रशंसा अपनी ही प्रशंसा है। तब निंदा और प्रशंसा के पार, जीवन को द्वंद्व से अलग हट कर देखने की क्षमता पैदा होती है। तब कोई व्यक्ति साक्षीभाव को उपलब्ध हो पाता है।
जब मैं यह अनुभव कर लेता हूं कि मेरे कर्तृत्व के जगत में मेरे मुक्त होने का कोई उपाय ही नहीं है, तभी कोई व्यक्ति कर्तृत्व से मुक्त होता है और साक्षी बनता है। साक्षी का मतलब यह है कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं और जो कुछ भी हो रहा है, उसमें मैं भी भागीदार हूं क्योंकि मैं हूं। इसलिए न तो मैं कहूंगा कि तुम पापी हो, क्योंकि मैं भी हूं। और न मैं कहूंगा कि तुम पुण्यात्मा हो, क्योंकि ये फासले ऊपरी हैं, भ्रांत हैं, खतरनाक हैं। तब तो मैं इतना ही कहूंगा कि पाप हो कि पुण्य, अच्छाई हो कि बुराई, युद्ध हो कि शांति, मैं दोनों के बीच साक्षी हूं मैं दोनों का द्रष्टा हूं।
और जो व्यक्ति साक्षी— भाव को जन्मा लेता है, वह व्यक्ति अद्वैत में प्रवेश कर जाता है। तुम ससार के एक अंग हो और तुम्‍हारे कर्मफल उस महान कर्मफल से अकाटय रूप में संबंद्ध हैं। और ज्ञान प्राप्त करने के पहले तुम्हें सभी स्थानों में से हो कर निकलना है, अपवित्र और पवित्र स्थानों में से एक ही समान।
इस जगत में चाहे बुरा हो, चाहे भला, दोनों ही साधक के लिए शिक्षण हैं। चाहे पाप हो, चाहे पुण्य, दोनों से हो कर गुजरना है और अपने को निखारना है। पाप का भी उपयोग कर लेना है और पुण्य का भी, पार जाने के लिए। पाप को भी सीढ़ी बना लेना है और पुण्य को भी, पार जाने के लिए। अगर तुम्हारे भीतर कोई बुराई हो तो उसका भी सृजनात्मक उपयोग है। उससे भी कुछ सीखा जा सकता है। और उसकी पीड़ा और उसके दुख को भोग कर भी तुम्हारे भीतर निखार आएगा—तुम जगोंगेजलोगे, पीड़ा होगी, कष्ट होगा, लेकिन वह कष्ट भी तुम्हें जगने में सहयोगी होगा। वह पीड़ा भी तुम्हें वापस उसी भूल को करने से रोकेगी। इस जगत में सभी कुछ उपयोग किया जा सकता है। और ऐसे उपयोग की समझ का नाम ही साधना है।
साधना का अर्थ नहीं है कि बुराई को छोडो, भलाई को पकड़ो। साधना का अर्थ है, बुराई में से भी सत्य की तरफ उठो, भलाई में से भी सत्य की तरफ उठो। बुराई और भलाई में मत चुनो, दोनों से अनुभव का निचोड़ ले लो और दोनों से प्रौढ़ बनो। दोनों से तुम्हारी समझ गहरी हो, तुम्हारा हृदय विस्तीर्ण हो। दोनों के बीच से तुम अपनी नाव को, अपनी नदी को बहाओ कि वह सागर तक पहुंच सके। पाप और पुण्य तुम्हारे किनारे बन जाएं।
तुम चुनना मत। अगर तुम पाप चुन लोगे तो भी किनारे को चुन लोगे और नदी में न बह पाओगे। और अगर पुण्य चुन लोगे तो भी किनारे को चुन लोगे और नदी में न बह पाओगे। और किनारे चाहे पाप के हों, चाहे पुण्य के, अपनी जगह ही बने रहते हैं, सागर तक नहीं पहुंचते। सागर तक तो नदी पहुंचती है, जो दोनों के बीच बहती है, दोनों का उपयोग कर लेती है। अगर तुम्हारे जीवन में कोई बुराई हो तो उसका भी उपयोग कर लेना। उससे भयभीत मत होना, उसका भी उपयोग कर लेना।
मेरे पास एक मित्र आए। वह कहने लगे कि मुझ से तो क्या होगा ध्यान! क्योंकि मैं तो हूं शराबी, और शराब की लत तो ऐसी पकड़ गई कि इस जन्म में छूटनी मुश्किल है। अब तो अगले जन्म तक राह देखनी पड़ेगी। छोड़ने के बहुत उपाय कर चुका, सब व्यर्थ जाते हैं। और अब तो उपाय भी छोड़ दिए, क्योंकि धीरे— धीरे संकल्प भी खो गया। और विफलता इतनी हाथ लगी कि अब तो भरोसा भी नहीं है कि कोई निर्णय लूं तो पूरा हो सकता है। इसलिए आप मुझसे यह मत कहना कि शराब छोड़ दो। अगर शराब पीते हुए ध्यान का कोई उपाय हो, तो आप मुझे कहें।
मैंने उन्हें कहा कि तुम शराब भी ध्यान के लिए ही पी रहे हो। वे सुन कर बहुत चौंके। उन्होंने कहा कि लोग ठीक ही कहते हैं कि आप खतरनाक आदमी हैं, आपके पास नहीं आना था! मैं तो सोच कर आया था कि आप कोई तरकीब बताएंगे जरूर, हिम्मत बढ़ाके, और शराब छुड़वा के। आप कहते हैं कि शराब भी ध्यान है! मैंने उनसे कहा, समझने की कोशिश करो। और अगर तुम्हें समझ में आ जाए कि शराब भी ध्यान है, तो शराब छूट भी सकती है! आखिर शराब तुम पीते किस लिए हो? शराब को भूलो, तुम पीते किसलिए हो?
कहा, कि अपने को भूलने को पीता हूं। मैंने कहा कि भूलने की आकांक्षा, ध्यान की आकांक्षा है। खोने की, डूबने की आकांक्षा, ध्यान की आकांक्षा है। तुम गलती से शराब पी रहे हो। तुम ध्यान पीना चाहते हो और शराब पी रहे हो! तो मैं तुमसे शराब छोड़ने को न कहूंगा। मैं तो तुमसे कहूंगा कि तुम शराब से सीखो, भूलने की कला, डूबने की कला। और अगर तुम्हें कला आ जाए डूबने की, भूलने की, तो तुम्हें शराब का सहारा छोड़ने में बहुत दिक्कत न रहेगी। अगर तुम बिना शराब के भी डूब सको और भूल सको, तो शराब छूट ही जाएगी। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम शराबी नहीं हो, तुम ध्यानी हो, लेकिन तुम गलत तरह का ध्यान कर रहे हो।
तो वे मुझसे कहने लगे कि फिर मैं ध्यान में आ जाऊं? लेकिन मैं वहां भी शराब पीता रहूंगा! मैंने कहा कि तुम शराब की बात ही मुझसे मत करो, तुम्हें मैं नई शराब देता हूं तुम उसे पीयो। और अगर इसका स्वाद तुम्हें जम जाए तो पुराना बे—स्वाद हो जाएगा। और जब तक नए का स्वाद ही पसंद न आए, तो पुराने को छोड़ना समझदारी भी नहीं है, सार भी नहीं है। पहले ठीक से अनुभव तो ले लो नए का। अगर नए में कुछ बल होगा...। और अगर ध्यान में इतना भी बल नहीं है कि शराब को छुडा सके, तो ध्यान परमात्मा से मिला सकेगा इस वहम में मत पड़ना। आखिर इतनी छोटी चीज भी न छूटती हो, तो ध्यान ही निर्बल है, शराब सबल है। और हमेशा सबल मित्र चुनने चाहिए, निर्बल मित्र क्या चुनने?
वे आ गए। भरोसा उन्हें नहीं था, लेकिन ध्यान में वे इतने डूब सके, जितना डूबना उन लोगों के लिए मुश्किल है, जिन्होंने कभी शराब नहीं चखी। क्योंकि डूबना तो उन्हें आता ही था। जिन्होंने कभी शराब नहीं चखी, उन्हें डूबना आता ही नहीं।
यह नहीं कह रहा हूं कि आप शराब पीने लगें। जरूरी नहीं है, उसे बिना चखे भी ध्यान में जाया जा सकता है। लेकिन अगर चखी हो, तो उसका उपयोग कर लेना उचित है।
जीवन में किसी भी अनुभव को व्यर्थ छोड़ना ठीक नहीं है, उससे सार निकाल लेना जरूरी है। वे ध्यान में गहरे डूबे और शराब खो गई। अब वे मुझे आ कर कहते हैं कि आपने मुझे धोखा दिया। आप पहले ही कह देते ऐसा, तो मैं कभी आता ही नहीं। आपने शराब छोड़ने की बात ही नहीं की। इसी वहम में मैं आ गया कि यह आदमी ठीक है, शराब छुड़वाता नहीं, ध्यान करवाता है, अपना कुछ हर्ज भी नहीं है। लेकिन अब ध्यान में रस ऐसा लग गया है कि...।
लेकिन आप चकित होंगे, उनकी पत्नी मुझे मिलने आई और उसने कहा कि यह आपने क्या कर दिया है! इससे तो वे शराबी ही ठीक थे। आप समझते हैं जिंदगी कैसी अजीब है! पत्नी कहती है, वे शराबी ही ठीक थे, क्योंकि कम से कम वे मुझसे ड़रते तो थे। अब वे ध्यानी हो गए, अब वे किसी से ड़रते भी नहीं हैं। और शराब पीते थे तो मेरा रौब भी था उन पर, वह घर में कंपते हुए घुसते थे और अपराधी भाव अनुभव करते थे और हमेशा क्षमा—याचना करते थे। अब हालत बिलकुल उलटी हो गई। और चूंकि वे शराब पीते थे, इसलिए हजार बातों में मैं उन्हें झुका लेती थी और मेरा कहना उन्हें मानना पड़ता था। अब मुझे झुकना पड़ता है और उनका कहना मानना पड़ता है।
आप पक्का मत समझना कि पत्नी कहती है कि शराब छोड़ दो, तो सच में चाहती हो कि छोड़ दो। या बाप बेटे से कहता है कि तू चोरी मत कर, तो सच में चाहता हो कि चोरी मत कर। जिंदगी जटिल है। यह तो आप छोडे, तब पता चले। तब आपके आस—पास की सारी व्यवस्था संकट में पड़ जाती है।
इस दुनिया में सारे लोग कहते हैं, अच्छे हो जाओ। लेकिन वह आपको कहते ही इसलिए हैं कि आप अच्‍छे हो नहीं पाते। और अच्‍छे हो जाओ, यह कह कर वे आपकी निंदा कर देते है और आपको दबा देते हैं। एक—दूसरे को डॉमिनेट करने का यह उपाय है। अगर आप सच में अच्छे हो जाओ, तो जो—जो आपको अच्छा बनाना चाहते थे, वे—वे सबसे पहले आपके प्रति असंतुष्ट हो जाएंगे। क्योंकि उनकी मालकियत खो जाएगी और उनके हाथ के नीचे से दबा हुआ आदमी मुक्त हो जाएगा।
तो जितने लोग कहते हैं, अच्छे हो जाओ, यह पावर पालिटिक्स है, इसके भीतर राजनीति है। लेकिन कोई किसी को अच्छा देखना नहीं चाहता। क्योंकि अच्छा देखने से ही खुद नीचा हो जाता है, दूसरा ऊपर हो जाता है। जिंदगी का जाल है।
लेकिन एक बात खयाल रखनी जरूरी है—तुम जो भी हो, जहां भी हो, वहीं से रास्ता परमात्मा तक आता है। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां से उसका रास्ता न जाता हो। इसलिए हर जगह का उपयोग कर लेना और हर अनुभव को उसकी दिशा में मोड़ देना।
बुरे से बुरा अनुभव भी उसकी दिशा में मुड़ जाता है। और पाप से पाप भरा हुआ अनुभव भी, उसकी तरफ मुड़ते ही पुण्य हो जाता है। लेकिन यह सारा का सारा आसान है करना, अगर एक बात खयाल में रहे कि इस जगत में हम अलग नहीं हैं, एक ही चैतन्य के हिस्से हैं, एक ही बड़े सागर की लहरें हैं।
आज इतना ही।




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