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शनिवार, 15 अगस्त 2015

साधना--पथ--(प्रवचन--09)

मन का अतिक्रमण—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 5 जून, 1964; संध्‍या।
मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न: ओशो सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है पर क्या आपकी बातें सत्य नहीं हैं?

मैं जो कह रहा हूं वह केवल इशारा है। उसे ही सत्य नहीं समझ लेना है। सत्य उस इशारे से बहुत दूर है।
उस इशारे को नहीं, जिस तरफ इशारा है वहां देखना है। उस तरफ देखने पर जो स्वयं दिखेगा वह सत्य है। उस सत्य को कहने का मार्ग नहीं है। वह कहते ही असत्य हो जाता है। वह अनुभव तो बनता है, पर अभिव्यक्ति नहीं बनता है।


 प्रश्न: ओशो पूर्णतया डूबने को आप कहते हैं वह हम कैसे करें?
मैं जैसा देखता हूं उस अनुभव के आधार पर आपसे कहता हूं कि डूबने से— स्वयं में डूबने से ज्यादा सरल और सुगम और कोई बात नहीं है।
उसके लिए इतना ही करना है कि चित्त की सतह पर कोई भी सहारा न पकड़े। विचार को पकड़ने से डूबना नहीं हो पाता है। उसके सहारे ही फिर हम सतह पर रह जाते हैं।
विचार को पकड़ने की हमारी आदत है। एक विचार छूटता है तो हम दूसरा पकड़ लेते हैं। पर दो विचारों के बीच में जो अंतराल, इंटरवल है, उसमें हम कभी नहीं जाते हैं। वह अंतराल ही गहराई में डूबने की राह है। विचारों में नहीं, उसमें चलें जो कि विचारों के बीच में है।
यह कैसे होगा?
यह होगा, विचार—प्रवाह के प्रति जागने से। जैसे कोई चलते राही को किनारे से खड़े होकर देखता है, ऐसे ही अपने भीतर मन की राह पर चलते विचार—यात्रियों को देखें। उन्हें देखें मात्र। उनमें से किसी का चुनाव न करें। किसी को चुनें नहीं और न किसी के प्रति कोई निर्णय लें।
असंग और अलिप्त भाव से उनके दर्शन से, उन पर बंधी हमारी मुट्ठियां खुल जाती हैं और हम विचारों पर नहीं, विचारों के बीच में जो अंतराल है, उसमें खड़े हो जाते हैं। पर अंतराल तो आधारहीन है, इसलिए उसमें खड़े होना संभव नहीं है। उसमें तो खड़े होने से ही डूबना हो जाता है। यह डूब जाना ही वास्तविक आधार को पा लेना है, क्योंकि इस भांति ही वह सत्ता मिलती है जो कि हम स्वयं हैं।
विचारों के जगत में जो आधार खोज रहा है, वह निराधार में लटका हुआ है और जो वहां स्वयं को निराधार कर लेता है, वह स्वयं के आधार को पा जाता है।

 प्रश्न : ओशो मैं मन को जीतना चाहता हूं पर वह तो एक असंभावना मालूम होती है; पर आप कहते हैं कि वह कत सरल बात है?
मैं जीत के विचार में ही जीत की असंभावना के बीज देखता हूं। वह भूल ही जीतने नहीं देती है। यदि आप अपनी ही छाया को जीतना चाहेंगे, तो क्या उसे जीत सकते हैं? छाया तो यह जानते ही कि छाया है, जीत ली जाती है। छाया को जीतना नहीं, जानना ही होता है। और छाया के संबंध में जो सच है, वही मन के संबंध में भी सच है।
मैं, आपको मन को जीतने को नहीं, जानने को कहता हूं।
बोधिधर्म से किसी ने पूछा था, प्रार्थना की थी’ मेरा मन बहुत अशांत है, कृपा करके उसे शांत करने का उपाय बता दें!' बोधिधर्म ने कहा’ कहां है तुम्हारा मन? लाओ, मैं उसे शांत कर दूं।
वह प्रार्थी बोला’यही तो मुश्किल है कि वह पकड़ में नहीं आता है।
मैं होता तो कहता कि उसे पकड़ो ही मत और जाने दो। पकड़ना चाहते हो यही अशांति है। छाया को क्या पकड़ा जा सकता है?
बोधिधर्म ने क्या कहा? उसने कहा ’लो, मैंने शांत कर दिया न?'
हम यदि अपने मन को केवल देखें और पकड़ने और जीतने में न लगें तो वह पाया ही नहीं जाता है! पहले पूछा जाता था कि क्या आप अश्व को वशीभूत करने के लिए उसे थकाना चाहते हैं, या कि लगाम को मजबूत करना चाहते हैं! मन को जीतने की ये दो पद्धतियां रही हैं। पर मैं इन दोनों में से कोई भी उत्तर नहीं देता हूं। मैं कहता हूं पहले देखो भी कि अश्व है या नहीं? जो है ही नहीं, उसे हम थकाने और बांधने लगे हैं! वे दोनों ही प्रयास असत्य हैं, क्योंकि अश्व है ही नहीं! अश्व हमारी मूर्च्छा की छाया है। मैं जाग जाऊं तो कोई अश्व नहीं है। कोई मन नहीं है, जिसे जीतना है या कि जिससे हारना है।

 प्रश्न : ओशो विचार के अपरिग्रह को आप कहते हैं क्या शुभ विचार भी संग्रह योग्य नहीं है?
दि उसे जानना है, जो कि आपका स्वरूप है, तो शुभ—अशुभ दोनों से शून्य और रिक्त हो जाना जरूरी है। शुभ—अशुभ विचार सब परिग्रह हैं। उनका आगमन बाहर से हुआ है। वे आसव हैं। उनके आच्छादन और आवरण में ही स्वरूप छिपा हुआ है।
विचार मात्र आच्छादन है। उनकी जंजीरों को तोड़ना आवश्यक है।
फिर जंजीरें लोहे की हैं या स्वर्ण की, इससे भेद नहीं पड़ता है।
जो भी बाहर से आया है, वह सब परिग्रह है। अपरिग्रह का अर्थ है चेतना की वह शुद्ध अवस्था जहां बाहर आया कोई भी प्रभाव, इंप्रेशन अनुपस्थित है। संस्कारों, कडिशनिग्स के अभाव में ही आत्मा का उदघाटन संभव होता है। उसके लिए संस्कार—शून्यता, अनकडिशंड माइंड की भूमिका चाहिए। पर हम सब तो विचारों से भरे हैं। और जो धार्मिक हैं वे तो धार्मिक विचारों से अत्याधिक भरे हुए हैं। धार्मिक होने का यही अर्थ समझा जाता है। धर्मग्रंथों से भर जाना धार्मिक होना समझा जाता है। यह बिलकुल ही भूल की बात है।
एक सदगुरु ने अपने एक विद्वान शिष्य से कभी कहा था और सब तो बिलकुल ठीक है, केवल एक भूल ही और तुममें रह गई है।वह शिष्य बहुत दिन तक सोचता रहा, पर उसे अपने आचरण में तो कोई भूल नहीं दिखाई पड़ती थी। उसने गुरु से पूछा। तब गुरु ने कहा.’धर्म तुममें बहुत ज्यादा भरा हुआ है, उससे तुम बहुत भरे हुए हो! यू हैव ऑल टुगेदर टू मच ऑफ रिलिजन, यही एक भूल और शेष रह गई है। और यह कोई छोटी भूल नहीं है।
धर्म तो क्या ज्यादा हो सकता है, धर्मशास्त्र ज्यादा हो सकते हैं। धार्मिक विचार ज्यादा भरे हुए हो सकते हैं। उनसे भरा हुआ चित्त इतना भारी होता है कि सत्य के आकाश में उड़ान नहीं भर सकता है! इसलिए मैं खाली हो जाने को कहता हूं। विचार मात्र से अपने को खाली कर लो— संस्कार मात्र से अपने को शून्य कर लो और फिर देखो कि उस शून्य में क्या घटित होता है? उस शून्य में जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार, मिरेकल घटित होता है। वह शून्य आपको स्वयं के आमने—सामने कर देता है। इससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं है, क्योंकि आप स्वयं के सामने होते ही परमात्मा के सामने हो जाते हैं।

 प्रश्न: ओशो मैं मूर्ति— पूजक हूं पर आपके विचारों से ज्ञात होता है कि मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं है क्या मैं मूर्ति— पूजा छोड़ दूं?
मैं कुछ भी छोड़ने या पकड़ने को नहीं कहता। मैं तो आप जागे, इसके लिए पुकार रहा हूं। जाग जाने पर स्वप्न छूट जाए तो बात दूसरी है। चेतना के तल के साथ ही सब व्यवहार बदल जाता है। बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उनके गुड्डा—गुड्डियों के खेल अपने आप ही छूट जाते हैं। उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता है, वे छूट ही जाते हैं।
एक गांव के अंत पर एक साधु रहता था। अकेला एक झोपड़े में, जिसमें कि द्वार भी नहीं थे और कुछ भी नहीं था, जिसके लिए कि द्वारों की आवश्यकता हो! एक दिन कुछ सैनिक उधर आए। वे उस झोपड़े में जल मांगने गए। उनमें से किसी ने साधु से पूछा आप कैसे साधु हैं? आपके पास भगवान की कोई मूर्ति भी नहीं दिखाई पड़ती है। वह साधु बोला’ यह झोपड़ा देखते हैं कि बहुत छोटा है। इसमें दो के रहने के योग्य स्थान कहां है?' उसकी यह बात सुन कर वे सैनिक हंसे और दूसरे दिन भगवान की एक मूर्ति लेकर उसे भेंट करने लगे। पर उस साधु ने कहा मुझे भगवान की मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि बहुत दिन हुए तब से वे ही यहां रहते हैं,’मैं' तो मिट गया हूं। देखते नहीं हैं कि यहां दो के रहने योग्य स्थान नहीं है?' और उन सैनिकों ने देखा कि वह अपने हृदय की ओर इशारा कर रहा था। वही उसका झोपड़ा था।
परमात्मा अमूर्त है। शक्ति अमूर्त ही हो सकती है। वह निराकार है। चेतना का आकार नहीं हो सकता। वह असीम है। सर्व, टोटेलिटी की कोई सीमा नहीं हो सकती है। वह अनादि है, अनंत है, क्योंकि’जो है' उसका आदि—अंत तक नहीं हो सकता है।
और हम कैसे बच्चे हैं कि उसकी भी मूर्तियां बना लेते हैं? और फिर इन स्व—निर्मित मूर्तियों की पूजा करते हैं।
मनुष्य ने अपनी ही शकल में परमात्मा को गढ़ लिया है और फिर इस भांति अपनी ही पूजा स्वयं ही किया करता है। आत्मवचना, अहंकार और अज्ञान की यह अति है।
भगवान की पूजा नहीं करनी होती है, भगवान को जीना होता है। उसकी मंदिर में नहीं, जीवन में प्रतिष्ठा करनी होती है। वह हृदय में विराजमान हो और श्वास—श्वास में परिव्याप्त हो जाए, ऐसी साधना करनी होती है। और इसके लिए जरूरी है कि मैं' विलीन हो! उसके रहते प्रभु—प्रवेश नहीं हो सकता है। कबीर ने कहा है न कि प्रेम की वह गली अति सांकरी' है और इसलिए उसमें दो नहीं बन सकते!
एक रात्रि मैं देर तक दीया जलाए पढ़ता था। फिर दीया बुझाया तो हैरान हो गया। बाहर पूरा चांद था। पर मेरे दीये के टिमटिमाते प्रकाश के कारण उसकी चांदनी भीतर नहीं आ पा रही थी। यहां दीया बुझा ही था कि चांद ने अपने अमृत—प्रकाश से मेरे कक्ष को आलोकित कर दिया था। उस दिन जाना था कि’ मैं' का दीया जब तक जलता रहता है, तब तक प्रभु—प्रकाश द्वार पर ही प्रतीक्षा करता है। और उसके बुझते ही वह प्रविष्ट हो जाता है। उसका—’मैं' का बुझना, निर्वाण ही, प्रभु—प्रकाश का— प्रभु का आना भी है।
भगवान की मूर्ति मत बनाओ,’मैं' की मूर्ति तोड़ दो। उसका अभाव ही भगवान का सदभाव है।

 आज इतना ही।



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