दिनांक, 3
फरवरी; 1968; रात्रि।
साधना—शिविर—आजोल।
मनुष्य
का जीवन कैसे
आत्म—केंद्रित
हो,
कैसे वह
स्वयं का
अनुभव कर सके,
कैसे आत्म—उपलब्धि
हो सके, इस
दिशा में आज
दिन की दो
चर्चाओं में
थोड़ी सी बात
हुई है। कुछ
बातें और पूछी
गई हैं।
उन्हें समझने
के लिए मैं
तीन सूत्रों
पर और अभी
आपसे बात
करूंगा। जो
प्रश्न आज की
चर्चा से
संबंधित नहीं
हैं, उनकी
कल और परसों
आपसे बात
करूंगा। जो
प्रश्न आज की
चर्चा से
संबंधित हैं,
उन्हें मैं
तीन सूत्रों
में बांट कर
आपसे बात करता
हूं।
पहली
बात मनुष्य
स्वनिष्ठ, आत्म—केंद्रित
या नाभि के
केंद्र से
जीवन की प्रक्रिया
को कैसे शुरू
करे? तीन
और सूत्र
महत्वपूर्ण
हैं, जिनके
माध्यम से
नाभि पर सोई
हुई ऊर्जा जाग
सकती है और
नाभि के द्वार
से मनुष्य
शरीर से भिन्न
जो चेतना है, उसके अनुभव
को उपलब्ध हो
सकता है।
उनमें तीन
सूत्रों को
पहले आपसे
कहूं फिर उनकी
आपसे बात करूं।
पहला
सूत्र है
सम्यक
व्यायाम।
दूसरा सूत्र
है : सम्यक
आहार। और
तीसरा सूत्र
है सम्यक
निद्रा।
जो
व्यक्ति ठीक—ठीक
श्रम से, ठीक—ठीक
आहार से, और
ठीक—ठीक
निद्रा से
वंचित हो जाता
है, वह कभी
भी नाभि—केंद्रित
नहीं हो सकता
है। और इन
तीनों ही
चीजों से
मनुष्य—जाति
वंचित हो गई
है!
मनुष्य
अकेला प्राणी
है,
जिसके आहार
का कोई ठिकाना
नहीं रहा है।
बाकी सभी
प्राणियों के
आहार
सुनिश्चित
हैं। उनकी मूल
प्रवृत्ति, उनकी
प्रकृति
निर्धारित
करती है कि वे
क्या खाएं और
क्या न खाएं, और कितना
खाएं और कितना
न खाएं, और
कब खाएं और कब
खाने से रुक
जाएं। लेकिन
मनुष्य
बिलकुल ही
इनडिटर्मिनेट
है, वह
बिलकुल
अनिश्चित है।
न तो उसकी
प्रकृति कुछ
कहती है कि वह
क्या खाए। न
उसका बोध कहता
है कि वह
कितना खाए। न
उसकी समझ कोई
निर्धारण
करती है कि वह
कब रुक जाए।
ये कोई भी
बातें मनुष्य
की सब
निर्धारित न
होने से
मनुष्य का
जीवन बहुत
अनिश्चित
दिशाओं में प्रवृत्त
हुआ है। लेकिन
थोड़ी भी समझ
हो, थोड़ी
भी
बुद्धिपूर्वक,
थोड़े भी
विचार से, थोड़े
भी आख खोल कर
आदमी जीना
शुरू करे, तो
आहार को सम्यक
कर लेना जरा
भी कठिन नहीं
है, अत्यंत
आसान बात है।
उससे ज्यादा
आसान कोई बात
नहीं हो सकती।
सम्यक आहार को
दो—तीन टुकड़ों
में बांट कर
समझ लेना
चाहिए।
पहली
तो बात, मनुष्य
क्या खाए, क्या
न खाए? शरीर
तो रासायनिक
तत्वों से
निर्मित होता
है। शरीर की
सारी
प्रक्रिया तो
अत्यंत
रासायनिक, अत्यंत
केमिकल है।
अगर एक आदमी
के भीतर शराब
डाल दी जाए, तो शरीर उस
रसायन के
प्रति
प्रवृत्त
होगा—नशे से, मूर्च्छा से
भर जाएगा। फिर
चाहे वह
व्यक्ति
कितना ही
स्वस्थ, कितना
ही शांत क्यों
न हो, नशे
की
रासायनिकता
उसके शरीर पर
परिणाम लाएगी।
चाहे वह
व्यक्ति
कितना ही साधु
क्यों न हो, जहर उसे
पिला दिया जाए
तो उसकी
मृत्यु हो
जाएगी।
सुकरात
की मृत्यु जहर
के पिला देने
से हो गई और
गांधी की
मृत्यु एक
गोली के मार
देने से हो गई।
गोली यह नहीं
देखती है कि
यह आदमी साधु
है या असाधु
है। और जहर भी
यह नहीं देखता
है कि यह आदमी
सुकरात है या
कोई साधारणजन
है। न ही नशे
यह देखते हैं, न
भोजन यह देखता
है कि आप कौन
हैं और क्या
हैं। उसके तो
सीधे सूत्र
हैं, वे
शरीर की
केमिस्ट्री
में, शरीर
के रसायन में
जाकर काम करना
शुरू कर देते
हैं।
ऐसा
कोई भी भोजन
जो मादक है, मनुष्य
की चेतना में
बाधा डालना
शुरू करता है।
ऐसा कोई भी
भोजन जो
उत्तेजक है, मनुष्य की
चेतना को
नुकसान
पहुंचाना
शुरू करता है।
ऐसा कोई भी
भोजन जो
मनुष्य को
किसी भी तरह
की मूर्च्छा
में, उत्तेजना
में, किसी
भी तरह की
तीव्रता में,
किसी भी तरह
के विक्षेप
में ले जाता
हो, वह सभी
नुकसान करता
है। और उस
सबका अंतिम
नुकसान और
गहरे से गहरा
नुकसान नाभि—केंद्र
पर पहुंचना
शुरू हो जाता
है।
यह
शायद आपको
खयाल न हो, सारी
दुनिया में
नेचरोपैथी, या नैसर्गिक
उपचार—मिट्टी
की पट्टियों
का, शाकाहारी
भोजन का, हलके
भोजन का, पानी
की पट्टियों
का, टब—बाथ
का प्रयोग
करते हैं।
लेकिन किसी भी
नेचरोपैथ को
अभी यह खयाल
में बात नहीं
आई है कि पानी
की पट्टियों
का, मिट्टी
की पट्टियों
का, या टब—
बाथ का जो भी
परिणाम होता
है, वह
पानी का उतना
नहीं है, न
मिट्टी का
उतना है, बल्कि
नाभि—केंद्र
के ऊपर उनका
जो परिणाम
होता है, उसके
कारण वे सारे
प्रभाव पड़ते
हैं। वे
प्रभाव न तो
मिट्टी के हैं
उतने, न
पानी के हैं, न टब—बाथ के
हैं। लेकिन ये
सारी चीजें
नाभि—केंद्र
की छिपी हुई
ऊर्जा को जिस
भांति प्रभावित
करती हैं और
वह यदि जाग्रत
हो जाए तो
मनुष्य के
जीवन में
स्वास्थ्य का
अवतरण शुरू हो
जाता है।
लेकिन
अभी
नेचरोपैथी को
इसका कोई खयाल
नहीं है। वे
सोचते हैं कि
शायद मिट्टी
की पट्टी
चढ़ाने से यह
फायदा हो रहा
है,
पानी में
बिठाने से यह
फायदा हो रहा
है, पेट पर
कपड़े की गीली
पट्टी लगाने
से यह फायदा हो
रहा है! इसके
फायदे हैं, लेकिन मौलिक
फायदा तो नाभि—केंद्र
के सुप्त
केंद्रों के
जागरण से शुरू
होता है। यह
जो नाभि—केंद्र
है, इसके
ऊपर अगर
अनाचार किया
जाए, इस
नाभि—केंद्र
के ऊपर अगर
गलत आहार, गलत
भोजन किया जाए,
तो वह धीरे—
धीरे केंद्र
सुप्त होता है
और उसकी ऊर्जा
क्षीण होती है।
वह धीरे— धीरे
केंद्र सोता
है। अंततः वह
करीब—करीब सो
जाता है। उसका
हमें कोई पता
ही नहीं चलता
कि वह भी कोई केंद्र
है। हमें फिर
दो ही
केंद्रों का
पता चलता रहता
है। एक तो
मस्तिष्क में,
जहां विचार
दौड़ते रहते
हैं और एक
थोड़े हृदय में,
जहां
भावनाएं
दौड़ती रहती
हैं। उसके
नीचे हमारे
कोई संबंध
नहीं रह जाते।
जितना हलका
आहार होगा, जितना कम
बोझिल आहार
होगा, शरीर
के ऊपर जो बोझ
न लाता हो, उतना
ही कीमती और
अर्थपूर्ण
आपकी अंतर्यात्रा
प्रारंभ होगी।
तो
सम्यक आहार का
पहला तो ध्यान
रखना यह है कि वह
उत्तेजक न हो, मादक
न हो, वह
भारी न हो।
ठीक भोजन के
बाद आपको
बोझिलता और
भारीपन अनुभव
नहीं होना
चाहिए। लेकिन
शायद भोजन के
बाद हम सभी को
भारीपन और बोझिलता
अनुभव होती है।
तो हम गलत
भोजन कर रहे
हैं, यह
हमें जान लेना
चाहिए।
एक
बहुत बड़े
डॉक्टर ने, केनेथ
वाकर ने अपनी
आत्म—कथा में
लिखा है कि
मैं अपने जीवन
भर के अनुभव से
यह कहता हूं
कि लोग जो
भोजन करते हैं,
उनमें से
आधे भोजन से
उनका पेट भरता
है और आधे भोजनों
से हम
डॉक्टरों का
पेट भरता है।
अगर वे आधा
भोजन करें, तो वे बीमार
ही नहीं
पड़ेंगे और हम
डॉक्टरों की
कोई जरूरत
नहीं रह जाएगी।
कुछ
लोग इसलिए
बीमार रहते
हैं कि उन्हें
पूरा भोजन
नहीं मिलता।
और कुछ लोग
इसलिए बीमार
रहते हैं कि
उन्हें ज्यादा
भोजन मिल जाता
है। कुछ लोग
भूख से मरते
हैं,
कुछ लोग
भोजन से मरते हैं।
और भोजन से
मरने वालों की
संख्या भूख से
मरने वालों की
संख्या से
हमेशा ज्यादा
रही है। भूख
से मरने वाले
बहुत कम लोग
हैं। एक आदमी
भूखा भी रहना
चाहे तो कम से
कम तीन महीने
तक उसके मरने
की बहुत कम
संभावना है।
तीन महीने तक
तो कोई भी
आदमी भूखा रह
सकता है। लेकिन
एक आदमी अगर
तीन महीने तक
अति भोजन करे,
तो कोई हालत
में जिंदा
नहीं रह सकता
है।
लेकिन
ऐसे—ऐसे लोग
हुए हैं कि
जिनका खयाल ही
हमें हैरानी
से भर देता है।
नीरो हुआ है
एक बहुत बड़ा
बादशाह। उसने
दो डॉक्टर लगा
रखे थे कि वह
भोजन करने के बाद
उसे वॉमिट
करवा दें, उसे
उल्टी करवा
दें, ताकि
दिन में वह कम
से कम पंद्रह—बीस
बार भोजन करने
का आनंद ले
सके। तो वह
खाना खाता, फिर दवा
देकर उसे उलटी
करवा दी जाती,
ताकि वह फिर
से भोजन का
आनंद ले सके!
हम
भी क्या कर
रहे हैं? उसने
डॉक्टर घर रख
छोड़े थे, वह
बादशाह था।
हमने पड़ोस में
बसा रखे हैं, हम बादशाह
नहीं हैं। वह
रोज उलटी करवा
लेता था, हम
दो—चार महीने
में करवाते
हैं। लेकिन हम
करवाते क्या
हैं? हम
गलत खाकर
इकट्ठा कर
लेते हैं, फिर
डॉक्टर उसको
साफ करता है।
फिर हम गलत
खाना शुरू कर
देते हैं। वह
होशियार आदमी
था, उसने
रोज ही
व्यवस्था कर
ली थी। हम दों—तीन
महीने में
करते हैं। अगर
हम भी बादशाह
होते तो हम भी
ऐसा ही करते।
यह हमारी
मजबूरी है, हमारे पास
इतनी सुविधा
नहीं है, तो
हम इतना नहीं
कर पाते। नीरो
पर हमें हंसी
आती है, लेकिन
हम सब छोटी—मोटी
मात्रा में
नीरो से भिन्न
नहीं हैं।
यह
जो,
यह जो हमारी
असम्यक
दृष्टि है
भोजन के प्रति,
यह भारी
पड़ती चली जा
रही है। यह
बहुत महंगी
पड़ती चली जा
रही है। और यह
उस जगह हमको
पहुंचा दिए है,
जहां कि हम
किसी तरह
जिंदा हैं।
भोजन हमारा
हमें
स्वास्थ्य
लाता हुआ नहीं
मालूम पड़ता, बल्कि भोजन
बीमारी लाता
हुआ मालूम
पड़ता है। और
जब भोजन
बीमारी लाने
लगे तो
आश्चर्य की
घटना शुरू हो
गई।
यह
वैसे ही है कि
सूरज सुबह
निकले और
अंधकार हो जाए।
यह उतनी ही
आकस्मिक और
आश्चर्यजनक
घटना है।
लेकिन दुनिया
के सारे
चिकित्सकों
का मत यह है कि
आदमी की
अधिकतम
बीमारियां
उसके गलत भोजन
की बीमारियां
हैं।
तो
पहली बात, प्रत्येक
व्यक्ति को इस
संबंध में
बहुत बोध और
होश से चलना
चाहिए—साधक के
लिए मैं कह
रहा हूं यह—साधक
को यह ध्यान
में रखना
जरूरी है कि
वह क्या खाता
है, कितना
खाता है और
उसके परिणाम
उसके शरीर पर
क्या हैं? और
अगर एक आदमी
दो—चार महीने
ध्यानपूर्वक
प्रयोग करे, तो वह अपने
योग्य, अपने
शरीर को समता
और शांति और
स्वास्थ्य
देने वाले
भोजन की तलाश
जरूर कर लेगा।
इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन हम
ध्यान ही नहीं
देते हैं, इसलिए
हम कभी तलाश
ही नहीं कर
पाते। हम कभी
खोज ही नहीं
पाते।
दूसरी
बात,
भोजन के
संबंध में, जो हम खाते
हैं, उससे
भी ज्यादा
महत्वपूर्ण
यह है कि हम
उसे किस भाव—दशा
में खाते हैं।
उससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। आप क्या
खाते हैं, यह
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना
यह
महत्वपूर्ण
है कि आप किस
भाव—दशा में
खाते हैं। आप
आनंदित खाते
हैं, या
दुखी, उदास
और चिंता से
भरे हुए खाते
हैं। अगर आप
चिंता से खा
रहे हैं, तो
श्रेष्ठतम
भोजन के
परिणाम भी
पायजनस होंगे,
जहरीले
होंगे। और अगर
आप आनंद से खा
रहे हैं, तो
कई बार
संभावना भी है
कि जहर भी आप
पर पूरे परिणाम
न ला पाए।
इसकी बहुत
संभावना है।
आप कैसे खाते
हैं, किस
चित्त—दशा में?
रूस
में एक बहुत
बड़ा मनोवैज्ञानिक
था पीछे, पावलफ।
उसने जानवरों
पर कुछ प्रयोग
किए और वह उस
नतीजे पर
पहुंचा, जो
बड़े हैरानी का
है। वह कुछ
कुत्तों पर
प्रयोग कर रहा
था, कुछ
बिल्लियों पर
प्रयोग कर रहा
था। उसने एक
बिल्ली को
भोजन दिया और
सामने उसके एक्सरे
मशीन लगा रखी
थी, जिससे
वह देख रहा था
कि उस— उस
बिल्ली के पेट
में क्या हो
रहा है भोजन
के बाद। भोजन
पेट में गया
और भोजन के
जाते ही पेट
ने उस भोजन को
पचाने वाले रस
छोड़े। तभी एक
कुत्ते को भी
खिड़की के भीतर
ले आया गया।
कुत्ता भौंका,
बिल्ली देख
कर डर गई और
एक्सरे की
मशीन ने बताया
कि उसके रस
भीतर छूटने
बंद हो गए! पेट
बंद हो गया, सिकुड़ गया!
फिर
कुत्ते को
बाहर निकाल
दिया गया, लेकिन
छह घंटे तक
पेट उसी हालत
में पड़ा रहा!
फिर भोजन के
पचाने की
क्रिया शुरू
नहीं हुई! और छह
घंटे में भोजन
सब शांत हो
गया। और छह
घंटे के बाद
जब रस छूटने
शुरू हुए तो
वह भोजन सब
ठंडा हो चुका
था। उस भोजन
को पचाना कठिन
हो गया था।
बिल्ली के मन
में चिंता पकड़
गई कुत्ते की
मौजूदगी और
पेट ने अपना
काम बंद कर
दिया।
हमारी
हालत क्या
होगी? हम तो
चिंता में ही
चौबीस घंटे
जीते हैं। तो
हम जो भोजन
करते होंगे, वह कैसे पच
जाता है यह
मिरेकल है, यह बिलकुल
चमत्कार है।
यह भगवान कैसे
करता है, हमारे
बावजूद करता
है यह। हमारी
कोई इच्छा
उसके पचने की
नहीं है। यह
कैसे पच जाता
है, यह
बिलकुल
आश्चर्य है!
और हम कैसे
जिंदा रह लेते
हैं, यह भी
एक आश्चर्य
है! भाव—दशा— आनंदपूर्ण,
प्रसादपूर्ण
निश्चित ही होनी
चाहिए।
लेकिन
हमारे घरों
में हमारे
भोजन की जो
टेबल है या
हमारा चौका जो
है,
वह सबसे
ज्यादा
विषादपूर्ण
अवस्था में है।
पत्नी दिन भर
प्रतीक्षा
करती है कि
पति कब घर खाने
आ जाए। चौबीस
घंटे का जो भी
रोग और बीमारी
इकट्ठी हो गई
है, वह पति
की थाली पर ही
उसकी निकलती
है। और उसे
पता नहीं कि
वह दुश्मन का
काम कर रही है।
उसे पता नहीं,
वह जहर डाल
रही है थाली
में।
और
पति भी घबड़ाया
हुआ,
दिन भर की
चिंता से भरा
हुआ थाली पर
किसी तरह भोजन
को पेट में
डाल कर हट
जाता है! उसे
पता नहीं है
कि एक अत्यंत
प्रार्थनापूर्ण
कृत्य था, जो
उसने इतनी
जल्दी में
किया है और
भाग खड़ा हुआ
है। यह कोई
ऐसा कृत्य
नहीं था कि
जल्दी में
किया जाए। यह
उसी तरह किए
जाने योग्य था,
जैसे कोई
मंदिर में
प्रवेश करता
है, जैसे
कोई
प्रार्थना
करने बैठता है,
जैसे कोई
वीणा बजाने
बैठता है।
जैसे कोई किसी
को प्रेम करता
है और उसे एक
गीत सुनाता है।
यह उससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
था। वह शरीर
के लिए भोजन
पहुंचा रहा था।
यह अत्यंत
आनंद की भाव—दशा
में ही
पहुंचाया
जाना चाहिए।
यह एक
प्रेमपूर्ण
और
प्रार्थनापूर्ण
कृत्य होना
चाहिए।
जितने
आनंद की, जितने
निश्चित और
जितने उल्लास
से भरी भाव—दशा
में कोई भोजन
ले सकता है, उतना ही
उसका भोजन
सम्यक होता
चला जाता है।
हिंसक
भोजन यही नहीं
है कि कोई
आदमी
मांसाहार करता
हो। हिंसक
भोजन यह भी है
कि कोई आदमी
क्रोध से आहार
करता हो। ये
दोनों ही
वायलेट हैं, ये
दोनों ही
हिंसक हैं।
क्रोध से भोजन
करते वक्त, दुख में, चिंता
में भोजन करते
वक्त भी आदमी
हिंसक आहार ही
कर रहा है।
क्योंकि उसे
इस बात का पता
ही नहीं है कि
वह जब किसी और
का मांस लाकर
खा लेता है, तब तो हिंसक
होता ही है, लेकिन जब
क्रोध और
चिंता में
उसका अपना
मांस भीतर
जलता हो, तब
वह जो भोजन कर
रहा है, वह
भी अहिंसक
नहीं हो सकता
है। वहां भी
हिंसा मौजूद
है।
सम्यक
आहार का दूसरा
हिस्सा है कि
आप अत्यंत शांत, अत्यंत
आनंदपूर्ण
अवस्था में
भोजन करें। और
अगर ऐसी
अवस्था न मिल
पाए, तो
उचित है कि
थोड़ी देर भूखे
रह जाएं, उस
अवस्था की
प्रतीक्षा
करें। जब मन
पूरा तैयार हो,
तभी भोजन पर
उपस्थित होना
जरूरी है।
कितनी देर मन
तैयार नहीं
होगा? मन
के तैयार होने
का अगर खयाल
हो, तो एक
दिन मन भूखा
रहेगा, कितनी
देर भूखा
रहेगा? मन
को तैयार होना
पड़ेगा। मन
तैयार हो जाता
है, लेकिन
हमने कभी उसकी
फिकर नहीं की
है। हमने भोजन
डाल लेने को
बिलकुल
मैकेनिकल, एक
यांत्रिक
क्रिया बना
रखी है कि
शरीर में भोजन
डाल देना है
और उठ जाना है।
वह कोई
साइकोलॉजिकल
प्रोसेस, वह
कोई मानसिक
प्रक्रिया
नहीं रही है।
यह घातक बात
है।
शरीर
के तल पर
सम्यक आहार
स्वास्थ्यपूर्ण
हो,
अनुत्तेजनापूर्ण
हो, अहिंसक
हो और चित्त
के आधार पर आनंदपूर्ण
चित्त की दशा
हो, प्रसादपूर्ण
मन हो, प्रसन्न
हो, और
आत्मा के तल
पर कृतज्ञता
का बोध हो, धन्यवाद
का भाव हो। ये
तीन बातें
भोजन को सम्यक
बनाती हैं।
मुझे
भोजन उपलब्ध
हुआ है, यह
बहुत बड़ी
धन्यता है।
मुझे एक दिन
और जीने को
मिला है, यह
बहुत बड़ा
ग्रेटिटयूड
है। आज सुबह
मैं फिर जीवित
उठ आया हूं।
आज फिर सूरज
ने रोशनी की
है। आज फिर
चांद मुझे
देखने को
मिलेगा। आज
मैं फिर जीवित
हूं। जरूरी
नहीं था कि
मैं आज जीवित
होता। आज मैं
कब में भी हो
सकता था, लेकिन
आज मुझे फिर
जीवन मिला है।
और मेरे
द्वारा कुछ भी
कमाई नहीं की
गई है, जीवन
पाने को। जीवन
मुझे मुफ्त
में मिला है।
इसके लिए कम
से कम धन्यवाद
का, मन में
अनुग्रह का, ग्रेटिटयूड
का कोई भाव
होना चाहिए।
भोजन
हम कर रहे हैं, पानी
हम पी रहे हैं,
श्वास हम ले
रहे हैं, इस
सबके प्रति
अनुग्रह का
बोध होना
चाहिए। समस्त
जीवन के प्रति,
समस्त जगत
के प्रति, समस्त
सृष्टि के
प्रति, समस्त
प्रकृति के
प्रति, परमात्मा
के प्रति एक
अनुग्रह का
बोध होना चाहिए
कि मुझे एक
दिन और जीवन
का मिला है।
मुझे एक दिन
और भोजन मिला
है। मैंने एक
दिन और सूरज
देखा। मैंने
आज और फूल
खिले देखे। आज
मैं और जीवित
था।
रवींद्रनाथ
की मृत्यु आई, उसके
दो दिन पहले
उन्होंने कहा—उन्होंने
कहा कि हे
परमात्मा, मैं
कितना
अनुगृहीत हूं
कैसे कहूं!
तूने मुझे जीवन
दिया, जिसे
जीवन पाने की
कोई भी
पात्रता न थी।
तूने मुझे
श्वासें दीं,
जिसके
श्वास पाने का
कोई अधिकार न
था। तूने मुझे
सौंदर्य के, आनंद के
अनुभव दिए, जिनके लिए
मैंने कोई भी
कमाई न की थी।
तो मैं धन्य
रहा हूं और
तेरे बोझ से, अनुग्रह के
बोझ से दब गया
हूं। और अगर
तेरे इस जीवन
में मैंने कोई
दुख पाया हो, कोई पीड़ा
पाई हो, कोई
चिंता पाई हो,
तो वह मेरा
कसूर रहा होगा।
तेरा जीवन तो
बहुत—बहुत आनंदपूर्ण
था। वह मेरी
कोई भूल रही
होगी। तो मैं
नहीं कहता हूं
तुझसे कि मुझे
मुक्ति दे दे
जीवन से। अगर
तू मुझे फिर
से योग्य समझे
तो बार—बार
मुझे जीवन में
भेज देना।
तेरा जीवन
अत्यंत आनंदपूर्ण
था और मैं अनुगृहीत
हूं।
यह
जो भाव है, यह
जो कृतज्ञता
का भाव है, वह
समस्त जीवन के
साथ संयुक्त
होना चाहिए।
आहार के साथ
तो बहुत विशेष
रूप से। तो ही
आहार सम्यक हो
पाता है।
दूसरी
बात है सम्यक
श्रम। वह भी
जीवन से
विच्छिन्न हो
गया है, वह भी
अलग हो गया है।
श्रम एक
लज्जापूर्ण
कृत्य हो गया
है, वह एक
शर्म की बात
हो गई है।
पश्चिम के एक
विचारक
आल्वेयर कामू
ने अपने एक
पत्र में मजाक
में लिखा है
कि एक जमाना
ऐसा भी आएगा
कि लोग अपना
प्रेम भी नौकर
के द्वारा करवा
लेंगे। अगर
किसी को किसी
से प्रेम हो
जाएगा, तो
एक नौकर लगा
देगा बीच में
कि तू मेरी
तरफ से प्रेम
कर आ। यह
संभावना किसी
दिन घट सकती
है। क्योंकि
और सब तो हम
दूसरों से
करवाना शुरू कर
दिए हैं, सिर्फ
प्रेम भर एक
बात रह गई है, जो हम खुद ही
करते हैं।
प्रार्थना
हम दूसरे से
करवाते हैं।
एक पुरोहित को
रखवा लेते हैं।
कहते हैं, हमारी
तरफ से
प्रार्थना कर
दो, हमारी
तरफ से यज्ञ
कर दो। मंदिर
में एक पुजारी
पाल लेते हैं,
उससे कहते
हैं कि तुम
हमारी तरफ से
पूजा कर देना।
प्रार्थना और
पूजा भी हम
नौकरों से
करवा लेते
हैं! तो कोई
आश्चर्य नहीं
है कि जब
परमात्मा से
प्रेम का
कृत्य हम
नौकरों से
करवा लेते हैं,
तो कोई बहुत
कठिन नहीं है
कि किसी दिन
समझदार आदमी अपना
प्रेम भी
नौकरों से
करवा लें।
इसमें कौन सी
कठिनाई है? और जो नहीं
नौकरों से
करवा सकेंगे,
वे लज्जित
होंगे कि हम
गरीब आदमी हैं,
हमको खुद ही
अपना प्रेम
करना पड़ता है।
ठीक भी है, यह
संभव हो सकता
है। क्योंकि
जीवन में और
बहुत कुछ
महत्वपूर्ण
है, जो
हमने नौकरों
से करवाना
शुरू कर दिया
है! और हमें इस
बात का पता ही
नहीं है कि
उसको खोकर हमने
क्या खो दिया
है।
सारे
जीवन की जो भी
शक्ति है, वह
सब खो गई है।
क्योंकि
मनुष्य का
शरीर, मनुष्य
के प्राण किसी
विशिष्ट श्रम
के लिए निर्मित
हैं और उस
सारे श्रम से
उसे खाली छोड़
दिया गया है।
सम्यक श्रम भी
मनुष्य की
चेतना और
ऊर्जा को जगाने
के लिए
अनिवार्य
हिस्सा है।
अब्राहम
लिंकन एक दिन
सुबह—सुबह
अपने घर बैठा
अपने जूतों पर
पॉलिश करता था।
उसका एक मित्र
आया और उस
मित्र ने कहा
लिंकन, यह
क्या करते हो?
तुम खुद ही
अपने जूतों पर
पॉलिश करते हो?
लिंकन ने
कहा तुमने
मुझे हैरानी
में डाल दिया।
तुम क्या
दूसरों के
जूतों पर
पॉलिश करते हो?
मैं अपने ही
जूतों पर
पॉलिश कर रहा
हूं। तुम क्या
दूसरों के
जूतों पर
पॉलिश करते हो?
उसने कहा कि
नहीं—नहीं, मैं तो
दूसरों से
करवाता हूं।
लिंकन ने कहा
दूसरों के
जूतों पर
पॉलिश करने से
भी बुरी बात
यह है कि तुम
किसी आदमी से
जूते पर पॉलिश
करवाओ।
इसका
मतलब क्या है? इसका
मतलब यह है कि
जीवन से सीधे
संबंध हम खो रहे
हैं। जीवन के
साथ हमारे
सीधे संबंध
श्रम के संबंध
हैं। प्रकृति
के साथ हमारे
सीधे संबंध
हमारे श्रम के
संबंध हैं।
कनफ्यूशियस
के जमाने में—कोई
तीन हजार वर्ष
पहले—कनक्यूशियस
एक गांव में
घूमने गया था।
उसने एक बगीचे
में एक माली
को देखा। एक
का माली कुएं
से पानी खींच
रहा है। बूढ़े
माली का कुएं
से पानी
खींचना बड़ा
कष्टपूर्ण है।
वह बुड्डा लगा
हुआ है पानी
को......जहां बैल
लगाए जाते हैं,
वहां बुडु[
लगा हुआ है और
उसका जवान
लड़का लगा हुआ
है। वे दोनों
पानी खींच रहे
हैं! वह बूढ़ा
बहुत का है।
कनक्यूशियस
को खयाल हुआ
कि क्या इस
बूढ़े को अब तक
पता नहीं है
कि बैलों या
घोड़ों से पानी
खींचा जाने
लगा है। यह
खुद ही लगा
हुआ खींच रहा
है। यह कहां
के पुराने ढंग
को अख्तियार
किए हुए है।
तो वह के आदमी
के पास
कनक्यूशियस
गया और उससे बोला
कि मेरे
मित्र! क्या
तुम्हें पता
नहीं है, नई
ईजाद हो गई है।
लोग घोड़े और
बैलों को जोत
कर पानी खींचते
हैं, तुम
खुद लगे हुए
हो?
उस
के ने कहा
धीरे बोलो, धीरे
बोलो! क्योंकि
मुझे तो कुछ
खतरा नहीं है,
लेकिन मेरा
जवान लड़का न
सुन ले।
कनक्यूशियस
ने कहा
तुम्हारा
मतलब?
उस
के ने कहा
मुझे सब ईजाद
पता है, लेकिन
सब ईजाद आदमी
को श्रम से
दूर करने वाली
है। और मैं नहीं
चाहता कि मेरा
लड़का श्रम से
दूर हो जाए।
क्योंकि जिस
दिन वह श्रम
से दूर होगा, उसी दिन
जीवन से भी
दूर हो जाएगा।
जीवन
और श्रम
समानार्थक
हैं। जीवन और
श्रम एक ही
अर्थ रखते हैं।
लेकिन धीरे—
धीरे हम उनको
धन्यभागी
कहने लगे हैं, जिनको
श्रम नहीं
करना पड़ता है
और उनको अभागे
कहने लगे हैं,
जिनको श्रम
करना पड़ता है!
और यह हुआ भी।
एक अर्थ में
बहुत से लोगों
ने श्रम करना
छोड़ दिया, तो
कुछ लोगों पर
बहुत श्रम पड़
गया। बहुत
श्रम प्राण ले
लेता है, कम
श्रम भी प्राण
ले लेता है।
इसलिए
मैंने कहा
सम्यक श्रम।
श्रम का ठीक—ठीक
विभाजन।
हर
आदमी के हाथ
में श्रम होना
चाहिए। और
जितनी
तीव्रता से और
जितने आनंद से
और जितने
अहोभाव से कोई
आदमी श्रम के
जीवन में
प्रवृत्त
होगा, उतना ही
पाएगा कि उसकी
जीवन— धारा
मस्तिष्क से
उतर कर नाभि
के करीब आनी
शुरू हो गई है।
क्योंकि श्रम
के लिए
मस्तिष्क की
कोई जरूरत
नहीं होती।
श्रम के लिए
हृदय की भी
कोई जरूरत
नहीं होती।
श्रम तो सीधा
नाभि से ही
ऊर्जा को
ग्रहण करता है
और निकलता है।
थोड़ा
श्रम, ठीक
आहार के साथ—साथ
थोड़ा श्रम
अत्यंत
आवश्यक है। और
यह इसलिए नहीं
कि यह किसी और
के हित में है
कि आप गरीब की
सेवा करें तो
यह गरीब के
हित में है, कि आप जाकर
गांव में खेती—
बाड़ी करें, तो यह
किसानों के
हित में है, कि आप कोई
श्रम करेंगे,
तो बहुत बड़ी
समाज—सेवा कर
रहे हैं। झूठी
हैं ये बातें।
यह आपके हित
में है और
किसी के हित
में नहीं है।
किसी और के
हित का इससे
कोई संबंध
नहीं है। किसी
और का हित
इससे हो जाए, वह बिलकुल
दूसरी बात है,
लेकिन यह
आपके हित में
है।
चर्चिल
रिटायर हो गया
था पीछे, तो
मेरे एक मित्र
उससे मिलने गए,
और उसके घर
गए। वह अपनी
बगिया में उस
बुढ़ापे में
खोद कर कुछ पौधे
लगा रहा था।
तो मेरे मित्र
ने उनसे कुछ
राजनीति के
प्रश्न पूछे।
चर्चिल ने कहा
छोड़ो भी। वह
बात खत्म हो
गई। अगर अब
मुझसे कुछ
पूछना है, तो
दो चीजों के
बाबत पूछ सकते
हो। अगर
बाइबिल के
बाबत कुछ
पूछना है, तो
इधर में पढ़ता
हूं और
बागवानी के
संबंध में पूछना
है, तो इधर
मैं बागवानी
करता हूं।
बाकी अब
राजनीति के
संबंध में
मुझे कोई— कोई
मतलब नहीं है।
हो गई वह दौड़
खत्म। अब मैं
श्रम कर रहा
हूं और
प्रार्थना कर
रहा हूं।
वे
लौट कर मुझसे
कहने लगे कि
मेरी कुछ समझ
में नहीं आया
कि चर्चिल
कैसा आदमी है।
मैं सोचता था, कुछ
उत्तर देगा वह।
उसने कहा, अब
मैं श्रम कर
रहा हूं और
प्रार्थना कर
रहा हूं।
मैंने
उनसे कहा उसने
दो शब्द
पुनरुक्त किए, रिपीटीशन
किया। श्रम और
प्रार्थना एक
ही अर्थ रखते
हैं, दोनों
पर्यायवाची
हैं। और जिस
दिन श्रम
प्रार्थना हो
जाता है और
जिस दिन
प्रार्थना
श्रम बन जाती
है, उस दिन
सम्यक श्रम
उपलब्ध होता
है।
थोड़ा
श्रम अत्यंत
आवश्यक है।
लेकिन श्रम की
तरफ ध्यान
नहीं गया।
नहीं गया भारत
के
संन्यासियों
का भी ध्यान, क्योंकि
उन्होंने
श्रम से अपने
हाथ अलग खींच लिए।
श्रम करने का
उन्हें सवाल
नहीं था। वे
दूर हट गए।
धनपति इसलिए
दूर हट गया कि
उसके पास धन
था, वह
श्रम खरीद
सकता था।
संन्यासी
इसलिए दूर हट
गए कि उन्हें
संसार से कुछ
लेना—देना न
था, उन्हें
कुछ पैदा न
करना था, पैसा
न कमाना था, उन्हें श्रम
की जरूरत क्या
थी। परिणाम यह
हुआ कि समाज
के दो आदरणीय
वर्ग श्रम से
दूर हट गए। तो
श्रम जिनके
हाथ में रह
गया, वे
धीरे— धीरे
अनादरणीय हो
गए।
श्रम
का— साधक की
दृष्टि से कह
रहा हूं मैं—
अत्यंत
बहुमूल्य
अर्थ और
उपादेयता है।
इसलिए नहीं कि
उससे आप कुछ
पैदा कर लेंगे, बल्कि
इसलिए कि
जितना आप श्रम
में प्रवृत्त
होंगे, आपकी
चेतना— धारा
केंद्रीय
होने लगेगी, मस्तिष्क से
नीचे उतरनी
शुरू होगी।
उत्पादक ही हो
श्रम यह भी
जरूरी नहीं है।
अनुत्पादक भी
हो सकता है।
व्यायाम भी हो
सकता है।
लेकिन कुछ
श्रम शरीर की
पूरी स्फूर्ति
और प्राणों की
पूरी सजगता के
लिए और चित्त
की पूरी
जागृति के लिए
अत्यंत
आवश्यक है। यह
दूसरा हिस्सा
है।
लेकिन
इस हिस्से में
भी भूल हो
सकती है। जैसी
भोजन के
हिस्से में
भूल होती है, या
तो कोई कम
भोजन करता है
या कोई ज्यादा
भोजन कर लेता
है। वैसी भूल
यहां भी हो
सकती है। या
तो कोई श्रम
नहीं करता है
या फिर ज्यादा
श्रम कर सकता
है। पहलवान
ज्यादा श्रम
कर लेते हैं।
वह रुग्ण
अवस्था है।
पहलवान कोई
स्वस्थ आदमी
नहीं है।
पहलवान शरीर
पर अति भार
डाल रहा है और
शरीर के साथ
बलात्कार कर
रहा है। तो
शरीर के साथ
बलात्कार
किया जाए, तो
शरीर के कुछ
अंग, कुछ
मसल्स अधिक
विकसित हो
सकते हैं।
लेकिन कोई
पहलवान
ज्यादा नहीं
जीता! और कोई पहलवान
स्वस्थ नहीं
मरता! यह आपको
पता है?
चाहे
गामा हो, चाहे
सैंडो हो, चाहे
दुनिया के कोई
बड़े से बड़े
शरीर के
पहलवान हों, वे सभी
अस्वस्थ मरते
हैं, जल्दी
मरते हैं और
खतरनाक
बीमारियों से
मरते हैं।
शरीर के साथ
बलात्कार
मसल्स को फुला
सकता है, शरीर
को दर्शनीय
बना सकता है, एकिझबीशन के
योग्य बना
सकता है, लेकिन
एक्झिबीशन, प्रदर्शन और
जिंदगी में
बड़ा फर्क है।
जीने में और
स्वस्थ होने
में और
प्रदर्शन—योग्य
होने में बड़ा
फर्क है।
तो
न तो कम और न
ज्यादा—हर
व्यक्ति को
खोज लेना
चाहिए अपने
योग्य, अपने
शरीर के योग्य
कि वह कितना
श्रम करे कि ज्यादा
स्वस्थ और
ताजा जी सके।
जितनी ताजगी
होगी, जितनी
भीतर स्वस्थ
हवा होगी, जितनी
श्वास—श्वास
आनंदपूर्ण
होगी, उतना
ही जीवन आतरिक
होने में
सक्षम होता है।
सिमोन
वेल ने, एक
फ्रेंच
विचारिका ने
एक बड़ी अदभुत
बात अपनी आत्म—कथा
में लिखी है।
उसने लिखा है
कि मैं तीस
वर्ष की उम्र
तक हमेशा
बीमार थी। मेरे
सिर में दर्द
था, अस्वस्थ
थी। लेकिन यह
तो मुझे चालीस
साल की उम्र
में पता चला
कि मैं तीस
साल तक साथ—साथ
नास्तिक भी थी।
और जब मैं
स्वस्थ हुई तो
मुझे पता नहीं
कि मैं कब
आस्तिक हो गई।
और यह तो बाद
में सोचने पर
मुझे दिखाई
पड़ा कि मेरे
बीमार और
रुग्ण होने का
संबंध भी मेरी
नास्तिकता से
था।
जो
आदमी रुग्ण और
बीमार है, वह
परमात्मा के
प्रति
धन्यवाद से
भरा हुआ नहीं
हो सकता। उसके
मन में
थैंकफुलनेस
नहीं हो सकती
परमात्मा के
प्रति। उसके
मन में क्रोध
ही होता है।
और जिसके
प्रति क्रोध हो,
उसको
स्वीकार करना
असंभव है। और
जिसके प्रति
क्रोध हो, वह
तो न हो, यही
भावना होती है
कि वह न हो।
तो
अगर जीवन ठीक
श्रम और ठीक
व्यायाम पर एक
विशिष्ट
स्वास्थ्य के
संतुलन को
नहीं पाता है, तो
आपके चित्त
में जीवन के
मूल्यों के
प्रति एक
निषेध का भाव,
एक निगेटिव
वैस्थू एक
विरोध का भाव,
एक विद्रोह
का भाव होना
स्वाभाविक है।
सम्यक
श्रम परम
आस्तिकता की
सीढ़ियों में
एक अनिवार्य
सीढ़ी है।
तीसरी
बात है सम्यक
निद्रा।
भोजन
अव्यवस्थित
हुआ है, श्रम
अराजक हो गया
है, और
निद्रा की तो
बिलकुल ही
हत्या की गई
है। मनुष्य—जाति
की सभ्यता के
विकास में
सबसे ज्यादा
जिस चीज को हानि
पहुंची है वह
निद्रा है।
जिस दिन से
आदमी ने
प्रकाश की
ईजाद की उसी
दिन निद्रा के
साथ उपद्रव
शुरू हो गया।
और फिर जैसे—जैसे
आदमी के हाथ
में साधन आते
गए उसे ऐसा
लगने लगा कि
निद्रा एक
अनावश्यक बात
है। समय खराब
होता है जितनी
देर हम नींद
में रहते हैं।
समय फिजूल गया।
तो जितनी कम
नींद से चल
जाए उतना
अच्छा।
क्योंकि नींद
का भी कोई
जीवन की गहरी
प्रक्रियाओं
में दान है, कंट्रीब्यूशन
है यह तो खयाल
में नहीं आता।
नींद का समय
तो व्यर्थ गया
समय है। तो
जितने कम सो
लें उतना
अच्छा। जितने
जल्दी यह नींद
से निपटारा हो
जाए उतना अच्छा।
एक
तरफ तो इस तरह
के लोग थे
जिन्होंने
नींद को कम
करने की दिशा
शुरू की। और
दूसरी तरफ
साधु—
संन्यासी थे, उनको
ऐसा लगा कि
नींद जो है, मूर्च्छा जो
है, यह
शायद आत्म—शान
की या आत्म—अवस्था
की उलटी
अवस्था है
निद्रा। तो
निद्रा लेना
ठीक नहीं है।
तो जितनी कम
नींद ली जाए
उतना ही अच्छा
है। और भी
साधुओं को एक
कठिनाई थी कि
उन्होंने चित्त
में बहुत से
सप्रेशंस
इकट्ठे कर लिए,
बहुत से दमन
इकट्ठे कर लिए।
नींद में उनके
दमन उठ कर
दिखाई पड़ने
लगे, सपनों
में आने लगे।
तो नींद से एक
भय पैदा हो
गया। क्योंकि
नींद में वे
सारी बातें
आने लगीं जिनको
दिन में
उन्होंने
अपने से दूर
रखा है। जिन
स्त्रियों को
छोड़ कर वे
जंगल में भाग
आए हैं, नींद
में वे
स्त्रियां
मौजूद होने
लगीं, वे
सपनों में
दिखाई पड़ने
लगीं। जिस धन
को, जिस यश
को छोड़ कर वे
चले आए हैं, सपने में
उनका पीछा
करने लगा। तो
उन्हें ऐसा
लगा कि नींद
तो बड़ी खतरनाक
है। हमारे बस
के बाहर है।
तो जितनी कम
नींद हो उतना
अच्छा। तो
साधुओं ने
सारी दुनिया
में एक हवा
पैदा की कि
नींद कुछ गैर—आध्यात्मिक,
अन—स्प्रिचुअल
बात है।
यह
अत्यंत
मूढतापूर्ण
बात है। एक
तरफ वे लोग थे
जिन्होंने
नींद का विरोध
किया, क्योंकि
ऐसा लगा फिजूल
है नींद, इतना
सोने की क्या
जरूरत है, जितने
देर हम
जागेंगे उतना
ही ठीक है।
क्योंकि गणित
और हिसाब
लगाने वाले, स्टैटिक्स
जोड्ने वाले
लोग बड़े अदभुत
हैं।
उन्होंने
हिसाब लगा
लिया कि एक
आदमी आठ घंटे सोता
है, तो
समझो कि दिन
का तिहाई
हिस्सा तो
सोने में चला
गया। और एक
आदमी अगर साठ
साल जीता है, तो बीस साल
तो फिजूल गए।
बीस साल
बिलकुल बेकार
चले गए। साठ
साल की उम्र
चालीस ही साल
की रह गई। फिर
उन्होंने और
हिसाब लगा लिए—उन्होंने
हिसाब लगा
लिया कि एक
आदमी कितनी देर
में खाना खाता
है, कितनी
देर में कपड़े
पहनता है, कितनी
देर में दाढ़ी
बनाता है, कितनी
देर में स्नान
करता है—सब
हिसाब लगा कर
उन्होंने
बताया कि यह
तो सब जिंदगी
बेकार चली
जाती है। आखिर
में उतना समय
कम करते चले
गए, तो पता
चला, कि
दिखाई पड़ता है
कि आदमी साठ
साल जीआ—बीस
साल नींद में
चले गए, कुछ
साल भोजन में
चले गए, कुछ
साल स्नान
करने में चले
गए, कुछ
खाना खाने में
चले गए, कुछ
अखबार पढ़ने
में चले गए।
सब बेकार चला
गया। जिंदगी
में कुछ बचता
नहीं। तो
उन्होंने एक
घबड़ाहट पैदा
कर दी कि
जितनी जिंदगी
बचानी हो उतना
इनमें कटौती
करो। तो नींद
सबसे ज्यादा
समय ले लेती
है आदमी का।
तो इसमें
कटौती कर दो।
एक उन्होंने
कटौती करवाई।
और सारी
दुनिया में एक
नींद—विरोधी
हवा फैला दी।
दूसरी तरफ
साधु—संन्यासियों
ने नींद को अन—म्प्रिचुअल
कह दिया कि
नींद गैर—आध्यात्मिक
है। तो कम से
कम सोओ। वही
उतना ज्यादा
साधु है जो
जितना कम सोता
है। बिलकुल न
सोए तो परम
साधु है।
ये
दो बातों ने
नींद की हत्या
की। और नींद
की हत्या के
साथ ही मनुष्य
के जीवन के सारे
गहरे केंद्र
हिल गए, अव्यवस्थित
हो गए, अपरूटेड
हो गए। हमें
पता ही नहीं
चला कि मनुष्य
के जीवन में
जो इतना
अस्वास्थ्य
आया, इतना
असंतुलन आया,
उसके पीछे
निद्रा की कमी
काम कर गई।
जो
आदमी ठीक से
नहीं सो पाता, वह
आदमी ठीक से
जी ही नहीं
सकता। निद्रा
फिजूल नहीं है।
आठ घंटे
व्यर्थ नहीं
जा रहे हैं।
बल्कि आठ घंटे
आप सोते हैं
इसीलिए आप
सोलह घंटे जाग
पाते हैं, नहीं
तो आप सोलह
घंटे जाग नहीं
सकते। वह आठ
घंटों में
जीवन—ऊर्जा
इकट्ठी होती
है, प्राण
पुनरुज्जीवित
होते हैं। और
आपके
मस्तिष्क के
और हृदय के
केंद्र शांत हो
जाते हैं और
नाभि के
केंद्र से
जीवन चलता है
आठ घंटे तक।
निद्रा में आप
वापस प्रकृति
के और
परमात्मा के
साथ एक हो गए
होते हैं, इसलिए
पुनरुज्जीवित
होते हैं।
अगर
किसी आदमी को
सताना हो, टॉर्चर
करना हो, तो
उसे नींद से
रोकना सबसे
बढ़िया तरकीब
है। हजारों
साल में ईजाद
की गई। उससे
आगे नहीं बढ़ा
जा सका अब तक।
अभी भी रूस
में या हिटलर
ने जर्मनी में
जिन कैदियों
को सताया
उनमें सबसे
सताने की जो
तरकीब काम में
लाई गई वह नींद।
सोने मत दो
किसी कैदी को।
बस उसकी
जिंदगी में
इतना टॉर्चर
पैदा हो जाता
है जिसका
हिसाब नहीं।
तो कैदियों के
पास आदमी लगा
छोड़े थे। सबसे
पहले चीनियों
ने ईजाद की थी
यह बात, आज
से दो हजार
साल पहले—कि
वे आदमी को
सोने नहीं
देते थे जिसको
सताना हो।
उन्होंने
सबसे सस्ती
तरकीब निकाली
थी। एक कोठरी
में उसको खड़ा
कर देते थे, कोठरी इतनी
संकरी होती थी
कि वह हिल—डुल
नहीं सकता था,
न बैठ सकता
था, न लेट
सकता था। और
उसके सिर पर
बूंद—बूंद
पानी टपकाते
रहते ऊपर से।
तो टप, टप, टप, वह
उसके सिर पर
पड़ता रहता। तो
वह, और हिल—डुल
सकता नहीं, बैठ सकता
नहीं, लेट
सकता नहीं।
ज्यादा से
ज्यादा बारह
घंटे, सोलह
घंटे, अठारह
घंटे और आदमी
चिल्लाने
लगता, चीखने
लगता कि मैं
मर जाऊंगा, मुझे बचाओ, मुझे बाहर
निकालो। वे
कहते कि फिर
बता दो जो
बातें तुम
छिपा रहे हो। तीन
दिन से ज्यादा
साहस से साहस
वाला आदमी भी थक
जाता।
इधर
जर्मनी में
हिटलर ने और
स्टैलिन ने भी
रूस में यही
किया लाखों
लोगों के साथ—कि
उनको जगाए रखो, उनको
सोने मत दो।
इससे ज्यादा
टॉर्चर किया
ही नहीं जा
सकता। किसी
आदमी की हत्या
कर दो, उससे
उतनी पीड़ा
नहीं होती, जितना उस
आदमी को न
सोने दो।
क्योंकि सोकर
ही वह जो खोया
है उसे वापस
पाता है। और
अगर न सो पाए, न सो पाए, न
सो पाए, तो
खोता चला जाता
है और वापस
कुछ भी उपलब्ध
नहीं होता। वह
रिक्त और खाली
हो जाता है, एंप्टी हो
जाता है।
हम
सब करीब—करीब
खाली जैसे लोग
हैं। क्योंकि
उपलब्ध करने
के द्वार
हमारे बंद और
खोने के द्वार
हमारे बढ़ते
चले गए हैं।
नींद
वापस लौटानी
जरूरी है। और
अगर सौ, दो सौ
वर्षों के लिए
इस सारी
दुनिया में
कोई कानूनी
व्यवस्था की
जा सके कि
आदमी को
मजबूरी में सो
ही जाना पड़े, कोई और उपाय
न रहे, तो
मनुष्य—जाति
के मानसिक
स्वास्थ्य के
लिए इससे बड़ा
कोई कदम नहीं
उठाया जा सकता।
साधक के लिए
तो बहुत ध्यान
देना जरूरी है
कि वह ठीक से
सोए और काफी
सोए। और यह भी
समझ लेना
जरूरी है कि
सम्यक निद्रा
हर आदमी के
लिए अलग होगी।
सभी आदमियों
के लिए बराबर
नहीं होगी।
क्योंकि हर
आदमी के शरीर
की जरूरत अलग
है, उम्र
की जरूरत अलग
है, और कई
दूसरे तत्व
हैं जिनकी
जरूरत अलग है।
बच्चा
जब मां के पेट
में होता है
चौबीस घंटे सोता
है,
क्योंकि उस
वक्त बच्चे के
सब स्नायु बन
रहे होते हैं।
पूरी नींद की
जरूरत है। चौबीस
घंटे सोया
रहेगा तो ही
ठीक से शरीर
उसका विकसित
हो पाएगा। जो
बच्चे लंगडे—लूले
पैदा हो जाते
हैं या काने
या लंगड़े, हो
सकता है बीच—बीच
में जग जाते
हों या और कोई
गड़बड़ हो जाती
हो। हो सकता
है किसी दिन
वितान इस बात
को समझ पाए कि
जो बच्चे मां
के पेट में ही
किसी तरह से
जग जाते हैं
वे बच्चे अपंग
हो जाएंगे, उनके कोई
अंग विकसित
होने से रह
जाएंगे।
चौबीस घंटे
पेट में सोया
रहना जरूरी है,
क्योंकि
पूरा शरीर
निर्मित होता
है, पूरा
शरीर विकसित
होता है। नींद
बहुत गहरी
जरूरी है। तभी
शरीर की सारी
क्रियाएं काम
कर सकती हैं।
फिर बच्चा
पैदा होता है,
तो वह बीस
घंटे सोता है।
अभी उसका शरीर
बन रहा है।
फिर वह अठारह
घंटे सोता है,
फिर चौदह
घंटे सोता है।
अभी उसका शरीर
बन रहा है।
जैसे— जैसे
उसका शरीर
परिपक्व होता
चला जाता है, वैसे—वैसे
नींद कम हो
जाती है। आखिर
में वह आठ
घंटे और छह
घंटे के करीब
थिर हो जाती
है। फिर बूढ़े
आदमी की नींद
कम हो जाती है—
और पांच घंटे,
चार घंटे भी
हो जाती है, तीन घंटे भी
हो जाती है, क्योंकि के
आदमी के शरीर
में फिर बनने
का उपक्रम बंद
हो जाता है।
फिर उसे वापस
रोज उतनी नींद
की आवश्यकता
नहीं रह जाती,
क्योंकि अब
उसकी मृत्यु करीब
आ रही है। अगर
वह उतना ही
सोता रहे
जितना बच्चा
सोता है तो का
आदमी भी मर
नहीं सकता है,
मरना
मुश्किल हो
जाए।
मरने
के लिए जरूरी
है कि नींद कम
होती चली जाए।
और जीवन के
लिए जरूरी है
कि नींद गहरी
हो।
इसलिए
बूढ़ा आदमी
क्रमश: कम
सोने लगता है।
बच्चा ज्यादा
सोता है।
लेकिन अगर
बूढ़े भी
बच्चों के साथ
वही व्यवहार
करें जो खुद
के साथ करते
हैं तो खतरा
हो जाता है।
और के अक्सर
करते हैं।
बूढ़े बच्चों
को भी का समझ
कर व्यवहार
करते हैं।
उनको भी उठाते
हैं कि उठो!
तीन बज गए, चार
बज गए, उठो!
उनको पता नहीं
कि तुम के हो, तुम चार बजे
उठ गए हो, यह
बिलकुल ठीक है।
लेकिन बच्चे
चार बजे नहीं
उठ सकते। और
उठाना गलत है।
बच्चे की शरीर
की
प्रक्रियाओं
को नुकसान पहुंचाना
है। बच्चे के
साथ बहुत
अहितकर है यह
बात।
एक
बच्चा मुझसे
कह रहा था कि
मेरी मां भी
बड़ी अजीब है।
जब रात को
मुझे नींद
नहीं आती है, तब
जबरदस्ती
मुझे सुलाती
है और जब मुझे
नींद आती है
सुबह, तब
जबरदस्ती
मुझे उठाती है।
मेरी कुछ समझ
में नहीं आता
है कि जब मुझे
नींद नहीं आती
है, तब
मुझे सुलाया
जाता है, और
जब मुझे नींद
आती है तब
मुझे उठाया
जाता है! तो वह
मुझसे बोला कि
मेरी मां को
आप समझा दें, दुनिया को
आप समझाते हैं।
मेरी मां की
कुछ समझ में आ
जाए तो अच्छा,
यह उलटा ही
क्यों करती है?
बच्चों
के साथ को
जैसा व्यवहार
निरंतर होता है, हमें
खयाल ही नहीं
है। और फिर
किताबों में
लिखे हुए, बंधे
हुए सूत्र हैं,
स्टैंडर्ड
सूत्र हैं, उनके अनुसार
आदमी जीने
लगता है!
आपको
शायद पता न हो, नवीनतम
खोज—बीन यह
कहती है कि हर
आदमी के लिए
उठने का समय भी
एक नहीं हो
सकता। जैसा
हमेशा कहा
जाता है कि
पांच बजे उठ
आना सबके लिए
हितकर है। यह
बात बिलकुल ही
अवैज्ञानिक
और गलत है।
सबके हित में
नहीं है, कुछ
लोगों के हित
में हो सकता
है, कुछ
लोगों के अहित
में हो सकता
है।
चौबीस
घंटे में कोई
तीन घंटे के
लिए शरीर का तापमान
नीचे गिर जाता
है हर आदमी का।
और जिन तीन
घंटों में
तापमान नीचे
गिरता है, वे
ही तीन घंटे
उसके लिए सबसे
गहरी नींद के
घंटे होते हैं।
अगर उन तीन
घंटों में उसे
उठा दिया जाए
तो उसका दिन
भर खराब हो
जाएगा। उसकी
सारी ऊर्जा
अस्त—व्यस्त
हो जाएगी।
आमतौर
से ये घंटे दो
और पांच के
बीच में होते
हैं रात को।
अधिकतम लोगों
के ये तीन
घंटे रात के
दो बजे से लेकर
और पांच बजे
के बीच में
होते हैं, लेकिन
सभी के नहीं
होते हैं।
किन्हीं का छह
बजे तक तापमान
नीचे होता है।
किन्हीं का
सात बजे तक
तापमान नीचे
होता है।
किन्हीं का
चार बजे
तापमान वापस
लौटना शुरू हो
जाता है। तो
यह तापमान के
बीच में अगर
कोई उठ जाएगा
तो उसके चौबीस
घंटे खराब
होंगे और
दुष्परिणाम
होंगे। जब
उसका तापमान
फिर से उठने
लगता है, गिरा
हुआ तापमान
वापस उठने
लगता है, तभी
उठने का वक्त
है।
आमतौर
से यह ठीक है
कि आदमी सूरज
के उगने के साथ
उठ आए, क्योंकि
सूरज के उगने
के साथ ही
सबका तापमान बढ़ना
शुरू हो जाता
है। लेकिन यह
नियम है। कुछ
इसके अपवाद
होते हैं, जिनके
लिए हो सकता
है कि सूरज के
थोड़ी देर बाद
तक भी लेटा
रहना जरूरी हो,
क्योंकि हर
आदमी के शरीर
का तापमान अलग
क्रम से, अलग
मात्रा से
उठता है। तो
हर आदमी को यह
देख लेना
चाहिए कि
जितनी देर सोने
के बाद और जग
उठने के बाद
मुझे स्वस्थ
मालूम होता है,
वही मेरे
लिए नियम है—चाहे
शास्त्र कुछ
भी कहते हों, गुरु कुछ भी
बताते हों, किसी की
सुनने की जरा
भी जरूरत नहीं
है।
तो
सम्यक निद्रा
के लिए जितनी
ज्यादा से
ज्यादा गहरी
और लंबी नींद
ले सकें, वह
लेना उचित है।
लेकिन नींद
लेने को कह
रहा हूं
बिस्तर पर पड़े
रहने को नहीं
कह रहा हूं।
बिस्तर पर पड़े
रहना नींद
नहीं है। और
जब आपके लिए
स्वास्थ्यपूर्ण
मालूम पड़े, तभी उठना
आपके लिए नियम
है।
आमतौर
से सूरज के
उगने के साथ
यह घटना घटनी
चाहिए। लेकिन
हो सकता है
कुछ को न घटती
हो,
तो उसमें
घबड़ाने की, चिंतित होने
की और अपने आप
को पापी समझने
की और नरक चले
जाने के डर की
कोई भी जरूरत नहीं
है। क्योंकि
कई जल्दी उठने
वाले भी नरक
चले जाते हैं
और कई देर से
उठने वाले भी
स्वर्ग में
निवास कर रहे
हैं। कोई, इससे
कोई संबंध
आध्यात्मिकता
और गैर—आध्यात्मिकता
का नहीं है।
लेकिन सम्यक
निद्रा का, राइट स्लीप
का जरूर संबंध
है। तो वह हर
व्यक्ति को
अपना आयोजन
खोज लेना
चाहिए। एक तीन
महीने तक हर
व्यक्ति को
श्रम पर, निद्रा
पर और आहार पर
प्रयोग करने
चाहिए, और
देखना चाहिए
कि मेरे लिए
सर्वाधिक
स्वास्थ्यपूर्ण,
सर्वाधिक
शांतिपूर्ण, सर्वाधिक आनंदपूर्ण
कौन से सूत्र
हो सकते हैं।
और
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने सूत्र
खोज लेने
चाहिए। कोई दो
व्यक्ति एक
जैसे नहीं हैं, इसलिए
कोई सामान्य
नियम किसी के
लिए कभी लागू नहीं
होता है। और
जब भी कोई
सामान्य नियम
लागू करने की
कोशिश करता है
तो उसके
दुष्परिणाम
होते हैं। एक—एक
व्यक्ति
इंडिविजुअल
है। एक—एक
व्यक्ति
अनूठा, अद्वितीय
और यूनीक है।
उस जैसा वही
है, उस
जैसा कोई
दूसरा आदमी
जमीन पर कहीं
भी नहीं है।
इसलिए कोई
नियम उसके लिए
नियम नहीं हो
सकता है, जब
तक कि वह अपनी
ही जीवन—प्रक्रिया
से नियम को न
खोज ले।
तो
किताबें, शास्त्र
और गुरु
खतरनाक सिद्ध
होते हैं, क्योंकि
उनके पास
रेडीमेड
फार्मूला
होते हैं, तैयार
फार्मूला
होते हैं। वे
बता देते हैं
कि इतने बजे
उठना चाहिए, यह खाना
चाहिए, यह
नहीं खाना
चाहिए, ऐसा
सोना चाहिए, ऐसा करना
चाहिए। ये
रेडीमेड
फार्मूला
खतरनाक हैं।
वे समझने के
लिए ठीक हैं, लेकिन हर
आदमी को अपने
जीवन में अपनी
व्यवस्था
खोजनी पड़ती
है।
हर
आदमी को अपनी
साधना खोजनी
पड़ती है। हर
आदमी को साधना
का पथ स्वयं
चल कर निर्मित
करना होता है।
कोई राजपथ
नहीं है जो
बना—बनाया है, जिस
पर आप गए और
चलने लगे। ऐसा
कहीं कोई
राजपथ नहीं है।
साधना बिलकुल
पगडंडी की
भांति है और
वह भी ऐसी
पगडंडी की
भांति, जो
पहले से तैयार
नहीं है; आप
चलते हैं, जितना
चलते हैं, उतनी
ही तैयार होती
है। और जितना
आप चल लेते
हैं, उतना
आगे की समझ बढ़
जाती है और
आगे के लिए
निर्मित हो
जाती है।
तो
ये तीन सूत्र
और ध्यान में
ले लेने जरूरी
हैं सम्यक
आहार, सम्यक
श्रम और सम्यक
निद्रा।
अगर
इन तीन
सूत्रों पर
ठीक से— ठीक—ठीक
इन सूत्रों पर
जीवन की गति
हो,
तो वह जिसे
मैं नाभि—केंद्र
कह रहा हूं जो
कि द्वार है
आत्मिक जीवन
का, उसके
खुलने की
संभावना बहुत
बढ़ जाती है।
और वह खुल जाए,
उस द्वार के
निकट हम पहुंच
जाएं, तो एक
बहुत ही अभिनव
घटना घटती है,
जिसका हमें
सामान्य जीवन
में कोई भी
अनुभव नहीं है।
सांझ
को मैं यहां
से गया और एक
मित्र मिले और
उन्होंने कहा
कि आप कहते
हैं,
वह तो ठीक
है, लेकिन
जब तक हमें
संतोष न मिल
जाए, तब तक
बड़ा मुश्किल
है। मैंने
उनसे कुछ कहा
नहीं। वे शायद
सोचते हों कि
मेरे कहने से
संतोष मिल
जाएगा तो
बिलकुल गलती
में हैं और
समय खराब कर
रहे हैं। अपनी
तरफ से जो
मुझे मेहनत
करनी है, वह
मैं कर देता
हूं। लेकिन
आपकी तरफ उससे
बहुत बड़ी
मेहनत शेष रह
जाती है। वह
अगर आप नहीं
करते हैं तो
मेरे कहने का
कोई प्रयोजन
नहीं, कोई
अर्थ नहीं है।
मुझे
निरंतर लोग
कहते हैं कि
हम यह चाहते
हैं— शांति
चाहते हैं, आनंद
चाहते हैं, आत्मा चाहते
हैं। आप तो सब
चाहते हैं, लेकिन चाहने
से जगत में
कुछ भी नहीं
मिलता है।
अकेली चाह
बिलकुल
इंपोटेंट है,
बिलकुल
नपुंसक है, उसमें कोई
शक्ति नहीं है।
चाह के पीछे
संकल्प और
श्रम भी तो
चाहिए। आप
चाहते हैं यह
तो ठीक है, लेकिन
उस चाह के लिए
आप कितना श्रम
करते हैं, उस
चाह के लिए आप
कितने कदम
उठाते हैं— आप
क्या करते हैं
अपनी चाह के
लिए?
मेरे
हिसाब में तो
आप चाहते हैं, इसका
एक ही सबूत है
कि आप उस चाह
के लिए क्या
करके बताते
हैं। नहीं तो
कोई सबूत नहीं
है कि आप
चाहते भी हैं।
जब कोई आदमी
किसी चीज को
चाहता है तो
उसके लिए कुछ
श्रम करके
दिखाता है। वह
श्रम ही इस
बात की गवाही
होता है कि उस
आदमी ने चाहा
कुछ। लेकिन आप
कहते हैं कि
चाहते तो हम
हैं, लेकिन
श्रम, उसके
लिए कोई
संकल्प, वह
सब हमारे खयाल
में नहीं है।
अंत
में एक बात और
दोहरा दूं।
तीन केंद्रों
की मैंने बात
कही है बुद्धि
का केंद्र
मस्तिष्क, भाव
का केंद्र
हृदय। और नाभि?
नाभि किसका
केंद्र है? विचार का
केंद्र है
बुद्धि, भाव
का केंद्र है
हृदय। नाभि
किसका केंद्र
है? — नाभि
संकल्प का
केंद्र है, विल पावर का
केंद्र है।
नाभि जितनी
सजग होगी, उतना
ही संकल्प
तीव्र होगा, विल फोर्स
तीव्र होगी।
उतना ही करने
की दृढ़ता और
बल और आत्म—ऊर्जा
उपलब्ध होती
है।
या
इससे उलटा सोच
लें। जितना आप
संकल्प
करेंगे, जितना
करने का बल
लेंगे, उतनी
ही आपकी नाभि
का केंद्र भी
विकसित होगा।
ये दोनों
अंतर्निभर
हैं, ये एक—दूसरे
से संबंधित
बातें हैं।
जितना आप
विचार करेंगे,
उतनी
बुद्धि
विकसित होगी।
जितना आप
प्रेम करेंगे,
उतना हृदय
विकसित होगा।
जितना आप
संकल्प
करेंगे, उतना
आपकी— आपकी
अंतर—ऊर्जा का
केंद्रीय
चक्र, वह
जो केंद्रीय
कमल है नाभि
का, वह
विकसित होता
है।
एक
छोटी सी कहानी
और अपनी बात
मैं पूरी करूं।
एक
फकीर— अंधा
फकीर एक गांव
में भीख मांग
रहा था। उसके
पास तो आंखें
नहीं थीं, भीख
मांगते हुए वह
मस्जिद के
द्वार पर
पहुंच गया।
मस्जिद के
द्वार पर उसने
हाथ फैलाया और
मांगा कि मुझे
कुछ मिल जाए, मैं भूखा
हूं। पास से
निकलते हुए
लोगों ने कहा
पागल! यह ऐसा घर
नहीं है, जहां
कोई भीख मिल
सकेगी। यह तो
मस्जिद है, यह तो मंदिर
है। यहां कोई
रहता ही नहीं
है। तू कहां
भीख मांग रहा
है, यह तो
मस्जिद है, यहां कुछ भी
नहीं मिलेगा,
और कहीं आगे
बढ़।
वह
फकीर हंसने
लगा। और उसने
कहा अगर भगवान
के घर से कुछ
नहीं मिलेगा
तो फिर किस घर
से मिलेगा? यह
तो अंतिम घर आ
गया, भूल
से मैं अंतिम
मकान के सामने
आ गया। अब
यहां से कैसे
हटूं, और
हटूं तो कहां
जाऊं, क्योंकि
इसके आगे कोई
घर नहीं है।
अब मैं यहीं
रुक जाऊंगा और
यहां से लेकर
ही हटूगा।
लोग
हंसने लगे।
उन्होंने कहा.
पागल, यहां
कोई रहता ही
नहीं, तुझे
देगा कौन?
उसने
कहा यह सवाल
नहीं है।
लेकिन भगवान
के घर से अगर
खाली हाथ
लौटना पड़ेगा, तो
फिर हाथ कहां
भरे जा सकेंगे?
फिर तो कहीं
हाथ नहीं भरे
जा सकते। अब आ
ही गया हूं इस
द्वार पर तो
हाथ भर के ही
लौटूंगा।
वह
फकीर वहीं रुक
गया। और एक
वर्ष तक उसके
हाथ वैसे ही
फैले रहे और
उसके प्राण
वैसे ही पुकार
करते रहे। और
गांव के लोग
उसे पागल कहने
लगे। और गांव
के लोग उससे
कहने लगे कि
तू बिलकुल नासमझ
है,
तू कहां हाथ
फैलाए बैठा
हुआ है? यहां
कुछ भी मिलने
को नहीं है।
लेकिन वह फकीर
भी एक था, वह
बैठा ही रहा, और बैठा ही
रहा, और
बैठा ही रहा!
और
एक वर्ष बीत
जाने के बाद
उस गांव के
लोगों ने देखा
कि शायद उस
फकीर को कुछ
मिल गया है।
उसके चेहरे की
रौनक बदल गई
है। उसके आस—पास
एक शांति की
हवा उठने लगी, उसके
आस—पास एक
रोशनी खड़ी हो
गई, एक
सुगंध बहने
लगी। वह आदमी
नाचने लगा।
जिसकी आंखों
में आंसू थे, वहां
मुस्कुराहट आ
गई। वह जैसे
मुर्दा हो गया
था इस वर्ष
में। उसके
प्राण फिर से
खिल उठे, वह
नाचने लगा।
लोगों
ने पूछा कि
क्या तुम्हें
मिल गया?
उसने
कहा कि यह असंभव
था कि न मिलता, क्योंकि
मैंने तय ही
कर लिया था कि
या तो मिलेगा
और या फिर मैं
नहीं रह
जाऊंगा। जो
मैंने चाहा था
वह मुझे
उपलब्ध हो गया
है। और मैंने
तो शरीर के
लिए रोटी चाही
थी और मुझे आत्मा
के लिए रोटी
भी मिल गई है।
और मैंने तो
शरीर की भूख
मिटानी चाही
थी और मेरी
आत्मा की भूख
भी मिट गई है।
लेकिन वे
पूछने लगे कि
तुझे मिला
कैसे, तूने
कैसे पाया?
उसने
कहा मैंने कुछ
भी नहीं किया, लेकिन
मैंने अपनी
प्यास के पीछे
अपने पूरे संकल्प
को खड़ा कर
दिया। और
मैंने कहा अगर
प्यास है तो
उसके साथ पूरा
संकल्प भी
चाहिए। मेरा
पूरा संकल्प
साथ था, मेरी
प्यास पूरी हो
गई। मैं उस
जगह पहुंच गया,
जहां वह
पानी मिल जाता
है, जिसे
पीने से फिर
कोई प्यास
नहीं रह जाती।
संकल्प का
अर्थ है जो हम
चाहते हैं, जो हमें ठीक
दिखाई पड़ता है,
जो हमें
मालूम होता है
कि रास्ता है,
उस पर चलने
का आत्मबल भी
जुटाना और
साहस जुटाना
और दृढ़ता
जुटानी। अगर
वह नहीं होती
तो मेरे कहने
से या किसी के
कहने से कुछ
भी नहीं हो
सकता है। और
अगर मेरे कहने
से होता, तब
तो बड़ी आसान
बात थी।
दुनिया में
बहुत लोग हो
चुके हैं, जिन्होंने
बहुत अच्छी
बातें कही हैं।
अब तक सारी
दुनिया को सब—
कुछ हो गया
होता। लेकिन न
महावीर कुछ कर
सकते हैं, न
बुद्ध कुछ कर
सकते हैं; न
क्राइस्ट, न
कृष्ण, न
मोहम्मद। कोई
कुछ नहीं कर
सकता है, जब
तक कि आप ही
करने को तैयार
न हों।
गंगा
बही जाती है, सागर
भरे पड़े हैं, लेकिन आपके
हाथ में पात्र
ही नहीं है और
आप चिल्लाते
हैं कि मुझे पानी
चाहिए। गंगा
कहती है, पानी
है, लेकिन
पात्र कहां है?
आप कहते हैं,
पात्र की
बात मत करो, तुम तो गंगा
हो, इतना
पानी है इसमें,
तो कुछ हमें
दे दो। गंगा
के द्वार बंद
नहीं हैं, गंगा
के द्वार खुले
हैं, लेकिन
पात्र तो चाहिए।
संकल्प
का पात्र जहां
नहीं है, वहां
साधना की कोई
तृप्ति, कोई
संतोष कभी
उपलब्ध नहीं
होता है।
मेरी
बातें इतनी
शांति से
सुनीं। आज
हमारी पहले
दिन की तीन
बैठकें पूरी
होती हैं। कल
से हम दूसरे
दो तत्वों पर
विचार करना
शुरू करेंगे।
और अब इस बैठक
के बाद हम रात्रि
के ध्यान के
लिए बैठेंगे
एक दस मिनट के लिए।
तो
रात्रि के
ध्यान के
संबंध में दो—तीन
बातें समझ
लेनी चाहिए, फिर
हम बैठेंगे।
(क्या लेटने
का उपाय हो
सकेगा? लेटने
का उपाय हो
सकेगा? यानी
इतनी जगह बन
जाएगी न कि सब
लोग लेट सकें?
ठीक है!)
पहले
समझ लें और
फिर रात्रि का
ध्यान हम
करेंगे। सुबह
का ध्यान तो
बैठ कर करने
के लिए है।
सुबह तो जीवन
उठता है, जागता
है, इसलिए
बैठ कर ध्यान
करना उपयोगी
है। और रात्रि
का ध्यान तो
आप बिस्तर पर
जब सोने चले
जाते हैं तभी
बिस्तर पर
सोकर ही करने
का है और फिर
करने के बाद
चुपचाप सो
जाने का है।
वह अंतिम है।
सुबह का ध्यान
प्रथम, जागने
के बाद।
रात्रि का
ध्यान अंतिम,
सोने के
पहले।
सोने
के पहले अगर
ठीक से ध्यान
में उतर जाएं
तो सारी नींद
परिवर्तित हो
जाती है। पूरी
नींद ध्यान बन
सकती है, क्योंकि
नींद के कुछ
नियम हैं।
इसमें पहला
नियम यह है कि
रात्रि में जो
हमारा अंतिम
विचार होता है
वह हमारी
निद्रा में
केंद्रीय
होता है, और
वही सुबह उठने
पर हमारा
प्रथम विचार
होता है।
रात्रि
में सोते समय
चित्त में जो
अंतिम विचार
होता है वह
निद्रा में
केंद्रीय हो
जाता है, और
सुबह उठते
वक्त पहला
विचार वही
होता है। तो रात
अगर आप क्रोध
में सो गए हैं
तो रात्रि भर
आपके सपने, आपका चित्त
क्रोध के आस—पास
मंडराता
रहेगा और सुबह
जब आप उठेंगे
तो आप पाएंगे
कि पहला भाव
और पहला विचार
क्रोध ही आपके
सामने खड़ा हो
जाएगा। रात भर
हम संजोते हैं
उसे जिसे हम
रात लेकर सो जाते
हैं।
इसलिए
मेरा कहना है
रात अगर कुछ
लेकर ही सोना
है,
तो ध्यान को
लेकर सो जाना
चाहिए, ताकि
रात पूरी नींद
ध्यान के आस—पास,
उसी शांति
के आस—पास
मंडराती रहे।
धीरे— धीरे आप
कुछ ही दिनों
में पाएंगे, सपने शून्य
हो जाते हैं, नींद एक
गहरी नदी बन
जाती है और
सुबह जब आप
उठते हैं छह घंटे
या आठ घंटे की
इस गहरी
निद्रा के बाद—
इस ध्यान के
बाद, तो जो
पहला खयाल
होता है वह भी
शांति का, आनंद
का और प्रेम
का ही होता है।
तो
सुबह की
यात्रा शुरू
करनी है सुबह
के ध्यान से
और रात्रि की
यात्रा शुरू
करनी है
रात्रि के
ध्यान से।
रात्रि का
ध्यान लेट कर
करने का है—
बिस्तर पर लेट
कर करने का है।
यहां हम
प्रयोग के लिए
अभी लेट कर
उसको करेंगे।
लेट कर तीन
बातें ध्यान
में लेनी हैं।
पहली
बात तो, कि
शरीर को
बिलकुल ही
शिथिल छोड़
देना है। जैसे
बिलकुल शरीर
में कोई प्राण
ही न हो। इतना
ढीला, इतना
ढीला छोड़ देना
है जैसे कोई
प्राण नहीं है
और तीन मिनट
तक मन में यह
भाव करते रहना
है कि मेरा
शरीर शिथिल हो
रहा है, शिथिल
हो रहा है, शिथिल
हो रहा है........जैसे—जैसे
मन भाव करेगा,
शरीर वैसा
ही होता चला
जाएगा।
शरीर
बिलकुल सेवक
है,
अनुगामी है।
हम जो भी भाव
करते हैं, शरीर
वही करता है।
अगर आप क्रोध
से भरते हैं, शरीर पत्थर
उठा लेता है, आप प्रेम से
भरते हैं, शरीर
किसी को हृदय
से लगा लेता
है। आप जो
चाहते हैं, जो होना
चाहते हैं, जो करना
चाहते हैं, मन में भीतर
विचार उठता है
और शरीर
क्रिया में
उसे
परिवर्तित कर
देता है।
हम
रोज देखते हैं
यह चमत्कार
घटते हुए कि
भीतर विचार
उठता है और
शरीर उसे
रूपांतरण दे
देता है। हमने
कभी शिथिल
होने का विचार
नहीं किया, अन्यथा
शरीर बिलकुल
शिथिल भी हो
जाता। शरीर तो
इतना शिथिल हो
जाता है कि
पता ही नहीं चलता
है कि शरीर है
भी या नहीं, लेकिन थोड़े
दिन के प्रयोग
से यह हो जाता
है। तो तीन
मिनट तक सोचते
रहना है, भाव
करते रहना है।
अभी
तो मैं आपको
सुझाव दे
दूंगा ताकि
आपको खयाल में
आ जाए। तो जब
मैं सुझाव दूं
कि शरीर शिथिल
हो रहा है, तो
आप मन में भाव
करते जाएंगे
कि शरीर शिथिल
हो रहा है, शिथिल
हो रहा है........शरीर
शिथिल हो जाएगा!
शरीर
के शिथिल होते
ही श्वास शांत
हो जाएगी।
शांत होने का
मतलब बंद नहीं, लेकिन
धीमी, आहिस्ता
और गहरी हो
जाएगी। फिर
तीन मिनट तक
मन में भाव
करना है कि
मेरी श्वास भी
शांत होती जा
रही है, श्वास
भी शिथिल होती
जा रही है......तब
धीरे— धीरे
श्वास भी
बिलकुल शांत
और सम हो जाती
है। जब श्वास
शांत हो जाती
है और इन
तीनों का संबंध
है, जब
शरीर शिथिल
होगा तो श्वास
अपने आप शांत
होगी, जब
श्वास शांत
होगी तो मन
अपने आप शांत
होगा।
तो
पहले हम शरीर
पर शिथिलता का
भाव करेंगे, उससे
श्वास शांत
होगी। फिर
श्वास की
शिथिलता का
भाव करेंगे, उससे मन
शांत होगा।
और
फिर तीसरा
सुझाव मैं
आपको दूंगा कि
अब आपका मन भी
शांत और शून्य
होता जा रहा
है। तो ऐसा
थोड़ी— थोड़ी
देर तीनों
सुझावों को
करने के बाद
दस मिनट के
लिए मैं
कहूंगा कि अब
मन बिलकुल
शांत हो गया
है,
तो जैसे हम
सुबह बैठे रहे
थे वैसे ही
चुपचाप शांति
में लेटे
रहेंगे।
कुत्ते
की आवाज आएगी, कोई
पक्षी
चिल्लाएगा, कोई और कुछ
आवाज होगी, उसे चुपचाप
सुनते रहना है,
जैसे कोई
सूना कमरा हो,
कोई आवाज
आती हो, गूंजती
हो और चली
जाती हो। न तो
उस आवाज के
लिए यह सोचना
है कि यह मुझे
क्यों सुनाई
दे रही है, न
यह सोचना है
कि यह कुत्ता
क्यों भौंक
रहा है, क्योंकि
आपका कुत्ते
से कोई संबंध
नहीं है। आपको
कोई सोचने की
जरूरत भी नहीं
है कि क्यों भौंक
रहा है। या हम
ध्यान कर रहे
हैं, यह
दुष्ट हमारे
पीछे क्यों
पड़ा हुआ है, इससे भी कोई
संबंध नहीं है।
वह कुत्ते को
आपका बिलकुल
पता नहीं कि
आप ध्यान कर
रहे हैं। उसे
कुछ मालूम
नहीं है इसका,
वह बिलकुल
अनजान है, वह
अपने काम में
लगा हुआ है।
उसे आपसे कुछ
लेना—देना
नहीं है। वह
भौंक रहा है, उसे भौंकने
देना है। वह
डिस्टर्बेंस
नहीं है आपके
लिए। जब तक आप
उसे
डिस्टर्बेंस
न बना लें! और
वह डिस्टर्बेंस
तब बनता है जब
आप रेसिस्ट
करते हैं। जब
आप यह चाहते
हैं कि कुत्ता
न भौंके, तब
परेशानी शुरू
हो जाती है।
लेकिन कुत्ता
भौंक रहा है, जरूर भौंके।
हम ध्यान कर
रहे हैं, हम
जरूर ध्यान
करें। इन
दोनों में कोई
झगड़ा नहीं, कोई विरोध
नहीं। आप
शांत....... कुत्ते
की आवाज आएगी
और निकलेगी और
चली जाएगी।
मैं
एक छोटे से
गांव में ठहरा
हुआ था—एक
छोटे से रेस्ट
हाउस में। एक
राजनीतिक
नेता भी मेरे
साथ ठहरे हुए
थे। रात उस
रेस्ट हाउस
में न मालूम
क्या हुआ कि
गांव भर के
कुत्ते जैसे
इकट्ठे हो गए, वे
बहुत
चिल्लाने लगे।
वे नेता बहुत
परेशान हो गए।
वे उठ कर मेरे
कमरे में आए
और कहा कि आप
सो गए हैं
क्या? क्योंकि
मैं तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ा हुआ हूं।
ये कुत्तों को
मैं दो बार
भगा आया हूं
लेकिन ये वापस
लौट आते हैं!
मैंने
कहा किसी को
भी भगाइए, वह
हमेशा वापस
लौट आएगा।
भगाने में यही
गलती हो जाती
है। कि जिसको
हम भगाते हैं
वह समझता है
हमारी कोई जरूरत
है, हमसे
कोई मामला है,
हमारा कोई
महत्व है
इसलिए हमें
भगाया जा रहा
है। तो कुत्ते
भी बेचारे
कुत्ते तो हैं।
वे समझ गए
होंगे कि आपको
कोई जरूरत है।
आप कुछ उन्हें
इंपॉर्टेंस
देते हैं, महत्व
देते हैं, तो
वे लौट आते
हैं। और रह गई
बात यह कि
कुत्तों को तो
कोई खबर नहीं है
कि यहां कोई
नेता ठहरे हुए
है—कि वे आपके
लिए चिल्लाते
हों। आदमी तो
है नहीं, आदमी
को पता चल जाए
तो नेता के आस—पास
इकट्ठे हो
जाते हैं। अभी
कुत्तों में
इतनी अक्ल
नहीं आई कि
नेता आ जाए तो
इकट्ठे हो
जाएं। कुत्ते
अपने रोज ही
आते होंगे। आप
यह व्यर्थ का
अपने मन में
भाव न लें कि
मेरी महत्ता
के कारण यहां
ये सब इकट्ठे
हो गए हैं।
उनको बिलकुल
पता भी नहीं
होगा। रह गई
आपके न सोने
की बात, तो
कुत्ते आपको
नहीं जगा रहे
हैं, आप
खुद ही जागे
जा रहे हैं।
आप व्यर्थ ही
यह सोच रहे
हैं कि
कुत्तों को नहीं
भौंकना चाहिए।
आपको क्या हक
है? कुत्तों
को भौंकने का
हक है, आपको
सोने का हक है।
इसमें दोनों
में कोई विरोध
नहीं है। ये
पैरेलल चलती
हैं चीजें, इनमें कहीं
कोई कटाव नहीं
है। कुत्ते
भौंकते
रहेंगे, आप
सोते चले
जाएंगे। न
कुर्त्ते यह
कह सकते हैं
कि आप मत सोइए,
हमारे
भौंकने में
बाधा पड़ती है।
न आप कह सकते
हैं। तो मैंने
उनसे कहा आप
स्वीकार कर
लें कि कुत्ते
भौंक रहे हैं
और चुपचाप
सुनें।
अस्वीकार छोड़
दें।
एक्सेप्ट कर
लें। स्वीकार
कर लें और
स्वीकार करते
ही आप पाएंगे
कि कुत्तों का
भौंकना भी एक
संगतिपूर्ण लयबद्धता
में
परिवर्तित हो
जाता है।
फिर
वे पता नहीं
कब सो गए।
सुबह उठ कर
उन्होंने कहा
कि मैं सच में
हैरान रह गया।
जब कोई रास्ता
न रहा......पहले तो
आपकी बात मुझे
नहीं जंची।
मेरी
बात एकदम से
किसी को भी
नहीं जंचती है।
उनको भी नहीं
जंची।
लेकिन
जब कोई रास्ता
नहीं रहा और
मजबूरी आ गई और
देखा कि अब
कोई उपाय ही
नहीं है— या तो
नींद खराब
करूं या आपकी
बात मामू जब
दो ही विकल्प
रह गए, तो फिर
मैंने कहा अब
कुत्तों की
तरफ तो मैंने ध्यान
दे लिया, अब
आपकी बात पर
भी ध्यान देकर
देख लूं। तो फिर
मैं चुपचाप
लेट गया और
सुनता रहा और
मैंने
स्वीकार कर
लिया। और मुझे
पता नहीं कब
नींद लग गई।
और कुत्ते पता
नहीं कब तक
भौंकते रहे और
कब बंद हो गए।
और मैं सचमुच
पूरी रात ही
सो पाया हूं।
आप
विरोध नहीं
करें, जो भी
चारों तरफ है
उसे चुपचाप
सुनते रहें।
यह जो चुपचाप
सुनते रहना है,
यह बड़ी अदभुत......यह
जो नॉन—रेसिस्टेंस
है, यह जो
अप्रतिरोध है,
यह जो
अविरोध है, जीवन के
प्रति अविरोध
ही ध्यान में
ले जाने का
सूत्र है।
तो
पहले हम शिथिल
होंगे, फिर
हम अविरोध के
भाव में
चुपचाप सुनते
रहेंगे। यह
प्रकाश बुझा
दिया जाएगा, ताकि आपको
खयाल न रह जाए
कि दूसरे लोग
मौजूद हैं।
क्योंकि
कुत्तों को
भूलना आसान है,
पास— पड़ोस
के आदमियों को
भूलना और भी
कठिन है।
तो
सब थोड़े फासले
पर हो जाएंगे
ताकि लेट सकें।
कुछ लोग यहां
पीछे आ जाएं, कुछ
यहां मंच पर आ
जाएं। जो लोग
परिचित हैं वे
थोड़े दूर हट
आएं, जो
अपरिचित हैं
वे मेरे सामने
रह जाएं। और
अपनी—अपनी
लेटने की जगह
बना लें। कोई
किसी को छूता
हुआ नहीं होगा।
हूं—हूं
आ जाओ यहां
ऊपर ही, यह
जगह ले लो।
यह
सब लाइट बुझ
सकेगा न? हां, जल्दी आप हट
जाएं ताकि फिर
लाइट बुझ सके।
और कोई बातचीत
न करें। इसमें
बातचीत की कोई
जरूरत नहीं है।
हां, जल्दी
करें।
समझ
ली न बात? अपनी—अपनी
जगह बना लें।
थोड़े दूर हट
जाएं, कोई
किसी को छूता
हुआ न हो। ये
सामने कुछ लोग
आ जाएं, यहां
फर्श का उपयोग
कर लें। और
बातचीत नहीं
करेंगे। नहीं,
बातचीत
नहीं।
क्योंकि इतनी
बातचीत से
ध्यान में
पीछे जाना
बहुत मुश्किल
होगा। और यह
भी ध्यान
रखेंगे कि
आपके कारण
किसी दूसरे को
जरा भी बाधा न
हो। कुछ भी
ऐसा आपसे न हो
कि किसी दूसरे
को जरा भी बाधा
हो। क्योंकि
आप अपना ध्यान
खराब करने के
हकदार हैं
लेकिन किसी
दूसरे का
ध्यान खराब
करने के हकदार
नहीं हैं।
तो
अपनी— अपनी
जगह बना लें
और फिर धीरे
से लेट जाएं।
धीरे से लेट
जाएं। आख बंद
कर लें।
बिलकुल
आहिस्ता से आख
बंद कर लें।
फिर सारे शरीर
को ढीला छोड़
दें। बिलकुल
ढीला छोड़ दें।
कोई शरीर में
कड़ापन न रहे, कोई
तनाव न रहे।
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। जैसा
आपको
सुविधापूर्ण
लगे, बिलकुल
ढीला छोड़ दें।
ठीक
है! शरीर ढीला
छोड़ दिया है।
अब मैं सुझाव
दूंगा, मेरे
सुझाव के साथ
अनुभव करें।
शरीर ढीला छोड़
दिया है, आख
बंद कर ली है।
शरीर शिथिल हो
रहा है...... भाव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
बिलकुल शिथिल
होता जा रहा
है......शरीर में
शिथिलता दौड़ रही
है..... शरीर के सब
अंग शिथिल
होते जा रहे
हैं......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर धीरे—
धीरे शिथिल
होता जाता है......जैसे—जैसे
भाव करेंगे, शरीर शिथिल
हो जाएगा।
छोड़
दें,
बिलकुल छोड़
दें, शरीर
पर सारी पकड़
छोड़ दें। शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो गया
है......शरीर
बिलकुल शिथिल
हो गया है...।
श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत होती जा
रही है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
बिलकुल शांत
होती जा रही
है... भाव करें, श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
बिलकुल शांत
हो गई है...।
मन
भी मौन हो रहा
है......मन मौन हो
रहा है.. भाव
करें, मन मौन
हो रहा है......मन
भी शांत होता
जा रहा है......मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है. .मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत हो गया
है......मन बिलकुल
शांत हो गया
है...।
अब
दस मिनट के
लिए चुपचाप
सुनते रहें—
कोई भी आवाज
हो,
चुपचाप
सुनते रहें।
सब स्वीकार कर
लें और चुपचाप
सुनते रहें।
सुनते—सुनते
ही गहराई और
गहराई और
गहराई उपलब्ध
होती है।
सुनें......दस
मिनट के लिए
चुपचाप सुनते
रह जाएं...।
सुनते
रहें, सुनते
रहें, शांत
सुनते रहें, मन बिलकुल
शांत हो जाएगा।
मन शांत हो
जाएगा। मन
शांत होता जा
रहा है......मन एक
गहरी शांति
में उतर रहा
है......मन गहरे से
गहरे शांत और
सन्नाटे में
उतर रहा है......मन
धीरे— धीरे
शून्य होता जा
रहा है...।
सुनते
रहें, सुनते
रहें......मन
शून्य होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
बिलकुल शांत
होता जा रहा
है......चुपचाप
सुनते रहें......मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है......मन
शांत हो गया
है......मन बिलकुल
शून्य हो गया
है...। और गहरे डूब
जाएं, और
गहरे उतर जाएं।
मन बिलकुल
शून्य हो गया
है......मन शून्य
हो गया है... 'इस
शून्य को पूरी
तरह अनुभव
करें, रोज—रोज
इसी शून्य में
प्रवेश करें।
मन बिलकुल
शून्य हो गया
है...।
अब
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें... धीरे—
धीरे लेटे हुए
ही दो—चार
गहरी श्वास
लें।
प्रत्येक
श्वास के साथ
बहुत गहरी
शांति अनुभव
होगी। धीरे—
धीरे दों—चार
गहरी श्वास
लें। फिर बहुत
आहिस्ता से आख
खोलें। लेटे
हुए ही धीरे
से आख खोलें।
जैसी शांति
भीतर है वैसी
शांति बाहर भी
अनुभव होगी।
धीरे से आख
खोलें, फिर
धीरे— धीरे उठ
कर बैठ जाएं।
किसी को बाधा
न हो, बहुत
आहिस्ता से।
बहुत चुपचाप
धीरे से उठ कर
बैठ जाएं।
धीरे से
चुपचाप अपनी
जगह पर बैठ
जाएं।
यह
तो हमने
प्रयोग के लिए
समझा, लौट कर
अपने—अपने
कमरे पर
प्रयोग को
करें और फिर
चुपचाप सो
जाएं। इस
प्रयोग को
करने के बाद
चुपचाप सो
जाएं।
रात्रि
की बैठक पूरी
हुई।
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