दिनांक 1 जून, 1963; सन्ध्या
मुछाला
महावीर, रणकपुर
चिदात्मन्!
सबसे
पहले मेरा
प्रेम
स्वीकार करें।
इस पर्वतीय
निर्जन में, मैं
उससे ही आपका
स्वागत कर
सकता हूं। यूं
इसके
अतिरिक्त
मेरे पास देने
को कुछ है भी
नहीं।
प्रभु
के सान्निध्य
ने जिस अनंत
प्रेम को मेरे
भीतर जन्म
दिया है उसे
बांटना चाहता
हूं उसे
उलीचना चाहता
हूं। और
आश्चर्य तो
यही है कि
जितना उसे
बांटता हूं वह
उतना ही बढ़ता
जाता है।
शायद, वास्तविक
संपत्ति वही
है जो बांटने
से बढ़ती है।
जो बांटने से
कम हो, वह
संपति
वास्तविक
नहीं है।
क्या
आप मेरे इस
प्रेम को
स्वीकार
करेंगे?
आपकी
आंखों में मैं
स्वीकृति देख
रहा हूं और वे
भी प्रत्युत्तर
में प्रेम से
भर आई हैं।
प्रेम प्रेम
को जगाता है।
घृणा घृणा
को जगा देती
है। हम जो
देते हैं, वही
हम पर वापिस
लौट आता है।
यही शाश्वत
नियम है।
इसलिए, जो
चाहते हों कि
आपको मिले, वही जगत को
देना आवश्यक
है। कांटे
देकर कोई फूल
वापसी में
नहीं पा सकता
है।
मैं
आपकी आंखों
में खिले
शांति और
प्रेम के फूल
देख रहा हूं।
इससे बहुत अनुगृहीत
हुआ। यहां अब
हम अनेक नहीं
हैं। प्रेम
जोड़ देता है
और अनेक को एक
कर देता है।
शरीर तो भिन्न
हैं और भिन्न
ही रहते हैं, पर
उनके पीछे कोई
है जिससे
प्रेम में
मिलन हो जाता
है और जिससे
प्रेम में
एकता हो जाती
है।
उस
एकता के बाद
ही कुछ कहा और
कुछ समझा जा
सकता है।
प्रेम
में और केवल
प्रेम में ही
संवाद, कम्युनिकेशन संभव होता
है।
इस
निर्जन में हम
इकट्ठे हुए
हैं ताकि मैं
आपसे कुछ कह
सकूं और आप
मुझे सुन सकें।
यह कहना और
सुनना प्रेम
की भूमिका के
अतिरिक्त
संभव नहीं है।
हृदय के द्वार
केवल प्रेम के
लिए ही खुलते
हैं। और स्मरण
रहे कि जब
मस्तिष्क से
नहीं, हृदय से
सुना जाता है,
तभी वस्तुत:
सुना जाता है।
आप
कहेंगे कि
क्या हृदय भी
सुनता है?
मैं
कहूंगा कि जब
भी सुनना संभव
होता है, हृदय
ही सुनता है।
मस्तिष्क ने
आज तक कुछ भी
नहीं सुना है।
मस्तिष्क
बिलकुल बहरा
है।
और, वही
बोलने के
संबंध में भी
सच है। बोल जब
हृदय से आते
हैं, तभी
वे सार्थक हैं।
हृदय से आकर
ही उनमें वह
गंध होती है
जो ताजा फूलों
की है, अन्यथा
वे बासे
ही नहीं, कागज
के ही फूल
होते हैं।
मैं
अपने हृदय को उड़ेलूंगा
और यदि आपके
हृदय ने द्वार
दिया तो मिलन
और संवाद हो
सकेगा। और, तब
उस मिलन के
क्षण में वह
भी सवांदित
हो जाता है
जिसे कि शब्द
कहने में
समर्थ नहीं हैं।
बहुत सा अनकहा
भी उस भांति
सुना जाता है।
और, वह सब
जो पंक्तियों
में नहीं, वरन
पंक्तियों के
बीच के अंतराल
में होता है, वह भी
संप्रेषित हो
जाता है।
शब्द
बहुत असमर्थ
संकेत हैं, पर
यदि उन्हें
चित्त की
परिपूर्ण
शांति और मौन
में सुना जा
सके तो वे
समर्थ हो जाते
हैं। इसे ही
मैं ' हृदय
से सुनना' कहता
हूं।
पर, हम
तो किसी को
सुनते समय भी
स्वयं के ही
विचारों से
भरे रहते हैं।
वह श्रवण झूठा
है। वैसी
स्थिति में आप
' श्रावक ' नहीं हैं।
आपको भ्रम ही
है कि आप सुन
रहे हैं, पर
आप सुन नहीं
रहे हैं।
सम्यक
श्रवण के लिए
चित्त का
बिलकुल
मौन-सजगता, साइलेंट वॉचफुलनेस
में होना
आवश्यक है। आप
बस सुन ही रहे
हैं और कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं तब ही आप
सुन पाते हैं,
और समझ पाते
हैं, और वह
समझ, अंडरस्टैंडिंग
आपके भीतर एक
परिवर्तन और
प्रकाश बन
जाती है।
यदि
ऐसा नहीं है, तो
आप किसी और को
नहीं, अपने
को ही सुनते
रहते हैं।
आपके भीतर का
कोलाहल ही
आपको घेरे
रहता है। उस
घिराव में कुछ
भी आपमें
संप्रेषित
नहीं होता है।
तब आप देखते
मालूम होते
हैं, पर
देखते नहीं
हैं और सुनते
प्रतीत होते
हैं, पर
सुनते नहीं
हैं।
क्राइस्ट
ने कभी कहा था ' जिनके
पास आंखें हों,
वे देखें और
जिनके पास कान
हों, वे
सुनें।’ क्या
जिनसे
उन्होंने यह
कहा था, उनके
पास कान और आंखें
नहीं थीं? उनके
पास आख और कान
तो जरूर थे, पर आख और कान
का होना ही
देखने और सुनने
के लिए
पर्याप्त
नहीं है। कुछ
और भी चाहिए।
जिसके बिना कि
उनका होना और
न होना बराबर
है।
वह
कुछ '
और' है, आंतरिक मौन,
इनर साइलेंस
और सजग जिज्ञासा।
उस स्थिति में
ही चित्त के
द्वार खुले
हुए होते हैं
और कुछ कहा और
सुना जा सकता
है।
साधना-शिविर
की अवधि में
मैं ऐसे श्रवण
की अपेक्षा
करता हूं। और
वह एक बार आ
जाए,
तो सारे
जीवन का साथी
हो जाता है, क्योंकि
उसके माध्यम
से ही हम अपनी
क्षुद्र व्यस्तता
से मुक्त होते
हैं, और
बाहर जो विराट
रहस्य का जगत
है उसके प्रति
जाग पाते हैं
और चित्त के
कोलाहल के
पीछे जो चेतना
का अनादि, अनंत
प्रकाश है, उसे अनुभव
कर पाते हैं।
सम्यक
दर्शन या
सम्यक श्रवण
केवल
साधना-शिविर
की आवश्यकता
नहीं है, वह
पूरे सम्यक
जीवन का आधार
है। शांत, सोई
हुई लहरों
वाली झील में
जैसे सब
प्रतिबिंबित
होता है, ऐसे
ही आप बनें तो
वह आप में
प्रतिबिंबित
होगा जो कि
सत्य है, जो
कि प्रभु है।
मैं
वैसे मौन को
आपमें आते देख
रहा हूं और
आपकी आंखें और
आपकी सजग
प्यास मुझे कह
रही है कि मैं
वह कहूं जो कि
मुझे कहना है।
और उन सत्यों
को जिनके
दर्शन ने मुझे, मेरी
आत्मा को आदोलित
किया है, आपके
समक्ष रखूं
क्योंकि आपके
हृदय उन्हें
समझने को
उत्सुक और
आतुर हैं।
आप
तैयार हैं, यह
देख कर मेरा
हृदय भी आपके
प्रति
प्रवाहित होने
को तैयार हो
रहा है।
इस
शांत
परिस्थिति
में और आपकी
इस शांत मनःस्थिति
में मैं अवश्य
ही वह कह
सकूंगा जो मैं
चाहता हूं कि
सबको कह दूं
लेकिन बहरे
हृदयों को देख
कर अपने को
रोक लेना पड़ता
है। क्या आपके
घर के द्वार
बंद देख
प्रकाश बाहर ही
नहीं रुक जाता
है?
ऐसे ही अनेक
घरों के सामने
मुझे रुक जाना
पड़ता है।
पर, आपके
द्वार खुले
हैं और यह शुभ
है। यह
शुभारंभ है।
कल
प्रभात से हम
साधना का पंच
दिवसीय जीवन
प्रारंभ
करेंगे। उसकी
भूमिका के तौर
पर कुछ बातें
आपसे कह देनी
जरूरी हैं।
सत्य
की साधना के
लिए चित्त की
भूमि वैसे ही
तैयार करनी
होती है, जैसे
फूलों को बोने
के लिए पहले
भूमि को तैयार
किया जाता है।
कुछ
सूत्र समझ लें।
पहला
सूत्र है
वर्तमान में
जीना, लिविंग
इन दि प्रेजेंट।
अतीत और
भविष्य के
चिंतन की
यांत्रिक
धारा में इन
दिनों न बहे।
उसके कारण
वर्तमान का
जीवित क्षण, लिविंग
मोमेंट
व्यर्थ ही
निकल जाता है
जब कि केवल
वही वास्तविक
है। न अतीत की
कोई सत्ता है,
न भविष्य की।
एक स्मृति में
है, एक
कल्पना में।
वास्तविक और
जीवित क्षण
केवल वर्तमान
है। सत्य को
यदि जाना जा
सकता है तो
केवल वर्तमान में
होकर ही जाना
जा सकता है।
साधना के इन
दिनों में स्मरणपूर्वक
अतीत और
भविष्य से
अपने को मुक्त
रखें। समझें
कि वे हैं ही
नहीं। जो क्षण
पास है-जिसमें
आप हैं, बस
वही है। उसमें
और उसे
परिपूर्णता
से जी लेना है।
आज
की रात्रि ऐसे
सोए जैसे सारा
अतीत छोड़ कर सो
रहे हैं। अतीत
के प्रति मर
जाएं। और
सुबह-एक नई
सुबह में और
एक नये मनुष्य
की भांति उठें।
जो सोया था वह
न उठे। वह सो
ही जाए। उसे
उठने दें जो
कि नित-नया है
और अभिनव है।
इस वर्तमान
में जीने को
सतत,
चौबीस घंटे
स्मरण रखें और
होश रखें कि
कहीं अतीत और
भविष्य-चिंतन
की यांत्रिक
आदतें पुन:
सक्रिय तो
नहीं हो गई
हैं। उनके
प्रति सजग, वाँचफुल रहना ही
पर्याप्त है।
उनकी
जागरूकता हो
तो वे सक्रिय
नहीं हो पाती हैं।
अमूर्च्छा
उन्हें तोड़
देती है।
दूसरा
सूत्र है
सहजता से जीना।
मनुष्य का
सारा व्यवहार
कृत्रिम और
औपचारिक है।
एक मिथ्या
आवरण हम अपने
पर सदा ओढ़े
रहते हैं। और
इस आवरण के
कारण हमें
अपनी
वास्तविकता
धीरे- धीरे
विस्मृत ही हो
जाती है। इस
झूठी खाल को
निकाल कर अलग
रख देना है।
नाटक करने
नहीं, स्वयं
को जानने और
देखने हम यहां
एकत्रित हुए हैं।
नाटक के बाद
नाटक के पात्र
जैसे अपनी
नाटकीय वेशभूषा
को उतार कर रख
देते हैं, ऐसे
ही आप भी इन
दिनों में
अपने मिथ्या
चेहरों को
उतार कर रख
दें। वह जो आप
में मौलिक है
और सहज है- उसे
प्रकट होने
दें और उसमें जीएं। सरल
और सहज जीवन
में ही साधना
विकसित होती
है।
साधना
के इन दिनों
में जानें कि
न आपका कोई पद है, न
कोई वैशिष्टय
है, न
प्रतिष्ठा है।
उन सारी नकाबों
को अलग कर दें।
आप निपट आप
हैं और अति
साधारण
मनुष्य हैं, जिसका न कोई
नाम है, न
कोई
प्रतिष्ठा है,
न कुल है, न वर्ग है, न जाति है।
एक नामहीन व्यक्ति-
एक अति साधारण
इकाई
मात्र-ऐसे
हमें जीना है।
स्मरण रहे कि
वही हमारी
वास्तविकता
भी है।
तीसरा
सूत्र है
अकेले जीना।
साधना का जीवन
अत्यंत
अकेलेपन में, एकाकीपन
में जन्म पाता
है। पर मनुष्य
साधारणत: कभी
भी अकेला नहीं
होता है। वह
सदा दूसरों से
घिरा रहता है
और बाहर भीड़
में न हो तो
भीतर भीड़ में
होता है। इस
भीड़ को
विसर्जित कर
देना है। भीतर
भीड़ को इकट्ठी
न होने दें और
बाहर भी ऐसे जीएं कि
जैसे इस शिविर
में आप अकेले
ही हैं। किसी
दूसरे से कोई
संबंध नहीं
रखना है।
संबंधों
में हम उसे
भूल गए हैं जो
कि हम स्वयं हैं।
आप किसी के
मित्र हैं या
कि शत्रु हैं, पिता
हैं या कि
पुत्र हैं, पति हैं या
कि पत्नी
है-ये संबंध
आपको इतने घेरे
हुए हैं कि आप
स्वयं को अपनी
निजता में नहीं
जान पाते हैं।
क्या आपने कभी
कल्पना की है
कि आप अपने
संबंध से
भिन्न कौन हैं?
क्या आपने
अपने आप को
अपने संबंधों
के वस्त्रों
से भिन्न करके
भी कभी देखा
है? सब
संबंधों, रिलेशनशिप्स
से अपने को ऋण
कर लें। समझें
कि आप अपने
मां-बाप के
पुत्र नहीं
हैं, अपनी
पत्नी के पति
नहीं हैं, अपने
बच्चों के
पिता नहीं हैं,
मित्रों के
मित्र नहीं
हैं, शत्रुओं
के शत्रु नहीं
हैं और तब जो शेष
बच रहता है, जानें कि
वही आपका
वास्तविक
होना है। वह
शेष सत्ता ही
अपने आप में
आप, यू-इन योरसेल्फ
हैं। उसमें ही
हमें इन दिनों
जीना है।
इन
सूत्रों पर
चलने से चित्त
की वह स्थिति
बनेगी जो कि
शांति और सत्यानुभूति
की साधना के
लिए अत्यंत
आवश्यक है।
इन
सूत्रों के
साथ ही मैं उन
दो ध्यानों, मेडिटेशस के संबंध
में भी आपको
कुछ समझा दूं
जो कि हमें कल
प्रातःकाल से
ही प्रारंभ
करने हैं।
पहला
ध्यान
प्रातःकाल के
लिए। इस ध्यान
में रीढ़ को
सीधा रख कर आंखें
बंद करके, गर्दन
को सीधा रखना
है। ओंठ बंद
हों और जीभ
तालु से लगी
हो। श्वास
धीमी पर गहरी
लेना है। और
ध्यान नाभि के
पास रखना है।
नाभि-केंद्र
पर श्वास के
कारण जो कंपन
मालूम होता है,
उसके प्रति
जागे हुए रहना
है। बस इतना
ही करना है।
यह प्रयोग
चित्त को शांत
करता है और
विचारों को
शून्य कर देता
है। इस शून्य
से अंततः
स्वयं में
प्रवेश हो जाता
है।
दूसरा
ध्यान रात्रिकाल
के लिए। आराम
से शरीर को
लिटा दें और
सब अंगों को
पूर्णतया
शिथिल, रिलैक्स
छोड़ दें। आंखें
बंद कर लें और
फिर दो मिनट
तक शरीर शिथिल
हो रहा है; ऐसा
भाव, ऑटो-सजेशन
करते रहें।
शरीर क्रमश:
शिथिल हो
जाएगा। फिर दो
मिनट तक श्वास
शांत हो रही
है, ऐसा
भाव करें।
श्वास भी शांत
हो जाएगी।
अंततः दो मिनट
तक भाव करें
कि विचार
शून्य हो रहे
हैं। ऐसी
संकल्पपूर्वक
भावनापूर्ण
शिथिलता शांति
और शून्यता
में ले जाती
है। जब चित्त
परिपूर्ण
शांत हो जाए, तब अंतस में
पूर्णतया जाग
कर उस शांति
के साक्षी, विटनेस बने
रहें। वह साक्षीभाव
स्वयं में ले
जाता है।
इन
दो ध्यानों को
ध्याना
है। ये
वस्तुत:
कृत्रिम उपाय, आर्टिफीशियल डिवाइस हैं।
इन्हें पकड़
नहीं लेना है।
इनके माध्यम
से चित्त की
अशांति
विसर्जित हो जाती
है। और जैसे
जिस सीढ़ी को
हम चढ़ जाते
हैं, उसे
छोड़ देते हैं,
ऐसे ही एक
दिन इन्हें भी
छोड़ देना होता
है।
उस
दिन ध्यान
पूर्ण होता है, जिस
दिन कि वह
अनावश्यक हो
जाता है। उस
अवस्था का नाम
ही समाधि है।
अब
रात्रि घनी हो
गई है और आकाश
तारों से भर
गया है। वृक्ष
सो गए हैं। घाटियां
सो गई हैं। और
अब हम भी सोए।
सब कितना शांत, निस्तब्ध
है। इस
निस्तब्धता
में हम भी मिल
जाएं। पूर्ण
सुषुप्ति में-स्वप्नशून्य
सुषुप्ति में,
हम वहीं
पहुंच जाते
हैं, जहां
परमात्मा है।
वह प्रकृति से
मिली सहज अबोध
समाधि है।
साधना से भी
हम वहीं
पहुंचते हैं,
पर उस समय
हम प्रबुद्ध
और जागे हुए होते
हैं। वही भेद
है। वह बहुत
बड़ा भेद है।
एक में हम
सोते हैं, दूसरे
में जाग जाते
हैं।
अभी
तो हम
सुषुप्ति में
चलें और आशा
रखें कि समाधि
में भी चलना
हो सकेगा।
संकल्प और
श्रम के साथ
आशा हो तो वह
अवश्य फलवती
होती है।
प्रभु
मार्ग दे, यही
मेरी कामना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें