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सोमवार, 10 अगस्त 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--2) प्रवचन-27

ध्वनि—संबंधी तीन विधियां—(प्रवचन—सत्‍ताइसवां)

सूत्र:

39—ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद—मंद उच्‍चारण करो।
      जैसे—जैसे ध्‍वनि पूर्णध्‍वनि में प्रवेश करती है।
      वैसे—वैसे तुम भी....।
40—किसी भी अक्षर के उच्‍चारण के आरंभ में और
      उसके क्रमिक परिष्‍कार में, निर्ध्‍वनि में जागो।
41—तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त
      केंद्रीय ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता
      को उपलब्‍ध हो जाओ।

 नहीं तुमने प्रति—पदार्थ की, एंटी—मैटर की धारणा की चर्चा सुनी है या नहीं। हाल ही में भौतिकी के जगत में एक नयी धारणा का आगमन हुआ है, प्रति—पदार्थ की धारणा का।
यह सदा समझा गया है कि इस जगत में कुछ भी अपने विपरीत के बिना नहीं हो सकता, कोई चीज अपने विपरीत के बिना अकेली हो सके, इसकी कल्पना असंभव है।
जाने—अनजाने ध्रुवीय विपरीतताओं का होना अनिवार्य है। छाया प्रकाश के बिना नहीं हो सकती; जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकता; सुबह रात के बिना नहीं हो सकती, और पुरुष स्त्री के बिना नहीं हो सकता। ऐसी कोई चीज तुम नहीं सोच सकते जो अपने विपरीत के बिना हो सके। विपरीत ध्रुवों का होना अनिवार्य है।
दर्शनशास्त्र तो ऐसा सदा से कहता आया था; लेकिन अब यह प्रस्तावना भौतिक विज्ञान की ओर से की जा रही है 1 और इस धारणा के कारण बहुत अजीब से विचार विकसित हो रहे हैं। समय अतीत से भविष्य की ओर गति करता है; लेकिन अब भौतिकशास्त्र कहता है कि अगर समय अतीत से भविष्य में गति करता है तो अवश्य ही कहीं न कहीं विपरीत समय की प्रक्रिया भी होनी चाहिए जहां समय भविष्य से अतीत में गति करता हो। अन्यथा समय—क्रम नहीं हो सकता। लेकिन वह है। तो उसकी ध्रुवीय विपरीतता का, प्रति—समय का होना बहुत जरूरी है। भविष्य से अतीत की ओर गति? बात ही बेतुकी लगती है। कोई चीज भविष्य से अतीत में कैसे गति कर सकती है?
भौतिकशास्त्री यह भी कहते हैं कि अगर पदार्थ है तो कहीं प्रति—पदार्थ भी जरूर होगा। यह प्रति—पदार्थ क्या होगा? पदार्थ घनत्व है। मान लो कि यहां मेरे हाथ में एक पत्थर है। वह पत्थर क्या है? उसके चारों ओर स्पेस है, स्थान है और इस स्थान के बीच में पदार्थ का घनत्व है। वह घनत्व ही पदार्थ है। तो प्रति—पदार्थ क्या होगा? वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रति—पदार्थ स्थान में, स्पेस में महज छिद्र होगा। घनत्व पदार्थ है, और वैसे ही स्पेस में एक छिद्र है, जिसमें कुछ भी नहीं है। उस छिद्र के चारों ओर स्पेस होगा; लेकिन छिद्र बस शून्यता होगा।
वैज्ञानिक कहते हैं, पदार्थ के संतुलन कै लिए प्रति —पदार्थ का होना अनिवार्य है। लेकिन मैं क्‍यों इस बात की चर्चा कर रहा हूं? क्‍योंकि ये जा आने वाले सूत्र हैं वे इसी विपरीतता के सिद्धांत पर आधारित हैं। ध्वनि है, लेकिन तंत्र कहता है कि ध्वनि इसीलिए है क्योंकि मौन है। मौन के बिना ध्वनि असंभव है। मौन प्रति—पदार्थ ध्वनि है, अ— ध्वनि है, निर्ध्वनि है। जहां—जहां ध्वनि होगी, उसके पीछे ही मौन होगा—ठीक पीछे। ध्वनि मौन के बिना नहीं हो सकती; वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मैं एक शब्द का उच्चारण करता हूं उदाहरण के लिए ओम का उच्चारण करता हूं। मैं इसका जितना ही उच्चारण करूंगा उतना ही उसके पीछे उसका प्रति—तत्व, मौन मौजूद होगा। तो अगर तुम मौन में प्रवेश के लिए ध्वनि को विधि के रूप में उपयोग करो तो तुम ध्यान में प्रवेश पा सकोगे। अगर तुम किसी शब्द को शब्द के पार जाने के लिए काम में ला सको तो तुम्हारी ध्यान में गति हो जाएगी।
इसे इस तरह देखो। मन शब्द है और ध्यान अ—मन है। मन ध्वनि से, शब्द से, विचार से भरा है; लेकिन उसके पास ही उसका विपरीत, अ—मन मौजूद है। झेन गुरु ध्यान को अ—मन की अवस्था कहते हैं।
मन क्या है? अगर इसका विश्लेषण करो तो मन विचार की प्रक्रिया है। अगर भौतिकी की भाषा में सोचो तो वह ध्वनि की प्रक्रिया है। यदि यह ध्वनि—प्रक्रिया मन है तो उसके पास ही अ—मन को होना चाहिए। और मन को आधार बनाए बिना तुम अ—मन में नहीं गति कर सकते, क्योंकि मन को समझे बिना अ—मन की धारणा बनाना कठिन है। मन को आधार बनाना ही होगा और उससे ही अ—मन में छलांग लग सकती है।
इस संबंध में दो परस्पर—विरोधी विचारधाराएं हैं। एक विचारधारा है जिसका नाम साख्य है। साख्य कहता है कि मन का उपयोग नहीं करना है। अगर तुम मन का उपयोग करोगे तो मन के पार नहीं जा सकते। यही कृष्‍णमूर्ति कहते हैं। वे सांख्यवादी हैं। तुम मन का उपयोग नहीं कर सकते; उसका उपयोग अगर करोगे तो मन के पार नहीं जा सकते। क्योंकि मन के उपयोग से मन और मजबूत होगा; उसके उपयोग से तुम उसके चक्कर में पड़ जाओगे। मन के उपयोग से मन का अतिक्रमण नहीं हो सकता, मन का उपयोग ही मत करो।
यही कारण है कि कृष्णमूर्ति सभी ध्यान—विधियों के विरोध में हैं। विधि तो मन को आधार बनाकर ही काम में लायी जा सकती है। विधि को उपयोग में लाने के लिए मन का उपयोग अनिवार्य हो जाता है। विधि संस्कार निर्मित करेगी, या पुनर्संस्कार या असंस्कार, जो भी नाम दो, निर्मित करेगी। वह मन का ही खेल होगा। सांख्य कहता है कि मन का उपयोग नहीं किया जा सकता; बस इसे समझो और छलांग लग जाएगी।
लेकिन योग कहता है कि यह असंभव है; यह समझ भी तो मन से ही आएगी। यह समझ—कि मन का उपयोग नहीं किया जा सकता, कि कोई विधि काम नहीं दे सकती, कि हर विधि बाधा बनेगी और तुम जो भी करोगे उससे नया संस्कार ही निर्मित होगा—यह समझ भी तो मन के द्वारा ही घटित होती है। मन को ही तो यह समझना है। तो योग कहता है कि मन के उपयोग से बचने का उपाय नहीं है; मन का उपयोग करना ही होगा।
लेकिन योग कहता है कि मन का उपयोग विधायक रूप से नहीं, नकारात्मक रूप से किया जाना चाहिए। उसका उपयोग इस ढंग से किया जाए कि वह और मजबूत हो; बल्‍कि उपयोग इस ढंग से हो कि उससे मन क्षीण हो, कमजोर हो। विधियां तो उपाय बताती हैं कि मन का उपयोग इस तरह करो कि मन के पार चले जाओ। मन से तुम जंपिंग बोर्ड का काम ले सकते हो; उसे आधार बनाकर तुम अ—मन में छलांग लगा सकते हो।
और अगर मन से जंपिंग बोर्ड का काम लिया जा सकता है—और योग और तंत्र मानते हैं कि यह काम लिया जा सकता है—तो कुछ चीजें जो मन की हैं उनका उपयोग किया जा सकता है। ध्वनि उन्हीं बुनियादी चीजों में है; तुम मौन में जाने के लिए ध्वनि का उपयोग कर सकते हो।

 ध्वनि—संबंधी तीसरी विधि :
ओम जैसी किसी ध्वनि का मंद— मंद उच्चारण करो। जैसे— जैसे ध्वनि पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है वैसे— वैसे तुम भी।
'ओम जैसी किसी ध्वनि का मंद—मंद उच्चारण करो।’
उदाहरण के लिए ओम को लो। यह एक आधारभूत ध्वनि है। अ, उ और म, ये तीन ध्वनियां ओम में सम्मिलित हैं। ये तीनों बुनियादी ध्वनियां हैं। अन्य सभी ध्वनियां उनसे ही बनी हैं, उनसे ही निकली हैं, या उनकी ही यौगिक ध्वनियां हैं। ये तीनों बुनियादी हैं। जैसे भौतिकी के लिए इलेक्ट्रान, न्‍यूट्रान और प्रोटान बुनियादी हैं। इस बात को गहराई में समझना होगा।
गुरजिएफ ने तीन के नियम की बात की है। वह कहता है कि आत्यंतिक अर्थ में अस्तित्व एक है। आत्यंतिक अर्थ में, परम अर्थ में एक ही नियम है; लेकिन वह परम है। और जो कुछ हम देखते हैं वह सापेक्ष है, वह परम नहीं है। वह परम तो सदा प्रच्छन्न है, छिपा है, हम उसे देख नहीं सकते। क्योंकि जैसे ही हमें कुछ दिखाई पड़ता है, वह तीन में विभाजित हो जाता है; वह तीन में, द्रष्टा, दृश्य और दर्शन में बंट जाता है।
मैं तुम्हें देख रहा हूं तो मैं हूं तुम हो और हम दोनों के बीच दर्शन का, ज्ञान का संबंध है। प्रक्रिया तीन में बंट गई, परम तीन में विभाजित हो गया। जिस क्षण वह ज्ञान बनता है उसी क्षण वह तीन में बंट जाता है। अज्ञात वह एक है; ज्ञात होते ही वह तीन हो जाता है। ज्ञात सापेक्ष है, अज्ञात परम है। परम के संबंध में हमारी चर्चा भी, हमारी बातचीत भी परम नहीं है, क्योंकि ज्यों ही हम उसे परम कहकर पुकारते हैं, वह ज्ञात हो जाता है। जो भी हम जानते हैं वह सापेक्ष है; यह परम शब्द भी सापेक्ष हो जाता है।
यही कारण है कि लाओत्सु जोर देकर कहता है कि सत्य कहा नहीं जा सकता; जैसे ही तुम उसे कहते हो वह असत्य हो जाता है। कारण यह है कि शब्द देते ही वह सापेक्ष हो जाता है। हम जो भी शब्द दें, चाहे सत्य, परम, पारब्रह्म या ताओ कहें, बोलते ही वह सापेक्ष हो जाता है, बोलते ही वह असत्य हो जाता है। एक तीन में बंट जाता है।
तो गुरजिएफ कहता है कि जिस जगत को हम जानते हैं उसके लिए तीन का नियम आधारभूत है। अगर हम गहरे में उतरें तो पाएंगे—पाएंगे ही—कि प्रत्येक चीज तीन से बंधी है। इसे ही तीन का नियम कहते हैं। ईसाई इसे ट्रिनिटी कहते हैं, जिसमें ईश्वर पिता, जीसस पुत्र और पवित्र आत्मा सम्मिलित हैं। भारतीय इसे त्रिमूर्ति कहते हैं, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश के मुख एक ही सिर में हैं। और अब भौतिकशास्त्र कहता है कि अगर हम पदार्थ का विश्‍लेषण करते हुए उसके भीतर प्रवेश करें तो पदार्थ तीन में टूट जाएगा—इलेक्‍ट्रान, न्‍यूट्रान और प्रोट्रान।
वैसे ही कवि कहते हैं कि यदि हम मनुष्य के सौंदर्य—बोध की, उसके भाव की गहराई में उतरें तो वहां भी तीन ही मिलेंगे—सत्य, शिव और सुंदर। मानवीय भावना भी तीन में बंटी है। और रहस्यवादी कहते हैं कि अगर हम समाधि का विश्लेषण करें तो वहां भी सच्चिदानंद की त्रयी है—सत, चित और आनंद की त्रयी है। मनुष्य की पूरी चेतना, चाहे वह जिस किसी आयाम में गति करे, तीन के नियम पर पहुंच जाती है।
ओम तीन के नियम का प्रतीक है। अ, उ और म—ये तीन बुनियादी ध्वनियां हैं। तुम उन्हें आणविक ध्वनियां भी कह सकते हो, जिन्हें ओम में सम्मिलित कर दिया गया है। ओम परम के, परमात्मा के अत्यंत निकट है; उसके पीछे ही परम का, अज्ञात का वास है। जहां तक ध्वनियों का संबंध है, ओम उनका अंतिम पड़ाव है। अगर तुम ओम के पार जाते हो तो तुम ध्वनियों के पार चले जाते हो। उसके बाद ध्वनि नहीं है। यह ओम अंतिम ध्वनि है। ये तीन अंतिम हैं। ये अस्तित्व की सीमा बनाती हैं; इन तीन के पार अज्ञात में, परम में प्रवेश है।
भौतिकविद कहते हैं कि अब हम इलेक्ट्रान पर पहुंचकर अंतिम सीमा पर पहुंच गए हैं; क्योंकि इलेक्ट्रान को पदार्थ नहीं कहा जा सकता। ये इलेक्ट्रान, ये विद्युत—अणु दृश्य नहीं हैं; उनमें पदार्थ—तत्व नहीं है। और उन्हें अपदार्थ भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि सब पदार्थ उनसे ही बनता है। और अगर वह न पदार्थ है और न अपदार्थ तो फिर उसे क्या कहा जाए? किसी ने भी इलेक्ट्रान को नहीं देखा है। उनका अनुमान भर होता है, गणित के आधार पर माना गया है कि वे हैं। उनका प्रभाव जाना गया है; लेकिन उन्हें देखा नहीं गया है। और हम उनके आगे नहीं जा सकते; तीन का नियम आखिरी है। और अगर तुम तीन के नियम के पार जाते हो तो तुम अज्ञात में प्रवेश कर जाते हो। तब कुछ भी कहना असंभव है। इलेक्ट्रान के बारे में ही बहुत कम कहा जा सकता है।
जहां तक ध्वनि का संबंध है, ओम आखिरी है, तुम ओम के आगे नहीं जा सकते। यही कारण है कि ओम का इतना अधिक उपयोग किया गया। भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में ओम का व्यवहांर होता आया है। ईसाइयों और मुसलमानों का आमीन ओम का ही दूसरा रूप है। आमीन की बुनियादी ध्वनियां भी वही हैं। अंग्रेजी के शब्द ओमनीप्रेजेंट, ओमनीपोटेंट और ओमनीसिएंट में भी वही है, उनका ओमनी उपसर्ग ओम से ही आता है। ओमनीप्रेजेंट उसे कहते हैं जो समस्त अस्तित्व में समाया हो, सर्वव्यापी हो। ओमनीपोटेट का अर्थ है कि जो परम शक्तिशाली हो। और ओमनीसिएंट वह है जिसने ओम को, समस्त को, तीन के नियम को देखा हो, सर्वज्ञ हो। सारा ब्रह्मांड उसमें समाया है।
ईसाई और मुसलमान तो अपनी प्रार्थना के अंत में आमीन कहते हैं; लेकिन हिंदुओं ने ओम का एक पूरा विज्ञान ही निर्मित किया है। वह ध्वनि का विज्ञान है; वह ध्वनि के अतिक्रमण का विज्ञान है। और अगर मन ध्वनि है तो अ—मन अवश्य निर्ध्वनि होगा, या पूर्णध्वनि होगा। दोनों का एक ही अर्थ है।
इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। परम को विधायक या नकारात्मक, किसी भी ढंग से कहा जा सकता है। सापेक्ष को दोनों ढंग से; कहना होगा, विधायक और नकारात्मक दोनों ढंग से; क्योंकि वह द्वैत है। लेकिन जब तुम परम को अभिव्यक्ति देने चलोगे तो या तो तुम विधायक शब्‍द प्रयोग करोगे या नकारात्‍मक। मनुष्‍य की भाषा में दोनों तरह के शब्‍द है, विधायक और नकारात्मक दोनों हैं। जब तुम परम को, अनिर्वचनीय को बताने चलोगे तो तुम्हें कोई शब्द उपयोग करना होगा जो प्रयोगात्मक हो। यह मन—मन पर निर्भर है।
उदाहरण के लिए बुद्ध नकारात्मक शब्द पसंद करते थे। वे निर्ध्वनि कहते, कभी पूर्णध्वनि नहीं कहते। पूर्णध्वनि विधायक शब्द है; बुद्ध निर्ध्वनि का प्रयोग करते। लेकिन तंत्र विधायक शब्द प्रयोग करता है। तंत्र की पूरी चिंतन। विधायक है। यही कारण है कि यहां पूर्णध्वनि का उपयोग किया गया है।
सूत्र कहता है: ’पूर्णध्वनि में प्रवेश करो।’
बुद्ध परम को नकार के शब्दों में कहते हैं; वे उसे शून्य कहते हैं। उपनिषद उसी परम को ब्रह्म कहते हैं। बुद्ध उसे शून्य कहेंगे और उपनिषद ब्रह्म; लेकिन दोनों का अभिप्राय एक है।
जब शब्दों के अर्थ खो जाते हैं तब तुम विधायक या नकारात्मक दोनों में से किसी का भी उपयोग कर सकते हो। तुम किसी एक को चुन सकते हो, यह तुम पर निर्भर है। किसी मुक्त पुरुष के लिए तुम कह सकते हो कि वह पूर्ण को उपलब्ध हो गया। यह विधायक भाषा है। और तुम यह भी कह सकते हो कि वह शून्य को उपलब्ध हो गया। यह नकारात्मक भाषा है।
उदाहरण के लिए, जब बूंद सागर में मिल जाती है तो तुम कह सकते हो कि बूंद ना—कुछ हो गयी, उसने अपने को खो दिया, मिटा दिया। वह बौद्धों के कहने का ढंग है। यह ठीक है, बिलकुल सही है। कोई भी शब्द बहुत दूर तक नहीं जाता है, लेकिन जहां तक जाता है यह कहना सही है कि बूंद नहीं रही। निर्वाण का अर्थ यही है : बूंद खो गयी। या तुम उपनिषद की शब्दावली काम में ला सकते हो। उपनिषद कहेंगे कि बूंद सागर बन गई। उपनिषद भी सही हैं। क्योंकि जब सीमाएं टूट गईं तो बूंद सागर ही बन गई।
तो ये महज रुझान की बातें हैं। बुद्ध को नकार की भाषा पसंद है। क्योंकि जब तुम किसी चीज को विधायक भाषा में कहते हो तो तत्‍क्षण उसकी सीमा बन जाती है, वह सीमित हो जाती है। अगर तुम कहोगे कि बूंद सागर बन गई तो बुद्ध कहेंगे कि सागर भी तो सीमित है, बूंद बस बड़ी बूंद हो गई। बड़े हो जाने से क्या फर्क पड़ता है? बुद्ध कहेंगे कि बूंद बड़ी हो गई; लेकिन तो भी सीमित ही रही। सीमा असीम नहीं हुई; वह सीमित ही रही। छोटी बूंद और बड़ी बूंद में फर्क क्या है? बुद्ध के लिए बूंद और सागर का फर्क छोटी बूंद और बड़ी बूंद का फर्क है। और यही सही है, गणित के ढंग से सही है।
तो बुद्ध कहते हैं कि बूंद यदि सागर हो गई तो कुछ भी नहीं हुई, वैसे ही यदि तुम ईश्वर हो गए तो कुछ भी नहीं हुए; बस एक महापुरुष हो गए। यदि तुम ब्रह्म हो गए तो भी कुछ नहीं हुए; तो भी तुम सीमा में हो। बुद्ध कहते हैं, तुम्हें शून्य हो जाना है, सभी सीमाओं और विशेषणों से खाली हो जाना है; उस सबसे खाली हो जाना है जिसकी तुम कल्पना कर सकते हो। तुम्हें सिर्फ शून्य हो जाना है।
लेकिन उपनिषद के ऋषि कहेंगे कि अगर तुम रिक्त भी हो गए तो भी तुम हो; तुम शून्य भी गए भी तुम हो; क्योंकि शून्य। अभाव भी भाव का एक ढंग है। अनस्तित्व भी अस्तित्व का एक रूप है। इसलिए वे कहते हैं कि क्यों इस पक्ष को इतना तूल दो, क्यों नकारात्मक भाषा प्रयोग करो; विधायक होना अच्छा है।
यह तुम्हारा चुनाव है। लेकिन तंत्र सदा शब्दावली काम में लाता है। तंत्र का पूरा दर्शन विधायक है। वह कहता है कि नहीं या निषेध को जगह ही मत दो। तांत्रिक सब से बड़े हा कहने वाले लोग हैं; उन्होंने सबको हां कहा है। इसीलिए वे विधायक शब्दावली का उपयोग करते हैं।
सूत्र कहता है :’ ओम जैसी किसी ध्वनि का मंद—मंद उच्चारण करो। जैसे—जैसे ध्वनि पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है, वैसे—वैसे तुम भी।’
'ओम जैसी किसी ध्वनि का मंद—मंद उच्चारण करो।’
ध्वनि का उच्चारण एक सूक्ष्म विज्ञान है। पहले तुम्हें उसका उच्चारण जोर से करना है, बाहर—बाहर करना है; ताकि दूसरे सुन सकें। जोर से उच्चार शुरू करना अच्छा है। क्यों? क्योंकि जब तुम जोर से उच्चार करते हो तो तुम भी उसे साफ—साफ सुनते हो। जब तुम कुछ कहते हो तो दूसरों से कहते हो; वह तुम्हारी आदत बन गई है। जब तुम बात करते हो तो दूसरों से करते हो। इसलिए तुम अपने को भी तभी सुनते हो जब दूसरों से बात करते हो। तो एक स्वाभाविक आदत से आरंभ करना अच्छा है।
ओम ध्वनि का उच्चार करो, और फिर धीरे— धीरे उस ध्वनि के साथ लयबद्ध अनुभव करो। जब ओम का उच्चार करो तो उससे भर जाओ। और सब कुछ भूलकर ओम ही बन जाओ, ध्वनि ही बन जाओ। और ध्वनि बन जाना बहुत आसान है, क्योंकि ध्वनि तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे मन में, तुम्हारे समूचे स्नायु संस्थान में गूंजने लग सकती है। ओम की अनुगूंज को अनुभव करो। उसका उच्चार करो और अनुभव करो कि तुम्हारा सारा शरीर उससे भर गया है, शरीर का प्रत्येक कोश उससे गंज उठा है।
उच्चार करना लयबद्ध होना भी है। ध्वनि के साथ लयबद्ध होओ; ध्वनि ही बन जाओ। और तब तुम अपने और ध्वनि के बीच गहरी लयबद्धता अनुभव करोगे; तब तुममें उसके लिए गहरा अनुराग पैदा होगा। यह ओम की ध्वनि इतनी सुंदर और संगीतमय है! जितना ही तुम उसका उच्चार करोगे उतने ही तुम उसकी सूक्ष्म मिठास से भर जाओगे। ऐसी ध्वनियां हैं जो बहुत तीखी हैं और ऐसी ध्वनियां हैं जो बहुत मीठी हैं। ओम बहुत ही मीठी ध्वनि है और शुद्धतम ध्वनि है। उसका उच्चार करो और उससे भर जाओ।
जब तुम ओम के साथ लयबद्ध अनुभव करने लगोगे तो तुम उसका जोर से उच्चार करना छोड़ सकते हो। फिर ओंठों को बंद कर लो और भीतर ही भीतर उच्चार करो। लेकिन यह भीतरी उच्चार पहले जोर से करना है। शुरू में यह भीतरी उच्चार भी जोर से करना है, ताकि ध्वनि तुम्हारे समूचे शरीर में फैल जाए, उसके हरेक हिस्से को, एक—एक कोशिका को छुए। उससे तुम नवजीवन प्राप्त करोगे, वह तुम्हें फिर से युवा और शक्तिशाली बना देगा।
तुम्हारा शरीर भी एक वाद्य—यंत्र है, उसे लयबद्धता की जरूरत है। जब शरीर की लयबद्धता टूटती है तो तुम अड़चन में पड़ते हो। और यही कारण है कि जब तुम संगीत सुनते हो तो तुम्हें अच्छा लगता है। तुम्हें अच्छा क्यों लगता है? संगीत थोड़े—से लय—ताल के अतिरिक्त क्या है? जब तुम्हारे चारों तरफ संगीत होता है तो तुम अच्छा क्यों महसूस करते हो? और शोरगुल और अराजकता के बीच तुम्हें बेचैनी क्यों लगती है? कारण यह है कि तुम स्वयं संगीतमय हो। तुम वाद्य—यंत्र हो; और वह यंत्र प्रतिध्वनि करता है।
अपने भीतर ओम का उच्चार करो और तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारा समूचा शरीर उसके साथ नृत्‍य करने लगा है। तब तुम्‍हें महसूस होगा कि तुम्‍हारा सारा शरीर उसमें स्‍नान कर रहा है; उसका पोर—पोर इस स्नान से शुद्ध हो रहा है। लेकिन जैसे—जैसे इसकी प्रतीति गहरी हो, जैसे—जैसे यह ध्वनि ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे भीतर प्रवेश करे, वैसे—वैसे उच्चार को धीमा करते जाओ। क्योंकि ध्वनि जितनी धीमी होगी, वह उतनी ही गहराई प्राप्त करेगी। वह होम्योपैथी की खुराक जैसी है; जितनी छोटी खुराक उतनी ही गहरी उसकी पैठ। गहरे जाने के लिए तुम्हें सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाना होगा।
भोंडे और कर्कश स्वर तुम्हारे हृदय में नहीं उतर सकते, वे तुम्हारे कानों में तो प्रवेश करेंगे, हृदय में नहीं। हृदय का मार्ग इतना संकरा है और हृदय स्वयं इतना कोमल है कि सिर्फ बहुत धीमे, लयपूर्ण और सूक्ष्म स्वर ही उसमें प्रवेश पा सकते हैं। और जब तक कोई ध्वनि तुम्हारे हृदय तक न जाए तब तक मंत्र पूरा नहीं होता है। मंत्र तभी पूरा होता है जब उसकी ध्वनि तुम्हारे हृदय में प्रवेश करे, तुम्हारे अस्तित्व के गहनतम, केंद्रीय मर्म को स्पर्श करे। इसलिए उच्चार को धीमा और धीमा करते चलो।
और इन ध्वनियों को धीमा और सूक्ष्म बनाने के और भी कारण हैं। ध्वनि जितनी सूक्ष्म होगी उतने ही तीव्र बोध की जरूरत होगी उसे अनुभव करने के लिए। ध्वनि जितनी भोंडी होगी उतने ही कम बोध की जरूरत होगी। वह ध्वनि तुम पर चोट करने के लिए काफी है; तुम्हें उसका बोध होगा ही। लेकिन वह हिंसात्मक है। अगर ध्वनि संगीतपूर्ण, लयपूर्ण और सूक्ष्म हो तो तुम्हें उसे अपने भीतर सुनना होगा। और उसे सुनने के लिए तुम्हें बहुत सजग, बहुत सावधान होना होगा। अगर तुम सावधान न रहे तो तुम सो जा सकते हो। और तब तुम पूरी बात ही चूक जाओगे।
किसी मंत्र या जप के साथ, ध्वनि के प्रयोग के साथ यही कठिनाई है कि वह नींद पैदा करता है। वह एक सूक्ष्म ट्रैंक्वेलाइजर है, नींद की दवा है। अगर तुम किसी ध्वनि को निरंतर दोहराते रहे और उसके प्रति सजग न रहे तो तुम सो जाओगे। क्योंकि तब यांत्रिक पुनरुक्ति हो जाती है। तब ओम—ओम यांत्रिक हो जाता है। और पुनरुक्ति ऊब पैदा करती है। नींद के लिए ऊब बुनियादी तौर से जरूरी है; तुम ऊब के बिना नहीं सो सकते। अगर तुम उत्तेजित हो तो तुम्हें नींद नहीं आएगी।
यही कारण है कि आधुनिक मनुष्य धीरे— धीरे नींद खो बैठा है। कारण क्या है? इतनी उत्तेजना है जितनी पहले कभी नहीं थी। पुरानी दुनिया में जीवन ऊब से भरा होता था, पुनरुक्ति की ऊब से भरा होता था। आज भी अगर तुम कहीं पहाड़ियों में छिपे किसी गांव में चले जाओ तो वहां का जीवन ऊब से भरा मिलेगा। हो सकता है, वह ऊब तुम्हें न महसूस हो; क्योंकि तुम वहां रहते नहीं हो, छुट्टी के लिए गए हो और उत्तेजित हो। यह उत्तेजना बंबई के कारण है, उन पहाड़ियों के कारण नहीं। वे पहाड़ियां बिलकुल उबाने वाली हैं। जो वहां रहते हैं वे ऊबे हैं और सोए हैं। एक ही चीज, एक ही चर्चा है, जिसमें कोई उत्तेजना नहीं, कोई बदलाहट नहीं। वहां मानो कुछ होता ही नहीं; वहां समाचार नहीं बनते। चीजें वैसे ही चलती रहती हैं जैसे सदा से चलती रही हैं, वे वर्तुल में घूमती रहती हैं। जैसे ऋतुएं घूमती हैं, प्रकृति घूमती है, दिन—रात वर्तुल में घूमते रहते हैं, वैसे ही गांव में, पुराने गांव में जीवन वर्तुल में घूमता है। यही वजह है कि गांव वालों को इतनी आसानी से नींद आ जाती है। वहां सब कुछ छ वाला।
आधुनिक जीवन उत्तेजनाओं से भर गया है, वहां कुछ भी दोहरता नहीं है। वहां सब कुछ बदलता रहता है, नया होता रहता है। जीवन की भविष्यवाणी वहां नहीं हो सकती है। और तुम इतनी उत्तेजना से भरे हो कि नींद नहीं आती। हर रोज तुम नयी फिल्म देख सकते हो। हर रोज तुम नया भाषण सुन सकते हो। हर रोज एक नयी किताब पढ़ सकते हो। हर रोज कुछ न कुछ नया उपलब्ध है। यह सतत उत्तेजना जारी है। जब तुम सोने को जाते हो तब भी उत्तेजना मौजूद रहती है। मन जागते रहना चाहता है, उसे सोना व्यर्थ मालूम पड़ता है।
अब तो ऐसे विचारक हैं जो कहते हैं कि नींद शुद्ध अपव्यय है। वे कहते हैं कि अगर तुम साठ साल जीते हो तो बीस साल नींद में व्यर्थ चले जाते हैं। वह महज अपव्यय है। जीवन में इतनी चहल—पहल है; उसे सोकर क्यों गंवाना? लेकिन पुरानी दुनिया में, पुराने दिनों में जीवन इतना उत्तेजनापूर्ण नहीं था, जीवन कोल्हू के बैल की तरह घूमता रहता था। अगर कोई चीज तुम्हें उत्तेजित करती है तो उसका अर्थ है कि वह नयी है।
अगर तुम किसी विशेष ध्वनि को दोहराते रहो तो वह तुम्हारे भीतर वर्तुल निर्मित कर देती है। उससे ऊब पैदा होती है; उससे नींद आती है। यही कारण है कि पश्चिम में महेश योगी का टी. एम., भावातीत ध्यान बिना दवा का ट्रैक्वेलाइजर माना जाने लगा है। वह इसलिए क्योंकि वह मात्र मंत्र—जाप है। लेकिन अगर मंत्र—जाप केवल जाप बन जाए, तुम्हारे भीतर कोई सावचेत न रहे जो जाप को सुनता हो, तो उससे नींद तो आ सकती है लेकिन और कुछ नहीं हो सकता। ट्रैंक्वेलाइजर के रूप में वह ठीक है; अगर तुम्हें अनिद्रा का रोग है तो टी एम. ठीक है, उससे सहायता मिलेगी।
तो ओम के उच्चार को सजग आंतरिक कान से सुनो। और तब तुम्हें दो काम करने हैं। एक ओर मंत्र के स्वर को धीमे से धीमा करते जाओ, उसको मंद और सूक्ष्म करते जाओ और दूसरी ओर उसके साथ—साथ ज्यादा से ज्यादा सजग होते जाओ। जैसे —जैसे ध्वनि सूक्ष्म होगी, तुम्हें अधिकाधिक सजग होना होगा। अन्यथा तुम चूक जाओगे।
तो दोनों बातें साथ—साथ चलें : ध्वनि को धीमा करना है और सजगता को तीव्र करना है। ध्वनि जितनी सूक्ष्म हो तुम उतने ही सजग होते जाओ। तुम्हें अधिक सजग बनाने के लिए ध्वनि को अधिक सूक्ष्म होना है। फिर एक बिंदु आता है जब ध्वनि निर्ध्वनि या पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है और तुम पूर्ण बोध में प्रवेश कर जाते हो। जब ध्वनि निर्ध्वनि या पूर्णध्वनि पर पहुंचे उस समय तुम्हारे बोध को अपने शिखर पर होना चाहिए। जब ध्वनि अपनी घाटी में उतर जाए, घाटी के निम्नतम, गहनतम केंद्र में उतर जाए, तब तुम्हारी जागरूकता को अपने उच्चतम शिखर पर, गौरीशंकर पर पहुंच जाना चाहिए। वहां ध्वनि निर्ध्वनि या पूर्णध्वनि में विलीन होती है और तुम समग्र बोध में डूब जाते हो।
यह विधि है : ’ओम जैसी किसी ध्वनि का मंद—मंद उच्चारण करो। जैसे—जैसे ध्वनि पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है, वैसे—वैसे तुम भी।’

 और उस क्षण की प्रतीक्षा करो जब ध्वनि इतनी सूक्ष्म, इतनी आणविक हो जाए कि अब किसी भी क्षण नियमों के जगत से, तीन के जगत से एक के जगत में, परम के जगत में

छलांग ले ले। तब तक प्रतीक्षा करो। ध्वनि का विलीन हो जाना—यह मनुष्य के लिए सर्वाधिक सुंदर अनुभव है। तब तुम्हें अचानक पता चलता है कि ध्वनि कहीं विलीन हो गई।

 जरा’ तक तुम’ध व सूक्ष्म ०० छ सुन ० अब वह कु
है। तुम एक के जगत में प्रवेश कर गए; तीन का जगत जाता रहा। तंत्र इसे पूर्णध्वनि कहता है; बुद्ध इसे ही निर्ध्वनि कहेंगे।
यह एक मार्ग है—सर्वाधिक सहयोगी, सर्वाधिक आजमाया हुआ। इस कारण ही मंत्र इतने महत्वपूर्ण हो गए। ध्वनि मौजूद ही है और तुम्हारा मन ध्वनि से भरा है; तुम उसे जंपिंग बोर्ड बना सकते हो।
लेकिन इस मार्ग की अपनी कठिनाइयां हैं। पहली कठिनाई नींद है। जिसे भी मंत्र का उपयोग करना हो उसे इस कठिनाई के प्रति सजग होना चाहिए। नींद ही बाधा है। यह उच्चार इतना पुनरुक्ति भरा है, इतना लयपूर्ण है, इतना उबाने वाला है कि नींद का आना लाजिमी है। तुम नींद के शिकार हो सकते हो। और यह मत सोचो कि तुम्हारी नींद ध्यान है, नींद ध्यान नहीं है। नींद अपने आप में अच्छी है, लेकिन सावधान रहो। नींद के लिए ही अगर मंत्र का उपयोग करना है तो बात अलग है। लेकिन अगर उसका उपयोग आध्यात्मिक जागरण के लिए करना है तो नींद से सावधान रहना जरूरी है। जो मंत्र का उपयोग साधना की तरह करते हैं उनके लिए नींद दुश्मन है। और यह नींद बहुत आसानी से घटती है और बहुत सुंदर है।
यह भी स्मरण रहे कि यह और ही तरह की नींद है। यह सामान्य नींद नहीं है। मंत्र से पैदा होने वाली नींद सामान्य नींद नहीं है, यह और ही तरह की नींद है। यूनानी उसे ही हिप्नोस कहते हैं, उससे ही ’हिम्नोसिस' शब्द बना है, जिसका अर्थ सम्मोहन होता है। योग उसे योग—तंद्रा कहता है—एक विशेष नींद, जो सिर्फ योगी को घटित होती है, साधारणजन को नहीं। यह हिम्पनोस है, सम्मोहन—निद्रा है, यह आयोजित है, सामान्य नहीं है। और भेद बुनियादी है, यह ठीक से समझ लेना चाहिए।
अगर तुम मंत्र का, ध्वनि का प्रयोग करते हो तो यही तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या होने वाली है। तब नींद तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या होने वाली है। हिम्पनोसिस ने भी, सम्मोहन ने भी इसी विधि का उपयोग किया है, ऊब का उपयोग किया है। सम्मोहनविद किसी शब्द या वाक्य को बार—बार दोहराता है और इस पुनरुक्ति से तुम ऊब जाते हो। या वह तुम्हारे सामने कोई ज्योति रखकर तुम्हें उस पर एकाग्र होने को कहता है। ज्योति को निरंतर देखते रहने से भी ऊब पैदा होती है।
अनेक मंदिरों में, चर्चों में लोग सो जाते हैं, धर्म —चर्चा सुनते हुए सो जाते हैं। उन्होंने उन शास्त्रों को इतनी बार सुना है कि उन्हें ऊब होने लगती है। उस चर्चा में अब कोई उत्तेजना न रही, पूरी कथा उन्हें मालूम है। अगर एक ही फिल्म को बार—बार देखो तो उससे भी नींद आने लगेगी। उसमें फिर मन के लिए कोई उत्तेजना न रही, कोई चुनौती न रही, कुछ देखने लायक न रहा। तुमने रामायण इतनी बार सुनी है कि तुम मजे में सो सकते हो और नींद में भी सुनते रह सकते हो। और तुम्हें कभी ऐसा भी नहीं लगेगा कि तुम सो गए थे, क्योंकि तुम कुछ चूकोगे भी नहीं। कथा से तुम इतने परिचित हो।
उपदेशकों की आवाज गहन रूप से उबाने वाली होती है, नींद पैदा करने वाली होती है। अगर एक ही सुर में तुम कुछ बोलते रहो तो उससे नींद पैदा होगी। अनेक मनस्विद अपने अनिद्रा के रोगियों को धार्मिक चर्चा सुनने की सलाह देते है। उससे नींद से जाना सरल। जब भी तुम ऊब से भरोगे तो तुम सो जाओगे। लेकिन यह नींद सम्मोहन है, यह नींद योग—तंद्रा है। इसमें भेद क्या है?
यह नींद स्वाभाविक नहीं है, यह अस्वाभाविक है। और इसके कुछ विशेष गुण हैं। एक तो यह कि जब तुम मंत्र या सम्मोहन के जरिए नींद में उतरते हो तो तुम आसानी से भ्रांतियां निर्मित कर सकते हो, और ये भ्रांतियां बिलकुल यथार्थ मालूम पड़ेंगी। सामान्य नींद में तुम स्‍वप्‍न देखते हो और नींद से जागते ही तुम जानते हो कि वे स्‍वप्‍न थे। लेकिन सम्मोहन में, योग—तंद्रा में तुम्हें ऐसे दृश्य, ऐसी झांकियां दिखाई देने लगेंगी कि उनसे बाहर आने पर भी तुम यह नहीं कह सकोगे कि वे स्वप्न थे। तुम कहोगे कि वे असली जीवन की झांकियों से भी ज्यादा असली थीं। यह एक भारी भेद है।
तुम भ्रांतिया पैदा कर सकते हो। अगर कोई ईसाई सम्मोहित हो तो वह ईसा को देखेगा, हिंदू सम्मोहित होकर कृष्ण को देखेगा—बांसुरी बजाते कृष्ण को। यह सुंदर है। और यह सम्मोहन का गुण है कि तुम उसे सच मानोगे। भाव ही ऐसा होता है कि तुम्हें वह सच प्रतीत होगा। तुम कह सकते हो कि यह पूरा जीवन माया है, भ्रांति है, लेकिन सम्मोहन या योग—तंद्रा में देखे गए दृश्यों को तुम भ्रांति नहीं कह सकते। वे इतने सजीव, इतने रंगीन, इतने मोहक और इतने आकर्षक होते हैं।
यही कारण है कि अगर कोई तुम्हें सम्मोहन की अवस्था में कुछ कहता है तो तुम उस पर बिलकुल भरोसा कर लेते हो। उस पर तुम्हें जरा भी संदेह नहीं होता है, तुम संदेह कर ही नहीं सकते। तुमने कुछ सम्मोहन के प्रयोग देखे होंगे। जो भी सम्मोहनविद कहता है, उसे सम्मोहित व्यक्ति मान लेता है और उसके मुताबिक करने लगता है। अगर वह किसी पुरुष को कहता है कि तुम स्त्री हो और अब तुम मंच पर स्त्री की भांति चलोगे तो वह स्त्री की भांति चलने लगेगा, वह पुरुष की भांति नहीं चलेगा। सम्मोहन ऐसी श्रद्धा है—प्रगाढ श्रद्धा। उसमें सोच—विचार करने वाला चेतन मन नहीं रहता है, उसमें तर्क करने वाली बुद्धि नहीं रह जाती है। तब तुम मात्र हृदय हो; तुम महज विश्वास हो। अविश्वास करने का उपाय नहीं है। तुम प्रश्न भी नहीं उठा सकते, क्योंकि प्रश्न उठाने वाला मन सो गया है। यह भेद है।
साधारण नींद में प्रश्न करने वाला मन मौजूद रहता है, वह सो नहीं जाता है। सम्मोहन में तुम्हारा प्रश्न करने वाला मन सो जाता है, लेकिन तुम नहीं सोए होते हो। यही कारण है कि सम्मोहनविद तुम्हें जो कुछ. कहता है उसे तुम सुन पाते हो और तुम उसके आदेश का पालन करते हो। नींद में तुम सुन नहीं सकते; तुम तो सोए हो। लेकिन तुम्हारी बुद्धि नहीं सोती है। इसलिए अगर कुछ ऐसी चीज हो जो तुम्हारे लिए घातक हो सकती है तो तुम्हारी बुद्धि तुम्हारी नींद को तोड़ देगी।
एक मां अपने बच्चे के साथ सोयी है। वह मां और कुछ नहीं सुनेगी, लेकिन अगर उसका बच्चा जरा सी भी आवाज करेगा, जरा भी हरकत करेगा तो वह तुरंत जाग जाएगी। अगर बच्चे को जरा सी बेचैनी होगी तो मां जाग जाएगी। उसकी बुद्धि सजग है, तर्क करने वाला मन जागा हुआ है।
साधारण नींद में तुम सोए होते हो; लेकिन तुम्हारी तर्क—बुद्धि जागी होती है। इसीलिए कभी—कभी नींद में भी पता चलता है कि वे सपने हैं। ही, जिस क्षण तुम समझते हो कि यह स्वप्न है, तुम्हारा स्‍वप्‍न टूट जाता है। तुम समझ सकते हो कि यह व्यर्थ है, लेकिन ऐसी प्रतीति के साथ ही स्‍वप्‍न टूट जाता है। तुम्हारा मन सजग है; उसका एक हिस्सा सतत देख रहा है। लेकिन सम्मोहन या योग—तंद्रा में द्रष्टा सो जाता है।
यही उन सबकी समस्या है जो निर्ध्वनि या पूर्णध्वनि में जाने के लिए, पार जाने के लिए ध्वनि की साधना करते हैं। उन्हें सावधान रहना है कि मंत्र आत्म—सम्मोहन की विधि न बन जाए, कि मंत्र आत्म—सम्मोहन न पैदा करे। तो तुम क्या कर सकते हो?
तुम सिर्फ एक चीज कर सकते हो। जब भी तुम मंत्र का उपयोग करते हो, मंत्रोच्चार करते हो, तो सिर्फ उच्चार ही मत करो, उसके साथ—साथ सजग होकर उसको सुनो भी। दोनों काम करो उच्चार भी करो और सुनो भी। उच्चार और श्रवण दोनों करना है। अन्यथा खतरा है। अगर सचेत होकर नहीं सुनते हो तो उच्चार तुम्हारे लिए लोरी बन जाएगा और तुम गहन नींद में सो जाओगे। वह नींद बहुत अच्छी होगी। उस नींद से बाहर आने पर तुम ताजे और जीवंत हो जाओगे, तुम अच्छा अनुभव करोगे। लेकिन यह असली चीज नहीं है। तुम तब असली चीज ही चूक गए।

 ध्वनि—संबंधी चौथी विधि:

किसी भी अक्षर के उच्चारण के आरंभ में और उसके क्रमिक परिष्कार में निर्ध्वनि में जागो।
भी—कभी गुरुओं ने इस विधि का खूब उपयोग किया है। और उनके अपने नए—नए ढंग हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी झेन गुरु के झोपड़े पर जाओ तो वह अचानक एक चीख मारेगा और उससे तुम चौंक उठोगे। लेकिन अगर तुम खोजोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि वह तुम्हें महज जगाने के लिए ऐसा कर रहा है। कोई भी आकस्मिक बात जगाती है। कोई भी आकस्मिक आवाज तुम्हें जगा दे सकती है। आकस्मिकता तुम्हारी नींद को तोड़ देती है।
सामान्यत: हम सोए रहते हैं। जब तक कुछ गड़बड़ी न हो, हम नींद से नहीं जागते। नींद में ही हम चलते हैं; नींद में ही हम काम करते हैं। यही कारण है कि हमें अपने सोए होने का पता नहीं चलता। तुम दफ्तर जाते हो। तुम गाड़ी चलाते हो। तुम लौटकर घर आते हो और अपने बच्चों को दुलार करते हो। तुम अपनी पत्नी से बातचीत करते हो। यह सब करने से तुम सोचते हो कि मैं बिलकुल जागा हुआ हूं। तुम सोचते हो कि मैं सोया—सोया ये काम कैसे कर सकता हूं! तुम सोचते हो, यह संभव नहीं है।
लेकिन क्या तुम जानते हो कि ऐसे लोग हैं जो नींद में चलते हैं? क्या तुम्हें नींद में चलने वालों के बारे में कुछ खबर है?
नींद में चलने वालों की आंखें खुली रहती हैं और वे सोए होते हैं। और उसी हालत में वे अनेक काम कर गुजरते हैं, लेकिन दूसरी सुबह उन्हें याद भी नहीं रहता कि नींद में मैंने क्या—क्या किया। वे यहां तक कर सकते हैं कि दूसरे दिन थाने चले जाएं और रपट दर्ज कराएं कि कोई व्यक्ति रात उनके घर आया था और उपद्रव कर रहा था। और बाद में पता चलता है कि यह सारा उपद्रव उन्होंने ही किया था। वे ही रात में सोए—सोए उठ आते हैं, चलते—फिरते है, कई काम कर गुजरते है; फिर जाकर बिस्‍तर में सो जाते है। अगली सुबह उन्‍हें बिलकुल याद नहीं रहता कि क्या—क्या हुआ। वे नींद में दरवाजे तक खोल लेते हैं, चाबी से ताले तक खोलते हैं; वे अनेक काम कर गुजरते हैं। उनकी आंखें खुली रहती हैं और वे नींद में होते हैं।
किसी गहरे अर्थ में हम सब नींद में चलने वाले हैं। तुम अपने दफ्तर जा सकते हो; तुम लौट आ सकते हो, तुम अनेक काम कर सकते हो। तुम वही—वही बात दोहराते रह सकते हो। तुम अपनी पत्नी को कहोगे कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और इस कहने में कुछ मतलब नहीं होगा। शब्द मात्र यांत्रिक होंगे। तुम्हें इसका बोध भी नहीं रहेगा कि तुम अपनी पत्नी से कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। तुम्हें बोध नहीं है; तुम सब कुछ बिलकुल सोए—सोए कर रहे हो। जाग्रत पुरुष के लिए यह सारा जगत नींद में चलने वालों का जगत है। बुद्ध को यही महसूस होता है, गुरजिएफ को ऐसा ही लगता है कि सब लोग सोए हैं और फिर भी काम कर रहे हैं।
गुरजिएफ कहा करते थे कि इस संसार में जो कुछ हो रहा है—युद्ध, कलह, दंगे, खून, आत्मघात—वह स्वाभाविक है। किसी ने गुरजिएफ से पूछा कि युद्ध बंद करने के लिए क्या किया जा सकता है? उसने कहा, कुछ नहीं किया जा सकता है; क्योंकि जो लड़ रहे हैं वे नींद में हैं और जो शांतिवादी हैं वे भी नींद में हैं।
सब लोग नींद में चल रहे हैं, सोए हैं। इसलिए ये घटनाएं स्वाभाविक हैं, अनिवार्य हैं। जब तक आदमी जागता नहीं है, कुछ भी नहीं बदला जा सकता, क्योंकि वे चीजें नींद बाइ—प्रोडक्ट हैं। आदमी लड़ेगा; लड़ने से उसे नहीं रोका जा सकता है। हा, लड़ाई के बहाने बदल सकते हैं। कभी वह ईसाइयत के लिए लड़ता था, इस्लाम के लिए लड़ता था, इस—उस के लिए लड़ता था। अब वह ईसाइयत के लिए नहीं लड़ता है; अब वह लोकतंत्र के लिए लड़ रहा है, साम्यवाद के लिए लड़ रहा है। कारण बदल सकते हैं, बहाने बदल सकते हैं; लेकिन युद्ध जारी रहेगा। कारण यह है कि मनुष्य सोया हुआ है और नींद में अन्यथा नहीं हो सकता। यह नींद टूट सकती है। उसके लिए कुछ विधियों का प्रयोग करना होगा।
यह विधि कहती है: ’किसी भी अक्षर के उच्चारण के आरंभ में और उसके क्रमिक परिष्कार में, निर्ध्वनि में जागो।’
किसी ध्वनि, किसी अक्षर के साथ प्रयोग करो। उदाहरण के लिए, ओम के साथ ही प्रयोग करो। उसके आरंभ में ही जागो, जब तुमने ध्वनि निर्मित नहीं की है; या जब ध्वनि निर्ध्वनि में प्रवेश करे, तब जागो। यह कैसे करोगे?
किसी मंदिर में चले जाओ। वहां घंटा होगा या घंटी होगी। घंटे को हाथ में ले लो और रुको। पहले पूरी तरह से सजग हो जाओ। ध्वनि होने वाली है और तुम्हें उसका आरंभ नहीं चूकना है। पहले तो समग्ररूपेण सजग हो जाओ—मानो इस पर ही तुम्हारी जिंदगी निर्भर है। ऐसा समझो कि अभी कोई तुम्हारी हत्या करने जा रहा है और तुम्हें सावधान रहना है। ऐसे सावधान रहो—मानो कि यह तुम्हारी मृत्यु बनने वाली है।
और यदि तुम्हारे मन में कोई विचार चल रहा हो तो अभी रुको, क्योंकि विचार नींद है। विचार के रहते तुम सजग नहीं हो सकते। और जब तुम सजग होते हो तो विचार नहीं रहता है। रुको। जब लगे कि अब मन निर्विचार हो गया, कि अब मन में कोई बादल न रहा, कि अब मैं जागरूक हूं तब ध्वनि के साथ गति करो।
पहले जब ध्वनि नहीं है, तब उस पर ध्यान दो। और फिर आंखें बंद कर लो। और जब ध्‍वनि हो, घंटा बजे, तब ध्‍वनि के साथ गति करो। ध्‍वनि धीमी से धीमी, सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाएगी और फिर खो जाएगी। इस ध्वनि के साथ यात्रा करो। सजग और सावधान रहो। ध्वनि के साथ उसके अंत तक यात्रा करो; उसके दोनों छोरों को, आरंभ और अंत को देखो। पहले किसी बाहरी ध्वनि के साथ, घंटा या घंटी के साथ प्रयोग करो। फिर आंख बंद करके भीतर किसी अक्षर का, ओम या किसी अन्य अक्षर का उच्चार करो। उसके साथ भी वही प्रयोग करो। यह कठिन होगा। इसीलिए हम पहले बाहर की ध्वनि के साथ प्रयोग करते हैं। जब बाहर करने में सक्षम हो जाओगे तो भीतर करना भी आसान होगा। तब भीतर करो। उस क्षण की प्रतीक्षा करो जब मन खाली हो जाए। और फिर भीतर ध्वनि निर्मित करो। उसे अनुभव करो, उसके साथ गति करो, जब तक वह बिलकुल न खो जाए।
इस प्रयोग को करने में समय लगेगा। कुछ महीने लग जाएंगे, कम से कम तीन महीने। तीन महीनों में तुम बहुत ज्यादा सजग हो जाओगे, अधिकाधिक जागरूक हो जाओगे। ध्वनि—पूर्व अवस्था और ध्वनि के बाद की अवस्था का निरीक्षण करना है; कुछ भी नहीं चूकना है। और जब तुम इतने सजग हो जाओगे कि ध्वनि के आदि और अंत को देख सकी तो इस प्रक्रिया के द्वारा तुम बिलकुल भिन्न व्यक्ति हो जाओगे।
कभी—कभी यह अविश्वसनीय सा लगता है कि ऐसी सरल विधियों से रूपांतरण कैसे हो सकता है! आदमी इतना अशांत है, दुखी और संतप्त है; और ये विधियां इतनी सरल मालूम देती हैं। ये विधियां धोखे धड़ी जैसी लगती हैं। अगर तुम कृष्णमूर्ति के पास जाओ और उनसे कहो कि यह एक विधि है तो वे कहेंगे कि यह एक मानसिक धोखा धड़ी है। इसके धोखे में मत पड़ो; इसे भूल जाओ। इसे छोड़ो। देखने पर तो वह ऐसी ही लगती है, धोखे जैसी लगती है। ऐसी सरल विधियों से तुम रूपांतरित कैसे हो सकते हो!
लेकिन तुम्हें पता नहीं है। वे सरल नहीं हैं। तुम जब उनका प्रयोग करोगे तब पता चलेगा कि वे कितनी कठिन हैं। मुझसे उनके बारे में सुनकर तुम्हें लगता है कि वे सरल हैं। अगर मैं तुमसे कहूं कि यह जहर है और इसकी एक बूंद से तुम मर जाओगे, और अगर तुम जहर के बारे में कुछ नहीं जानते हो तो तुम कहोगे.’ आप भी क्या बात करते हैं? बस, एक बूंद और मेरे सरीखा स्वस्थ और शक्तिशाली आदमी मर जाएगा!' अगर तुम्हें जहर के संबंध में कुछ नहीं पता है तो ही तुम ऐसा कह सकते हो। यदि तुम्हें कुछ पता है तो नहीं कह सकते।
यह बहुत सरल मालूम पड़ता है. किसी ध्वनि का उच्चार करो और फिर उसके आरंभ और अंत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ। लेकिन यह बोधपूर्ण होना बहुत कठिन बात है। जब तुम प्रयोग करोगे तब पता चलेगा कि यह बच्चों का खेल नहीं है। तुम बोधपूर्ण नहीं हो। जब तुम इस विधि का प्रयोग करोगे तो पहली बार तुम्हें पता चलेगा कि मैं आजीवन सोया—सोया रहा हूं। अभी तो तुम समझते हो कि मैं जागा हुआ हूं सजग हूं।
इसका प्रयोग करो, किसी भी छोटी चीज के साथ प्रयोग करो। अपने को कहो कि मैं लगातार दस श्वासों के प्रति सजग रहूंगा, बोधपूर्ण रहूंगा। और फिर श्वासों की गिनती करो। सिर्फ दस श्वासों की बात है। अपने को कहो कि मैं सजग रहूंगा और एक से दस तक गिनूंगा, आती श्वासों को, जाती श्वासों को, दस श्वासों को सजग रहकर गिनूंगा।
तुम चूक—चूक जाओगे। दो या तीन श्वासों के बाद तुम्हारा अवधान और कहीं चला जाएगा। तब तुम्हें अचानक होश आएगा कि मैं चूक गया, मैं श्वासों को गिनना भूल गया। या अगर गिन भी लोगे तो दस तक गिनने के बाद पता चलेगा कि मैंने बेहोशी में गिना, मैं जागरूक नहीं रहा।
सजगता अत्यंत कठिन बात है। ऐसा मत सोचो कि ये उपाय सरल हैं। विधि जो भी हो, सजगता साधनी है, उसे बोधपूर्वक करना है। बाकी चीजें सिर्फ सहयोगी हैं। और तुम अपनी विधियां स्वयं भी निर्मित कर सकते हो। लेकिन एक चीज सदा याद रखने जैसी है कि सजगता बनी रहे। नींद में तुम कुछ भी कर सकते हो; उसमें कोई समस्या नहीं है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब यह शर्त लगायी जाती है कि इसे होश से करो, बोधपूर्वक करो।

 ध्वनि—संबंधी पांचवीं विधि :
तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्त केद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।
वही चीज!
'तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।’
तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो—सितार या किसी अन्य वाद्य को। उसमें कई स्वर हैं। सजग होकर उसके केंद्रीय स्वर को सुनो—उस स्वर को जो उसका केंद्र हो और जिसके चारों ओर और सभी स्वर घूमते हों, उसकी आंतरिक धारा को सुनो, जो अन्य सभी स्वरों को सम्हाले हुए हो। जैसे तुम्हारे समूचे शरीर को उसका मेरुदंड, उसकी रीढ़ सम्हाले हुए है; वैसे ही संगीत की भी रीढ़ होती है। संगीत को सुनते हुए सजग होकर उसमें प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को खोजो—उस केंद्रीय स्वर को खोजो जो पूरे संगीत को सम्हाले हुए है। स्वर तो आते—जाते रहते हैं, लेकिन केंद्रीय तत्व प्रवाहमान रहता है। उसके प्रति जागरूक होओ।
बुनियादी रूप से, मूलतः, संगीत का उपयोग ध्यान के लिए किया जाता था। भारतीय संगीत का विकास तो विशेष रूप से ध्यान की विधि के रूप में ही हुआ। वैसे ही भारतीय नृत्य का विकास भी ध्यान—विधि की तरह हुआ। संगीतज्ञ या नर्तक के लिए ही नहीं, श्रोता या दर्शक के लिए भी वे गहरे ध्यान के उपाय थे।
नर्तक या संगीतज्ञ मात्र टेक्‍नीशियन भी हो सकता है। अगर उसके नृत्य या संगीत में ध्यान नहीं है तो वह टेक्‍नीशियन ही है। वह बड़ा टेक्‍नीशियन हो सकता है; लेकिन तब उसके संगीत में आत्मा नहीं है, शरीर भर है। आत्मा तो तब होती है जब संगीतज्ञ गहरा ध्यानी भी हो। संगीत तो बाहरी चीज है। सितार बजाते हुए वादक सितार ही नहीं बजाता है, वह भीतर अपने बोध को भी जगा रहा है। बाहर सितार बजता है और भीतर उसका गहन बोध गति करता है। बाहर संगीत बहता रहता है, लेकिन संगीतज्ञ अपने अंतरस्थ केंद्र पर सदा सजग, बोधपूर्ण बना रहता है। वही बोध समाधि बन जाता है। वही शिखर बन जाता है।
कहते हैं कि संगीतज्ञ जब सचमुच संगीतज्ञ हो जाता है तो अपने वाद्य को तोड़ देता है।
वह अब उसके काम का न रहा। और अगर उसे अब भी वाद्य की जरूरत पड़ती है तो वह अभी सच्चा संगीतज्ञ नहीं हुआ है। वह अभी सिक्खड़ ही है—सीख रहा .है। अगर तुम ध्यान के साथ संगीत का अभ्‍यास करते हो, उसे ध्‍यान बनाते हो तो देर—अबेर आंतरिक संगीत ज्‍यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा और बाहरी संगीत न सिर्फ कम महत्वपूर्ण रहेगा, बल्कि अंततः वह बाधा बन जाएगा। तुम सितार को उठाकर फेंक दोगे, तुम वाद्य को अलग रख दोगे, क्योंकि अब तुम्हें तुम्हारा आंतरिक वाद्य मिल गया है। लेकिन वह बाहरी वाद्य के बिना नहीं मिल सकता है। बाहरी वाद्य के साथ आसानी से सजग हुआ जा सकता है। लेकिन जब सजगता सध जाए तो तुम बाहर को छोड़ो और भीतर गति कर जाओ। यही बात श्रोता के लिए भी सही है।
लेकिन तुम जब संगीत सुनते हो तो क्या करते हो? तुम ध्यान नहीं करते हो, उलटे तुम संगीत का शराब की तरह उपयोग करते हो। तुम विश्राम के लिए उसका उपयोग करते हो, आत्म—विस्मरण के लिए उसका उपयोग करते हो। यही दुर्भाग्य है, यही पीड़ा है कि जो विधियां जागरूकता के लिए विकसित की गई थीं उनका उपयोग नींद के लिए किया जा रहा है। और ऐसे ही आदमी अपने को धोखा देता रहता है। अगर तुम्हें कोई चीज जगाने के लिए दी जाती है तो तुम उसका उपयोग भी अपने को सुलाने के लिए ही करते हो।
यही कारण है कि सदियों—सदियों तक सदगुरुओं के उपदेशों को गुप्त रखा गया। क्योंकि सोचा गया कि सोए हुए व्यक्ति को विधियां बताना व्यर्थ है। वह उसे सोने के ही काम में लगाएगा; अन्यथा वह नहीं कर सकता। इसलिए पात्रों को ही विधियां दी जाती थीं; ऐसे विशेष शिष्यों को ही उनका प्रयोग बताया जाता था जो अपनी नींद को छोड़ने को राजी थे, जो अपनी नींद से जागने के लिए तत्पर थे।
आसपेंस्की ने अपनी एक पुस्तक जार्ज गुरजिएफ को यह कहकर समर्पित की है कि ’इस व्यक्ति ने मेरी नींद तोड़ दी।’
ऐसे लोग उपद्रवी होते हैं। गुरजिएफ, बुद्ध या जीसस जैसे लोग उपद्रवी ही होंगे। यही कारण है कि हम उनसे बदला लेते हैं। जो हमारी नींद में बाधा डालता है उसे हम सूली पर चढ़ा देते हैं। वह हमें नहीं भाता है। हम सुंदर सपने देख रहे थे और वह आकर हमारी नींद में बाधा डालता है। तुम उसकी हत्या कर देना चाहते हो। स्‍वप्‍न इतना मधुर था।
स्‍वप्‍न मधुर हो चाहे न हो, लेकिन एक बात निश्चित है कि वह स्वप्न है और व्यर्थ है, बेकार है। और स्वप्न अगर सुंदर है तो ज्यादा खतरनाक है; क्योंकि उसमें आकर्षण अधिक होगा। वह नशे का काम कर सकता है।
हम संगीत का, नृत्य का उपयोग नशे के रूप में कर रहे हैं। और अगर तुम संगीत और नृत्य का उपयोग नशे की तरह कर रहे हो तो वे तुम्हारी नींद के लिए ही नहीं, तुम्हारी कामुकता के लिए भी नशे का काम देंगे। और यह स्मरण रहे कि कामुकता और नींद संगी—साथी हैं। जो जितना सोया—सोया होगा, वह उतना ही कामुक होगा। जो जितना जागा हुआ होगा, वह उतना ही कम कामुक होगा। कामवासना की जड़ नींद में ही है। जब तुम जागोगे तो ज्यादा प्रेमपूर्ण होओगे, कामवासना की पूरी ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित हो जाएगी।
यह सूत्र कहता है :’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।’
और तब तुम उसे जान लोगे जो जानना है, जो जानने योग्य है। तब तुम सर्वव्यापक हो जाओगे। उस संगीत के साथ, उसके केंद्रीय तत्‍व को प्राप्त कर तुम जाग जाओगे उस जागरूकता के साथ तुम सर्वव्यापी हो जाओगे।
अभी तो तुम कहीं एक जगह हो; उस बिंदु को हम अहंकार कहते हैं। अभी तुम उसी बिंदु पर हो। अगर तुम जाग जाओगे तो यह बिंदु विलीन हो जाएगा, तब तुम कहीं एक जगह नहीं होंगे, सब जगह होगे, सर्वव्यापी हो जाओगे। तब तुम सर्व ही हो जाओगे। तुम सागर हो जाओगे, तुम अनंत हो जाओगे।
मन सीमा है; ध्यान से अनंत में प्रवेश है।

आज इतना ही।

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