सूत्र:
ये
नियम शिष्यों
के लिए हैं।
इन
पर तुम ध्यान
दो।
इसके
पहले कि तुम्हारे
नेत्र देख
सकें,
उन्हें
बहरे हो जाना
चाहिए।
और
इसके पहले कि
तुम सदगुरुओं
की उपस्थिति
में बोल सकी,
तुम्हारी
वाणी को चोट
पहुंचाने की
वृत्ति से मुक्त
हो जाना चाहिए।
इसके
पहले कि
तुम्हारी
आत्मा सदगुरुओं
के समक्ष खड़ी
हो सके,
उसके
पैरों को हृदय
के रक्त से धो
लेना उचित है।
1. महत्वाकांक्षा
को दूर करो।
महत्वाकांक्षा
पहला अभिशाप
है।
जो
कोई अपने
सहयोगियों से
आगे बढ़ रहा है,
उसे
यह मोहित करके
अपने पथ से
विचलित कर
देती है।
सत्कर्मों
के फल की
इच्छा का यह
सबसे सरल रूप है।
बुद्धिमान
और शक्तिशाली
लोग इसके
द्वारा
बराबर
अपनी उच्च
संभावनाओं से स्खलित
होते रहते हैं।
फिर
भी यह बड़ी
आवश्यक
शिक्षा का
साधन है।
इसके
फल चखते समय
मुंह में राख
और धूल बन
जाते हैं।
मृत्यु
और वियोग के
समान इससे भी
अंत में यही शिक्षा
मिलती है
कि
स्वार्थ के
लिए अहं के
विस्तार के
लिए कार्य
करने से
परिणाम
में निराशा ही
प्राप्त होती
है।
मैंने
तुम्हें
बुलाया और तुम
आ भी गए हो, लेकिन
बाहर से आ
जाना बहुत
आसान है। और
जब तक भीतर से
भी मेरे पास न
आ जाओ, तब
तक आने और न
आने का बहुत
अर्थ नहीं है।
लेकिन जो बाहर
चल कर आ सकता
है—जिसकी
प्यास है और
आकांक्षा है—वह
भीतर भी चल कर
आ सकता है।
बाहर चल कर
आना सबूत है
कि खोज है, लेकिन
उतना सबूत
काफी नहीं है।
उससे इशारा तो
होता है और
शुभ इशारा
होता है।
जरूरी है, लेकिन
पर्याप्त
नहीं। भीतर भी
चलना होगा। और
भीतर की
यात्रा शुरू
हो सके, उसके
पहले कुछ
बातें
तुम्हारे
संबंध में समझ
लेनी जरूरी
हैं। क्योंकि
तुम्हीं
यात्रा करोगे,
कोई और
तुम्हारे लिए
यात्रा नहीं
कर सकता है।
न
तो इस जगत में
दूसरे की आंखों
से देखा जा
सकता है और न
दूसरे के
चरणों से चला
जा सकता है।
यहां तो मरना
भी स्वयं ही
पड़ता है स्वयं
के लिए और
जीना भी। यहां
दूसरा आपकी
जगह नहीं ले
सकता। इसलिए
सबसे पहले कुछ
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं तुम्हारे
संबंध में।
क्योंकि वहां
अगर भ्रांति
है,
तो ठीक
रास्ता भी गलत
जगह पहुंचाएगा।
अगर तुम्हें
अपने संबंध
में ही ठीक
समझ नहीं है, तो तुम ठीक
रास्ते को भी
गलत मंजिल तक
ले जाने वाला
बना लोगे। और
अगर तुम्हें
समझ है अपने
संबंध में, तो ऐसा कोई
भी रास्ता
नहीं है, जो
तुम्हें ठीक
जगह न पहुंचा
दे। गलत
रास्ते भी ठीक
मंजिल पर
पहुंच जाते
हैं—ठीक आदमी
चाहिए, चलने
वाले पर सब
कुछ निर्भर है।
रास्ता नहीं
पहुंचाता, चलने
वाला ही
पहुंचता है।
रास्ता
बदल जाता है
तुम्हारे साथ।
तुम जैसे हो, वैसा
ही रास्ता हो
जाता है।
इसलिए कोई
बंधे— बंधाए
रास्ते नहीं
हैं, जिन
पर तुम अंधे
की तरह चल सको।
पहली
बात,
अपने संबंध
में ठीक समझ
लें। क्योंकि
तुम्हारे से
ही निकलेगा
रास्ता और अंत
में तुमसे ही
पैदा होगी
मंजिल।
तुम्हीं
सब कुछ हो।
बीज भी
तुम्हीं हो, वृक्ष
भी तुम्हीं बनोगे। और
जब फूल
खिलेंगे और
सुगंध
निकलेगी, तब
उन फूलों में,
उस सुगंध
में भी तुम ही
रहोगे। अपने
संबंध में गलत
समझ हो, तो
सारा श्रम
व्यर्थ हो
जाता है।
पहली
बात—पहली बात
तो यह ठीक से
समझ लो कि
तुम्हें कुछ भी
पता नहीं। काश, तुम्हें
पता ही होता
तो फिर मेरे
पास आने की
कोई भी जरूरत
न थी। सूरज की
एक किरण भी
तुम्हें मिल
जाए, तो
सूरज तक
पहुंचने का
मार्ग खुल गया।
क्योंकि उसी
किरण को पकड़
कर तुम सूरज
के मूल स्रोत
तक पहुंच
जाओगे। और
सागर की एक
बूंद भी तुम
चख लो, तो
तुमने सारा
सागर चख लिया।
अगर
तुम्हें थोड़ा भी
पता हो जीवन
का,
तो फिर किसी
से पूछने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। वह
जो थोड़ा सा
पता है, उसके
सहारे चलो। तो
जैसे कोई आदमी
एक छोटा सा
दीया ले कर
अंधेरे में
चले, तो दो
ही कदम पर
प्रकाश पड़ता
है; लेकिन
जब वह दो कदम
चल लेता है, तो दो कदम और
आगे प्रकाश
पड़ता है। फिर
वह और दो कदम
चल लेता है, तो दो कदम और
आगे प्रकाश
पड़ता है। दो
कदम प्रकाश
पड़ता हो जिस
दीए से, उससे
भी हजारों मील
की यात्रा तय
की जा सकती है।
कोई हजारों
मील के रास्ते
को प्रकाशित
करने की जरूरत
नहीं है। हाथ
में दीया हो
छोटा, तो
भी बड़े से बड़े
अंधकारपूर्ण
रास्ते को पार
किया जा सकता
है। दो कदम ही
काफी हैं।
अगर
तुम्हें थोड़ा
भी पता हो
अपने संबंध
में तो मेरे
पास आने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। किसी
के भी पास
जाने की कोई
जरूरत नहीं।
तो
पहली बात तो
यह ठीक से समझ
लेना कि
तुम्हें अपने
संबंध में कुछ
भी पता नहीं
है अभी। और तुम
जो भी जानते
हो,
वे सब शब्द
हैं। शब्दों
में न तो कोई
प्राण होते
हैं, न कोई
अर्थ होता है।
शब्द से
ज्यादा असत्य
इस जगत में और
कुछ भी नहीं
है।
अनुभव—
अनुभव में
अर्थ है। मैं
कितना ही कहूं
जो मैं जानता
हूं उसे मैं शब्दों
में न डाल
पाऊंगा। कभी
भी कोई नहीं
डाल पाया। और
कभी कोई डाल
भी नहीं पाएगा।
क्योंकि जो
मैं जानता हूं
वह मेरा अनुभव
है। और जब मैं
उसे शब्द
बनाता हूं तो
तुम्हारे कानों
में जो सुनाई
पड़ता है, वह
अनुभव नहीं है,
वह कोरा
शब्द है।
मैं
कहता हूं—परमात्मा।
तुम सुन लेते
हो। और मैं
कहता हूं—
आत्मा। और वह
भी सुन लिया
जाता है।
लेकिन न तो
आत्मा से कुछ
अर्थ प्रकट
होता है और न
परमात्मा से।
शब्द सुनाई
पड़ते हैं और
बहुत बार सुन
लेने पर ऐसा
भ्रम भी पैदा
हो जाता है कि
हम समझ गए।
शब्दों की
समझदारी
नासमझी का
दूसरा नाम है।
तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं, यह बात
खयाल में ले
लें। यह
आधारभूत है।
क्योंकि जो
व्यक्ति यह
समझ ले बिना
कुछ जाने कि
मैं जानता हूं
उसके जानने का
द्वार बंद हो जाता
है। बीमार समझ
ले कि स्वस्थ
है, तो
चिकित्सा की
तलाश बंद हो
जाती है।
अज्ञानी को
खयाल हो जाए
ज्ञान का, तो
अज्ञान जितना
नहीं भटकाता
था, उतना
ज्ञान भटका देगा।
इस
बात का खयाल आ
जाए कि मुझे
कुछ भी पता
नहीं, तो यह
शान की पहली
किरण है। अब
तुम ईमानदार
हुए। अब तुमने
कम से कम एक
सच्ची बात
स्वीकार की कि
मुझे कुछ पता
नहीं। तुमने
अपने शास्त्र
हटा कर रख दिए
और तुमने अपने
शब्दों को छोड़
दिया। और तुम
ईमानदार हुए,
प्रामाणिक
हुए अपने
प्रति कि न
मुझे आत्मा का
पता है, न
मुझे मोक्ष का।
मुझे पता ही
नहीं कि जीवन
क्या है?
यह
अज्ञान की
स्वीकृति—शान
का पहला चरण
है।
यहां
अगर कोई
ज्ञानी आ गया
हो—वापस लौट
जाए। मैं
उन्हीं के साथ
काम कर सकूंगा, जिन्हें
इस बात का बोध
है कि वे
अज्ञानी हैं।
तुम्हारा शान
बाधा बन जाएगा।
फिर शान हो ही
गया हो तो
व्यर्थ श्रम
उठाने की जरूरत
नहीं है।
इसलिए इसे ठीक
से समझ लेना, कि तुम अगर
बीमार हो तो
मैं दवा दूंगा।
तुम अगर
अज्ञानी हो तो
मैं शान की
तरफ ले चलने की
कोशिश करूंगा।
तुम अगर
अंधेरे में हो
तो मैं
तुम्हें प्रकाश
का रास्ता
बताऊंगा।
लेकिन अगर तुम
प्रकाश में ही
खड़े हो, तो
मेरा श्रम और
अपना श्रम
व्यर्थ मत
करना। जो आदमी
सोया हो उसे
जगाना बहुत
आसान है। जो
आदमी जाग कर
पड़ा हो और
सोचता हो कि
सोया है—उसे
जगाना बहुत
मुश्किल है।
दूसरी
बात,
जीवन सबका
एक ही बात को
खोज रहा है—कैसे
दुख मिटे? कैसे
आनंद उपलब्ध
हो? एक ही
तलाश है और एक
ही प्यास है।
वह वृक्ष भी
अगर उठ रहा है
जमीन से आकाश
की तरफ, तो
इसी तलाश में
है। अगर पक्षी
उड़ रहे हैं
और पशु चल रहे
हैं और आदमी
जी रहा है—तलाश
वही है। एक
पत्थर भी अगर
अस्तित्व में
है, तो
उसकी भी भीतरी
खोज आनंद की
है। तो दूसरी
बात खयाल
में ले
लेना कि खोज
क्या रहे हो?
बहुत
लोग परमात्मा
को खोजने निकल
पड़ते हैं, लेकिन
परमात्मा की
खोज मुश्किल
है। मुश्किल
इसलिए है कि
परमात्मा के
संबंध में कोई
भी तो भीतर
गहरी प्यास
नहीं है। अपनी
प्यास को पकड़
कर चले—स्व दिन
शायद वही
प्यास
परमात्मा की
प्यास बन जाए।
लेकिन अभी
नहीं है। अभी
तो आप ठीक से
समझ लें कि
आपकी तलाश
आनंद की तलाश
है। शायद यह
खोज आगे बड़े, और यह छोटी
सी गंगोत्री
से निकली गंगा
आनंद की तलाश
में चले। और
धीरे— धीरे
जैसे—जैसे खोज
गहरी हो, वैसे—
वैसे पता चले
कि आनंद तो
परमात्मा का
ही एक नाम है।
और शायद पता
चले कि आनंद
तो परमात्मा
का ही एक गुण
है। और शायद
पता चले कि
हमारी खोज
सिर्फ आनंद की
नहीं है, कुछ
और ज्यादा की
है। लेकिन
प्रारंभिक
खोज आनंद की
है, परमात्मा
की नहीं है।
कुछ
लोग पहले से
ही परमात्मा
की बात में पड़
जाते हैं, तो
कठिनाई हो
जाती है। बीज
बिना हुए
वृक्ष होने की
कोशिश शुरू हो
जाती है। फिर
अड़चन होती है।
फिर दौड़— धूप
बहुत होती है,
परिणाम कुछ
भी नहीं आता।
और जब परिणाम
नहीं आता, तो
निराशा पकड़ती
है, विषाद
घेर लेता है।
तो
एक बात— आनंद
की तलाश के
लिए यहां आए
हैं। छोड़े
परमात्मा को, जल्दी
नहीं है। आप
आनंद की खोज
पर यात्रा
शुरू करें और
अंत परमात्मा
की उपलब्धि पर
होगा। लेकिन
शुरुआत
परमात्मा से
मत करें। पहली
सीढ़ी से ही चढ़ना
उचित है, और
क ख ग से ही
शुरुआत करनी
ठीक है। आनंद
सबकी समझ में
आता हैं—फिर
वह नास्तिक हो
तो भी, फिर
वह हिंदू हो, या मुसलमान
हो, या
ईसाई हो, या
जैन हो तो भी।
ईश्वर को
मानता हो, न
मानता हो; धर्म
में आस्था
रखता हो या न
रखता हो—कोई
भी हो, आनंद
की खोज
सार्वभौम है।
उससे ही शुरू
करें, जो
सबकी खोज है।
यह
दुनिया में
इतने धर्मों
का विवाद न हो, हिंदू
और मुसलमान और
ईसाई की लड़ाई
न हो, जैन
और हिंदू के
बीच कलह न हो—
अगर हम
सार्वभौम खोज
को स्वीकार
करें। लेकिन
हम ईश्वर की
खोज से शुरुआत
करते हैं। और
ईश्वर का हमें
न कोई पता है
और न ईश्वर को
खोजने की कोई
प्रबल
आकांक्षा है,
न हमें
प्रयोजन है।
तो शब्दों पर
लड़ते हैं। तो
जिस ईश्वर का
हमें कोई पता
नहीं, उसकी
हम अलग—अलग
शाब्दिक
व्याख्याएं
करते हैं। फिर
इन
व्याख्याओं
में विरोध
होता है, फिर
मंदिर और
मस्जिद और
गुरुद्वारे
खड़े होते हैं
और आदमी
व्यर्थ ही
परेशान होता
है।
आनंद
से शुरू करें, फिर
आपकी नास्तिक
से भी कोई
दुविधा नहीं
है, द्वंद्व
नहीं है। फिर
हिंदू हो या
मुसलमान हो, कुछ लेना—देना
नहीं है।
क्योंकि जब हम
आनंद की खोज
कर रहे हैं, तो हम उस
तत्व की खोज
कर रहे हैं, जो प्रत्येक
प्राणी खोज
रहा है, किसी
का इंकार नहीं
है। और धीरे—
धीरे जैसे—
जैसे खोज गहरी
होगी, वैसे—वैसे
पता चलेगा कि
आनंद की खोज
अंत में
परमात्मा की
खोज बन जाती
है।
तीसरी
बात,
याद रखें—
आनंद खोजना
चाहते हैं, लेकिन त्यागेंगे
क्या? चुकाएंगे क्या? किस
चीज से आनंद
की खोज करना
चाहते हैं? आपके पास
क्या है, जो
आप देंगे?
अगर
आदमी एक कदम
भी चलता है, तो
उसे वह जमीन
छोड़ देनी पड़ती
है, जिस पर
खड़ा था, तो
ही आगे बढ़
पाता है। इस
जगत में कोई
गति नहीं है, अगर हम कुछ
छोड़ने को राजी
न हों। त्याग
के बिना एक
कदम भी नहीं
उठता है। अगर
हाथ में
मिट्टी, कंकड़, पत्थर
भरे हुए हैं—
और हीरे—
जवाहरात
चाहिए—तो छोड़
देने पड़ेंगे।
कम से कम हाथ
खाली करना
पड़ेगा, व्यर्थ
को हटा देना पड़ेगा,
ताकि
सार्थक उतर सके।
क्या है आपके
पास?
आप
डर मत जाना! न
तो मैं कहूंगा
कि आप धन छोड़
दें,
क्योंकि वह
आपके पास है
नहीं, किसी
के पास नहीं
है। इस दुनिया
में बड़े से
बड़ा धनी भी
दरिद्र ही होता
है। वह है ही
नहीं किसी के
पास। दो तरह
के दरिद्र
होते हैं—एक
गरीब दरिद्र
होते हैं, एक
अमीर दरिद्र
होते हैं।
बाकी दरिद्र
ही होते हैं।
अभी तक मैंने
अमीर आदमी
नहीं देखा।
पैसे वाले
बहुत दिखाई
पड़ते हैं, पर
अमीर नहीं। वे
भी पकड़ने
की दौड़ में
उतने ही हैं, जितना गरीब
से गरीब आदमी।
जैसा भिखमंगा
अपने हाथ में
जो उसे मिल
गया है, उसे
पकड़े हुए
है; वैसा
बड़ी से बडी
तिजोरी जिसके
पास है, वह
भी उतने ही
जोर से पकड़े
हुए है। वह
पकड़ एक सी है, तो गरीबी एक
सी है।
तो
आपके पास धन
तो है नहीं—किसी
के पास नहीं
है— इसलिए मैं
नहीं कहता कि
आप धन छोड़ दें।
जो नहीं है, उसे
आप छोड़ेंगे
भी कैसे? मैं
आपसे नहीं
कहता कि आप
अपना जीवन दे
दें—वह भी
आपके पास नहीं
है। जिसका
आपको पता ही
नहीं, वह
आपके पास कैसे
हो सकता है? और आप कैप
रहे हैं
प्रतिपल
मृत्यु के भय
से। अगर आप
जीवन ही होते,
तो आप
मृत्यु से
डरते क्यों?
जीवन
की तो कोई
मृत्यु नहीं
होती। जीवन तो
मृत्यु बन
कैसे सकता है? लेकिन
आप कैप रहे
हैं मृत्यु से।
प्रतिपल मौत
आपको घेरे हुए
है। सब तरह से
आप अपने को
बचाने की
कोशिश कर रहे
हैं कि मैं
मिट न जाऊं, मर न जाऊं, समाप्त न हो
जाऊं। जीवन भी
आपके पास नहीं
है। इसलिए मैं
आपसे न कहूंगा
कि जीवन दान
कर दें। जो है ही
नहीं, उसका
आप दान भी
कैसे करेंगे?
मैं
तो आपसे वह मांगूंगा
जो आपके पास
है। और वह मांगूंगा
जो सभी के पास
है। जैसा
मैंने कहा कि
सभी की खोज है
आनंद, ऐसी एक
संपदा सभी के
पास है— और वह
है दुख। वह
आपके पास काफी
है, वह
आपके पास
जरूरत से
ज्यादा है।
जन्मों—जन्मों
से आपने उसके
अतिरिक्त और
कुछ इकट्ठा ही
नहीं किया है।
आपके पास
राशियां लग गई
हैं। गौरीशंकर
छोटा पड़ जाए, आपने जो दुख
के ढेर लगाए
हैं, वे
उससे बड़े हैं,
वह भी शरमा
जाए। और शायद हिलेरी और तेनसिह
आपके दुख के
ढेर पर चढ़ने
में सफल न
होंगे, वे
बड़े हैं। वह
जन्मों—जन्मों
की आपकी मेहनत
है, आपने
दुख के सिवाय
कभी कुछ कमाया
नहीं है। आप
अभी भी कमा
रहे हैं।
मैं
आपसे चाहूंगा
कि आप दुख छोड़
दें,
आप दुख का
त्याग कर दें।
कोई आपसे दुख
मांगता नहीं,
मैं आपसे
दुख मांगता
हूं। और अगर
आप दुख दे
सकें, तो
आनंद के लिए
रास्ता
निर्मित हो जाए।
और अगर आप दुख
छोड़ सकें, तो
आपको पता लगे
कि जो आप
सोचते थे कि
आप दुख में जी
रहे हैं, वह
आपकी भ्रांति
थी। और दुख ने
आपको नहीं
पकड़ा था, आपने
ही दुख को
पकड़ा हुआ था।
मगर एक बार
छोड़े तो ही
पता चले कि
कौन किसको पकड़े
हुए है।
आप
सदा यही पूछते
रहते हैं कि
दुख से कैसे
छुटकारा हो? आपकी
बातों से ऐसा
लगता है कि
जैसे दुख ने
आपको पकड़ा है,
और छुटकारा
चाहिए। अगर
दुख आपको पकड़े
हुए है, तो
फिर आप छूट न
पाएंगे। फिर
पकड़ ही आपके
हाथ में नहीं
है, दुख के
हाथ में है।
फिर तो आप
विवश हैं, असहाय
हैं। और
जन्मों—जन्मों
से नहीं छूट
पाए हैं, तो
अब कैसे छूट
जाइएगा?
मैं
आपसे कहता हूं
कि दुख ने
आपको नहीं
पकड़ा हुआ है, आप
दुख को पकड़े
हुए हैं। और
अगर आप राजी
हुए, तो
आपको यह समझ
में आ जाएगा।
न केवल समझ
में, बल्कि
आप छोड़ कर भी
अनुभव कर
लेंगे कि यह
छूटता है। और
जब आप दुख को
छोड़ने की कला
में कुशल हो
जाते हैं, तब
आपको पता लगता
है कि जो भी आप
ढो रहे थे, उसके
लिए आपके
अतिरिक्त और
कोई भी
जिम्मेवार
नहीं था। और
आपने जो भी
भोगा है, कोई
और कसूरवार
नहीं है। यह
आपकी मर्जी थी,
आप दुख
चाहते थे। जो
हम चाहते हैं,
वही होता है।
और जो भी आप
हैं, आप
अपनी चाहो का
फल हैं। न तो
कोई परमात्मा
जिम्मेवार है,
न कोई भाग्य
जिम्मेवार है;
किसी को
प्रयोजन नहीं
है आपको दुखी
करने के लिए।
सच
तो यह है कि यह
पूरा
अस्तित्व
आपको आनंदित करने
के लिए तत्पर
है। यह पूरा
अस्तित्व
चाहता है कि
आपका जीवन एक
उत्सव बन जाए।
क्योंकि जब आप
दुखी होते हैं, तो
आप चारों तरफ
दुख भी फेंकते
हैं। जब आप
दुखी होते हैं
तो आपके घाव
की दुर्गंध सारे
अस्तित्व में
पहुंचती है।
और जब आप दुखी
होते हैं तो
यह अस्तित्व
भी पीड़ा पाता
है। यह सारा
जगत आपके साथ
पीड़ित होता है
और आपके आनंद
के साथ आनंदित
होता है। कोई
अस्तित्व की चाह
नहीं है कि आप
दुखी हों।
क्योंकि यह तो
अस्तित्व के
लिए ही
आत्मघात है।
पर आप दुखी
हैं और दुखी
होने में आपने
कुछ व्यवस्था
बना रखी है।
और उस
व्यवस्था को
जब तक आप न तोड़
दें, तब तक
आप कभी भी
आनंद की तरफ
आख न खोल
पाएंगे।
आपकी
व्यवस्था
क्या है? मनुष्य
की व्यवस्था
क्या है दुख
संगृहीत करने
की? वह
कैसे इकट्ठा
करता है? यह
समझ लें थोड़ा,
तो शायद
छोड़ने में
आसानी हो। कल
सुबह से हम
प्रयोग में
उतरना शुरू
होंगे।
आप
रोना चाहते
हैं अगर...। एक
छोटा बच्चा
रोना चाहता है—
मनस्विद
कहते हैं कि
बच्चे की रोने
की प्रक्रिया, रेचन
की प्रक्रिया
है। जब भी
बच्चे में
तनाव भर जाता
है, तो वह
रो कर अपने
तनाव को बहा
देता है। एक
छोटा बच्चा है।
आप छोटे बच्चे
थे। उसे भूख
लगी है, वक्त
पर उसे दूध
नहीं मिल रहा
है तो वह रो
रहा है, क्योंकि
तनाव से भर
गया है। और
तनाव को बाहर
निकालना
जरूरी है। वह
रो लेगा, तनाव
बाहर निकल
जाएगा, वह
हल्का हो
जाएगा। लेकिन
हम उसे समझाते
हैं कि रोओ मत।
हम सब तरह के
उपाय करते हैं
कि वह रोए
न, हम हाथ
में खिलौना दे
देते हैं, ताकि
वह भूल जाए।
हम मुंह में
झूठी कोई चीज
लगा देते हैं,
उसका
अंगूठा उसके
मुंह में दे
देते हैं, ताकि
वह समझ ले कि
मां का स्तन
मिल गया, और
भूल जाए। हम
उसे हिलाने
लगते हैं, डुलाने
लगते हैं, ताकि
उसका ध्यान
विचलित हो जाए
और वह रोए
न। हम सब तरह
के उपाय करते
हैं, हम
उसे रोने नहीं
देते। वह जो
तनाव निकल
जाता रोने से,
वह इकट्ठा
हो जाएगा, वह
निकलेगा नहीं।
ऐसे हम इकट्ठे
होने देते हैं।
और हर व्यक्ति
न मालूम कितना
रुदन, न
मालूम कितनी
पीड़ा संगृहीत
कर लेता है।
उसके ढेर पर
इकट्ठा बैठ
जाता है।
आपने
न मालूम कितने
तनाव इकट्ठे
कर लिए हैं। न
तो आप कभी दिल
भर कर रोए
और न आप कभी
दिल भर कर
हंसे। न रोने
से रुक गया है
कुछ,
न हंसने से
रुक गया है
कुछ। न आपने
कभी दिल भर कर
क्रोध किया है
और न कभी दिल
भर कर क्षमा
ही की है। आप
बिलकुल अधूरे—अधूरे
रह गए हैं। सब
तरफ आप की
शाखाएं
निकलना चाहती
हैं, लेकिन
निकल नहीं
पाईं। सब तरफ
पत्ते निकलना
चाहते थे, लेकिन
नहीं फूट पाए।
आपका वृक्ष
ठूंठ की तरह
रह गया है। इस
संगृहीत पीड़ा,
अविसर्जित पीड़ा का नाम
नर्क है। और
यह नर्क आप ढो
रहे हैं।
यहां
मैंने आपको
बुलाया है, ताकि
आपके नर्क को
फेंका जा सके।
और आप इसे
फेंक सकते है।
इस शिविर में आप
छोटे बच्चे की
भांति हो जाए।
आप भूल जाना कि
आप बड़े सुसंस्कृत
है, कि आप
बड़े शिक्षित
हैं, कि आप
बड़े पद पर हैं,
कि आपके पास
धन है, कि
गांव में
इज्जत है— आप
सब छोड़ देना।
आप ऐसे हो
जाना, जैसे
कि आप पहले
दिन के पैदा
हुए बच्चे है—न
कोई
प्रतिष्ठा है,
न कोई
शिक्षा है, न कोई पद है, न कोई धन है, न कोई मान—मर्यादा
है। अगर मान—मर्यादा,
पद, इस
सबको बचाना हो,
तो कल सुबह
के पहले आप
यहां से जितनी
जल्दी हो भाग
जाना और लौट
कर मत देखना—उनके
लिए मैं नहीं
हूं। आपकी पद—मर्यादा,
आपकी इज्जत,
आपकी
समझदारी
सुरक्षित रहे—
आप भाग जाना, आप यहां मत
रुकना।
यहां
तो मैं उनके
लिए हूं जो
छोटे बच्चों
की तरह सरल
होने को तैयार
हैं। तो ही
मैं कुछ कर
पाऊंगा, क्योंकि
सिर्फ बच्चों
को ही कुछ
सिखाया जा सकता
है। और सिर्फ
बच्चों को
बदला जा सकता
है। और सिर्फ
बच्चों के
जीवन में
क्रांति हो
सकती है।
ध्यान
के इन
प्रयोगों में, जो
यहां चलेंगे,
आपके हृदय
में जो भी दुख
हो, उसे
उलीच डालना, उसे बाहर
फेंक देना।
क्रोध हो उसे
आकाश में उलीच
देना, हिंसा
हो उसे आकाश
में उलीच देना।
किसी पर हिंसा
करनी नहीं है,
खुले आकाश
में विसर्जित
कर देनी है।
दुख, पीड़ा,
संताप, जो
भी भीतर हो, उसे फेंक
देना है। उसे
इतनी तरह से
उलीचना, जितनी
तरह से आप में
सामर्थ्य हो।
आप सारी ताकत
लगा देना, कि
भीतर जो भी
दुख है, वह
प्रकट हो जाए।
यह आप समझ लें
कि दुख जब
अचेतन में दब
जाता है, तो
जब तक उसे
प्रकट न किया
जाय पुन:, वह
आप से बाहर
नहीं जाता, भीतर दबा
रहता है। उसे
प्रकट करें, उसे चेतन
में ले आएं।
वह जो भीतर
अंधेरे में
दबा है, उसे
खींच लें बाहर,
रोशनी में
ले आएं।
कुछ
चीजें रोशनी
में मर जाती
हैं। वृक्ष की
जड़ों को आप
अगर खींच कर
रोशनी में ले आएं, वे
मर जाएंगी।
उनको अंधेरा
चाहिए, अंधेरे
में ही वे
रहती हैं, अंधेरे
में ही उनका
जीवन है। दुख
का जीवन भी
अंधेरे में है,
जड़ों की
भांति। आप उसे
खींच कर बाहर
ले आएं, और
आप पाएंगे कि
मृत्यु हो गई
उसकी। आप उसको
भीतर दबाते
जाएं, वह
जन्मों—जन्मों
तक आपका सगा—साथी
रहेगा, संगी
रहेगा। दुख को
लाना है बाहर।
एक
बात और समझ
लें। दुख को
आप बाहर से ही
भीतर ले गए
हैं। उसे कृपा
करके बाहर ही
वापस लौटा दें।
दुख भीतर नहीं
है। दुख सब
बाहर से ही भीतर
ले जाया जाता
है। आप जब
पैदा होते हैं, आपका
जो निज—स्वभाव
है, वहां
कोई दुख नहीं
है। दुख बाहर
से भीतर लाया
जाता है। एक
आदमी है, उसने
आप को गाली दे
दी, आप
दुखी हो गए।
आप बाहर से
गाली को भीतर
ले आए। अब इस
दुख को आप
भीतर सम्हालेंगे,
संजोके,
दबाके;
तो यह बढ़ेगा,
फैलेगा, आपकी
रग—रग में, रोएं— रोएं में
जहर बन जाएगा।
आप एक दुखी
व्यक्तित्व
हो जाएंगे।
दुख हम बाहर
से भीतर लाते
हैं, वह
हमारा स्वभाव
नहीं है।
इसीलिए
कहता हूं कि
दुख से मुक्त
हुआ जा सकता है।
क्योंकि
स्वभाव से
मुक्त नहीं
हुआ जा सकता, केवल
पर— भाव से
मुक्त हुआ जा
सकता है। जो
अपना नहीं है,
उसी से हम
मुक्त हो सकते
हैं। जो अपना
ही है, उससे
मुक्त होने का
कोई मार्ग
नहीं है।
दुख
को बाहर
उलीचना है। इन
आने वाले
दिनों में
जितना उलीच
सकें, उलीचना।
और जैसे—जैसे उलीचेंगे,
उतनी—उतनी
समझ बढ़ेगी
कि अजीब
पागलपन था कि
हम इसे
सम्हाले थे।
इसे तो सहज
ही फेंका
जा सकता था, यह तो हमारे हाथ
में था, लेकिन
हम नाहक ही
हाथ को रोके
हुए थे।
और
दूसरी बात—
जैसे—जैसे दुख
उलीचेंगे, बाहर
से आया हुआ
दुख जैसे ही
बाहर वापस भेज
दिया जाएगा, भीतर आपको
आनंद की स्कुरणा
शुरू हो जाएगी।
आनंद
भीतर है। उसे
कोई बाहर से
नहीं लाता, वह
बाहर से नहीं
आता, वह
आपका स्वभाव
है। वह आप हैं।
वह आपके भीतर
छिपा है, वह
आपकी आत्मा है।
अगर
यह बाहर से
इकट्ठा कचरा
बाहर फेंक
दिया जाए, तो
वह भीतर की
आत्मा फैलने
लगती है, विस्तीर्ण
होने लगती है।
उसकी रोशनी
आपको दिखाई
पड़ने लगती है।
और आपको उसका
नाद सुनाई
पड़ने लगता है।
और आप एक भीतर
के संगीत में
डूबने लगते
हैं। लेकिन यह
होगा तभी, जब
आप बाहर का
कचरा बाहर
फेंक देंगे, ताकि भीतर
आकाश निर्मित
हो जाए, जगह
बने। उस जगह
में, भीतर
जो छिपा है, वह फैल सके।
दुख
को बाहर
फेंकना है, ताकि
आनंद भीतर से
फैलने लगे। और
जब आनंद भीतर
से फैलने लगे,
तो दूसरी
बात और भी समझ
लेनी जरूरी है।
दुख
को अगर दबाएं
तो बढ़ता है।
दुख को अगर
दबाएं तो बढ़ता
है,
दुख को अगर
प्रकट करें तो
घटता है। आनंद
बिलकुल उलटा
है। आनंद को
अगर दबाएं तो
घटता है, आनंद
को अगर प्रकट
करें तो बढता
है।
तो
पहले तो दुख को
फेंकना है, क्योंकि
वह फेंकने से
घटता है। उसको
दबाना मत, क्योंकि
वह दबाने से
बढ़ता है। और
जब आनंद की
झलक भीतर से
आने लगे तो
आनंद को बाहर
फेंकना है।
क्योंकि आनंद
को जितना बाहर
फेंकें, उतना भीतर
बढ़ता है, उतनी
ताजी पर्तें
टूटने लगती
हैं। जैसे
कुएं से कोई
पानी उलीचता
जाए, तो
झरने से नए
स्रोत कुएं को
भरते चले जाते
हैं। आनंद का
स्रोत भीतर है,
इसलिए डरना
मत कि आनंद
उलीचने से कम
हो जाएगा। दुख
उलीचने से कम
होता है, क्योंकि
भीतर उसका
स्रोत नहीं है।
वह बाहर से ली
गई चीज थी, अगर
उलीचेंगे
तो कम होगी।
अगर
दुख बचाना हो
तो यह तरकीब
ध्यान में रख
लेना, कभी
उलीचना मत।
दुख अगर बढ़ाना
हो, यही कश्त
कर लिया हो— और
लगता है कि
बहुत लोग यही
तय किए बैठे
हैं— तो दुख को
कभी उलीचना मत,
प्रकट मत
करना। आंसू
आते हों तो पी
जाना, क्रोध
आता हो तो दबा
लेना। कुछ भी
भीतर से पैदा
होता हो
उपद्रव, तो
उसे भीतर ही
दबा देना, वह
बढ़ जाएगा। आप
एक महानर्क
बन जाएंगे।
दुख
को घटाना हो
तो उलीचना, आनंद
को बढ़ाना हो
तो उलीचना।
क्योंकि आनंद
भीतर है, और
नई पर्तें
टूटती जाएंगी।
और जैसे—जैसे
आनंद को आप उलीचेंगे
ज्यादा शुद्धतर
आनंद की झलक
मिलनी शुरू
होगी। आनंद
बांटने से बढ़ता
है।
इसलिए
तो भाग जाते
हैं बुद्ध और
महावीर जंगल में, जब
दुख में हैं, क्योंकि दुख
उलीचना है।
अच्छा है
एकांत में उलीचें,
ताकि किसी
को स्पर्श भी
न करे। लेकिन
जब आनंद से
भरते हैं तो
वापस छ लौट
आते हैं
जनसमूह में, क्योंकि अब
बांटना है। और
जब बांटना ही
है तो अब
जनसमूह में आ
कर 1 ही बांटना
उचित है। शायद
किसी को लग
जाए, शायद
कोई पकड़ ले
धुन, शायद
कोई नाच उठे, शायद किसी
के हृदय की
वीणा को छू
जाए और वीणा बजने
लगे।
तो
ध्यान रखना, चाहे
क्राइस्ट, चाहे
मोहम्मद, चाहे
महावीर, चाहे
बुद्ध, जब
दुख में हैं
तब एकांत में
चले जाते हैं।
क्योंकि
उलीचना है दुख,
उचित है
अकेले में
उलीच दें, किसी
को पता भी न हो।
और जब भर जाते
हैं आनंद से, तो लौट आते
हैं समूह में,
भीड़ में।
क्योंकि अब
उलीचना है
आनंद और अब
जितना बंट जाए
उतना अच्छा है।
दुख
उलीचना है। और
जब आनंद की
झलक आने लगे, तो
आनंद भी
उलीचना है। और
हो जाना है
बिलकुल छोटे
बच्चे की
भांति, जिसे
न चिंता है
अतीत की, न
फिक्र है
भविष्य की।
जिसे कोई पता
भी नहीं है कि
दूसरे उसके
संबंध में
क्या सोचते
हैं। तो ही
जिस घटना के
लिए मैंने
आपको पुकारा
है, वह घट
पाएगी। और जिस
यात्रा पर
चाहता हूं आपको
गतिमान कर दूं
वह यात्रा
गतिमान हो
पाएगी।
थोड़े
से साहस की
जरूरत है और
आनंद के खजाने
बहुत दूर नहीं
हैं। थोड़े से
साहस की जरूरत
है और नर्क को
आप ऐसे ही उतार
कर रख सकते
हैं,
जैसे कि कोई
आदमी धूल— धवांस
से भर गया हो
रास्ते की, राह की, और
आ कर स्नान कर
ले और धूल बह
जाए। बस ऐसे
ही ध्यान
स्नान है। दुख
धूल है। और जब
धूल झड़ जाती
है और स्नान
की ताजगी आती
है, तो
भीतर से जो
सुख, जो
आनंद की झलक
मिलने लगती है,
वह आपका
स्वभाव है।
अब
हम सूत्र को
लें।
मैबल
कॉलिन्स की यह
छोटी सी
पुस्तिका, लाइट
आन दि पाथ, पथ—प्रकाशिनी
है। मनुष्य—जाति
के इतिहास में
बहुत
मूल्यवान
थोड़ी सी पुस्तिकाओं
में से एक है। मैबल
कॉलिन्स इस
पुस्तिका की
लेखिका नहीं
है। यह
पुस्तिका उन
थोड़े से सार
शब्दों में से
है, जो बार—बार
मनुष्य
आविष्कृत
करता है, और
बार—बार खो
देता है।
सत्य
कठिन है बचाना।
सत्य जब उतरता
है,
तो परम—ऊंचाई
के
व्यक्तित्व
हों, तभी!
जो बहुत शिखर
पर खड़े होते
हैं जीवन
चेतना की, वे
ही सत्य की
झलक उपलब्ध कर
पाते हैं। वे
कहते हैं, वे
लिखते हैं, वे हजार तरह
के उपाय करते
हैं कि जो झलक
उन्हें मिली
है, वह सभी
की संपदा बन
जाए, सभी
के लिए धरोहर
हो जाए। लेकिन
जो उन
ऊंचाइयों पर
नहीं हैं, वे
उनके शब्दों
को कभी भी ठीक
से समझ नहीं
पाते। और वे
जो भी समझते
हैं, वह
गलत होता है।
और वे जो भी
व्याख्या
करते हैं, वह
भी गलत होती
है। और फिर
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे
वह जो सत्य की
पहली किरण थी,
खो जाती है
और असार शब्द
हाथ में रह
जाते हैं। कभी—कभी
तो वे शब्द भी
खो जाते हैं
और तब पुनः—पुन:
उन सार शब्दों
की खोज करनी
पड़ती है।
मैबल
कॉलिन्स का
कथन है कि ये
जो शब्द इस
पुस्तिका में
उसने संगृहीत
किए हैं, ये
उसने लिखे
नहीं हैं, वरन
ध्यान की किसी
गहराई में
उसने देखे हैं।
उसका कहना है—
और कहना ठीक
है—कि किसी
विलुप्त हो गई
संस्कृत
पुस्तिका में ये
शब्द
उल्लिखित थे।
वह पुस्तिका
विलुप्त हो गई
है, खो गई
है। आदमी से
उसका संबंध
छूट गया है।
और उसने उस
पुस्तिका को
पुन: देखा है।
उसने उसी
पुस्तिका को
वैसा का वैसा
उतार कर रख
दिया है।
इस
जगत में जो भी
मूल्यवान है, उसके
खोने का डर है,
लेकिन
बिलकुल खो
जाने का डर
नहीं है।
क्योंकि जब भी
कोई उसी ऊंचाई
पर पहुंचेगा—कोई
भी व्यक्ति —तब
उसे फिर खोजा
जा सकता है।
दुनिया के
बहुत से
शास्त्र इसी
तरह बार—बार खोजे जाते
रहे हैं।
कुरान
इसी तरह
अवतरित हुई।
जब पहली दफा
मोहम्मद को
सुनाई पड़ा कि
पढ़,
तो मोहम्मद
तो बेपढ़े
थे। पढ़े—लिखे
नहीं थे। तो उन्होंने
कहा, मैं क्या
पढूं? उनके
सामने कुछ अक्षर
तैर रहे है ध्यान
में और आवाज
भीतर से आती
है, पढ़। तो
मोहम्मद ने
कहा, मैं
क्या पढूं?
क्योंकि
मैं तो पढ़ा—लिखा
नहीं हूं! तो
भीतर से आवाज
आती है कि इन
शब्दों को
पढ़ने के लिए
बाहर की पढ़ाई की
जरूरत भी नहीं
है—तू पढ़।
मोहम्मद खुद
इतने घबड़ा गए
कि यह जो हो
रहा है कोई
भ्रम है, कोई
स्वप्न है या
मैं
विक्षिप्त हो
गया हूं। घर आ
कर कंबल ओढ़ कर
सो रहे, बुखार
आ गया, सारा
शरीर कैपने
लगा। उनकी
पत्नी ने पूछा,
आपको हुआ
क्या है? तो
तीन दिन तक तो
पत्नी को भी नहीं
बताया, क्योंकि
खुद पर ही
भरोसा नहीं आ
रहा था कि जो देखा
है, वह
सच्चा हो सकता
है। और यह भी
पक्का नहीं था,
कि जब अपने
को ही भरोसा
नहीं आ रहा है,
तो पत्नी को
क्या भरोसा
आएगा! कहेगी
कि पागल हो गए
हो, सन्निपात
हो गया है।
डाक्टर को बुलाएं,
चिकित्सक
को बुलाएं,
इलाज
करवाएं। तीन
दिन तक अपने
को रोके रखा।
लेकिन वह बार—बार
होती रही घटना—कि
पढ़। और वे ही
अक्षर बार—बार
दोहरते
रहे। और धीरे—
धीरे मोहम्मद
उन अक्षरों को
पहचानने लगे
और कुरान की
आयतें उतरनी
शुरू हो गईं।
कुरान इस तरह
अवतरित हुई।
यह
मैबल
कॉलिन्स के
ऊपर इसी तरह
यह पुस्तिका, लाइट
आन दि पाथ, अवतरित
हुई है। इस
पुस्तिका का
एक—एक सूत्र
मूल्यवान है।
यह हजारों—हजारों
साल की और
हजारों—हजारों
लोगों की
साधना का सार—निचोड़ है।
एक—एक शब्द को
बहुत
ध्यानपूर्वक
सुनना।
'ये नियम
शिष्यों के
लिए हैं।’
सभी
के लिए नहीं, सिर्फ
शिष्यों के
लिए हैं। क्या
अर्थ है? ये
नियम सिर्फ
उनके लिए हैं,
जो सीखने को
तैयार हैं। ये
नियम सबके लिए
नहीं हैं।
क्योंकि बहुत
से लोग हैं, जो सीखने को
तैयार ही नहीं
हैं।
इसीलिए
मैंने कहा कि
अगर तुम
अज्ञानी हो, इसका
तुम्हें पता
है, तो
रुकना, अन्यथा
भाग जाना।
क्योंकि जो
अज्ञानी है, वह शिष्य हो
सकता है। जो
अज्ञानी है और
समझता है कि
मैं अज्ञानी
हूं उसने
शिष्य की
योग्यता पा ली
है, वह
सीखने को
तैयार होगा।
ज्ञानी सीखने
को तैयार नहीं
होता। इसलिए
ज्ञानी
अज्ञानी रह
जाते हैं, क्योंकि
वे सीखने को
तैयार नहीं
होते। और
अज्ञानी ज्ञानी
हो जाते हैं, क्योंकि वे
सीखने को
तैयार होते
हैं। और सीखने
की कुशलता और
कला का नाम
शिष्यत्व है।
ये
नियम उनके लिए
हैं,
जो शिष्य
हैं। शिष्य का
क्या अर्थ है?
शिष्य का
अर्थ है, जो
झुकने को राजी
है। जो ज्ञान
को अपने
अहंकार से
ज्यादा
मूल्यवान मानता
है। और जो
कहता है, मैं
सिर झुकाऊंगा,
मैं सिर
धरती पर रख
दूंगा, अगर
मुझे प्रकाश
की थोड़ी सी
किरण भी मिलती
हो। मैं सब
खोने को तैयार
हूं मैं अपने
को भी देने को
तैयार हूं।
शिष्य
का अर्थ है—एक
गहन विनम्रता।
शिष्य
का अर्थ है—
अपने को झुका
कर,
हृदय को एक
पात्र बना
लेना।
नदी
बहती है और
प्यासे आप खडे
रहें और झुकने
को राजी न हों, तो
नदी छलांग लगा
कर आपके छ
हाथों में
नहीं आएगी।
नदी आप पर
नाराज भी नहीं
है। नदी आपकी
प्यास को
मिटाने को
प्रतिपल
तत्पर भी है।
पर झुकना पड़े,
झुक कर नदी
में अंजुलि
बनानी पड़े, तो नदी आपके
हाथों में भी
आ जाएगी। बस, ज्ञान भी
झुके बिना
उपलब्ध नहीं
होता।
तो
ये नियम उनके
लिए हैं, जो
झुकने को राजी
हैं। सिर्फ
प्यासे हैं, इतना काफी
नहीं है। जो अंजुलि बना
कर झुकते भी
हैं। और जो
कहते हैं कि
मैं मिट जाऊं
तो भी हर्ज
नहीं है, लेकिन
जीवन का रहस्य
मेरे बोध में
आ जाए। मैं
धूल की तरह
चरणों में पड़
जाऊं तो भी
कोई हर्ज नहीं
है, लेकिन
जान जाऊं कि
जीवन का स्वाद
क्या है, अर्थ
क्या है, प्रयोजन
क्या है? मैं
क्यों हूं और किसलिए
हूं?
जो
अपने को बचाने
की कोशिश में
लगे हैं, जिनकी
झुकने की जरा
सी भी वृत्ति
नहीं है, उनके
लिए ये नियम
नहीं हैं। तो
आप सोच लेना
कि आपकी
वृत्ति अगर
शिष्य की है, तो ही ये
नियम आपकी समझ
में आएंगे। और
समझ में आएं
तो ही इनका
प्रयोग आप कर
सकेंगे।
रोज
मैं देखता हूं—लोग
आते हैं, वे
जानना चाहते
हैं, लेकिन
सीखना नहीं
चाहते। जानने
का अर्थ होता
है, मुफ्त
में जान लेना।
सीखने का अर्थ
होता है, अपने
को देना, चुकाना।
सीखने का अर्थ
होता है, झुकना।
और जानने का
अर्थ है कि
ठीक!
एक
मित्र मेरे
पास आए। मैंने
उनसे पूछा......
.बहुत बार
लिखते थे कि
आना चाहता हूं
आना चाहता हूं।
तो मैंने पूछा, आप
बहुत बार
लिखते थे कि
आना चाहता हूं
किसलिए? तो उन्होंने
कहा कि
विचारों का
आदान—प्रदान
करना है। तो
मैंने कहा, अगर आपको
पक्का भरोसा
हो कि आपको
कुछ मिल गया है,
तो मैं
शिष्य— भाव से
उसे सीखने को
तैयार हूं।
अगर आपको
पक्का भरोसा न
हों—मुझे
पक्का भरोसा
है कि मुझे
कुछ मिल गया
है—तो आप
शिष्य— भाव से
सीखने को
तैयार हो जाओ।
आदान— प्रदान
का उपाय नहीं
है। या तो
मुझे दे दें
अगर आपके पास
हो, या मैं
आपको दे दूं
अगर आपकी लेने
की तैयारी हो।
आदान—प्रदान
का क्या मतलब
है? अगर
आपको भी मिल
गया और मुझे
भी मिल गया, तो बात ही
खतम हो गई, लेना—देना
क्या है? और
अगर दोनों को नहीं
मिला है, तो
लेंगे—देंगे
क्या? अगर
दोनों में से
एक को मिल गया
हो तो लेन—देन
हो सकता है।
तो मैंने कहा,
पहले हम
पक्का कर लें।
वे
बड़ी बेचैनी
में पड़ गए। यह
भी नहीं कह
सकते कि उनको
मिल गया है, मिला
नहीं है; यह
भी नहीं मान
सकते कि लेने
की दीनता
बताएं, यह
भी नहीं मान
सकते। कहने
लगे, मैं
सोच कर आऊंगा।
मैंने कहा, अगर मिल गया
हो तो सोचना
क्या है? और
नहीं मिला हो
तो क्या सोचना
है—साफ ही
होगा! और
मैंने उनसे
कहा कि सोच कर
आप न आ पाएंगे।
अभी तक तो
नहीं आ पाए।
वह आदान—
प्रदान कर
सकते थे। झूठे
शब्द हैं, जैसे
दो अंधे एक—दूसरे
को रास्तो
बताएं—तो आदान—प्रदान।
बुद्ध
और महावीर एक
बार एक ही
धर्मशाला में
ठहरे थे, मिलना
नहीं हुआ। तो
चिंता की बात
मालूम पड़ती है।
दो भले आदमी
मिलते तो
अच्छा होता।
और न मालूम
कितने लोग
सोचते रहे कि
क्यों नहीं
मिले। जिनकी
धर्म में कोई
आस्था नहीं, वे समझते
होंगे कि
दोनों
अहंकारी रहे
होंगे इसलिए
नहीं मिले।
जैनी समझते
हैं कि महावीर
क्यों मिलें,
वे तो
ज्ञानी हैं!
बुद्ध को
मिलना हो तो आ
जाएं मिलने।
बौद्ध सोचते
हैं कि बुद्ध
क्यों मिलें,
वे तो
ज्ञानी हैं!
अगर महावीर को
मिलना हो तो आ जाएं
मिलने। लेकिन
बुद्ध और
महावीर के न
मिलने का कारण
दूसरा है—मिलने
का कोई अर्थ
ही नहीं है, कोई प्रयोजन
ही नहीं है।
दो
अज्ञानी
मिलें, कोई
सार नहीं है।
दो ज्ञानी
मिलें, तो
भी कोई सार
नहीं है। एक
अज्ञानी और
ज्ञानी मिले
तो कुछ सार
घटित होता है,
नहीं तो
क्या सार घटित
होगा! दो
ज्ञानी के
मिलने से क्या
फायदा है, क्या
अर्थ है—कुछ
भी नहीं। दो
अज्ञानी के
मिलने से क्या
अर्थ है, क्या
फायदा है—कुछ
भी नहीं है।
एक ज्ञानी और
एक अज्ञानी के
मिलने से कुछ
क्रांति घटित
हो सकती है।
'ये सूत्र
शिष्य के लिए
हैं।’?
इसका
अर्थ यह है कि
जब किसी गुरु
के पास जाएं, और
अगर सच में
चाहते हों कोई
क्रांति घटित
हो, तो इस
हालत में जाना—जो
जानता है उसके
पास इस भांति
जाना—कि आप
नहीं जानते।
उनके लिए ये
सूत्र हैं, तो क्रांति
घटित होगी, जीवन बदलेगा।
'इन पर तुम
ध्यान दो।’
'इसके पहले
कि तुम्हारे
नेत्र देख
सकें, उन्हें
अश्रुपात की
क्षमता से
मुक्त हो जाना
चाहिए।’
तुम्हारी
आंखें इतने आंसुओ से
भरी हैं कि
तुम देख न
सकोगे। तुम
इतने दुख से
भरे हो कि तुम
देख कैसे
सकोगे! तुम्हारा
दुख सब विकृत
कर देगा। आंखों
से आंसुओ
को बह जाने दो।
आंसुओ को आंखों
से निकल जाने
दो। रो लेने
दो आंखों को
और उस जगह पर आ
जाने दो, जहां
रोने को भी
कुछ न बचे।
तुम्हें
पता ही नहीं
कि अगर
तुम्हारे
सारे आंसू बह
जाएं तो
तुम्हारी आंखें
ऐसी उज्ज्वल
हो जाएंगी कि
तुम्हें
तीसरे नेत्र
की कोई भी
जरूरत न होगी।
या समझें कि
तीसरा नेत्र
उपलब्ध हो
जाएगा, यही आंखें
इतनी स्वच्छ
हो जाएंगी।
यह
सिर्फ आख के
लिए ही सच
नहीं है, तुम्हारा
यही शरीर इतना
पारदर्शी हो
जाएगा, अगर
दुख से मुक्त
हो जाए।
तुम्हारे यही
हाथ अगर दुख
से खाली हो
जाएं, तो
इनके स्पर्श
में वही गरिमा
आ जाएगी, जो
कि परमात्मा
के स्पर्श में
होगी। लेकिन
दुख से भरे, तुम सब तरफ
से बंद हो।
तुम्हारी आंखें
लगता है कि
देखती हैं, लेकिन अंधी
हैं। उन पर
इतना बोझ है
कि उनसे देखा
नहीं जा सकता।
तुम्हारे हाथ
छूते हैं, लेकिन
वह छूना
मुर्दा होता
है। क्योंकि
भीतर से जो
जीवन की धारा
बहती और उस स्पर्श
को जीवंत करती,
वह तो दुख
और पीड़ा के
अवरोध के कारण
बाहर तक आ
नहीं पाती।
इन
आठ दिनों में
तुम अपनी आंखों
को आंसुओ
से मुक्त कर
लेना। आंसुओ
से मुक्त करने
का उपाय यह
नहीं कि तुम आंसुओ को
दबा लेना, क्योंकि
दबाओगे
तो वे और भी भर
जाएंगी। आंसुओ
से मुक्त करने
का अर्थ है कि
तुम आसुओं
को बह जाने
देना। रोकना
ही मत। आंसू अदभुत
है। कीमिया है
उसकी, उसका
रहस्य है।
छोटे बच्चों
की आंखों में
जो ताजगी
मालूम पड़ती है,
जो भोलापन,
उसका कारण
है। छोटे
बच्चे रो पाते
हैं हृदयपूर्वक,
आंखों को
खाली कर लेते
हैं।
जीसस
ने कहा है कि
जब तक तुम
छोटे बच्चों
की भांति न हो
जाओ,
तब तक मेरे
प्रभु के राज्य
में तुम्हारा
प्रवेश नहीं
होगा।
रोना
और देखना।
सूत्र
कहता है, 'इसके
पहले कि
तुम्हारे
नेत्र देख
सकें, उन्हें
अश्रुपात की
क्षमता से
मुक्त हो जाना
चाहिए।’
भीतर
अश्रु न बचें।
और जब भीतर
अश्रु नहीं
बचते, और रोने
का कोई भाव
नहीं बचता, दुख की कोई
संगृहीत राशि
नहीं बचती, तब तुम
तैयार हो गए।
अब तुम कुछ
देख सकते हो।
यहीं, अभी
और यहीं, अगर
आंखें खाली
हों आंसुओ
से तो उसे
देखा जा सकता
है, जिसे
हम जन्मों—जन्मों
से खो रहे हैं।
यह अस्तित्व
ही—ये कंकड़—पत्थर,
पौधे, आकाश
के तारे, तुम,
तुम्हारे
आसपास बैठे
हुए लोग—इन
सबके भीतर वही
परम आनंद की
घटना घट रही
है और वही परम—
जीवन
प्रवाहित हो
रहा है। लेकिन
अंधी आंखें
नहीं देख
पातीं। और आंखें
अंधी हैं, क्योंकि
दुख से भरी
हैं। आंखों को
खाली कर डालना।
आख तो प्रतीक
है। दुख से
स्वयं को खाली
कर लेना है।
'इसके पहले
कि तुम्हारे
कान सुन सकें,
उन्हें
बहरे हो जाना
चाहिए।’
क्या
मतलब है?
‘इसके
पहले कि
तुम्हारे कान
सुन सकें, उन्हें
बहरे हो जाना
चाहिए।’
अभी
तुम सुनते हो
बहुत, लेकिन
अभी तुम वही
सुनते हो, जो
तुम सुनना
चाहते हो। अभी
तुम वह नहीं
सुनते हो, जो
है। जो कहा
जाता है, वह
सुनाई नहीं
पड़ता। जो
सुनना चाहते
हो, वही
सुन लेते हो।
अभी तुम्हारे
कान चुनाव
करते हैं।
छांट लेते हैं
मतलब की बात, गैर मतलब की
बात छोड़ देते
हैं। जिससे
तुम्हारा
प्रयोजन पूरा
होता है, उसे
पकड़ लेते हैं।
जिससे
तुम्हारा
प्रयोजन पूरा
नहीं होता, उसे छोड़ ही
देते हैं, या
सुनते ही नहीं,
या सुन कर
भी अनसुनी कर
देते हैं।
'इसके पहले
कि तुम सुन
सको...।’
क्या
सुन सको? जिसके
पास तुम सीखने
गए हो, इसके
पहले कि उसकी
वाणी
तुम्हारी समझ
में आ सके, तुम्हारे
कान बहरे हो
जाने चाहिए।
'तुम्हारे
कान बहरे हो
जाने चाहिए।’
तुम्हारा
जो सुनने का
ढांचा और आदत
है,
वह जो चुनाव
है, वह जो
तुम्हारा
मतलब को
प्रविष्ट कर
देने की चेष्टा
है, जो
तुम्हारा
अपने स्वार्थ
के आधार पर
सोचने की
व्यवस्था है—
वह सब टूट
जानी चाहिए।
तुम जिन कानों
को अब तक
जानते रहे हो
तुम्हारे कान,
वे बहरे हो
जाने चाहिए।
उनके बहरे
होते ही तुम्हारे
कान भी वैसे
ही निर्मल हो
जाएंगे, जैसी
आंखें। और तब
जो कहा जाएगा,
वही सुना
जाएगा।
ऐसा
हुआ कि बुद्ध
ने एक रात
अपने
भिक्षुओं को कहा
कि अब तुम जाओ
और रात्रि का
अंतिम कार्य करो।
उस दिन एक चोर
भी सुनने आ
गया था। बुद्ध
ने भिक्षुओं
से कहा कि जाओ
और रात्रि का अंतिम
कार्य करो।
रात्रि का
अंतिम कार्य
था,
रात्रि की
अंतिम ध्यान
की प्रक्रिया।
इसके पहले कि
निद्रा में
प्रवेश करें,
तुम समाधि
में डूब जाओ
और फिर नींद
को आ जाने दो।
तो भिक्षु उठ
कर ध्यान करने
चले गए। और
चोर ने सोचा
कि ठीक याद
दिलाया! आधी
रात होने के
करीब है, अब
मैं जाऊं और
अपने काम में
लग। पर चोर ने
सोचा कि बुद्ध
भी गजब के
आदमी हैं, कहां
से इनको पता
चला कि मैं
अपने काम में
लग! जाओ और
अपने आखिरी
काम में लगो।
और एक वेश्या
भी आई थी।
उसने भी सुना,
शब्द वही थे,
लेकिन उसने
सोचा कि अब
उठूं और मेरे
बाजार और मेरी
दुकान का वक्त
हो गया। तो
बुद्ध बाद में
निरंतर कहते
थे कि उस रात
मैंने तो एक
ही बात कही थी,
लेकिन
समझने वालों
ने अलग—अलग
समझी।
तुम
वही समझ लेते
हो,
जो तुम
समझना चाहते
हो। चोर का
कान कुछ और
सुनता है, वेश्या
का कान कुछ और
सुनता है, संन्यासी
का कान कुछ और
सुनता है।
लेकिन जो कान
भी अपना अर्थ
डाल देते हैं,
वे कान उचित
नहीं हैं, वे
कान बहरे हो
जाने चाहिए।
तभी तुम गुरु
का वचन सुन
सकोगे। नहीं
तो गुरु के
वचन में भी
तुम अपना ही
अर्थ निकालोगे।
और गुरु के
वचन से तुम
वही समझोगे, जो तुम
समझना चाहते
हो। यह बड़ी
होशियारी की
बात है। और तब
जिम्मेवारी
भी तुम गुरु
पर डाल देते
हो और मतलब भी
अपना पूरा कर
लेते हो। और
जो कभी नहीं
कहा गया था, जैसा कोई
अभिप्राय भी
नहीं था, उसके
आधार पर तुम
चलना शुरू कर
देते हो। अगर
तुम भटकोगे,
तो तुम
कहोगे कि गुरु
ने भटकाया।
तुम न कहोगे
कि तुम्हारे
कान सुनते समय
गलत थे। अगर
तुम गलत करोगे,
तो तुम
कहोगे कि गुरु
ने कहा था, इसलिए
हमने ऐसा किया।
तुम यह न
समझोगे कि
तुम्हारे कान
ही व्याख्या
गलत करते हैं।
इसलिए
सूत्र कहता है, ' इसके
पहले कि
तुम्हारे कान
सुन सकें, उन्हें
बहरे हो जाना
चाहिए।’ तुम
अब तक अपने सुनने
की जो आदतें
यहां ले आए हो,
वह अलग कर
देना। तुम
सीधे सुनना।
व्याख्या मत
करना, अर्थ
मत निकालना।
जैसा मैं कहूं
उसमें से तुम
अपना हिसाब मत
निकालना।
जैसे कि अगर
मैं कह रहा
हूं कि इससे
पहले कि तुम्हारी
आंखें आंसुओ
से खाली हो
जाएं, तुम
देख न पाओगे।
तुममें से अनेक
ने अपने मन
में सोचा होगा,
लेकिन मेरे
भीतर तो कोई आंसू
ही नहीं हैं।
इसलिए यह बात
किसी और से
कही जा रही है।
मैंने कहा कि
इसके पहले कि
तुम कुछ जान
सको, तुम्हें
झुकना होगा।
तुम्हारे मन
ने कहा होगा, लेकिन मैं
तो सदा ही
झुका हुआ हूं!
गुरु के चरण छूता
हूं गुरुओं के
पास जाता हूं
साधुओं की
सेवा करता हूं।
मैं तो पहले
से ही...। यह बात
किसी और के
लिए कही गई है।
तब तुम बच गए।
तब तुमने अपने
को हटा लिया
और जो कहा गया
था, वह
नहीं सुना।
यहां जो भी
बात कही जा
रही है, वह
तुमसे कही जा
रही है, किसी
और से नहीं।
इसलिए दूसरे का
तुम विचार ही
मत करना। तुम
सिर्फ अपना ही
खयाल करना। और
अपना भी जब
खयाल करो तो
ईमानदारी
बरतना।
'और इसके
पहले कि तुम सदगुरुओं
की उपस्थिति
में बोल सको, तुम्हारी
वाणी को चोट
पहुंचाने की
वृत्ति से मुक्त
हो जाना चाहिए।’
सदगुरु की
उपस्थिति में
बोल सको तो एक
शर्त है—तब तक
मत बोलना गुरु
से कुछ, जब तक
कि तुम्हारी
वाणी चोट
पहुंचा सकती
है। तब तक तुम
जो भी बोलोगे,
व्यर्थ
होगा। और तब
तक तुम जो भी
बोलोगे, वह
तुम्हारे और
तुम्हारे
गुरु के बीच
फासले को बढ़ाएगा,
घटाएगा नहीं।
हम
वाणी से बड़ी
हिंसा करते
हैं। हम चाहें
तो मौन से भी
कर लेते हैं।
हम हिंसा करने
में कुशल हैं।
कभी—कभी तुम
नहीं भी बोलते
हो। और इसलिए
नहीं बोलते हो
कि तुम्हारा न
बोलना चोट पहुंचाएगा।
कभी तुम बोलते
भी हो, तो
तुम्हारे
बोलने में धार
होती है।
तुम्हारे
शब्द भला ऊपर
से मीठे दिखाई
पड़ते हों, भीतर
उनमें जहर
होता है।
तुम्हारी
हंसी में, तुम्हारे
उठने—बैठने
में, तुम्हारे
इशारों में, तुम्हारी आंखों
में, चोट
पहुंचाने की,
हिंसा करने
की वृत्ति
होती है।
यह
सूत्र कहता है
कि यह तुम सब
जगह कर रहे हो, वह
ठीक है, लेकिन
गुरु के सामने
तब ही बोलना
है, जब
तुम्हारी यह
वृत्ति जा
चुकी हो। तो
ही तुम गुरु
के करीब बोलने
से आओगे।
अन्यथा बेहतर
है कि तुम चुप
रहना। तुम
सुनना, बोलना
मत। ठीक भी है,
क्योंकि
सुनने से ही
तुम्हें कुछ
मिलेगा, तुम्हारे
बोलने से नहीं।
और लोग बहुत
अदभुत हैं।
एक
सज्जन मेरे
पास आते थे, वह
मुझसे घंटे, दो घंटे
बातें करते थे।
वह जमाने— भर
की बातें करते
थे। मुझे
सिर्फ 'हां',
' हूं? ही
भरना पड़ता था।’
ही', 'हूं'
भी इसलिए
भरना पडता
था कि उन्हें
कहीं ऐसा न
लगे कि उनकी
बातें बेकार
हैं। बातें
बिलकुल बेकार
थीं, उनमें
कहीं कोई सार
न था, उनसे
कोई संबंध भी
मेरा न था।
लेकिन उन्हें कहीं
ऐसा न लगे कि
मैं समझ रहा
हूं कि उनकी
बातें बेकार
हैं, इसलिए
मैं 'हां', 'हूं भरता था।
घंटे, दो
घंटे, न
मालूम कहां—कहां
का कचरा मुझ
पर डाल कर, जब
वे जाने लगते,
तो मुझसे एक
बात कहना कभी
नहीं भूलते थे
कि आज आपने जो
बातें कहीं, उनसे बड़ा
आनंद आया।
मुझसे कह जाते
थे जाते वक्त,
कि आज आपने
जो बातें कहीं,
उनसे बडा
आनंद आया! मैं
कुछ बोला ही
नहीं था, मुझे
बोलने का अवसर
ही नहीं था।
बोलते वे ही, सुनता मैं।
लेकिन जाते
वक्त वे मुझसे
हमेशा कह जाते
थे कि जो
बातें आपने
कहीं, बड़ी
मूल्यवान हैं।
और
मैं ऐसा नहीं
सोचता हूं कि
वे कुछ झूठ
बोलते थे, ऐसा
उनको लगता
होगा। ऐसा भी
नहीं कि वे
कोई धोखा देते
थे। वे बड़े
भाव से, बड़ी
निष्ठा से
कहते थे। धोखे
का भी कोई
कारण नहीं, ऐसी उनकी
प्रतीति होती
होगी। यह जो
हमारी स्थिति
है, इस
स्थिति को ले
कर अगर आप एक
गुरु के पास
जाते हैं और
कुछ भी कहते
रहते हैं, तो
आप समय खो रहे
हैं अपना, जो
कि सुनने में
सार्थक हो
सकता था और आप
फासले पर हट
रहे हैं।
गुरु
और शिष्य के
बीच,
गुरु की तरफ
से आए हुए
शब्द तो निकट
लाते हैं, शिष्य
की तरफ से आए
हुए शब्द दूर
ले जाते हैं।
गुरु और शिष्य
के बीच जो
मिलन है, वह
शिष्य के मौन
और गुरु के
शब्द में होता
है। और एक घड़ी
ऐसी आती है, जब गुरु भी
शब्द को हटा
देता है। जब
शिष्य का मौन
गहन हो जाता
है, तब
दोनों का मौन
मिलन बनता है।
लेकिन शिष्य
को मौन की तरफ
से शुरू करना
चाहिए।
तो
यह शर्त है कि
जब तक
तुम्हारे
शब्द हिंसा की
वृत्ति से मुक्त
न हो जाएं...।
इसे
पहचानना
पड़ेगा, यह
जटिल है, क्योंकि
तुम्हें पता
ही नहीं चलता
कि तुम्हारे
कौन से शब्द
क्या हिंसा कर
सकते हैं!
मैं
एक घर में
मेहमान था।
पिता ने अपने
बेटे को
बुलाया और
मुझसे कहा कि मिलिए
इनसे, आप हैं
मेरे सुपुत्र!
सुपुत्र शब्द
बहुत अच्छा है,
लेकिन जिस
ढंग से
उन्होंने कहा,
उसका मतलब
था कुपुत्र!
ये खड़े हैं
मेरे सुपुत्र,
उन्होंने
मुझे बताया।
फिर अपने
सुपुत्र से
बोले, क्या
खड़े देख रहे
हो? पैर
छुओ। कभी—कभी
तो छुरी से भी
ऐसे घाव नहीं
किए जा सकते
जैसे शब्द से
किए जा सकते
हैं। यह बेटा
अपने बाप को
कभी भी क्षमा
नहीं कर पाएगा।
बहुत कठिन है
मां—बाप को
क्षमा कर देना,
बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि मां—बाप
को पता ही
नहीं कि वे
क्या बोल रहे
हैं। और कोई
डर भी नहीं है।
बच्चे का डर
क्या है? कुछ
भी बोल रहे
हैं। आपको पता
नहीं है आप
क्या बोल रहे
हैं अपनी पत्नी
से, क्या
बोल रहे हैं
अपने पति से, किस तरह बोल
रहे हैं आप
अपने नौकर से,
किस भांति
आप बोल रहे
हैं अपने
मित्र से, आप
क्या कर रहे
हैं अपने
चारों तरफ!
थोड़ा
पहचानने की
जरूरत है।
इस
शिविर के काल
में अच्छा हो
चुप रहना। और
जब भी शब्द
बोलें, तो
सोच कर बोलना
कि इस शब्द से
किसी को भी
चोट न पहुंचे।
आप पाएंगे कि
आपके शब्दों
का गुण— धर्म
बदल गया। और
आप पाएंगे कि
आपके भीतर की
चेतना की
स्थिति बदलने
लगी। एक
निर्णय कर
लेना है कि कम
से कम शब्द बालेंगे।
अनिवार्य
होगा तो
बोलेंगे।
बिलकुल
अनिवार्य
होगा। अगर एक
वाक्य में काम
चल जाएगा, तो
एक ही वाक्य
बोलेंगे। और
अगर एक शब्द
में काम चल
जाएगा, तो
एक ही शब्द
में चला लेंगे।
अगर हाथ के
इशारे से चल
जाएगा, तो
फिर शब्द का
उपयोग न
करेंगे। और
अगर मौन से ही
चल जाएगा, तो
श्रेष्ठतम है।
फिर भी अगर
किसी शब्द का
उपयोग करना
पड़े, तो
उतने ही
शब्दों का
उपयोग करना, जिनसे किसी
को चोट न
पहुंच रही हो।
कोई
आदमी ध्यान
में खड़ा है।
आप सिर्फ
हंसते हुए
उसके पास से
निकल जाते हैं।
आपके मन का
भाव होता है
कि क्या
पागलपन कर रहे
हैं! आपने
हिंसा की। और
हो सकता है कि
आपका यह भाव, वह
भी आदमी नासमझ
हो और पकड़ ले।
और यह भी हो सकता
है कि जो घटना
उसके जीवन में
घटने जा रही थी,
वह न घट पाए।
तो आप
जिम्मेवार हो
गए, आपने
बड़ी हिंसा की।
लोग
एक—दूसरे से
कुछ भी कह
देते हैं। वे
कह देते हैं
कि किस पागलपन
में पड़े हो!
ऐसे कहीं
ध्यान हुआ है? जैसे
कि उन्हें
ध्यान हो गया
हो और जैसे कि
उन्हें पता हो
कि कैसे ध्यान
होता है। मगर
कोई भी किसी
से कुछ भी कह
देता है। सोच—समझ
कर बोलना। एक—एक
शब्द को खयाल
में ले कर
बोलना। और तब
तुम देखोगे
कि तुम्हारा
मन किस तरह की
हिंसा में लीन
है। और जब तक
ऐसी स्थिति न
आ जाए कि
तुम्हारे
शब्दों से
हिंसा
तिरोहित हो
जाए, तब तक
सूत्र कहता है,
गुरु के
सामने मत
बोलना।
'
इसके पहले
कि तुम्हारी
आत्मा सदगुरुओं
के समक्ष खड़ी
हो सके, उसके
पैरों को हृदय
के रक्त से धो
लेना उचित है।’
अपनी
आत्मा को अपने
ही रक्त से धो
लेना उचित है, इसके
पहले कि सदगुरुओं
के समक्ष खड़े
होने में
समर्थ हो सको।
प्रतीक है!
अपने ही जीवन
को सब भांति
अग्नि से गुजार
लेना जरूरी है।
ताकि तुम निखर
जाओ, ताकि
तुम्हारा
कचरा जल जाए, और सोना सोना
ही बच रहे—तब, तब गुरु के
समक्ष खड़े
होने की...।
अन्यथा गुरु
के समक्ष ऐसे
उपस्थित होना
चाहिए, जैसे
मैं उपस्थित
नहीं हूं।
इसलिए
तिब्बत में
गुरु के चरणों
में सैकडों
दफे दिन में
नमस्कार करता
है शिष्य। जब
देखता है तब
नमस्कार करता
है,
तब लोट जाता
है।
एक
युवक मेरे पास
आया और उसने
कहा कि मैं एक
तिब्बती लामा
के पास ध्यान
सीख रहा था और
यह बात मुझे
बिलकुल नहीं जंचती थी
कि बार—बार
चरणों में
लेटने की क्या
जरूरत है।
मैंने उससे
कहा,
तू जरूरत की
फिक्र छोड़, तू तीन
महीने लोट कर
आ। और फिर
मेरे पास आना।
उसने कहा, लेकिन
इससे फायदा
क्या होगा? मैंने कहा
कि तीन महीने गंवाएगा
और क्या होगा।
ऐसे भी तूने
तीस साल
जिंदगी के
गंवा दिए हैं,
तीन महीने
और समझ लेना।
पर तू पहले
लोट कर आ और
लोटते वक्त
सोचना मत। तू
तो पूरे भाव
से सिर को
जमीन पर रख
देना कि जैसे
मिट्टी हो गया।
तीन
महीने बाद वह
युवक आया और
उसने कहा कि
यह आपने क्या
कर दिया। मैं
तो सोचता था
कि यह सब
व्यर्थ है, इसमें
क्या सार है, यह तो कवायद
है! यह बार—बार लोटने से क्या
होगा! लेकिन
तीन महीने
निरंतर... तब
मुझे खयाल आया
कि वह जो
अहंकार है, वह जो अकड़ है,
वह तरकीबें
खोजती है। वह
कहती है, इससे
क्या होगा? लेकिन तीन
महीने चरणों
में गिर—गिर
कर वह मेरे
भीतर से
अहंकार भी
झुका। और जो
बातें मैं उस
गुरु की कभी
भी नहीं समझ
सकता था, वे
मेरी समझ में
आनी शुरू हुईं।
और जो मैंने
कभी नहीं सुना
था और सदा
उसने कहा था, वह मुझे
सुनाई पड़ा।
अपने
को गलाना, जलाना
और मिटाना, ताकि खाली
हो सकें और उस
खालीपन में
गुरु से संबंधित
हो सकें।
सूत्र कहता है
कि ये बातें
स्मरण में आ
जाएं।
‘महत्वाकांक्षा
को दूर करो।’
यह
पहला सूत्र है, जो
गुरु कहेगा।
अगर इतने चरण
पूरे हुए तो
संसार के सारे
गुरुओं ने जो
कहा है, वह
पहला सूत्र है,
‘महत्वाकांक्षा
को दूर करो।’
क्या
है
महत्वाकांक्षा? कुछ
होने की वासना।
कुछ होने की
वासना कि
राष्ट्रपति
हो जाऊं, कि प्रधानमंत्री
हो जाऊं, कि राकफेलर
हो जाऊं, कि
आइंस्टीन हो
जाऊं, या
कि बुद्ध या
महावीर हो
जाऊं। कुछ
होने की वासना,
कुछ होने का
पागलपन।
पहला
सूत्र है, ‘महत्वाकांक्षा
को दूर करो।’
क्यों? क्योंकि
जब तक तुम कुछ
होना चाहते हो,
तब तक तुम
वह न हो पाओगे,
जो तुम होने
को पैदा हुए
हो। जब तक तुम
कुछ होना
चाहते हो, तब
तक तुम अपने
स्वरूप को न
पा सकोगे।
क्योंकि
तुम्हारा जो
स्वरूप है, वह तो तुम हो
ही, वह
तुम्हें होना
नहीं है। और
जो भी तुम
होना चाहते हो—वह
वंचना होगी, वह अपने से
भागना होगा, वह अपने से
बचना होगा।
ऐसा समझो कि
एक गुलाब का
फूल, कमल
का फूल होना
चाहता है। वह
हो नहीं सकता।
लेकिन भ्रम
में जी सकता
है और नष्ट हो
सकता है। और
नष्ट होने में
यह होगा कि वह
गुलाब का फूल
भी न हो पाएगा,
कमल का फूल
तो हो नहीं
सकता।
तुम
जो हो, परमात्मा
तुम्हें वैसा
ही स्वीकार
करता है, अन्यथा
तुम होते ही
नहीं। तुम
जैसे हो, परमात्मा
तुम्हें वैसा
ही स्वीकार
करता है, अन्यथा
वह तुम्हें
बनाता ही नहीं।
वह दोहराता
नहीं, पुनरुक्ति
नहीं करता।
बुद्ध कितने
ही प्यारे हों,
फिर भी
दुबारा नहीं
बनाता।
दुबारा तो
बनाते ही वे
कारीगर हैं, जिनकी
प्रतिभा इतनी
कम है कि नए को
नहीं खोज पाते।
परमात्मा
प्रत्येक को
अनूठा और नया
बनाता है। एक—एक
को अद्वितीय
बनाता है। राम
कितने ही
प्यारे हों, लेकिन
दुबारा? और
सोचो, अगर
बहुत राम पैदा
होने लगें तो
बहुत बेमानी हो
जायेंगे, उबाने
वाले भी हो
जाएंगे। और
अभी राम के
दर्शन की
इच्छा होती है,
फिर उनसे
भागने की
इच्छा होगी।
बस राम एक
काफी हैं। एक
से ज्यादा में
बात बासी हो
जाती है।
परमात्मा बासापन
पसंद नहीं
करता।
तो
तुम्हें
इसलिए पैदा
नहीं किया है
कि तुम राम बन
जाओ,
कि कृष्ण बन
जाओ, कि
बुद्ध बन जाओ।
तुम्हें पैदा
किया है, कुछ
जो तुम्हीं बन
सकते हो और
कोई भी नहीं
बन सकता है। न
पहले कोई बन
सकता था, न
बाद में बन
सकेगा। अगर
तुम चूक जाते
हो, तो
अस्तित्व से
वह घड़ी चूक
जाएगी। वह
तुम्हीं बन
सकते थे, तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
और उस नियति
को नहीं पा
सकता था।
महत्वाकांक्षा
दूर करो, ताकि
तुम अपने
स्वरूप में
प्रतिष्ठित
हो सको।
महत्वाकांक्षा
दूसरे की नकल
में दौड़ाती
है— किसी जैसे
बन जाओ— भागो,
दौड़ो, कुछ करो।
झूठा होगा सब
करना। ऊपर—
ऊपर होगा, आवरण
होगा, नकली
होगा। और तुम
जो असली हो, वह भीतर
छिपे रह जाओगे
बीज की तरह, और बाहर
कागज के फूल
चिपका लोगे।
‘महत्वाकांक्षा
को दूर करो।’
छोड़
ही दो खयाल कि
तुम्हें कुछ
और होना है।
तुम्हें तो
सिर्फ एक ही
खयाल होना
चाहिए कि तुम्हें
परमात्मा ने
क्या बनाया है, उसे
तुम्हें
जानना है।
होना भी नहीं,
वह तुम हो।
एक ही खयाल
रखो कि तुम जो
हो उसको
उघाड़ना है, तुम्हें कुछ
होना नहीं है।
कोई आदर्श
नहीं चाहिए, कोई
तुम्हारे लिए ज्यू—प्रिंट
की जरूरत नहीं
है कि इस
भांति तुम हो
जाओ।
अध्यात्म
की खोज आदर्श
की खोज नहीं, अध्यात्म
की खोज
तुम्हारे
भीतर जो मौजूद
ही है, उसका
आविष्कार है,
उसको उघाड़
लेना है।
जो
भी चाहिए, वह
है। और जो भी
तुम हो सकते
हो, वह तुम
हो— अभी इसी क्षण,
उसमें
रत्ती भर भी
जोडना नहीं है।
सिर्फ कुछ
घटाना है। जो
कचरा इकट्ठा
कर दिया है, वह भर हटाना
है।
जोड़ना
कुछ भी नहीं
है। हीरा
मौजूद है कचरे
के एक ढेर में।
और तुम किसी
और की नकल मत
करना। और किसी
और जैसे होने
की कोशिश मत
करना। यह किसी
और जैसे होने
की कोशिश है
महत्वाकांक्षा, एंबीशन।
‘महत्वाकांक्षा
को दूर करो।
महत्वाकांक्षा
पहला अभिशाप
है। जो कोई
अपने
सहयोगियों से
आगे बढ़ रहा है,
उसे यह
मोहित करके
अपने पथ से
विचलित कर
देती है।
सत्कर्मों के
फल की इच्छा
का यह सबसे
सरल रूप है।
बुद्धिमान और
शक्तिशाली
लोग इसके
द्वारा बराबर
अपनी उच्च
संभावनाओं से स्खलित
होते रहते हैं।
फिर भी यह बड़ी
आवश्यक
शिक्षा का
साधन है। इसके
फल चखते समय
मुंह में राख
और धूल बन
जाते हैं।
मृत्यु और
वियोग के समान
इससे भी अंत
में यही शिक्षा
मिलती है कि
स्वार्थ के
लिए, अहं
विस्तार के
लिए कार्य करने
से परिणाम में
निराशा ही
प्राप्त होती
है।’
महत्वाकांक्षा
का एक रूप
मैंने कहा। एक
और रूप है, जो
गौण है, लेकिन
वह भी हमें
काफी जोर से पकड़े रहता
है, उसके
अंधड़ में भी
हम काफी
प्रवाहित
होते हैं।
दूसरे से आगे
होने की
आकांक्षा।
दूसरे जैसे
होने की
आकांक्षा, एक।
दूसरे
से आगे होने
की आकांक्षा, दो।
महत्वाकांक्षा
का दूसरा अर्थ
है,
सदा यह
फिक्र लगी
रहती है कि
पड़ोसी से मेरा
मकान बड़ा कैसे
हो जाए? कि
पड़ोसी से मेरी
इज्जत ज्यादा
कैसे हो जाए? कि पडोसी से
मैं आगे कैसे
निकल जाऊं? किसी न किसी
की तुलना में
आप अपने को
सोचते रहते
हैं। जब तक आप
दूसरे की
तुलना में
अपने को सोच
रहे हैं, आपने
अपने को
सम्मान ही
नहीं दिया, आप अपना
अपमान कर रहे
हैं। क्योंकि
न तो पड़ोसी आप
जैसा है, और
न आप पडोसी
जैसे हैं।
दोनों की कोई
तुलना नहीं हो
सकती। सब
तुलना भ्रांत
और गलत है। और
आपको दूसरे से
आगे होने के
लिए नहीं भेजा
गया है, आपको
तो अपने ही
जैसा होने के
लिए भेजा गया
है। और दूसरे
से आगे हो कर
भी क्या होगा?
क्योंकि आप
फिर पाएंगे कि
कोई उसके भी
आगे है। इस
दुनिया में
कोई कभी नहीं
पाता ऐसी जगह,
जहां उससे
आगे कोई न हो।
जिंदगी
बड़ी जटिल है।
अगर आप
राष्ट्रपति
हो जाते हैं, तो
यह भी हो सकता
है कि सड़क पर
चलते हुए एक
भंगी, सड़क
साफ करते भंगी
को देख कर भी
आपके मन में
महत्वाकांक्षा
जग जाए।
क्योंकि उसके
पास जैसा
स्वस्थ शरीर
है, वैसा
आपके पास नहीं
है। एक साधारण
आदमी को देख
कर आपके मन
में ईर्ष्या
जग जाए।
क्योंकि उसके
पास जैसा
सुंदर चेहरा
है, वैसा
चेहरा आपके
पास नहीं है, भला आप
राष्ट्रपति
हों। कोई न
कोई आगे है, कहीं न कहीं
आगे है।
जिंदगी में
हजार उपाय हैं
आगे होने के।
और कोई आदमी
कभी नहीं पाता
कि वह सबसे सब
बातों में आगे
पहुंच गया।
पीड़ा बनी ही
रहती है।
सिर्फ
वही आदमी आनंद
को उपलब्ध
होता है, जो
आगे होने की
दौड़ ही छोड
देता है। और
जो कहता है, जहां मैं
हूं वहां मैं
पूरी तरह हो
जाऊं, आगे
होने का सवाल
नहीं है। जो
मैं हूं वह
मैं पूरी तरह
हो जाऊं, किसी
से तुलना का
सवाल नहीं है।
जो भी मैं हूं
वह अधूरा न रह
जाए। मेरा फूल
पूरा खिल जाए,
वह जैसा भी
है। घास का
फूल ही सही, मगर पूरा
खिल जाए।
परमात्मा ने
जो मुझे बनाया
है, वह मैं
पूरा—पूरा हो
जाऊं। इसमें
किसी और से
तुलना नहीं है।
एक
गुलाब का फूल
खिलता है, वह
फिक्र नहीं कर
रहा है कि बड़ा
फूल पड़ोस में
खिला है। वह छोटा
सा फूल सही, लेकिन वह उतना
ही आनंदित है।
और परमात्मा
उसे स्वीकार
कर रहा है।
पूरा
अस्तित्व उसे
स्वीकार कर
रहा है। वह
नाच रहा है
हवाओं में उसी
तरह जैसा बड़ा
फूल नाच रहा
है।
एक
झेन फकीर हुआ
बोकोजू। उससे
किसी ने पूछा
कि मैं तुम
जैसा कैसे हो
जाऊं? तो उसने
कहा कि तू रुक,
जरा लोगों
को चला जाने
दे। वह दिन भर
बैठा रहा आदमी—
थक गया, परेशान
हो गया, कोई
न कोई मौजूद
था। फिर सांझ
जब सब चले गए
तो उसने कहा
कि अब देर न करो,
दिन भर हो
गया है बैठे—बैठे,
मैं तुम
जैसा कैसे हो
जाऊं? तो
बोकोजू ने कहा
कि तू मेरे
साथ बाहर आ।
बाहर
वृक्ष लगे थे
बहुत, कोई छोटा
था, कोई
बड़ा था।
बोकोजू ने कहा,
देख, यह
छोटा वृक्ष
छोटा है, यह
बड़ा वृक्ष बड़ा
है। इन दोनों
को मैंने कभी
नहीं सुना
चर्चा करते। न
तो छोटे ने
बड़े से पूछा
कि मैं तेरे
जैसा कैसे हो
जाऊं? न
बड़े ने छोटे
से पूछा कि
मैं तेरे जैसा
कैसे हो जाऊं?
क्योंकि
छोटे में जो फूल
खिलते हैं, वह बड़े में
नहीं खिलते, बड़े सुगंधित
हैं। और बडे
की आसमान में
ऊंचाई है, और
छोटा आसमान
में ऊंचा नहीं
है। लेकिन ये
एक—दूसरे से
पूछते ही नहीं
हैं, न
तुलना करते
हैं। ये मेरी
खिड़की के पास
वर्षों से हैं।
मैंने इनमें
कभी गुफ्तगू
नहीं सुनी, न कोई प्रश्न
उठा। और ये
दोनों एक से
आनंदित हैं, इनके आनंद
में रत्ती भर
फर्क नहीं है।
क्योंकि
प्रत्येक ने
अपने को
स्वीकार कर
लिया है। वह
जैसा है, है।
तू भी मुझसे
मत पूछ, अगर
तू सच में
शांति चाहता
है। तू मुझसे
भी मत पूछ। तू
जैसा है, वैसा
है। और मैं जब
तुझसे नहीं
पूछता कि तेरे
जैसा कैसे हो
जाऊं, तो
तू क्यों
मुझसे पूछ रहा
है?
वह
आदमी कहने लगा, लेकिन
इसीलिए तो पूछ
रहा हूं कि आप
इतने शांत और
आनंदित हैं और
मैं इतना
अशांत और दुखी
हूं। इसीलिए
तो पूछ रहा
हूं कि
तुम्हारे
जैसा कैसे हो
जाऊं! तो
बोकोजू ने कहा,
मैं तुझे
तरकीब भी बता
रहा हूं लेकिन
तू सुन ही
नहीं रहा। मैं
तुझे तरकीब तो
बता रहा हूं
कि मैं भी
पहले तेरे
जैसा ही दुखी
और अशांत था, क्योंकि मैं
भी किसी और
जैसा होने की
कोशिश कर रहा
था। जब से मैं
अपने ही जैसा
होने को राजी
हो गया, पीड़ा
समाप्त हो गई।
तुलना
में दुख है, तुलना
में ईर्ष्या
है, तुलना
में हिंसा है।
छोड़े
तुलना! किसी
से मत तौलें
अपने को। कोई
अर्थ भी नहीं
है,
कोई उपाय भी
नहीं है। राजी
हो जाएं, जैसे
हैं। और एक ही
बात की फिक्र
लें कि जो मैं
हूं जैसा हूं
वह पूरा का
पूरा मेरे
सामने कैसे
प्रकट हो जाए।
यहां
हम इसी बात की
खोज करेंगे। न
तो मैं आपको
बनाना चाहता
हूं बुद्ध, न
राम, न
कृष्ण। कोई
जरूरत नहीं है,
वे हो चुके।
मैं आपको
बनाना चाहता
हूं वही, जो
आप हो सकते
हैं। जो बीज
आपमें है, वही
अंकुरित हो।
दूसरे से भी
आपको आगे—पीछे
नहीं रखना
चाहता। कोई
किसी से आगे—
पीछे नहीं है।
हर एक आदमी
अपनी जगह है।
आप अपनी ही
जगह पर खिल
सकें, जो
भी सुगंध
छिपाई है आपने
अपने हृदय में,
वह बाहर आ
सके। मैं आपको
आप ही बनाना
चाहता हूं।
कल
सुबह हम ध्यान
करेंगे। दस—दस
मिनिट के चार
चरण होंगे।
पहले चरण में
श्वास—जितनी
तीव्र हो सके, लोहार
की धौंकनी की
भांति, श्वास
ही श्वास रह
जाए।
दूसरे
दस मिनिट के
चरण में भावों
का रेचन। जो
भी भीतर दबा
पड़ा है—रुदन, आंसू
चीख, चिल्लाहट,
क्रोध, हिंसा—सबको
बाहर फेंक
देना। और
विचार ही नहीं
करना, शरीर
के द्वारा
बाहर फेंक
देना। शरीर जो
करना चाहे, उस क्षण में
उसे करने देना,
ताकि सब भार
गिर जाए।
तीसरे
चरण में 'हूं
मंत्र का
प्रयोग—इतने
जोर से कि
आकाश गूंजने
लगे। बाहर
फेंकना है, 'हूं’ की
चोट और हुंकार।
इस हुंकार का
परिणाम होता
है कुंडलिनी
पर हथौड़े
की तरह। भीतर
कुंडलिनी पर
चोट पड़ती है, और कुंडलिनी
की शक्ति ऊपर
उठनी शुरू हो
जाती है। यह
अनुभव प्रकट
होगा। जैसे ही
चोट पडनी
शुरू होगी, आपको लगेगा
कि भीतर शक्ति
के तेज तूफान
ऊपर की तरफ
उठने शुरू हो
गए। और उनके
उठते ही आप
दूसरे जगत में
प्रवेश करने
लगते हैं।
चौथे
चरण में दस
मिनिट का होगा
मौन—पूर्ण मौन, जिसमें
परम—सत्ता से
मिलन होगा।
अब हम
सुबह मिलेंगे।
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