धर्म और सद्गुरू—(प्रवचन—दूसरा)
प्यारे
ओशो!
गुरु
पूर्णिमा के
इस पुनीत अवसर
पर हम सभी शिष्यों
के अत्यंत
प्रेम
व
अहोभावपूर्वक
दण्डवत्
प्रणाम स्वीकार
करें।
साथ
ही गुरु—प्रार्थना
के
निम्नलिखित
श्लोक में
गुरु को
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश तीनों
का रूप बताया
है.
परन्तु
इसके आगे उसे 'साक्षात्
परब्रह्म' भी
कहा है!
कृपा
करके गुरु के
इन विविध
रूपों को हमें
समझाने की
अनुकम्पा
करें।
श्लोक
है :
गुरुर्ब्रह्मा
गुरुर्विष्णु
गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु:
साक्षात्परब्रह्म
तस्मै श्री
गुरवे नम:।।
सत्य
वेदान्त! यह
सूत्र अपूर्व
है। थोड़े से
शब्दों में
इतने राजों को
एक साथ रख देने
की कला सदियों—
सदियों में
निखरती है। यह
सूत्र किसी एक
व्यक्ति ने
निर्माण किया
हो,
ऐसा नहीं।
अनन्त काल में
न मालूम कितने
लोगों की जीवन—चेतना
से गुजरकर इस
सूत्र ने यह
रूप पाया होगा।
इसलिये कौन
इसका रचयिता
है, कहा
नहीं जा सकता।
यह
सूत्र किसी एक
व्यक्ति का
अनुदान नहीं
है,
सदियों के
अनुभव का
निचोड़ है।
जैसे लाखों—लाखों
गुलाब के फूल
से कोई इत्र
की बूंद निचोड़े,
ऐसा यह
अपूर्व, अद्वितीय
सूत्र है।
सुना तुमने
बहुत बार है, इसलिए शायद
समझना भी भूल
गये होओगे। यह
भ्रांति होती
है। जिस बात
को हम बहुत
बार सुन लेते
हैं, लगता
है : समझ गये—बिना
समझे!
और
यह सूत्र तो
कण्ठ—कण्ठ पर
है। और आज तो
इस देश के
कोने—कोने में
दोहराया
जायेगा।
लेकिन अकसर
लोग इन
सूत्रों को बस
तोतों की भांति
दोहराते हैं।
तोतों से
ज्यादा उनके
दोहराने में
अर्थ नहीं होता।
तोतों को तो
जो सिखा दो, वही
दोहराने लगते
हैं। और इस
सूत्र को
समझने के लिए
प्रज्ञा
चाहिए, बोध
चाहिए, निखार
चाहिए चेतना
का; ध्यान
की गरिमा
चाहिए। समझने
की कोशिश करो।
ईसाइयत
ने परमात्मा
को तीन रूप
वाला कहा है।
पता नहीं
क्यों! लेकिन
पृथ्वी के
कोने—कोने में, जहां
भी धर्म का
कभी भी
अम्युदय हुआ
है, तीन का
आकड़ा किसी न
किसी कोने से
उभर ही आया है।
ईसाई
कहते हैं उसे 'ट्रिनिटी'। वह पिता
रूप है, पुत्र—रूप
है, और
दोनों के मध्य
में पवित्र
आत्मा—रूप है।
लेकिन तीन का आंकडा
तो ठीक पकड़
में आया। मगर
तीन को जो
शब्द दिये, वे बहुत
बचकाने हैं।
जैसे छोटा सा
बच्चा परमात्मा
के संबंध में
सोचता हो, तो
वह पिता के
अर्थों में ही
सोच सकता है।
उसकी कल्पना
उसकी मनो—चेतना
से बहुत दूर
नहीं जा सकती।
इसलिए ईसाइयत
में थोड़ा
बचकानापन है।
उसकी धारणाओं
में वह
परिष्कार
नहीं है...।
भारत
ने भी तीन के
इस आंकड़े को
निखारा है!
सदियों—सदियों
में इस पर धार
रखी है। हम
परमात्मा को
त्रिमूर्ति कहते
हैं। उसके तीन
चेहरे हैं। वह
तो एक है, लेकिन
उसके तीन पहलू
हैं। वह तो एक
है, लेकिन
उसके तीन आयाम
हैं। उसके
मंदिर के तीन
द्वार हैं।
और
त्रिमूर्ति
की धारणा में
और विकास नहीं
किया जा सकता।
वह पराकाष्ठा
है। ब्रह्मा, विष्णु,
महेश—ये तीन
परमात्मा के
चेहरे हैं।
ब्रह्मा का
अर्थ होता है—सर्जक,
स्रष्टा।
विष्णु का
अर्थ होता है—सम्हालने
वाला। और महेश
का अर्थ होता
है—विध्वंसक।
यह
विध्वंस की
धारणा भी
परमात्मा में
समाविष्ट की
जा सकती है।
यह सिवाय इस
देश के और
कहीं भी घटी
नहीं।
स्रष्टा तो
सभी संस्कृतियों
ने उसे कहा है, लेकिन
विध्वंसक
केवल हम कह
सके। सृजन तो
आधी बात है; एक पहलू है।
जो बनायेगा, वह मिटाने
में भी समर्थ
होना चाहिए।
सच तो यह है : जो
मिटा न सके, वह बना भी न
सकेगा। जैसे
कोई
मूर्तिकार
मूर्ति बनाये।
तो मूर्ति का
निर्माण ही
विध्वंस से
शुरू होता है।
उठाता है छेनी—हथौड़ी,
तोड़ता है
पत्थर को! अगर
पत्थर में
प्राण होते, तो चीखता कि
क्यों मुझे तोड़ते
हो! यूं टूट—टूटकर
पत्थर में से
प्रतिमा
प्रगट होती है—बुद्ध
की, महावीर
की, कृष्ण
की।
विध्वंस
के बिना सृजन
नहीं है। और
जो चीज भी
बनेगी, उसे
मिटना भी होगा।
क्योंकि बनने
की घटना समय
में घटती है, और समय में
शाश्वत कुछ भी
नहीं हो सकता।
जो बना है उसे
मिटना ही होगा।
होने
में एक तरह की
थकान है। हर
चीज थक जाती
है! यह जानकर
तुम चकित
होओगे कि आधुनिक
वितान कहता है
कि धातुएं भी
थक जाती हैं।
सर जगदीशचंद्र
बसु की बहुत—सी
खोजों में एक
खोज यह भी थी, जिन
पर उनको नोबल
पुरस्कार
मिला था, कि
धातुएं भी थक
जाती हैं।
जैसे कलम से
तुम लिखते हो,
तो
तुम्हारा हाथ
ही नहीं थकता,
कलम भी थक
जाती है।
जगदीशचंद्र
बसु ने तो इसे
मापने की भी
व्यवस्था खोज
ली थी। और अब
तो जगदीशचंद्र
को हुए काफी
समय हो गया, आधी सदी बीत
गई। इस आधी
सदी में बहुत
परिष्कार हुआ
विज्ञान का।
अब तो पता चला
है कि हर चीज
थक जाती है; मशीनें थक
जाती हैं, उनको
भी विश्राम
चाहिए!
विध्वंस
विश्राम है।
जन्म एक पहलू
जीवन दूसरा
पहलू है।
मृत्यु तीसरा
पहलू है। जीवन
तो थकायेगा।
इसलिए मृत्यु
को कभी हमने
बुरे भाव से
नहीं देखा।
हमने यम को भी
देवता कहा।
हमने उसे भी 'शैतान' नहीं
कहा। वह भी
दिव्य है।
मृत्यु भी
दिव्य है।
कठोपनिषद्
की तो प्यारी
कथा है कि
नचिकेता अपने
पिता के पास
बैठा है। छोटा—सा
बच्चा है। और
पिता ने एक
महान यश किया
है और वह
गौवें बांट
रहा है। पिता
तो का होगा, तो
बेईमान होगा!
बुढ़ा
आदमी—और
बेईमान न हो, जरा
मुश्किल! बेटा—और
बेईमान हो यह
भी जरा
मुश्किल।
छोटा बच्चा—अभी
अनुभव ही क्या
है कि बेईमान
हो जाये! बेईमानी
के लिए अनुभव
चाहिए।
ईमानदारी के
लिए अनुभव की
कोई जरूरत नहीं।
ईमानदारी
स्वाभाविक है।
इसलिए हर
बच्चा
ईमानदार पैदा
होता है। और
धन्यभागी हैं
वे जो मरते
समय पुन:
ईमानदारी को
उपलब्ध हो
जाते हैं। वही
ऋषि हैं, वही
संत हैं, वही
गुरु हैं—जो
पुन: बच्चे
जैसी सरलता को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
ऐसी
सरलता
तथाकथित
अनुभवी आदमी
में नहीं होती।
अनुभव का अर्थ
ही यह होता है
कि देखीं
दुनिया की
चालबाजिया; पहचाने
दुनिया के ढंग।
और हर ढंग से, हर पहचान से
चतुरता सीखी।
चतुरता का
मतलब होता है
कि अब हम भी
गला काटने में
कुशल हो गये।
यूं काटेंगे
कि कानों—कान
पता भी न चले!
यूं काटेंगे
कि जिसका गला
काटें, उसे
भी पता न चले!
बाप
तो बुढ़ा था, सम्राट
था, गौवें
बांट रहा था।
बेटा देख रहा
था। बेटे को
समझ नहीं आ
रहा था!
बिलकुल मर गई
थीं गौवें, जिन्होंने
वर्षों हो गये,
तब से दूध
देना बंद कर
दिया। ये
क्यों बांटी
जा रही हैं! तो
वह पूछने लगा
अपने पिता से
कि 'इन
मुरदा गौवों
को बांट रहे
हो! न ये दूध
देती हैं, न
ये दूध देने
वाली हैं! न
बच्चे इनके
पैदा होंगे!
और जिनको तुम
दे रहे हो, इन
गरीबों को तुम
सोच रहे हो, दान दे रहे
हो! ये और इनका
पालन—पोषण
करने में और
दीन—हीन हो
जायेंगे! ये
मृत गौवें
किसलिए भेंट
कर रहे हो?
छोटे
बच्चे को बहुत—सी
बातें दिखाई
पड़ जाती हैं, जो
बुढें को नहीं
दिखाई पड़ती। बुढ़े
की आंख पर तो
धुंध की पर्त
हो जाती है!
इसलिए जो
संस्कृति, जो
देश जितना का
हो जाता है, उतना बेईमान
हो जाता है।
इस देश की
बेईमानी का
बुनियादी
आधार यही है।
हमसे पुराना
कोई देश नहीं;
हमसे का कोई
देश नहीं। हम
मरना ही भूल
गये हैं। हम
ब्रह्मा में
ही अटके हैं; हमें महेश
की याद ही
नहीं रही।
कितनी
संस्कृतियां
पैदा हुईं!
बेबीलोन, सीरिया,
मिश्र, रोम,
एथेंस—सब खो
गये!
मेरे
पास भारत के
एक
राजनीतिज्ञ
सेठ गोविंददास
अकसर आते थे।
तो वे अकसर
कहते थे. 'हमारी
संस्कृति
अद्भुत है!
सारी
संस्कृतियां
पैदा हुईं और
मर गईं; सिर्फ
हम जिंदा हैं!'
बहुत बार
मैंने सुना।
के आदमी थे।
मैंने उनसे
कहा कि इसको
गौरव मत समझो।
जीना जितना
महत्वपूर्ण
है, मरना
भी उतना ही
महत्त्वपूर्ण
है। मरना भी
आना चाहिए, उसकी भी कला
होती है। इस
देश को मरना
ही भूल गया है।
और जब कोई देश
मरना भूल जाये,
तो थक जाता
है, ऊब
जाता है, बेईमान
हो जाता है।
उदास हो जाता
है। उसका
नृत्य खो जाता
है। उसके
पैरों में शर
नहीं बजते।
उसके ओठों से
बांसुरी छिन
जाती है, यौवन
ही गया तो
बांसुरी कहॉं,
घूंघर कैसे
बधें। लाश रह
जाती है
जिसमें से
सिर्फ
दुर्गंध उठती
है। मरना भी
चाहिए, क्योंकि
मरने के बाद
पुनर्जन्म है।
मृत्यु
तुम्हें
छुटकारा दिला
देती है सब
सड़े—गले से, सब
बेईमानियो से,
सब पाखण्ड
से; फिर
तुम्हें नया
कर देती है।
मृत्यु की कला
यही है; मृत्यु
का वरदान यही
है। मृत्यु
अभिशाप नहीं
है।
जरा
सोचो, अगर
सारे लोग मरना
भूल जायें, तो किसी भी
घर में जीना
मुश्किल हो
जायेगा। यूं
ही हो गया है।
अगर घर में
बूढ़े ही के
इकट्ठे हो
जायें, यूं
तुम रोते हो
पितृपक्ष में;
जो मर गये
उनको तुम भेंट
चढ़ा देते हो, मगर जरा
सोचो कि अगर
जिंदा होते तो
गरदनें काटनी
पड़ती! एक घर
में अगर हजार,
दो हजार साल
से कोई मरा ही
न होता, तो
क्या गति हो
जाती! क्या
दुर्गति हो
जाती! महा—रौरव
नरक पैदा हो
जाता। उस घर
में बच्चे तो
फिर सांस ही
नहीं ले सकते
थे। वे तो
सांस लेते ही
मर जाते। इतने
के जहां सांस
ले रहे हो........।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अखबार पढ़ रहा
था। अखबार में
खबर छपी थी।
किसी
वैज्ञानिक ने
हिसाब लगाया
था कि जब भी तुम
एक सांस लेते
हो,
उतनी देर
में पृथ्वी पर
पांच आदमी मर
जाते हैं!
मुल्ला
ने अपनी पत्नी
को कहा, जो
भोजन पका रही
थी, कि 'सुनती
हो, फजलू
की मां, जब
भी मैं एक बार
सांस लेता हूं
पांच आदमी मर
जाते हैं!'
फजलूकी
मां ने कहा, 'मैंने
तो कई दफे कहा
कि तुम सांस
लेना क्यों नहीं
बंद करते! अब
कब तक सांस
लेते रहोगे और
लोगों को
मारते रहोगे?'
जिस
घर में हजारों
साल से के
सांस ले रहे
हों,
उस घर में
हवाओं में जहर
होगा। हमारे
घर में तो यह
हो गई है हालत।
यहां के सांस
ले रहे हैं; मरते ही
नहीं! विदा ही
नहीं होते!
हम
तो अतीत को
ऐसा छाती से
लगाये हुए
हैं! कब्रों
को ढो रहे हैं, कब्रों
के नीचे दबे
जा रहे हैं।
लाशों को ढो
रहे हैं।
लाशों के नीचे
जो जीवित है, वह कहां खो 'गया, पता
लगाना मुश्किल
हो गया!
हम
ऐसे
परंपरावादी!
हम ऐसे
जड़वादी!
मृत्यु
उपयोगी है
उतनी ही, जितना
जन्म। जन्म
जगाता है
तुम्हें; मिट्टी
में प्राण
फूंक देता है।
फिर थक जाओगे—सत्तर
साल अस्सी साल,
नब्बे साल,
सौ साल........!
फिर वापस लौट
जाना है
मूलस्रोत को।
हवा हवा में
मिल जाये।
पानी पानी में
मिल जाये।
मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाये।
आकाश आकाश में
मिल जाये।
प्राण
महाप्राण में
मिल जाये—मूल
स्रोत में, ताकि तुम
फिर
पुनरुज्जीवित
हो सको, नयी
ऊर्जा लेकर।
ये
सारी
संस्कृतियां
जो मर गईं, ये
फिर से
पुनरुज्जीवित
होती रहीं। हम
मरे नहीं, तो
सड़े। हम पुनरुज्जीवित
नहीं हो पाये।
मैं
चाहूंगा कि
भारत मरना
सीखे, ताकि
फिर से जीवित
हो सके; ताकि
फिर से यौवन
का संचरण हो; ताकि फिर
बच्चों की
किलकारी
सुनाई पड़े। को
की बकवास
सुनते—सुनते
बहुत समय हो
गया।
हम
लेकिन अकेले
हैं,
जिन्होंने
यह बात पहचानी
थी कि जीवन
मूल्यवान है,
जन्म
मूल्यवान है—मृत्यु
भी मूल्यवान
है। और इन
तीनों को
दिव्य कहा; परमात्मा के
तीन रूप कहा—ब्रह्मा,
विष्णु, महेश।
यह
जानकर तुम
चकित होओगे कि
भारत में, पूरे
भारत में, ब्रह्मा
को समर्पित
केवल एक मंदिर
है! यह बात महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
ब्रह्मा का
काम तो हो चुका।
यह तो प्रतीक
रूप से एक
मंदिर
समर्पित कर
दिया है; यूं
ब्रह्मा का
काम पूरा हो
चुका है।
हां
विष्णु के
बहुत मंदिर
हैं। सारे
अवतार विष्णु
के हैं। राम, कृष्ण,
बुद्ध, परशुराम—ये
सब विष्णु के
अवतार हैं।
इनमें कोई भी
ब्रह्मा का
अवतार नहीं है।
ये सम्हालने
वाले हैं।
जैसे घर में
कोई बीमार हो,
तो डाक्टर
को बुलाना
पड़ता है, ऐसे
आदमी बीमार है,
तो जीवन के
विराट स्रोत
से चिकित्सक
पैदा होते रहे।
बुद्ध ने कहा
है कि 'मैं
वैद्य हूं—विद्वान
नहीं।’ और
नानक ने भी
कहा है कि 'मैं
वैद्य
धर्म
और सद्गुरु
हूं। मेरा काम
है,
तुम्हारे
जीवन को रोगों
से मुक्त कर
देना; तुम्हारे
जीवन को
स्वास्थ्य दे
देना; तुम्हें
जीवन को जीने
की जो कला है, वह सिखा
देना।’
तो
विष्णु के
बहुत मंदिर
हैं। राम का
मंदिर हो, कि
कृष्ण का
मंदिर हो, कि
बुद्ध का
मंदिर हो—सब
विष्णु के
मंदिर हैं। ये
सब विष्णु के
अवतार हैं।
विष्णु का काम
बड़ा है।
क्योंकि जन्म
एक क्षण में
घट जाता है; मृत्यु भी
एक क्षण में
घट जाती है; जीवन तो
वर्षों लम्बा
होता है!
और
तीसरी बात भी
खयाल रखना कि
विष्णु से भी
ज्यादा मंदिर
शिव के हैं, महेश
के हैं। इतने
मंदिर हैं कि
मंदिर बनाना
भी हमें बंद करना
पड़ा। अब तो
कहीं भी एक
शंकर की
पिण्डी रख दी
झाडू के नीचे—मंदिर
बन गया! कहीं
से भी गोल—मटोल
शंकर को ढूंढ
लाये; बिठा
दिया; दो
फूल चढ़ा दिये!
फूल भी कितने
चढ़ाओगे! इसलिए
शंकर पर
पत्तियां ही
चढ़ा देते हैं,
बेल—पत्री!
फूल भी कहां
से लाओगे!
इतने शंकर के
मंदिर हैं—हर
झाडू के नीचे!
गांव—गांव
में! वह भी
प्रतीक
उपयोगी है।
जन्म
हो चुका; सृष्टि
हो चुकी; ब्रह्मा
का काम निपट
गया। जीवन चल
रहा है, इसलिए
विष्णु का काम
जारी है।
लेकिन बड़ा काम
तो होने को है,
वह महेश का
है; वह है
जीवन को फिर
से निमज्जित
कर देना; असृष्टि;
जीवन को विसर्जित
कर देना; महाप्रलय,
जिसमें कि
सब खो जायेगा,
और फिर सब
जागेगा—ताजा
होकर जागेगा।
हम
निद्रा को भी
छोटी मृत्यु
कहते हैं।
उसका भी कारण
यही है कि
प्रति रात्रि, जब
तुम गहरी
निद्रा में
होते हो, तो
छोटी—सी
मृत्यु घटती
है; छोटी—सी,
आण्विक। जब
चित्त बिलकुल
शून्य हो जाता
है, निर्विचार,
इतना
निर्विचार कि स्वप्न
की झलक भी
नहीं रह जाती,
तब तुम कहां
चले जाते हो!
तब तुम मृत्यु
में लीन हो
जाते हो; तुम
वहीं पहुंच
जाते हो, जहां
मरकर लोग
पहुंचते हैं।
सुषुप्ति
छोटी—सी
मृत्यु है, इसलिए
तो सुबह तुम
ताजे मालूम
पड़ते हो। वह
ताजगी, रात
तुम जो मरे, उसके कारण
होती है। सुबह
तुम जो
प्रसन्न उठते
हो, प्रमुदित—चेहरे
पर जो झलक
होती है, फिर
जीवन में रस आ
गया होता है, फिर पैरों
में गति आ गई
होती है, फिर
तुम काम— धाम
के लिए तत्पर
हो गये होते
हो—वह इसीलिए
कि रात तुम मर
गये।
जो
व्यक्ति रात
स्वप्न ही स्वप्न
देखता रहता है, वह
सुबह थका—मादा
उठता है। वह
सुबह और भी
थका होता है।
जितना कि रात
जब सोने गया
था—उससे भी
ज्यादा थका
होता है, क्योंकि
रातभर और सपने
देखे! सपनों
में जूझा—दुख—स्वप्न!
पहाडों से
पटका गया, घसीटा
गया! भूत—प्रेतों
ने सताया!
छाती पर राक्षस
नाचे! क्या—क्या
नहीं हुआ!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात सोया है
और सपना देख रहा
है कि भाग रहा
हूं भाग रहा
हूं भाग रहा
हूं—तेजी से
भाग रहा हूं!
एक सिंह पीछे
लगा हुआ है! और
वह करीब आता
जा रहा है!
इतना करीब कि
उसकी सांस पीठ
पर मालूम पडने
लगी। तब तो
मुल्ला ने
सोचा कि मारे
गये! अब बचना
मुश्किल है।
और जब सिंह ने
पंजा भी उसकी
पीठ पर रख
दिया, तो
घबड़ाहट में
उसकी नींद खुल
गई। देखा तो
और कोई नहीं—पली...!
हाथ उसकी पीठ
पर रखे है...!
पत्नियां
नींद में भी
ध्यान रखती
हैं कि कहीं भाग
तो नहीं गये!
कहीं पड़ोसी के
घर में तो
नहीं पहुंच
गये!
मुल्ला
ने कहा कि 'माई!
कम से कम रात
तो सो लेने
दिया कर! दिन
में जो करना
हो, कर। और
क्या मेरी पीठ
पर सांसें ले
रही थीं कि
मेरी जान
निकली जा रही
थी! यह कोई ढंग
है!'
एक
दिन सुबह—सुबह
बैठकर अपने
मित्रों को
सुना रहा था
कि शेर के
शिकार को गया
था। घण्टों हो
गये,
शिकार मिले
ही नहीं। सब
मित्र थक गये।
मैंने कहा, मत घबड़ाओ।
मुझे आवाज
देनी आती है, जानवरों की।
तो मैंने सिंह
की आवाज की, गर्जन की।
क्या मेरी
गर्जना करनी
थी कि फौरन एक
गुफा में से
सिंहनी
निकलकर बाहर आ
गई! धड़ाधडु
हमने बंदूक
मारी, सिंहनी
का फैसला किया।
मित्रों ने
कहा, 'अरे, तो तुम्हें
इस तरह की
आवाज करनी आती
है! जरा यहां
करके हमें
बताओ तो, कैसी
आवाज की थी!'
मुल्ला
ने कहा,' भाई यहां
न करवाओ तो
अच्छा।’
नहीं
माने मित्र कि
'नहीं, जरा
करके जरा सा
तो बता दो।’
जोश
चढ़ा दिया, तो
उसने कर दी
आवाज। और
तत्काल उसकी
पत्नी ने
दरवाजा खोला
और कहा, 'क्यों
रे, अब
तुझे क्या
तकलीफ हो गई?'
मुल्ला
बोला, देखो!
सिंहनी हाजिर!
इधर आवाज दी, तुम देख लो; खुद अपनी आंखों
से देख लो!
पत्नी
खड़ी है विकराल
रूप लिये
वहां! हाथ में
अभी भी बेलन
उसके!
मुल्ला
ने कहा, 'अब तो
मानते हो! कि
मुझे आती है
जानवरों की
आवाज!'
रात
तुम अगर ऐसे
सपने देखोगे, ऐसी
आवाजें
बोलोगे, ऐसी
आवाजें
निकालोगे...
रात देखो, लोग
क्या—क्या
आवाजें
निकालते हैं!
कभी उठकर
बैठकर निरीक्षण
करने जैसा
होता है!
मैं
वर्षों तक सफर
करता रहा, तो
मुझे अकसर ये
झंझट आ जाती
थी। रात एक ही
डिब्बे में
किसी के साथ
सोना! एक बार तो
यूं हुआ, चार
आदमी डिब्बे
में, मगर
अद्भुत संयोग
था, चमत्कार
कहना चाहिए, कि पहले
आदमी ने जो
घुर्राहट
शुरू की, तो
मैंने कहा कि
आज सोना
मुश्किल। मगर
उसके ऊपर की
बर्थ वाले ने
जवाब दिया तो
मैंने कहा, पहला तो कुछ
नहीं है—नाबालिग!
दूसरा तो गजब
का था! मैंने
कहा, आज की
रात तो बिलकुल
गई!
और
उनमें ऐसे
जवाब—सवाल
होने लगे!
संगत छिड़ गई!
तीसरा थोड़ी
देर चुप रहा, जो
मेरे ऊपर की
बर्थ पर था, जब उसने
आवाज दी तब तो
मैं उठकर बैठ
गया। मैंने
कहा, अब
बेकार है, अब
चेष्टा ही
करनी बेकार है।
और उन तीनों
में क्या साज—सिंगार
छिड़ा!
थोड़ी
देर तक तो
मैंने सुना।
मैंने कहा कि
यह तो मुश्किल
मामला है; यह
पूरी रात चलने
वाला है। तो
मैंने भी आंखें
बंद कीं और
फिर जोर से
दहाड़ा। वे
तीनों उठकर
बैठ गये! बोले
कि 'भाईजान,
अगर आप इतनी
जोर से नींद
में और
घुर्रायेंगे,
तो हम
सोयेंगे कैसे?'
मैंने
कहा,
'सो कौन रहा
है मूरख! मैं
जग रहा हूं।
और तुम्हें
चेतावनी दे
रहा हूं कि
अगर तुमने हरकत
की—न मैं
सोऊंगा, न
तुम्हें सोने
दूंगा। सो तुम
रहे हो, मैं
जग रहा हूं।
मैं बिलकुल
गाकर आवाज कर
रहा हूं। नींद
में मैं आवाज
नहीं करता।
तुम सम्हलकर
रहो नहीं तो
मैं. रातभर
मैं भी तुम्हें
नहीं सोने
दूंगा।’
लोग
सोते क्या हैं, रात
में भी सुर—सिंगार
चलता है। और
क्या जवाब—सवाल!
और फिर उनके
भीतर क्या चल
रहा है, वह
तुम सोच सकते
हो। कैसी—कैसी
मुसीबतों में
से गुजर रहे
होंगे! फिर
अगर सुबह थके—मांदे
उठें, तो
आश्चर्य क्या!
सोये ही नहीं।
सुषुप्ति, स्वप्नरहित
निद्रा अगर
सिर्फ आधा घड़ी
को भी रात मिल जाये,
तो
पर्याप्त है;
तो तुम्हें
चौबीस घण्टे
के लिए ताजा
कर जाती है।
रात वृक्ष भी
सो जाते हैं, तभी तो सुबह
उनके फूल फिर
खिल आते हैं, और फिर
सुगंध उड़ने
लगती है। रात
पक्षी भी सो
जाते हैं, तभी
तो सुबह फिर
उनके कण्ठों
से गीत झरने
लगते हैं। उन
गीतों को मैं
साधारण गीत
नहीं कहता; श्रीमद्भगवद्गीता
कहता हूं। वे
वही गीत हैं, जो कृष्ण के।
उनके कण्ठों
से कुरान की
आयतें उठने
लगती हैं।
लेकिन यह सारा
चमत्कार घटता
है, रात छोटी—सी
मृत्यु के
कारण।
तुम
देखते हो, जब
छोटे बच्चे
पैदा होते हैं,
उनकी सरलता,
उनका
सौंदर्य, उनकी
सौम्यता, उनका
प्रसाद! यह
कहां से आया!
ये भी के थे; मर गये; फिर
पुनरुज्जीवित
हुए हैं।
धर्म
जीते जी मरने
की और
पुनरुज्जीवित
होने की कला
है। इसलिए
गुरु को हमने
तीनों नाम
दिये हैं—ब्रह्मा, विष्णु,
महेश।
ब्रह्मा का
अर्थ है, जो
बनाये।
विष्णु का
अर्थ है, जो
सम्हाले।
महेश का अर्थ
है, जो
मिटाये।
सद्गुरु वही
है, जो
तीनों कलाएं
जानता हो।
तुम
तो उन गुरुओं
को खोजते हो, जो
तुम्हें
मिटाये न—जो
तुम्हें
संवारें। मगर
जिसे मिटाना नहीं
आता, वह
क्या खाक
संवारेगा? बिना
मिटाये, इस
जीवन में कुछ
निर्मित होता
है?
तुम
तो उन गुरुओं
के पास जाते
हो,
जो तुम्हें
सांत्वना दें।
सांत्वना
यानी सम्हाले।
तुम्हारी
मलहम—पट्टी
करें।
तुम्हें इस
तरह के
विश्वास दें,
जिससे
तुम्हारे भय
कम हो जायें, चिंताएं कम
हो जायें। ये
सद्गुरु नहीं
हैं।
सद्गुरु
तो वह है, जो
तुम्हें नया
जन्म दे।
लेकिन नया
जन्म तो तभी
संभव है, जब
गुरु तुम्हें
पहले मारे, मिटाये, तोड़े।
एक
बहुत प्राचीन
सूत्र है : 'आचार्यो
मृत्यु:।’ वह
जो आचार्य है,
वह जो गुरु
है, वह
मृत्यु है।
जिसने भी कहा
होगा, जानकर
कहा होगा, जीकर
कहा होगा।
पृथ्वी के
किसी और कोने
में किसी ने
भी गुरु को
मृत्यु नहीं
कहा है। हमने
गुरु को
मृत्यु कहा है;
मृत्यु को
गुरु कहा।
नचिकेता
की मैं तुमसे
कहानी कह रहा
था। जब उसने
पिता से कहा
कि क्या इन
मुर्दा गौवों को
तुम दे रहे हो!
उसे साफ दिखाई
पड़ने लगा कि
यह क्या मजाक
हो रहा है, इसको
दान कहा जा
रहा है! और मूढ़
पुरोहित बड़ी
प्रशंसा और
स्तुति कर रहे
हैं उसके पिता
की कि 'अहा,
महादानी हो
तुम! महादाता
हो! तुम जैसा
दाता कब हुआ, कब होगा! अरे
सदियों में
ऐसा आदमी होता
है!' और दे
रहा है मरी—मरायी
गौवें!
बच्चे
तो जल्दी
पहचान लेते
हैं। उनमें
अभी कोई
चालबाजी नहीं
है। आंख साफ—सुथरी
होती है। धुंआ
नहीं है अभी।
अभी न विचारों
का धुंआ है, न
धारणाओं का
धुंआ है। न
अभी हिंदू हैं,
न मुसलमान
हैं, न
ईसाई हैं। अभी
उपद्रव कुछ
हुआ नहीं, अभी
तो स्लेट कोरी
है। इसलिए साफ
उन्हें दिखाई
पड़ता है।
एक
बच्चा अपने
चाचा के घर
रहता था। चाचा
उसे खाना न दे—या
इतना कम दे कि
बस,
किसी तरह जी
रहा था... फटे—पुराने
कपड़े पहनाये,
खरीद लाये
पुराने, चोर
बाजार से!
पैजामे की
टागें लम्बी,
कोट के हाथ
छोटे; टोपी
ऐसी कि जिसकी
खोपड़ी पर बिठा
दो, वही
सरदार हो
जाये! खोपड़ी
बिलकुल बंद ही
कर दी। यह
कसकर साफा
बांधने से ही
तो आदमी सरदार
होता है। नहीं
तो कोई हो
सकता है! ऐसा
कसकर बांधते
हैं कि भीतर
कुछ बचता ही
नहीं फिर!
तो
बच्चा तो बड़ी
तकलीफ में था।
लेकिन अब करे
क्या! बाप मर
गया;
मां मर गई; चाचा के पास
चाचा के पल्ले
पड़ गया।
एक
दिन दोनों
बैठे थे। यह
गरीब बच्चा भी
बैठा था और
चाचा भी अखबार
पढ़ रहे थे और
हुक्का
गुड़गुड़ा रहे
थे। तभी एक
बिलकुल मुरदा
कुत्ता, बिलकुल
मुरदार, खांसता—खखारता,
खुजली—खुजली,
शरीर
बिलकुल हड्डी—हड्डी—घर
में घुस आया।
चाचा ने कहा कि
'अरे भगा
इसको! यह
मुरदार
कुत्ता यहां
कहा से आ गया; हड्डी—हड्डी
हो रहा है!'
उस
बेटे ने कहा
कि 'मालूम होता
है कि यह भी
अपने चाचा के
पास रहता है!
इसकी हालत तो
देखो!'
छोटे
बच्चों को
चीजें साफ
दिखाई पड़ती
हैं कि अब यह
मामला साफ ही
है! 'हुक्का गुड़गुडा
रहे हो; इसका
मुरदापन
दिखाई पड़ रहा
है, मेरी
हालत नहीं देख
रहे!'
ऐसा
ही नचिकेता ने
अपने पिता से
पूछा कि 'मरी
हुई, मुरदा
गौवों को तुम
भेंट कर रहे
हो, शर्म
नहीं आती!'
बाप
को गुस्सा आ
गया। बाप ही
क्या, जिसको
गुस्सा न आ
जाये!
उसने
कहा,
'तू चुप रह!
नहीं तो तुझको
भी भेंट कर
दूंगा!'
तो
बेटे को तो
बड़ा आनंद आया।
बेटे ने सोचा.
यह बड़े मजे की
बात है! उसको
तो मन में बड़ा
कुतूहल जगा, जिज्ञासा
जगी कि किसको
भेंट करेगा!
सो वह पूछने
लगा बार—बार
कि 'अब फिर
कब भेंट
करियेगा! अब
तो महोत्सव भी
समाप्त हुआ जा
रहा है; मुझको
कब भेंट
करियेगा? मुझको
किसको भेंट
करियेगा?'
बाप
और गुस्से में
आ गया। कहा कि 'तुझे
तो मृत्यु को
ही भेंट कर
दूंगा। यम को
दे दूंगा तुझे।’
तो उसने कहा,
'दे ही दो!'
ऐसी
यह नचिकेता की
प्यारी कथा है
कि बाप ने कहा, 'जा,
दिया तुझे
मृत्यु को।’ यह तो वह
गुस्से में ही
कह रहा था।
कौन किसको
मृत्यु को
देता है! कब
नहीं मां—बाप
गुस्से में
आकर बेटे से
कह देते हैं
कि 'तू
पैदा ही न
होता तो अच्छा
था। अरे! जा, मर ही जा! शकल
मत दिखाना अब
दुबारा!'
मगर
नचिकेता भी एक
था। वह चल पड़ा
मृत्यु की
तलाश में, कि
बाप ने तो
भेंट कर ही दिया;
मृत्यु है
कहा? और
कहती है कहानी
कि वह पहुंच
गया यम के
द्वार पर। यम
बाहर गये थे।
फुर्सत कहां
उनको; इतने
लोग मरते रहते
हैं! जगह—जगह
अटके हैं
अस्पतालों
में! तरह—तरह
की तरकीबें कर
रहे हैं—मरने
की, जीने
की! भागते
फिरते हैं।
पुराने जमाने
में तो वे
भैंसे पर ही
चलते थे; अब
लेकिन हवाई जहांज
में जाते
होंगे, क्योंकि
अब तो— भैंसों
पर जाओगे तो
कहां पूरा कर
पाओगे! एक को ढोकर
पहुंचोगे, तब
तक लाख यहां
मर जायेंगे!
वह पुरानी बात—भैंसे
पर चलते थे; अब नहीं! अब
चलते भी होंगे
तो—अगर तुमको
काला ही रंग
पसंद हो, और
भैंसे ही जैसा—तो
रेलगाड़ी समझो!
और नये ढंग की
रेलगाड़ी नहीं—वही
पुरानी कोयले
से चलनेवाली—उसका
एन्जिन लगता
भी यमदूत जैसा
था! एकदम छाती
दहलाता हुआ
आता।
पहली
बार तो जब
रेलगाड़ी चली, तो
इंग्लैण्ड
में कोई भी
सवार होने को
राजी न था, कि
लोगों ने
अफवाह उड़ा दी
कि यह शैतान
की ईजाद है!
इसकी शकल ही
देख लो! और लोग
शकल देखकर भाग
गये, कि
अरे, बिलकुल
सच कह रहे हैं।
कोई आदमी ऐसी
चीज ईजाद करे,
जिसकी शकल
तो देखो पहले!
और पादरियों
ने ही यह अफवाह
उड़ा दी कि जो
इसमें बैठेगा,
वह समझ ले
कि गया!
क्योंकि यह
चलेगी, तो
फिर रुकेगी
नहीं! कोई
बैठने को राजी
न था।
पहली
दफे जो लोग
रेल में बैठे
थे,
कुल बीस—पच्चीस
आदमी। रेल थी
तीन सौ
आदमियों को
बिठालनेवाली,
और बीस—पच्चीस
को भी
जबरदस्ती
बिठाया गया था।
कुछ तो उसमें
अपराधी थे, जिनको
मजिस्ट्रेटों
ने कहा कि 'जाओ
रेल में बैठो।
तुमको सजा
नहीं होगी।’ उन्होंने
कहा, 'चलो
मरना ही है।
जेल में मरे
कि इसमें मरे!
यात्रा भी हो
जायेगी। चलो
देखें!' कुछ
ऐसे थे, जिनको
देश निकाला
दिया जाने
वाला था। उनसे
कहा कि 'तुम
बैठ जाओ
रेलगाड़ी में,
तो देश
निकाला नहीं
दिया जायेगा।’
मतलब
प्रयोग करके
देखना था कि
होता क्या है!
और कुछ
हिम्मतवर लोग
थे मगर उनने
भी पैसा लिया
था बैठने का—कि
भई, अपनी
जान जोखम में
डाल रहे हैं; अगर हम मर
जायें, या
रेलगाड़ी न
रुके, तो
हमारे पत्नी
बच्चों की कौन
देखभाल करेगा!
तो उनको
गारंटी लिखकर
दी गई थी कि
उसकी देखभाल की
फिक्र सरकार
की होगी। तब
कहीं बीस—पच्चीस
आदमी रेलगाड़ी
में चले। और
उनके घरवाले
उन्हें विदा
करने आये थे, तो बिलकुल
आखिरी विदा दे
गये थे, कि भैया,
अब जा ही
रहे हो, अब
क्या मिलना
होगा! अब के
बिछड़े पता
नहीं कब मिलें!
जैसे किताबों
में सूखे हुए
गुलाब मिलें...।
पता नहीं कब—अब
यह कब घटना
घटेगी, कुछ
कहा नहीं जा
सकता।’ आखिरी
नमस्कार करके
चले गये थे।
रो रही थीं
पत्नियां; बच्चे
रो रहे थे।
मगर क्या
करें!
और
रेलगाड़ी जिस
गांव से निकली, उस
गांव से लोग
भाग गये कि
रेलगाड़ी जा
रही है! बामुश्किल
जब रेलगाड़ी
रुक गई, तब
लोगों को
भरोसा आया कि
अरे, नहीं
यह रुकना भी
जानती है!
……यमदूत तीन
दिन बाद लौटे।
भैंसे की
यात्रा, और
ढोते—फिरते
रहे होंगे। यम
की पत्नी ने
बहुत समझाया
नचिकेता को कि
'बेटा, तू
भोजन तो कर ले।’
उसने कहा कि
'मैं भोजन
नहीं करूंगा।
जब तक यम से
मेरा मिलना न
हो जाये, मैं
ऐसा ही भूखा
बैठा रहूंगा।’
वह बैठा ही
रहा। वह पहला
सत्याग्रही
था!
यमदूत
थके हुए आये, भैंसे
से उतरे। देखा,
यह लडका
बिलकुल सूखा
जा रहा है, तीन
दिन से। कहा, 'तुझे क्या
हुआ बेटा?'
कहा, 'मेरे
बाप ने कहा कि
मौत को देता
हूं तो मैं
आपकी बहुत
तलाश करके यहां
तक पहुंचा। आप
मिले नहीं। न
मिले—तो मैंने
भोजन नहीं
किया। सोचा जब
मिलेंगे तभी
भोजन करूंगा।’
यम
बहुत प्रसन्न
हुए।
उन्होंने कहा
कि 'तू तीन वर
मांग ले। तू
तीन वरदान
मांग ले। धन
मांग ले, पद
माग ले, प्रतिष्ठा
मांग ले।’ उसने
कहा, 'उस
सबमें तो कुछ
सार नहीं। वह
मैं पिता के
पास देख चुका।
धन भी देख
चुका; पद
भी देख चुका; प्रतिष्ठा
भी देख चुका।
उससे अक्ल भी
नहीं आती, और
तो क्या खाक
आयेगा! मुझे
तो मृत्यु का
राज समझा दो।
मुझे तो बता
दो, यह
मृत्यु क्या
है!'
यम
ने कहा कि 'यह
जरा कठिन है, क्योंकि
मृत्यु का
जिसने राज जान
लिया, उसने
अमृत का राज
जान लिया! तू
तो बड़ा होशियार
है! तू पूछ तो
रहा है मृत्यु
के लिए, लेकिन
मृत्यु की
बताने में
मुझे तुझे
अमृत की बतानी
पड़े!'
लेकिन
नचिकेता तो
रुका ही रहा।
उसने कहा, 'फिर
मैं भोजन नहीं
करूंगा। मैं
यूं ही मर
जाऊंगा!'
यम
को बहुत दया
आयी। उसने
मृत्यु का राज
बताया।
मृत्यु का राज
जानते ही उसे
अमृत का सूत्र
उपलब्ध हो गया।
मृत्यु
को जिसने
पहचान लिया, उसने
अमृत को पहचान
लिया।
सद्गुरु
के पास मृत्यु
को जानना, मृत्यु
को जीना, मृत्यु
में गुजरना—यही
साधना है।
हमने
ये तीनों रूप
सद्गुरु को
दिये। वह
बनाता है, वह
सम्हालता है,
वह मिटाता
है। वह मिटा
ही नहीं डालता।
वह सिर्फ
बनाकर ही नहीं
छोड़ देता। वह
सिर्फ
सम्हालता ही
नहीं रहता।
इसलिए तो
सद्गुरु के
पास तो सिर्फ
हिम्मतवर लोग
ही जा सकते
हैं, जिनकी
मरने की
तैयारी हो, जो मिटने को
राजी हों।
सांत्वना
के लिए जो
जाते हैं
सद्गुरु के
पास उनको
पण्डित—पुरोहितों
के पास जाना
चाहिए। वह
उनका धंधा है—कि
तुम रोते गये, उन्होंने
तुम्हारे आंसू
पोंछ दिये, पीठ थपथपा
दी कि मत
घबड़ाओ, सब
ठीक हो
जायेगा! कुछ
सिद्धात पकडा
दिये कि यह तो
दुख था, कट
गया। अच्छा ही
हुआ। पिछले
जन्म का कर्म
कट गया। एक
कर्म से
छुटकारा हो
गया। और आगे
सब ठीक ही ठीक
है। और यह ले
जाओ, हनुमान—चालीसा
पढ़ना। और
बजरंगबली
प्रसन्न रहें,
तो सब ठीक
है! कुछ मंत्र
वगैरह पकडा
दिया कि राम—राम
जपते रहना। यह
माला फेरते
रहना। यह
रामनाम की
चदरिया ओढ़ लो।
घबडाओ मत। अगर
मरते दम भी
उसका एक दफे
नाम ले लिया, तो अजामिल
जैसे पापी भी
तर गये। तुमने
क्या पाप किया
होगा! बस, एक
दफे नाम ले
लेना मरते
वक्त। गंगाजल
पी लेना मरते
वक्त। बोतल
में बंद रख लो
गंगाजल घर में।
नहीं तो काशी
करवट ले लेना।
चले गये काशी,
वहीं मर
जाना। कुछ भी
न हो सके, तो
मरते वक्त
किसी पण्डित
से कान में
गायत्री पढूवा
लेना; नमोकार
मंत्र पढ्वा
लेना। तुमसे न
कहते बने अब, जबान लड़खड़ा
जाये, बिलकुल
मौत दरवाजे पर
खड़ी हो गई हो, तो पण्डित
तो कान में
दोहरा देगा, वही सुन
लेना। तुमने
तो नहीं कहा
कभी जिंदगी
में कि बुद्धं
शरणं गच्छामि,
संघ शरणं
गच्छामि, धम्म
शरणं गच्छामि।
कोई तुम्हारे
कान में कह देगा,
वही सुन
लेना! उससे ही
काम हो
जायेगा!
यह
सब तरकीबें
हैं—बेईमानों
की,
बेईमानों
के लिए ईजाद
की गई। ये
जीवन के
रूपांतरण की
कीमिया नहीं
है।
सद्गुरु
के पास तो
मरना भी सीखना
होता है। और
जीना भी सीखना
होता है। और
जीते जी मर
जाना—यही
ध्यान है; यही
संन्यास है। जीते
जी ऐसे जीना
जैसे यह जीवन
खेल है, अभिनय
है, इससे
ज्यादा नहीं—नाटक
है, इससे
ज्यादा नहीं।
इसको गंभीरता
से न लेना।
लेकिन बड़ी
अजीब दुनिया
है! यहां
जिनको तुम भोगी
कहते हो, वे
भी बड़ी
गंभीरता से
लिये हैं। और
जिनको तुम
योगी कहते हो,
वे भी बड़ी
गंभीरता से
लिये हुए हैं!
दोनों बडे
गंभीर हैं!
योगी और भी
गंभीर हैं।
भोगी तो कभी
हंसे भी, योगी
तो बिलकुल ही
हंसता नहीं।
उसको तो भव—सागर
से पार होना
है! हंसने की
फुर्सत कहा
है! और जोर से
हंस दे और भव—सागर
का पानी भीतर
चला जाये! तो
यहीं खात्मा!
तो वह तो
बिलकुल मुंह
बंद रखता है!
मुस्कुराता
ही नहीं! उसकी
तो जान बिलकुल
अटकी है। वह
तो किसी तरह
राम—राम कहकर
समय गुजार रहा
है कि 'हे
प्रभु कब
उठाओगे! कब इस
संसार सागर से
छुटकारा होगा!
कब आवागमन बंद
करवाओगे!' और
प्रभु भी एक
है कि वह
आवागमन
करवाये ही जाता
है! तुम्हारे
महात्माओं की
सुनता ही
नहीं! महात्मा
लाख चिल्लाये,
वह फिर
आवागमन करवा
देता है!
परमात्मा
सृष्टि के
विरोध में
नहीं है।
सृष्टि उसकी
है,
कैसे विरोध
में हो सकता
है? सृष्टि
तो एक अवसर है,
मंच है, जिस
पर तुम जीवन
के अभिनय की
कला सीखो—और
यूं जियो, जैसे
कमल के पत्ते
पानी में—पानी
में भी और
पानी छुए भी न।
सद्गुरु
तुम्हें यही
सिखाता है। और
ये तीन घटनाएं
सद्गुरु के
पास घट जायें, तो
चौथी घटना
तुम्हारे
भीतर घटती है।
इसलिए उस चौथे
को भी हमने
सद्गुरु के
लिए स्मरण में
कहा है।
गुरुर्ब्रह्मा
गुरुविष्णू: गुरुदेंवो
महेश्वर:।
ये
तो तीन चरण
हुए। फिर जो अनुभूति
तुम्हारे
भीतर इन तीन
चरणों से
होगी...। ये तो
तीन द्वार हुए।
इनसे प्रवेश
करके मंदिर की
जो प्रतिमा का
मिलन होगा, वह
चौथा, तुरीय,
चौथी
अवस्था—गुरु:
साक्षात्
परब्रह्म। तब
तुम जानोगे कि
जिसके पास
बैठे थे, वह
कोई व्यक्ति
नहीं था। जिसने
सम्हाला, मारा—पीटा—तोड़ा,
जगाया—वह तो
कोई व्यक्ति
नहीं था। वह
तो था ही नहीं;
उसके भीतर
परमात्मा ही
था।
और
जिस दिन तुम
अपने गुरु के
भीतर
परमात्मा को
देख लोगे, उस
दिन अपने भीतर
भी परमात्मा
को देख लोगे।
क्योंकि गुरु
तो दर्पण है, उसमें
तुम्हें अपनी
ही झलक दिखाई
पड़ जायेगी। आंख
निर्मल हुई कि
झलक दिखाई पड़ी।
तीन
चरण हैं, चौथी
मंजिल है। और
सद्गुरु के
पास चारों चरण
पूरे हो जाते
हैं।’
तस्मै
श्री गुरुवे
नम: '।...
इसलिए
गुरु को
नमस्कार।
इसलिए, गुरु
को नमन। इसलिए,
झुकते हैं
उसके लिए।
और
पूर्णिमा का
दिन ही चुना
है उसके लिए, सत्य
वेदान्त, क्योंकि
हमारा जीवन
दिन की तरह
नहीं है—रात
की तरह है। और
रात में सूरज
नहीं उगा करते।
रात में चांद
उगता है। हम
हैं रात—अंधेरी
रात। और गुरु
हमारे जीवन
में जब आ जाता
है, तो
जैसे
पूर्णिमा की
रात आ गई।
जैसे पूनम का
चांद उतर आया।
चंद्रमा
प्रतीक है
बहुत—सी चीजों
का। एक तो यह
कि वह रात में
रोशनी देता है।
और तुम अंधेरी
रात हो, और
तुम्हें चांद
चाहिए—सूरज
नहीं। सूरज का
क्या करोगे!
सूरज से तो
तुम्हारा मिलन
ही नहीं होगा।
तुम तो अंधेरी
रात हो, तुम्हें
तो सूरज की
कोई खबर नहीं।
तुम्हें तो
चांद ही मिल
सकता है।
और
चांद की कई खुबियां
हैं। पहली तो
खूबी यह कि
चांद की रोशनी
चांद की नहीं
होती; सूरज की
होती है।
दिनभर चांद
सूरज की रोशनी
पीता है, और
रातभर सूरज की
रोशनी को
बिखेरता है।
चांद की कोई
अपनी रोशनी
नहीं होती।
जैसे तुम एक
दिया जलाओ और
दर्पण में से
दिया रोशनी फेंके।
दर्पण की कोई
रोशनी नहीं
होती; रोशनी
तो दिये की है।
मगर तुम्हारा
अभी दिये से
मिलना नहीं हो
सकता। और अभी
दिये को
देखोगे, तो
जल पाओगे। आंखें
जल जायेंगी।
अभी रोशनी को
सामने से तुम
सीधा देखोगे,
सूरज को, तो आंखें
फूट जायेंगी।
यूं ही अंधे
हो—और आंखें
फूट जायेंगी!
अभी
परमात्मा से
तुम्हारा
सीधा मिलन
नहीं हो सकता।
अभी तो
परमात्मा का
बहुत सौम्य
रूप चाहिए, जिसको
तुम पचा सको।
चंद्रमा
सौम्य है।
रोशनी तो सूरज
की ही है।
गुरु में जो
प्रगट हो रहा
है, वह तो
सूरज ही है, परमात्मा ही
है। मगर गुरु
के माध्यम से
सौम्य हो जाता
है।
चंद्रमा
की वही कला है, कीमिया
है। वह उसका
जादू है—कि
सूरज की रोशनी
को पीकर और
शीतल कर देता
है। सूरज को
देखोगे, तो
गर्म है, उत्तप्त
है; और
चांद को
देखोगे, तो
तुम शीतलता से
भर जाओगे।
सूरज
पौरुष है, पुरुष
है। चंद्रमा
स्त्रैण है, मधुर है, प्रसादपूर्ण
है। परमात्मा
तो पुरुष है, कठोर है, सूरज
जैसा है। उसको
पचाना सीधा—सीधा,
आसान नहीं।
उसे पचाने के
लिए सद्गुरु
से गुजरना
जरूरी है।
सद्गुरु
तुम्हें वही
रोशनी दे देता
है, लेकिन
इस ढंग से कि
तुम उसे पी लो।
जैसे सागर से
कोई पानी पिये,
तो मर जाये।
हालाकि कुंए
में भी जो पानी
है, है
सागर का ही।
मगर बदलियों
में उठकर आता
है। नदियों
में झरकर आता
है। पहाड़ों पर
से गिरकर आता —
तो सागर का ही।
पानी तो सब
सागर का है।
गंगा में हो, कि यमुना
में हो, कि
नर्मदा में हो,
कि
तुम्हारे
कुंए में हो, किसी पहाड़
के झरने में
हो —है तो सब
सागर का, लेकिन
सागर का पानी
पियोगे तो मर
जाओगे लेकिन झरने
में कुछ बात
है, कुछ
राज है; उसी
पानी को
तुम्हारे
पचाने के
योग्य बना देता
है!
सद्गुरु
की वही कला है।
उसके भीतर से
परमात्मा
गुजरकर सौम्य
हो जाता है, स्त्रैण
हो जाता है; मधुर हो
जाता है; प्रीतिकर
हो जाता है।
उसके भीतर से
तुम्हारे पास
आता है, तो
तुम पचा सकते
हो। और एक बार
पचाने की कला
आ गई, तो
गुरु बीच से
हट जाता
गुरु
तो था ही नहीं, सिर्फ
यह तो
रूपांतरण की
एक प्रक्रिया
थी। जिस दिन
तुमने पहचान
लिया गुरु की
अंतरात्मा को,
उस दिन
तुमने सूरज को
पहचान लिया।
तुमने चांद
में सूरज को
देख लिया; फिर
रात मिट गई, फिर दिन हो
गया।
इसलिए
गुरु
पूर्णिमा को
हमने चुना है
प्रतीक की तरह।
ये सारे
प्रतीक हैं।
इन प्रतीकों
का एक पहलू और
खयाल में ले
लो।
तुम
जब सद्गुरु के
पास जाओ, तो
जाने के चार
ढंग हैं। एक
तो है कुतूहलवश;
यूं ही
जिज्ञासा से
कि देखें, क्या
है! देखें, क्या
हो रहा है!
देखें, क्या
कहा जा रहा है!
वह सबसे उथला
पहलू है।
दूसरा
पहलू है
विद्यार्थी
का,
कि कुछ
सीखकर आयें; कुछ सूचनाएं
ग्रहण करें; कुछ शान
संगृहीत करें।
वह थोडा गहरा
है, मगर
बहुत गहरा
नहीं। चमड़ी
जितनी गहरी, बस इतना
गहरा है। तुम
कुछ सूचनाएं
इकट्ठी करोगे
और लौट जाओगे।
तीसरा पहलू है
शिष्य का।
जिज्ञासु को
जोड़ो ब्रह्मा
से।
विद्यार्थी
को जोड़ो
विष्णु से।
शिष्य को जोड़ो
महेश से।
शिष्य
वह है, जो
मिटने को
तैयार है।
विद्यार्थी
वह है, जो
अपने को सजाने—संवारने
में लगा है।
थोड़ा ज्ञान और,
थोड़ी
जानकारी और, थोड़ी पदविया
और, थोड़ी
डिग्रियां और।
थोड़े
सर्टिफिकेट, थोड़े
प्रमाणपत्र, थोड़े तगमे!
जिज्ञासु
तो वह है, जो
अपने को
संवारने में
लगा है। और जो
कुतूहल से भरा
है, उसने
तो अभी यात्रा
ही शुरू की; अभी तो
ब्रह्मा का ही
काम शुरू हुआ;
बीज बोया
गया। अभी सृजन
की शुरुआत हुई।
विद्यार्थी
जरा आगे बढ़ा, उसमें दो
पत्ते टूटे; अंकुर फूटे।
शिष्य वह है, जो मिटने को
तैयार है, मरने
को तैयार है; जो कहता है
कि गुरु के
लिए सब कुछ
समर्पित करने
को तैयार हूं।
उस तैयारी से
शिष्य बनता है।
सभी
विद्यार्थी शिष्य
नहीं होते।
विद्यार्थी
की उत्सुकता
शान में होती
है;
शिष्य की
उत्सुकता
ध्यान में
होती है।
ज्ञान से
तुम्हारा
अहंकार भरता
है और संवरता है।
ध्यान से
तुम्हारा
अहंकार मरता
है और मिटता है।
और
चौथी अवस्था
है भक्त की।
भक्त का अर्थ
होता है, जो
मिट ही चुका।
शिष्य ने
शुरुआत की; भक्त ने
पूर्णता कर दी।
भक्त जान पाता
है परब्रह्म
की अवस्था को।
जो गुरु के
सामने मिट ही
गया; मिटने
को भी कुछ न
बचा अब जो यह
भी नहीं कह
सकता कि मैं
मिटना चाहता
हूं जो इतना
भी नहीं है—वही
भक्त है। और
जहां भक्ति है,
वहां
परात्पर
ब्रह्म का
साक्षात्कार
है।
इसका
तीसरा अर्थ भी
समझ लो।
मनुष्य
के जीवन की
तीन अवस्थाएं
हैं। एक जागरण, एक
स्वप्न, एक
सुषुप्ति और
चौथी समाधि।
जागरण का
संबंध
ब्रह्मा से है।
क्योंकि
जागकर तुम काम—
धाम में लगते
हो; निर्माण
में लगते हो, सृजन में
लगते हो। यह
बनाना, वह
बनाना, मकान
बनाना, दुकान
चलाना, धन
कमाना! स्वप्न
में तुम
संवारने में
लगते हो; जो—जो
दिन में रह
गया है—अधूरा,
स्वप्न
में तुम्हारे
संवरता है।
इसलिए हर आदमी
के स्वप्न अलग—अलग
होते हैं।
मनोवैज्ञानिक
लोगों की
जानकारी के
लिए उनके स्वप्नों
का निरीक्षण
करते हैं।
उनके स्वप्नों
को जानना
चाहते हैं।
क्योंकि
स्वप्न बताते
हैं, क्या—क्या
अधूरा है; कहां—कहां
सम्हाल की
जरूरत है!
अब
जो आदमी रात—रात
धन ही के सपने
देख रहा है, वह
खबर दे रहा है
एक बात की कि
उसकी जिंदगी
में धन की कमी
है। जिसकी कमी
है, उसके
स्वप्न होते
हैं। जिसको
कोई कमी नहीं
रह जाती, उसके
स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं।
उसको स्वप्न
बचते ही नहीं।
बुद्धपुरुष
स्वप्न नहीं
देखते। क्या
है देखने को
वहां!
जिसके
स्वप्न में
स्त्रिया ही
स्त्रियां तैर
रही हैं, अप्सराएं
उतरती हैं, उर्वशिया और
मेनकाएं
उतरती हैं, उसका अर्थ
है कि उसके
जीवन में अभी
स्त्री के
अनुभव से
तृप्ति नहीं
हुई, या
पुरुष के
अनुभव से
तृप्ति नहीं
हुई, अभी
वहा अतृप्ति
है, वासना
दमित पड़ी है, इसलिए वासना
सपने में सिर
उठा रही है।
सपना कहता है—यहां
सम्हालों!
यहां कमी है।
मनोवैज्ञानिक
कहता है कि
तुम्हारा सपना
मैं जान लूं
तो तुम्हें
जान लूं।
क्योंकि
तुम्हारी कमी
पता चल जाये, तो
मैं तुमसे कह
सकूं कि कहा
भरी; गड्डा
कहां है; कहां
मुश्किल आ रही
है।
और
तीसरी अवस्था
है सुषुप्ति।
सुषुप्ति
यानी महेश, मृत्यु।
छोटी सी
मृत्यु रात घट
जाती है, जब
स्वप्न भी
खो जाते हैं, तुम भी नहीं
बचते। तुम
कहां चले जाते
हो, कुछ
पता नहीं!
होते ही नहीं।
सब शून्य हो
जाता है।
और
चौथी अवस्था
को हमने 'तुरीय'
कहा है।
तुरीय का अर्थ
ही होता है, सिर्फ चौथी
अवस्था। उस
शब्द का और
कोई अर्थ नहीं
होता; चौथी—इतना
ही अर्थ होता
है—द फोर्थ, तुरीय, समाधि।
जो
व्यक्ति
सुषुप्ति में
जाग जाता है, सपने
चले गये, गहरी
नींद आ गई, सपने
बिलकुल नहीं
हैं, लेकिन
होश का दिया
जल रहा है, उसको
समाधि मिलती
है। उस चौथी
अवस्था में
परब्रह्म का
साक्षात्कार
होता है।
सद्गुरु
के पास तुम जब
जाते हो, तो
पहले तो तुम
जाग्रत
अवस्था में
जाते हो, जिसको
तुम जागरण
कहते हो।
उसमें कुतूहल
होता है। अगर
उसके पास रुके
थोड़ी देर, तो
विद्यार्थी
बने बिना नहीं
लौटोगे।
उसमें सपने
होते हैं।
ज्ञान क्या है?
सिवाय सपने
के और कुछ भी
नहीं है! पानी
पर खींची गई
लकीरें, कि
कागज पर खींची
गई लकीरें—ज्ञान
सिर्फ सपना है।
अगर
और रुक गये, तो
सब सपने मिट
जाते. हैं, ज्ञान
मिट जाता है; ध्यान का
आविर्भाव
होता है।
ध्यान
सुषुप्ति है।
अगर और रुके
रहे, तो
सुषुप्ति भी
खो जाती है; फिर बोध का, बुद्धत्व का
जन्म होता है।
और जब
बुद्धत्व का
जन्म होता है,
तब तुम जान
पाते हो कि जो
गुरु बाहर था,
वही
तुम्हारे
भीतर है। जो
तुम्हारे
भीतर है, वही
समस्त में
व्याप्त है।
वही परब्रह्म
फूलों में है,
वही
पक्षियों में
है, वही
पत्थरों में
है, वही
लोगों में है—वही
सबमें
व्याप्त है।
सारी तरंगें
उसी एक सागर
की हैं। और
जिन्होंने इस
अनुभव को जान
लिया, वे
धन्यभागी हैं।
वे ही धार्मिक
हैं। वे न
हिंदू हैं, न मुसलमान, न ईसाई, न
बौद्ध, न
जैन—वे सिर्फ
धर्मिक हैं।
और
मैं चाहूंगा
कि मेरे पास
जो लोग इकट्ठे
हुए हैं, वे
सिर्फ धर्मिक
हों। ये हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
बौद्ध, जैन,
पारसी की
बीमारियां
विदा करो। ये
सब बीमारियां
हैं। आ गये हो
अगर वैद्य के
पास, तो इन
सारी
बीमारियों से
मुक्त हो जाओ;
स्वस्थ बनो।
और तब
तुम्हारे
भीतर नमन
उठेगा।’तस्मै
श्री गुरुवे
नम:।’ और तब
तुम्हारे
भीतर पहली दफा
अहोभाव में, धन्यवाद में
नमन उठेगा।
तुम पहली बार
झुकोगे इस
विश्व के
प्रति, इस
अस्तित्व के
प्रति।
तुम्हारा
प्राण गद्गद्
हो उठेगा
कृतज्ञता से,
अनुग्रह से।
तुम्हारे
जीवन में एक
सुगंध उठेगी,
जो समर्पित
हो जायेगी
अस्तित्व के
चरणों में।
यह
जीवन का चरम
शिखर है। जो
यहां तक बिना
पहुंचे मर गया, वह
यूं ही जिया, यूं ही मर
गया। न जिया—न
मरा! व्यर्थ
ही धक्के खाये!
व्यर्थ ही
धक्के मत खाते
रहना।
तुम्हारे
जीवन में भी
यह पूनम आ
सकती है। तुम
इस पूनम के
अधिकारी हो।
पुकारो!
आह्वान करो।
यह तुम्हारा
जन्म—सिद्ध
अधिकार है।
thank you guruji
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