दिनांक
4 फरवरी, 1968;
सुबह।
ध्यान
साधना शिविर,
आजोल।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
मनुष्य
का मन, उसका
मस्तिष्क एक
रुग्ण घाव की
तरह निर्मित हो
गया है। वह एक
स्वस्थ
केंद्र नहीं
है, एक
अस्वस्थ फोड़े
की भांति हो
गया है। और
इसीलिए हमारा
सारा ध्यान
मस्तिष्क के
आस—पास ही
घूमता रहता है।
शायद आपको यह
खयाल न आया हो
कि शरीर का जो
अंग रुग्ण हो
जाता है, उसी
अंग के आस— पास
हमारा ध्यान
घूमने लगता है।
अगर पैर में
दर्द हो तो ही
पैर का पता
चलना शुरू
होता है और
पैर में दर्द
न हो तो पैर का
कोई भी पता
नहीं चलता।
हाथ में फोड़ा
हो तो उस फोड़े
का पता चलता
है। फोड़ा न हो
तो हाथ का कोई
पता नहीं चलता
है। हमारा
मस्तिष्क
जरूर किसी न
किसी रूप में
रुग्ण हो गया
है, क्योंकि
चौबीस घंटे
हमें
मस्तिष्क का
ही पता चलता
है और किसी
चीज का कोई
पता नहीं चलता।
शरीर
जितना स्वस्थ
होगा, उतना ही
उसका बोध नहीं
होगा। जो अंग
अस्वस्थ होता
है, उसी का
बोध होता है।
मस्तिष्क का
ही हमें बोध
होता है शरीर
में, उसके
आस—पास ही
हमारी चेतना
घूमती है और
जानती है और पहचानती
है। जरूर वहां
कोई रुग्ण घाव
पैदा हो गया
है। इस रुग्ण
घाव से मुक्त
हुए बिना, मस्तिष्क
की इस अत्यंत
अशांत और तनाव
से भरी हुई
स्थिति से
मुक्त हुए
बिना कोई व्यक्ति
जीवन के
केंद्र की ओर
गति नहीं कर
सकता है।
इसलिए आज
मस्तिष्क की
इस स्थिति और
इसमें परिवर्तन
के लिए कुछ
विचार हम
करेंगे।
पहली
तो बात है, हम
मस्तिष्क की
स्थिति को ठीक
से समझ लें।
यदि दस मिनट
को आप एकांत
में बैठ जाएं
और आपके मन
में जो विचार
चलते हों उन्हें
एक कागज पर
ईमानदारी से
लिख लें, तो
उस कागज को आप
अपने निकटतम
मित्र को भी
बताने को राजी
नहीं होंगे।
क्योंकि आप
पाएंगे, उसमें
ऐसे पागल
विचार हैं
जिनकी आपसे
कोई भी अपेक्षा
नहीं करता। आप
स्वयं भी अपने
से अपेक्षा
नहीं करते।
इतने असंगत, इतने व्यर्थ,
इतने एक—दूसरे
से असंबद्ध
विचार हैं कि
आपको प्रतीत होगा,
आप पागल तो
नहीं हो गए!
ईमानदारी
से दस मिनट आप
के मन में जो
भी चलता है
उसे वैसा ही
लिख लें तो आप
खुद ही
आश्चर्य से भर
जाएंगे कि
मेरे मन के
भीतर यह क्या
चलता है! मैं
स्वस्थ हूं या
विक्षिप्त
हूं?
लेकिन कभी
हम दस मिनट के
लिए भी मन के
भीतर झांक कर
नहीं देखते कि
वहां क्या चल
रहा है। हो
सकता है हम
इसीलिए न झांकते
हों कि हमें
बहुत गहरे में
इस बात का पता
है कि वहां
क्या चल रहा
है।
शायद
हम भयभीत हैं।
इसीलिए आदमी
अकेले में
होने से डरता
है और चौबीस
घंटे किसी न
किसी का साथ
खोजता रहता है—कोई
मित्र मिल जाए, कोई
क्लब हो, कहीं
भीड़ हो। नहीं
कोई मिले तो
अखबार मिल जाए,
रेडियो मिल
जाए, लेकिन
अकेला कोई भी
नहीं होना
चाहता, क्योंकि
अकेले होते से
ही स्वयं की
जो वास्तविक
दशा है, उसकी
खबरें मिलनी
शुरू हो जाती
हैं।
दूसरे
की मौजूदगी
में हम दूसरे
में उलझे रहते
हैं और खुद का
कोई भी पता
नहीं चलता।
दूसरे की जो
तलाश है, वह
अपने से दूर
भागने की तलाश
के सिवाय और
कुछ भी नहीं
है। वह स्वयं
से पलायन है, स्वयं से
एस्केप है।
हम
जो दूसरे
लोगों में
इतने उत्सुक
होते हैं उसका
बुनियादी
कारण यह है कि
हम अपने से
डरते हैं। और
हमें
भलीभांति पता
है कि अगर
हमने पूरी तरह
अपने को जान
लिया तो हम
पाएंगे कि हम
बिलकुल पागल
हैं। इस
स्थिति से
बचने के लिए
आदमी साथ
खोजता है, संगी
खोजता है, मित्र
खोजता है, समाज
खोजता है, भीड़
खोजता है।
एकांत
से आदमी डरता
है,
एकांत से
भयभीत होता है,
क्योंकि
एकांत में
उसकी
वास्तविक
स्थिति का प्रतिफलन
मिल सकता है।
उसके खुद के
चेहरे की छाया
उसे दिखाई पड़
सकती है। और
वह बहुत घबड़ाने
वाली होगी, वह बहुत
डराने वाली
होगी। इसलिए
सुबह उठने के
बाद सोने तक
हम अपने से भागने
के सब उपाय
करते रहते हैं
कि कहीं स्वयं
से मिलना न हो
जाए, कहीं
ऐसा न हो कि
खुद से
मुलाकात हो
जाए।
और
हजारों
तरकीबें आदमी
ने विकसित की
हैं स्वयं से
भागने की। और
जितनी मनुष्य
की मस्तिष्क
की स्थिति बिगड़ती
गई है उतने ही
हमने स्वयं से
भागने के लिए
नये—नये
आविष्कार किए
हैं। अगर हम
पिछले पचास
वर्षों की
मानसिक दशा का
आकलन करें तो
हम पाएंगे कि
पचास वर्षों
में आदमी ने
स्वयं से
भागने की जितनी
ईजादें की हैं, इसके
पहले कभी भी
नहीं की थीं।
हमारे सिनेमा—गृह,
हमारे
रेडियो, हमारे
टेलीविजन, सब
स्वयं से
भागने के उपाय
हैं। और आदमी
इतना परेशान
होता जा रहा
है।
मनोरंजन
की इतनी खोज, स्वयं
को थोड़ी देर
के लिए भुलाने
के लिए इतना आयोजन
इसीलिए किया
जा रहा है कि
भीतर स्थिति बिगड़ती जा
रही है।
दुनिया भर में
सभ्यता के
बढ़ने के साथ—साथ
नशों का
प्रयोग बढ़ता
चला गया है।
और अभी नये—नये
नशे खोजे
गए हैं जिनकी
यूरोप और
अमरीका में
जोर से धूम है।
लिसर्जिक
एसिड है, मेस्कलीन है, मारिजुआना है। सारे
यूरोप और
अमरीका के
सारे सभ्य
नगरों में, सारे
शिक्षित
लोगों में जोर
से नये—नये
नशों की खोज
चल रही है कि
आदमी के लिए
स्वयं को भूल
जाने का कोई
सुव्यवस्थित
उपाय होना चाहिए,
नहीं तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
क्या
कारण इस सबके
पीछे होगा? क्यों
हम अपने को
भूलना चाहते
हैं? सेल्फ—फॉरगेटफुलनेस
के लिए, आत्म—विस्मरण
के लिए हम
इतने आतुर
क्यों हैं? और आप ऐसा न
सोचें कि
सिनेमा में
जाने वाले लोग
ही स्वयं को
भूलते हैं।
मंदिर में
जाने वाले भी
इसीलिए मंदिर
जाते हैं, कोई
फर्क नहीं है।
मंदिर स्वयं
को भूल जाने
का पुराना
उपाय है, सिनेमा
नया उपाय है।
एक आदमी बैठ
कर राम—राम
जपता रहता है,
तो आप यह न
सोचें कि वह
कोई भिन्न काम
कर रहा है। वह
राम—राम के
शब्द में
स्वयं को
भूलने की उसी
भांति कोशिश
कर रहा है
जैसे कोई आदमी
फिल्मी गीत
सुन कर कर
रहा हो। इन
दोनों बातों
में फर्क नहीं
है।
अपने
से बाहर किसी
भी चीज में
उलझने की
कोशिश— वह
चाहे राम हो, चाहे
सिनेमा हो, चाहे संगीत
हो— अपने से
बाहर किसी भी
चीज में उलझे
रहने की कोशिश
बहुत बुनियाद
में, गहरे
में अपने से
बचने की कोशिश
के अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। यह आत्म—पलायन
चल रहा है और
हम सब इसमें
किसी न किसी
रूप में
संलग्न हैं।
यह इस बात की
सूचना है कि
भीतर स्थिति
बहुत बिगड़ती
जा रही है और
वहां झांकने
का साहस भी हम
खोते जा रहे
हैं। वहां
देखने का साहस
भी हम खोते जा
रहे हैं। वहां
आख ले जाने के
लिए भी हम
भयभीत हो गए
हैं।
हम
उन शुतुरमुर्गों
की तरह काम कर
रहे हैं जिनके
बाबत आपने
सुना होगा कि
वे दुश्मन को
देख कर रेत
में मुंह छिपा
कर खड़े हो
जाते हैं।
दुश्मन को
देखना खतरनाक
है। दुश्मन
सामने है, शुतुरमुर्ग
अपने सिर को
रेत में गड़ा
लेता है और
निश्चित हो जाता
है। क्योंकि
जब दुश्मन
दिखाई नहीं
पड़ता तो तर्क
उसका कहता है
कि जो नहीं
दिखाई पड़ता वह
नहीं है।
लेकिन यह भूल
भरा तर्क है।
और
शुतुरमुर्ग
माफ किए जा
सकते हैं, आदमी
माफ नहीं किया
जा सकता है।
नहीं दिखाई
पड़ने से कोई
चीज मिट नहीं
जाती है।
दिखाई पड़ने से
तो मिटने का
कोई उपाय भी
हो सकता है, लेकिन न
दिखाई पड़ने से
तो मिटने का
उपाय भी नहीं
किया जा सकता।
हम
भूलना चाहते
हैं भीतर जो
स्थिति है उसे।
उस स्थिति को
हम देखना नहीं
चाहते। शायद
हम मन में यह
संतोष कर लेते
होंगे कि जो नहीं
दिखाई पड़ रहा
है वह नहीं है।
जो नहीं दिखाई
पड़ रहा वह
पूरी तरह है।
न दिखाई पड़ने
से न हो जाने
का कोई संबंध
नहीं है। और
अगर दिखाई
पड़ता तो शायद
हम उसे बदल भी
सकते। लेकिन
नहीं दिखाई पड़
रहा है इसलिए
हम उसे बदलने
में भी असमर्थ
हो गए हैं। वह
भीतर बढ़ता
जाएगा, एक
ऐसे घाव की
तरह, एक
ऐसे फोड़े की
तरह जिसे हमने
छिपा लिया है
और जिसे हम
देखने को
तैयार नहीं हैं।
मस्तिष्क
एक फोड़ा हो
गया है। अगर
किसी दिन ऐसा
संभव हो सका
कि कोई मशीन
ईजाद हो सकी
और हम एक—एक
आदमी के भीतर
क्या चलता है
उसे देखने में
समर्थ हो सके
तो शायद
दुनिया में हर
आदमी उसी क्षण
आत्मघात कर
लेगा।
क्योंकि कोई
भी इस बात के
लिए तैयार
नहीं होगा कि
उसके भीतर
क्या चलता है, उसे
कोई और देख ले।
यह किसी न
किसी दिन संभव
हो जाएगा। और
यह परमात्मा
की बड़ी दया है
कि उसने ऐसी
खिड़की नहीं
बनाई हमारे
मस्तिष्क में,
जिसमें से
हम झांक कर एक—दूसरे
के भीतर क्या
चलता है उसे
देख लें।
आदमी
भीतर दबाए
बैठे हुए हैं
कुछ और, बाहर
वे जो कहते
हैं वह बहुत
और है। बाहर
जो उनके चेहरे
पर दिखाई पड़ता
है वह कुछ और
है, भीतर
जो उनके चलता
है वह बिलकुल
और है। हो
सकता है, बाहर
वे प्रेम की
बातें कर रहे
हों और भीतर
घृणा के विचार
चल रहे हों।
हो सकता है, वे सुबह से
मिल कर किसी
आदमी से कह
रहे हों कि
नमस्कार! आपको
देख कर बहुत
आनंद हुआ।
सुबह से आप
मिल गए बड़ी
खुशी हुई। और
भीतर वे कह
रहे हों कि इस
दुष्ट का
चेहरा सुबह से
कैसे दिखाई पड़
गया!
अगर
एक विंडो हो, एक
खिड़की हो और
हम आदमी के
सिर के भीतर
झांक सकें तो
बड़ी मुश्किल
पड़ जाए, जीना
कठिन हो जाए।
जिससे वे
मित्रता की
बातें कर रहे
हों, भीतर
सोच रहे हों
कि यह आदमी कब
खत्म हो जाए।
ऊपर कुछ और है,
भीतर कुछ और
है। और भीतर
की तरफ हम
देखने की
हिम्मत भी
नहीं करते कि
भीतर हम झांकें
और देखें।
एक
रात ऐसा हुआ।
एक घर में एक
मां थी और
उसकी बेटी थी।
और उन दोनों
को रात में उठ
कर नींद में
चलने की बीमारी
और आदत थी।
कोई तीन बजे
होंगे रात में, तब
वह मां उठी और
मकान के पीछे
बगिया में
पहुंच गई।
नींद में ही
स्लीप वॉकिंग
की आदत थी, नींद
में चलने की
और बात करने
की। वह मकान
के पीछे बगिया
में पहुंच गई।
उसकी लड़की भी
उठी, और वह
भी थोड़ी देर
बाद बगिया में
पहुंच गई।
जैसे ही उस
बूढ़ी ने अपनी
लड़की को देखा,
वह जोर से
चिल्लाई.
चांडाल, तूने
ही मेरी युवा
अवस्था छीन ली
है। तूने ही
मेरी जवानी
छीन ली है। तू
जब से पैदा
हुई तब से मैं
की होनी शुरू
हो गई। तू
मेरी शत्रु है,
तू न होती
तो मैं अभी भी
जवान होती।
उस
लड़की ने जैसे
ही अपनी बूढ़ी
मां को देखा, वह
जोर से
चिल्लाई कि
दुष्ट, तेरे
ही कारण मेरा
जीवन एक संकट
और बंधन बन गया
है। मेरे जीवन
के हर प्रवाह
में तू रोड़े
की तरह खड़ी
हुई है। मेरे
जीवन के लिए
तू एक जंजीर
बन गई है।
और
तभी मुर्गे ने
बांग दी और उन
दोनों की नींद
खुल गई। की ने
लड़की को देखते
ही कहा. बेटी, इतनी
सुबह क्यों उठ
आई? कहीं
तुझे सर्दी न
लग जाए। चल, भीतर चल! और
उस लड़की ने
जल्दी से अपनी
की मां के पैर
पड़े। सुबह से
पैर पड़ने का
उसका रोज का
नियम था। और
उसने कहा कि
मां, तुम
इतनी जल्दी उठ
आईं? तुम्हारी
तबीयत ठीक
नहीं रहती है।
इतनी जल्दी
नहीं उठना
चाहिए। आप
चलिए और
विश्राम करिए।
और नींद में
उन्होंने यह
कहा और जाग कर
उन्होंने यह
कहा!
नींद
में आदमी जो
कहता है वह
जागने के बजाय
ज्यादा सच्चा
होता है, क्योंकि
ज्यादा भीतरी
होता है। सपने
में जो आप
देखते हैं, वह आपकी
कहीं ज्यादा
असलियत है, बजाय उसके
जो रोज आप
बाजार और भीड़
में देखते हैं।
भीड़ का चेहरा
बनाया हुआ
कृत्रिम
चेहरा है। आप
अपने गहरे में
बिलकुल दूसरे
आदमी हैं।
ऊपर
से आप कुछ
अच्छे— अच्छे
विचार चिपका
कर काम चला
लेते हैं, लेकिन
भीतर विचारों
की आग जल रही
है। ऊपर से आप
बिलकुल शांत
और स्वस्थ
मालूम होते हैं,
भीतर सब
अस्वस्थ और
विक्षिप्त है।
ऊपर से आप
मुस्कुराते
मालूम होते
हैं, और हो
सकता है कि
सारी
मुस्कुराहट
भीतर आसुओ
के ढेर पर खड़ी
हो। बल्कि
बहुत संभावना
यही है कि
भीतर जो आंसू
हैं, उनको
छिपाने के लिए
ही
मुस्कुराहट
का आपने अभ्यास
कर लिया हो।
आमतौर से आदमी
यही करता है।
नीत्शे
से किसी ने एक
बार पूछा कि
तुम हमेशा हंसते
रहते हो! इतने
प्रसन्न हो!
सच में ही
क्या? नीत्शे
ने कहा अगर
तुमने पूछ ही
लिया है तो मैं
असलियत भी बता
दूं। मैं
इसलिए हंसता रहता
हूं कि कहीं
रोने न लग।
इसके पहले कि
रोना शुरू हो
जाए, मैं
हंसी से उसको
दबा लेता हूं
भीतर ही रोक
लेता हूं।
मेरी हंसी
दूसरों को
धोखा दे देती
होगी कि मैं
खुश हूं। और
मैं सिर्फ
इसलिए हंसता
हूं कि मैं
इतना दुखी हूं
कि हंसने से
ही राहत मिल
जाती है। अपने
को समझा लेता
हूं।
बुद्ध
को किसी ने
हंसते नहीं
देखा, महावीर
को किसी ने
हंसते नहीं
देखा, क्राइस्ट
को किसी ने
हंसते नहीं
देखा। कोई बात
होनी चाहिए।
शायद भीतर अब आंसू
नहीं रहे
जिन्हें
छिपाने के लिए
हंसने की जरूरत
हो। शायद भीतर
दुख नहीं रहा,
जिसे
ढांकने के लिए
मुस्कुराहट सीखनी
पड़ती हो। भीतर
जो उलटा था, वह विसर्जित
हो गया है, इसलिए
बाहर अब हंसी
के फूल लगाने
की कोई जरूरत
नहीं रह गई।
जिसके
शरीर से
दुर्गंध आती
हो,
उसे सुगंध छिड़कने की
जरूरत पड़ती है।
और जिसका शरीर
कुरूप हो, उसे
सुंदर दिखाई
पड़ने के लिए
चेष्टा करनी
पड़ती है। और
जो भीतर दुखी
है, उसे
हंसी सीखनी
पड़ती है। और
जिसके भीतर आंसू
भरे हैं, उसे
मुस्कुराहट
लानी पड़ती है।
और जो भीतर
कांटे ही
कांटे से भरा
है, उसे
बाहर से फूल
चिपकाने पड़ते
हैं।
आदमी
बिलकुल वैसा
नहीं है जैसा
दिखाई पड़ता है, उससे
बिलकुल उलटा
है। भीतर कुछ
और है, बाहर
कुछ और है। और
यह बाहर जो
हमने चिपका
लिया है इससे
दूसरे धोखे
में आ जाते तो
भी ठीक था, हम
खुद ही धोखे
में आ जाते
हैं। यह जो
बाहर हम दिखाई
पड़ते हैं इससे
दूसरे लोग धोखे
में आते तो
ठीक था, वह
कोई बड़े
आश्चर्य की
बात न थी, क्योंकि
लोग बाहर से
ही देखते हैं।
लेकिन हम खुद
ही धोखे में आ
जाते हैं, क्योंकि
हम भी दूसरों
की आंखों में
अपनी बनी हुई
तस्वीर को
अपना होना समझ
लेते हैं। हम
भी दूसरों के
जरिए अपने को
देखते हैं, कभी सीधा
नहीं देखते—
जैसा कि मैं
हूं र जैसा कि
मेरे भीतर
मेरा वास्तविक
होना है।
दूसरों
की आंखों में बनी
हुई हमारी
तस्वीर हमको
भी धोखा दे
जाती है और
इसीलिए हम
भीतर देखने से
डरते हैं। हम
लोगों की आंखों
में अपनी
तस्वीर देखना
चाहते हैं, अपने
को नहीं देखना
चाहते। लोग
क्या कहते हैं।
इसीलिए हम
इतने उत्सुक
होते हैं इस
बात को जानने
के लिए कि लोग
मेरे बाबत
क्या कहते हैं।
इसके जानने की
उत्सुकता के
पीछे और कुछ
भी नहीं है।
उनकी आंखों
में जो मेरी
तस्वीर बनती
है, उससे
ही मैं अपने
को पहचान
लूंगा कि मैं
कैसा हूं। बड़े
आश्चर्य की
बात है! स्वयं
को पहचानने के
लिए भी मुझे
दूसरों की आंखों
में झांकना
पड़ेगा।
आदमी
डरता है कि
मेरे संबंध
में लोग कुछ
बुरा तो नहीं
कहते। आदमी
प्रसन्न होता
है,
लोग अगर
उसके संबंध
में अच्छा
कहते हैं, क्योंकि
उसका खुद का
अपना ज्ञान, उनकी कही गई
बातों पर, उनके
ओपिनियन
पर निर्भर
करता है। उसका
अपना सीधा, इमीजिएट कोई शान
नहीं है। उसे
स्वयं अपने को
जानने का सीधा—सीधा
कोई अनुभव
नहीं है। यह
अनुभव हो सकता
है, लेकिन
यह अनुभव होता
नहीं, हम
तो इस अनुभव
से बचने की
कोशिश करते
हैं।
मस्तिष्क
के संबंध में
पहली बात
जाननी जरूरी है
दूसरे क्या
कहते हैं— यह
नहीं; दूसरों
को मैं कैसा
दिखाई पड़ता
हूं—यह भी
नहीं; मैं
कैसा हूं—इसे
सीधा, इसका
सीधा साक्षात,
इसका सीधा एनकाउंटर
करना जरूरी है।
मुझे अपने
एकांत में
अपने मन को
पूरी तरह खोल कर
देखना जरूरी
है कि वहां
क्या है। यह
अत्यंत
दुस्साहस का
काम है। यह
अपने हाथ से
अपने भीतर
छिपे हुए नरक
में प्रवेश
करने का साहस
है। यह अपनी
नग्नता में
स्वयं को
देखने की
हिम्मत बड़ी
हिम्मत है।
एक
सम्राट था।
उसके परिवार
के लोग, उसके
घर के लोग, उसके
मित्र, उसके
वजीर, सभी
एक बात से
बहुत हैरान थे।
वह रोज महल के
मध्य में बने
एक कक्ष में
प्रवेश करता।
चाबी अपने पास
ही रखता उस
कक्ष की। भीतर
से जाकर द्वार
बंद कर लेता।
और एक ही
द्वार था, उसमें
कोई खिड़की भी
न थी। सब तरफ
से दीवालें
बंद थीं। एक
घंटे वह रोज
चौबीस घंटे
में उस भवन के
भीतर रहता। न
उसकी पत्नियां
जानती थीं, क्योंकि
उसने कभी किसी
को नहीं बताया।
कोई पूछता तो
वह हंस कर चुप
रह जाता और न
वह किसी को
चाबी देता था।
सारे घर में
विस्मय था और
आश्चर्य था।
और सारे लोगों
की उत्सुकता
निरंतर बढ़ती
चली गई, वह
वहां करता
क्या है! यह
किसी को भी
पता नहीं था
कि वह वहां
करता क्या है!
एक
घंटे वह उस
बंद घर में
होता था, फिर
चुपचाप बाहर
निकल आता, चाबी
अपने पास रख
लेता, दूसरे
दिन फिर उस
बंद घर में
जाता। आखिर
उत्सुकता
अपनी चरम
अवस्था पर
पहुंच गई और
सारे घर के
लोगों ने मिल
कर साजिश की
कि जानना ही
पड़ेगा कि बात
क्या है! वजीर,
उसकी पत्नियां,
उसके लड़के,
उसकी बेटियां,
सब
सम्मिलित थे
उस साजिश में।
और उन्होंने
दीवाल में रात
को एक छेद
किया ताकि कल
सुबह वे जान
सकें कि वह
आदमी करता
क्या है! वहां
जाकर भीतर
होता क्या है
रोज एक घंटा!
फिर
दूसरे दिन जब
वह सम्राट
भीतर गया तो
उन सबने उस
छेद पर एक—एक
ने आख रख कर
देखी। जिसने
भी आख रखी, वह
तत्काल वहां
से हट आया और
कहने लगा यह
क्या कर रहे
हैं! यह क्या
करते हैं!
लेकिन कोई भी
नहीं कहता था,
सम्राट
वहां क्या कर
रहा था। जो भी
आख छेद पर ले
आता, जल्दी
हट आता और
कहता कि यह
क्या करते
हैं!
सम्राट
ने वहां भीतर
जाकर अपने
सारे वस्त्र फेंक
दिए और नग्न
हो गया। और
उसने हाथ आकाश
की तरफ जोड़े
और उसने कहा
हे परमात्मा!
वह जो कपड़े
पहने हुए आदमी
था,
वह मेरी
असलियत नहीं
थी—वह मैं
नहीं था—
असलियत तो अब
है। और वह
कूदने लगा और
चिल्लाने लगा
और गालियां बकने
लगा और पागल
की तरह
व्यवहार करने
लगा। तो जिसने
भी आख रख कर उस
छेद पर देखा
वह जल्दी हट
आया और उसने
कहा कि यह
सम्राट क्या
करते हैं! हम
तो सोचते थे शायद
कोई
प्रार्थना
करते होंगे, कोई योग—साधन
करते होंगे।
यह क्या करते
हैं!
और
वह सम्राट
कहने लगा
ईश्वर से कि
वह जो मैं अब
तक वस्त्र
पहने हुए
चुपचाप और
शांत दिखाई पड़ता
था वह बिलकुल
झूठा आदमी था।
वह साधा हुआ
आदमी था, वह कल्टीवेटेड
था। वह मैंने
कोशिश कर—कर
के बना रखा था।
असली अब मैं
यह हूं। यह है
मेरी असलियत,
यह मेरी
नग्नता, और
यह मेरा
पागलपन! यह है
मेरी असलियत।
और अगर मेरी
असलियत तुझे
स्वीकार हो
जाए तो ठीक है,
क्योंकि
मैं आदमियों
को तो धोखा दे
सकता हूं तुझे
मैं कैसे धोखा
दे सकता हूं? आदमियों को
तो मैं वस्त्र
पहन कर दिखा
सकता हूं कि
मैं नग्न नहीं
हूं लेकिन तू
तो जानता है
भलीभांति कि
मैं नग्न हूं
मैं तुझे कैसे
धोखा दे सकता
हूं? मैं
आदमियों को तो
दिखा सकता हूं
कि बहुत शांत
और आनंदित हूं
लेकिन तू तो
मेरे भीतर तक
जानता है।
तुझे मैं कैसे
धोखा दे सकता
हूं? तेरे
सामने तो मैं
एक पागल हूं।
परमात्मा
के सामने हम
सब एक पागल की
भांति हैं।
परमात्मा को
छोड़ दें एक
तरफ,
अगर हम भी
अपने भीतर आख
ले जाएंगे तो
हम अपने सामने
ही एक पागल की
भांति प्रकट
होंगे।
मस्तिष्क
बिलकुल
विक्षिप्त हो
गया है, लेकिन
इस तरफ हमारा
कोई ध्यान
नहीं है, इसलिए
इसे बदलने का
हम उपाय भी
नहीं कर पाते
हैं। पहली बात
है, स्वयं
के मस्तिष्क
का सीधा
साक्षात्कार।
कैसे यह
साक्षात्कार
हो सकता है, उसके दो— तीन
सूत्र समझ
लेने उपयोगी
हैं। फिर इस
मस्तिष्क को
कैसे बदला जा
सकता है, उसके
बाबत भी विचार
किया जा सकेगा।
मस्तिष्क
के सीधे
साक्षात्कार
के लिए पहली
तो बात यह है
कि हम सब तरह
का भय छोड़ दें
अपने को जानने
में। भय क्या
है स्वयं को
जानने में? भय
यह है कि कहीं
हम बुरे आदमी
न हों। भय यह
है कि कहीं हम
बुरे आदमी न
हों—हम तो
अपने को अच्छे
आदमी बनाए हुए
हैं। हम तो
अच्छे आदमी
दिखाई पड़ते
हैं। हम तो
साधु हैं, हम
तो सरल चित्त
हैं। हम तो
ईमानदार हैं,
हम तो
सत्यवादी हैं।
भय यह है कि
कहीं भीतर यह
पता न चले कि
हम बेईमान हैं।
भय यह है कि
कहीं यह पता न
चल जाए कि हम
झूठे हैं। भय
यह है कि कहीं
यह पता न चल
जाए कि हम
असाधु हैं, जटिल हैं, कपटी हैं, पाखंडी हैं।
कहीं यह पता न
चल जाए कि हम
सज्जन नहीं
हैं। भय यह है
कि कहीं हम जो
अपने को समझे
हुए हैं वह तस्वीर
झूठी न साबित
हो जाए।
जिस
आदमी को यह भय
है,
यह फियर
है वह कभी मन
का साक्षात
नहीं कर सकता
है। जंगल में
जाना आसान है,
अंधेरे में
जाना आसान है,
जंगली जानवरों
के पास भी
निर्भय होकर
बैठ जाना आसान
है, लेकिन
हमारे भीतर जो
जंगली आदमी
छिपा है, उसके
सामने निर्भय
होकर खड़ा होना
बहुत कठिन है,
बहुत आरडुअस
है, बहुत तपश्चर्यापूर्ण
है। धूप में
खड़े होने में
कोई
तपश्चर्या
नहीं है, कोई
भी बेवकूफ खड़ा
हो सकता है।
सिर के बल खड़े
हो जाने में
भी कोई कठिनाई
नहीं है, कोई
भी जड़बुद्धि
को सर्कस के
खेल सिखाए जा
सकते हैं। और
न कीटों पर
लेट जाना बहुत
कठिन है—चमडा
बहुत जल्दी
तैयार हो जाता
है, कांटों
पर लेटने के
लिए भी तैयार
हो जाता है, एडजस्ट हो जाता है।
लेकिन कठिनाई
अगर है मनुष्य
के जीवन में
तो कोई एक है, और वह यह है
कि वह जैसा है
भीतर सीधा और
साफ—चाहे बुरा,
चाहे पागल,
उसे वैसा ही
जानने की
हिम्मत और
साहस।
इसलिए
पहली बात है
भय को छोड़ कर
साहसपूर्वक
स्वयं को
देखने की
तैयारी। यह
तैयारी जिसके
पास नहीं है, वह
कठिनाई में पड़
जाता है।
आत्मा पाने के
लिए तो हम
उत्सुक होते
हैं, परमात्मा
के दर्शन के
लिए भी उत्सुक
होते हैं, लेकिन
अपने सीधे और
सच्चे दर्शन
का साहस भी हममें
नहीं है तो
परमात्मा और
आत्मा दूर की
बातें हो जाती
हैं। सबसे
पहली सचाई
हमारा मन है, हमारा
मस्तिष्क है।
सबसे पहली
सचाई हमारे
विचारों का
केंद्र है
जिससे हम
निकटतम
संबंधित हैं।
पहले तो उसे
ही देखना और
जानना होगा, पहचानना
होगा।
पहला
सूत्र है:
निर्भयता
से स्वयं के
मन को एकांत
में जानने की कोशिश।
आधा घंटे के
लिए कम से कम
रोज,
मन जैसा है
उसको वैसा ही
सहज रूप से
प्रकट होने का
मौका देना
चाहिए। बंद कर
लें उस सम्राट
की तरह एक
कमरे में अपने
को, और मन
में जो भी
उठता हो उसे
मुक्त कर दें
और उससे कहें
कि जो भी तुझे
सोचना है और
जो भी तुझे विचारना
है, वह सब
उठने दें।
सारा सेंसर जो
हम बिठाए हुए
हैं अपने ऊपर
कि कोई चीज
बाहर न निकल
आए, वह सब
छोड़ दें। और
मन को एक फ्रीडम,
एक मुक्ति
दे दें कि जो
भी उठता हो
उठे, जो भी
प्रकट होना
चाहता हो
प्रकट हो। न
तो हम कुछ दबाके,
न हम कुछ
रोकेंगे। हम
तो यह जानने
को तत्पर हुए
हैं कि भीतर
क्या है! बुरे
और भले का
निर्णय भी
नहीं करना है,
क्योंकि
निर्णय करते
ही दमन शुरू
हो जाता है।
जिस चीज को आप
बुरा कहते हैं
उस चीज को मन
दबाने लगता है
और जिसको आप
अच्छा कहते
हैं उसको ओढ़ने
लगता है।
तो
न तो बुरा
कहना है, न भला
कहना है। जो
भी है मन में, जैसा भी है, उसे वैसा ही
जानने के लिए
हमारी तैयारी
होनी चाहिए।
तो इस भांति
अगर मन को
पूरा मुक्त
छोड़ दिया जाए
और वह जो भी
सोचना चाहता
हो, वह जो
भी विचारना
चाहता हो, जिन
भी भावों में
बहना चाहता हो,
उनमें उसे
बहने दिया जाए।
बहुत घबड़ाहट
होगी, लगेगा
कि हम पागल
हैं क्या?
लेकिन
जो भीतर छिपा
है,
उसे जान
लेना अत्यंत
जरूरी है, उससे
मुक्त हो जाने
के लिए। उससे
मुक्त हो जाने
के लिए पहली
बात उसकी
जानकारी और
उसकी पहचान है।
और उसकी पहचान
न हो, उसकी
जानकारी न हो,
तो जिस
शत्रु को हम
जानते नहीं
उससे हम जीत
भी नहीं सकते
हैं। उससे
जीतने का कोई
रास्ता नहीं
है। छिपा हुआ
शत्रु, पीठ
के पीछे खड़ा
हुआ शत्रु
खतरनाक है उस
शत्रु से जो आख
के सामने हो, जिससे हम
परिचित हों, जिसे हम
पहचानते हों।
पहली
बात है, मन के
ऊपर से सारा
सेंसर, सारा
प्रतिबंध, जो
हमने लगा रखा
है सब तरफ से
कि मन को हम
कहीं उसकी
सहजता में
प्रकट नहीं
होने देते। मन
की जितनी स्पांटेनिटी
है, जितनी
सहजता है, सब
रोक रखी है।
सब असहज हो
गया है, सब
झूठा कर डाला
है, सब
पर्दे ओढ़ लिए
हैं, सब
झूठे मुंह पहन
लिए हैं, और
कहीं से भी
उसकी सीधी बात
को हम प्रकट
नहीं होने
देते। तो उसे
उसकी सीधी बात
में प्रकट
होने देना, अपने सामने
कम से कम शुरू
में, ताकि
हम परिचित हो
सकें एक—एक
अंश से मन के, जो भीतर
छिपे हैं और
दबा दिए गए
हैं।
मन
का बहुत
हिस्सा
अंधकार में
दबाया हुआ है।
वहां हम कभी
दीया नहीं ले
जाते। अपने ही
घर के बाहर के
बरामदे में
जीते हैं, भीतर
के सारे कमरों
में अंधकार
छाया हुआ है
और वहां कितने
कीड़े—मकोड़े
और कितने जाल
और कितने सांप—बिच्छू
इकट्ठे हो गए
हैं, इसका
कोई सवाल नहीं।
अंधकार में वे
इकट्ठे हो ही
जाते हैं। और
हम डरते हैं
वहां रोशनी ले
जाने से कि
हमारा घर ऐसा
है, यह हम
सोचना भी नहीं
चाहते, यह
हम कल्पना भी
नहीं करना
चाहते। यह भय
छोड़ देना
अत्यंत
आवश्यक है
साधक के लिए।
मस्तिष्क, मन
और विचारों के
जगत में
क्रांति लाने
के लिए पहला
काम है, वह
भय छोड़ कर, निर्भय
होकर स्वयं को
जानने के लिए
तैयार हो जाए।
दूसरी
बात है, इनमें
से सारा सेंसर,
सारा
प्रतिबंध उठा
लेना। और हमने
बहुत
प्रतिबंध लगा
रखे हैं।
हमारी शिक्षा
ने, नैतिक
शिक्षा ने, सभ्यता और
संस्कृति ने
बहुत
प्रतिबंध लगा
रखे हैं कि यह
सोचना ही मत, इस तरह का
विचार ही मत
करना, यह
बुरा विचार है,
इसे आने ही
मत देना। जब
हम रोक लगा
देते हैं तो
बुरे विचार
नष्ट नहीं हो
जाते, केवल
हमारे
प्राणों के और
गहरे में
प्रविष्ट हो
जाते हैं। रोक
लगा देने से
कोई विचार
हमसे बाहर
नहीं हो जाता
और हमारे भीतर
गहरे खून में
प्रविष्ट हो
जाता है।
क्योंकि जिस
पर हम रोक
लगाते हैं वह
भीतर से उठ
रहा था, कहीं
बाहर से नहीं
आ रहा था।
ध्यान
रहे,
जो भी आपके
मन में है वह
कहीं बाहर से
नहीं आ रहा है,
आपके भीतर
से आ रहा है।
जैसे कोई झरना
प्रकट हो रहा
हो किसी पहाड़
से हम उसका
दरवाजा बंद कर
दें तो झरना
इससे नष्ट
नहीं हो जाएगा,
और रास्ते
खोजेगा पहाड़
में, और
प्रवेश करेगा,
और नये
रास्ते
खोजेगा प्रकट
होने के। एक
झरना होता, शायद दस
झरने हो
जाएंगे अब, दस टुकड़ों
में धाराएं
टूट कर प्रकट
होने की कोशिश
करेंगी। और
अगर हम दस जगह
से बंद कर दें
तो सौ झरने हो
जाएंगे।
हमारे
भीतर से कुछ आ
रहा है, बाहर
से नहीं। तो
इस पर जितनी
रोक हम लगाते
हैं उतना ही
यह कुरूप होकर,
विकृत होकर
नये—नये
रास्ते लेता
है, नई—नई
ग्रंथियां
निर्मित करता
है, लेकिन
हम निरंतर रोक
लगाते रहते
हैं। बचपन से
ही हमारी
शिक्षा की
बुनियाद यह है
कि मन में
फलां चीज बुरी
है, उसे
रोक लेना है।
वह रुकी हुई
चीज नष्ट नहीं
हो जाती, हमारे
प्राणों में
गहरे
प्रविष्ट हो
जाती है। और
जितना हम
रोकते जाते
हैं वह उतनी
ही गहरी होती
चली जाती है, उतना हमें पकड़ती चली
जाती है।
क्रोध
बुरा है तो हम
क्रोध को रोक
देते हैं। फिर
क्रोध का झरना
हमारे सारे
खून में फैल
जाता है। काम
बुरा है, लोभ
बुरा है, यह
बुरा है, वह
बुरा है। जो—जो
बुरा है उसे
रोक देते हैं,
अंत में हम
पाते हैं कि
जिसे—जिसे
हमने रोका था
वही हम हो गए
हैं। रुका हुआ,
छेड़ा गया, बांधे
गए बांध वे जो
झरने थे, उन्हें
कहां ले
जाएंगे? और
मन के कुछ
नियम हैं—उनमें
एक नियम यह है
कि जिस चीज को
हम रोकना चाहते
हैं, जिस
चीज से हम
हटना चाहते
हैं, जिससे
हम बचना चाहते
हैं, वही
चीज हमारे
चित्त का
केंद्र बन
जाती है, वह
सेंट्रल हो जाती
है। जिस चीज
से हम बचना
चाहते हैं वह
हमारे केंद्र
का आकर्षण बन
जाती है, मन
हमारा उसके
पास चक्कर
काटने लगता है।
आप कोशिश करके
देख लें किसी
चीज से बचने
की, रोकने
की और आप
पाएंगे, चित्त
आपका वहीं
घूमने लगा है।
तिब्बत
में एक फकीर
था,
मिलारेपा।
उसके पास एक
युवक आया और
उसने कहा कि
मुझे कोई मंत्र
सिद्धि करनी
है, मुझे
कोई शक्ति
अर्जित करनी
है, मुझे
कोई मंत्र दे
दें।
मिलारेपा ने
कहा कि मंत्र
हमारे पास
कहां! हम तो
फकीर हैं।
मंत्र तो
जादूगरों के
पास होते हैं,
मदारियों
के पास होते
हैं, तुम
उनके पास जाओ।
हमारे पास
मंत्र कहां? हमारे पास
सिद्धि का
क्या संबंध?
लेकिन
वह युवक जितना
ही उस साधु ने
मना किया, उतना
ही उस युवक को
लगा कि जरूर
यहां कुछ होना
चाहिए, इसीलिए
यह मना करता
है। जितना
साधु रोकने
लगा और इनकार
करने लगा उतना
ही वह युवक
साधु के पास
जाने लगा।
जो
साधु डंडे से
किन्हीं को
भगाते हैं, उनके
पास बहुत भीड़
इकट्ठी हो
जाती है। जो
गाली देते हैं
और पत्थर
मारते हैं, उनके पास
भीड़ और बढ़
जाती है।
क्योंकि जरूर
यहां कुछ होना
चाहिए, नहीं
तो यह पत्थर
मारेगा और
डंडे मारेगा?
लेकिन हमें
पता नहीं है कि
चाहे अखबार
में खबर
निकलवा कर बुलावाया
जाए लोगों को,
चाहे पत्थर
मार कर, तरकीब
एक ही है, प्रोपेगेंडा दोनों में
ही एक है। और
दूसरी तरकीब
ज्यादा कनिंग
से भरी है। जब
पत्थर मार कर
लोगों को
भगाया जाए, तो लोगों के
यह भी खयाल
में नहीं आता
कि हमें बुलाया
जा रहा है।
लेकिन पत्थर
मार कर भगाना
भी बुलाने की
विधि है। और
तब आदमी आता
भी है और उसे
खयाल में भी
नहीं आता है
कि मैं बुलाया
गया।
उस
युवक ने समझा
कि यह शायद
कुछ छिपाना
चाहता है, इसलिए
वह और रोज आने
लगा। आखिर में
मिलारेपा
परेशान हो गया
तो उसने एक कागज
पर मंत्र लिख
कर दे दिया और
कहा इसे ले
जाओ और आज
अमावस की रात
है तो अंधेरे
में पांच बार
इसको पढ़ लेना।
बस पांच बार
तुमने पढ़ लिया
कि सिद्धि हो
जाएगी। फिर
तुम जो भी
चाहते हो, वह
कर सकोगे। जाओ
और मेरा पीछा छोड़ो।
वह
युवक भागा।
उसने धन्यवाद
भी नहीं दिया।
वह सीढ़ियां
उतर भी नहीं पाया
था मंदिर की
कि मिलारेपा
ने कहा कि
मेरे मित्र!
एक बात बताना
मैं भूल गया।
एक कंडीशन
भी है, एक शर्त
भी है। जब उस
मंत्र को पढ़ो
तो बंदर का
स्मरण नहीं
आना चाहिए। उस
युवक ने कहा बेफिकर
रहिए, आज
तक जिंदगी में
कभी नहीं आया।
कोई आने का
कारण नहीं है।
और पांच ही बार
तो पढ़ना
है न, कोई
हर्जा नहीं है।
लेकिन
भूल हो गई
उससे। वह पूरी
सीढ़ियां
उतर भी नहीं
पाया था कि
बंदर आना शुरू
हो गए। वह
बहुत घबड़ाया।
आख बंद करता
है तो बंदर
हैं,
बाहर देखता
है तो जहां
बंदर नहीं हैं
वहां भी दिखाई
पड़ते हैं, मालूम
होते हैं कि
बंदर हैं। रात
है, वृक्षों
पर हलचल होती
तो लगता है कि
बंदर हैं। घर
पहुंचा, बहुत
परेशान हुआ कि
यह मामला क्या
है! यह आज तक मुझे
बंदर कभी खयाल
में नहीं आए।
मेरा कोई नाता—रिश्ता
बंदरों से
नहीं रहा, कोई
पहचान नहीं
रही।
घर
पहुंचा, स्नान
किया, लेकिन
स्नान करता जा
रहा है और
बंदर साथ हैं।
एक ही तरफ
खयाल रह गया
है— बंदरों की
तरफ। फिर
मंत्र पढ़ने
बैठता है। हाथ
में कागज लेता
है, आख बंद
करता है और
बंदरों की भीड़
उसको चिढ़ा
रही है, भीतर
बंदर मौजूद
हैं। वह बहुत
घबड़ा गया। रात
भर उसने कोशिश
की। सब भांति
करवट बदलीं, इस भांति
बैठा, उस पद्यासन में
बैठा, इस
सिद्धासन में
बैठा, भगवान
के नाम लिए, हाथ जोड़े, गिड़गिड़ाया,
रोया कि
पांच मिनट के
लिए केवल इन
बंदरों से छुटकारा
दिला दो।
लेकिन वे बंदर
थे कि उस रात
उसका पीछा
छोड़ने को राजी
नहीं हुए।
सुबह
तक वह बिलकुल
पागल हो उठा।
घबड़ा गया और
समझ गया कि यह
मामला हल होने
का नहीं है।
यह सिद्धि
नहीं हो सकती।
मैं समझता था
बड़ी सरल है, साधु
होशियार है।
उसने शर्त
कठिन लगा दी।
पागल है
लेकिन... अगर
बंदरों के
कारण ही
रुकावट होती
थी तो कम से कम
बंदरों का नाम
न लेता। तो
शायद यह मंत्र
सिद्ध भी हो
जाता।
लेकिन
सुबह वह साधु
के पास गया
रोता हुआ और
उसने कहा वापस
ले लें अपना
मंत्र। बड़ी
गलती की है
आपने। अगर
बंदर ही इसकी
रुकावट थे इस
मंत्र में, तो
कृपा करके कल
न कहते, आज
कह देते तो
कोई हर्ज होता
था आपका? मुझे
कभी बंदर याद
भी नहीं आए थे।
लेकिन रात भर
बंदरों ने
मेरा पीछा
किया। अब अगले
जन्म में आऊंगा,
फिर हो सकता
है कि यह
मंत्र सिद्ध
हो सके, क्योंकि
अब इस जन्म
में तो यह
मंत्र और बंदर
संयुक्त हो गए
हैं। अब इनसे
छुटकारा संभव
नहीं है।
यह
जो बंदर
संयुक्त हो गए
मंत्र के साथ, यह
कैसे संयुक्त
हो गए? उसके
मन ने आग्रह
किया कि बंदर
नहीं होने
चाहिए और बंदर
हो गए। उसके
मन ने बंदरों
से छूटना चाहा
और बंदर मौजूद
हो गए। उसका
मन बंदरों से
बचना चाहा और
बंदर आ गए।
निषेध
आकर्षण है, इनकार
आमंत्रण है, रोकना
बुलाना है।
हमारे
चित्त की जो
इतनी रुग्ण—दशा
हो गई है, वह इस
सीधे से सूत्र
को न समझने की
वजह से हो गई
है। क्रोध को
हम नहीं चाहते
कि आए और फिर
क्रोध बंदर बन
जाता है और
आने लगता है।
सेक्स को हम
नहीं चाहते कि
आए और फिर वह
आता है और
चित्त को पकड़
लेता है। लोभ
को हम नहीं
चाहते कि वह
आए, अहंकार
को हम नहीं
चाहते कि वह
आए, फिर वे
सब आ जाते हैं।
और जिन—जिन को
हम चाहते हैं
कि परमात्मा
आए, आत्मा
आए, मोक्ष
आए, उनका
कोई पता नहीं
चलता कि वे
आएं। जिनको हम
नहीं चाहते वे
आते हैं और
जिन्हें हम
बुलाते हैं
उनकी कोई खबर
नहीं मिलती है।
मन के इस सीधे
से सूत्र को न
समझने से सारी
विकृति पैदा
हो जाती है।
तो
दूसरी बात ध्यान
में रखने की
है कि मन में
क्या आए और
क्या न आए, इसका
कोई आग्रह
लेने की जरूरत
नहीं है। जो
भी आए उसे हम
देखने को
तैयार हैं। जो
भी आए, हमारी
तैयारी उसे
सिर्फ देखने
की है। हमारा
आग्रह नहीं है
कि क्या आए और
क्या न आए।
हमारी कोई
शर्त नहीं, हमारी कोई कंडीशन नहीं,
अनकंडीशनल,
बेशर्त हम
मन को देखने
के लिए तत्पर
हुए हैं। हम
सिर्फ जानना
चाहते हैं कि
मन अपनी
वस्तुस्थिति
में क्या है।
हमारा कोई
आग्रह नहीं है
कि कौन आए और
कौन न आए।
हमारा कोई
प्रयोजन नहीं
है।
दुनिया
भर के
विज्ञापनदाता
इस सीधी सी
बात को समझते
हैं,
लेकिन
धर्मगुरु अब
तक नहीं समझ
पाए। दुनिया
भर के प्रोपेगेंडिस्ट
इस बात को
समझते हैं, लेकिन
धर्मगुरु अब
तक नहीं समझ
पाए। और समाज
को शिक्षा
देने वाले लोग
भी नहीं समझ पाए।
एक फिल्म के
ऊपर लिख दिया
जाता है 'फॉर
अडल्ट्स ओनली,
सिर्फ
प्रौढ़ लोगों
के लिए। 'और
बच्चे एक आने
की मूंछ खरीद
कर लगा कर
पहुंच जाते
हैं देखने के
लिए। जानते
हैं विज्ञापनदाता
कि अगर बच्चों
को बुलाना हो
तो फिल्म के ऊपर
लिखना जरूरी
है कि सिर्फ प्रौढ़ों
के लिए।
स्त्रियों की
पत्रिका है. 'फॉर वीमेन
ओनली।' उसको सिवाय
पुरुषों के और
कोई भी नहीं
पढ़ता है, स्त्रियां
तो कभी नहीं पढ़ती।
पुरुष ग्राहक
हैं, मैंने
पता लगवाया तो
पता चला उसके
अधिकतम ग्राहक
पुरुष हैं! और
बाजार में
मैंने
पत्रिका
बेचने वाले
एजेंटों से भी
पूछा, तो
उन्होंने कहा
कि स्त्रियां
तो कभी कोई
मुश्किल से खरीदती
हैं। स्त्रियां
दूसरी
पत्रिका खरीदती
हैं, उसका
नाम है 'फॉर
मैन ओनली।
'
विज्ञापनदाता
इस तरकीब को
समझ गए कि
आदमी का मन
किस बात के
प्रति
आकर्षित होता
है,
लेकिन
धर्मगुरु अब
तक नहीं समझे! नीतिशास्त्री
अब तक नहीं
समझे! वे आदमी
को अब भी बेवकूफियां
सिखाए जाते
हैं कि तुम
क्रोध मत करो,
क्रोध से लड़ो।
क्रोध से लडने
और क्रोध से
बचने वाला
आदमी जीवन भर
क्रोध के चक्कर
में रहेगा, क्रोध से
कभी मुक्त
नहीं हो सकता
है। क्रोध से
वह मुक्त होता
है जो क्रोध
को जानने को
उत्सुक होता
है, लड़ने
को उत्सुक
नहीं।
दूसरा
सूत्र है मन
के किन्हीं भी
रूपों के
प्रति संघर्ष
का भाव छोड़
दें,
द्वंद्व का
भाव छोड़ दें, कांफ्लिट छोड़ दें, लड़ाई
छोड़ दें।
सिर्फ जानने
का, सिर्फ
समझने का, सिर्फ
अंडरस्टैंडिंग
का..। मैं समझ
लूं यह मेरा
मन क्या है? इतने सरल
भाव से मन में
प्रवेश करना
जरूरी है, दूसरी
बात।
और
तीसरी बात मन
में जो भी रूप
उठे,
उनका कोई
जजमेंट, कोई
निर्णय नहीं
लेना है। कोई
निर्णय नहीं
लेना है कि यह
जो उठ रहा है
यह बुरा है, यह जो उठ रहा
है यह अच्छा
है। हमें इस
बात का पता ही
नहीं है कि
बुराई और अच्छाई
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। जहां
बुराई है उसके
ही दूसरी तरफ
अच्छाई है।
जहां अच्छाई
है, उसके
ही दूसरी तरफ
बुराई है।
अच्छे
आदमी के भीतर
बुरा आदमी
छिपा होता है, बुरे
आदमी के भीतर
अच्छा आदमी
छिपा होता है।
अच्छे आदमी का
सिक्का
अच्छाई का ऊपर
की तरफ है, बुराई
का भीतर की
तरफ है। इसलिए
कभी अच्छा
आदमी अगर बुरा
हो जाए तो बुरे
से बुरे आदमी
से भी बुरा
आदमी सिद्ध
होता है। और
कभी बुरा आदमी
अच्छा हो जाए
तो अच्छे आदमी
उसके सामने
फीके पड़ जाते
हैं, क्योंकि
उसके भीतर
बुरे आदमी के
भीतर अच्छाई बिलकुल
साबित छिपी
रहती है, बुराई
ऊपर होती है।
अगर कभी वह
करवट ले ले
और अच्छा आदमी
हो जाए, तो
अच्छे आदमी
फीके पड़ जाते
हैं उसके
सामने। बड़ी
ताजी और छिपी
हुई ताकत
अच्छाई की
उसके भीतर से
प्रकट हो जाती
है। वाल्मीकि
या अंगुलीमाल
इसी तरह के
बुरे आदमी हैं
जो एक दिन
अच्छे आदमी हो
जाते हैं तो
सारे संत फीके
पड़ जाते हैं
उनके सामने।
अच्छा
और बुरा आदमी
अलग—अलग नहीं
हैं,
एक ही चीज
के दो सिक्के
हैं। और इसलिए
जो साधु है वह
तीसरी तरह का
आदमी है। उसके
भीतर न अच्छाई
होती है, न
बुराई होती है,
वह पूरे ही
सिक्के को
फेंक देता है।
साधु अच्छा
आदमी नहीं है,
सज्जन संत
नहीं है।
सज्जन के भीतर
दुर्जन छिपा
ही होता है।
दुर्जन के
भीतर सज्जन
हमेशा मौजूद
होता है। संत
बिलकुल तीसरी
तरह की घटना
है। वह न
अच्छा है, न
बुरा है। वह
तटस्थ हो गया
है। उसका न
अच्छाई से कोई
संबंध रहे, न बुराई से।
वह एक भिन्न
ही दिशा में
प्रविष्ट हो
गया है। वहां
अच्छे और बुरे
का कोई सवाल
नहीं है।
एक
फकीर था। एक
युवा फकीर था जपान के एक
गांव में।
उसकी बड़ी
कीर्ति थी, उसकी
बड़ी महिमा थी।
सारा गांव उसे
पूजता और आदर
करता। उसके
सम्मान में
सारे गांव में
गीत गाए जाते।
लेकिन एक दिन
सब बात बदल गई।
गांव की एक
युवती को गर्भ
रह गया और उसे
बच्चा हो गया।
और उस युवती
को घर के
लोगों ने पूछा
कि किसका
बच्चा है, तो
उसने उस साधु
का नाम ले
दिया कि उस
युवा फकीर का
यह बच्चा है।
फिर देर कितनी
लगती है, प्रशंसक
शत्रु बनने
में कितनी देर
लेते हैं? जरा
सी भी देर
नहीं लेते, क्योंकि
प्रशंसक के मन
में हमेशा
भीतर तो निंदा
छिपी रहती है।
मौके की तलाश
करती है, जिस
दिन प्रशंसा
खत्म हो जाए
उस दिन निंदा
शुरू हो जाती
है। आदर देने
वाले लोग, एक
क्षण में
अनादर देना
शुरू कर देते
हैं। पैर छूने
वाले लोग, एक
क्षण में सिर
काटना शुरू कर
देते हैं, इसमें
कोई भेद नहीं
है इन दोनों
में। यह एक ही
आदमी की दो
शक्लें हैं।
वे
सारे गांव के
लोग फकीर के झोपड़े पर
टूट पड़े। इतने
दिनों का
सप्रेस था
भीतर, इतनी
श्रद्धा दी थी
तो दिल में तो
क्रोध इकट्ठा
हो ही गया था
कि यह आदमी
बड़ी श्रद्धा
लिए जा रहा है!
आज अश्रद्धा
देने का मौका
मिला था तो कोई
भी पीछे नहीं
रहना चाहता था।
उन्होंने जाकर
उस फकीर के झोपड़े
पर आग लगा दी।
और जाकर उस
बच्चे को, एक
दिन के बच्चे
को उस फकीर के
ऊपर पटक दिया।
उस
फकीर ने पूछा
कि बात क्या
है?
तो उन लोगों
ने कहा यह भी
हमसे पूछते हो
कि बात क्या
है? यह
बच्चा
तुम्हारा है,
यह भी हमें
बताना पड़ेगा
कि बात क्या
है? अपने
जलते मकान को
देखो, और
अपने भीतर दिल
को देखो, और
इस बच्चे को
देखो, और
इस लड़की को
देखो। हमसे
पूछने की
जरूरत नहीं, यह बच्चा
तुम्हारा है।
वह
फकीर बोला इज
इट सो? ऐसी बात
है, बच्चा
मेरा है? वह
बच्चा रोने
लगा तो उस
बच्चे को वह
चुप कराने के
लिए गीत गाने
लगा। वे लोग उसका
मकान जला कर
वापस लौट गए।
फिर वह अपने
रोज के समय पर,
दोपहर हुई
और भीख मांगने
निकला। लेकिन
आज उस गांव
में उसे कौन
भीख देगा? आज
जिस द्वार पर
भी वह खड़ा हुआ,
वह द्वार
बंद हो गया।
आज उसके पीछे
बच्चों की
टोली और लोगों
की भीड़ चलने
लगी, मजाक
करती, पत्थर
फेंकती। वह उस
घर के सामने
पहुंचा जिस घर
की वह लड़की थी और
जिस लड़की का
वह बच्चा था।
उसने वहां
आवाज दी और
उसने कहा कि
मेरे लिए भीख
मिले न मिले, लेकिन इस
बच्चे के लिए
तो दूध मिल
जाए! मेरा कसूर
भी हो सकता है,
लेकिन इस
बेचारे का
क्या कसूर हो
सकता है?
वह
बच्चा रो रहा
है,
भीड़ वहां
खड़ी है। उस
लड़की के
सहनशीलता के
बाहर हो गई
बात। वह अपने
पिता के पैर
पर गिर पड़ी और
उसने कहा : मुझे
माफ करें, मैंने
साधु का नाम
झूठा ही ले
दिया। उस
बच्चे के असली
बाप को बचाने
के लिए मैंने
सोचा कि साधु
का नाम ले दूं।
साधु से मेरा
कोई परिचय भी
नहीं है।
बाप
तो घबड़ा आया।
यह तो बड़ी
दुर्घटना हो
गई। वह नीचे
भागा हुआ आया, फकीर
के पैर पर गिर
पड़ा और उससे
बच्चा छीनने लगा।
और
उस फकीर ने
पूछा : बात
क्या है? उसके
बाप ने कहा :
माफ करें, भूल
हो गई, यह
बच्चा आपका
नहीं है। उस
फकीर ने पूछा : इज इट सो।
ऐसी बात है कि
यह बच्चा मेरा
नहीं है? तो
उस बाप ने, उस
गांव के लोगों
ने कहा. पागल
हो तुम! तुमने
सुबह ही क्यों
नहीं इनकार
किया? उस
फकीर ने कहा.
इससे क्या
फर्क पड़ता था,
बच्चा किसी
न किसी का
होगा ही। और
एक झोपड़ा
तुम जला ही
चुके थे। अब
तुम दूसरा
जलाते। और एक
आदमी को तुम
बदनाम करने का
मजा ले ही
चुके थे, तुम
एक आदमी को और
बदनाम करने का
मजा लेते।
इससे क्या
फर्क पड़ता था?
बच्चा किसी
न किसी का
होगा, मेरा
भी हो सकता है;
इसमें क्या
हर्जा! इसमें
क्या फर्क
क्या पड़ गया? तो लोगों ने
कहा : तुम्हें
इतनी भी समझ
नहीं है कि
तुम्हारी
इतनी निंदा
हुई, इतना
अपमान हुआ, इतना अनादर
हुआ?
उस
फकीर ने कहा.
अगर तुम्हारे
आदर की मुझे
कोई फिकर होती
तो तुम्हारे
अनादर की भी
मुझे कोई फिकर
होती। मुझे तो
जैसा ठीक लगता
है,
वैसा मैं
जीता हूं
तुम्हें जैसा
ठीक लगता है, तुम करते हो।
कल तक तुम्हें
ठीक लगता था, आदर करें, तो तुम आदर
करते थे। आज
तुम्हें ठीक
लगा, अनादर
करें, तुम
अनादर करते थे।
लेकिन न
तुम्हारे आदर
से मुझे
प्रयोजन है, न तुम्हारे
अनादर से। तो
उन लोगों ने
कहा भले आदमी,
इतना तो
सोचता कम से
कम कि तू भला
आदमी है और बुरा
हो जाएगा?
तो
उसने कहा न
मैं बुरा हूं
और न भला हूं
अब तो मैं वही
हूं जो मैं
हूं। अब मैंने
यह बुरे— भले
के सिक्के छोड़
दिए। अब मैंने
यह फिकर छोड़
दी है कि मैं
अच्छा हो जाऊं, क्योंकि
मैंने अच्छा
होने की जितनी
कोशिश की, मैंने
पाया कि मैं
बुरा होता चला
गया। मैंने
बुराई से बचने
की जितनी
कोशिश की, मैंने
पाया कि भलाई
उतनी दूर होती
चली गई। मैंने
वह खयाल छोड़
दिया। मैं
बिलकुल तटस्थ
हो गया। और
जिस दिन मैं
तटस्थ हो गया,
उसी दिन
मैंने पाया कि
न बुराई भीतर
रह गई, न
भलाई भीतर रह
गई। और एक नई
चीज का जन्म
हो गया है, जो
सभी भलाइयों
से ज्यादा भली
है और जिसके
पास बुराई की
छाया भी नहीं
होती।
तो
संत एक तीसरी
तरह का
व्यक्ति है।
साधक की दिशा
सज्जन होने की
दिशा नहीं है, साधक
की दिशा संत
होने की दिशा
है।
इसलिए
तीसरा सूत्र
है निर्णय न
लें कि कौन सी बात
मन में अच्छी
उठ रही है, कौन
सी बुरी उठ
रही है। न कडेमनेशन,
न एप्रीसिएशन—
न प्रशंसा और
न निंदा। न तो
यह कि यह बुरा
है, न यह कि
यह अच्छा है।
मन की धारा के
किनारे तटस्थ
बैठ जाएं, जैसे
कोई नदी के
किनारे बैठा
हो और नदी
बहती जाती है
और देख रहा है—
नदी में पानी
भी बह रहा है, पत्थर भी बह
रहे हैं, पत्ते
भी बह रहे हैं,
लकड़ियां भी बह रही
हैं। वह
चुपचाप देख
रहा है किनारे
बैठा हुआ।
ये
तीन सूत्र
सुबह की इस
बैठक में मुझे
आपसे कह देने
थे। पहली बात
मन के साक्षात
के लिए अत्यंत
अभय। दूसरी
बात मन के ऊपर
कोई भी
प्रतिबंध
नहीं—
अप्रतिबंध, बेशर्त।
तीसरी बात मन
में जो विकल्प
और विचार उठें
उनके प्रति
कोई निर्णय
नहीं, कोई
शुभ—अशुभ का
भाव नहीं, एक
तटस्थ दृष्टि।
ये पहले तीन
सूत्र हैं, मन की
विकृति के
साक्षात के
लिए। फिर हम
दोपहर और सांझ
बात करेंगे इस
विकृति के
बाहर और ऊपर
उठ जाने के
लिए क्या किया
जा सकता है, लेकिन ये
तीन बुनियादी
बातें खयाल
में रखनी
जरूरी हैं।
अब
हम सुबह के
ध्यान के लिए
बैठेंगे।
सुबह के ध्यान
के संबंध में
दो बातें समझ
लें। फिर हम
सुबह के ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
सुबह
का ध्यान बड़ी
सीधी और सरल
सी प्रक्रिया
है। असल में
जीवन में जो
भी
महत्वपूर्ण
हैं वे सभी
प्रक्रियाएं
बड़ी सरल और
सीधी होती हैं।
जीवन में
जितनी व्यर्थ
बात होती है, उतनी
ही जटिल और कांप्लेक्स
होती है। जीवन
में जितनी
श्रेष्ठ बात
होती है, वह
अत्यंत सरल और
सीधी होती है,
बिलकुल सिम्पल
होती है। तो
बड़ी सीधी और
सरल सी
प्रक्रिया है।
इतना ही करना
है कि चुपचाप
बैठ कर, मौन
बैठ कर चारों
तरफ जो
ध्वनियों का
संसार है उसे
चुपचाप सुनते
रहना है।
सुनते रहने के
कुछ अदभुत
परिणाम हैं।
हम कभी सुनते
ही नहीं। जब
मैं यहां बोल
रहा हूं तो आप
सोचते होंगे
आप सुन रहे
हैं, तो आप
बड़ी गलती में
हैं। कान पर
आवाज पड़ जाना
ही सुनने के
लिए पर्याप्त
अर्थ नहीं है।
जब
मैं बोल रहा
हूं अगर मेरे
साथ—साथ आप
सोच भी रहे
हैं तो आप सुन
नहीं रहे हैं, क्योंकि
मन एक ही साथ
एक ही क्रिया
कर पाता है, दो क्रियाएं
कभी भी नहीं।
या तो आप सुन
सकते हैं या
सोच सकते हैं।
जितनी देर आप
सोचते हैं
उतनी देर के
लिए सुनना बंद
हो जाता है।
जितनी देर आप
सुनते हैं
उतनी देर के
लिए सोचना बंद
हो जाता है।
तो जब मैं कह
रहा हूं कि
सुनना एक बड़ी
अदभुत प्रक्रिया
है। अगर आप
सिर्फ शांति
से सुनें तो
भीतर सोचना
अपने आप बंद
हो जाएगा; क्योंकि
मन के
अनिवार्य
नियमों में से
एक है कि एक ही
साथ मन दो काम
करने में
असमर्थ है—
एकदम असमर्थ
है।
एक
आदमी बीमार
पड़ा था। एक
वर्ष से उसके
पैर में लकवा
लगा हुआ था।
डॉक्टर उसे
कहते थे कि
लकवा शरीर में
मालूम नहीं
पड़ता, आपके मन
को भ्रम हो
गया है। लेकिन
वह आदमी कैसे
मानता, उसे
लकवा था!
फिर
उसके मकान में
आग लग गई और आग
लगी सारे घर
के लोग भागे।
वह लकवे
में पड़ा हुआ
आदमी भी भाग
कर बाहर निकल
आया। वह साल
भर से उठा ही
नहीं था अपने
बिस्तर से। जब
वह बाहर आ गया
तभी उसे खयाल
आया कि अरे! यह
क्या मामला हो
गया! मैं तो उठ
भी नहीं सकता
था। ये पैर
चले कैसे? उस
आदमी ने मुझसे
पूछा, तो
मैंने कहा मन
एक ही साथ दो
बातें नहीं
सोच सकता।
लकवा लगा हुआ
है, यह मन
का एक खयाल था,
लेकिन मकान
में आग लग गई, मन पूरी तरह
मकान की आग
में संलग्न हो
गया और वह
पहला खयाल
खिसक गया मन
से कि पैर में
लकवा लगा हुआ
है। और आदमी
भाग कर बाहर आ
गया। मन एक ही
चीज में
तीव्रता से
जाग सकता है।
यह
जो सुबह का
प्रयोग है, वह
चारों तरफ
पक्षियों के,
हवाओं के
गीत चलते हैं,
सारी
दुनिया के
ध्वनियों का
जाल बिछा हुआ
है उसको
चुपचाप सुनने
का है। इतनी
शांति से
सुनते रहने का
है, एक ही
बात पर ध्यान
देने का है कि
मैं सुन रहा हूं।
और जो भी हो
रहा है उसे
पूरी तरह सुन
रहा हूं। टोटल
लिसनिंग,
कुछ भी नहीं
कर रहा हूं
सिर्फ सुन रहा
हूं।
यह
सुनने पर
इसलिए जोर दे
रहा हूं कि
जैसे ही आप
पूरी तरह
सुनेंगे भीतर
वह सोच—विचार
का जो निरंतर
जाल है वह
एकदम शांत हो
जाएगा। क्यौंकि
ये दोनों काम
एक साथ नहीं
हो सकते हैं।
तो आप पूरी
फिकर सुनने की
तरफ लें। और
यह पाजिटिव
फिकर है।
अगर
आप विचार को
निकालने की
कोशिश करेंगे
तो जो गलती
मैंने अभी
आपसे कही, वह
शुरू हो जाएगी।
यह निगेटिव
फिकर है।
विचार को
निकालने की
कोशिश से कभी
विचार नहीं
निकल सकते, लेकिन मन की
जो ताकत विचार
करने में लगती
है अगर वह
ताकत किसी और धारा
में प्रवाहित
हो जाए तो
विचार अपने आप
क्षीण हो जाते
हैं। उनको...।
उस
आदमी को उसके
डॉक्टर कहते
थे कि तू यह
खयाल निकाल
अपने मन से कि
तुझे लकवा लगा
हुआ है। तुझे
लकवा लगा हुआ
नहीं है। शरीर
तेरा ठीक है।
लेकिन वह आदमी
जितनी कोशिश
करता होगा
निकालने की कि
मुझे लकवा
नहीं लगा हुआ
है,
जितनी बार
यह कहता होगा
कि मुझे लकवा
नहीं लगा हुआ
है, उतनी
ही बार लकवे
की याद आएगी।
उतनी बार वह
जानता है कि
लकवा मुझे लगा
हुआ है। अगर
नहीं लगा हुआ
होता तो मैं
दोहराता ही
क्यों कि मुझे
लकवा नहीं लगा
हुआ है? वह
जितनी बार दोहराएगा
कि मुझे लकवा
नहीं लगा है
उतनी ही बार
वह अपने इस
भाव को गहरा
कर रहा है कि
मुझे लकवा लगा
हुआ है। वह
मजबूत हो रहा
है। उस आदमी
के चित्त को डायवर्शन
चाहिए था, उस
आदमी को लकवे
को रोकने की
जरूरत नहीं थी।
उसका चित्त
पूरी तरह से
कहीं और चला
जाता तो लकवा
विलीन हो जाता,
क्योंकि
चित्त का लकवा
था। चित्त
पूरा हट जाता
तो लकवा विलीन
हो जाता।
मकान
में आग लग गई
भाग्य से। कई
बार ऐसा होता
है कि किन्हीं
के घर में
दुर्भाग्य से
आग लगती है, किन्हीं
के घर में
भाग्य से भी
आग लग जाती है।
उस आदमी के घर
में भाग्य से
आग लग गई, और
सारा मन मकान
से लगी आग पर
चला गया। मन
हट गया उस बात
से जिसको पकड़े
हुए था, वह
ग्रंथि विलीन
हो गई।
क्योंकि वह
विचार की
ग्रंथि थी, इससे ज्यादा
कोई ग्रंथि
नहीं थी। असली
में वहां कोई
जंजीरें नहीं
थीं, केवल
विचार का जाल
था। पूरा मन
वहां से हट
गया, विचार
का जाल सूख कर
निर्जीव हो
गया, क्योंकि
विचार के जो
भी प्राण हैं
वह हमारे ध्यान
से उपलब्ध
होते हैं।
विचार
में अपने आप
में कोई प्राण
नहीं हैं। हम
जितना ध्यान
देते हैं विचार
पर उतना ही वह
जीवंत हो जाता
है। जितना
हमारा ध्यान
हट जाता है
उतना ही वह
मुर्दा हो
जाता है। अगर
ध्यान बिलकुल
हट जाए, विचार
निर्जीव हो
जाते हैं, मर
जाते हैं, उसी
समय समाप्त हो
जाते हैं।
तो
इसे,
जो मैं कह
रहा हूं कि
सुनने पर सारे
ध्यान को जाने
दें। पाजिटिवली,
विधायक रूप
से यह खयाल
करें कि एक
चिड़िया की छोटी
सी आवाज भी
मेरे बिना
सुने न व्यतीत
हो जाए, न
निकल जाए। सब
सुन लूं मैं।
इंटिग्रेटेड
चारों तरफ जो
हो रहा है, वह
मुझे सुनाई
में आ जाए। तो
आप अचानक
पाएंगे कि मन
एक गहरी शांति
में उतरता जा
रहा है, विचार
क्षीण होते
चले जाएंगे।
एक
ही काम करना
है,
शरीर को
शिथिल छोड़ कर
बैठ जाना है।
कल मैंने आपको
कहा था कि
मस्तिष्क को
पहले जोर से खींचें।
शायद वह आपकी
समझ में नहीं
आया, उसे
फिकर छोड़ दें,
उसको मत खींचें।
कोई जरूरी
नहीं है।
क्योंकि उसी
में परेशान हो
जाएंगे आप तो
पीछे और गड़बड़
होगी, उसे
छोड़ दें।
कोई, वह
कोई ध्यान का
हिस्सा नहीं
था। वह तो
सिर्फ मैंने
इसलिए आपको
कहा था कि
आपको यह खयाल
में आ सके कि
खिंचा हुआ
मस्तिष्क
क्या है और
शिथिल
मस्तिष्क
क्या है। उसकी
कोई फिकर करने
की बहुत जरूरत
नहीं है, उसे
छोड़ दें।
शिथिल छोड़े, मन को शांत
छोड़ दें। सिर
के जितने भी
स्नायु खिंचे
हुए हों, सिर
की जो भी नसें
खिंची हुई हों
उनको रिलैक्स
छोड़ दें, उनको
ढीला छोड़ दें।
सवाल ढीला
छोड़ने का है।
सवाल यह नहीं
है कि आप उसको
खींचने की कला
सीखें।
खींचने की कला
फनी है। वह
मैंने सिर्फ
इसलिए कहा था
कि आपको दोनों
कंट्रास्ट
समझ में आ
जाएं कि खिंचा
हुआ यह है और
ढीला यह है।
जो नहीं समझ
में आता है
उसको छोड़ दें
फिलहाल।
शिथिल ही छोड़े
सीधा।
......तो सब लोग
थोड़े एक—दूसरे
पर फासले पर
बैठ जाएंगे।
एक—दूसरे को
कोई छूता हुआ
न हो। यह आगे
की जगह का
उपयोग कर लें।
इधर ऊपर आ
जाएं, इधर
पीछे चले जाएं।
लेकिन कोई
किसी को छूता
हुआ न हो।
शरीर
को बिलकुल
आराम से ढीला
छोड़ दें और
फिर आख
आहिस्ता से
बंद कर लें।
आख इतने धीमे
से बंद करनी
है कि आख पर
कोई भार न पड़े।
भींच नहीं
लेनी है आख कि
उस पर भार पड़
जाए। आख के
स्नायुओं का
संबंध
मस्तिष्क से
बहुत ज्यादा
है,
इसलिए बहुत
ढीला छोड़ दें।
जैसे छोटे से
बच्चे अपनी
पलक बंद कर
लेते हैं, ऐसा
पलक को गिरा
दें। पलक को
धीरे से गिर
जाने दें
शिथिल। फिर
सिर के सारे
तंतुओं को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। जैसे
एक छोटे से
बच्चे का
चेहरा होता है
बिलकुल शिथिल,
कोई चीज
खिंची हुई नहीं
है। बिलकुल
ढीला, रिलैक्स
छोड़ दें। शरीर
को भी ढीला
छोड़ दें। जैसे
ही आप सब ढीला
छोड़ देंगे, श्वास अपने
आप ढीली हो
जाएगी, शांत
हो जाएगी।
फिर
अब एक ही काम
करें कि चारों
तरफ जो आवाजें
हो रही हैं
उन्हें
चुपचाप सुनते
रहें। कोई कौआ
बोलेगा, कोई
पक्षी आवाज
करेगा, कोई
बच्चा रास्ते
पर बोलेगा।
चुपचाप सुनते
रहें, सुनते
रहें, सुनते
रहें और भीतर
सब शांत होता
जाएगा।
सुनें......दस
मिनट के लिए
चुपचाप सुनते
रहें......सारा
ध्यान सुनने
पर फैल जाए।
बस सुन रहे
हैं और कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं। सुनें, पक्षी
बोल रहे हैं, हवाएं वृक्षों को हिलाकी, और कोई आवाज
होगी, चुपचाप
सुनते रहें।
सुनते—सुनते
ही भीतर एक
शांति का तार
शुरू हो जाएगा।
मन
शांत हो रहा
है......सुनते
रहें, सुनते
रहें......मन शांत
होता जा रहा
है. मन शांत
होता जा रहा
है......मन शांत
होता जा रहा
है......मन शांत
होता जा रहा
है......मन बिलकुल
शांत होता जा
रहा है...। एक
गहरा सन्नाटा
भीतर मालूम
होगा। सुनते
रहें, आप
सिर्फ सुनते
रहें......सुनते—सुनते
मन शांत होता
जाएगा...।
मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है......मन
शांत होता जा
रहा है...।
सुनते रहें, सुनते
रहें......मन
बिलकुल
सन्नाटे में
उतर जाएगा। मन
शांत हो रहा
है...... मन शांत हो
गया है......मन
बिलकुल शांत
हो गया है...।
धीरे—
धीरे दों—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
बहुत शांति
आती हुई मालूम
होगी। धीरे—
धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें। फिर बहुत
आहिस्ता से, धीरे
से आख खोलें।
जैसी शांति
भीतर है वैसी
ही बाहर भी
प्रतीत होगी।
धीरे— धीरे आख
खोलें।
इस
प्रयोग को
दोपहर में
कहीं किसी
वृक्ष के नीचे
अकेले में
जाकर करें।
यहां तो हम
सिर्फ समझने
को कर रहे हैं।
आप अकेले में
करेंगे तो ही
परिणाम होगा।
सुबह की
बैठक समाप्त
हुई।
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