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सोमवार, 10 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--03)

मन का रूपांतरण—(प्रवचन—तीसरा)

      प्‍यारे ओशो!
            मन एव मनुष्‍यावां कारणं बंधमोक्षयों:।
            बन्‍धाय विषयासक्‍तं मुक्‍त्यै निर्विषयं स्‍मृतम्।।
     
अर्थात मन ही मनुष्‍यों के बंधन और मोक्ष का कारण है।
      जो मन विषयों में आसक्‍त होगा, वह बंधन तथा जो विषयों से
            पराड्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।
शाट्यायनीय उपनिषाद का यह सूत्र काफी प्रचलित है।
      इस उपनिषाद के अतिरिक्‍त अनेक अन्‍य शास्‍त्रों में भी
            इसे स्‍थान मिला हुआ है।
            प्‍यारे ओशो! क्‍या हमारे लिए
            इस सूत्र की व्‍याख्‍या करने की कृपा करेंगे?

चिदानंद! यह सूत्र तो मूल्यवान है, लेकिन. नासमझों के हाथ में पडकर मूल्यवान से मूल्यवान चीज दो कौड़ी की हो जाती है। कोहनूर भी पत्थर हो जाता है। उपनिषद् के ये अमृत वचन जिनके हाथों में पड़े उन्होंने जहर कर दिया। सारी बात ही उलटी हो गयी। कुछ का कुछ हो गया। यह पूरा देश उसी पीड़ा में सड़ रहा है।

उपनिषद् तो बुद्धपुरुषों के प्राणों से निकले हुए स्वर हैं। यह तो जब वीणा बजी है अनाहत की तब ऐसा अपूर्व संगीत पैदा हुआ है। लेकिन फिर पंडित जब व्याख्या करते हैं तो कमल को कीचड़ में घसीट डालते हैं। कमल यूं तो कीचड़ से ही पैदा होता है, लेकिन कमल कीचड़ ही नहीं है, कीचड़ का अतिक्रमण है। कीचड़ के भीतर जो कीचड़ नहीं है उसकी अभिव्यक्ति है। लेकिन फिर उसे कीचड़ में लथेड़ देना सुंदर को असुंदर कर देना है, सत्य को असत्य कर देना है। व्याख्याओं ने सत्यों को उभारा नहीं है, निखारा नहीं है, उन पर धार न दी, व्याख्याओं के कारण सत्य की तलवार चमकी नहीं, उस पर और धूल जमी, और जंग जमी।
ऐसा ही इस सूत्र के साथ भी हुआ। इस सूत्र का मौलिक अर्थ बहुत सरल और सीधा है। व्याख्या की जैसे कोई जरूरत ही नहीं है। मनुष्य शब्द भी इस बात को इंगित करता है कि मन ही सब कुछ है। मनुष्य शब्द ही मन से बना है। यूं तो दुनिया में मनुष्य के लिए अलग—अलग भाषाओं में बहुत से शब्द हैं। जैसे उर्दू में आदमी। वह भी प्यारा शब्द है। मगर वह कीचड़ की खबर देता है, कमल की नहीं। आदमी शब्द बनता है मिट्टी से। जो मिट्टी से बनाया गया, ऐसा आदमी का अर्थ है।
यहूदियों में, ईसाइयों में, मुसलमानों में यह कहानी है कि परमात्मा ने मिट्टी का पुतला बनाया और उसमें सांसें फूंक दीं, ऐसे पहले आदमी का, आदम का जन्म हुआ। आदम का अर्थ है मिट्टी का पुतला। सच है यह बात, लेकिन बहुत अधूरी—अधूरी। यह केवल मनुष्य का बाहरी रूप है। निश्चित ही मिट्टी है आदमी, लेकिन मिट्टी से ज्यादा भी है। हमारा शब्द 'मनुष्य' उस ज्यादा की खबर देता है। मिट्टी है, मगर मिट्टी ही नहीं। मिट्टीमय है, मगर मिट्टी से भिन्न भी है। मनुष्य मन है।
अंग्रेजी का शब्द 'मैन' मन का ही रूपांतरण है। वह मनुष्य का ही भिन्न रूप है। दोनों का उद्गम एक ही सूत्र से हुआ है : मन
मन का अर्थ होता है : मनन की प्रक्रिया, मनन की क्षमता, सोच—विचार की संभावना। मिट्टी तो क्या खाक सोचेगी! मिट्टी तो सोचना भी चाहे तो क्या सोचेगी? कौन है जो मनुष्य के भीतर सोचता और विचारता? कौन है जो मनुष्य के भीतर मनन बनता है? वह चैतन्य है। इसलिए मन सिर्फ मिट्टी से ज्यादा नहीं है और भी कुछ है; मिट्टी के जो पार है रु उसके भी जो पार है, उसकी तरफ इंगित है, इशारा है। मनन की प्रक्रिया तो चैतन्य की संभावना है। चैतन्य हो तो ही मनन हो सकता है। इसलिए कोमा में विक्षिप्त पड़े हुए मनुष्य को मनुष्य नहीं कहना चाहिए। वहा तो मनन की क्रिया ही नहीं हो रही है, मनन की क्रिया ही समाप्त हो गयी है। वहां तो मिट्टी का आकाश से संबंध टूटा—टूटा है, उखड़ा—उखड़ा है—बीच की सीढ़ी ही गिर गयी है।
तो मन है सीढ़ी। एक छोर लगा है मिट्टी से और दूसरा छोर छू रहा है अमृत को। सीढ़ी एक ही है। जिस सीढ़ी से तुम नीचे आते हो, उसी से ऊपर भी जाते हो। ऊपर और नीचे आने के लिए दो सीढ़ियों की जरूरत नहीं होती। सिर्फ दिशा बदल जाती है। यूं भी हो सकता है कि तुम सीढ़ी पर चढ़ते हुए आधी यात्रा पूरी कर लिये हो और एक सोपान पर खड़े हो, और दूसरा आदमी सीढ़ी से उतर रहा है, वह भी उसी सोपान पर खड़ा है; दोनों एक ही सोपान पर हैं—एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है—एक ही सोपान पर हैं फिर भी बहुत भिन्न हैं। क्योंकि एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है। एक ही जगह हैं, मगर उनका एक ही कोटि में स्थान नहीं बनाया जा सकता। एक उतर रहा है, गिर रहा है, एक चढ़ रहा है, ऊर्ध्वगामी हो रहा है।
मन तो सीढी है। अगर विषयों से आसक्त हो जाए तो उतरना शुरू हो जाता है। विषय अर्थात पृथ्वी, मिट्टी। और अगर विषयों से अनासक्त हो जाए तो चढ़ना शुरू हो जाता है। सीढ़ी वही है। जो विषयों में जीता है, वह तेज—रोज नीचे की तरफ ढलान पर खिसलता जाता, फिसलता जाता।
और ध्यान रहे, खिसलना आसान है, फिसलना आसान है। उतार हमेशा आसान होते हैं। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण ही खींच लेता है, तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। चढ़ाव कठिन होते हैं। जैसे कोई गौरीशंकर पर चढ़ रहा हो। जैसे—जैसे ऊंचाई पर पहुंचता है वैसे—वैसे कठिनाई होती है। तब छोटा—सा भार भी बहुत भार मालूम होता है। एक छोटा—सा झोला भी कंधे पर लटकाकर चढ़ना मुश्किल होने लगता है। तो जैसे—जैसे यात्री ऊपर पहुंचता है वैसे—वैसे वजन उसे छोड़ने पड़ते हैं। वही अनासक्ति है—वजन छोड़ना। जमीन पर चल रहे हो तो ढोओं जितना ढोना हो; लदे रहो गधों की भांति, कोई चिंता की बात नहीं, लेकिन अगर चढ़ना है पहाड़, तो फिर छाटना होगा, फिर असार को छोड़ना होगा और ऐसी भी घड़ी आएगी जब सब छोड़ना होगा। अंतिम शिखर पर जब पहुंचोगे तो सब छोड़कर ही पहुंचोगे।
सीढ़ी वही है। एक में बोझ बढ़ता जाता है, एक में निबोंझ बढ़ता जाता है। एक में विषय बढ़ते जाते हैं, एक में घटते जाते हैं। एक में विचारों का जाल फैलता जाता है, एक में क्षीण होता चला जाता है।
इसलिए यह सूत्र ठीक कहता है कि मन ही कारण है संसार का और मन ही कारण है मोक्ष का—मन ही बांधता है, मन ही मुक्त करता है। आदमी प्रज्ञावान हो तो मन से ही रास्ता खोज लेता है अ—मन का। अ—मन शब्द बड़ा प्यारा है। नानक ने इसका बहुत उपयोग किया है—कबीर ने भी। समाधि को अ—मनी दशा कहा है। उर्दू और उर्दू से संबंधित भाषाओं में अमन का अर्थ होता है : शाति। वह भी प्यारी बात है! क्योंकि जैसे—जैसे ही मन से तुम पार जाने लगोगे, अ—मन होने लगोगे, वैसे—वैसे जीवन में शांति की फुहार, बरखा होने लगेगी। फूल खिलेंगे मौन के। आनंद के स्वर फूटेंगे। जीवन के झरने बहेंगे।
इस सूत्र को अब समझने की कोशिश करो —
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो::।
'मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है।लेकिन न—मालूम ऐसे अद्भुत सूत्र जिनके हाथ में थे कैसी उन्हें विक्षिप्तता पैदा हुई, कैसा पागलपन पैदा हुआ कि मन को तो न छोड़ा, घर को छोड़ा, दुकान को छोड़ा, बच्चे छोड़े, पत्नियां छोडी, जंगलों की तरफ भागे! मगर मन तो तुम्हारे साथ ही जाएगा, तुम जहां भी जाओ; मन तो भीतर है। मन था बंधन का कारण, उसे छोड़ा नहीं। कारण तो छोड़ा नहीं, कारण तो साथ ही ले गये, जहर के बीज को सम्हालकर ले गये। और संसार का सारा विस्तार तो उन्हीं बीजों से पैदा हुआ था, उसको छोड़कर भागे! बीज जहां रहेंगे, फिर विस्तार हो जाएगा। फिर वही उलझन खडी हो जाएगी। फिर—फिर होगी उलझन। मेरा मकान था, 'मेरा' मकान से जुड़ा था, फिर मेरी कुटी हो जाएगी, फिर 'मेरा' कुटी से जुड़ जाएगा। मेरा साम्राज्य था, ममत्व साम्राज्य से बंधा था, छोड़ दो साम्राज्य, ममत्व को कुछ भेद नहीं पड़ता, लंगोटी से बंध जाएगा—मेरी लंगोटी, मेरा मंदिर, मेरा शास्त्र, मेरा धर्म। आदमी इतना अद्भुत है और इतना अंधा कि जिनको तुम धार्मिक कहते हो उनका भी दावा है : मेरा धर्म; मैं हिन्दू हूं मैं जैन हूं मैं मुसलमान हूं मैं ईसाई हूं। धार्मिक आदमी का 'मेरा' हो सकता है! और जहां मेरा—तेरा है वहां कैसा धर्म! वहां तो धर्म की कोई संभावना नहीं है। वही तो अधर्म है। मेरा शास्त्र! सब छोड़ देते हैं लोग...।
एक जैन मुनि से, देशभूषण महाराज से मेरा मिलना हुआ। मिलना चाहते थे, तो मैंने कहा कि जरूर। नग्न हैं, दिगम्बर हैं, सब छोड़ दिया। मुझसे बोले कि आप गीता पर बोले, आप उपनिषद् पर बोले, आप धम्मपद पर बोले, लेकिन कुंदकुंद के 'समयसार' पर क्यों नहीं बोले? उमास्वाति के 'तत्वार्थ —सूत्र' पर क्यों नहीं बोले? अरे, अपने शास्त्रों पर क्यों नहीं बोलते हो? मैंने उनसे पूछा : अपने और पराये! आप तो सब छोड़ आये, वस्त्र भी छोड दिये, और अभी भी अपना—पराया मौजूद है! अभी गीता परायी! अभी धम्मपद पराया। अभी कुंदकुंद का 'समयसार' अपना है! अभी उमास्वाति का 'तत्वार्थ —सूत्र' अपना है! वही मेरा, वही तेरा। दुकानों में बंटा था, अब मंदिरों में बंटा। बही—खातों में बंटा था, अब शास्त्रों में बंटा। मगर शास्त्र सिवाय बही—खाते के और क्या हैं? ऐसे आदमियों के हाथ में शास्त्र भी बही—खाते ही हैं।
आदमी आश्चर्यचकित कर देता है, अगर उसके संबंध में सोचो! पत्ते छांटता रहता है, जड़ें नहीं काटता। और पत्ते छांटने से कहीं कोई क्रांति होनेवाली है! जड़ें काटनी होंगी। जड है मन।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो::।
कुछ मत छोड़ो, कहीं भागो मत। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं : जहां हो वहीं जागो। भागने वाले जाग नहीं पाते। भागने वाले तो भयभीत हैं, कायर हैं। मगर हम कायरों को भी बड़े प्यारे नाम दे देते हैं, उनको कहते हैं —रणछोडूदासजी! रण छोड़ भागे..!
मेरे गांव में एक मंदिर था—रणछोड़दासजी का मंदिर। मैंने उस गांव के पुजारी को जाकर कहा कि देख, इस मंदिर का नाम बदल! उसने कहा, क्यों? नाम कैसा प्यारा है : रणछोडूदासजी! मैंने कहा, तूने कभी सोचा भी कि रणछोड़दासजी का मतलब क्या हुआ? भगोड़े! जिन्होंने पीठ दिखा दी जीवन को। वह थोड़ा चौंका, उसने कहा कि तुझे भी उलटी—सीधी बातें सूझती हैं! मुझे जिन्दगी हो गयी पूजा करते इस मंदिर में, मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि रणछोड़दासजी का यह मतलब होता है! बात तो तेरी ठीक, मगर अब तो दूर—दूर तक इस मंदिर की ख्याति है : रणछोड्दासजी का मंदिर। नाम बदला नहीं जा सकता है। मगर तूने एक अड़चन मेरे लिए पैदा कर दी। यह शब्द तो गलत है। कोई अगर युद्ध के क्षेत्र से पीठ दिखा दे, तो हम कायर कहते हैं उसे, और जीवन के संघर्ष से पीठ दिखा दे तो उसको हम महात्मा कहते हैं! कैसा बेईमानी का गणित है!
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके संन्यासी कैसे हैं, क्योंकि न घर छोड़ते, न द्वार छोड़ते, न दुकान छोड़ते, न बाजार छोड़ते! मैं उनसे कहता हूं : मेरे संन्यासी ही संन्यासी हैं। क्योंकि छोड़ना है मन—और कुछ भी नहीं छोड़ना है। काटनी हैं जडें—मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो: :। और क्या सिर पटकते रहते हो उपनिषदों पर, कुछ भी तुम्हारी समझ में नहीं आया। अब यह उपनिषद् सीधा—सीधा कह रहा है कि मन है कारण, पत्नी कारण नहीं है। पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, कुछ भी न होगा। फिर कहीं किसी और को पत्नी बनाकर बैठ जाओगे। न होगी पत्नी, शिष्या होगी, सेविका होगी—नाम कुछ भी रख लेना मगर वही मन और वही जाल। लेबिल बदल जाएंगे मगर भीतर जो भरा है सो भरा है।
क्या—क्या तरकीबें निकाली हैं लोगों ने!
हिन्दू शास्त्रों में जिस भांति आदमी को पकडने की कोशिश की है ब्राह्मण पंडितों ने, पुरोहितों ने, महात्माओं ने, उस भांति दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं हुआ। यहूदी भी पकड़ते हैं, मुसलमान भी पकड़ते हैं, ईसाई भी पकड़ते हैं, मगर जरा देर—अबेर करते हैं, मगर हिन्दू तो गजब कर दिये! यहूदियों के बच्चे पैदा हुए कि उनको फिक्र पड़ती है. खतना करवाओ। जल्दी खतना करवाओ! बड़ा हो जाए, इनकार करने लगे कि नहीं करवाऊंगा, झंझट खड़ी करे, तो छोटे बच्चे का खतना कर देते हैं। बना दिया यहूदी उसको। ईसाई हो तो बप्तिस्मा करवाओ। लेकिन हिन्दुओं ने सबको मात कर दिया। कारण भी साफ है। सबसे पुरानी पंडितों की, पुरोहितों की परंपरा है। ये आदमी को पकड़ते हैं बिलकुल प्रथम से और अंत तक नहीं छोड़ते—अंत के बाद भी नहीं छोड़ते। जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों की व्यवस्था कर रखी है। आदमी मरेगा तो अंतिम संस्कार। और मर गया उसके बाद भी उसके बच्चों को सताके। पितृपक्ष आएगा, जो मर गये हैं पुरखे, उनके नाम से श्राद्ध करवाएंगे, तर्पण करवाएंगे। मर गये उनका भी, अभी शोषण उनके नाम पर भी जारी है।
और तुम जानकर चकित होओगे कि यह संस्कारों की यात्रा शुरू कब होती है? हिन्दू धर्म में शुरू होती है गर्भाधारण से। सब धर्मों को मात कर दिया! बच्चे का जब गर्भाधारण होता है तबसे संस्कार की विधि।
पहली विधि है. गर्भाधारण विधि, गर्भाधारण संस्कार।
और तुम अगर गर्भाधारण संस्कार को पूरा समझोगे तो बड़े हैरान होओगे कि क्या—क्या बेईमानिया! जब पति और पत्नी संभोग करें तो चार ब्राह्मण महात्मा चारों दिशाओं में खड़े रहें। देखी जालसाजी? अश्लीलता का विरोध करेंगे; नग्न स्त्री का चित्र भी मत देखना; अरे, स्त्री का ही चित्र मत देखना; स्त्रियों का स्मरण ही मत करना, अनुभव में आयी हुई पुरानी स्त्रियों को बिलकुल विस्मृत कर देना, भूलकर भी याद न करना—और ये महात्मा क्या कर रहे हैं? ये ऋषि—मुनि क्या कर रहे हैं? धर्म की आड़ में यह क्या खेल चल रहा है?
अभी—अभी पश्चिम के बड़े—बड़े होटलों में यह खेल शुरू हुआ है, मगर कम से कम ईमानदारी से भरा हुआ है; कम से कम इतनी बेईमानी तो नहीं, धर्म की आड़ तो नहीं। पश्चिम के बड़े होटलों में यह व्यवस्था है कि छोटी—छोटी खिड़कियां उन्होंने बना रखी हैं, जिनमें ऐसे काच लगे हैं कि भीतर से बाहर दिखायी नहीं पड़ता, बाहर से भीतर दिखायी पड़ता है। तो अंदर तो स्त्री—पुरुष संभोग कर रहे हैं और खिड़कियों पर भी टिकट खरीदकर लोग बैठे हुए हैं। वे खिड़कियों से देख रहे हैं स्त्री—पुरुष को संभोग करते हुए। इनको तुम अश्लील कहोगे। इनको तुम कहोगे, भौतिकवादी। मगर तुम्हारे महात्माओं ने इनको भी मात कर दिया। क्या गजब के लोग थे, क्या तरकीब निकाली! स्त्री—पुरुष संभोग करें, चार महात्मा चारों दिशाओं में खड़े हों और महात्माओं के हिसाब से संभोग चलेगा। महात्मा मंत्र पड़ेंगे, स्त्री के एक—एक अंग को छूकर वह मंत्र पड़ेंगे, और मंत्रों के हिसाब से संभोग चलेगा। यह तो जालसाजी हुई। अरे, तुम्हें किसी स्त्री को नग्न देखना था तो देख लेते, कौन मना करता था, मगर यूं धर्म का आडंबर क्यों खड़ा करना! भाग गये संसार को छोड़कर, महात्मा बनकर बैठे हो और अब संसार को पीछे के रास्ते से वापिस ला रहे हो। कम से कम इतनी ईमानदारी तो होनी चाहिए कि अपने जीवन को जैसा है वैसा स्वीकार करो। भगोड़ों के जीवन में यह बातें आ जाएंगी। अब उस स्त्री की क्या दशा होती होगी, यह भी तो सोचो! उस पर मंत्र—तंत्र पढ़े जा रहे हैं, यज्ञ—हवन किया जा रहा है!
और दयानंद ने तो और गजब कर दिया! उन्होंने उसमें यज्ञ—हवन भी जोड़ दिया। मूल विधि में तो यज्ञ—हवन नहीं था। आहुति भी चढ़ायी जा रही है, धुआं भी पैदा किया जा रहा है, घी और गेहूं और चावल फेंके जा रहे हैं और मंत्र पढ़े जा रहे हैं—और बेचारी गरीब स्त्री नग्न पड़ी है, और नग्न उनके पतिदेव खडे हैं, क्या दृश्य उपस्थित किया। और संसार को छोड़कर आ गये हैं। मगर संसार ने नहीं छोड़ा है इन्हें। संसार पीछे के रास्ते से वापिस आ रहा है।
मैं संसार के छोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। मन को: ही रूपांतरित करना है। और तुम्हारे सूत्र साफ कह रहे हैं कि मन कारण है। काश, हमने यह समझा होता और मन को ही कारण समझकर रूपांतरित किया होता, तो आज इस देश की ऐसी दुर्गति न होती। यह इतना पाखंडी न होता जितना यह पाखंडी है। शायद पृथ्वी पर कोई ऐसा पाखंड नहीं है जैसा हमारे देश में है। धन का विरोध करेगे—और सारे शास्त्र समझा रहे हैं कि धन का दान करो; दान ही पुण्य है, दान ही धर्म है। और धन है पाप! पाप से कैसे पुण्य हो जाता है, यह भी बडे आश्चर्य की बात है!
फिर हिन्दू कहते हैं कि दान देना तो ब्राह्मण को। क्या ब्राह्मण से पाप करवाना है? और जैन कहते हैं कि दान देना तो जैन ऋषि—मुनियों को। और बौद्ध कहते हैं, दान देना तो बौद्ध भिक्षुओं को। और धन को तीनों कहते हैं पाप। और पाप के लिए ही दान मांग रहे हैं। और इसकी भी वर्जना करते हैं कि दूसरों को दान मत देना, क्योंकि वह दान व्यर्थ जाएगा। धन है पाप तो एक बात तो यह है कि अगर धन पाप है तो ब्राह्मण को पाप करने का उपाय मत देना— भूलकर मत देना। भ्रष्ट करना है ब्राह्मणों को! मगर हम भी अंधे हैं। धन को पाप भी मानते हैं और धन को दान भी करते हैं—और दान को पुण्य मानते हैं। अब पाप से पुण्य को निकाल रहे हैं। जालसाजी कर रहे हो। षड्यंत्र रच रहे हो। इसलिए इस देश में... सबसे ज्यादा धनलोलुप हम हैं, सबसे ज्यादा कामलोलुप हम हैं। खजुराहो और कोणार्क जैसे मंदिर हमने बनाये, दुनिया में किसी जाति ने नहीं बनाये। और हमारे शास्त्रों में पंडितों ने इस तरह की अश्लील कहानियां लिखी हैं कि कोई फिल्म इतनी अश्लील न बनी है, न बन सकती है। मगर धर्म के नाम पर चलती हो बात तो अंगीकार है, तो स्वीकार है।
हमने धर्म के नाम पर वेश्यावृत्ति चलायी, देवदासिया बनायीं। देवदासी हो गयी—करेगी वेश्यागिरी, लेकिन मंदिर में करेगी अब। मंदिर को भी वेश्यालय बना दिया। और अब यह काम पुण्य का हो गया। अब इसमें कुछ पाप न रहा। हम पापों को पुण्यों में बदलने में बड़े होशियार हैं।
मगर इस सबके पीछे जाल का, इस सारे उपद्रव का कारण क्या है? कारण यह है कि हम ठीक—ठीक समझ नहीं पाये। जिन्होंने जाना उन्होंने कुछ और कहा और जिन्होंने हमें समझाया उन्होंने कुछ और कहा। इस सूत्र के अनुवाद में भी, चिदानंद, तुम खयाल करो तो तुम्हें पता चल जाएगा कि कहां से भ्रांतिया घुस जाती हैं। सूत्र का अनुवाद है : 'मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। जो मन विषयों में आसक्त होगा, वह बंधन का और जो विषयों से पराङ्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।यह पराङ्मुख कहां से आ गया? मूल सूत्र में कहीं भी नहीं है। मूल सूत्र है.
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो::।
संस्कृत जानना भी जरूरी नहीं... मैं तो संस्कृत जानता नहीं.. 'मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण मन है।
बन्धाय विषयासक्तं.......
'विषय में आसक्त रहना बंधन है।
मुक्ले निर्विषय स्मृतम्।
'और जब तुम्हारी स्मृति विषय से मुक्त हो जाए, शून्य हो जाए, तो मोक्ष।
इसमें पराङ्मुख होना कहां से आया? पराङ्मुख में तो भगोडापन आ जाएगा। वही रणछोड़दासजी! पराङ्मुख यानी पीठ कर दो, भाग जाओ, पीठ दिखा दो, मुंह फेर लो! इस तरह की गलत व्याख्या का परिणाम यह हुआ कि इस देश में लाखों स्त्रियां पतियों के होते विधवा हो गयीं। क्योंकि वे पराङ्मुख हो गये। और इसका विरोध भी न कर सकीं, क्योंकि यह सब धर्म के नाम पर हो रहा था। उन्हीं पतियों के चरण भी छुये उन्होंने, क्योंकि वे महात्मा हो गये थे अब। हालांकि उनको दयनीय कर गये थे, उनको भिखमंगा कर गये थे, उनका महात्मापन महंगा पड़ा था स्त्रियों के लिए। अब उनकी स्त्रियां या तो भीख मांगेंगी या आटा पीसेंगी या वेश्यागिरी करेंगी। क्या होगा? उनके बच्चे अनाथ हो गये। भिखारी होंगे, चोरी करेंगे, लुटेरे बनेंगे—पता नहीं क्या होगा? करोड़ों—करोड़ों लोगों का जीवन विषाक्त हुआ है पराङ्मुखता के कारण। और सूत्र में कहीं पराङ्मुखता नहीं है। सूत्र तो बड़ा सीधा—साफ है।
निर्विषय चित्त—जिस चित्त में विषयों की तरंगें नहीं उठती हैं। और विषयासक्तं का भी अर्थ हमने गलत किया। विषय में आसक्ति का यह अर्थ नहीं होता कि विषय से भाग जाओ। क्योंकि भागने से आसक्ति नहीं मिटेगी। अगर ऐसा होता तो गरीबों को महलों में कोई आसक्ति न होती। अगर ऐसा होता तो गरीबों को धन में कोई आसक्ति न होती। अगर ऐसा होता तो दीन—दरिद्र धन्य भागी थे! अभागे थे वे जो दीन—दरिद्र नहीं हैं।
मगर सच्चाई उलटी है। सचाई यह है कि धन के अनुभव से आदमी की आसक्ति छूटती है। और विषय के अनुभव से विषय से मुक्ति होती है। क्योंकि अनुभव कर—करके पाया जाता है. कुछ भी तो नहीं, हाथ कुछ भी तो नहीं लगता। हाथ खाली के खाली रह जाते हैं—वही झोली, खाली की खाली। विषय के अनुभव से आदमी अपने—आप निर्विषय होता है। सिर्फ जागरूकता से विषय का अनुभव करना है। बस जागरूकता की शर्त जुड़ जाए तो तुम निर्विषय हो जाओगे। जागरूकता का एक सूत्र समझ लो तो विचार से निर्विचार हो जाओगे, मन से अ—मन हो जाओगे।

राजे—उल्फत छुपाके देख लिया
दिल बहुत कुछ जलाके देख लिया
राजे—उल्फत छुपाके देख लिया
और क्या देखने को बाकी है
आपसे दिल लगाके देख लिया
राजे—उल्फत छुपाके देख लिया
वो मेरे होके भी मेरे न हुए
उनको अपना बनाके देख लिया
राजे उल्फत छुपाके देख लिया
'फैज' तकमील हम भी हो न सके
इश्क को आजमाके देख लिया
राजे—उल्फत छुपाके देख लिया।
दिल बहुत जलाके देख लिया।

 कोई कभी तकमील नहीं हुआ।
फैज' तकमील हम भी हो न सके
इस जगत में कोई भी संतुष्ट कभी हुआ है! कभी कोई तकमील हुआ है! कोई कभी पूर्णता को उपलब्ध हुआ है!

      'फैज' तकमील हम भी हो न सके
इश्क को भी आजमाकर देख लिया!
इस जगत के सारे प्यार, सारी प्रीतिया, सारे लगाव, सारी आसक्तिया अनुभव करना जरूरी हैं। अनुभव के सिवाय और कोई मुक्ति नहीं है। मन की पीड़ा से गुजरना ही होगा। मन के विषाद को सहना ही होगा। मन की हार को अनुभव करना ही होगा। कोई सस्ता रास्ता नहीं है। और भगोड़े सस्ता रास्ता खोज लेते हैं। वे अनुभव से वंचित रह जाएंगे। और जो अनुभव से वंचित रह जाएगा, वह मुक्त नहीं हो सकेगा। उसके भीतर वासना दबी ही रह जाएगी। और दबी हुई वासना और भी खतरनाक है; क्योंकि उभरेगी, बार—बार उभरेगी, फिर—फिर उभरेगी। तुम दबाओगे और उभरेगी। इधर से दबाओगे, उधर से उभरेगी। एक दरवाजा बंद करोगे, दूसरा दरवाजा खोलेगी। और हर दरवाजा पहले दरवाजे से ज्यादा सूक्ष्म होगा। अच्छा यही है कि वासना को उसके सहज प्राकृतिक रूप में जान लिया जाए, पहचान लिया जाए।
मुक्त हो जाना कठिन नहीं है, वासना से मुक्त हो जाना कठिन नहीं है, लेकिन दमित वासना से मुक्त होना बहुत कठिन है।

      मुझसे पहली—सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरखग़ं है हयात
तेरा गम है तो गमे—दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारा—ओ—शबाब
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर में रूह आ जाये
क्यों न था मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
मुझसे पहली—सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमी अतलशों कमखाब में बुनवाये हुए
जां—ब—जां बिकते हुए कूचा—ओ—बाजार में जिस्म
खाक में लिथरे हुए खून में नहलाये हुए
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्त की राहत के सिवा
मुझसे पहली—सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

 तुम जिन्दगी को अनुभव करो—उसके सारे फूल, उसके सारे कांटे; उसके सारे दिन, उसकी सारी रातें; उसके सारे सुख, उसके सारे दुख। चुनाव नहीं किया जा सकता! कोई यह कहे कि मैं तो फूल ही फूल का अनुभव करूंगा, काटो का नहीं; कि मैं तो दिन ही दिन जीऊंगा, रातें नहीं; कि मैं तो सफलताएं ही भोग्ता, विफलताएं नहीं, तो ऐसा व्यक्ति जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा। ये तो जीवन के दोनों पहलू हैं। यहां हर चीज जो आशा में शुरू होती है, निराशा में परिणत हो जाती है। यहां हर सुबह सांझ होती है। यहां जिन्दगी के सब सुख धीरे— धीरे कड़वे हो जाते हैं और दुख बन जाते हैं। यह सारा अनुभव जरूरी है। यही अनुभव पकाता है। इसी अनुभव की आच में जो पकता है, एक दिन मन से मुक्त हो पाता है। वह पक जाना ही मुक्ति है।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंध मोक्षयो :।
मन है कारण बंध का और मोक्ष का। कच्चा मन बंध का कारण, पक गया मन मोक्ष का कारण।
मगर मन पके कैसे? संसार की आच के सिवाय मन को पकने का और कोई उपाय नहीं है। इसीलिए तो संसार है। इसीलिए तो इस संसार को परमात्मा के द्वारा दी गयी चुनौती समझो। यह परमात्मा के द्वारा दी गयी एक परीक्षा है। यहां सभी बड़ी आशाओं से यात्रा शुरू करते हैं—कुछ बुरा नही—और यहां सभी आज नहीं कल, कल नहीं परसों असफलताओं के गड्डों में गिर जाते हैं।

मुझसे पहली — सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरखग़ं है हयात
तेरा गम है तो गमे—दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहात — ओ—शबाब
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर में रूह आ जाये
क्यों न था मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
मुझसे पहली — सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमों अतलशों कमखाब में बुनवाये हुए
जां —ब—जां बिकते हुए कूचा — ओ—बाजार में जिस्म
खाक में लिथरे हुए खून में नहलाये हुए
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्त की राहत के सिवा
मुझसे पहली — सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
लेकिन मुहब्बत को जानना होगा, पहचानना होगा, जीना होगा, भोगना होगा।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को भोग से भागने को नहीं कहता। भोग में पकने को कहता हूं। भोग में ही योग का फल पकता है। यह विरोधाभास है। लेकिन जिन्दगी के सारे राज विरोधाभासों में हैं। यहां जो भूलें नहीं करता, वह कभी सीखता नहीं। जो भूलों से बचेगा, सीखने से बच जाएगा। अगर सीखना हो तो भूलें करना, डरना नहीं। हां एक ही भूल दुबारा मत करना।
बंधाय विषयासक्तं। विषय में आसक्ति बंधन है।
आसक्ति कैसे छूटेगी? जबरदस्ती न छुड़ा सकोगे। छुड़ा —छुड़ाकर भागोगे, आसक्ति लौट —लौट आएगी। क्योंकि बाहर नहीं है आसक्ति, भीतर है—कैसे छूटेगी! तुम्हें दिखायी पड़ रहा है कि यह हीरा है और तुम भाग खड़े हुए, तो तुम्हारे सपनों में आएगा हीरा। तुम्हें पुकारेगा। तुम्हें खींचेगा। तुम देख ही लो कि यह हीरा नहीं है। किसी और की मत मान लेना। अपने अनुभव के सिवाय और कोई जानना नहीं है—न कभी था, न कभी होगा। तुम इस हीरे को परख ही लो। इस हीरे को उठा ही लो। इसका हार बना ही लो। जब यह तुम्हीं को पत्थर हो जाएगा, तो यूं गिर जाएगा जैसे सूखे पत्ते वृक्षों से गिर जाते हैं। न वृक्ष को छोड़ना पड़ता है, न उन्हें छूटना पड़ता है। और जब इस संसार में जो व्यर्थ है वह सूखे पत्तों की तरह गिर जाता है, तो जो सार्थक है उसके नये अंकुर तुम्हारे भीतर उग आते हैं।
बंधन हमारा अज्ञान है। मगर ज्ञान कैसे हो? अनुभव से ही होगा। ठोकरें खानी होंगी, दर —दर की ठोकरें खानी होंगी; बहुत बार गिरना पड़ेगा, बहुत बार उठना पड़ेगा —उठ —उठकर ही तो तुम सीखोगे चलना। अगर छोटे से बच्चों को तुम्हारे महात्मा मिल जाएं और कहें कि बेटा गिरना मत और बच्चा सोच ले, तय कर ले कि गिरूंगा नहीं, तो फिर घिसटता ही रहेगा जिन्दगी भर, कभी खड़ा नहीं
हो पाएगा। चल ही न पाएगा। क्योंकि गिरने का डर चलने न देगा। जो चलेगा बच्चा, उसको गिरना ही पड़ेगा। वह तो बच्चे सौभाग्य से मां—बाप की सुनते ही नहीं! मां—बाप तो बहुत कहते हैं कि बेटा, सम्हलकर, सम्हलकर, मगर बेटे के भीतर तो प्रकृति की ऊर्जा उफान ले रही है, वह खड़ा होना चाहता है। एक दफा बच्चा खड़ा हो जाता है, दो कदम चल लेता है, कि उसको एकदम पागलपन चढ़ जाता है। चलने ही चलने की धुन रहती है उसको। जरा मौका पाया कि 'चलूं! गिर—गिर पड़ता है, घुटने टूट जाते हैं, लहूलुहान हो जाता है, मगर फिर—फिर उठ आता है। अगर सयाना हो, तो पड़ा ही रह जाए। अगर सयानों की मान ले, तो बचपन में ही का हो जाए। और बचपन में ही का हो जाना दुर्भाग्य है। वैसा ही दुर्भाग्य जैसे कुछ के बुढ़ापे में भी बचकाने रह जाते हैं।
न बच्चों को बूढ़ा होने की जरूरत है, न को बूढ़ा बचकाना रहने की जरूरत है। जिन्दगी में सहज विकास होना चाहिए। एक संतुलन होना चाहिए। सीखो! सीखने का एक ही उपाय है : भूल से मत डरना। आसक्ति को अनुभव करो। कांटें चुभेंगे, यह मैं कहै देता हूं। मगर मेरे कहने से कि काटे चुभेंगे, तुम रुकना मत क्योंकि मेरी बात तुम्हारे किस काम की? तुम्हें कांटे चुभने चाहिए। वह काटे की चुभन तुम्हारे जीवन के पकाव में अनिवार्य है, अपरिहार्य है।
बंधाय विषयासक्तं। विषयों से वे ही बंधे रह जाते हैं जिन्होंने ठीक—ठीक उनका अनुभव नहीं किया। जिन्होंने अनुभव कर लिया, वे तो मुक्त हो जाते हैं।
मुक्लै निर्विषयं स्मृतम्। कौन होता है मुक्त? जिसकी स्मृति से, जिसके अंतस्मरण के लोक से विषयों की खींचतान समाप्त हो जाती है। जिसने धन को भोगा, वह धन से मुक्त हो जाता है। जिसने काम को भोगा, वह काम से मुक्त हो जाता है। मुक्त होने का एक ही उपाय है : जी लो, सारा कडुवा—मीठा अनुभव ले लो।
और समय रहते ले लेना, नहीं तो पीछे बड़ा पछतावा होता है। जब समय था तब ज्ञान की बातों में उलझ गये। और उधार ज्ञान तो उधार ही रहेगा। अब जिसने भी इस सूत्र का हिन्दी में अनुवाद किया, चिदानंद, उसने समझा ही नहीं। उसने बात को बिगाड़ दिया। उसने कह दिया, जो विषयों से पराङ्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा। पराङ्मुख जो होगा, वह तो बंधा ही रह जाएगा। बुरी तरह बंधा रह जाएगा, विकृत हो जाएगा। मोक्ष नहीं मिलेगा। हां विषयों का जो अतिक्रमण करता है, विषयों को जान लेता, पहचान लेता, उसके भीतर ही अब इतनी बात साफ हो जाती है, स्वच्छ हो जाती है कि कुछ भी सार नहीं है। वह चिल्लाता भी नहीं फिरता कि विषय असार हैं। जो अभी चिल्ला रहा है कि विषय असार है, जो दूसरों को समझा रहा है कि सावधान धन से, पद से, सावधान स्त्रियों से, स्त्री नर्क का द्वार है, समझ लेना एक बात पक्की कि अभी यह स्वयं मुक्त नहीं हुआ है। नहीं तो इसे क्या स्त्री नर्क का द्वार दिखायी पड़ेगी?
कहानी मैंने सुनी है कि मीरा जब वृंदावन पहुंची तो वृंदावन में जो कृष्ण का सबसे प्रमुख मंदिर था, उसका जो पुजारी था, उसने तीस वर्षों से किसी स्त्री को नहीं देखा था। वह बाहर नहीं निकलता था और स्त्रियों को मंदिर में आने की मनाही थी। द्वारपाल थे, जो स्त्रियों को रोक देते थे। कैसी अजीब दुनिया है! कृष्ण का भक्त और कृष्ण के मंदिर में स्त्रियों को न घुसने दे! और कृष्ण का जीवन किसी पलायनवादी संन्यासी का जीवन नहीं है, मेरे संन्यासी का जीवन है! सोलह हजार स्त्रियों के बीच यह नृत्य चलता रहा कृष्ण का! अगर नर्क ही जाना है तो कृष्ण जितने गहरे नर्क में गये होंगे, तुम क्या जाओगे! कैसे जाओगे? इतनी सुविधा तुम न जुटा पाओगे। इतनी लंबी सीढ़ी न लगा पाओगे। सोलह हजार पायदान। अरे, एकाध पायदान, दो पायदान बिठाल लिये उतने में तो जिन्दगी उखड़ जाती है! एकाध—दों नर्क के द्वार खोज लिये, उतना ही तो काफी है! उन्हीं दोनो के बीच मैं ऐसी घिसान, ऐसी पिटान हो जाती है! सोलह हजार स्त्रियां!
मगर यह सज्जन जो पुरोहित थे, इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी महात्मा की तरह। प्रतिष्ठा का कुल कारण इतना था कि वे स्त्री को नहीं देखते थे। हम अजीब बातों को आदर देते हैं! हम मूढूताओं को आदर देते हैं। हम रुग्णताओं को आदर देते हैं। हम विक्षिप्तताओं को आदर देते हैं। हमने कभी किसी सृजनात्मक मूल्य को आदर दिया ही नहीं। हमने यह नहीं कहा कि इस महात्मा ने एक सुंदर मूर्ति बनायी थी, कि एक सुंदर गीत रचा था, कि इसने सुंदर वीणा बजायी थी, कि बांसुरी पर आनंद का राग गाया था। नहीं, यह सब कुछ नहीं; इसने स्त्री नहीं देखी तीस साल तक। बहुत गजब का काम किया था!
मीरा आयी। मीरा तो इस तरह के व्यर्थ के आग्रहों को मानती नहीं थी। फक्कड़ थी। वह नाचती हुई वृंदावन के मंदिर में पहुंच गयी। द्वारपालों को सचेत कर दिया गया था, क्योंकि मंदिर का प्रधान बहुत घबड़ाया हुआ था कि मीरा आयी है, गांव में नाच रही है उसके गीत की खबरें आ रही हैं, उसकी मस्ती की खबरें आ रही हैं, कृष्ण की भक्त है, जरूर मंदिर आएगी, तो द्वार पर पहरेदार बढ़ा दिये थे। नंगी तलवारें लिये खड़े थे, कि रोक देना उसे। भीतर प्रवेश करने मत देना। दीवानी है, पागल है, सुनेगी नहीं, जबरदस्ती करनी पड़े तो करना मगर मंदिर में प्रवेश नहीं करने देना।..... यही सज्जन, मालूम होता है स्वामी नारायण संप्रदाय में पैदा हो गये हैं श्री प्रमुख स्वामी के नाम से। यह स्त्रियां नहीं देखते। हवाई जहाज पर चलते हैं तो इनके चारों तरफ एक बुर्का उढ़ा दिया जाता है। क्योंकि एयर होस्टेस वगैरह, उनको देखकर कहीं इनको भ्रम हो जाए कि उर्वशी, मेनका—अप्सराएं आ गयीं, क्या हो रहा है! क्या इन्द्र डर गया श्री प्रमुख स्वामी से? छोटे—मोटे स्वामी नहीं, श्री प्रमुख स्वामी! नाम भी क्या चुना है! यह वही सज्जन मालूम होते हैं।
मीरा नाचती गयी। द्वार पर नाचने लगी, भीड़ लग गयी। नाच ऐसा था, ऐसा रस भरा था कि मस्त हो गये द्वारपाल भी भूल ही गये कि रोकना है। तलवारें तो हाथ में रहीं मगर स्मरण न रहा तलवारों का। और मीरा नाचती हुई भीतर प्रवेश कर गयी। पुजारी पूजा कर रहा था, मीरा को देखकर उसके हाथ से थाल छूट गया पूजा का। झनझनाकर थाल नीचे गिर पड़ा। चिल्लाया क्रोध से—ऐ स्त्री, तू भीतर कैसे आयी? बाहर निकल! मीरा ने जो उत्तर दिया, बड़ा प्यारा है।
मीरा ने कहा, मैंने तो .सुना था कि एक ही पुरुष है—परमात्मा कृष्ण—और हम सब तो उसकी ही सखियां हैं, मगर आज पता चला कि दो पुरुष हैं। एक तुम भी हो। तो तुम सखी नहीं हो! तुम क्या यह शृंगार किये खड़े हो, निकलो बाहर! इस मंदिर का पुरोहित होने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। यह पूजा की थाली अच्छा हुआ तुम्हारे हाथ से गिर गयी। यह पूजा की थाली तुम्हारे हाथ में होनी नहीं चाहिए। तुम्हें अभी स्त्री दिखायी पड़ती है? तीस साल से स्त्री नहीं देखी तो तुम मुझे पहचान कैसे गये कि यह स्त्री है? यूं न देखी हो, सपनों में तो बहुत देखी होंगी! जो दिन में बचते हैं, वे रात में देखते हैं। इधर से बचते हैं तो उधर से देखते हैं। कोई न कोई उपाय खोज लेते हैं। और मीरा ने कहा कि यह जो कृष्ण की मूर्ति है, इसके बगल में ही राधा की मूर्ति है—यह स्त्री नहीं है? और अगर तुम यह कहो कि मूर्ति तो मूर्ति है, तो फिर तुम्हारे कृष्ण की मूर्ति भी बस मूर्ति है, क्यों मूर्खता कर रहे हो? किसलिए यह पूजा का थाल और यह अर्चना और यह धूप—दीप और यह सब उपद्रव, यह सब आडंबर? और अगर कृष्ण की मूर्ति मूर्ति नहीं है, तो फिर यह राधा? राधा पुरुष है? तो मेरे आने में क्या अड़चन हो गयी? मैं सम्हाल लूंगी.....अब इस मंदिर को, तुम रास्ते पर लगो!
मीरा ने ठीक कहा।
जीवन को अगर कोई पलायन करेगा तो परिणाम बुरे होंगे। पराङ्मुख मत होना। जीओ जीवन को, क्योंकि जीने से ही मुक्ति का अपने— आप द्वार खुलता है।
मन एव मनुष्यानां कारण बंधमोक्षयो:।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्ते निर्विषयं स्मृतम्।
चिदानंद, सूत्र तो प्यारा है! सूत्र तो अद्भुत है! बहुत रसभरा है! मगर व्याख्याओं से जरा सावधान रहना! यह अनुवाद तक गलत है। मैं संस्कृत नहीं जानता, याद रहे! लेकिन मैं उपनिषद् जानता हूं। मेरा अपना अनुभव मैं जानता हूं। इसलिए मैं फिक्र नहीं करता भाषा वगैरह की, भाषा से मुझे क्‍या लेना—देना, अगर मेरी अनुभूति के अनुकूल पड़ता है तो ठीक, अगर नहीं अनुकूल पड़े तो गलत! मेरे लिए और दूसरा कोई मापदंड नहीं है। प्रत्येक को अपनी अनुभूर्ति के ही मापदंड पर, अपनी अनुभूति की कसौटी पर ही कसना चाहिए, तभी तुम जीवन में असार को सार से अलग कर पाओगे, नीर— क्षीर—विवेक कर पाओगे। यह सूत्र प्यारा है, मगर व्याख्याओं से सावधान!

'लगन महूरत झूठ सब' प्रवचनमाला से
दिनांक 24 नवंबर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।



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