सूत्र:
लिखा
है कि जो
दिव्यता के
द्वार तक
पहुंच चुका है,
उसके
लिए कोई भी
नियम बनाया
नहीं जा सकता
और न
कोई
पथ—प्रदर्शक
ही उसके लिए
हो सकता है!
फिर भी
शिष्य को
समझाने के लिए
इस
अंतिम युद्ध
का वर्णन इस
प्रकार कर
सकते हैं:
13—जो
मूर्त नहीं है
और अमूर्त भी
नहीं है, उसका
अवलंबन लो।
14—केवल
नाद—रहित वाणी
ही सुनो।
15—जो
बाह्य और अंतर
दोनों
चक्षुओं से
अदृश्य है,
केवल
उसी का दर्शन
करो। तुम्हें
शांति प्राप्त
हो।
प्रभु मंदिर की
यात्रा सत्य
के लिए वैसे
ही कठिन है, उसे कहना
मुश्किल है।
जो अनुभव उस
यात्रा पथ पर
होते हैं, शब्दों
में डालते ही
झूठे हो जाते
हैं। क्योंकि
शब्द बहुत
छोटा है, अनुभव
बहुत विराट
है। जैसे कोई
अपनी मुट्ठी में
आकाश को भरने
की कोशिश करे
और असफल हो
जाए, वैसा
ही सत्य को
शब्द में
ढालने में
असफलता मिलती
है। शून्य से
कहा जा सकता
है, शब्द
से नहीं कहा
जा सकता। मौन
में तो शायद
मुखरित भी हो
सके, लेकिन
वाणी से
अवरुद्ध हो
जाता है। यह
तो यात्रा पथ
की बात है।
लेकिन मंदिर
के द्वार पर
जब खड़ा हो
जाता है साधक,
तब तो शब्द
बिलकुल ही
कठिनाई में
डाल देते हैं।
क्योंकि
मंदिर के
द्वार का अर्थ
है. द्वंद्व
का हुआ अंत!
और
हमारी सारी
भाषा ही
द्वंद्व से
निर्मित है।
हमारी भाषा
में विपरीत का
होना जरूरी
है। अगर हम
अंधेरे का
अर्थ समझ पाते
हैं, तो
सिर्फ इसीलिए
कि प्रकाश है,
नहीं तो
अंधेरे का
अर्थ खो जाए।
अगर कोई अंधेरे
की परिभाषा
पूछे, तो
क्या कहिएगा?
यही कहिएगा
न, कि
प्रकाश का न
होना। अंधेरे
की परिभाषा
में प्रकाश को
लाना पड़े, बड़ी मजबूरी
है! और, और
भी मजबूरी तो
तब पता चलती
है, जब कोई
पूछ ले कि
प्रकाश की
परिभाषा क्या
है? तो आप
को कहना पड़ता
है अंधेरे का
न होना! यह तो
बड़ा जाल हो
गया। अंधेरे
की परिभाषा
में प्रकाश को
लाना पड़ता है।
प्रकाश की
परिभाषा में
अंधेरे को
लाना पड़ता है!
दोनों
एक—दूसरे पर
निर्भर मालूम
पड़ते हैं। और
दोनों अलग—
अलग अस्तित्व
में नहीं हो
सकते, उनकी
परिभाषा तक
नहीं हो सकती।
भाषा
द्वंद्व से
भरी है, क्योंकि
भाषा
द्वंद्व—जगत
के लिए
निर्मित हुई
है। यहां जन्म
का अर्थ
मृत्यु में
छिपा है। उलटी
दिखाई पड़ने
वाली मृत्यु
में जन्म का
सारा अर्थ
छिपा है! यहां
प्रेम का अर्थ
भी घृणा में
छिपा है। और
घृणा अगर
संसार से मिट
जाए, तो
प्रेम मिट
जाए।
मंदिर
के प्रवेश
द्वार पर
द्वंद्व
समाप्त हो जाता
है।
तो
द्वंद्व की
भाषा फिर काम
नहीं आएगी। तो
क्या कहें? परमात्मा
को प्रकाश
कहें, तो
परिभाषा
अंधेरे से
करनी पड़ती है।
और ऐसा परमात्मा
भी क्या जिसकी
परिभाषा के
लिए अंधेरे को
लाना पड़े? फिर
परमात्मा को
क्या कहें? प्रेम कहें,
तो घृणा से
परिभाषा करती
पडती है।
परमात्मा को
शाश्वत कहें,
तो
परिवर्तनशील
से व्याख्या
करनी पड़ती है।
परमात्मा को
स्रष्टा कहें,
तो सृष्टि
से ही संबंध
जोडना पड़ता
है। और जिसका
होना सृष्टि
पर निर्भर है,
वह क्या
स्रष्टा होगा?
विपरीत
जब द्वार पर
गिर जाता है, तो भीतर
के संबंध में
कहने को कुछ
भी बचता नहीं।
इसलिए
यह सूत्र शुरू
होता है, 'लिखा है कि
जो दिव्यता के
द्वार तक
पहुंच चुका है,
उसके लिए
कोई भी नियम
नहीं बनाया जा
सकता और न कोई
पथ—प्रदर्शक
ही उसके लिए
हो सकता है।
फिर भी शिष्य
को समझाने के
लिए इस अंतिम
युद्ध का
वर्णन इस
प्रकार कर सकते
हैं।’
जो
दिव्यता के
द्वार तक
पहुंच चुका, उसके लिए
कोई भी नियम
नहीं बनाया जा
सकता। क्योंकि
नियम तो सभी
संसार के हैं।
मंदिर के बाहर
उनका परिणाम
और प्रभाव है,
मंदिर के
भीतर उनका कोई
प्रयोजन नहीं
है। क्या ठीक
है और क्या
गलत है, वह
भी द्वंद्व की
ही दुनिया की
बात है। वह भी
परिभाषाओं पर
निर्भर है। इस
मंदिर के
द्वार पर तो
ठीक और गलत भी
गिर जाएगा।
यहां तो शुभ—
अशुभ भी नहीं
बचेगा, यहां
तो धर्म और
अधर्म भी नहीं
बचेगा, नीति—अनीति
भी नहीं
बचेगी। यहां तो
हमने दो के
जगत में जो भी
सीखा था, उसे
हमें द्वार पर
ही छोड़ देना
होगा। तो इस
निर्द्वंद्व,
अद्वैत, इस
मंदिर के भीतर
के लिए क्या
नियम हो सकता
है?
इसलिए
हमने परमहंस
को नियमातीत
कहा है। उसके लिए
हम कोई नियम
नहीं बना
सकते! वह क्या
करे, क्या
न करे, कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। वह
जो करे, वही
ठीक है। वह जो
न करे, वही
गलत है। हमारे
लिए उलटी है
बात। जो गलत
है, वह
हमें नहीं
करना चाहिए।
जो ठीक है, वह
हमें करना
चाहिए।
परमहंस के लिए
कहा है कि वह
जो करे, वही
ठीक है। वह जो
न करे, वही
गलत है। और
उसके ऊपर कोई
भी नियम नहीं
है। क्योंकि
जो मंदिर में
प्रविष्ट हो
गया, वह
नियम के बाहर
हो गया। नियम
का अस्तित्व
है परिधि पर, केंद्र पर
नियम का कोई
अस्तित्व
नहीं है। और जब
तक हम परिधि
पर होते हैं, तब तक नियम
लागू होते
हैं। और जैसे
ही हम केंद्र
पर पहुंच जाते
हैं, नियम
लागू नहीं
होते हैं।
फिर भी
परमहंस नियम
मान कर चल
सकता है, यह उसकी मौज
है। वह नियम
तोड़ कर भी चल
सकता है, यह
भी उसकी मौज
है। और
दायित्व उसका
कोई भी नहीं
है, उत्तरदायित्व
उसका कोई भी
नहीं है।
क्योंकि अब
कोई भी नहीं
है, जिसके
प्रति वह
उत्तरदायी
हो। अब वह
स्वयं उस जगह
खड़ा है, जिसके
पार और कुछ भी
नहीं है।
तो यह
सूत्र कहता
है. कोई नियम
नहीं है। कोई
नियम बनाया
नहीं जा सकता, न ही कोई
पथ— प्रदर्शन
ही हो सकता
है। न उससे कहा
जा सकता है कि
अब तू कैसे
मंदिर में
प्रवेश कर।
इतना ही कहा
जा सकता है कि
तू जो भी है अब
तक, द्वंद्व
से सीखा हुआ, उसे तू
द्वार पर छोड़
दे। उस मंदिर
के द्वार पर
निषेध की ही
व्यवस्था हो
सकती है।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं, नेति—नेति।
यह मंदिर के
आखिरी चरण पर
कहा हुआ वक्तव्य
है। इसके पार
फिर कोई
वक्तव्य नहीं
है।
नेति—नेति
का अर्थ है, यह भी
नहीं, वह
भी नहीं। तुम
जो भी कहो, वैसा
नहीं है।
तुम्हारा सब
इनकार कर देने
का है।
तुम्हारे पास
अपना कुछ भी न
बचे। तुमने जो
भी सीखा था
संसार से, अनुभव
से, वह सब
व्यर्थ हो रहा
है। वह तुम
द्वार पर ही
छोड़ देना।
उसमें से तुम
कुछ भी ले कर
भीतर मत जाना,
अन्यथा तुम
भीतर ही न
पहुंच पाओगे।
तो
नियम निषेध का
हो सकता है कि
जो भी सीखा है, वह द्वार
पर छोड़ दो। और
तुम अनसीखे, निर्दोष, कोरे कागज
की तरह; जैसे
कि संसार में
गए ही नहीं
कभी, जैसे
कि तुमने कुछ
जाना नहीं, जैसे कि
तुमने कुछ
जीया नहीं, जैसे कि तुम
बिलकुल
कुंआरे हो, तुम पर कोई
रेखा भी नहीं
अनुभव की, ऐसे
कुंआरे तुम
प्रवेश कर
जाना मंदिर
में। यह जो
कुआंरापन है,
इसकी
परिभाषा
निषेध से ही
हो सकती है।
कि जो—जो
तुमने सीखा है,
पोंछ डालना,
क्योंकि
द्वंद्व से
सीखा हुआ भीतर
नहीं ले जाया
जा सकता। और
अगर जरा सा भी
तुमने बचाया,
तो तुम
मंदिर में
भीतर नहीं
पहुंच सकोगे।
तुम्हें
द्वार ही नहीं
मिलेगा।
नियम
तो नहीं बनाए
जा सकते और न
कोई पथ—प्रदर्शन
ही किया जा
सकता है। कोई नक्शा
भी हाथ में
नहीं दिया जा
सकता कि मंदिर
के भीतर, प्रभु के
मंदिर के भीतर
या प्रभु के
भीतर यह नक्शा
तुम्हारा
सहयोगी होगा।
ये रास्ते, इन मार्गों
से तुम भीतर
यात्रा कर
सकोगे।
इसे
थोड़ा समझ लेने
जैसा है।
चेतना
का आकाश ठीक
इस आकाश जैसा
ही है एक अर्थों
में। जमीन पर
कोई चलता है
तो चिह्न बन
जाते हैं, पद—चिह्न
बनते हैं।
आकाश में
पक्षी उड़ते
हैं तो
पद—चिह्न नहीं
बनते हैं।
जमीन पर तो
रास्ते होते
हैं, आकाश
में कोई
रास्ता नहीं
बनता। जो
तुमसे पहले
चले हैं, उनके
कोई चिह्न
नहीं छूटते, जिनके पीछे
तुम अनुकरण कर
सको! वह जो
परमात्मा का
मंदिर है, वह
जो अंतिम घटना
है अनुभव की, बोध की, चैतन्य
की—वहा कोई
पद—चिह्न नहीं
हैं। वहां बुद्ध
चले हैं, वहां
जीसस चले हैं,
लेकिन कोई
पद—चिह्न नहीं
छूट गए।
इसलिए नक्शा
नहीं बनाया जा
सकता। ऐसा
नहीं कहा जा
सकता कि नक्शा
सम्हाल लो और
इसके अनुसार
तुम भी उसके
भीतर चले
जाना।
तुम्हारा नक्शा
भी इसी तरफ
छूट जाएगा।
क्योंकि नक्शो
जिस पदार्थ के
जगत में काम
आते हैं, वह पदार्थ
का जगत नहीं
है। पदार्थ पर
तो चिह्न बनते
हैं, परमात्मा
पर कोई चिह्न
नहीं बनते।
पदार्थ पर तो
रेखाएं खिंचती
हैं, आत्मा
पर कोई रेखाएं
नहीं खिंचती।
इसलिए वहां
कोई मार्ग
नहीं है, कोई
दिशासूचक
व्यवस्था
नहीं है, इसलिए
कोई
पथ—प्रदर्शन
नहीं किया जा
सकता।
वहां
तो अज्ञात में
उतरने का
जिनके पास
साहस है, वे ही केवल
उतर पाते हैं।
जो नक्शा
मांगते हैं, उन्हें
मंदिर के बाहर
ही रुक जाना
पड़ेगा। जो कहते
हैं, आगे
जा कर क्या
होगा; जब
तक हम यह न जान
लें, तब तक
हम आगे न
बढ़ेंगे; वे
आगे बढ़ ही
नहीं सकते।
वहां तो केवल
वे ही प्रवेश
कर सकते हैं, जो
दुस्साहसी
हैं, जो
कहते हैं, कोई
चिंता नहीं है
कि आगे क्या
होगा। जो कहते
हैं कि कोई
सुरक्षा की
फिक्र नहीं।
जो कहते हैं
कि मृत्यु भी
घटित होगी, तो भी हम
राजी हैं। सदा
के लिए खो
जाएंगे और कभी
कुछ न मिलेगा,
तो भी हम
राजी हैं।
मंदिर
के द्वार पर
जो इतना
दुस्साहस
करता है अपने
को खोने का, वही
प्रवेश करता
है।
बाहर
से लाया हुआ
कोई ज्ञान
सहयोगी नहीं
हो सकता, क्योंकि कोई
ज्ञान स्पर्श
नहीं कर सकता
उस परम अनुभव
का। और इसीलिए
जो भी वहां
पहुंचता है, वह मौलिक
अनुभव में
पहुंचता है।
हजारों बुद्ध
पहुंचे हैं
वहां, लेकिन
फिर भी मौलिक,
अभी भी
अछूता है।
मौलिक है
अनुभव। जब भी
कोई व्यक्ति
पुन: पहुंचता
है उस मंदिर
में, तो वह
अनुभव करता है
कि कुछ भी
बासा नहीं है।
अगर तुम्हें नक्शो
दिए जा सकें
और
शास्त्रज्ञ
दिए जा सकें
और गाइड दिए
जा सकें, और
तुम उनके
हिसाब से भीतर
जा सको, तो
अनुभव झूठा हो
जाएगा।
अमरीका
में
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि आज
अमरीकन
यात्री कहीं
भी जाए, तो उसे लगता
है, जो भी
वह देख रहा है,
सब बासा है।
मजा यह है कि
आज अमरीका के
पास ही सर्वाधिक
सुविधा है
दुनिया में
चक्कर मारने की।
दुनिया भर में
यात्रियों का
जो विराट दल
घूमता है, उसमें
अस्सी
प्रतिशत
अमरीका के
निवासी हैं। सारी
दुनिया में
कोने—कोने तक
यात्री
पहुंचते हैं,
वे अमरीका
के निवासी
हैं। लेकिन एक
बड़े मजे की
घटना घटी है, वे जहां भी
पहुंचते हैं,
उनको लगता
है, सब
बासा है।
क्योंकि
ताजमहल को वे
देख चुके हजार
दफे चित्रों
में, टेलीविजन
पर, फिल्म
में। जब वे
ताजमहल
पहुंचते हैं,
तो वह हजार
दफा देखा हुआ
ताजमहल है। वह
बासा है। वे
बड़ी आशाएं
बांध कर आते
हैं ताजमहल
देखने, लेकिन
जब देखते हैं,
तो वे अनुभव
करते हैं, यह
तो हजार दफे
देख चुके हैं।
और सच तो यह है
कि फोटोग्राफी
से, टेलीविजन
पर, फिल्मों
में, जितना
सुंदर ताजमहल
दिख सकता है, उतना खाली
आंखों से दिख
नहीं सकता।
इसलिए जो असली
ताजमहल है, वह फीका
लगता है। जो
देखा था
फिल्मों में,
वह कहीं
ज्यादा रंगीन
था, कहीं
ज्यादा
बहुमूल्य
मालूम पड़ा था।
उसको
देख कर यह सोच
कर कि मूल
इससे भी
मूल्यवान
होगा, वे
देखने आए।
लेकिन मूल
फीका मालूम
पड़ता है। और
फिर इतनी दफा
देखा जा चुका
है, तो
मौलिकता तो
कुछ है नहीं।
इसलिए अमरीकन
यात्री घूमता
तो बहुत है, लेकिन
पहुंचता कहीं
भी नहीं, अनुभव
उसे कुछ भी
नहीं होता।
क्योंकि वह जो
भी है, सब
देखा हुआ है, सब बासा है, सब चीजें
उबाने वाली
हैं।
अच्छा
ही है कि
परमात्मा के
मंदिर का कोई नक्शा
नहीं है। नहीं
तो तुम वहां
भी पहुंच कर
सिर पीट लेते।
यह वही का वही, जो गीता
में पढ़ा था; यह वही का
वही, जो
पहले ही बुद्ध
समझा चुके
हैं! तुम वहां
भी ऊब जाते।
लेकिन उसका
कोई नक्शा बन
नहीं सका, बनेगा
भी नहीं कभी।
और उसके संबंध
में जो भी खबरें
दी गई हैं, वे
कोई भी खबरें
मंदिर के भीतर
काम नहीं आतीं,
मंदिर के
द्वार तक ही
ले जाती हैं।
इसलिए मंदिर
सदा अछूता और
कुंआरा है।
उसमें तुम जब
भी पहुंचते हो
तो अनुभव
अनूठा है, अद्वितीय
है। तुम भी उस
अनुभव को करने
के बाद किसी
को कह न
सकोगे। तुम
अचानक उस
अनुभव के बाद पाओगे
कि जो भी कहा
जा सकता है, उससे इसका
कोई संबंध
नहीं। और यह
जो देखा है, इसका कहने
से कोई संबंध
नहीं बनाया जा
सकता।
इसलिए
सूत्र कहता है
कि न तो कोई
नियम, न
कोई
पथ—प्रदर्शक
ही उसके लिए
हो सकता है!
फिर भी शिष्य
को समझाने के
लिए इस अंतिम
युद्ध का वर्णन
इस प्रकार कर
सकते हैं।
यह जो
अंतिम घटना, आखिरी
घटना जीवन की
घटेगी, मंदिर
के द्वार पर
सब छोड़ कर
भीतर प्रवेश
की; वह जो
मंदिर के
द्वार पर
छोड़ने की घटना
है, उसका
वर्णन किया जा
सकता है। वह
भी कोशिश है, वह भी पूरी
सफल नहीं होती,
लेकिन
इशारा हो सकता
है। वह इशारा
कठिन है।
तेरहवां
सूत्र, 'जो मूर्त
नहीं है और
अमूर्त भी
नहीं है, उसका
अवलंबन लो।’
जटिलता
द्वंद्व की ही
है—जो मूर्त
नहीं है और अमूर्त
भी नहीं है, उसका
अवलंबन लो।
हम
जानते हैं कि
मूर्त क्या है, पदार्थ
क्या है, साकार
क्या है।
पदार्थ का
हमें पता है।
हमें अमूर्त
का कोई पता
नहीं है।
इसलिए लोग
कहते हैं कि
आत्मा अमूर्त
है, पदार्थ
के पार है।
पदार्थ का
आकार है, गुण
है; आत्मा
का आकार नहीं,
गुण नहीं; निर्गुण है,
निराकार
है। तो पदार्थ
से हम आत्मा
की व्याख्या
करते हैं।
पदार्थ है
मूर्त, आत्मा
है अमूर्त।
हमें तो मूर्त
का ही पता है, अमूर्त तक
का कोई पता
नहीं है।
यह
सूत्र कहता है, लेकिन
अगर तुम्हें
आत्यंतिक
सत्य में
प्रवेश करना
है, तो
मूर्त तो छोड़
ही देना पड़ेगा,
अमूर्त भी
छोड़ देना
पड़ेगा; आकार
तो छोड़ ही
देना पड़ेगा, निराकार भी
छोड़ देना
पड़ेगा। क्यों?
थोड़ा कठिन
है। इसीलिए
इतनी झिझक के
साथ ये सूत्र
लिखे गए हैं।
आकार
तो छोड़ ही
देना पड़ेगा, निराकार
भी छोड़ देना
पड़ेगा।
क्योंकि
निराकार में
भी आकार मौजूद
है। वह आकार
से ही पारिभाषित
होता है। अगर
कोई पूछे कि
निराकार क्या
है? तो आप
यही कहेंगे न
कि जहां आकार
नहीं। आकार से
ही बंधा है
निराकार भी। निराकार
भी आकार से
मुक्त नहीं हो
पाता, क्योंकि
निराकार की भी
कोई व्याख्या
नहीं हो सकती
आकार के बिना।
झगड़ा चलता है;
आकारवादी
हैं, निराकारवादी
हैं; सगुणवादी
हैं, निर्गुणवादी
हैं! वे बड़ा
विवाद करते
हैं कि परमात्मा
निर्गुण है कि
सगुण। हजारों
साल से विवाद
चलता है।
लेकिन
यह सूत्र कहता
है कि
परमात्मा न
सगुण है, न निर्गुण
है। यह सूत्र
यह कहता है कि
निर्गुण की भी
परिभाषा जब
गुण से ही
होती हो, तो
कितना सार रहा
तुम्हारे
निर्गुण में।
अगर सच में ही परमात्मा
निर्गुण है, तो उसको
निर्गुण भी
नहीं कहा जा
सकता। क्योंकि
यह तो गुण का
ही निषेध हो
रहा है सिर्फ,
गुण का ही
इनकार हो रहा
है। तो गुण के
बिना तुम परमात्मा
को भी कुछ
नहीं कह सकते
हो, तो
इतना तो कम से
कम तुम्हें
मानना ही
पड़ेगा कि
परमात्मा में
गुण भला न हों,
लेकिन उसकी
परिभाषा गुण
के बिना नहीं
हो सकती। और
जिसकी
परिभाषा गुण
के बिना नहीं
हो सकती, उसको
निर्गुण कैसे
कहिएगा?
यह
सूत्र कहता है
कि न वहां
सगुण की गति
है और न निर्गुण
की, वहां
न आकार बचता
है, न
निराकार; वहां
न मूर्त बचता
है, न
अमूर्त; वहां
न पदार्थ बचता
है, न
आत्मा।
जटिल
है, कठिन
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि पहले
तो पदार्थ से
आत्मा तक उठना
कठिन है। और
फिर आत्मा से
भी उठना और भी
कठिन हो जाता
है। पदार्थ और
आत्मा भी द्वंद्व
का हिस्सा है।
पदार्थ और
आत्मा भी दो विरोध
हैं। चेतना और
पदार्थ दो
विरोध हैं। पदार्थ
तो छूट ही
जाना है, चैतन्य
भी। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि आप अचेतन हो
जाएंगे वहां।
लेकिन जो कुछ
भी आपने चेतना
की तरह जाना था,
वह पाएंगे
कि सब व्यर्थ
हो गया। और
कुछ नई ही घटना
घटी है, जो
चेतना के भी
पार जाती है, जो
परा—चैतन्य है,
चेतना के भी
अतीत हो जाती
है।
'जो
मूर्त नहीं है
और अमूर्त भी
नहीं है, उसका
अवलंबन लो।’
इस
द्वार के बाहर
ही छोड़ देना।
इसे हम ऐसा
समझें कि
यात्रा को हम बांट
लें। एक तो
यात्रा है, मूर्त को
छोड़ो। जो—जो
आकार है, उसको
छोड़ो, ताकि
तुम भीतर के
निराकार में
प्रवेश कर
सको। यह पहली
व्यवस्था है।
जिस दिन
तुम्हारा
भीतर प्रवेश
हो जाए पूरा—
बाहर को छोड़ा
था भीतर जाने
के लिए—लेकिन
जब बाहर
बिलकुल छूट
जाए, तो
भीतर को भी
छोड़ देना, क्योंकि
भीतर भी बाहर
का ही हिस्सा
है। पदार्थ को
छोड़ा था
आत्मवान बनने
के लिए और जब
पदार्थ पूरा
छूट जाए तो इस
आत्मवान को भी
छोड़ देना।
इसलिए
बुद्ध ने कह
दिया कि आत्मा
नहीं है। और बुद्ध
की बात समझी
नहीं जा सकी, परम—ज्ञान
की बात थी। तो
उन्होंने कहा,
आत्मा भी
नहीं है—
अनात्मा, अनत्ता।
वह इसी अर्थ
में है कि जिस
पदार्थ को छोड़
कर आत्मा जानी
थी, वह
आत्मा भी
छोड़ने योग्य
है। उसके बाद
जो बच रहेगा, तो बुद्ध ने
उसके लिए कोई
शब्द उपयोग
नहीं किया।
उन्होंने कहा
कि कुछ भी शब्द
उपयोग करूंगा
तो जटिलता
बढ़ती है; कुछ
भी कहूंगा तो
सीमा बनती है;
कुछ भी
कहूंगा तो
उसके विपरीत
भी होता है, इसलिए मैं
कुछ भी न
कहूंगा।
बुद्ध
से जिंदगी भर
लोग पूछते रहे
कि क्या होता
है उस परम घड़ी
में? तो
बुद्ध कहते थे,
जैसे दीया
बुझ जाता है, बस ऐसा ही
होता है। तुम
बुझ जाओगे, जैसे दीए की
ज्योति बुझ
जाती है, फिर
कोई पूछता
नहीं कि कहां
गई ज्योति? ऐसे ही तुम
भी बुझ जाओगे।
ज्योति कहां
गई, यह
पूछना व्यर्थ
हो जाएगा।
इसलिए बुद्ध
ने मोक्ष शब्द
का उपयोग नहीं
किया, निर्वाण
शब्द का उपयोग
किया।
निर्वाण का
अर्थ है, दीए
का बुझ जाना।
मोक्ष शब्द से
ऐसा लगता है
कि तुम बचोगे
मुक्त हो कर, लेकिन तुम
बचोगे जरूर।
बुद्ध कहते
हैं, तुम
बचोगे ही नहीं,
क्योंकि
तुम द्वंद्व
का ही हिस्सा
हो। इसका यह
मतलब नहीं कि
कुछ भी नहीं
बचेगा। सब कुछ
बचेगा। जो
बचने योग्य है,
वह बचेगा।
लेकिन उसके
लिए बुद्ध
कहते हैं, मैं
कोई शब्द न
दूंगा, क्योंकि
सभी शब्द
विपरीत से बने
हैं, और
विपरीत संसार
का हिस्सा है।
'जो
मूर्त नहीं और
जो अमूर्त भी
नहीं, उसका
अवलंबन लो।’
चौदहवां
सूत्र, 'केवल
नाद—रहित वाणी
ही सुनो।’
जो भी
वाणी हम सुनते
हैं, वह
सब आघात से
पैदा होती है,
दो चीजों की
टक्कर से पैदा
होती है, द्वंद्व
से पैदा होती
है। अगर आप
मंजीरे को टकराते
हैं तो आवाज
पैदा होती है।
अगर दोनों हाथों
को टकराते हैं
तो ताली पैदा
होती है। अगर
हवाएं
वृक्षों से
गुजरती हैं, तो सरसराहट
पैदा होती है।
अगर मैं बोल
रहा हूं तो
मेरा कंठ टक्कर
देता है, तो
वाणी पैदा
होती है। हम
जो भी वाणी
जानते हैं, वह सब नाद
है। संघर्ष से
पैदा हुआ है, दो की टक्कर
से।
लेकिन
उस मंदिर में
दो तो बचेंगे
नहीं, तो
वहां कोई वाणी
नहीं हो सकती।
वहां शब्द नहीं
हो सकता। वहां
दो की टकराहट
हो नहीं सकती।
क्योंकि जहां
द्वंद्व नहीं
है, वहां
टक्कर कैसी? खाली आकाश
है। जहां कोई
दूसरा नहीं है,
तो वहां
कैसी वाणी
होगी? वहां
नाद आघात वाला
पैदा नहीं हो
सकता।
तो दो
बातें हैं— या
तो हम कहें
नाद—रहित वाणी, नाद—रहित
स्वर, ऐसा
स्वर जो टक्कर
से पैदा नहीं
होता, जो
दो चीजों के
आघात से पैदा नहीं
होता। और या
फिर संतो ने
एक और शब्द
चुना है वह भी
बहुत कीमती
है— अनाहत
नाद। अनाहत का
मतलब भी यही
होता है कि जो
आहत से नहीं, टक्कर से
पैदा नहीं
हुआ— अनाहत।
क्या ऐसा कोई नाद
है, जो
अनाहत है? क्या
ऐसा भी कोई
नाद है, जो
बिना टक्कर के
पैदा होता है?
ऐसा
अगर कोई नाद
है तो वही
जीवन का
मूल—स्वर है।
इसमें कई
बातें समझ
लेने जैसी
हैं। क्योंकि
जो चीज टकराहट
से पैदा होती
है, वह
नष्ट हो
जाएगी।
क्योंकि
टकराहट से एक
शक्ति की
मात्रा
उपलब्ध होती
है। लेकिन वह
एक शक्ति की
मात्रा कितनी
देर चलेगी? मैं ताली
बजाता हूं तो
मेरे दोनों
हाथों की
टक्कर से
जितनी शक्ति
पैदा होती है,
वह शक्ति
सीमित है।
कितनी देर वह
स्वर गूंजेगा?
जो पैदा हुआ
है, वह
नष्ट हो
जाएगा। जो बना
है, वह मिट
जाएगा।
बुद्ध
कहते थे, जो संघात से
बना है, वह
शाश्वत नहीं
हो सकता, सनातन
नहीं हो सकता।
कैसे होगा? जो अभी नहीं था,
अभी पैदा
हुआ, वह
सदा तो नहीं
हो सकता। जिस
डंडे में एक
छोर है, उसमें
दूसरा छोर भी
होगा ही। तो
जिसमें पैदा होने
वाला छोर है, उसमें मरने
वाला छोर भी
होगा। सिर्फ
वही हो सकता
है शाश्वत, जो पैदा ही न
हुआ हो। जो
अजन्मा हो, जो अनादि हो,
वही अनंत हो
सकता है। तो
क्या ऐसा भी
कोई स्वर, ऐसा
भी कोई नाद, ऐसा भी कोई
संगीत है, जिसे
हम जीवन का
संगीत कहें!
जो पैदा नहीं
हुआ और कभी
मिटेगा भी
नहीं। और जब
तक हम उसे न
जान ले, तब
तक हमने जीवन
की परम
व्यवस्था को
नहीं जाना।
'केवल
नाद—रहित वाणी
ही सुनो।’
वही
होगी शक्ति।
केवल नाद—रहित
स्वर सुनो, वही है
परम—संगीत।
लेकिन कैसे
इसे सुनेंगे?
मंत्र
शास्त्र ने
इसकी
व्यवस्था की
है। मंत्र
शास्त्र कहता
है, किसी
मंत्र का
उच्चार शुरू
करो। तो पहले
जोर से उच्चार
करो, ओंम
का उच्चार
शुरू करो, औंम
सुनाई पड़ेगा,
हवाओं में
गूंजेगा। फिर
जब यह उच्चार
सध जाए और जब
ओंम इस तरह
गंजने लगे कि
तुम्हारे भीतर
कोई दूसरा
शब्द, कोई
दूसरा विचार न
रह जाए, तभी
तुम्हारा ओंम
शुद्ध होगा।
नहीं तो तुम्हारे
भीतर अगर कोई
भी विचार चल
रहा है, तो
उसकी छाया
तुम्हारे औंम
की गज में भी
मौजूद रहेगी।
इसे थोड़ा
समझना।
अगर
तुम ओंम कह रहे
हो, और
तुम्हारे मन
में चल रहा है
कि जा कर
बाजार से कोई
सामान खरीद
लाएं, तो
तुम्हारा ओंम
जो है, वह
अशुद्ध हो रहा
है। क्योंकि
उसके पीछे यह
स्वर भी जुड़ा
हुआ है बारीक
कि बाजार जाएं,
सामान खरीद
लाएं, यह
स्वर उसे
विकृत कर रहा
है। तुम्हारा औंम
तब शुद्ध हो
जाएगा, जब
सिर्फ ओंम की
ही गज होगी और
भीतर कोई
दूसरा विचार न
होगा। उसे
विकृत करने
वाला कोई भी
मौजूद न होगा।
जिस दिन
तुम्हारे ओंम
का यह गुंजार
शुद्ध हो जाए,
उस दिन तुम
ओंठ बंद कर
लेना और अब
तुम भीतर ही ओंम
को गुजाना। अब
तुम जोर से मत
बोलना, अब
तुम सिर्फ
भीतर ही
गुजाना। ओंठ
बंद रखना, हवा
की टक्कर से
बचाना, तो
भीतर ओंम का
गुंजार
चलेगा। और जब
भीतर ओंम का
गुंजार चलेगा,
तब फिर खयाल
रखना, दूसरे
गहरे तल पर भी
तुम्हारे मन
में कोई विचार
तो नहीं है!
कोई कामना, कोई वासना, कोई भावना
तो नहीं है!
अगर वह भावना
और वासना और
कोई विचार चल
रहा है गहरे
तल पर, तो
वह अशुद्ध कर
रहा है, उसको
भी विसर्जित
करना। और भीतर
सिर्फ—ओंम की
जब गंज रह जाए,
तब तुम
तीसरा प्रयोग
करना। तब तुम
ओंम को पैदा
मत करना, तुम
सिर्फ आंख बंद
करके सुनना।
जैसे कि ओंम
तुम्हारे
भीतर गंज रहा
है, तुम कर
नहीं रहे हो।
यह घटना
घटती है, अगर दोनों
चीजें शुद्ध
हो गई हों
पहले प्रयोग में।
तुमने ओंम का
गुंजार किया
और भीतर कोई
विचार न बचे, तो तुम्हारे
चेतन मन से
विचार समाप्त
हो गए। अब तुम
ओंठ बंद कर लो,
अब तुम ओंम
का गुंजार
भीतर करो। अब
तुम्हारे अचेतन
मन में विचार
बाधा
डालेंगे। अब
तुम गुंजार
इतना करो कि
तुम्हारा
अचेतन मन भी
उसमें गंज जाए
और कोई भीतर
विचार न रह
जाएं, तो
तुम्हारा
अचेतन मन भी
शांत हो गया।
तुम्हारे मन
की दो पर्तें
शांत हो गईं।
अब तुम ओंम का गुंजार
बंद कर दो।
क्योंकि मन जब
शांत हो जाता
है, तो
तुम्हारे
हृदय के
अंतस्तल में
जो गुंजार चल
ही रहा है
स्वभावत: — सदा
से चल रहा है, जिससे तुम
बने हो, जो
तुम्हारी मूल
प्रकृति है—वह
अब तुम्हें सुनाई
पड़ सकता है।
तुम्हारे
विचारों के
कारण ही वह
तुम्हें
सुनाई नहीं
पड़ता था। अब
सुनाई पड़ सकता
है।
तो
तुमने जो पहले
ओंम का पाठ
किया, वह
असली मंत्र
नहीं है। वह
तो केवल
तुम्हारे
विचारों से छुटकारे
का उपाय है।
अब तुम चुप हो
जाओ और सुनो।
बोलो मत। अब
तक तुम बोलते
थे। पहले तुम
जोर से ओंम
बोले थे, फिर
तुमने धीमे से
भीतर ओंम को
बोला था। अब
तुम बोलो मत, अब तुम
सुनो। अब तुम
सिर्फ सुनो
भीतर कि क्या वहां
ओंम गज रहा है?
और तुम चकित
हो जाओगे, औंम
का गुंजार
तुम्हारे
प्राणों से आ
रहा है। और तुम्हारे
रोएं—रोएं, शरीर में
फैलता जा रहा
है। यह
प्रतीति जैसे—
जैसे
तुम्हारी साफ
होती जाएगी, तुम पाओगे
कि ओंम
तुम्हारा
जीवन—स्वर है।
यह जो
स्वर तुम्हें
सुनाई पड़ेगा, यह अनाहत
है। क्योंकि
वह किसी चीज
के संघर्षण से
पैदा नहीं हो
रहा है। इसको
कबीर और नानक
अजपा कहते हैं,
क्योंकि यह
किसी जप से
पैदा नहीं हो
रहा है। यह
सूत्र इसको
नाद—रहित वाणी
कहता है।
'केवल
नाद—रहित वाणी
ही सुनो।’
पंद्रहवां
सूत्र, 'जो बाह्य और
अंतर दोनों
चक्षुओं से अदृश्य
है, केवल
उसी का दर्शन
करो।’
जगत को
हमने देखा—
इंद्रियों का
एक आयाम। जो बाहर
था, वह
हमने देखा।
फिर हमने
इंद्रियों का
दूसरा आयाम
खोला और हमने
उसको देखा, जो भीतर है। आंख
ने बाहर देखा
जगत को, पदार्थ
को। फिर आंख
ने भीतर देखा
और देखा आत्मा
को।
यह
सूत्र कहता है, अब तुम
बाहर और भीतर
दोनों की
आंखें बंद कर
लो। अब तुम
उसे देखो, जो
आंखों से देखा
ही नहीं जाता।
अब तुम उसे देखो,
जो
इंद्रियों से
स्पर्शित ही
नहीं होता है।
अब तुम बाहर—
भीतर से भी
मुक्त हो जाओ
और अब तुम उस
परम को देखो, जो न बाहर है,
न भीतर है।
या दोनों में
है, बाहर
भी है और भीतर
भी है।
यह जो
तीसरा है—बाहर
भी नहीं, भीतर भी
नहीं या बाहर
भी और भीतर भी—
यही है वह एक।
इस एक की खोज
में तुम्हें
दोनों तरह के
प्रयोग
इंद्रियों के
छोड़ देने
पड़ेंगे।
इसे हम
ऐसा समझें।
बाहर की
इंद्रियों से
जो हम देखते
हैं, वह
है जगत, पदार्थ।
भीतर की
इंद्रियों से
जो हम देखते
हैं, वह है
आत्मा, चेतना।
और दोनों को
छोड़ कर जो हम
देखते हैं, वह है
परमात्मा। या
ऐसा समझें।
बाहर की इंद्रियों
से जो हम
देखते हैं, वह है
विचार। भीतर
की इंद्रियों
से जो हम देखते
हैं, वह है
ध्यान। और
बाहर और भीतर
दोनों
इंद्रियों को
छोड़ कर जो हम
देखते हैं, वह है
समाधि।
बाहर
से जो देखा, वह भी आधा
है। भीतर जो
देखा, वह
भी आधा है।
बाहर और भीतर
दोनों को छोड़
कर जब हम
देखते हैं, तो वही पूरा
है, वही
पूर्ण है। और
जब तक पूर्ण
को नहीं देखा,
तब तक
मुक्ति नहीं
है। अधूरा
बांधता है, पूर्ण मुक्त
करता है।
'तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।’
परम—शांति
उसी क्षण
प्राप्त होती
है, जब
तुम बचे ही
नहीं। जब तक
तुम हो, तुम
अशांत रहोगे।
इसलिए आखिरी
बात खयाल में
ले लेनी
चाहिए। तुम
कभी भी शांत न
हो सकोगे, क्योंकि
तुम्हारे
होने में ही
अशांति भरी है।
तुम्हारा
होना ही
अशांति है, उपद्रव है।
जब तुम ही न
रहोगे, तब
ही शांत हो
पाओगे।
इसलिए
जब कहा जाता
है कि तुम्हें
शांति प्राप्त
हो, तो
इसके बहुत
अर्थ हैं।
इसका अर्थ है
कि तुम न हो
जाओ, तुम
समाप्त हो जाओ,
ताकि शांति
ही बचे।
तुम्हीं तो
उपद्रव हो।
सागर
में तूफान आता
है। फिर तूफान
शांत हो जाता
है। तो हम
कहते हैं, तूफान
शांत हो गया।
लेकिन इसका
क्या मतलब है?
क्या शांत
तूफान वहां
मौजूद है? शांत
तूफान का अर्थ
ही होता है कि
तूफान न रहा।
कोई आदमी
बीमार पड़ता
है। फिर ठीक
हो जाता है।
हम कहते हैं, बीमारी ठीक
हो गई। इसका
क्या मतलब है?
बीमारी ठीक
हो कर वहां
मौजूद है? बीमारी
ठीक हो गई, इसका
अर्थ ही यह है
कि बीमारी
नहीं हो गई, बीमारी अब
नहीं है।
बीमारी थी, अब नहीं है।
आप जो
भी अभी हैं, बीमारी
का जोड़ हैं।
तुम कभी शांत
न हो सकोगे, जब तक कि यह 'तुम' शांत
ही न हो जाए, जब तक कि यह 'तुम' खो
ही न जाए।
तुम्हें
शांति
प्राप्त हो, इसका एक
ही अर्थ है कि
तुम उस जगह
पहुंच जाओ, जहां तुम न
रहो। जब तक
तुम हो, तुम
अशांति का
स्वर खींचते
ही चलोगे।
इसलिए धर्म
महा—मृत्यु
है। उसमें तुम
पूरी तरह मर
जाते हो, तुम
बचते नहीं। जो
बचता है, वह
तुम्हारा
अंतरतम है, तुम्हारा
केंद्र है।
लेकिन उससे
तुम्हारा अभी
कोई परिचय
नहीं है। वह
शांत है, वह
अभी भी शांत
है। अगर तुम
चुप हो जाओ
अभी भी, तुम
न रहो, तो
अभी भी तुम उस
शांति को सुन
सकोगे। तुम हो
कोलाहल, भीड़,
उपद्रव, विक्षिप्तता।
तुम्हारे
कारण वह जो
भीतर का शांत
अनाहत नाद है,
वह जो
नाद—रहित वाणी
है, वह जो
शून्य—स्वर है,
वह सुनाई
नहीं पड़ता।
एक
क्षण को भी
तुम न रहो, तो उसका
दर्शन हो जाए।
और एक बार
उसका दर्शन हो
जाए, तो
तुम फिर वापस
न लौट सकोगे।
क्योंकि तब
तुम जान ही
लोगे कि इस
बीमारी को
वापस बुलाने
का कोई
प्रयोजन
नहीं।
लेकिन
अभी हम कोशिश
करते हैं। अभी
हम कोशिश करते
हैं कि मैं
शांत हो जाऊं, बिना
इसकी फिक्र
किए कि मैं ही
तो अशांति है।
अभी हम कोशिश
करते हैं कि
मैं कैसे
मुक्त हो जाऊं,
बिना इसकी
फिक्र किए कि
मैं ही तो
अमुक्ति हूं।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं
तुम्हारी
मुक्ति नहीं, तुमसे
मुक्ति।
तुम्हारी कोई
मुक्ति न होगी,
तुमसे ही
मुक्ति होगी।
और जिस दिन
तुम अपने को
छोड़ पाओगे, जैसे सांप
अपनी केंचुल
छोड़ देता है, उस दिन
अचानक तुम
पाओगे कि तुम
कभी अमुक्त
नहीं थे।
लेकिन तुमने
वस्त्रों को
बहुत जोर से
पकड़ रखा था, तुमने खाल
जोर से पकड़
रखी थी, तुमने
देह जोर से
पकड़ रखी थी, तुमने आवरण
इतने जोर से
पकड़ रखा था कि
तुम भूल ही गए
थे कि यह आवरण
हाथ से छोड़ा
भी जा सकता
है।
ध्यान
की समस्त
प्रक्रियाएं, क्षण भर
को ही सही, तुमसे
इस आवरण को
छुड़ा लेने के
उपाय हैं। एक
बार तुम्हें
झलक आ जाए, फिर
ध्यान की कोई
जरूरत नहीं।
फिर तो वह झलक
ही तुम्हें
खींचने लगेगी।
फिर तो वह झलक
ही चुंबक बन
जाएगी। फिर तो
वह झलक
तुम्हें
पुकारने
लगेगी और ले
चलेगी उस राह
पर, जहां
यह सूत्र पूरा
हो सकता है, 'तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।’
(समाप्त)
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