दिनांक, 4
जून, 1964;
सुबह।
मुछाला
महावीर,
राणकपुर।
प्रश्न:
ओशो क्या आप
नैतिक होना
बुरा समझते
हैं?
नहीं।
नैतिक होना
बुरा नहीं
समझता हूं पर
नैतिक होने के
भ्रम को अवश्य
ही बुरा समझता
हूं। वह
वास्तविक
नैतिकता के
आने में बाधा
बन जाता है।
मिथ्या—नैतिकता
बाह्य आरोपण, कल्टीवेशन
होती है। उससे
दंभ की तृप्ति
के अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं
होता है, और
मेरी दृष्टि
में दंभ—
अहंकार से
अधिक अनैतिक
चित्त—स्थिति
और कोई भी
नहीं है।
मिथ्या—
नैतिकता विनय
और निर— अहंकारिता
का भी आरोपण
कर लेती है।
पर उसके पीछे
अहंकार ही
पोषित होता और
फलता—फूलता है।
क्या तथाकथित
साधुओं और
सज्जनों में,
जो मैं कह
रहा हूं उस
सत्य के दर्शन
नहीं होते हैं?
तथाकथित, आरोपित,
इम्पोज्ड,
चेष्टित, प्रयत्न—साध्य
नैतिकता को
मैं अभिनय, एक्टिंग
कहता हूं।
उसके बिलकुल
ही विपरीत
व्यक्ति का
अंतस— अंतःकरण
होता है। जो
ऊपर दिखता है,
वह भीतर
नहीं होता है।
ऊपर
फूल,
भीतर कांटे
होते हैं।
आचरण से
विरोधी और सतत
संघर्षरत
अंतस—चेतना और
अचेतन के बीच
एक अलंध्य खाई
व्यक्ति को
विभाजित और
खंडित कर देती
है। ऐसे
व्यक्ति के
भीतर संगीत
नहीं होता है।
और जहां संगीत,
हार्मनी
नहीं है, वहां
आनंद नहीं है।
मैं वास्तविक
नैतिक जीवन को
आनंद से
आविर्भूत
मानता हूं।
नीति
आनंद की
स्फुरणा है—
वह सहज
स्फुरणा, स्पाटेनियस
एक्सप्रेशन
है। आनंद जब
अंतस से
प्रवाहित
होता है, तो
वह बाहर के
जगत में
सदाचरण बन
जाता है। आनंद
की जो सुगंध
बाहर फैल जाती
है, वही
शुभ जीवन है।
इसलिए
मैं संघर्ष
पैदा करने को
नहीं, संगीत
पैदा करने को
कहता हूं। इस
सत्य को देखो।
मेरी बातों को
केवल सुनो ही
मत, उन्हें
जीओ और तब
आपको शात होगा
कि जो जीवन संगीत
और सौंदर्य का
अखंड नृत्य हो
सकता है, उसे
हमने कैसे
अपने ही हाथों
संघर्ष और
अंतर्द्वंद्व
की अराजकता, अनार्की बना
रखा है।
नीति
आती है, वह
लाई नहीं जाती
है—वैसे ही
जैसे वृक्षों
में फूल आते
हैं। ध्यान के
बीज बोने होते
हैं, नीति
की फसल काटी
जाती है। नीति
नहीं साधी
जाती है, साधा
जाता है ध्यान।
ध्यान से
शांति और
संगीत और
सौंदर्य का
जन्म होता है।
और जिसके भीतर
शांति है, वह
दूसरे को
अशांत करने
में असमर्थ हो
जाता है। और
जिसके भीतर
संगीत है, उसके
सान्निध्य से
दूसरे में भी
संगीत के स्वर
प्रतिध्वनित
होने लगते हैं।
और जिसके भीतर
सौंदर्य है, उसके आचरण
से सारी
कुरूपता, अग्लीनेस
विलीन हो जाती
है। क्या यही
हो जाना नैतिक
हो जाना नहीं
है?
प्रश्न:
ओशो आप
नैतिकता को एक
सामाजिक
उपयोगिता कह
रहे हैं। क्या
व्यक्ति के
लिए उसकी कोई
उपयोगिता
नहीं है?
नीति—आचरण, मॉरिलिटी
समाज के लिए
मात्र एक उपयोगिता,
युटिलिटी
ही है, पर
व्यक्ति के
लिए वह
उपयोगिता
नहीं, आनंद
है। इसलिए
समाज का काम
मिथ्या—नैतिकता
से भी चल जाता
है, पर
व्यक्ति के
लिए वह काफी
नहीं है।
समाज
के लिए इतना
पर्याप्त है
कि आप दूसरों
के लिए शुभ
हैं— आपके लिए
यह पर्याप्त
नहीं है। आपके
लिए यह भी
विचारणीय है
कि आप अपने
में शुभ हैं
या नहीं हैं!
समाज
का आपके
व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी
से संबंध है, आपकी
अंतरात्मा से
नहीं। पर
स्वयं आपके
लिए तो
व्यक्तित्व
वस्त्रों से
ज्यादा नहीं
है। आपका, आपकी
सत्ता का—प्रारंभ
तो वहां से
होता है, जहां
ये वस्त्र
समाप्त होते
हैं।
व्यक्तित्व
की खोल के
पीछे और पृथक
आपका होना है।
वास्तविक
नीति का जन्म
वहीं होता है।
मिथ्या—नैतिक
आचरण से
निर्मित समाज
का नाम सभ्यता, सिविलाइजेशन
है— वास्तविक
जीवन को
उपलब्ध
व्यक्तियों
के समाज का
नाम संस्कृति,
कल्चर है।
सभ्यता और
संस्कृति का
यही भेद है।
सभ्यता
उपयोगिता है, संस्कृति
आंतरिक आनंद
और संगीत है।
आज सभ्यता तो
है, पर
संस्कृति
नहीं है। पर
हम सब चाहें
तो संस्कृति
को मिल कर
जन्म दे सकते
हैं।
सभ्यता
का जन्म अपने
व्यवहार को
शुद्ध करने से
होता है।
संस्कृति का
जन्म अपने को
शुभ करने से
होता है। सभ्यता
शरीर है, संस्कृति
आत्मा है। जो
अपनी आत्मा
में
प्रतिष्ठित
होते हैं, वे
संस्कृति को
उपलब्ध होते
हैं।
प्रश्न:
ओशो क्या धर्म
सामाजिक नहीं
है नितांत
वैयक्तिक है?
हां, धर्म
नितांत
वैयक्तिक है।
समाज के पास
कोई आत्मा—
कोई चेतना—केंद्र
नहीं है। समाज
तो केवल हमारे
अंतर्संबंधों,
इंटर—रिलेशनशिप
का समूह है।
आत्मा
व्यक्ति के
पास है, इसलिए
धर्म भी
वैयक्तिक, इंडिविजुअल
है।
धर्म
मेरा संबंध, रिलेशनशिप
नहीं है, धर्म
मेरी सत्ता है।
मैं अपने
स्वभाव में, अपने स्वरूप
में क्या हूं —
उसका उदघाटन,
उसका
आविष्कार
धर्म है।
धर्म
आत्मज्ञान है।
धर्म तो स्वयं
सामाजिक नहीं
है,
अर्थात
धर्म की साधना
समूह से
संबंधित नहीं
होती है।
किंतु, धर्मानुभूति
का प्रकाश
जरूर समूह और
समाज पर पड़ता
है। धर्म की
साधना
वैयक्तिक है,
पर परिणाम
उसका सामाजिक
भी होता है।
व्यक्ति
अंतस—प्रकाश
से भरता है तो
उसका आचरण भी
प्रकाश से भर
जाता है। अंतस
वैयक्तिक है, पर
आचरण सामाजिक
है।
साधना
कभी भी
सामूहिक नहीं
हो सकती है, क्योंकि
स्वयं को किसी
के साथ नहीं, अकेले में
और अकेले होकर
ही जानना होता
है। प्लोटिनस
ने कहा है ' वह
अकेले ही
अकेले के लिए
उड़ान है, फ्लाइट
ऑफ द अलोन टु द
अलोन। सच ही, वह उडान बड़ी
अकेली है—बडी
असंग है। पर
उस उड़ान से
मिले आनंद से
निश्चित ही
दूसरे भी
संक्रामित
होते हैं और
दूसरे भी आंदोलिन
होते हैं। जो
एकांत में और
अकेले में
पाया जाता है,
उसकी सुगंध
जरूर दूर—दिगंत
तक
परिव्याप्त
हो जाती है।
प्रश्न:
ओशो ईश्वर
क्या है?
ईश्वर
व्यक्ति नहीं
है,
अनुभूति है।
अहं—केंद्र के
विसर्जन पर जो
विश्व का
दर्शन होता है,
उस दर्शन, उस अनुभव को
ही मैं ईश्वर
कहता हूं।
ईश्वर
की कोई
अनुभूति नहीं
होती है, वरन
सर्व—पूर्ण—प्रेम
की उस अनुभूति
का नाम ही
ईश्वर है।
जिसका कोई
केंद्र नहीं
है, जो कि
समस्त सत्ता
ही है—सर्वसत्ता
ही जिसका
केंद्र है।
ईश्वर
की अनुभूति
कहना ठीक नहीं, कहें
कि पूर्ण
प्रेम की
अनुभूति का
नाम ही ईश्वर
है।
प्रेम, लव
दो
व्यक्तियों
के बीच का
संबंध है। वही
संबंध जब मेरे
और सर्व के
बीच होता है, तो उसकी मैं
ईश्वर, गॉड
कहता हूं।
प्रेम
की चरम स्थिति—पूर्णता
ही परमात्मा
है।
क्राइस्ट
का वचन मुझे
याद आता है ' प्रेम
ही परमात्मा
है, लव इज
गॉड।’
‘मैं’ जब
विसर्जित हो
जाता है तब जो
शेष रह जाता
है, वह
प्रेम है।
‘मैं’ की
चारदीवारी के
गिर जाने पर
जो बच रहता है,
वह प्रेम है।
वही ईश्वर भी
है।
इसलिए
ईश्वर को जाना
तो नहीं जा
सकता है, पर
ईश्वर हुआ जा
सकता है।
प्रश्न:
ओशो आपने कहा
यह जीवन नहीं
है यह तो
मृत्यु की ही
एक लंबी
क्रिया है।
आपका इससे
क्या अर्थ
अभिप्रेत है?
सच
ही जिसे हम
जीवन जानते
हैं,
वह जीवन
नहीं है। वह
जीवन हो तो
उसकी
परिसमाप्ति
मृत्यु पर
कैसे हो सकती
है? जीवन
और मृत्यु तो
विरोधी सत्य
हैं, फिर
जीवन की
पूर्णता
मृत्यु कैसे
हो सकती है?
मृत्यु
जीवन का नहीं, जन्म
का अंत है। और
वह अंत में
आती है, इसलिए
हम यह न समझें
कि वह अंत में
ही आती है। वह
तो जन्म में
ही उपस्थित है।
वह तो उसी दिन
से प्रारंभ हो
जाती है, जिस
दिन से जन्म
होता है।
जन्म
के बाद हम
प्रतिक्षण
मरते जाते हैं।
यह मरण—प्रक्रिया
जिस दिन पूर्ण
हो जाती है, उसे
हम मृत्यु
कहते हैं। वह
जो जन्म में
बीज—रूप में
उपस्थित थी, वही अंत में
पूर्ण रूप में
प्रकट होती है।
इसलिए जन्म के
बाद और कुछ भी
निश्चित नहीं
है, पर
मृत्यु अवश्य
निश्चित है।
वह इसलिए
निश्चित है, क्योंकि
उसका तो आगमन
जन्म के साथ
ही हो गया है।
जन्म उसका ही
दूसरा नाम है,
उसका ही बीज—रूप
है। इसे समझना।
आप जिस दिन
पैदा हुए, उसी
दिन से निरंतर
मर रहे हैं।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
जिसे हमने जीवन
जाना है, वह
जीवन नहीं, वरन क्रमिक
और धीमी
मृत्यु की एक
लंबी प्रक्रिया
है।
हम
जीवन से नहीं, इस
क्रमिक
मृत्यु से ही
परिचित होते
हैं और इसलिए
पूरे समय इससे
बचाव में लगे
रहते हैं।
हमारे सारे
आयोजन
सुरक्षा, सिक्योरिटी
और आत्म—रक्षण,
सेल्फ—डिफेंस
के हैं। हम
क्या कर रहे
हैं? क्या
निरंतर
मृत्यु से
बचाव में ही
नहीं लगे हुए
हैं? मनुष्य
इस बचाव के
लिए ही
धार्मिक भी हो
जाता है।
इसीलिए
मृत्यु की
सन्निकटता को
अनुभव कर लोग धार्मिक
होने लगते हैं।
वृद्धों की
धार्मिकता
अधिकतर ऐसी ही
होती है। इसे
वास्तविक
धार्मिकता
नहीं कहता हूं
यह भी मृत्यु—
भय का ही एक
रूप है। यह
सुरक्षा का
अंतिम उपाय, सेफ्टी मेजर
है। वास्तविक
धार्मिकता का
जन्म मृत्यु
भय से नहीं, जीवनानुभव
से होता है।
यह
जानना है कि
अभी हम जो भी
जान रहे हैं, वह
सब मृत्यु है।
इस मृत्यु का ज्ञान
अमृत में ले
जाता है। शरीर
मर जाता है—प्रतिक्षण
मर रहा है। इस
देह के प्रति
सजग होने से—
इस मरणधर्मा
देह के प्रति
जागने से उसका
अनुभव
प्रारंभ होता
है जो कि देह
नहीं है। उसे
जान लेना जो
कि देह नहीं
है, वास्तविक
जीवन को जान
लेना है, क्योंकि
उसका कोई जन्म
नहीं हुआ है
और इसलिए उसकी
मृत्यु नहीं
होती है। यह
सत्य जन्म के
पूर्व था और
मृत्यु के बाद
भी रहेगा। वही
जीवन है। वह
जन्म और
मृत्यु के बीच
में नहीं है, वरन जन्म और
मृत्यु उसके
बीच में घटी
घटनाएं हैं।
ध्यान
की अवस्था में, जब
चित्त शून्य
और शांत होता
है, तब देह
से अन्य और
भिन्न तत्व का
दर्शन होता है।
चित्त की
अशांति के
कारण उसका
दर्शन नहीं हो
पाता है। जैसे
किसी झील पर
लहरें हों तो
उसके कारण उसके
भीतर झांकना
असंभव होता है,
वैसे ही
चित्त पर
विचार—तरंगों
के सतत प्रवाह
के कारण जो
अंदर छिपा है,
वह छिपा ही
रह जाता है और
हम अपनी सतह
को ही सब सत्य
समझ लेते हैं।
यह
शरीर जो कि
केवल मेरा
आवास है, मेरा
सब—कुछ प्रतीत
होने लगता है।
यही मेरी
सत्ता और मेरे
जीवन का भ्रम
देने लगता है।
मैं शरीर पर
ही अपने को
समाप्त मान
लेता हूं। यह
देह—तादात्म्य,
आइडेंटिटी
ही— देह के साथ
एकात्मकता का
यह आभास ही—
वास्तविक
जीवन को नहीं
जानने देता है
और हम देह की
क्रमिक मृत्यु
को, समय
में घटित हो
रही
प्रक्रिया को
ही जीवन समझ
लेते हैं।
अपने घर के
बनने और मिटने
को जैसे कोई
अपना बनना और
मिटना समझ ले,
ऐसी ही यह
भूल है।
यह
अंधकार चित्त—शांति
पर टूटता है।
अशांति ने जो
भ्रम दिया था, शांति
उसे विसर्जित
कर देती है।
तरंगों ने
जिसे छिपाया
था, निस्तरंगता,
वेवलेसनेस
उसे उघाड़ देती
है। और तब हम
पहली बार इस
देह—घर के
निवासी को
जानते हैं।
उसे जानते ही
मृत्यु
पुराने
वस्त्रों के
बदलने से
ज्यादा नहीं
रह जाती है, और जन्म नये
वस्त्रों का
ग्रहण हो जाता
है। और, तब
वह जीवन जाना
जाता है जो कि
सब वस्त्रों
से भिन्न है।
मैं
उस व्यक्ति को
ही जीवित कहता
हूं जो ऐसे जीवन
को जानता है; अन्यथा
हम सब मृत हैं।
जिन्होंने
देह को ही
अपना होना
जाना है, वे
अभी मृत ही
हैं। अभी उनका
वास्तविक
जीवन प्रारंभ
नहीं हुआ है।
वे एक स्वप्न
में हैं, और
निद्रा में
हैं, और एक
मूर्च्छा में
हैं। इस
मूर्च्छा से
जागे बिना—शरीर—मूर्च्छा
से जागे बिना
वे उसे नहीं
जान सकेंगे जो
वे स्वयं हैं,
जो उनकी
सत्ता है, जो
कि उनका आधार
है, जो कि
उनका जीवन है।
यह
संसार मृतकों
से भरा है—जीवित—मृतको, लिविंग
डेड से भरा है।
और उनमें से
अधिक मृत ही
मर जाते हैं।
वे मृत्यु से
अपनी रक्षा
में ही व्यस्त
हो जाते हैं।
और इस
व्यस्तता में
उसे जान ही
नहीं पाते हैं,
जो कि उनके
भीतर था, जो
कि अमृत था, जिसकी कोई
मृत्यु नहीं
है।
प्रश्न:
ओशो, आपकी इस
बात से मुझे
दिख रहा है कि
मैं मृत हूं
तब मैं जीवन
को पाने के
लिए क्या करूं?
मित्र!
मेरी बात से
दिख रहा है तो
उसका कोई भी
मूल्य नहीं है, बातों
को छोड़ दो—मेरी
भी, औरों
की भी! और फिर
देखो।
आपको
स्वयं दिखना
चाहिए। वह
दर्शन ही जीवन
की ओर ले जाने
का मार्ग बन
जाएगा और तब
आपको ' जीवन
पाने के लिए
क्या करूं?' यह नहीं
पूछना पड़ेगा।
जिसे यह दर्शन
होगा कि मैं
मृत हूं मेरा
अब तक का होना—
मेरा अब तक का
व्यक्तित्व, यह सब
मृत्यु ही है,
तब उसे साथ
ही साथ उसके
भी दर्शन होने
लगेंगे, जो
कि मृत्यु
नहीं है।
पर
यह दिख सके
उसके लिए
चित्त की
अशांति का विसर्जित
होना आवश्यक
है। चित्त
शांत हो, शून्य
हो, निर्विचार
हो, तो
दर्शन होता है।
अभी सब विचार
है, दर्शन
कुछ भी नहीं
है। मेरी बात
ठीक लगी, यह
भी एक विचार
है। इस विचार
से कुछ भी
नहीं होगा।
विचार सत्य को
नहीं उघाड़ता
है, क्योंकि
सब विचार पराए
हैं। वे तो
सत्य को और भी
ढंक लेते हैं।
क्या
इस बात पर कभी
दृष्टि गई है
कि आपके पास जितने
विचार हैं, सब
पराए और उधार
हैं? यह
पूंजी झूठी है।
इस पर विश्वास
मत कर लेना, क्योंकि यह
कोई पूंजी ही
नहीं है। इस
पर खड़े किए
भवन स्वप्न
में बनाए गए
भवनों जैसे
हैं, वे
ताश के पत्तों
से बनाए गए
घरों जितना भी
सत्य नहीं हैं।
मैं
आपको कोई
विचार नहीं
देना चाहता
हूं। मैं आपको
उधारी से नहीं
भरना चाहता
हूं। मैं तो
चहता हूं कि
आप विचारे
नहीं, जागे।
मैं तो चाहता
हूं कि आप
विचार छोड़े और
फिर देखें—
फिर देखें कि
क्या होता है!
विचार से
दर्शन पर चलें,
वही सत्य पर
और उस सत्य—संपत्ति
पर पहुंचाता
है जो कि आपकी
अपनी है।
विचार
छोड़ कर देखना, सीइंग
विदाउट
थिंकिंग—कैसे
रहस्य के
पर्दों को
गिरा देता है,
यह तो स्वयं
बिना किए नहीं
जाना जा सकता
है। स्मरण
रखें कि इस
जगत में ऐसी
कोई भी
मूल्यवान
अनुभूति नहीं
है जो कोई
दूसरा आपको दे
सके, और जो
भी दिया जा
सकता है, वह
न तो मूल्यवान
होता है और न
ही अनुभूति
होती है।
बस
वस्तुएं ही ली—दी
जा सकती हैं।
जीवित
अनुभूतियों
को लेने—देने
का कोई उपाय
नहीं है। न
महावीर, न
बुद्ध, न
कृष्ण, न
क्राइस्ट—कोई
भी आपको कुछ
भी नहीं दे
सकते हैं। और
जो उनके विचारों
को पकड़ लेते
हैं, और जो
उनके विचारों
को ही सत्य
समझ लेते हैं,
वे स्वयं
सत्य को जानने
से वंचित रह
जाते हैं।
दूसरे का सत्य
नहीं, स्वयं
का सत्य ही
मुक्त करता है।
गीता
को,
कुरान को, बाइबिल को
कंठस्थ कर लो,
उससे कुछ भी
नहीं होगा।
उससे ज्ञान
नहीं आएगा, उलटे वे
विचार आपके
स्व—ज्ञान की
क्षमता को
आवृत्त ही कर
लेंगे और आप
स्वयं सत्य के
सामने सीधे
नहीं खड़े हो
सकेंगे और शास्त्रों
से स्मृति में
आ गए शब्द सदा
ही बीच में
खड़े हो जाएंगे।
वे धुंध और
कुहासा पैदा
करेंगे और 'जो है' उसका
दर्शन असंभव
हो जाएगा।
सत्य
और अपने बीच
से सब अलग कर
लेना आवश्यक
है। सत्य को
जानने को किसी
विचार के
सहारे की जरूरत
नहीं है। सब
हटा दो, तब आप
खुलोगे, तब
द्वार, ओपनिंग
मिलेगा कि
सत्य आपमें आ
सके और आपको
परिवर्तित कर
सके। विचार
छोड़ो—और देखो; द्वार खोलो—और
देखो। बस इतना
ही मेरा कुछ
कहना है।
प्रश्न:
ओशो, क्या
शास्त्रों
का अध्ययन
अवश्यक नहीं
है?
शास्त्रों
के अध्ययन से
क्या होगा?
उस तरह ज्ञान
थोड़े ही आता
है। केवल स्मृति
प्रशिक्षित
होती है। आप
कुछ बातें सीख
लेते है,
पर क्या सीख
लेना,
लर्निंग और
जान लेना,
नोइंग एक ही
बात है?
ईश्वर,
आत्मा,
सत्य सब सीख
लिया जा सकता
है? आप
बंधे—बधाए उत्तर
देने में
समर्थ हो जाते
हो। पर इसमें
और सुबह आपके
घर का तोता जो
बोलता है,
उसमें क्या
भेद है?
शास्त्रों
में सत्य
नहीं है, सत्य
तो स्वयं में
है। शास्त्रों
में तो केवल
शब्द है और
स्वयं में उस
सत्य को जान
लिया जाता है।
हां जान कर
शास्त्र
अवश्य जान
लिए जाते है।
पर
मैं क्या
देखता हूं कि
सत्य की जगह
शास्त्र
जाने जा रहे
है और उस
जानकारी से
तृप्ति भी
पाई जा रही
है। यह तृप्ति
कितनी थोथी और
मिथ्या है।
क्या यह इस
बात की सूचना
नहीं है कि हम
सत्य को तो
नहीं जानना
चाहते है, हम
केवल इतना ही
चाहते है कि
लोग जानें कि
हम सत्य को
जानते है। यदि
हम वस्तुत:
सत्य को
जानना चाहते
है तो मात्र
शब्दों से
तृप्ति नहीं
हो सकती थी।
क्या कभी
सुना है कि
मात्र ‘जल’ शब्द से
किसी की प्यास
शांत हुई है? और अगर हो
जाये तो क्या
ज्ञात नहीं
होता कि प्यास
थी ही नहीं?
शास्त्रों
से एक ही बात
ज्ञात हो जाए
कि शास्त्रों
से सत्य नहीं
मिल सकता है,
तो बस उनकी एक
मात्र
उपादेयता है। शब्द
इतना बात दे
कि शब्द व्यर्थ
है तो पर्याप्त
है। शास्त्र
तृप्त नहीं, अतृति दे तो
सही है। काफी
है। उनसे
ज्ञान तो न
मिले, अपने
अज्ञान का बोध
हो तो वह बहुत
है।
मैं
भी शब्द ही
बोल रहा हूं;
ऐसे ही शास्त्र
बन जाते है।
इन शब्दों को
पकड़ ले,
तो सब व्यर्थ
हो जाएंगे। इन्हें
कितना भी याद
कर लें तो कुछ
भी न होगा। ये
तो आपके मन का
कारागृह बन
जाएंगे। और
फिर आप जीवन
भर उस स्वनिर्मित
शब्द—कारा
में ही भटकते
रहेंगे। हम सब
अपने ही हाथों
से बनाई कैदों; प्रिज़म
में बंद है।
सत्य को
जानना है तो
शब्द की कैद
तो तोड़ दें।
इन दिवालों को
गिरा दें।
जानकारी,
इनफर्मेंशन
की घेराबंदी
को राख हो
जाने दे। उस
राख पर ही ज्ञान, नॉलिज का
जन्म होता
है। और उस
कारा—मुक्त
चैतन्य में
ही सत्य का
दर्शन होता है।
सत्य तो आता
है, पर वह आ सके
इसके लिए अपने
में जगह बनानी
होती है। शब्दों
को हटा दें तो
उसी रिक्त स्थान, स्पेस में उसका
पदार्पण होता
है।
प्रश्न: ओशो,
क्या व्यक्ति
से संघर्ष और
स्वयं का दमन
करके कभी अपने
को नहीं जीत
सकता है?
स्वयं
से संघर्ष और
स्वयं के दमन
का अर्थ क्या
है? क्या यही
अर्थ नहीं है
कि व्यक्ति
अपने आपको दो
में तोड़ ले? वह अपने में
ही लड़ेगा न? वही पक्ष
होगा, वह
विपक्ष होगा? शत्रु और
मित्र वही होगा
न? दोनों
ही और उसकी
शक्ति ही
लगेगी। इससे
जीत कभी नहीं
हो सकती। केवल
उसकी शक्ति
क्षीण और कम
ही होगी। मैं
जैसे अपने ही
दोनों हाथों
को लड़ाऊं तो
क्या होगा? स्वयं से
लड़ने सक भी
वही हो सकता
है। इस तरह का
संघर्ष एक दम
ही
अबुद्धिपूर्ण
है।
मित्र,
स्वयं से लड़ना
नहीं, स्वयं
को जानना है।
स्व—अज्ञान
के कारण जो
असंगतियां और
स्व—विरोध हममें
पैदा हुए हैं,
वे स्व—ज्ञान
के प्रकाश में
वैसे ही
वाष्पीभूत हो
जाएंगे, जैसे
सुबह सूरज के
निकलने पर दूब
पर जमे ओसकण विलीन
हो जाते हैं।
आत्म—विजय
संघर्ष से
नहीं, ज्ञान
से आती है।
क्योंकि वहां
कोई अन्य है
ही नहीं, जिसे
पराजित करना
है। अन्य नहीं
है, अज्ञान
है। और अज्ञान
को हराना क्या
है, ज्ञान
के आते ही वह
नहीं पाया
जाता है। वह
केवल अभाव है,
ज्ञान की
अनुपस्थिति
है। उससे जो
लड़ता है, वह
छाया से लड़ता
है। वह
प्रारंभ से ही
असफल होने के
मार्ग पर चल
रहा है।
आत्म—विजय
के लिए संघर्ष
की यह धारणा
बाहर के जगत में
शत्रुओं से
युद्ध की
धारणा के आधार
पर ही विकसित
हुई है। बाहर
जो हिंसा
शत्रु के
प्रति हम करते
हैं,
उसी आधार पर
भीतर भी हम
हिंसा करना
चाहते हैं।
कैसा पागलपन
है! हिंसा तो
बाहर भी कभी
किसी शत्रु को
नहीं जीत सकी
है। पराजित
करना बिलकुल
दूसरी बात है।
पर भीतर तो
जिसे हम शत्रु
मान रहे हैं, उसे हिंसा
से पराजित भी
नहीं किया जा
सकता है, क्योंकि
वहां तो दूसरा
कोई है ही
नहीं जो पराजित
भी हो सके।
आत्म—विजय
संघर्ष का
परिणाम नहीं
है, वह जान
का परिणाम है।
मैं
कहता हूं : लड़ो
नहीं, जानो; युद्ध नहीं,
ज्ञान। यही
सूत्र समझो।
अपने को उघाड़ो
और जानो।
स्वयं
के भीतर ऐसा
कुछ भी न रहे
जो कि अनजाना
है। अपने भीतर
ऐसा कोई कोना
न रह जाए जो कि
अंधेरा है और
अपरिचित है।
यदि इतने सारे
अंतकक्षों से
परिचित हो
जाऊं तो वही
परिचय आत्म—विजय
बन जाता है।
अंधेरे घरों
में,
कोनों में
और तलघरों में
जहां सूर्य का
प्रकाश नहीं
पहुंचता है और
हवाओं के ताजे
झोंके नहीं
पहुंचते हैं,
वहां सांप,
बिच्छू और
चमगादड़ अपना
आवास बना लेते
हैं। और ऐसे
घरों के वासी
यदि अपने
भवनों के बाहर
ही जीवन गुजार
देते हों और
कभी घरों में
प्रवेश ही न
करते हों, तो
क्या उनके
आवासों की यह
दुर्दशा
आश्चर्यजनक
है या कि
अस्वाभाविक
है? यही
हमारे साथ हुआ
है।
हम
भी ऐसे ही
घरों के मालिक
हैं जो कि
अपने ही घरों
में भीतर जाने
का रास्ता भूल
गए हैं, और
जिनके घरों
में प्रकाश के
अभाव में और
स्वयं की
अनुपस्थिति
के कारण उनके
ही शत्रु
अतिथि बने हुए
हैं।
प्रश्न:
ओशो आप कहते
हैं कि असद
वृत्तियों का
दमन घातक है? तब
क्या उनका भोग
ठीक है?
मैं
दमन को भी
नहीं कहता हूं
मैं भोग को भी
नहीं कहता हूं
मैं उनके
ज्ञान को कहता
हूं। भोग और
दमन दोनों
अज्ञान हैं, दोनों
घातक हैं। दमन
भोग की ही
प्रतिक्रिया
है व उसका ही
शीर्षासन
करता हुआ रूप
है। वह उससे
बहुत भिन्न
नहीं है। वह
उलटा होकर वही
है।
किसी
साधु के संबंध
में कोई मुझे
बताता था कि वे
धन को देख कर
दूसरी ओर मुंह
कर लेते हैं।
क्या यह धन को
देख कर मुंह
में पानी भर
आने से बहुत
भिन्न है? लोभ
से भागने से
यही होगा— लोभ
मिटेगा नहीं
विपरीत रूप ले
लेगा और सबसे बड़ी
कठिनाई तो यह
है कि वह
विपरीत रूप
में भी उतना
का उतना ही
बना रहेगा और
कहीं ज्यादा
सुरक्षित रूप
में, क्योंकि
अब वह स्वयं
को दिखना भी
बंद हो जाएगा।
वह तो रहेगा
ही और अलोभ का
भ्रम भी आ
जाएगा। यह एक
शत्रु को
निकाले जाकर
दो को आमंत्रण
दे आने जैसा
है।
मैं
चाहता हूं कि
हम लोग काम, क्रोध
को जानें—
उनसे लड़े भी
नहीं, उनका
अंधानुकरण भी
न करें। उनके
प्रति होश से
भरें— उनका
निरीक्षण, उनकी
पूरी
यांत्रिक
प्रक्रिया और
रूप से परिचित
हों।
क्या
कभी देखा है
कि क्रोध को
देखें तो वह
विलीन हो जाता
है?
पर हम या तो
भोग में लग
जाते हैं, या
दमन में लग
जाते हैं।
दोनों ही
स्थितियों
में, दोनों
ही विकल्पों
में उसे देख
नहीं पाते हैं।
वह
अनदिखा और
अपरिचित ही रह
जाता है। यही
भूल है। और
भोग या दमन
दोनों ही इस
भूल में
सहयोगी हैं।
उन
दोनों के
अतिरिक्त एक
तीसरा विकल्प
भी है। वही
मैं सुझाना
चाहता हूं। वह
है वृत्तियों
के दर्शन का—
उन्हें देखने
का। उनके साथ
कुछ करने का
नहीं, बस केवल
उन्हें देखने
का। इस भांति
जब आख उन पर
स्थिर होती है,
तो पाया
जाता है कि वे
विलीन और
विसर्जित हो
रही हैं। वे
आख को नहीं सह
पाती हैं। वे
केवल
मूर्च्छा में
ही संभव हैं।
सजग चेतता में
वे मर जाती
हैं और
निष्प्राण हो
जाती हैं।
हमारी
मूर्च्छा ही,
हमारा
उन्हें न
देखना ही उनका
जीवन है। वे
अंधेरे के
कीड़े—मकोड़ों
की तरह हैं।
प्रकाश आते ही
उनके प्राण—पखेरू
उड़ जाते हैं।
आज
इतना ही।
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