सूत्र:
33—बादलों के
पार नीलाकाश
को देखने
मात्र से शांति
को,
सौम्यता को
उपलब्ध होओ।
34—जब
परम रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो,
उसे
श्रवण करो।
अविचल,
अपलक आंखों से;
अविलंब
परम मुक्ति
को उपलब्ध
होओ।
35—किसी
गहरे कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी
उसकी
गहराईयों में
निरंतर देखते
रहो—जब तक
विस्मय—विमुग्ध
न हो जाओ।
36—किसी
विषय को देखो,
फिर धीरे—धीरे
उससे
अपनी
दृष्टि हटा
लो, और फिर
धीरे—धीरे
उससे
अपने विचार
अलग कर लो। तब!
हम अपनी
सतह पर जीते
हैं—किनारे—किनारे, सीमा
पर।
इंद्रियां
महज सीमा पर
हैं; और
तुम्हारी
चेतना गहरे
केंद्र पर है।
और हम
इंद्रियों
में जीते हैं।
वह स्वाभाविक
है, लेकिन
वहां जीवन का
परम फूल नहीं
खिलता है; वह
तो उसका आरंभ भर
है।
और
जब हम
इंद्रियों
में जीते हैं
तो हम बुनियादी
तौर से विषयों
में अटके रहते
हैं,
क्योंकि
विषय— भोग के
बिना
इंद्रियां
अप्रासंगिक
हैं, व्यर्थ
हैं। उदाहरण
के लिए, आंखें
व्यर्थ हैं
अगर देखने को
कुछ न हो, कान
व्यर्थ हैं
अगर सुनने को
कुछ न हो और
हाथ व्यर्थ
हैं अगर छूने
को कुछ न हो।
हम इंद्रियों
के तल पर जीते
हैं, इसलिए
हमें विषयों
में जीना पड़ता
है।
इंद्रियां
हमारे होने की
सीमा पर हैं, हमारे शरीर
में हैं। और
विषय तो सीमा
पर भी नहीं
हैं; वे
सीमा के भी
पार हैं।
इसलिए
इन विधियों
में प्रवेश के
पहले तीन बातें
समझ लेने जैसी
हैं। एक कि
चेतना केंद्र
पर है। दूसरी
कि जिनके
द्वारा चेतना
बाहर जाती है
वे इंद्रियां
सीमा पर हैं।
और तीसरी कि
संसार के विषय, जिनकी
ओर चेतना
इंद्रियों के
माध्यम से
गतिमान होती
है, सीमा
के भी पार हैं।
इन बातों को
साफ—साफ समझने
की कोशिश करो;
क्योंकि तब
ये विधियां
सरल हो जाएंगी।
इस बात को
दूसरी दिशा से
समझो। एक कि
इंद्रियां
बीच में हैं।
उनके एक तरफ
चेतना है और
दूसरी तरफ
विषयों का संसार
है। और
इंद्रियां
ठीक बीच में
हैं, मध्य
में हैं।
इंद्रियों से
तुम दोनों ओर
यात्रा कूर
सकते हो। वहा
से विषयों की
ओर जा सकते हो
और वहां से
केंद्र की
यात्रा भी कर
सकते हो। और
दोनों तरफ की
दूरियां समान
हैं।
इंद्रियों से
दोनों ओर
द्वार खुलते
हैं; वहां
से चाहे तुम
विषयों की तरफ
जाओ या केंद्र
की तरह जाओ।
तुम
इंद्रियों
में हो।
इसीलिए
प्रसिद्ध झेन
गुरु बोकोजू
ने कहा कि निर्वाण
और संसार समान
दूरी पर हैं।
यह मत सोचो कि
निर्वाण बहुत
दूर है। संसार
और निर्वाण, यह
लोक और वह लोक,
दोनों समान
दूरी पर हैं।
इस
कथन ने बहुत
विभ्रम पैदा
किया; क्योंकि
हम समझते हैं
कि निर्वाण
बहुत—बहुत दूर
है, मोक्ष
या प्रभु का
राज्य बड़ी
दूरी पर है।
और हम समझते
हैं कि संसार
बहुत निकट है, हाथ के पास
है, यहीं
है। लेकिन
बोकोजू कहता है—
और वह सही
कहता है—कि
दोनों की दूरी
एक ही है।
संसार
यहां है और
निर्वाण भी यहां
है। संसार
निकट है और
निर्वाण भी
निकट है।
निर्वाण के
लिए तुम्हें
भीतर जाना
होगा; संसार
के लिए, विषयों
के लिए बाहर
जाना होगा।
लेकिन दूरी
समान है। मेरी
आंखों से मेरा
केंद्र उतनी
ही दूरी पर है
जितनी दूरी पर
तुम हो। मैं
बाहर जाकर
तुम्हें देख
सकता हूं और
भीतर जाकर
अपने को देख
सकता हूं। और
हम इंद्रियों
के द्वार पर
हैं।
लेकिन
स्वभावत:
शारीरिक
जरूरतें ऐसी
होती हैं कि
चेतना बहुत
सहजता से बाहर
की ओर प्रवाहित
होती है।
तुम्हें भोजन
चाहिए, पीने
को पानी चाहिए,
रहने को घर
चाहिए। ये
तुम्हारी
शारीरिक
जरूरतें हैं
और ये सिर्फ
संसार में मिल
सकती हैं।
इसलिए चेतना
बहुत सहजता से
संसार की ओर
प्रवाहित
होती है। जब
तक तुम ऐसी
जरूरत नहीं
पैदा करते जो
भीतर जाने से
ही तृप्त होती
हो तब तक तुम
कभी भीतर नहीं
जाओगे।
उदाहरण
के लिए, अगर
कोई बच्चा
आत्म—निर्भर
ही पैदा हो, उसे भोजन की
कतई जरूरत न
हो, तो वह
मां की ओर आंख
उठाकर भी नहीं
देखेगा। मां
उसके लिए
अप्रासंगिक
हो जाएगी, व्यर्थ
हो जाएगी।
बच्चे के लिए
अर्थ मां में
नहीं है, भोजन
में है। मां
उसका पहला
भोजन है। और चूंकि
मां उसे भोजन
देती है और
उसकी
बुनियादी
जरूरत पूरी
करती है, अन्यथा
वह मर जाएगा, इसलिए बच्चा
मां को प्यार
करता है। वह
प्यार छाया की
तरह आता है; क्योंकि मां
बच्चे की
बुनियादी जरूरत
पूरी करती है।
तो
जो माता अपने
बच्चों को
बोतल का दूध
पिलाती हैं
उन्हें उनसे
बहुत प्यार की
अपेक्षा नहीं करनी
चाहिए। बच्चे
की जरूरत भोजन
है,
मां नहीं।
मां उसके जीवन
में भोजन के
द्वारा ही
प्रवेश करेगी।
यही कारण है
कि भोजन और
प्रेम के बीच
इतना घनिष्ठ
संबंध है। अगर
तुम्हारी
प्रेम की
आवश्यकता
पूरी हो जाए तो
तुम्हारी
भोजन की मांग
कम हो जाएगी।
और यदि प्रेम
न मिले, प्रेम
की आवश्यकता
तृप्त न हो, तो तुम
ज्यादा से
ज्यादा भोजन
मांगोगे।
इसलिए
जो लोग प्रेम
करते हैं और
प्रेम पाते हैं
वे बहुत
मोटापे के
शिकार नहीं
होते, उनके
शरीर पर बहुत
चर्बी नहीं
जमा होती।
मोटापे का यह
बुनियादी
कारण है, हालांकि
उसके और कारण
भी हो सकते
हैं। भोजन
प्रेम का
परिपूरक बन
जाता है, प्रेम
के अभाव में
लोग बहुत खाने
लगते हैं।
बच्चे
के लिए भोजन
उसकी
बुनियादी
जरूरत है।
लेकिन अगर
बच्चा आत्म—निर्भर
ही जन्म ले, उसे
जीने के लिए
भोजन या किसी
बाहरी चीज की
जरूरत न हो तो
वह संसार में
गति ही नहीं
करेगा। या कि
तुम सोचते हो
कि वह करेगा? उसकी जरूरत
ही नहीं होगी।
और जरूरत के
बिना ऊर्जा
कभी गति नहीं
करती है। हम
संसार में
इसलिए नहीं
जाते हैं
क्योंकि हम
पापी हैं, वरन
हम बाहर की
यात्रा इसलिए
करते हैं
क्योंकि हमारी
जरूरतें बाहर
जाने से ही
पूरी हो सकती
हैं। जरूरत की
चीजें बाहर ही
हैं।
और
तुम भीतर
क्यों नहीं
जाते हो? कारण
यह है कि
तुमने भीतर
जाने की जरूरत
ही नहीं पैदा
की है। एक बार
जरूरत पैदा हो
जाए तो भीतर
भी जाना उतना
ही आसान है
जितना
बाहर
जाना। वह
जरूरत क्या है? वह
जरूरत धर्म से
संबंधित है।
उसे पूरा किए
बिना तुम
धार्मिक नहीं
हो सकते। मगर
वह पैदा कैसे
की जाती है? वह
प्रक्रिया
क्या है जिससे
उस गहरी जरूरत
का बोध हो जो
भीतर ले जाने
में मदद करती
है?
इस
प्रसंग में
तीन बातें याद
रखने की हैं।
पहली बात कि
मृत्यु है।
याद रहे, जीवन
की सारी
जरूरतें
तुम्हें बाहर
जाने को मजबूर
करती हैं। यदि
तुम भीतर जाना
चाहते हो तो
मृत्यु की चिंता
बुनियादी
चिंता होनी
चाहिए, अन्यथा
तुम भीतर नहीं
जा सकते।
बुद्ध जैसे
लोग मृत्यु के
प्रति गहरे
बोध से भरकर
ही
अंतर्यात्रा
पर निकले थे।
मृत्यु के
प्रति सजग
होने पर ही
पीछे लौटकर देखने
की जरूरत का
जन्म होता है।
जीवन
बहिर्मुखी है।
मृत्यु के बोध
के बिना धर्म
तुम्हारे लिए
अर्थहीन है।
यही कारण है
कि पशुओं में
कोई धर्म नहीं
है। पशु जीवित
हैं,
उतने ही
जीवित हैं
जितना मनुष्य
जीवित है, मनुष्य
से बढ़कर जीवित
हैं; लेकिन
उन्हें
मृत्यु का बोध
नहीं है।
उन्हें
मृत्यु की
धारणा नहीं है;
उन्हें
भविष्य में
होने वाली
अपनी मृत्यु
का पता नहीं
है। पशु भी
देखता है कि
दूसरे मरते
हैं; लेकिन
इससे उसे अपनी
मृत्यु का कभी
एहसास नहीं
होता।
पशु
के लिए मृत्यु
सदा दूसरे की
होती है। और
अगर तुम्हारे
लिए भी मृत्यु
का यही अर्थ है
कि वह दूसरे
की होती है तो
तुम भी पशु—चित्त
की अवस्था में
जी रहे हो।
तुम्हें यदि
मृत्यु का बोध
नहीं हुआ है
तो तुम अभी
मनुष्य नहीं
हुए हो। पशु
और मनुष्य में
यही मौलिक भेद
है। पशु को
मृत्यु का बोध
नहीं हो सकता, सिर्फ
मनुष्य को यह
बोध होता है।
यदि तुम्हें
मृत्यु का बोध
नहीं हो तो
तुम अभी
मनुष्य नहीं
हो। और केवल
मनुष्य भीतर
जाने की जरूरत
निर्मित करता
है।
मेरे
लिए मनुष्य
वही है जिसे मृत्यु
का बोध है।
मैं यह नहीं
कहता कि
मृत्यु से डरो; वह
बोध नहीं है।
सिर्फ इस तथ्य
के प्रति सजग
रहो कि मृत्यु
निकट से
निकटतर आ रही
है और हमें
उसके लिए
तैयार रहना है।
जीवन
की अपनी
जरूरतें हैं।
मृत्यु अपनी
अलग जरूरतें
पैदा करती है।
यही कारण है
कि युवा समाज
अधार्मिक
होते हैं।
युवा समाज को
मृत्यु का बोध
नहीं रहता; यह
उसकी
केंद्रीय
चिंता नहीं है।
भारत के जैसे
बूढ़े समाज को,
जो दुनिया
के अत्यंत
वृद्ध समाजों
में से एक है, मृत्यु का
बोध गहन है।
और इसी बोध के
कारण भारत
बहुत गहरे में
धार्मिक है।
तो
पहली तो बात
यह है कि
मृत्यु के
प्रति सजग होओ।
उस पर विचार
करो,
उसे देखो।
उस पर मनन करो।
डरो मत और
तथ्य से भागो
मत। मृत्यु है
और उससे बचा
नहीं जा सकता
है। तुम्हारे
साथ ही मृत्यु
अस्तित्व में
आ गई है।
तुम्हारे साथ
ही तुम्हारी
मृत्यु का
जन्म हुआ है
और तुम उससे
बच नहीं सकते।
तुमने उसे
अपने भीतर
छिपा रखा है।
उसके प्रति
जागरूक हो जाओ।
जिस
क्षण तुम इस
बोध से भरोगे
कि मैं मरने
वाला हूं कि
मेरी मृत्यु
निश्चित है, उसी
क्षण
तुम्हारा
पूरा चित्त
किसी भिन्न आयाम
में गतिमान हो
जाएगा। तब
भोजन शरीर की
ही बुनियादी
जरूरत रहेगी,
आत्मा की
नहीं। भोजन के
बावजूद
मृत्यु होती
है; वह
तुम्हें
मृत्यु से नहीं
बचा सकता।
भोजन मृत्यु
को केवल टालने
में सहयोगी
होता है। वैसे
ही अच्छा मकान
भी मृत्यु से
नहीं बचा सकता
है। अच्छा
मकान तुम्हें
आराम से, सुविधा
से मरने की
व्यवस्था जुटा
देगा। लेकिन
चाहे सुविधा
से मरो या
असुविधा से, मृत्यु की
घटना एक ही है।
जीवन में तुम
गरीब या अमीर
हो सकते हो; लेकिन मृत्यु
में सब बराबर
है। मृत्यु
में सर्वाधिक
साम्यवाद है।
तुम कैसे भी
जीओ, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। मृत्यु
समान ढंग से
घटती है। जीवन
में समानता
असंभव है; मृत्यु
में असमानता
असंभव है।
तो
मृत्यु के
प्रति सजग होओ, उस
पर मनन करो।
ऐसा भी नहीं
है कि मृत्यु
दूर भविष्य
में ही निश्चित
है; वह कभी
भी घट सकती है।
अगर तुम्हारी
यह धारणा है
कि मृत्यु
बहुत दूर है
तो तुम उस पर
मनन न कर
सकोगे। मन की
सीमा है; उसका
दायरा बहुत
छोटा है। तीस
वर्षों के आगे
तुम नहीं सोच
सकते हो। और
अगर तुम्हारी
मृत्यु तीस
वर्ष बाद होने
वाली है तो यह
ऐसा ही है
जैसे कि तुम
मरने वाले नहीं
हो। तीस वर्ष
इतनी दूरी है;
दूरी बड़ी है।
अगर तीस
वर्षों के बाद
मरना हो तो वह
मरना न मरने
जैसा है।
अगर
तुम मृत्यु पर
मनन करना चाहते
हो तो यह समझो
कि मृत्यु
अगले क्षण
घटित होने जा
रही है। वह
अगले क्षण भी
संभव है, हो
सकता है कि
तुम यहां मेरा
पूरा वाक्य भी
न सुन सको, हो
सकता है कि
मैं यह वाक्य
भी पूरा न कर
पाऊं।
मेरे
नाना कहते थे
कि जब मेरा
जन्म हुआ तो
उन्होंने एक
ज्योतिषी को, उस
समय के सब से
प्रसिद्ध
ज्योतिषी को
मेरी कुंडली बनाने
को कहा।
ज्योतिषी ने
मेरे ग्रह—नक्षत्रों
का अध्ययन
करके कहा कि
अगर यह बच्चा
सात वर्ष पार
कर जाएगा तो
मैं इसकी
कुंडली बना
दूंगा। यह
असंभव लगता है
कि यह सात
वर्ष से
ज्यादा जी पाएगा।
सातवें वर्ष
पर इसका
मृत्यु—योग है;
इसलिए इसकी
कुंडली बनाना
व्यर्थ है। और
यह मेरा नियम
रहा है कि जब
तक मैं यह न
समझूं कि यह
कुंडली काम
आएगी, मैं
कुंडली नहीं
बनाता हूं। और
उन्होंने
कुंडली नहीं
बनाई।
भाग्य
या दुर्भाग्य
से मैं जीवित
रह गया। तब
मेरे नाना फिर
उस ज्योतिषी
के पास पहुंचे।
लेकिन तब तक
उनकी मृत्यु
हो चुकी थी, वे
मेरी कुंडली न
बना सके। वे
खुद चल बसे।
और तब से मैं
इस बात पर
विचार करता
रहा हूं।
उन्हें यह
मालूम था कि
यह लड़का मरने
वाला है; लेकिन
उन्हें यह
नहीं मालूम था
कि मैं खुद मर जाऊंगा।
उन्हें नहीं
मालूम था। ऐसा
लगता है कि
उन्हें इस बात
की चिंता ही
नहीं रही। और
वे कोई मामूली
आदमी नहीं थे।
लेकिन कोई भी
तो अपनी
मृत्यु की
चिंता नहीं करता
है। सोच—समझकर,
चालाकी से
हम मृत्यु की
चिंता करने से
बचते हैं; क्योंकि
मृत्यु भय
पैदा करती है।
इसलिए मुझे
सदा संदेह रहा
है कि उन
ज्योतिषी ने
अपनी कुंडली
नहीं देखी
होगी, अन्यथा
वे जरूर जान
जाते।
मृत्यु
अगले क्षण भी
संभव है।
लेकिन मन यह
मानने को कभी
राजी नहीं
होगा। मैं यहां
यह बात कर रहा
हूं और
तुम्हारा मन
कहेगा कि नहीं, मृत्यु
अगले क्षण
कैसे संभव है!
यह बहुत दूर है।
लेकिन वह मन
की चालाकी है।
अगर तुम
मृत्यु को
स्थगित करते
हो, दूर
हटा देते हो, तो तुम उस पर
मनन नहीं कर
सकते। उसे
इतना निकट
होना चाहिए कि
तुम उस पर
अवधान दे सको।
और जब मैं
कहता हूं कि
मृत्यु अगले
क्षण संभव है
तो मैं एक
सत्य कहता हूं।
यही होता है।
जब भी मृत्यु
होगी, वह
अगला क्षण
होगा। उस क्षण
के पहले तुम सोच
नहीं सकते थे
कि मृत्यु
होने वाली है।
एक
व्यक्ति मर
रहा है; एक
क्षण पूर्व वह
कल्पना नहीं
कर सकता था कि
उसकी मृत्यु इतनी
आसन्न है। याद
रहे, मृत्यु
सदा अगले क्षण
होती है। सदा
यही हुआ है; सदा यही
होगा। वह अगले
क्षण ही घटित
होती है। तो
उसको निकट ले
आओ, ताकि
उस पर ध्यान
कर सको। वह ध्यान
तुम्हें
भीतर प्रवेश
दिला देगा;
वह ध्यान
अंतर्यात्रा दूसरी
बात कि तुम
यों ही जीए
चले जाते हो।
तुम अभी के
लिए झूठे अर्थ
और उद्देश्य
निर्मित किए
जाते हो। तुम
कभी अपने पूरे
जीवन पर विचार
नहीं करते कि
उसमें कोई
अर्थ भी है या
नहीं। तुम सतत
नए अर्थ पैदा
किए चलते हो
और उनके सहारे
जीए जाते हो।
यही
कारण है कि
गरीब आदमी के
जीवन में धनी
आदमी से
ज्यादा अर्थ
होता है; क्योंकि
उसे अभी बहुत
कुछ पाने को
है। उससे उसके
जीवन में अर्थ
आता है। अगर
तुम सच में
धनी हो तो
उसका मतलब है
कि तुम्हारे
पास सभी कुछ
है जो संभव है;
अब यह संसार
तुम्हें और
कुछ नहीं दे
सकता। और तब
तुम्हारा
जीवन बहुत
अर्थहीन हो
जाता है। अब
तुम इस क्षण
के लिए, इस
दिन के लिए और
कोई अर्थ नहीं
पैदा कर सकते
ताकि तुम जी
सको।
यही
कारण है कि जो
समाज जितना
धनी होता है, जो
संस्कृति
जितनी समृद्ध
होती है, वह
उतनी ही अधिक
अर्थहीनता
अनुभव करने
लगती है। गरीब
समाजों को इस
अर्थहीनता का
कभी अनुभव नहीं
होता।
एक
गरीब आदमी है; वह
एक घर बनाना
चाहता है।
वर्षों वह इस
घर के लिए
मेहनत करता
रहेगा। उसके
जीवन में एक
अर्थ है; उसे
कुछ उपलब्ध
करना है। और
जब उसे घर मिल
जाएगा तो वह
उस घर से कुछ
समय के लिए
सुख अनुभव
करेगा। फिर
उससे भी बड़े
मकान हैं; वह
उनकी फिक्र
करने लगेगा।
ऐसे वह चलता
जाएगा। उसे
अपने पूरे
जीवन पर विचार
करने का मौका
ही नहीं मिलेगा
कि उसमें कुछ
अर्थ भी है।
वह अपने समग्र
जीवन के प्रति
कभी विमर्श से
नहीं भरता है।
थोड़ा
सोचो कि
तुम्हारे पास
सब कुछ है—घर, कार
और वह सब जो
तुम चाहते थे।
तुम्हारे
सपने पूरे हो
गए हैं। फिर
क्या होगा? थोड़ी कल्पना
करो कि
तुम्हारी सभी
जरूरतें पूरी
हो गई हैं, तुम्हारे
पास सब कुछ है,
तब क्या
होगा? अचानक
तुम्हारे
जीवन से अर्थ
विदा हो जाएगा।
तुम अब एक अतल
खाई में खड़े
हो और असहाय
हो। तुम
व्यर्थ हो
जाओगे।
तुम
अभी भी व्यर्थ
हो;
सिर्फ
तुम्हें इसका
बोध नहीं है।
अगर तुम्हें
सारा संसार भी
मिल जाए तो
क्या होगा? क्या उपलब्धि
है?
सिकंदर
भारत आ रहा था।
वह एक महान
संत डायोजनीज
से मिलने गया।
वह अदभुत संत
था। महावीर की
तरह वह नग्न
रहता था। वह
यूनानी
संस्कृति का
महावीर था।
उसने सब त्याग
दिया था। और
यह त्याग कुछ
पाने के लिए
नहीं था। जो
कुछ पाने के
लिए किया जाए
वह सच्चा
त्याग नहीं है, प्रामाणिक
त्याग नहीं है।
अगर तुम कुछ
पाने के लिए
त्याग करते हो
तो वह सौदा है।
अगर तुम सोचते
हो कि त्याग
करने से
स्वर्ग में
तुम्हारी जगह
आरक्षित हो
जाएगी तो वह
त्याग नहीं है।
अगर तुम
आध्यात्मिक
सुख के लिए
भौतिक सुखों
का त्याग करते
हो तो वह भी
त्याग नहीं है।
डायोजनीज
ने बदले में
कुछ पाने के
लिए त्याग नहीं
किया था; उसने
यह देखने के लिए
त्याग किया था
कि जब कुछ
नहीं रहता है
तब जीवन में
अर्थ रहता है
या नहीं। उसने
समझा कि जब
कुछ भी नहीं
रहे और उसके
बावजूद जीवन में
अर्थवत्ता हो,
जीवन की कोई
नियति रह जाए,
तो मृत्यु
कुछ भी नहीं
कर सकती।
मृत्यु तो
बाहर की संपदा
भर छीनती है। और
शरीर बाहर की संपदा
है।
तो
डायोजनीज ने
सब त्याग दिया
था। उसके पास
सिर्फ एक चीज
बची थी; वह था
पानी पीने के
लिए लकड़ी का
एक पात्र और
वह उसे संपदा में
नहीं गिनता था।
तब एक दिन
उसने एक बच्चे
को हाथ की
अंजुलि से पानी
पीते देखा और
उसने तुरंत
अपना पात्र
फेंक दिया।
उसने कहा कि
जब एक बच्चा
हाथ से पानी
पी सकता है तो
क्या मैं
बच्चे से भी
कमजोर हूं!
जब
सिकंदर
दुनिया को
जीतने के
इरादे से भारत
आ रहा था, किसी
ने उससे कहा
कि तुम्हारे
रास्ते में ही,
जहां तुम
रुकोगे, एक
महान संत रहता
है, जो
तुमसे ठीक
उलटा है। उससे
कहा गया कि
तुम विश्व—साम्राज्य
बनाने निकले
हो और उसने
अपना जल—पात्र
भी फेंक दिया
है; क्योंकि
वह कहता है कि
मैं उसके बिना
भी सुखी हूं
तो इतना भार
भी क्यों ढोऊं।
और तुम कहते
हो कि जब तक
सारे संसार पर
मेरा राज्य
नहीं स्थापित
हो जाएगा तब
तक मैं सुखी
नहीं हो सकता।
तो डायोजनीज
तुमसे सर्वथा
विपरीत है और
अच्छा होगा कि
तुम उससे
मिलते जाना।
सिकंदर
को उत्सुकता
हुई। ऐसा होता
है कि विपरीत
सदा मोहित
करता है; विपरीत
में बहुत
आकर्षण है।
सेक्स में जो
पुरुष स्त्री
से आकर्षित
होता है, स्त्री
पुरुष के
प्रति
आकर्षित होती
है, वह
विपरीत का ही
आकर्षण है।
विपरीत मोहक
है। सिकंदर
डायोजनीज को
भुला नहीं सका।
लेकिन फिर
उसके मन में
प्रतिष्ठा की
बात उठी। उसका
डायोजनीज के
पास जाना उचित
नहीं था और यह
असंभव था कि
डायोजनीज
उसके पास आता।
फिर उपाय क्या
था?
तो
डायोजनीज को
खबर भेजी गई।
अनेक
संदेशवाहक
कहने आए कि
सिकंदर महान
इस रास्ते से
आ रहे हैं, अच्छा
हो कि आप उनसे
मिलें।
डायोजनीज ने
कहा. 'महान
सिकंदर? किसने
यह बात तुमसे
कही? मैं
सोचता हूं उसी
ने कहा होगा।
अपने महान
सिकंदर से कह
दो कि वे मुझे
कुछ भी नहीं
दे सकते हैं
और उन्हें
मुझसे मिलने
की जरूरत नहीं
है; मैं एक
बहुत छोटा
आदमी हूं।’ डायोजनीज तो
कहा करता था
कि मैं आदमी
भी नहीं हूं
बस कुत्ता हूं।
तो उसने
संदेशवाहकों
से कहा कि यह
महान सिकंदर
की प्रतिष्ठा
के विरुद्ध
होगा कि वे एक
कुत्ते से मिलें।
आखिर
में सिकंदर को
ही आना पड़ा।
डायोजनीज ने
सिकंदर से कहा
: 'मैंने सुना
है कि तुम
दुनिया को
जीतने जा रहे हो।
यह सुनकर
मैंने अपनी आंखें
बंद कीं और
विचार किया कि
यदि मैं सारे
संसार को जीत
लूं तो क्या
होगा? निरंतर
मैंने इस पर
विचार किया कि
यदि मैं सारे
संसार को जीत
भी लूं तो
क्या होगा?' कहा जाता है
कि यह सुनकर
सिकंदर बहुत
उदास हो गया।
उसने
डायोजनीज से
कहा 'ऐसी
बातें मत कहो
कि तब क्या
होगा। यह
सुनकर मुझे
बहुत दुख होता
है।’
डायोजनीज
ने कहा. 'वही
होने वाला है।
दुनिया को
जीतकर तुम
दुखी ही होगे।
मैं क्या कर
सकता हूं! मैं
तो सिर्फ
कल्पना करता
हूं और तब इस
नतीजे पर
पहुंचा हूं कि
यह सब व्यर्थ
है। तुम
आत्मघात के
रास्ते पर हो।
तुम दुनिया को
जीतने में सफल
भी हो जाओ तो
क्या होगा?'
सिकंदर
डायोजनीज के
पास से बहुत
दुखी और बेचैन
होकर वापस आया।
और उसने अपने
साथियों से
कहा कि यह
आदमी बहुत खतरनाक
है,
उसने मेरे
सभी सपने चूर—चूर
कर दिए।
तब से सिकंदर
ने डायोजनीज
को कभी क्षमा
नहीं किया। और
न उसे भूल ही सका।
जिस दिन उसकी
मृत्यु हुई, उसने फिर इस
संत को स्मरण
किया और कहा
कि हो सकता है कि
वह सही हो; वह
ठीक कहता था
कि जीतने के
बाद क्या होगा?
तो
सदा स्मरण रखो
कि तुम जो भी
करो,
जो भी
तुम्हारी
उपलब्धि हो, अपने से यह
जरूर पूछो कि
इस जीत के बाद
क्या होगा? क्या इसमें
कोई अर्थ भी
है? या कि
यह तुम्हारे
ही द्वारा
दिया गया एक
झूठा अर्थ है,
ताकि तुम इस
भ्रम में रहो
कि मैं कुछ कर
रहा हूं जो
मूल्यवान है।
सच्चाई
यह है कि तुम
निरंतर अपनी
ऊर्जा, अपना
जीवन गंवा रहे
हो, कुछ
मूल्यवान
नहीं कर रहे
हो। जगत में
एक ही चीज
मूल्यवान है,
वह यह कि
तुम किसी की
सहायता के
बिना, किसी
पर निर्भर हुए
बिना आनंदित
हो सको। और तुम
तभी आनंदित हो
सकते हो जब
तुम्हारा
आनंद तुम्हारे
परम एकांत में
घटित हो और
अकारण घटित हो।
अन्यथा तुम
दुखी रहोगे, सदा दुखी
रहोगे।
पराधीनता
दुख है, निर्भरता
दुख है। जो
लोग धन पर
निर्भर हैं, जो लोग
संगृहीत
ज्ञान पर
निर्भर हैं, या किसी भी
चीज पर निर्भर
हैं, वे
सिर्फ दुख
बटोरते हैं।
इसलिए यह
प्रश्न पूछने
जैसा है, महत्वपूर्ण
है कि
तुम्हारे
जीवन में कोई
अर्थ भी है या
तुम व्यर्थ
भटक रहे हो? ऐसा तो नहीं
है कि तुमने
अपने को समझा
लिया है कि
मेरे जीवन का
यह या वह अर्थ
है?
एक
आदमी मेरे पास
आता था। वह
निरंतर कहता
था कि अगर
मेरा बेटा
कालेज में
पहुंच जाएगा
तो मेरा काम
पूरा हो जाएगा
और मैं सुखी
हो जाऊंगा। वह
गरीब आदमी था, एक
मामूली
क्लर्क था। और
उसका एक ही
सपना था कि
उसका बेटा
कालेज में पहुंच
जाए। फिर बेटा
कालेज भी
पहुंच गया और
अब वह वन—विभाग
का एक अधिकारी
हो गया है।
कुछ
महीने पहले वह
अधिकारी मेरे
पास आया और उसने
कहा कि मुझे
अभी सिर्फ छह
सौ रुपए महीने
मिल रहे हैं
और मेरे दो
लड़के हैं।
मेरा एक ही
सपना है कि
दोनों लड़कों
को अच्छी शिक्षा
मिले, बस।
इसके लिए मैं
कठिन श्रम भी
करता हूं।
मेरी चाह इतनी
ही है कि दोनों
लड़के शिक्षित
हो जाएं और
उनमें से कोई
एक विदेश जाकर
ऊंची शिक्षा
प्राप्त करे।
इस
आदमी के पिता
अब नहीं हैं, वे
चल बसे। उनके
जीवन का इतना
ही उद्देश्य
था कि अपने इस बेटे
को पढ़ा—लिखाकर
कहीं
व्यवस्थित कर
दें। अब वह
बेटा भी अच्छी
जगह पर है और
उसके जीवन का भी
वही उद्देश्य
है कि अपने दो
बेटों को पढ़ा—लिखाकर
किसी अच्छे पद
पर लगा दे। और
यह आदमी भी
मरेगा तो इसके
बाद इसके
बच्चे इसी
मूढ़ता में लग
जाएंगे।
इस
सब का मतलब
क्या है? तुम
कर क्या रहे
हो? सिर्फ
समय गंवा रहे
हो; सिर्फ
जीवन नष्ट कर
रहे हो। या कि
तुम्हारे पास
कुछ प्रामाणिक
अर्थवत्ता है
जो कि
तुम्हारे
जीवन में सुख
और आनंद भरती
हो? यह
दूसरी बात है
जो तुम्हें
अंतर्मुखी
बना सकती है।
और
तीसरी बात, आदमी
भूलता रहता है।
तुम चीजों को
भूल— भूल जाते
हो। कल तुमने
क्रोध किया था
और फिर
पश्चात्ताप
भी किया था।
यह अब तुम्हें
याद ही नहीं
है और यदि वही
कारण फिर
मौजूद हो जाए
तो तुम फिर
क्रोध करोगे।
यह तुम
जिंदगीभर
करते रहे हो।
तुम वही—वही
दोहराते रहते
हो। ऐसा आदमी
खोजना बहुत
मुश्किल है जो
जीवन से कुछ
सीखता हो, वह
आदमी बहुत
दुर्लभ है; सच में कोई
नहीं सीखता है।
अगर तुम सीखो
तो तुम एक ही
भूल दोबारा
नहीं कर सकते।
तुम बार—बार
वही भूलें
करते हो। और
जितनी ज्यादा
बार करते हो
उतने ही
ज्यादा उसके
आदी हो जाते
हो।
तुम
बार—बार क्रोध
करते हो, बार—बार
पश्चात्ताप
भी करते हो और
उससे कुछ
सीखते नहीं।
अगर तुम्हारे
क्रोध को
उकसाने वाला
वही कारण फिर
उपस्थित हो तो
तुम फिर क्रोध
करोगे, फिर
वही पागलपन
दोहराओगे। और
फिर
पश्चात्ताप
भी करोगे, पश्चात्ताप
भी उसका
हिस्सा बन गया
है। ऐसे तुम
बार—बार उकसाए
जाओगे और
क्रोध करोगे।
तो
तीसरी बात कि
अगर भीतर की
तरफ मुड़ना
चाहते हो तो
जीवन से सीखो।
जो भी करो, उससे
सीखो, उसका
सार—निचोड़
निकाल लो।
पीछे लौटकर
देखो कि तुम
अपने जीवन के
साथ, अपनी
ऊर्जा के साथ,
समय के साथ
क्या कर रहे
हो। वही भूलें,
वही
मूढ़ताएं, वही
पागलपन फिर—फिर
दोहरा रहे हो।
तुम कोल्हू के
बैल की भांति
गोल—गोल घूमते
रहते हो। यह
कहना ठीक नहीं
है कि तुम
चक्र को चलाते
हो; चक्र
ही तुम्हें
चलाता है। तुम
यंत्रवत चलते
रहते हो, चलते
रहते हो।
भारत
में हम जगत को
संसार कहते
हैं;
संसार का
अर्थ चक्र ही
होता है।
संसार चक्र है
जो घूमता रहता
है, घूमता
रहता है। और
तुम भी इस
चक्र के किसी
डंडे से लटके
हुए घूमते
रहते हो। जब
तक तुम इस
संसार के
संबंध में, इस चक्र के
संबंध में
नहीं सीखते, तुम इसके
दुश्चक्र के
संबंध में
नहीं सीखते, तब तक तुम
उसके डंडे को
छोड्कर बाहर
छलांग नहीं ले
सकते।
तो
ये तीन शब्द, तीन
सूत्र याद रखो
: मृत्यु, अर्थवत्ता
और सीखना।
मृत्यु का सतत
मनन करो; अपने
जीवन में
अर्थवत्ता की
खोज करो, और
जीवन से सीखो।
सीखने का कोई
दूसरा उपाय
नहीं है।
शास्त्र
तुम्हें कुछ
नहीं दे सकते
हैं। अगर
तुम्हें
तुम्हारा
जीवन कुछ नहीं
दे सकता तो और
कोई क्या दे
सकता है? अपने
जीवन से ही
सीखो, उससे
ही निष्पत्तिया
निकालो। यह
तुम अपने साथ
क्या कर रहे
हो? यदि
संसार—चक्र
में फंसे हो
तो उससे बाहर
निकलो। लेकिन
यह जानने के
लिए कि मैं
चक्र में फंसा
हूं तुम्हें
समझ और सीख की
गहराई में
जाना होगा। ये
तीन चीजें
तुम्हें
अंतर्मुखी
होने में सहयोगी
होंगी।
अब
विधियां :
बादलों के
पार नीलाकाश
को देखने
मात्र से
शांति को सौम्यता
को उपलब्ध होओ।
मैंने
इतनी बातें
इसलिए बताईं
कि ये विधियां
बहुत सरल हैं।
और उन्हें
प्रयोग करके
भी तुम्हें
कुछ नहीं मिलेगा।
और तब तुम
कहोगे, ये
किस ढंग की
विधियां हैं!
तुम कहोगे कि
इन विधियों को
तो हम अपने आप
ही कर सकते
हैं। केवल
आकाश को, बादलों
के पार
नीलाकाश को
देखते—देखते
कोई शांत हो
जाए, आप्तकाम
हो जाए!
बादलों
के पार
नीलाकाश को
तुम देखते रह
सकते हो, और
कुछ भी घटित
नहीं होगा। तब
तुम कहोगे कि
ये कैसी
विधियां हैं!
तुम कहोगे कि
शिव के मन में
जो भी आता है
वे बोल देते
हैं; उसमें
कोई तर्क या
बुद्धि नहीं
है। यह कैसी
विधि कि
बादलों के पार
नीलाकाश को देखते—देखते
शांति को
उपलब्ध हो
जाओ!
लेकिन
यदि तुम्हें
मृत्यु,
अर्थवत्ता
और सिखावन के
तीन सूत्र याद
रहें तो यह
विधि तुम्हें
तुरंत भीतर की
तरफ मुड़ने में
सहायता देगी।
'बादलों के
पार नीलाकाश
को देखने
मात्र से.।’
इस
सूत्र में
विचारना नहीं, देखना
बुनियादी है।
आकाश असीम है,
उसका कहीं
अंत नहीं है।
उसे महज देखो।
वहां कोई विषय—वस्तु
नहीं है। यही
कारण है कि
आकाश चुना गया
है। आकाश कोई
विषय नहीं है।
भाषागत रूप से
वह विषय है; लेकिन
अस्तित्व में
वह कोई विषय
नहीं है। विषय
वह है जिसका
आरंभ और अंत
हो। तुम किसी
विषय के चारों
ओर घूम सकते
हो; लेकिन
आकाश की
परिक्रमा
नहीं कर सकते।
तुम आकाश में
ही हो, लेकिन
तुम आकाश के
चारों तरफ
नहीं घूम सकते।
तुम आकाश के
विषय बन सकते
हो; लेकिन
आकाश तुम्हारा
विषय नहीं बन
सकता। आकाश
में तो तुम
झांक सकते हो;
लेकिन आकाश
पर नहीं झांक
सकते। और आकाश
में झांकना
अनंत काल तक
चल सकता है; उसका कोई
अंत नहीं है।
तो
नीले आकाश को
देखो और देखते
ही रहो। उसका
कोई अंत नहीं
है;
उसकी कोई
सीमा नहीं है।
और उसके संबंध
में सोच—विचार
मत करो। मत
कहो कि यह
कितना सुंदर
है। मत कहो कि
यह कितना मोहक
है। उसके
रंगों की
प्रशंसा मत
करो। उससे
सोचना शुरू हो
जाएगा। और
सोचना शुरू
करते ही देखना
बंद हो जाता
है, अब
तुम्हारी आंखें
अनंत आकाश में
गति नहीं कर
रहीं। इसलिए
सिर्फ देखो।
अनंत आकाश में
गति करो।
विचार मत करो,
शब्द मत
बनाओ। शब्द
बाधा बन जाते
हैं। इतना भी
मत कहो कि यह
नीलाकाश है।
इसे शब्द ही
नहीं दो। इसे
नीलाकाश का
महज दर्शन
रहने दों—निर्दोष
दर्शन।
आकाश
का कहीं अंत
नहीं है, इसलिए
तुम्हारे
देखने का भी
अंत नहीं आ
सकता। तुम
देखते जाओगे,
देखते ही
जाओगे। और
क्योंकि वहां
कोई विषय नहीं
है, मात्र
शून्य है, इसलिए
अचानक तुम
अपने प्रति
जाग जाओगे।
क्यों?
क्योंकि
शून्य में
इंद्रियां
व्यर्थ हो जाती
हैं। यदि कोई
विषय हो तो
इंद्रियों की
सार्थकता है।
अगर तुम किसी
फूल को देख
रहे हो तो वह
किसी विषय को
देखना हुआ।
फूल है, लेकिन
आकाश नहीं है।
हम
किसे आकाश
कहते हैं? उसे
जो है नहीं।
आकाश का अर्थ
जगह या स्थान
होता है। सभी
चीजें आकाश
में हैं, लेकिन
आकाश स्वयं
कोई चीज नहीं
है, विषय
नहीं है। आकाश
शून्य है, रिक्तता
है, खाली
स्थान है, जिसमें
विषय हो सकते हैं।
आकाश स्वयं
शुद्ध खालीपन
है। इस शुद्ध
खालीपन को
देखो; इस
शुद्ध
रिक्तता को
देखो।
इसलिए
सूत्र कहता है
कि बादलों के
पार नीलाकाश
को देखो। बादल
आकाश नहीं हैं; वे
आकाश में
तिरते हुए
विषय हैं। तुम
बादलों को भी
देख सकते हो; लेकिन उससे
कुछ नहीं होगा।
बादलों को नहीं,
चांद—तारों
को भी नहीं, वरन विषय—शून्यता
को देखना है, विराट
रिक्तता को
देखना है। उसे
ही देखो। उससे
क्या होगा?
शून्य
में
इंद्रियों के
पकड़ने के लिए
कोई विषय नहीं
है। और जब
पकड़ने को, चिपकने
को कोई विषय न
हो, तो
इंद्रियां
बेकार हो जाती
हैं। और अगर
तुम नीलाकाश
को बिना सोचे—विचारे
देखते ही चले
जाओ तो अचानक
किसी क्षण तुम्हें
लगेगा कि सब
कुछ विलीन हो
गया है,
सिर्फ शून्य
बचा है। और इस
विलीनता में, इस शून्य
में अपना बोध
होगा, तुम
अपने प्रति
जाग जाओगे।
रिक्तता को
देखते—देखते
तुम भी रिक्त
हो जाओगे।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारी आंखें
दर्पण की
भांति हैं।
उनके सामने जो
कुछ भी प्रकट
होता है, दर्पण
उसे
प्रतिबिंबित
कर देता है।
मैं
तुम्हें
देखता हूं तुम
दुखी हो। और
तब सहसा वह
दुख मुझ में
प्रविष्ट हो
जाता है। अगर
कोई दुखी आदमी
तुम्हारे
कमरे में
प्रवेश करता
है तो तुम भी दुखी
हो जाते हो।
क्या हो जाता
है?
तुमने दुख
को देखा, और
क्योंकि तुम
दर्पण की
भांति हो, इसलिए
वह दुख तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाता है।
कोई व्यक्ति
दिल खोलकर
हंसता है और
अचानक तुम भी
हंसी से भर
जाते हो। हंसी
संक्रामक है।
लेकिन
हुआ क्या? तुम
दर्पण की तरह
हो; तुम
चीजों को
प्रतिबिंबित
करते हो। तुम
कोई सुंदर चीज
देखते हो; वह
चीज तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाती है।
तुम कोई कुरूप
चीज देखते हो;
वह चीज भी
तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाती है।
तुम जो कुछ भी
देखते हो वह
तुम्हारे
भीतर गहरे रूप
से प्रविष्ट
हो जाता है, वह तुम्हारी
चेतना का
हिस्सा बन
जाता है।
अगर
तुम रिक्तता
को,
शून्य को
देख रहे हो तो
कुछ भी
प्रतिबिंबित
होने जैसा
नहीं है, या
है तो सिर्फ
अनंत नीलाकाश
है। और अगर यह
असीम नीलाकाश
तुममें
प्रतिबिंबित हो
जाए, अगर
तुम अपने अंतस
में उस आकाश
को अनुभव कर
सको, तो
तुम शांत हो
जाओगे, सौम्य
हो जाओगे।
आकाश शांत और
सौम्य है। और
अगर तुम शून्य
को अनुभव कर
सको—जहां
नीलिमा, आकाश
सब कुछ विलीन
हो जाता है—तो
तुम्हारे
अंतस में भी
वह शून्य
प्रतिबिंबित
होगा। और
शून्य में तुम
चिंतित कैसे
हो सकते हो? तनावग्रस्त
कैसे हो सकते
हो? शून्य
में मन कैसे
सक्रिय रह
सकता है? शून्य
में मन ठहर
जाता है, विदा
हो जाता है।
और मन के विदा
होते ही—मन जो
तनाव और चिंता
से, संगत—असंगत
विचारों से
भरा है—उसके
विदा होते ही
तुम शांति को
उपलब्ध हो जाते
हो।
एक
बात और। शून्य
जब अंतस में
प्रतिबिंबित
होता है, तो वह
निर्वासन। बन
जाता है, अचाह
बन जाता है।
चाह ही तनाव
है। चाह करते
ही तुम
चिंताग्रस्त
हो जाते हो।
तुम्हें एक
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़ती है
और अचानक
वासना पैदा हो
जाती है।
तुम्हें एक
सुंदर मकान
दिखाई पड़ता है
और तुम उसे
पाना चाहते हो।
तुम्हारे पास
से एक सुंदर
कार निकलती है
और तुम्हें
इच्छा पकड़ती
है कि मैं भी
इस कार में
बैठकर चलूं।
बस, वासना
पैदा हो गई।
और वासना के
साथ ही मन
चिंतित हो
उठता है कि उसे
कैसे पाया जाए,
क्या किया
जाए। मन
आशावान हो
उठता है या
निराश, लेकिन
दोनों हालतों
में वह सपने
देख रहा है।
कई बातें हो
सकती हैं।
जब
चाह पैदा होती
है तो तुम
उपद्रव में
पड़ते हो। मन
अनेक खंडों
में टूट जाता
है और अनेक
योजनाएं, सपने
और प्रक्षेपण
शुरू हो जाते
हैं। बस, पागलपन
शुरू हुआ। चाह
पागलपन का बीज
है।
लेकिन
शून्य कोई
विषय नहीं है, वह
बस शून्य है।
तुम शून्य को
देखते हो तो
कोई म् चाह
नहीं पैदा
होती है। हो
नहीं सकती है।
तुम शून्य पर
अधिकार करना
नहीं चाहते; न तुम शून्य
को प्रेम करना
चाहते हो।
शून्य से तुम
मकान भी नहीं
बना सकते हो; शून्य से
कुछ भी तो
नहीं कर सकते।
शून्य में मन
की सब गति रुक
जाती है; कोई
कामना नहीं
उठती। और जहां
चाह नहीं है
वहीं शांति है।
तुम सौम्य और
शांत हो जाते
हो। तुम्हारे
भीतर सहसा
शाति का
विस्फोट होता
है। तुम
आकाशवत हो गए।
दूसरी
बात कि तुम
जिस चीज का भी
मनन—चिंतन
करते हो, तुम
उसके जैसे ही
हो जाते हो, तुम वही हो
जाते हो।
क्योंकि मन
अनंत रूप
धारणा कर सकता
है। तुम जो भी
चाहते हो, मन
उसका ही रूप
ले लेता है; तुम वही बन
जाते हो। जो
आदमी धन—दौलत
के पीछे भागता
है, उसका
मन धन—दौलत
बनकर रह जाता
है। उसे हिलाओ
और तुम उसके
भीतर रुपयों
की झनझनाहट
सुनोगे, और
कुछ नहीं
सुनोगे। तुम
जो भी चाहते
हो तुम वही हो
जाते हो। इसलिए
अपनी चाह के
प्रति सावधान
रहो; क्योंकि
तुम वही हो
जाते हो।
आकाश
सर्वथा रिक्त
है,
खाली है।
उससे ज्यादा
रिक्त और क्या
होगा! और वह
तुम्हारे
बिलकुल निकट
है। उसके लिए
कुछ खर्चा
करने की भी
जरूरत नहीं है।
और उसे पाने
के लिए
तुम्हें
हिमालय या
तिब्बत या
कहीं भी नहीं
जाना है।
विज्ञान ने, टेक्नालाजी
ने सब कुछ
नष्ट कर दिया
है; लेकिन
आकाश बचा हुआ
है। तुम उसका
उपयोग कर सकते
हो। इसके पहले
कि वे उसे भी
नष्ट कर दें, तुम उसका
उपयोग कर लो।
किसी भी दिन
वे उसे नष्ट
कर देंगे। उसे
देखो, उसमें
प्रवेश करो, उसमें गहरे
डूबो। लेकिन
याद रहे, यह
देखना
निर्विचार
देखना हो। तब
तुम अपने अंतस
में उसी आकाश
को अनुभव करोगे,
उसी आयाम को
अनुभव करोगे।
तब वही विराट,
वही नीलिमा,
वही शून्य
तुम्हारे
भीतर होगा।
यही
कारण है कि
शिव कहते हैं : 'बादलों
के पार
नीलाकाश को
देखने मात्र
से शांति को, सौम्यता को
उपलब्ध होओ।’
देखने
की अगली विधि:
जब परम
रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो उसे
श्रवण करो।
अविचल अपलक आंखों
से; अविलंब
परम मुक्ति को
उपलब्ध होओ
'जब परम
रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो, उसे
श्रवण करो।’
यह
एक गुह्य विधि
है। इस गुह्य
तंत्र में
गुरु तुम्हें
अपना उपदेश या
मंत्र गुप्त
ढंग से देता
है। जब शिष्य
तैयार होता है
तब गुरु उसे
उसकी निजता
में वह परम
रहस्य या
मंत्र
संप्रेषित
करता है। वह
उसके कान में
चुपचाप कह
दिया जाएगा, फुसफुसा
दिया जाएगा।
यह विधि उस
फुसफुसाहट से
संबंध रखती है।
'जब परम
रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो, उसे
श्रवण करो।’
जब
गुरु निर्णय
करे कि तुम
तैयार हो और
उसके अनुभव का
गुह्य रहस्य
तुम्हें
बताया जा सकता
है,
जब वह समझे
कि वह क्षण आ
गया है कि
तुम्हें वह कहा
जा सके जो
अकथनीय है, तब इस विधि
का उपयोग होता
है।
'अविचल, अपलक
आंखों से; अविलंब
परम मुक्ति को
उपलब्ध होओ।’
जब
गुरु अपना
गुह्य ज्ञान
या मंत्र
तुम्हारे कान
में कहे तो
तुम्हारी आंखों
को बिलकुल
स्थिर रहना
चाहिए; उनमें
किसी तरह की
भी गति नहीं
होनी चाहिए।
इसका
मतलब है कि मन
निर्विचार हो, शांत
हो। पलक भी
नहीं हिले; क्योंकि पलक
का हिलना
आंतरिक
अशांति का
लक्षण है। जरा
सी गति भी न हो।
केवल कान बन
जा, भीतर
कोई भी हलचल न
रहे। और
तुम्हारी
चेतना निष्क्रिय,
खुली, ग्राहक
की अवस्था में
रहे—गर्भ धारण
करने की
अवस्था में।
जब ऐसा होगा, जब वह क्षण
आएगा जिसमें
तुम समग्रत:
रिक्त होते हो,
निर्विचार
होते हो, प्रतीक्षा
में होते हो—किसी
चीज की
प्रतीक्षा
में नहीं, क्योंकि
वह विचार करना
होगा, बस
प्रतीक्षा
में—जब यह अचल
क्षण, ठहरा
हुआ क्षण घटित
होगा, जब
सब कुछ ठहर
जाता है, समय
का प्रवाह बंद
हो जाता है और
चित्त समग्रत:
रिक्त है, तब
अ—मन का जन्म
होता है। और अ—मन
में ही गुरु
उपदेश
प्रेषित करता
है।
और
गुरु कोई लंबा
प्रवचन नहीं
देगा, वह बस दो
या तीन शब्द
ही कहेगा। उस
मौन में उसके
वे एक या दो या
तीन शब्द
तुम्हारे
अंतर्तम में
उतर जाएंगे, केंद्र में
प्रविष्ट हो
जाएंगे और वे
वहा बीज बनकर
रहेंगे।
इस
निष्क्रिय
जागरूकता में, इस
मौन में ' अविलंब
परम मुक्ति को
उपलब्ध होओ।’
मन से मुक्त
होकर ही कोई
मुक्त हो सकता
है। मन से
मुक्ति ही
एकमात्र
मुक्ति है, और कोई
मुक्ति नहीं
है। मन ही
बंधन है, दासता
है, गुलामी
है।
इसलिए
शिष्य को गुरु
के पास उस
सम्यक क्षण की
प्रतीक्षा
में रहना होगा
जब गुरु उसे
बुलाएगा और उपदेश
देगा। उसे
पूछना भी नहीं
है,
क्योंकि
पूछने का मतलब
चाह है, वासना
है। उसे
अपेक्षा भी
नहीं करनी है;
क्योंकि
अपेक्षा का
अर्थ शर्त है,
वासना है, मन है। उसे
सिर्फ अनंत
प्रतीक्षा
में रहना है।
और जब वह
तैयार होगा, जब उसकी
प्रतीक्षा
समग्र हो
जाएगी, तो
गुरु कुछ
करेगा। कभी—कभी
तो गुरु छोटी
सी चीज करेगा
और बात घट
जाएगी।
और
सामान्यत: यदि
शिव एक सौ
बारह विधियां
भी समझा दें
तो कुछ नहीं
होगा। कुछ भी
नहीं होगा, क्योंकि
तैयारी नहीं
है। तुम पत्थर
पर बीज बोओ तो
क्या होगा? उसमें बीज
का दोष भी
नहीं है। ऋतु
के बाहर बीज
बोने से कुछ
नहीं होता है।
उसमें बीज का
दोष नहीं है।
सम्यक मौसम
चाहिए, सम्यक
घड़ी चाहिए, सम्यक भूइम
चाहिए। तो ही
बीज जीवित हो
उठेगा, रूपांतरित
होगा।
तो
कभी—कभी छोटी
सी चीज काम कर
जाती है।
उदाहरण के लिए, लिंची
ज्ञान को प्राप्त
हुआ जब वह
अपने गुरु के
दालान में बैठा
था। गुरु आया
और हंसा। गुरु
ने लिंची की आंखों
में देखा और
ठहाका मारकर
हंस पड़ा।
लिंची भी हंसा,
गुरु के
चरणों में सिर
रखा और वहां
से विदा हो गया।
लेकिन
वह छह वर्षों
से मौन
प्रतीक्षा
में था; वह
दालान छह
वर्षों तक उसका
घर बना था।
गुरु रोज आता
था और लिंची
को आंख उठाकर
भी नहीं देखता
था। और वह
वहीं रहता था।
दो वर्षों के
बाद उसने पहली
बार उसे देखा।
जब और दो वर्ष
बीते तो उसने
उसकी पीठ
थपथपाई। और
लिंची
प्रतीक्षा
करता रहा, प्रतीक्षा
करता रहा। छह
वर्ष पूरे
होने पर गुरु
आया और उसकी आंख
में आंख डालकर
जोर से हंसा।
अवश्य
ही लिंची ने
इस विधि का
अभ्यास किया
होगा।
'जब परम
रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो, उसे
श्रवण करो।
अविचल, अपलक
आंखों से, अविलंब
परम मुक्ति को
उपलब्ध होओ।’
गुरु
ने देखा और
हंसी को अपना माध्यम
बनाया। वह
महान सदगुरु
था। सच तो यह
है कि शब्द
जरूरी नहीं थे, मात्र
हंसी से काम
हो गया। अचानक
वह हंसी फूटी
और लिंची के
भीतर कुछ घटित
हो गया। उसने
सिर झुकाया, वह भी हंसा
और विदा हो
गया। उसने
लोगों को
बताया कि मैं
अब नहीं हूं
कि मैं मुक्त
हो गया।
वह
अब नहीं था, यही
मुक्ति का
अर्थ है। तुम
मुक्त नहीं
होते, तुम
अपने से मुक्त
होते हो। और
लिंची ने
बताया कि यह
कैसे हुआ।
वह
छह वर्षों तक
प्रतीक्षा
में रहा। यह
लंबी
प्रतीक्षा थी, धैर्यपूर्ण
प्रतीक्षा थी।
वह दालान में
बैठा रहता था।
गुरु रोज ही
आता था। और वह
ठीक घड़ी की
प्रतीक्षा
करता कि जब
लिंची तैयार
हो तो वह कुछ
करे। और छह
वर्षों तक
प्रतीक्षा
करते—करते तुम
ध्यान में उतर
ही जाओगे। और
क्या करोगे? लिंची ने
कुछ दिनों तक
पुरानी बातों
को सोचा—विचारा
होगा। लेकिन
यह कब तक चले?
अगर
तुम मन को रोज—रोज
भोजन न दो तो
धीरे— धीरे मन
ठहर जाता है।
एक ही चीज को
तुम कितने
दिनों तक बार—बार
चबाते रहोगे? वह
बीती बातों पर
विचार करता
रहा होगा, फिर
धीरे— धीरे
नया ईंधन न
मिलने के कारण
उसका मन ठहर
गया। उसे न
पढ़ने की इजाजत
थी, न गपशप
करने की। उसे
घूमने—फिरने
और किसी से
मिलने की भी
मनाही थी। उसे
अपनी शारीरिक
जरूरतों को
पूरा करके
चुपचाप
इंतजार करना
था। दिन आए और
गए; रातें
आईं और गईं, गर्मी आई और
गई; जाड़ा
आया और गया; वर्षा आई—गई।
धीरे— धीरे वह
समय की गिनती
भूल गया, उसे
पता नहीं था
कि वह कहा
कितने दिनों
से टिका था।
और
तब एक दिन
सहसा गुरु आया
और उसने लिंची
की आंखों में झांका।
लिंची की आंखें
भी सहसा ठहर
गई होंगी, अचल
हो गई होंगी।
यही क्षण था।
छह वर्ष लगे
थे इसमें।
उसकी आंखों
में जरा भी
गति नहीं थी।
गति होती तो
वह चूक जाता।
सब कुछ मौन हो
चुका था। और
तब अचानक
अट्टाहास!
गुरु पागल की
तरह हंसने लगा।
और वह हंसी
लिंची के
अंतर्तम में
सुनी गई होगी;
वहां तक
पहुंच गई होगी।
तो
जब लिंची से
लोगों ने पूछा
कि तुम्हें
क्या हुआ तो
उसने कहा. 'जब
मेरे गुरु
हंसे, सहसा
मुझे प्रतीति
हुई कि सारा
संसार एक मजाक
है। उनकी हंसी
में यह संदेश
था. सारा
संसार महज एक मजाक
है, नाटक है।
उस प्रतीति के
साथ गंभीरता
विदा हो गई।
अगर संसार एक
मजाक है तो
फिर कौन बंधन
में है और
किसे मुक्ति
चाहिए!' लिंची
ने कहा कि 'अब
बंधन नहीं रहा।
मैं सोचता था
कि मैं बंधन
में हूं और
इसलिए मैं
बंधन—मुक्त
होने की
चेष्टा करता
था। गुरु की
हंसी के साथ
बंधन गिर गया।’
कभी—कभी
इतनी छोटी—छोटी
बातों से घटना
घट गई है कि
उसकी तुम कल्पना
भी नहीं कर
सकते। ऐसी
अनेक झेन
कहानियां हैं।
एक झेन गुरु
मंदिर के घंटे
की आवाज सुनकर
संबोधि को
प्राप्त हो
गया। घंटे की
आवाज सुनते—सुनते
उसके भीतर कुछ
चकनाचूर हो
गया। एक झेन
साध्वी पानी
की बहंगी ढो
रही थी, और
ज्ञान को
प्राप्त हो गई।
एकाएक बास टूट
गया और घड़े
फूट गए। उसकी
आवाज, घड़ों
का फूटना, पानी
का बहना, और
साध्वी आत्मोपलब्ध
हो गई। क्या
हुआ?
तुम
बहुत से घड़े
फोड़ दे सकते
हो,
और कुछ नहीं
होगा। लेकिन
साध्वी के लिए
ठीक क्षण आ
गया था। वह
पानी भरकर लौट
रही थी। उसके
गुरु ने कहा
था 'आज रात
मैं तुम्हें
गुह्य मंत्र
देने वाला हूं।
इसलिए जाकर
स्नान कर ले
और मेरे लिए
दो घड़े पानी
ले आ। मैं भी
स्नान कर
लूंगा और तब
तुम्हें वह
मंत्र
बताऊंगा
जिसके लिए तुम
इंतजार कर रही
हो।’ साध्वी
जरूर
आह्लादित हो उठी
होगी कि
सौभाग्य का
क्षण आ गया।
उसने स्नान
किया, घड़े
भरे और उन्हें
लेकर वापस चली।
पूर्णिमा
की रात थी। और
जब वह नदी से
आश्रम को जा
रही थी कि राह
में ही बांस
टूट गया। और
जब वह पहुंची
तो गुरु उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा था। गुरु
ने उसे देखा
और कहा कि अब
जरूरत न रही, घटना
घट गई। अब
मुझे कुछ नहीं
कहना है; तुमने
पा लिया।
वह
की साध्वी कहा
करती थी कि
बांस के टूटने
के साथ ही
मेरे भीतर कुछ
टूट गया, मेरे
भीतर भी कुछ
मिट गया। ये
दो घड़े क्या
फूटे मेरा
शरीर ही टूट
गिरा। मैंने
आकाश में चांद
को देखा और
पाया कि मेरे भीतर
सब कुछ शांत
और सौम्य था।
और तब से मैं
नहीं हूं।
मुक्ति या
मोक्ष का यही
अर्थ है।
देखने
की अगली विधि:
किसी गहरे
कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी
गहराइयों में
निरंतर देखते
रहो— जब तक
विस्मय—
विमुग्ध न हो
जाओ।
ये
विधियां थोड़े
से फर्क के
साथ एक जैसी
हैं।
'किसी गहरे कुएं
के किनारे खड़े
होकर उसकी
गहराइयों में
निरंतर देखते
रहो—जब तक
विस्मय—विमुग्ध
न हो जाओ।’
किसी
गहरे कुएं में
देखो; कुआं
तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाएगा।
सोचना बिलकुल
भूल जाओ; सोचना
बिलकुल बंद कर
दो; सिर्फ
गहराई में
देखते रहो। अब
वे कहते हैं
कि कुएं की
भांति मन की
भी अपनी गहराई
है। अब पश्चिम
में वे गहराई
का
मनोविज्ञान
विकसित कर रहे
हैं। वे कहते
हैं कि मन कोई
सतह पर ही
नहीं है, वह
उसका आरंभ भर
है। उसकी
गहराइयां हैं,
अनेक
गहराइया हैं,
छिपी
गहराइयां हैं।
किसी
कुएं में
निर्विचार
होकर झांको; गहराई
तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाएगी। कुआं
भीतरी गहराई
का बाह्य
प्रतीक बन
जाएगा। और
निरंतर
झांकते जाओ—जब
तक कि तुम
विस्मय—विमुग्ध
न हो जाओ। जब
तक ऐसा क्षण न
आए, झांकते
ही चले जाओ, झांकते ही
चले जाओ।
दिनों, हफ्तों,
महीनों
झांकते रहो।
किसी कुएं पर
चले जाओ, उसमें
गहरे देखो।
लेकिन ध्यान
रहे कि मन में
सोच—विचार न
चले। बस ध्यान
करो, गहराई
में ध्यान करो।
गहराई के साथ
एक हो जाओ—ध्यान
जारी रखो।
किसी दिन
तुम्हारे
विचार
विसर्जित हो
जाएंगे। यह
किसी क्षण भी
हो सकता है।
अचानक
तुम्हें
प्रतीत होगा
कि तुम्हारे
भीतर भी वही कुआं
है, वही
गहराई है। और
तब एक अजीब, बहुत अजीब
भाव का उदय
होगा, तुम
विस्मय—विमुग्ध
अनुभव करोगे।
च्चांगत्सु
अपने गुरु
लाओत्सु के
साथ एक पुल पर
से गुजर रहा
था। कहा जाता
है कि लाओत्सु
ने
च्चांगत्सु
से कहा कि
यहां रुको और
यहां से नीचे
नदी को देखते
रहो—और तब तक
देखते रहो जब
तक नदी रुक न
जाए और पुल न
बहने लगे। अब
नदी बहती है, पुल
कभी नहीं बहता।
लेकिन
च्चांगत्सु
को यह ध्यान
दिया गया कि
इस पुल पर
रहकर नदी को
देखते रहो।
कहते हैं कि
उसने पुल पर
झोपड़ी बना ली और
वहीं रहने
लगा। महीनों
गुजर गए और वह
पुल पर बैठकर
नीचे नदी में
झांकता रहा, और उस क्षण
की प्रतीक्षा
करने लगा, जब
नदी रुक जाए
और पुल बहने
लगे। ऐसा होने
पर ही उसे
गुरु के पास
जाना था।
और
एक दिन ऐसा ही
हुआ;
नदी ठहर गई
और पुल बहने
लगा।
यह
कैसे संभव है? यदि
विचार पूरी
तरह ठहर जाएं
तो कुछ भी हो
सकता है।
क्योंकि
हमारी
बंधीबंधाई
मान्यता के
कारण ही नदी
बहती हुई
मालूम पड़ती है
और पुल ठहरा
हुआ। यह
सापेक्ष है, महज सापेक्ष।
आइंस्टीन
कहता है, भौतिकी
कहती है कि सब
कुछ सापेक्ष
है। तुम एक
तेज चलने वाली
रेलगाड़ी में
यात्रा कर रहे
हो। क्या होता
है? पेड़
भाग रहे हैं, भागे जा रहे
हैं। और अगर
रेलगाड़ी में
हलन—चलन न हो, जिससे कि
रेल के चलने
का एहसास होता
है और तुम खिड़की
से बाहर देखो,
तो गाड़ी
नहीं, पेड़
भागते मालूम
होंगे।
आइंस्टीन
ने कहा है कि
अगर दो
रेलगाड़ियां
या दो
अंतरिक्ष यान
अंतरिक्ष में
अगल—बगल एक ही
गति से चलें
तो तुम्हें
पता ही नहीं चलेगा
कि वे चल रहे
हैं। तुम्हें
चलती गाड़ी का
पता इसलिए
चलता है क्योंकि
उसके बगल. में
ठहरी हुई
चीजें हैं।
यदि वे न हों, या
समझो कि पेड़
भी उसी गति से
चलने लगें, तो तुम्हें
गति का पता
नहीं चलेगा, तुम्हें
लगेगा कि सब
कुछ ठहरा हुआ
है। या यदि दो
गाड़ियां अगल—बगल
में विपरीत
दिशा में भाग
रही हों तो
प्रत्येक की
गति दुगुनी हो
जाएगी।
तुम्हें
लगेगा कि वे
बहुत तेज
भागने लगी हैं।
वे
तेज नहीं
भागने लगी हैं।
गाड़ियां वही
हैं,
गति वही है;
लेकिन
विपरीत
दिशाओं में
गति करने के
कारण तुम्हें
दुगुनी गति का
अनुभव होता है।
और अगर गति
सापेक्ष है तो
यह मन का कोई
ठहराव है जो
सोचता है कि
नदी बहती है
और पुल ठहरा
हुआ है।
निरंतर
ध्यान करते—करते
च्चांगत्सु
को बोध हुआ कि
सब कुछ सापेक्ष
है। नदी बह
रही है; क्योंकि
तुम पुल को
थिर समझते हो।
बहुत गहरे में
पुल भी बहु
रहा है। इस
जगत में कुछ
भी थिर नहीं
है। परमाणु घूम
रहे हैं; इलेक्ट्रान
घूम रहे हैं; पुल भी अपने
भीतर निरंतर
घूम रहा है।
सब कुछ बह रहा
है, पुल भी
बह रहा है।
च्चांगत्सु
को पुल की
आणविक संरचना
की झलक मिल गई
होगी।
अब
तो वे कहते
हैं कि यह जो
दीवार थिर
दिखाई देती है, वह
सच में थिर
नहीं है।
उसमें भी गति
है। प्रत्येक
इलेक्ट्रान
भाग रहा है, लेकिन गति
इतनी तीव्र है
कि दिखाई नहीं
देती। इसी वजह
से तुम्हें
थिर मालूम
पड़ती है।
यदि
यह पंखा
अत्यंत तेजी
से चलने लगे
तो तुम्हें
उसके पंखे या
उनके बीच के
स्थान नहीं
दिखाई देंगे।
और अगर वह
प्रकाश की गति
से चलने लगे
तो तुम्हें
लगेगा कि वह
कोई थिर गोल
चक्का है।
उसमें कुछ भी
गतिमान नहीं
मालूम पड़ेगा; क्योंकि
इतनी तीव्र
गति को आंखें
पकड नहीं
सकतीं।
च्चांगत्सु
को पुल के अणु—अणु
की झलक जरूर
मिल गई होगी।
उसने इतनी
प्रतीक्षा की
कि उसकी
बंधीबंधाई मान्यता
विलीन हो गई।
तब उसने देखा
कि पुल बह रहा
है और पुल का
बहाव इतना
तीव्र है कि
उसकी तुलना
में नदी ठहरी
हुई मालूम हुई।
तब
च्चांगत्सु
भागा हुआ
लाओत्सु के
पास गया।
लाओत्सु ने
कहा कि ठीक है, अब
पूछने की भी
जरूरत नहीं है।
घटना घट गई।
क्या
घटना घटी? अ—मन
घटित हुआ है।
यह
विधि कहती है 'किसी
गहरे कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी
गहराइयों में
निरंतर देखते
रहो—जब तक
विस्मय—विमुग्ध
न हो जाओ।’
जब
तुम विस्मय—विमुग्ध
हो जाओगे, जब
तुम्हारे ऊपर
रहस्य का
अवतरण होगा, जब मन नहीं
बचेगा, केवल
रहस्य और
रहस्य का
माहौल बचेगा,
तब तुम
स्वयं को
जानने में
समर्थ हो
जाओगे।
देखने
की एक और विधि :
किसी विषय
को देखो फिर
धीरे— धीरे
उससे अपनी
दृष्टि हटा लो
और फिर धीरे—
धीरे उससे
अपने विचार
हटा लो। तब!
'किसी विषय
को देखो.......।’
किसी
फूल को देखो।
लेकिन याद रहे
कि इस देखने
का अर्थ क्या
है। केवल देखो, विचार
मत करो। मुझे
यह बार—बार
कहने की जरूरत
नहीं है। तुम
सदा स्मरण रखो
कि देखने का
अर्थ देखना भर
है; विचार
मत करो। अगर
तुम सोचते हो
तो वह देखना
नहीं है, तब
तुमने सब कुछ
दूषित कर दिया।
यह शुद्ध
देखना है; महज
देखना।
'किसी विषय
को देखो...।’
किसी
फूल को देखो।
गुलाब को देखो।
'फिर धीरे—
धीरे उससे
अपनी दृष्टि
हटा लो।’
पहले
फूल को देखो, विचार
हटाकर देखो।
और जब तुम्हें
लगे कि मन में
कोई विचार
नहीं बचा
सिर्फ फूल बचा
है, तब
हलके—हलके
अपनी आंखों को
फूल से अलग
करो। धीरे—
धीरे फूल
तुम्हारी
दृष्टि से ओझल
हो जाएगा पर
उसका बिंब
तुम्हारे साथ
रहेगा। विषय
तुम्हारी
दृष्टि से ओझल
हो जाएगा, तुम
दृष्टि हटा
लोगे। अब
बाहरी फूल तो
नहीं रहा; लेकिन
उसका
प्रतिबिंब
तुम्हारी
चेतना के दर्पण
में बना रहेगा।
'किसी विषय
को देखो, फिर
धीरे—धीरे
उससे अपनी
दृष्टि हटा लो,
और फिर धीरे—धीरे
उससे अपने
विचार हटा लो।
तब!'
तो
पहले बाहरी
विषय से अपने
को अलग करो।
तब भीतरी छवि
बची रहेगी; वह
गुलाब का
विचार होगा।
अब उस विचार
को भी अलग करो।
यह कठिन होगा।
यह दूसरा
हिस्सा कठिन
है। लेकिन अगर
पहले हिस्से
को ठीक ढंग से
प्रयोग में ला
सको जिस ढंग
से वह कहा गया
है, तो यह
दूसरा हिस्सा
उतना कठिन
नहीं होगा।
पहले विषय से
अपनी दृष्टि
को हटाओ। और
तब आंखें बंद
कर लो। और
जैसे तुमने
विषय से अपनी
दृष्टि अलग की
वैसे ही अब
उसकी छवि से
अपने विचार को,
अपने को अलग
कर लो। अपने
को अलग करो, उदासीन हो
जाओ। भीतर भी
उसे मत देखो; भाव करो कि
तुम उससे दूर
हो। जल्दी ही
छवि भी विलीन
हो जाएगी। पहले
विषय विलीन
होता है, फिर
छवि विलीन
होती है। और
जब छवि विलीन
होती है, शिव
कहते हैं : 'तब!'
तब तुम
एकाकी रह जाते
हो। उस
एकाकीपन में,
उस एकांत
मैं व्यक्ति
स्वयं को
उपलब्ध होता
है, वह
अपने केंद्र
पर आता है,
वह अपने स्त्रोत
पर पहुंच जाता
है।
यह
एक बहुत बढ़िया
ध्यान है। तुम
इसे प्रयोग
में ला सकते
हो। किसी विषय
को चुन लो।
लेकिन ध्यान
रहे कि रोज—रोज
वही विषय रहे, ताकि
भीतर एक ही
प्रतिबिंब
बने और एक ही
प्रतिबिंब से
तुम्हें अपने
को अलग करना
पड़े। इसी विधि
के प्रयोग के
लिए मंदिरों
में मूर्तियां
रखी गई थीं।
मूर्तियां
बची हैं, लेकिन
विधि खो गई।
तुम
किसी मंदिर
में जाओ और इस
विधि का
प्रयोग करो।
वहां महावीर
या बुद्ध या
राम या कृष्ण
किसी की भी
मूर्ति को
देखो। मूर्ति
को निहारो। मूर्ति
पर अपने को
एकाग्र करो।
अपने संपूर्ण
मन को मूर्ति पर
इस भांति
केंद्रित करो
कि उसकी छवि
तुम्हारे
भीतर साफ—साफ
अंकित हो जाए।
फिर अपनी आंखों
को मूर्ति से
अलग करो और आंखों
को बंद करो।
उसके बाद छवि
को भी अलग करो, मन
से उसे बिलकुल
पोंछ दो। तब
वहा तुम अपने
समग्र
एकाकीपन में,
अपनी समग्र
शुद्धता में,
अपनी समग्र
निर्दोषता
में प्रकट हो
जाओगे।
उसे
पा लेना ही
मुक्ति है।
उसे पा लेना
ही सत्य है।
आज
इतना ही।
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