दिनांक,।
अगस्त,।978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र—
तुमसों
मन लागो हे
मोरा।
हम
तुम बैठे रही
अटरिया, भला
बना है जोरा।।
सत
की सेज बिछाय
सूति रहि, सुख
आनन्द धनेरा।
करता
हरता तुमहीं
आहहु, करौं
मैं कौन
निहोरा।।
रहचो
अजान अब जानि
परयो है, जब
चितयो एक
कोरा।
आवागमन
निवारह साईं, आदि—अंत
का आहिऊं
चोरा।
जगजीवन
बिनती करि
मांगे, देखत
दरस सदा रहो
तोरा।।
अब
निर्वाह किये
बनि आइहि लाय
प्रीति नहिं
तोरिया
डोरा।।
मन
महं जाइ फकीरी
करना।
रहे
एकंत तंत लें
लागा, राग
निर्त नहिं
सुनना।।
कथा
चारचा पढै—सुनै
नहि, नाहि
बहुत बक
बोलना।
मैं
तैं गर्व
गुमान
बिबार्दाहं, सबै
दूर यह करना।
सीतल
दीन रहे मरि
असर, गहे
नाम की सरना।।
अल
पषान की करै
आस नहिं, आहै
सकल भरमना।
जगजीवनदास
निहारि
निरखिकै, र्गाहे
रहु गुरु की
सरना।।
भूलु
फूलु सुख पर
नहीं, अबहूं
होहु सचेत।
साई
पठवा तोहि कां, लाचो
तेहि ले हेत।।
तजु' आसा
सब झूंठ ही, संग साथी
नहिं कोव।
केउ
केहू न
उबारिही, जेहि
पर होय सो
होय।।
कहवा
तें चलि आयहू, कहां
रहा अस्थान।
सो
सुधि बिसरि गई
तोहि, अब कस
भयसि हेवान।।
काया—नगर
सोहावना, सुख
तबहीं पै होय।
रमत
रहे र्तोहुं
भीतरे, दुख
नहीं व्यापै
कोय।।
मृत—मंडल
कोउ थिर नहीं, आवा
सो चलि जाय।
गाफिल
हूवै फंदा
परयौ जहं—तंह
गयो बिलाय।।
एक
नई यात्रा पर
निकलते हैं
आज!
बुद्ध
का,
कृष्ण का, क्राइस्ट का
मार्ग तो
राजपथ है।
राजपथ
का अपना
सौंदर्य है, अपनी
सुविधा, अपनी
सुरक्षा।
सुंदरदास, दादूदयाल
या अब जिस
यात्रा पर हम
चल रहे हैं—जगजीवन
साहब—इनके
रास्ते
पगडंडियां
हैं।
पगडंडियों का
अपना सौंदर्य
है। पहुंचाते
तो राजपथ भी
उसी शिखर पर
हैं जहां पगडंडियां
पहुंचाती हैं।
राजपथों पर
भीड़ चलती है; बहुत लोग
चलते हैं—हजारों,
लाखों, करोड़ों।
पगडंडियों पर
इक्के—दुक्के
लोग चलते हैं।
पगडंडियों के
कष्ट भी हैं, चुनौतियां
भी हैं।
पगडंडियां
छोटे—छोटे
मार्ग हैं।
पहाड़
की चढ़ाई करनी
हो,
दोनों तरह
से हो सकती है।
लेकिन जिसे
पगडंडी पर
चढ़ने का मजा आ
गया वह राजपथ
से बचेगा।
अकेले होने का
सौंदर्य—वृक्षों
के साथ, पक्षियों
के साथ, चांद—तारों
के साथ, झरनों
के साथ।
राजपथ
उन्होंने
निर्माण किए
हैं जो बड़े
विचारशील लोग
थे। राजपथ
निर्माण करना
हो तो अत्यंत
सुविचारित ढंग
से ही हो सकता
है।
पगडंडियां
उन्होंने
निर्मित की
हैं,
जो न तो पढ़े—लिखे
थे, न
जिनके पास
विचार की कोई
व्यवस्था थी—अपढ;
जिन्हें हम
कहें गंवार; जिन्हें
काला अक्षर
भैंस बराबर था।
लेकिन
यह स्मरण रखना
कि परमात्मा
को पाने के लिए
ज्ञानी को
ज्यादा
कठिनाई पड़ती
है। बुद्ध को
ज्यादा
कठिनाई पड़ी।
सुशिक्षित थे, सुसंस्कृत
थे। शास्त्र
की छाया थी
ऊपर बहुत। सम्राट
के बेटे थे।
जो श्रेष्ठतम
शिक्षा
उपलब्ध हो
सकती थी, उपलब्ध
हुई थी। उसी
शिक्षा को
काटने में
वर्षो लग गए।
उसी शिक्षा से
मुक्त होने
में बड़ा श्रम
उठाना पड़ा।
बुद्ध
छह वर्ष तक जो
तपश्चर्या
किए,
उस
तपश्चर्या
में शिक्षा के
द्वारा डाले
गए संस्कारों
को काटने की
ही योजना थी।
महावीर बारह
वर्ष तक मौन
रहे। उस मौन
में जो शब्द
सीखे थे, सिखाए
गए थे उन्हें
भुलाने का
प्रयास था।
बारह वर्षो के
सतत मौन के
बाद इस योग्य
हुए कि शब्द
से छुटकारा हो
सका।
और
जहां शब्द से
छुटकारा है
वहीं निःशब्द
से मिलन है।
और जहां चित्त
शास्त्र के
भार से मुक्त
है वहीं
निर्भार होकर
उड़ने में
समर्थ है। जब
तक छाती पर
शास्त्रों का
बोझ है, तुम
उड़ न सकोगे; तुम्हारे
पंख फैल न
सकेंगे आकाश
में। परमात्मा
की तरफ जाना
हो तो निर्भार
होना जरूरी है।
जैसे
कोई पहाड़ चढ़ता
है तो जैसे—जैसे
चढ़ाई बढ़ने
लगती है वैसे—वैसे
भार भारी
मालूम होने
लगता है। सारा
भार छोड़ देना
पड़ता है।
अंततः तो आदमी
जब पहुंचता है
शिखर पर तो
बिल्कुल
निर्भार हो
जाता है। और
जितना ऊंचा
शिखर हो उतना
ही निर्भार
होने की शर्त
पूरी करनी
पड़ती है।
महावीर
पर बड़ा बोझ
रहा होगा।
किसी ने भी इस
तरह से बात
देखी नहीं है।
बारह वर्ष मौन
होने में लग
जाएं, इसका
अर्थ क्या
होता है? इसका
अर्थ होता है
कि भीतर चित्त
बड़ा मुखर रहा
होगा। शब्दों
की धूम मची
होगी।
शास्त्र
पंक्तिबद्ध
खड़े होंगे। सिद्धांतों
का जंगल होगा।
तब तो बारह
वर्ष लगे इस
जंगल को काटने
में। बारह
वर्ष जलाया तब
यह जंगल जला; तब सन्नाटा
आया; तब
शून्य उतरा; तब सत्य का
साक्षात्कार
हुआ।
पंडित
सत्य की खोज
में निकले तो
देर लगनी स्वाभाविक
है। अक्सर तो
पंडित निकलता
नहीं सत्य की
खोज में।
क्योंकि
पंडित को यह
भ्रांति होती
है कि मुझे तो
मालूम ही है, खोज
क्या करनी है?
वे थोड़े—से
पंडित सत्य की
खोज में
निकलते हैं जो
ईमानदार हैं;
जो जानते
हैं कि जो मैं
जानता हूं वह
सब उधार है।
और जो मुझे
जानना है, अभी
मैंने जाना
नहीं। ही, उपनिषद
मुझे याद हैं
लेकिन वे मेरे
उपनिषद् नहीं
हैं; वे
मेरे भीतर
उमगे नहीं हैं।
जैसे
किसी मां ने
किसी दूसरे के
बेटे को गोद
ले लिया हो
ऐसे ही तुम
शब्दों को, सिद्धांतों
को गोद ले
सकते हो, मगर
अपने गर्भ में
बेटे को जन्म
देना, अपने
गर्भ में बड़ा
करना, नौ
महीने तक अपने
जीवन में उसे
ढालना बात और
है। गोद लिए
बच्चे बात और
हैं। लाख मान
लो कि अपने
हैं, अपने
नहीं हैं।
समझा लो कि
अपने हैं; मगर
किसी तल पर, किसी गहराई
में तो तुम
जानते ही
रहोगे कि अपने
नहीं हैं। उसे
भुलाया नहीं
जा सकता, उसे
मिटाया नहीं
जा सकता।
उपनिषद
कंठस्थ हो
सकते हैं—मगर
गोद लिया
तुमने ज्ञान; तुम्हारे
गर्भ में पका
नहीं। तुम उसे
जन्म देने की
प्रसव—पीड़ा से
नहीं गुजरे।
तुमने कीमत
नहीं चुकाई।
और बिना कीमत
जो मिल जाए, दो कौड़ी का
है। जितनी
कीमत चुकाओगे
उतना ही मूल्य
होता है।
पंडित
एक तो सत्य की
खोज में जाता
नहीं और जाए तो
सबसे बड़ी अड़चन
यही होती है
कि ज्ञान से
कैसे छुटकारा
हो—तथाकथित
ज्ञान से कैसे
छुटकारा हो? अज्ञान
से छूटना इतना
कठिन नहीं है
क्योंकि अज्ञान
निर्दोष है।
सभी बच्चे
अज्ञानी हैं।
लेकिन बच्चों
की निर्दोषता
देखते हो!
सरलता देखते
हो, सहजता
देखते हो।
अज्ञानी
और ज्ञान के
बीच ज्यादा
फासला नहीं है।
क्योंकि
अज्ञानी के
पास कुछ बातें
हैं जो ज्ञान
को पाने की
अनिवार्य
शर्ते हैं :
जैसे सरलता है, जैसे
निर्दोषता है,
जैसे सीखने
की क्षमता है,
झुकने का
भाव है, समर्पण
की प्रक्रिया
है। अज्ञानी
की सबसे बड़ी
संपदा यही है
कि उसे अभी जानने
की भ्रांति
नहीं है। उसे
साफ है, स्पष्ट
है कि मुझे
पता नहीं है।
जिसको यह पता
है कि मुझे
पता नहीं है, वह तलाश में
निकल सकता है।
या कोई अगर
जला हुआ दीया
मिल जाए तो वह
उसके पास बैठ
सकता है।
सत्संग की
सुविधा है।
इसलिए
तो जीसस ने
कहा : 'धन्य हैं वे
जो छोटे
बच्चों की
भांति हैं
क्योंकि
स्वर्ग का
राज्य उन्हीं
का है। 'पंडित
की बड़ी से बड़ी
कठिनाई यही है
कि बिना जाने
उसे पता चलता
है कि मैं
जानता हूं। न
ही उसे एक भी
उत्तर मिला है
जीवन से, लेकिन
किताबों ने सब
उत्तर दे दिए
हैं उधार, बासे,
पिटे—पिटाए,
परंपरा से।
महावीर
को बारह वर्ष
लगे मौन साधने
में! कोई जैनशास्त्र
यह नहीं कहता
कि बारह वर्ष
लगने का अर्थ
क्या होता है? इसका
अर्थ यही होता
है कि मन में
खूब धूम रही होगी
विचारों की।
होना
स्वाभाविक भी
है। राजपुत्र
थे, सुशिक्षित
थे, बड़े—बड़े
पंडितों के
पास बैठकर सब
सीखा होगा, जो सीखा जा
सकता था। सब
कलाओं में
पारंगत थे।
वही पारंगतता,
वही कुशलता,
वही ज्ञान
बन गई चट्टान।
उसी को तोड्ने
में बारह वर्ष
सतत श्रम करना
पड़ा, तब
कहीं मौन हुए;
तब कहीं
चुप्पी आयी; तब कहीं फिर
से अज्ञानी
हुए। झूठे
ज्ञान से
छुटकारा हुआ।
कागज फिर कोरा
हुआ।
और
जब कागज कोरा
हो तो
परमात्मा कुछ
लिखे। और जब
अपना उपद्रव
शांत हो, अपनी
भीड़— भाड़ छटे, अपना शोरगुल
बंद हो तो
परमात्मा की
वाणी सुनाई
पड़े, उपनिषद्
का जन्म हो, ऋचाएं गंजे
तुम्हारे
हृदय से।
तुम्हारी
श्वासें
सुवासित हों
ऋचाओं से। तुम
जो बोलो सो
शास्त्र हो
जाए। तुम उठो—बैठो,
तुम आख खोलो,
आख बंद करो
और शास्त्र
झरें।
तुम्हारे
चारों तरफ वेद
की हवाएं उठें।
कुरान
का संगीत पैदा
होता है तभी, जब
तुम्हारे
भीतर शून्य
गहन होता है।
जैसे बादल जब
भर जाते हैं
वर्षा के जल
से तो बरसते
हैं। और जब
आत्मा शून्य
के जल से भर
जाती है तो
बरसती है।
मुहम्मद, कबीर, जगजीवन ये
बे—पढे लिखे
लोग हैं। ये
निपट गंवार
हैं, ग्रामीण
हैं। सभ्यता
का, शिक्षा
का, संस्कार
का, इन्हें
कुछ पता नहीं
है। बड़ी सरलता
से इनके जीवन
में क्रांति
घटी है।
इन्हें बारह
बारह वर्ष
महावीर की
भांति, या
बुद्ध की
भांति मौन को
साधना नहीं
पड़ा है। इनके
भीतर कूड़ा—करकट
ही न था।
विद्यापीठ ही
नहीं गए थे।
विश्वविद्यालयों
में कचरा इन
पर डाला नहीं
गया था। ये
कोरे ही थे।
संसार में तो
मूढ़ समझे जाते।
लेकिन
ध्यान रखना, संसार
का और
परमात्मा का
गणित विपरीत
है। जो संसार
में मूढ़ है
उसकी वहां बड़ी
कद्र है। फिर
जीसस को
दोहराता हूं।
जीसस ने कहा
है : 'जो
यहां प्रथम
हैं वहां
अंतिम, और
जो यहां अंतिम
हैं वहां
प्रथम हैं।
यहां
जिनको तुम मूढ़
समझ लेते हो...
और मूढ़ हैं; क्योंकि
धन कमाने में
हार जाएंगे, पद की दौड़
में हार
जाएंगे। न
चालबाज हैं न
चतुर हैं। कोई
भी धोखा दे
देगा। कहीं भी
धोखा खा
जाएंगे। खुद
धोखा दे सकें,
तो सवाल ही
नहीं; अपने
को धोखे से
बचा भी न
सकेंगे। इस
जगत् में तो
उनकी दशा
दुर्दशा की
होगी। लेकिन
यही हैं वे
लोग जो
परमात्मा के
करीब पहुंच
जाते हैं—सरलता
से पहुंच जाते
हैं।
ऐसे
लोग राजपथ
नहीं बना सकते।
पतंजलि राजपथ
बना सकते हैं।
सुविचारित, नियमबद्ध,
धर्म का
विज्ञान
निर्मित कर
सकते हैं।
जगजीवन जैसे
लोग तो छोटी—सी
पगडंडी बनाते
हैं। इस खयाल
से भी नहीं
बनाते कि कोई
मेरे पीछे आएगा।
खुद चलते हैं,
उस चलने से
ही घास—पात
टूट जाता है, पगडंडी बन
जाती है। कोई
आ जाए पीछे, आ जाए।
आ
जाते हैं लोग।
क्योंकि सत्य
का जब अवतरण
होता है तो वह
चाहे राजपुत्रों
में हो और
चाहे दीन—दरिद्रों
में हो, सत्य
का जब अवतरण
होता है तो
उसकी गंध ऐसी
है, उसका
प्रकाश ऐसा है,
जैसे बिजली
कौंध जाए! फिर
किस में कौंधी,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
राजमहल पर
कौंधी कि गरीब
के झोपड़े पर
कौंधी, महानगरी
में कौंधी कि
किसी छोटे—मोटे
गांव में कौंधी—बिजली
कौंधती है तो
प्रकाश हो
जाता है। सोए
जग जाते हैं।
बंद जिनकी आंखें
थीं, खुल
जाती हैं।
मूर्च्छा में
जो पड़े थे
उन्हें होश आ
जाता है।
कुछ
लोग चल पड़ते
हैं। ज्यादा
लोग नहीं चल
सकते क्योंकि
जगजीवन को समझाने
की क्षमता
नहीं होती। ही, जो
लोग प्रेम
करने में
समर्थ हैं, समझने के
मार्ग से नहीं
चलते बल्कि
प्रेम के मार्ग
से चलते हैं, वे लोग
पहचान लेते
हैं।
जगजीवन
प्रमाण नहीं
दे सकते, गीत
गा सकते हैं
और गीत भी
काव्य के
नियमों के अनुसार
नहीं होगा, छंदबद्ध
नहीं होगा।
गीत भी ऐसा ही
होगा जैसे
गांव के लोग
गा लेते हैं, बना लेते
हैं। इसलिए
जगजीवन के
वचनों में तुम
मात्रा और छंद
खोजने मत बैठ
जाना। जैसे
गांव के लोग
गीत गाते हैं,
ऐसे ये गीत
हैं।
जगजीवन
का काम था गाय—बैल
चराना। गरीब
के बेटे थे।
बाप किसान थे—छोटी—मोटी
किसानी। और
बेटे का काम
था कि गाय—बैल
चरा लाना। न
पढ़ने का मौका
मिला, न पढ़ने
का सवाल उठा।
तो जैसे गाय—बैल
चरानेवाले
लोग भी गीत
गाते हैं... गीत
तो सबका है।
कोई
विश्वविद्यालय
से शोध के ऊपर
उपाधि लेकर आने
पर ही गीत
गाने का हक
नहीं होता।
और
सच तो यह है कि
जो लोग
विश्वविद्यालय
से सब भांति
मात्रा, छंद
और
काव्यशास्त्र
में कुशल होकर
आते हैं, जो
भरत के
नाट्यशास्त्र
से लेकर
अरस्तू के काव्यशास्त्र
तक को समझते
हैं उनसे कभी
कविता पैदा
नहीं होती। यह
तुमने मजे की
बात देखी कि
विश्वविद्यालय
में जो लोग
काव्य पढ़ाते
हैं उनसे
कविता पैदा नहीं
होती। कविता
उनसे बचकर
निकल जाती है।
शेक्सपियर को
पढ़ाते हैं और
कालिदास को
पढ़ाते हैं और
भवसूति को
पढ़ाते हैं, मगर कविता
उनसे बचकर
निकल जाती है।
कविता कभी
प्रोफेसरों
के गले में
वरमाला पहनाती
ही नहीं।
काव्यशास्त्र
को ज्यादा जान
लेना—और कविता
के प्राण निकल
जाते हैं।
कविता तो फलती
है—फूलती है—जगलों
में, पहाड़ों
में, प्रकृति
में और
प्राकृतिक जो
मनुष्य हैं, उनमें।
जगजीवन
के जीवन का
प्रारंभ
वृक्षों से
होता है, झरनों
से, नदियों
से, गायों
से, बैलों
से। चारों तरफ
प्रकृति छायी
रही होगी। और
जो प्रकृति के
निकट है वह
परमात्मा के
निकट है। जो
प्रकृति से
दूर है वह
परमात्मा से
भी दूर हो
जाता है।
अगर
आधुनिक
मनुष्य
परमात्मा से
दूर पड़ रहा है, रोज—रोज
दूर पड़ रहा है,
तो उसका
कारण यह नहीं
है कि
नास्तिकता बढ़
गई है। जरा भी
नहीं
नास्तिकता
बढ़ी है। आदमी
जैसा है ऐसा
ही है। पहले
भी नास्तिक
हुए हैं, और
ऐसे नास्तिक
हुए हैं कि
उनकी नास्तिकता
के ऊपर और कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता।
चार्वाक ने जो
कहा है तीन
हजार साल पहले,
इन तीन हजार
साल में एक भी
तर्क ज्यादा
जोड़ा नहीं जा सका
है। चार्वाक
सब कह ही गया
जो ईश्वर के
खिलाफ कहा जा
सकता है। न तो
दिदरो ने कुछ
जोड़ा है, न
मार्क्स ने
कुछ जोड़ा है, न माओ ने कुछ
जोड़ा है।
चार्वाक तो दे
गया
नास्तिकता का
पूरा शास्त्र;
उसमें कुछ
जोड्ने का
उपाय नहीं है।
या यूनान में
एपिकुरस दे
गया है, नास्तिकता
का पूरा
शास्त्र।
सदियां बीत गई
हैं, एक
नया तर्क नहीं
जोड़ा जा सका
है।
यह
सदी कुछ
नास्तिक हो गई
है,
ऐसा नहीं है।
फिर क्या हो
गया है? एक
और ही बात हो
गई है जो
हमारी नजर में
नहीं आ रही है;
प्रकृति और
मनुष्य के बीच
संबंध टूट गया
है। आज आदमी
आदमी की बनाई
हुई चीजों से
घिरा है; परमात्मा
की याद भी आए
तो कैसे आए? हजारों—हजारों
मील तक फैले
हुए सीमेंट के
राजपथ हैं, जिन पर घास
भी नहीं उगती।
आकाश को छूते
हुए सीमेंट के
गगनचुंबी महल
हैं। लोहा और
सीमेंट—उसमें
आदमी घिरा है।
उसमें फूल
नहीं खिलते।
और
आदमी जो भी
बनाता है
उसमें कुछ भी
विकसित नहीं
होता। वह जैसा
है वैसे ही का
वैसा होता है।
आदमी जो बनाता
है वह मुर्दा
होता है। और
जब हम मुर्दे
से घिर जाएंगे
तो हमें जीवन
की याद कैसे
आए?
महीनों
बीत जाते हैं, न्यूयार्क
या बंबई में
रहनेवाले
लोगों को, कि
सूरज के दर्शन
नहीं होते।
फुरसत कहां
है! भागदौड़
इतनी है। जमीन
से आख हटाने
का अवसर कहां
है! अगर ऐसे
आकाश की तरफ
देखकर चलो
बंबई की
सड्कों पर तो
घर नहीं
लौटोगे, अस्पताल
में पाए जाओगे।
रास्ता पार
करना है, भागती
कारों की दौड़
है, संभलकर
चलना है। गए
वे दिन जब कोई
आकाश की तरफ
देखता। अब तो
जमीन पर देखकर
भी बचे हुए घर
लौट आओ वापिस
तो बहुत है।
वर्षो
बीत जाते हैं, लोग
पूर्णिमा के
चांद को नहीं
देख पाते। कब
पूर्णिमा आती
है, चली
जाती है, पता
कहां चलता है!
और पता भी
चलता है तो
कैलेंडर में
चलता है। अब
कैलेंडर में
पूर्णिमा
होती है कहीं?
पूर्णिमा
आकाश में होती
है। लोग चांद
को पहचानते भी
हैं तो
फिल्मों में देखकर
पहचानते हैं
कि अरे, चांद
है! कहानियां
रह गई हैं।
लंदन
में कुछ वर्षो
पहले बच्चों
का एक सर्वे
किया गया। दस
लाख बच्चों ने
एक अजीब बात
कही कि
उन्होंने गाय—बैल
नहीं देखे हैं।
लंदन में कहां
गाय—बैल! मगर
अभागा है वह
आदमी जिसने
गाय की आंखों
में नहीं
झांका।
क्योंकि आंखों
में अब भी एक
शाश्वतता है, एक
सरलता है, एक
गहराई है—जो
आदमी की आंखों
ने खो दी है!
आदमी की आंखों
में वैसी
गहराई पानी हो
तो कोई बुद्ध
मिले तब; मगर
गाय की आख में
तो है ही।
अभागे
नहीं हैं वे
बच्चे
जिन्होंने
गाय नहीं देखी।
अभागे हैं वे
बच्चे
जिन्होंने
खेत नहीं देखे।
लंदन के बहुत—से
बच्चों ने, लाखों
बच्चों ने
बताया कि
उन्होंने अभी
तक खेत नहीं
देखे। और
जिसने खेत
नहीं देखा उसे
परमात्मा की
याद आएगी? जिसने
बढ़ती हुई
फसलें नहीं
देखीं, जिसने
बढ़ती हुई
फसलों का
चमत्कार नहीं
देखा। जहां
जीवन बढ़ता है,
फलता है, फूलता है, वहीं तो
रहस्य का
पदार्पण होता
है।
मनुष्य
नास्तिक हुआ
है,
नास्तिकता
के कारण नहीं;
मनुष्य
नास्तिक हुआ
है, आदमी
के ही द्वारा
बनाई चीजों
में घिर गया
है बहुत।
हमारी हालत
वैसी है जैसे
कभी छोटे—छोटे
बच्चे कहीं
कोई मकान बन
रहा हो... मैंने
देखा, एक
दिन मैं
रास्ते से
गुजरता था। एक
मकान बन रहा
था। रेत के और ईंटों
के ढेर लगे थे।
एक छोटे बच्चे
ने खेल—खेल
में अपने
चारों तरफ ईंटें
जमानी शुरू
कीं। फिर ईंटें
इतनी जमा लीं
उसने कि वह
उसके नीचे पड़
गया।
फिर
वह घबड़ाया, अब
निकले कैसे
बाहर? चिल्लाया
: 'बचाओ!' खुद
ही जमा ली हैं ईंटें
अपने चारों
तरफ। अब ईंटों
की कतार ऊंची
हो गई है। अब
वह घबड़ा रहा
है कि मैं फंस
गया।
उस
दिन उस बच्चे
को अपनी ही
जमायी हुई ईंटों
में फंसा हुआ
देखकर मुझे
आदमी की याद
आयी। ऐसा ही
आदमी फंस गया
है। अपनी ही ईंटें
हैं जमायी हुई, लेकिन
परमात्मा और
स्वयं के बीच
एक चीन की दीवाल
खड़ी हो गई है।
जगजीवन
का जीवन
प्रारंभ हुआ
प्रकृति के
साथ। कोयल के
गीत सुने
होंगे, पपीहे
की पुकार सुनी
होगी, चातक
को टकटकी लगाए
चांद को देखते
देखा होगा।
चमत्कार देखे
होंगे कि
वर्षा आती है
और सूखी पड़ी
हुई पहाड़ियां
हरी हो जाती
हैं। घास में
फूल खिलते
देखे होंगे।
और गायों—बैलों
के साथ रहना! न
बातचीत, न
अखबार। गाय—बैलों
को पड़ी क्या
अखबार की! न
दिल्ली की खबर।
गाय—बैलों को
लेना—देना
क्या है
तुम्हारे
प्रधानमंत्री
क्या कर रहे
हैं, क्या
नहीं कर रहे
हैं। कौन
किसकी टांग
खींच रहा है, कौन किसको
गिरा रहा है—गाय—बैलों
को लेना—देना
क्या? गाय—बैल
इस तरह की
व्यर्थ बातों
में पड़ते ही नहीं।
गाय—बैलों
के साथ रहते—रहते
गाय—बैलों
जैसे हो गए
होंगे—सरल, निर्दोष,
गैर—महत्त्वाकांक्षी।
गाय को तो भूख
लगती है तो
घास चर लेती
है। थक जाती
है तो झाडू के
नीचे विश्राम
कर लेती है।
बजाते होंगे
बांसुरी। जब
गाय—बैल चरती
होंगी तो
जगजीवन
बांसुरी
बजाते होंगे।
चरवाहे
अक्सर
बांसुरी
बजाते हैं।
चरवाहे ही
बांसुरी बजा
सकते हैं, और
कौन बजाएगा? जिसको
बांसुरी
बजाना आता है
उससे
परमात्मा बहुत
दूर नहीं। और
जो वृक्षों की
छाया में
बैठकर
बांसुरी बजा
सकता है, उससे
परमात्मा
कितनी देर
छिपा रहेगा? कैसे छिपा
रहेगा? खुद
ही बाहर निकल
आएगा। अपने से
प्रकट उसे
होना पड़ेगा।
इसलिए
कहता हूं एक
नई यात्रा पर
चलते है। एक
बे—पढे—लिखे
आदमी के वचन
हैं ये।
प्रकृति के
साथ—साथ बैठे—बैठे
सत्संग की सूझ
उठी जगजीवन को।
छोटे ही थे, बच्चे
ही थे, मगर
सत्संग की सूझ
उठी।
लोग
सोचते हैं, शास्त्र
पड़ेंगे तो सत्संग
की सूझ उठती
है। नहीं, शास्त्र
तो सत्संग से
बचा देता है।
शास्त्र तो
स्वयं ही
सत्संग का काम
पूरा कर देता
है। फिर
सत्संग की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। सब तो
लिखा है किताब
में, सत्संग
करने कहां
जाते हो? पुस्तकालय
की तरफ चले
जाओ। सत्संग तो
एक का कर हो? पुस्तकालय
में तो सभी
भरा पड़ा है।
सारे जगत् के
ज्ञानी वहां
मौजूद हैं।
डूबो किताबों
में; वहीं
सब मिल जाएगा।
किताबों
में कहीं
डुबकी लगी है? किताबों
के पहाड़ झूठे,
किताबों के
सागर झूठे, किताबों का
परमात्मा
झूठा।
किताबों में
तो नक्शो हैं,
तस्वीरें
हैं; असलियत
कहां है? लेकिन
किताबों में
आदमी बड़ी बुरी
तरह खो जाते हैं।
शास्त्र में
जो उलझ गया वह
शास्ता की खोज
पर नहीं
निकलता।
बैठे—बैठे
झाड़ों के नीचे
जगजीवन को
गायों—बैलों
को चराते, बांसुरी
बजाते कुछ—कुछ
रहस्य अनुभव
होने लगा होगा।
क्या है यह सब—यह
विराट जब तक
तुम खुली रात
आकाश के नीचे,
घास पर
लेटकर तारों
को न देखो, तुम्हें
परमात्मा की
याद आएगी ही
नहीं। जब तक
तुम पतझड़ में
खड़े सूखे
वृक्षों को
फिर से हरा
होते बसंत में
न देखो, फिर
नए अंकुर आते
न देखो, जीवन
के आगमन के ये
पदचाप
तुम्हें
सुनाई न पड़े, तब तक तुम
परमात्मा की
याद न कर हरे।
या तुम्हारा
परमात्मा
शाब्दिक होगा,
झूठा होगा।
परमात्मा
शब्द में
परमात्मा
नहीं है, रहस्य
की अनुभूति
में परमात्मा
है।
यह
रहस्य जगने
लगा होगा :
क्या है यह
सारा विस्तार!
मैं कौन हूं? मैं
क्या हूं? इस
हरी— भरी
सुंदर दुनिया
में मेरे होने
का प्रयोजन क्या
है? ऐसे
कुछ प्रश्न—अनपढ़,
बेक जगजीवन
के हृदय को आंदोलित
करने लगे
होंगे।
साधुओं
की तलाश शुरू
हो गई। जब
फुरसत मिल
जाती तो
साधुओं के पास
पहुंच जाते।
सुनते। जिसने
प्रकृति को
सुना है वह
सद्गुरुओं को
भी समझ सकता
है। क्योंकि
सद्गुरु
महाप्रकृति
की बातें कर
रहे हैं। जो
प्रकृति की
पाठशाला में
बैठा है वह
महाप्रकृति के
समझने में
तैयारी कर रहा
है,
तैयार हो
रहा है।
परमात्मा
क्या है? इस
प्रकृति के
भीतर छिपे हुए
अदृश्य हाथों
का नाम : जो
सूखे वृक्षों
पर पत्तियां
ले आता है; प्यासी
धरती के पास
जल से भरे हुए
मेघ ले आता है;
जो पशुओं की
और पक्षियों
की भी चिंता
कर रहा है; जिसके
बिना एक पत्ता
भी नहीं हिलता।
अगोचर, अदृश्य,
फिर भी उसकी
छाप हर जगह है।
दिखाई तो नहीं
पड़ता पर उसके
हाथों को
इंकार कैसे करते
हो? इतना विराट
आयोजन चलता है,
इस सब
व्यवस्था से
इंकार कैसे करते
हो? फिर उस
व्यवस्था को
तुम प्रकृति
का नियम कहो
कि परमात्मा
कहो, यह
केवल शब्द की
बात है।
सत्संग
चलने लगा। और
एक दिन अनूठी
घटना घटी।
चराने गए थे
गाय—बैल को, दो
फकीर—दो मस्त
फकीर वहां से
गुजरे। उनकी
मस्ती ऐसी थी
कि कोयलों की
कुहू—कुहू ओछी
पड़ गई। पपीहों
की पुकार में
कुछ खास न रहा।
झीलें देखी
थीं, गहरी
थीं, मगर
इन आंखों के
सामने कुछ भी
नहीं। झीलें
देखी थीं, शांत
थीं, मगर
यह शांति कुछ
बात ही और थी।
यह किसी और ही
लोक की शांति
थी। यह
पारलौकिक थी।
बैठ
गए उनके पास, वृक्ष
के नीचे
महात्मा
सुस्ताते थे।
उनमें एक था
बुल्लेशाह—एक
अद्भुत फकीर,
जिसके पीछे
दीवानों का एक
पंथ चला :
बावरी।
दीवाना था, पागल ही था।
थोड़े—से पागल
संत हुए हैं।
इतने प्रेम
में थे कि
पागल हो गए।
ऐसे मस्त थे
कि डगमगाकर
चलने लगे।
जैसे शराब पी
हो—शराब जो
ऊपर से उतरती
है; शराब
जो अनंत से
आती है।
एक
तो उनमें
बुल्लेशाह था, जिसे
देखकर जगजीवन
दीवाने हो गए।
कहते हैं
बुल्लेशाह को
जो देखता था
वही दीवाना हो
जाता था। मां—बाप
अपने बच्चों
को बुल्लेशाह
के पास भेजते
नहीं थे। जिस
गांव में
बुल्लेशाह आ
जाता, लोग
अपने बच्चों
को भीतर कर लेते
थे। खबरें थीं
कि वह दीवाना
ही नहीं है, उसकी
दीवानगी
संक्रामक है।
उसके पीछे
बावरी पंथ चला,
पागलों का
पंथ चला।
पागल
से कम में
परमात्मा
मिलता भी नहीं।
उतनी हिम्मत
तो चाहिए ही।
तोड़कर सारा
तर्कजाल, छोड्कर
सारी बुद्धि—बुद्धिमत्ता,
डुबाकर सब
चतुराई—चालाकी
जो चलते हैं
वे ही पहुंचते
हैं; उन्हीं
का नाम पागल
है।
एक
तो उसमें बुल्लेशाह
था और दूसरे
थे गोविदशाह :
बुल्लेशाह के
ही एक संगी—साथी।
दोनों मस्त
बैठे थे।
जगजीवन भी बैठ
गया—छोटा
बच्चा।
बुल्लेशाह ने
कहा : 'बेटे, आग
की जरूरत है, थोड़ी आग ले
आओ। 'वह
भाग।। इसकी ही
प्रतीक्षा
करता था कि
कोई आज्ञा मिल
जाए, कोई
सेवा का मौका
मिल जाए।
सद्गुरु
के पास वे ही
पहुंच सकते
हैं जो सेवा की
प्रतीक्षा
करते हैं—कोई
मौका मिल जाए।
सेवा का कोई
मौका मिल जाए।
और जुड्ने का
नाता, और कोई
उपाय भी तो
नहीं है। आग
ही नहीं लाया
जगजीवन, साथ
में दूध की एक
मटकी भी भर
लाया। भूखे
होंगे, प्यासे
होंगे। आग ले
आया तो दोनों
ने अपने
हुक्के जलाए।
दूध ले आया तो
दूध पीया।
लेकिन
बुल्लेशाह ने
जगजीवन को कहा
कि दूध तो तू
ले आया, लेकिन
मुझे ऐसा लगता
है, किसी
को घर में
बताकर नहीं
आया।
बात
सच थी। जगजीवन
चुपचाप दूध ले
आया था, पिता
को कह नहीं
आया था। थोड़ा
ग्लानि भी
अनुभव कर रहा
था, थोड़ा
अपराध भी
अनुभव कर रहा
था कि लौटकर
पिता को क्या
कहूंगा? पर
बुल्लेशाह ने
कहा : 'घबड़ा
मत। जरा भी
चिंता न कर।
जो उसे देता
है उसे बहुत
मिलता है। 'वे तो दोनों
फकीर कहकर और
चल भी दिए।
जगजीवन
सोचता घर चला
आया कि 'जो
उसे देता है
उसे बहुत
मिलता है, इसका
मतलब क्या?' घर पहुंचा, जाकर मटकी
उघाड़कर देखी,
जिसमें से
दूध ले गया था।
आधा दूध तो ले
गया था, मटकी
आधी खाली छोड़
गया था, लेकिन
मटकी भरी थी।
यह
तो प्रतीक कथा
है,
सांकेतिक
है। यह कहती
है, जो
उसके नाम में
देते हैं, उन्हें
बहुत मिलता है।
देनेवाले
पाते हैं, बचानेवाले
खो देते हैं।
हसीद
फकीर झुसिया
ने कहा है : 'जो
मैंने दिया, बचा। जो
मैंने बचाया,
खो गया। 'ये उसके
आखिरी वचन थे
अपने शिष्यों
के लिए कि देना।
जितना दे सको
देना। जो हो
वही देना।
देने में कभी
कंजूसी मत
करना क्योंकि
मैंने जो दिया,
वह बचा। आज
मैं अपने साथ
वही ले जा रहा
हूं जो मैंने
दिया। और जो
मैंने बचाया
था वह सब खो
गया है, आज
मेरे पास नहीं
है। मेरे हाथ
खाली हैं।
इस
जगत् का एक
गणित है, एक
अर्थशास्त्र
है : बचाओ तो
बचेगा, दोगे
तो खो जाएगा।
उस जगत् का
अर्थशास्त्र
बिल्कुल
उल्टा है।
वहां तो दोगे
तो बचेगा, बचाओगे
तो खो जाएगा।
मटकी
भरी देखकर
जगजीवन को होश
आया कि किन
अपूर्व लोगों
को मैं छोड्कर
चला आया हूं।
भाग।। फकीर तो
जा चुके थे
मगर फिर अब
रुकने की कोई
बात न थी।
भागता ही रहा, खोजता
ही रहा। मीलों
दूर जाकर
फकीरों को
पकड़ा। जानते
हो, क्या
मांगा? बुल्लेशाह
से कहा, मेरे
सिर पर हाथ रख
दें। सिर्फ
मेरे सिर पर
हाथ रख दें।
जैसे मटकी भर
गई खाली, ऐसा
आशीर्वाद दे
दें कि मैं भी
भर जाऊं। मुझे
चेला बना लें।
छोटा
बच्चा! बहुत
समझाने की
कोशिश की
बुल्लेशाह ने
कि तू लौट जा।
अभी उम्र नहीं
तेरी। अभी समय
नहीं आया।
लेकिन जगजीवन
जिद पकड़ गया।
उसने कहा, मैं
छोडूंगा नहीं
पीछा। हाथ
रखना पड़ा
बुल्लेशाह को।
गुरु
हाथ रखता ही
तब है जब तुम
पीछा छोड़ते ही
नहीं। तो ही
हाथ रखने का
मूल्य होता है।
और कहते हैं, क्रांति
घट गई। जो
महावीर को
बारह साल मौन
की साधना करने
से घटी थी, वह
बुल्लेशाह के
हाथ रखते
जगजीवन को घट
गई। अंतर बदल
गया। काया पलट
गई। चोला कुछ
से कुछ हो गया।
उस हाथ का रखा
जाना—जैसे एक
लफट उतरी। जला
गई जो व्यर्थ
था। सोना
कुंदन हो गया।
एक क्षण में
हुआ।
ऐसी
क्रांति तब हो
सकती है जब मांगनेवाले
ने सच में
मांगा हो। यूं
ही औपचारिक
बात न रही हो
कि मेरे सिर
पर हाथ रख दें।
हार्दिकता से
मांगा हो, समग्रता
से मांगा हो, परिपूर्णता
से मांगा हो, रोएं—रोएं
से मांगा हो।
मांग ही हो, प्यास ही हो
और भीतर कोई
दूसरा विवाद न
हो; शक न हो,
संदेह न हो।
निस्सदिग्ध
मांगा हो कि
मेरे सिर पर
हाथ रख दें।
मुझे भर दें
जैसे मटकी भर
गई।
छोटा
बच्चा था; न
पढ़ा न लिखा।
गांव का गंवार
चरवाहा। मगर
मैं तुमसे फिर
कहता हूं कि
अक्सर सीधे—सरल
लोगों को जो
बात सुगमता से
घट जाती है
वही बात जो
बुद्धि से
बहुत भर गए
हैं और इरछे—तिरछे
हो गए हैं, उनको
बड़ी कठिनाई से
घटती है।
युगपत
क्रांति हो गई।
जिसको झेन
फकीर 'सडन
इनलाइटमेंट
कहते हैं, एक
क्षण में बात
हो गई—ऐसी
जगजीवन को हुई।
प्यास, त्वरा,
तीव्रता, अभीप्सा—इन
शब्दों को याद
रखो। कुतूहल
से नहीं होगा
कि चलो देखें,
क्या होता
है अगर गुरु
सिर पर हाथ
रखे। कुछ भी
नहीं होगा। और
जब कुछ भी
नहीं होगा तो
तुम कहोगे कि
जब फिजूल की
बात है।
जिज्ञासा से
रखें कि शायद
कुछ हो, तो
भी नहीं होगा।
जब तक कि
अभीप्सा से न
रखो। होना ही
है, हुआ ही
है, इधर
हाथ छुआ कि
वहां हो जाना
है—ऐसी
श्रद्धा से
मांगो तो जरूर
हो जाता है; निश्चित हो
जाता है। सदा
हुआ है। इस
जगत् के
शाश्वत
नियमों में से
एक नियम है कि
जो पूर्णता से
यासा होगा
उसकी
प्रार्थना
सुन ली जाती
है। उसकी
प्रार्थना
पहुंच जाती है।
उस
दिन
बुल्लेशाह ने
ही हाथ नहीं
रखा जगजीवन पर, बुल्लेशाह
के माध्यम से
परमात्मा का
हाथ जगजीवन के
सिर पर आ गया।
टटोल तो रहा
था, तलाश
तो रहा था।
बच्चे की ही
तलाश थी—निबोंध
थी, अबोध
थी। लेकिन
प्रकृति से
झलकें मिलनी
शुरू हो गई
थीं। कोई
रहस्य
आवेष्टित किए
है सब तरफ से
इसकी प्रतीति
होने लगी थी, इसके आभास
शुरू हो गए थे।
आज जो अचेतन
में जगी हुई
बात थी, चेतन
हो गई। जो
भीतर पक रही
थी, आज उभर
आयी। जो कल तक
कली थी, बुल्लेशाह
के हाथ रखते
ही फूल हो गई।
रूपांतरण
क्षण में हो
गया। जगजीवन
ने फिर कोई
साधना
इत्यादि नहीं
की।
बुल्लेशाह से
इतनी ही
प्रार्थना की
: कुछ प्रतीक
दे जाएं। याद
आएगी बहुत, स्मरण होगा
बहुत। कुछ और
तो न था, बुल्लेशाह
ने अपने
हुक्के में से
एक सूत का धागा
खोल लिया—काला
धागा; वह
दाएं हाथ पर
बांध दिया
जगजीवन के। और
गोविदशाह ने
भी अपने
हुक्के में से
एक धागा खोला—सफेद
धागा, और
वह भी दाएं
हाथ पर बांध
दिया।
जगजीवन
को माननेवाले
लोग जो
सत्यनामी
कहलाते हैं—
थोड़े—से लोग
हैं—वे अभी भी
अपने दाएं हाथ
पर काला और
सफेद धागा बांधते
हैं। मगर
उसमें अब कुछ
सार नहीं है।
वह तो
बुल्लेशाह ने
बांधा था तो
सार था। कुछ
काले—सफेद
धागे में रखा
है क्या? कितने
ही बांध लो, उनसे कुछ
होनेवाला
नहीं है। वह
तो जगजीवन ने
मांगा था, उसमें
कुछ था। और
बुल्लेशाह ने
बांधा था, उसमें
कुछ था। न तो
तुम जगजीवन हो,
न
बाधनेवाला
बुल्लेशाह है।
बांधते रहो।
इस
तरह मुर्दा
प्रतीक हाथ
में रह जाते
हैं। कुछ और
नहीं था तो
धागा ही बांध
दिया। और कुछ
पास था भी
नहीं। हुक्का
ही रखते थे
बुल्लेशाह, और
कुछ पास रखते
भी नहीं थे।
लेकिन
बुल्लेशाह
जैसा आदमी अगर
हुक्के का धागा
भी बांध दे तो
रक्षाबंधन हो
गया। उसके हाथ
से छूकर
साधारण धागा
भी असाधारण हो
जाता है।
और
प्रतीक भी था।
गोविदशाह ने
सफेद धागा
बांध दिया, बुल्लेशाह
ने काला धागा
बांध दिया।
मतलब? मतलब
कि काले और
सफेद दोनों ही
बंधन हैं। पाप
भी बंधन है, पुण्य भी
बंधन है। शुभ
भी बंधन है, अशुभ भी
बंधन है। यह
बुल्लेशाह की
देशना थी। यह
उनका मौलिक
जीवन—मंत्र था।
अच्छा
तो बांध लेता
है,
जैसे बुरा
बांधता है।
नरक भी बांधता
है, स्वर्ग
भी बांधता है।
इसलिए तुम
बुरे से तो
छूट ही जाना, अच्छे से भी
छूट जाना। न
तो बुरे के
साथ
तादात्म्य
करना, न
अच्छे के साथ
तादात्म्य
करना। तादात्म्य
ही न करना।
तुम तो साक्षी
मानना अपने को
कि मैं दोनों
का द्रष्टा
हूं। लोहे की
जंजीरें
बांधती हैं, सोने की
जंजीरें भी
बांध लेती हैं।
जिसको तुम
पापी कहते हो
वह भी कारागृह
में है, जिसको
तुम
पुण्यात्मा
कहते हो वह भी
कारागृह में
है। चौंकेगे
तुम।
चोरी
तो बांधती ही
है,
दान भी बांध
लेता है। अगर
दान में दान
की अकड़ है कि
मैंने दिया—अगर
यह भाव है तो
तुम बंध गए।
जहां मैं है
वहां बंधन है।
अगर दान में
यह अकड़ नहीं
है कि मैंने
दिया, परमात्मा
का था, उसी
ने दिया, उसी
ने लिया, तुम
बीच में आए ही
नहीं; तो
दान की तो बात
ही छोड़ो, चोरी
भी नहीं बंधती।
अगर तुम अपने
सारे कर्ता—
भाव को
परमात्मा पर
छोड़ दो, फिर
कुछ भी नहीं
बांधता। फिर
तुम नरक में
भी रहो, तो
मोक्ष में हो।
कारागृह में
भी स्वतंत्र
हो। शरीर में
भी जीवनमुक्त
हो। लेकिन
दोनों के
साक्षी बनना।
ऐसा
सूक्ष्म
संदेश था
उसमें। यह कुछ
कहा नहीं गया।
कहने की जरूरत
न थी। वह जो
हाथ रखा था
गुरु ने और वह
जो जीवन—ऊर्जा
प्रवाहित हुई
थी और भीतर जो
स्वच्छ स्थिति
पैदा हुई थी, उस
स्वच्छ
स्थिति को कुछ
कहने की जरूरत
न थी। ये
प्रतीक
पर्याप्त थे।
उसी
दिन से जगजीवन
शुभ—अशुभ से
मुक्त हो गए।
उन्होंने घर
भी नहीं छोड़ा।
बड़े हुए, पिता
ने कहा शादी
कर लो, तो
शादी भी कर ली।
गृहस्थ ही रहे।
कहां जाना है?
भीतर जाना
है! बाहर कोई
यात्रा नहीं
है। काम—धाम
में लगे रहे
और सबसे पार
और अछूते—जल
में कमलवत्।
ऐसे
इस गैर—पढ़े—लिखे
लेकिन
असाधारण
दिव्य पुरुष
के वचनों में
हम प्रवेश करें।
फिर
नजर में फूल
महके दिल में
फिर शम् जली
फिर
तसब्यूर ने
लिया उस बज्म
में जाने का
नाम
जिनके
भीतर प्यास है, उन्हें
तो इस तरह की
यात्राओं की
बात ही बस पर्याप्त
होती है। फिर
नजर में फूल
महके... उनकी आंखें
फूलों से भर
जाती हैं।
दिल
में फिर शम्
जली... फिर उनके
हृदय में दीये
जगमगाने लगते
हैं,
दीवाली हो
जाती है।
फिर
तसब्यूर ले
लिया उस बज्म
में जाने का
नाम
उस
प्यारे की
महफिल में
जाने की बात
हो किसी बहाने—फिर
बहाना कबीर
हों कि नानक, कि
बहाना जगजीवन
हों कि दादू
हो भेद नहीं
पड़ता। उसकी
बज्म, उसकी
महफिल में
जाने की बात!
फिर राजपथ से
गए कि
पगडंडियों से गए,
कि बुद्धों
का हाथ पकड़कर
गए कि कृष्ण
का हाथ पकड़कर
गए, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। असली
बात उसकी
महफिल में
जाने की बात।
उसकी बात ही
उठते आंखों
में फूल उठ
आते हैं। हृदय
रंग से भर
जाता है, रोशनी
जग जाती है।
तुमसे
मन लागो है
मोरा।
जगजीवन
कहते हैं :
मेरा मन तुमसे
लग गया। और जब
मन उससे लग
जाता है तो मन
मिट जाता है।
मन का उससे लग
जाना मन का
मिट जाना है।
जब तक मन और—और
चीजों से लगा
होता है तब तक
बचता है। धन
से लगाओ, बचेगा।
पद से लगाओ, बचेगा। जब
तक मन को तुम
किसी और चीज
से लगाओगे
संसार में, बचता रहेगा।
जैसे ही
परमात्मा से
लगाओगे कि तुम
चकित हो जाओगे।
उससे लगा नहीं
कि गया नहीं।
उसके साथ बच
ही नहीं सकता,
उसमें डूब
जाता है, उसमें
लीन हो जाता
है। उस
निराकार के
साथ कोई आकार
बच नहीं सकता।
मन आकार है।
उस अरूप के
साथ कोई रूप
टिक नहीं सकता।
मन एक रूप है।
निराकार से
जुडो कि
निराकार हुए।
तुम सों मन
लागो है मोरा।
जिंदगी
में अगर लगाना
ही हो मन तो
परमात्मा से
लगाना, अन्यथा
तुम हारे ही
जियोगे, हारे
ही मरतौ।
तुम्हारी
जिंदगी की
सारी कथा
हारने की एक
कथा होगी। और
ऐसा नहीं है
कि जिंदगी में
जीत नहीं थी।
जीत हो सकती
थी लेकिन आदमी
अकेला कभी
नहीं जीतता।
अकेला तो सदा
हारता है। जब
भी जीत होगी, परमात्मा के
साथ होती है।
उसके साथ हो
जाओ, असंभव
संभव हो जाता
है। उससे अलग
खड़े हो जाआ, संभव भी
असंभव हो जाता
है।
सुनता हूं
बड़े गौर से
अफसाना—ए—हस्ती
कुछ ख्वाब
है, कुछ
अस्त है, कुछ
तजें— अदा है
इस
जिंदगी में सब
कुछ है लेकिन
अगर गौर से
देखोगे—सुनता
हूं बड़े गौर
से अफसाना—ए—हस्ती
अगर इस जिंदगी
की कथा को, कहानी
को गौर से
परखोगे, जाचोगे,
कसौटी पर
कसोगे तो
पाओगे—कुछ
ख्वाब है।
इसमें कुछ तो
बिल्कुल सपना
है—तुम्हारा
ही निर्मित, तुम्हारा
आरोपित।
कुछ
ख्वाब है, कुछ
अस्ल है—लेकिन
सभी कुछ सपना
भी नहीं है, इसमें कुछ
अस्ल भी है।
.......
कुछ तजें—अदा
है। और कुछ तो
इस कथा में
सिर्फ कहने की
शैली है और कुछ
भी नहीं।
लेकिन
ध्यान रखना, अगर
निन्यानबे
प्रतिशत भी
यहां स्वप्न
है, माया
है तो भी एक
प्रतिशत
ब्रह्म मौजूद
है। उस एक
प्रतिशत को ही
पकड़ लो तो जो
निन्यानबे प्रतिशत
स्वप्न हैं,
अपने आप
तिरोहित हो
जाएंगे। छोटा—सा
दीया भी गहन
से गहन अंधकार
को तोड़ देता
है। फिर
अंधकार
हजारों साल
पुराना हो तो
भी तोड़ देता
है। अंधकार यह
नहीं कह सकता
कि मैं बहुत
पुराना हूं तू
अभी आज का
छोकरा है। ए
दीये, तू
मुझे न तोड़
सकेगा। मैं
अति प्राचीन
हूं समय लगेगा।
दीया जला कि
अंधकार गया—एक
दिन का हो कि
करोड़ वर्ष का
हो।
तुम्हारे
सपने कितने ही
पुराने हों......
और पुराने हैं।
जन्मों—जन्मों
यही स्वप्न
तुमने देखे
हैं। इतने बार
देखे हैं, बार—बार
देखे हैं कि
सपने भी सच
मालूम होने
लगे हैं।
तुमने खयाल
किया कभी? अगर
एक ही झूठ को
बार—बार
दोहराए जाओ तो
वह सच मालूम
होने लगता है।
अडोल्फ हिटलर
ने अपनी
आत्मकथा 'मैनकेम्फ'
में लिखा है
कि सच और झूठ
में ज्यादा
फर्क नहीं है।
इतना ही फर्क
है कि जिन शो
को बहुत बार
दोहराया जाता
है वे सच हो
जाते हैं। बस
दोहराते रहो।
इसी
पर तो सारी
दुनिया का
विज्ञान खोज
करता है और
हैरान होता है।
आदमी कैसे—कैसे
अंधविश्वासों
में पड़ा रहा
है। सदियां
बीत गई, उन
अंधविश्वासों
की जड़ें कहां
हैं? पुनरुक्ति
में, दोहराने
में। बस
दोहराए जाओ।
तुम्हारे
पिता ने कुछ
दोहराया था, तुम अपने
बच्चों से
दोहरा दो।
दोहराए चले
जाओ। पंडित
हैं, पुजारी
हैं, मौलवी
हैं, दोहराए
चले जाओ।
जब
लोग एक ही बात
को बार—बार
सुनते हैं तो
सोचने लगते
हैं कि जहां धुआं
है,
वहां आग भी
होगी। कुछ न
कुछ तो सच होगा
ही। एक बार
सुनते हैं तो
शायद शक करें;
दूसरी बार
सुनते हैं, तीसरी बार
सुनते हैं, धीरे— धीरे
बात बैठती
जाती है। लकीर
गहरी हो जाती
है। रसरी आवत—जात
है सिल पर पड़त
निशान।
पत्थरों पर
निशान पड़ जाते
हैं तो आदमी
का मन... आदमी का
मन तो पत्थर
नहीं है। आदमी
का मन तो बहुत
कोमल है, मोम
की तरह है।
निशान बड़ी
जल्दी पड़ जाते
हैं।
इसी
आधार पर तो
सारा
विज्ञापन
जीता है। बस
दोहराए चले
जाओ। फिकर ही
मत करो कोई
सुन रहा है कि
नहीं। तुम
सिर्फ दोहराए
चले जाओ।
मनुष्य
विज्ञापन से
जी रहा है।
तुम कुछ भी
सोचते हो, जब
तुम जाकर
दुकान में पूछते
हो : बिनाका
टूथपेस्ट। तो
तुम सोचते हो,
तुम कुछ सोच—समझकर
पूछ रहे हो? कि तुमने
कुछ विचार
किया है कि
कौन—सा
टूथपेस्ट
वैज्ञानिक
रूप से दांतों
के लिए उपयोगी
है? तुमने
डाक्टर से
पूछा है? डाक्टरों
की सलाह तुम
मानोगे?
एक
दफे एक
टूथपेस्ट—कंपनी
ने यह प्रयोग
किया कि एक
टूथपेस्ट का
विज्ञापन
दिया दस दुनिया
के सब से बड़े दांतों
के डाक्टरों
के नामों के
साथ। उसकी
बिक्री हुई ही
नहीं। दूसरा
टूथपेस्ट विज्ञापन
किया मरलिन
मन्रो—अमरीका
की बहुत
प्रसिद्ध
अभिनेत्री के
नग्न चित्र के
साथ। उसके दात, मुस्कुराती
हुई मनो, और
मुस्कुराहट
कि जिमी
कार्टर को
झेंपा दे! खूब
बिक्री हुई।
और दस बड़े
डाक्टर... पहले
तो बड़े
डाक्टरों का
नाम जानता कौन?
होंगे कोई,
किसको लेना—देना!
और डाक्टरों
की सुनता कौन?
और
डाक्टरों का
प्रभाव क्या
पड़ता है!
लेकिन सुंदर
अभिनेत्री! अब
हेमामालिनी
तुम्हारे कान में
कुछ कहे, उसकी
सुनोगे कि
नहीं? फुसफुसाकर
कहा जाए: 'बिनाका
टूथपेस्ट। 'फिर सारे
दुनिया के
डाक्टर
चिल्लाते
रहें कुछ और, कौन फिकर
करता है।
दोहराए
जाओ। और इस
ढंग से दोहराओ
कि लोगों की
कामनाएं और वासनाओं
में उसके अंकन
हो जाएं। कोई
भी चीज बेचनी
हो,
नग्न
स्त्री का विज्ञापन
देना पड़ता है।
चीजें नहीं
बिकती, हमेशा
नग्न स्त्री
बिकती है। ऐसी
चीजें जिनसे
कुछ लेना—देना
नहीं स्त्री
का, उनको
भी बेचना हो
तो नग्न
स्त्री को खड़ा
कर दो। पुरुष
की आंखें एकदम
फैल जाती हैं।
और
जब आंखें फैली
होती हैं... तुम
चकित होओगे, यह
मैं ऐसे ही
नहीं कह रहा
हूं कोई, काव्य
की भाषा में
नहीं कह रहा
हूं कि आंखें
फैल जाती हैं,
विज्ञान की
भाषा में आंखें
फैल जाती हैं।
वह जो
तुम्हारी आख
की पुतली है, जब तुम नग्न
स्त्री को
देखते हो, एकदम
बड़ी हो जाती
है। क्योंकि
तुम चाहते हो
कि पूरी की
पूरी गप कर जाओ।
तो छोटा—सा
छेद पुतली का,
उसमें से
कहां जाएगी? हेमामालिनी
जरा मोटी भी
है! तो आख की
पुतली एकदम
बड़ी हो जाती
है। वह
तुम्हारी आख
की पुतली पी
रही है। वह पी
रही है
हेमामालिनी
को, मगर
साथ में
बिनाका
टूथपेस्ट भी
चला जा रहा है।
फिर
जगह—जगह
विज्ञापन।
अखबार—बिनाका
टूथपेस्ट।
रेडियो—बिनाका
गीतमाला। फिर
सीलोन हो कि
आदिस अबाबा—बिनाका।
रास्ते पर
निकलो, बड़े—बड़े
अक्षरों में
बिनाका। जहां
जाओ वहां
बिनाका।
तुम्हें खयाल
भी नहीं आता
कि क्या हो
रहा है। एक
दिन तुम जाते
हो दुकान पर
और दुकानदार
पूछता है, कौन—सा
टूथपेस्ट? और
तुम कहते हो, बिनाका!
और
तुम सोचते हो
तुम बड़े
बुद्धिमान
आदमी हो? तुम
बुद्ध हो। तुम
बुद्ध बनाए गए
हो। चीजें
दोहरायी गई
हैं और
तुम्हारे मन
में बिठा दी
गई हैं। तुम
सिर्फ
संस्कारित कर
दिए गए हो।
जिंदगी
पुनरुक्ति से
चल रही है। और
इसीलिए
तुम्हारे
चारों तरफ लोग
जो मानते हैं
वही तुम भी
मान लेते हो।
सब लोग धन की
दौड़ में लगे
हैं,
तुम भी लग
जाते हो। अ भी
दौड़ रहा है, ब भी दौड़ रहा
है, सभी
दौड़ रहे हैं।
सभी धन की दौड़
में दौड़ रहे
हैं। सभी कहते
हैं, धन
मूल्यवान है।
तुम भी दौड़े।
सब दिल्ली जा
रहे हैं, तुमने
उठा लिया झंडा
कि चलो दिल्ली;
कि अब दिल्ली
से पहले रुकना
ही नहीं है।
चारों
तरफ एक हवा
होती है। उस
हवा में आदमी
बहता है।
लहरें उठती
हैं,
लहरों के
साथ आदमी चले
जाते हैं।
समझदार आदमी
वही है जो
अपने को इन
लहरों से बचाए।
नहीं तो तुम
धक्के खाते
रहे, कितने
जन्मों तक
खाते ही रहोगे।
यहां
परमात्मा को
खोजनेवाले
लोग तो बहुत
कम हैं, न
के बराबर हैं।
उनका तुम्हें
पता ही न
चलेगा अगर तुम
खोजने ही न
निकलो। धन को
खोजनेवाले तो
सब जगह हैं।
सभी वही कर
रहे हैं।
तुम्हारे
पिता भी वही
कर रहे हैं, तुम्हारे
भाई भी वही कर
रहे हैं, तुम्हारा
परिवार भी वही
कर रहा है, तुम्हारे
पड़ोसी भी वही
कर रहे हैं।
सारी दुनिया
धन खोज रही है।
इतने लोग गलत
थोड़े ही हो
सकते हैं।
इतने लोग खोज
रहे हैं तो
ठीक ही खोज
रहे होंगे।
इसलिए
तुम्हारा मन
हजार—हजार
चीजों में उलझ
जाता है। तुम
ऐसी चीज खरीद
लेते हो जिनकी
तुम्हें
जरूरत नहीं है।
लेकिन
पड़ोसियों ने
खरीदी हैं, तुम
कर भी क्या
सकते हो? जब
पड़ोसी खरीदते
हैं तो
तुम्हें भी
खरीदनी पड़ती
हैं। तुम ऐसे
कपड़े पहने हुए
हो, जो
तुम्हें न
रुचते हैं न
जंचते हैं, न सुखद हैं।
अब
हिंदुस्तान
जैसे देश में
भी लोग टाई
बांधे हुए हैं।
यहां गर्मी से
वैसे ही मरे
जा रहे हो।
टाई ठंडे
मुल्क के लिए
जरूरी है, उपयोगी
है ताकि गले
में कोई संध न
रह जाए जरा भी।
ठंडी हवा भीतर
न जा सके।
ठंडे मुल्कों
में टाई
बिल्कुल ठीक
है लेकिन गर्म
मुल्क...! तुम
टाई बांधे हुए
हो, गलफांस—अपने
हाथ से ही फांसी
लगाए बैठे हो।
मगर बैठे हैं
लोग।
ठंडे
मुल्कों में
लोग जूते और
मोजे दिन— भर
पहने रहते हैं, स्वाभाविक
है। मगर तुम
किसलिए पहने
हुए हो? पसीने
से तरबतर हो
रहे हो मगर
मोजे नहीं
उतार सकते, जूते नहीं
उतार सकते।
उसके बिना
साहबी चली
जाती है।
लोग
जीवन को सोचकर
नहीं जी रहे
हैं,
सिर्फ
अनुकरण कर रहे
हैं अंधा। जो
दूसरे कर रहे
हैं वैसा ही
तुम भी कर रहे
हो, तो तुम
शायद
परमात्मा तक
कभी नहीं
पहुंच पाओगे।
क्योंकि
तुम्हारा मन
इतना छितर
जाएगा, इतना
बिखर जाएगा
खंड—खंडों में।
और परमात्मा
को पाने के
लिए अखंड मन
चाहिए। और
परमात्मा
मांग करता है
कि पूरा मन
मेरी तरफ हो
तो ही तुम
मुझे पाने के
हकदार हो। वह
उसकी शर्त है।
उससे कम शर्त
पर उसे कोई
पाता नहीं।
तुमसों मन
लागो है मोरा।
लेकिन
लग गया जगजीवन
का मन।
प्रकृति से रस
जुड़ते—जुड़ते
एक दिन
बुल्लेशाह से
रस जुड़ गया।
जो प्रकृति से
रस जोड़ेगा उसे
आज नहीं कल
सद्गुरु मिल
जाएगा।
तो
मैं तुमसे
कहता हूं, मंदिर
जाओ न जाओ
चलेगा; लेकिन
कभी वृक्षों
के पास जरूर
बैठना; नदियों
के पास जरूर
बैठना; सागर
में उठती हुई
उत्ताल
तरंगों को
जरूर देखना; हिमाच्छदित
शिखर हिमालय
के जरूर दर्शन
करना। फूलों
से दोस्ती
बनाओ।
वृक्षों से
बातें करो।
हवाओं में
नाचो। वर्षा
से नाता जोड़ो—और
तुम सद्गुरु
को खोज लोगे।
क्योंकि न तो
वृक्ष झूठ
बोलेंगे
तुमसे, न
नदियां झूठ
बोलेंगी, न
पक्षी झूठ
बोलेंगे।
इन्हें झूठ का
कुछ पता नहीं
है। झूठ आदमी
की ईजाद है।
ये विज्ञापन
भी नहीं
करेंगे लेकिन
उनकी मौजूदगी,
उनकी शांति,
उनका
सन्नाटा, उनका
उत्सव। यह चल
रहा सतत उत्सव,
यह प्रकृति
का चौबीस घंटे
चल रहा नृत्य—यह
तुम्हें
कितनी देर तक
दूर रखेगा? जल्दी ही
तुम्हें
रहस्य का
अनुभव होगा, विस्मय
जगेगा, आश्चर्य
का भाव उठेगा।
जल्दी ही तुम
सद्गुरु को
खोजने में
समर्थ हो जाओगे।
और ध्यान रखना,
एक पुरानी
इजिप्ती
कहावत
तुम्हें मैं
दोहराऊं।
इजिप्त के
पुराने
फकीरों ने कहा
है कि जब शिष्य
राजी होता है
तो गुरु प्रकट
होता है।
ऐसे
ही बुल्लेशाह
जगजीवन के
जीवन में
प्रकट हुए।
अचानक!
बांसुरी
बजाता होगा, गाय
चराता होगा।
बुल्लेशाह का
आना, इसे
आग लेने भेजना,
बुल्लेशाह
का इसकी आंखों
में आख डालकर
देखना, इसके
सिर पर हाथ
रखना, इसके
हाथ में प्रेम
की राखी बांध
देना। जरूर
इसकी प्यास
इतनी प्रगाढ़
हो गई होगी कि
सरोवर इसकी
तरफ चला; कि
सरोवर ने इसकी
तलाश की। और
फिर तो जगजीवन
का मन पूरा का
पूरा परमात्मा
में लग गया।
वह जो
संस्पर्श हुआ
गुरु का, उसने
उसके सारे मन
को एक
प्रज्वलित
अग्नि बना
दिया।
तुमसों मन
लागो है मोरा।
हम तुम
बैठे रही
अटरिया, भला
बना है जोरा।
और
कहता है, अब तो
खूब मजा हो
रहा है, खूब
रस बह रहा है।
यह भी खूब
जोड़ी बनी है
हमारी और
तुम्हारी।
इसी की तलाश
है।
तुम
जब किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़े
हो या किसी
पुरुष के
प्रेम में पड़े
हो तब भी तुम
परमात्मा की
ही तलाश कर
रहे हो, हालांकि
तुम्हारी
तलाश अंधी है।
और चूंकि
परमात्मा को
तुम इस अंधे
ढंग से तलाश
रहे हो, तुम
असफल होओगे।
क्या तुम्हें
पता है कि सभी
प्रेम असफल हो
जाते हैं इस
पृथ्वी पर? और सभी
प्रेम पीछे
मुंह में
कडुवा स्वाद
छोड़ जाते हैं।
क्यों? कारण
क्या है? कारण
है अपेक्षा।
जब तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ते हो तो तुम
साधारण
स्त्री नहीं
मानते हो उसे;
मान ही नहीं
सकते। तुम
मानते हो
अद्वितीय, दिव्य
प्रतिमा। और
फिर धीरे—
धीरे तुम पाते
हो, मिट्टी
की है। ऐसी मिट्टी
की जैसी और
स्त्रियां
हैं। जरा भेद
नहीं है। जब
कोई स्त्री
किसी पुरुष के
प्रेम में
पड़ती है तो
परमात्मा के
ही प्रेम में
पड़ती है। वह
पुरुष में
परमात्मा को
खोजना शुरू
करती है और
नहीं पाती है।
तब विषाद मन
को पकड़ लेता
है। लगता है
जैसे धोखा
दिया गया। तब
धोखे की
प्रतीति में
क्रोध उठता है।
पति—पत्नी
अगर सतत कलह
करते रहते हैं
तो उसका कारण
क्या है? जो
कारण वे बताते
हैं उनमें मत
उलझना। उन
कारणों का कोई
मूल्य नहीं है।
पति कहे कि आज
रोटी में नमक
कम था इसलिए
झगड़ा हो गया, कि पत्नी
कहे कि पति आज
रात देर से
लौटा घर इसलिए
झगड़ा हो गया।
ये तो बहाने
हैं झगड़े के।
अगर पति घर
में ही बैठा
रहे तो भी
झगड़ा हो जाएगा
कि तुम यहीं
क्यों बैठे हो?
मुल्ला
नसरुद्दीन
शाह की पत्नी
उससे झगड़ती रहती
कि तुम हमेशा
बकवास क्यों
करते हो? मैंने
उससे एक दिन
कहा कि तू
बकवास बंद ही
कर दे, अब
यही झगड़े का
कारण है। तो
उसने कहा, अच्छा
आज मैं कसम
खाकर जाता हूं।
वह जाकर
बिल्कुल चुप
बैठ गया। घड़ी—
भर बाद पत्नी
बोली कि तुम
चुप क्यों
बैठे हो? बोलते
क्यों नहीं? क्या लकवा
मार गया है?
बोले
तो मौत, न
बोले तो मौत।
बोलो तो फंसो,
न बोलो तो
फंसो। अगर पति
दिन— भर घर में
रहे तो पत्नी
पूछती है कि
बात क्या है? तुम यहीं—यहीं
क्यों चक्कर
काट रहे हो? काम— धाम
नहीं करना है?
अगर काम—
धाम के लिए
जाए तो पूछती
है, तुम्हें
काम ही धाम
पड़ा है।
तुम्हें मेरी
कोई चिंता
नहीं है। अगर
गौर से देखोगे
तो पति—पत्नी
के झगड़े के
भीतर में छोटी—छोटी
बातें तो
सिर्फ
निमित्त हैं।
असली झगड़ा कुछ
और है। दोनों
ने धोखा खाया
है। दोनों ने
सोचा था किसी
दिव्य प्रेम
का आविर्भाव
हो रहा है और
फिर पीछे पाया
कि न कुछ
दिव्य है न
कुछ प्रेम है।
सब क्षुद्र है।
सब मिट्टी से
भरा है। मुंह
मिट्टी से भर
गया है। सोचा
था कुछ, हो
गया कुछ है।
लेकिन
अगर तुम्हें
समझ में आ जाए
कि किस कारण यह
हो रहा है तो
बड़े फर्क पड़
जाएंगे। फिर
झगड़े की कोई
बात न रही।
परमात्मा की
तलाश चल रही
है। प्रत्येक
व्यक्ति
परमात्मा को
खोज रहा है, चाहे
उसे पता हो और
चाहे पता न हो।
वे भी जो कहते
हैं ईश्वर
नहीं है, परमात्मा
की खोज में
लगे हैं।
नास्तिक भी
उसी तरफ चल
रहा है। कोई
बचने का उपाय
ही नहीं है।
हर नदी सागर
की तरफ जा रही
है। जैसे हर
नदी सागर की
तरफ जा रही है,
चाहे दिशा
कोई भी हो, ऐसे
ही हर चैतन्य
परमात्मा की
तरफ जा हा है।
क्योंकि
चैतन्य उस परम
चेतना की
किरणें हैं; वे अपने मूल
उद्गम को खोज
रही हैं। और
जब तक मूल
उद्गम न मिले
तब तक विश्राम
नहीं है।
तुमसों मन
लागो है मोरा!
हम तुम
बैठे रही
अटरिया, भला
बना है जोरा।
और
अब जगजीवन
कहते हैं कि
बन गई जोड़ी।
रच गया विवाह।
आ गई सुहागरात
जिसका कोई अंत
नहीं होता।
अटरिया पर
बैठे हैं। बड़ी
ऊंचाई पर बैठे
हैं क्योंकि
यह मिलन बड़ी ऊंचाई
पर होता है।
अब
यह तो गैर—पढ़े—लिखे
आदमी की भाषा
है इसलिए
अटरिया। अगर
पतंजलि कहते
तो कहते, सहस्रार।
वह पढ़े—लिखे
आदमी की भाषा
है। अगर बुद्ध
कहते तो कहते,
निर्वाण।
वह सुसंस्कृत
आदमी की भाषा
है। अगर
महावीर कहते
तो कहते, मोक्ष।
बेचारे
जगजीवन कहते
हैं...... गांव में
अटारी से बड़ी
और तो कोई चीज
होती नहीं। और
अटारी भी क्या
कोई खास अटारी
होती है! दो मंजिल
का मकान हो
उसको गांव में
अटारी कहते
हैं।
मैं
जिस घर में
पैदा हुआ उसको
उस गांव के
लोग अटारी
कहते हैं। दो
मंजिल का
मकान! कुल तीन
सौ रुपए में
बिका। उसको
गांव के लोग
अटारी कहते
हैं।
मगर
गांव के आदमी
थे जगजीवन।
अपनी ही तो
भाषा बोलेंगे
न।
हम
तुम बैठे रही
अटरिया, भला
बना है जोरा
बैठे
हैं,
बड़ी ऊंचाई
पर—अटारी पर।
खूब जोड़ा बना
है।
सत
की सेज बिछाय सूति
रहि...
और
हमने सत्य की
सेज बिछा ली
है। सत्य की
सेज को बिछाकर
हम सो रहे हैं
साथ—साथ। मिलन
हुआ है, प्रेम
हुआ है। प्रेम
में डुबकी मार
रहे हैं।... सुख
आनंद घनेरा और
बड़ा घना सुख
है और बड़ा
अपूर्व आनंद
है। आ गई
अंतिम घड़ी
मिलन की।
करता हरता
तुम हीं आहहु,
तुम्हीं
हो करनेवाले, तुम्हीं
हो हरनेवाले ...
.......करौं मैं
कौन निहोरा
अब
तो मैं विनती
भी क्या करूं!
अब तो मैं
प्रार्थना भी
क्या करूं! जो
ठीक होता है, तुम
सदा कर ही
देते हो। देखो
बुल्लेशाह को
भेज दिया। मैं
तो अपनी
बांसुरी बजा
रहा था, अपने
गाय—बैल चरा
रहा था। देखो
बुल्लेशाह के
हाथ से तुमने
अपना हाथ मेरे
सिर पर रख
दिया। देखो
मेरी तो कुछ
हैसियत न थी।
न कोई साधना
की, न कोई
सिद्धि, न
कोई जप। तुम आ
गए अचानक, जला
दिया सब कूड़ा—करकट।
कर दिया मुझे
कुंदन। कर
दिया मुझे
शुद्ध। तो अब
तो विनती भी
क्या करूं! अब
तुमसे मांग क्या?
तुम तो बिन
मांगे दे देते
हो।
करता हरता
तुमहीं आहहु, करौं
मैं कौन
निहोरा
रह्यो
अजान अब जानि
परयो है
अब
तक तो अजान था
तो मांगता था।
क्षमा कर देना।
तुमसे कभी कुछ
मांगा हो, माफ
कर देना। अजान
था तो
प्रार्थना कर
लेता था कि
ऐसा करो प्रभु,
कि वैसा करो
प्रभु। रह्यो
अजान अब जान
परयो है—लेकिन
अब तो मैं जान
गया। और जाना
कैसे?
—जब चितयो एक
कोरा
तुमने
प्यार— भरी एक
नजर से देख
लिया बस। बस
जान गया सब।
एक बार तुमने
प्यार— भरी
नजर से देख
लिया, बस जान
गया सब। जब
चितयो एक कोरा—आख
की एक कोर से
मुझे देख लिया,
इतना
पर्याप्त है।
मुझ भिखारी को
सम्राट बना
दिया।
अब
निर्वाह किए
बन अइहे......
और
अब कोई चिंता
नहीं है। अब
तो सब निर्वाह
कर लूंगा। अब
तो सुख आए, दुःख
आए; सफलता
हो, विफलता
हो; स्वास्थ्य
हो, बीमारी
हो; जीवन
हो, मृत्यु
हो, अब कोई
चिंता नहीं है।
तुम्हारी आख
का प्रेम देख
लिया, उसमें
अमृत बरस गया
है।
अब निरवाह
किए बन अइहे—
अब
तो सब निर्वाह
कर लूंगा। अब
तुमसे क्या
प्रार्थना
करनी।
लाय
प्रीति नहिं
तोरिय डोरा—
अब
तो मुझे पक्का
भरोसा आ गया
है कि प्रेम
का जो धागा
तुमसे मेरा
बंध गया है, अब
टूटनेवाला
नहीं है। अब
टूट नहीं सकता।
मेरे किए बना
होता तो शायद
टूट भी जाता, तुम्हारे ही
किए बना है, कैसे टूट
सकता है? लाए
प्रीति नहीं
तोरे डोरा।
तुम्हीं लाए
हो प्रेम।
मेरा किया कुछ
है नहीं।
प्रसादरूप
आया है सब, कैसे
तोड़ोगे?
इश्क
सुनते थे जिसे
हम वह यही है
शायद
खुद—ब—खुद
दिल में इक
शख्स समाया
जाता है
जगजीवन
के जीवन में अपने—आप
परमात्मा
प्रविष्ट हुआ।
और जब अपने आप
परमात्मा
प्रविष्ट
होता है तो उसका
सौंदर्य अलग, उसकी
महिमा अलग।
भक्त इसी को
प्रसाद कहते
हैं। तुम
पात्र भर बनो।
और पात्र यानी
प्यास, गहन
प्यास। और
परमात्मा
उतरेगा, निश्चित
उतरता है।
कब आप आए कि
ताकत नहीं
इशारे की
कब आप आये
कि जुंबिश
नहीं जुबां के
लिए
और
जब उसका उतरना
होता है तो
भक्त के इशारे
खो जाते हैं।
भक्त बिल्कुल गूंगा
हो जाता है।
कब आप आए कि
ताकत नहीं
इशारे की
अब
कैसे बताऊं
किए कब आप आए, कैसे
आप आए। मेरे
किए तो आए
नहीं। ज्ञानी
बता सकता है, तपस्वी बता
सकता है कि
परमात्मा
कैसे आता है।
इतना व्रत, इतना उपवास,
इतना ध्यान,
इतनी पूजा,
इतनी
प्रार्थना—तब
परमात्मा आता
है। भक्त कैसे
बताए? क्योंकि
भक्त के ऊपर
तो ऐसा आता है,
छप्पर
तोड़कर आता है,
प्रमाद की
तरह बरसता है।
कब आप आए कि
ताकत नहीं
इशारे की
कब आप आए कि
जुंबिश नहीं
जुबां के लिए
अब
मेरे पास जबान
नहीं है कि कह
दूं।
जगजीवन
बिनती करि
मांगै, देखत
दरस सदा रहौं
तोरा
इतनी
ही प्रार्थना
है : तू दिखाई
पड़ता रहना, ओझल
न हो जाना।
जैसे पहले ओझल
थी ऐसे फिर
छिप मत जाना।
बस भक्त की एक
ही आकांक्षा
है—न मोक्ष की
आकांक्षा है,
न निर्वाण
की आकांक्षा,
एक ही आकांक्षा
है कि तेरा
दरस मिलता रहे।
तू दिखाई पड़ता
रहे। तेरी झलक
मिलती रहे।
तेरी झलक काफी
है। तेरी एक
झलक में हजार
वैकुंठ, तेरी
एक झलक में
सारे मोक्ष, तेरी एक झलक
में सारे
निर्वाण।
भक्त तो उसकी
एक झलक से ही
बेहोश रहने
लगता है, मस्त
रहने लगता है।
अब यह आलम
है तेरे हुस्न
की खैर
होश—ओ—मस्ती
में इप्तियाज
नहीं
यह
तेरे सौंदर्य
ने ऐसा दीवाना
बना दिया है।
यह तेरे
सौंदर्य की
कृपा कि अब तो
होश और मस्ती
में कुछ फर्क
नहीं मालूम
होता। वही होश
है,
वही मस्ती
है।
बे पिए
कहते हो सब
रिद—ए—मैशाआम
मुझे
बेखुदी
तूने किया
मुफत में
बदनाम मुझे
लोग
कहते हैं कि
यह आदमी कुछ
पिया—पिया—सा
मालूम पड़ता है।
रिंद हो गया
है,
पियक्कड़ हो
गया है, मद्यप
हो गया है। और
सच यह है कि
मैंने सिर्फ
तुझे देखा है।
मगर तुझे
देखकर ऐसा
बेखुद हुआ
हूं! मेरी
खुदी मिट गई, मेरा अहंकार
मिट गया।
बे पिए
कहते हो सब
रिद—ए—मैशाआम
मुझे
बेखुदी
तूने किया
मुफत में
बदनाम मुझे
मन महं जाइ
फकीरी करना
कहते
हैं,
बस मन के
भीतर डुबकी
मारो और फकीरी
हो गई। फकीरी
कुछ बाहर
आयोजन नहीं
करनी पड़ती। मन
के जो भीतर
गया वह फकीर
हो गया।
पहाड़ों पर
जाने से कोई
फकीर नहीं होता;
न
भिक्षापात्र
ले लेने से
कोई फकीर हो
जाता है।
जगजीवन
इसी तरह फकीर
कभी हुए भी
नहीं। भीतर गए
और फकीर हो गए।
भीतर जाने से
दिखाई पड़ गया, संसार
में सब व्यर्थ
है और जो
सार्थक है वह
अपने भीतर
मौजूद है।
मांगना किससे
है? हाथ
किसके सामने
फैलाने हैं? मालिक भीतर बैठा
है। देनेवाला
भीतर बैठा है।
मांगो भी मत
तो भी देता है।
एक बार उस पर
नजर डालो। एक
बार लौटो।
उसकी तरफ पीठ
की है, उसकी
तरह मुंह करो।
अभी तुम राम
से विमुख हो, राम के
सम्मुख हो जाओ।
वही फकीरी है।
रहे एकत तत
तें लागा
और
भीतर डूबो कि
वहां एकांत है।
फिर किसी गुफा
और हिमालय पर
बैठने की कोई
जरूरत नहीं है।
भीतर जाओ; वहां
से बड़ा हिमालय
और कहीं भी
नहीं है। हृदय
की गुफा से
गहरी कोई गुफा
नहीं है।
रहे एकत तत
तें लागा—
और
वहां जो बैठता
है उसका तत्व
में चित्त लगा
रहता है; उसका
प्रभु से
संबंध जुड़ा रहता
है।
राग निर्त
नहिं सुनना—
फिर
बाहर का सब
रता—रंग सुनाई
भी नहीं पड़ता।
बाजार में
बैठे रहो, भीतर
डूबने की कला
आ जाए। फिर
बाजार का सब
रता—रंग चलता
रहता है, सुनाई
भी नहीं पड़ता।
पहचान में भी
नहीं आता।
कथा—चरचा
पढै—सुनै नहिं, नाहिं
बहुत बक बोलना
ना थिर रहै
जहां तहं धावै, यह
मन अहै
हिंडोलना
न
तो फिर व्यर्थ
की बातचीत
करनी होती, न
व्यर्थ की कथा—कहानियां
सुननी होतीं।
फिर गपशप इधर—उधर
की सब व्यर्थ
हो जाती है।
कथा—चरचा
पढै—सुनै नहिं, नहिं
बहुत बक बोलना
ना थिर रहै
जहां तहं धावै, यह
मन अहै
हिंडोलना
यह
मन जब तक है तब
तक हिंडोलने
की तरह डोलता
रहता है—यहां
जाए वहां जाए, यह
करूं, वह
करूं। भीतर
जाओ और सब ठहर
जाता है।
मैं
तैं गुमान बिबादंहि, सबै
दूर यह करना
और
जैसे ही भीतर
गए,
मैं ही मिट
जाता है फिर
तू कहां; फिर
विवाद कहां!
सब विवाद मैं—तू
के विवाद हैं।
लोग
सिद्धांतों
की सिर्फ आडू
लेते हैं। बातें
सिद्धांतों
की करते हैं
लेकिन सब
विवाद... कोई
कहेगा, मैं
समाजवाद के
लिए लड़ रहा
हूं और कोई
कहेगा कि मैं
लोकतंत्र के
लिए लड़ रहा हूं, लेकिन सब
विवाद मैं—तू
के विवाद हैं।
यह तो सिर्फ
अच्छे—अच्छे
नाम हैं।
जिनके पीछे
अहंकार को
छिपाना पड़ता
है।
कोई
कहता है मैं
इस्लाम के लिए
लड़ रहा हूं,
कोई कहता है
मैं हिंदू
धर्म के लिए
लड़ रहा हूं।
कुल लड़ाई, सारी
लड़ाई अहंकार
की लड़ाई है।
और जिस दिन
आदमी यह देख
लेगा कि ये
सारे पर्दे झूठे
हैं उस दिन
दुनिया से
लड़ाइयां बहुत
कम हो जाएंगी।
हर आदमी अपनी
लड़ाई को सैद्धांतिक
रंग देता है; उसको लीपता
है, पोतता
है। अहंकार को
सजाता है—समाजवाद!
लोकतंत्र! क्रांति!
बड़े—बड़े शब्द,
बड़ी—बड़ी
बातें।
अभी
तुमने देखा!
एक फिजूल की
घटना घटी, उसको
दूसरी
क्रांति कहते
हैं। देशभर के
मुर्दो को
सत्ता में
बिठाल दिया, उसको
क्रांति कहते
हैं। दूसरी क्रांति
हो गई! लोकतंत्र
आ गया! न कभी
कुछ आता, न
कभी कुछ जाता।
सब वैसा का
वैसा चलता
रहता है। नाम
बदल जाते हैं,
काम वही के
वही।
जरा
गौर से देखो
कि ये सारे
लोग जो विवाद
में पड़े रहते
हैं,
इनके विवाद
के पीछे सार
क्या है? सार
इतना है कि
मैं बड़ा हूं, तुम छोटे हो।
मगर यह कैसे
कहें? यह
सीधा—सीधा कहो
तो जरा भद्दा
मालूम होता है।
और सीधा—सीधा
कहो तो लोग
फौरन गर्दन पर
सवार हो
जाएंगे। कि
तुम बड़े अकड़े,
बड़े
अहंकारी।
यहां तो
अहंकार की भी
घोषणा करनी हो
तो कहना पड़ता
है : मैं
विनम्र हूं
आपके पैर की
धूल हूं। ये
ढंग हैं, यहां
अहंकार की
घोषणा करने के।
यहां घोषणाएं
परोक्ष करनी
होती हैं।
प्रत्यक्ष
नहीं करनी
होती हैं।
यहां आडू लेकर
करनी होती हैं।
अगर
तुम्हीं को
मारना है तो
भी यह कहना
पड़ता है कि
तुम्हारे ही
हित में
तुम्हें मार
रहा हूं। फिर
तो बचना भी
मुश्किल हो
जाता है। अब
अपने ही हित
में मार रहे
हैं तो अब करो
भी क्या? और वे
तो कहते हैं, हम हित करके
रहेंगे। तुम
अज्ञानी हो, तुम क्या
जानो।
एक
स्कूल में एक
ईसाई पादरी ने
बच्चों को
समझाया कि
प्रत्येक
सप्ताह कम से
कम एक अच्छा
काम जरूर करो।
बच्चों ने
पूछा, कौन—से
अच्छे काम? तो उन्होंने
कहा, जैसे
कोई डूब रहा हो
तो उसको बचाओ,
किसी के घर
में आग लगी हो
तो चाहे जीवन
में जोखम हो, कोई फिक्र
नहीं मगर जाकर
कुछ बचा सकते
हो तो बचाओ।
पर बच्चों ने
कहा कि यह तो
बहुत... कभी—कभी
होता है। हर
सप्ताह कहां
आग लगती है, कहां कोई
डूबता है! तो
उसने कहा, छोटे—छोटे
काम भी हैं, जैसे कोई
गिर पड़े तो
उसको उठाओ, या कोई की
स्त्री
रास्ता पार
नहीं हो सकती
है तो उसको
पार करवा दो।
बच्चों ने कहा,
यह ठीक है।
सात
दिन बाद जब
दुबारा वह आया, उसने
पूछा कि 'बच्चो,
कुछ अच्छे
काम किए?' एक
लड़के ने हाथ
हिलाया, बड़े
जोर से कि ही, मैंने एक की
स्त्री को
रास्ता पार
करवाया। तो
बिल्कुल ठीक
किया, यही
करना चाहिए।
यही धर्म है।
दूसरा भी
बच्चा हाथ
हिला रहा था।
पूछा, तुमने
क्या किया? उसने कहा, मैंने भी एक
की स्त्री को
रास्ता पार
करवाया। थोड़ा
तो शक हुआ
पादरी को मगर
कुछ हैरानी की
बात नहीं है।
कोई एकाध
बुढ़िया थोड़े
ही है गांव
में, कई
बुढ़िएं हैं, करवा दिया
होगा। तीसरा
भी हाथ हिला
रहा था। पूछा,
भाई, तूने
क्या किया? उसने कहा, मैंने भी एक
की स्त्री को
रास्ता पार
करवाया।
तब
पादरी ने कहा
कि तुम तीनों
को की
स्त्रियां
मिल गई? उन्होंने
कहा, तीन
नहीं थीं, एक
ही थी। हम
तीनों ने उसी
को पार करवाया।
तो उसने पूछा
कि तीन की
जरूरत पड़ी पार
करवाने को? उसने कहा, हम तीन भी
बामुश्किल
करवा पाए। वह
तो जाना ही नहीं
चाहती थी।
धक्का दे—देकर...
मगर करवा दिया।
जब आपने कहा
कि करना ही है
कोई अच्छा
कार्य, तो
हमने किया।
कुछ
लोग हैं जो
अच्छे काम
करने के पीछे
पड़े हैं। मगर
सारे अच्छे
कामों के पीछे
मजा सिर्फ एक
है—अहंकार का।
अच्छे काम तो
बहाने हैं।
मैं तैं
गर्व गुमान बिबादंहि, सबै
दूर यह करना
सीतल दीन
रहै मरि अंतर, गहै
नाम की सरना
शीतल
बनो। मैं न
रहे तो शीतलता
आ जाती है। और
तब तो सिर्फ
एक ही उस नाम
कीछयाद रह
जाती है और सब
विस्मरण हो
जाता है।
तुमसों मन
लागो है मोरा
जल पषान की
करै आस नहिं, आहै
सकल भरमना
जगजीवनदास
निहारि
निरखिकै, गहि
रहु गुरु की
सरना
और
फिर ऐसा
व्यक्ति न तो
नदियों की
पूजा करता है, न पत्थरों
की—जल पषान की
करै आस नहिं।
फिर इनसे कुछ
आशा नहीं रखता।
फिर इस तरह की
सारी व्यर्थ
बातें उससे
छूट जाती हैं।
वह तो एक
सद्गुरु के
चरण पकड़ लेता
है।
कहते
हैं,
अब जागो। इस
फूल जैसी छोटी—सी
जिंदगी पर
भूले मत रहो, इतराओ मत।
यह सुबह खिला,
सांझ मुरझा
जाएगा।
भूलु फूलु
सुख पर नहीं, अबहुं
होहुं सचेत
साइर्ट
पठवा तोहि कौ, लावो
तेहि ते हेत
जिसने
भेजा है उसकी
याद करो। यह
फूल तो
कुम्हला
जाएगा। यह फूल
जहां से आया
है उसकी याद
करो। यह फूल
जिससे जन्मा
है और जिसमें
लीन हो जाएगा
उसकी याद करो।
मूल स्रोत की
याद करो तो
शाश्वत से
मिलन हो।
अन्यथा
क्षणभंगुर
भटकाता है, तड़पाता
है।
तजु आसा सब
झूठ ही, संग
साथी नहिं कोय
यहां
कौन किसका
संगी है, कौन
किसका साथी है?
ये झूठी
आशाएं छोड़ो।
केउ केहू न
उबारिहि, जेहि
पर होय सो होय
और
यहां कोई किसी
को उबार नहीं
सकता। न पत्नी
तुम्हें
उबारेगी न पति; न
पिता न मां, न बेटा न भाई,
न मित्र।
यहां कोई किसी
को उबार नहीं
सकता।
उबार
तो एक ही सकता
है—जेहि पर
होय सो होय।
वह जो करना
चाहेगा वही
होगा। उस
मालिक का हाथ
पकड़ो, ताकि बच
सको। झूठी
सुरक्षाओं
में मत डूबे
रहो। समय मत
गवाओ। उस माझी
का साथ ले लो, वही पार ले
जाएगा; वही
उस पार ले जा
सकता है।
कहंवां ते
चलि आयहू र
कहां रहा
अस्थान
कहां
से आए हो, पूछो।
कहां जा रहे
हो, पूछो।
सो सुधि
बिसरि गई तोहि, अब
कस भयसि हेवान
सब
कुछ भूल— भाल
गए। बिल्कुल
पशु हो गए हो।
अपने में और
पशु में फर्क
तो खोजो। वही
काम,
वही लोभ, वही मोह, वही
मत्सर, वही
द्वेष, वही
घृणा, वही
हिंसा—जो पशु
में है वही
तुममें है।
भेद कहां है? अगर पशु और
आदमी में कहीं
कोई भेद है तो
वह भेद तभी
शुरू होता है,
जब तुम सजग
होकर, जागकर
अंतर्यात्रा
शुरू करते हो।
कोई पशु
अंतर्यात्रा
करने में
समर्थ नहीं मालूम
होता, सिर्फ
आदमी
अंतर्यात्रा
कर सकता है।
काया—नगर
सोहावना, सुख
तबहीं पै होय
और
यह जो तुम्हें
देह मिली है, इसको
तुम किन
व्यर्थ चीजों
में नष्ट कर
रहे हो! यह बड़ा
सुहावना नगर
है। इसके भीतर
मालिक का वास
है। यह मंदिर
है। लेकिन
बाहर ही बाहर
चक्कर काटते
रहोगे, परिक्रमा
करते रहोगे? मंदिर के
देवता से
मिलोगे या
नहीं? जैसे
कोई मंदिर के
बाहर से ही
चक्कर काटकर
लौट आए और
मंदिर के
देवता के
चरणों में जाए
ही नहीं, ऐसे
ही अधिक लोग
हैं।
काया—नगर
सोहावना, सुख
तबही पै होय
रमत रहै
तेहि भीतरे, दुख
नहीं व्यापै
कोय
तुम्हारे
भीतर जो रम
रहा है उसे
कोई दुःख कभी व्यापा
नहीं। तुम
व्यर्थ दुःखी
हो रहे हो।
उससे दोस्ती
करो,
उससे संबंध
बनाओ, उससे
विवाह रचाओ।
मृत मंडल
कोउ थिर नहीं, आवा
सो चलि जाय
इस
मर्त्य लोक
में कोई चीज
थिर नहीं है।
जो आया वह गया।
जो बना वह
मिटा।
गाफिल
क्रै फंदा
परयौ, जहं—तहं
गयो बिलाय
और
तू भी इस
मुर्दो की
बस्ती में
फंदों में उलझ
गया है और
अपने को
बिल्कुल भूल
गया है।
सूफी
फकीर
इब्राहिम कभी सम्राट
था,
फिर सब छोड—छाड़कर
जंगल में बैठ
गया। रास्ते
से राहगीर
गुजरते थे तो
पूछते थे कि बस्ती
का रास्ता
कहां है? तो
बता देता :
बाएं जाना।
बाएं ही जाना
तो बस्ती
पहुंच जाओगे।
अगर दाएं तरफ
चले गए तो
मरघट पहुंच
जाओगे।
फकीर
आदमी, मस्त
आदमी! उसकी
बात लोग मान
लेते और बाएं
जाते। तीन—चार
मील चलने के
बाद मरघट
पहुंच जाते।
बड़े हैरान
होते। लौटकर
आते, बड़े
नाराज होते कि
फकीर होकर कुछ
तो शर्म खाओ।
इस तरह की
मजाक शोभा
देती है? थके—मांदे
यात्री! हम
इतनी दूर से
यात्रा करके आ
रहे हैं, हमें
गांव पहुंचना
है। सांझ हो
रही है, सूरज
ढल रहा है।
तुमने मरघट
भेज दिया? और
तुमने बड़े जोर
से कहा कि
बाएं जाओगे तो
बस्ती
पहुंचोगे, दाएं
जाओगे तो मरघट।
और हम मरघट
पहुंच गए।
इब्राहिम
ने कहा, तो
भाई, हमारी—तुम्हारी
भाषा में भेद
मालूम पड़ता है।
क्योंकि तुम
जिसको बस्ती
कहते हो उसको
मैंने मरघट
जाना है।
क्योंकि वहां
सब लोग मरने
के लिए तैयार
बैठे हैं। कोई
आज मरा, कोई
कल मरा, क्यू
लगा है। जहां
सभी लोग मरने
को बैठे हैं
उसको मरघट कहोगे
या क्या? कुछ
मर गए हैं, कुछ
मरने की
तैयारी कर रहे
हैं कुछ चल
पड़े हैं, पहुंच
जाएंगे; मगर
सब मौत की तरफ
जा रहे हैं।
उसको तुम
बस्ती कहते हो?
जहां एक भी
आदमी सदा के
लिए बसा नहीं
रहेगा, उसको
बस्ती कहते हो?
मैं मरघट को
बस्ती कहता
हूं क्योंकि
वहां जो बस
गया सो बस गया।
फिर न आना, न
जाना। हमारी—तुम्हारी
भाषा का भेद
है, नाराज
न होओ। अगर
तुम्हें मरघट
जाना है तो
दाएं चले जाओ।
उसको ही तुम
बस्ती कहते हो।
जाननेवाले
तुम्हारी
बस्ती को मरघट
कहते हैं। और
तुम भी जरा
सोचो तो मरघट
पाओगे। सब
मरणधर्मा हैं
यहां। बाहर
मृत्यु है, भीतर
अमृत है। बाहर
ए जुड़े, मृत्यु
से जुड़े। और
मृत्यु दुःख लाएगी।
मृत्यु से
कैसे परमानंद
होगा?
भीतर
चलो। कोई चरण
गहो। कोई शरण
गहो। किसी
बुल्लेशाह का
हाथ पड़ने दो
सिर पर। प्यास
और प्रार्थना
से भरे हुए
पुकारो कि कोई
बुल्लेशाह
खोजता हुआ
तुम्हें आ जाए
तो तुम्हारा
अमृत से मिलन
हो जाए।
अमृतस्य
पुत्र:। तुम
पुत्र तो अमृत
के हो, लेकिन
मृत्यु में
भटक गए हो।
जागो!
आज
इतना ही
thank you guruji
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