श्रद्धा और सत्य का मिथुन—(प्रवचन—बाहरवां)
प्यारे
ओशो!
ऐतरेय
ब्राह्मण में
यह सूत्र आता
है :
श्रद्धा
पत्नी सत्यं
यजमान:।
श्रद्धा
सत्यं
तदित्युत्तमं
मिथुनम्।
श्रद्धया
सत्येन
मिमुने न
स्वर्गाल्लोकार
जयतीति।।
अर्थात्
(जीवन—यज्ञ
में) श्रद्धा
पत्नी है और
सत्य यजमान।
श्रद्धा और
सत्य की उत्तम
जोड़ी है।
श्रद्धा
और सत्य की
जोड़ी से
मनुष्य दिव्य
लोकों को
प्राप्त करता
है। प्यारे
ओशो! इस सूत्र
का आशय समझाने
की अनुकंपा
करें।
आनंद
मैत्रेय! यह
सूत्र अत्यंत
अर्थगर्भित
है। संदेह से
सत्य नहीं
पाया जा सकता।
संदेह से सत्य
अकस्मात् मिल
भी जाए तो भी
तुम चूक जाओगे।
संदेह की
दृष्टि सत्य
को भीतर
प्रविष्ट ही न
होने देगी।
सत्य द्वार भी
खटखटाका तो भी
तुम द्वार न
खोलोगे।
संदेह कहेगा : 'होगा
हवा का झोंका।’
संदेह, परमात्मा
भी सामने खड़ा
हो, तो उस
पर भी
प्रश्नचिह्न
लगा देगा।
जहां समस्या
नहीं हो तो
वहां संदेह
समस्या बना
लेता है, निर्मित
कर लेता है।
संदेह को एक
ही कुशलता है :
समस्या
निर्माण करना।
समाधान उसके
पास नहीं है।
और किसी तरह
खींचतान कर
तुम कोई
समाधान बना भी
लो तो
तुम्हारा
संदेह पुन :
नयी समस्याएं
निर्मित करता
जाएगा।
संदेह
में समस्याएं ऐसे
ही लगती हैं, जैसे
वृक्षों में
पत्ते लगते
हैं। लाख काटो,
फिर—फिर लग
जाएंगे।
वृक्ष पर और
पत्ते बने हो
जाएंगे।
संदेह
का अर्थ होता
है कि मैं
स्वीकार करने
को राजी नहीं
हूं;
मेरे भीतर
स्वीकार— भाव
नहीं है; अस्वीकार,
इनकार, निषेध!
संदेह
अर्थात् नकार;
नहीं! और जो
व्यक्ति नहीं
में जीता है
वह बंद हो
जाता है—द्वार—दरवाजे
बंद, खिडकियां
बंद। इतना ही
नहीं, छोटे—छोटे
रंध्र भी रह
गये हों कहीं,
छोटी—छोटी
संधियां भी रह
गयी हों, उनको
भी संदेहशील
व्यक्ति बंद
कर देता है।
वह जीते जी
कब्र में समा
जाता है। वह
जीते जी मर
जाता है।
संदेह मृत्यु
है। यूं चलोगे,
उठोगे, काम—
धाम करोगे, लेकिन एक
अदृश्य कब
तुम्हें घेरे
रहेगी; सूरज
से न जुड़ने
देगी; हवाओं
से न जूड़ने
देगी; फूलों
से न जुड्ने
देगी; तारों
से न जुड्ने
देगी—जुड्ने
ही न देगी।
संदेह की
प्रक्रिया है
तुम्हें तोड़
लेने की।
संदेह
एक दीवाल है, सेतु
नहीं; जोड़ता
नहीं, तोड़ता
है। जहां
संदेह आया, तत्क्षण
संबंध
विच्छिन्न हो
जाता है, टूट
जाता है।
संदेह के गृह
में तो सत्य
अतिथि नहीं हो
सकता, असंभव
है। प्रवेश ही
नहीं मिलेगा।
संदेह आतिथेय
नहीं बन सकता,
मेजबान
नहीं बन सकता।
वह क्षमता तो
श्रद्धा की है।
श्रद्धा
का अर्थ
विश्वास नहीं
होता, खयाल
रखना। वह पहली
बात खयाल रखना,
नहीं तो चूक
हो जाएगी।
विश्वास तो
संदेह के
विपरीत है और
श्रद्धा विश्वास
और संदेह
दोनों के अतीत
है। श्रद्धा
बात ही और है।
विश्वास तो
सिर्फ संदेह
को छिपाना है,
ढांकना है।
जैसे घाव तो
है, .लेकिन
सुंदर
वस्त्रों से
ढांक लिया है।
औरों को दिखाई
नहीं पड़ेगा, मगर तुम
कैसे भूलोगे?
तुम नग्न हो,
तुमने
वस्त्र ओढ़ लिए;
औरों के लिए
नग्न न रहे, मगर अपने
लिए तो नग्न
ही हो। हर
व्यक्ति अपने
वस्त्रों में
नग्न है। कैसे
तुम यह बात
भुला सकते हो
कि तुम वस्त्रों
के भीतर नग्न
नहीं हो? यह
तो असंभव है।
ही, औरों
के लिए तुम
नग्न नहीं हो,
क्योंकि
तुम्हारे और
औरों के बीच
वस्त्र आ गए।
मगर तुम्हारे
स्वयं के लिए
तो तुम नग्न
ही हो।
तुम्हारे लिए
तो वस्त्र
बाहर हैं।
तुम्हारी
नग्नता
ज्यादा करीब
है; वस्त्र
नग्नता के
बाहर हैं, दूर
हैं।
विश्वास
वस्त्रों
जैसा है।
तुम्हारे
संदेहों को
ढांक लेगा।
औरों को लगेगा—तुम
बड़े
श्रद्धालु!
ये
मंदिरों में
घंटे बजाते
हुए लोग, ये
पूजा—पाठ करते
हुए लोग, ये
मसजिदों में
नमाजें पढ़ते
हुए लोग, ये
गिरजाघरों
में, गुरुद्वारों
में जय—जयकार
करते हुए लोग—ये
सब विश्वासी
हैं। काश, पृथ्वी
पर इतनी
श्रद्धा से
भरे लोग होते
तो ऐसी
विक्षिप्त, ऐसी रुग्ण, ऐसी सड़ी—गली
मनुष्यता
पैदा होती? इतनी
श्रद्धा होती
तो इतने सत्य
के फूल खिलते!
अनंत फूल
खिलते। फूलों
से ही पृथ्वी
भर जाती सुगंध
ही सुगंध से
भर जाती।
पृथ्वी
स्वर्ग हो जाती।
लेकिन
देखते हो, नमाज
पढ़ने आदमी
मसजिद जाता है
और कहावत तो
तुमने सुनी है,
उसको
चरितार्थ
करता है—मुंह
में राम बगल
में छुरी।
मुरादाबाद की
इस ईदगाह में
जहां अभी—अभी
हिन्दू
मुसलिम दंगा
हुआ और कोई
डेढ़ सौ —लोग
मारे गए, नमाज
पढ़ने लोग गए
थे ईदगाह में।
छुरे और बंदूकें
किसलिए ले गए
थे? फिर यह
नमाज कैसी जो
छुरे—बंदूकों
के साथ हो रही
हो? यह
दंगा—फसाद
करने की
तैयारी थी।
नमाज का क्या
मूल्य रह गया?
ऊपर के
वस्त्र बड़े
झीने हैं, भीतर
की असलियत
बहुत गहरी है।
हिन्दूलड़ते
हैं, मसजिदें
जलाते हैं।
मुसलमान लड़ते
हैं, मंदिर
जलाते हैं, मूर्तियां
तोड़ते हैं।
कुरान जलती है,
गीता जलती
है, बाइबिल
जलती है। सारी
पृथ्वी
तथाकथित
धार्मिक
लोगों के कारण
इतनी पीड़ित है
कि आश्चर्य
होता है, हम
कब जागेंगे, कब
पुनर्विचार
करें गे?
मनुष्य
के इतिहास में
जितना पाप
धर्मों के नाम
पर हुआ है, किसी
और चीज के नाम
पर नहीं हुआ।
राजनीति भी
पिछड़ जाती है;
धर्म ने
वहां भी बाजी
मार ली है।
निश्चित
ही ये
विश्वासी लोग
हैं,
लेकिन
श्रद्धालु
नहीं!
श्रद्धालु
हिंदू और श्रद्धालु
मुसलमान और
श्रद्धालु
ईसाई और श्रद्धालु
जैन में कोई
भेद नहीं हो
सकता।
श्रद्धा का
रंग एक, रूप
एक, स्वाद
एक। श्रद्धा
एक ही अमृत है—जिसने
पीया, फिर
वह कोन है —कोई
फर्क नहीं
पड़ता। उस एक
परमात्मा से
जोड़ देती है।
उस एक सत्य से
जोड़ देती है।
विश्वास
जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं।
मैंने कहा
संदेह तोडता
है—और विश्वास
भी तोड़ते हैं।
इसलिए
विश्वास केवल
संदेह को
छिपानेवाले वस्त्र
हैं। विश्वास
धोखा है।
विश्वास को
श्रद्धा मत
समझ लेना।
वही
भूल हो गयी है।
हमने विश्वास
को श्रद्धा
समझ लिया है।
हम हर बच्चे
को विश्वास
सिखा रहे हैं।
बच्चा पैदा
नहीं हुआ कि
बस धार्मिक
संस्कार शुरू
हो जाते हैं।
धार्मिक
संस्कारों को
क्या अर्थ है
तुम्हारे? यही
कि थोपो इस पर
विश्वास—बनाओ
इसे हिन्दू
बनाओ जैन, बनाओ
बौद्ध। इसे
कुछ बनाकर रहो।
तुम जो हो वही
इसको बनाकर
रहो। और कैसा
आश्चर्य है, तुमने कभी
यह भी न सोचा
कि तुम
जिंदगीभर
हिन्दू थे, जैन थे, बौद्ध
थे, तुमने
क्या खाक पा
लिया है!
तुम्हारे
हाथों में
क्या है? तुम्हारे
प्राणों में
क्या है? न
ही, कोई
दीयाजलता
दिखाई पड़ता! न
ही, तुम्हारे
जीवन में कोई
उत्सव है! कम
से कम इस बच्चे
को तो न
बिगाड़ो, इसे
तो सावधान करो।
इसे तो कहो कि
मैं जिंदगीभर
एक विश्वासी
की तरह जीया, कुछ भी पाया
नहीं। तू
विश्वासी की
तरह मत जीना।
तू श्रद्धा की
तलाश कर। हम
तो न पा सके।
हमने तो
जिंदगी
गंवायी, मगर
तू मत गंवा
देना।
मगर
उलटा मजा है, मां—बाप
थोपते हैं
अपने आग्रहों
को बच्चों के
ऊपर। धार्मिक
शिक्षा के लिए
बड़ी आतुरता
रहती है कि
जल्दी से
धार्मिक
शिक्षा हो जाए।
मुसलमान
बच्चा पैदा
होता है, यहूदी
बच्चा पैदा
होता है—खतना
करो इसका, जल्दी
खतना करो!
क्योंकि कहीं
जवान यह हो
जाए और इनकार
करने लगे। और
जवान होगा तो
इनकार करेगा
ही, कि अगर
परमात्मा को
खतना ही करके
भेजना था तो उसने
खतना कर ही
दिया होता।
तुम्हारे हाथ
में खतना छोड़ा
होता? जो
भी जरूरी था
शरीर के लिए, उसने करके
भेजा है। जैसा
उसने शरीर
बनाया है, इसमें
काट—पीट करने
का तुम्हें
क्या हक है? जवान हो
जाएगा तो
इनकार करेगा।
जल्दी से खतना
कर दो, देर
न करो। जल्दी
से जनेऊ पहना
दो, यज्ञोपवीत
संस्कार कर दो।
क्योंकि बडा
हो जाएगा तो
संदेह उठाने
लगेगा, प्रश्न
खड़े करने
लगेगा। फिर
सुलझाना
मुश्किल होगा।
अभी ठूंस दो।
अभी इसको कुछ
होश नहीं है।
अभी इसके
सामने सवाल
नहीं है। अभी
यह असहाय है, तुम पर
निर्भर है।
अभी तुम जिलाओ
तो जीएगा, तुम
मारो तो मर
जाएगा। अभी
तुम्हारी
मुट्ठी में है।
कहीं अपने
पैरों पर खडा
हो गया और
कहने लगे कि 'क्यों बांधू
यह रस्सी, नहीं
बांधता, मुझे
इसमें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। क्यों
तुम्हारे मंदिरों
में जाकर सिर.
झुकाऊं? मुझे
पत्थर दिखाई
पड़ते हैं।’ फिर मुश्किल
हो जाएगी।
इसलिए
सारे लोग बड़े
आतुर होते हैं—जल्दी
से धर्म की
शिक्षा दो! और
धर्म की शिक्षा
पर क्या शिक्षा
देते हैं? शिक्षा
यही कि कुछ
अंधविश्वास
थोप दो —ऐसे
थोप दो कि वे
खून में मिल
जाएं, मांस—मज्जा
में सम्मिलित
हो जाएं।
बच्चा उनके
साथ ही बड़ा हो,
उसको याद भी
न रहे कि कब
किस घड़ी में
ये विश्वास
उसके भीतर डाल
दिए गए। जब वह
बड़ा .हो, तो
पाए कि
विश्वासों के
साथ ही बडा
हुआ है। जैसे
ये विश्वास
लेकर ही आया
हो परमात्मा
के यहां से।
अगर
विश्वास और
संदेह में
चुनना हो तो
मैं कहूंगा :
संदेह चुनना।
क्योंकि
संदेह
स्वाभाविक है, विश्वास
अस्वाभाविक
है। और मेरा
यह भी अनुभव
है कि अगर कोई
व्यक्ति ईमानदारी
से संदेह चुने
तो आज नहीं कल
श्रद्धा को
खोजना ही
पड़ेगा, क्योंकि
संदेह के साथ
जीना असंभव है।
संदेह यू है
जैसे छाती में
तीर चुभा हो।
उसे निकालना
ही होगा।
लेकिन
विश्वास मलहम—पट्टी
कर देता है।
विश्वास
खतरनाक है—संदेह
से भी ज्यादा
खतरनाक है।
विश्वास से
सावधान।
विश्वास, तीर
भी चुभा रहता
है, मलहम—पट्टी
भी कर देता है।
क्लोरोफार्म
की तरह है
विश्वास। तुम
सड़ते रहते हो
और तुम्हें
बेहोश रखता है।
तुम्हें
भरोसा दिलाए
रखता है कि सब
ठीक है, कुछ
गलत नही है, सब ठीक है।
इस सब ठीक
होने की
भ्रांति में।
जो गलत है तुम उसके
भी आदी हो
जाते हो। धीरे—
धीरे तुम घावों
के भी आदी हो।
तुम उन्हें
जीवन का
अनिवार्य अंग
मान लेते हो।
मैं
चाहता हूं :
संदेह को
चुनना, अगर
विश्वास और
संदेह में
चुनना हो।
क्योंकि
संदेह कम से
कम परमात्मा
का दिया हुआ
है। और
परमात्मा जो
भी देता है, तुम जो भी
जन्म के साथ
लेकर आए हो, उसकी जरूर
कोई सार्थकता
है। संदेह से
सत्य तो कभी
नहीं मिलेगा,
लेकिन
संदेह में कोई
जो नहीं सकता।
संदेह में फांसी
लग जाती है।
और फांसी का
फंदा कोन नहीं
तोड़ना चाहेगा?
फांसी का
फंदा तोड़ा
तुमने और
श्रद्धा का
आविर्भाव हुआ।
संदेह के नीचे
दबी है
श्रद्धा और
तुम संदेह के
ऊपर थोप रहे
हो विश्वास।
खयाल रखना, तुम श्रद्धा
से और भी दूर
हो गए। एक
पर्त तो संदेह
की थी, एक
चट्टान तो
संदेह की थी, तुमने एक
चट्टान और रख
ली—विश्वास की।
अब श्रद्धा और
भी दूर हो गयी।
अब खुदाई और
भी करनी पड़ेगी।
एक
बहुत बड़े
संगीतश वेजनर
के पास जब भी
कोई संगीत
सीखने आता था, वह
पहली बात यही
पूछता था कि
तुमने कहीं और
तो संगीत नहीं
सीखा? अगर
सीखा हो तो
मेरी फीस
दुगनी होगी।
अगर बिलकुल
नहीं सीखा है
कहीं, क ख ग
से शुरू करना
है, तो फिर
कोई बात नहीं।
फिर उतनी ही
फीस लूंगा
जितनी मैं सभी
से लेता हूं।
फिर दुगनी
नहीं होगी।
स्वभावत: किसी
ने आठ साल, दस
साल संगीत का
अभ्यास किया
था, तो वह
कहता, 'आप
उलटी बातें कर
रहे हैं। हम
दस साल मेहनत
करके आए हैं, संगीत सीखकर
आए हैं। हमसे
आपको कम फीस
लेनी चाहिए।
जो क् ख ग से
शुरू करेंगे
उनसे ज्यादा
फीस लेनी
चाहिए।
वेजनर
कहता कि मेरा
अनुभव कुछ और
है। मेरा
अनुभव यह है
कि तुम जो
सीखकर आए हो, पहले
मुझे वह
भुलाना पड़ेगा।
तब काम शुरू
होगा। काम तो
क् ख ग से ही
शुरू होगा।
पहले
तुम्हारी
स्लेट की सफाई
करनी पड़ेगी, फिर लिखावट
हो सकेगी।
यह
मेरा भी अनुभव
है। मैं वेजनर
से राजी हूँ।
वह ठीक कहता
था। वह पश्चिम
के बहुत बडे
संगीतज्ञों
में से एक था।
उसने बात पते
की कही है, गहरी
कही है। मेरा
भी यह अनुभव
है। जो
विश्वासी
मेरे पास आ
जाते हैं उनके
साथ ज्यादा
मेहनत करनी
पड़ती है। जो
संदेहशील
व्यक्ति आते
हैं उनके साथ
उतनी मेहनत
नहीं करनी
पड़ती, क्योंकि
उनके पास एक
ही चट्टान है
जिसको तोड़ना
है। विश्वासी
के पास दोहरी
चट्टानें हैं।
पहले उसका
विश्वास तोड़ो
और विश्वास से
वह चिपटता है,
क्योंकि
विश्वास में
सांत्वना है।
संदेह में तो
कोई सांत्वना
है ही नहीं।
प्रत्येक
व्यक्ति
संदेह से
मुक्त होना
चाहता है।
संदेह
स्वाभाविक है,
संदेह से
मुक्त होने की
आकांक्षा
स्वाभाविक है।
विश्वास
अस्वाभाविक
है, आरोपित
है। और इसलिए
विश्वास से
मुक्त होने की
कोई आकांक्षा
भी नहीं है। क्योंकि
कभी परमात्मा
ने सोचा भी
नहीं था कि तुम
विश्वास में
पड़ जाओगे।
विश्वास
पंडितों की, पुरोहितों
की ईजाद है, बेईमानों की
ईजाद है, शोषकों
की ईजाद है, जो तुम्हारा
लहू चूस रहे
हैं उनकी ईजाद
है।
विश्वास
झूठा सिक्का
है;
श्रद्धा के
नाम से चलता
है, लेकिन
झूठा सिक्का
है। विश्वास
का अर्थ होता
है : उधार, बासा।
और सत्य कभी
बासा हो सकता
है, उधार
हो सकता है? विश्वास तो
ऐसे है जैसे
कभी—कभी
किताबों में दबे
हुए गुलाब के
फूल मिल जाते
हैं—सूखे
मुर्दा। न
उनमें गुलाब
की गंध हौती
है, न रंग
होता है।
विश्वास ऐसा
है—किताबों
में दबा हुआ
फूल। और
श्रद्धा ऐसी
है—अभी झाड़ो
पर खिला हुआ
फूल। अभी
रसधार बह रही
है उसमें। अभी
जीवंत है। अभी
प्राण हैं
उसमें। अभी
सूरज की
किरणें प्रवेश
करती हैं। अभी
हवाएं उसे
दुलराती हैं।
अभी वह सांस
लेता है। अभी
उसके हृदय में
धड़कन है। अभी
परमात्मा
उसके भीतर
विराजमान है।
श्रद्धा
और विश्वास
में वैसा ही
फर्क है जैसे कागजी
फूलों में और
असली फूलों
में;
झूठे
सिक्कों में
और असली
सिक्कों में।
विश्वास में
मत पड़ जाना।
इसलिए मैं
चाहता हूं :
सौभाग्य का
दिन होगा वह, जिस दिन हम
अपने बच्चों
को विश्वास
देना बंद कर
देंगे। हमें
वस्तुत : अपने
बच्चों को
संदेह पर धार
रखना सिखाना
चाहिए। संदेह
की तलवार पर
धार रखी।
संदेह का
उपयोग करो, ताकि कोई
विश्वास
तुम्हें पकड़ न
सके। संदेह को
सजग रखो, ताकि
किसी विश्वास
के जाल में
तुम उलझ न जाओ।
और
संदेह की एक
खूबी है। खूबी
यह है कि
संदेह
तुम्हें
बेचैनी में
रखेगा, अशांत
रखेगा, परेशान
रखेगा। उसमें
कोई सांत्वना
नहीं है।
उसमें कोई
सुरक्षा नहीं
है। काटे ही
कांटे पर जैसे
कोई सोया हो, करवट भी
नहीं बदल सकते।
विश्वास
तो बड़ी सुखद
शैया दे देता
है। जी भरकर
सोओ। घोड़े
बेचकर सीओ।
जागने का कोई
सवाल ही नहीं
है। विश्वास
मूर्च्छित
करता है।
संदेह सजग
रखता है।
लेकिन संदेह
से सत्य नहीं
मिलता, पर
संदेह से एक
काम होता है, वह. काम है कि
संदेह
तुम्हें अपने
से मुक्त करने
के लिए सदा
उत्पेरित
करता है।
संदेह कहता है
कि मेरे पार
जाओ। संदेह के
पार जाना ही
होगा।
तुम
जरा सोचो तो, तुम
मानकर बैठ गए
हो कि आत्मा
अमर है; जाना
नहीं। यह
तुम्हारा
मानना है कि
आत्मा अमर है।
बस आत्मा को
अमर मान लिया
तो अब आत्मा
का अनुभव करने
की क्या जरूरत
रही! मान लिया
सो बात खत्म
हो गयी। जब
मान ही लिया
तो अब खोजना
क्या है? हटा
दो इस विश्वास
को और तब
प्राणों में
एक तडूफ उठेगी,
एक बेचैनी,
एक तूफान, एक आधी, एक
झंझावात। सब
कैप जाएगा।
मौत द्वार पर
दस्तक दे रही
है, हर पल आ
सकती है, कभी
भी आ सकती है।
और आत्मा है
भी या नहीं, यह भी पता
नहीं, अमरता
की तो बात दूर।
मौत के बाद
होगी या नहीं,
यह तो सवाल
नहीं; अभी
भी है या नहीं,
यह भी
संदिग्ध है।
कैसे तुम बैठे
रहोगे इस
अंगारे पर। इस
ज्वालामुखी
पर, धधकते
ज्वालामुखी
पर ज्यादा देर
नहीं बैठ सकोगे।
यह संदेह
तुम्हें अन्वेषण
मैं ले जाएगा।
यह संदेह ही
तुम्हें खोज
में गतिमान
करेगा। और उसी
खोज का अंतिम
फल श्रद्धा है।
श्रद्धा
है जानना, मानना
नहीं।
श्रद्धा है
अनुभव।
श्रद्धा है
ध्यान, ज्ञान
नहीं। शान
विश्वास पैदा
कर देता है।
संदेह है
अज्ञान। विश्वास
है ज्ञान—उधार,
बासा, शास्त्रीय,
तोतारटत।
और श्रद्धा है
स्वानुभव, साक्षात्कार,
सत्य के साथ
मिलन।
संदेह
से श्रद्धा को
खोजो।
श्रद्धा
तुम्हें सत्य
से मिला देगी।
यह सम्यक
सूत्र है। संदेह
को सीढ़ी बनाओ—श्रद्धा
के मंदिर तक
पहुंचने के
लिए। तलवार की
धार पर चलना
है। मगर कोई
और उपाय नहीं
है,
कोई और
सस्ता मार्ग
नहीं है। चलना
ही होगा तलवार
की धार पर।
यूं ही निखार
आता है। यूं
ही जीवन में गत्यात्मकता
आती है, प्रवाह
आता है। यूं
ही जीवन में
ऊर्जा का
आविर्भाव
होता है।
चुनौतियों
में ही तो तुम
जागते हो।
संदेह
चुनौतियां
देता है।
संदेह
का उपयोग करना
सीखो। संदेह
को दबाओ मत।
मैं चाहता हूं
कि तुम संदेह
से जरूर मुक्त
होओ,
लेकिन
दबाकर कोई कभी
मुक्त नहीं
हुआ है। जिसको
तुम दबा लोगे,
उसे बार—बार
दबाना पड़ेगा।
उससे कभी
मुक्ति नहीं
होगी। वह भीतर
बैठा रहेगा, वह भीतर पड़ा
रहेगा। लाख
दबाओ, फिर
अवसर पाकर
निकल आएगा।
जैसे कोई बीज
को जमीन में
दबा दे, वर्षा
आएगी, फिर
अंकुरण हो
जाएगा। लाख
दबाए चले जाओ,
फिर—फिर
अंकुर आएंगे।
फिर—फिर अवसर
आएंगे। संदेह
फिर खडा हो
जाएगा।
संदेह
दबाया नहीं जा
सकता। ही, संदेह
मिटाया जा
सकता है। और
मिटाने का
उपाय है :
संदेह को जीओ।
संदेह को उसकी
समग्रता से
जीओ। डरना
क्या है? भय
क्या है? संदेह
की सीढ़ी से
पूरी तरह चलो।
और तुम चकित
होओगे यह
जानकर कि
संदेह
श्रद्धा तक ले
आता है। लोगों
ने तुमसे उलटी
बात कही है।
तुम्हें अब तक
यही समझाया
गया है कि
संदेह से तुम
कभी श्रद्धा
तक नहीं
पहुंचोगे। यह
बात गलत है।
मैं पहुंचा
हूं संदेह से
ही श्रद्धा तक।
इसलिए अपने
अनुभव से कहता
हूं कि यह बात
बुनियादी रूप
से गलत है।
संदेह के
अतिरिक्त कोई
कभी श्रद्धा
तक नहीं पहुंचा
है। ही, यह
जरूर सच है कि
संदेह से कोई
सत्य तक नहीं
पहुंचता है।
संदेह
श्रद्धा तक ले
आता है, बस।
और जो श्रद्धा
पर आ गया उसकी भूमिका
तैयार है।
सत्य तक जाना
ही नहीं होता,
सत्य खुद
आता है।
तुम्हारा काम
है संदेह से
श्रद्धा तक आ
जाओ, फिर
प्रतीक्षा
करो। फिर
धैर्यपूर्वक
प्रतीक्षा
करो। सत्य खुद
आएगा।
कबीर
ने कहा है : मैं
खोज—खोज थक
गया परमात्मा
को,
नहीं मिला,
नहीं मिला।
परमात्मा
तुम्हारी खोज
से नहीं मिलता।
तुम खोजोगे भी
कहा? किस
दिशा में? काबा
में कि काशी
में कि कैलाश
में, कहा
खोजोगे? उसका
कोई पता भी तो
नहीं, उसका
कोई ठिकाना भी
तो नहीं। नाम—
धाम भी तो
नहीं। जाओगे
कहां? कहां
खोजोगे, क्या
करोगे? शास्त्रों
में भटकोगे और
शास्त्रों में
भटकना बीहडू
जंगलों में
भटकना है, जहां
भटक गए तो
निकलना
मुश्किल हो
जाता है। गीता
में खोजोगे, कुरान में
खोजोगे, बाइबिल
में खोजोगे और
भटक जाओगे, अटक जाओगे।
सत्य को खोजा
नहीं जा सकता।
कबीर
ठीक कहते हैं
कि मैंने बहुत
खोजा, नहीं
पाया। मगर
खोजते—खोजते
एक बात घट गयी :
मैं खो गया।
उसे तो नहीं
पाया, लेकिन
मैं खो गया।
और जिस दिन
मैं खो गया, एक अपूर्व
घटना घटी। उसी
दिन से
परमात्मा
मेरे पीछे लगा
फिरता है। हारे
लागे पाछे
फिरत कहत कबीर
कबीर! हरि
लागे पाछे फिरत..
पीछे—पीछे हरि
घूमते हैं
मेरे और कहते
हैं—कबीर, कबीर,
कहां जाते!
अरे सुनो भी, रुको भी! अब
मुझे कुछ पड़ी
नहीं—कबीर
कहते हैं। अब
मैं जानता हूं
कि मैं मिट
गया। भूमिका
तैयार हो गयी।
जिस
दिन संदेह
मिटता है उस
दिन मैं भी
मिट जाता है।
संदेह और मैं
का संग—साथ है।
श्रद्धा और
मैं का कोई
संग—साथ नहीं
है। संदेह है
अहंकार, श्रद्धा
है निरअहंकारिता।
जहां श्रद्धा
आयी, भूमिका
बन गयी। फिर
परमात्मा
स्वयं आता है,
सत्य स्वयं
आता है।
इसलिए
यह ऐतरेय
ब्राह्मण का
सूत्र बड़ा
प्यारा है :
श्रद्धा
पत्नी सत्यं
यजमान :।
श्रद्धा को
स्त्री कहा।
ठीक ही कहा।
ये
काव्यात्मक
प्रतीक हैं।
सत्य तो है
पुरुष, श्रद्धा
है स्त्री।
इसलिए सत्य को
यजमान कहा, अतिथि कहा।
और मेजबान तो
कोई स्त्री ही
हो सकती है; पुरुष की वह
क्षमता नहीं,
क्योंकि
पुरुष की वह
प्रेम की
पात्रता नहीं।
श्रद्धा है
प्रेम की
पराकाष्ठा।
श्रद्धा
स्त्रैण है।
इसलिए जब कभी
पुरुष में भी
घटती है तो उसके
व्यक्तित्व
में भी
स्त्रैण
कोमलता आ जाती
है।
तुम
देखते हो, बुद्ध,
महावीर, जैनों
के चौबीस
तीर्थंकर, राम,
कृष्ण, इनमें
से किसी की
हमने दाढ़ी—मूंछ
नहीं बनायी है।
तुमने कोई
प्रतिमा देखी
जिसमें राम और
कृष्ण की दाढ़ी—मूंछ
हों? या
बुद्ध की, या
महावीर की? और क्या तुम
सोचते हो, सब
मुखन्नस थे, कि किसी को
दाढ़ी—मूंछ थी
ही नहीं? एकाध
हो भी सकता है
कि मुखन्नस हो,
मगर चौबीस
के चौबीस
जैनों के
तीर्थंकर.....
बुद्ध भी, राम
भी, कृष्ण
भी, सारे
अवतार! इनकी
दाढ़ी—मूंछ
क्या हुई? और
यूं भी नहीं
कि सबके बचपन
की तसवीरें
हैं ये। बुद्ध
बयासी वर्ष
जीए, महावीर
अस्सी वर्ष
जीए। अस्सी
वर्ष तक कम से
कम दाढ़ी—मूंछ
तो निकल ही
आयी होगी। मगर
क्या हुआ? हुआ
यह कि हमने
दाढ़ी—मूंछ
अंकित नहीं की।
हम इतिहास का
उतना भरोसा
नहीं करते।
इतिहास दो कोड़ी
की चीज है। हम
समय का भरोसा
नहीं करते, इतिहास का
क्या भरोसा करें?
हम कालातीत
पर दृष्टि
रखते हैं। हम,
इतिहास से
भी बड़ा कुछ
सत्य है, उस
पर हमारी नजर
है। इतिहास
में तथ्य होते
हैं, सत्य
नहीं होते।
सत्य तो बड़ी
और बात है।
सत्य तो काव्य
में होता है।
ये
काव्यात्मक
प्रतिमाएं
हैं। यह दाढ़ी—मूंछ
हमने हटा दी।
दाढी—मूंछ तो
रही,
निश्चित
रही, इसमें
कोई शक—शुबहा
का कारण नहीं
है। लेकिन
हमने मूर्तियों
से हटा दी।
हटा दी इसलिए
कि जब ये
व्यक्ति परम
श्रद्धा को
उपलब्ध हुए तो
इनके
व्यक्तित्व
में एक तरह की
स्त्रैणता आ
गयी। उस
स्त्रैणता को
कैसे हम सांकेतिक
करें, किस
तरह संकेत दें?
पत्थर की
प्रतिमा में
कैसे लिखें इस
बात को कि
इनके व्यक्तित्व
में स्त्रैण
कोमलता आ गयी
थी, श्रद्धा
पराकाष्ठा को
पहुंच गयी थी?
दाढ़ी—मूंछ
हटाकर हमने वह
काम किया है।
फ्रेड्रिक
नीत्शे ने
अपनी बहुत—सी
महत्त्वपूर्ण
बातों में एक
बात यह भी कही
है..... हालांकि
उसने तो
आलोचना के लिए
कही है, खंडन
के लिए कही है।
वह कोई
धार्मिक
व्यक्ति नहीं
था, नास्तिक
था। उसने ही
यह प्रसिद्ध
सूत्र दिया है
इस सदी को कि
ईश्वर मर चुका
है। यद्यपि
उसने आलोचना
में यह बात
कही है, लेकिन
मैं मानता हूं
इसमें थोड़ी
सच्चाई है।
मैं तो
प्रशंसा में
मानता हूं इस
बात को। मेरी
व्याख्या और
है। उसने कहा
है कि बुद्ध
और जीसस
स्त्रैण हैं
और उन्होंने
सारी
मनुष्यता को
स्त्रैण कर
दिया। उसने तो
निंदा के लिए
कहा है। वह तो
उसी तरह कहा
है, जैसे
तुम किसी को
कह देते हो—नामर्द,
स्त्रैण।
तुम तो निंदा
के लिए किसी
को गाली देना
चाहते हो, तब
यह कहते हो।
ऐसा ही उसने
कहा है, क्योंकि
उसके लिए
पुरुष की जो
पौरुषता है, जो कठोरता
है, उसके
प्रति बड़ा
समादर है।
उसने
लिखा है :
मैंने अपने
जीवन में जो
सबसे सुंदरतम
अनुभव किया है, जो
सबसे सुंदर
मैंने दृश्य
देखा है, वह
सूर्योदय का
नहीं है, सूर्यास्त
का नहीं है, चांद—तारों
का नहीं है, किसी सुंदर
स्त्री का
नहीं है, गुलाब
के फूलों का
नहीं है, कमल
के फूलों का
नहीं है—वह
सुंदर दृश्य
क्या है? वह
सुंदर दृश्य
है—उसने कहा—स्व
सुबह सैनिकों
की एक टुकड़ी
अपनी चमकती
हुई संगीनें
लेकर कवायद कर
रही थी। सूरज
की धूप में
संगीनों की
चमक, जूतों
की खटाखट आवाज,
लयबद्ध, सैनिकों
का वह प्रखर
रूप! वह मेरे
मन को भा गया है।
उससे ज्यादा
सुंदर दृश्य
मैंने कभी
दूसरा नहीं
देखा है।
अब
किसी आदमी के
लिए यह
सौंदर्य है—संगीनो
की धूप में
चमक,
सिपाहियों
के बूटों की
खनक, सिपाहियों
के अकड़े हुए
शरीर और उनकी
कवायद में
जिसको संगीत
सुनाई पड़ रहा
है, वीणा
में नहीं, सितार
में नहीं, पिआनो
में नहीं, बांसुरी
में नहीं—जूतों
की आवाज में
जिसे संगीत
सुनाई पड़ रहा
है, लयबद्धता
जिसे पहली बार
अनुभव हुई है—उस
आदमी के लिए
जीसस और बुद्ध
को स्त्रैण
कहने का मतलब
साफ है। वह यह
कह रहा है कि
इन्होंने
मनुष्य को
बरबाद कर दिया।
इन्होंने
पुरुष—जाति को
नपुंसक कर
दिया।
इन्होंने
प्रेम की
शिक्षा दे—देकर—अहिसा,
प्रेम, क्षमा,
अक्रोध, अपरिग्रह—आदमी
को मार ही
डाला। उसकी
सारी जीवन—ऊर्जा
नष्ट कर दी।
उसका सारा
अभियान खंडित
कर दिया।
नीत्शे
तो यह निंदा
के लिए कह रहा
है,
लेकिन मैं
इसमें सत्य का
एक कण पाता
हूं। वह कण यह
है कि जरूर
जीसस और बुद्ध
के व्यक्तित्व
में एक
स्त्रैणता है,
एक नाजुकता
है, फूलों
जैसी नाजुकता।
वह अपरिहार्य
है। जब
श्रद्धा
पूर्ण होती है
तो पुरुष मिट
जाता है, क्योंकि
पौरुषता मिट
जाती है, कठोरता
मिट जाती है, आक्रामक भाव
चला जाता है।
ग्राहक भाव
पैदा होता है,
ग्रहणशीलता
पैदा होती है।
स्त्रैण भी एक
प्रतीक है।
तुमने
खयाल किया, कोई
स्त्री किसी
पुरुष के पीछे
नहीं भागती।
और अगर भागे
तो पुरुष फिर
बिलकुल ही भाग
खड़ा होगा। उस
स्त्री से कोई
भी पुरुष
बचेगा, जो
उसका पीछा करे।
स्त्री कभी
किसी पुरुष से
प्रेम का
निवेदन भी
नहीं करती।
पूरी मनुष्य—जाति
के इतिहास में
किसी स्त्री
ने कभी किसी पुरुष
से प्रेम—निवेदन
नहीं किया।
ऐसा नहीं कि
स्त्री को
प्रेम अनुभव
नहीं होता; पुरुष से
ज्यादा अनुभव
होता है।
पुरुष का
अनुभव प्रेम
का बहुत छोटा
है, आशिक
है। स्त्री का
अनुभव प्रेम
का बहुत बड़ा
है और बहुत
समग्र है। मगर
निवेदन नहीं
करती, क्योंकि
निवदेन में
थोड़ा आक्रमण
है।’मैं
तुमसे प्रेम
करता हूं —यह
बात कहना भी
आक्रमण है। यह
एक तरह का
आरोपण है। यह
एक तरह की
जबरदस्ती है।
यह काम पुरुष
ही कर सकता है।
यह पुरुष को
ही करना पड़ता
है। यह पुरुष
को ही करना
पड़ता है।
इसलिए
हर स्त्री
अपने पति को
कहती सुनी
जाती है कि 'कोई
मैं तुम्हारे
पीछे नहीं पड़ी
थी, तुम ही
मेरे पीछे पड़े
थे। तुम्हीं
लिखते थे
प्रेम—पत्र।’
वह
सम्हालकर
रखती है प्रेम—पत्र,
वक्त आने पर
दिखा देती है
कि ये देख लो, क्या—क्या
तुमने लिखा था।
और तुम ही
मेरे बाप के
चरण छूते थे आ—आकर।
और तुमने ही
चाहा था, कोई
मैं तुम्हारे
पीछे नहीं पड़ी
थी।
ऐसे
मुल्ला
नसरुद्दीन से
उसकी पत्नी एक
सुबह—ही—सू_बह
कह रही थी। बस
चाय की टेबल
पर शुरू हौ
जाती है कथा।
चाय क्या है—श्रीगणेशाय
नम :! बस फिर कथा
शुरू। वही से
झगड़ा शुरू हो
गया। और
मुल्ला के
मुंह से निकल
गया कि तूने
मेरी जिंदगी
बर्बाद कर दी।
बस स्त्री
तुनक गयी।
उसने कहा कि
मैं तुम्हारे
पीछे नहीं पड़ी
थी। मैं
तुम्हारे घर
नहीं आयी थी।
मैंने
तुम्हारे बाप
की खुशामद
नहीं की थी।
तुम्हीं मेरे
बाप के पास आए
थे। तुम्हीं
हाथ जोड़े
फिरते थे।
तुम्ही
चिट्ठियां
लिखते थे।
तुम्हीं
संदेश भेजते
थे। तुम्ही
रास्ते में
खड़े होकर
सीटियां
बजाते थे।
किसने गाZd थे
वे गीत मेरी
खिड़की के पास?
मुल्ला
ने कहा, 'ठीक
है। मैं भी
स्वीकार करता हूं
कि यह बात सच
है। मगर यह
उसी तरह सच है
जैसे कि चूहे
को पकडने कै लिए
चूहेदानी तो
बैठी रहती. है,
कोई चूहों
के पीछे नहीं
दौड़ती। चूहे
खुद ही मूरख
उसमें फंस
जाते हैं। मैं
ही फंसा, यह
सच है।’
मगर
चूहेदानी
बैठी रहती है, रस्ता
देखती रहती है
कि आओ ' इंतजाम
सब कर देती है
चूहादानी।
रोटी के टुकडे
पडे हैं, मक्खन
पड़ा है, चीज
पड़ा है, मिठाई
रखी है। सब
इंतजाम है। आओ।
और तुमने देखा,
चूहेदानी
की एक खूबी
होती है, उसमें
भीतर आने का
उपाय होता है,
बाहर जाने
का उपाय नहीं
होता है। आ गए
कि आ गए। आए तो
आए ही क्यों? अब वह जो
भीतर आ गया, इस खयाल में
था कि बाहर
जाने का
रास्ता भी होगा।
बाहर जाने का
रास्ता ही
नहीं होता।
मजाक
एक तरफ, लेकिन
पुरुष
आक्रामक होता
है, वह
हमला करता है।
प्रेम भी करे
तो भी उस
प्रेम में
उसकी आक्रामकता
होती है। यह
पुरुष का
स्वभाव है।
इसमें कुछ
कसूर नहीं है।
स्त्री अनाक्रामक
होती है र
ग्रहणशील
होती है, स्वागत
करती है, अंगीकार
करती है।
लेकिन उसका
बुलावा भी
आवाज में नहीं
दिया जाता है—चुपचाप,
मौन में, इशारों में।
सच तो यह है कि
वह .नहीं—नहीं
ही कहे चली
जाती है।
सारी
दुनिया के
प्रेमियों का
अनुभव है कि
स्त्री के 'नहीं'
पर भरोसा मत
करना। उसकी 'नहीं' में
'ही' छिपी
होती है। जरा
गौर से खोदना,
कुरेदना।
तुम उसकी 'नहीं'
में 'हां'
पाओगे।
सेठ
चंदूलाल
मारवार्डा एक
स्त्री के
प्रेम में थे।
एक दिन बहुत
उदास बैठे थे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
उनके मित्र ने
पूछा, 'क्या हो
गया, इतने
क्यों विषाद
में पड़े हो? क्या लुट
गया.....!'
चंदूलाल
ने कहा कि मैं
जिस स्त्री के
प्रति आशा
लगाए बैठा था, वह
सब खंडित हो
गयी।
मुल्ला
ने कहा, 'अरे
इतनी जल्दी
निर्णय न लो।
स्त्री लाख
नहीं कहे, उसका
मतलब ही होता
है। तुम घबडाओ
मत। तुम तो
पूछे ही चले
जाओ, कहे
ही चले जाओ।’
चंदूलाल
ने कहा, 'नहीं
कहती तो ठीक
था। उसने 'नहीं'
नहीं कहा।’
तो
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
'उसने ऐसा
क्या कह दिया
फिर? या तो
नहीं कहेगी या
ही कहेगी।’
'अरे'—उसने
कहा—'न
उसने नहीं कहा,
न ही कहा।
कहने लगी अरे
मर्दुए, जाकर
अपनी शक्ल
आईने में देख!
अब इसमें से
मैं क्या समझूं?
तुम तो कहते
हो नहीं कहे
तो ही समझो, नहीं कहती
तो मैं भी ही
समझता। ही
कहती तो भी ही
समझता। लेकिन
न नहीं कहा न
हां कहा। कहने
लगी कि जा और
अपनी शक्ल
आईने में देख।
अब इसमें से
मैं क्या
समझूं? नहीं
कहती तब तो
कुछ बात थी, तो उसमें से
ही निकाल लेते।’
स्त्री
नहीं कहती है तो
वह भी स्वीकार
है।
अनाक्रामकता
इतनी होती है
कि वह ही भी
भरे तो भी
अशोभन मालूम
होता है। उसकी
लाज,
उसकी लज्जा.
उसका संकोच ही
भी नहीं भरने
देता। वह भी
थोड़ा अभद्र
मालूम होता है।
वह नहीं ही
कहती है, लेकिन
इशारों से ही
कहती है।
स्वीकार है
उसे। तुम उसके
चेहरे पर, उसकी
भावभंगिमा
में पढ़ सकते
हो कि ही।
लेकिन ओठों सै
नहीं कहेगी।
हां कहना भी
थोड़ा—सा
आक्रामक है, जल्दी है।
सत्य
के प्रति
व्यक्ति को
स्त्रैण होना
होता है—ग्राहक, ग्रहणशील।
द्वार खुले
हैं। बंदनवार
लगा है।
स्वागतम्
लिखा है।
हार्दिक
स्वागतम् लिखा
है। हार्दिक
स्वागतम् है।
सत्य आए तो
प्राणों में
ले लेने की
तैयारी है। न
आए तो
प्रतीक्षा की
तैयारी है।
धैर्य होता है,
प्रतीक्षा
होती है। और
एक मौन
निमत्रणहोता
है।
इसलिए
ठीक कहा ऐतरेय
ब्राह्मण ने
कि श्रद्धया
पत्नी सत्यं
यजमान: जीवन—यज्ञ
में श्रद्धा
पत्नी है और
सत्य यजमान।
और
यह जीवन यज्ञ
है। यह पूरा
जीवन यज्ञ है।
यह आग जलाकर
और घी फेंकना
और गेहूं
फेंकना और चावल
फेंकना, यह
पागलपन है। यह
जीवन—यज्ञ की
जगह थोथे यज्ञ
पैदा करना है।
यह पूरा जीवन
ही यज्ञ है।
इसमें अगर कुछ
आग में डालना
है तो अहंकार
डालना है। और
अहंकार तुमने
डाला कि
तुम्हारे
जीवन में
तल्ला श्रद्धा
पैदा हुई। तुम
गए कि फिर
संदेह
करनेवाला ही न
बचा, तो
संदेह कैसे
बचेगा? जड़
से ही बात कट
गयी। न रहा
बांस, न
बजेगी बांसुरी।
श्रद्धा को
मैंने कहा :
प्रेम की
पराकाष्ठा।
उस पराकाष्ठा
पर
व्यक्तित्व
चाहे पुरुष का
हो चाहे
स्त्री का, स्त्रैण हो
जाता है। एक
नाजुकता आ
जाती है, एक
कोमलता आ जाती
है—फूलों की
कोमलता, तितलियों
के पंखों की
कोमलता, इंद्रधग्नुषों
की कोमलता।
ओर
सत्य है पुरुष।
इसलिए पुराना
प्रतीक है कि
सिवाय
परमात्मा के
और कोई पुरुष
नहीं।
मीरा
के जीवन में
यह कथा है कि
मीरा मथुरा
गयी,
वृंदावन
गयी। कृष्ण के
प्रेम में
दीवानी थी। सो
जहां कृष्ण के
चरण पड़े थे, जहां कृष्ण
की बांसुरी
बजी थी, जिन
बंसीवटों में,
जिस यमुना—तट
पर, वह सब
उसके लिए
तीर्थ था, महातीर्थ
था। उन—उन
जगहों पर जाना
चाहती थी, वहा
की मिट्टी भी
पवित्र हो गयी
थी। वहा की
मिट्टी सोना
थी उसके लिए।
लेकिन
वृंदावन में
एक मंदिर था
कृष्ण का, बड़ा
मंदिर, जिसका
पुजारी
स्त्रियों को
नहीं देखता था।
यह
पागलपन कुछ
स्वामी
नारायण
संप्रदाय में
ही नहीं है! यह
पागलपन बड़ा
पुराना है।
स्वामी
नारायण
संप्रदाय के
जो महंत हैं, प्रमुखजी
महाराज, वे
स्त्री को
नहीं देखते।
हवाई जहाज में
भी यात्रा
करते हैं तो
उनकी सीट के
चारों तरफ
परदा बांध
दिया जाता है—बुर्के
के भीतर। वे
अकेले ही आदमी
हैं जमीन पर, जो बुर्के
में चलते हैं।
क्या मजा है!
हाथी पर जुलूस
निकलता है, मगर छाता
ऐसा उनके ऊपर
लगाया जाता है
कि उनकी आंखें
छाते की छाया
में रहें, कोई
स्त्री दिखाई
न पड जाए।
स्त्री से ऐसा
भय है, ऐसी
घबड़ाहट।
ऐसा
ही वह पुजारी
रहा होगा। या
यही प्रमुखजी
महाराज पिछले
जन्म में रहे
हों,
क्योंकि
ऐसे लोग तो
भटकते रहते
हैं। ऐसे
लोगों की
मुक्ति का —तो
कोई उपाय है
नहीं। ये तो
यहीं—यहीं
चक्कर मारते
हैं। ये
जाएंगे भी कहां!
जो स्त्री से
बचेगा, स्त्री
की कोख से फिर
पैदा होगा, क्योंकि
उसके चौबीस
घंटे स्त्री
ही खोपड़ी में
समायी रहेगी।
इधर मरा नहीं
कि उसने
स्त्री खोजी
नहीं, कि
गया स्त्री के
गर्भ में, फिर
गिरा गर्त
में!
मीरा
जब उस मंदिर
पर पहुंची तो
मीरा के आने
की खबर तो
पहुंच गयी थी, उसके
गीतों की, उसकी
वीणा की लहर
तो पहुंच गयी
थी। पुजारी
सावहगन था।
तीस साल से उस
मंदिर में कोई
स्त्री
प्रवेश नहीं
कर सकी थी।
उसने द्वार पर
पहरेदार लगा
रखे थे कि
देखो, मीरा
को भीतर मत
घुसने देना।
मगर मीरा जब
आयी और द्वार
पर नाचने लगी
तो पहरेदार
उसके नाच में
खो गये। कोन
नहीं खो जाएगा?
मीरा नाचे! 'पद घुंघरू
बांध मीरा
नाची रे!' कोन
मीरा के नृत्य
में न खो
जाएगा! 'मैं
तो प्रेम
दीवानी!' वह
किसको दीवाना
न कर देगी! वह
स्वयं तो
दीवानी थी ही,
लेकिन उसके
आसपास भी दीवानेपन
का एक माहौल
चलता था। वह
खुद तो मस्त
थी, मस्ती
लुटाती भी थी।
वे भी झूमने
लगे। पहरेदार
भी झूमने लगे।
भूल ही गये कि
इसको रोकना है।
पहले तो वह
वहीं गीत गाती
रही द्वार पर
मस्त होकर, तो अभी सवाल
ही न उठा था
रोकने का। और
जब वे बिलकुल
डूब गये, मस्त
हो गये और डोलने
लगे, तो
मीरा नाचती
हुई मंदिर में
प्रवेश कर गयी।
रोकें—रोकें
कि वह तो भीतर
थी।
मीरा
तो बिजली की
चमक थी। कहां
पकड़ पाओगे? जब
तक उन्हें होश
आया तब तक बात
ही खतम हो
चुकी थी, वह
तो भीतर पहुंच
गयी थी। और
पुजारी
प्रार्थना कर
रहा था, आरती
उतार रहा था।
उसने स्त्री
को देखा। उसके
हाथ से आरती
छूटकर गिर पडी।
यह तीस साल की
पूजा और तीस
साल की आरती!
और कृष्ण के
सामने होते
हुए मीरा
दिखाई पड़ गयी
और कृष्ण
दिखाई क्या
खाक पड़े होंगे
इसको तीस साल
में! यह नाहक
ही मेहनत कर
रहा था, नाहक
कवायद कर रहा
था। थाली गिर
गयी, थाल
गिर गया। और
क्रोधित हो
उठा। और कहा
कि 'ए
स्त्री, क्या
तुझे
द्वारपालों
ने नहीं रोका?
क्या तुझे
मालूम नहीं है?
सारी
दुनिया जानती
है, वृंदावन
का बच्चा—बच्चा
जानता है कि
इस मंदिर में
स्त्री का प्रवेश
निषिद्ध है।
द्वार पर बड़े—बड़े
अक्षरों में लिखा
है कि स्त्री—प्रवेश
निषिद्ध है।
तूने प्रवेश
कैसे किया? मैं स्त्री
को नहीं देखता
हूं। तूने
मेरी तीस साल
की तपश्चर्या
नष्ट कर दी।’
मीरा
ने चुपचाप
सुना और कहा
कि मैं तो
सोचती थी कि
तुम कृष्ण के
भक्त हो, लेकिन
मैं गलती में
थी। क्योंकि
क्या का भक्त
तो मानता है
एक ही पुरुष
है—वह
परमात्मा, वह
कृष्ण। बाकी
तो हम सब
गोपियां हैं।
तो तुम सोचते
हो दुनिया में
दो पुरुष हैं—एक
कृष्ण और एक
तुम? और
क्या खाक तुम
पुरुष हो।
कृष्ण तो
स्त्रियों से
नहीं डरे।
स्त्रियां
नाचती रहीं
उनके चारों
तरफ। राधा की
कमर में हाथ
डालकर वे बांसुरी
बजाते रहे।
उनके तुम भक्त
हो, जरा
मूर्ति तो
देखो! वहां भी
राधा खडी थी
मूर्ति में
कृष्ण के बगल
में ही।
बांसुरी बज
रही है, राधा
नाच रही है।
कृष्ण के तुम
भक्त हो और
स्त्रियों से
ऐसा भय! यह
क्या खाक
भक्ति हुई? चलो, अच्छा
हुआ मैं आ गयी।
यह तो पता चल
गया' कि
दुनिया में दो
पुरुष हैं—एक
परमात्मा और
एक तुम।
बड़ी
चोट पहुंची
पुजारी को।
गिर पड़ा पैरों
पर। माफी
मांगी कि मुझे
क्षमा कर दो।
यह तो मुझे
खयाल ही न रहा
कि पुरुष तो
एक ही है।
भक्ति
के शास्त्र का
यह सारसूत्र
है कि परमात्मा
पुरुष है। वह
आएगा। हम
सिर्फ द्वार
खोलकर
प्रतीक्षा
करें। वह
मेहमान होगा।
हम मेजबान
बनें। हम
आतिथ्य के लिए
तैयार हो जाएं।
अतिथि जरूर
आएगा। कभी ऐसा
नहीं हुआ कि न
आया हो। जब भी
किसी का हृदय
आतिथ्य के लिए
तैयार हुआ है, वह
जरूर आया है।
तो
जैसा मैंने
कहा,
श्रद्धा
प्रेम की
पराकाष्ठा है,
स्त्रैणता
की पराकाष्ठा
है—वैसे ही
सत्य ध्यान की
पराकाष्ठा है।
श्रद्धा
प्रेम की
पराकाष्ठा है
और सत्य ध्यान
की पराकाष्ठा
है। तुम
श्रद्धा पैदा
कर लो और
तुम्हारे
जीवन में तत्क्षण
सत्य उतर आएगा,
ध्यान उतर
आएगा, समाधि
उतर आएगी।
यह
सूत्र भक्ति
का है। इस
सूत्र में
सारी भक्ति का
शास्त्र समा
गया।
'श्रद्धा और
सत्य की उत्तम
जोड़ी है।’ इससे
उत्तम जोड़ी तो
कुछ हो भी
नहीं सकती।
संस्कृत का
सूत्र तो और
भी अद्भुत है।
हिंदी में
अनुवाद में
कुछ खो गया।
जिसने अनुवाद
किया होगा
हिंदी में, भय के कारण
कुछ बात छोड़
गया। संस्कृत
का सूत्र है — 'श्रद्धा
सत्यं
तदित्युत्तमं
मिथुनम् 'यह
सिर्फ जोड़ी की
ही बात नहीं
है; इन
दोनों के बीच
जो संभोग होता
है, जो
मिथुन होता है,
उसको छोड़
दिया है हिंदी
सूत्र में।
अकसर मैंने
देखा है कि
संस्कृत के
बहुमूल्य सूत्र
हिंदी मे
अनुवादित
होते—होते
खराब हो जाते
हैं क्योंकि
हिंदी अब
कमजोरों की
भाषा है।
संस्कृत
बलशाली लोगों
की भाषा थी।
उन्होंने
हिम्मत से
सत्य कहे थे—जैसे
के वैसे कहे
थे। उन्हें
कुछ कहने में
कठिनाई न थी, कि इन दोनों
के संभोग से.....।
मिथुन का अर्थ
: संभोग। इन
दोनों का
संभोग, परम
संभोग है
क्योंकि वही
समाधि है। जहां
श्रद्धा और
सत्य का संभोग
होता है, उस
संभोग से ही
मोक्ष का जन्म
होता है, कैवल्य
का जन्म होता
है, निर्वाण
का जन्म होता
है।
लेकिन
हिंदी में
सूत्र जरा
साधारण हो गया—'श्रद्धा
और सत्यं की
उत्तम जोड़ी है।’
जोड़ी में वह
मजा न रहा।
जोडी में बात
खो गयी। जोड़ी
बड़ी साधारण बात
हो गयी। यह
वैसी हो गयी
जैसे राम
मिलाई जोड़ी, कोई अंधा
कोई कोढ़ी। राम
भी क्या—क्या
जोड़ियां
मिलाता है! जब
मिलाता है, गलत ही
मिलाता है।
असल में राम
को तुम मिलाने
ही नहीं देते,
तुम तो
ज्योतिषियों
से मिलवा आते
हो!
कहते
हो—राम मिलाई
जोड़ी! मिलाते
ज्योतिषी हैं।
राम को मिलाने
दो तो एक जोड़ी
गलत न हो। मगर
ज्योतिषियों
से मिलवाते हो, सब
गलत हो जाता
है। इनकी खुद
की जोड़ी तो
देखो। जरा
इनकी देवीजी
को तो देख लो।
फिर तुम समझ
जाना, फिर
इनसे जोड़ी
मिलवाना।
अपनी मिला न
पाए, तुम्हारी
मिला रहे हैं।
और चार—चार आठ—आठ
आने में, रुपये
दो रुपये में
मिला रहे हैं।
जोड़ी मिला रहे
हैं। जीवनभर
का निर्णय दो
रुपये में
करवा लेते हैं!
मैं
जबलपुर में था
तो मेरे पड़ोस
में एक ज्योतिषी
रहते थे। उनके
पास बड़ी भीड़
लगी रहती थी, बहुत
भीड़। साथ—साथ
हम घूमने जाते
थे सुबह, तो
उनसे धीरे—
धीरे पहचान हो
गयी। मैंने
पूछा, 'आपके
पास बड़ी भीड
लगी रहती है।
और भी
ज्योतिषी हैं,
मगर उनके
पास इतनी भीड़
नहीं रहती।’ उन्होंने
कहा, 'इसका
कारण है। अरे
जिस की लग्न—कुंडली,
जन्म
कुंडली कोई न
मिला सके उसकी
मैं मिला देता
हूं। अरे
मिलाना अपने
हाथ में है।
सो जिनकी नहीं
मिला पाता कोई,
वे सब यहां
आते हैं। और
सस्ते में
मिला देता हूं।
एक रुपये में।
दूसरे
ज्योतिषी कोई
दस मांगते हैं,
कोई पंद्रह
मांगते हैं, मैं तो एक
रुपये में, मेरी तो
निश्चित फीस
है। मोल तोल
करना ही नहीं।
इधर एक रुपया
रखो, इधर
मिलाओ। और
हमेशा मिलाता
हूं आज तक
मैंने कभी ऐसा
कुछ किया ही
नहीं कि न मिलाया
हो। जो भी आ
जाए उसकी मिला
देता हूं। अरे
अपने हाथ में
है। इधर का
खाना उधर
बिठाया, इधर
की बात उधर
समझायी, मिला—मिलूकर
निपटाया। एक
रुपये में और
चाहते भी क्या
हो? और जो
आदमी एक रुपया
दे रहा है, उसको
एक रुपये का
फल भी मिलना
चाहिए, सो
मिलता है फल।’
रुपये
दो रुपये में
जोड़ी मिलवा
रहे हो! फिर अंधे
कोढ़ियों को
मिलवा देते
हैं वे। राम
से जोड़ी तो
प्रेम के
द्वारा मिलती
है,
ज्योतिषी
के द्वारा
नहीं मिलती।
मगर प्रेम को
तो हम होने
नहीं देते। सो
हमें ईजाद
करनी पड़ी हैं
नकलें—ज्योतिषी
से मिलवाओ, मां—बाप
मिलाते हैं।
प्रेम से तो
हम मिलने नहीं
देते। पता
नहीं क्यों
प्रेम से कैसी
दुश्मनी है!
प्रेम भर से
सब दुश्मन हैं।
और सब तरह से
राजी हैं। धन
पैसे का हिसाब
करेंगे, कुलीनता
का हिसाब
करेंगे, धर्म
का, जाति
का, वर्ण
का, सब
विचार कर
लेंगे। जनम के
समय तारे कहां
थे, क्या
थे, इस
सबका भी हिसाब
लगालेगे। मगर
दो हृदयों से
नहीं पूछेंगे
कि तुम्हें मिलना
भी है भाई कि
नहीं! सारी
दुनिया मिला
लेंगे, इन
दो को भर छोड़
देंगे। इनसे
नहीं पूछना है।
राम
से मिलवाना हो
तो इनसे पूछो।
राम इनके भीतर
से बोलेगा। और
तो उसके पास
बोलने का कोई
उपाय नहीं है।
इनके हृदय में
धड़केगा।
इसलिए
जब प्रेम होता
है तो तुम
किसी
ज्योतिषी के
कारण प्रेम
में नहीं पड़ते, कि
फलां
ज्योतिषी ने
कहा कि स्त्री
के प्रेम में
पड़ जाओ, तो
पड़ गये। कि
फलां
ज्योतिषी ने
कहा, क्या
करें, प्रेम
करना ही
पड़ेगा! प्रेम
जब होता है तो
तुम्हें पता
ही नहीं चलता
कि क्यों। तुम
जवाब भी नहीं
दे पाते कि
क्यों। तुम
कहते हो, पता
नहीं! कंधे
बिचकाते हो—हो
गया! यह है राम
मिलाई जोड़ी!
सूत्र
में तो है. इन
दोनों का
मिथुन, इन
दोनों का
संभोग—श्रद्धा
का और सत्य का।
सत्य है पुरुष,
श्रद्धा है
स्त्री।
श्रद्धा है
स्त्रैणता की
पराकाष्ठा।
सत्य है पुरुष
की पराकाष्ठा।
और जहां इन
दोनों का
मिथुन होता है,
जहां इन
दोनों का
संयोग होता है,
जहां इन
दोनों का
प्रेम होता है,
जहां इन
दोनों का ऐसा
मिलन हो जाता
है कि द्वैत
समाप्त हो
जाता है—मिथुन
का वही अर्थ है
जहां द्वैत
समाप्त हो जाए
अद्वैत रह जाए;
जहां दोनों
मिलकर एक हो
जाते हैं, एक
साथ हृदय
धडूकता है जहां—बस
वहीं निर्वाण
है, महापरिनिर्वाण
है।
'
श्रद्धा और
सत्य की जोड़ी
से मनुष्य
दिव्यलोकों
को प्राप्त
करता है।’ दिव्य
लोक अर्थात्
समाधि, समाधान—जहां
कोई समस्या न
रही; जहां
जीवन एक
उल्लास है।
संस्कृत
का सूत्र फिर
समझ लेने जैसा
है :
'श्रद्धया
सत्येन
मिथुने।’
दुबारा
दोहराया है कि
कहीं चूक न
जाओ।’
श्रद्धय
सत्येन
मिधुने न
स्वर्गाल्लोकार
जयतीति'
बिना
इनके मिथुन के
स्वर्ग का जो
आलोक है, जो
उल्लास है, स्वर्ग का
जो आनंद है
उसकी उपलब्धि
नहीं।
श्रद्धा
की तैयारी करो, सत्य
आएगा।
श्रद्धा के
बीज बोओ, सत्य
के फूल लगेंगे।
श्रद्धा के
द्वार खोलो, सत्य का
सूरज
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर जाएगा। और
जहां श्रद्धा
और सत्य का
मिथुन होगा, संभोग होगा?!
मेरी
किताब 'संभोग
से समाधि की
ओर' को
बहुत गालियां
दी गयी हैं।
शब्द से ही
गालियां दी
गयी हैं।
किताब तो कोई
पढ़ता ही नहीं।
बस शीर्षक
लोगों को खटक
गया। शीर्षक
ही पढ़कर लोग
समझ जाते हैं
कि बस रुक जाओ।
इन सब बुद्धओं
को मैं कहता
हूं जरा अपने
शास्त्रों को
देखो। ये
हिम्मतवर लोग
थे। ये ऐतरेय
ब्राह्मण का
ऋषि हिम्मतवर
व्यक्ति रहा
होगा। सीधी—सीधी
बात कह दी कि
सत्य और
श्रद्धा का
संभोग हो तो
समाधि पैदा
होती है। तो
स्वर्ग है। तो
मुक्ति है, कैवल्य है।
वैद
के ऋषि की एक
प्रार्थना है:
यत्रानंदाश्चय
मोदाश्च गुद:
प्रमुदास्ते
कामस्य
यत्राप्ता
कामा: तत्र
मामृतं कुरु।
'हे प्रभु, मुझे वह
अमृतत्व दे, जिसमें मोद—प्रमोद
प्राप्त होता
है, जहां
कामनाएं
स्वयं पूर्ण
तृप्त हो जाती
हैं।’
ये
हिम्मतवर लोग
थे। ये डरपोक
कायर
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत
और महात्माओं
जैसें नहीं थे।
सीधी
प्रार्थना है
कि हे प्रभु, मुझे
वह अमृत दे, दे मुझे वह
राज, वह
कीमिया, कि
जिसे पीकर मैं
मोद—प्रमोद को
प्राप्त हौ
जाऊं। मोद—प्रमोद
का क्या अर्थ
होता है? तुम
तो गाली देते
हो। तुम तो
मोद—प्रमोद
करनेवाले
लोगों को
संसारी कहते
हो। और यह ऋषि
प्रार्थना कर
रहा है—'मोद—प्रमोद
को प्राप्त हो
जाऊं।’
मेरे
संन्यासियों
को सारे जगत
में गालियां पड़ती
हैं। कहा जाता
है कि ये तो
अधर्म फैला
रहे हैं।
संन्यासी को
तपस्वी होना
चाहिए, त्यागी
होना चाहिए, भूखा मरना
चाहिए, उपवास
करना चाहिए, शरीर को
गलाना चाहिए,
कीटों पर
लेटना चाहिए,
धूप—ताप में
खड़ा होना
चाहिए, शीर्षासन,
सिर के बल
खड़ा होना
चाहिए। ऐसे
कुछ उल्टे—सीधे
उपद्रव करने
चाहिए। मोद—प्रमोद!
मोद—प्रमोद
तो वही हुआ, जिसके
कारण हमने
चार्वाकों को
गाली दी है, कि चार्वाक
मानते हैं :
खाओ, पीओ, मौज करो।
मोद—प्रमोद का
अर्थ यही हुआ :
खाओ, पीओ, मौज करो।
तथाकथित
धार्मिक आदमी
इसको गाली
देता है। और
तब मैं चकित
होता हूं कि
जो वेदों की
पूजा भी करते
हैं, वे भी
वेदों को
उठाकर देखते
हैं या नहीं
देखते! नहीं
तो मेरा
सन्यासी
उपनिषद् और
वेदों की अंतर्दृष्टि
के ज्यादा
करीब है, बजाय
तुम्हारे
तथाकथित
त्रिदंडी
साधुओं के, शंकराचार्य
के शिष्यों के,
तुम्हारे
जैन मुनियों
के। क्योंकि
मैं उत्सव
सिखा रहा हूं।
नाचो, गाओ!
यह जीवन
परमात्मा की
इतनी बड़ी भेंट,
इसे यूं न गंवाओ।
इसे अहोभाव से
स्वीकार करो।
इसके ऊपर और
भी आनंद हैं, पर इसे जो
पाएगा वही
इसके ऊपर के
आनंद को पाने का
हकदार होता है।
उमर
खैयाम का एक
वचन है। कुरान
कहती है कि
स्वर्ग में
शराब के चश्मे
हैं। उसी को
आधार मानकर
उमर खैयाम ने
कहा है : अगर स्वर्ग
में शराब के
चश्मे हैं तो
हमें यहां
पीने दो, थोडा
अभ्यास तो
करने दो। नहीं
तो वहां
पीएंगे एकदम
चश्मों में से,
तो खतरा
होगा, बिलकुल
बहक जाएंगे।
थोड़ा अभ्यास
तो करने दो; थोड़ी तैयारी
तो करने दो
जन्नत में आने
की। यहां तो
कुल्हड़ से पी
जाती है। यहां
कोई नदियें तो
नहीं बह रही
हैं। और
जिन्होंने
जिंदगीभर
अपने को दबाया
और दमन किया, कभी पीया
नहीं, वे
एकदम जन्नत
में पहुंचकर
क्या करेंगे?
जैसे
मोरारजी
देसाई क्या
करेंगे? एकदम
पीने में लग
जाएंगे।
जिंदगीभर तो
खुद भी नहीं
पीया, दूसरों
को भी नहीं
पीने दिया। और
पीया भी तो
क्या पीया—जीवन
जल पीया! एक
बात तो पक्की
है स्वर्ग मैं
इनको जीवन—जल
नहीं पीने
दिया जाएगा। कोन
घुसने देगा
इनको जीवन—जल
पीने के लिए
स्वर्ग में? लोग खदेड़कर
बाहर कर देंगे
कि अगर जीवन—जल
पीना है तो
वापिस भारत
में जाओ, यह
काम वहीं चल
सकता है। वहां
तो शराब के
चश्मे हैं।
उमर
खैयाम एक सूफी
फकीर है। उमर
खैयाम कोई
शराबी नहीं, जैसा
कि लोगों ने
समझ लिया है।
उमर खैयाम एक
सूफी फकीर है,
एक सिद्ध
पुरुष है—उसी
कोटि का
जिसमें बुद्ध
और महावीर; उसी कोटि का
जिसमें
उपनिषद के ऋषि।
मगर उसके प्रतीकों
के कारण गलती
हो गयी। उसके
प्रतीक सूफी
प्रतीक हैं।
सूफियों के
लिए शराब का
अर्थ है
उल्लास, आनंद,
मस्ती। वह
सिर्फ प्रतीक
है। वह यही
नहीं कह रहा
है कि शराब
पीयो। वह यह
कह रहा है :
लेकिन आनंदित
होना है, इसका
थोड़ा अभ्यास
तो करो। वे
स्वर्ग में जो
शराब के झरने
बहते हैं, उसका
भी मतलब यही
है कि वहा
आनंद के झरने
बह रहे हैं।
और
तुम्हारे
साधु—संत, उनकी
शकलें तो देखो—उदास,
मुर्दा.....।
ये अगर पहुंच
भी गये वहां
तो करेंगे
क्या? आनंद
उल्लास के उस
जगत में, जहां
अप्सराएं
नाचती होंगी,
श्री
प्रमुखजी
महाराज क्या
करेंगे? एकदम
बुर्का ओढ़कर
बैठ रहेंगे।
स्वर्ग भी गये
और बुर्का ओढ़े
रहे। क्या खाक
दीदार होगा!
और कहीं भूल—चूक
से परमात्मा
स्त्री हुआ तो
बड़ी मुश्किल हो
जाएगी। और इस
बात का पूरा
खतरा है कि हो।
क्या पता! अरे
परमात्मा का
क्या भरोसा!
अगर न भी हो तो
कम से कम
प्रमुखजी
महाराज के
सामने तो स्त्री—रूप
में प्रगट
होगा, यह
मैं कहे देता
हूं। इनके
सामने तो वह
स्त्री—रूप
में ही प्रगट
होगा। इतना
व्यंग तो
परमात्मा भी
समझता होगा।
इतना मजा तो
वह भी लेगा! अब
प्रमुखजी आ ही
गये तो थोड़ा..
इतना खेल, इतनी
लीला तो वह भी
रचाएगा।
लीलाधर है; इतनी लीला
तो करेगा कि
प्रमुख जी को
थोड़ा नचाएगा।
डमरू थोड़ा
बजाएगा कि
जमूरे नाच!
स्वर्ग
में आनंद है।
आनंद का नाम
ही स्वर्ग है।
मेरे
संन्यासियों
को कोई अड़चन न
आएगी। वे यहीं
अभ्यास कर रहे
हैं स्वर्ग का।
उनके लिए
स्वर्ग में
कुछ मौलिक भेद
नहीं हो जाएगा।
ही,
गुणात्मक
भेद होगा, परिमाणात्मक
भेद होगा; मगर
कुछ तो बूंदें
उन पर यहां भी
पड़ गयी हैं।
बूंदाबांदी
तो यहां हो
गयी, चलो
वहां
मूसलाधार
वर्षा होगी।
मगर उनकी थोड़ी
पहचान रहेगी।
कुल्हड़ से
उन्होंने यहां
शराब पी ली
वहां झरनों
में तैर लेंगे
और झरनों से
पी लेंगे।
यहां मस्त रहे,
वहां भी
मस्त रहने को
उनको कला आएगी।
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासी
तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
उदासी उनका
अभ्यास है।
उदासीनता
उनकी
तपश्चर्या है।
अपने को गलाना, सडाना,
भूखा मारना.....।
असल में यह सब
अत्याचार है—इस
निरीह शरीर पर,
इस बे—जुबान
शरीर पर, इस
निहत्थे शरीर
पर। ये
आत्मघाती
प्रवृत्तियां
हैं। पहली तो
बात : इनको
स्वर्ग में
जगह नहीं मिल
सकती। भूल—चूक
से ये घुस
जाएं तो निकाल
जाएंगे। न
निकाले जाएं तो
इनको स्वर्ग
रास न आएगा।
इनको लगेगा, ये तो सब
भ्रष्ट! ये तो
वही रजनीशी
संन्यासी यहां
जमे हुए हैं!
वही नाच—गान
चल रहा है! हम
तो सोचते थे
वे ही लोग
भ्रष्ट हैं; उन्होंने तो
पूरा स्वर्ग
भ्रष्ट कर रखा
है। इससे तो
नर्क भला, कम
से कम वहां
उदासीनता तो
बचा सकेंगे अपनी,
सिर के बल
खड़े हो तो
सकेंगे। यहां
तो सिर के बल
खड़े होंगे, कोई अप्सरा
ही धक्का मार
देगी, कि
यह क्या कर
रहे हो? यह
कोई ढंग है? स्वर्ग में
खड़े होने का
यह कोई ढंग है?
तुम
परमात्मा का
अपमान कर रहे
हो। वहा उदास
बैठेंगे, मुश्किल
हो जाएगा।
गंधर्व इनके
आसपास वीणा
बजाएंगे, बांसुरी
बजाएंगे।
अप्सराएं
इनको
गुदगुदाएंगी
कि भैया, हंसो,
थोड़ा
प्रसन्न होओ,
थोड़ा अब तो
आनंदित होओ!
यह
ऋषि का वचन
सुनो—'हे
प्रभु, मुझे
अमृत दे, जिसमें
मोद—प्रमोद
प्राप्त होता
है।’ यह
जिंदा कोम रही
होगी तब। तब
इसे मोद—प्रमोद
की भाषा में
कोई निंदा
नहीं मालूम
होती थी। तब
इसे मोद—प्रमोद
में कोई
नास्तिकता
नहीं मालूम
होती थी। इसे
जीवन का तब
स्वीकार— भाव
था। तब इसके
लिए जीवन ही
परमात्मा था।’जहां
कामनाएं
स्वयं पूर्ण
तृप्त हो जाती
हैं। दे मुझे
वह अमृत, जहां
सारी कामनाओं
की तृप्ति है।’
मेरे
अनुभव में, इन
दो—ढाई हजार
वर्षो में
भारत की
मनोदशा इतनी
विकृत हो गयी
है कि आज इसे
अपने ही
सूत्रों को
समझना
मुश्किल हो
गया है। मैं
जो कह रहा हूं
वह सनातन धर्म
है—एस धम्मो
सनंतनो! मगर
मेरी बात जहर
की तरह लगती
है उन लोगों
को र जो
सनातनधर्मी
हैं। वे सोचते
हैं—मैं धर्म
को भ्रष्ट कर
रहा हूं मैं
सभ्यता को
भ्रष्ट कर रहा
हूं मैं
संस्कृति को
भ्रष्ट कर रहा
हूं। उनको
अपने वेद, अपने
उपनिषद, अपने
ब्राह्मणग्रंथ
उठा कर देख
लेने चाहिए।
वे बहुत
चौकेंगे।
मेरे समर्थन
में उन्हें
बहुत सूत्र
मिलेंगे, उनके
समर्थन में
उन्हें कोई
सूत्र नहीं
मिलेगा।
लेकिन जाना
होगा उन्हें
कम से कम ढाई
हजार साल के
पहले, तब
उन्हें मेरे
समर्थन में
सूत्र मिलने
शुरू होंगे।
तब उल्लास था
एक। तब इस देश
ने पहली पहली
बार धर्म का
आविष्कार किया
था, अनुभव किया
था। तब बात
ताजी थी। फिर
बासी पड़ती गयी।
फिर उस पर राख
जमती चली गयी,
धूल जमती
चली गयी। फिर
इतनी धूल जम
गयी
व्याख्याओं
की कि अब सूत्रों
का पता ही
चलना मुश्किल
हो गया है। अब
तो
व्याख्याओं
पर
व्याख्याएं
हैं और तुम व्याख्याओं
में ही भटके
रहते हो। और
व्याख्याएं
तो अपनी—अपनी
मर्जी की हैं,
जिसको जैसी
करनी हों।
कृष्ण
की एक गीता है।
निश्चित ही
कृष्ण का एक
ही अर्थ रहा
होगा। कृष्ण
कोई पागल नहीं
थे। लेकिन
हजारों
टीकाएं हैं।
और सब टीकाओं
में विरोध है।
अगर कृष्ण ठीक
हैं तो ज्यादा
से ज्यादा एक
टीका सही हो
सकती है। ये
हजारों
टीकाएं सही
नहीं हो सकतीं।
लेकिन जिसको
जो मतलब
निकालना हो.....
शंकराचार्य
कृष्ण की गीता
में से
ज्ञानयोग निकाल
लेते हैं। और
रामानुजाचार्य
गीता में से
भक्तियोग निकाल
लेते हैं। और
बालगंगाधर
तिलक गीता में
से कर्मयोग
निकाल लेते
हैं। गीता न
हुई,
भानुमति का
पिटारा हो गया।
कहीं का ईट
कहीं का रोड़ा,
भानुमति ने
कुनबा जोड़ा!
और इसमें से
तुम जो चाहो
निकाल लो। यह
तो कोई जादू
की पिटारी हो
गयी, कि
रूमाल डालो, कबूतर
निकालो; कबूतर
डालो, रूमाल
निकालो। जो
मर्जी।
इतना
असत्य इन ढाई
हजार वर्षो
में बोला गया
है। इसलिए
मेरी बात
तुम्हें अड़चन
की मालूम पड़
रही,
क्योंकि
ढाई हजार वर्षो
की दीवालें
बीच में खड़ी
हैं। अन्यथा
मैं जो कह रहा
हूं वह शाश्वत
धर्म है, वह
ऋत् है। मैं
जो सूत्रों का
अर्थ कर रहा
हूं वह सीधा—साफ
है, वह
किसी पंडित का
अर्थ नहीं है।
वह मेरा अनुभव
है। मैं तुमसे
कहता हूं कि
यहां आनंदित
होओ तो तुम
स्वर्ग के
अधिकारी
बनोगे। यहां
प्रफुल्लित
होओ तो आगे भी
प्रफुल्लता है।
तुम यहां जो
हो, वही
तुम आगे भी
होओगे। ही, बहुत बड़े
पैमाने पर
होओगे। लेकिन
यहां कुछ होना
पड़ेगा। आंगन
आकाश हो जाएगा,
मगर आंगन तो
हो। आंगन ही न
होगा तो क्या
खाक आकाश होगा?
इसलिए
मेरे इन
सूत्रों के जो
अर्थ हैं, बहुत
ध्यानपूर्वक
सुनना। काश, इन सूत्रों
का ठीक—ठीक
अर्थ
तुम्हारे
खयाल में आ
जाए तो इस देश
का पुनर्जन्म
हो सकता है।
और इस देश के
पुनर्जन्म के
साथ सारी
मनुष्यता के
लिए एक
सौभाग्य का
उदय हो सकता
है सूर्योदय
हो सकता है।
'ज्यू
मछली बिन नीर'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
27 सितम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
THANK YOU GURUJI
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