सूत्र:
4—जीवन
का संगीत सुनो।
उसे
खोजो और पहले
उसे अपने हृदय
में ही सुनो।
आरंभ
में तुम
कदाचित कहोगे
कि यहां गीत
तो है नहीं,
मैं
तो जब ढूंढता
हूं तो केवल
बेसुरा
कोलाहल ही
सुनाई देता है।
और
अधिक गहरे ढूंढो,
यदि
फिर भी तुम
निष्फल रहो
तो
ठहरो और भी
अधिक गहरे में
फिर ढूंढ़ों।
एक
प्राकृतिक
संगीत,
एक
गुप्त जल—स्रोत
प्रत्येक
मानव हृदय में
है।
वह
भले ही ढंका
हो,
बिलकुल
छिपा हो
और
नीरव जान पड़ता
हो— किंतु वह
है अवश्य।
तुम्हारे
स्वभाव के मूल
में तुम्हें
श्रद्धा,
आशा
और प्रेम की
प्राप्ति
होगी।
जो
पाप—पथ को
ग्रहण करता है,
वह
अपने अंतरंग
में देखना
अस्वीकार कर
देता है,
अपने
कान हृदय के
संगीत के
प्रति मूंद
लेता है
और
अपनी आंखों को
अपनी आत्मा के
प्रकाश के
प्रति अंधी कर
लेता है।
उसे
अपनी वासनाओं
में लिप्त
रहना सरल जान
पड़ता है,
इसी
से वह ऐसा
करता है।
परंतु
समस्त जीवन के
नीचे एक वेगवती
धारा बह रही
है,
जिसे
रोका नहीं जा
सकता।
सचमुच
गहरा पानी
वहां मौजूद है, उसे
ढूंढ निकालो।
इतना
जान लो कि
तुम्हारे
अंदर
निःसंदेह वह
वाणी मौजूद है।
उसे
वहां ढूंढ़ों
और जब एक बार
उसे सुन लोगे,
तो
अधिक सरलता से
तुम उसे अपने
आसपास के
लोगों में
पहचान सकोगे।
मनुष्य
अपने हृदय की
प्रतिध्वनि
ही अपने जीवन के
सारे अनुभवों
में सुनता है।
जो तुम्हें
बाहर मिलता है, वह
तुम्हारे
भीतर का ही
प्रक्षेपण
होता है। बाहर
तो केवल पर्दे
हैं। तुम अपने
को ही उन
पर्दों पर, अपनी ही छायाओं
को उन पर देखा
करते हो। अगर
जीवन में दुख
मालूम पड़ता है
और चारों ओर दुख
की छाया दिखाई
पड़ती है, तो
तुम्हारे
हृदय का ही
दुख है। अगर
जीवन में
विषाद दिखाई
पड़ता है, तो
वह विषाद
तुमने ही जीवन
में डाला है।
वही दिखाई
पड़ता है बाहर,
जो हम बाहर
अपने भीतर से
फैलाते हैं।
ऐसा
समझें कि जगत
एक दर्पण है, और
हमें अपनी ही
तस्वीर उसमें
दिखाई पड़ जाती
है। लेकिन हम
सोचते हैं कि
जो हमें दिखाई
पड़ रहा है, वह
जगत में है।
और तब हम उसे
जगत से मिटाने
की कोशिश में
संलग्न हो
जाते हैं। यही
कोशिश अज्ञान
है। और यही
कोशिश और गहरे
दुख में ले
जाती है।
क्योंकि जिसे
हम वहां मिटा
रहे हैं, उसका
मूल वहां नहीं
है। जैसे कि
दर्पण में
आपको अपनी
तस्वीर दिखाई
पड़े और लगे कि
तस्वीर कुरूप
है, और आप
दर्पण को तोड्ने
में लग जाएं।
तो आप दर्पण
को तोड़ सकते
हैं, लेकिन
इससे आपका
कुरूप चेहरा
बदलेगा नहीं।
दर्पण टूटने
पर यह भी हो
सकता है कि
आपको अपनी
कुरूप अवस्था
दिखाई न पड़े।
लेकिन न दिखाई
पड़ना, मिट
जाना नहीं है।
इसलिए
बहुत से लोग
समाज को छोड़
कर भाग जाते
हैं,
क्योंकि
समाज में उनकी
कुरूपता
दिखाई पड़ती है।
संबंधों में,
संबंधों के
दर्पण में, उनके भीतर
का सब रोग
प्रकट होता है।
जंगल में, एकांत
में, हिमालय
में, कोई
दर्पण नहीं रह
जाता। उन्हें
वहां दिखाई
नहीं पड़ता कि
वे कैसे हैं।
और तब इस न
दिखाई पड़ने को
वे समझ लेते
हैं कि आत्मिक
रूपांतरण हो
रहा है। वह
भ्रांति है।
उन्हें वापस
हिमालय से लौट
कर आना होगा।
और जब वे समाज
के बीच खड़े होंगे,
तब ही
उन्हें पता
चलेगा कि कुछ
मिटा था
हिमालय में, या केवल
दर्पण के न
होने से दिखाई
नहीं पड़ता था।
इसलिए
जो एक बार
जंगल के एकांत
में भाग जाता
है,
वह समाज में
आने से भयभीत
हो जाता है।
क्योंकि फिर
वही दिखाई पड़ना
शुरू होगा, जो उसने
सोचा है कि
मिट गया है। कोई
दूसरा चाहिए।
बिना दूसरे के
आप अपने को
नहीं देख पाते
हैं। दूसरे की
मौजूदगी, दूसरे
से संबंध, आपको
खुद को प्रकट
करने में
सुविधा हो
जाती है।
कैसे
क्रोध करिएगा, अगर
कोई मौजूद न
हो न: तो क्रोध
को मिटाने के
दो रास्ते हैं,
या तो क्रोध
को मिटाइए
या दूसरे की
मौजूदगी से
भाग जाइए।
कैसे वासना
करोगे, कैसे
परिग्रह
करोगे, कैसे
अहंकार को
निर्मित
करोगे— अगर
दूसरा मौजूद न
हो? अगर
जमीन पर आप
बिलकुल अकेले
हों, तो
क्या करिएगा?
किस बात का
लोभ करिएगा? लोभ का अर्थ
ही क्या होगा?
पूरी जमीन
ही आपके लिए, अकेले के
लिए है। कहां बागुडु बनाइए? कहां
मकान की दीवाल—रेखा
खींचिए? कहां दावा
करिए कि यह
मेरा है? अकेले
होंगे तो दावे
का कोई अर्थ
नहीं। दावा तो
दूसरे के
खिलाफ है।
दूसरे की
मौजूदगी
चाहिए।
अहंकार
की घोषणा भी
क्या करिएगा? क्या
कहिएगा कि मैं
सिकंदर हूं कि
मैं नेपोलियन
हूं? क्या
प्रयोजन होगा?
किससे
कहिएगा? कौन
सुनेगा? कौन
आपकी तरफ आख
उठा कर देखेगा
कि आप सिकंदर
हैं? नहीं,
अहंकार का
भी कोई अर्थ न
होगा। और
विनम्रता भी
साधिका तो
क्या सार है? किसको खबर
करिएगा कि मुझ
जैसा विनम्र
कोई भी नहीं
है?
आप
अकेले होंगे, तो
आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे। क्योंकि
आपके भीतर जो
भी छिपा है, उसे प्रकट
करने के लिए
कोई भी सुविधा
न होगी। यह भी
हो सकता है कि
आपको पता ही न
चले कि आपके भीतर
क्या—क्या
छिपा है।
इसलिए
जो संन्यास
समाज को छोड़
कर फलता—फूलता
है,
वह संन्यास
कच्चा है। वह
टूट जाएगा। वह
भयभीत है, वह
सुरक्षा में
ही जी सकता है।
एक विशेष
स्थिति
उपलब्ध हो, तो ही बच
सकता है।
सामान्य जीवन
में, खुले
आकाश के नीचे,
उसका रंग—रोगन
उतर जाएगा।
जो
समाज के भीतर
फलित होता है
संन्यास, उसको
ही मैं
वास्तविक
कहता हूं।
क्योंकि वहां
दर्पण मौजूद
थे। और तुमने
दर्पण नहीं
तोड़े, बल्कि
दर्पण में
अपनी कुरूप
तस्वीर देख कर
अपने को बदलने
की कोशिश की
और सुंदर
बनाया। वहां
लोग मौजूद थे,
जिन्हें
देख कर क्रोध
आता, जिन
पर तुम क्रोध
को फेंकते, जो क्रोध का
कारण बन जाते
और तुम्हारे
भीतर के क्रोध
की अग्नि बाहर
लपटें फेंकती।
लेकिन तुम
उन्हें छोड़ कर
नहीं भागे, न तुमने
उन्हें दोषी
ठहराया, न
तुमने यह कहा
कि तुम क्रोध
के कारण हो।
तुमने समझा कि
तुम तो केवल
खूंटी हो, क्रोध
तो मेरे भीतर
है। उस क्रोध
को मैं
तुम्हारी
खूंटी पर टांगता
हूं तुम्हारी
कृपा है कि
तुमने मौका
दिया। और मुझे,
मेरे भीतर
जो छिपा था, वह देखने की
सुविधा जुटाई।
तुम
परिस्थिति
बने और मेरा
आत्म—अध्ययन
बढ़ा।
और
तुम अपने को
बदलोगे, खूंटी
को नहीं तोड़ोगे,
दर्पण को
नहीं तोड़ोगे
और समाज को
छोड़ कर नहीं
भागोगे, तो
तुम हैरान हो
जाओगे। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर से क्रोध
विसर्जित हो जाएगा,
उस दिन
अचानक तुम
पाओगे कि सारे
जगत से क्रोध
विसर्जित हो
गया है। ऐसा
नहीं कि सारे
जगत से क्रोध
विसर्जित हो जाएगा।
क्योंकि
क्रोधी अब भी
क्रोधी
रहेंगे।
लेकिन
तुम्हारे लिए
यह जगत क्रोध—शून्य
हो जाएगा।
क्योंकि
तुम्हें अब इस
जगत की कोई भी
परिस्थिति
क्रोधित न कर
पाएगी। अब कोई
भी खूंटी
समर्थ नहीं
होगी कि
तुम्हारे
भीतर के क्रोध
को अपने पर टांग
ले, क्योंकि
भीतर क्रोध
नहीं बचा। अब
कोई भी दर्पण
तुम्हारी
कुरूपता को
प्रकट नहीं कर
जाएगा, क्योंकि
अब वह वहां
नहीं है।
अध्यात्म
की खोज इस
मौलिक सूत्र
से शुरू होती है
कि जो भी हम
अपने बाहर
पाते हैं, वह
हमारे भीतर
छिपा है। अगर
हम मानते हैं
कि वह बाहर ही
है, तो आप
कभी भी
धार्मिक नहीं
हो सकते।
इसलिए कार्ल
मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजिल्स
और लेनिन, उन्होंने
इनकार किया
धर्म को। उनके
इनकार करने
में बड़ा अर्थ
है। और
उन्होंने
इनकार किया तो
तर्कयुक्त है।
क्योंकि
कार्ल
मार्क्स ने
कहा कि बीमारी
समाज में है, व्यक्ति में
नहीं है।
इसलिए समाज को
बदलना होगा, तभी दुनिया
बेहतर होगी।
व्यक्ति को
बदलने का कोई
अर्थ ही नहीं
है। क्योंकि
व्यक्ति के
भीतर कोई
बीमारी नहीं
है। यह मूल
प्रस्तावना
है कम्यूनिज्य
की। इसलिए
मार्क्स ने
कहा, धर्म
निष्प्रयोजन
है, व्यर्थ
है। अगर उसकी
बात ठीक है, तो धर्म
निष्प्रयोजन
है। उसने बात
तो ठीक पकड़ी।
क्योंकि अगर कम्यूनिज्य
ठीक है, तो
धर्म व्यर्थ
है। मौलिक
प्रस्तावना कम्यूनिज्य
की यह है कि
बीमारी बाहर
है, भीतर
नहीं है। और
धर्म की मौलिक
प्रस्तावना
यह है कि
बीमारी भीतर है,
बाहर नहीं
है।
इसलिए
इस जमीन पर
धर्म और कम्यूनिज्म
बड़े से बड़े
प्रतिद्वंद्वी
हैं। गहरे से
गहरा संघर्ष, इन
दो मान्यताओं
के बीच हो रहा
है। और होगा।
अगर बीमारी
बाहर है तो
फिर व्यक्ति
को कुछ करने
की जरूरत नहीं।
न कोई ध्यान, न कोई साधना,
न कोई आत्म—क्रांति।
सब निष्फल
बातें हैं। तब
तो हमें बाहर
की स्थिति बदल
देनी चाहिए।
और जब स्थिति
बदल जाएगी, जब दर्पण
बदल जाएगा, तो आप सुंदर
दिखाई पड़ने
लगेंगे। आपको
बदलने की कोई
जरूरत नहीं।
लेकिन
कम्यूनिज्य
की मान्यता
में एक
बुनियादी
कठिनाई है। यह
बदलेगा कौन? बदलेंगे
व्यक्ति! वे व्यक्ति,
जो उस समाज
में पैदा हुए
हैं, जो
कुरूप था, गंदा
था, शोषक
था! और वे
व्यक्ति समाज
के निर्माता
हैं! क्योंकि कम्यूनिज्य
मानता नहीं है
कि व्यक्ति की
कोई सामर्थ्य
है। सब
सामर्थ्य
समाज की है।
तो जिस समाज
में पैदा हुए
व्यक्ति हैं,
वे उसको
बदलेंगे कैसे!
और यहां कम्यूनिज्य
मुश्किल में
पड़ जाता है।
वे ही व्यक्ति
बदलेंगे जो इस
समाज ने पैदा
किए हैं? और
व्यक्ति की
कोई सामर्थ्य
नहीं है सब
सामर्थ्य
समाज की है।
तो इन
व्यक्तियों
के द्वारा जो
समाज निर्मित होगा,
वह नया समाज
नहीं हो सकता।
क्योंकि
नयापन आएगा
कहां से? पुराने
में पले हुए, पुराने को
ही फिर से
स्थापित कर
देंगे। और यही
हुआ।
रूस
में क्रांति
हुई,
बदलाहट ऊपर—ऊपर
हुई, भीतर
फिर वही का
वही पुराना
ढांचा आ गया।
नाम बदल गए, व्यवस्था
बदल गई, बड़ा
उपद्रव हुआ, बड़ी हत्याएं
हुईं, लेकिन
मौलिक रूप
समाज का वही
रहा, जो था।
पूंजीपति
नहीं रहा, गरीब
नहीं रहा, लेकिन
अब मैनेजर और
मजदूर हो गए!
फर्क वही का वही
है, फासला
उतना का उतना
है, शोषण
वैसा का वैसा
है। दीन अब भी
दीन है, समृद्ध
अब भी समृद्ध
है। समृद्धि
का ढंग बदल
गया। अब उसके
पास बैंक—बैलेंस
नहीं है! अब
समृद्धि के
लिए रुपऐ
की ताकत नहीं
रही रूस में।
अब समृद्धि के
लिए कम्यूनिस्ट
पार्टी के
कितने बड़े पद
पर है, वह
यह ताकत हो गई।
इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
नोट हाथ में
हैं कि कम्यूनिस्ट
पार्टी का
सर्टिफिकेट
हाथ में है? इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। ताकतवर,
ताकतवर है;
कमजोर, कमजोर
है। और उनके
बीच का फासला
उतना ही है, जितना था।
शायद फासला
ज्यादा हो गया
है। क्योंकि
गरीब मुल्क
में कोई गरीब
भी अमीर हो सकता
है, लेकिन
रूस में जो कम्यूनिस्ट
नहीं है, उसको
कम्यूनिस्ट
सीढ़ियां चढ़ना करीब—करीब
असंभव है।
पिछले चालीस—पचास
साल से दस—पंद्रह
लोगों का एक
छोटा सा जत्था
पूरे रूस पर
हावी है। एक
छोटा सा ग्रुप
पूरे रूस पर
कब्जा किए हुए
है। सारा
मुल्क गुलामी
की हालत में
है। कोई गरीब
इतना गुलाम
कभी नहीं था।
धर्म
की मान्यता यह
है कि रोग
व्यक्ति के
साथ है, समाज
के साथ नहीं
है। मौलिक गुण
अगर व्यक्ति
का बदल जाए, तो ही समाज
भी बदल सकता
है। अगर
क्रांति
व्यक्ति में
हो सकती है, तो ही हो
सकती है, नहीं
तो कोई
क्रांति नहीं
हो सकती है।
व्यक्ति
की क्रांति का
क्या अर्थ
होता है? व्यक्ति
की क्रांति का
अर्थ होता है
कि मैं जो भी
अपने जीवन में
पाता हूं वह
मेरे भीतर से
ही डाला गया
है।
इसे
हम ऐसा समझें।
आप भूखे हैं, आप
दुखी हैं, आप
उदास हैं, मन
विषाद से घिरा
है। वसंत आ
गया, फूल
खिल गए, पक्षी
गीत गाने लगे।
लेकिन आपको न
तो पक्षियों
के गीत सुनाई
पड़ेंगे, न
फूलों का
खिलना सुनाई
पड़ेगा, न
फूलों से झरती
सुगंध आपके
नासापुटों को
स्पर्श करेगी।
वसंत आ गया है,
यह आपको पता
भी नहीं चलेगा।
आप अपनी उदासी
में घिरे हैं,
आप अपने
विषाद में
घिरे हैं। यह
भी हो सकता है
कि फूलों का
खिलना
कष्टप्रद मालूम
पड़े। और
पक्षियों का
गीत शोरगुल मालूम
पड़े। और आप
चाहें कि सब
शांत हो जाए।
यह क्या
उपद्रव मचा है?
वसंत की हवाएं
आपके लिए दंश
दें। क्योंकि
आपके भीतर जो
विषाद है, आप
उसी के माध्यम
से देख पाएंगे।
ऐसा
भी हो जाता है
कि आप बड़े
प्रेम में हैं, आप
बड़े आनंद में
हैं, आप
बड़े
प्रफुल्लित
हैं। तो यह भी
हो सकता है कि
जहां फूल के
पौधे में फूल
न हों सिर्फ
कांटे ही
कांटे हों, तो उन
कांटों में भी
आपको सौंदर्य
की अनुभूति हो
सकती है। एक कैक्टस का
पौधा भी परम
सौंदर्य का
प्रतीक हो
सकता है। अगर
भीतर प्रेम और
आनंद का
उल्लास हो तो
कांटे फूल बन
जाते हैं।
क्योंकि
देखने वाला ही
तो देखता है, सुनने वाला
ही तो सुनता
है। आंखें जो
बाहर देखती
हैं, वह कम
मूल्य का है।
जो भीतर छिपा
है, जो आंखों
से झांकता
है, वह
ज्यादा मूल्य
का है।
आपकी
आत्मा ही आपके
चारों तरफ
फैलती है और
चीजों पर छा
जाती है। तो
जो भी आप
देखते हैं, जो
भी आप पाते
हैं, वह
आपका ही फैला
हुआ रूप है।
अगर ऐसा है, तो ही जीवन
में परिवर्तन
का कोई उपाय
है। क्योंकि
तब मैं अपने
को बदल लूं तो
मैं पूरे जगत
को बदल लेता
हूं।
इसको
हम ऐसा भी
समझें कि हम
एक ही जगत में
नहीं रहते हैं।
ऐसा लगता है
कि एक ही जगत
में रहते हैं, लेकिन
हम सबका
मानसिक जगत
अलग—अलग है।
जितने लोग हैं
यहां बैठे, उतने जगत
यहां मौजूद
हैं। क्योंकि
कोई आपमें से
दुखी होगा, कोई आपमें
से सुखी होगा,
और कोई शांत
होगा, और
कोई अशांत
होगा। तो एक
ही जगत के आप
सदस्य नहीं हो
सकते। जो यहां
शांत बैठा है,
उसे यह
चारों तरफ का
जो जगत है, परिपूर्ण
शांति से भरा
हुआ मालूम
होगा। इस हवा
का कण—कण, आकाश
का एक—एक तारा,
पत्तों का,
फूलों का, वृक्षों का
सब कुछ, उसे
शांति देता
हुआ मालूम
पड़ेगा। हवा की
एक हल्की सी
लहर भी उसे
शांति का एक
झोंका होगी।
वह ताजगी से
भर जाएगा। और
जो उसके पास
में ही उदास
और दुखी बैठा
है, घटनाएं
यही उसके पास
भी घटेंगी,
लेकिन
व्याख्या अलग
होगी।
व्याख्या
से जगत निर्मित
होता है, वस्तुओं
से नहीं। हम
क्या
व्याख्या
करते हैं, हम
कैसे देखते
हैं, इससे
जगत निर्मित
होता है।
और
हम सबकी
दृष्टि अलग—अलग
है। हम सबका
दर्शन अलग—अलग
है। हम सबके
जगत अलग—अलग
होते हैं। हर
आदमी अपने
मानसिक जगत
में रहता है।
और इसलिए हम
एक—दूसरे से
टकराते हैं, क्योंकि
हमारे जगत
इतने अलग होते
हैं।
दो
व्यक्ति
विवाह कर लेते
हैं। और कभी
भी एक तालमेल
नहीं हो पाते
हैं। क्योंकि
दोनों का जगत, मानसिक
रचना का जो
लोक है, वह
इतना अलग है
कि वे टकराते
हैं, संघर्षण
होता है। पति
कुछ कहता है, पत्नी
बिलकुल कुछ और
ही समझती है, जो उसने कहा
ही नहीं। वह
लाख दफे कहता
है कि यह मेरा
मतलब नहीं है,
लेकिन
पत्नी यह मान
नहीं सकती कि
यह तुम्हारा मतलब
नहीं है। यही
तुम्हारा
मतलब है।
पत्नी जो कहती
है, पति
नहीं समझ पाता।
संवाद बिलकुल
असंभव मालूम
पड़ता है। तुम
कुछ कहते हो, कुछ समझा
जाता है। कोई
दूसरा कुछ
कहता है, तुम
कुछ अर्थ
निकालते हो।
दूसरा लाख सिर
पटके कि यह
मेरा प्रयोजन
नहीं, तो
भी तुम्हें
भरोसा नहीं
आता। तुम कहते
हो, प्रयोजन
तो यही है, अब
तुम बदल रहे
हो। देखने का
ढंग.......।
हम
कितने ही पास
आ जाएं, हमारे
जगत अलग—अलग
होते हैं। और
उनके बीच
संघर्षण बना
रहता है। जब
तक कि तुम यह न
समझ लो कि हर
व्यक्ति अपने
मनस—लोक में
रह रहा है, जब
तक कि तुम
इतने सजग न हो
जाओ कि तुम, दूसरा कैसा
देख रहा होगा,
जब तक तुम
अपने को उसकी
जगह रख कर न
देखना शुरू कर
दो, तब तक
संघर्ष जारी
रहेगा। तब तक
मित्रता भी एक
तरह की
शत्रुता है।
संबंध भी एक
तरह की कलह है।
परिवार भी एक
तरह का उपद्रव
है। क्योंकि
वहां इतने जगत
पैदा हो जाते
हैं और उनके
बीच संघर्ष है।
लेकिन
हमें यह खयाल
नहीं कि हम एक
खोल के भीतर से
देखते हैं, कि
हम एक चश्मे
के भीतर से
देखते हैं। और
हमारे चश्मे
का रंग सब तरफ
की चीजों पर
फैल जाता है।
और फिर हम
चीजों को
बदलने में लग
जाते हैं, बजाय
इसके कि हम
चश्मे को बदल
दें, बजाय
इसके कि हम
चश्मे को अलग
कर दें। बजाय
इसके कि मैं
अपने को बदलू
मैं बाहर की व्यवस्था
जुटाने में लग
जाता क्योंकि
दुनिया कैसे
अच्छी हो, मकान
कैसे अच्छा हो,
सौंदर्य
कैसे मेरे
चारों तरफ हो।
और भीतर का
आदमी कुरूप
होता है, वह
सब चीजों को
कुरूप कर लेता
है।
मैं
धनपतियों
के घर में
ठहरता हूं तो
मैं देख कर
चकित होता हूं।
उनके पास धन
है,
लेकिन
सौंदर्य का
बोध नहीं है।
तो घर में कबाड़,
कचरा
इकट्ठा कर
लेते हैं—बड़ा
कीमती। कीमती
लाते हैं, सारी
दुनिया से
बटोर लाते हैं,
लेकिन उनके
पास सौंदर्य
का कोई बोध
नहीं है। पैसा
उनके पास है, तो घर उनका कबाड—खाना
मालूम होता है।
वे चीजें रख
लेते हैं
लल्ला कर, जो
भी बाजार में
नया आता है, वह खरीद
लाते हैं।
लेकिन न तो
उसे रखने का
सलीका है, न
देखने की
दृष्टि है, न काव्य का
कोई बोध है, न सौंदर्य
का कोई अनुभव
है। अनुभव तो
सिर्फ रुपया
इकट्ठा करने
का है, जो
कि इस जगत में कुरूपतम
कृत्य है। तो
सारी आत्मा तो
कुरूप है, लेकिन
फिर पैसा पास
में है तो वे
सौंदर्य को खरीद
ले सकते हैं।
तो जो भी
उन्हें लगता
है कि सुंदर
है... अगर खबर आ
जाती है कि पिकासो
का चित्र घर
में होना
जरूरी है, तो
वे लाखों
रुपया खर्च
करके पिकासो
का चित्र खरीद
लाते हैं! न वे
समझते हैं कि
यह चित्र क्या
है! वे यह भी
नहीं बता सकते
कि चित्र उलटा
टंगा है
कि सीधा टंगा
है। लेकिन पिकासो
का है, तो
घर में होना
चाहिए। फिर
उसे वे लटका
देते हैं।
पिकासो ने
अपने एक पत्र
में लिखा है
कि मेरा जीवन
एक दुखी आदमी
का जीवन है।
क्योंकि
मैंने जो भी
जीवन में श्रम
से तैयार किया
है,
वह ऐसे घरों
में लटका है, जिनमें न तो
देखने वाली आंखें
हैं, न
समझने वाले
हृदय हैं। कहीं
किसी बाथरूम
में, कहीं
किसी बैठक—घर
में मैं लटका
हूं। मेरे
सारे जीवन का
श्रम उन लोगों
के पास चला गया
है, जो कभी
एक क्षण रुक
कर भी नहीं
देखते, कि
क्या है, क्या
वह ले आए हैं!
आप
कितनी ही
चीजें इकट्ठी
कर लें, अगर
भीतर सौंदर्य
का बोध नहीं
है, तो
आपके चारों तरफ
कुरूपता होगी।
और एक झोपड़े
में भी
सौंदर्य हो
सकता है, अगर
आपके भीतर
सौंदर्य का
बोध है। तब एक
खाली जगह भी
सुंदर हो सकती
है। वह बोध
आरोपित होता
है। वह बोध ही
आपके चारों
तरफ के जगत को
निर्मित करता
है। तब हो
सकता है कि
आपके फूलदान
में कीमती फूल
न हों और आपने
सिर्फ एक
साधारण
पत्तों की
सजावट कर रखी
हो, लेकिन
उसमें भी
सौंदर्य होगा।
क्योंकि
सौंदर्य आपके
भीतर से आता
है।
यह
सूत्र समझने
जैसा है।
क्योंकि जीवन—क्रांति
की दिशा में
चलने वालों के
लिए बहुत ही
विचारणीय है।
चौथा
सूत्र, ‘जीवन
का संगीत
सुनो। उसे
खोजो और पहले
उसे अपने
ह्रदय में ही
सुनो। आरंभ
में
तुम कदाचित
कहोगे कि यहां
गीत तो है ही
नहीं, मैं तो
जब ढूंढता
हूं तो केवल
बेसुरा
कोलाहल ही
सुनाई देता है।
और अधिक ढूंढो।
यदि फिर भी
तुम निष्फल
रहो, तो
ठहरो और भी
अधिक गहरे में
फिर ढूंढो।
एक प्राकृतिक
संगीत, एक
गुप्त जल—स्रोत
प्रत्येक
मानव हृदय में
है। वह भले ही
ढंका हो, बिलकुल
छिपा हो, और
नीरव जान पड़ता
हो—किंतु वह
है अवश्य।’
'जीवन का
संगीत सुनो।’
लेकिन
इसे सुनने की
पहली शर्त है
कि उसे पहले अपने
हृदय में सुनो।
नहीं तो यह
बाहर सुनाई
नहीं पड़ेगा।
हम बाहर संगीत
सुनते हैं।
शायद सोचते भी
हैं कि संगीत
समझ में आ रहा
है। सिर भी
हिलाते हैं, आनंदित
भी होते हैं।
लेकिन अगर
भीतर का संगीत
नहीं सुना है,
तो यह सब
ऊपर—ऊपर की
बात है, इससे
संगीत में
प्रवेश न हो
पाएगा।
संगीत
अध्यात्म है।
और जब तक आपके
हृदय में राग
का अनुभव न
होने लगे, और
जब तक आपकी
श्वास—श्वास
में एक
लयबद्धता न आ
जाए, और जब
तक आपका जीवन—स्पंदन
वीणा न बन जाए;
जब तक आपको
भीतर न सुनाई
पड़ने लगे वह
नाद, जो
जीवन का नाद
है, जिसको
पैदा नहीं
करना होता, जो चल ही रहा
है, जो आप
हैं ही, जब
तक आपको वह
सुनाई न पड़
जाए, तब तक
इस जगत में जो
अनंत संगीत
गुंजायमान हो
रहा है, उससे
आपकी कोई
पहचान न होगी।
और एक बार
आपको अपने
हृदय में
सुनाई पड़ जाए
वह नाद, तब
आप पाएंगे कि
हर तरफ, झरने
की कलकल में, हवाओं का
गुजरना
वृक्षों के
पत्तों के बीच
से, उसमें,
पत्थर के
गिरने में, नदी के बहने
में, नीरवता
में, रात्रि
के सन्नाटे
में, झींगुरों
की आवाज में, सब तरफ आपको
अपने हृदय की
प्रतिध्वनि
सुनाई पड़ने
लगेगी। यह जगत
एक संगीत हो
जाएगा।
लेकिन
यह होगा उस
दिन,
जिस दिन
हृदय को सुना
जा सके।
क्यों? क्योंकि
हृदय इतना
निकट है कि जब
आप उसका संगीत
नहीं सुन पाते,
तो और सब
चीजें तो दूर
हैं, उनका
संगीत आप न
सुन पाएंगे।
तारे बहुत दूर
हैं, उनका
संगीत आपको
कैसे सुनाई
पड़ेगा? और
हृदय इतना
निकट है, उसका
ही सुनाई नहीं
पड़ रहा है!
जो
निकटतम है, उससे
यात्रा शुरू
करो।
पुराने
दिनों में—
बहुत पुराने
दिनों में, इतिहास
ने जिसका
स्मरण भी छोड़
दिया है— संगीत
की शिक्षा
ध्यान से शुरू
होती थी।
क्योंकि
वाद्य पर क्या
करोगे, कंठ
से क्या होगा,
जब तक हृदय
के संगीत का
स्वर अनुभव न
होने लगे? नृत्य
की शिक्षा
ध्यान से शुरू
होती थी।
क्योंकि शरीर
को हिलाने से
क्या होगा? जब तक कि
स्पंदन भीतर न
आने लगे, जब
तक कि भीतर
विद्युत
प्रवाहित न
होने लगे, जब
तक कि भीतर
कोई न नाच उठे—तब
तक शरीर को
हिलाना कवायद
होगी, तब
तक वह नृत्य
नहीं होगा। और
चाहे कितनी ही
कुशलता आ जाए
शरीर को नचाने
की, वह
कुशलता टेक्यिकल
होगी, हार्दिक
नहीं होगी।
उसमें कहीं भी
हृदय नहीं
होगा, कुशलता
होगी। और
कुशलता बहुत
गहरी हो सकती
है। फिर भी
आत्मा नहीं
होगी, शरीर
ही नाचेगा।
वही फर्क है।
बड़े
से बड़ा
संगीतज्ञ भी
नाच सकता है, नृत्यकार
नाच सकता है।
बड़े से बड़ा
संगीतज्ञ
संगीत को जन्म
दे सकता है।
लेकिन कृष्ण
के नृत्य में
बात कुछ और है।
टेक्निकली
वह गलत भी हो
सकते हैं। उनके
नृत्य में भूल—चूक
खोजी जा सकती
है। और पंडितो
को लगा दें, तो वे जरूर
खोज लेंगे।
लेकिन फिर भी
उनका नृत्य
किसी और आयाम
में है।
मीरा
के संगीत में
भूल—चूक खोजी
जा सकती है, काव्य
में भूल—चूक
खोजी जा सकती
है, व्याकरण
में भूल—चूक
खोजी जा सकती
है। क्योंकि
मीरा न तो कोई
कवि है, न
वह कोई नर्तकी
है, न वह
कोई संगीतज्ञ
है। लेकिन फिर
भी किसी अंतस
के कोने में, गहरे में, संगीत घटा
है, नृत्य
घटा है, काव्य
का जन्म हुआ
है। वही काव्य,
वही नृत्य
शरीर तक आ गया
है, बाहर
तक फैल गया है।
इसलिए उसके
नृत्य में कुछ
बात ही और है।
वह इस जगत का
नहीं है नृत्य।
तो वह कहीं
पार से आती है
कोई किरण, वह
कहीं दूर की
खबर लाती है।
इसलिए मीरा छा
गई हृदय पर।
बहुत बडे
संगीतज्ञ हुए,
मीरा की कोई
तुलना नहीं
उनसे। टेक्निकली
कोई उसका
अस्तित्व
नहीं है, लेकिन
संगीतज्ञों
को हम भूलते
चले जाएंगे, मीरा को
भूलना असंभव
है।
चैतन्य
नाचते हैं।
उनके नाचने
में न कोई
व्यवस्था है, न
कोई जानकारी
है, नाचना अनगढ़ है।
लेकिन नृत्य
में कुछ प्राण
हैं, कोई
आत्मा है, नृत्य
सजीव है। शरीर
ही नहीं कैप
रहा है, भीतर
कहीं गहरे में
स्पंदन हो रहे
हैं। और शरीर
उन स्पंदनों
की केवल खबर
दे रहा है।
नृत्य—संगीत
जैसी सारी
कलाओं का जन्म
कभी मंदिर में
हुआ था, उनका
जन्म मंदिर से
है। वे कलाएं
मंदिर से फिर
लोक—लोक में
व्याप्त हो गई
हैं। उनका
प्राथमिक चरण
कभी अध्यात्म
की खोज का ही
हिस्सा था।
लेकिन धीरे—
धीरे सभी
चीजों के साथ
होता है कि हम
उसके बाह्य आवरण
में ज्यादा
उत्सुक हो
जाते हैं। फिर
बाह्य आवरण की
व्यवस्था में
उत्सुक हो जाते
हैं। फिर हम
इतनी
व्यवस्था कर
लेते हैं कि
हम भूल ही
जाते हैं कि
जिसके लिए
व्यवस्था कर
रहे हैं, वह
कभी का मर
चुका है। अब
हम शरीर की
सजावट किए चले
जा रहे हैं।
संगीत
बहुत दूर चला गया
अध्यात्म से, नृत्य
बहुत दूर चला
गया। इतने दूर
कि करीब—करीब
उलटा हो गया
है। करीब—करीब
नृत्य और
संगीत अब
वासना की सेवा
कर रहा है।
कभी वह आत्मा
से पैदा हुआ
था, अब
वासना की सेवा
में रत है!
इसलिए
इस्लाम को तो
इनकार ही कर
देना पड़ा संगीत
को कि यह पाप
है। यह हैरानी
की बात है।
मगर सोचने
जैसी है।
हिंदुओं
ने संगीत को
श्रेष्ठतम
समझा। संगीत
की अनुभूति को
परम— ध्यान
समझा। और
हजारों साल
बाद जो आखिरी
धर्म जमीन पर
आया,
इस्लाम, उसने
संगीत को
वर्जित कर
दिया, कि
मस्जिद के
सामने संगीत
नहीं बज सकता!
संगीत को पाप
घोषित कर दिया!
इस्लाम
भी सही है और
हिंदू भी सही
हैं। जिस दिन
संगीत पैदा
हुआ था, उस
दिन वह परम—ज्ञान
का हिस्सा था,
ध्यान का
हिस्सा था।
लेकिन धीरे—
धीरे हटते—हटते
वह वासना की
सेवा में रत
हो गया। और जब
मोहम्मद का
जन्म हुआ तो
संगीत वासना
की सेवा में
रत था। वह
कामवासना का हिस्सा
हो गया था।
इसलिए
मोहम्मद ने
कहा कि संगीत
मस्जिद के सामने
नहीं। तो वह
पाप है। दोनों
सही हैं।
क्योंकि
संगीत के
दोनों बिंदु
हैं, दो
छोर हैं।
एक
बात स्मरणीय
है कि संगीत
वासना की सेवा
में लग जाएगा, अगर
आपने उसे पहले
भीतर न सुना।
अगर बाहर सुना
तो उसकी जो चोट
है, वह
आपके काम—केंद्र
पर होगी।
क्योंकि काम—केंद्र
आपका सबसे
बाहरी केंद्र
है— सबसे
निम्न, सबसे
बाहरी। अगर
आपने संगीत
भीतर सुना, तब तो वह
आत्मा में
प्रतिध्वनित
होगा। अगर
आपने बाहर
सुना तो उसकी
पहली चोट, पहला
आघात सेक्स
सेंटर पर होगा,
काम—केंद्र
पर होगा, क्योंकि
वही निकटतम है।
और तब
अनिवार्य रूप
से संगीत काम की
सेवा में
संलग्न हो
जाएगा। तो
कामातुर लोग
नाच में रस
लेते हैं, गान
में रस लेते
हैं। तो धीरे—
धीरे राजा—महाराजाओं
के दरबार की
बात हो गई।
साधु दूर हटता
गया, क्योंकि
असाधु संगीत
का रस लेने
लगा। लेकिन कारण
संगीत नहीं है,
कारण अगर
भीतर से पहले
यात्रा न हुई,
तो यह उलझन
आएगी। अगर
भीतर से
यात्रा हुई, एक बार भीतर
का संगीत
अनुभव में आया,
तो फिर जगत
में जो भी
संगीत संभव है—निर्मित,
अनिर्मित, प्राकृतिक,
कृत्रिम—वह
सभी संगीत, एक बार भीतर
का स्मरण आ
जाए, तो
वहीं चोट
करेंगे।
नानक
अपने साथ एक
संगीतज्ञ को
रखते थे।
बोलते कम थे, गाते
ज्यादा थे। और
बगल में बैठा
मरदाना अपने
इकतारा को
बजाता था। पर
नानक पहले
अजपा की
शिक्षा देते
थे। कि पहले
भीतर अजप
का जो नाद है, वह सुना जाए।
और जब उनके
साधक अजपा के
नाद में लीन
होने लगते थे,
भीतर का नाद
सुनने लगते थे,
तब वे बाहर
का संगीत भी
साथ में देते
थे। यह बाहर
का भी संगीत
तब भीतर के उस
गहन संगीत के
साथ एक हो
जाता था। और
जब बाहर और
भीतर का संगीत
एक होता है, तो बाहर और
भीतर मिट जाते
हैं, सिर्फ
संगीत रह जाता
है। वह संगीत
का क्षण
ब्रह्म—अनुभव
का क्षण हो
जाता है।
'उसे खोजो और
पहले उसे अपने
हृदय में ही
सुनो। आरंभ
में तुम
कदाचित कहोगे
कि यहां गीत
तो है ही नहीं,
संगीत तो है
ही नहीं, मैं
तो जब ढूंढता
हूं तो केवल
बेसुरा
कोलाहल ही
सुनाई पड़ता है।’
निश्चित
ही,
जब तुम पहली
दफा भीतर
जाओगे, तो
सिवाय भीड़ और
बाजार के वहां
कुछ भी न
मिलेगा।
क्योंकि
तुमने अब तक
भीड़ और बाजार
को ही अपने भीतर
पहुंचाया है।
तब वहां तुम
शोरगुल सुनोगे।
वहां व्यर्थ
की आवाजें
सुनाई पड़ेगी।
वहां खंड—खंड
टुकड़े बातचीत
के सुनाई पडेंगे,
जिनमें कोई
तुक भी नहीं
है— संगीत तो
बहुत दूर—जिनमें
कोई संगति भी
नहीं है, जिनमें
कोई संबंध भी
नहीं है। अगर
तुम बैठ जाओ
एकांत में और
तुम्हारे
भीतर जो चल
रहा है, उसे
तुम कागज पर
लिखो, तो
तुम समझोगे कि
यह कोई पागल
है मेरे भीतर
या बहुत पागल
हैं मेरे भीतर।
अभी
वैज्ञानिक
सोचते हैं कि
आज नहीं कल, ऐसा
उपाय कर लेंगे
कि आपकी खोपड़ी
में विद्युत
का यंत्र लगा
कर एंप्लीफाई
किया जा सके, कि वहां जो
भीतर चल रहा
है, उसे और
लोग भी सुन
सकें। कोई
राजी नहीं
होगा इस काम
के लिए, कि
आपके भीतर जो
चल रहा है, उसे
और लोग भी सुन
लें। एक दफा
औरों ने सुन
लिया, फिर
आपका कोई
भरोसा नहीं
करेगा। क्योंकि
आप अपना एक
चेहरा बनाए
हुए बैठे हैं,
वह बिलकुल
नकली है। आप
बड़े
बुद्धिमान
दिखाई पड़ रहे
हैं, वह सब
नकली है। वह
भीतर जो चल
रहा है, वह
बिलकुल
विक्षिप्त
स्वर हैं वहां।
स्वभावत:
जब आप भीतर
जाएंगे तो
पहले यह
विक्षिप्तता
ही सुनाई
पड़ेगी। पहले
आपको यही
आवाजें सुनाई
पड़ेगी। उनसे
डरना मत, घबड़ाना भी मत। और
थोड़े भीतर
प्रवेश की
जरूरत है। साक्षीभाव
से उन्हें
सुनना, तो
भीतर प्रवेश
हो सकेगा।
उनके विरोध
में भी कुछ मत
करना।
क्योंकि
विरोध में
किया, तो
वहीं उलझ
जाओगे। उनसे
लड़ना भी मत।
क्योंकि लड़े,
तो तुम भी
एक हिस्सा हो
जाओगे उस भीड़
में उपद्रव का।
उपद्रव और बढ़
जाएगा। उनको
रोकने की भी
कोशिश मत करना,
क्योंकि
रोकने से उनसे
छुटकारा नहीं
है। और फिर
जिसे हम रोकते
हैं, उसकी
छाती पर हमें
बैठे रहना
पड़ता है, उससे
आगे नहीं जा
सकते। उनके
साथ कुछ करना
ही मत। तटस्थ
भाव से!
बुद्ध
ने कहा है, उपेक्षा
से भीतर की
तरफ चलना।
वह
चल रहा है
शोरगुल, चलने
देना। जैसे एक
बाजार से तुम
गुजर रहे हो, तो ठीक है, बाजार है।
तुम उसकी
चिंता नहीं ले
रहे हो। ऐसे
ही तुम इस
भीतर के बाजार
से भी गुजरते
वक्त परेशान
मत होना। एक
उपेक्षा का
भाव रखना कि
ठीक है, बाजार
है। अब तक यही
इकट्ठा किया
है, वह है।
तुम चुपचाप साक्षीभाव
से भीतर की
तरफ चलना और
गहरे खोजना।
'और अधिक
गहरे ढूंढो।
यदि फिर भी
तुम निष्फल
रहो, तो
ठहरो और भी
अधिक गहरे ढूंढ़ों।’
डरना मत, क्योंकि
निश्चित ही
स्रोत है। वह
स्रोत अनेकों
ने पाया है और
तुम भी पा
सकते हो। वह
जिन्होंने
पाया है, उनकी
गवाही है कि
पाया जा सकता
है। वह
तुम्हारे
भीतर है, पर्त
दर पर्त दबा
है। बहुत
पर्तें हो
सकती हैं।
लेकिन घबड़ाना
मत और उसकी
खोज जारी रखना।
और कितना ही
उपद्रव भीतर
मालूम पड़े, तुम शांत
बैठ कर उस
उपद्रव को
देखते रहना।
श्री
अरविंद जब पहली
दफा साधना में
उतरे, तो उनके
गुरु ने
उन्हें कहा कि
विचार
तुम्हारे
भीतर चलेंगे
बहुत, तुम
एक छोटा सा
काम ही करना, कि तुम
विचारों को मक्खियां
समझ लेना, कि
मक्खियां
तुम्हारे सिर
के आसपास
मंडरा रही हैं।
और तुम उनकी
फिक्र न करना,
उनको
शोरगुल मचाने
देना। तुम समझना
कि तुम बीच
में खड़े हो और मक्खियां
गज रही हैं
चारों तरफ।
श्री अरविंद
तीन दिन तक
वैसी अवस्था
में बैठे रहे।
पहले तो वे
बहुत घबडाए,
क्योंकि मक्खियां
थोड़ी न थीं।
एक—एक विचार
अगर एक—एक
मक्खी था, तो
करोड़ों मक्खियां
भिनभिनाने
लगीं। पर
संकल्प के
व्यक्ति थे।
उन्होंने कहा
कि अगर मक्खियां
ही मानना है, तो फिर
चिंता क्या
करनी है, बैठे
रहना है। बैठे
रहे, बैठे
रहे; मक्खियां भिनभिनाती
रहीं, न तो
उनसे लड़े, न
उनको भगाया, न हटाया।
धीरे—
धीरे
उन्होंने
पाया, घंटों
के बीतने के
बाद, मक्खियों
की भीड़ कम
होती जा रही
है। तब भरोसा बढा
कि सिर्फ
बैठने से भीड़
कम हो रही है, तो और बैठने
से और भी कम हो
जाएगी। तो फिर
प्रसन्नता भी
आ गई, आस्था
भी आ गई, आशा
भी आ गई, आत्मविश्वास
भी बढ़ा। फिर
वे बैठे ही
रहे, फिर
उन्होंने
सोचा कि अब
उठना उचित
नहीं, क्योंकि
उठने पर हो
सकता है कि
फिर इतनी भीड़
से गुजरना पड़े।
तो बैठे ही
रही। तो वे
तीन दिन तक
बिना खाए—पीए
बैठे ही रहे।
उन्होंने तय
कर लिया कि जब
तक आखिरी
मक्खी न चली
जाए, तब तक
मैं बैठा ही
रहूंगा। तीन
दिन में आखिरी
मक्खी भी चली
गई। कोई विचार
न रहा।
उस
क्षण में सुना
जाता है जीवन—संगीत, उस
क्षण में भीतर
का स्रोत
प्रकट हो जाता
है। जब आप
होते हैं
निर्विचार, तब संबंध हो
जाता है हृदय
के संगीत से।
जब तक विचार
से भरे हैं, तब तक
कोलाहल रहेगा।
पर यह कोलाहल,
बहुत कठिन
नहीं है इसको
पार करना।
सिर्फ
उपेक्षा और इस
कोलाहल में न
उलझने की दृष्टि,
और धीरे—
धीरे अपने को
शिथिल छोड़ते
जाना भर जरूरी
है।
अभी
पश्चिम में
उन्होंने फीड—बैक
मशीनें बनाई
हैं। सस्ती
मशीनें हैं, बड़े
काम की हैं।
बहुत छोटी सी
मशीनें हैं, कोई हजार
रुपए की होंगी।
आपके माथे पर
दोनों तरफ
जहां विचार की
चोट पड़ती है
और आपके
मस्तिष्क के
स्नायु कंपते
हैं, वहां
तार लगा दिए
जाते हैं। ऊपर
से तार चिपका
दिए जाते हैं
और मशीन के
सामने आपको
बिठा दिया
जाता है और
मशीन को आन कर
दिया जाता है।
मशीन तत्क्षण,
उसका कांटा
घूमने लगता है
तेजी से।
जितनी तेजी से
आपके विचार
घूम रहे हैं,
मशीन
का कांटा झट
लगता। और आपसे
कहा जाता है कि
आप शांत होते जाए, शिथिल
होते जाएं। आप
सामने देखते
हैं कि कांटा,
जैसे आप
शिथिल होते
हैं, कम हो
जाता है। उससे
भरोसा बढ़ता है।
जब आप और शांत
होते हैं तो
कांटा और धीमा
हो जाता है।
और जब आप ठीक
एक शांति की
अवस्था में
आते हैं, जिसको
वे अल्फा
कहते हैं, तब
मशीन पीप पीप
पीप की
आवाज करने
लगती है। जैसे
ही मशीन पीप पीप पीप
की आवाज करती
है, आपको
पक्का भरोसा आ
जाता है कि
विचार शांत हो
गए, और मैं अल्फा—वेव
में आ गया, जहां
ध्यान और गहरी
नींद घटित
होती है। उस
क्षण आप अपने
भीतर देखें तो
एक भी विचार
नहीं होता।
बाहर मशीन खबर
देती है, भीतर
एक भी विचार
नहीं होता।
अगर आप और
शांत होते चले
जाएं, तो अल्फा से
भी गहरे उतर
जाते हैं, तब
मशीन दूसरी
तरह की आवाज
देती है।
जो
काम आप सालों
में कर पाते
हैं,
वह इस मशीन
पर बैठ कर तीन
या सात दिन
में हो जाता
है। क्योंकि
आप कुछ भी
करते हैं, ध्यान
करते हैं, कुछ
भी करते हैं, तो आपको पता
तो चलता नहीं
कि भीतर हो
क्या रहा है! पता
चल जाए तो बडी
सुविधा हो
जाती है।
क्योंकि आपको
भरोसा आता है
कि कोई गति हो
रही है, कोई
फर्क पड़ रहा
है। इसको वे
फीड—बैक कहते
हैं, क्योंकि
वह मशीन आपको
सहायता देती
है। वह फीड
करती है आपको,
वह खबर देती
है कि ही, अब
आप शांत हो
रहे हैं। तो
भीतर का तो
आपको पता नहीं
चलता, लेकिन
मशीन से पता
चलता है कि आप
शांत हो रहे हैं।
यह खयाल कि
मैं शांत हो
रहा हूं सजेशन
बन जाता है, सुझाव बन
जाता है। अगर
मैं शांत हो
रहा हूं तो आप
और शांत हो
जाते हैं। जब
आप और शांत
होते हैं, मशीन
और भी खबर
देती है। और
इस तरह मशीन
और आपके बीच
एक संवाद
निर्मित हो
जाता है। अगर
आप कुछ न करें,
सिर्फ बैठ
कर अपने को
शिथिल छोड
दें, तो
पांच—सात
मिनिट में एक
दों—तीन दिन
के प्रयोग में
आप अल्फा—वेव
को उपलब्ध कर
लेते हैं।
यह
जो भीतर का
जगत है, इस
भीतर के जगत
में विचारों
को शिथिल
छोड़ना और
विचारों से
अपने को शांति
से अलग हटा
लेना— यही
एकमात्र
प्रयोग है, सारे धर्मों,
सारी
व्यवस्थाओं, सारे योग, सारे
तंत्रों में।
एक ही
महत्वपूर्ण
बात है कि
किसी तरह भीतर
के कोलाहल की
पर्त को पार
करके आप उस
जगह पहुंच जाएं,
जहां भीतर
शांति का झरना
है। वह झरना
आपके भीतर है।
वह उतना ही
आपके भीतर है,
जितना
बुद्ध के भीतर
है, उससे
रत्ती भर भी
कम नहीं है।
उस झरने से
संपर्क
स्थापित करने
की बात है।
'फिर भी तुम
निष्फल रहो तो
ठहरो और भी
अधिक गहरे में
फिर ढूंढो।
एक प्राकृतिक
संगीत, एक
गुप्त जल—स्रोत
प्रत्येक
मानव हृदय में
है। वह भले ही
ढंका हो, बिलकुल
छिपा हो, और
नीरव जान पड़ता
हो— किंतु वह
है अवश्य।
तुम्हारे
स्वभाव के मूल
में तुम्हें
श्रद्धा, आशा
और प्रेम की
प्राप्ति
होगी।’
और
जिस दिन तुम
इस स्रोत से
संबंधित हो
जाओगे, तुम्हारा
जीवन श्रद्धा,
आशा और प्रेम
से भर जाएगा।
वह लक्षण होगा।
लोगों
से कहा जाता
है,
श्रद्धा
करो। वे
श्रद्धा कर भी
कैसे सकते हैं?
भरोसा लाओ।
वे भरोसा ला
भी कैसे सकते
हैं? विश्वास
करो। वे
विश्वास कर
कैसे सकते हैं?
क्योंकि
भरोसा, विश्वास
या श्रद्धा, जब तक भीतर
के आनंद, शांत—संगीत
से संबंध न हो
जाए, तब तक
पैदा नहीं
होते। वह भीतर
के संगीत से
संबंधित होने
के बाह्य परिणाम
हैं। तो
चेष्टा करके
लोग झूठी
श्रद्धा ले
आते हैं, जबर्दस्ती
विश्वास
कर लेते हैं।
मान लेते हैं
कि जब इतना
कहा जाता है
कि मानो, तो
ठीक है, मान
लेते हैं।
लेकिन तब एक
नुकसान होता
है। तब वे
असली श्रद्धा
से वंचित रह
जाते हैं।
नकली, झूठी
श्रद्धा उनके
हाथ में रह
जाती है। और
वे सोचते हैं
कि यही
श्रद्धा है।
हम
सबके हाथ में
ऐसी श्रद्धा
है। बचपन से
सिखाया जा रहा
है कि विश्वास
करो,
विश्वास
करो, तो हम
विश्वास कर
रहे हैं। फिर
अविश्वास
करने में अड़चन
भी है।
सुविधापूर्ण
भी, कनविनियेंट भी यही है कि
विश्वास करो,
क्योंकि
चारों तरफ
विश्वास करने
वाले लोगों का
समूह है।
लेकिन झूठा
विश्वास है, इससे भीतर
की आस्था तक
हम पहुंच ही
नहीं पाते।
भीतर
की आस्था तक
जाना हो तो
ध्यान के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
जानकारी, शिक्षा,
कुछ भी
सहायता न
पहुंचा सकेगी,
जब तक कि
तुम्हें भीतर
का स्वाद न
आने लगे। इस
स्वाद के आते
ही तीन घटनाएं
घटेंगी।
तुम्हारे
जीवन में
श्रद्धा आ
जाएगी।
श्रद्धा
का अर्थ किसी
के प्रति
श्रद्धा नहीं है।
श्रद्धा का
अर्थ है, भरोसा
करने की
वृत्ति। ऐसा
नहीं है कि
तुम अपने गुरु
के प्रति
श्रद्धा रखोगे,
कि महावीर
के प्रति
श्रद्धा
रखोगे।
क्योंकि मैं
देखता हूं जो
महावीर के
प्रति श्रद्धा
रखता है, वह
मोहम्मद के
प्रति नहीं
रखता। यह
श्रद्धा झूठी
है। श्रद्धा
किसके प्रति,
यह सवाल
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर श्रद्धा
का एक सहज भाव
होगा।
तुम्हारी सहज
वृत्ति यही
होगी कि तुम
भरोसा करोगे।
किसका, यह
सवाल नहीं है।
तुम्हारा
पहला लक्षण
भरोसा करना
होगा। अभी
क्या है? तुम्हारा
पहला लक्षण
अविश्वास
करना है।
अगर
एक नया आदमी
तुम्हारे घर
में आता है, अजनबी
है, तुम
पहले उसको ऐसे
ही देखते हो— कोई
चोर तो नहीं
है? कोई
बदमाश तो नहीं
है? सामान
सम्हाल कर
रखो! कुछ ले तो
नहीं जाएगा? या कुछ दान
लेने तो नहीं
आया है? कोई
पैसा तो नहीं मांगेगा? क्या करेगा?
पहले तुम...
फिर तुम उसके
कपड़े—लत्ते
देखते हो कि
उसकी हालत
कैसी है।
क्योंकि हालत
खबर देगी।
पहली तुम्हारी
जो दृष्टि है
किसी के भी
प्रति, वह
अविश्वास की
है। तुम भरोसा
भी अगर लाते
हो, तो
बहुत तुम
अविश्वास
करके जब देख
लेते हो कि नहीं,
अविश्वास
सफल नहीं हो
रहा है, यह
आदमी न तो
चोरी कर रहा
है, न ले कर
भाग रहा है, न कुछ कर रहा
है, तब तुम
लाते हो।
तुम्हारा
भरोसा जो है, वह
तुम्हारा सहज
भाव नहीं है, तुम्हारे
तर्क की
निष्पत्ति है।
तुम्हारा सहज
भाव अविश्वास
है। पहली बात
जो पैदा होती
है, वह
अविश्वास की
है। अगर रात
में तुम देखते
हो कि कोई
आदमी घर में चला
आ रहा है
अंधेरे में, तो तुम एकदम
चिल्ला देते
हो, चोर! और
कोई उपाय ही
नहीं है, वह
तुम्हारी सहज
वाणी है।
अंधेरे में
किसी छायाओं
को देख कर, पहला
खयाल यही आता
है कि दुश्मन
है। मित्र, ऐसा खयाल
नहीं आता!
जो
मैं कह रहा
हूं वह यह कह
रहा हूं कि
हमारा सहज भाव
बिना किसी
तर्क के
अविश्वास का
है। यह कोलाहल
से भरे चित्त
का लक्षण है।
वह डरा हुआ है।
जिंदगी में सब
जगह उसे
शत्रुता
दिखाई पड़ती है, सब
जगह कोई न कोई
कुछ छीनने को
उत्सुक है।
कोई न कोई कुछ
न कुछ लेने को
उत्सुक है। सब
चोर हैं, सब
बेईमान हैं।
और सब तरफ लूट
मची हुई है।
और बस उसके
ऊपर ही सारी
दुनिया की नजर
है।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति अपने भीतर
के संगीत से
संबंधित होता
है,
इसके
विपरीत सहज
भरोसा आ जाता
है। तब चोर भी
आपके घर में
घुस आए तो
आपको पहला खयाल
यह नहीं आता
कि वह चोर है।
पहला यह खयाल
आना बहुत बुरा
है— भला वह चोर
ही क्यों न हो—
लेकिन यह पहला
खयाल आना बहुत
बुरा है। भला
यह सही ही क्यों
न हो आपका
खयाल कि वह
चोर है। और वह
चोर ही
क्यों
न साबित हो, लेकिन
चोर जितना
नुकसान
पहुंचा सकता
है, उससे
ज्यादा
नुकसान इस
खयाल से पहुंच
रहा है।
क्योंकि ऐसा
व्यक्ति
धार्मिक नहीं
हो पाएगा। और
ऐसा व्यक्ति
परमात्मा से
वंचित रह जाएगा।
वह बचा लेगा
थोड़ी—बहुत चीजें,
चोर वगैरह
से बच जाएगा, बेईमान से
बच जाएगा, जेब
सम्हाल
कर रखेगा।
लेकिन जो वह
बचा रहा है, वह
दो कौड़ी
का है। और वह
जो खो रहा है, वह
अनंत
है।
अगर
भरोसा किया तो
क्या खो जाएगा? आपके
पास है क्या
जो खो जाएगा? क्या लुट
जाएगा? और
वह आदमी जिसको
हजार बार धोखा
दिया जाए और
फिर भी एक
हजार एक बार
मौका आए, तो
भरोसा कर ले, वह आदमी संत
है। उसके
संतत्व का
कारण यह है कि
उसकी भरोसे की
वृत्ति सहज है।
कितना ही
अनुभव विपरीत
हो, वह उस
वृत्ति को
नहीं छोड़ेगा।
मैंने
सुना है, उमा
स्वाति ने
कहीं लिखा है,
कि एक साधु
नदी में स्नान
करने को उतरा
था। देखा उसने
कि एक बिच्छू
गिर पड़ा है।
तो उसने उसे
हाथ पर उठा कर
किनारे के
बाहर रखना
चाहा। उस बिच्छू
ने एक डंक
मारा। डंक
मारने से वह
हाथ से बिच्छू
छूट गया, फिर
पानी में गिर
गया। तो उस साधु
ने उसे फिर
उठाया। तो पास
किनारे खड़े एक
मछुए ने कहा
कि आप पागल तो
नहीं हैं? वह
बिच्छू डंक
मार रहा है और
अभी उसने डंक
मारा है, और
फिर पानी में
से तुम उसे
उठा रहे हो! तो
उस साधु ने
कहा, बिच्छू
अपना स्वभाव
नहीं छोड़ता, मुझे भी
अपना स्वभाव
नहीं छोड़ना
चाहिए। मैं बचाना
चाहता हूं पर
बिच्छू
बेचारा डरा
हुआ है, डर
के मारे वह
समझ रहा है कि
पता नहीं मैं
उसकी हत्या कर
रहा हूं या
क्या कर रहा
हूं इसलिए डंक
मार रहा है।
लेकिन क्या
तुम सोचते हो
कि मैं बिच्छू
से हार जाऊं, और बिच्छू
जीत जाए? मैं
उसे उठाऊंगा।
और मैं यह
कोशिश करूंगा
कि ऐसा वक्त
आए कि बिच्छू
भी समझ जाए कि
उठाने वाला मुझे
हत्या करने के
लिए नहीं उठा
रहा है, तभी
मैं रुकूंगा।
बिच्छू से मैं
हार नहीं सकता।
इसे
हम थोड़ा समझें।
बिच्छू काट कर
भी क्या करेगा? थोड़ी
पीड़ा देगा।
लेकिन अगर यह
साधु बिच्छू
से नहीं हारा,
तो इसे जो
आनंद उपलब्ध
होगा, उसकी
आप कल्पना भी
नहीं कर सकते।
यह
सूत्र कह रहा
है कि
तुम्हारे
स्वभाव के मूल
में तुम्हें
श्रद्धा, आशा
और प्रेम की
प्राप्ति
होगी।
श्रद्धा
सहज भाव हो
जाएगी। किस पर, यह
सवाल नहीं है,
तुम
श्रद्धालु हो
जाओगे। वह चोर
हो कि साधु, कि महात्मा
हो कि और कोई, इससे कोई
सवाल नहीं है।
अपना हो कि
पराया, तुम्हारा
सहज भाव
श्रद्धा का
होगा। यह
श्रद्धालु का
लक्षण है।
इसलिए
जिन
श्रद्धालुओं
को तुम देखते
हो कि मंदिर
के सामने माथा
झुका रहे हैं
और मस्जिद के सामने
अकड़ कर चल
रहे हैं, वे
श्रद्धालु
वगैरह नहीं
हैं।
श्रद्धालु तो
सब जगह झुका
होगा। कि
मस्जिद
को
तो बचा रहे
हैं और मंदिर
को जला रहे
हैं! वे
श्रद्धालु
नहीं हैं। कि
कुरान को तो
सिर पर रखे
हुए है और
गीता को लात
मार रहा है! वह
श्रद्धालु
नहीं है। यह
श्रद्धा झूठी
है। और यह
श्रद्धा
खतरनाक है, जहरीली
है।
श्रद्धालु
का तो अर्थ यह
है कि कुछ भी
हो चारों तरफ, वह
उसमें से कुछ खोज
लेगा, जिसमें
श्रद्धा की जा
सकती है। वह
खोज ही लेगा
अपनी श्रद्धा
के योग्य। वह
उसकी सहज खोज
है।
'आशा और
प्रेम.....।’
जिस
व्यक्ति को
भीतर के संगीत
का स्वर सुनाई
पड़ जाएगा, उसके
जीवन से
निराशा
समाप्त हो
जाएगी। और आशा
का मतलब आप यह
मत समझना कि
वह सोचेगा कि
कल मुझे यह
मिलने वाला है,
परसों मुझे
यह मिलने वाला
है। नहीं, वह
आशा तो वासना
की आशा है।
उसे तो हम
बहुत पीछे छोड़
आए सूत्रों
में। साधक उसे
बहुत पीछे छोड़
आया।
आशा
का अर्थ यह है
अब कि जीवन
में जहां भी
वह देखेगा, उसे
आशा का पहलू
दिखाई पड़ेगा।
अगर रात
अंधेरी होगी,
तो उसे
दिखाई पड़ेगा
कि सुबह बहुत
करीब है। अगर
आकाश में काले
बादल घिरे
होंगे, तो
वह कहेगा कि
आज की बिजली
की चमक बड़ी
शानदार होगी।
कि दुख आएगा, तो वह कहेगा
कि सुख की
प्रतीक्षा
करो, सुख
जरूर करीब ही
होगा। उसे
कितना ही दुख
दिया जाए, वह
उसमें से सुख
खोज लेगा। और
उसे कितना ही
परेशान किया
जाए, उस
परेशानी में
से वह शिक्षा
निकाल लेगा।
उसके जीवन में
कुछ भी घटित
हो, उसे
निराश न किया
जा सकेगा। तो
वह हर तरफ से
आशा का बिंदु
खोज लेगा। वह
जो शुभ्र
बिंदु है, वह
हर जगह खोज
लेगा। वह हर
जगह मौजूद है।
निराश
आदमी हर जगह
अंधेरे को खोज
लेता है। कुछ
भी करो, निराश
आदमी से पूछो,
तो वह कहता
है कि दुनिया
बड़ी बुरी है।
दो रातें होती
हैं, तब
कहीं एक छोटा
सा दिन होता
है।
इस
तरह का आदमी
कहेगा, दुनिया
बड़ी अदभुत है,
दो उजाले
दिन होते हैं,
तब कहीं बीच
में छोटी सी
रात होती है।
और रात—दिन
बराबर होते
हैं, बाकी
देखने का कोण
है।
निराश
आदमी गुलाब के
फूल के पास जा
कर कीटों की
गिनती करेगा।
और जब वह देख
लेगा कि हजार
कांटे हैं, तो
वह कहेगा कि
यह एक जो फूल
है, झूठ है।
जहां इतने
कांटे हैं, वहां फूल हो
सकता है? जिस
पौधे में ऐसे जहरीले
कांटे निकल
रहे हैं कि
जान ले लें, उसमें यह
फूल हो सकता
है? यह फूल
प्रलोभन है, ताकि कांटों
में फंस जाओ।
यह फूल झूठ है।
और फिर वह
कहेगा कि फूल
सुबह खिलता है
और सांझ गिर
जाता है, और
कांटे सदा
रहते हैं।
सत्य है कांटा।
यह फूल तो
माया है, सपना
है; इसमें
मत उलझना, इससे
बचना।
आशा
वाला व्यक्ति
भी गुलाब के
फूल के पास
जाएगा, तो
फूल उसे पहले
पकड़ लेगा। वह
फूल में इतना
डूब जाएगा कि
अगर कोई उसे
याद भी दिलाएगा
कि यहां कांटे
हैं, तो वह
कहेगा कि जहां
इतना अदभुत
फूल खिला है, वहां कांटे
कैसे हो सकते
हैं? और
अगर कांटे हैं
तो जरूर फूल
की रक्षा के लिए
होंगे। और अगर
कांटे हैं तो
जरूर उनका कोई
अर्थ होगा।
क्योंकि जहां
ऐसा सुंदर फूल
खिल रहा है
जिस पौधे में,
उस पौधे में
कांटे दुश्मन
की तरह नहीं
लग सकते, वे
मित्र की तरह
ही लगेंगे।
और
जो फूल के रस
में ठीक से
डूब जाएगा, उसके
लिए कांटों
में भी फूल
दिखाई पड़ने लगेंगे।
और जो कांटों
के जहर में
ठीक से डूब
जाएगा, उसे
फूल के रस में
भी जहर दिखाई
पड़ने लगेगा।
तब दुनिया
वैसी ही हो
जाती है, जैसा
हम देखते हैं।
आशा
का अर्थ है, जीवन
का वह जो शुभ
पहलू है, वह
उसे दिखाई
पड़ेगा।
'और प्रेम की
प्राप्ति
होगी।’
प्रेम
का अर्थ नहीं
कि वह किसी एक
व्यक्ति को
प्रेम करने
लगेगा। प्रेम
का अर्थ है इस
घड़ी में, कि
प्रेम उसकी
सहज अवस्था
होगी। वह
प्रेम करेगा!
और जो भी
तैयार हैं, जो भी खुले
हैं, वे
उसके प्रेम के
पाने के पात्र
हो जाएंगे।
उसका प्रेम
कोई मोह नहीं
होगा। उसका
प्रेम कोई
आसक्ति नहीं
होगी। उसके
प्रेम से कोई
बंधन निर्मित
नहीं होगा।
उसका प्रेम एक
सहज दान होगा।
उसके भीतर जो
शांति और आनंद
घटा है, वह बांटेगा।
प्रेम का
कृत्य होगा कि
वह अपनी शांति
और आनंद को
बांटता रहे।
हमारे लिए
प्रेम एक
संबंध है, उसके
लिए प्रेम एक
अवस्था होगी।
ऐसा नहीं है
कि वह प्रेम
करेगा आपको, वह
प्रेमपूर्ण
होगा।
दोनों
में फर्क है।
आप किसी को
प्रेम करते
हैं,
तो प्रेम
आपके लिए एक
संबंध है, लेकिन
आप
प्रेमपूर्ण
नहीं हैं।
बुद्ध या
महावीर किसी
को प्रेम नहीं
करते, लेकिन
प्रेमपूर्ण
हैं। इसका यह
मतलब भी नहीं
है कि सभी को
उनका प्रेम
बराबर मिलेगा।
वे तो सभी को
बराबर देते
हैं, लेकिन
जो जितना ले
सकेगा, उतना
ही पाएगा। और
जो उनके पास
दुश्मन की तरह
खड़ा हो जाएगा,
वह वंचित रह
जाएगा। जो
उनके पास पूरा
हृदय का पात्र
खोल देगा, वह
पूरा भर जाएगा।
सबको
अलग—अलग
मिलेगा।
लेकिन महावीर
की तरफ से
बराबर दिया जा
रहा है। दिया
जा रहा है, यह
कहना ठीक नहीं
है। यह ऐसे ही
है, जैसे
कि दीया जलता
है तो उससे
प्रकाश गिरता
है। आप उसके
पास से
निकलेंगे, अगर
आंखें खुली
होंगी, तो
आपको दिखाई
पड़ेगा। आंखें
बंद होंगी तो
नहीं दिखाई
पड़ेगा।
प्रकाश आपके
लिए गिर भी
नहीं रहा है। प्रकाश
तो गिर रहा है।
आप निकले, आपकी
आंखें खुली
हैं, तो
उपलब्ध हो
जाता है। ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में
प्रेम एक
अवस्था होगी।’
जो पाप—पथ
को ग्रहण करता
है, वह
अपने अंतरंग
में देखना
अस्वीकार कर
देता है, अपने
कान हृदय के
संगीत के
प्रति मूंद
लेता है और
अपनी आंखों को
अपनी आत्मा के
प्रकाश के
प्रति अंधा कर
लेता है। उसे
अपनी वासनाओं
में लिप्त
रहना सरल जान
पड़ता है, इसी
से वह ऐसा
करता है।’
पाप—पथ
का एक ही अर्थ
है,
कि तुम अपनी
तरफ, अपने
भीतर न जा कर, बाहर की तरफ,
किसी और की
तरफ जा रहे हो।
पाप का एक ही
अर्थ है कि
तुम्हारी अंतर्यात्रा
बंद हो रही है
और
बहिर्यात्रा
शुरू हो रही
है। सभी
बहिर्यात्रा
पाप है। उसका
नाम चाहे
धार्मिक भी दे
दो, तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता है।
लेकिन जब भी
तुम अपने से
दूर जा रहे हो,
तब तुम पाप—पथ
पर हो। और जब
तुम अपने करीब
आ रहे हो, तो
तुम पुण्य—पथ
पर हो। और जो
व्यक्ति अपने
से दूर जाना
चाहता है, उसे
अपने भीतर की
आवाज के प्रति
बहरा हो जाना जरूरी
है। क्योंकि
वह आवाज भीतर खींचेगी।
जो अपने से
दूर जाना
चाहता है, उसे
भीतर के प्रति
अंधा हो जाना
जरूरी है।
क्योंकि वह
भीतर का दृश्य,
आंखों को
भीतर बुलाएगा!
तो
हम धीरे— धीरे
भीतर की तरफ
बिलकुल
समाप्त हो
जाते हैं, ताकि
हम बाहर
सुविधा से जा
सकें, दूर
जा सकें, कोई
हमें रोके न।
फिर जितने हम
दूर चले जाते
हैं, उतना
ही कोलाहल, उतना ही
उपद्रव हमारे
चारों तरफ
इकट्ठा हो जाता
है। और फिर जब
हम पीड़ित और
परेशान हो कर
भीतर लौटना
चाहते हैं, तो पहले
हमें इसी
बाजार से
लौटना पड़ता है
जो हमने ही
निर्मित किया
है। पर अगर
कोई हिम्मत
रखे, साहस
रखे, तो इस
भीड़ के पार
जाया जाता है।
क्योंकि यह
भीड़ बहुत
कमजोर है, वह
भीतर का स्वर
बहुत बलशाली
है। बस एक बार
संबंध
स्थापित हो
जाए, तो
अनंत के स्रोत
के हम मालिक
हो जाते हैं।
'परंतु समस्त
जीवन के नीचे
एक वेगवती
धारा बह रही
है, जिसे
रोका नहीं जा
सकता। सचमुच
गहरा पानी
वहां मौजूद है,
उसे ढूंढ
निकालों।
इतना जान लो
कि तुम्हारे
अंदर
निःसंदेह वह
वाणी मौजूद है।
उसे वहां ढूंढो
और जब एक बार
उसे सुन लोगे,
तो अधिक
सरलता से तुम
उसे अपने
आसपास के
लोगों में
पहचान सकोगे।’
काश, वह
तुम्हें
सुनाई पड़ जाए,
तो फिर वह
तुम्हें अपने
आसपास सभी में
सुनाई पड़ने
लगेगी। जितने
गहरे तुम अपने
भीतर जाओगे, उतने ही
गहरे तुम
दूसरों के
भीतर भी देख
सकोगे। जिस
दिन तुम अपने
केंद्र को
पहचान लोगे, उस दिन लोग
भी तुम्हारे
लिए, शरीर
न हो कर
आत्माएं हो
जाएंगे।
क्योंकि उनका
केंद्र भी
तुम्हारे लिए
पारदर्शी हो
जाएगा।
एक
बात याद रखनी
चाहिए, आप
अपने भीतर
जितने गहरे
होते हैं, उतने
ही गहरे आप
दूसरे के भीतर
देख सकते हैं।
अगर आप अपने
भीतर बिलकुल
नहीं हैं, उथले
हैं, तो
उतना ही उथला
आप दूसरे के
भीतर देख पाते
हैं।
इसलिए
कई बार ऐसा हो
जाता है कि आप
बुद्ध और कृष्ण
के करीब से भी
गुजर जाते हैं
और नहीं पहचान
पाते हैं।
क्योंकि आप
जितना अपने
भीतर देख सकते
हैं,
उतना ही
उनके भीतर भी
देख सकते हैं।
आप उथले हैं
तो आप उनकी
गहराई में नहीं
झांक सकते।
आपको उथला ही
खयाल आता है, आप उथली ही
बातें इकट्ठी
कर लेते हैं
और सोचते हैं
कि आपने जान
लिया, पहचान
लिया!
और
जब मैं यह
कहता हूं कि
आप बुद्ध के
करीब से निकलते
हैं,
तो मैं ऐसे
ही नहीं कह
रहा हूं आप
निकले भी हैं।
क्योंकि आप
जमीन पर रहे
ही होंगे। कोई
न कोई बुद्ध, कोई न कोई
क्राइस्ट, कोई
न कोई महावीर,
कोई न कोई
राम, कोई न
कोई कृष्ण, आपके रास्ते
पर पड़ा ही
होगा। कितने
जन्मों में
कितने
रास्तों से आप
गुजरे हैं, लेकिन आप
उसको पहचान
नहीं पाए! आप
पहचान लेते तो
शायद आज आप
होते भी नहीं।
या आप ऐसे न
होते, जैसे
दुख और पीड़ा
से भरे आप हैं।
नहीं
पहचानने का
कारण यह है कि
आप सदा अपनी
ही गहराई के
अनुपात में
देख पाते हैं।
जो आपको अपने
भीतर नहीं
दिखाई पड़ता, वह
आपको किसी के
भीतर दिखाई
नहीं पड़ सकता।
अगर आपको
चारों तरफ
बुरे लोग
दिखाई पड़ते
हैं, गलत
लोग दिखाई
पड़ते हैं, अंधकार
दिखाई पड़ता है,
तो एक बात
निश्चित है कि
आपने अपने
भीतर प्रकाश
नहीं देखा। एक
बात निश्चित
है कि आपने
अपने भीतर
दिव्यता नहीं
देखी। एक बात
निश्चित है कि
भीतर का संगीत
अभी सुनने में
नहीं आया।
आज
इतना ही।
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