सूत्र:
5—सुने
गये स्वर—माधुर्य
को अपनी
स्मृति में
अंकित करो।
जब तक
तुम केवल मानव
हो,
तब
तक उस महा—गीत
के कुछ अंश ही
तुम्हारे
कानों तक
पहुंचते हैं।
परंतु
यदि तुम ध्यान
देकर सुनते हो,
तो
उन्हें ठीक—ठीक
स्मरण रखो;
जिससे
कि जो कुछ तुम
तक पहुंचा है, वह
खो न जाए।
और
उससे उस रहस्य
का आशय समझने
का प्रयत्न
करो,
जो
रहस्य
तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।
एक समय आएगा,
जब
तुम्हें किसी
गुरु की
आवश्यकता न
होगी।
क्योंकि
जिस प्रकार
व्यक्ति को
वाणी की शक्ति
है,
उसी
प्रकार उस
सर्वव्यापी
अस्तित्व में
भी यह शक्ति
है,
जिसमें
व्यक्ति का
अस्तित्व है।
6. और उन
स्वर—लहरियों
से स्वर—बद्धता
का पाठ सीखो।
जीवन की
अपनी भाषा है
और वह कभी मूक
नहीं रहता,
और
उसकी वाणी एक
चीत्कार नहीं
है,
जैसा
कि तुम जो
बहरे हो, कदाचित
समझो।
वह
तो एक गीत है।
उससे
सीखो कि तुम
स्वयं उस सुस्वरता
(हार्मनी) के
अंश हो,
और
उससे सुस्वरता
के नियमों का
पालन करना
सीखो।’
जीवन
में सबसे अधिक
सीखने योग्य
यदि कुछ है, तो
संगीत का बोध
है, संगीत
का भाव है।
संगीत का अर्थ
है कि जीवन का
अंतिम रहस्य
स्वरों की भीड़—
भाड़ नहीं है, न ही एक
अराजकता है, न ही एक
अव्यवस्था है;
वरन सभी
स्वर मिल कर
एक ही तरंग, एक ही लय, एक
ही इंगित, एक
ही इशारा कर
रहे हैं। जीवन
के परम—केंद्र
पर सभी
संयुक्त है, सुव्यवस्थित
है। और जो
अव्यवस्था
दिखाई पड़ती है,
वह हमारे
अंधेपन के
कारण है। और
जो स्वरों का
उपद्रव दिखाई पड़ता
है, जो
तनाव दिखाई
पड़ता है, वह
भी हमारे बहरे
होने के कारण
है। क्योंकि
हम ठीक से
नहीं सुन पाते,
इसलिए हम
स्वरों के बीच
में बहती हुई
जो समस्वरता
है, उसका
अनुभव नहीं कर
पाते हैं।
हमें
स्वर तो सुनाई
पड़ जाते हैं, लेकिन
एक स्वर को
दूसरे स्वर से
जोड्ने
वाला जो बीच
का सेतु है—
संगीत— वह
हमें सुनाई
नहीं पड़ता है।
जैसे—जैसे सुनने
की सामर्थ्य बढ़ेगी, वैसे—वैसे
स्वर खोते
जाएंगे और
संगीत उभरने
लगेगा। एक ऐसा
क्षण भी आता
है, जब
स्वर खो जाते
हैं, शून्य
हो जाते हैं; सब लहरें खो
जाती हैं और
केवल संगीत का
सागर रह जाता
है, केवल
संगीत की
प्रतीति रह
जाती है।
संगीत
का अर्थ है, स्वरों
के बीच जो
प्रेम का
संबंध है, एक
स्वर दूसरे
स्वर से जिस
मार्ग से जुड़ा
है, एक
स्वर दूसरे
स्वर में जिस
भांति खो जाता
है और लीन हो
जाता है। यह
जो दो स्वरों
के बीच में
अंतराल है, वह अंतराल
खाली नहीं है।
वह अंतराल भी
भरा हुआ है।
चाहे वह
अंतराल
सन्नाटे से ही
भरा हो, चाहे
वह अंतराल
शून्य से ही
भरा हो, लेकिन
वह अंतराल भरा
हुआ है। उस
अंतराल को
अनुभव करने का
नाम जीवन के
संगीत को
अनुभव करना है।
सुना
होगा कि सत्य
शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता। लेकिन
शब्दों के बीच
में जो खाली
जगह होती है, वहां
प्रकट होता है।
और सुना होगा
कि रिक्तता तोड़ती
नहीं, जोड़ती
है। और यह भी
सुना होगा कि
शून्यता भी
मात्र शून्यता
नहीं है, शून्यता
भी एक अपूर्व
संगीत से भरी
है। लेकिन
शून्यता को
सुनने की, सन्नाटे
को सुनने की
सामर्थ्य
हमारे पास नहीं
है। जीवन का
संगीत
अंतरालों में
है। अंतराल
हमें दिखाई
नहीं पड़ते। बीच
में खाई—खड्डे
मालूम पड़ते
हैं। एक स्वर
सुनाई पड़ता है,
फिर दूसरा
स्वर सुनाई
पड़ता है, लेकिन
बीच में कोई
सेतु नहीं
दिखाई पड़ता।
इससे अराजकता
अनुभव होती है।
हम
यहां इतने लोग
बैठे हैं। एक
व्यक्ति
दिखाई पड़ता है, फिर
दूसरा
व्यक्ति
दिखाई पड़ता
है, दोनों
के बीच में जो
जोड है, वह
दिखाई नहीं
पड़ता। इसलिए
सभी व्यक्ति
अलग— अलग
मालूम पड़ते
हैं। अगर बीच
का जोड़ दिखाई
पड़ जाए, तो
व्यक्ति यहां
खो जाएं, जीवन
की एक सरिता
रह जाए। जैसे
मैं देखता हूं
कि आप
महत्वपूर्ण
कम हैं, आपके
पड़ोस में बैठा
हुआ व्यक्ति
भी कम महत्वपूर्ण
है, लेकिन
दोनों के बीच
जो जीवन बह
रहा है, वही
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
उसी जीवन के
कारण आप भी
जीवित हैं और आपका
पड़ोसी भी
जीवित है।
लेकिन वह जीवन
अदृश्य है। आप
दिखाई पड़ते
हैं एक छोर पर,
पड़ोसी
दिखाई पड़ता है
दूसरे छोर पर,
बीच में जो
जीवन की तरंग
है, वह
दिखाई नहीं पडती।
दृश्य
को ही जो
देखता है, उसे
जीवन में
अराजकता
दिखाई पड़ेगी।
क्योंकि सभी
दृश्य अदृश्य
से जुड़े हैं।
जो दिखाई पड़ता
है, वह तो
छोर है; जो
नहीं दिखाई
पड़ता—बीच की
जो तरंग, बीच
की जो लहर—वही
वास्तविक
अस्तित्व है।
उस अदृश्य को
अनुभव करना ही
जीवन के संगीत
को अनुभव करना
है।
संगीत
का अर्थ ठीक
से खयाल में
ले लेंगे।
अंतराल को जो
भरे हुए है, रिक्त
को भी जो
पूर्ण किए हुए
है, शून्य
में भी जो
पूर्ण की तरह
मौजूद है। जो
दिखाई नहीं
पड़ता, और
है। लेकिन
अनुभव किया जा
सकता है। जैसे—जैसे
हम भीतर
ज्यादा
संवेदनशील
होते जाएं, वैसे—वैसे
अनुभव होने
लगेगा। और तब
व्यक्ति न
दिखाई पड़ेंगे,
उनको जोड्ने
वाला
परमात्मा
दिखाई पड़ेगा।
तब एक वृक्ष
नहीं दिखाई
पड़ेगा, दूसरा
वृक्ष नहीं
दिखाई पड़ेगा,
बल्कि
दोनों
वृक्षों में
जो जीवन एक सा
बह रहा है—
भीतर भी और
दोनों
वृक्षों के
बाहर भी—वह
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा।
जिस
दिन वह दिखाई
पड़ने लगता है, उस
दिन यह जगत एक
की ही
अभिव्यक्ति
है। इसलिए इन
सूत्रों में
संगीत पर बड़ा
जोर दिया गया
है। क्योंकि
संगीत को जो
अनुभव कर लेगा—स्वरों
को नहीं
स्वरों को जोड्ने
वाली तरंगों
को, अदृश्य
तरंगों को, स्वरों के
बीच में बहने
वाली
लयबद्धता को
जो अनुभव कर
लेगा— वह
ब्रह्म को
अनुभव कर लेगा।
क्योंकि
ब्रह्म वही है,
जो सबको
जोड़े हुए है
और दिखाई नहीं
पड़ता।
निश्चित
ही,
जो दिखाई पड़ता
है, वह
मिटेगा। जो
दिखाई पड़ता है,
वह खो जाएगा।
जो नहीं दिखाई
पड़ता है, वह
नहीं मिटेगा।
उसके मिटने का
कोई उपाय नहीं
है। लहरों की
तरह हम उठते
हैं और दिखाई
पड़ते हैं। और
फिर लहरें गिर
जाती हैं और
खो जाती हैं।
और जो सागर
कभी दिखाई
नहीं पड़ता...।
आप हैरान
होंगे, आप
कहेंगे, सागर
दिखाई पड़ता है।
लेकिन मैं
आपसे कहता हूं
सागर कभी
दिखाई नहीं
पड़ता। जब
दिखाई पड़ती
हैं, लहरें
ही दिखाई पड़ती
हैं। सागर को
आपने नहीं
देखा। जब
दिखाई पड़ती
हैं, लहरें
ही दिखाई पड़ती
हैं। क्योंकि
सागर की सतह
दिखाई पड़ती है।
सतह तो सदा
लहरों से भरी
है। सागर को
आप कभी देख
नहीं पाते हैं।
देखते उन
लहरों को ही
हैं, सागर
तो अनुमान है
आपका। लहरें
दिखती हैं, उठती हैं, गिरती हैं।
लेकिन जिस
सागर में उठती
हैं, जिस
सागर से उठती
हैं, और
जिस सागर में
खो जाती हैं, वह है संगीत।
लहरें तो स्वर
हैं। पर स्वर
सुनाई पड़ते
हैं और संगीत
सुनाई नहीं पड़ता
है! लहरें
दिखाई पड़ती
हैं, सागर
दिखाई नहीं
पड़ता!
और
बहुत मजे की
बात है कि
लहरें बिना
सागर के नहीं
हो सकतीं। और
स्वर बिना
संगीत के नहीं
हो सकते। सागर
बिना लहरों के
हो भी सकता है, लेकिन
लहरें बिना
सागर के नहीं
हो सकतीं।
संगीत बिना
स्वरों के भी
हो सकता है, लेकिन स्वर
बिना संगीत के
नहीं हो सकते।
फिर भी संगीत
सुनाई नहीं
पड़ता, सागर
दिखाई नहीं
पड़ता! लहरें
दिखाई पड़ती
हैं, स्वर
सुनाई पड़ते
हैं!
वह
जो निरव्यक्ति
है,
वह जो
ब्रह्म है, वह जो जीवन
का परम गुह्य
विस्तार है, वह अनुभव
में नहीं आता;
व्यक्ति
अनुभव में आते
हैं। व्यक्ति
की सीमा है, इसलिए दिखाई
पड़ जाता है।
लहर छोटी है, दिखाई पड़
जाती है। सागर
बड़ा है, आंखें
छोटी हैं, दिखाई
नहीं पड़ता।
स्वर छोटा है,
चोट पड़ती है,
सुनाई पड़
जाता है।
संगीत सागर का
विराट है, उसकी
चोट भी नहीं
पड़ती। वह
अनुभव में
नहीं आता।
लेकिन अगर हम
भीतर चलना
शुरू करें, तो जैसे—जैसे
हम भीतर सरकेंगे,
वैसे—वैसे
वह संगीत हमें
सुनाई पड़ेगा।
लेकिन
क्यों? भीतर
सरकने से
क्यों सुनाई
पड़ेगा?
लहर
की बात को
थोड़ा और खयाल
में ले लें।
अगर एक लहर भी
उठ कर देखे, लहर
के पास आंखें
हों— और कोई
कठिनाई नहीं
कि लहर के पास आंखें
हों, क्योंकि
हम भी लहर हैं
और हमारे पास आंखें
हैं— अगर लहर
के पास बुद्धि
हो और लहर अपने
चारों तरफ
देखे, तो
उसे लहरें ही
लहरें दिखाई
पड़ेगी, सागर
दिखाई नहीं
पड़ेगा। और लहर
को यह भी
दिखाई पड़ेगा
कि सभी लहरें
मुझसे भिन्न
हैं।
निश्चित
ही,
कोई लहर बड़ी
हो रही है, कोई
छोटी हो रही
है, कोई
गिर रही है, कोई बन रही
है। तो यह
मेरी लहर कैसे
मान सकती है कि
मैं लहरों के
साथ एक हूं।
क्योंकि कोई
लहर मेरे
सामने ही मिट
रही है, और
मैं नहीं मिट
रहा हूं। अगर
हम एक होते तो
मिट जाते साथ—साथ।
कोई लहर उठ
रही है, मुझसे
बड़ी हो रही है।
तो हम एक नहीं
हो सकते।
क्योंकि अगर
हम एक होते, तो मैं भी
उसके साथ बड़ा
हो जाता। तो
निश्चित ही, लहर अगर
देखें चारों
तरफ, तो एक
बात—सागर
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
क्योंकि
तरंगें छाती
पर भरी हैं
सागर के। और
दूसरी बात—लहर
को सब लहरें
अपने से भिन्न
मालूम पड़ेगी।
और तीसरी बात—लहर
को सारी लहरें
उसकी दुश्मन
हैं, उसको
मिटाने को
उत्सुक हैं, हटाने को
उत्सुक हैं, ऐसा भी
प्रतीत होगा।
संघर्ष, प्रतियोगिता,
स्पर्धा—यही
हमारे साथ हो
रहा है। लेकिन
अगर लहर भीतर
की तरफ मुड़
सके, बाहर
से आख बंद कर
ले और भीतर की
तरफ मुड़े,
तो क्या
मिलेगा? अगर
लहर भीतर की
तरफ मुड़े
तो जैसे ही
भीतर की तरफ
जाएगी, वैसे
ही सागर में
उतरने लगेगी।
क्योंकि लहर
के भीतर तो
सागर ही है, लहर के नीचे
सागर ही है।
लहर
अगर अपने से
बाहर देखे तो
लहरें दिखाई
पड़ती हैं, अगर
भीतर देखे तो
सागर अनुभव
में आएगा। और
भीतर देख कर
फिर सारी
स्थिति बदल
जाएगी। अगर
सागर अनुभव
में आए तो लहर हसेगी कि
वह जो लहरें
दिखाई पड़ रही
थीं, वह
वास्तविक न
थीं। उनके
भीतर भी वही
सागर है। अब
तो लहर अपने
भीतर से दूसरी
लहरों के भीतर
भी प्रवेश
करके देख सकती
है। क्योंकि
नीचे एक ही
सागर है, कहीं
कोई बाधा नहीं
है, कहीं
कोई दीवाल
नहीं है, कहीं
जाने में कोई
अड़चन नहीं है।
जो
अपने भीतर
जाता है, वह
किसी के भी
भीतर प्रवेश
कर सकता है।
क्योंकि उसे
वह रास्ता मिल
गया है नीचे
का, अंतर—गर्भ
का, जहां
से हम एक हैं।
इसलिए
जब आप बुद्ध
या महावीर
जैसे व्यक्ति
के पास जाते
हैं,
तो आपको पता
नहीं चलता, आपको लगता
है कि वे आपको
ऊपर से ही देख
रहे हैं।
लेकिन उनके
पास एक भीतर
का रास्ता भी
है, जहां
से वे आपको
भीतर से देख
रहे हैं। जहां
से वे आपको उस
भांति देख रहे
हैं, जैसे
आपने भी अपने
को नहीं देखा।
इसीलिए
इतना जोर है
परंपराओं में, कि
गुरु के प्रति
पूरा समर्पण
कर देना ही
मार्ग बन सकता
है। क्योंकि
आप अपने संबंध
में जो नहीं
जानते, वह भी
आपके संबंध
में जान सकता
है, जानता
है। जो आप
अपने संबंध
में बताते हैं,
वह दो कौड़ी
का है। जो आप
अपना परिचय
देते हैं, उसका
कोई बहुत
मूल्य नहीं है।
क्योंकि आपकी
पहचान क्या है?
आपने
अपनी ही लहर
की ऊपर की परत
को देखा है।
और यह भी हो
सकता है कि वह
जो आपको कहे, आपकी
समझ में न आए।
क्योंकि वह
आपको गहरे से
देख रहा है, वहां से देख
रहा है जहां
से आपका अभी
तक कोई संबंध,
कोई संपर्क
स्थापित नहीं
हुआ है।
पूर्ण
समर्पण का
अर्थ यह है कि
आप अपने परिचय
को,
जो आप जानते
हैं, छोड़ते
हैं। और आप उस
मार्ग से अब
परिचित होने
को राजी हैं, जो गुरु
जानता है और
आप नहीं जानते
हैं। अगर कोई
लहर अपने भीतर
चली जाए, तो
वह दूसरी
लहरों के भीतर
भी चली गई। तो
उसे अनुभव
होगा कि लहर
होना
अवास्तविक है,
सागर होना
वास्तविक है।
उसे अनुभव
होगा कि दूसरी
लहरें मुझसे
भिन्न नहीं
हैं, कितनी
ही भिन्न
दिखाई पड़ती हों,
हम एक ही
सागर का खेल
हैं।
और
तीसरी बात उसे
दिखाई पड़ेगी
कि लहर की तरह
तो मैं मिट
जाऊंगी, लेकिन
सागर की तरह
मेरे मिटने का
कोई उपाय नहीं
है। अमृत का
यही अनुभव है।
और अगर शानियों
ने कहा है कि
आत्मा नहीं
मरती, तो
आप यह मत
समझना कि आप
नहीं मरते। आप
तो मरेंगे ही।
आप पैदा हुए
हैं और आप
मरेंगे— आत्मा
नहीं मरती।
आत्मा का अर्थ
है, आपके
भीतर जो सागर
है, वह
नहीं मरता है।
आपके भीतर जो
लहर है, वह
तो मरती ही है।
लेकिन
अभी तो आप लहर
को ही समझते
हैं अपना होना।
इसलिए बड़ी
भांति होती है।
लोग पढ़ लेते
हैं कि आत्मा
नहीं मरती, तो
वे सोचते हैं
कि मैं नहीं
मरूंगा। आप तो
मरेंगे ही!
आपके बचने का
तो कोई उपाय
ही नहीं है।
लेकिन जब मैं
कहता हूं कि
आप मरेंगे ही,
तो मैं यही
कह रहा हूं कि
जिसको आप अभी
समझते हैं कि
आप हैं, वह
मरेगा। लेकिन
आपके भीतर एक
ऐसा केंद्र भी
है, जिसको
आप पहचानते ही
नहीं कि आप
हैं, वह
नहीं मरेगा।
लहर
की भांति
मृत्यु
निश्चित है, सागर
की तरह अमृत
निश्चित है।
अब
हम इन सूत्रों
में प्रवेश
करें।
पांचवां
सूत्र, 'सुने
गए स्वर—माधुर्य
को अपनी
स्मृति में
अंकित करो। जब
तक तुम केवल
मानव हो, तब
तक उस महा—गीत
के कुछ अंश ही
तुम्हारे
कानों तक
पहुंचते हैं।
परंतु यदि तुम
उन्हें ध्यान
दे कर सुनते
हो, तो
उन्हें ठीक—ठीक
स्मरण रखो, जिससे कि जो
कुछ तुम तक
पहुंचा है, वह खो न जाए।
और उससे उस
रहस्य का आशय
समझने का
प्रयत्न करो,
जो रहस्य
तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।
एक समय आएगा, जब तुम्हें
किसी गुरु की
आवश्यकता न
होगी।
क्योंकि जिस
प्रकार
व्यक्ति को
वाणी की शक्ति
है, उसी
प्रकार उस
सर्वव्यापी
में भी यह
शक्ति है, जिसमें
व्यक्ति का
अस्तित्व है।’
'सुने गए
स्वर—माधुर्य
को अपनी
स्मृति में
अंकित करो।’
निश्चित
ही उस महा—संगीत
को पूरा नहीं
सुना जा सकता आज।
अभी जैसे तुम
हो,
वहां से उस
पूरे संगीत को
नहीं सुना जा
सकता। उस पूरे
संगीत को
सुनने के लिए
तो तुम्हें भी
धीरे— धीरे
भीतर लयबद्ध
होना पड़ेगा, क्योंकि
समान ही समान
का अनुभव कर
सकता है।
इस
महा—सूत्र को
सदा याद रखो, कि
समान ही समान
का अनुभव कर
सकता है।
अगर
तुम उस महा—संगीत
को सुनना
चाहते हो, तो
तुम्हें खुद
भी संगतिपूर्ण
हो जाना पड़ेगा।
अगर तुम उस
महा—प्रकाश को
देखना चाहते
हो, तो
तुम्हें
प्रकाश—पूर्ण
हो जाना पड़ेगा।
अगर तुम्हें
उस अमृत का
अनुभव करना है,
तो तुम्हें
मृत्यु के भय
के पार हो
जाना होगा।
तुम
जिसको जानना
चाहते हो, उसके
जैसा ही
तुम्हें होना
पड़ेगा।
क्योंकि समान
को ही जाना जा
सकता है, असमान
को जानने का
कोई उपाय नहीं।
इसलिए
पुराने अनुभवियों
ने कहा है कि
आख तुम्हारे
भीतर सूरज का
ही हिस्सा है, इसीलिए
प्रकाश
को देख पाती
है। कान
तुम्हारे
भीतर ध्वनि का
ही हिस्सा है, इसीलिए
सुन पाता है।
कामवासना
तुम्हारे
भीतर पृथ्वी
का ही हिस्सा
है, इसलिए
नीचे की ओर
तुम्हें
खींचती है।
ध्यान
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
ही अंश है, इसलिए
परमात्मा की
तरफ ले जाता
है।
ध्यान
रखना, जो
जिससे जुड़ा है,
उसी का
यात्रा—पथ बन
जाता है। तो
अगर तुम उस
महा—संगीत को
सुनना चाहते
हो, वैसे
ही जैसे तुम
हो, तो न
सुन पाओगे।
क्योंकि तुम
इतने असंगीत
से भरे हो, तुम्हारी
जिंदगी इतनी
स्वर—माधुर्य
से हीन है।
तुम्हारे
भीतर उपद्रव
तो बहुत है, लयबद्धता
जरा भी नहीं
है। तुम्हारे
उठने में, बैठने
में, चलने
में, जीने
में, सोचने
में, एक
भीड़— भाड़, शोरगुल
है। जैसे कि
तुम एक बाजार
की सड़क हो, जिस
पर न मालूम
क्या—क्या चल
रहा है; जिसके
बीच कोई
व्यवस्था
नहीं है, अराजकता
है। इस अराजक
स्थिति से अगर
तुम चाहो कि
तुम उस महा—संगीत
को सुन लोगे, तो असंभव है।
पर
अगर तुम थोड़ी
चेष्टा करो, तो
उसके खंड
सुनाई पड़ सकते
हैं। क्योंकि
तुम चाहे
कितनी ही
अराजकता में
होओ, तुम
जीवित हो। यही
इस बात की खबर
है कि कुछ न
कुछ लय
तुम्हारे भीतर
भी होगी, अन्यथा
जी नहीं सकते
हो; तुम
टूट जाते, बिखर
जाते। अगर सच
में ही
तुम्हारी भीड़
इतनी बड़ी हो
गई हो कि
तुम्हारे
भीतर उस भीड़
को जोड्ने
वाला कोई भी न
बचा हो, तो
तुम खंड—खंड
हो कर गिर
जाओगे। तुम उस
मकान की तरह
गिर जाओगे, जिसकी ईंटों
के बीच का सब
जोड़ खो गया है।
तुम भूमिसात
हो जाओगे।
लेकिन
तुम जीवित हो, मिट
नहीं गए हो, भूमिसात नहीं हुए हो।
इसलिए चाहे
कितना ही
उपद्रव
तुम्हारे भीतर
हो, और
कितना ही
स्वरों के बीच
तनाव हो, और
कितना ही
स्वरों के बीच
संघर्ष हो, कहीं न कहीं,
कोई न कोई
चीज तुम्हें
जोड़ती होगी।
अन्यथा तुम हो
कैसे सकते हो?
कोई न कोई
चीज तुम्हें
बांधे होगी।
कहीं न कहीं, कुछ न कुछ
संगीत
तुम्हारे इस
उपद्रव में भी
मौजूद है। चाहे
कभी उसकी झलक
मिलती हो।
किसी
दिन सुबह सूरज
को उगते देख
कर तुम्हें शांति
की लहर दौड़
जाती हो। या
किसी दिन रात
आकाश में तारे
भरे हों और
तुम जमीन पर
लेटे उन्हें
देख रहे हो, अचानक
सब मौन हो
जाता हो। या
किसी के प्रेम
के क्षण में, या किसी
संगीत को सुन
कर, या किसी
नर्तक को
नाचते देख कर
तुम्हारे
भीतर भी कुछ
नृत्य बन जाता
हो। कहीं कोई
क्षणों में
तुम्हें भी एक
झलक संगीत की
मिलती है। उस
झलक को ही तुम
कभी सुख कहते
हो, उसी
झलक को तुम
कभी शांति
कहते हो, उसी
झलक को कभी
तुम रस कहते
हो। तुमने
बहुत नाम दिए
हैं।
लेकिन
वह झलक इसी
बात की है कि
बाहर की कोई
घटना की
उपस्थिति में
भीतर तुम बंध
जाते हो।
तुम्हारा
उपद्रव एक
क्षण को खो
जाता है, और
तुम्हारे
भीतर स्वर एक
क्षण को मिल
जाते हैं।
लहरें एक क्षण
को सागर हो
जाती हैं। और
तुम्हारे
भीतर जैसे एक
द्वार खुल
जाता है। क्षण
भर को ही सही, एक झलक
मिलती है, और
जगत दूसरा हो
जाता है। यह
संभावना है।
खंड ही
तुम्हें
अनुभव में
आएगा। बहुत
दूर की ध्वनि
तुम्हें
सुनाई पड़ेगी।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है पांचवां, 'सुने
गए स्वर—माधुर्य
को अपनी
स्मृति में
अंकित करो।’ तुम्हारे
जीवन में जो
भी ऐसी घटनाएं
घटी हों, जब
तुमने रस का, संगीत का, लय का अनुभव
किया हो, तो
उनको अपनी
स्मृति में संजोओ, उनको
खो मत जाने दो।
ईसाइयों
का एक पुराना
संप्रदाय था— ईसेन, जिसमें
जीसस को
दीक्षा मिली
थी। ईसेन
संप्रदाय का
एक ध्यान—मार्ग
था। और वह
ध्यान—मार्ग
यह था, कि
तुम्हारे
जीवन में अगर
कभी भी कोई
ऐसा क्षण घटा
हो, जिस
क्षण में
विचार न रहे
हों और तुम
आनंद से भर गए
हो, तो उसी
क्षण को पुनः—पुन:
स्मरण करके, उसी पर
ध्यान करो। वह
क्षण कोई भी
रहा हो, उसी
को बार—बार
स्मरण करके उस
पर ही ध्यान
करो, क्योंकि
उस क्षण में
तुम अपनी
श्रेष्ठतम
ऊंचाई पर थे, जहां तक तुम
अब तक जा सके
हो। उसी को खोदो,
उसी जगह
मेहनत करो।
सभी
के जीवन में
ऐसा कोई क्षण
है। उसी की
आशा में आदमी
जीए चला जाता
है कि शायद वह
क्षण फिर आए।
इसी भरोसे में
जीए चला जाता
है कि शायद वह
क्षण और गहरा
हो जाए। ऐसा
आदमी खोजना
कठिन है, जिसके
जीवन में एकाध
ऐसी स्मृति न
हो। कभी—कभी
तो बहुत
क्षुद्र
कारणों में
वैसी घटना घट जाती
है। कभी तुम
जा रहे हो, सूरज
की किरणें
तुम्हारे सिर
पर पड़ रही हैं,
अचानक तुम
पाते हो कि
तुम शांत हो।
तुमने कुछ
किया नहीं है,
आकस्मिक, तुम उस जगह आ
गए हो, जहां
टचूनिंग
हो गई।
कभी
बहुत साधारण
सी घटनाओं में, कि
तुम अपने
बिस्तर पर पड़े
हो, सुबह
तुम्हारी आख
खुली और अचानक
तुम पहचान भी नहीं
पाते हो कि
तुम कौन हो? वह जो आदमी
रात सोया था—
उपद्रव, परेशानी,
चिंता से
भरा—वह नहीं
है। एक क्षण
को तुम्हें यह
भी समझ में
नहीं आता कि तुम
कहां हो? तुम
एकदम शांत हो।
तुम इतने शांत
हो कि खुद की
पहचान भी भूल
गई है। कभी
किन्हीं भी
कारणों में—उनका
कोई संबंध
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जिंदगी
चलती रहती है।
कभी तुम्हारे
अनजाने भी
तुम्हारे
भीतर के खंड—खंड
इकट्ठे पड़
जाते हैं—
संयोगवश। और
तब कोई भी घड़ी
बाहर मौजूद हो,
तुम अचानक
शांत हो जाते
हो।
इन
स्मृतियों को संजोओ।
फिर अगर तुम
ध्यान कर रहे
हो,
तो ऐसी
स्मृतियां
बढ़ती चली
जाएंगी। इन
स्मृतियों को
इकट्ठा करो।
इनको हृदय के
कोने में
इकट्ठा करते
जाओ, ताकि
वे गहरी हो
जाएं। और सारी
स्मृतियां
जितनी
तुम्हारे
जीवन में इस
आनंद की घटी
हों, जब
तुमने संगीत
जाना हो, उन
सबको पास ले
आओ, उनको
एकाग्र कर दो
एक बिंदु पर, ताकि उन
सबके सहारे
तुम आगे बढ़
सको। अभी
तुम्हें खंड—खंड
मिलेंगे, तुम
इन्हें
इकट्ठे करते
जाना। कभी ये
खंड इकट्ठे
होते जाएंगे,
तो और बड़े
खंडों के
मिलने की
संभावना बढ़ती
जाएगी। ऐसे धीरे—
धीरे एक—एक
ईंट रख कर वह
भवन खड़ा होगा,
जिस दिन तुम
उस महा—संगीत
को सुन सकोगे,
जिसे जीवन
का संगीत कहा
जा रहा है।
लेकिन
आदमी बहुत
उलटा है। हम
दुख की स्मृति
संजोते हैं!
हम दुख में
बड़ा रस लेते
हैं। हम बार—बार
दुख की चर्चा
करते हैं।
लोगों की
बातें सुनो, वह
अपना दुख रोते
रहते हैं। सुख
कोई भी नहीं
हंसता, दुख
लोग रोते हैं!
तो यह भाषा
में शब्द ही
नहीं कि फलां
आदमी सुख हंस
रहा है। भाषा
में शब्द यह
है कि फलां
आदमी दुख रो
रहा है। लोग
अपना दुख एक—दूसरे
को बताते रहते
हैं, जैसे
कि दुख कुछ
बताने जैसा है,
जैसे कि दुख
कुछ बड़ी घटना
है! कोई आपने
महान कार्य
किया है कि आप
दुखी हैं!
लेकिन
क्यों आदमी
दुख की इतनी
चर्चा करता है? और
उसे पता नहीं
कि वह अपना
आत्मघात कर
रहा है।
क्योंकि दुख
की चर्चा से
दुख घना हो
जाता है। दुख
की चर्चा से
दुख इकट्ठा हो
जाता है। दुख
की चर्चा से
दुख पर ध्यान
बंट जाता है, ध्यान बंध
जाता है। दुख
की चर्चा से
दुख घनीभूत
होता
है
और नए दुखों
को पैदा करता
है। क्योंकि
तुम जो संजोते
हो,
उसी को
जानने में
समर्थ होते
चले जाते हो।
सुख
की कोई बात ही
नहीं करता!
सुख को हम छोड़
कर ही चलते
हैं! वैसे सुख
है भी कम।
लेकिन उसके कम
होने का एक
कारण यह भी है
कि हम सुख को
इकट्ठा नहीं
करते हैं। हम
दुख को इकट्ठा
करते हैं।
पर
क्यों? आदमी
दुख की चर्चा
क्यों करता है?
उसके
कारण हैं।
क्योंकि जब भी
कोई आदमी दुख
की चर्चा करता
है,
तो उसका
अर्थ केवल
इतना ही है कि
वह दूसरे की सहानुभूति
चाहता है, दूसरे
का प्रेम
चाहता है। और
सुख की चर्चा
इसलिए नहीं
करता कि सुख
से कोई
सहानुभूति
नहीं करता। और
सुखी आदमी से
लोग ईर्ष्या
करते हैं, प्रेम
नहीं करते। इस
भय से कि
दूसरे
ईर्ष्या
करेंगे, इस
भय से कि कोई
सहानुभूति न
देगा, आदमी
दुख की चर्चा
करता है। आदमी
सहानुभूति का
प्यासा है, प्रेम का
प्यासा है।
लेकिन
ध्यान रहे, दुख
सुन कर जो
सहानुभूति की
जाती है, वह
प्रेम नहीं है।
और दुख सुन कर
जो दया प्रकट
की जाती है, वह आपकी
दीनता की
स्वीकृति है।
लेकिन इस
भांति आप और
दीन होते चले
जाएंगे। और
अगर आपने एक
ही रस बना
लिया है अपने
जीवन का, सहानुभूति
पाना, तो
फिर आप झूठे
दुखों की भी
कल्पना कर
लेंगे, जो
कभी नहीं घटे।
और धीरे— धीरे
उनके घटने का
रास्ता बना
देंगे।
ध्यान
रहे,
अपने दुख की
चर्चा मत करो।
उससे क्या
प्रयोजन है?
सुख
की चर्चा के
लिए नहीं कह
रहा हूं लेकिन
अपने सुख को
प्रकट करो।
दुख को एकांत
में विसर्जित
कर दो। द्वार—दरवाजे
बंद कर लो, हृदयपूर्वक रो लो, चीख
लो, चिल्ला
लो; लेकिन
दूसरे के पास
जा कर दुख की
चर्चा मत करो।
क्योंकि न तो
तुम दूसरे के
सुख में
सहयोगी हो रहे
हो, तुम
उसे भी दुखी
कर रहे हो।
इसलिए दुख की
चर्चा करने
वाले पर हम सहानुभूति
कितनी ही
बताएं, लेकिन
उस आदमी से हम
बचना चाहते
हैं। वह न
मिले तो अच्छा
है। क्योंकि
वह अपने दुख
की तरंगें हम
तक भी पहुंचा
देता है। और
अगर हम उसकी
दुख की चर्चा
सुनते भी हैं,
तो इसी आशय
में कि वह चुप
हो जाए, तो
हम अपने दुख
की चर्चा उसको
सुनाएं।
ऐसा दुख का
लेन—देन चलता
रहता है।
दुख
की बात ही बंद
कर दो। दुख
तुम्हारा
निजी है, उसे
तुम निज में
ही भोग लो।
दबाने को नहीं
कह रहा हूं
उसे प्रकट तो
जरूर करो, लेकिन
शून्य—आकाश
में, जहां
वह किसी की भी
छाती पर बोझ
नहीं बनेगा।
और दुख बता कर
सहानुभूति मत
मांगो। यह
भिखमंगापन है।
अकेले में छोड़
दो, दुख को
विसर्जित कर
दो।
और
जब भी कोई
तुम्हारे पास
हो,
तो
तुम्हारे
भीतर जो सुख
की स्मृति है,
उसको ऊपर ले
आओ। जब भी तुम
किसी के पास
हो, तो
तुम्हारे सुख
को प्रकट करो,
अपने सुख को
नाचो और हंसों,
और अपने सुख
को जीओ, ताकि तुम
दूसरे के दुख
को थोड़ा कम कर
पाओ। और तुम
जितना इस सुख
को जीने लगोगे,
उतना ही सुख
बढ़ता जाएगा।
और जितना तुम
इस सुख की
स्मृति करोगे,
उतनी ही
ज्यादा गहन
सुख में
तुम्हारी गति
होने लगेगी।
हम
जिस पर ध्यान
देते हैं, वह
बढ़ता जाता है।
ध्यान बढ़ोत्तरी
का मार्ग है।
अभी
वनस्पति—शास्त्री
कहते हैं कि
अगर पौधे पर
आप ठीक से ध्यान
दें,
तो वह जल्दी
बढ़ता
है—पौधा
भी। इसलिए
माली बगीचे
में जिस पौधे
को ज्यादा
प्रेम करता है, वह
जल्दी बढ़ता है।
जिस पर वह
ज्यादा ध्यान
देता है, वह
जल्दी बढ़ता है,
उसमें
जल्दी फूल आते
हैं।
अब
तो इस पर बहुत
वैज्ञानिक प्रयोग
हुए हैं।
सिर्फ ध्यान
देने से! जिस
पौधे बूढ़ो
कोई ध्यान
नहीं देता, उसको
मिट्टी दो, खाद दो, पानी
दो, सूरज
दो, सब दो, सिर्फ ध्यान
मत दो, उपेक्षा
दो; उसकी
बढ़ती रुकती
है!
वैज्ञानिक
अब कहते हैं
कि बच्चा मां
के पास जो
बढ़ता है गति
से,
उसका कारण
है मां का
ध्यान। वह
चाहे दूर हो, चाहे वह
दूसरे कमरे
में हो, लेकिन
ध्यान उसका
बच्चे की तरफ
लगा है। वह
चाहे सैकड़ों
मील दूर चली
गई हो, वह
हजार काम में
उलझी हो, लेकिन
भीतर उसके
ध्यान अपने
बच्चे में लगा
है। रात वह सो
रही है, तो
भी ध्यान उसका
बच्चे में लगा
है। आकाश में
बादल गरजते
रहें, तो
भी उसकी नींद
नहीं टूटती; लेकिन बच्चा
जरा सा कुनमुना
दे, और
उसकी नींद टूट
जाती है! उसका
ध्यान बच्चे में
लगा है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चे की बढ़ती
में मां का
दूध जितना
जरूरी है, उससे
भी ज्यादा
जरूरी उसका
ध्यान है।
इसलिए
अनाथालय में
भी बच्चे बड़े
होते हैं; दूध
उनको शायद मां
के दूध से भी
अच्छा मिल सकता
है, वह कोई
अड़चन की बात
नहीं है; सेवा
उनको
प्रशिक्षित
नर्सों की मिल
सकती है; मां
उतनी अच्छी
सेवा नहीं कर
सकती, क्योंकि
उसका कोई
प्रशिक्षण
नहीं है; उनको
वस्त्र, दवा,
सारा
इंतजाम अच्छा
मिलता है, लेकिन
न मालूम क्या
है कि उनके
भीतर बढ़ती
नहीं होती मालूम
पड़ती है। सब
सूखा—सूखा
लगता है। कोई
एक चीज कमी हो
रही है। ध्यान
नहीं मिल रहा
है।
हम
प्रेम के लिए
इतने आतुर
होते हैं।
तुम्हें पता
नहीं होगा कि
क्यों? क्योंकि
प्रेम के बिना
ध्यान नहीं
मिलता। प्रेम
की तलाश वस्तुत:
ध्यान की तलाश
है। कोई तुम
पर ध्यान दे, तो तुम्हारे
भीतर जीवन का
फूल खिलता है,
बढ़ता है।
कोई ध्यान न
दे, कुम्हला
जाता है।
इसलिए प्रेम
की प्यास कि
कोई प्रेम करे,
वस्तुत:
प्रेम की नहीं
है। कोई ध्यान
दे, कोई
तुम्हारी तरफ
देखे, कोई
तुम्हारी तरफ
देख कर प्रसन्न
हो, आनंदित
हो, तो तुम
बढ़ते हो।
मगर
कभी—कभी यह
रुग्ण रूप ले
लेता है।
रुग्ण रूप हर
चीज के होते
हैं।
प्रेम
की खोज तो
स्वस्थ है, लेकिन
कोई आदमी फिर
यह भी कोशिश
करता है कि किसी
भी भांति
ध्यान मिले, तो खतरा हो
जाता है। तुम
अगर जोर से
रोओ—चिल्लाओ,
तो लोगों का
ध्यान
तुम्हारी तरफ
आएगा। बच्चा
सीख जाता है, मां अगर उसे
ठीक से प्रेम
नहीं करती।
जिस बच्चे को
मां ठीक से
प्रेम करती है,
वह रोता, चीखता, चिल्लाता
नहीं है।
लेकिन जिसकी
मां ठीक से
प्रेम नहीं
करती, बच्चा
ज्यादा रोता,
चीखता, चिल्लाता
है। क्योंकि
अब वह एक
तरकीब सीख रहा
है कि जब वह
चिल्लाता है,
तो मां
ध्यान देती है;
सामान पटक
देता है, तो
मां ध्यान
देती है; कोई
चीज तोड़ देता
है, तो मां
ध्यान देती है।
कभी
आपने खयाल
किया कि आपके
घर में मेहमान
आ जाएं, तो
बच्चे ज्यादा
चीजें पटकते
हैं, ज्यादा
उपद्रव मचाते
हैं? वे
मेहमानों का
ध्यान खींच
रहे हैं। वैसे
शांत बैठे थे।
और आप चाहते
हैं कि जब
मेहमान आएं तब
वे शांत रहें।
वे कैसे शांत
रहें? घर
में और लोग आए
हों, उनका
ध्यान...? और
मेहमान आपसे
ही बातें कर
रहे हैं और
बच्चे की तरफ
कोई ध्यान
नहीं दे रहे
हैं, तो
बच्चा पच्चीस
उपद्रव खड़े
करेगा कि आप
भी ध्यान दो, मेहमान भी
ध्यान दें।
अनजाने
चल रहा है।
लेकिन ध्यान बढ़ोत्तरी
का हिस्सा है।
वह बढ़ेगा, जितना
ज्यादा ध्यान
दिया जाएगा।
फिर
लोग बीमार हो
जाते हैं।
जैसे एक
राजनीतिज्ञ
है,
वह भी और
कुछ नहीं मांग
रहा है। पद पर
हो कर मिलेगा
क्या उसको? हजार तरह की
गालियां
मिलेंगी, हजार
तरह का अपमान
मिलेगा, हजार
तरह की निंदा
मिलेगी, और
कुछ मिलने
वाला नहीं है।
लेकिन एक बात
है, कि जब
वह पद पर होगा,
कुर्सी पर
होगा, तो
ध्यान मिलेगा,
चारों तरफ
से लोग
देखेंगे।
पद
की खोज ध्यान
की खोज है, लेकिन
रुग्ण।
क्योंकि यह जो
ध्यान है, इस
तरह मांगना, जबर्दस्ती
मांगना है, हिंसात्मक
है। जैसे
बच्चा चीज तोड़
कर ध्यान मांग
रहा है, ऐसे
ही राजनीतिक
भी हिंसात्मक
हो कर ध्यान
मांग रहा है।
इसलिए
आप देखें, अगर
कभी इस मुल्क
में युद्ध हो
जाए, तो
युद्ध के समय
में जो मुल्क
का बड़ा नेता
है, वह महा
नेता हो जाता
है। क्योंकि
युद्ध के समय
में जितना
ध्यान आपको नेता
पर देना पड़ता
है, शांति
के समय में
नहीं देना
पड़ता है।
इसलिए
राजनीतिशास्त्र
कहता है कि
अगर किसी को
महान नेता
होना हो, तो
पद पर होते
वक्त युद्ध
होना ही चाहिए।
नहीं तो नहीं
होता।
हिंदुस्तान—पाकिस्तान
का युद्ध हो
गया बंगलादेश
को ले कर, तो
इंदिरा को आप
कहने लगे कि
महाकाली है।
वह आपने कभी
नहीं कहा होता।
नेता खो जाते
हैं, अगर
युद्ध उनके
जीवन में न
घटे। और अगर
युद्ध में वे
हार जाएं, तो
फिर ध्यान
उनको बिलकुल
नहीं मिलता।
अगर युद्ध में
जीत जाएं, तो
फिर पूरा ध्यान
मिलता है।
इसलिए नेता
बड़ी कोशिश में
होता है कि
किसी तरह जीत
का सेहरा उसके
सिर पर बंध
जाए, तो
सारा मुल्क, सारी दुनिया
ध्यान देती है।
मगर
यह रुग्ण है।
क्योंकि यह
ध्यान प्रेम
से नहीं मिल
रहा है, यह
ध्यान
सृजनात्मकता
से नहीं मिल
रहा है। यह
ध्यान मिल रहा
है विध्वंस से,
हिंसा से, घृणा से।
मगर ये वे ही
बच्चे हैं, जिन्होंने
घर में बर्तन
तोड़ कर ध्यान
आकर्षित किया
होगा। अब वे एम.एल.ए., एमपी., मिनिस्टर
हो कर ध्यान
आकर्षित कर
रहे हैं। ये
वे ही बच्चे
हैं, जिनको
मां का प्रेम
नहीं मिला।
अगर
मां का प्रेम
मिला हो तो
आदमी
हिंसात्मक
ढंग से ध्यान
आकर्षित नहीं
करता। तब
सृजनात्मक
ढंग से.. .तब वह
आनंदित होता
है। और अगर
आनंद को ध्यान
मिल जाए तो
ठीक है, तब वह
रोता—चिल्लाता
नहीं है।
यह
जो ध्यान की
तलाश है, यह आप
दुख के साथ मत
जोड़ना, नहीं
तो आप और दुखी
होते चले
जाएंगे। या
दूसरे को दुख
दे कर भी
ध्यान मत
मांगना आप, क्योंकि तब
आप और दुखी
होते चले
जाएंगे।
आप
अपने जीवन के
सुख— क्षणों
को इकट्ठा
करना, उनकी
स्मृति
संजोना।
ध्यान के
प्रयोग में जब
भी आपबूढ़ो
कोई अनुभव
मिले— कोई
ताजी हवा आपके
भीतर से गुजर
जाए, कोई
सूरज की किरण
कौंध जाए, कोई
फूल खिल जाएं
भीतर, कोई
सुगंध भर जाए,
कोई संगीत
का एक टुकड़ा
आपको सुनाई पड़
जाए— उसे
इकट्ठा करते
जाना, हृदय
के गहन में
उसे संजोते
जाना। और उसको
ज्यादा से
ज्यादा जीने
की कोशिश करना।
उसे ज्यादा से
ज्यादा
पुकारना। उसे
ज्यादा से
ज्यादा अनुभव
में उतारना।
जब भी मौका
मिले, स्वात
क्षण मिले, आख बंद कर
लेना, उसी
क्षण में लौट
जाना, उसे
पुन: जीना। तो
आप उसको बढ़ा
रहे हैं, और
आप उसको जीवन
और ध्यान दे
रहे हैं। आप
धीरे— धीरे
पाएंगे, और
बड़े खंड आने
लगे, और
बड़े टुकड़े
उतरने लगे, और चीजें
साफ होने लगीं,
संगीत का
बोध और प्रगाढ़
होने लगा।
'जब तक तुम
केवल मानव हो,
तब तक उस
महा—गीत के
कुछ अंश ही
तुम्हारे
कानों तक
पहुंचते हैं।
परंतु यदि तुम
ध्यान दे कर
सुनते हो, तो
उन्हें ठीक—ठीक
स्मरण रखो; जिससे कि जो
कुछ तुम तक
पहुंचा है, वह खो न जाए।
और उससे उस
रहस्य का आशय
समझने का
प्रयत्न करो,
जो रहस्य तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है।’
जो
भी श्रेष्ठतम
मिलता है, वह
खोया जा सकता
है। जब तक कि
पूर्ण की
उपलब्धि नहीं
होती, तब
तक कुछ भी
पाया हुआ, खोया
जा सकता है।
इसे
ध्यान रखना।
ऐसा मत सोच
लेना कि जो पा
लिया है, वह खोएगा
नहीं। जब तक
पूर्ण न मिल
जाए, तब तक
तो तुम्हें
लापरवाही
नहीं करनी है,
तब तक तो जो
थोड़ा—बहुत
मिलता है, उसे
बचाने की
कोशिश करना।
क्योंकि दुख
तुम्हारे पास
बहुत है, सुख
का कण कभी
मिलता है। अगर
तुमने
लापरवाही की,
तो इस दुख
में वह कहीं
भी खो जाएगा।
तुम्हारे घर
में कूड़ा—कर्कट
इतना है, कि
अगर तुम्हें
एक हीरे का
टुकड़ा भी मिल
जाए, तो
तुम उसे अपने
घर के ही कूड़े—कर्कट
में खो सकते
हो। कहीं बाहर
जा कर खोने की
कोई जरूरत
नहीं है। वह
तुम्हारे घर
की धूल में
कहीं भी दब
सकता है। वह
इतना छोटा है
और कभी मिलता
है। और तुमने
घर में इतना
कचरा इकट्ठा
किया है कि उस
कचरे में ही
वह दबा पड़ा रह
जाएगा।
तो
अपने हृदय के
एक कोने को
साफ कर लो और
वहां केवल सुख
को संजोओ!
जब तक कि
पूर्ण की
उपलब्धि नहीं
होती। पूर्ण
की उपलब्धि पर
तो तुम्हारा
गर्द, तुम्हारा
कचरा सब खो
जाता है। फिर
तो कोई डर
नहीं है, फिर
खोने का कोई
डर नहीं है।
आखिरी सीमा तक
से भी गिरना
हो सकता है।
एक क्षण पहले
भी परम—अनुभूइत
के, भटकना
हो सकता है।
उसके हो जाने
के बाद फिर
कोई डर नहीं
है। क्योंकि
जहां तुम खो
सकते हो, वह
तुम्हारे पास
काफी सामान है।
जिसमें तुम खो
सकते हो, वह
तुम्हारे पास
बहुत है। तो
एक हृदय का
कोना बिलकुल
साफ—सुथरा कर
लो। जैसे घर
में कोई एक
मंदिर बना
लेता है, तो
उस मंदिर में
सोता नहीं है,
उस मंदिर
में लड़ने—झगडने
नहीं जाता और
उस मंदिर में
खाना नहीं
खाता। उस
मंदिर में
सिर्फ
प्रार्थना को
जाता है, पूजा
को जाता है।
घर कितना ही
अपवित्र हो, उस छोटे से
कोने को
पवित्र रखता
है।
ऐसे
ही हृदय के एक
कोने में एक
मंदिर बना लो, वहां
सिर्फ
तुम्हारे
जीवन में जो
सुख की कभी—
कभी प्रतीतिया
आती हैं, उन्हें
इकट्ठी करते
जाओ। और कभी
जब तुम्हारे
पास मौका हो
तो आख बंद कर लो
और उस कोने
में सरक जाओ।
पुन: जीयो,
उन्हीं
स्मृतियों को
फिर लौटा लो।
कोई प्रेम का
क्षण, कोई
आनंद का क्षण,
कोई ध्यान
का क्षण, उनको
पुनः—पुन: जीओ।
पुन: जीने का
अर्थ सिर्फ
स्मृति नहीं
है। पुन: जीने
का अर्थ है
पुन: जीना।
दोनों में
फर्क है।
समझो, अपने
बचपन की तुम
याद करते हो।
तुम याद करते
हो कि बचपन
सुखद था। या
तुम्हें कोई
खयाल है कि एक
दिन सुबह बगीचे
में तुम गए, वृक्ष मौन
थे, सन्नाटा
था, वृक्षों
के किनारे से
सूरज की
किरणें भीतर
प्रवेश कर रही
थीं, और एक
तितली को
तुमने उड़ते
देखा और तुम
उसके पीछे
दौड़ने लगे थे।
वह तुम्हें आज
भी याद है।
तुम इसे दो
तरह से याद कर
सकते हो। एक—
बौद्धिक स्मृति
की तरह विवरण
दे सकते हो कि
ऐसा—ऐसा हुआ
अपने सामने।
दूसरा रास्ता
यह है कि आख
बंद कर लो और
पुन: बच्चे हो
जाओ। स्मरण
करो कि तुम
फिर उन
वृक्षों की
छाया में खड़े
हो, जहां
तुम बीस साल, पचास साल
पहले खड़े थे।
स्मरण करो कि
धूप की किरणें
तुम्हें छू
रही हैं, तुम
पुन: एक बच्चे
हो गए हो। तुम
भूल जाओ बीच
के यह पचास
वर्ष, हटा
दो, तुम
पुन: बच्चे हो
जाओ। रि—लिव, पुन:
जीयो, स्मरण
भर मत करो।
स्मरण तो ऊपर
से है, बाहर
से है। तुम
पचास साल के
हो, तो
पचास साल के
रह कर स्मरण
करते हो।
पुन:
जीने का अर्थ
है कि तुम फिर
पांच—छह साल के
हो गए। अब तुम
भूल ही गए कि
बीच के
पैंतालीस साल
गुजरे। तुम
पांच साल के
बच्चे हो, वही
क्षण फिर
मौजूद है। धूप
उतर रही है
वृक्षों के
किनारे से, एक तितली उड़
रही है, तुमने
उसके पीछे
दौड़ना शुरू कर
दिया है। तुम दौड़ो। तुम
घड़ी भर पांच
साल के बच्चे
हो जाओ। जब
तुम वापस
लौटोगे, तुम
पाओगे तुम
ताजगी ले कर
वापस लौटे। इस
पचास साल की
उम्र में पुन:
तुम अगर पांच
साल के बच्चे
हो सकते हो, तो तुमने
पचास साल की
उम्र को भी एक
नई ताजगी और
नए जीवन से भर
दिया। जब तुम
आख खोलोगे, तो तुम
पाओगे
तुम्हारे पास आंखें
हैं, जो
पांच साल के
बच्चे के पास
हैं, निर्दोष।
क्षण भर यह
टिकेगा, लेकिन
इसे पुनः—पुन:
जीना
तुम्हारे
जीवन को बदलने
का रास्ता हो
सकता है।
सुख
के क्षण को, आनंद
के क्षण को जीयो,
संगीत के
क्षण को जीयो,
ताकि वह खो
न जाए।’ एक
समय आएगा, जब
तुम्हें किसी
गुरु की
आवश्यकता न
होगी।
क्योंकि जिस
प्रकार
व्यक्ति को
वाणी की शक्ति
है, उसी
प्रकार उस
सर्वव्यापी
में भी यह
शक्ति है, जिसमें
व्यक्ति का
अस्तित्व है।’
अगर तुम
संगीत के इन टुकड़ों को पकड़ते चले
गए और ये
टुकड़े आपस में
बैठ कर एक बड़े
संगीत को जन्म
देने लगे, तो
एक दिन ऐसी
घड़ी आ जाएगी
कि तुम उस अंतर—आत्मा
की या उस
परमात्मा की,
या जो भी
नाम तुम देना
चाहो, उसकी
वाणी, और
उसके निर्देश
को सीधा ही
सुन सकोगे।
तुम्हें तब
किसी व्यक्ति
को गुरु बनाने
की जरूरत न
रहेगी। वह तो
तभी तक जरूरत
है, जब तक
तुम सीधा नहीं
सुन सकते। तब
तक तुम्हें एक
मध्यस्थ की
जरूरत है, जो
सीधा सुन सकता
है। वह तुमसे
वही कह रहा है,
जो तुम सीधा
भी सुन सकते
थे। वह तुमसे
वही कह रहा है,
जो तुम भी
सुनने में
समर्थ हो।
लेकिन अभी तुम
समर्थ नहीं हो,
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर इतना
कोलाहल है। यह
कोलाहल जैसे—
जैसे गिरता
जाएगा, और
जैसे—जैसे
तुम्हारे
भीतर की भूमि
के टुकड़े साफ
होते जाएंगे,
और जैसे—जैसे
तुम्हारे
भीतर से कचरा
अलग फिकता
जाएगा और
व्यर्थ के झाड़—झंखाड़ उखड़
जाएंगे, और
तुम्हारे
भीतर वही रह
जाएगा, जो
जरूरी है; तुम
जैसे—जैसे
भीतर साफ—सुथरे
होते जाओगे, वैसे—वैसे
तुम खुद ही पकड़ने
लगोगे अनंत के
स्वर को, अनंत
की वाणी को, अनंत के
शब्द को।
जिस
दिन तुम खुद पकड़ने
लगोगे, उस
दिन बाहर के
गुरु की कोई
जरूरत न रह
जाएगी। वह
केवल मध्यस्थ
था। वह पकड़ता
था, तुम
नहीं पकड़ पाते
थे। वह तुमसे
वही कहता था, जो तुम्हारी
अंतर—आत्मा भी
तुमसे कहेगी।
लेकिन एक—एक
कदम सुख के
अनुभव को, जितना
ज्यादा तुम
पकड़ सको, उसे
पकड़ कर भरते
जाना।
इसमें
एक बात और
खयाल में ले
लेना जरूरी है, जो
बड़ी बुरी तरह
बाधा बनती है।
इससे कहीं
वैसी भूल आप
भी मत कर लेना।
बहुत से लोग
करते हैं। वे
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं कि
कल तो ध्यान
में बड़ा आनंद
आया था, आज
वैसा आनंद
नहीं आया।
शुरू में तो
ध्यान में बड़ा
आनंद आया था, अब वैसा
नहीं आ रहा है,
कोई आ कर
कहता है। वह
बड़ा परेशान है
इससे।
ध्यान
रहे,
इस सूत्र का
यह अर्थ नहीं
है। कल जो
ध्यान आया था,
उसे अगर तुम
आज मांगोगे, तो वह नहीं
आएगा।
क्योंकि आनंद
जबर्दस्ती
नहीं लाया जा
सकता है। उसकी
कोई अपेक्षा
भी नहीं की जा
सकती। उसके
लिए अगर तुमने
अपेक्षा की, तो तुम इतने
तन जाओगे कि
वह नहीं आएगा।
इसलिए अक्सर
ऐसा होता है
कि पहली दफा
जो लोग ध्यान
शुरू करते हैं,
तो उन्हें
जैसा आनंद
अनुभव होता है,
फिर उन्हें
बाद में नहीं
होता। उसका
कारण वे खुद
ही हैं।
क्योंकि जो
पहली दफा उनको
अनुभव में आया,
उस वक्त तो
कोई
प्रतीक्षा भी
नहीं थी, उन्हें
पता भी नहीं
था, कोई
तनाव भी नहीं
था कि आना
चाहिए। नहीं
आया तो दुखी
हो जाएंगे, यह भी नहीं
था। कुछ पता
ही नहीं था।
वे भोले— भाले
थे। उस भोले—
भाले अपेक्षा—रहित
मन में आनंद
उतरा था।
एक
दफे आनंद उतर
आया,
तो अब उनकी
अपेक्षा है।
ध्यान में खड़े
होते हैं, तो
उनकी शर्त है
कि अब आनंद
आना चाहिए। अब
वे तने हुए
हैं, अब वे खिंचे हुए
हैं। अब ध्यान
नहीं कर रहे
हैं, अब वे
सिर्फ आनंद की
मांग कर रहे
हैं। पहली दफा
आया था, तब
कोई मांग नहीं
थी, अब
मांग है। अब
वह न आएगा।
आपने उसकी
बुनियादी
आधारशिला बदल
ली।
इस
सूत्र का यह
अर्थ नहीं है
कि जो मिला है, उसको
मांगो। इस
सूत्र का अर्थ
है, जो भी
मिला है, उसको
जीयो, स्मरण
करो। लेकिन
उसकी
पुनरुक्ति की
मांग मत करो, तो वह
पुनरुक्त
होगा। उसको
मांगो मत, तो
वह मिलेगा।
उसको
जबर्दस्ती
लाने की कोशिश
मत करो।
क्योंकि जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है, उसके साथ
जबर्दस्ती
नहीं हो सकती।
सिर्फ
निकृष्ट के
साथ
जबर्दस्ती हो
सकती है।
श्रेष्ठ के
साथ
जबर्दस्ती
नहीं हो सकती।
तुमने
जबर्दस्ती की
कि वह टूट
जाएगा।
एक
अजनबी आदमी
तुम्हें
मिलता है। तुम
प्रेम में पड़
जाते हो, बड़ा
सुख मिलता है।
फिर तुम विवाह
कर लेते हो और
फिर वैसा सुख
नहीं मिलता।
वही हो रहा है।
अब तुम्हारी
अपेक्षा है कि
अब वह सुख
कहां है, लाओ?
जो सुख पहले
दिन जाना था, वह वापस लाओ।
कोई भी नहीं
ला सकता
दुनिया में।
कोई उसे खींच—तान
कर नहीं लाया
जा सकता।
तुम
अपनी पत्नी से
मांग रहे हो
कि जब तू मेरी
प्रेयसी थी, और
जैसा सुख का
क्षण तूने
मुझे दिया था,
अब क्यों
नहीं दे रही
है? क्या
तेरा प्रेम
खतम हो गया? पत्नी पति
से कह रही है, अब तुम उस
तरह की बातें
नहीं करते, उस तरह का
प्रेम प्रकट
नहीं करते, जैसा तुम
पहले करते थे!
क्या बात है? कहीं किसी
और के साथ तो
तुम प्रेम में
नहीं उलझ गए
हो? अब पति—पत्नी
चिंतित हैं, परेशान हैं।
एक—दूसरे पर
पहरा दे रहे
हैं। और एक—दूसरे
से मांग कर
रहे हैं। और
कुछ भी हाथ
नहीं आ रहा है।
और जीवन रिक्त
होता जाता है,
चुकता जाता
है। अब वे
केवल एक—दूसरे
को कष्ट दे
रहे हैं। कष्ट
का कारण वही
है। जो पहले
दिन घटा था, वह अनजान
में घटा था।
उस दिन वह
तुम्हारी
पत्नी न थी, उस दिन
तुम्हारा कोई
बल न था उसके
ऊपर। उस दिन
तुम मांग नहीं
सकते थे, उस
दिन दिया था।
उस दिन तुमने
भी दिया था बिना
मांगे। अनजान
में घटना घटी
थी। जो अनजान
में घटा था, अब तुम जान
कर घटाना
चाहते हो। तुम
एक नई शर्त
प्रविष्ट कर
रहे हो, वह
शर्त सब खराब
कर देगी।
प्रेयसी
और प्रेमी के
भीतर जो प्रेम
की धारा होती
है,
वह पति—पत्नी
के बीच नहीं
रह जाती है।
बडा कठिन है।
असंभव है।
पहले
दिन जब तुम
ध्यान में
उतरे हो, तो जो
सुख अनुभव
होता है, वह
दूसरे दिन
नहीं होगा।
क्योंकि
दूसरे दिन तुम
तैयारी से आ
रहे हो कि अब
सुख लेने जा
रहे हैं। यह
तैयारी पहले
दिन नहीं थी, ध्यान रखो।
दूसरे दिन भी
उसी तरह गैर—तैयार
आओ, जैसे
पहले दिन आए
थे, और भी बड़ा
सुख घटेगा।
तीसरे दिन और
भी गैर—तैयार
हो कर आओ।
मांग ही मत
करो, सिर्फ
ध्यान करो।
पूछो ही मत कि
अब यह कब होगा?
यह बात ही
मत उठाओ। तुम
तो सिर्फ
ध्यान करो, यह बढ़ता
जाएगा।
इस
सूत्र का अर्थ
है कि जो
तुम्हारा सुख
है,
उसे इकट्ठा
करो। उसे पुन: जीयो, लेकिन
उसकी पुनरुक्ति
की कामना मत
करना।
पुन:
जीने का मतलब
है कि पीछे से
जो तुमने इकट्ठा
किया है, उसका
बार—बार स्वाद
लो, उसकी
जुगाली करो।
भैंस—गाय
जुगाली करना
जानती हैं, वह सीखो। वह
भोजन कर लेती
हैं, फिर
उसकी जुगाली
करती हैं, बार—बार
चबाती हैं। जो
सुख का अनुभव
हो, उसकी जुगाली
करो।
दुख
के अनुभव की
तुम काफी करते
हो,
इसलिए
जुगाली तो तुम
जानते ही हो।
कोई आदमी एक
दफा गाली दे दे, तो
तुम पचास बार
उसकी गाली
अपने भीतर
दोहराते हो, कि उसने ऐसा
कहा। फिर— फिर
तुम जोश में आ
जाते हो। क्या
लेना है?
उसने एक दफा
दिया, तुम
पचास दफे दे
रहे हो! रात
तुम्हें नींद
नहीं आती कि
उसने गाली दी।
अब तुम उसकी
जुगाली किए जा
रहे हो। गाली
में इतना क्या
रस है? जरा
सा दुख हो जाए,
तो तुम फिर
उसको सोचते ही
चले जाते हो, सोचते ही
चले जाते हो, कि ऐसा
क्यों हुआ, ऐसा नहीं
होना था!
सुख
की इस भांति
जुगाली करो।
दुख की जुगाली
करके तुमने
खूब दुख बढ़ा
लिया है। तो
सुख की जुगाली
करो,
और खूब सुख
बढ़ जाएगा।
लेकिन मांग मत
करो। भविष्य
में तो जाओ
खाली। अतीत से
रस को खींच लो
पूरा अपने
प्राणों में,
लेकिन
भविष्य में
जाओ खाली, शून्य।
वह जो अतीत से
तुम सुख का रस
खींच रहे हो, वह तुम्हें
भविष्य के लिए
तैयार कर रहा
है। तुम्हें
मांगने की
जरूरत नहीं है,
तुम्हारा
सुख बढ़ता चला
जाएगा।
छठवां
सूत्र, 'और उन
स्वर—लहरियों
से स्वर—बद्धता
का पाठ सीखो।
जीवन की अपनी
भाषा है और वह
कभी मूक नहीं
रहता, और
उसकी वाणी एक
चीत्कार नहीं
है, जैसा
कि तुम जो
बहरे हो, कदाचित
समझो। वह तो
एक गीत है।
उससे सीखो कि
तुम स्वयं उस सुस्वरता
के अंश हो, और
उससे सुस्वरता
के नियमों का
पालन करना
सीखो।’
यह
जो संगीत के
खंड तुम भीतर
इकट्ठे कर
लोगे, इनको
खंडों की
भांति इकट्ठा
मत करना, इनके
बीच संबंध भी
खोजना।
कठिन
है। और जीवन
की कला चाहिए।
बचपन में
तितली के साथ
दौड़ कर एक सुख
मिला था, वह
तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
फिर पहली बार
तुम किसी के
प्रेम में गिर
गए थे, और
तब तुमने एक
आनंद का
अतिरेक अपने
में अनुभव
किया था, वह
भी तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
और तब किसी एक
रात सागर के
किनारे बैठ कर
सागर के गर्जन
में तुम डूब
गए थे, वह
भी तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
और कभी अकारण
ही, खाली
तुम बैठे थे
और अचानक
तुमने पाया कि
सब मौन और
शांत हो गया, वह भी
तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
ऐसे दस—पांच
अनुभव
तुम्हारे
भीतर पड़े हैं।
ये टुकडे—टुकड़े
हैं। इनमें
तुमने कभी यह
खोजने की
कोशिश नहीं की
है कि इन सबके
भीतर कामन
एलिमेन्ट
क्या है? इन
सबके भीतर सम—स्वरता
कहां है?
तितली
के पीछे दौड़ता
हुआ बच्चा और
अपनी प्रेयसी
के पास बैठा
हुआ युवक—इन
दोनों के बीच
क्या मेल है? दोनों
से सुख मिला
है, और
दोनों से एक
संगीत का
अनुभव हुआ है,
और दोनों के
बीच आनंद की
कोई झलक थी, तो जरूर
दोनों के बीच
कोई तत्व समान
होना चाहिए।
बात बिलकुल
भिन्न है।
तितली के पीछे
दौड़ता
हुआ बच्चा, अपनी
प्रेयसी के
पास बैठा हुआ
जवान, ओं का पाठ करता
हुआ का, कहीं
इनमें कोई
तालमेल ऊपर से
नहीं दिखता; लेकिन भीतर
जरूर कोई घटना
समान है।
क्योंकि तीनों
कहते हैं, बड़ा
आनंद है। वे
स्वाद जरूर
समान हैं, भोजन
कितने ही
भिन्न हों।
तो
जरा खोजना कि
तितली के पीछे
दौड़ते हुए
बच्चे को जो
सुख मिला था, वह
क्या था? एकाग्रता
थी, तितली
ही रह गई थी।
सारा जगत भूल
गया था। बच्चा
दौड़ रहा है
उसके पीछे, यह भी उसे
पता नहीं था। दौड़ने
के साथ एक हो
गया था। उसकी आंखें
तितली पर बंध
गई थीं। चित्त
में सारे
विचार खो गए
थे, क्योंकि
तितली पकड़नी
थी, उतना
ही विचार था।
वह भी विचार
था, ऐसा
कहना कठिन है।
एक भाव था। उस
भाव—एकाग्रता
के कारण सुख
का अनुभव हुआ
था।
फिर
जवान हो गया
था वही बच्चा
जो तितली पकड़
रहा था, फिर
वह अपनी
प्रेयसी के
पास बैठा है
एक तारों भरी
रात में।
तितली और
प्रेयसी में
कोई संबंध
नहीं है।
लेकिन इस
प्रेयसी के
पास बैठ कर वह
पुन: एकाग्र
हो गया है। बस
एक ही भाव रह
गया, जगत
मिट गया है, यह प्रेयसी
ही रह गई है।
अब कोई मन में
उसके विचार नहीं
है। इस
प्रेयसी की
मौजूदगी में
वह उसी को
पीता है। अब
कोई दूसरा भाव,
कोई दूसरा
विचार उसको
नहीं पकड़ता।
इस क्षण में
वह पुन: भाव—एकाग्रता
में डूब गया
है।
फिर
का ओं का
पाठ करता है।
कहां तितली, कहां
प्रेयसी, कहां
रूँ का
पाठ! कहां यह
मंदिर का कोना,
धूप—दीप—बाती!
कोई संबंध
नहीं दिखता।
लेकिन ओं
के पाठ में वह
फिर भाव—एकाग्र
हो गया। जगत
मिट गया है, ओंकार का
नाद ही सब कुछ
है। भूल गया
है अपने को।
वह जो मंत्र
बोल रहा है, उसका भी पता
नहीं है।
मंत्र ही रह
गया है, ओं की ध्वनि ही
रह गई है। फिर
भाव—एकाग्र हो
गया है। तब आपको
समझ में आएगा
कि तीन खंड
हैं, अब
खंड न रहे।
इनके भीतर एक
सूत्र मिल गया।
वही संगीत है,
वही सम—स्वरता
है।
तो
अपने जीवन—
अनुभव, अपने
आनंद, अपने
संगीत के बीच
जो खंड तुम
इकट्ठे कर लो,
उनके बीच सम—स्वरता, हार्मनी को
खोजना। और तब
तुम बहुत चकित
हो जाओगे। तब
तुम बहुत चकित
हो जाओगे कि
कितने ही
भिन्न दिखाई पड़ने
वाले अनुभव भी,
अगर उनके
भीतर सुख है, तो समान
होते हैं। और
कितने ही
भिन्न दिखाई
पड़ने वाले
अनुभव, अगर
उनके भीतर दुख
है, तो
समान होते हैं।
दुख
की एक ही भाषा
है। सुख की भी
एक ही भाषा है।
इनको अलग—अलग
देखते रहोगे, तो
तुम्हें जीवन—दृष्टि
न मिलेगी। तब
तुम सोचते
रहोगे.......कि
बूढ़ा ओंकार का
पाठ करता हुआ
सोचेगा कि जवान
नासमझ है, कि
कहां
स्त्रियों के
पीछे भटक रहा
है? जवान
प्रेयसी के
पास बैठा हुआ
बच्चों को देख
कर समझेगा कि
क्यों व्यर्थ
अपना समय खो
रहे हैं, तितलियों
के पीछे भटक
रहे हैं!
तब
ये एक—दूसरे
को न समझ
पाएंगे।
इसलिए नहीं
समझ पाएंगे कि
का अपनी ही
जवानी को भी न
समझ पाया, अपने
बचपन को भी
नहीं समझ पाया।
वह का हो गया
है, लेकिन
उसे यह अभी तक
पता नहीं चल
पाया है, कि
जवानी, बचपन,
बुढ़ापा,
एक ही जीवन—
धारा के अंग
हैं। और जब भी
कहीं कोई सुख
मिलता है, कोई
आनंद की
प्रतीति होती
है, तो
चाहे बाहरी
वातावरण
कितना ही
भिन्न हो, भीतर
की घटना एक ही
होती है।
तितली
के पीछे दौड़ो
कि ओंम का
पाठ करो, बराबर
है। तितली के
पीछे दौड़ना, बच्चे का
ढंग है ओंकार
का पाठ करने
का। ओंकार का
पाठ करना, के
का ढंग है
तितली के पीछे
दौड़ने का।
जवान भी अपनी
प्रेयसी के
पास ओंकार का
पाठ कर रहा है
और तितली के
पीछे दौड़ रहा
है। यह जिस
दिन तुम्हें
दिखाई पड़ेगा,
उस दिन सब
खंड एक संगीत
में गिर
जाएंगे, और
तुम्हें भीतर
का सूत्र मिल
जाएगा। तब
माला के मनके
महत्वपूर्ण न
रह जाएंगे, भीतर का
धागा
तुम्हारी पकड़
में आ गया। और
वही धागा परम—सत्य
की तरफ ले जा
सकता है।
तब
का बच्चे पर
नाराज नहीं
होता, क्योंकि
वह अपने बचपन
को समझ चुका
है और आत्मसात
कर लिया है।
जो का बच्चे
पर नाराज हो
रहा है, वह
ठीक से
बुद्धिमान
नहीं है। वह
अपने बचपन के
प्रति ही
नाराज है। असल
में, दूसरे
बच्चे पर तो
वह प्रक्षेपण
कर रहा है। जो
का जवान को कह
रहा है कि
क्यों जिंदगी
नष्ट कर रहे
हो, वह
जीवन के अनुभव
को समझ नहीं
पाया। उसका
किसी जवान से
यह कहना है कि
तुम जीवन नष्ट
कर रहे हो, इस
बात की
प्रतीति है, कि वह समझता
है कि जवानी
में उसने जीवन
नष्ट किया, और कुछ अर्थ
नहीं है इसका।
इस बूढ़े के
जीवन में
जवानी और बचपन
एकाकार नहीं
हो पाए। यह
बूढ़ा खंड—खंड
में जी रहा है।
खंड—खंड
में दुख है।
नहीं तो का
बच्चे को
सहायता देगा
तितली पकड़ने
में। और का
जवान को
सहायता देगा
प्रेम की कला
में उतरने में।
क्योंकि का
जानता है कि
वह सब ओंकार
का ही नाद है
अलग—अलग
अवस्थाओं में।
तब वह नाराज
नहीं है। तब
वह किसी चीज
पर नाराज नहीं
है। तब उसकी
कोई शिकायत
नहीं है।
और
ध्यान रहे, इस
तरह के बूढे
को ही हम ऋषि
कह सकते हैं, हर किसी के
को नहीं। तो
के तो सब हो
जाते हैं उम्र
से, लेकिन
वार्धक्य
बहुत कम लोगों
को उपलब्ध होता
है। वार्धक्य
का अर्थ है, जीवन का
सारा अनुभव निचोड़
लिया।
इसलिए
हमने इस देश
में बूढ़ो
को आदर दिया
था,
बुढ़ापे के
कारण नहीं। के
को हमने आदर
दिया था, क्योंकि
बच्चे के पास
तितली पकड़ने
का अनुभव है, लेकिन ओंकार
का अनुभव नहीं
है। जवान के
पास प्रेयसी
के पास बैठने
का अनुभव है, लेकिन ओंकार
का अनुभव नहीं
है। बूढ़े के
पास तीनों हैं।
उसके पास सब
है। इसलिए
हमने को के
चरणों में
झुकने को कहा
था, कि
झुकना। इसलिए
नहीं कि उसकी
उम्र ज्यादा
है, बल्कि
इसलिए कि उसके
मनके सब पूरे
हो गए और हो
सकता है कि
उसने उस धागे
को पकड लिया
हो। जिसने
नहीं पकड़ा है,
वह बूढ़ा हुआ
ही नहीं। उसने
बाल धूप में
पका लिए हैं।
उसकी उम्र समय
के भीतर गुजरी
है, लेकिन
उसने समयातीत
को अनुभव नहीं
किया है। क्या
है समयातीत?
विभिन्न, अनंत
अनुभवों के
बीच एक स्वर—संगीत
को पकड़ लेना समयातीत
है। वह समय के
बाहर है।
और
जिसने उसको
पकड़ लिया है, उसके
लिए इस जगत
में फिर कोई
दुख नहीं है।
उसके लिए इस
जगत में फिर
कुछ भी बंधन
नहीं है। उसने
इस जीवन का
सार पा लिया
है। सार पाते
ही व्यक्ति
जीवन से मुक्त
हो जाता है।
जीवन
है ही इसलिए
कि तुम सार पा
सको। अगर तुम
सार न पाओगे
तो के से फिर
तुम्हें बच्चा
होना पड़ेगा, फिर
नया जन्म लेना
पड़ेगा, फिर
तुम्हें
तितलियां पकड़नी
पड़ेगी, और
फिर तुम्हें प्रेयसियों
के पास बैठना
पड़ेगा, फिर
तुम्हें
ओंकार का नाद
करना पड़ेगा।
और अगर फिर भी
तुम जीवन के
पूरे सार का
सूत्र न पकड़
पाए, फिर
तुम्हें
बच्चा होना
पड़ेगा। अगर
तुम पूरे जीवन
को एकसूत्रता
में पकड़ लो, तो तुम्हारे
फिर बच्चे
होने की कोई
जरूरत नहीं है।
बच्चा होने का
मतलब है कि
तुम्हें फिर
छोटी क्लास
में वापस भेजा
गया है। मैट्रिक
तक आ गए थे, फिर
तुम्हें उतार
कर पहली क्लास
में बिठा दिया।
बहुत दुखद है।
इसलिए
इस मुल्क में
हमारे मन की
पीड़ा एक ही रही
है कि आवागमन
से कैसे
छुटकारा हो? उसका
कुल मतलब यह
है कि बार—बार
का हो कर
बच्चा होने का
मतलब क्या
होता है? उसका
मतलब यह होता
है कि वह समय
व्यर्थ गया।
पहुंच गए
आखिरी क्लास
तक, फिर
उतार कर पहली
क्लास में
बिठा दिया
गया! वह तो
आपको नया शरीर
मिल जाता है, इसलिए
ज्यादा पीड़ा
नहीं होती।
अगर परमात्मा
फिर से सृष्टि
बनाए, तो
उससे यह
प्रार्थना
करनी चाहिए कि
दूसरा शरीर मत
देना। के को
वापस बच्चा
बना देना, वैसे
का वैसा। फिर
वह तितलियां पकड़े तो
ज्यादा लाभ
होगा। वह
दूसरा शरीर
मिल जाता है, तो आप भूल ही
जाते हैं कि
क्या मामला
है! आप क्या कर
रहे हैं! वह तो
बेहतर यही हो
कि बूढ़े को के
ही रहते हुए
फिर तितलियां पकड़वाना, फिर
स्त्रियों के
पीछे दौडवाना,
फिर मंदिर
में पहुंचाना।
मगर हो यही
रहा है, क्योंकि
भीतर की आत्मा
तो वही रहती
है।
'उन स्वर—लहरियों
से स्वर—बद्धता
का पाठ सीखो।’
वही
पाठ जीवन का
संचित सार है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें