दिनांक
4 फरवरी, 1968;
दोपहर
ध्यान
शिविर आजोल।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
मनुष्य
के मन की दशा—
मधुमक्खियों
के छेड़े गए
छत्ते की
भांति मनुष्य
के मन की दशा
है। विचार और
विचार और
विचार और विचारों
की यह
भिनभिनाहट
मक्खियों की
तरह मनुष्य के
मन को घेरे
रहती है। इन
विचारों में
घिरा हुआ
मनुष्य
अशांति में, तनाव
में और चिंता
में जीता है।
जीवन को जानने
और पहचानने के
लिए मन चाहिए
एक झील की
भांति शांत, जिस पर कोई
लहर न उठती हो।
जीवन से
परिचित होने
के लिए मन
चाहिए एक
दर्पण की
भांति निर्मल,
जिस पर कोई
धूल न जमी हो।
और
हमारे पास मन
है एक
मधुमक्खियों
के छत्ते की
भांति। न तो
वह दर्पण है, न
वह एक शांत
झील है। और
ऐसे मन को
लेकर अगर हम
सोचते हों कि
हम कुछ जान
सकेंगे, हम
कुछ पा सकेंगे
या हम कुछ हो
सकेंगे तो हम
बड़ी भूल में
हैं।
विचारों
की इस अति
तीव्र धारा से
मुक्त होना अत्यंत
आवश्यक है।
विचार और
विचार और
विचार, स्वास्थ्य
के लक्षण नहीं
हैं, रुग्ण—चित्त
की दशा है। जब
किसी का मन
परिपूर्ण रूप
से शुद्ध और
स्वच्छ होता
है और स्वस्थ
होता है तो
विचार शून्य हो
जाते हैं।
विवेक शेष रह
जाता है और
विचार शून्य
हो जाते हैं।
और जब कोई मन
अस्वस्थ और
बीमार होता है
तो विवेक
शून्य हो जाता
है और केवल
विचारों की
भीड़ रह जाती
है। हम
विचारों की
भीड़ में ही
जीते हैं।
सुबह से सांझ,
सांझ से
सुबह, जन्म
से लेकर
मृत्यु तक हम
विचारों की एक
भीड़ में ही
जीते हैं।
इस
भीड़ से कैसे
मुक्त हुआ जाए?
सुबह
कुछ बातें
हमने की हैं।
कुछ उस संबंध
में प्रश्न
पूछे गए हैं, उन
प्रश्नों के
मैं अभी उत्तर
दूंगा।
पहली
बात,
विचारों से
मुक्त होना
दूसरा कदम है।
पहला कदम तो
यह है कि हम
विचारों का
संग्रह न करें।
क्योंकि एक
आदमी एक तरफ
विचारों का
संग्रह करता
चला जाए और
दूसरी तरफ
विचारों से
मुक्त होना
चाहे तो कैसे
मुक्त हो
सकेगा? एक
आदमी वृक्ष के
पत्तों से
मुक्त होना
चाहे और वृक्ष
की जड़ों को
पानी पिलाता
चला जाए, तो
कैसे वृक्ष के
पत्तों से
मुक्त हो
सकेगा? लेकिन
जड़ों को पानी
पिलाते वक्त
हमें यह खयाल
में ही नहीं
आता है कि
जड़ों और पत्तों
का कोई संबंध
है—कोई गहरा
संबंध है।
जड़ें अलग
मालूम होती
हैं, पत्ते
अलग मालूम
होते हैं, लेकिन
पत्ते जड़ों से
अलग नहीं हैं
और जड़ों को दिया
गया पानी
पत्तों को ही
मिलता है।
तो
विचार हम
संगृहीत करते
हैं और विचार
की जड़ों को
पानी देते हैं
और फिर जब
विचार मन को
बहुत बेचैन और
अशांत करते
हैं तो हम
उनको शांत
करने का उपाय
भी करना चाहते
हैं। इसके
पहले कि किसी
वृक्ष में
पत्ते आने बंद
हो जाएं, हमें
उसकी जड़ों को
पानी देना बंद
कर देना होगा।
हम
विचारों की इस
भीड़ को पानी
देते हैं, वह
हमें समझ लेना
चाहिए कि हम
किस भांति
पानी देते हैं।
और अगर वह समझ
में आ जाए तो
हम पानी देना
बंद कर देंगे।
फिर वृक्ष के
कुम्हला जाने
में बहुत देर
नहीं है। किस
तरह हम पानी
देते हैं?
पहली
बात,
हजारों
वर्ष से आदमी
के मन में यह
भ्रम पैदा किया
गया है कि तुम
दूसरों के
विचारों को
संग्रह करके ज्ञान
को उपलब्ध हो
सकते हो। यह
सरासर झूठी और
एकदम गलत बात
है। कोई
मनुष्य किसी
दूसरे के
विचारों के
संग्रह से कभी
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हो सकता। ज्ञान
आता है भीतर
से और विचार
आते हैं बाहर
से। ज्ञान
होता है अपना
और विचार होते
हैं हमेशा
पराए, हमेशा
बारोड, हमेशा
उधार। ज्ञान
है निज की
स्फुरणा, वह
जो स्वयं के
भीतर छिपा है
उसका प्रकट हो
जाना और विचार
हैं दूसरों की
जूठन को
इकट्ठा कर लेना—चाहे
गीता से
इकट्ठा कर लें,
चाहे कुरान
से, चाहे
बाइबिल से, चाहे
धर्मगुरुओं
से इकट्ठा कर
लें, चाहे
शिक्षकों से।
जो
भी हम दूसरे
से इकट्ठा कर
लेते हैं वह
हमारा ज्ञान
नहीं बनता, बल्कि
वह हमारे
अज्ञान को
छिपाने का
मार्ग और उपाय
बन जाता है।
और जिस आदमी
का अज्ञान छिप
जाता है वह
आदमी जीवन में
कभी ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
चूंकि हमें यह
खयाल है कि यह
हमारा ज्ञान
है इसलिए इसे
हम प्राणपन से
पकड़े रहते हैं।
विचारों को हम
पकड़े हुए हैं।
हम उन्हें
छोड़ने की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते।
नीचे से हम
उनको सम्हाले
हुए हैं, क्योंकि
हमें यह खयाल
है यही हमारा ज्ञान
है। अगर यह
छूट गए, तो
हम तो अज्ञानी
हो जाएंगे; लेकिन स्मरण
रखिए, विचारों
को कोई कितना
ही पकड़े रहे
उससे ज्ञानी
नहीं होता।
एक
आदमी एक कुआं
बनाता है—जमीन
खोदता है, पत्थर
निकालता है, मिट्टी
निकालता है और
फिर नीचे झरने
फूटते हैं
कुएं के और
कुएं में पानी
भर जाता है।
कुएं में पानी
मौजूद था, पानी
कहीं से लाना
नहीं पड़ा।
केवल बीच में
कुछ पत्थर और
मिट्टी की
पर्तें थीं उन्हें
अलग कर देना
पड़ा। कोई
अवरोध थे, कोई
बाधाएं थीं, उनको अलग कर
दिया और पानी
प्रकट हो गया।
कुएं में पानी
लाना नहीं
पड़ता, पानी
आता है, लेकिन
जो चीज बीच
में रुकावट थी
उसको दूर कर देनी
होती है।
ज्ञान
भीतर मौजूद है, उसे
कहीं से लाना
नहीं है, उसके
झरने भीतर
छिपे हैं, केवल
बीच की बाधाएं—पत्थर
और मिट्टी अलग
कर देनी है
खोद कर और फिर ज्ञान
के झरने प्रकट
होने शुरू हो
जाएंगे।
लेकिन
कुआं भी बनता
है और हौज भी
बनती है। हौज
के बनने का
रास्ता अलग है।
हौज बनाने में
कहीं झरने
नहीं खोजने
पड़ते पानी के।
हौज बनाने का
रास्ता कुएं
से बिलकुल
विपरीत है।
हौज बनाने के
लिए,
मिट्टी—
पत्थर खोदने
नहीं पड़ते, लाकर जोड्ने
पड़ते हैं और
मिट्टी—पत्थर
की दीवाल
उठानी पड़ती है।
फिर दीवाल भी
बन जाती है, लेकिन पानी
नहीं आता है।
फिर किन्हीं
दूसरों के
कुओं से पानी
उधार लाकर उस
हौज में भर
लेना पड़ता है।
ऊपर से देखने
पर हौज कुएं
का धोखा देने
लगती है। ऐसा
लगता है कि कुआं
आ गया। हौज
में पानी
दिखाई पड़ता है,
कुएं में भी
पानी दिखाई
पड़ता है।
लेकिन हौज और
कुएं के पानी
में जमीन—आसमान
का फर्क है।
पहला
फर्क तो यह है
कि हौज के पास
अपना कोई पानी
नहीं है। और
जो पानी अपना
नहीं, उससे
दुनिया में
कभी कोई प्यास
नहीं बुझती।
हौज के पास जो
भी है, उधार
है। और उधार
बहुत जल्दी
बासा हो जाता
है और सड़ जाता
है। क्योंकि
जो उधार है वह
जीवंत नहीं
होता, वह
मृत होता है।
हौज अगर भरी
रहेगी तो सड़
जाएगी, बहुत
जल्दी बदबू
फेंकने लगेगी।
लेकिन
कुएं के पास
अपने जल के
स्रोत होते
हैं,
कुआं सड़
नहीं जाता। और
कुएं के पास
अपना पानी
होता है।
इसलिए हौज और
कुएं के
प्राणों में
दो अलग प्रक्रियाएं
चलती हैं। हौज
चाहती है कि
मेरे पानी को
कोई छीन न ले, क्योंकि
मेरा पानी गया
कि मैं खाली
हो जाऊंगी। और
कुआं चाहता है
कि कोई मेरे
पानी को उलीच
ले, कोई
मेरे पानी को
ले ले, ताकि
मुझमें और नया
पानी भर जाए—
ताजा और
ज्यादा जीवंत।
कुआं पुकारता
है कि मेरे
पानी को ले लो
और बांट लो! और
हौज पुकारती
है कि दूर
रहना, मेरे
पानी को मत
छूना, मेरे
पानी को मत ले
लेना। हौज
चाहती है कि
किसी के पास
पानी हो तो वह
भी यहां लाकर
डाल दो मुझमें,
ताकि मेरी
संपदा बढ़ जाए।
और कुआं चाहता
है कि किसी के
पास पात्र हो
तो पानी ले जाए,
ताकि जो
पानी बासा पड़
गया है, बहुत
दिन का भरा
हुआ हो गया है,
उससे मैं
मुक्त हो जाऊं
और नया पानी
मुझे उपलब्ध
हो जाए।
कुआं
बांटना चाहता
है,
हौज संग्रह
करना चाहती है।
कुएं के पास
झरने हैं जो
सागर से जुड़े
हैं। कुआं
छोटा सा दिखाई
पड़ता है, लेकिन
गहरे में अनंत
से जुड़ा हुआ
है। हौज कितनी
ही बड़ी दिखाई
पड़ती हो, उसका
संबंध किसी से
भी नहीं है, वह अपने में
ही समाप्त है
और बंद है।
उसके पास कोई
झरने नहीं है
कोई। उसके पास
कोई दूर से
जोड्ने वाले
कोई मार्ग नहीं
हैं। इसलिए
अगर कोई हौज
से जाकर कहे
कि सागर भी
होता है। हौज
हंसेगी, कहेगी,
कहीं सागर
होता है! सब
हौजें होती
हैं। कहीं कोई
सागर नहीं
होता।
क्योंकि हौज को
सागर का कोई
पता नहीं है!
लेकिन
अगर कोई कुएं
से कहे कि कुआं
तू बहुत अच्छा
है,
तो कुआं
सोचेगा कि
मेरा अपना
क्या है—सब
सागर का है, मैं हूं
कहां? मेरे
पास जो भी आता
है वह दूर
किसी और से
जुड़ा है। कुएं
का अपना कोई
अहंकार नहीं
हो सकता कि 'मैं हूं।’ हौज का अपना
अहंकार होता
है कि 'मैं
हूं।' और
बड़े मजे की
बात है, कुआं
बहुत बड़ा है
और हौज बहुत
छोटी है। कुएं
के पास अपनी
संपदा है और
हौज के पास
अपनी कोई
संपदा नहीं है।
आदमी
का मन भी कुआं
बन सकता है या
हौज बन सकता
है—ये दो ही
रास्ते हैं
आदमी की
बुद्धि के बन
जाने के लिए। और
जिस आदमी की
बुद्धि हौज बन
जाती है वह
आदमी धीरे—धीरे
पागल हो जाता
है।
और
हम सबकी
बुद्धि हौज बन
गई है। हमने कुआं
बनाया नहीं, हमने
हौज बनाई है।
हम दुनिया भर
से बातों को
इकट्ठा कर
लेते हैं—किताबों
से, शास्त्रों
से, उपदेशों
से और उन सबको
इकट्ठा कर
लेते हैं और
सोचते हैं हम
तानी हो गए
हैं। हम हौज
की गलती में
पड़ गए। हौज
समझ ली कि हम कुआं
हो गए। भ्रम
पैदा हो सकता
है, क्योंकि
दोनों में
पानी दिखाई
पड़ता है।
एक
पंडित के पास
भी ज्ञान
दिखाई पड़ता है, एक
ज्ञानी के पास
भी ज्ञान
दिखाई पड़ता है।
लेकिन पंडित
हौज है और
ज्ञानी कुआं
है। इन दोनों
में फर्क है।
और यह फर्क
इतना गहरा और
बुनियादी है
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
क्योंकि
पंडित का ज्ञान
उधार और बासा
और सड़ा हुआ
जान है।
दुनिया में
जितना उपद्रव
हुआ है वह
पंडित के ज्ञान
से हुआ है।
हिंदू और
मुसलमान के
बीच जो झगड़ा
है वह किसका झगड़ा
है? दो
ज्ञानियों का
झगड़ा है। जैन
और हिंदू के
बीच जो विरोध
है, वह दो
ज्ञानियों का
विरोध है। वह
पंडितों का
विरोध है, वह
उन
मस्तिष्कों
का विरोध है
जो हौज हैं, सड़े हुए हैं,
उधार और
बासे हैं।
सारी
दुनिया में जो
इतना उपद्रव
हुआ है, हौज
बन गए
मस्तिष्कों
के कारण ही। नहीं
तो आदमी हैं
दुनिया में—न
कोई ईसाई है, न कोई हिंदू
है, न कोई
मुसलमान है, न कोई जैन है;
लेकिन
हौजों के लेबल
हैं। क्योंकि
जिस हौज ने
जिस—जिस कुएं
से पानी उधार
भरा है वह उसी......उसी
कुएं का लेबल
अपने ऊपर
चिपकाए हुए
हैं कि मैंने
तो गीता से
पानी लिया है
तो मैं हिंदू
हूं मैंने
कुरान से पानी
लिया है तो
मैं मुसलमान
हूं। लेकिन
ज्ञानी तो
किसी से पानी
लेता नहीं है,
पानी उसके
भीतर से आता
है, परमात्मा
से आता है।
इसलिए न वह
हिंदू हो सकता
है, न वह
मुसलमान हो
सकता है, न
वह ईसाई हो
सकता है।
जानी
किसी
संप्रदाय का
नहीं हो सकता।
लेकिन पंडित
बिना
संप्रदाय के
होना असंभव है।
पंडित जब भी
होगा, संप्रदाय
का ही होगा।
हमने अपने मन
को एक बासी, उधार चीज
बना ली है।
फिर इसको हम
पकड़ते हैं।
जैसा मैंने
कहा, हौज
चिल्लाती है
मेरे पानी को
मत छीन लेना!
पानी गया तो
मैं खाली और
रिक्त और
एंप्टी हो
जाऊंगी, मेरे
भीतर तो कुछ
भी नहीं बचेगा।
मेरी संपदा तो
उधार इकट्ठी
की हुई है, इसलिए
कोई छीन न ले।
और
स्मरण रहे, जो
संपदा छीनने
से कम हो जाती
है, वह
हमेशा उधार और
झूठी होती है।
जो संपदा
छीनने से और
बढ़ जाती हो, वही संपदा
केवल सत्य
होती है। जो
संपत्ति बंट
जाने से
समाप्त हो
जाती है वह
संपत्ति ही
नहीं, केवल
संग्रह है। और
जो संपत्ति
बंटने से और
बढ़ जाती हो, वही संपत्ति
है। संपत्ति
का लक्षण ही
यह है कि वह
बंटने से बढ़नी
चाहिए। बंटने
से घटती हो तो
वह संपत्ति
नहीं है और जिस
संपत्ति में
यह भय है कि यह
बंटने से घट जाएगी,
उसको
सम्हालने में
इतनी विपत्ति
पैदा हो जाती
है जिसका कोई
हिसाब नहीं है।
तो
सब उधार
संपत्ति
विपत्ति बन
जाती है, संपत्ति
कभी भी नहीं
बन पाती। फिर
डर पैदा होता
है कि यह कहीं
घट न जाए; तो
उसे हम जोर से
पकड़ते हैं। हम
अपने विचारों
को जोर से
पकड़े हुए हैं।
हम उनको
प्राणों से भी
ज्यादा
सम्हाले हुए
हैं। यह मन
में जितना
कचरा इकट्ठा
हो गया है, यह
आकस्मिक नहीं
है। यह हमने
योजना की है, इसको इकट्ठा
किया है और
इसको सम्हाले
हुए हैं।
तो
अगर हम यह
सोचते हों कि
विचारों के
संग्रह से जान
उत्पन्न हो
सकता है तो हम
विचारों से
कभी मुक्त
नहीं हो सकते
हैं। कैसे
मुक्त हो
सकेंगे? जड़ों
को पानी देंगे
और पत्ते
काटेंगे, यह
नहीं हो सकता।
इसलिए पहली
बुनियादी बात
यह समझ लेनी
जरूरी है कि
जान बात ही
अलग है और
विचारों का
संग्रह बिलकुल
ही अलग बात है।
संग्रह जान
नहीं है, दूसरों
से लिए गए
विचार ज्ञान
नहीं है।
दूसरों से
इकट्ठे किए गए
विचार मनुष्य
को सत्य के या
स्वयं के निकट
नहीं ले जाते
हैं। यह ज्ञान
झूठा है, यह
सूडो नॉलेज है,
यह मिथ्या
ज्ञान है जो
हम दूसरे से
इकट्ठा कर लेते
हैं। इससे
भ्रम पैदा
होता है कि ज्ञान
मिल गया और ज्ञान
मिलता भी नहीं,
ज्ञान से हम
वंचित ही रह
जाते हैं।
यह
ज्ञान वैसा ही
है जैसे तैरने
के संबंध में कोई
शास्त्र पढ़ ले
और तैरने के
संबंध में
इतना जान ले
कि अगर उसे
प्रवचन करना
हो तो प्रवचन
कर दे, अगर
किताब लिखनी
हो तो किताब
लिख दे, लेकिन
कोई आदमी उसे
नदी में धक्का
दे दे तो हमें
पता चल जाए कि
वह तैरना
कितना जानता
था। उसने
किताबों से
तैरने के
संबंध में सब
बातें पढ़ ली
थीं। वह तैरने
के बाबत शानी
मालूम पड़ता था,
लेकिन
तैरने का उसे
कोई भी पता
नहीं।
एक
मुसलमान फकीर
हुआ,
नसरुद्दीन।
वह एक नदी पार
कर रहा था एक
नाव में बैठ
कर। मल्लाह ने
उससे......रास्ते
में दोनों की
कुछ बातचीत
हुई।
नसरुद्दीन
बड़ा जानी आदमी
समझा जाता था।
ज्ञानियों को
हमेशा यह
कोशिश रहती है
कि किसी को अज्ञानी
सिद्ध करने का
मौका मिल जाए
तो वह छोड़
नहीं सकते हैं।
तो उसने, मल्लाह
अकेला था, मल्लाह
से पूछा कि
भाषा जानते हो?
उस मल्लाह
ने कहा भाषा!
बस जितना
बोलता हूं उतना
ही जानता हूं।
पढ़ना—लिखना
मुझे कुछ पता
नहीं है।
नसरुद्दीन
ने कहा तेरा
चार आना जीवन
बेकार हो गया; क्योंकि
जो पढ़ना नहीं
जानता उसकी
जिंदगी में क्या
उसे ज्ञान मिल
सकता है? बिना
पढ़े, पागल!
कहीं ज्ञान
मिला है? लेकिन
मल्लाह
चुपचाप हंसने
लगा। फिर आगे
थोड़े चले और
नसरुद्दीन ने
पूछा कि तुझे
गणित आता है? उस मल्लाह
ने कहा. नहीं, गणित मुझे
बिलकुल नहीं
आता है, ऐसे
ही दो और दो
चार जोड़ लेता
हूं यह बात
दूसरी है।
नसरुद्दीन
ने कहा : तेरा
चार आना जीवन
और बेकार चला
गया;
क्योंकि
जिसे गणित ही
नहीं आता, जिसे
जोड़ ही नहीं
आता है वह
जिंदगी में
क्या जोड़
सकेगा, क्या
जोड़ पाएगा।
अरे, जोड़ना
तो जानना
चाहिए, तो
कुछ जोड़ भी
सकता था। तू
जोड़ेगा क्या?
तेरा आठ आना
जीवन बेकार हो
गया।
फिर
जोर का तूफान
आया और आधी आई
और नाव उलटने
के करीब हो गई।
उस मल्लाह ने
पूछा आपको
तैरना आता है?
नसरुद्दीन
ने कहा मुझे
तैरना नहीं
आता।
उसने
कहा आपकी सोलह
आना जिंदगी
बेकार जाती है।
मैं तो चला। न
मुझे गणित आता
है और न मुझे
भाषा आती है, लेकिन
मुझे तैरना
आता है। तो
मैं तो जाता
हूं— और आपकी
सोलह आना
जिंदगी बेकार हुई
जाती है।
जिंदगी
में कुछ जीवंत
सत्य हैं जो
स्वयं ही जाने
जाते हैं, जो
किताबों से
नहीं जाने जा
सकते हैं, जो
शास्त्रों से
नहीं जाने जा
सकते हैं।
आत्मा का सत्य
या परमात्मा
का; स्वयं
ही जाना जा
सकता है और
कोई जानने का
उपाय नहीं है।
लेकिन
शास्त्रों
में सब बातें
लिखी हैं, उनको
हम पढ़ लेते
हैं, उनको
हम समझ लेते
हैं, वे
हमें कंठस्थ
हो जाती हैं, वे हमें याद
हो जाती हैं।
दूसरों को
बताने के काम
भी आ सकती हैं,
लेकिन उससे
कोई ज्ञान
उपलब्ध नहीं
होता है।
विचार
का संग्रह ज्ञान
का लक्षण नहीं
है अज्ञान का
ही लक्षण है।
क्योंकि जिस
आदमी के पास
अपने विवेक की
शक्ति जाग्रत
हो जाती है, वह
विचार के
संग्रह से
मुक्ति पा
लेता है। फिर
उसे संग्रह
करने का कोई
सवाल नहीं रह
जाता, वह
स्वयं ही
जानता है। और
जो स्वयं
जानना है, वह......वह
मन को
मधुमक्खियों
का छत्ता नहीं
रहने देता है—मन
को एक दर्पण
बना देता है, एक झील बना
देता है।
हमारा
मन
मधुमक्खियों
का भिनभिनाता
छत्ता है।
इसलिए कि इन
मधुमक्खियों
को हमने पाला
है और हमने
ज्ञान समझ कर
इन विचारों को
जगह दी है अपने
घर में, इनको
ठहराया है, इनको निवासी
बनाया है। और
हमने अपने मन
को एक
धर्मशाला बना
दी है कि जो भी
आए ठहर जाए।
बस एक बात का
खयाल लेकर आ
जाए, वह
ज्ञान के
वस्त्र पहन कर
आ जाए, फिर
हमारी
धर्मशाला में
ठहरने का उसे
हक है। यह
धर्मशाला में भीड़
बढ़ती चली गई
है। और यह भीड़
इतनी बढ़ गई है
कि मालिक कौन
है, तय
करना मुश्किल
हो गया है इस
भीड़ के भीतर।
और वे जो
मेहमान बन गए
हैं, वे
इतना शोरगुल
मचाते हैं—जों
सबसे ज्यादा
चिल्लाता है
वही मालिक
मालूम होता है।
और मालिक कौन
है इसका हमें
कोई पता नहीं
चलता है।
हर
विचार जोर से
चिल्लाता है
कि मैं मालिक
हूं और भीतर
जो मालिक है
इस धर्मशाला
की भीड़ में, उसका
हमें कोई पता
चलना संभव
नहीं रह गया।
कोई विचार
निकलने के लिए
राजी नहीं है।
जिसको हमने
ठहरा लिया है
वह कैसे निकले?
जिसको हमने
बुलाया है वह
कैसे निकले? जिसको हमने
निमंत्रण
देकर बुलाया
था आज वह कैसे
निकल जाएगा? मेहमान को
बुला लेना
आसान है, निकालना
उतना आसान
नहीं है। और
मेहमान आ गए
हैं हजारों
साल से।
मेहमान आदमी
के मन में
इकट्ठे होते
चले गए हैं।
आज —इनको विदा
करने को अगर
मैं आपसे कहूं
तो ये एकदम से
विदा नहीं हो
सकते, लेकिन
अगर बुनियाद
हम समझ लें तो
ये विदा हो सकते
हैं।
पहली
बुनियाद, दूसरों
का सीखा हुआ
सारा विचार
व्यर्थ है, अगर हमें यह
स्पष्ट हो जाए
तो हमने जड़
काट दी विचारों
के इकट्ठे
होने की। फिर
हमने जड़ काट
दी। फिर हमने
जड़ में पानी
देना बंद कर
दिया।
क्योंकि यह
भ्रम कि यह ज्ञान
है, इसीलिए
हम पोसते हैं
इसे!
एक
संन्यासी, एक
वृद्ध
संन्यासी
अपने एक युवा
भिक्षु के साथ
एक जंगल पार
कर रहा था।
रात उतर आई, अंधेरा
घिरने लगा। तो
उस के
संन्यासी ने
युवा
संन्यासी को
पूछा कि बेटे,
रास्ते में
कोई डर तो
नहीं है, कोई
भय तो नहीं है?
रास्ता बड़ा
जंगल का बीहड़..
अंधेरी रात
उतर रही है, कोई भय तो
नहीं है?
युवा
संन्यासी
बहुत हैरान हुआ, क्योंकि
संन्यासी को...
और भय का सवाल
ही नहीं उठना
चाहिए।
संन्यासी को
भय का कहां
सवाल है! चाहे
रात अंधेरी हो
और चाहे उजाली
हो, और
चाहे जंगल हो
और चाहे बाजार
हो। संन्यासी
को भय उठे, यही
आश्चर्य की
बात है! और इस
बूढ़े को आज तक
कभी भी नहीं
उठा था। आज
क्या गड़बड़ हो
गई है, इसे
भय क्यों उठता
है? कुछ न
कुछ मामला
गड़बड़ है!
फिर
और थोड़े आगे
बढ़े। रात और
गहरी होने लगी।
उस के ने फिर
पूछा कि कोई
भय तो नहीं है? हम
जल्दी दूसरे
गांव तो पहुंच
जाएंगे? रास्ता......कितना
फासला है?
फिर
वे एक कुएं पर
हाथ—मुंह धोने
को रुके। उस
के ने अपने
कंधे पर डाली
हुई झोली उस
युवक को दी और कहा
सम्हाल कर
रखना। उस युवक
को खयाल हुआ
कि झोली में
कुछ न कुछ होना
चाहिए, अन्यथा
न भय का कारण
है और न
सम्हाल कर
रखने का कारण
है।
संन्यासी
भी कोई चीज
सम्हाल कर रखे
तो गड़बड़ हो गई।
फिर संन्यासी
होने का कोई
मतलब ही न रहा।
सम्हाल कर जो
रखता है, वही
तो गृहस्थ है।
सब सम्हाल—सम्हाल
कर रखता है, इसीलिए
गृहस्थ है।
संन्यासी को
क्या सम्हाल
कर रखने की
बात है?
का
हाथ—मुंह धोने
लगा। और उस
युवक ने उस
झोली में हाथ
डाला और देखा
सोने की एक
ईंट झोली में
है। वह समझ
गया कि भय किस
बात में है।
उसने ईंट उठा
कर जंगल में
फेंक दी और एक
पत्थर का
टुकड़ा उतने ही
वजन का झोली
के भीतर रख
दिया। का
जल्दी से हाथ—मुंह
धोकर आया और
उसने जल्दी से
झोली ली, टटोला,
वजन देखा, झोली कंधे
पर रखी और चल
पड़ा।
और
फिर कहने लगा
थोड़ी दूर चल
कर कि रात बड़ी
हुई जाती है, रास्ता
हम कहीं भटक
तो नहीं गए
हैं? कोई
भय तो नहीं है?
उस
युवक ने कहा
अब आप निर्भय
हो जाइए, भय को
मैं पीछे फेंक
आया।
वह
तो घबड़ा गया।
उसने जल्दी से
झोली में हाथ
डाला—देखा, वहां
तो एक पत्थर
का टुकड़ा रखा
हुआ था। एक
क्षण को तो वह
ठगा सा खड़ा रह
गया और फिर
हंसने लगा और
उसने कहा मैं
भी खूब पागल
था। इतनी देर
पत्थर के
टुकड़े को लिए
था तब भी मैं भयभीत
हो रहा था, क्योंकि
मुझे यह खयाल
था कि यह सोने
की ईंट भीतर
है। था पत्थर
का वजन, लेकिन
खयाल था कि
सोने की ईंट
भीतर है तो
उसे सम्हाले
हुए था। फिर
जब पता चल गया
कि पत्थर है, उठा कर उसने
पत्थर फेंक
दिया। झोली एक
तरफ रख दी और
युवक से कहा
अब रात यहीं सो
जाएं, अब
कहां परेशान
होंगे, कहां
रास्ता
खोजेंगे। फिर
रात वे वहीं
सो गए।
तो
जिस विचार को
आप सोने की
ईंट समझे हुए
हैं,
अगर वह सोने
की ईंट दिखाई
पड़ता है तो आप
उसको सम्हाले
रहेंगे, सम्हाले
रहेंगे, उससे
आप मुक्त नहीं
हो सकते।
लेकिन मैं
आपसे कहना
चाहता हूं वह
सोने की ईंट
नहीं है। वहां
बिलकुल पत्थर
का वजन है।
जिसको आप ज्ञान
समझे हैं, वह
जरा भी ज्ञान
नहीं है, वह
सोना नहीं है,
वह बिलकुल
पत्थर है।
दूसरों
से मिला हुआ ज्ञान
बिलकुल पत्थर
है। खुद से
आया हुआ ज्ञान
ही सोना होता
है। जिस दिन
आपको यह दिखाई
पड़ जाएगा कि
झोली में ईंट
सम्हाले हुए
हैं,
पत्थर
सम्हाले हुए
हैं, उसी
दिन मामला
खत्म हो गया।
अब उस ईंट को
उठा कर फेंकने
में कठिनाई
नहीं रह जाएगी।
कचरे
को फेंकने में
कठिनाई नहीं
रह जाती, सोने
को फेंकने में
कठिनाई होती
है। जब तक
आपको लग रहा
है कि यह
विचार ज्ञान
है, तब तक
आप इसे नहीं
फेंक सकते हैं।
यह मन आपका एक
उपद्रव का
स्थल बना ही
रहेगा, बना
ही रहेगा, बना
ही रहेगा। आप
लाख उपाय
करेंगे, कोई
उपाय काम नहीं
करेगा।
क्योंकि आप
बहुत गहरे में
चाहते हैं कि
यह बना रहे, क्योंकि आप
समझते हैं यह
ज्ञान है।
जीवन में सबसे
बड़ी
कठिनाइयां इस
बात से पैदा होती
हैं कि जो चीज
जो नहीं है
उसको हम समझ
लें, तो
सारी
कठिनाइयां
पैदा होनी
शुरू हो जाती
हैं। पत्थर को
कोई सोना समझ
ले तो मुश्किल
शुरू हो गई।
पत्थर को कोई
पत्थर समझ ले,
मामला खत्म
हो गया।
तो
हमारे विचार
की संपदा
वास्तविक
संपदा नहीं है—इस
बात को समझ
लेना जरूरी है।
इसे कैसे
समझें? क्या
मेरे कहने से
आप समझ लेंगे?
अगर मेरे
कहने से समझ
लिए तो यह समझ
उधार हो जाएगी,
यह समझ
बेकार हो
जाएगी।
क्योंकि यह
मैं कह रहा
हूं और आप समझ
लेंगे। मेरे
कहने से समझने
का सवाल नहीं
है, आपको
देखना पड़े, खोजना पड़े, पहचानना पड़े।
वह
युवक अगर उस
बूढ़े से कहता
कि चले चलिए, कोई
फिकर नहीं है,
आपके झोले
में ईंट है, पत्थर है, कोई सोना
नहीं है, तो
इससे कोई फर्क
पड़ने वाला
नहीं था, जब
तक कि का देख न
ले उस झोले
में कि ईंट है,
सोने की या
पत्थर की!
युवक कहता तो
कोई बात खयाल
में आने वाली
नहीं थी।
हंसता लड़के पर
कि लड़का है, नासमझ है, कुछ पता
नहीं। या हां
भी भर देता तो
वह हां झूठी
होती, भीतर
गहरे में वह
ईंट को
सम्हाले ही
रहता। लेकिन
खुद देखा तो
फर्क पड़ गया।
तो
अपने मन की
झोली में
देखना जरूरी
है कि जिन्हें
हम ज्ञान समझ
रहे हैं वह
विचार ज्ञान
है?
उनमें ज्ञान
जैसा कुछ भी
है या कि सब
फिजूल कचरा
हमने इकट्ठा
कर रखा है? गीता
के श्लोक
इकट्ठे कर रखे
हैं, वेदों
के वचन इकट्ठे
कर रखे हैं, महावीर, बुद्ध
के शब्द
इकट्ठे कर रखे
हैं और उन्हीं
को लिए बैठे
हुए हैं और
उन्हीं का
हिसाब लगाते
रहते हैं।
उनका अर्थ
निकालते रहते
हैं, टीकाएं
पढ़ते रहते हैं
और टीकाएं
लिखते रहते हैं
और एक—दूसरे
को समझाते
रहते हैं और
समझते रहते
हैं।
यह
बिलकुल
पागलपन पैदा
हो गया है।
इससे कोई
संबंध नहीं है
ज्ञान का।
इससे जीवन में
कोई ज्योति
नहीं फूटेगी, कोई
किरण पैदा
नहीं होगी। और
इस कचरे को
इकट्ठा करके
आप इस भ्रम
में पड़ जाएंगे
कि हमने बहुत
संपदा इकट्ठी
कर ली है, हम
बड़े मालिक हैं,
हमारे पास
बहुत—कुछ है, हमारी
तिजोरी भरी हुई
है और इसी के
साथ आप जीवन
को व्यतीत कर
देंगे और नष्ट
कर देंगे।
एक
संन्यासी, एक
युवा
संन्यासी एक
आश्रम में
ठहरा था। एक
बूढ़े
संन्यासी के
निकट
सान्निध्य को
आया था, लेकिन
दो—चार दिन
में ही उसे
लगा कि इस
बूढ़े को कुछ
भी पता नहीं
है। रोज वही
बातें, रोज
वही बातें सुन—सुन
कर हैरान हो
गया। सोचा छोड़
दूं इस आश्रम
को, कहीं
और खोजूं यह
मेरे लिए जगह
नहीं है। किसी
और गुरु की
तलाश करूं।
लेकिन
जिस दिन छोड़ने
को था, उसी दिन
एक संन्यासी
और उस आश्रम
में मेहमान हुआ।
और रात आश्रम
के अंतेवासी
इकट्ठे हुए और
उनकी बातें
हुईं। उस नये संन्यासी
ने इतनी ज्ञान
की बातें कीं,
ऐसी
सूक्ष्म और
बारीक, ऐसी
गहरी और
प्रगाढ़ कि
छोड़ने वाले
युवा संन्यासी
को लगा कि
गुरु हो तो
ऐसा हो। दो
घंटे में उसने
मंत्रमुग्ध
कर दिया। उसके
मन को यह भी
खयाल हुआ कि
हमारे के गुरु
के मन को बड़ी
पीड़ा होती
होगी। आज बड़ी
आत्म—ग्लानि
लगती होगी कि
मैं का हो गया
और मैं कुछ भी
नहीं जान पाया
और यह आगंतुक
इतना जानता है।
दो
घंटे बाद जब
बात बंद हुई
तो उस आए हुए
संन्यासी ने
बूढ़े गुरु की
तरफ देखा और
उस वृद्ध से पूछा
कि आपको मेरी
बातें कैसी
लगीं? उस बूढ़े
ने कहा. मेरी
बातें? बातें
तुम करते थे, लेकिन
तुम्हारी
उसमें कोई भी
बात नहीं थी।
और मैं तो
बहुत गौर से
सुनता था कि
तुम कुछ बोलो,
लेकिन तुम
कुछ बोलते ही
नहीं हो! तो उस
युवक ने कहा
दो घंटे मैं
नहीं तो और
कौन बोलता था?
तो
उस बूढ़े ने
कहा : अगर
मुझसे पूछते
हो सचाई और ईमानदारी
की बात, तो
तुम्हारे
भीतर से
किताबें
बोलती थीं, शास्त्र
बोलते थे, लेकिन
तुम जरा भी
नहीं बोलते थे।
तुमने एक शब्द
भी नहीं बोला।
जो तुमने
इकट्ठा कर
लिया है उसी
का वमन करते थे,
उसी को तुम
उल्टी करते थे,
उसी को तुम
बाहर निकालते
थे। और
तुम्हारे वमन
और उल्टी से
मैं बहुत घबड़ा
गया कि तुम
बड़े बीमार
आदमी हो। तुम
दो घंटे तक
उलटते ही रहे,
जो
तुम्हारे पेट
में इकट्ठा था।
और सारा कमरा
तुमने गंदगी
और बदबू से भर
दिया। मुझे तो
ज्ञान की
सुगंध जरा भी
नहीं आई, क्योंकि
बाहर से जो
भीतर ले जाया
जाए और फिर बाहर
फेंक दिया जाए,
उसमें वमन
की दुर्गंध हो
जानी बिलकुल
ही निश्चित है।
तुम तो कुछ भी
नहीं बोले, एक शब्द भी
तुम्हारा
अपना नहीं था।
वह
जो युवा
संन्यासी
छोड़ना चाहता
था आश्रम, उसी
आश्रम में रुक
गया। आज उसे
पहली दफा पता
चला कि जानने
और जानने में
बहुत फर्क है।
एक जानना वह
है जो हम बाहर
से इकट्ठा कर
लेते हैं। एक
जानना वह है
जिसका भीतर से
जन्म होता है।
बाहर से जो
इकट्ठा कर
लेते हैं वह
हमारा बंधन हो
जाता है, वह
हमें मुक्त
नहीं करता है
और भीतर से जो
आता है वह
हमें मुक्त
करता है।
तो
पहली बात भीतर
खोज कर लेने
की है कि मैं
जो जानता हूं
वह मैं जानता
हूं?
यह अपने जानने
के एक—एक
विचार और एक—एक
शब्द से पूछ
लेना जरूरी है
यह मैं जानता
हूं? और
अगर उत्तर आए
कि यह मैं
नहीं जानता
हूं तो आपकी
जिंदगी में
सोने की ईंट
धीरे— धीरे
पत्थर की ईंट
हो जाएगी। और
उत्तर आएगा कि
आप नहीं जानते,
क्योंकि
दुनिया में
सबको धोखा
देना संभव है,
अपने को
धोखा देना
संभव नहीं है।
कोई
आदमी खुद को
धोखा नहीं दे
सकता। जो आप
नहीं जानते वह
आप नहीं जानते।
अगर मैं आपसे पूछूं, आप
ईश्वर को
जानते हैं? और अगर आप
सिर हिलाएं कि
हां मैं जानता
हूं तो आप
बेईमान हैं।
अपने से पूछें
भीतर कि मैं
ईश्वर को
जानता हूं या
कि मैंने सुनी—सुनाई
बातें मान ली
हैं कि ईश्वर
है? मैं
जानता हूं! और
अगर नहीं
जानता, तो
ऐसे ईश्वर का
दो कोड़ी का
भी मूल्य नहीं
है। जिसको मैं
नहीं जानता वह
मेरी जिंदगी
को थोड़े ही
बदल सकता है।
जिस ईश्वर को
मैं जानता हूं
वही ईश्वर मेरी
जिंदगी की
क्रांति बन
सकता है।
जिस
ईश्वर को मैं
नहीं जानता वह
दो कौड़ी का मूल्य
नहीं रखता, वह
ईश्वर झूठा है,
वह ईश्वर है
ही नहीं, क्योंकि
वह सब उधार है,
उससे मेरी
जिंदगी में
कोई परिवर्तन
होने वाला
नहीं है। अगर
मैं आपसे
पूछूं, आप
आत्मा को
जानते हैं और
आप कहें हां
हम जानते हैं,
क्योंकि
हमने किताब
में पढ़ा हुआ
है, क्योंकि
हमारे मंदिर
में जो पंडित
जी पढ़ाते हैं
वे समझाते हैं
कि हां, आत्मा
होती है।
आदमी
को जो भी सिखा
दिया जाए वह
तोतों की तरह
याद कर लेता
है। इस याद कर
लेने से जानने
का कोई संबंध
नहीं है। अगर
आप हिंदू घर
में पैदा हुए
हैं तो आप
दूसरे तरह के
तोते हो जाते
हैं और जैन घर
में पैदा हुए
हैं तो दूसरी
तरह के तोते
हो जाते हैं।
और मुसलमान घर
में हुए हैं
तो तीसरी तरह
के तोते हो
जाते हैं, लेकिन
सब जगह आप
तोते बन जाते
हैं। जो—जो
आपको सिखा
दिया जाता है,
उसी को आप
जिंदगी भर
दोहराए चले
जाते हैं। और
चूंकि आपके आस—पास
भी आप ही जैसे
तोते होते हैं,
इसलिए कोई
ऐतराज भी नहीं
करता है, कोई
इनकार भी नहीं
करता है। तोते
सिर हिलाते
हैं कि बिलकुल
ठीक कह रहे हैं
आप, क्योंकि
यही उन्होंने
भी सीखा है जो
आपने सीखा है।
धर्म
सभाओं में
जाइए, वहां
धर्मगुरु
समझा रहे हैं
और बाकी लोग
सिर हिलाते
हैं कि बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं। क्योंकि
जो वे सीखे
बैठे हैं, वही
वे भी सीखे
बैठे हैं। और
दोनों सीखे
बैठे हुए हैं
और दोनों सिर
हिला रहे हैं
कि हां!
बिलकुल ठीक
बात कही जा
रही है, हमारी
किताब में भी
यही लिखा हुआ
है, हमने
भी यही पढ़ा
हुआ है।
सारी
मनुष्य—जाति
को ज्ञान का
धोखा दिया गया
है। एक साजिश, एक
षडयंत्र है
आदमी के साथ ज्ञान
के धोखे का।
इस सारे ज्ञान
को झाडू—पोंछ
कर बाहर फेंक
देने की जरूरत
है, तो कभी
आपकी जिंदगी
में वह ज्ञान
भी आ सकता है जिसके
आलोक में
ईश्वर का
अनुभव हो जाए
और आत्मा की
ज्योति दिखाई
पड़ जाए। इस
झूठे ज्ञान से
वह संभावना
नहीं है। यह
रोशनी ही नहीं
है, घर
अंधेरा पड़ा है,
दीया बुझा
हुआ है और
समझा— समझा कर
लोग कह रहे
हैं, दीया
जला हुआ है।
और बार—बार
सुनने और
समझने के कारण
हम भी कहने
लगे हैं कि
दीया जला हुआ
है, क्योंकि
कहीं डर भी है!
वे कहते हैं
कि अगर दीया
जला हुआ नहीं
दिखा तो नरक
चले जाओगे। तो
दीया जला हुआ
दिखता है, हमको
भी दिखने लगता
है धीरे— धीरे।
एक
सम्राट था। एक
अदभुत अजनबी
आदमी ने एक
दिन सुबह ही
आकर उस सम्राट
को कहा क्या
आपने सारी
पृथ्वी जीत ली
है?
आपको
आदमियों जैसे
वस्त्र शोभा
नहीं देते।
मैं आपके लिए
देवताओं के
वस्त्र ला
दूंगा।
सम्राट के मन
को लोभ पकड़ा।
बुद्धि तो
कहती थी कि
देवताओं के
वस्त्र कहां
होंगे? देवता
भी कहीं होंगे,
इस पर भी
बुद्धि को शक
होता है, लेकिन
राजा को लोभ
पकड़ा, कि
हो सकता है
देवता कहीं
हों और वस्त्र
आ जाएं तो मैं
पृथ्वी पर पहला
आदमी रहूंगा
मनुष्य के
इतिहास में
जिसने देवताओं
के वस्त्र
पहने। और यह
आदमी अगर धोखा
भी देगा तो
क्या धोखा देगा!
वह
बड़ा सम्राट था।
अरबों—खरबों
रुपये उसके
पास ऐसे ही
पड़े थे। दस—पचास
हजार रुपये ले
भी जाएगा तो
हर्ज क्या है।
उसने उस आदमी
को कहा अच्छा
ठीक है। क्या
खर्च होगा?
उस
आदमी ने कहा
कम से कम एक
करोड़ रुपया लग
जाएगा, क्योंकि
देवी—देवताओं
तक पहुंचने
में बडी
रिश्वत
खिलानी पड़ती
है। कोई आदमी
ही थोड़े
रिश्वत लेता
है, देवी—देवता
भी बड़े
होशियार हैं,
वे भी
रिश्वत
मांगते हैं।
और आदमी थोड़े—बहुत
पैसे से राजी
हो जाता है, गरीब आदमी
है! देवी—देवता
थोड़े पैसे से
राजी नहीं
होते। भारी
ढेर हो तभी
उनकी नजर में
पड़ता है, नहीं
तो नजर में
नहीं पड़ता। तो
बड़ी मुश्किल
है लेकिन एक
करोड़ कम से कम
खर्च होगा!
राजा
ने कहा अच्छा
कोई हर्ज नहीं, लेकिन
ध्यान रहे, धोखा दोगे
तो जिंदगी से
हाथ धो बैठोगे।
और तुम्हारे
मकान पर आज से
तलवारों का
पहरा रहेगा।
एक करोड़ रुपया
उस आदमी को दे
दिया गया और
उसके मकान पर
पहरा बिठा
दिया गया।
सारी बस्ती
में लोग चकित
थे और हैरान
थे और विश्वास
नहीं आता था—
कहां देवी, कहां देवता,
कहां
देवताओं का
स्वर्ग! और यह
आदमी न कहीं
जाता दिखता था,
न कहीं आता
दिखता था।
मकान के भीतर
था और उसने
कहा छह महीने
के भीतर मैं
वस्त्र ले
आऊंगा। शक तो
सभी को था, लेकिन
राजा निश्चित
था, क्योंकि
नंगी तलवारों
का पहरा था।
वह आदमी भाग
नहीं सकता था,
धोखा नहीं
दे सकता था।
लेकिन वह आदमी
राजा से बहुत
ज्यादा
समझदार था।
छह
महीने बाद ठीक
दिन पर वह एक
बहुत खूबसूरत
पेटी लेकर
बाहर निकला और
उसने सैनिकों
से कहा कि
राजमहल चलें, दिन
आ गया और
वस्त्र आ गए
हैं।
सारी
राजधानी
इकट्ठी हो गई।
दूर—दूर के राजे—महाराजे
देखने इकट्ठे
हो गए। भारी
जलसा मनाया
गया। वह आदमी
जब दरबार में
ही पेटी लेकर
आ गया तब तो शक
का कोई कारण
ही नहीं रहा।
उसने लाकर
पेटी रख दी।
पेटी का ढक्कन
खोला, हाथ
भीतर डाला और
खाली हाथ बाहर
निकाला और राजा
से कहा यह
पगड़ी लें।
राजा ने देखा,
पगड़ी तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ती, हाथ
खाली है।
और
तभी उस आदमी
ने कहा एक
स्मरण आप को
दिला दूं देवताओं
ने कहा है कि
जो अपने ही
बाप से पैदा हुआ
होगा उसी को
पगड़ी और
वस्त्र दिखाई
पड़ेंगे। आपको
पगड़ी दिखाई
पड़ती है न?
राजा
ने कहा बिलकुल
दिखाई पड़ती है।
वह पगड़ी वहां
थी नहीं, हाथ खाली
था और सारे
दरबारी ताली
बजाने लगे।
उनको भी पगड़ी
नहीं दिखाई
पड़ती थी, लेकिन
वे सभी कहने
लगे आगे बढ़ कर,
ऐसी सुंदर
पगड़ी तो हमने
कभी देखी नहीं।
पगड़ी बहुत
सुंदर है, बड़ी
अदभुत है, आदमी
ने कभी देखी
नहीं यह पगड़ी
तो! अब जब सभी
दरबारी कहने
लगे कि पगड़ी
बहुत सुंदर है,
राजा
मुश्किल में
पड़ गया। और उस
आदमी ने कहा
अच्छा अपनी
पगड़ी निकालिए
और यह पगड़ी
पहन लीजिए।
वह
पगड़ी उसने अलग
कर दी और वह
झूठी पगड़ी जो
थी ही नहीं, वह
राजा ने पहन
ली। पगड़ी तक
ही बात होती
तो ठीक थी, लेकिन
राजा दिक्कत
में पड़ गया।
धीरे— धीरे
कोट भी उतर
गया, फिर
आखिरी वस्त्र
भी उतरने का
वक्त आ गया।
राजा नंगा
होने लगा, लेकिन
सारे दरबारी
चिल्ला रहे
हैं कि बहुत
सुंदर वस्त्र
हैं! अदभुत!
ऐसे वस्त्र
कभी देखे नहीं।
क्योंकि जो
दरबारी जोर से
नहीं कहेगा, लोग शक
करेंगे कि पता
नहीं अपने
पिता से पैदा हुआ
है या किसी और
से पैदा हुआ
है!
और
जब सारी भीड़
चिल्लाती हो
तो एक—एक आदमी
को यह लगा कि
मेरी आंखें
गलत देखती
होंगी। या मैं
ही अपने पिता
के बाबत गलती
में रहा अब तक।
बाकी सारे लोग
कहते हैं तो
ठीक ही कहते
होंगे। इतने
लोग गलत तो
नहीं कह सकते।
इतनी
मैजॉरिटी, इतना
बहुमत! जब सभी
कहते हैं तो
ठीक कहते
होंगे। इतना
लोकतांत्रिक
है कि सभी ठीक
कह रहे हैं।
जब इतने लोग
कह रहे हैं!
सभी तो गलती
में नहीं हो
सकते। मैं
अकेला गलती
में हो सकता
हूं इसलिए अगर
चुपचाप रह
जाऊं तो लोग
समझेंगे कि
मुझे दिखाई नहीं
पड़ रहा।
राजा
डरा,
अब अंतिम
वस्त्र उतारे
या न उतारे? एक तरफ यह था
कि सारा दरबार
नग्न देख लेगा
और दूसरी तरफ
यह डर था कि यह
नग्नता तो फिर
भी ठीक है, लेकिन
अगर दुनिया को
यह पता चल गया
कि मैं अपने
बाप से पैदा
नहीं हुआ तो
और मुश्किल हो
जाएगी। अब बड़ी
मुश्किल थी—इधर
गिरे तो कुआं,
उधर गिरे तो
खाई। आखिर
नग्नता को ही
स्वीकार करना
ठीक था। कम से
कम पिता तो
बचते थे, वंश
तो बचता था।
नंगा ही देख
लेंगे लोग और
क्या! जब सबको
वस्त्र दिखाई
पड़ रहे हैं तो
हो सकता है
दिखाई पड़ रहे हों।
और मैं ही
गलती में हूं
और व्यर्थ की
झंझट हो जाए।
तो उसने अंतिम
वस्त्र भी छोड़
दिया। वह नंगा
खड़ा हो गया।
फिर
उस आदमी ने
कहा कि
महानुभाव, देवताओं
के वस्त्र
पहली दफा
पृथ्वी पर
उतरे हैं।
आपकी
शोभायात्रा
निकलनी चाहिए।
रथ पर आपको
गांव में
घुमाया जाना
चाहिए। राजा
बहुत डरा, लेकिन
अब कोई रास्ता
न था।
जब
आदमी पहली कड़ी
पर गलती कर
जाता है, तो
फिर किसी भी
कड़ी पर रुकना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
फिर लौटना
मुश्किल हो
जाता है।
ईमानदारी
पहली कड़ी पर
अगर नहीं की
गई तो फिर आगे
की कड़ियों पर
आदमी और
बेईमानी, और
बेईमानी में
गिरता चला
जाता है, फिर
उसे मुश्किल
हो जाता है
कहां से लौटे,
क्योंकि हर
कड़ी और कड़ी
में बांधने का
रास्ता बन
जाती है।
अब
वह मुश्किल
में पड़ गया था, अब
इनकार नहीं कर
सकता था। रथ
पर बैठ कर
उसकी
शोभायात्रा
निकली है। हो
सकता है आप भी
उस नगर में
रहे हों, क्योंकि
बहुत लोग उस
नगर में थे और
सबने वह शोभायात्रा
देखी और आप भी
रहे होंगे तो
आपने भी उन
वस्त्रों की
तारीफ की होगी,
क्योंकि
कौन चूकता है,
कौन मौका
छोड़े। सब लोग
जोर से तारीफ
करने लगे कि
वस्त्र बहुत सुंदर
हैं। सुनते
हैं, सिर्फ
एक बच्चे ने
जो अपने बाप
के कंधे पर
बैठा हुआ भीड़
में आ गया था, उसने भर यह
कहा था कि
पिताजी, राजा
तो नंगा मालूम
होता है। उसके
बाप ने कहा
नासमझ चुप रह,
अभी तेरी
उम्र कम है, अभी तुझे
अनुभव नहीं है।
जब तुझे अनुभव
होगा, तुझे
भी वस्त्र
दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे।
मुझको वस्त्र
दिखाई पड़ते
हैं।
बच्चे
कभी—कभी सत्य
कह देते हैं, लेकिन
के उनके सत्य
को टिकने नहीं
देते, क्योंकि
को का अनुभव
ज्यादा है। और
अनुभव बड़ी
खतरनाक बात है।
क्योंकि
अनुभव के कारण
ही उस के ने
कहा चुप रह! जब
तुझे अनुभव
होगा तुझे भी
वस्त्र दिखाई
पड़ेंगे। हम
सबको दिखाई पड़
रहे हैं। हम
पागल हैं? कभी—कभी
बच्चे कह देते
हैं, यह
भगवान की मूर्ति
में हमें
भगवान नहीं
दिखाई पड़ते
हैं। तो के
कहते हैं, चुप!
हमको भगवान
दिखाई पड़ रहे
हैं। वह
रामचंद्र जी
खड़े हुए हैं।
अनुभव होगा, तुझको भी
दिखाई पड़ेंगे।
आदमी
एक म्यूचुअल
डिसेप्शन में, एक
पारस्परिक
धोखे में बंधा
हुआ है। और जब
सारे लोग एक
ही धोखे में
बंधे होते हैं,
तो दिखाई
पड़ना मुश्किल
हो जाता है।
आपको खोज लेना
जरूरी है कि
जिन ज्ञान के
वस्त्रों को
आप वस्त्र समझ
रहे हैं, वे
वस्त्र हैं या
कि आप उन
वस्त्रों में
भी नग्न खड़े
हुए हैं? यह
कसौटी अपने एक—
एक विचार पर
कस कर देख
लेने की है कि
यह मैं जानता
हूं? अगर
नहीं जानते
हैं तो नरक
जाने को तैयार
हो जाना, लेकिन
इस झूठे ज्ञान
को पकड़ने को
तैयार मत होना।
क्योंकि
यह ईमानदारी
की पहली शर्त
है कि जो आदमी
नहीं जानता
जिस बात को, कह
दे कि मैं
नहीं जानता
हूं। यह
बेईमानी की
शुरुआत है। और
बड़ी
बेइमानियां
दिखाई नहीं
पड़ती, छोटी
बेइमानियां
दिखाई पड़ती
हैं। एक आदमी दो
पैसे की
बेईमानी करता
है, तो
हमें दिखाई
पड़ती है और एक
आदमी पत्थर की
मूर्ति के
सामने हाथ जोड़
कर कहता है कि
हे परमपिता!
हे परमेश्वर!
और पूरी तरह
जानता है कि
पत्थर की
मूर्ति के सामने
हाथ जोड़ रहा
है, यहां
कोई परमेश्वर,
कोई
परमपिता दिखाई
नहीं पड़ रहा
है, और यह
आदमी ईमानदार
और धार्मिक
मालूम होता है,
इससे
ज्यादा
बेईमान और
धोखेबाज आदमी
जमीन पर खोजना
कठिन है! यह
बिलकुल धोखे
की बात कह रहा
है, यह
बिलकुल सरासर
झूठी बात कह
रहा है जिसका
इसके भीतर कोई
अहसास नहीं हो
रहा है। लेकिन
इतना साहस
नहीं जुटा
पाता है कि इस
बात को समझ ले
कि मैं यह
क्या कह रहा
हूं? यह
मैं क्या कर
रहा हूं?
धार्मिक
आदमी वह है और
धार्मिक आदमी
की होने की
शुरुआत इस बात
में है कि वह
ठीक से इस बात
को पहचान ले
कि क्या मैं
जानता हूं और
क्या मैं नहीं
जानता हूं? वह
आदमी धार्मिक
नहीं है जो
कहे कि मैं
ईश्वर को
जानता हूं और
आत्मा को जानता
हूं। मैंने
स्वर्ग देख
लिया और नरक
देख लिया। वह
आदमी धार्मिक
है जो कहे कि
मुझे तो कुछ
भी पता नहीं
है, मैं
बिलकुल
अज्ञानी हूं।
मुझे कोई भी ज्ञान
नहीं है, मुझे
अपना ही पता
नहीं है, मैं
कैसे कहूं कि
मैं ईश्वर को
जानता हूं!
सामने मकान के
जो पत्थर पड़ा
है, उसको
भी मैं नहीं
जानता हूं।
मैं परमात्मा
को जानता हूं
कैसे कहूं?
जिंदगी
बहुत
रहस्यपूर्ण
है,
अज्ञात है।
मुझे कुछ भी
पता नहीं है, मैं तो
बिलकुल
अज्ञानी हूं।
अगर आप
अज्ञानी होने
का साहस कर
सकते हैं, इस
स्वीकृति का
कि मैं
अज्ञानी हूं
तो आपके
विचारों के
जाल से छुटकारे
का रास्ता
शुरू हो जाता
है, अन्यथा
शुरू नहीं
होगा। तो यह
बात एक समझ
लेने की है कि
हम अत्यंत
अज्ञानी हैं,
हमें कुछ भी
पता नहीं है।
और जो भी हमें
पता मालूम
पड़ता है कि
पता है वह बिलकुल
झूठा, उधार
और बासा है। वह
हौज की तरह है,
वह कुएं की
तरह नहीं है।
और अगर जीवन
में एक कुआं
बनाना है तो
हौज के भ्रम
से मुक्त हो
जाना अत्यंत
जरूरी है।
(प्रश्न
का ध्वनि—
मुद्रण
स्पष्ट नहीं
है।)
कोई
अभिप्राय
नहीं है। मैं
तो
कृष्णमूर्ति
जी को जानता
नहीं, एक बात।
दूसरी
बात,
जब मैं कुछ कह
रहा हूं और
अगर आप तौलते
हैं कि वह
किसके साथ
समानता रखता
है और किसके
साथ असमानता
रखता है, तो
आप मुझे सुन
ही नहीं
पाएंगे। आप उस
तौल में ही
समय खराब कर
देंगे। और यह
बिलकुल असंभव
है कि दो
आदमियों की
बात समान हो, क्योंकि दो
आदमी समान
नहीं हैं। दो
पत्ते समान नहीं
हैं, दो
पत्थर समान
नहीं हैं। कुछ
शब्दों की
समानता हो
सकती है, कुछ
ऊपरी समानता
हो सकती है
किसी बात में,
लेकिन जगत
में एक—एक
आदमी इतना
भिन्न और पृथक
है कि ठीक—ठीक
समान कुछ भी
नहीं हो सकता
है।
लेकिन
उसे अगर तौलने
बैठें कि किस
चीज से मेरी
बात समान है; गीता
से मिलती है, कृष्णमूर्ति
जी से मिलती
है, कि
रामकृष्ण से
मिलती है, कि
महावीर से
मिलती है तो
आप मेरी बात
नहीं सुन
पाएंगे, क्योंकि
बीच में यह
रामकृष्ण और
कृष्णमूर्ति
और महावीर बीच
में इतना
उपद्रव खड़ा कर
देंगे कि मेरी
बात आप तक
नहीं पहुंच
पाएगी। सीधा
आपसे मेरा कोई
संबंध नहीं
पैदा हो पाएगा।
तो
मुझे पता नहीं, लेकिन
इतनी
प्रार्थना है
कि उसे तौलने
की और समानता
बिठाने की या
असमानता
देखने की कोई
जरूरत ही नहीं
है। वह बात ही
फिजूल है, उसका
कोई प्रयोजन
ही नहीं है।
उससे कुछ हित
भी नहीं होता।
लेकिन
हमारे जीवन
में कुछ
सामान्य
आदतें बन गई
हैं,
उनमें एक
तुलना की आदत
है। हम बिना
तौले आंक ही
नहीं सकते।
कोई भी बात
हमें आंकनी है
तो हम कंपेयर
किए बिना, तौले
बिना नहीं सोच
सकते कि यह
बात कैसे हो
सकती है। और
जब भी हम
तुलना करते
हैं, तभी
भूल शुरू हो जाती
है।
अगर
हम एक चमेली
के फूल को
गुलाब के फूल
से तौलें तो
भूल शुरू हो
जाती है।
चमेली का फूल
चमेली का फूल
है,
और गुलाब का
फूल गुलाब का
फूल है, और
घास का फूल
घास का फूल है।
न तो घास के
फूल से गुलाब
का फूल आगे है,
न पीछे है।
घास का फूल
अपनी निजता
में जीता है, गुलाब का
फूल अपनी
निजता में
जीता है। न
कोई छोटा है, न कोई बड़ा है,
न कोई समान
है, न कोई
असमान है, प्रत्येक
अपने ही जैसा
है और कोई
किसी जैसा नहीं
है।
अगर
चीजों की यह
इडिविजुअलिटी, इनका
व्यक्तित्व, उनका
अनूठापन हमें
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए
तो हम तौलना
बंद कर देंगे।
लेकिन
हमारी तौलने
की आदत—एक
छोटे से बच्चे
को भी हम
तौलते हैं। हम
कहते हैं कि
देखो, दूसरा
बच्चा तुझसे
आगे निकल गया,
तू पीछे रह
गया, हम
बच्चे के साथ
अन्याय कर रहे
हैं। क्योंकि
दूसरा बच्चा
दूसरा बच्चा
है, यह
बच्चा है यह
बच्चा है! इन
दोनों के बीच
तौल की कोई
गुंजाइश नहीं
है। ये दोनों
बिलकुल भिन्न
हैं अपने होने
में। ये अपनी
निजता में, अपनी
ऑथेंटिसिटी
में बिलकुल
अलग हैं, इनका
कोई संबंध
नहीं है।
लेकिन
हमारी तौल की
आदतें— हमारी
शिक्षा भी
तौलना सिखाती
है,
हमारे
विचार भी
तौलना सिखाते
हैं। बिना
कंपेयर किए हम
हिसाब ही नहीं
लगा पाते। और
इसका परिणाम
यह होता है कि
हम सीधे किसी
व्यक्ति को
नहीं समझ पाते,
न सीधे किसी
विचार को समझ
पाते हैं, बीच
में और बहुत
सी बातें खड़ी
हो जाती हैं।
तो
मैं तो इतनी
ही प्रार्थना
करूंगा, मुझे
तो पता नहीं
कितनी समानता
हो सकती है, कितनी असमानता
हो सकती है, मैंने तौला
नहीं। और आपसे
प्रार्थना
करूंगा आप भी
मत तौलें। और
मुझे और उनको
ही नहीं किसी
को भी कभी
किसी से मत
तौलें।
लेकिन
ऐसे चलता है
सिलसिला कि
महावीर और
बुद्ध में
कितनी समानता
है,
और
क्राइस्ट में
और मोहम्मद
में कितनी
समानता है, और कृष्ण और
राम में कितनी
समानता है—सब
पागलपन है!
कोई समानता—
असमानता का
सवाल नहीं, क्योंकि
प्रत्येक बस
अपने ही जैसा
है, दूसरे
से उसका कोई
वास्ता ही
नहीं, दूसरे
से उसका कोई
संबंध ही नहीं।
असमानता भी
कहना फिजूल है,
क्योंकि जब
समानता ही
नहीं है तो
असमानता कहने
का भी कोई
कारण नहीं है।
प्रत्येक
अपने जैसा अलग
ही है। और इस
जगत में दो
व्यक्ति
पुनरुक्त
नहीं होते हैं, दो
घटनाएं
पुनरुक्त
नहीं होती हैं।
दो अनुभव
पुनरुक्त
नहीं होते, रिपीटीशन
जैसी चीज होती
ही नहीं जीवन
में। जीवन
बिलकुल ही सतत
अनूठेपन को
पैदा किए चला जाता
है। इसलिए
तौलने की कोई
जरूरत नहीं है।
न हिसाब लगाने
की जरूरत है।
कृष्णमूर्ति
जी को सुनते
हो तो उन्हें
सीधा समझने की
जरूरत है, मुझे
सुनते हो तो
मुझे सीधा
सुनने की
जरूरत है।
अपने पड़ोसी को
सुनते हो तो
उसे सीधा
सुनने की जरूरत
है। अपनी
पत्नी की बात
सुनते हो तो
उसे भी सीधा
सुनने की
जरूरत है। दो
के बीच में
तीसरा खड़ा हुआ
कि कठिनाई और
विवाद होने
शुरू हो जाते
हैं। दो के
बीच तीसरे की
कोई भी जरूरत
नहीं है। सीधा,
इमीजिएट, सीधा हमारा
संपर्क और
संबंध होना
चाहिए।
अगर
मैं एक गुलाब
के फूल के पास
खड़ा हूं और
मुझे वे फूल
खयाल आ जाएं
जो मैंने कल
देखे थे, और
सोचने लग
कितनी समानता
है इस फूल में
और उन फूलों
में, तो इस
फूल को देखना
बंद हो जाएगा।
एक बात तय है
क्योंकि वे
फूल जो बीच
में आ जाएंगे
उनकी छाया इस
फूल को नहीं
देखने देगी।
अगर इस फूल को
देखने में जो
मेरे सामने है,
तो वे सारे
फूल भूल जाने
जरूरी हैं, जो मैंने
कभी देखे हों।
उनको बीच में
लाना इस फूल
के साथ अन्याय
हो जाएगा। और
इस फूल की याद
भी साथ ले
जाने की जरूरत
नहीं है कि कल
कहीं किसी
दूसरे फूल को
देखते वक्त यह
फिर बीच में आ
जाए। तो न कृष्णमूर्ति
जी को यहां
लाइए। मुझे
सुनने से कहीं
इस खयाल में
मत पड़ जाइए कि
कल किसी और को
सुनते हुए
मुझे बीच में
खड़ा कर लें, तो फिर उस
आदमी के साथ
अन्याय होना
शुरू हो जाएगा।
जिंदगी
को सीधा देखिए, किसी
को बीच में
लेने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। न कोई
समान है, न
कोई असमान है।
प्रत्येक बस
अपने जैसा है
और प्रत्येक
अपने जैसा हो,
यही मेरी
कामना है।
प्रत्येक
अपने जैसा
होना चाहिए, यही
मुझे जीवन का
बुनियादी
सूत्र दिखाई
पड़ता है।
लेकिन अब तक
हम इसके लिए
राजी नहीं हो
सके हैं। अब
तक मनुष्य—जाति
इस बात के लिए
राजी नहीं हो
सकी कि प्रत्येक
व्यक्ति को
उसके जैसा वह
है, उसको स्वीकार
कर ले। हम
कोशिश करते
हैं वह किसी
और जैसा हो
जाए। महावीर
जैसा हो जाए, बुद्ध जैसा
हो जाए, गांधी
जैसा हो जाए।
यह एक—एक आदमी
के
व्यक्तित्व
का सीधा अपमान
है। जब हम
किसी से कहते
हैं, तुम
गांधी जैसे हो
जाओ, तो
हमने इतना
भारी अपमान
किया उस
व्यक्ति का जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
क्योंकि वह
अगर गांधी
होने को पैदा
हुआ था तो गांधी
हो चुके हैं, इसकी क्या
जरूरत है! इस
आदमी को यह
कहना कि तुम गांधी
जैसे हो जाओ, यह कहना है
कि तुम्हें
तुम्हारे
जैसे होने का कोई
हक नहीं है।
तुम्हें किसी
और की कॉपी
होने का, किसी
का अनुकरण
होने का ही हक
है। तुम केवल
कार्बनकॉपी
हो सकते हो, तुम मूल
प्रति नहीं हो
सकते। इस आदमी
का अपमान है।
तो
मैं तो नहीं
कहता कि कोई
किसी जैसा हो
जाए। मैं तो
यही कहता हूं
हरेक अपने
जैसा हो जाए।
तो यह दुनिया
एक अदभुत
सुंदर दुनिया
बन सकती है।
अभी तक हमने
यही कोशिश की
है कि कोई
किसी जैसा हो
जाए,
कोई किसी
जैसा हो जाए।
और इसीलिए हम
तुलना करते
हैं, इसीलिए
हम विचार करते
हैं, इसीलिए
हम खोजते हैं।
कोई भी
आवश्यकता
नहीं, अत्यंत
अनावश्यक है
ऐसा सोचना।
इस
संबंध में कुछ
और प्रश्न
होंगे तो रात
हम फिर उन पर
बात करेंगे।
फिर
मैं अंत में
दोहरा दूं—एक
ही बात मैंने
कही है, जो
बहुत
बुनियादी है।
अपने ज्ञान को
कसें, खोजें
कि वह आपका
अपना है या
किसी और का।
और अगर आपको
दिखाई पड जाए
कि वह किसी और
का है तो वह
व्यर्थ हो
जाएगा। और जिस
दिन आपको
दिखाई पड़ जाए
कि मेरे पास
अपना अभी कोई
जान नहीं, उसी
क्षण से आपके
भीतर अपने
ज्ञान के जन्म
की किरण उतरनी
शुरू होती है।
उसी क्षण से
एक क्रांति
शुरू हो जाती
है।
फिर कोई
और प्रश्न
होंगे तो रात
उन पर हम बात
करेंगे।
दोपहर
की बैठक पूरी
हुई।
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