प्रश्नसार:
1—ये
विधियां
तंत्र की
केंद्रीय विषय—वस्तु
है
या योग
की?
2—संभोग
को ध्यान
कैसे बनाएं?
क्या किसी
विशेष
आसन का अभ्यास
जरूरी है?
3—अनाहत
नाद कोई ध्वनि
है या निर्ध्वनि?
पहला
प्रश्न :
कृपया
समझाएं कि
विज्ञान भैरव
तंत्र की जिन
विधियों की
चर्चा आपने अब
तक की है वे क्या
तंत्र की वास्तविक
विषय—वस्तु न
होकर योग—विज्ञान
की विधियां
है। और तंत्र
की केंद्रीय
विषय—वस्तु
क्या है?
यह प्रश्न
अनेक लोगों को
उठता है। हमने
जिन विधियों
की चर्चा की
है वे योग में
भी हैं।
विधियां वही
हैं,
लेकिन एक
फर्क के साथ।
एक ही विधि का
प्रयोग
सर्वथा भिन्न
दर्शन की
पृष्ठभूमि
में किया जा
सकता है।
विधियां वही
होंगी सिर्फ
पृष्ठभूमि
भिन्न होगी, ढांचा भिन्न
होगा। जीवन के
प्रति
तुम्हारी
दृष्टि भिन्न
हो सकती है, तंत्र की
दृष्टि से
सर्वथा भिन्न
हो सकती है।
योग
संघर्ष में
विश्वास करता
है,
योग
बुनियादी रूप
से संकल्प का
मार्ग है।
तंत्र संघर्ष
में विश्वास
नहीं करता, तंत्र
संकल्प का
मार्ग नहीं है।
बल्कि इसके
विपरीत, तंत्र
समग्र समर्पण
का मार्ग है।
तंत्र में
तुम्हारे
संकल्प की
जरूरत नहीं है।
तंत्र के लिए
तो संकल्प ही
समस्या है
संकल्प ही
मनुष्य के
सारे संताप का
स्रोत है। और
योग के लिए
तुम्हारा
समर्पण, तुम्हारी
संकल्प—हीनता
समस्या है।
योग
की समझ है कि
तुम दुख में
हो,
क्योंकि
तुम्हारा
संकल्प
निर्बल है। और
तंत्र की समझ
है कि तुम
अपने अहंकार
के कारण दुख
में हो; तुम
दुख में हो, क्योंकि
तुम्हारा
अपना
व्यक्तित्व
है। योग कहता
है कि तुम
अपने संकल्प
को उसकी पूर्णता
पर ले आओ और
तुम मुक्त हो
जाओगे। और
तंत्र कहता है
कि अपने
संकल्प को
पूरी तरह विसर्जित
कर दो, उससे
समग्रत: रिक्त
हो जाओ और वह
रिक्तता ही तुम्हारी
मुक्ति बन
जाएगी।
और
योग और तंत्र
दोनों सही हैं।
और इससे ही
प्रश्न उठता
है। मेरे देखे
दोनों सही हैं।
लेकिन योग का
मार्ग बहुत
कठिन है। यह
असंभव है, करीब—करीब
असंभव है कि
तुम अहंकार की
पूर्णता को उपलब्ध
हो जाओ। उसका
मतलब है कि
तुम पूरे
अस्तित्व का
केंद्र बन गए।
यह लंबा और कठिन
मार्ग है। सच
तो यह है कि
योग कभी अंतिम
मंजिल तक नहीं
पहुंचता है।
तो फिर योग के
अनुयायियों
का क्या होता
है? योग के
अनुयायी
साधना के पथ
पर चलते हुए
कहीं न कहीं, किसी न किसी
जन्म में
तंत्र की तरफ
मुड़ जाते हैं।
बौद्धिक
तल पर सोचने से
तो योग संभव
मालूम पड़ता है, लेकिन
अस्तित्वगत
रूप से वह
असंभव है।
वैसे वह संभव
है, तुम
योग से भी
पहुंच जाओगे।
लेकिन
सामान्यत: कभी
ऐसा होता नहीं
है। और यदि
होता भी है तो
यदा—कदा ही।
उदाहरण के लिए
महावीर का नाम
लिया जा सकता
है। सदियों—सदियों
में कभी
महावीर जैसे
पुरूष होता है, जो योग से भी पहुंच
जाता है।
लेकिन महावीर
दुर्लभ हैं, अपवाद हैं, वे नियम तोड़कर
पहुंचते हैं।
लेकिन योग
तंत्र से
ज्यादा
आकर्षक है।
तंत्र सरल है,
स्वाभाविक
है और तंत्र
से बहुत आसानी
से पहुंचा जा
सकता है, बहुत
सहजता से, अनायास
पहुंचा जा
सकता है। और
यही कारण है
कि तंत्र
तुम्हें कभी
उतना आकर्षक
नहीं लगता है।
क्यों?
जो
भी चीज
तुम्हें भाती
है वह दरअसल
तुम्हारे अहंकार
को भाती है।
जिस चीज से भी
तुम्हें
लगेगा कि
तुम्हारे अहंकार
की तृप्ति
होगी वह चीज
तुम्हें
ज्यादा भाएगी।
तुम अहंकार के
चंगुल में हो, इससे
ही तुम्हें
योग बहुत प्रभावित
करता है। सच
तो यह है कि
तुम्हारा
अहंकार जितना
बड़ा होगा, योग
तुम्हें उतना
ही अधिक
प्रभावित
करेगा। योग
शुद्ध अहंकार
का प्रयास है।
जो चीज जितनी
असंभव होगी वह
अहंकार को
उतनी ही
आकर्षित
करेगी।
यही
कारण है कि
एवरेस्ट में
इतना आकर्षण
है। हिमालय के
इस शिखर पर
पहुंचने का
आकर्षण
इसीलिए है
क्योंकि वह बहुत
कठिन है। जब हिलेरी और तेनसिह
एवरेस्ट पर
पहुंचे तो
उनके आह्लाद
का हिसाब नहीं
था। वह क्या
था?
उनका
अहंकार तृप्त
हो गया, क्योंकि
वे पहुंचने
वाले पहले लोग
थे।
जब
पहले आदमी ने
चंद्रमा पर
पैर रखा तो
क्या तुम सोच
सकते हो कि
उसे कैसा लगा
होगा? वह पूरे
इतिहास में
पहला आदमी था
जो चांद पर उतरा।
और अब उसका यह
स्थान उससे
नहीं छीना जा
सकता, वह
सदा के लिए
इतिहास का
प्रथम
व्यक्ति बन
गया। भावी
इतिहास में भी
उसका यह पद
अटल बना रहेगा।
अहंकार को
इससे बड़ी
परितृप्ति और
क्या हो सकती
है? अब
उसका कोई
प्रतिस्पर्धी
न रहा, न हो
सकता है। अनेक
लोग चांद पर
पहुंचेंगे, लेकिन वे
प्रथम न होंगे।
अनेक
लोग चांद पर
जाएंगे, अनेक
लोग एवरेस्ट
पर जाएंगे—लेकिन
योग और भी
ऊंचा शिखर
प्रदान करता
है। और मंजिल
जितनी अगम्य
हो, अहंकार
की उतनी ही
पुष्टि होती
है, अहंकार
शुद्ध और
पूर्ण होता है।
नीत्शे को योग
बहुत पसंद
पड़ता, क्योंकि
वह समझता था
कि जीवन के
पीछे जो ऊर्जा
काम कर रही है
वह संकल्प की
ऊर्जा है—विल
टु पावर। योग
तुम्हें वही
भाव देता है, उससे तुम
ज्यादा
शक्तिशाली
होते हो। तुम
अपने पर जितना
नियंत्रण कर
पाते हो, अपनी
वृत्तियों पर,
शरीर और मन
पर जितना
अधिकार
प्राप्त करते
हो, तुम
उतने ही अधिक
शक्तिशाली हो
जाते हो। तुम
उतने ही अपने
भीतर मालिक हो
जाते हो।
लेकिन
यह उपलब्धि
द्वंद्व के
मार्ग से आती
है,
संघर्ष और
हिंसा के
रास्ते से आती
है। और लगभग
यह सदा होता
है कि जो व्यक्ति
योग के मार्ग
से अनेक
जन्मों तक
साधना करता है
वह एक क्षण
ऐसे बिंदु पर
पहुंचता है जहां
उसे पूरी
यात्रा
मरुस्थल जैसी
सूखी और व्यर्थ
प्रतीत होती
है। क्योंकि
जितना ही
अहंकार
परितृप्त
होता है उतना
ही तुम्हें
लगता है कि सब
व्यर्थ है। और
तब योग—पथ का
पथिक तंत्र की
तरफ मुड़ता
है।
लेकिन
योग का प्रभाव
है,
क्योंकि
लोग अहंकारी
हैं। आरंभ में
तंत्र कभी
किसी को आकर्षित
नहीं करता है।
तंत्र सदा
ऊंचे साधकों
को आकर्षित
करता है, जिन्होंने
जन्मों—जन्मों
तक योग के
द्वारा साधना
की है, संघर्ष
किया है। तब
वे तंत्र की
ओर मुंह करते
हैं, क्योंकि
तब वे उसे समझ
सकते हैं।
सामान्यत:
तंत्र
तुम्हें नहीं भाएगा और भाएगा भी
तो गलत कारणों
से समर्पण का भाएगा। उन
गलत कारणों को
भी समझना
जरूरी है।
शुरू—शुरू
में तंत्र
तुम्हें
प्रीतिकर
नहीं लगेगा,
क्योंकि
तंत्र तुमसे
संघर्ष नहीं, समर्पण की
मांग करता है।
तंत्र कहता
है. नदी में
बहो, तैसे
मत। वह कहता
है : धारा के
साथ चलो, उलटी
दिशा में जाने
का प्रयत्न मत
करो। तंत्र
कहता है कि
स्वभाव शुभ है,
स्वभाव पर
भरोसा करो, उससे लडो
मत। तंत्र
कहता है कि
कामवासना भी
शुभ है, उसका
भरोसा करो, उसका अनुगमन
करो, उसके
साथ बहो, उससे
लड़ो मत।
तंत्र की
केंद्रीय
शिक्षा असंघर्ष
है। बहो, जो
होता है उसे
होने दो।
यह
प्रभावी नहीं
हो सकता, इससे
तुम्हारे
अहंकार की
पूर्ति नहीं
होती है। आरंभ
में ही तंत्र
तुम्हारे
अहंकार की
आहुति चाहता
है, वह
कहता है कि
अहंकार को
विसर्जित करो।
योग भी अहंकार
का विसर्जन
चाहता है, लेकिन
अंत में। वह
पहले अहंकार
को शुद्ध करने
को कहता है।
और अहंकार अगर
पूरी तरह
शुद्ध हो जाए
तो वह विसर्जित
हो जाता है।
लेकिन वह योग
का अंतिम चरण
है। तंत्र में
वही प्रथम है।
लेकिन तंत्र
आमतौर से
प्रभावी नहीं
होता है। और
अगर वह प्रभावी
भी होता है तो
गलत कारणों से।
उदाहरण
के लिए, अगर
तुम काम या
सेक्स का मजा
लेना चाहते हो
तो तुम तंत्र
के नाम पर उसे
तर्कसंगत बना
सकते हो।
तंत्र इस अर्थ
में आकर्षक हो
सकता है। अगर
तुम नशे में, संभोग में, वैसी किसी
भी चीज में
उतरना चाहते
हो तो तंत्र
तुम्हें
आकर्षक मालूम
पड़ेगा। लेकिन
तब तुम
वस्तुत: तंत्र
में उत्सुक
नहीं हो, तंत्र
तुम्हारे लिए
बस मुखौटा है,
बहाना है।
तुम्हारा
आकर्षण किसी
और चीज में है
और तुम सोचते
हो कि तंत्र
तुम्हें उसकी
इजाजत देता है।
इसलिए तंत्र
सदा गलत
कारणों से
प्रभावी होता है।
तंत्र
तुम्हें
तुम्हारे भोग
में सहारा
देने के लिए नहीं
है,
वह तुम्हें
रूपांतरित
करने के लिए
है। अपने को
धोखा मत दो।
तंत्र के
द्वारा तुम
अपने को आसानी
से धोखा दे
सकते हो। और आत्मवचना
की इसी
संभावना के
कारण महावीर
तंत्र की बात नहीं
करते। यह
संभावना, यह
खतरा सदा है। आदमी
इतना आत्मवचक
है कि वह
कहेगा कुछ और
करेगा कुछ और
ही। वह आत्मवचना
को भी
तर्कसंगत बना
सकता है।
उदाहरण
के लिए, पुराने
चीन में तंत्र
जैसा ही एक
गुह्य वितान था,
जिसे ताओ
कहते हैं। ताओ
तंत्र से
मिलता—जुलता
है। उदाहरण के
लिए, ताओ
कहता है कि
अगर तुम
कामवासना से
मुक्त होना
चाहते हो तो
अच्छा है कि
तुम एक ही
व्यक्ति से, एक पुरुष या
एक स्त्री से
मत चिपके रहो।
अगर तुम काम
से मुक्ति
चाहते हो तो
एक ही व्यक्ति
के साथ मत रहो,
अपने साथी
सदा बदलते रहो।
यह
बिलकुल सही है।
लेकिन तुम
इसकी आडू लेकर
अपने को धोखा
दे सकते हो।
हो सकता है कि
तुम मात्र काम—विक्षिप्त
हो,
तुम पर
वासना का भूत
सवार हो और
तुम तर्क कर
सकते हो कि
मैं तंत्र—साधना
कर रहा हूं
इसलिए मुझे एक
ही स्त्री से नहीं
चिपके रहना है,
अनेक का साथ
चाहिए। चीन
में अनेक
सम्राट इस
साधना की आड़
में बडे—बडे हरम और जनान खाने
रखते थे।
लेकिन
अगर तुम
मनुष्य के
मनोविज्ञान
को गहराई में देखोगे तो
तुम्हें ताओ
की अर्थवत्ता
समझ में आ
जाएगी। इसमें
अर्थ है। अगर
तुम एक ही
स्त्री से
संबंधित रहते
हो तो देर—अबेर
उस स्त्री के
लिए तुम्हारा
आकर्षण क्षीण
हो जाएगा,
लेकिन स्त्रियों
के प्रति
तुम्हारा आकर्षण
बना रहेगा।
विपरीत यौन के
लिए तुम्हारा
खिंचाव कायम
रहेगा। यह
स्त्री, जो
तुम्हारी
पत्नी है, तुम्हारे
लिए विपरीत
यौन की नहीं
रह जाएगी, वह
तुम्हें
आकर्षित नहीं
करेगी, मोहित
नहीं करेगी।
तुम उसके आदी
हो जाओगे।
ताओ
कहता है कि
अगर कोई पुरुष
अनेक
स्त्रियों का
सहवास करे तो
वह एक ही
स्त्री से
नहीं, स्त्री
मात्र से ही
मुक्त हो
जाएगा, उसका
अतिक्रमण कर
जाएगा। अनेक
स्त्रियों का
शान उसे
अतिक्रमण
करने में
सहयोगी होगा।
और यह ठीक है, लेकिन
खतरनाक भी है।
खतरनाक इसलिए
है कि तुम इसे
सही होने के
कारण नहीं, बल्कि इसलिए
पसंद करोगे
क्योंकि यह
तुम्हें
उच्छृंखल
होने की अनुमति
देता है।
तंत्र
के साथ यही
समस्या है।
इसीलिए चीन
में उस विद्या
को दबा दिया
गया,
दमन जरूरी
हो गया। भारत
में भी तंत्र
को दबाया गया,
क्योंकि वह
बहुत खतरनाक
बातें कहता था।
वे बातें
खतरनाक इसलिए
थीं क्योंकि
तुम बड़े
धोखेबाज हो।
अन्यथा वे
अदभुत हैं।
तंत्र से
ज्यादा अदभुत
और
रहस्यपूर्ण
घटना मनुष्य
की चेतना में
दूसरी नहीं
घटी है। अन्य
कोई विद्या
इतनी गहरी
नहीं गई है।
लेकिन
ज्ञान के खतरे
हैं,
सदा से हैं।
उदाहरण के लिए,
अब विज्ञान
खतरा बन रहा
है, क्योंकि
उसे अनेक गहरे
रहस्यों का
पता चल गया है।
अब उसे मालूम
है कि परमाणु—ऊर्जा
का सृजन कैसे
किया जाता है।
आइंस्टीन ने
कहा है कि अगर
मुझे फिर से
जीवन मिले तो
मैं
वैज्ञानिक
होने की बजाय प्लंबर
होना पसंद
करूंगा।
क्योंकि उसने
कहा कि जब मैं
पीछे लौटकर
देखता हूं तो
मुझे अपना
पूरा जीवन
व्यर्थ मालूम
पड़ता है।
व्यर्थ ही
नहीं, मनुष्यता
के लिए खतरनाक
मालूम पड़ता है।
और आइंस्टीन
ने मनुष्य को
एक गहनतम
रहस्य का पता
दिया है।
लेकिन ऐसे
मनुष्य को जो
आत्म—वंचक है।
मुझे
लगता है कि वह
दिन शीघ्र आने
वाला है जब हमें
विज्ञान को भी
दबा देना पड़े।
खबर है कि
वैज्ञानिकों
के बीच गुप्त
विचार—विमर्श
चल रहा है कि
दुनिया को और
अधिक जानकारी
न दी जाए। वे
विचार कर रहे
हैं कि
वैज्ञानिक
शोध को और आगे बढ़ाए या
नहीं, क्योंकि
अब वह खतरनाक
होती जा रही
है।
सब
ज्ञान खतरनाक
है,
केवल
अज्ञान
निरापद है।
अज्ञान को
लेकर तुम बहुत
कुछ नहीं कर
सकते।
अंधविश्वास
सदा निरापद
होते हैं।
उनसे कोई बड़ा
खतरा नहीं हो
सकता। वे
होमियोपैथी
की दवा जैसे
हैं।
होमियोपैथी
की दवा कोई
नुकसान नहीं
करती है। उससे
लाभ होगा या
नहीं, यह
तुम्हारी
निर्दोषता पर
निर्भर है, लेकिन एक
बात निश्चित
है, उससे
कुछ नुकसान नहीं
होने वाला है।
होमियोपैथी
निरापद है, वह एक गहन
अंधविश्वास
है। अगर वह
काम करे तो
उससे लाभ ही
होगा।
और
ध्यान रहे, यदि
किसी चीज से
लाभ ही होता
हो तो वह गहरा
अंधविश्वास
है। अगर उससे
लाभ और हानि
दोनों होते
हों तो ही वह ज्ञान
है। सच्ची चीज
दोनों करती है,
वह लाभ और
हानि दोनों
करती है। केवल
नकली चीज से
लाभ ही होता
है। लेकिन वह
लाभ दरअसल उस
चीज से नहीं
आता है, वह
तुम्हारे मन
का प्रक्षेपण
होता है। एक
अर्थ में केवल
भ्रामक चीजें
ही अच्छी होती
हैं, वे
तुम्हें कभी
नुकसान नहीं पहुंचाती।
तंत्र
विज्ञान है और
वह परमाणु—विज्ञान
से भी अधिक
गहन विज्ञान
है। परमाणु—विज्ञान
पदार्थ से
संबंधित है,
तंत्र तुमसे
संबंधित है।
और तुम सदा ही
किसी भी
परमाणु—ऊर्जा
से ज्यादा
खतरनाक हो।
तंत्र जैविक
परमाणु से, तुमसे, जीवंत
कोशिका से, स्वयं जीवन—चेतना
से संबंधित है,
उसकी आंतरिक
व्यवस्था से
संबंधित है।
यही
वजह है कि काम
या सेक्स में
तंत्र की रुचि
इतनी गहरी है।
जो व्यक्ति
जीवन और चेतना
में रुचि रखता
है,
वह अपने आप
काम में रुचि
लेगा।
क्योंकि काम
जीवन का स्रोत
है, प्रेम
का स्रोत है।
चेतना के जगत
में जो भी घट
रहा है उसका
आधार काम है।
अगर कोई साधक
काम में
उत्सुक नहीं
है तो समझना
चाहिए कि वह
साधक ही नहीं
है। वह
दार्शनिक हो
सकता है, पर
वह साधक नहीं
है। और
दर्शनशास्त्र
करीब—करीब
कचरा है, व्यर्थ
की चीजों के
संबंध में
ऊहापोह है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
को लड़कियों
में काफी
दिलचस्पी थी।
लेकिन दुर्भाग्य
से कोई लड़की
उसे नहीं
चाहती थी। एक
बार वह किसी
लड़की से पहली
दफा मिलने जा
रहा था, तो
मिलने के पहले
उसने अपने एक
मित्र से कहा :
तुम तो
लड़कियों के
मामले में
बहुत कुशल हो,
उन पर
तुम्हारा
जादू काम करता
है और एक मैं
हूं कि सदा
असफलता ही हाथ
आती है, बताओ
कि तुम्हारा
राज क्या है? मैं एक लड़की
से पहली बार
मिलने जा रहा
हूं मुझे कुछ
तरकीब बता दो
तो बहुत अच्छा।
उसके मित्र ने
कहा. तीन
चीजें याद रखो—हमेशा
भोजन, खानदान
और फिलासफी
की बातें करना।
मुल्ला
ने पूछा कि
भोजन की बात
क्यों करनी
चाहिए? मित्र
ने कहा कि मैं
भोजन की बात
इसलिए करता
हूं क्योंकि
उससे लड़की खुश
रहती है। कारण
है। कारण है
कि हरेक
स्त्री भोजन
में उत्सुक है।
वह खुद बच्चे
के लिए भोजन
है, वह
पूरी
मनुष्यता के
लिए भोजन है, इसलिए उसकी
बुनियादी
रुचि भोजन में
है। मुल्ला ने
फिर पूछा कि
खानदान की बात
किसलिए
की जाए? मित्र
ने कहा कि
उसके खानदान
की बात करने
से तुम्हारे
इरादे नेक
मालूम पड़ेंगे।
और जब मुल्ला
ने ऐसे ही फिलासफी
के संबंध में
पूछा तो मित्र
ने कहा कि फिलासफी
की बातचीत
करने से
स्त्री को
एहसास होता है
कि मैं
बुद्धिमान
हूं।
तो
मुल्ला लड़की
के पास आनन—फानन
गया और उससे
मिलते ही पूछा, क्या
तुम्हें सेवई
पसंद है? लड़की
तो चकित रह गई
और उसने कहा, नहीं। तो
मुल्ला ने
उससे पूछा, क्या
तुम्हारे दो
भाई हैं? लड़की
तो और भी
हैरान हो गई
और सोचने लगी
कि किस ढंग का
प्रेमी है यह।
लड़की ने कहा, नहीं। तो
मुल्ला भी कुछ
परेशान हुआ और
सोचने लगा कि
अब
दर्शनशास्त्र
के बारे में
चर्चा किस तरह
छेड़ी जाए।
क्षणभर
की परेशानी के
बाद उसने
तीसरा तीर
छोड़ा, अगर
तुम्हें भाई
होता तो क्या
उसे सेवई पसंद
होती?
दर्शनशास्त्र
ऐसी ही बकवास
है। तंत्र की
उत्सुकता
दर्शनशास्त्र
में नहीं है, उसकी
उत्सुकता
वास्तविक और
अस्तित्वगत
जीवन में है।
तंत्र कभी
नहीं पूछता कि
क्या ईश्वर है,
क्या मोक्ष
है, क्या
स्वर्ग—नरक है।
तंत्र जीवन के
संबंध में
बुनियादी
प्रश्न पूछता
है। यही कारण
है कि काम और
प्रेम में
उसकी इतनी
रुचि है।
काम
और प्रेम
बुनियादी हैं।
तुम उनके
द्वारा जगत
में आए हो, तुम
उनके अंश हो।
तुम
काम—ऊर्जा
का खेल भर हो, और
कुछ भी नहीं।
और जब तक तुम
इस ऊर्जा को
समझते नहीं, इसका अतिक्रमण
नहीं करते,
तब तक तुम इससे
कुछ ज्यादा नहीं
हो सकते। अभी तो
तुम काम—ऊर्जा
के सिवाय कुछ
भी नहीं हो।
तुम
काम—ऊर्जा से
ऊपर उठ सकते
हो,
उससे बहुत
अधिक हो सकते
हो, लेकिन
उसके लिए
तुम्हें काम—ऊर्जा
को समझना होगा,
उसका
अतिक्रमण
करना होगा।
अन्यथा कभी
तुम काम—ऊर्जा
से अधिक नहीं
हो सकते। जो
संभावना है वह
बस बीज की
भांति है। यही
वजह है कि
तंत्र काम—ऊर्जा
में, प्रेम
में, सहज
जीवन में इतना
उत्सुक है।
लेकिन
काम—ऊर्जा को
जानने का
मार्ग संघर्ष
नहीं है।
तंत्र कहता है
कि तुम अगर
लड़ने की
मनःस्थिति में
हो तो तुम
किसी भी चीज
को नहीं जान
सकते, क्योंकि
तब तुम
ग्रहणशील
नहीं हो सकते।
इस लड़ने के
कारण ही जीवन
का राज तुमसे
छिपा रह जाएगा,
तुम उसे
जानने के लिए
खुले हुए नहीं
हो। और जब भी
तुम लड़ते हो, तुम बाहर रह
जाते हो। अगर
तुम काम—ऊर्जा
से लड़ते हो तो
तुम सदा बाहर—बाहर
रह जाते हो।
और अगर तुम
उसके प्रति
अपने को
समर्पित कर देते
हो तो तुम
उसके अंतर्गृह
में प्रवेश कर
जाते हो, तब
तुम अंतेवासी
हो जाते हो।
अगर तुम
समर्पण करते
हो तो बहुत सी
चीजों से परिचित
हो जाते हो।
तुमने
सेक्स को जीया
जरूर है, लेकिन
हमेशा ही उसके
प्रति
शत्रुता का
भाव बनाए रखा
है। नतीजा यह
हुआ है कि तुम
उसके अनेक
रहस्यों से वंचित
रह गए हो।
उदाहरण के लिए,
तुमने काम—ऊर्जा
की जीवनदायी
शक्तियों को
नहीं जाना है।
तुम नहीं जान
सके, क्योंकि
तुम उसे ऊपर—ऊपर
से नहीं जान
सकते हो—जानने
के लिए भीतर
प्रवेश की
जरूरत है।
अगर
तुम सचमुच काम—ऊर्जा
के साथ बहते
हो,
उसके प्रति
समर्पित होकर
बहते हो तो
देर—अबेर
तुम्हें
मालूम हो
जाएगा कि काम
नए जीवन को ही
जन्म नहीं
देता, तुम्हें
भी अधिक जीवन
प्रदान कर
सकता है।
प्रेमियों के
लिए काम या
सेक्स
जीवनदायी शक्ति
बन सकता है, लेकिन उसके
लिए समर्पण
जरूरी है।
और
समर्पण करते
ही अनेक आयाम
बदल जाते हैं।
उदाहरण के लिए, तंत्र
और ताओ दोनों
को पता है कि
अगर वीर्यपात
होता है तो
संभोग
जीवनदायी
नहीं हो सकता
है। वीर्यपात
की कोई जरूरत
नहीं है, वीर्यपात
को भूला जा
सकता है।
तंत्र और ताओ
का मानना है
कि क्योंकि
तुम लड़ते हो
इसलिए
वीर्यपात
होता है, अन्यथा
उसकी जरूरत
नहीं है।
प्रेमी—प्रेमिका
बहुत
विश्रामपूर्ण
गहन कामालिंगन
में हो सकते
हैं और उन्हें
स्खलन की, संभोग
समाप्त करने
की जल्दी नहीं
रहेगी। वे एक—दूसरे
में डूब सकते
हैं। और अगर
यह डूबना
समग्र हो सके
तो दोनों को
अधिक जीवन का
अनुभव होगा, वे एक—दूसरे
को अधिक
समृद्ध कर
देंगे।
ताओ
कहता है कि
मनुष्य की
उम्र हजार
वर्ष हो सकती
है अगर वह काम—कृत्य
में जल्दबाजी
न करे, अगर वह
गहन विश्राम
में हो सके।
अगर स्त्री—पुरुष
गहन विश्राम
में हों, एक—दूसरे
में डूब जाएं,
खो जाएं, जल्दी में न
हों, तनाव
में न हों, तो
बहुत चीजें, अदभुत चीजें
घटित होती हैं।
क्योंकि तब
दोनों के जीवन—रस,
दोनों की
विद्युत—ऊर्जा,
दोनों की
जैविक—ऊर्जा
आपस में मिलती
है, और इस
मिलन से, परस्पर
विरोधी
तत्वों के
मिलन से, प्रगाढ़
मिलन से वे एक—दूसरे
को शक्तिशाली
कर देते हैं, अधिक जीवंत
और प्राणवान
बना देते हैं।
इसतरह वे
दीर्घायु हो
सकते हैं और
सदा युवा रह
सकते हैं।
लेकिन
यह तभी जाना
जा सकता है जब
तुम संघर्ष की
भाव—दशा से
मुक्त हो जाओ, जब
उसकी जगह
स्वीकार और
सहयोग की भाव—दशा
निर्मित हो।
और यह बड़ी
विरोधाभासी बात
मालूम होती है।
जो लोग
कामवासना से लड़ते
है वे शीध्रपात
के शिकार होंगे, क्योंकि तनावग्रस्त
चित्त तनाव से
मुक्त होने की
जल्दी में है।
अब
तो नयी खोजें
बहुत हैरानी
के तथ्य प्रकट
कर रही हैं। मास्टर्स
और जानसन
ने पहली दफा
संभोग की
प्रक्रिया का
वैज्ञानिक
अध्ययन किया
है। और वे इस
नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
पचहत्तर प्रतिशत
पुरुष शीघ्रपात
के शिकार हैं—पचहत्तर
प्रतिशत! गहन
मिलन के पहले
ही वे स्खलित
हो जाते हैं
और क्रीड़ा
समाप्त हो
जाती है। और
नब्बे
प्रतिशत स्त्रियां
कभी आर्गाज्म
को नहीं
उपलब्ध हांती
हैं,
कभी संभोग
के शिखर सुख
को नहीं पहुंच
पाती हैं—नब्बे
प्रतिशत
स्त्रियां!
यही
कारण है कि
अक्सर
स्त्रियां चिड़चिड़ी
और क्रोधी
होती हैं।
उन्हें ऐसा
होना ही है।
कोई औषधि
उन्हें शांत
नहीं बना सकती
है,
कोई
दर्शनशास्त्र,
धर्म या
नीति उन्हें
अपने पुरुषों
के प्रति सहृदय
नहीं बना सकती।
वे अतृप्त हैं।
वे क्रुद्ध
हैं। और
आधुनिक
मनोविज्ञान
और तंत्र
दोनों कहते हैं
कि जब तक
स्त्री काम—
भोग में गहन
तृप्ति को
नहीं प्राप्त
होती, वह
परिवार के लिए
समस्या बनी
रहेगी। जिससे
वह वंचित रह गई
है, वह चीज
उसे क्षुब्ध
रखेगी और वह
हमेशा झगड़ालू
बनी रहेगी।
तो
अगर तुम्हारी
पत्नी हमेशा लड़ती—झगड़ती
रहती है तो
पूरी स्थिति
पर फिर से
विचार करो।
इसमें पत्नी
का ही कसूर
नहीं है, हो
सकता है कि
उसका कारण
तुम्हीं हो।
और आर्गाज्म
को न उपलब्ध
होने के कारण
स्त्रियां
काम—विमुख हो
जाती हैं, वे
आसानी से काम—
भोग में उतरने
को नहीं राजी
होतीं।
उन्हें
रिश्वत देनी
पड़ती है, वे
संभोग में
जाने को राजी
नहीं होतीं।
और वे क्यों
राजी हों यदि
उन्हें इससे
गहन सुख की
उपलब्धि ही
नहीं होती?
सच
तो यह है कि
स्त्रियों को
लगता है कि
पुरुष उनका
उपयोग करते
हैं,
उनका शोषण
करते हैं।
उन्हें लगता
है कि हम कोई
वस्तु हैं
जिसका उपयोग
करके फेंक
दिया जाता है।
पुरुष तो
संतुष्ट हो
जाता है, क्योंकि
वह स्खलित हो
जाता है। फिर
वह करवट लेकर
सो जाता है।
लेकिन स्त्री आंसू
बहाती रहती है।
वह अनुभव उसके
लिए तृप्तिदायी
नहीं होता है।
उसे लगता है
कि मेरा उपयोग
किया गया है।
हो सकता है, उसके पति, प्रेमी या
मित्र को उससे
राहत मिली हो,
लेकिन वह
खुद अतृप्त रह
जाती है।
सौ
में से नब्बे
स्त्रियां तो
यह भी नहीं
जानती हैं कि
आर्गाज्म
क्या है, काम—समाधि
क्या है।
उन्हें कभी इसका
अनुभव ही नहीं
हुआ। वे कभी
उस शिखर को
नहीं छू पाती
हैं, जहां
उनके शरीर का रोआं—रोआं
आर्गाज्म से
कंपित हो उठे,
भरपूर हो
जाए। यह अनुभव
उनके लिए
अनजाना ही
रहता है।
और
इसका कारण
समाज की काम—विरोधी
दृष्टि है।
मनुष्य का
चित्त सदा काम
से लड़ रहा है।
और स्त्री
इतनी दमित है
कि वह मंदकाम
हो गई है।
पुरुष संभोग
में इस भांति
उतरता है जैसे
कि वह कोई पाप
कर रहा हो।
उसे हमेशा यह
अपराध—भाव
सताता है कि
यह कोई कुकर्म
है। वह शरीर
के तल पर अपनी
पत्नी या
प्रेमिका के साथ
प्रेम करता
रहता है और मन
में किसी
महात्मा की
सोचता रहता है
कि कैसे उनके
पास पहुंचकर
इस अपराध से, इस
पाप से उबरने
का उपाय करे।
महात्माओं
से बचना
मुश्किल है।
जब तुम प्रेम
कर रहे होते
हो तब भी वे
मौजूद रहते
हैं। वहां तुम
दो ही नहीं
होते, महात्मा
भी बगल में
खड़े रहते हैं।
और अगर वहां
महात्मा न हुए
तो परमात्मा आ
जाता है और
तुम्हारे पाप
पर पहरा देने
लगता है।
लोगों के मन
में परमात्मा
की जो धारणा
है वह एक बड़े
पहरेदार की
धारणा है, मानो
वह तुम पर सतत
पहरा दे रहा
है। और यही
दृष्टि चिंता
पैदा करती है।
और चिंता से
जल्दी
वीर्यपात हो
जाता है।
अगर
यह चिंता न हो
तो संभोग को घंटों, दिनों
लंबाया जा
सकता है।
वीर्यपात
जरूरी नहीं है।
अगर प्रेम गहन
हो तो दोनों
प्रेमी एक—दूसरे
को संजीवन
प्रदान कर
सकते हैं। तब
स्खलन की बात
समाप्त हो
जाती है और
प्रेमी—युगल
वर्षों स्खलित
हुए बिना, ऊर्जा
नष्ट किए बिना
एक—दूसरे में
डूबे रह सकते
हैं, प्रेम
कर सकते हैं।
वे एक—दूसरे
में विश्राम
को उपलब्ध हो
सकते हैं। तब
उनके शरीर
आलिंगन में
होकर भी
विश्राम पूर्ण
रह सकते हैं, तब वे संभोग
में उतरकर
भी
विश्रामपूर्ण
रह सकते हैं।
तब काम—कृत्य
उत्तेजना
नहीं बनेगा, अभी वह
उत्तेजना है।
तब काम गहन
विश्राम बन
जाएगा, समाधि
बन जाएगा।
लेकिन
यह समाधि तभी
संभव है जब
तुम अपने अंतस
में काम—ऊर्जा
के प्रति, जीवन—शक्ति
के प्रति अपने
को समर्पित कर
देते हो। और
उसके बाद ही
तुम अपने
प्रेमी या
प्रेमिका के
प्रति
समर्पित हो
सकते हो।
तंत्र
का कहना है कि
यह होता है।
और तंत्र इसके
होने का उपाय
करता है।
तंत्र कहता है
कि जब तुम
उत्तेजित हो
तो कभी संभोग
में मत उतरो।
यह बात बहुत
बेबूझ मालूम
पड़ेगी, क्योंकि
तुम तो तभी
उसमें उतरना
चाहते हो जब कामोत्तेजना
पकड़ती है।
और सामान्यत:
उसमें उतरने
के लिए स्त्री
और. पुरुष एक—दूसरे
को उत्तेजित
भी करते हैं। लेकिन
तंत्र कहता है
कि उत्तेजना
में सिर्फ ऊर्जा
नष्ट होती है।
केवल तभी
प्रेम करो जब
तुम
अनुद्विग्न, शांत और
ध्यानपूर्ण
हो। पहले
ध्यान करो और
तब संभोग में
उतरो। और
संभोग में
सीमा का
उल्लंघन मत
करो। और सीमा
का उल्लंघन न
करने का क्या
अर्थ है? अर्थ
यह है कि उत्तेजित
और हिंसात्मक
मत होओ, ताकि
ऊर्जा का
बिखराव न हो।
अगर
तुम प्रेम—कृत्य
में संलग्न
किसी जोड़े को
देखो तो तुम्हें
लगेगा कि वे
लड़ रहे हैं।
जब छोटे बच्चे
अपने मां —बाप
को इस अवस्था
में देखते हैं
तो उन्हें लगता
है कि बाप मां
को मार डालने
पर उतारू है।
वह लड़ाई जैसा
मालूम पड़ता है, हिंसापूर्ण
लगता है और
अशोभन भी। वह
सुंदर नहीं
लगता।
उसे
ज्यादा
लयपूर्ण होना
चाहिए, ज्यादा
संगीतपूर्ण
होना चाहिए।
प्रेमी—युगल
को नृत्यमय
होना चाहिए, संघर्षमय
नहीं। इसे तो
ऐसा होना
चाहिए मानो कि
वे कोई लयपूर्ण
गीत गा रहे
हों। उन्हें
एक ऐसा
वातावरण
निर्मित करना
चाहिए जिसमें
दोनों घुल—मिलकर
एक हो जाएं।
और तभी वे
विश्रामपूर्ण
हो सकते हैं।
तंत्र का यही
अर्थ है।
तंत्र
जरा भी कामुक
नहीं है।
तंत्र सबसे कम
कामुक है और
फिर भी काम—ऊर्जा
से इतना
संबंधित है।
यदि विश्राम
और सहजता के
द्वार से
प्रकृति तुम्हें
अपने रहस्य
बता देती है
तो यह आश्चर्य
की बात नहीं
है। तब
तुम्हें बोध
होने लगता है
कि क्या घटित
हो रहा है। और
उस बोध में ही
तुम पर अनेक
रहस्य प्रकट
होने लगते हैं।
पहली
बात कि काम—कृत्य
जीवनदायी हो
जाता है। अभी
तो जैसा वह है, वह
मृत्युदायी
है। तुम उसके
द्वारा मिटते
हो, नष्ट
होते हो, छिन्न—भिन्न
होते हो। और
दूसरी बात कि तब
काम—कृत्य गहनतम
ध्यान बन जाता
है। तुम्हारे
विचार बिलकुल खो
जाते है, जब
तुम अपने
प्रेमी के साथ
पूरे के पूरे
विश्राम में होते
हो तो विचार
विलीन हो जाते
हैं। तब मन
नहीं रहता है,
केवल हृदय धड़कता है।
वह सहज—स्वाभाविक
ध्यान बन जाता
है। और अगर
प्रेम ध्यान
में सहयोगी
नहीं हो सकता तो
कुछ भी सहयोगी
नहीं हो सकता;
क्योंकि
शेष सब कुछ
ऊपर—ऊपर है, सतही है।
अगर प्रेम
सहयोगी नहीं
हो सकता तो
कुछ भी सहयोगी
नहीं हो सकता।
प्रेम का अपना
ही ध्यान है।
लेकिन
तुम्हें
प्रेम का पता
नहीं है, तुम
सिर्फ
कामवासना से
और उससे होने
वाले ऊर्जा—अपव्यय
के दुख से
परिचित हो। और
तब तुम संभोग
के बाद बहुत
हारे— थके, बहुत
उदासी अनुभव
करते हो। और
फिर तुम
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेते
हो। लेकिन यह
व्रत थकावट की,
उदासी की
हालत में लिया
जाता है, यह
व्रत निराशा
की हालत में
लिया जाता है।
उससे कुछ भी
नहीं होगा।
व्रत
तभी सहयोगी
होता है जब
उसे बहुत
विश्रामपूर्ण
और ध्यान की
भाव—दशा में
लिया जाए।
अन्यथा व्रत
के नाम पर तुम
सिर्फ अपना
क्रोध प्रकट
कर रहे हो, अपनी
निराशा प्रकट
कर रहे हो और
कुछ भी नहीं।
और तुम इस
व्रत को चौबीस
घंटों के भीतर
भूल जाओगे।
फिर काम—ऊर्जा
जागेगी
और तुम फिर
पुरानी आदत के
अनुसार उसे
फेंकने का
उपाय करोगे।
तंत्र
कहता है कि
काम बहुत गहन
है,
क्योंकि
काम ही जीवन
है। लेकिन तुम
गलत कारणों से
उसमें उत्सुक
हो सकते हो।
गलत कारणों से
काम में मत
उत्सुक होओ।
और तब तुम्हें
तंत्र खतरनाक
नहीं लगेगा।
तब तंत्र जीवन—रूपांतरण
की कीमिया है।
योग
ने भी कुछ तांत्रिक
विधियों का
उपयोग किया है, लेकिन
उसने यह उपयोग
संघर्ष के ढंग
से किया है।
तंत्र भी
उन्हीं
विधियों का
उपयोग करता है,
लेकिन वह यह
उपयोग बहुत
प्रेमपूर्ण
भाव से करता
है। और यह
बहुत बड़ा फर्क
है। उससे विधि
की गुणवत्ता
बदल जाती है।
विधि भिन्न हो
जाती है, क्योंकि
पूरी
पृष्ठभूमि
भिन्न है।
पूछा
गया है कि ’तंत्र
की केंद्रीय
विषय—वस्तु
क्या है?'
उत्तर
है. वह तुम हो।
तंत्र की
केंद्रीय
विषय—वस्तु
तुम हों—तुम
जो अभी हो और
जो तुममें
विकसित होने
को छिपा है।
तंत्र का विषय
तुम हों—तुम
जो हो और तुम
जो हो सकते हो।
अभी तो तुम बस
कामवासना हो।
और जब तक यह
काम अच्छी तरह
नहीं समझ लिया
जाता है तब तक
तुम राम नहीं
हो सकते हो, आत्मवान
नहीं हो सकते
हो। कामुकता
और
आध्यात्मिकता
एक ही ऊर्जा
के दो छोर हैं।
तंत्र
वहां से शुरू
करता है जहां
तुम हो, योग
तुम्हारी
संभावना से
शुरू करता है।
योग अंत से
आरंभ करता है,
तंत्र आरंभ
से आरंभ करता
है। और आरंभ
से ही आरंभ
करना अच्छा है।
यह सदा ही
अच्छा है कि
शुरू से ही
शुरू करो। अगर
अंत को आरंभ
बना दिया जाए
तो तुम अपने
लिए नाहक दुख
निर्मित कर लोगे।
तुम अंत नहीं
हो, आदर्श
नहीं हो।
तुम्हें
भविष्य में
परमात्मा
बनना है, आदर्श
बनना है, लेकिन
अभी तो तुम
मात्र पशु हो।
और यह पशु
परमात्मा के
आदर्श के कारण
विक्षिप्त हो
जाता है, पागल
हो जाता है।
तंत्र
कहता है कि
परमात्मा को
भूल जाओ। अगर
तुम पशु हो तो
इस पशु को
उसकी समग्रता में
समझो। उसी समझ
से,
परमात्मा
का विकास होगा।
और अगर इस समझ से
परमात्मा
नहीं विकसित
होता है तो
उसे भूल जाओ, तब फिर वह
कभी नहीं होने
वाला है।
आदर्श
तुम्हारी
संभावना को
वास्तविक
नहीं बना सकते,
यथार्थ का
ज्ञान ही उसे
वास्तविक बना
सकता है।
तो
तंत्र की विषय—वस्तु
तुम हो—जो हो
और जो हो सकते
हो। तुम्हारा
यथार्थ और
तुम्हारी
संभावना तंत्र
की विषय—वस्तु
है।
कभी—कभी
लोग परेशान हो
जाते हैं। अगर
तुम तंत्र को
समझने चलो तो
वहां
परमात्मा की
चर्चा नहीं होती, मोक्ष
और निर्वाण की
चर्चा नहीं
होती। लोग
सोचते हैं, यह तंत्र
किस तरह का
धर्म है!
तंत्र उन
चीजों की
चर्चा करता है
जिनकी चर्चा
से तुम्हें
घबराहट होती
है, जिनकी
चर्चा
तुम्हें पसंद
नहीं है।
सेक्स की
चर्चा कौन
करना चाहता है?
हरेक आदमी
सोचता है कि
मैं इसे जानता
ही हूं।
क्योंकि तुम
बच्चे पैदा कर
सकते हो, इससे
समझते हो कि
मैं जानता हूं।
कोई
आदमी सेक्स की
चर्चा करना
नहीं चाहता है
और सेक्स हरेक
आदमी की
समस्या है।
कोई आदमी
प्रेम की
चर्चा करना
नहीं चाहता है, क्योंकि
हरेक अपने को
पहले से ही
महान प्रेमी माने
बैठा है। और
अपने जीवन को
तो देखो, उसमें
घृणा के
अतिरिक्त और
क्या है! और
जिसे तुम
प्रेम कहते हो
वह भी इसी
घृणा के तनाव
को थोड़ा कम
करने का बहाना
है। अपने
चारों ओर देखो
और तुम्हें
पता चलेगा कि मुझे
प्रेम का पता
नहीं है।
एक
फकीर बालशेम
रोज ही अपने
दर्जी के पास
अपनी पोशाक के
लिए जाता था।
दर्जी ने एक
मामूली पोशाक
बनाने में छह
महीने लगा दिए।
गरीब फकीर! जब
पोशाक बनकर
तैयार हुई और
दर्जी ने उसे
बालशेम के हाथ
में दिया तो
बालशेम ने कहा
कि परमात्मा
ने पूरी
दुनिया छह
दिनों में बना
दी और तुम्हें
एक गरीब फकीर
के कपड़े सीने
में छह महीने
लग गए! बालशेम
ने अपने
संस्मरणों
में इस दर्जी
को याद किया
है। उस दर्जी
ने कहा : है।, परमात्मा
ने छह दिनों
में ही दुनिया
बना दी, लेकिन
इस दुनिया को
तो देखो, किस
तरह की दुनिया
है यह! छह
दिनों में बनी
दुनिया और
कैसी होगी!
अपने
चारों ओर तो
देखो, जो
दुनिया तुमने
बनायी है उसे
तो जरा देखो।
तब तुम्हें
पता चलेगा कि
मैं कुछ नहीं
जानता हूं मैं
बस अंधेरे में
टटोल रहा हूं।
और क्योंकि
दूसरे लोग भी
अंधेरे में
टटोल रहे हैं,
इसलिए यह
नहीं हो सकता
कि तुम प्रकाश
में रहते हो।
और जब सब लोग
अंधेरे में
टटोल रहे हैं
तो यह तुम्हें
अच्छा लगता है,
क्योंकि
कोई तुलना की
बात न रही।
लेकिन
तुम अंधकार
में हो। और
तुम जैसे हो, जो
हो, तंत्र
वहीं से आरंभ
करता है।
तंत्र
तुम्हें उन
बुनियादी
बातों का बोध
देना चाहता है,
जिन्हें
तुम इनकार
नहीं कर सकते।
और अगर तुम
उन्हें इनकार
करने की कोशिश
करोगे तो
तुम्हारा ही
अहित होगा।
दूसरा
प्रश्न:
संभोग
को ध्यान कैसे
बनाया जाए? क्या
उसके लिए
संभोग में किसी
विशेष आसन का अभ्यास
जरूरी है?
आसन
अप्रासंगिक
हैं,
आसन बहुत
अर्थपूर्ण
नहीं हैं।
असली चीज
दृष्टि है, रुझान है।
शरीर की
स्थिति नहीं,
मन की
स्थिति असली
बात है। लेकिन
अगर मन बदल
जाए तो संभव
है कि उसके
साथ आसन भी
बदल जाएं। क्योंकि
वे एक—दूसरे से
जुड़े है। लेकिन
वे बुनियादी
नहीं हैं।
उदाहरण
के लिए, पुरुष
सदा स्त्री के
ऊपर होता है।
इसमें पुरुष
का अहंकार
छिपा है, पुरुष
हमेशा समझता
है कि मैं
श्रेष्ठ हूं, बड़ा हूं। वह
स्त्री के
नीचे कैसे हो
सकता है? लेकिन
सारी पृथ्वी
पर आदिम
समाजों में
स्त्री पुरुष
के ऊपर होती
है। इसलिए
अफ्रीका में
लोग उस आसन को
मिशनरी आसन कहने
लगे जिसमें
पुरुष ऊपर
होता है। जब
पहली बार ईसाई
मिशनरी
अफ्रीका गए तो
आदिवासी उनके
संभोग के ढंग
को देखकर
हैरान रह गए।
उन्हें समझ
में नहीं आया
कि वे क्या कर
रहे हैं।
उन्होंने
सोचा कि इसमें
स्त्री तो मर
जाएगी।
अफ्रीका में
इस आसन को
मिशनरी आसन
कहते हैं।
अफ्रीका के
आदिवासी कहते
हैं कि यह हिंसापूर्ण
है कि पुरुष
स्त्री के ऊपर
रहे। स्त्री
कमनीय है, कोमल
है, इसलिए
उसे पुरुष के
ऊपर होना
चाहिए। लेकिन
पुरुष के लिए
अपने को
स्त्री के
नीचे रखना
बहुत कठिन है।
अगर
तुम्हारा मन
बदल जाए तो
बहुत चीजें
बदल जाएंगी।
अच्छा तो यही
है कि स्त्री
ऊपर रहे। इसके
पक्ष में कई
बातें हैं।
स्त्री निष्क्रिय
है,
इसलिए अगर
वह ऊपर रहेगी
तो बहुत हिंसा
नहीं करेगी, वह विश्राम
में होगी। और
अगर पुरुष
नीचे होगा तो
वह भी बहुत
उपद्रव नहीं
कर सकेगा। उसे
भी
विश्रामपूर्ण
होना पड़ेगा।
यह अच्छा
रहेगा। ऊपर
होकर वह बहुत
हिंसात्मक
होगा ही, वह
बहुत कुछ
करेगा। और
स्त्री को तो
कुछ करने की
जरूरत नहीं है।
तंत्र में
तुम्हें
विश्रामपूर्ण
होना चाहिए, इसलिए
स्त्री का ऊपर
रहना ठीक है।
वह पुरुष से
अधिक
विश्रामपूर्ण
रह सकती है।
स्त्री का
चित्त निष्क्रिय
है, इसलिए
उसे विश्राम
सहज होता है।
तो
आसन बदलेंगे, लेकिन
आसनों की बहुत
चिंता मत करो।
बस अपने मन को बदलो।
जीवन—शक्ति के
प्रति समर्पण
करो, उसके
साथ बहो। अगर
तुम सचमुच
समर्पित हो तो
तुम्हारा
शरीर उस समय
के लिए जरूरी
आसन को, सम्यक
आसन को खुद ही
ग्रहण कर लेगा।
अगर प्रेमी—प्रेमिका
गहन रूप से
समर्पित हैं
तो उनके शरीर
आप ही उचित
आसन ग्रहण कर
लेंगे।
स्थिति
रोज—रोज बदल
जाती है, इसलिए
पहले से कोई
आसन तय कर
लेने की जरूरत
नहीं है। यही
तो अड़चन है कि
तुम पहले से
सब तय कर लेना
चाहते हो। जब
भी तुम ऐसा
करते हो, यह
मन का ही धंधा
है। तब तुम
समर्पण नहीं
करते हो।
समर्पण में तो
चीजें अपने आप
घटित होती हैं,
रूप लेती
हैं। जब
प्रेमी—प्रेमिका
दोनों समर्पण
करते हैं तो
एक अदभुत
लयबद्धता
निर्मित होती
है। तब वे
अनेक आसन
ग्रहण करेंगे,
या एक भी
नहीं, महज
विश्राम में
होंगे। वह
जीवन—शक्ति पर
निर्भर है, पहले से लिए
गए मानसिक
निर्णय पर
नहीं। पहले से
कुछ भी निर्णय
लेने की जरूरत
नहीं है।
निर्णय
ही समस्या है।
संभोग के लिए
भी तुम्हें
निर्णय करना
पड़ता है। ऐसी
किताबें हैं
जो सिखाती हैं
कि संभोग कैसे
किया जाए।
इससे पता चलता
है कि हमने
कैसा मन
निर्मित किया
है। संभोग के
लिए भी
तुम्हें
किताबों से
पूछना पड़ता है।
तब वह मानसिक
कृत्य हो जाता
है,
तब तुम्हें
हर बात का
विचार करना
पड़ता है। पहले
तुम मन में
रिहर्सल करते
हो और तब
संभोग में
उतरते हो। तब
तुम्हारा
कृत्य नाटक हो
जाता है, नकली
हो जाता है।
उसे सच्चा संभोग
नहीं कह सकते, वह अभिनय हो गया।
वह प्रामाणिक नहीं
रहा।
समर्पण
करो और
महाशक्ति के
साथ बही। भय
क्या है? डर
क्यों है? अगर
तुम अपने
प्रेमी के साथ
भी निर्भय
नहीं हो सकते
तो किसके साथ
होओगे? और
एक बार
तुम्हें
प्रतीति हो
जाए कि जीवन—शक्ति
स्वयं ही
सहायता करती
है और स्वयं
ही सम्यक
मार्ग पकड़
लेती है तो
उससे तुम्हें
अपने पूरे
जीवन के प्रति
बहुत
बुनियादी
दृष्टि उपलब्ध
हो जाएगी। तब
तुम अपना
समस्त जीवन
परमात्मा के
हाथ में छोड़
दे सकते हो, वही
तुम्हारा
प्रियतम है।
तब तुम अपना
सारा जीवन
परमात्मा को
सौंप देते हो।
तब तुम न सोच—विचार
करते हो, न
योजना बनाते
हो और न
भविष्य को
अपनी मर्जी के
अनुसार चलाने
की चेष्टा
करते हो। तब
तुम परमात्मा
की मर्जी से, समग्र की मर्जी
से भविष्य में
गति करते हो।
लेकिन
काम—कृत्य को
ध्यान कैसे
बनाया जाए? समर्पण
करने से ही
संभोग ध्यान
बन जाता है।
उस पर सोच—विचार
मत करो, उसे
बस होने दो।
और विश्राम
में उतर जाओ, आगे —आगे मत
चलो। मन की यह
एक बुनियादी
समस्या है कि
वह सदा आगे —आगे
चलता है, वह
सदा फल की खोज
करता रहता है।
और फल भविष्य
में है। इसलिए
तुम कभी कर्म
में नहीं होते,
तुम सदा फल
की खोज करते
भविष्य में
होते हो। यह
फल की खोज ही
उपद्रव है, वह सब कुछ
खराब कर देती
है। बस कर्म
में समग्रता
से होओ।
भविष्य क्या
है? वह
अपने आप ही
आएगा, तुम्हें
उसकी चिंता
नहीं लेनी है।
और तुम्हारी
चिंताएं
भविष्य को
नहीं ला सकती हैं।
वह आ ही रहा है,
वह आया ही
हुआ है। तुम
उसे भूल जाओ
और यहं।
और अभी, वर्तमान
में होओ।
यहां
और अभी होने
के लिए काम—कृत्य
एक गहन
अंतर्दृष्टि
बन सकता है।
मेरे देखे अब
यही एक कृत्य
बचा है जिसमें
तुम यहां और
अभी हो सकते
हो। अपने आफिस
में तुम यहां
और अभी नहीं
हो सकते हो।
जब तुम कालेज
में पढ़ रहे हो, वहां
भी यहां और
अभी नहीं हो
सकते। इस
आधुनिक संसार
में कहीं भी यहां
और अभी होना
कठिन है। केवल
प्रेम में
यहां और अभी
हुआ जा सकता
है।
लेकिन
तुम ऐसे हो कि
प्रेम में भी
वर्तमान क्षण
में नहीं होते, तुम
वहां भी फल की
सोच रहे हो।
और अनेक
आधुनिक
पुस्तकों ने
नई कठिनाइयां
पैदा कर दी
हैं। तुम काम—
भोग पर एक
पुस्तक पढ़ते
हो और तब तुम
डरने लगते हो
कि मैं सही
ढंग से संभोग
कर रहा हूं या
गलत ढंग से।
तुम कामासनों
पर एक पुस्तक
पढ़ते हो और तब
तुम भयभीत हो
जाते हो कि मेरा
आसन सही है या
गलत।
मनोवैज्ञानिकों
ने तुम्हारे
मन में नई
चिंताएं खड़ी
कर दी हैं। अब
वे कहते हैं
कि पति को यह
ध्यान रखना
चाहिए कि उसकी
पत्नी को आर्गाज्म
प्राप्त हो
रहा है या
नहीं।
तो
अब पति इसी
चिंता में
फंसा है। और
इस चिंता से
कुछ हासिल
होने वाला
नहीं है, वरन
वह बाधा ही
बनने वाली है।
और पत्नी
चिंतित है कि
पति पूर्ण
विश्राम को उपलब्ध
हो रहा है या
नहीं। उसे
दिखाना होगा
कि मैं बहुत
आनंदित हो रही
हूं। फिर सब
कुछ झूठा हो जाता
है। दोनों फल
के लिए चिंतित
हैं। और इसी
चिंता में फल
कभी हाथ नहीं
आएगा।
सब
भूल जाओ और
क्षण में बहो।
अपने शरीर को
अभिव्यक्ति
का मौका दो।
तुम्हारा शरीर
सब जानता है, उसका
अपना विवेक है।
तुम्हारा
शरीर काम—कोशिकाओं
से बना है, उसका
अपना बिल्ट—इन
प्रोग्राम है।
उसे तुमसे कुछ
पूछने की जरूरत
नहीं है। सब
शरीर पर छोड़ दो
और शरीर अपने आप
ही गति करेगा।
यह प्रकृति के
हाथों में अपने
को छोड़ना,
यह समर्पण ही
ध्यान बन
जाएगा।
और
अगर तुम्हें
सेक्स में यह
अनुभव हो जाए
तो तुम्हें
राज हाथ लग
गया कि जहां
भी तुम समर्पण
करोगे वहीं
तुम्हें यह
अनुभव होगा।
तब तुम गुरु
को समर्पित हो
सकते हो, यह प्रेम—संबंध
है। गुरु के
प्रति समर्पण
करते हुए जब
तुम उसके चरणों
पर अपना सिर
रखोगे, तुम्हारा
सिर शून्य हो
जाएगा, तुम
ध्यान में चले
जाओगे। और फिर
गुरु की भी
जरूरत नहीं
रहेगी। तब
बाहर जाओ और
आकाश को
समर्पित हो
जाओ। और तब
तुम जान गए कि
समर्पण कैसे
किया जाए—और यही
असली बात है।
तब तुम जाकर
एक वृक्ष के
प्रति समर्पण
कर सकते हो।
लेकिन
यह बात मूढ़तापूर्ण
मालूम देगी, अगर
तुम्हें
समर्पण करना
नहीं आता है।
हम देखते हैं,
एक ग्रामीण,
एक आदिवासी
नदी जाता है
और नदी के
प्रति झुक जाता
है। वह नदी को
माता कहकर
पुकारता है।
वह उगते हुए
सूरज के प्रति
झुक जाता है
और उसे देवता
कहकर पुकारता
है। या वह
किसी झाडू के
पास उसकी जड़—
पर अपना सिर
रख देता है और
झुक जाता है।
हमें यह
अंधविश्वास
जैसा मालूम
पड़ता है। तुम
कहते हो, यह
क्या मूढ़ता
कर रहा है!
वृक्ष क्या
करेगा? नदी
क्या करेगी? वे कोई देवी—देवता
नहीं हैं।
सूरज कोई
देवता नहीं है।
लेकिन
अगर तुम
समर्पण करो तो
कोई भी चीज
परमात्मा है।
समर्पण करने
वाला चित्त ही
भगवत्ता का
निर्माण करता
है। पत्नी को
समर्पण करो और
वह दिव्य हो
जाती है। पति
को समर्पण करो
और वह भगवान
हो जाता है।
भगवत्ता
समर्पण के
द्वारा प्रकट
होती है।
पत्थर को
समर्पण करो और
पत्थर पत्थर
नहीं रह जाता, पत्थर
ग्रतइr बन जाता है, जीवित
व्यक्ति हो
जाता है।
इसलिए
सिर्फ जानो कि
समर्पण कैसे
किया जाता है।
और जब मैं
कहता हूं कि
समर्पण कैसे
किया जाता है
तो उसका यह
मतलब नहीं है
कि उसकी कोई
विधि है, मेरा
मतलब है कि
प्रेम में
समर्पण की सहज
संभावना है।
प्रेम में
समर्पण करो और
वहां उसका
अनुभव लो। और
फिर उसको अपने
पूरे जीवन पर
फैल जाने दो।
तीसरा
प्रश्न:
कृपया
समझाएं कि अनाहत
नाद एक प्रकार
की ध्वनि है
या कि वह समग्रत:
निर्ध्वनि
है। और यह भी
बताने की कृपा
करें कि समग्र
ध्वनि और समय निध्र्वर्नि
की अवस्थाएं समान
कैसे हो सकती
हैं?
अनाहत
नाद कोई ध्वनि
नहीं है। यह
निर्ध्वनि है, यह
मौन है। लेकिन
यह मौन सुना
जा सकता है।
इसे शब्दों
में व्यक्त
करना कठिन है,
क्योंकि तब
यह तर्कसम्मत
प्रश्न उठता
है कि
निर्ध्वनि कैसे
सुनी जा सकती
है!
यह
बात समझने
जैसी है। मैं
इस कुर्सी पर
बैठा हूं। अगर
मैं कुर्सी छोड़कर
चला जाऊं तो
क्या तुम
कुर्सी में
मेरी
अनुपस्थिति
नहीं देखो? जिसने
मुझे इस
कुर्सी में
बैठा नहीं
देखा है उसे मेरी
अनुपस्थिति नहीं
दिखाई पड़ सकती
है। उसे सिर्फ
कुर्सी दिखाई पड़ेगी।
लेकिन एक क्षण
पहले मैं यहां
बैठा था और
तुमने यह देखा
है। अगर मैं
हट जाऊं और
तुम कुर्सी को
देखो तो तुम्हें
एक साथ दो
चीजें दिखाई
देंगी :
कुर्सी और मेरी
अनुपस्थिति।
लेकिन मेरी
अनुपस्थिति
तभी दिखाई
देगी जब तुमने
मुझे देखा है
और तुम्हें
स्मरण है कि
मैं यहां था।
वैसे
ही हम ध्वनि
को सुनते हैं, ध्वनि
को जानते हैं;
और जब
निर्ध्वनि
आती है, अनाहत
नाद आता है तो
हमें अनुभव
होता है कि ध्वनि
खो गई और उसकी
अनुपस्थिति
अनुभव होती है।
इसीलिए इसे
अनाहत नाद
कहते हैं। इसे
नाद भी कहते
हैं, लेकिन
अनाहत नाद
होना नाद की
गुणवत्ता को
बदल देता है।
अनाहत का अर्थ
है. जो
अनिर्मित है।
वह अनिर्मित,
असृष्ट
ध्वनि है।
प्रत्येक
ध्वनि पैदा की
गई ध्वनि है।
जो भी ध्वनि
तुम सुनते हो
सब पैदा की
हुई है। और जो
ध्वनि पैदा की
गई है वह नष्ट
होगी। मैं हाथ
की ताली बजाता
हूं तो ध्वनि
पैदा होती है।
एक क्षण पहले
वह नहीं थी और
अब फिर वह
नहीं है। वह
पैदा हुई और
मर गई।
निर्मित की गई
ध्वनि को आहत
नाद कहते हैं,
अनिर्मित
ध्वनि को
अनाहत नाद
कहते हैं।
अनाहत नाद वह
है जो सदा है।
सदा रहने वाला
नाद कौन सा है?
दरअसल यह
नाद नहीं है, हम उसे नाद
इसलिए कहते
हैं क्योंकि
अनुपस्थिति
सुनी जाती है।
अगर
तुम रेलवे
स्टेशन के पास
रहते हो और
किसी दिन
मजदूर संघ
हड़ताल कर दे
तो तुम्हें
कुछ ऐसा सुनाई
देगा जो किसी
दूसरे को नहीं
सुनाई देगा।
तुम्हें आती—जाती
रेलगाड़ियों
की
अनुपस्थिति
सुनाई देगी।
पहले
मैं हर महीने
कम से कम तीन
हफ्ते यात्रा पर
रहा करता था।
शुरू—शुरू में
रेलगाड़ी में
सोना कठिन
होता था, पर
पीछे चलकर घर
पर सोना कठिन
हो गया। फिर
जब—जब मुझे
गाड़ी में नहीं
सोना पड़े, गाड़ी
की आवाज की
अनुपस्थिति
महसूस होती थी।
जब मैं घर आता
था तो वहां
सोना कठिन
लगता था, क्योंकि
मुझे लगे कि
कुछ चूक रहा
हूं। मुझे रेल
की आवाज की
अनुपस्थिति
अनुभव होने
लगी।
हम
ध्वनियों के
आदी हैं।
प्रत्येक
क्षण ध्वनि से
भरा है। हमारी
खोपड़ी निरंतर
ध्वनि से
लबालब है।
लेकिन जब
तुम्हारा मन
विदा हो जाता
है—अतिक्रमण
कर जाता है या
नीचे उतर जाता
है—जब तुम
ध्वनियों के
संसार में
नहीं होते हो, तब
तुम ध्वनियों
की
अनुपस्थिति
को सुन सकते
हो। वह
अनुपस्थिति
निर्ध्वनि है।
लेकिन हमने
इसे अनाहत नाद
कहा है।
क्योंकि यह
सुना जाता है,
इसलिए इसे
नाद कहते हैं।
और क्योंकि यह
ध्वनि नहीं है,
इसलिए इसे
अनाहत नाद
कहते हैं।
अनाहत नाद
विरोधाभासी
शब्द है।
ध्वनि तो आहत
ही होती है, अनाहत कहना
विरोधाभासी
है।
पर
जीवन के सभी
गहन अनुभव
विरोधाभासों
में व्यक्त
किए जाते हैं।
अगर तुम
इकहार्ट या जेकब बोहमे
जैसे गुरुओं
से पूछो, या
हयाकुजो, उबाकू
और बोधिधर्म
जैसे झेन
गुरुओं से
पूछो, या
नागार्जुन से
पूछो, या
वेदांत और
उपनिषदों से
पूछो, तो
सभी जगह गहन
अनुभवों की
अभिव्यक्ति
परस्पर विरोधी
शब्दों में
मिलेगी।
वेद
ईश्वर के
संबंध में
कहते हैं कि
वह है और वह
नहीं है। अब
इससे अधिक नास्तिक
वक्तव्य और
क्या होगा? वह
है और नहीं है!
वे कहते हैं :
वह दूर से दूर
है और
निकट
से निकट। ऐसे
विरोधी
वक्तव्य क्यों? उपनिषद
कहते हैं. तुम
उसे नहीं देख
सकते, लेकिन
जब तक तुमने
उसे नहीं देखा
तब तक कुछ भी नहीं
देखा। यह किस
तरह की भाषा है?
लाओत्सु
कहता है कि सत्य
नहीं कहा जा सकता
है और वह कह भी रहा
है। यह भी तो
कहना ही हुआ।
वह कहता है कि
सत्य नहीं कहा
जा सकता और जो
कहा जाए वह
सत्य नहीं है।
और फिर वह एक
किताब लिखता
है,
जिसमें
सत्य के संबंध
में कुछ कहता
है। यह
विरोधाभासी
है।
एक
महान वृद्ध
संत के पास एक
दिन एक
विद्यार्थी
आया।
विद्यार्थी
ने कहा
गुरुदेव अगर
आप मुझे क्षमा
कर दें तो मैं
अपने संबंध
में आपको कुछ
बताना चाहता
हूं। मैं
नास्तिक हो
गया हूं अब
मैं ईश्वर में
विश्वास नहीं
करता। के संत
ने पूछा :
कितने दिनों
से तुम धर्मशास्त्रों
का अध्ययन कर
रहे हो? कितने
दिनों से? उस
साधक ने, उस
विद्यार्थी
ने कहा. कोई
बीस वर्षों से
मैं वेदों का,
शास्त्रों
का अध्ययन कर
रहा हूं। के
संत ने आह
भरकर कहा :
सिर्फ बीस
वर्ष और तुम्हें
यह कहने की हिम्मत
आ गई कि मैं
नास्तिक हूं?
युवक
तो हैरान रह
गया। उसने
सोचा, यह बूढ़ा
आदमी क्या कह
रहा है? उसने
पूछा मैं समझा
नहीं कि आप
क्या कह रहे
हैं। आपने तो
मुझे और भी
उलझन में डाल
दिया। इस पर
संत ने कहा
वेदों का
अध्ययन जारी
रखो। आरंभ में
आदमी कहता है
कि ईश्वर है, केवल अंत
में वह कहता
है कि ईश्वर
नहीं है।
ईश्वर आरंभ
में है, अंत
में ईश्वर
नहीं है।
जल्दी मत करो।
वह युवक तो और
भी बिगचन
में पड़ गया।
ईश्वर
है और ईश्वर
नहीं है—यह
वक्तव्य उनका
है जो जानते
हैं। जो नहीं
जानते हैं वे
कहते हैं कि
ईश्वर है। जो
नहीं जानते
हैं वे यह भी
कहते हैं कि
ईश्वर नहीं है।
जो जानते हैं
वे दोनों
बातें साथ—साथ
कहते हैं
ईश्वर है और
ईश्वर नहीं है।
अनाहत
नाद
विरोधाभासी
वक्तव्य है, लेकिन
जानकर, बहुत
सोच—विचार के
साथ उसका
उपयोग किया
गया है। वह
अर्थपूर्ण है।
वह कहता है कि
वह ध्वनि जैसी
लगती है और वह
ध्वनि नहीं है।
वह ध्वनि जैसी
लगती है, क्योंकि
तुमने केवल
ध्वनि ही जानी
है। कोई दूसरी
भाषा तुम नहीं
जानते, केवल
ध्वनियों की
भाषा जानते हो।
यही कारण है
कि वह ध्वनि
जैसी लगती है।
लेकिन असल में
वह मौन है, ध्वनि
नहीं।
और
प्रश्न में
आगे कहा है: ’यह
भी बताने की
कृपा करें कि
ध्वनि और
निर्ध्वनि की
अवस्थाएं कैसे
समान हो सकती
हैं?'
सदा
से ऐसा ही है।
शून्य और
पूर्ण दोनों
एक ही अर्थ
रखते हैं।
उदाहरण के लिए, मेरे
पास अगर एक
घड़ा है जो
पूर्णत: खाली
है और दूसरा
घड़ा है जो
पूर्णत: भरा
है तो दोनों घड़े पूर्ण
हैं। एक
पूर्णत: खाली है
और दूसरा
पूर्णत: भरा
है। लेकिन
दोनों पूर्ण
हैं, दोनों
पूरे हैं। अगर
घड़ा आधा भरा
है तो वह आधा
खाली भी है।
तुम उसे आधा
खाली और आधा
भरा कह सकते
हो। लेकिन वह
चाहे पूरा
खाली हो और
चाहे पूरा भरा,
एक बात
दोनों में
समान है :
पूर्णता समान
है।
निर्ध्वनि, ध्वनि—शून्यता
पूर्ण है, उसे
अब और अधिक
ध्वनि—शून्य
बनाने के लिए
तुम कुछ नहीं
कर सकते। इसे समझो।
यह पूर्ण है, अब और कुछ
नहीं किया जा
सकता। तुम उस बिंदु
पर पहुंच गए
हो जिसके आगे
कोई गति नहीं हो
सकती। और अगर
कोई ध्वनि
समग्र है तो
भी तुम उसमें
कुछ जोड़ नहीं
सकते। तुम
दूसरी सीमा पर
पहुंच गए, तुम
उसके आगे नहीं
जा सकते। यही
समानता है ओर
इसका मतलब है।
कोई
कह सकता है कि
यह निर्ध्वनि
है,
ध्वनि—शून्यता
है, क्योंकि
कोई ध्वनि
नहीं सुनाई
देती है, सब
कुछ
अनुपस्थित है।
तुम अब इसमें
से कुछ घंटा
नहीं सकते, यह पूर्ण है।
या तुम कह
सकते हो कि यह
पूर्ण ध्वनि
है, समग्र
ध्वनि है, उसमें
अब कुछ भी
जोड़ा नहीं जा
सकता। लेकिन
दोनों मामले
में इशारा
पूर्णता की ओर
है, समग्रता
की ओर है।
यह
मन पर निर्भर
है। दो तरह के
मन हैं और दो
तरह की
अभिव्यक्तियां
हैं। उदाहरण
के लिए, अगर
तुम बुद्ध से
पूछोगे कि गहन
ध्यान में
क्या होता है?
समाधि
उपलब्ध होने
पर क्या होता
है? तो वे
कहेंगे : दुख
नहीं रहेगा, पीड़ा नहीं
रहेगी। वे यह
कभी नहीं
कहेंगे कि
आनंद होगा, वे इतना ही
कहेंगे कि दुख
नहीं होगा, दुख—शून्यता
होगी। और अगर
तुम शंकर से
पूछोगे तो वे
कभी दुख की बात
नहीं करेंगे,
वे यही
कहेंगे कि
आनंद होगा, परमानंद
होगा। और
दोनों एक ही
अनुभव की बात
कर रहे हैं।
बुद्ध
जब अदुख
की बात करते
हैं तो उनका
इशारा संसार
की ओर है। वे
कहते हैं कि
जो भी दुख
मैंने जाना वह
वहां नहीं है
और जो है उसे
मैं तुम्हारी
भाषा में नहीं
कह सकता। और
शंकर कहते हैं
कि वहां आनंद
है,
परम आनंद है।
शंकर संसार और
उसके दुख की
बात नहीं करते
हैं। वे
तुम्हारे
संसार की
चर्चा नहीं
करते, वे
अनुभव की
चर्चा करते
हैं।
शंकर
विधायक हैं, बुद्ध
निषेधात्मक
हैं। लेकिन
उनके इशारे एक
ही चांद को
बताते हैं।
उनकी अंगुलियां
भिन्न हैं, लेकिन उनकी
अंगुलियों का
लक्ष्य एक है।
आज
इतना ही।
(समाप्ति)
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