अंतर्यात्रा (ओशो)
(साधना—शिविर,
आजोल में हुए 8
प्रवचनों,
प्रश्नोत्तरोएवं
ध्यान—सूत्रों
का अपूर्व
संकलन।)
(
दिनांक 3
फरवरी, 1968;
सुबह,
आजोल)
मेरे
प्रिय आत्मन्!
साधना—शिविर
की इस पहली
बैठक में, साधक
के लिए जो
पहला चरण है, उस संबंध
में ही मैं
आपसे बात करना
चाहूंगा।
साधक
के लिए पहली
सीढ़ी क्या है? विचारक
के लिए
सीढ़ियां अलग
होती हैं, प्रेमी
के लिए
सीढ़ियां अलग
होती हैं।
साधक के लिए
अलग ही यात्रा
करनी होती है।
साधक
के लिए पहली
सीढ़ी क्या है?
साधक
के लिए पहली
सीढ़ी शरीर है।
लेकिन शरीर के
संबंध में न
तो कोई ध्यान
है,
न शरीर के
संबंध में कोई
विचार है। और
थोड़े समय से
नहीं, हजारों
वर्षों से
शरीर
उपेक्षित है।
यह उपेक्षा दो
प्रकार की है।
एक तो उन
लोगों ने शरीर
की उपेक्षा की
है, जिन्हें
हम भोगी कहते
हैं—जों जीवन
में खाने—पीने
और कपड़े पहनने
के अतिरिक्त
और किसी अनुभव
को नहीं जानते।
उन्होंने
शरीर की
उपेक्षा की है,
शरीर का
अपव्यय, शरीर
को व्यर्थ
खोया है, शरीर
की वीणा को
खराब किया है।
और
वीणा खराब हो
जाए तो उससे
संगीत पैदा
नहीं हो सकता।
यद्यपि संगीत
वीणा से
बिलकुल भिन्न
बात है। संगीत
बात ही और है, वीणा
बात ही और है।
लेकिन वीणा के
बिना संगीत
पैदा नहीं हो
सकता। जिन
लोगों ने शरीर
को उपभोग की
दिशा में व्यर्थ
किया है, वे
एक तरह के लोग
हैं। और दूसरी
तरह के लोग
हैं, जिन्होंने
योग की और
त्याग की दिशा
में भी शरीर
के साथ अनाचार
किया है। शरीर
को कष्ट भी
दिया है, शरीर
का दमन भी
किया है, शरीर
के साथ
शत्रुता भी की
है।
न
तो शरीर को
भोगने वालों
ने शरीर की
अर्थवत्ता को
समझा है और न
शरीर को कष्ट
देने वाले
तपस्वियों ने
शरीर की
अर्थवत्ता को
समझा है।
शरीर
की वीणा पर दो
तरह के अनाचार
और अत्याचार
हुए हैं—एक
भोगी की तरफ
से,
दूसरा योगी
की तरफ से। और
इन दोनों ने
ही शरीर को
नुकसान
पहुंचाया है।
पश्चिम में एक
तरह से शरीर
को नुकसान
पहुंचाया गया
है, पूरब
में दूसरी तरह
से। लेकिन
नुकसान
पहुंचाने में
हम सब एक साथ
सहभागी हैं।
वेश्यागृहों
में जाने वाले
लोग और
मधुशालाओं
में जाने वाले
लोग भी शरीर
को एक तरह का
नुकसान
पहुंचाते हैं।
धूप में नग्न
खड़े रहने वाले
लोग और जंगल
की तरफ भागने
वाले लोग भी
शरीर को दूसरी
तरह से नुकसान
पहुंचाते हैं।
लेकिन
शरीर की वीणा
से ही जीवन का
संगीत उत्पन्न
हो सकता है।
यद्यपि जीवन
का संगीत शरीर
से बिलकुल अलग
बात है; बिलकुल
भिन्न और
दूसरी बात है,
लेकिन शरीर
की वीणा के
अतिरिक्त
उसकी कोई उपलब्धि
संभव नहीं है।
इस तरफ अब तक
कोई ध्यान ठीक
से नहीं दिया
गया है।
पहली
बात है शरीर
और शरीर की
तरफ साधक का
सम्यक ध्यान।
उस संबंध में
ही आज पहली
चर्चा में
आपसे बात करना
चाहता हूं।
कुछ
सूत्र समझ
लेने जरूरी
हैं।
पहली
बात शरीर के
किन्हीं
केंद्रों पर
आत्मा का
संपर्क है, उसी
से जीवन है।
शरीर के
किन्हीं
केंद्रों से
आत्मा निकटतम
रूप से
संबंधित है, वहीं से
जीवन की धारा
शरीर में
प्रवाहित
होती है।
आत्मा और शरीर
के संपर्क के
जो केंद्र हैं,
जो स्थल हैं,
जिस साधक को
उन स्थलों का
कोई खयाल नहीं
है, वह कभी
भी आत्मा को
उपलब्ध नहीं
हो सकता है।
अगर मैं आपसे
पूछूं कि आपके
शरीर में
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
केंद्र और
स्थल क्या है—तो
शायद आप अपने
सिर की तरफ
हाथ उठाएं।
मनुष्य
की गलत शिक्षा
ने मनुष्य के
शरीर में केवल
सिर को ही
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बना दिया है।
सिर मनुष्य की
जीवन— धारा का
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
केंद्र नहीं है।
मस्तिष्क
मनुष्य की
जीवन— धारा का
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
केंद्र नहीं है।
जैसे हम किसी
पौधे के पास
जाएं और पूछें
कि पौधे में
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
और जीवंत क्या
है,
तो ऊपर ही
फूल दिखाई पड़
जाएंगे और कोई
भी कह देगा कि
ये फूल ही
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हैं। फूल
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
दिखाई पड़ते
हैं, लेकिन
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
फूल नहीं हैं।
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
वे जड़ें हैं, जो दिखाई
नहीं पड़ती।
मस्तिष्क
मनुष्य के
पौधे पर लगा
हुआ फूल है।
वह मनुष्य के
शरीर की जड़
नहीं है। फूल
सबसे बाद में
आते हैं और
अंतिम होते
हैं। जड़ें
सबसे प्रथम
होती हैं। और
अगर जड़ें भूल
जाएं तो फूल
कुम्हला
जाएंगे।
फूलों का अपना
कोई जीवन नहीं
होता। और अगर
जड़ें सम्हाल
ली जाएं तो
फूल अपने आप
सम्हल जाते
हैं,
उन्हें
सम्हालने के
लिए अलग से
कोई आयोजन
नहीं करना
होता। लेकिन
पौधे में
देखने पर ऐसा
लगेगा, फूल
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हैं। ऐसे ही
मनुष्य में भी
लगता है कि
मस्तिष्क सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। मस्तिष्क
अंतिम बात है
मनुष्य के
शरीर में। वह
मनुष्य के
शरीर की जड़ें
नहीं है, वह
रूट्स नहीं है।
माओत्से
तुंग ने अपने
बचपन का एक
संस्मरण लिखा
है। उसने लिखा
है कि मैं
छोटा था, मेरी
मां के झोपड़े
के पास एक बड़ी
सुंदर बगिया थी।
वह बगिया इतनी
सुंदर थी, उसमें
ऐसे सुंदर फूल
आते थे कि दूर—दूर
से लोग देखने
आते थे। फिर
मेरी मां
बूढ़ी हो गई और
बीमार पड़ी। न
तो वह अपनी
बीमारी से
चिंतित थी, न अपने
बुढ़ापे से।
उसकी चिंता एक
ही थी कि उसकी
बगिया का क्या
होगा। माओ
छोटा था। उसने
अपनी मां को
कहा कि तू
बेफिकर रह, मैं तेरी
बगिया की फिकर
कर लूंगा।
और
माओ सुबह से
सांझ तक बगिया
की फिकर करता
रहा। एक महीने
बाद उसकी मां
ठीक हुई, तो
जैसे ही वह
थोड़ी चल सकी, उठ कर बगिया
में आ गई और
देख कर घबड़ा
गई। बगिया तो
बर्बाद हो
चुकी थी। पौधे
सब सूख गए थे।
फूल सब
कुम्हला कर
गिर गए थे। वह
बहुत हैरान
हुई। उसने माओ
को कहा कि
पागल! तू तो
सुबह से सांझ
तक बगिया में
ही रहता था।
तूने यह क्या
किया? ये
सब फूल तो
नष्ट हो गए।
यह बगिया तो
कुम्हला गई।
सब पौधे तो
मरने के करीब
आ गए। तू करता
क्या था?
माओ
रोने लगा। वह
खुद भी परेशान
था। वह रोज
दिन भर मेहनत
करता था, लेकिन
न मालूम क्या
बात थी कि
बगिया सूखती
गई। वह रोने
लगा और उसने
कहा कि मैंने
तो बहुत फिकर
की। मैं तो एक—एक
फूल को अता था
और प्रेम करता
था। एक—एक
पत्ते को
झाड़ता था, धूल
पोंछता था, लेकिन पता
नहीं क्या हुआ।
मैं फिकर भी
करता था, लेकिन
फूल
कुम्हलाते गए,
पत्ते
सूखते गए और
बगिया धीरे—
धीरे
मुर्झाती गई।
उसकी
मां ने कहा
पागल! वह
हंसने लगी, बोली—उसने
कहा तू पागल
है! तुझे अभी
यह पता नहीं
कि फूलों के
प्राण फूलों
में नहीं होते
और न पत्तों
के प्राण
पत्तों में
होते हैं।
पौधे
के प्राण वहां
होते हैं, जहां
किसी को दिखाई
ही नहीं पड़ते।
वे उन जड़ों
में होते हैं,
जो जमीन के
नीचे छिपी
होती हैं। और
उन जड़ों की अगर
कोई फिकर न
करे तो फूल और
पत्ते नहीं
सम्हाले जा
सकते। कितने
ही चूमे जाएं,
कितना ही
उनको प्रेम
किया जाए, कितनी
ही उनकी धूल
झाड़ी जाए।
पौधा कुम्हला
ही जाएगा।
लेकिन फूलों
की कोई बिलकुल
भी फिकर न करे
और जड़ों को
सम्हाल ले, तो फूल अपने
आप सम्हल जाते
हैं। जड़ों में
से फूल आते
हैं, फूलों
में से जड़ें
नहीं आती हैं।
लेकिन
अगर हम किसी
आदमी से पूछें
कि मनुष्य के
शरीर में
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हिस्सा क्या है, तो
अनजाने ही
उसका हाथ सिर
की तरफ उठेगा
और वह कहेगा
कि सिर सबसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। या अगर वह
स्त्री हो, तो हो सकता
है उसका हाथ
हृदय की तरफ
उठ जाए और वह
कहे, हृदय
सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण
है।
हृदय
भी सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
नहीं है और
मस्तिष्क भी
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
नहीं है।
पुरुषों ने
सारा बल
मस्तिष्क पर
दिया है और स्त्रियों
ने सारा बल
हृदय पर दिया
है। और दोनों
से मिला हुआ
समाज रोज नष्ट
होता चला गया
है,
क्योंकि ये
दोनों ही
बिंदु शरीर
में महत्वपूर्ण
बिंदु नहीं
हैं। ये दोनों
ही बहुत बाद
के विकास हैं।
मनुष्य की
जड़ें इनमें
नहीं हैं। और
मनुष्य की
जड़ों से मेरा
क्या मतलब है?
जैसे पौधे
की जड़ें होती
हैं पृथ्वी
में, उन्हीं
जड़ों से वह
जीवन और रस
खींचता है, उसी से
जीवित होता है।
ऐसे ही मनुष्य
के शरीर में
किसी बिंदु पर
वे जड़ें हैं, जो आत्मा से
जीवन और रस
खींचती हैं और
जिनके कारण
शरीर जीवित
होता है। जिस
दिन वे जड़ें
शिथिल हो जाती
हैं, शरीर
समाप्त हो
जाता है।
भूमि
में पौधे की
जड़ें हैं।
मनुष्य के
शरीर की जड़ें
आत्मा में
प्रविष्ट हैं।
लेकिन
मस्तिष्क
नहीं है वह
जगह और न ही
हृदय वह जगह
है,
जहां से
मनुष्य प्राणों
से जुड़ता है।
और अगर हमें
उन जड़ों का
कोई पता न हो, तो हम कभी भी
साधक के जगत
में प्रवेश
नहीं कर सकते।
कहां
हैं फिर
मनुष्य की
जड़ें? शायद आपके
खयाल में भी
नहीं है। कुछ
सीधी और सरल
सी बातें भी
अगर हजारों
साल तक ध्यान
से भूली रहें
तो विस्मृत हो
जाती हैं। मां
के पेट में
बच्चा पैदा
होता है, बड़ा
होता है, तो
मां से वह किस
जगह से जुड़ा
होता है? मस्तिष्क
से या हृदय से?
वह नाभि से
जुड़ा होता है।
जीवन की धारा
उसे नाभि से
उपलब्ध होती
है। हृदय भी
बाद में
विकसित होता
है, मस्तिष्क
भी बाद में
विकसित होता
है। मां की
जीवन— धारा
उसे नाभि से
उपलब्ध होती
है। मां के
शरीर में
बच्चे की जड़ें
नाभि से फैली
होती हैं। न
केवल दूसरे—मां
के शरीर में
उसकी जड़ें
नाभि से फैली
होती हैं, बल्कि
स्वयं के
प्राणों में
भी उसकी जड़ें
नाभि से ही
फैली होती हैं।
मनुष्य
के शरीर में
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बिंदु नाभि है।
उसके बाद हृदय
विकसित होता
है,
उसके बाद
मस्तिष्क
विकसित होता
है। ये बाद की
फैली हुई
टहनियां हैं।
इन पर फूल भी
लगते हैं।
मस्तिष्क
पर ज्ञान के
फूल लगते हैं।
हृदय
पर प्रेम के
फूल लगते हैं।
यही
फूल हमें भुला
लेते हैं और
हमको लगता है
कि यही फूल
स्ब—कुछ हैं।
लेकिन जड़ें
मनुष्य के
शरीर की और
प्राणों की नाभि
में होती हैं।
वहां कोई फूल
नहीं लगते। वे
बिलकुल
अदृश्य हैं, वे
दिखाई भी नहीं
पड़ते। लेकिन
पिछले पांच
हजार वर्षों
में मनुष्य के
जीवन में जो
विकृति आई है,
वह इसी बात
से आई है कि
हमने सारा बल
या तो मस्तिष्क
पर दिया है या
हृदय पर दिया
है। हृदय पर
भी बहुत कम बल
दिया है। अधिक
बल तो
मस्तिष्क पर
दिया है।
बचपन
से ही सारी
शिक्षा
मस्तिष्क की
शिक्षा है।
नाभि की तो
दुनिया में
किसी कोने में
कहीं कोई
शिक्षा नहीं
है।
सारी
मस्तिष्क की
शिक्षा है! तो
मस्तिष्क तो बड़ा
होता चला जाता
है और जडें
छोटी होती चली
जाती हैं।
मस्तिष्क का
फूल तो.......फिकर
करते हैं हम
उसकी, वह भारी
हो जाता है और
जड़ें हमारी
विलीन होती चली
जाती हैं। फिर
जीवन की धारा
क्षीण बहने
लगती है और
आत्मा से
हमारे संपर्क
शिथिल हो जाते
हैं। फिर धीरे—
धीरे तो हम उस
जगह आ गए हैं
कि आदमी यह भी
कहने लगा है, कहां है
आत्मा? कौन
कहता है कि
आत्मा है? कौन
कहता है कि
परमात्मा है?
हमें तो कुछ
पता नहीं चलता
है। पता नहीं
चलेगा। पता
नहीं चल सकता
है, क्योंकि
कोई आदमी अगर
वृक्ष के पूरे
शरीर पर ढूंढ
ले और कहे
कहां हैं जड़ें,
हमें तो कुछ
पता नहीं चलता
है, तो ठीक
ही कह रहा है।
वृक्ष के ऊपर
कहीं कोई जड़ें
नहीं हैं।
जड़ें जहां हैं,
वहां तक
हमारी पहुंच
बंद हो गई है।
वहां तक हमारा
खयाल बंद हो
गया है। और
बचपन से ही
चूंकि
मस्तिष्क का
ही और माइंड का
ही सारा
प्रशिक्षण है,
सारा
शिक्षण है, तो हमारा
सारा ध्यान, हमारा सारा
अटेंशन
मस्तिष्क में
उलझ कर समाप्त
हो जाता है।
जीवन भर हम
मस्तिष्क के
आस—पास ही
घूमते रहते
हैं। उससे
नीचे हमारा
ध्यान प्रवेश
ही नहीं करता।
साधक
की यात्रा
नीचे की तरफ
है— जड़ों की
तरफ।
मस्तिष्क से
उतरना है हृदय
तक। और हृदय
से उतरना है
नाभि तक। और
नाभि के बाद
ही कोई आत्मा
में प्रवेश पा
सकता है, उसके
पहले कभी नहीं
पा सकता।
आमतौर
से हमारे जीवन
की गति नाभि
से मस्तिष्क की
तरफ है। साधक
की गति बिलकुल
उलटी होने को
है। मस्तिष्क
से नाभि की
तरफ उसे नीचे
उतरना है।
तो इन
तीन दिनों में
मैं.......वह तो
आपसे क्रमश:
बात करूंगा कि
मस्तिष्क से हृदय
तक कैसे उतरें
और हृदय से
नाभि तक कैसे
उतरें और फिर
नाभि से आत्मा
तक प्रवेश
कैसे हो सकता
है।
आज
तो सिर्फ शरीर
के संबंध में
ही कुछ बात
कहनी जरूरी है।
पहली
बात तो यही
ध्यान में
लेने की
आवश्यक है कि
मनुष्य के
प्राणों का
केंद्र नाभि
है। वहीं से
बच्चा जीवन
पाना शुरू
करता है, वहीं
से उसके सारे
जीवन की
शाखाएं—प्रशाखाएं
फैलनी शुरू
होती हैं, वहीं
से उसे ऊर्जा
मिलती है, वहीं
से शक्ति
मिलती है, लेकिन
उस ऊर्जा के
केंद्र पर
हमारा ध्यान
नहीं है, जरा
भी नहीं है! और
उस ऊर्जा के
केंद्र को, उस शक्ति के
केंद्र को
जानने की जो
भी व्यवस्था
है, उस पर
भी हमारी कोई
दृष्टि नहीं
है! बल्कि उसे भूल
जाने की जो
व्यवस्था है,
उस पर हमारी
पूरी दृष्टि
है और पूरी
शिक्षा है!
इसीलिए पूरी
शिक्षा गलत हो
गई है।
सारी
शिक्षा
मनुष्य को
धीरे— धीरे
पागलपन की तरफ
ले जा रही है।
अकेला
मस्तिष्क
केवल पागलपन
की तरफ ही ले
जा सकता है।
क्या
आपको पता है, जो
मुल्क जितना
ज्यादा
शिक्षित हो
गया है, उतनी
ही वहां
पागलों की
संख्या बढ़ गई
है? अमरीका
में आज पागलों
की संख्या
सर्वाधिक है।
यह गौरव की
बात है। यह इस
बात का सबूत
है कि अमरीका
सबसे ज्यादा शिक्षित
है, सबसे
ज्यादा सभ्य
है। अमरीकी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर सौ वर्षों
तक यही
व्यवस्था चली,
तो अमरीका
में ठीक आदमी
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा। आज भी
चार आदमियों
में से तीन
आदमियों के
मस्तिष्क
डांवाडोल
स्थिति में
हैं।
सिर्फ
अमरीका में ही
तीस लाख लोग
रोज अपनी मानसिक
चिकित्सा के
लिए डॉक्टरों
से सलाह ले
रहे हैं! धीरे—
धीरे शरीर के
डॉक्टर कम और
मन के डॉक्टर
अमरीका में
बढ़ते जाते हैं।
क्योंकि शरीर
के डॉक्टर भी
यह कहते हैं
कि आदमी की
अस्सी
प्रतिशत
बीमारियां मन
की हैं, शरीर
की नहीं हैं!
और जैसे—जैसे
समझ बढ़ती है, यह प्रतिशत
बढ़ता जाता है।
पहले वे कहते
थे चालीस
प्रतिशत, फिर
वे कहने लगे
पचास प्रतिशत,
अब वे कहते
हैं अस्सी
प्रतिशत
बीमारी मन की
है, शरीर
की नहीं! और
मैं आपको
विश्वास
दिलाता हूं कि
बीस—पच्चीस
साल के बाद वे
कहेंगे
निन्यानबे
प्रतिशत
बीमारियां मन
की हैं, शरीर
की नहीं हैं!
यह उनको कहना
पड़ेगा, क्योंकि
मनुष्य के
मस्तिष्क पर
ही सारा बल दिया
जा रहा है।
मस्तिष्क
विक्षिप्त हो
गया है।
आपको
अंदाज नहीं है
कि मस्तिष्क
बड़ी डेलिकेट, बड़ी
महीन, बहुत
बारीक, बहुत
नाजुक चीज है।
आदमी का
मस्तिष्क
दुनिया की
सबसे ज्यादा
नाजुक मशीन है।
उस मशीन पर
इतना भार दिया
जा रहा है कि
यही आश्चर्य
है कि वह
बिलकुल टूट कर
पागल क्यों
नहीं हो जाती!
सारा भार
मस्तिष्क पर
है और
मस्तिष्क
कितना नाजुक
है, इसकी
हमें कोई
कल्पना नहीं
है। एक आदमी
की छोटी सी
खोपड़ी में
कितने पतले
स्नायु हैं, जिन पर सारा
बोझ पड़ता है, चिंता पड़ती
है, सारा
दुख पड़ता है, सारा शान
पड़ता है, सारी
शिक्षा पड़ती
है, सारे
जीवन का भार
पड़ता है! वे
नाजुक कितने
हैं, इसका
हमें कोई
अंदाज नहीं है।
शायद
आपको खयाल भी
न हो,
इस छोटे से
सिर के भीतर
कोई सात करोड़
तंतु हैं।
उनकी संख्या
ही आपको बता
सकती है कि वे
कितने छोटे
होंगे।
क्योंकि इतने
से.. बहुत
नाजुक है, उससे
ज्यादा नाजुक
कोई यंत्र
नहीं है। उससे
ज्यादा नाजुक
कोई पौधा नहीं
है। यह इससे
भी खयाल में आ
सकता है कि
मनुष्य के बहुत
छोटे से सिर
के भीतर सात
करोड़ स्नायु
हैं। ये
स्नायु इतने
हैं कि अगर एक
आदमी के सिर
के स्नायुओं
को एक के बाद
एक फैलाया जाए
तो पूरी पृथ्वी
की परिक्रमा
एक आदमी के
मस्तिष्क के
स्नायु ले
लेंगे।
इस
छोटे से सिर
के भीतर इतनी
बारीक
व्यवस्था है, इतनी
नाजुक
व्यवस्था है।
इस नाजुक
मस्तिष्क पर
ही पिछले पांच
हजार वर्षों
में सबसे
ज्यादा जोर
दिया गया है।
उसका परिणाम
होना
स्वाभाविक था।
उसका परिणाम
यह हुआ कि ये
तंतु टूटने
शुरू हो गए, ये तंतु
विक्षिप्त
होने शुरू हो
गए, ये तंतु
पागल होने
शुरू हो गए।
विचार
का अति भार
मनुष्य को
पागलपन के
अतिरिक्त और
कहीं भी नहीं
ले जा सकता है।
सारी
जीवन— धारा ही
मस्तिष्क के
आस—पास घूमने
लगी है। यह जो
मस्तिष्क के
पास घूमती हुई
जीवन— धारा है, साधक
को इसी जीवन—
धारा को और
गहरे और नीचे
और केंद्र की तरफ
उतारना है, वापस लौटाना
है। यह कैसे
वापस लौट
सकेगी, उसके
पहले सूत्र 'शरीर' के
संबंध में
हमें समझ लेने
हैं।
पहली
बात शरीर को
या तो भोगने
की दृष्टि से
देखा जाता है
या त्यागने की
दृष्टि से
देखा जाता है।
शरीर को साधना
का एक मार्ग, और
परमात्मा का
एक मंदिर, और
जीवन के
केंद्र को खोज
लेने की एक
सीढ़ी की तरह
नहीं देखा
जाता है। ये
दोनों ही
बातें भूल—भरी
हैं।
जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है और
जो भी उपलब्ध
करने जैसा है, उस
सबका मार्ग
शरीर के भीतर
और शरीर से
होकर ही जाता
है।
शरीर
की स्वीकृति
एक मंदिर की
भांति, एक
मार्ग की भांति
जब तक मन में न
हो, तब तक
या तो शरीर के
हम भोगी होते
हैं या शरीर के
हम त्यागी
होते हैं। और
दोनों ही
स्थितियों
में शरीर के
प्रति हमारी
भाव—दशा सम्यक,
ठीक, संतुलित
नहीं होती है।
बुद्ध
के पास एक
युवक दीक्षित
हुआ था। वह
युवक
राजकुमार था।
उसने जीवन के
सब तरह के भोग
देखे थे। भोग
में ही जीआ था।
फिर वह
संन्यासी हो
गया। बुद्ध के
भिक्षु बहुत
आश्चर्य से
भरे।
उन्होंने कहा
यह व्यक्ति
संन्यासी
होता है! यह
कभी राजमहल के
बाहर नहीं
निकला, यह
कभी रथ के
नीचे नहीं चला,
यह जिन
रास्तों पर
चलता था, वहां
मखमली कालीन
बिछा दिए जाते
थे। यह भिखारी
होगा! यह इसको
क्या पागलपन
सूझा है!
बुद्ध
ने कहा आदमी
का मन हमेशा
अति पर डोलता
है—एक
एक्सट्रीम से
दूसरी
एक्सट्रीम पर, एक
अति से दूसरी
अति पर।
मनुष्य का मन
मध्य में कभी
भी खड़ा नहीं
होता। जैसे
घड़ी का
पेंडुलम इस
कोने से उस
कोने चला जाता
है, लेकिन
बीच में कभी
नहीं होता है।
ऐसे ही मनुष्य
का मन एक अति
से दूसरी अति
पर चला जाता
है। अब तक
इसने शरीर—
भोग की अति पर
जीआ, अब यह
शरीर—त्याग की
अति पर जीएगा।
और
यही हुआ। वह
राजकुमार जो
कभी बहुमूल्य
कालीनों के
नीचे नहीं चला
था,
जब और
भिक्षुओं के
साथ रास्ते पर
चलता, तो
सारे भिक्षु
राजपथ पर चलते,
वह
पगडंडियों पर
चलता, जिन
पर कांटे
होते!
जब
सारे भिक्षु
वृक्षों की
छाया में
बैठते, तब वह
धूप में खड़ा
होता। सारे
भिक्षु एक दिन
भोजन भी लेते—दिन
में एक बार।
वह एक दिन
उपवास रखता, एक दिन भोजन
लेता। छह
महीने में
उसने शरीर को
सुखा कर कांटा
बना दिया।
उसकी सुंदर
देह काली पड़
गई। उसके
पैरों में घाव
पड़ गए।
बुद्ध
छह महीने बाद
उसके पास गए
और उस भिक्षु को
कहा कि श्रोण! —
श्रोण उसका
नाम था—एक बात
मुझे पूछनी है।
मैंने सुना है, जब
तू राजकुमार
था, तो तू
वीणा बजाने
में बहुत कुशल
था। क्या यह
सच है? उस
भिक्षु ने कहा
हां। लोग कहते
थे, मुझ
जैसी वीणा
बजाने वाला और
कोई भी नहीं।
तो
बुद्ध ने कहा
फिर मैं एक
प्रश्न पूछने
आया हूं हो
सकता है तू
उत्तर दे सके।
मैं यह पूछता
हूं कि वीणा
के तार अगर
बहुत ढीले हों, तो
संगीत पैदा
होता है या
नहीं?
श्रोण
हंसने लगा।
उसने कहा.
कैसी बात
पूछते हैं! यह
तो बच्चे भी जानते
हैं कि वीणा
के तार बहुत
ढीले होंगे तो
संगीत पैदा
नहीं होगा, क्योंकि
ढीले तारों पर
टकार पैदा
नहीं हो सकती,
चोट नहीं की
जा सकती। ढीले
तार खींचे
नहीं जा सकते,
उनसे ध्वनि—तरंग
पैदा नहीं हो
सकती। ढीले तारों
से कोई संगीत
पैदा नहीं हो
सकता।
तो
बुद्ध ने कहा
और तार अगर
बहुत कसे हों?
तो
श्रोण ने कहा
बहुत कसे
तारों से भी
संगीत पैदा
नहीं होता।
क्योंकि बहुत
कसे तार छूते
ही टूट जाते
हैं।
तो
बुद्ध ने कहा
संगीत कब पैदा
होता है?
वह
श्रोण कहने
लगा संगीत तो
तब पैदा होता
है,
जब तार ऐसी
दशा में होते
हैं, जब न
तो हम कह सकते
हैं कि वे
बहुत कसे हैं
और न हम कह
सकते हैं कि
बहुत ढीले हैं।
एक तारों की
ऐसी' अवस्था
भी है, जब न
तो वे ढीले
होते और न कसे
होते। एक बीच
का बिंदु भी
है, एक
मध्य—बिंदु भी
है। संगीत तो
वहीं पैदा
होता है। और
कुशल
संगीतज्ञ
इसके पहले कि
गीत उठाए, तारों
को देख लेता
है कि तार
ढीले तो नहीं
हैं, तार
कसे तो नहीं
हैं।
तो
बुद्ध ने कहा
बस,
उत्तर मुझे
मिल गया। और
यही मैं तुझसे
कहने आया हूं।
जैसे तू वीणा
बजाने में
कुशल था, ऐसे
ही जीवन की
वीणा बजाने
में मैंने भी
कुशलता पाई है।
और जो वीणा का
नियम है, वही
जीवन— वीणा का
नियम भी है।
जीवन के तार
बहुत ढीले हों,
तो भी संगीत
पैदा नहीं
होता है और
बहुत कसे हों,
तो भी संगीत
पैदा नहीं
होता है। और
जो जीवन का
संगीत पैदा
करने चला हो, वह पहले देख
लेता है कि
तार बहुत कसे
तो नहीं हैं, तार बहुत
ढीले तो नहीं
हैं।
और
जीवन—वीणा
कहां है?
मनुष्य
के शरीर के
अतिरिक्त कोई
जीवन—वीणा
नहीं है। और
मनुष्य के
शरीर में कुछ
तार हैं, जो न
तो बहुत कसे
होने चाहिए और
न बहुत ढीले
होने चाहिए।
उस संतुलन में,
उस बैलेंस
में ही मनुष्य
संगीत की ओर
प्रविष्ट
होता है। उस
संगीत को
जानना ही
आत्मा को
जानना है। और
जब एक व्यक्ति
अपने भीतर के
संगीत को जान
लेता है, तो
वह आत्मा को
जान लेता है
और जब वह
समस्त के भीतर
छिपे संगीत को
जान लेता है, तो वह
परमात्मा को
जान लेता है।
तो
मनुष्य के
शरीर की इस
वीणा के तार
कहां—कहां हैं? पहली
तो बात, मस्तिष्क
में बहुत से
तार हैं, जो
बहुत कसे हुए
हैं। जो इतने
कसे हुए हैं
कि उनसे संगीत
पैदा नहीं हो
सकता। अगर
उनको कोई
छुएगा, तो
केवल
विक्षिप्तता
पैदा होती है
और कुछ भी पैदा
नहीं होता। और
हम सारे लोग
ही मस्तिष्क
के तारों को
बहुत कसे हुए
बैठे हैं।
चौबीस घंटे
कसे हुए हैं, सुबह से
लेकर सांझ तक।
और कोई सोचता
हो, रात भी
ढीले हो जाते
हों, तो
गलती में है।
रात भी हमारा
मस्तिष्क कसा
हुआ है और
खिंचा हुआ है।
पहले
तो हमें पता
नहीं था कि
आदमी के
मस्तिष्क में
रात क्या चलता
है?
अब तो
मशीनें ईजाद
कर ली गई हैं!
आप रात भर सोए
रहिए और आपका
मस्तिष्क
क्या कर रहा
है भीतर, यह
मशीन सब खबर
देती रहेगी!
अमरीका
में और रूस
में इस समय
कोई सौ
प्रयोगशालाएं
काम कर रही
हैं। आदमी
नींद में क्या
करता है, इसकी
जांच—पड़ताल के
लिए। कोई
चालीस हजार
लोगों के ऊपर
प्रयोग किए गए
हैं रात सोते
में। और जो
नतीजे मिले
हैं, वे
बड़े हैरानी के
हैं। वे नतीजे
ये हैं कि
आदमी दिन भर
जो करता है, रात भर भी
वही करता है।
दिन भर जो
करता है— अगर
दुकान दिन भर
चलाता है, तो
रात भर भी
दुकान चलाता
है। मस्तिष्क
अगर दिन भर
चिंता करता है,
तो रात भर
भी चिंता करता
है। अगर दिन
में क्रोध
करता है, तो
रात में भी
क्रोध करता है।
रात
प्रतिबिंब है
पूरे दिन का, प्रतिछाया
है, उसका
ही
रिफ्लेक्यान
है, उसकी
ही
प्रतिध्वनि
है। जो दिन भर
मन पर होता है,
रात उसके ही
प्रतिबिंब मन
पर गूंजते
रहते हैं। जो—जो
काम अधूरा रह
गया होता है, रात मन उसे
पूरा करने की
कोशिश करता है।
अगर किसी पर
क्रोध कम किया
है, क्रोध
अधूरा रह गया
है, अटका
हुआ रह गया है,
तो रात मन
उसे रिलीज
करता है। पूरे
क्रोध को करके
वीणा का तार
अपनी जगह बैठने
की कोशिश करता
है। अगर दिन
में कोई आदमी
उपवास किया है,
तो रात भोजन
कर लेता है
सपने में। दिन
में जो अधूरा
रह गया है, वह
रात पूरा होने
की कोशिश करता
है। तो जो हम
दिन में करते
हैं, वही
पूरे रात मन
करता है।
चौबीस
घंटे मन खिंचा
हुआ है। मन पर
कोई विश्राम
नहीं है। मन
के तार कभी भी
ढीले नहीं
होते। तो मन
के तार हैं
बहुत खिंचे
हुए—एक बात।
और दूसरी बात.
हृदय के तार
हैं बिलकुल
ढीले। हृदय के
तार हमारे कसे
हुए ही नहीं
हैं। प्रेम
जैसी चीज को
हम जानते हैं?
हम
क्रोध को
जानते हैं, हम
द्वेष को
जानते हैं, हम ईर्ष्या
को जानते हैं,
हम घृणा को
जानते हैं।
प्रेम जैसी
चीज को हम
जानते हैं? शायद हम
कहेंगे, हम
जानते हैं।
कभी—कभी हम
प्रेम करते
हैं। शायद हम
कहेंगे कि हम
घृणा भी करते
हैं, हम
प्रेम भी करते
हैं। लेकिन
क्या आपको पता
है, ऐसा
हृदय भी हो
सकता है क्या
जो घृणा भी
करे और प्रेम
भी करे? यह
वैसे ही है
जैसे हम कहें,
एक आदमी कभी—कभी
जिंदा भी होता
है और कभी—कभी
मुर्दा भी
होता है। यह
हमारे
विश्वास में
नहीं आएगी बात,
क्योंकि
आदमी या तो
जिंदा हो सकता
है या मुर्दा
हो सकता है।
ये दोनों
बातें साथ—साथ
नहीं हो सकतीं
कि एक आदमी
कभी जिंदा भी
हो और कभी
मुर्दा भी हो।
यह असंभव है।
यह संभव नहीं
है। या तो
हृदय घृणा को
ही जानता है
या प्रेम को
ही जानता है।
इन दोनों के
बीच कोई
समझौता नहीं
हो सकता।
क्योंकि जिस
हृदय में
प्रेम होता है,
उस हृदय में
घृणा असंभव हो
जाती है।
राबिया
नाम की एक
फकीर औरत थी।
राबिया के पास
एक दूसरा फकीर
आकर ठहरा।
राबिया जिस
धर्मग्रंथ को
पढ़ती थी, उसमें
उसने एक
पंक्ति को काट
दिया था, एक
लकीर उसने काट
दी थी।
धर्मग्रंथों
में कोई
पंक्तियां
काटता नहीं है,
क्योंकि
धर्मग्रंथों
में कोई सुधार
क्या करेगा?
वह
दूसरे फकीर ने
किताब पढ़ी और
उसने कहा कि
राबिया, किसी
ने तुम्हारे
धर्मग्रंथ को
नष्ट कर दिया,
यह तो
अपवित्र हो
गया, इसमें
एक लाइन कटी
हुई है, यह
किसने काटी है?
राबिया
ने कहा यह
मैंने ही काटी
है।
वह
फकीर बहुत
हैरान हो गया।
उसने कहा तूने
यह लाइन क्यों
काटी? उस
पंक्ति में
लिखा हुआ था
शैतान को घृणा
करो।
राबिया
ने कहा : मैं
मुश्किल में
पड़ गई हूं।
जिस दिन से
मेरे मन में
परमात्मा के
प्रति प्रेम
जगा है, उस
दिन से मेरे
भीतर घृणा
विलीन हो गई
है। मैं घृणा
चाहूं भी तो
नहीं कर सकती
हूं। और अगर
शैतान भी मेरे
सामने खड़ा हो
जाए, तो
मैं प्रेम ही
कर सकती हूं।
मेरे पास कोई
उपाय न रहा, क्योंकि
घृणा करने के
पहले मेरे पास
घृणा होनी
चाहिए।
मैं
आपको घृणा करूं, इसके
पहले मेरे
हृदय में घृणा
होनी चाहिए।
नहीं तो मैं
करूंगा कहां
से और कैसे? और एक ही
हृदय में घृणा
और प्रेम का
सह—अस्तित्व,
को—एक्सिस्टेंस
संभव नहीं है।
ये दोनों
बातें उतनी ही
विरोधी हैं, जितनी बातें
जीवन और
मृत्यु। ये
दोनों बातें
एक साथ एक ही
हृदय में नहीं
होती हैं।
तो
फिर हम जिसको
प्रेम कहते
हैं,
वह क्या है?
थोड़ी
कम जो घृणा है, उसे
हम प्रेम कहते
हैं। थोड़ी
ज्यादा जो
घृणा है, उसे
हम घृणा कहते
हैं। वह घृणा
की ही
मात्राएं हैं,
वह घृणा की
ही ग्रेडेशंस
हैं, वह
घृणा की ही
थोड़ी और
ज्यादा
अनुपात हैं।
प्रेम वहां
जरा भी नहीं
है। अनुपात से
भूल पैदा होती
है। अनुपात से
इसलिए भूल
पैदा होती है—
आप समझते
होंगे कि ठंड
और गर्मी दो
अलग चीजें हैं।
दोनों अलग
चीजें नहीं
हैं। गर्मी और
ठंड एक ही चीज
के अनुपात हैं।
वही चीज, अनुपात
गर्मी का कम
हो जाए, तो
ठंडी मालूम
होने लगती है।
वही चीज, अनुपात
गर्मी का बढ़
जाए, तो
गर्म मालूम
होने लगती है।
ठंड गर्मी का
ही एक रूप है।
ठीक विरोधी
मालूम होने
लगती हैं
दोनों चीजें कि
दोनों अलग—अलग
हैं, दुश्मन
हैं एक—दूसरे
की। दुश्मन
नहीं हैं, एक
ही चीज के घने
और गैर—घने
रूप हैं। ऐसे
ही घृणा को हम
जानते हैं।
घृणा
के ही कम घने
रूपों को हम
प्रेम समझ
लेते हैं और
घृणा के ही
तीव्र घने
रूपों को हम
घृणा समझ लेते
हैं। लेकिन
प्रेम घृणा का
कोई रूप ही
नहीं है।
प्रेम घृणा से
बिलकुल ही अलग
बात है। प्रेम
का घृणा से
कोई संबंध
नहीं है।
हमारा
हृदय और उसके
तार बिलकुल
ढीले हैं। उन
ढीले तारों से
कोई प्रेम का
संगीत पैदा नहीं
होता; न कोई
आनंद का संगीत
पैदा होता है।
जीवन
में आपने आनंद
को जाना है
कभी?
कह सकते हैं
किसी क्षण को
कि यह आनंद का
था और मैंने
आनंद पहचाना
और जाना? कठिन
है ईमानदारी
से यह कहना कि
मैंने कभी आनंद
जाना है।
कभी
प्रेम जाना है, यह
कहना भी कठिन
है। कभी शांति
जानी है, यह
कहना भी कठिन
है।
हम
क्या जानते
हैं?
हम अशांति
जानते हैं।
हां, अशांति
कभी—कभी कम
होती है
मात्रा में, उसी को हम
शांति समझ
लेते हैं। असल
में हम इतने
अशांत रहते
हैं कि अगर
अशांति थोड़ी
कम हो जाती है
तो शांति का
भ्रम देती है।
एक
आदमी बीमार है, थोड़ी
बीमारी कम
होती है, वह
कहता है, मैं
स्वस्थ हुआ, क्योंकि
बीमारी इतनी
घिरी है उसके
आस—पास कि
थोड़ी बीमारी
कम है तो उसे
लगता है मैं स्वस्थ
हूं। लेकिन
स्वास्थ्य और
बीमारी का
क्या संबंध है?
स्वास्थ्य
तो बात ही अलग
है!
स्वास्थ्य
तो बात ही अलग
है।
हममें
से बहुत कम
लोग ही
स्वास्थ्य को
जान पाते हैं, ज्यादा
बीमारी को
जानते हैं, कम बीमारी
को जानते हैं,
लेकिन
स्वास्थ्य को
नहीं जान पाते।
ज्यादा
अशांति को
जानते हैं, कम अशांति
को जानते हैं,
लेकिन
शांति को नहीं
जान पाते।
ज्यादा घृणा
को जानते हैं,
कम घृणा को
जानते हैं।
ज्यादा क्रोध
को जानते हैं,
कम क्रोध को
जानते हैं।
आप
शायद सोचते
होंगे कि कभी—कभी
क्रोध आता है।
झूठी है यह
बात। आप चौबीस
घंटे क्रोध
में होते हैं।
कभी ज्यादा
होते हैं, कभी
कम होते हैं।
चौबीस घंटे आप
क्रोध में हैं।
जरा सा मौका
मिल जाए और
क्रोध प्रकट
होना शुरू हो जाएगा।
मौके की तलाश
है, क्रोध
भीतर तैयार है,
सिर्फ ऑपरच्यूनिटी
की खोज है कि
कोई बाहर से
मौका दे दे।
क्योंकि बिना
मौके के अगर
आप क्रोध
करेंगे, तो
लोग आपको पागल
समझेंगे। अगर
आपको मौके न
दिए जाएं, तो
आप बिना मौके
के भी क्रोध
करना शुरू कर
देंगे, यह
आपको शायद पता
नहीं होगा।
अगर
एक आदमी को एक
कमरे में बंद
कर दिया जाए, सारी
सुविधाएं दे
दी जाएं और
उससे पूछा जाए
कि वह रोज इस
बात को नोट
करता रहे कि
क्या उसके चित्त
में बिना किसी
कारण के भी
फर्क पड़ते हैं?
और वह नोट
करेगा, उस
बंद कमरे में
कभी उसे अच्छा
लगने लगेगा, कभी उसे
बुरा लगने
लगेगा। कभी वह
उदास हो जाएगा,
कभी वह खुश
हो जाएगा। कभी
वह क्रोधित
अनुभव करेगा,
कभी
क्रोधित नहीं
अनुभव करेगा।
वहां कोई मौके
नहीं हैं, वहां
सब स्थिति
समान चल रही
है। लेकिन उसे
क्या हो रहा
है? और
इसीलिए एकांत
से आदमी डरता
है, क्योंकि
एकांत में
बाहर कोई
बहाना नहीं
होता और सब
चीजें भीतर ही
मान लेनी
पड़ेगी। कोई भी
आदमी एकांत
में रख दिया
जाए, छह
महीने से
ज्यादा
स्वस्थ नहीं
रह सकता, पागल
हो जाएगा।
एक
सम्राट ने
इजिप्त में यह
प्रयोग किया
था। किसी फकीर
ने उसको कहा
यह। उस सम्राट
ने कहा मैं
नहीं मानता
हूं। तो उस
फकीर ने कहा
कि तुम्हारे
नगर में कोई
सबसे स्वस्थ
आदमी हो, तो
उसे छह महीने
के लिए बंद कर
दो। नगर में
खोजा गया। एक
स्वस्थ युवक
जो सब तरह से
प्रसन्न था, नई शादी हुई
थी, एक
बच्चा था, ठीक
कमाता था, बहुत
मजे में था।
उसे पकड़वा
लिया गया। और
सम्राट ने
उससे कहा कि
तुम्हें हम
कोई कष्ट नहीं
देंगे। हम
सिर्फ एक
प्रयोग करते
हैं। और
तुम्हारे घर
के लोगों की
ठीक व्यवस्था
रहेगी— भोजन
की, कपड़ों
की, सब
इंतजाम रहेगा।
तुमसे अच्छा
इंतजाम रहेगा।
और तुम्हारे
लिए भी सब व्यवस्था
रहेगी। सिर्फ
छह महीने
तुम्हें
अकेले रहना
पड़ेगा।
एक
बड़े भवन में
उसको बंद कर
दिया। सारी
सुविधा जुटा
दी,
लेकिन
एकांत इतना था
कि जो आदमी भी
पहरे पर खड़ा
था, वह भी
उसकी भाषा
नहीं समझता था,
ताकि बोल न
सके वे आपस
में। दो—चार
दिन में ही वह
आदमी घबड़ाने
लगा। सब
सुविधा थी।
कोई कठिनाई न
थी। ठीक वक्त
पर भोजन मिलता
था, ठीक
वक्त पर सोने
मिलता था।
शाही महल था।
सब इंतजाम था।
कोई कठिनाई
नहीं थी, वह
जो करना चाहे
कर सकता था
बैठ कर वहां।
सिर्फ इतना था
कि किसी से
बात नहीं कर
सकता था, किसी
से मिल नहीं
सकता था। दो—चार
दिन में ही
बेचैनी शुरू
हो गई। आठ दिन
बाद वह
चिल्लाने लगा
कि मुझे बाहर
निकालो! मैं
यहां नहीं
रहना चाहता
हूं!
कौन
सी तकलीफ आ गई
थी?
भीतर से
तकलीफें आनी
शुरू हो गईं।
जिनको वह कल
तक समझता था, बाहर से आती
हैं, वे
अकेले में पता
चलीं कि भीतर
से आती हैं।
छह महीने होते—होते
वह आदमी पागल
हो गया। छह
महीने बाद जब
उसे निकाला
गया, वह
पूरा पागल हो
चुका था। वह
अपने से ही
बातें करने
लगा था। अपने
को ही गाली
देने लगा था।
अपने पर ही
क्रोध करने
लगा था। अपने
से ही प्रेम
करने लगा था।
अब कोई दूसरा
तो मौजूद नहीं
था। छह महीने
बाद वह पागल
की तरह बाहर
निकाला गया।
उसके ठीक हो
जाने में छह
साल लगे।
आपमें
से कोई भी
पागल हो जाएगा।
दूसरे लोग
मौका दे देते
हैं,
आप पागल
नहीं हो पाते।
आपको बहाना
मिल जाता है, इस आदमी ने
गाली दी है, इसलिए मैं
क्रोध से भर
गया हूं। कोई
आदमी किसी के
गाली देने से
क्रोध से नहीं
भरता है। भीतर
क्रोध मौजूद
है। गाली केवल
मौका बनती है,
उसके निकल
आने का। एक
कुएं में पानी
भरा हुआ है।
हम बाल्टी
डालते हैं, कुएं से
पानी निकल आता
है। अगर कुएं
में पानी न हो,
तो हम
बाल्टी कितनी
ही डालें, वहां
से कुछ निकलने
वाला नहीं है।
बाल्टी पानी
नहीं निकाल
सकती। बाल्टी
की क्या ताकत
है पानी
निकालने के
लिए? कुएं
में पानी होना
चाहिए। कुएं
में पानी है, तो बाल्टी
पानी निकाल
सकती है। कुएं
में पानी नहीं
है, तो
बाल्टी पानी
नहीं निकाल
सकती।
आपके
भीतर क्रोध
नहीं है, आपके
भीतर घृणा
नहीं है, दुनिया
की कोई ताकत
आपके भीतर से
क्रोध और घृणा
बाहर नहीं
निकाल सकती है।
वे जो बीच के
क्षण हैं, जब
कोई कुएं में
बाल्टी नहीं
डालता है, तब
यह भ्रम पैदा
हो सकता है कि
कुएं में पानी
नहीं है। जब
कोई डालता है
तब तो पानी
निकलता है, लेकिन जब
कोई बाल्टी नहीं
डालता है, कुआं
खाली पड़ा है, तो शायद हम
सोचते हों कि
कुएं में अब
पानी नहीं है,
तो हम गलती
में हैं। ठीक
ऐसे ही जब कोई
हमें मौका
नहीं देता है,
तो हमारे
भीतर क्रोध
नहीं निकलता,
घृणा नहीं
निकलती, द्वेष
नहीं निकलता,
तो इस खयाल
में न रहें कि
आपके कुएं में
पानी नहीं है।
कुएं में पानी
मौजूद है और
प्रतीक्षा कर
रहा है कि कोई
बाल्टी लेकर
आएगा और मैं
निकलूं।
लेकिन हमारे
भीतर ये जो
खाली मौके हैं,
इन्हीं को
हम समझ लेते
हैं प्रेम के,
शांति के
क्षण। यह झूठी
बात है।
गांधी
ने एक दफा कहा
कि दुनिया में
अब तक युद्ध
होता है, फिर
लोग कहते हैं,
शांति हो
जाती है।
लेकिन गांधी
ने कहा मेरी
समझ में ऐसा
नहीं आता। या
तो युद्ध होता
है या युद्ध
की तैयारी
चलती है, शांति
तो कभी नहीं
आती। शांति
धोखा है। जैसे
अभी दुनिया
में कोई युद्ध
नहीं हो रहा है।
दूसरा
महायुद्ध बंद
हो गया, अब
तीसरे
महायुद्ध की
हम प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
तो हम कहेंगे,
ये पीसफुल
डेज, ये
शांति के दिन
हैं। यह झूठी
बात है। ये
शांति के दिन
नहीं हैं। ये
तीसरे
महायुद्ध की
तैयारी के दिन
हैं। सारी
दुनिया में
तैयारी चल रही
है युद्ध की।
युद्ध होता है
या युद्ध की
तैयारी होती
है। अभी तक
दुनिया ने
शांति के कोई
दिन नहीं देखे।
आदमी
के भीतर भी
क्रोध होता है
या क्रोध की
फिर
तैयारियां
होती हैं, अक्रोध
की कोई अवस्था
आदमी नहीं
जानता।
अशांति होती
है, प्रकट
होती है या
तैयार होती है।
भीतर जो
तैयारी के
क्षण हैं, उनको
हम समझ लेते
हैं शांति के
क्षण, तो
हम भूल में पड़
जाते हैं।
हृदय
के तार बिलकुल
ढीले हैं।
उनसे क्रोध ही
पैदा होता है।
उनसे विकृति
पैदा होती है।
विसंगीत ही
पैदा होता है।
लेकिन उनसे
कोई संगीत
पैदा नहीं
होता।
मस्तिष्क के
तार हैं बहुत
खिंचे हुए, उनसे
पागलपन पैदा
होता है और
हृदय के तार
हैं बिलकुल ढीले,
उनसे क्रोध,
वैमनस्य, द्वेष, घृणा,
ये सब पैदा
होते हैं।
हृदय के तार
थोड़े कसे हुए
होना चाहिए, ताकि उनसे
प्रेम पैदा हो
सके और
मस्तिष्क के तार
थोड़े शिथिल
होना चाहिए, ताकि उनसे
विवेक पैदा हो
सके, विक्षिप्तता
नहीं। और अगर
ये दोनों तार
ठीक संतुलन
में आ जाएं, तो जीवन के
संगीत की
संभावना पैदा
हो सकती है।
तो
हम दो बातों
पर विचार
करेंगे। एक तो
कि मस्तिष्क
के तार कैसे
शिथिल किए जा
सकें और हृदय
के तार कैसे
तीव्र किए जा
सकें। हृदय के
तारों पर कैसे
कसाव लाया जा
सके और मस्तिष्क
के तारों को
कैसे शिथिल
किया जा सके, कैसे
रिलैक्स किया
जा सके, इन
दोनों बातों
पर विचार
करेंगे। और इन
दोनों की जो
साधना है, उसको
ही मैं ध्यान
कहता हूं। इन
दोनों की तरफ
जो साधना है, उसको ही मैं
मेडिटेशन
कहता हूं उसे
ही मैं ध्यान
कहता हूं।
और
ये दोनों
बातें अगर
पैदा हो जाएं
तो फिर तीसरी
बात पैदा हो सकती
है। वह जो
हमारा असली
केंद्र है
जीवन का—नाभि, उस
तक भी उतरना
संभव है।
इनमें संगीत
पैदा हो जाए
दोनों
केंद्रों पर तो
भीतर गति हो
सकती है। वह
संगीत ही नाव
बन जाता है
हमें और गहरे
ले जाने का।
जितना
संगीतपूर्ण
होता है
व्यक्तित्व, जितना भीतर
संगीत पैदा
होता है, उतने
ही हम गहरे
उतर सकते हैं।
और जितना भीतर
विसंगीत होता
है, उतना
ही हम उथले रह
जाते हैं, हम
बाहर रह जाते
हैं। आने वाले
दो दिनों में
इस बाबत विचार
करेंगे और न
केवल विचार
करेंगे
प्रयोग
करेंगे कि कैसे
हम इन दोनों
की वीणा को— ये
वीणा के तारों
को हम कैसे संतुलन
में ला सकें।
अभी
तो तीन बातें
मैंने कहीं, वे
खयाल में रख
लेने की हैं, ताकि आगे जो
बातें मैं
कहूंगा, उनसे
आप उनको जोड़
सकें। पहली
बात मनुष्य की
आत्मा न तो
मस्तिष्क से जुड़ी
है और न हृदय
से। मनुष्य की
आत्मा जुड़ी है
नाभि से।
मनुष्य के
शरीर में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण
बिंदु नाभि है।
वही केंद्र है,
वह शरीर के
ही मध्य में नहीं
है नाभि, जीवन
के भी मध्य
में वही है।
बच्चा पैदा भी
उससे ही होता
है और जीवन का
अंत भी नाभि
से ही होता है।
और जो लोग
जीवन के सत्य
में प्रवेश
करते हैं, उनके
लिए भी नाभि
ही द्वार बनती
है।
और
आज भी आपको
खयाल में नहीं
होगा कि दिन
भर आप श्वास
फेफड़ों से
लेते हैं, लेकिन
रात आपकी
श्वास नाभि से
चलनी शुरू हो
जाती है। दिन
भर आपका सीना
उठता—फैलता है,
लेकिन रात
जब आप सो जाते
हैं, आपका
पेट उठने—गिरने
लगता है। छोटे
बच्चे को आपने
श्वास लेते
देखा होगा, तो छोटे
बच्चों का
फेफड़ा ऊपर
नहीं उठता, पेट ऊपर
उठता हुआ
दिखाई पड़ेगा।
छोटे बच्चे
अभी नाभि के
ज्यादा करीब
हैं। जैसे—
जैसे आदमी बड़ा
होने लगता है,
वैसे—वैसे
उसकी श्वास
ऊपर से ही
वापस लौटने
लगती है और
नाभि तक उसके
कंपन बंद हो
जाते हैं।
अगर
आप रास्ते पर
जा रहे हैं, साइकिल
चला रहे हैं, या कार चला
रहे हैं और
एकदम से
एक्सीडेंट की
हालत आ जाए, तो आप हैरान
होंगे, आपको
पहली चोट नाभि
पर लगेगी—न
मस्तिष्क पर
लगेगी, न
हृदय पर लगेगी।
अगर एक आदमी
एकदम से आपके
ऊपर छुरा लेकर
आ जाए, तो
आपको पहला जो
कंपन होगा, वह नाभि पर
होगा और कहीं
भी नहीं होगा।
अगर अभी भी आप
घबड़ा जाएं
एकदम से, तो
पहला कंपन
नाभि पर होगा।
जीवन पर जब भी
संकट पैदा
होता है, तो
नाभि पर पहले
कंपन होते हैं,
क्योंकि
जीवन का
केंद्र नाभि
है। और कहीं
कंपन नहीं
होते। जीवन के
स्रोत वहां से
जुड़े हैं और
चूंकि नाभि पर
हमारा ध्यान
बिलकुल ही
नहीं रहा है, इसलिए आदमी
बिलकुल ही अधर
में लटका रह
गया है। नाभि
का केंद्र
एकदम अस्वस्थ
है, उस पर
ध्यान ही नहीं
है। उसके
विकास की भी
कोई व्यवस्था
नहीं है।
आप
हैरान होंगे
यह बात जान कर
कि नाभि का
केंद्र
विकसित होने
के लिए कुछ
व्यवस्था
होनी चाहिए।
जैसे हमने
मस्तिष्क को
विकसित करने
के लिए स्कूल
और कॉलेज बना
छोड़े हैं, वैसा
नाभि के
केंद्र को
विकसित करने
के लिए कुछ
व्यवस्था
अत्यंत जरूरी
है। और कुछ
बातें हैं
जिनसे नाभि का
केंद्र विकसित
होता है। कुछ
बातें हैं
जिनसे विकसित
नहीं होता है।
जैसे मैंने
कहा कि अगर भय
की स्थिति खड़ी
हो जाए, तो
सबसे पहले
नाभि कैप जाती
है। इसलिए जो
आदमी जितना
अभय की साधना
करेगा, उसकी
नाभि उतनी ही
स्वस्थ होती
चली जाती है।
जो
आदमी जितना
करेज, जितने
साहस की साधना
करेगा, उसकी
नाभि, उसका
केंद्र उतना
ही विकसित
होता है।
जितना अभय
बढ़ेगा, उतनी
नाभि मजबूत और
पुष्ट होगी और
जीवन से संबंध
गहरे होंगे।
इसलिए दुनिया
के सारे
महत्वपूर्ण
साधकों ने अभय
को, फियरलेसनेस
को साधक का
अनिवार्य गुण
माना है।
फियरलेसनेस
का और कोई
मूल्य नहीं है—
अभय का। अभय
का मूल्य है।
वह नाभि के
केंद्र को
पूरा जीवंत कर
देती है। उसके
सारे विकास को
पूरा खुल कर
प्रकट कर देती
है।
वह
हम धीरे—धीरे
बात करेंगे।
नाभि
के केंद्र पर
सर्वाधिक
ध्यान देना
आवश्यक है।
मस्तिष्क के
केंद्र से
ध्यान को धीरे—
धीरे हटाना
जरूरी है।
हृदय के
केंद्र से भी
धीरे— धीरे
ध्यान को
हटाना जरूरी
है,
ताकि वह
नीचे और डीपर
और डीपर, और
गहरे से गहरे
में प्रवेश हो
जाए। तो उसके
लिए दो प्रयोग
सुबह और
रात्रि हम ध्यान
के करेंगे।
सुबह का
प्रयोग मैं
आपको समझाता
हूं। फिर
पंद्रह मिनट
के लिए हम उस
प्रयोग के लिए
बैठेंगे और उस
प्रयोग को
करेंगे।
निश्चित
ही अगर
मस्तिष्क से
चेतना को नीचे
ले जाना है, तो
मस्तिष्क को
बिलकुल शिथिल
छोड़ देना जरूरी
है, रिलैक्स
छोड़ देना
जरूरी है। हम
मस्तिष्क को
खींचे रहते
हैं पूरे वक्त।
खयाल ही भूल
गया है कि हम
खींचे हुए चले
जा रहे हैं।
पूरा टेंस किए
हुए हैं माइंड
को, पूरा
खिंचे हुए हैं,
यह खयाल में
नहीं है। तो
पहले उसे
शिथिल छोड़
देना जरूरी है।
तो
अभी हम जब
ध्यान के लिए
बैठेंगे, तो
उसमें तीन
बातें हैं।
पहली
बात पूरे
मस्तिष्क को
बिलकुल ऐसे
शिथिल छोड़
देना है, इतना
शांत और ढीला
छोड़ देना है, जैसे आप कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं।
लेकिन आपको
कैसे समझ में
आएगा कि आपने
शिथिल छोड़
दिया? आपको
कैसे खयाल में
आएगा कि मैंने
शिथिल छोड़ दिया?
अगर मैं इस
मुट्ठी को जोर
से खींचूं तो
मुझे पता चलता
है कि सारी
नसें खिंची
हुई हैं। फिर
मैं इसे ढीला
छोड़ दूं तो
मुझे पता
चलेगा कि सारी
नसें ढीली छूट
गई हैं।
और
चूंकि हमारा
मस्तिष्क
पूरे वक्त ही
खींचा हुआ है, इसलिए
हमें पता ही
नहीं चलता है
कि खींचा हुआ होना
क्या है और
ढीला हो जाना
क्या है। तो
एक काम करेंगे—
पहले
मस्तिष्क को
जितना खींच
सकेंगे, खींच
लेंगे। जितना
मस्तिष्क के
सारे
स्नायुओं को
खींच सकें, पूरा खींच
लेंगे। जितना
टेंस कर सकें,
कर लेंगे।
फिर एकदम से
ढीला छोड़ेंगे।
तो आपको पता
चलेगा कि
खिंचा हुआ
होना और ढीले होने
में, दोनों
में क्या फर्क
है!
तो
अभी जब हम
ध्यान के लिए
बैठेंगे, तो
एक मिनट के
लिए जितना
मस्तिष्क को
आप खींच सकें,
जितना तनाव
दे सकें, उतना
खींच लेंगे और
फिर मैं
कहूंगा कि अब
ढीला छोड़ दें,
तो आप
बिलकुल ढीला
छोड़ देंगे। और
वह आपको पता
चल जाएगा कि
क्रमश: कैसा
खिंचा होना
क्या है और
ढीला हो जाना
क्या है। यह
आपको फील होना
चाहिए, वह
आपको अनुभव
में आ जाना
चाहिए, तो
फिर धीरे—
धीरे आप ढीला
और ढीला छोड़ने
में समर्थ हो
जाएंगे।
तो
पहला काम है, मस्तिष्क
को बिलकुल
ढीला छोड़ देना।
मस्तिष्क के
साथ ही पूरे
शरीर को भी
ढीला छोड़ देना
है। इतने आराम
से बैठ जाना
है, जिससे
शरीर पर कहीं
भी कोई जोर न
पड़े, कहीं
कोई भार न पड़े।
फिर आप क्या
करेंगे? जैसे
ही आप सब ढीला
छोड़ देंगे—पक्षी
बोल रहे हैं, यह कहीं
पनचक्की की
आवाज हो रही
है, कहीं
कोई कौआ
बोलेगा, कहीं
कोई और आवाज
होगी, ये
सब आवाजें
आपको सुनाई
पड़नी शुरू हो
जाएंगी।
क्योंकि
मस्तिष्क
जितना शिथिल
होगा उतना सेंसिटिव
हो जाएगा, उतना
संवेदनशील हो
जाएगा। एक— एक
चीज सुनाई
पड़ने लगेगी। आपको
अपने हृदय की
धड़कन भी सुनाई
पड़ने लगेगी।
श्वास का आना—जाना
भी सुनाई पड़ने
लगेगा, अनुभव
होने लगेगा।
फिर
चुपचाप बैठ कर, यह
सब चारों तरफ
हो रहा है, उसे
चुपचाप अनुभव
करना है, और
कुछ भी नहीं
करना है। आवाज
सुनाई पड़ रही
है, उसे
चुपचाप सुनना
है। पक्षी
बोलेगा, उसे
चुपचाप सुनना
है। भीतर
श्वास चल रही
है, उसे
चुपचाप देखते
रहना है, और
कुछ भी नहीं
करना है। आपको
अपनी तरफ से
कुछ भी नहीं
करना है।
क्योंकि आपने
अपनी तरफ से
कुछ भी किया
कि मस्तिष्क
खिंचना शुरू
हो जाएगा।
आपको
तो एक
रिलैक्सड
अवेयरनेस में, एक
शिथिल
जागरूकता में बैठे
रहना है। सब
हो रहा है, आप
चुपचाप सुन
रहे हैं। और
आप हैरान हो
जाएंगे, जैसे
ही आप शांति
से सुनेंगे, वैसे ही और
गहरी शांति
भीतर उतरनी
शुरू हो जाएगी।
जितने आप गहरे
से सुनेंगे, उतनी और
गहराई भीतर
बढ़ती चली
जाएगी। एक दस
मिनट में ही
आप पाएंगे कि
आप एक शांति के
अदभुत केंद्र
बन गए हैं।
सारी चीज शांत
हो गई है।
तो
यह हम सुबह का
पहला प्रयोग
करेंगे। पहली
बात मस्तिष्क
को खींचेंगे
आप पूरी तरह से।
जब मैं कहूंगा, पूरे
मस्तिष्क को
खींच लें, तो
आख बंद करके
पूरे
मस्तिष्क को
जितना आप खींच
सकते हैं, जितना
टेंस कर सकते
हैं, उतना
टेंस कर लेंगे।
फिर मैं
कहूंगा, छोड़
दें ढीला, तो
एकदम से ढीला
छोड़ देंगे, फिर ढीला
छोड़ते चले
जाएंगे।. .उसी
तरह शरीर को
ढीला छोड़
देंगे। आख बंद
रहेगी।
चुपचाप बैठे
हुए जो भी
आवाजें सुनाई
पड़ रही हैं, उन्हें
चुपचाप सुनते
रहेंगे। दस
मिनट केवल
चुपचाप सुनते
रहना है, और
कुछ भी नहीं
करना है। और
इन्हीं दस
मिनट में पहली
दफा आपको लगना
शुरू होगा कि
भीतर कोई शांत—
धारा बहनी
शुरू हो जाती
है। और प्राण
नीचे की तरफ
उतरने शुरू हो
जाएंगे।
मस्तिष्क से
वे नीचे की
तरफ डूबने
शुरू हो जाएंगे।
…….क्योंकि
थोड़ी दूर—दूर
बैठना पड़ेगा।
बिलकुल पास
नहीं बैठना है।
कोई किसी को
छुएगा नहीं।
हां— हां, यह
पीछे लीन पर आ
जाएं। जो लोग
परिचित हैं
सुबह के ध्यान
से, पहले
शिविरों में
आए हैं, वे
तो पीछे यहां
लीन पर आ जाएं,
ताकि जो लोग
नये हैं वे
सुन सकें।
उनको मुझे कुछ
कहना हो, सूचना
देनी हो तो
सुनाई पड़ जाए।
जो लोग भी
परिचित हैं वे
यहां पीछे आ
जाएं। जो भी
परिचित हैं वे
पीछे चले जाएं,
ताकि नये
लोग यहां बैठ
जाएंगे। ही, पुराने
मित्र तो पीछे
चले जाएं, नये
मित्र थोड़े
आगे आ जाएं।
कुछ लोग यहां
ऊपर आ जाएं, कुछ यहां
पीछे आ जाएं, ताकि सुनाई
आपको पड़ सके।
कोई किसी को
छूता हुआ नहीं
बैठेगा। कोई
किसी को छुए
नहीं। हूं उधर
तुम लोग तो छू
रही हो एक—दूसरे
को, थोड़ा—
थोड़ा हटो।
थोड़ा आगे हट
आओ, यह रेत
पर बैठ जाओ।
थोड़ा आगे हट
आओ।
तो
सबसे पहले तो
आख धीरे से
बंद कर लें।
बहुत धीरे से
आख बंद करनी
है। आख पर भी
जोर नहीं पड़ना
चाहिए कि आप
उसे खींच कर
बंद कर लें।
पलक को धीरे
से छोड़ दें।
धीरे से छोड़
दें,
आख पर भी
कोई भार न हो।
आख बंद कर लें।
ही, आख बंद
कर लें, धीरे
से आख बंद कर
लें।
अब
सारे शरीर को
ढीला छोड़ दें।
सिर्फ
मस्तिष्क को
खींचें।
जितना आप
मस्तिष्क को
तनाव दे सकें, जितना
तनाव, जितना
खींचना कर
सकें, पूरे
मस्तिष्क को
खींच लें।
अपने भीतर
पूरे
मस्तिष्क को
जोर से टेंस
कर लें। सारा
मस्तिष्क
खिंच जाए
जितनी आपकी
ताकत हो। खींच
लें पूरी ताकत
से, सारे
शरीर को ढीला
छोड़ दें, सारी
ताकत
मस्तिष्क पर
लगा दें कि
मस्तिष्क बिलकुल
खिंच गया।
जैसे मुट्ठी
बंद हो गई हो
और सारे
स्नायु खिंच
जाएं। एक मिनट
तक पूरी तरह
खींचे रहें।
उसको ढीला न
छोड़ने दें, पूरा खींच
लें। और जितना
खींच सकें
खींच लें।
मस्तिष्क को
भीतर पूरी तरह
खींच लें।
खिंचे रहें।
खींच लें पूरी
ताकत से, पूरे
क्लाइमेक्स
पर। जितनी आपकी
ताकत हो, मस्तिष्क
को उतना पूरा
तनाव दे दें, ताकि जब वह
शिथिल हो तो
पूरा शिथिल भी
हो सके। ठीक
है! खींच लें......!
ठीक
है! अब एकदम से
ढीला छोड़ दें।
बिलकुल ढीला
छोड़ दें।
मस्तिष्क को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। सारा
खिंचाव छोड़
दें। एक
शिथिलता भीतर
आनी शुरू हो
जाएगी। मालूम
पड़ेगा भीतर
कोई चीज छूट
गई,
कोई तनाव
विलीन हो गया,
चीज शांत हो
गई है। बिलकुल
ढीला छोड़ दें,
अब सब ढीला
छोड़ दें...। और
चारों तरफ जो
भी आवाज है—हवाएं
पत्तों को
हिलाएगी, कोई
पक्षी बोलेगा—
चुपचाप मौन
बैठ कर सारी
आवाजों को
सुनते रहें।......सिर्फ
सुनते रहें। बाहर
की सारी
आवाजों को
सुनते रहें।
सुनते ही
सुनते मन और
शांत होगा, शांत होता
जाएगा।
सुनें..
.चुपचाप सुनते
रहें, बिलकुल
रिलैफ्ल, बिलकुल
शिथिल। सुनते
रहें.. .दस मिनट
के लिए चुपचाप
सुनते रह जाएं।.
.सुनते रहें, सुनते—सुनते
ही मन शांत
होता जाता है।
चुपचाप सुनते रहें,
सुनते ही
सुनते मन शांत
होता जाएगा।
भीतर एक शांति
अपने आप उतरनी
शुरू हो जाएगी।
आप सिर्फ
सुनें.. .सुनते
रहें.. .मन शांत
होता चला जा
रहा है.. .मन
एकदम शांत
होता जाएगा..
.मन शांत हो
रहा है...।
मौन
सुनते जाएं, मन
शांत हो रहा
है.. मन शांत हो
रहा है. मन
एकदम गहरे और
शांत होता
जाएगा। कोई
चीज गहरे और
गहरे डूबती
चली जाएगी।
चेतना नीचे
उतरेगी और
शांत होती
जाएगी।...
मन
शांत हुआ है...
अब धीरे— धीरे
दो—चार गहरी
श्वास लें...
धीरे— धीरे
गहरी श्वास
लें..
.प्रत्येक
श्वास के साथ शांति
और बढ़ती हुई
मालूम पड़ेगी।
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें.......फिर बहुत
आहिस्ता से आख
खोलें.. .जैसी
शांति भीतर
मालूम हुई
वैसी ही बाहर
भी दिखाई देगी।
धीरे— धीरे आख
खोल कर एक
मिनट चुपचाप
आख खोल कर
बैठे रहें...
धीरे— धीरे आख
खोल लें...।
यह तो
प्रयोग हमने
समझने के लिए
किया। दोपहर
में कहीं भी
एकांत में बैठ
जाएं और इस प्रयोग
को ठीक से
करें। यह
सिर्फ समझने
के लिए हमने
यहां प्रयोग
किया कि आपकी
समझ में आ जाए
कैसे करना है।
दोपहर में
किसी भी वृक्ष
के नीचे जाकर
बैठ जाएं, या
रात में अकेले
में चुपचाप और
इस प्रयोग को पूर्णता
से करें। वहां
ठीक—ठीक गहराई
में उतरना
संभव हो पाएगा।
तीन दिन अगर
ठीक से मेहनत
करेंगे, तो
ऐसा असंभव है
कि तीन दिन
में कोई गहराई
उपलब्ध न हो।
वह निश्चित
उपलब्ध होती
है। तो अलग
बैठ कर एकांत
में जाकर
प्रयोग को
करें।
सुबह की
बैठक समाप्त
हुई।
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